अध्याय—11
सूत्र—(140)
श्रीभगवानुवाच:
गर्दर्शमिदं
रूपं
दृष्टवानसि
यन्यम।
देवा
अप्यस्य
रूपस्य
नित्यं
दर्शनकाक्षिण:।। 52।।
नाहं वेदैर्न
तयसा न दानेन
न चेज्यया।
शक्य
एवंविधो दृष्टुं
दृष्टवानसि
मां यथा।। 53।।
भक्त्या
त्वनन्यया
शक्य
अहमेवंविधोउर्जुन।
ज्ञातुं
दृष्टुं च
तत्वेन
प्रवेष्टुं
च परंतप।। 54।।
मत्कर्मकृन्मत्यरमो
मइभक्त:
संगवर्जित:।
निर्वैर:
सर्वभूतेषु
यः स मामेति
पाण्डव।। 55।।
इस
प्रकार
अर्जुन के वचन
को सुनकर
श्रीकृष्ण भगवान
बोले हे
अर्जुन मेरा
यह चतुर्भुज
रूप देखने को
अति दुर्लभ है
कि जिसको
तुमने देखा है
क्योंकि
देवता भी सदा
इस रूप के
दर्शन करने की
इच्छा वाले
हैं।
और
हे अर्जुन न
वेदों से न तय
से न दान से और
न यह से हम प्रकार
चतुर्भुज रूप
वाला मैं देखा
जाने को शक्य हूं
कि जैसे मेरे
को तुमने देखा
है।
परंतु
हे श्रेष्ठ तय
वाले अर्जुन
अनन्य भक्ति
करके तो हम
प्रकार
चतुर्भुज रूप
वाला मैं प्रत्यक्ष
देखने के लिए
और तत्व से
जानने के लिए
तथा प्रवेश
करने के लिए
अर्थात एकीभाव
से प्राप्त
होने के लिए
भी शक्य हूं।
हे
अर्जुन जो
पुरुष केवल
मेरे ही लिए
सब कुछ मेरा
समझता हुआ
संपूर्ण
कर्तव्य—
कर्मों को करने
वाला है और
मेरे परायण है
अर्थात मेरे
को परम आश्रय
और परम गति
मानकर मेरी
प्राप्ति के
लिए तत्पर है
तथा मेरा भक्त
है और आसक्तिरहित
है अर्थात स्त्री
पुत्र और
धनादि
संपूर्ण
सांसारिक पदार्थों
में
स्नेहरहित है
और संपूर्ण
भूत— प्राणियों
में वैर— भाव
से रहित है
ऐसा वह अनन्य
भक्ति वाला
पुरुष मेरे को
ही प्राप्त
होता है
एक
मित्र ने पूछा
है कि सृष्टि
और स्रष्टा
यदि एक हैं और
अगर हम स्वयं
भगवान ही हैं, तो फिर
भगवान को पाने
या खोजने की बात
ही असंगत है।
निश्चित ही
असंगत है।
इससे ज्यादा
बड़ी भूल की कोई
और बात नहीं
कि कोई भगवान
को खोजे।
क्योंकि खोजा
केवल उसी को
जा सकता है, जिसे
हमने खो दिया
हो। जिसे हमने
खोया ही नहीं
है, उसे
खोजने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन जब यह
पता चल जाए कि
मैं भगवान हूं
तभी खोज असंगत
है, उसके
पहले असंगत
नहीं है। उसके
पहले तो खोज
करनी ही
पड़ेगी।
खोज से
भगवान न
मिलेगा, खोज से
सिर्फ यही पता
चल जाएगा कि
जिसे मैं खोज
रहा हूं वह
कहीं भी नहीं
है, बल्कि
जो खोज रहा है
वहीं है। खोज
की व्यर्थता
भगवान पर ले
आती है, खोज
की सार्थकता
नहीं।
इसे
थोड़ा समझना
कठिन होगा, लेकिन
समझने की
कोशिश करें।
यहां खोजने
वाला ही वह है
जिसकी खोज चल
रही है। जिसे
आप खोज रहे हैं
वह भीतर छिपा
है। इसलिए जब
तक आप खोज
करते रहेंगे,
तब तक उसे न
पा सकेने।
लेकिन कोई
सोचे कि बिना खोज
किए, ऐसे
जैसे हैं ऐसे
ही रह जाएं, तो उसे पा
लेंगे, वह
भी न पा
सकेगा।
क्योंकि अगर
बिना खोज किए
आप पा सकते
होते तो आपने
पा ही लिया
होता। बिना खोज
किए मिलता
नहीं, खोजने
से भी नहीं
मिलता। जब
सारी खोज
समाप्त हो
जाती है और
खोजने वाला
चुक जाता है, कुछ खोजने
को नहीं बचता,
उस क्षण यह
घटना घटती है।
कबीर
ने कहा है, खोजत—खोजत
हे सखी रह्या
कबीर हिराइ।
खोजते—खोजते
वह तो नहीं
मिला, लेकिन
खोजने वाला
धीरे— धीरे खो
गया। और जब
खोजने वाला खो
गया, तो
पता चला कि
जिसे हम खोजते
थे वही भीतर
मौजूद है।
हम जब
परमात्मा को
भी खोजते हैं, तो ऐसे ही
जैसे हम दूसरी
चीजों को
खोजते हैं। कोई
धन को खोजता
है, कोई यश
को खोजता है, कोई पद को
खोजता है। आंखें
बाहर खोजती
हैं— धन को, पद
को, यश को, ठीक। हम
भगवान को भी
बाहर खोजना
शुरू कर देते हैं।
हमारी खोज की
आदत बाहर
खोजने की है।
उसे भी हम
बाहर खोजते
हैं। बस वहीं
भूल हो जाती
है। वह भीतर
है। वह खोजने
वाले की
अंतरात्मा
है।
लेकिन
इसका यह मतलब
नहीं कि मैं
आपसे कह रहा हूं
कि खोजें मत।
आप खोज ही
कहां रहे हैं
जो आपसे कहूं
कि खोजें मत।
जो खोज रहा हो, खोजकर थक
गया हो, उससे
कहा जा सकता
है रुक जाओ।
जो खोजने ही न
निकला हो, जो
थका ही न हो, जिसने खोज
की कोई चेष्टा
ही न की हो, उससे
यह कहना कि
चेष्टा छोड़ दो,
नासमझी है।
चेष्टा छोड़ने
के लिए भी
चेष्टा तो होनी
ही चाहिए।
एक मजे
की बात इससे
मुझे स्मरण
आती है। एक
मित्र ने पूछी
भी है, उपयोगी
होगी। कृष्ण
भी कहते हैं
कि वेद में मैं
नहीं मिलूंगा,
शास्त्र
में नहीं
मिलूंगा, यश
में नहीं
मिलूंगा, योग
में, तप
में नहीं
मिलूंगा।
लेकिन आपको
पता है यह किन
लोगों से कहा
है उन्होंने?
जो वेद में
खोज रहे थे, यश में खोज
रहे थे, तप
में खोज रहे
थे, योग
में खोज रहे
थे, उनसे
कहा है। आपसे
नहीं कहा है। आप
तो खोज ही
नहीं रहे हैं।
बुद्ध
ने कहा है, शास्त्रों
को छोड़ दो, तो
ही सत्य
मिलेगा।
लेकिन यह उनसे
कहा है जिनके
पास शास्त्र
थे।
कृष्णमूर्ति
भी लोगों से
कह रहे हैं, शास्त्रों
को छोड़ दो, सत्य
मिलेगा।
लेकिन वे उनसे
कह रहे हैं जो
शास्त्र को
पकड़े ही नहीं
हैं। आप
छोडिएगा खाक?
जिसको पकड़ा
ही नहीं उसको
छोडिएगा कैसे?
कृष्णमूर्ति
को सुनने वाले
लोग सोचते हैं
कि तब तो ठीक।
सत्य ' तो
हमें मिला ही
हुआ है, क्योंकि
हमने शास्त्र
को कभी पकड़ा
ही नहीं। जिसने
पकड़ा नहीं है
वह छोड़ेगा
कैसे? और
सत्य मिलेगा
छोड़ने से।
पकड़ना उसका
अनिवार्य
हिस्सा है।
आपके
पास जो है वही
आप छोड़ सकते
हैं। जो आपके
पास नहीं है
उसे कैसे
छोडिएगा? आपकी खोज
होनी चाहिए।
और जब आप खोज
से थक जाएंगे;
ऊब जाएंगे;
परेशान हो
जाएंगे; जब
न खोजने को
कोई रास्ता
बचेगा, न
खोजने की
हिम्मत बचेगी;
जब सब तरफ
फ्रस्ट्रेटेड,
सब तरफ उदास
टूटे हुए आप
गिर पड़ेंगे, उस गिर पड़ने
में उसका
मिलना होगा।
क्योंकि जब बाहर
खोजने को कुछ
भी नहीं बचता,
तभी आंखें
भीतर की तरफ
मुड़ती हैं। और
जब बाहर चेतना
को जाने के
लिए कोई मार्ग
नहीं रह जाता,
तभी चेतना
अंतर्गामी
होती है।
एक
गरीब आदमी से
हम कहें कि तू
धन का त्याग
कर दे, एक
भिखमंगे से हम
कहें कि तू
बादशाहत को
लात मार दे।
भिखमंगे सदा
तैयार हैं
बादशाहत को
लात मारने को।
लेकिन
बादशाहत कहां
है जिसको वे
लात मार दें? धन कहां है
जिसे वे छोड़
दें? और
जिसके पास धन
नहीं है, वह
धन को कैसे
छोड़ेगा? और
जिसके पास
बादशाहत नहीं है,
वह बादशाहत
कैसे छोड़ेगा?
