अध्याय—11
सूत्र—(138)
अदृष्टपूर्व
हषितोउस्मि
दष्टवा भयेन च
प्रव्यथितं
मनो मे।
तदेव मे
दर्शय
देवरूयं
प्रसीद देवेश
जगन्निवास।। 45।।
किरीटिनं
गदिनं
चक्रहस्तमिच्छामि
त्वां द्रकुमहं
तथैव।
तेनैव
रूपेण
चतुर्भुजेन
सहसबाहो भव
विश्वमूर्ते।।
46।।
श्रीभगवानुवाच:
मया
प्रसन्नेन
तवार्जुनेदं
रूपं परं
दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमय
विश्वमनन्तमाद्य
यन्धे
त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।
47।।
न
वेदयज्ञाध्ययनैर्न
दानैर्न न
क्रियाभिर्न
तयोभिरुग्रै।
एवंरूक
शक्य अहं
नृलोके
द्रझुं
त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।
48।।
हे
विश्वमूर्ते
मैं पहले न
देखे हुए
आश्चर्यमय
आपके इस रूप
को देखकर
हर्षित हो रहा
हूं और मेरा
मन भय से अति
व्याकुल भी हो
रहा है। हसलिए
हे देव आय उस
अपने चतुर्भुज
रूप को ही
मेरे लिए
दिखाइए। हे
देवेश हे
जगन्निवास
प्रसन्न होइए।
और हे
विष्णो मैं
वैसे ही आपको
मुकुट धारण
किए हुए तथा
गदा और चक्र
हाथ में लिए
हुए देखना
चाहता हूं।
इसलिए हे
विश्वरूप हे
सहस्त्रबाहो
आप उस ही चतुर्भुज
रूप से युक्त
होइए।
हस
प्रकार
अर्जुन की
प्रार्थना को
सुनकर
श्रीकृष्ण
भगवान बोले हे
अर्जुन
अनुग्रहपूर्वक
मैने अपनी
योगशक्ति के
प्रभाव से यह
मेरा परम
तेजोमय सबका
आदि और
सीमारहित
विराट रूप
तेरे को दिखाया
है जो कि तेरे
सिवाय दूसरे
से पहले नहीं
देखा गया।
हे
अर्जुन
मनुष्य— लोक
में इस प्रकार
विश्वरूप
वाला मैं न
वेद के अध्ययन
से न यह से तथा
न दान से और न
क्रियाओं से
और न उग्र तपो
से ही तेरे
सिवाय दूसरे
से देखा जाने
को शक्य है।
एक
मित्र ने पूछा
है :
ओशो, भगवान
कृष्ण के
विकारल स्वरूप
में अर्जुन
देवताओं को
कंपित होते हुए
देखता है
अन्यों को
मृत्यु की ओर
जाते हुए
देखता है।
लेकिन क्या
उसने अपने
आपको इस
विकराल रूप
में नहीं देखा? और अगर अपने
आपको भी देखा,
तो उसका
उल्लेख क्यों
नहीं किया गया
है? और अगर
नहीं देखा, तो क्यों?
यह प्रश्न
कीमती है और
बहुत सोचने
योग्य।
कोई भी
व्यक्ति अपनी
मृत्यु नहीं
देख सकता। मृत्यु
सदा दूसरे की
ही देखी जा
सकती है। क्योंकि
मृत्यु बाहर
घटित होती है, भीतर तो
घटित होती ही
नहीं। समझें।
आपने
जब भी मृत्यु
देखी है, तो किसी और
की देखी है।
आपकी मृत्यु
की जो धारणा
है, वह
दूसरों को
मरते देखकर
बनी है। ऐसा
नहीं है कि आप
बहुत बार नहीं
मरे हैं। आप
बहुत बार मरे
हैं। लेकिन जो
भी आपकी मृत्यु
की धारणा है, वह दूसरे को
मरते हुए
देखकर आपने
बनाई है।
जब
दूसरा मरता है, तो आप
बाहर होते
हैं। शरीर
निस्पंद हो
जाता है।
श्वास बंद हो
जाती है। हृदय
की धड़कन
समाप्त हो
जाती है। खून
चलता नहीं।
आदमी बोल नहीं
सकता। निष्प्राण
हो जाता है।
लेकिन भीतर जो
था, वह तो
कभी मरता
नहीं।
और
आदमी अपनी मौत
कैसे देख सकता
है! इसलिए भीतर
जो मर रहा है, वह नहीं
देख सकता कि
मैं मर रहा
हूं। वह तो अब
भी पाएगा कि
मैं जी रहा
हूं। अगर होश
में है, तो
उसे दिखाई
पड़ेगा कि मैं
जी रहा हूं।
अगर बेहोश है,
तो खयाल में
नहीं रहेगा।
हम
बहुत बार मरे
हैं, लेकिन
बेहोशी में
मरे हैं।
इसलिए हमें
कोई खयाल नहीं
है। हमें कुछ
पता नहीं है
कि मृत्यु में
क्या घटा। अगर
एक बार भी हम
होश में मर
जाएं, तो
हम अमृत हो
गए। क्योंकि
तब हम जान
लेंगे कि बाहर
ही सब मरता
है। जो मेरा
समझा था, वह
टूट गया, बिखर
गमा, शरीर
नष्ट हो गया।
लेकिन मैं!
मैं अब भी
हूं।
कोई
व्यक्ति कभी
स्वयं की
मृत्यु का
अनुभव नहीं
किया है। जो
लोग बेहोश
मरते हैं, उन्हें
तो पता ही
नहीं चलता कि
क्या हुआ। जो
लोग होश से
मरते हैं, उन्हें
पता चलता है
कि मैं जीवित
हूं। जो मरा, वह शरीर था, मैं नहीं
हूं।
इसलिए
ऐसा सोचें, और तरह
से। अगर आप
कल्पना भी
करें अपने
मरने की, तो
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
अनुभव को छोड़
दें। कल्पना
तो झूठ की भी
हो सकती है।
और आपने सुना होगा,
कल्पना तो
किसी भी चीज
की हो सकती
है। कल्पना ही
है। लेकिन आप
अपने मरने की
कल्पना करें,
तब आपको पता
चलेगा, वह
नहीं हो सकती।
आप कुछ भी
उपाय करें, अपने शरीर
को मरा हुआ
देख लेंगे।
लेकिन आप देखने
वाले बाहर
जिंदा खड़े
रहेंगे, कल्पना
में भी! कितना
ही सोचें कि
मैं मर गया, कैसे मरिका!
कल्पना में भी
नहीं मर सकते।
क्योंकि वह जो
सोच रहा है, वह जो देख
रहा है, कल्पना
जिसे दिखाई पड़
रही है, वह
साक्षी बना
हुआ जिंदा
रहेगा। असली
में तो मरना
मुश्किल है, कल्पना में
भी मरना
मुश्किल है।
लोग कहते हैं,
कल्पना
असीम है।
कल्पना असीम
नहीं है। आप
मृत्यु की
कल्पना करें,
आपको पता चल
जाएगा, कल्पना
की भी सीमा
है।
इसलिए
अर्जुन सबको
तो देखता है
मृत्यु के मुंह
में जाते, स्वयं को
नहीं देखता।
स्वयं को कोई
भी नहीं देख
सकता। अगर
अर्जुन स्वयं
को भी मृत्यु
में जाते देखे,
तो देखेगा
कौन फिर मे जो
मृत्यु में जा
रहा है वह अलग
हो जाएगा, और
जो देख रहा है
वह अलग हो जाएगा।
अगर अर्जुन
देख रहा है
मृत्यु में
जाते, तो
अर्जुन का
शरीर भला चला
जाए मृत्यु
में, अर्जुन
नहीं जा सकता,
वह बाहर खड़ा
रहेगा। वह
देखने वाला
है।
वह जो
आत्मा है, उसे हमने
इसीलिए
द्रष्टा कहा
है। वह सब
देखता है। वह
मृत्यु को भी
देख लेता है।
इसलिए
अर्जुन को
खयाल नहीं
आया। आने का
कोई उपाय भी
नहीं है। वह
बाहर है, वह देखने
वाला है। और
सब मर रहे हैं—
मित्र भी, शत्रु
भी, बड़े—बड़े
योद्धा—लेकिन
अर्जुन को
खयाल भी नहीं
आ रहा कि मैं
मर रहा हूं या
मैं मर
जाऊंगा।
इसलिए
बड़े मजे की
बात है, आप रोज
लोगों को मरते
देखते हैं, आपको भय भी
पकड़ता है, लेकिन
आप विचार करें,
कभी भीतर यह
बात मजबूती से
नहीं बैठती है
कि मैं मर
जाऊंगा। ऊपर—ऊपर
कितना ही
भयभीत हो जाएं
कि मरना पड़ेगा,
लेकिन भीतर
यह बात घुसती
नहीं कि मैं
मर जाऊंगा।
भीतर यह भरोसा
बना ही रहता
है कि और लोग
ही मरेंगे, मैं नहीं
मरूंगा।
यह
भरोसा
प्रतिफलन है
उस गहरे आतरिक
केंद्र का, जहां
मृत्यु कभी
प्रवेश नहीं
करती। उसके
बाहर—बाहर ही
मृत्यु घटित
होती है। आपका
घर आपसे छीना
जाता है बहुत
बार। आपके
वस्त्र आपसे
छीने जाते हैं
बहुत बार, जीर्ण—शीर्ण
हो जाते हैं, व्यर्थ हो
जाते हैं, नये
वस्त्र मिल जाते
हैं। लेकिन
आप! आप कभी भी
नष्ट नहीं
होते। इसलिए
अपनी मृत्यु
की कल्पना
असंभव है।
अपनी मृत्यु
का दर्शन भी
असंभव है। और
जो अपनी मृत्यु
का दर्शन करने
की कोशिश कर
लेता है, वह
अमृत का अनुभव
कर लेता है।
समस्त
ध्यान की
प्रक्रियाएं
अपनी मृत्यु
का अनुभव करने
की कोशिश हैं।
सब
प्रक्रियाएं, योग की
सारी चेष्टा
इस बात की है
कि आप होशपूर्वक
अपने को मरता
हुआ देख लें।
क्या
होगा? सब
मर जाएगा, आप
बच जाएंगे।
रमण को
ऐसा हुआ कि
उन्हें लगा कि
उनकी मृत्यु आ
रही है। वे
बीमार हैं, उनकी
मृत्यु आ रही
है। और जब
मृत्यु आ ही
रही है, तो उससे
लड़ना क्या, हाथ—पैर
ढीले छोड्कर
वह लेट गए।
उन्होंने कहा,
ठीक है। जब
मृत्यु आ रही
है, तो आ
जाए। मैं
मृत्यु को भी
देख लूं कि
मृत्यु क्या
है!
सब
शरीर ठंडा हो
गया। ऐसा लगने
लगा कि शरीर
अलग हो गया।
लेकिन सब शरीर
मरा हुआ मालूम
पड़ रहा है, फिर भी
रमण को लग रहा
है, मैं तो
जिंदा हूं।
वही अनुभव
उनके जीवन में
क्रांति बन
गया। उसके
पहले वे रमण
थे, उसके
बाद वे भगवान
हो गए। उसके
पहले तक
उन्होंने
जाना था, मैं
यह शरीर हूं
जो मरेगा।
इसके बाद
उन्होंने जाना
कि यह शरीर
मैं नहीं हूं।
जो नहीं मरेगा,
वह मैं हूं।
सारा
तादात्म्य बदल
गया। सारी
दृष्टि बदल
गई। एक नये
जन्म की— अमृत,
एक नये जीवन
की शुरुआत हो
गई।
योग की
सारी
प्रक्रियाएं
आपको
स्वेच्छा से मरने
की कला सिखाने
की हैं।
पुराने
शास्त्रों में
कहा है, आचार्य, गुरु,
मृत्यु है।
क्योंकि जिस
गुरु के पास
आपको मृत्यु
का अनुभव न हो
पाए, वह
गुरु ही क्या!
लेकिन
मृत्यु का
अनुभव बड़ा
विरोधाभासी
है। एक तरफ जो
भी आपने अपने
को समझा था—
नाम, धाम,
पता—ठिकाना,
शरीर—सब मर
जाता है। और
जो आपने कभी
नहीं सोचा था
आपके भीतर, एक ऐसे
केंद्र का
आविर्भाव हो
जाता है, जिसकी
मृत्यु का कोई
उपाय नहीं है,
जो अमृत है।
अर्जुन
को इसलिए
अनुभव नहीं
हुआ। और आपको
भी तभी तक
मृत्यु का भय
है, जब
तक आपने अनुभव
नहीं किया है।
आपके भीतर क्या
मरणधर्मा है
और क्या अमृत
है, इसका
भेद ही ज्ञान
है। आपके भीतर
क्या—क्या मर
जाने वाला है
और क्या—क्या
नहीं मरने
वाला है, इसकी
भेद—रेखा को
खींच लेना ही
ज्ञान है।
समाधि में वही
भेद—रेखा खिंच
जाती है। आप
दो हिस्सों
में साफ हो जाते
हैं।
एक
आपकी खोल है, जो मरेगी,
क्योंकि वह
जन्मी है। जो
जन्मा है, वह
मरेगा। और एक
आपके भीतर की
गिरी है, जो
नहीं मरेगी, क्योंकि वह
जन्मी भी नहीं
है। शरीर का
जन्म है, आपका
कोई जन्म नहीं
है। शरीर का
जन्म है, शरीर
की मृत्यु है।
जो आपको मां—बाप
से मिला है
शरीर, वह
मरेगा। लेकिन
जो आप हैं, उसके
मरने का।? कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
ऐसा विश्वास
करके मत बैठे
रहना। विश्वास
करने की हमारी
बड़ी जल्दी
होती है। और
मतलब की बात
हो, इच्छा
के।। अनुकूल
हो, हम
जल्दी
विश्वास कर
लेते हैं। हम
सब चाहते हैं
कि। न मरें, इसलिए आत्मा
अमर है, इसमें
विश्वास करने
के लिए हमें
बहुत तर्क की जरूरत
नहीं पड़ती।
हमारा भय ही
काफी तर्क हो
जाता है। कोई
भी हमसे कहे, आत्मा अमर
है, हमारा
दिल बड़ा खुश
होता! है कि
चलो, मरेंगे
नहीं। इस पर
विश्वास कर
लेने में
जल्दी कर देते
हैं लोग।
जल्दी मत
करना।
विश्वास से
कुछ हल न
होगा। अनुभव।
ही एकमात्र हल
है।
मैं
कहता हूं इससे
मान मत लेना। कृष्ण
कहते हैं, इससे मत
मान लेना।
बुद्ध कहते
हैं, इससे
मत मान लेना।
उनके कहने से
सिर्फ प्रयोग करने
के लिए तैयार
होना है, मान
मत लेना। इतना
ही समझना कि
कहते हैं ये
लोग, प्रयोग
करके हम भी
देख लें। और
अगर अनुभव मिल
जाए, तो ही
मानना, अन्यथा
मत मानना।
नहीं
तो हमारी हालत
ऐसी है कि
बिना अनुभव के
हम माने चले 1
जाते हैं।
बिना अनुभव के
जो मान्यता है, वह ऊपर—ऊपर
होगी, थोथी
होगी, कागजी
होगी, जरा—सी
वर्षा होगी और
बह जाएगी, टिकने
वाली नहीं है।
ऊपर—ऊपर की जो
मान्यता है, वह मृत्यु
में आपको सजग
न रख पाएगी, आप बेहोश हो
जाएंगे।
डाक्टर
तो अब
एनेस्थेसिया
का प्रयोग
करते हैं बड़ा
आपरेशन करना
हो तो। लेकिन
मृत्यु सबसे
बड़ा आपरेशन है।
क्योंकि आपका
समस्त शरीर—संस्थान
आपसे अलग किया
जाता है।
इसलिए प्रकृति
भी उसे होश
में नहीं कर
सकती।
प्रकृति भी आपको
बेहोश कर देती
है, मरने
के पहले आप
बेहोश हो जाते
हैं।
वह
इतना बड़ा
आपरेशन है, उससे बड़ा
कोई आपरेशन
नहीं है। कोई
डाक्टर एक हड्डी
अलग करता है, कोई डाक्टर
दो हड्डी अलग।
करता है, कोई
हृदय को बदलता
है। लेकिन
पूरा संस्थान,
आपका। पूरा
शरीर मृत्यु
अलग करती है
आपसे। वह गहरे
से गहरी
सर्जरी है।
उसमें आपको
बेहोश कर देना
एकदम जरूरी
है। इसलिए मौत
के पहले आप
बेहोश हो जाते
हैं। अगर मौत
में होश रख
पाएं, तो
आपको पता चल
जाएगा कि आपकी
कोई मृत्यु
नहीं है।
ध्यान
जो साधता है, वह धीरे—
धीरे मौत में
भी होश रख
पाता है।
क्योंकि मरने
के पहले बहुत
बार वह अपने
को शरीर से
अलग करके देख
लेता है।
कठिन
नहीं है। अगर
प्रयोग करें, तो सरल
है। अगर मानते
ही रहें, तो
बहुत कठिन है।
अगर प्रयोग
करें, तो
बहुत सरल है।
क्योंकि आप
अलग हैं ही।
सिर्फ थोड़े से
होश को बढ़ाने
की जरूरत है
भीतर। आंख बंद
करके भीतर देखने
की क्षमता
विकसित करने
की जरूरत है।
लेकिन
मौत तो बहुत
दूर है। आप
अपनी नींद को
भी नहीं देख
पाते, तो
मौत को कैसे
देख पाएंगे? आप रोज सोते
हैं शाम।
जिंदगी में
साठ साल
जीएंगे, तो
बीस साल सोने
में
बिताएंगे।
छोटा—मोटा काम
नहीं है नींद,
एक तिहाई
जिंदगी उसमें
जाती है। बीस
साल आप सोते
हैं, अगर
साठ साल जिंदा
रहते हैं।
लेकिन आपको
पता है कि
नींद क्या है?
कभी आपने
होशपूर्वक
नींद को देखा
है? कि
नींद उतर रही
मेरे ऊपर। छा
रही। सब तरफ
से मुझे घेर
रही। शरीर
सुस्त हुआ जा
रहा। नींद
प्रवेश करती
जा रही है और
मैं देख रहा
हूं। आप नींद
को भी नहीं देख
पाते, तो
मौत को कैसे
देखिएगा? मौत
तो बहुत गहरी
मूर्च्छा है।
नींद तो बहुत
छोटी
मूर्च्छा है।
जरा— सा कोई
बर्तन गिर जाए,
तो खुल जाती
है। इससे
ज्यादा गहराई
नहीं है। एक
मच्छड़ काट जाए,
तो खुल जाती
है। बहुत गहरी
नहीं है।।
लेकिन इतनी
उथली चीज में
भी आप होश
नहीं रख पाते,
तो मौत में
कैसे रख
पाएंगे?
प्रयोग
अगर करेंगे, तो जिसको
भी मृत्यु के
संबंध में
जागना है, उसे
नींद से
प्रयोग शुरू
करना चाहिए।
रात जब बिस्तर
पर पड़े, तो आंख
बंद करके एक
ही खयाल रखें
कि मैं जागा
रहूं। शरीर को
ढीला होने दें,
होश को सजग
रखें। और खयाल
रखें कि मैं
देख लूं, नींद
कब आती है? कब
मेरा शरीर
जागने से नींद
में प्रवेश
करता है? कब
गियर बदलता है?
कब मैं नींद
की दुनिया में
प्रवेश करता
हूं? उसे
देख लूं! बस, चुपचाप
देखते रहें।
पता
नहीं चलेगा कब
नींद लग गई, और देखने
का खयाल भूल
जाएगा! सुबह
होश आएगा कि देखने
की कोशिश की
थी, लेकिन
देख नहीं पाए;
नींद आ गई
और देखना खो
गया। लेकिन
सतत लगे रहें।
अगर तीन महीने
निरंतर बिना
किसी विध्न—बाधा
के आप नींद के
साथ जागने की
कोशिश करते रहे,
तो किसी भी
दिन यह घटना
घट जाएगी कि
नींद उतरेगी
आपके ऊपर, जैसे
सांझ उतरती है,
अंधेरा छा
जाता है, और
आप भीतर जागे
रहेंगे; आप
देख पाएंगे कि
नींद यह है।
जिस
दिन आपने नींद
देख ली, उस दिन आपने
एक बहुत बड़ा।
कदम उठा लिया।
बहुत बड़ा कदम
उठा लिया। फिर
दूसरा प्रयोग है
कि नींद रात
लगी रहे, लगी
रहे, लगी
रहे, लेकिन
भीतर एक कोने
में होश भी
बना रहे कि
मैं सो रहा
हूं करवट बदल
रहा हूं मच्छड़
काट रहा है, हाथ—पैर
ढीले पड़ गए
हैं। अब जागने
का क्षण करीब
आ रहा है, अब
मैं जाग रहा
हूं।
जिस
दिन आप सांझ
से लेकर सुबह
तक, शरीर
सोया रहे और
आप जागे रहें,
अब कोई
कठिनाई नहीं
है, अब आप
मृत्यु में
प्रवेश कर
सकते हैं। तब
बहुत आसान है,
तीसरी बात।
इतना अगर सध
जाए— इसमें
वर्षों लग
सकते हैं—
लेकिन इतना सध
जाए, तो आप
दूसरे आदमी हो
जाएंगे, एक
नये आदमी हो
जाएंगे। आपने
अपनी। नींद पर
विजय पा ली।
और
जिसने अपनी
नींद पर विजय
पा ली, उसको
मृत्यु पर
विजय पाने में
कोई कठिनाई
नहीं, क्योंकि
मृत्यु एक और
बड़ी नींद है, और गहन
मूर्च्छा है।
अगर आप नींद
में जग पाते
हैं, तो
आपको तत्क्षण
पता चलने
लगेगा कि आप
अलग हैं और
शरीर अलग है।
क्योंकि शरीर
सोएगा और आप
जगेंगे।
ध्यान
रहे, आपको
तब तक शरीर के
और आत्मा के
अलग होने का
पता नहीं
चलेगा, जब
तक आप कोई ऐसा
प्रयोग न करें,
जिस प्रयोग
में दोनों की
क्रियाएं अलग
हों। अभी आपको
भूख लगती है, तो आपके
शरीर को भी
लगती है, आपको
भी लगती है।
बहुत मुश्किल
है तय करना कि
शरीर को भूख
लगी कि आपको
लगी। अभी आप
जो भी कर रहे
हैं, उसमें
आपकी
क्रियाओं में
तालमेल है, शरीर और आप
में तालमेल
है। आपको कोई
न कोई ऐसा अभ्यास
करना पड़े, जिसमें
आपको कुछ और
हो रहा है, शरीर
को कुछ और हो
रहा है, बल्कि
शरीर को विपरीत
हो रहा है, आपको
विपरीत हो रहा
है।
लोगों
ने भूख के साथ
भी प्रयोग
किया है।
उपवास वही है।
वह इस बात का
प्रयोग है कि
शरीर को भूख लगेगी
और मैं स्वयं
को भूख न लगने
दूंगा। भूखे
मरने का नाम
उपवास नहीं
है। अधिक लोग
उपवास करते
हैं, वे
सिर्फ भूखे
मरते हैं। क्योंकि
शरीर को भी
लगती है भूख, उनको भी
लगती है।
बल्कि सच तो
यह है कि भोजन
करने में उनकी
आत्मा को
जितनी भूख का
पता नहीं चला
था, उतना
उपवास में पता
चलता है।
भोजन
करते में तो
पता चलता नहीं; जरूरत के
पहले ही शरीर
को भोजन मिल
जाता है। भूख
भीतर तक
प्रवेश नहीं
करती। उपवास
कर लिया, उस
दिन दिनभर भूख
लगी रहती है।
खाते वक्त तो
दो दफे लगती
होगी दिन में,
तीन दफा
लगती होगी। न
खाएं, तो दिनभर
लगती है! भूख
पीछा करती है।
शरीर तो भूखा
होता ही है, आत्मा भी
भीतर भूख से
भर जाती है।
उपवास
का प्रयोग इसी
तरह का प्रयोग
है, जैसा
नींद का
प्रयोग है।
शरीर को भूख
लगे और आप
भीतर बिना भूख
के रहें, तो
दोनों
क्रियाएं अलग
हो जाएंगी।
जिस
दिन आपको साफ
हो जाएगा, शरीर को
भूख लगी और
मैं तृप्त