हम वही छोड़
सकते हैं जो
हमारे पास है।
तो
ध्यान रखें, जब मैं
आपसे कहता हूं
कि परमात्मा
को खोजने की
कोई भी जरूरत
नहीं है, क्योंकि
वह खोजने वाले
में छिपा है, तो मैं यह
उनसे कह रहा
हूं जो खोज
रहे हैं, उनसे
नहीं कह रहा
हूं जो खोज ही
नहीं रहे हैं।
उनसे तो मैं
कहूंगा, खोजो।
जहां भी
तुम्हारी सामर्थ्य
हो, वहां
खोजो। मूर्ति
में, शास्त्र
में, तीर्थ
में, जहां
तुम खोज सको, खोजो।
तुम्हारे मन
को थोड़ा थकने
दो। खोज व्यर्थ
होने दो। तभी
तुम भीतर मुड़
सकोगे।
जिंदगी में
छलांग नहीं
होती, जिंदगी
में एक क्रमिक
गति होती है।
आप भी
सुन लेते हैं
कि शास्त्र
में नहीं है, तो फिर
क्या फायदा?
एक
मित्र ने पूछा
है कि जब
कृष्ण खुद ही
कहते हैं कि
शास्त्र में
नहीं है, तो फिर यह
गीता समझाने
से क्या होगा?
रामायण
पढ़ने से क्या
होगा? जब
खुद कृष्ण ही
कहते हैं कि
वेद में कुछ
नहीं है, तो
गीता में कैसे
कुछ हो सकता
है?
ठीक कहते हैं
वे। वे मित्र
ठीक पूछ रहे
हैं कि अगर
कृष्ण की ही
बात हम मान
लें, तो
फिर गीता में
भी क्या रखा
है? लेकिन
इतनी बात भी
आपको पता चल
जाए कि
वेद में
नहीं है, इतना भी
गीता से पता
चल जाए, तो
बहुत पता चल गया।
अगर शास्त्र
पढ़ने से इतना
भी पता चल जाए कि
शास्त्र
बेकार हैं, तो काफी पता
चल गया। यह भी
आपको अपने से
कहां पता चलता
है!
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, कृष्णमूर्ति
कहते हैं कि
किसी की मत
मानो, अपना
खोजो। मैं उन
लोगों से
पूछता हूं कि
तुम कृष्णमूर्ति
की मानकर चले
आए हो। और कृष्णमूर्ति
ने समझाया है
कि किसी की मत
मानो। और तुम
मुझे कह रहे
हो, कृष्णमूर्ति
कहते हैं कि
किसी की मत
मानो, हम
अब किसी की न
मानेंगे। पर
तुमने किसी की
मान ली।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, गुरु
से कुछ न
मिलेगा। तुम
कृष्णमूर्ति
के पास किसलिए
गए थे? और
अगर इतना भी
तुम्हें मिल
गया, तो
कृष्णमूर्ति
इतने के लिए
कम से कम
तुम्हारे
गुरु हो गए।
और फिर अब तुम
बार—बार क्यों
जा रहे हो, जब
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, गुरु
से कुछ न
मिलेगा।
तो
वर्ष दर वर्ष
कृष्णमूर्ति
को सुनने
वालों को
देखें। चालीस
साल से वे ही
शक्लें बार—बार
वहां बैठी हुई
दिखाई पड़ेगी।
ये क्या सुन रहे
हैं अगर गुरु
से कुछ भी न
मिलेगा! तो
कृष्णमूर्ति
से कैसे
मिलेगा! लेकिन
अगर इतना भी
मिल गया, तो भी कुछ कम
नहीं है।
ध्यान
रहे, जीवन
बहुत विरोधाभासी
है। गुरुओं ने
सदा ही कहा है
कि गुरुओं से
नहीं मिलेगा।
लेकिन यह खबर
भी उनसे ही
मिली है।
शास्त्रों ने
सदा कहा है कि
शास्त्र में क्या
रखा है! लेकिन
यह पता भी
शास्त्र से ही
चला है।
चेष्टा करने
से ही पता
चलेगा कि
चेष्टा से
नहीं मिलता
है। और जब यह
पता चलेगा, तो यह अनुभव
और है।
दो तरह
के लोग हैं।
मैंने सुना है, एक बार
ऐसा हुआ कि एक
तीर्थ की
यात्रा पर
जाने वाले
लोगों की भीड़
थी एक स्टेशन
पर। सारे लोग जा
रहे थे
हरिद्वार।
शायद अमृतसर
का स्टेशन था।
और एक आदमी
कहने लगा कि
मैं ट्रेन में
तभी चढूगा जब
मुझे फिर
उतरना न पड़े।
और अगर उतरना
ही है, तो
चढ़ने का फायदा
क्या। वह आदमी
ठीक तर्क की बात
कह रहा था। वह
कह रहा था, अगर
इस ट्रेन में
से उतरना ही
है— बहुत भीड़—
भड़क्का था और
घुसना भी बहुत
मुश्किल था—
उस आदमी ने
कहा कि अगर
इसमें से
उतरना ही है, तो इतनी
दिक्कत चढ़ने
की क्या करनी!
हम तो उतरे ही
हुए हैं। और
अगर इतनी
मुसीबत करके
जान जोखिम में
डालकर भीतर
घुसना है, तो
फिर एक बात
पक्की कर ली
जाए कि इसमें
से उतरना तो
नहीं पड़ेगा!
उसके
मित्रों ने
कहा कि बातचीत
में समय मत
गवाओ। सीटी
बजी जा रही है, ट्रेन जा
रही है!
उन्होंने
जबरदस्ती
खींचकर...। वह
आदमी
चिल्लाता ही
रहा। वह शानी
था! वह आदमी
चिल्लाता ही
रहा कि पहले
यह तो पक्का
पता चल जाए कि
इससे उतरना तो
नहीं पड़ेगा? इतनी
मुश्किल से चढ
रहे हैं। हाथ—पैर
टूटे जा रहे
हैं।
हड्डियां
खराब हुई जा
रही हैं। तुम
मुझे खींचे जा
रहे हो। यह तो
बताओ कि इससे
उतरना तो नहीं
पड़ेगा? उन्होंने
कहा, यह
पीछे समझ
लेंगे। तुम
पहले अंदर!
उसको किसी तरह
खिड़की से अंदर
कर लिया।
खैर, वह आदमी
किसी तरह अंदर
हो गया। फिर
हरिद्वार पर
उतरने की नौबत
आ गई। वह आदमी
फिर कहने लगा
कि मैंने पहले
ही कहा था, अगर
उतरना ही है, तो चढ़ने से
क्या मतलब था।
हम तो उतरे ही
हुए थे। उसके
मित्रों ने कहा,
उतरो भी। अब
यह गाडी यहां
से जाएगी। फिर
उसे खींचने
लगे। वह आदमी
कहने लगा, तुम
हो किस तरह के
लोग! कभी चढ़ने
के लिए खींचते
हो, कभी
उतरने के लिए
खींचते हो! और
तुम्हीं! और
तुमको इतनी भी
बुद्धि नहीं
आती कि तुम दोनों
काम कर रहे हो
उलटे! मैं तो
पहले ही उतरा हुआ
था।
तब एक
बूढ़े आदमी ने
कहा, लेकिन
तू उतरा हुआ
था अमृतसर पर।
अब तू उतर रहा
है हरिद्वार
पर। और इन
दोनों में
फर्क है।
एक
आदमी है, जिसने
शास्त्र छुए
ही नहीं। वह
भी बड़ा प्रसन्न
हो जाता है
सुनकर कि
शास्त्रों से
कुछ भी नहीं
मिलेगा। उसकी
प्रसन्नता यह
नहीं है कि वह
समझ गया, उसकी
प्रसन्नता यह
है कि अच्छा, तो जो
शास्त्र पढ़—पढ़कर
ज्ञानी बने जा
रहे थे, वे
भी कोई ज्ञानी
नहीं हैं। मैं
पहले से ही उतरा
हुआ हूं! अगर
तुमको उतरना
ही है, तो
हम पहले से ही
उतरे हुए हैं।
अगर एक बार फिर
ज्ञान को
छोड्कर
अज्ञानी बनना
पड़ेगा, तो
हम तो अज्ञानी
पहले से ही
हैं! तो तुमने
कमाई ही क्या
की! तुमने
व्यर्थ समय
गंवाया। और
नाहक अकड़ रहे
थे कि शास्त्र
पढ़ लिया। वेद
के ज्ञाता हो
गए!