भीतर खड़ा हूं,
कोई भूख
नहीं है, उस
दिन आपको भेद
का पता चल
जाएगा। शरीर
सो गया, आप
जागे हुए हैं,
भेद का पता
चल जाएगा। और
जब भेद का पता
चलेगा, तभी
जब मृत्यु
होगी, शरीर
मरेगा, आप
नहीं मरेंगे,
तब आपको उस
भेद का भी पता
चल जाएगा।
नींद
से शुरू करें, धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे भीतर भेद
साफ होने लगता
है, रोशनी
भीतर बढ़ने
लगती है।
रोशनी हमारे
पास है, हम
उसे बाहर
उपयोग कर रहे
हैं, भीतर
कभी ले नहीं
जाते। तो सारी
दुनिया को
देखते हैं, अपने भर को
छोड़ देते हैं।
इसलिए
अर्जुन को
दिखाई नहीं
पड़ा। क्योंकि
मृत्यु तो
किसी को भी
दिखाई नहीं
पड़ती है अपनी, सिर्फ
दूसरे की
दिखाई पड़ती
है। इसलिए
दूसरे के
संबंध में जो
भी आपको दिखाई
पड़ता है, उसको
बहुत मानना मत,
वह झूठा है,
ऊपर—ऊपर है।
अपने संबंध
में भीतर जो
दिखाई पड़े, वही सत्य है,
वही गहरा
है। और जब
आपको अपना
सत्य दिखाई
पड़ेगा, तभी
आपको दूसरे का
सत्य भी दिखाई
पड़ेगा। जिस दिन
आपको पता चल
जाएगा, मैं
नहीं मरूंगा,
उस दिन फिर
कोई भी नहीं
मरेगा आपके
लिए। फिर आप
कहेंगे कि
वस्त्र बदल
लिए।
रामकृष्ण
की मृत्यु हुई, तो पता चल
गया था कि तीन
दिन के भीतर
वे मर जाने वाले
हैं। जो लोग
भी जाग जाते
हैं, वे
अपनी मौत की
घोषणा कर सकते
हैं। क्योंकि
शरीर संबंध
छोड़ने लगता
है। कोई एकदम
से तो छूटता
नहीं, कोई
छह महीने लगते
हैं शरीर को
संबंध छोड़ने
में।
इसलिए
मरने के छह
महीने पहले, जिसका
होश साफ है, वह अपनी
तारीख कह सकता
है कि इस
तारीख, इस
घड़ी मैं मर
जाऊंगा। तीन
दिन पहले तो
बिलकुल संबंध
टूट जाता है।
बस आखिरी धागा
जुड़ा रह जाता
है। वह दिखाई
पड़ने लगता है
कि बस अब एक
धागा रह गया
है, यह
किसी भी क्षण
टूट जाएगा।
तो
रामकृष्ण को
तीन दिन पहले
पता हो गया था
कि उनकी
मृत्यु आ रही
है। तो उनकी
पत्नी शारदा
रोती थी, चिल्लाती
थी। रामकृष्ण उसको
कहते थे कि
पागल, तू
रोती—चिल्लाती
क्यों है, क्योंकि
मैं नहीं
मरूंगा।
लेकिन शारदा
कहती थी, सब
डाक्टर कहते
हैं, सब प्रियजन
कहते हैं कि
अब आपकी
मृत्यु करीब
है! और वे कहते
थे, तू
उनकी मानती है
या मेरी! मेरी
मानती है या
उनकी! मैं
नहीं मरूंगा।
मैं रहूंगा
यहीं।
लेकिन
शारदा को कैसे
भरोसा आए! रामकृष्ण
का यह कहना, उनके
अपने भीतर के
अनुभव की बात
है। वे कह रहे हैं
कि मैं नहीं मरूंगा।
रामकृष्ण
को कैंसर हुआ
था। कठिन
कैंसर था, गले में
था और भोजन—पानी
सब बंद हो गया
था। बोलना भी
मुश्किल हो गया
था। पर रामकृष्ण
ने कहा है कि
देख, तुझसे
मैं कहता हूं
जिसको कैंसर
हुआ था, वही
मरेगा। मुझे
कैंसर भी नहीं
हुआ था। यह
गला रुंध गया
है, यह गला
बंद हो गया है,
यह गला सड़
गया है, यह
कैंसर से भर
गया है, लेकिन
मैं देख रहा
हूं कि मैं यह
गला नहीं हूं।
तो गला मर
जाएगा, यह
शरीर गल जाएगा,
मिट जाएगा,
लेकिन मैं
नहीं मरूंगा।
पर
हमें कैसे
भरोसा आए? क्योंकि
हमें अनुभव न
हो। हम तो
मानते हैं कि हम
शरीर हैं। तो
जब शरीर मरता
है, तो हम
मानते हैं कि
हम भी मर गए।
हमारे जीवन की
भ्रांति
हमारी मृत्यु
की भी भ्रांति
बन जाती है।
अर्जुन
को दिखाई नहीं
पड़ा, आपको
भी दिखाई नहीं
पड़ेगा। जिस
दिन मृत्यु के
द्वार पर आप
खड़े हो जाएंगे
और देखेंगे कि
मर रहा है सब
कुछ, तब भी
एक आप बाहर
खड़े रहेंगे।
आप नहीं मर
रहे हैं, आपके
मरने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए अर्जुन बात
नहीं कर रहा
है अपनी
मृत्यु की।
एक
और मित्र ने
भी बहुत गहरा
सवाल पूछा है।
उन्होंने
पूछा है कि हम
सब भगवान हैं।
सब भगवान के
अंश हैं, यह तो समझ
में आ जाता
है। लेकिन अंश
पूर्ण नहीं हो
सकता, अंश
तो अंश ही
होगा। तो हम
भगवान के अंश
हैं, यह तो
समझ में आ
जाता है, लेकिन
भगवान हैं, यह समझ में
नहीं आता। तो
इतना ही कहना
उचित है कि हम
भगवान के अंश
हैं, लेकिन
भगवान हैं, यह कहना
उचित नहीं है।
यह सवाल
महत्वपूर्ण
है। और जो लोग
गणित को समझते
हैं, उन्हें
बिलकुल ठीक
साफ समझ में आ
जाएगा कि ऐसा ही
होना चाहिए।
अंश कभी अंशी
नहीं हो सकता।
टुकड़ा पूर्ण
कैसे हो सकता
है? टुकड़ा
टुकड़ा है। हम
एक सागर से एक
चुल्ल भर पानी
ले लें, तो
वह सागर नहीं
है, सागर
का अंश हो
सकता है। यह
सीधा गणित है।
स्वभावत:, एक
रुपए का नोट एक
रुपए का नोट
है, वह सौ
का नहीं हो
सकता, सौ
का एक हिस्सा
हो सकता है, सौवां
हिस्सा हो
सकता है। यह
सीधा गणित है।
और जहां तक
गणित जाता है,
वहां तक
बिलकुल ठीक
है।
लेकिन
धर्म गणित से
आगे जाता है।
और धर्म बड़ा उलटा
गणित है। उसे
थोड़ा समझने के
लिए चेष्टा करनी
पड़े। क्योंकि
सामान्य गणित
तो हम रोज
उपयोग करते हैं, हमें पता
है। धर्म का
गणित हमें
बिलकुल पता नहीं
है। धर्म के
गणित का पहला
सूत्र यह है
कि वहां अंशी
और अंश एक
हैं।
आपने
ईशावास्य का
पहला सूत्र
सुना है! उस
पूर्ण से
पूर्ण निकल
आता है और
पीछे भी पूर्ण
शेष रह जाता है।
आप किसी सौ
रुपए में से
एक रुपए का
नोट बाहर
निकालें, पीछे
निन्यानबे
शेष रहेंगे, सौ शेष नहीं
रहेंगे।
लेकिन यह
सूत्र तो बड़ी
गजब की बात
कहता है। यह
कहता है कि सौ
में से सौ भी बाहर
निकाल लो, तो
भी सौ ही पीछे
शेष रह जाता
है! पूर्ण से
पूर्ण भी
निकाल लो, तो
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रह
जाता है।
इसका
क्या मतलब हुआ? यह तो
हमारे सारे
गणित की
व्यवस्था
गड़बड़ हो जाती
है। अगर यह
उपनिषद का
सूत्र सही है,
तो हमारा
सारा गणित गलत
है। अध्यात्म
के जगत में
गणित गलत है।
उसके कारण
हैं। उसे हम
दो—तीन तरह से
समझें, तो
खयाल में आ
जाए।
पहली
तो बात यह कि
जो निराकार है, उसमें से
हम अंश को
बाहर नहीं
निकाल सकते।
कोई उपाय नहीं
है। आप सागर
में से चुल्ल
भरकर पानी
बाहर निकाल
लेते हैं, क्योंकि
सागर के बाहर
भी जगह है।
इसलिए आप पानी
भर लेते हैं
चुल्ल में।
ऐसा
समझें कि सागर
ही सागर है और
सागर के बाहर
कोई जगह नहीं
है। फिर आप
चुल्ल भी भर
लें, तो
आपकी चुल्ल
में अंश नहीं
होगा, पूरा
सागर ही होगा।
बाहर तो हम
इसलिए निकाल
लेते हैं कि
बाहर सुविधा
है। सागर में
से चुल्ल भर
पानी बाहर
निकाल लेते
हैं।
परमात्मा
से चुल्ल भर
निकालना
मुश्किल है। क्योंकि
परमात्मा के
बाहर कोई जगह
नहीं है, सिर्फ वही
है। उसके बाहर
निकालिएगा
कैसे? कौन
निकालेगा? कहां
निकालेगा? उसके
बाहर निकालने का
कोई उपाय नहीं
है।
इसलिए
परमात्मा को
खंड—खंड करने
का भी उपाय
नहीं है। आप
अखंड परमात्मा
हो, टुकड़े—टुकड़े
नहीं हो।
टुकड़ा हो नहीं
सकता उसका। और
अगर परमात्मा
का टुकड़ा हो
जाए, तो
हमने बड़ा भारी
काम कर लिया!
मार ही डाला
उसको। उसके
टुकड़े नहीं हो
सकते, कि
आप एक टुकड़ा
हो, मैं एक
टुकड़ा हूं और
तीसरा आदमी
तीसरा टुकड़ा है।
ऐसे उसके कोई
टुकड़े नहीं हो
सकते।
क्योंकि टुकड़ा
होगा उसका, जिसके बाहर
भी कोई जगह
हो। परमात्मा
का कोई टुकड़ा
नहीं हो सकता।
इसलिए
जो लोग कहते
हैं, हम
परमात्मा के
अंश हैं, बिलकुल
गलत कहते हैं।
क्योंकि अंश
का मतलब है, आप टुकड़ा हो
गए, आप अलग
हो गए। आप
परमात्मा में
हैं पूरे के
पूरे और पूरा
का पूरा
परमात्मा आप
में है। इसमें
कोई बंटाव के
उपाय नहीं
हैं। काटने की
कोई सुविधा
नहीं है।
डिवीजन नहीं
हो सकते।
क्योंकि वह
अकेला ही है।
कैसे बांटिए?
कौन बांटे?
कहां बांटे?
कहां है जगह
जिसमें हम
बांट लें?
और दो
टुकड़ों के बीच
तो फासला हो
जाता है। आपके
और परमात्मा
के बीच जरा भी
फासला नहीं
है। इसलिए
आपको टुकड़ा
नहीं कहा जा
सकता। आप एक
फल के दो
टुकडे कर लेते
हैं, दोनों
में फासला हो
जाता है। आपके
और परमात्मा
के बीच इंचभर
भी फासला नहीं
है। आपको
टुकड़ा नहीं
कहा जा सकता।
आपको अंश नहीं
कहा जा सकता।
या तो आप पूरे
के पूरे
परमात्मा हैं
और या बिलकुल
परमात्मा
नहीं हैं। इन
दो के बीच
तीसरा कोई
उपाय नहीं है।
मगर
हमारी बुद्धि
समझौते के लिए
तैयार रहती है।
वह सोचती है
कि पूरा
परमात्मा
कहना तो जरा जरूरत
से ज्यादा हो
जाएगा। और
बिलकुल
परमात्मा
नहीं हैं, तो भी बड़ी
मन को दीनता
मालूम पड़ती
है। इसलिए ऐसा
कहो कि थोड़े—
थोड़े
परमात्मा हैं,
जरा—जरा!
लेकिन
जरा—जरा
परमात्मा का
क्या मतलब
होता है? थोड़े— थोड़े
परमात्मा का
क्या मतलब
होता है? थोड़ा
परमात्मा
पूरे
परमात्मा से
कम होगा! तो वह
परमात्मा ही
नहीं होगा।
थोड़े
परमात्मा का क्या
मतलब होगा?
ऐसा
समझिए कि एक
आदमी आपसे
कहता है कि
थोड़ा— थोड़ा आपसे
प्रेम है, थोड़ा—
थोड़ा! क्या
मतलब होता है
थोड़ा— थोड़ा
प्रेम का? या
तो प्रेम होता
है या नहीं
होता। थोड़ा—
थोड़ा प्रेम
जैसी कोई चीज
नहीं होती। हो
भी नहीं सकती।
आप
कहते हैं कि
मैं थोड़ा—
थोडा चोर हूं।
थोड़ा— थोड़ा
कोई चोर होता
है! या तो आप
चोर हैं या
चोर नहीं हैं।
थोड़ा— थोड़ा आप
क्यों कहते हैं? कहते हैं
कि मैं लाख की
चोरी नहीं
करता; ऐसे,
पैसे दो
पैसे ही
चुराता हूं।
इसलिए थोड़ा—
थोड़ा चोर हूं।
लेकिन
एक पैसे की
चोरी भी उतनी
ही चोरी है, जितनी
लाख रुपए की
चोरी। यह लाख
और एक का फासला
चोरी का फासला
नहीं है। चोरी
करने की जो
चित्त—दशा है,
वह एक पैसे
में भी उतनी
ही है, जितनी
करोड़ में।
इसलिए करोड़ की
चोरी बड़ी और
एक पैसे की
चोरी छोटी, यह सिर्फ
नासमझ कहेंगे,
जिनको
सिर्फ गणित
आता है; जिनको
गणित के पार
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
चोरी
बराबर होती
है। एक पैसे
की चोरी में
भी आप पूरे
चोर होते हैं, और एक
करोड़ की चोरी
में भी उतने
ही चोर होते
हैं, पूरे
चोर होते हैं।
क्या आप
चुराते हैं, इससे चोर
होने में फर्क
नहीं पड़ता। या
तो आप चोर हैं,
या चोर नहीं
हैं। इन दोनों
के बीच बंटाव
नहीं है। ठीक
ऐसे ही, या
तो आप
परमात्मा हैं
पूरे के पूरे,
और या
बिलकुल नहीं
हैं। बीच में,
थोड़े— थोड़े
परमात्मा, ऐसा
समझौता हमारा
गणित करने
वाला जो मन है,
वह करता है।
उससे हमें
राहत भी मिलती
है, लेकिन
वह सत्य नहीं
है।
असीम
को खंडों में
नहीं बांटा जा
सकता।
आस्पेंस्की
ने, रूस
के एक बहुत
बड़े गणितज्ञ
ने एक किताब
लिखी है, टर्शियम
आर्गानम।
गणित के ऊपर
लिखी गई
मनुष्य के
इतिहास में
श्रेष्ठतम
पुस्तकों में
एक है। खुद
आस्पेंस्की
का भी दावा है
कि तीन ही
किताबें
दुनिया में
हैं, जिनमें
वह एक है। और
उसके दावे में
जरा भी दंभ नहीं
है। दावा
बिलकुल सही
है।
तर्क
और गणित के सिद्धांत
पर पहली किताब
लिखी है
अरस्तु ने। उस
किताब का नाम
है, आर्गानम।
आर्गानम का
मतलब है, पहला
सिद्धांत।
फिर दूसरी
किताब लिखी है
बेकन ने। उस
किताब का नाम
है, नोवम
आर्गानम, नया
सिद्धांत। और
आस्पेंस्की
ने तीसरी
किताब लिखी है,
टर्शियम
आर्गानम, तीसरा
सिद्धांत, गणित
का तीसरा
सिद्धांत। और
आस्पेंस्की
ने अपनी किताब
में जो ऊपर ही
घोषणा की है, वह बड़ी
मजेदार है। वह
यह है कि
दोनों
सिद्धांतों
के पहले भी
मेरा
सिद्धांत
मौजूद था। ये
दोनों
किताबें लिखी
गईं, उसके
पहले भी मेरा सिद्धांत
मौजूद था।
उन
दोनों
किताबों में, जो
प्रश्न आपने
पूछा है, उसी
गणित का
विस्तार है, कि अंश कभी
भी अंशी के
बराबर नहीं हो
सकता, खंड
कभी अखंड के
बराबर नहीं हो
सकता। और
आस्पेंस्की
ने लिखा है कि
खंड अखंड के
बराबर है, टुकड़ा
पूरे के बराबर
है। क्यों?
क्योंकि असीम
के गणित में
खंड हो ही
नहीं सकता।
इसीलिए
ईशावास्य का
सूत्र बड़ा
कीमती है कि
पूर्ण से
पूर्ण को 'निकाल
लें, तो भी
पीछे पूर्ण ही
शेष रह जाता
है। क्यों शेष
रह जाता है? क्योंकि आप
निकाल ही नहीं
सकते, तरकीब
यह है। आप
निकाल ही नहीं
सकते। पूर्ण
से पूर्ण को
निकाला नहीं
जा सकता।। आप
सिर्फ वहम में
पड़ते हैं कि
निकाल लिया।
इसीलिए पीछे
पूर्ण। शेष रह
जाता है। वह
सिर्फ आपका
धोखा था कि
मैंने
निकाला।।,! निकालने का
कोई उपाय नहीं
है।
आपको
लगता है कि आप
अंश हैं, यह धोखा है।
अंश होने का
कोई उपाय नहीं
है। आप पूरे
के पूरे
परमात्मा हैं,
अभी और ' यहीं।
ऐसा भी नहीं
कहता हूं कि
कल हो जाएंगे।
क्योंकि जो आप
नहीं हैं, वह
आप कल भी नहीं
हो पाएंगे। और
जो आप नहीं
हैं, वह
होने का कोई
उपाय नहीं है।
कल हो सकता है,
आपको पता
चले, लेकिन
हैं आप अभी और
यहीं। जितनी
भी देरी आपको
लगानी है, वह
आप पता लगाने
में कर सकते
हैं, होने
में कोई फर्क!
नहीं पड़ता।
बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ, तो
बुद्ध से पूछा
गया कि
तुम्हें क्या
मिला? तो
बुद्ध ने कहा,
मिला कुछ भी
मुझे नहीं, सिर्फ मैंने
उलटा खोया!
पूछने
वाला चकित हुआ
होगा।
क्योंकि हम
सोचते हैं, ज्ञान
में मिलना
चाहिए। हम तो
लोभ से जीते
हैं। हमारा तो
गणित फैलाव का
है। और बुद्ध
कहते हैं कि
मिला मुझे कुछ
भी नहीं, उलटा
खो। गया! क्या
खो गया?
तो
बुद्ध ने कहा, मेरा
अज्ञान खो
गया। और जो
मुझे मिला है,
'वह अब मैं
जानता हूं कि
मुझे सदा ही
मिला हुआ था।
वह मैंने कभी।
खोया ही नहीं
था। सिर्फ
मुझे पता नहीं
था। जो मेरी
ही संपदा थी,। वह मेरी ही आंख
से ओझल थी।
जिस जमीन पर
मैं सदा से खड़ा।
था, उसको
ही मैं देख
नहीं रहा था
और सारी तरफ
खोज रहा था।
अपने को
छोड्कर मैं सब
तरफ भटक रहा
था। और मैं
सदा से था। जो
मुझे मिला है,
वह उपलब्धि
नहीं है, आविष्कार
है, सिर्फ
मैंने उघाड़कर
देख लिया है।
आप
परमात्मा हैं
अभी और यहीं।
लेकिन हमें यह
मानने में तकलीफ
होती है। क्या
कारण है? क्या—क्या
तकलीफें हैं
हमारे मन में
मानने में कि
हम अपने को
परमात्मा मान
लें?
बड़ी
तकलीफें हैं।
क्योंकि
परमात्मा
मानते से ही
आप जैसे हैं, वैसे ही
जी न सकेंगे।
तब चोरी करने
को हाथ बढ़ेगा
और आप अपने को
परमात्मा
मानते हैं, बड़ी घबड़ाहट होगी
कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं! तब किसी
की जेब काटने
को हाथ बढ़ेगा
और परेशानी
होगी कि यह
मैं क्या कर
रहा हूं! आपका
यह खयाल भी, विचार भी कि
मैं परमात्मा
हूं आपकी
जिंदगी को बदल
देगा; आप
वही आदमी नहीं
रह जाएंगे, जो आप हैं।
एक
चौबीस घंटे
परमात्मा की
तरह मानकर जीकर
देखें।
कल्पना ही सही, एक्ट ही
करना पड़े, कोई
हर्ज नहीं। एक
चौबीस घंटे
ऐसे जीकर
देखें, जैसे
मैं परमात्मा
हूं। आपकी
जिंदगी दूसरी
हो जाएगी।
इससे घबड़ाहट
है! हम अपने
चोर को, बेईमान
को, बदमाश
को बचाना
चाहते हैं। तो
कोई हमसे कह
दे, शैतान
हो, तो
हमें कोई
एतराज नहीं
होता। कोई
हमसे कह दे, भगवान हो, तो हमें
बेचैनी शुरू
होती है, क्योंकि
वह झंझट की
बात कह रहा
है। अगर मान
लें, तो
फिर जो हम हैं,
वही हम न रह
पाएंगे, उसमें
बदलाहट करनी
पड़ेगी। और
उसमें हम
बदलाहट नहीं
करना चाहते
हैं। तो फिर
उचित यही है
कि हम न
मानें।
लेकिन बिलकुल
इनकार करने की
भी हिम्मत
नहीं होती, क्योंकि
हर आदमी गहरे
में तो चाहता
है कि परमात्मा
हो। वह चाह
स्वाभाविक
है। वह चाह
वैसे ही है, जैसे बीज
चाहता है कि
वृक्ष हो।
जैसे कि बीज चाहता
है कि खिले, फूल बने, आकाश
में सुगंध बिखराए।
जैसे बीज
चाहता है कि
ऊपर उठे, सूरज
को चूमे,
आकाश में
खिले। वैसे ही
आपके भीतर भी
जो असलियत
छिपी है, वह
प्रकट होना
चाहती है।
इसलिए वह कहती
है, बढ़ो, फैलो, विस्तीर्ण
हो जाओ।
और
विस्तीर्ण
होने का अंतिम
आयाम भगवान
है। वही।
विस्तीर्णता
का आखिरी रूप
है। और जब तक
आदमी भगवान न।
हो जाए, तब तक कोई
तृप्ति नहीं
है। क्योंकि
जब तक जो आपके _
भीतर छिपा
है, वह
पूरी तरह खुल
न जाए, प्रकट
न हो जाए, उसकी
पंखुड़ी—पंखुड़ी
खिल न जाए, तब
तक कोई चैन
नहीं है।
इसलिए
आदमी इनकार भी
नहीं कर पाता, स्वीकार
भी नहीं कर।
पाता, ऐसी
दुविधा में
जीता है।
लेकिन मैं
आपसे कहता हूं
कि उसके कोई
खंड नहीं हुए
हैं। वह अखंड
है। और वह
अखंड की तरह
ही आपमें
मौजूद है, उसे
स्वीकार
करें। और उसके
साथ जीने की कोशिश
शुरू करें। यह
विचार भी आपके
जीवन में क्रांति
बन जाएगी। यह
विचार का बीज
भी भीतर पड़ जाए,
तो धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे चारों
तरफ आपका सब कुछ
बदलने लगेगा।
हमारे
विचार भी
क्षुद्र हैं।
हम विराट
विचार तक को
स्वीकार करने
में घबड़ाते
हैं। हम क्षुद्र
विचार में
जीते हैं, क्योंकि
हमारा
व्यक्तित्व
उसके आस—पास
आसानी से रह
पाता है।
विराट
को जगह दें
थोड़ी। अभी
खयाल ही सही, कोई बात
नहीं।
क्योंकि जो आज
विचार है, वह
कल
व्यक्तित्व
बन जाएगा। और
जो आज छिपा
हुआ बीज है, वह कल वृक्ष
हो जाएगा। जो
आज सोचा है, वह कल हो
जाएगा।
बुद्ध
ने कहा है, तुम जो भी
हो गए हो वह
तुम्हारे
पिछले
विचारों का
परिणाम है। और
तुम जो विचार
आज कर रहे हो, वह तुम कल हो
जाओगे। इसलिए
विचार में थोड़ी
बुद्धिमानी
बरतना।
लेकिन
हम विचार में
कोई
बुद्धिमानी
बरतते नहीं।
हम सोचते हैं, विचार से
क्या लेना—देना
है? लेकिन
एक आदमी के मन
में अगर यह
विचार बैठ जाए
कि मैं
परमात्मा हूं
तो एक बात
पक्की है कि
उसके शैतान को
सुविधा मिलनी
मुश्किल हो
जाएगी। और एक
आदमी को यह
विचार बैठ जाए
कि मैं शैतान
हूं तो उसके
शैतान! को
बहुत सुविधा
मिलनी शुरू हो
जाएगी।
मनस्विद
कहते हैं कि
आप वही हो
जाते हैं, जिसका
स्वप्न आपमें
पैदा हो जाता
है। अभी तो मनस्विद
कहते हैं कि
स्कूल में
किसी बच्चे को
गधा, मूर्ख
नहीं कहना
चाहिए।
क्योंकि अगर
यह धारणा
मजबूत हो जाए,
तो वह यही
हो जाएगा, जो
उसके शिक्षक
कह रहे हैं।
और दुनिया में
इतने जो गधे
दिखाई पड़ते
हैं, इसमें
नब्बे परसेंट
शिक्षकों का
हाथ है। ये बेचारे
गधे थे नहीं, इनको गधे
कहने! वाले
लोग मिल गए।
और उन्होंने धारणा
इतनी मजबूत
बिठा दी कि अब
ये भी मानते
हैं, अब ये
भी स्वीकार
करते हैं।
मनस्विद
कहते हैं, किसी को
ऐसा कहना गलत
है। किसी को बीमार
कहना गलत है।
अभी तो
मनस्विद कहते
हैं कि
चिकित्सक के
पास जब कोई
बीमार आए, तो
उसे ऐसे
व्यवहार करना
चाहिए, जैसे
वह बीमार नहीं
है। दवा भला
दे, लेकिन
व्यवहार ऐसे
करे, जैसे
वह बीमार नहीं
है! क्योंकि
उसका व्यवहार
दवा से ज्यादा
मूल्यवान है।
क्योंकि
व्यवहार उसके
मन में चला
जाएगा; दवा
केवल शरीर में
जाएगी।
लेकिन
जो कैक डाक्टर
हैं, धोखेधड़ी
वाले डाक्टर
हैं, वे
आपको देखकर ही
ऐसी घबड़ाहट
पैदा करते हैं
कि जैसे आप
बिलकुल मरणासन्न
हैं। क्योंकि
आप आ गए,
नहीं तो आप बच
नहीं सकते थे।
उनके पास आ गए,
अब बच
जाएंगे, नहीं
तो बच नहीं
सकते थे। छोटी—सी
फुंसी आपको हो,
तो वे कैंसर
जैसी घबड़ाहट
पैदा कर देते
हैं। क्योंकि
तभी आपका शोषण
किया जा सकता
है। तभी आपका
शोषण किया जा
सकता है।
और फुंसी
भी कैंसर हो
सकती है, अगर भरोसा आ
जाए। भरोसा
बड़ी चीज है।
बहुत बड़ी चीज
है। क्योंकि
भरोसा काम
करना शुरू कर
देता है। आपके
भीतर एक खयाल
बैठ गया कि
मैं बीमार हूं
तो आप बीमार
हो जाएंगे।
मेरे
एक शिक्षक थे, मेरी बात
मानने से राजी
नहीं थे। मैं
उनसे कहता था,
जो आदमी मान
ले, धीरे— धीरे
हो जाता है।
वे कहते थे, यह बात ठीक
नहीं है।
क्योंकि कोई
कितना ही मान
ले कि मैं
नेपोलियन हूं
नेपोलियन तो
नहीं हो जाऊंगा,
पागल हो
जाऊंगा! जिस
युनिवर्सिटी
में मैं पढ़ता
था, वे
वहीं शिक्षक
थे, मेरे
शिक्षक थे।
जहां हमारा
डिपार्टमेंट
था, वहां
से कोई एक मील
के फासले पर
वे नीचे
युनिवर्सिटी
के कैम्पस में
ही रहते थे।
फिर
मैंने एक दिन
योजना बनाई।
कोई पंद्रह
दिन बाद, जब उनसे यह
बात हुई थी।
पंद्रह दिन
बाद मैं उनके
घर गया और
उनकी पत्नी को
मैंने कहा कि
मेरी प्रार्थना
है, स्वीकार
कर लें। एक
प्रयोग में
लगा हूं किसी
को कहना मत।
सुबह उठते ही
अपने पति को
कहना कि। आज तबीयत
कुछ खराब है
क्या? पीला
चेहरा मालूम
पड़ता है! रात
सोए नहीं क्या?