लेकिन
उसको पता नहीं
है कि एक
अज्ञान ज्ञान
के पहले का
है। और एक
अज्ञान वह है
जो ज्ञान के
बाद आता है।
ज्ञान के बाद
के अज्ञान से
ज्ञान के पहले
के अज्ञान का
कोई भी संबंध
नहीं है। कहां
अमृतसर! कहां
हरिद्वार!
उनमें बड़ी
यात्रा का
फर्क है।
ज्ञान
के पहले जो अज्ञान
है, वह
सिर्फ अज्ञान
है। शान के
बाद, जब
शान को भी कोई
छोड़ देता है, तब जो अज्ञान
घटित होता है,
वह चित्त की
निर्दोषता है,
निर्भारता
है। वह अज्ञान
नहीं है, वही
ज्ञान है।
इसलिए सुकरात
ने कहा है कि
जब कोई जान
लेता है, तो
वह कह देता है
कि अब मैं कुछ
भी नहीं जानता
हूं। इसलिए
उपनिषदों ने
कहा है कि अज्ञानी
तो भटकते ही
हैं अंधकार
में, शानी
महाअंधकार
में भटक जाते
हैं! तो फिर
बचेगा कौन? ये उपनिषद
कहते हैं, अज्ञानी
तो भटकते ही
हैं अंधकार
में, जानी
और महाअंधकार
में भटक जाते
हैं। तो फिर बचेगा
कौन?
वह
बचेगा, जो शान के
बाद आने वाले अज्ञान
को उपलब्ध
होता है। जो
नहीं खोजते, वे तो
परमात्मा को
पाते ही नहीं।
जो खोजते हैं,
वे और दूर
निकल जाते
हैं। लेकिन
खोज के बाद भी खोज
के छोड़ देने
की एक घटना है,
वे उसे पा
लेते हैं।
ये तीन
बातें हैं। आप, जो कि खोज
ही नहीं रहा
है। साधु, संन्यासी,
पंडित, खोज
रहा है— कोई तप
में, कोई
शास्त्र में,
कोई कहीं
और। और एक
तीसरा ज्ञानी,
परमहंस, जो
खोज भी छोड़
दिया, शास्त्र
भी छोड़ दिया।
जो अब बैठ गया,
जैसा है
वैसा ही हो
गया। अब कहीं
भी नहीं खोजने
जाता।
यह जो न
जाने वाली
चेतना है, यह भीतर
प्रवेश कर
जाती है। यह न
जाने वाली चेतना
स्वयं में
प्रज्वलित हो
जाती है। यह
कहीं न जाने
वाली चेतना
नया आयाम पकड़
लेती है।
आपने
सुनी हैं दस
दिशाएं। जो
जानते हैं वे
कहते हैं
ग्यारह
दिशाएं हैं।
दस दिशाएं
बाहर हैं और
एक दिशा भीतर
है। जब दसों
दिशाएं बेकार
हो जाती हैं, तब चेतना
भीतर की तरफ
मुड़ती है। जब
और कहीं नहीं
मिलता वह, तभी
आदमी अपने में
खोजता है—
आखिरी समय में,
अंतिम क्षण
में।
तो अगर
आपको पता चल
गया कि आप
भगवान हैं, तब तो बात
ही खतम हो गई।
खोज व्यर्थ
है। अगर मेरे
कहने से मान
लिया, तो
अभी खोज करनी
पड़ेगी। मेरे
कहने से मान
ली गई बात
आपका अनुभव
नहीं है। मेरे
कहने से खोज शुरू
होगी, अनुभव
नहीं हो
जाएगा। और टेन
में अभी चढ़ना
होगा। और अगर
आपकी यह जिद
हो कि अगर
उतरना ही है
बाद में तो हम
चढ़ेंगे नहीं,
तो आपकी
मर्जी। लेकिन
फिर आप समझ
लेना कि अमृतसर
पर ही खड़े
हैं। फिर
हरिद्वार की
तरफ गति नहीं
हो रही।
चढ़े भी, उतरें
भी। सीढ़ियों
पर चढ़ना भी
पड़ता है, उतरना
भी पड़ता है।
जो सीढ़ियों पर
नहीं चढ़ता, वह नीचे की
मंजिल पर रह
जाता है। जो
फिर जिद करता
है कि मैं
सीढ़ियों से
उतरूंगा नहीं,
वह सीढ़ियों
पर रह जाता
है। वह भी ऊपर
की मंजिल पर
नहीं
पहुंचता। ऊपर
की मंजिल पर
वह पहुंचता है,
जो सीढ़ियों
पर चढ़ता है, फिर सीढ़ियों
को पकड़ नहीं
लेता, सीढ़ियों
को छोड़ भी
देता है।
बुद्ध
ने कहा है, कुछ
नासमझ मैंने
देखे हैं एक
गांव में। वे
नदी पार किए
थे नाव में
बैठकर। और फिर
उन्होंने सोचा
कि जिस नाव ने
हमें नदी पार
करवा दी उसको
हम कैसे छोड़
सकते हैं! तो
कुछ दिन तो वे
नाव पर रहे।
लेकिन नाव पर
कब तक रहते? भोजन की तकलीफ
हो गई, मुसीबत
हो गई। तो फिर
उन्होंने
सोचा, उचित
यह है कि हम
उतर जाएं और
नाव को सिर पर
लेकर चल पड़े।
क्योंकि जिस
नाव ने हमको
पार करवा दिया
उसे हम कैसे
छोड़ सकते हैं?
और अगर
छोड़ना ही था, तो फिर हम
चढ़े ही क्यों
थे? तो वे
नाव को सिर पर
लेकर गांव में
निकले।
गांव
के लोगों ने
पूछा, तुम
यह क्या कर
रहे हो? बुद्ध
उस गांव में
थे। बुद्ध ने
कहा, ये
पंडित हैं। ये
बड़े तानी हैं।
ये बड़े ज्ञानी
हैं, अज्ञानी
तो उसी पार रह
गए, वे नाव
पर ही नहीं
चढ़े। ये
ज्ञानी हैं।
नाव पर चढ़ गए
थे। लेकिन
इनकी मुसीबत
यह हो गई कि अब
इन पर ज्ञान
चढ़ गया है। यह
नाव इनके ऊपर
चढ़ गई। अब ये
उसको छोड़ नहीं
पा रहे हैं।
अब ये शास्त्र
को ढो रहे हैं।
यह तो और
मूढ़ता हो गई।
इसलिए
उपनिषद ठीक
कहते हैं, अज्ञानी
भटकते है
अंधकार में, ज्ञानी
महाअंधकार
में भटक जाते
हैं।
फिर से
अज्ञानी होना
जरूरी है।
लेकिन वह फिर
से अज्ञानी
होना बड़ी और
बात है। खोज
छोड़नी पड़ती है, लेकिन
करने के बाद।
संसार छोड़ना
पड़ता है, लेकिन
जानने के बाद।
त्याग
मूल्यवान है लेकिन
भोग के बाद।
अन्यथा उसका
कोई मूल्य
नहीं है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि भक्त
अपनी पसंद के
अनुसार इष्ट
का साकार
दर्शन कर लेते
हैं।
रामकृष्ण ने
काली का किया
या मीरा ने
कृष्ण का या
अर्जुन ने
चतुर्भुज रूप
कृष्ण का। क्या
इस अवस्था को
परम ज्ञान की
अवस्था मान
सकते हैं?