आंख लाल—लाल
दिखाई पड़ती
है!
उनकी
पत्नी ने कहा, लेकिन वे
बिलकुल ठीक
हैं! मैंने
कहा, इसकी
फिक्र न करें।
छोटा प्रयोग
कर रहा हूं। आप
सिर्फ इतना करें।
और वे जो भी
कहें, यह
कागज की एक
पट्टी दे जाता
हूं इस पर ठीक
उन्हीं के
शब्द लिख देना,
वे जो भी
वक्तव्य दें
इसके उत्तर
में।
फिर
उनके नौकर को
कहा, बाहर
बगीचे के माली
को कहा, कि
जब वे बाहर
आएं, तो
कृपा करके
इतना ही पूछना
कि आपके पैर
कुछ डांवाडोल
मालूम पड़ते
हैं! तबीयत
ठीक नहीं है
क्या? वे
जो कहें, इस
कागज पर लिख
लेना। फिर
रास्ते में एक
पोस्ट आफिस।
पड़ता था, उसके
पोस्ट मास्टर
को जाकर कहा
कि जब वे यहां से
निकलें, कृपा
करके तुम बाहर
रहना। इतना
उनसे पूछ लेना
कि क्या बात
है, बहुत
दिन बाद दिखाई
पड़े। तबीयत
खराब हो गई थी
क्या? ऐसा
रास्ते में
कोई दस जगह
मैं लोगों को
चिट्ठियां
देकर आया।
डिपार्टमेंट
का जो चपरासी
था, उससे
मैंने कहा कि
तू एकदम उठकर।
उनको संभाल लेना
कि आप बिलकुल
गिरे पड़ते
हैं! वह बोला, लेकिन वे
नाराज होंगे।
ऐसा कैसे
करूंगा! मैंने
कहा, तू
बिलकुल फिक्र
मत कर। जिम्मा
मेरा है। तू
एकदम संभाल
लेना, कुर्सी
पर बिठा देना
कि आपकी हालत
तो खराब हो रही
है!
उन्होंने
अपनी पत्नी से
कहा कि कौन
कहता है कि
मेरी हालत
खराब है! मैं
बिलकुल ठीक
हूं। रात अच्छी
तरह सोया।
पट्टी पर
पत्नी के लिखा
हुआ था कि मैं
बिलकुल ठीक
हूं। रात अच्छी
तरह सोया।
तुझे कोई वहम
पैदा हो गया? तेरी आंख
में कुछ भूल
है। लेकिन
इतनी ताकत, जब बाहर
माली ने उनसे
पूछा कि मालिक,
तबीयत कुछ
खराब है? उनके
उत्तर में
नहीं थी। माली
की चिट्ठी पर
लिखा हुआ था
कि हां, रात
से कुछ थोड़ा
ढीला—ढीला
अनुभव कर रहा
हूं। अभी
सिर्फ कमरे और
बाहर का फर्क
पड़ा है।
और जब
पोस्ट मास्टर
ने उनसे पूछा
कि क्या बात है, बहुत दिन
से दिखाई नहीं
पड़े। तबीयत
कुछ खराब है? तो उन्होंने
कहा, हां
रात से कुछ
थोड़ा—सा बुखार
है।
और जब
कमरे के
चपरासी ने आकर
उनको संभाला
और कुर्सी पर
बिठाला, तो उन्होंने
चपरासी से कहा
कि तू पूछताछ
मत कर। जाकर
किसी और
प्रोफेसर की
गाड़ी ले आ, मुझे
घर पहुंचा।
मेरा शरीर तप
रहा है और
हालत मेरी ठीक
नहीं है।
और जब
मैंने ये दसों
चिट्ठियां
उनके सामने रात
को जाकर रखीं, तो
उन्हें एक सौ
तीन डिग्री
बुखार था।
मैंने कहा, ये
चिट्ठियां
पढ़िए और
बिस्तर के
बाहर निकल
आइए। यह बुखार
झूठा है या सच?
यह बुखार सच
है, क्योंकि
थर्मामीटर
पकड़ता है।
उसको झूठा नहीं
कहा जा सकता।
क्योंकि सचाई
का और उपाय
क्या है? थर्मामीटर
पकड़ ले, तो
चीज सत्य होती
है।
मैंने
कहा, यह
बुखार सच है, लेकिन सिर्फ
एक धारणा का
परिणाम है।
सुबह से मैं
आपके चारों
तरफ प्रचार कर
रहा हूं कि आप
बीमार हैं। और
यह बीमारी का
खयाल आपको पकड़
गया है। आदमी
आदमी नहीं है;
आदमी सिर्फ
एक संभावना
है। और अगर
पश्चिम में डार्विन
ने लोगों को
समझा दिया कि
आदमी बंदर की
औलाद है और
आदमी को अगर
भरोसा हो गया,
तो पता नहीं
आदमी बंदर की
औलाद है या
नहीं, आदमी
बंदर की औलाद
के जैसा
व्यवहार
करेगा। यह भरोसा
आ जाना चाहिए।
यह
सवाल बड़ा नहीं
है कि वह सच
में है या
नहीं। अभी तक
तय भी नहीं है
कि वह बंदर की
औलाद है। लेकिन
डार्विन ने जो
भरोसा पश्चिम
को दिला दिया
कि आदमी बंदर
की औलाद है, उसका बड़ा
परिणाम हुआ।
जब आदमी बंदर
की औलाद है, तो बात ही
खत्म हो गई, हमने
स्वीकार कर
लिया कि हम
बंदर जैसे
हैं।
जब
फ्रायड ने
लोगों को
भरोसा दिला
दिया कि आदमी
सिवाय
कामवासना के, सिवाय
सेक्सुअलिटी
के और कुछ भी
नहीं है, तो
पता नहीं वह
ठीक कह रहा है
कि गलत, लेकिन
जिनको भरोसा आ
गया कि हम
सिर्फ सेक्स
हैं, सिर्फ
कामवासना हैं,
वे
कामवासना में
ही ठहर गए।
अगर आज पश्चिम
पूरी तरह
कामवासना से
भर गया है, तो
उसका जिम्मा
फ्रायड पर है,
जिसने एक
धारणा दे दी।
आदमी
एक संभावना है
फ्लेक्सिबल, बड़ी
लोचपूर्ण
संभावना है।
यही उसकी खूबी
है। आप किसी
कुत्ते को कुछ
और नहीं बना
सकते; वह
कुत्ता ही
रहेगा। किसी
शेर को कुछ
नहीं बना सकते,
वह शेर ही
रहेगा।
फ्लेक्सिबल
नहीं है, फिक्स
है, लोच
नहीं है। आदमी
लोचपूर्ण है।
आदमी को जो धारणा
दे दें, वह
वही बन जाएगा।
जब मैं
आपसे कहता हूं, आप ईश्वर
हैं, तो
मैं आपको एक
धारणा दे रहा
हूं परम
विस्तार की।
उस धारणा का
आज ही फल नहीं
हो जाएगा। आज
ही आप एकदम से
छलांग लगाकर
ईश्वर नहीं हो
जाएंगे, वह
मैं जानता
हूं। लेकिन वह
धारणा अगर
गहरे। में बैठ
जाए, तो वह
आपके भीतर जो
छिपा है, उसका
आविष्कार हो
जाएगी।
और
ईश्वर होना
आपकी नियति है, आपके
भीतर छिपा है।
आप कितने ही
जन्मों—जन्मों
तक टालते रहें,
बच न
सकेंगे।
इसलिए ईश्वर
को कोई जल्दी
भी नहीं है कि
आप अभी ही
ईश्वर हो
जाएं। समय की
वहां कोई कमी
नहीं है। अनंत
समय पड़ा है।
आप कितने ही जन्म
भागते रहें, दौड़ते रहें,
सब कुछ करते
रहें, एक न
एक दिन आप
उसके जाल में
गिर जाएंगे।
लेकिन जब तक
आप नहीं गिरते
हैं, तब तक
अकारण दुख
भोगते हैं।
जो मैं
जोर देकर कहता
हूं कि आप
परमात्मा हैं, उसका कुल
कारण गहरे में
इतना है कि जो
आपकी अंतिम
नियति है, जो
डेस्टिनी है,
जो आपकी
आखिरी होने की
संभावना है, वह परमात्मा
है। और वह
आपका बीज भी
है। क्योंकि आखिर
में केवल वही
हो सकता है, जो आज ही
छिपा हो।
शून्य से कुछ
भी पैदा नहीं
होता। जो
मौजूद हो, उसी
का उदघाटन
होता है।
अगर
आपके मन में
यह खयाल बैठ
जाए— और यह
खयाल सत्य के
अत्यंत
अनुकूल है—कि
आप खंड नहीं
हैं, अखंड
आपके भीतर
विराजमान है।
यह कैसे अखंड
विराजमान होगा?
इसे थोड़ा हम
समझें।
स्वामी
राम कहा करते
थे कि ऐसा हुआ
एक बार कि एक
राजा के महल
में एक कुत्ता
घुस गया। राजा
ने जो महल
बनाया था, उसमें
उसने हजारों
कांच के टुकड़े
लगाए थे। हर कांच
का टुकड़ा एक
दर्पण था।
कुत्ता जब अंदर
गया, तो
उसने देखा कि
लाखों कुत्ते
खड़े हैं। हर
कांच के दर्पण
में एक—एक
कुत्ता खड़ा था,
पूरा का
पूरा। ऐसा
नहीं कि एक
टुकड़ा कि लाख
कांच लगे थे, तो लाख
टुकड़े हो गए
कुत्ते के और
एक—एक टुकड़ा
एक—एक कांच
में दिखाई
पड़ने लगा। लाख
कांच लगे थे, तो लाख
कुत्ते हो गए,
पूरे के
पूरे। पूरा
कुत्ता
टुकड़ों में
दिखाई पड़ने
लगा।
कुत्ता
घबड़ाया, भौंका। लाख
कुत्ते
भौंके।
कुत्ता घबड़ा
गया और भी
ज्यादा।
क्योंकि लाख
कुत्ते भौंक
रहे थे चारों
तरफ से। चीखा।
दौड़ा। कुत्ता
कांच के आईनो
की तरफ दौड़ा।
कांच के आईनो
के कुत्ते
कुत्ते की तरफ
दौड़े। कुत्ता
वहां मर गया
उसी रात। लडता
रहा रातभर। मर
गया।
करीब—करीब
आदमी की हालत
ऐसी है। आपमें
परमात्मा पूरा
प्रतिबिंबित
हो रहा है। आप
एक दर्पण हैं, एक मिरर।
हर आदमी एक
मिरर है। और
आदमी ही क्यों,
पौधा, पशु,
पक्षी, सभी,
समस्त कण इस
जगत के दर्पण
हैं। और आपमें
परमात्मा
पूरा छलक रहा
है, पूरा
उसका
प्रतिबिंब बन
रहा है; कट
नहीं गया, टुकड़ा
नहीं हो गया।
लेकिन आप अपने
में बनते प्रतिबिंब
को नहीं देख
रहे हैं। आप
भी उस कुत्ते
का व्यवहार कर
रहे हैं। आप
भौंक रहे हैं
आस— पास के
दर्पणों में,
वहां से
उत्तर आ रहा
है। घबड़ा रहे
हैं, परेशान
हो रहे हैं!