यह परम ज्ञान
के पहले की
अवस्था है; परम
ज्ञान की
नहीं।
क्योंकि परम
ज्ञान में तो दूसरा
बचता ही नहीं।
न काली बचती
है, न
कृष्ण बचते
हैं, न
क्राइस्ट
बचते हैं।
यह
आखिरी है, सीमांत।
यह आखिरी है।
संसार समाप्त
हो गया, अनेकता
समाप्त हो गई,
सब समाप्त
हो गया। लेकिन
द्वैत अभी भी
बाकी रह गया, भक्त है और
भगवान है। अभी
भक्त भगवान
नहीं हो गया
है। अभी भक्त
है और भगवान
है। अभी दो
बाकी हैं।
सारा जगत खो
गया। विविध
रूप खो गए।
सारे रूप दो
में समाविष्ट
हो गए। सारा
जगत दो रह गया
अब। भक्त है
और भगवान है।
सब तिरोहित हो
गया। लेकिन दो
अभी बाकी हैं।
यह परम
ज्ञान के ठीक
पहले की
अवस्था है।
जैसे सौ
डिग्री पर जब
पानी उबलता
है। अभी भाप
नहीं बना है, उबल रहा
है। बस अब भाप
बनने के करीब
है। एक क्षण
और, और
पानी भाप बन
जाएगा। ठीक यह
सौ डिग्री
अवस्था है, बस जरा—सी
देर है। जरा—
सी देर है कि
भगवान भी खो
जाएगा और भक्त
भी खो जाएगा
और एक ही बच
रहेगा। उसको
फिर कोई चाहे
तो भगवान कहे,
और चाहे कोई
भक्त कहे, चाहे
कोई नाम न दे, कोई फर्क
नहीं पड़ता। एक
बच रहेगा, अनाम।
वह अद्वैत की
अवस्था है।
अद्वैत परम जान
है।
परम
ज्ञान की
हमारी
परिभाषा बड़ी
अनूठी है। परम
शान हम तब
कहते हैं, जब जानने
वाला न बचे, जाना जाने
वाला न बचे।
दोनों
खो जाएं।
दृश्य और
द्रष्टा
दोनों खो जाएं।
ज्ञाता और ज्ञेय
दोनों खो
जाएं। मात्र
ज्ञान रह जाए।
सिर्फ जानना
मात्र रह जाए।
न तो उस तरफ
कुछ हो जानने
को, न इस
तरफ कुछ हो
जानने वाला।
बस, सिर्फ
ज्ञान रह जाए।
उस ज्ञान की
आखिरी घड़ी को
परम ज्ञान कहा
है।
महावीर
ने उसे कैवल्य
कहा है।
कैवल्य का
अर्थ है, बस, केवल।
ज्ञान। कुछ
नहीं बचा। वह
जो खोज रहा था,
वह भी नहीं
है अब। जिसको
खोज रहा था, वह भी नहीं
है अब। वह
दोनों का
द्वंद्व
विलीन हो गया।
अब सिर्फ होना
मात्र, जस्ट
बीइंग, जस्ट
कांशसनेस, सिर्फ
होश भर बचा
है। वे दोनों
छोर खो गए।
दोनों छोरों
के बीच में जो
ज्ञान की घटना
घटती है, वही
बची है।
तो
काली का दर्शन
परम ज्ञान
नहीं है।
कृष्य का
दर्शन भी परम
ज्ञान नहीं
है। राम का
दर्शन भी परम
ज्ञान नहीं
है। परम जान
के पहले की
आखिरी सीढ़ी है, जहां से
आप सीढ़ियां
छोड़ देते हैं।
ऐसा
हुआ रामकृष्ण
के जीवन में।
रामकृष्ण तो काली
के भक्त थे।
अनूठे भक्त
थे। और उस जगह
पहुंच गए, जहां
काली और वे ही
बचे। लेकिन तब
उनको एक बेचैनी
होने लगी कि
यह तो द्वैत
है, और
अद्वैत का
अनुभव कैसे हो?
अभी भी दो
तो हैं ही, मैं
हूं काली है।
अभी दो की दुई
नहीं खोती। अभी
दो तो बने ही
रहते हैं।
तो वे
एक अद्वैत
गुरु की शरण
में गए। उस
अद्वैत गुरु
को उन्होंने
कहा कि अब मैं
क्या करूं? ये दो अटक
गए हैं, इसके
आगे अब कोई
गति नहीं
होती। अब
दिखाई भी नहीं
पडता कि जाऊं
कहां? शांत
हो जाता हूं; काली खड़ी हो
जाती है। मैं
होता हूं काली
होती है। बड़ा
आनंद है। गहन
अनुभव हो रहा
है। लेकिन दो
अभी बाकी हैं।
एक आखिरी
अभीप्सा मन
में उठती है
कि एक कैसे हो
जाऊं? तो
जिस गुरु से
उन्होंने कहा
था, उसने
कहा, फिर
थोड़ी हिम्मत
जुटानी
पड़ेगी। और
हिम्मत कठिन
है और मन को
चोट करने वाली
है। गुरु ने
कहा कि भीतर
जब काली खड़ी
हो, तो एक
तलवार उठाकर
दो टुकड़े कर
देना।
रामकृष्ण ने कहा
कि क्या कहते
हैं, तलवार
उठाकर दो
टुकड़े! काली
के! ऐसी बात ही
मत कहें! ऐसा
सुनकर ही मुझे
बहुत दुख और
पीड़ा होती है।
तो
गुरु ने कहा, तो फिर तू
अद्वैत की
फिक्र छोड़ दे।
क्योंकि अब
काली ही बाधा
है। अब तक
काली ही साधक
थी, साधन
थी, सहयोगी
थी; अब
काली ही बाधा है।
अब सीढ़ी छोड़नी
पड़ेगी। अब तू
सीढ़ी को मत पकड़।
माना कि इसी
सीढ़ी से तू
इतनी दूर आया
है, इसलिए
मोह पैदा हो
गया है, आसक्ति
बन गई है।
हमारी
आसक्ति संसार
में ही नहीं
बनती, हमारी
आसक्ति हमारी
साधना के उपाय
से भी बन जाती
है। अब किसी
जैन को कहो कि
महावीर के दो
टुकड़े कर दो!
किसी बौद्ध को
कहो कि बुद्ध
के दो टुकड़े
कर दो! राम के
भक्त को कहो
कि हटाओ, फेंक
दो इस मूर्ति
को मन से!
बेचैनी होगी
कि क्या बातें
कर रहे हैं! यह
कोई बात हुई
धर्म की? अध्यात्म
हुआ? यह तो
घोर
नास्तिकता हो
गई।
लेकिन
रामकृष्ण
जानते थे कि
जो आदमी कह
रहा है, वह ठीक तो कह
रहा है। यह
मेरी मजबूरी
है कि मैं न
तोड़ पाऊं।
लेकिन
उस गुरु ने
कहा, तू
मेरे सामने
बैठ और ध्यान
कर। और जैसे
ही काली भीतर
आए, उठाना
तलवार और तोड़
देना!
रामकृष्ण ने
कहा, लेकिन
मैं तलवार
कहां से
लाऊंगा? उस
गुरु ने बड़ी
कीमती बात
कही। उस गुरु
ने कहा कि तू
काली को ले
आया भीतर, तलवार
न ला सकेगा!
काली कहां थी
पहले? तू
काली को ले
आया, तो
तलवार तो तेरे
बाएं हाथ का
खेल है। जैसे
काली को तूने
कल्पना से
अपने भीतर
विराजमान करके
साकार कर लिया
है, ऐसे ही
उठा लेना
तलवार को।
रामकृष्ण
ने कहा, तलवार भी
उठा लूंगा, तो तोड़ नहीं
पाऊंगा। ' मैं
भूल ही
जाऊंगा।
तुमको भी भूल
जाऊंगा, तुम्हारी
बात को भी भूल
जाऊंगा। काली
दिखी कि मैं
तो
मंत्रमुग्ध
हो जाऊंगा।
मैं तो नाचने
लगूंगा। मैं
फिर यह तलवार
नहीं उठा
सकूंगा।
तो उस
गुरु ने कहा
कि फिर मैं
कुछ करूंगा
बाहर से। एक
कांच का टुकड़ा
गुरु उठा लाया
और उसने
रामकृष्ण को
कहा कि जब मैं
देखूंगा कि तू
मस्त होने लगा, डोलने
लगा...।
क्योंकि जब
भीतर काली आती,
तो
रामकृष्ण
डोलने लगते, हाथ—पैर
कंपने लगते, रोएं खड़े हो
जाते। और
चेहरे पर एक
अदभुत आनंद का
भाव, मस्ती
छा जाती। तो
उस गुरु ने
कहा कि मैं तेरे
माथे पर इस
कांच से काट
दूंगा; जोर
से लहूलुहान
कर दूंगा; दो
टुकड़े चमड़ी को
काट दूंगा। और
जब मैं यहां तेरी
चमड़ी काटू, तब तुझे
खयाल अगर आ
जाए, तो
चूकना मत।
उठाकर तलवार
तू भी दो
टुकड़े भीतर कर
देना।
और ऐसा
ही किया गया।
गुरु ने कांच
से काट दी माथे
की चमड़ी, ठीक जहां
तृतीय नेत्र
है। ऊपर से
नीचे तक चमड़ी
को दो टुकड़े
कर दिया। खून
की धार बह
पड़ी। रामकृष्ण
को भीतर होश
आया। वे तो
नाच रहे थे।
मस्त हो रहे
थे भीतर। होश
आया। हिम्मत
की और उठाकर
तलवार से काली
के दो टुकड़े
कर दिए।
रामकृष्ण, और काली
के दो टुकड़े!
यह भक्त की
आखिरी हिम्मत है।
यह आखिरी
हिम्मत है।
इससे बड़ी
हिम्मत नहीं
है जगत में।
और जो इतनी
हिम्मत न जुटा
पाए, वह
अद्वैत में
प्रवेश नहीं
कर पाता। काली
विसर्जित हो
गई। रामकृ—ण
अकेले रह गए।
या कहें कि
चैतन्य मात्र
बचा। छह दिन
बाद होश में
आए। आंखें
खोलीं, तो
जो पहले शब्द
थे, वे ये
थे कि कृपा
गुरु की, आखिरी
बाधा भी गिर
गई। दि लास्ट
बैरियर हैज फालेन।
रामकृष्ण
के मुंह से
शब्द आखिरी
बाधा, लास्ट
बैरियर! सोचने
में भी नहीं
आता। रामकृ—ण
के सामान्य
भक्तों ने इस
उल्लेख को
अक्सर छोड़
दिया है, क्योंकि
यह उल्लेख
उनके पूरे
जीवन की साधना
के विपरीत
पड़ता है।
इसलिए बहुत
थोड़े से
भक्तों ने
इसका उल्लेख
किया है। बाकी
भक्तों ने
इसको छोड़ ही
दिया है।
क्योंकि यह तो
मामला ऐसा हुआ
कि जब उतरना
ही था, तो
फिर चढ़े क्यों?
इतनी मेहनत
की। काली के
लिए रोए—गाए, नाचे—चिल्लाए,
चीखे, प्यास
से भरे, जीवन
दांव पर
लगाया। फिर
काली को पा
लिया। फिर दो
टुकड़े किए।
तो वह
लिखने वाले
भक्तों को बड़ा
कष्टपूर्ण मालूम
पड़ा है। इसलिए
अधिक भक्तों
ने इस उल्लेख
को छोड़ ही
दिया है।
मगर यह
उल्लेख बड़ा
कीमती है। और
जिनको भी भक्ति
के मार्ग पर
जाना है, उन्हें याद
रखना है कि
जिसे हम आज
बना रहे हैं, उसे कल मिटा
देना पड़ेगा।
आखिरी छलांग,
सीढी से भी
उतर जाने की, नाव भी छोड़
देने की, रास्ता
भी छोड़ देने
का, विधि
भी छोड़ देने
की।
तो जो
रामकृष्ण को
हुआ है काली
के दर्शन में, वह अंतिम
नहीं है।
अंतिम तो यह
हुआ, जब
काली भी खो
गई। जब कोई
प्रतिमा नहीं
रह जाती मन में,
कोई शब्द
नहीं रह जाता,
कोई आकार
नहीं रह जाता,
जब सब शब्द
शून्य हो जाते
हैं, सब
प्रतिमाएं
लीन हो जाती
हैं असीम में,
सब आकार
निराकार में
डूब जाते हैं,
जब न मैं
बचता हूं न तू
बचता है......।
एक
बहुत बड़े
विचारक, यहूदी चिंतक
और दार्शनिक
बूबर ने एक
किताब लिखी है,
आई एंड दाउ।
इस सदी में
लिखी गई दो—
चार अत्यंत
कीमती
किताबों में
से एक है। और इस
सदी में हुए
दो— चार कीमती
आदमियों में
से मार्टिन
बूबर एक आदमी
है। बूबर ने
लिखा है कि
अंतिम जो
अनुभव है परमात्मा
का, वह है, आई एंड दाउ—मैं
और तू।
लेकिन
यह अंतिम नहीं
है। यह अंतिम
के पहले का
है। लेकिन
यहूदी विचार हिम्मत
नहीं कर पाता
आखिरी छलांग
की। यही फर्क है।
यहूदी, इस्लाम, ईसाइयत,
ये तीनों
में से कोई भी
आखिरी हिम्मत
नहीं कर पाते,
आखिरी
छलांग की।
अंतिम तक जाते
हैं, बिलकुल
आखिर तक चले
जाते हैं, लेकिन
दो को बचा
लेते हैं। फिर
दो को छोड़ने
की मुश्किल हो
जाती है।
इसलिए
इस्लाम कभी भी
राजी नहीं हो
पाया कि मंसूर
जो कहता है, अनलहक —
मैं ब्रह्म
हूं — यह बात
ठीक है।
क्योंकि यह तो
बात आखिरी हो
गई! यह तो
परमात्मा के
साथ एक होने
की बात ठीक
नहीं है, अधार्मिक
मालूम पड़ती
है। इसलिए मंसूर
की हत्या कर
दी गई।
इस्लाम
कभी सूफियों
को राजी नहीं
हो पाया स्वीकार
करने को पूरी
तरह से।
हालांकि सूफी
ही इस्लाम की
गहनतम बात है।
वही उनका
रहस्य है। वही
उनकी आत्मा
है। लेकिन
इस्लाम कभी
राजी नहीं हो
पाया।
क्योंकि
इस्लाम अंतिम
के पहले रुक
जाता है, दो, परमात्मा
और भक्त।
ईसाइयत भी रुक
जाती है, परमात्मा
और भक्त।
यहूदी भी रुक
जाते हैं, परमात्मा
और भक्त।
लेकिन
इससे कोई अड़चन
नहीं आती।
क्योंकि जो आदमी
यहां तक पहुंच
जाता है, वह नहीं
रुकता। इसे
थोड़ा समझ लें।
इस्लाम
भला रुक जाता
हो। लेकिन
इस्लाम को मानकर
भी जो आदमी इस
आखिरी जगह
पहुंच जाएगा, उसको तो
फिर खयाल में
आ जाता है कि
अब यह आखिरी बात
और रह गई।
संसार का
आखिरी हिस्सा
और रह गया।
इसे भी छोड़
दूं। वह इससे
छलांग लगा
लेता है। सूफी
वे ही मुसलमान
हैं, जिन्होंने
छलांग लगा ली।
लेकिन इस्लाम
की जो व्यवस्था
है धर्म की, वह दो पर रुक
जाती है।
आम
भक्ति के
जितने भी
दर्शन हैं, वे दो पर
रुक जाते हैं।
परम ज्ञान वह
नहीं है। लेकिन
उसके बिना भी
परम शान नहीं
होता, यह
खयाल में
रखना। उससे सौ
डिग्री तक
पानी उबल जाता
है, और
आखिरी छलांग
आसान हो जाती
है। जिनमें
हिम्मत है, वे लगा लेते
हैं।
और उस
समय तक
पहुंचते—पहुंचते
हिम्मत भी आ
जाती है।
जिसने सारा
संसार खो दिया, वह अब इस
एक परमात्मा
की प्रतिमा को
भी कब तक सम्हाले
छाती से लगाए
हुए फिरेगा? जो सब को छोड़
चुका, जिसने
सारे बंधन तोड़
दिए, जिसने
सारा बोझ हटा
दिया, वह
इस प्रतिमा को
भी कब तक
ढोएगा? एक
जन्म, दो
जन्म, तीन
जन्म, कितनी
देर तक? एक
दिन वह इसे भी
कहेगा, अब
यह भी बोझ हो
गई। इसको भी
विसर्जित
करता हूं।
इसलिए
हमने
हिंदुस्तान
में एक
व्यवस्था की है
कि हम
परमात्मा की
मूर्ति बनाते
हैं।
गणेशोत्सव
आता है, गणेश की
मूर्ति बनाते
हैं। काफी
शोरगुल मचाते
हैं, भक्ति—
भाव प्रकट
करते हैं। और
फिर जाकर
समुद्र में विसर्जित
कर आते हैं!
यह
प्रतीक है असल
में कि जैसे
अभी इस मिट्टी
की मूर्ति के
साथ खेल रहे
हो, बना
रहे हो, नाच
रहे हो, गा
रहे हो और फिर
हिम्मत से
विसर्जित कर
आते हो, ऐसे
ही अंत में एक
दिन परमात्मा
की सब प्रतिमाएं
विसर्जित
करने की
हिम्मत रखना।
इस हिम्मत का
प्रशिक्षण
होता रहे।
इसलिए
हिंदुस्तान
अकेला मुल्क
है, जहां
हम भगवान को
बनाते और
मिटाते, दोनों
काम करते हैं।
दुनिया
में कोई कौम
भगवान को
बनाने और
मिटाने के
दोनों काम
नहीं करती।
बनाने का काम
करते हैं कुछ
लोग, वे
मिटा नहीं
पाते। कुछ लोग
इस डर से कि
फिर मिटाना
पड़े, बनाने
का काम ही
नहीं करते।
जैसे इस्लाम
है। वह
प्रतिमा नहीं
बनाता कि कहीं
प्रतिमा में
फंस न जाएं।
ईसाइयत ने
प्रतिमाएं
बना ली हैं, लेकिन उनको
विसर्जन करने
की कोई हिम्मत
नहीं जुटा
पाता।
इस
मुल्क में
हमने एक अनूठा
प्रयोग किया।
हम भगवान के
साथ भी खेलते
हैं। बना लेते
हैं। और जब
बना लेते हैं, तो पूरी
भक्ति— भाव
प्रकट करते
हैं। कोई ऐसा
नहीं कि अपने
ही बनाए हुए
हैं, क्या
भक्ति प्रकट
करनी! अभी खुद
ही रंगा—रोपा
है इनको। अब
क्या इनके
चरणों में
गिरना!