जिंदगी
एक चिंता है, क्योंकि
संघर्ष है
चारों तरफ। वह
कुत्ता जैसे
मर गया उस रात
उस महल में, हम भी संसार
में ऐसे ही
परेशान होकर
मरते हैं। और
जिससे हम
परेशान हो रहे
थे, वह और
हम, एक का
ही प्रतिबिंब
थे। और जिससे
हम परेशान हो
रहे थे, वह
हमारी ही छाया
थी और हम उसकी
छाया थे।
लेकिन यह गहन
अनुभव तभी
संभव हो पाता
है, जब
विचार की एक
पृष्ठभूमि
तैयार हो जाए।
जब मैं
कहता हूं कि
आप परमात्मा
हैं, तो
सिर्फ इसलिए
कि एक विचार
की भूमिका
तैयार हो जाए
और फिर आप इस
यात्रा पर
निकल पाएं।
आप
जिद्द करते
हैं कि नहीं
हैं। आप जिद्द
यह कर रहे हैं
कि हमें इस यात्रा
पर नहीं जाना
है। न जाना हो, आपकी
मर्जी। आपको
कोई
जबर्दस्ती इस
यात्रा पर
नहीं भेज सकता
है।
लेकिन
अगर जाना हो, तो आपको
इस यात्रा के
कुछ सूत्र समझ
लेने जरूरी
है। और पहला सूत्र
यह है अंत में
जो आप हो
जाएंगे, वह
आप आज और अभी—यहीं
हैं। कितना ही
समय लगे, लेकिन
समय केवल वही
प्रकट कर
पाएगा, जो
आपमें छिपा
था।
महावीर
को, बुद्ध
को, कृष्ण
को हम भगवान
कहते हैं
इसीलिए कि
उनमें वह
प्रकट हो गया
है, जो
हममें प्रकट
नहीं है।
लेकिन हममें
और उनके स्वभाव
में कोई फर्क
नहीं है। सिर्फ
अभिव्यक्ति
का फर्क है।
ऐसा
समझिए कि दो
कवि हैं। एक
कवि चुप बैठा
है और एक कवि
गा रहा है। जो
गा रहा है, वह आपको
कवि मालूम
पड़ेगा। जो चुप
है, वह कवि
नहीं मालूम
पड़ेगा। लेकिन
कवि होने में जरा
भी अंतर नहीं
है। वह भी
गाएगा। वह भी
गा सकता है।
वह गाएगा ही, भीतर उसके
गीत मौजूद है,
वह प्रकट
होगा।
एक बीज
पड़ा है और एक
वृक्ष लगा है।
वृक्ष में फूल
खिल गए हैं, और बीज
में तो कुछ भी
पता नहीं चलता
है, कंकड़—पत्थर
की तरह पड़ा
हुआ है। आपको
वृक्ष अलग
दिखाई पड़ता है,
आप वृक्ष को
नमस्कार करते
हैं, बीज
को नहीं।
लेकिन बीज में
भी वृक्ष छिपा
है। और यह जो
वृक्ष आज खड़ा
है, कल यह
भी बीज की तरह
कहीं पड़ा था।
और आज जो बीज की
तरह पड़ा है, कल भविष्य
में वृक्ष हो
जाएगा।
आप बीज
हैं परमात्मा
के, जब
मैं जोर देता
हूं कि आप
परमात्मा
हैं। इसकी
स्वीकृति, इसका
सहज स्वीकार
आपके विकास
में सहयोगी, साथी बन जाता
है। इसका
अस्वीकार
संकुचन दे
देता है। आप
अपने भीतर
कुंद होकर बंद
हो जाते हैं।
फिर आपकी
मर्जी। अब हम
सूत्र को लें।
हे
विश्वमूतें!
मैं पहले न
देखे हुए
आश्चर्यमय
आपके इस रूप
को देखकर
हर्षित हो रहा
हूं। और मेरा
मन भय से अति
व्याकुल भी हो
रहा है। इसलिए
हे देव! आप उस
अपने
चतुर्भुज रूप
को ही मेरे
लिए दिखाइए।
हे देवेश! हे
जगन्निवास!
प्रसन्न
होइए।
पहले न
देखे हुए
आश्चर्यमय
आपके इस रूप
को देखकर
हर्षित भी हो
रहा हूं। और
मेरा मन भय से
अति व्याकुल
भी हो रहा है।
अर्जुन बड़ी
दुविधा में है।
दोहरी बातें
एक साथ हो रही
हैं।
राबिया, एक सूफी
फकीर औरत के
बाबत सुना है
मैंने कि वह हंसती
भी थी और रोती
भी थी, साथ—साथ!
और जब लोग
उससे पूछते कि
राबिया, क्या
तू पागल हो गई?
तू हंसती भी
है और रोती भी
है, साथ—साथ!
हमने रोते हुए
लोग भी देखे, हमने हंसते
हुए लोग भी
देखे। बाकी
दोनों साथ—साथ
करता हुआ हमने
कभी नहीं।
देखा। कारण
क्या है?
तो
राबिया कहती, हंसती
मैं उसे देखकर,
और रोती मैं
तुम्हें
देखकर। हंसती
मैं उसे देखकर,
जो छाया है
चारों तरफ। और
रोती मैं
तुम्हें देखकर
कि तुम्हें
बिलकुल दिखाई
नहीं पड़ रहा!
हंसती हूं मैं
उसे देखकर जो
मुझे आज अनुभव
आ रहा है, और
रोती हूं मैं
उसे सोचकर जो
मैंने कल तक
माना था।
हंसना
और रोना एक
साथ जब घटित
हो, तो
हम आदमी को
पागल कहते
हैं। क्योंकि
सिर्फ पागल ही
हंसते और रोते
एक साथ हैं।
क्योंकि हम तो
बांट लेते हैं
समय में चीजों
को। जब हम रोते
हैं, तो
रोते हैं; जब
हंसते हैं, तो हंसते
हैं। दोनों
साथ—साथ नहीं
करते। लेकिन
जब कोई बहुत
परम अनुभव घटित
होता है, जिससे
जिंदगी दो
हिस्सों में
बंट जाती है; पिछली
जिंदगी अलग हो
जाती है और
आने वाली जिंदगी
अलग हो जाती
है; हम एक
चौराहे पर खडे
हो जाते हैं।
जहां पीछा भी
दिखाई पड़ता है,
आगा भी। और
जहां दोनों
बिलकुल भिन्न
हो जाते हैं, और दोनों के
बीच कोई संबंध
भी नहीं रह
जाता। वहा
दोहरी बातें
एक साथ घट
जाती हैं।
तो
अर्जुन को
हर्षित होना
भी हो रहा है, भयभीत
होना भी हो
रहा, है।
वह प्रसन्न भी
है, जो
उसने देखा।
अहोभाग्य
उसका। और वह
घबड़ा भी गया
है, जो उसने
देखा। इतना
विराट है, जो
उसने देखा, कि वह कैप
रहा है।
अपनी
क्षुद्रता का
भी अनुभव तभी
होता है, जब हम विराट
के सामने होते
हैं। नहीं तो
अपनी क्षुद्रता
का भी अनुभव
कैसे हो? हमको
किसी को भी
अपनी
क्षुद्रता का
अनुभव नहीं
होता, क्योंकि
मापदंड कहां
है जिससे हम
तौलें कि हम
क्षुद्र हैं?
जो
मेंढक अपने
कुएं के बाहर
ही न गया हो, उसे कुआ
सागर दिखाई
पड़े तो कुछ
गलत तो नहीं
है, बिलकुल
तर्कयुक्त
है। तो मेंढक
जब सागर के किनारे
जाएगा, तभी
अड़चन आएगी।
कहते हैं न कि
ऊंट जब तक
पर्वत के पास
न पहुंचे, तब
तक अड़चन नहीं
होती। क्योंकि
तब तक वह खुद
ही पर्वत होता
है। पर्वत के
करीब पहुंचकर
पहली दफा
तुलना पैदा
होती है।
अर्जुन
की घबड़ाहट
तुलना की
घबड़ाहट है।
पहली दफा बूंद
सागर के निकट
है। पहली दफा
ना—कुछ सब कुछ
के सामने खड़ा
है। पहली दफा
सीमा असीम से
मिल रही है।
तो घबड़ाहट है।
जैसे नदी सागर।
में गिरती है
तो घबडाती
होगी। अतात
में, अनजान
में, अपरिचित
में प्रवेश हो
रहा है। और ओर—छोर
मिट जाएंगे, नदी खो
जाएगी!।
जिब्रान
ने लिखा है कि
जब नदी सागर
में गिरती है, तो लौटकर
पीछे जरूर
देखती है।
रास्ता जाना—माना
परिचित था।
अतीत— स्मृति;
भविष्य—
अपरिचित, अनजान।
यह
अर्जुन ऐसी ही
हालत में खड़ा
है, जहां
मिट जाएगा
पूरा। रत्ती
भी नहीं
बचेगी। और अब
तक अपने को जो
समझा था, वह
कुछ भी नहीं
साबित हुआ, क्षुद्र
निकला। और
विराट सामने
खड़ा है। इसलिए
भयभीत भी हो
रहा है और
हर्षित भी हो
रहा है।
नदी जब
सागर में
गिरती है, तो अतीत
खो रहा है, इससे
भयभीत भी होती
होगी; और
अजात मिल रहा
है, इससे
हर्षित भी
होती होगी। तो
नदी नाचती हुई
गिरती है।
उसके पैर में
भय का कंपन भी
होता होगा और
आनंद की पुलक
भी होती है, क्योंकि अब
विराट से एक
होने जा रही
है।
जिस
दिन गेटे मर
रहा था, तो कहते हैं,
वह आंख
खोलकर देखता
था बाहर, फिर
आंख बंद कर
लेता था। फिर आंख
खोलकर बाहर
देखता था, फिर
आंख बंद कर
लेता था। किसी
ने पूछा कि तुम
क्या कर रहे
हो? तो
गेटे ने कहा, मैं देख रहा
हूं उस दुनिया
को जो छूट रही
है और आंख बंद
करके देख रहा
हूं उस दुनिया
को जो आ रही है।
और मैं दोनों
के बीच बड़ा
खिंचा हुआ
हूं। जो छूट
रहा है, वह
व्यर्थ था, लेकिन फिर
भी उसके साथ
रहा, लगाव
हो गया। है।
जो मिल रहा है,
सार्थक है,
लेकिन
अपरिचित है, भय भी लगता
है। पता नहीं
क्या होगा
परिणाम?
अर्जुन
कह रहा है, हर्षित
भी हो रहा हूं
और मेरा मन
अति भय से व्याकुल
भी हो रहा है।
इसलिए हे देव!
आप अपने
चतुर्भुज रूप
को ही ले लें।
हे देवेश! हे
जगन्निवास! प्रसन्न
हो जाएं, वापस
लौट आएं। सीमा
में खड़े हो
जाएं। असीम को
तिरोहित कर
लें। इस असीम
से मन कंपता
है।
और हे
विष्णो! मैं
वैसे ही आपको
मुकुट धारण किए
हुए तथा गदा
और चक्र हाथ
में लिए हुए
देखना चाहता
हूं। इसलिए हे
विश्वरूप! हे
सहस्रबाहो! आप
उसी चतुर्भुज
रूप से युक्त
हो जाइए।
यहां
मन की एक और
गतिविधि समझ
लेनी चाहिए।
जो न हो, मन उसकी
मांग करता है।
जो मिल जाए, तो जो नहीं
हो जाता है, मन उसकी
मांग करने
लगता है।
अर्जुन
खुद ही कहा था
कि मुझे दिखाओ
अपना विराट
रूप, असीम
हो जाओ। अब तो
मैं देखना
चाहता हूं; अनुभव करना
चाहता हूं। अब
सीमा से मेरी
तृप्ति नहीं
है। अब तो मैं
पूरा का पूरा
जैसे तुम हो अपने
नग्न सत्य में,
वैसे ही
निर्वस्त्र, तुम्हें
तुम्हारी
पूरी नग्नता
में, सत्यता
में देख लेना
चाहता हूं।
यही अर्जुन की
मांग थी, यह
उसकी ही
प्रार्थना
थी। और अब
देखकर वह कह रहा
है, वापस
लौट आओ; अपने
पुराने रूप
में खड़े हो
जाओ। अब तो
वही ठीक है।
तुम्हारा चार
हाथों वाला वह
रूप, उसी
में तुम वापस
आ जाओ।
प्रसन्न हो
जाओ।
जो खो
जाता है, हम उसकी
मांग करने लगते
हैं। जो मिल
जाता है, वह
हमें व्यर्थ
दिखाई पड़ने
लगता है। कुछ
भी मिल जाए, तो हमें डर
लगता है। पीछे
लौटना चाहते
हैं, आगे
जाना चाहते
हैं। मगर जो
मिल जाए, उसके
साथ राजी रहने
की हमारी
हिम्मत नहीं
है।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है एक
गीत, कि
खोजता था
परमात्मा को
अनंत— अनंत
कालों से। और
बड़ा बेचैन
रहता था। और
बड़ा रोता—चिल्लाता
था। और बड़ी
तपश्चर्या
करता था। और कभी
किसी दूर तारे
के किनारे
उसकी शक्ल भी
दिखाई पड़ती
थी। जब तक
वहां पहुंचता
था, तब तक
वह दूर निकल
जाता था। बड़ी
व्याकुलता थी,
मिलन का बडा
आग्रह था।
रोता, तड़पता,
छाती पीटता,
भटकता था।
फिर एक
दिन ऐसा हुआ
कि उसके
दरवाजे पर ही
पहुंच गया।
सीढ़ियां चढ़
गया। दरवाजे
पर तख्ती लगी
थी कि यही है
उसका मकान, जिसकी
तलाश थी। हाथ
में सांकल ले
ली दरवाजे की।
जन्मों—जन्मों
की प्यास पूरी
होने के करीब
थी। ठोंकने ही
वाला था सांकल
कि तभी मन ने
कहा कि जरा
सोच ले, अगर
परमात्मा मिल
ही गया, तो
फिर तू क्या
करेगा? फिर
तू क्या करेगा?
अब तक तू
उसको खोजता
था। और वह
आखिरी खोज है।
और अगर मिल ही
गया, फिर
तू क्या करेगा?
फिर तेरे
होने का क्या
अर्थ?
रवींद्रनाथ
ने बड़ी मीठी
कविता लिखी
है। लिखा है
कि धीरे से सांकल
मैंने छोड़ दी
कि कहीं आवाज
न हो जाए! कहीं वह
बाहर ही न आ
जाए! कहीं वह
आकर आलिंगन
में ही न ले ले
कि आ। बहुत
दिन से खोजता
था, अब
मिलन हो जाए।
जूते हाथ में
निकाल लिए, कि कहीं
सीढ़ियों से
लौटते वक्त
आवाज न हो जाए! और
फिर मैं जो
भागा हूं तो
मैंने लौटकर
नहीं देखा।
अब मैं
फिर खोज रहा
हूं। अब मैं
पूछता हूं लोगों
से कि कहां है
उसका मकान? और मुझे
उसका मकान पता
है। और अब मैं
जगह— जगह
गुरुओं से
पूछता हूं कि
तुम्हारे चरण
में आया हूं
रास्ता बताओ।
और मुझे उसका
रास्ता पता
है। और कभी
भूल—चूक से भी
उसके घर के
पास से मैं नहीं
गुजरता हूं।
क्योंकि अगर
वह मिल ही जाए,
तो फिर?
अर्जुन
की भी यही
हालत है। वह
दरवाजे के
भीतर घुस गए; उन्होंने
कुंडी बजा दी।
अब परमात्मा
मिल गया, अब
वे कह रहे हैं
कि नहीं, वापस!
फिर मुझे
खोजने दो। फिर
तुम अपनी सीमा
में खड़े हो
जाओ, ताकि
फिर मैं असीम
को खोजूं। अब
तुम फिर
मुस्कुराओ।
अब तुम फिर
गदा हाथ में
ले लो। अब तुम
चतुर्भुज हो
जाओ। तुम वही
हो जाओ!
क्योंकि तुम
तो मुझे मिटाए
दे रहे हो। अब
मेरा कोई अर्थ
ही नहीं रह
जाता, कोई
प्रयोजन नहीं
रह जाता।
आपको
खयाल में नहीं
है। जो लोग
दूर तक सोचते
हैं, उनको
खयाल में है।
रवींद्रनाथ
ने बड़ा गहरा
व्यंग्य किया
है।
बर्ट्रेड
रसेल ने अपने
एक वक्तव्य
में ठीक यही
बात कही है।
रसेल ने कहा
है कि मैं
हिंदुओं के
मोक्ष से बहुत
डरता हूं।
मुझे सोचकर ही
बात भयावनी
मालूम पड़ती
है। और सच में
है। आपने सोचा
नहीं कभी, इसलिए
फिक्र नहीं
है। रसेल कहता
है कि मैं यह
सोचकर ही बहुत
भयभीत हो जाता
हूं कि मोक्ष
मिल जाएगा, फिर क्या? देन व्हाट? और बड़ी
कठिनाई यह है
कि मोक्ष से
संसार में वापस
नहीं आ सकते।
संसार से तो
मोक्ष में जा
सकते हैं।
एनट्रेस तो है,
एक्यिट
नहीं है।
मोक्ष से वापस
नहीं लौट सकते।
वहां से कोई
दरवाजा नहीं,
जिसमें से
निकल भागे, बाहर आ गए।
तो
रसेल कहता है, मोक्ष की
बात ही घबडाती
है कि वहां न
दुख होगा, न
सुख होगा, परम
शांति होगी, लेकिन कितनी
देर? अनंत
काल तक? अनंत
काल तक शांति,
शांति, शांति!
बहुत बोर्डम,
बहुत ऊब
पैदा हो
जाएगी। स्वाद
में थोड़ी बदलाहट
तो चाहिए ही
आदमी को। थोड़ा
दुख आता है, तो सुख में
फिर मजा आ
जाता है। थोड़ी
अशांति होती
है, तो
शांति की फिर
चाह पैदा हो
जाती है।
लेकिन वहां
कोई विध्न—बाधा
ही न होगी।
वहां एक—सुरा
संगीत होगा, जिसमें कभी
ऊंची—नीची ताल
न होगी। वहां
सा रे ग म प ध नि
नहीं होगा।
वहां बस सा तो
सा। सा सा सा
सा सा चलता
रहेगा अनंत
काल तक!
उसमें, रसेल
कहता है, घबड़ा
जाएगी तबीयत।
और निकलने का
रास्ता नहीं है।
और यहां तो
प्रभु से
प्रार्थना
करते थे कि
मोक्ष पहुंचा
दो। फिर क्या
करेंगे? मोक्ष
के बाद कोई
उपाय नहीं है।
तो रसेल कहता है,
इससे तो नरक
भी बेहतर है, उसमें से कम
से कम बाहर तो
आ सकते हैं! और
कम से कम कुछ
मजा तो रहेगा।
कुछ चीजें तो
बदलेंगी। फिर
संसार ही क्या
बुरा है।
यह
रसेल ठीक कहता
है। अगर
सोचेंगे, तो घबड़ाहट
होगी। लेकिन
ऐसा नहीं है
कि बुद्ध और
महावीर और
कृष्य ने बिना
सोचे यह बात
कही है। अगर
आप अपनी
बुद्धि को
लेकर मोक्ष
में चले
जाएंगे, तो
वही होगा, जो
रसेल कह रहा
है। क्योंकि
बुद्धि
द्वंद्व है।
वह एक को नहीं
सह सकती, उसको
दो चाहिए।
लेकिन मोक्ष
की अनिवार्य
शर्त है, बुद्धि
को दरवाजे पर
छोड़ जाना।
इसलिए वहां कोई
कभी नहीं
ऊबता।
ध्यान
रहे, बोर्डम
के लिए बुद्धि
जरूरी है।
बुद्धि के नीचे
भी बोर्डम
पैदा नहीं
होती, बुद्धि
के ऊपर भी
बोर्डम पैदा
नहीं होती।
आपने किसी गाय—
भैंस को बोर
होते हुए देखा
है? कि
भैंस बैठी है,
बोर हो गई!
कि बहुत ऊब गई!
वही घास रोज
चर रही है। वही
सब रोज चल रहा
है। भैंस को
कोई ऊब नहीं
है। क्यों?
क्योंकि
ऊब पैदा होती
है बुद्धि के
साथ। बुद्धि
तुलना करने
लगती है—जो था, जो है, जो होगा—इसमें।
तौलने लगती है,
तो फिर भेद
अनुभव होने
लगता है। फिर
कल भी यही भोजन
मिला, आज
भी यही मिला, परसों भी
यही मिला, तो
ऊब पैदा होने
लगती है। भैंस
को पता ही
नहीं कि कल भी
यही भोजन किया
था। कल समाप्त
हो गया। कल तो
बुद्धि
संगृहीत करती
है, बुद्धि
स्मृति बनाती
है। भैंस जो
भोजन कर रही है,
वह नया ही
है। कल जो
किया था, वह
तो खो ही गया, उसका कोई
स्मरण ही नहीं
है। कल जो
होगा, उसकी
कोई खबर नहीं
है; आज
काफी है।
इसलिए
बुद्धि के
नीचे भी
बोर्डम नहीं
है। कोई जानवर
ऊबा हुआ नहीं
है। जानवर बड़े
प्रसन्न हैं।
कोई आदमी के
पार गया आदमी, बुद्ध, महावीर, ऊबे
हुए नहीं हैं।
उनकी
प्रसन्नता
फिर प्रसन्नता
है। क्योंकि
जो बुद्धि
हिसाब रखती थी,
उसको वे
पीछे छोड़ आए।
आदमी
परेशान है, जो भैंस और
भगवान के बीच
में है। उसकी
बड़ी तकलीफ है,
वह ऊबा हुआ
है। आदमी का
अगर एकमात्र
लक्षण, जो
जानवर से उसे
अलग करता है, कोई खोजा
जाए, तो वह
बोर्डम है, ऊब है। हर
चीज से ऊब
जाता है।
एक
सुंदर स्त्री
के पीछे
दीवाना है, मिली
नहीं, मिल
नहीं गई
स्त्री कि ऊब
शुरू हो गई! दो—चार
दिन में ऊब
जाएगा। सब
सौंदर्य बासा
पड़ जाएगा, पुराना
पड़ जाएगा। एक
अच्छे मकान की
तलाश है; मिला
नहीं कि दो—चार—आठ
दिन में सब
बासा हो
जाएगा। एक
अच्छी कार चाहिए;
वह मिल गई।
दो—चार—आठ दिन
में बासी हो
जाएगी। दूसरी
कार नजर को पकड़ने
लगेगी।
बुद्धि
तौलती है, ऊबती है।
बुद्धि के
नीचे भी ऊब
नहीं, बुद्धि
के पार भी
नहीं।
रसेल
ठीक कहता है।
अगर बुद्धि को
लिए ही कोई घुस
जाएगा
मोक्ष
में, तो
बहुत मुश्किल
में पड़ जाएगा।
लेकिन कोई घुस
नहीं सकता, इसलिए चिंता
की कोई जरूरत
नहीं है।
यह
अर्जुन ऐसी ही
दिक्कत में
पड़ा है। इसको
दिखाई पड़ रहा
है विराट। अब
इसको याद आता
है कृष्ण का
वह प्यारा मुख, जिससे
मित्रता हो
सकती थी, जिसके
कंधे पर हाथ
रखा जा सकता
था जिसे कहा
जा सकता था, हे यादव, हे
कृष्ण, अरे
सखा! जिससे
मजाक की जा
सकती थी। उसको
पकड़ने का मन
होता है।
सारी
दुनिया में यह
बात विचारणीय
बनी रही है कि
आखिर भारत में
हिंदुओं ने
परमात्मा की
इतनी साकार
मूर्तियां
क्यों
निर्मित कीं? इतनी
निराकार की
बात करने के
बाद इतनी
साकार मूर्तियां
क्यों
निर्मित कीं?
मुसलमानों
को कभी समझ
में नहीं आ
सका कि उपनिषद
की इतनी ऊंचाई
पर पहुंचकर
भारत, जहां
परम निराकार
की बात है, फिर
क्यों गांव—गांव,
घर—घर में
मूर्ति की
पूजा कर रहा
है?
इस
सूत्र में
उसका रहस्य
है।
इस
मुल्क ने
निराकार को
देखा है। और
जिन्होंने इस
मुल्क में
निराकार को
देखा है, उन्होंने
अपने पीछे आने
वालों के लिए
साकार मूर्तियां
बना दीं।
क्योंकि
उन्हें पता है
कि निराकार
बहुत घबड़ा
देता है, अगर
बिना तैयारी
के कोई वहां
पहुंच जाए।
उसमें मिटने
की तैयारी
चाहिए। उसके
पहले साकार ही
ठीक है। उसके
कंधे पर हाथ
रखा जा सकता
है। उसका शादी—विवाह
रचाया जा सकता
है। उसको कपड़े—गहने
पहनाए जा सकते
हैं। वह कुछ
गड़बड़ नहीं करता।
उसके साथ
तुम्हें जो
करना हो, तुम
कर सकते हो।
भोजन करवाओ तो
करवाओ! लिटाओ
तो लिटाओ।
सुला दो। उठा
दो। द्वार बंद
कर दो, खोल
दो। जो करना
हो!