नहीं, उसकी हम
फिक्र छोड़
देते हैं।
जैसे ही हमने
प्रतिष्ठा कर
ली कि भगवान
हैं, हम
चरणों में गिर
जाते हैं। और
समारोह पूरा
हुआ, और हम
कंधों पर अरथी
उठाकर उनको
समुद्र में, नदी में, सरोवर
में डुबा आते
हैं।
यह
बनाना और
मिटाना, चढ़ना और
उतरना, खोजना
और खोज छोड़
देना, ज्ञान
इकट्ठा करना
और ज्ञान का
त्याग कर देना,
दोनों की
सम्मिलित जो
व्यवस्था है,
यह ध्यान
में रहे, तो
आप कभी
भटकेंगे
नहीं। अन्यथा
भटकाव हो सकता
है
यह
अनुभव द्वैत
का है, परम
ज्ञान के एक
क्षण पहले का,
लेकिन परम
ज्ञान नहीं।
एक मित्र ने
पूछा है कि
कीर्तन के
संबंध में आप
कहते हैं, धुन
लगाएं, सम्मिलित
हों। तो क्या
शरीर के बिना
कीर्तन में
सम्मिलित
नहीं हुआ जा
सकता? क्या
मन ही मन में
कीर्तन नहीं
किया जा सकता?
बराबर किया
जा सकता है।
लेकिन और किन—किन
बातों में आप
यह शर्त रखते
हैं? जब
किसी को प्रेम
करना होता है,
तो मन ही मन
में करते हैं
कि शरीर को भी
बीच में लाते
हैं? तब
नहीं कहते कि
प्रेम मन ही
मन में नहीं
किया जा सकता!
शरीर को क्यों
बीच में लाना!
कितनी
चीजों में
खयाल रखते हैं
इसका? अगर
बाकी सब चीजों
में खयाल रखते
हों, मैं
राजी हूं।
बिलकुल शरीर
का उपयोग मत
करें। कीर्तन
भीतर ही भीतर
हो जाएगा।
लेकिन अगर
बाकी सब चीजों
में शरीर को लाते
हैं, तो
धोखा मत दें
अपने को।
डर
क्या है शरीर
को कीर्तन में
लाने में? जब किसी
को प्रेम करते
हैं, तो
उसको गले लगा
लेते हैं।
क्यों शरीर को
बीच में लाते
हैं? हाथ
हाथ में ले
लेते हैं।
क्यों हाथ को
बीच में ले
आते हैं? ऐसे
दूर खड़े रहें
बुद्ध की
मूर्ति बने
हुए! मन ही मन
में! लेकिन तब
आपको लगेगा कि
अरे, यह
समय खो रहा
है। यह मन ही
मन में कब तक
करते रहेंगे?
आपका
मन और आपका
शरीर अभी दो
नहीं हैं। अभी
आपका मन और
आपका शरीर एक
है। अभी जल्दी
मत करें। अभी
आपका मन आपके
शरीर का ही
दूसरा छोर है।
वह शरीर से ही
संचालित हो
रहा है। शरीर
ही उसको अभी
गति दे रहा
है। इसलिए उचित
है कि कीर्तन
में अभी शरीर
को भी डूबने
दें, तो
ही आपका मन
डूब पाएगा।
और जिस
दिन आप मन ही
मन में डुबाने
में सफल हो जाएंगे
मुझसे पूछने
की कोई जरूरत
नहीं रहेगी। आपको
खुद ही पता चल
जाएगा कि शरीर
को बीच में
लाने की कोई
जरूरत नहीं, मन में ही
हो जाता है।
तो आप मन में
कर लेना। लेकिन
जब तक यह नहीं
हो सकता, तब
तक शरीर से ही
शुरू करें।
आप
शरीर में जी
रहे हैं, इसलिए आपकी
सब यात्रा
शरीर से ही
शुरू होगी। और
जो यह धोखा
देगा अपने को कि
शरीर का क्या
करना है, वह
असल में धोखा
दे रहा है। वह
धोखा यह दे
रहा है कि वह
करना ही नहीं
चाहता।
आदमी
वहीं से तो चल
सकता है, जहां खड़ा
है। जहां आप
खड़े नहीं हैं,
वहां से
चलेंगे कैसे?
आपकी मन में
स्थिति क्या
है? अभी
आपको शराब
पिला दें, तो
शराब तो शरीर
में जाती है, मन में तो
जाती नहीं।
क्या आप समझते
हैं, आप
होश में बने
रहेंगे? आप
बेहोश हो
जाएंगे।
क्यों बेहोश
हो गए आप? शराब
तो शरीर में
जाती है, कोई
मन में तो
जाती नहीं।
कोई आत्मा में
तो घुस नहीं
जाती शराब। मन
में आप होश
में रहे आइए, पी लीजिए
शराब, क्या
हर्ज है! तब
आपको पता
चलेगा कि हर्ज
का है मामला।
अभी
कोई आपको एक
धक्का मार दे
जोर से, तो धक्का
शरीर तक ही
लगता है कि मन
तक चला जाता है?
मन तक चला
जाता है। सच
तो यह है कि
शरीर को बाद में
पता चलता है, मन को पहले
पता चल जाता
है। तो अभी
आपका शरीर और
मन बहुत करीब—
करीब हैं, अभी
दूरी नहीं है
उसमें।
मैं
निरंतर एक
घटना कहता रहा
हूं। एक
मुसलमान फकीर
हुआ, फरीद।
एक आदमी उसके
पास आया और
फरीद से पूछने
लगा कि मैंने
सुना है कि मंसूर
को काट डाला
जब, तब भी
मंसूर हंसता
रहा। यह भरोसा
नहीं आता इस बात
पर। और यह भी
मैं सुनता हूं
कि जीसस को
सूली लगा दी
गई और
उन्होंने कहा
कि ये जो सूली
लगाने वाले
लोग हैं, हे
परमात्मा, इन्हें
माफ कर देना।
यह बात भी
जंचती नहीं।
कोई मुझे
पत्थर मारे, कोई मुझे
सूली लगाए, कोई मेरी
गर्दन काटे, यह मैं नहीं
कर सकता हूं।
मैं समझने आया
हूं।
तो
फरीद ने उसे
उठाकर एक नारियल
दे दिया। भक्त
फरीद को
नारियल चढ़ा
देते थे। एक
नारियल उठाकर
दे दिया और
कहा कि तू
इसको फोड़ कर
ला। एक ही बात
का खयाल रखना
कि गिरी भीतर की
साबित रहे, टूट न
पाए।
वह
नारियल कच्चा
था। वह आदमी
मुश्किल में
पड़ गया। उसकी
ऊपर की खोल
तोड़े, तो
भीतर की गिरी
टूटे, क्योंकि
वह कच्चा
नारियल था।
बड़ी कोशिश की,
लेकिन गिरी
टूट गई। लौटकर
आया और उसने
कहा, माफ
करना। मैं
गिरी को बचा न
पाया, क्योंकि
खोल और गिरी
बिलकुल जुड़ी
हैं। नारियल
कच्चा है। आप
भी किस तरह की
बात करते हैं!
फरीद
ने दूसरा
नारियल उठाकर
दिया। वह सूखा
नारियल था।
कहा कि अब
इसकी फिक्र कर
तू। इसको तोड़
ला, गिरी
बचा लाना।
उसने बजाकर
देखा। उसने
कहा कि इसमें
कोई अड़चन नहीं
है। खोल तोड
देंगे, गिरी
बच जाएगी।
क्योंकि खोल
और गिरी के
बीच फासला
पैदा हो गया।
तो
फरीद ने कहा, अब
तोड्ने की कोई
जरूरत नहीं
है। जीसस
नारियल थे
सूखे हुए, और
तू नारियल है
गीला। अभी
तेरी गिरी और
खोल जुड़े हुए
हैं। अभी तू
यह फिक्र मत
कर। अभी तो
तेरी खोल पर
जो होगा, वह
गिरी तक
जाएगा।
अभी
शरीर और मन
इकट्ठा है
आपका। जिन
मित्र ने पूछा
है, उसके
पूछने का अगर
कारण यह होता
कि उनका शरीर और
मन
अलग—अलग
हो गया है, तो वे पूछते
ही नहीं। क्या
पूछना है!