परमात्मा
को जिन्होंने
विराट में
झांका है, उन्होंने
आदमी के लिए
मूर्तियां
निर्मित करवा
दी हैं।
क्योंकि
उन्हें पता चल
गया कि आदमी
जैसा है, अगर
ऐसा ही सीधा
विराट में खड़ा
हो जाए, तो
या तो
विक्षिप्त हो
जाएगा, घबड़ा
जाएगा, और
या फिर खड़ा ही
नहीं हो पाएगा;
देख ही नहीं
पाएगा; आंख
ही नहीं
खुलेगी।
इसलिए
निराकार का
इतना चिंतन
करने वाले
लोगों ने भी
साकार को
हटाया नहीं, साकार को
बने रहने दिया।
कभी—कभी
बहुत कंट्राडिक्टरी
लगता है।
शंकराचार्य
जैसा व्यक्ति, जो शुद्ध
निराकार की
बात करता है, फिर वह भी
मूर्ति के
सामने नाचता
है, कीर्तन
करता है! वह भी
गीत गाता है
मूर्ति के सामने!
बड़ी कठिन बात
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
पश्चिम में जो
लोग वेदांत का
अध्ययन करते
हैं, वे
कहते हैं, यह
कंट्राडिक्टरी
है।
यह
शंकर के
व्यक्तित्व
में बड़ा
विरोधाभास है।
एक तरफ तो
वेदांत की
इतनी ऊंची बात
कि सब माया
है। और फिर
इसी माया, मिट्टी के
बने हुए भगवान
के सामने गीत
गाना और नाचना
और तल्लीन हो
जाना!
इस
सूत्र में
उसका रहस्य
है।
शंकर को
तो पता है, जो
उन्हें दिखाई
पड़ा है। लेकिन
उनके पीछे जो
लोग आ रहे हैं,
अब वे उनके
संबंध में भी
समझ सकते हैं।
कि जो शंकर को
दिखाई पड़ा है,
यह अगर किसी
को आकस्मिक
रूप से दिखाई
पड़ जाए, कहीं
कोने से टूट
पड़े कोई धारा
और इसका अनुभव
हो जाए, तो
झेलना
मुश्किल हो जाएगा।
वह इम्पैक्ट,
वह आघात तोड़
जाएगा।
इसलिए
मूर्ति को
रहने दो, जब तक कि
अमूर्ति के
लिए तैयार न
हो जाए
व्यक्ति। तब
तक चलने दो उसे
अपने खेल—खिलौनों
के साथ, जब
तक कि वह इतना
प्रौढ़ न हो
जाए कि सब छोड़
दे।
यह
अर्जुन यही
मांग कर रहा
है कि तुम
मूर्त बन जाओ, अमूर्त नहीं।
और तुम्हारी
मूर्ति वापस
ले आओ।
इस
प्रकार
अर्जुन की
प्रार्थना को
सुनकर, कृष्ण बोले,
हे अर्जुन!
अनुग्रहपूर्वक
मैंने अपनी
योगशक्ति के
प्रभाव से यह
मेरा परम
तेजोमय, सबका
आदि और
सीमारहित
विराट रूप
तुझे दिखाया,
जो कि तेरे
सिवाय दूसरे
से पहले नहीं
देखा गया।
यह बड़ा
उपद्रव का वचन
है। क्योंकि
इसमें बड़ी उलझनें
हैं। जो लोग
गीता में गहन
चिंतन करते हैं, मनन करते
हैं, उनको
बड़ी कठिनाई
होती है। तेरे
सिवाय दूसरे से
पहले नहीं
देखा गया, इसका
क्या मतलब है?
क्या
अर्जुन पहला
अनुभवी है, जिसने
परमात्मा का
विराट रूप
देखा? यह बात
तो उचित नहीं
मालूम पड़ती।
अनंत काल से
आदमी है, अनंत
सिद्धपुरुष
हुए हैं, अनंत
जाग्रत
चेतनाएं हुई
हैं। क्या
अर्जुन पहला
आदमी है?
यह
अर्थ नहीं हो
सकता इस वाक्य
का। इस वाक्य
का केवल एक ही
अर्थ है और वह
यह कि कृष्ण
के द्वारा यह
रूप अर्जुन को
दिखाया गया, यह पहली
घटना है कृष्ण
के द्वारा।
मैंने
पीछे कहा कि
अगर कोई
अर्जुन बनने
को तैयार हो, तो यह
विराट दिखाया
जा सकता है।
एक मित्र मेरे
पास आए और
उन्होंने कहा
कि मुझे पक्का
तो पता नहीं
है कि मैं
अर्जुन हूं या
नहीं, लेकिन
आप कितने
अर्जुनों को
पहले दिखा
चुके हैं? तो
मैंने उनसे
पूछा कि तुम
पहले पुराने
कृष्ण की ही
फिक्र करो कि
कितने
अर्जुनों को
पुराने कृष्ण
पहले दिखा
चुके थे।
एक को
ही दिखा पाए।
और यही पहला
भी था और यही आखिरी
भी। क्योंकि
अर्जुन जैसा
समर्पण अति कठिन।
उतना सहज— भाव
से छोड़ देना
गुरु के हाथों
में अति कठिन
है— उतना
निस्संदेह, उतनी
पूर्ण
श्रद्धा से, उतने समग्र
भाव से। यही
अर्थ है इस
सूत्र का कि
तेरे सिवाय
दूसरे से पहले
नहीं देखा गया
है।
कृष्ण
के संबंध में
यह बात सच है
कि कृष्ण ने
इस रूप में, कृष्य के
रूप में जिसे
दिखाया, वह
अकेला अर्जुन
है। और यह
पहला कहा है उन्होंने।
लेकिन बाद में
भी किसी दूसरे
को नहीं
दिखाया है। यह
आखिरी भी है।
अर्जुन
पाना अति कठिन
है। इसे थोड़ा
सोच लें।
कृष्ण
हो जाना इतना
कठिन नहीं है, जितना
अर्जुन पाना
कठिन है। जब
मैं ऐसा कहूंगा,
तो आपको
थोड़ी अड़चन
मालूम पड़ेगी। कृष्ण
हो जाना इतना
कठिन नहीं है,
जितना
अर्जुन होना
कठिन है।
बुद्ध कृष्ण
हो जाते हैं, महावीर
कृष्ण हो जाते
हैं, लेकिन
अर्जुन होना
बड़ा कठिन है।
क्योंकि कृष्ण
होना तो स्वयं
पर स्वयं की
श्रद्धा से
होता है।
अर्जुन होना
स्वयं की
दूसरे पर
श्रद्धा से होता
है, जो बड़ी
जटिल बात है।
स्वयं
पर भरोसा रखना
तो इतना कठिन
नहीं है।
क्योंकि हमारा
भरोसा स्वयं
पर होता ही है
थोड़ा कम—ज्यादा।
यह बढ़ जाए, जिस दिन
आदमी अपने में
पूरे भरोसे से
भर जाता है, उस दिन
कृष्य की घटना
घट जाती है।
यह तो सहज है, क्योंकि एक
ही आदमी की
बात है, अपने
पर ही भरोसा
करना है।
लेकिन अर्जुन
होना अति कठिन
है, क्योंकि
दूसरे पर ऐसे
भरोसा करना है
कि जैसे वह
मेरी आत्मा है
और मैं उसकी
परिधि हूं।
इसलिए
अर्जुन को
खोजना कृष्ण
को भी मुश्किल
पड़ा है। एक
अर्जुन कृष्ण
को उपलब्ध हुआ
है। राम को
कभी कोई ऐसा
अर्जुन उपलब्ध
हुआ, पता
नहीं। बुद्ध
को कभी कोई
ऐसा अर्जुन
उपलब्ध हुआ, पता नहीं।
जीसस को कभी
कोई ऐसा
अर्जुन
उपलब्ध हुआ, पता नहीं।
उनके पास भी
बहुत लोगों को
घटनाएं घटी
हैं, लेकिन
अर्जुन जैसी
विराट अनुभव
की घटना नहीं घटी।
तो कृष्ण
का यह कहना इस
अर्थ में
सार्थक है कि
इस प्रकार का
समर्पण
मुश्किल है, अति दूभर
है। और इस
प्रकार का
समर्पण हो, तो ही यह
घटना घट सकती
है।
हे
अर्जुन!
मनुष्य—लोक
में इस प्रकार
विश्वरूप
वाला मैं न
वेद के अध्ययन
से, न
यज्ञों के
करने से, न
दान से, न
क्रियाओं से,
न उग्र तपो
से ही तेरे
सिवाय दूसरे
से देखे जाने
योग्य शक्य
हूं।
यह बड़ी
गहरी और
महत्वपूर्ण
बात कही है।
कहा है
कि वेद के
अध्ययन से भी
यह नहीं होगा।
यज्ञों के
करने से भी यह
नहीं होगा।
दान से भी नहीं
होगा।
क्रियाओं से
योग की भी
नहीं होगा। उग्र
तपो से भी यह
नहीं होगा।
क्यों नहीं
होगा? वेद
के अध्ययन से
क्यों नहीं
होगा? क्यों,
यज्ञ कोई
साधेगा, तो
नहीं होगा? क्यों नहीं
योग की
क्रियाएं इस
स्थिति में ले
जाएंगी?
यह
नहीं होगा
इसलिए कि वेद
का अध्ययन हो, या यज्ञ
हो, या योग
की साधना हो, ये सारी की
सारी
प्रक्रियाएं
स्वयं पर
भरोसे से होती
हैं। इनमें
व्यक्ति अपना
ही केंद्र होता
है। ये समर्पण
के प्रयोग
नहीं हैं। ये
सब संकल्प के
प्रयोग हैं। और
अर्जुन की
घटना समर्पण
से घटेगी, संकल्प
से नहीं।
कोई
कितना ही योग
साधे, वह
अर्जुन नहीं
बनै पाएगा, कृष्ण बन
सकता है। इसे
थोड़ा समझ
लेना।
कितना
ही योग साधे, कृष्ण
बन सकता है।
इसलिए हम
कृष्य को
महायोगी कहते हैं।
वह बुद्ध बन
सकता है।
क्योंकि
संकल्प अगर इस
जगह पहुंच जाए
कि मैं अपने
भीतर प्रवेश
करता जाऊं
अपनी ही शक्ति
से, तो एक
दिन उस बिंदु
का अनावरण कर
लूंगा, जो
मुझमें छिपा
है। लेकिन तब
मैं अर्जुन
नहीं रहूंगा,
मैं कृष्य
हो जाऊंगा।
अर्जुन
दूसरी ही
प्रक्रिया
है। वह संकल्प
नहीं, समर्पण
है। वहां
स्वयं खोज
नहीं करनी, जिसने खोज
लिया है, उसके
चरणों में
अपने को छोड़
देना है। तो
अर्जुन है, मीरा है, चैतन्य
हैं, इनकी
पकड़ दूसरी है;
यह दूसरा
उपाय है।
जगत
में दो तरह के
मन हैं। एक, जो
संकल्प से
पाएंगे
परमात्मा को।
दूसरे, जो
समर्पण से
पाएंगे
परमात्मा को।
समर्पण में
अपने को बिलकुल
छोड़ देना है।
रामकृष्ण
कहते थे— उनकी
बात से इस
सूत्र को मैं
पूरा करूं—रामकृष्ण
कहते थे, नदी को पार
करने के दो
ढंग हैं। एक
तो है कि नाव को
खेओ पतवार से।
यह संकल्प है।
और एक है कि प्रतीक्षा
करो। जब हवाएं
अनुकूल हों, तब पाल बांध
दो और नाव में
चुपचाप बैठ
जाओ। नाव खुद
चल पड़े। पाल
में भरी हुई
हवाएं उसे ले
जाने लगें। यह
समर्पण है।
कृष्ण
की हवा है, अर्जुन
ने तो सिर्फ
नाव के पाल
खोल दिए।
अर्जुन खुद
नहीं चला रहा
है नाव को।
हवा कृष्य की
है।
बुद्ध
खुद चला रहे
हैं। पाल
वगैरह नहीं
हैं उनकी नाव
पर। और पाल
वगैरह वे पसंद
भी नहीं करते।
मरते वक्त
बुद्ध ने आनंद
को कहा है, अपने पर
ही भरोसा रखना,
किसी और पर
नहीं।
स्वभावत:, जिसने
नदी को नाव को
खेकर पार किया
हो पतवारों से,
वही कहेगा।
एक है
समर्पण, कि छोड़ दो
नाव उस पर, अनुकूल
हवाओं के लिए।
वह ले जाए पार
या डुबा दे, तो भी समझना
कि वही किनारा
है। या खुद
अपने ही बल से
नदी को पार कर
लेना।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, न वेद के
अध्ययन से, न यज्ञ के
अनुष्ठान से,
न योग की
क्रिया से, न उग्र
तपश्चर्या से
यह होता है
अर्जुन, जो
तुझे हुआ है।
यह समर्पण से
होता है।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुके।
कीर्तन पूरा
करें और जाएं।
और कीर्तन में
सम्मिलित
हों। बैठे
रहें अपनी जगह, लेकिन
कीर्तन में
भाग लें।
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