आपको पता ही
होता कि मेरी
गिरी अलग है, खाल अलग है।
भीतर मैं अपनी
मौज ले रहा
हूं शरीर को
कोई पता नहीं
मल रहा। पूछने
का कारण दूसरा
है। शायद बहुत
ही कच्चे
नारियल है।
बहुत ज्यादा
जुड़े हैं।
शायद अभी भीतर
गिरी भी नहीं
है, पानी
.ही पानी है।
क्यों, यह डर
क्यों हो रहा
है कि शरीर से
भाग न ले?
यह डर हो रहा
है कि पास—पड़ोस
में कोई देख न
ले। कि क्या।
आप कंप रहे हैं!
ताली बजा रहे
हैं! आनंदित
हो रहे हैं!
आपको कोई रोते
देखे, तो
कोई एतराज
नहीं। आपको
कोई उदास देखे,
तो किसी को
एतराज नहीं।
आप बिलकुल रोती
शक्ल बनाए हुए
जिंदगीभर
जीते रहें, तो कोई आप पर
संदेह और
दिक्कत नहीं
खड़ी करेगा। आप
जरा मस्त हों,
कि आपके आस—पास
के लोग
परेशान! और वे
आपसे कहेंगे,
आपको क्या
हो रहा है? क्या
होश खो रहे
हैं जैसे दुखी
होना ही
समझदारी है, और मस्त
होना यहां
नासमझी है।
ठीक भी
है, दुखी
लोगों के समाज
में जो आदमी
मस्त होगा, वह समाज से
अलग जा रहा है,
और दूसरे
लोगों में
ईर्ष्या पैदा
कर रहा है। तो
ईर्ष्या जब
पैदा होती है,
जो दूसरे
लोग उसकी
निंदा
करेंगे। उसको
कहेंगे कि तू
पागल है।
क्योंकि कोई
अपने को पागल
नहीं मानना
चाहता। और यह
भीड़ उदास
लोगों की; इसकी
संख्या
ज्यादा है। वे
कहेंगे कि
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया है, इसलिए
इतने मस्त नजर
आ रहे हो!
एक
आदमी ने मुझसे
आकर कहा कि जब
से मैं ध्यान
करने लगा हूं
मस्त रहने लगा
हूं तो मेरी
पत्नी परेशान
है। वह आपके
पास आना चाहती
है। वह कहती
है, इनको
क्या हो गया
है? इतनी
मस्ती तो कभी
देखी नहीं।
इनके दिमाग
में कुछ खराबी
तो नहीं हो गई?
मस्ती
खराबी का
लक्षण है!
पहले ये क्रोध
भी करते थे, अब इनसे कुछ
कहो, तो ये
हंसते हैं! तो
उससे ऐसा डर
लगता है कि
कहीं इनके
दिमाग में कोई
नट—बोल्ट ढीला
तो नहीं हो
गया! क्योंकि
स्वभावत:, जब
कोई गाली दे, तो लड़ने को
तैयार होना
चाहिए। ये
हंसते हैं। हम
सबको ऐसा
लगेगा, क्योंकि
भीड़ पागलों की
है। उसमें अगर
कोई आदमी होश
से भर जाए, मस्त
हो जाए, आनंदित
हो जाए, तो
हम शीघ्र ही
उसको दिक्कत
में डाल
देंगे।
वह जो
मित्र को डर
लग रहा है, वह पड़ोसियों
का डर है। वह डर
है कि कोई
क्या कहेगा? तो मन ही मन
में करो!
अगर मन—मन
में ही करना
हो, तो
और सब चीजें
भी मन में
करना, तब
कीर्तन भी
करना। अगर और
सब चीजें शरीर
से कर रहे हैं,
तो कीर्तन
भी आपको शरीर
से ही करना
होगा। आप जहां
हैं, वहीं
से यात्रा हो
सकती है।
दो
छोटे—छोटे
प्रश्न और हैं, फिर मैं
सूत्र लेता
हूं।
एक
बहिन ने पूछा
है कि आपने कल
कहा कि सुंदर
स्त्री पूर्ण
पुरुष की
प्रतीक्षा
करती है। तो क्या
कुरूप स्त्री
पूर्ण पुरुष
की प्रतीक्षा नहीं
कर सकती? क्या
कुरूप स्त्री
को अधिकार
नहीं है कि वह
पूर्ण पुरुष
की प्रतीक्षा
करे? उसका
भी मन तो होता
है, बहिन
ने लिखा है, कि वह भी
सुंदर पुरुष
को पाए। और यह
भी पूछा है कि
कुरूप स्त्री
भी क्यों
सुंदर पुरुष
को पाना चाहती
है? और
कुरूप पुरुष
भी क्यों
सुंदर स्त्री
को पाना चाहता
है?
उसका कारण है
कि अपने को
कोई कुरूप
नहीं मानता!
और कोई कारण
नहीं है। अपने
को कोई कुरूप
नहीं मानता!
अपने को तो
लोग सुंदर ही
मानते हैं!
कुरूप से
कुरूप
व्यक्ति भी
अपने को तो
सुंदर ही मानता
है। इसलिए उस
संबंध में तो
विचार करता ही
नहीं।
और यह
अगर शरीर तक
ही बात होती, तो मैं इस
प्रश्न का
उत्तर ही नहीं
देता। यह
हमारे
अध्यात्म की
भी स्थिति है।
हम अपने को तो
ठीक मानते ही
हैं, और
अपने को ही
मापदंड बनाकर
सारे जगत को
तौलते हैं।
यही भूल है।
अगर
कोई व्यक्ति
अपने को पहली
दफे सोचेगा, तो अपने
से ज्यादा
कुरूप किसी को
भी न पाएगा, अपने से
बुरा किसी को
नहीं पाएगा, अपने से बेईमान
किसी को नहीं
पाएगा। और जब
अपने को ठीक
से देख लेगा, तो जो भी मिल
जाए इस जगत
में, उसे
लगेगा कि
अनुकंपा है
परमात्मा की,
क्योंकि
मैं तो इसके
बिलकुल योग्य
नहीं था।
और ऐसा
व्यक्ति जो
अपने में ये
सारी
बुराइयां देख
लेगा, वह
सक्षम हो जाता
है इन
बुराइयों के पार
होने में।
क्योंकि
बुराई के पार
होने का पहला
सूत्र है, उसकी
पहचान। जो ठीक
से देख लेता
है कि मैं बुरा
हूं वह अच्छा
होना शुरू हो
गया! और जो ठीक
से देख लेता
है कि मैं
कुरूप हूं
उसके जीवन में
एक सौंदर्य का
अवतरण हो जाता
है, जो कि
बहुत अनूठा
है।
असल
में सबसे ज्यादा
कुरूप लोग वे
ही होते हैं, जो खुद को
सुंदर मानते
हैं। उनमें एक
तरह की कुरूपता,
प्रकट
कुरूपता होती
है, जो
उनके चेहरे पर
छाई होती है।
चाहे वे कितना
ही रंग—रोगन
करें, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लिपाई—पुताई
कितनी ही शरीर
की करें, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। अगर
उनको यह खयाल
है कि मैं
सुंदर हूं तो
वह जो अहंकार
है, वह सब
तरफ से उनके
व्यक्तित्व
को कुरूप कर
जाता है। उनकी
सौंदर्य की
स्थिति सतह से
ज्यादा नहीं
होती।
कुरूप
से कुरूप
व्यक्ति भी
सुंदर हो जाता
है, अगर
उसके भीतर उसे
यह पता चल जाए
कि मैं कुरूप हूं।
और जैसा हूं
उसमें जरा भी
झूठ करने की
इच्छा न रह
जाए, प्रामाणिक
हो जाए उसका
भाव, तो
उसके भीतर से
एक नये
सौंदर्य का
जन्म शुरू हो
जाता है। और
जितना भीतर का
सौंदर्य बढ़ता
है, उतना
ही शरीर उस
सौंदर्य से
आविष्ट होता
चला जाता है।
संतों
के चेहरे पर
जो सौंदर्य है, वह शरीर का
नहीं है। वह
कुछ भीतर से
आने वाली
किरणों का है।
इस जगत
में दो तरह के
सौंदर्य हैं।
एक तो सौंदर्य
है शरीर का, आकृति
का। एक
सौंदर्य है
अंतस का, अंतरात्मा
का। आकृति का
सौंदर्य तो
बिलकुल काल्पनिक
बात है।
काल्पनिक
कहता हूं
इसलिए कि आज
जो सुंदर है, कल फैशन बदल
जाए, तो
कुरूप हो जाता
है।
ऐसा
समझें कि अगर
जमीन पर एक ही
आदमी हो, तो वह सुंदर
होगा कि कुरूप
होगा? उसको
क्या कहिएगा?
वह न सुंदर
होगा, न
कुरूप होगा।
क्योंकि
सुंदर और
कुरूप की मान्यता
तय करने वाले
दूसरे लोग हैं,
वे तय करते
हैं।
चीन
में गाल की
हड्डी कुरूप
नहीं समझी
जाती, क्योंकि
मंगोल जाति की
गाल की हड्डी
बड़ी होती है।
हिंदुस्तान
में गाल की
हड्डी कुरूप
है। चीन में
चपटी नाक
कुरूप नहीं
समझी जाती।
आर्य मुल्कों
में, हिंदुस्तान
में, इंग्लैंड
में, जर्मनी
में चपटी नाक
कुरूप है।
क्यों?
नीग्रो
ओंठ बड़े, सुंदर समझते
हैं। और
नीग्रो
स्त्रियां
पत्थर लटकाकर
ओंठों को बड़ा
करती हैं।
क्योंकि बड़ा ओंठ
सुंदर है, क्योंकि
बड़े ओंठ के
चुंबन की बात
ही और है। सारी
आर्य कौमें
पतले ओंठ को
पसंद करती
हैं। और बड़ा
ओंठ हो, लटका
हुआ ओंठ हो, तो शादी
होनी लडकी की
मुश्किल हो
जाए। क्या मतलब
हुआ? कौन
है सुंदर?
अगर हम
तीन हजार साल
के ज्ञात
इतिहास को
देखें, तो सब तरह के
लोग सुंदर समझे
गए। सब तरह
लोग। अलग—अलग
तरह से लोगों
ने सुंदर समझा
है। मान्यता की
बात है।
प्रचलन की बात
है। फैशन की
बात है। सौंदर्य
बाहर का तो
दूसरों की नजर
की बात है। भीतर
का सौंदर्य ही
अपनी बात है।
लोगों
की मान्यता का
जो सौंदर्य है, उसका कोई
मूल्य नहीं
है। मगर हम
लोगों की मान्यता
से ही जीते
हैं। पब्लिक
ओपीनियन! लोग
क्या कहते
हैं! जो लोगों
की मान्यता से
जीता है, वह
सांसारिक
आदमी है और वह
सांसारिक ही
रहेगा।
लोगों
की मान्यता से
मुक्त हो
जाएं। अपनी
तरफ अपनी नजर
से देखें।
अपने को ही
खोजें कि मैं
क्या हूं? सोचें कि
आप अकेले हैं
जमीन पर। क्या
हैं? सुंदर
हैं, कुरूप
हैं? अच्छे
हैं, बुरे
हैं? झूठे
हैं, सच्चे
हैं? सोचें।
और इस तरह
जीएं कि आपको
अपनी कोई
बुराई, कोई
कुरूपता
ढाकनी न पड़े, बल्कि आपके
भीतर का सौंदर्य
' आविर्भूत
हो और आपकी
सारी बुराई को,
सारी
कुरूपता को
बहा
ले जाए।
सभी
सुंदर को पाना
चाहते हैं।
जिन बहिन ने
पूछा है, ठीक पूछा
है। कुरूप
स्त्री भी
सुंदर को पाना
चाहती है।
लेकिन उसे पता
होना चाहिए कि
जिस सुंदर को
वह पाना चाहती
है, वह भी
सुंदर को ही पाना
चाह रहा होगा।
इसलिए मेल
कहां होगा?
एक
मित्र ने दो —
तीन दिन से
निरंतर पूछा
है, जवाब
मैंने नहीं
दिया, क्योंकि
मैंने सोचा कि
इससे गीता का
कोई संबंध
नहीं है। पूछा
है कि एक
स्त्री के
प्रेम में हैं
वे। और वर्षों
हो गए, समझा—समझाकर
परेशान हो गए,
अब तक वे यह
नहीं समझा पाए
उस स्त्री को
कि प्रेम क्या
है। और वह
स्त्री उनके
प्रेम में
नहीं है। तो कैसे
उसको समझाएं?
बडा मुश्किल
है, बड़ा
कठिन है।
क्योंकि आप
जिसको चाहते
हैं, उसके
भी अपने
मापदंड हैं, उसकी भी
अपनी चाह के
हिसाब हैं, उसकी अपनी
वासनाएं हैं।
और यह बड़े मजे
की बात है कि
जब भी दो
व्यक्तियों
में एक दूसरे
को चाहता है, तो दूसरा
उतना ही नहीं
चाह सकता।
फ्रायड
का कहना है कि
दो
व्यक्तियों
में जब भी
प्रेम होता है, सौ में
निन्यानबे
मौकों पर एक
तरफा होता है।
बन वे ट्रैफिक
होता है।
एक
स्त्री एक
पुरुष को
चाहती है, क्योंकि
वह पुरुष उसे
सुंदर मालूम
पड़ता है। उस
पुरुष की अपनी
धारणा है
सौंदर्य की, वह किसी और
स्त्री को
चाहता है। वह
उसे सुंदर मालूम
पड़ती है। वह
स्त्री किसी
और पुरुष को
चाहती है, उसे
कोई और सुंदर
मालूम पड़ता
है।
दो
व्यक्तियों
की धारणाओं का
मेल बहुत
मुश्किल है, क्योंकि
दो व्यक्ति
इतने अलग—अलग
हैं कि
धारणाओं का
मेल होता
नहीं। इसलिए जब
प्रेमी मिल
जाते हैं, तो
भी तकलीफ पाते
हैं; नहीं
मिलते, तो
भी तकलीफ पाते
हैं। नहीं
मिलते हैं तो
सोचते हैं, मिल जाते तो
पता नहीं, स्वर्ग
मिल जाता। और
मिल जाते हैं,
तो लगता है
कि यह तो नर्क
अपने हाथ से
बुला लिया। दो
व्यक्ति मिल नहीं
पाते।
इसलिए
जिस व्यक्ति
को सच में ही
प्रेम का आविर्भाव
करना है, उसे समझ
लेना चाहिए कि
दूसरा करेगा
या नहीं करेगा,
इसकी फिक्र
छोड़ दे। प्रेम
से भर जाए। और
जितना प्रेम
कर सके, करता
रहे। प्रेम को
मांगे न।
इस जगत
में प्रेम से
उसी को आनंद
मिलता है, जो करता
है और मांगता
नहीं। जो
मांगता है, वह कर नहीं
पाता, और
आनंद तो उसे
मिलता ही नहीं
है।
अब हम
सूत्र को लें।
इस
प्रकार
अर्जुन के वचन
को सुनकर
कृष्ण बोले, हे
अर्जुन, मेरा
यह चतुर्भुज
रूप देखने को
अति दुर्लभ है
कि जिसको तुमने
देखा है।
देवता भी इस
रूप के दर्शन
की इच्छा रखने
वाले हैं।
चतुर्भुज
रूप कृष्ण का
सहज रूप नहीं
है। वे कोई
चार हाथ वाले
नहीं हैं। वे
दो ही हाथ
वाले हैं, जैसे सभी
आदमी हैं।
लेकिन अर्जुन
ने चाहा था कि
वे चतुर्भुज
रूप वाले
प्रकट हों, चार हाथ
वाले प्रकट
हों।
यह चार
हाथ एक प्रतीक
है। हजार हाथ
वाले रूप की
भी हमने
परमात्मा की
कल्पना की है, वह भी एक
प्रतीक है।
मां बच्चे को
उठाती है दोनों
हाथों में। ये
दो हाथों से
उठाने तक तो
मनुष्य का
प्रेम है।
लेकिन जहां
परमात्मा चार
हाथ से किसी
को उठाता है, वहां मनुष्य
के ऊपर के
प्रेम की खबर
लाने के लिए
दो हाथ हमने
और जोड़े हैं।
जैसे
परमात्मा
दोहरी माता है
हमारी, दोहरे
अर्थों में।
वह इस जगत में
तो हमको सम्हाले
ही हुए है, उस
जगत में भी सम्हालेगा।
ऐसे हमने चार
हाथ की कल्पना
की है।
यह
प्रतीक है, काव्य—प्रतीक
है, कि
परमात्मा
हमें इस जगत
में भी
सम्हाले है और
उस जगत में
भी। उसके चार
हाथ हैं, वह
चारों दिशाओं
से हमें
सम्हाले हुए
है। सब ओर से
हमें सम्हाले
हुए है। उसके
हाथ में हम सुरक्षित
हैं। हम छोड़
सकते हैं अपने
को, वहां
कोई असुरक्षा
नहीं है।
कृष्य
के तो दो ही
हाथ हैं।
लेकिन अर्जुन
ने जब यह
विराट रूप
देखा, तो
उसने
प्रार्थना की
कि अब मैं
इतना घबड़ा गया
हूं कि तुम
चार हाथ वाले
की तरह प्रकट
हो जाओ, तो
ही मेरी
घबड़ाहट शांत
हो सकती है।
वह यह कह रहा
है कि मैं
इतना
असुरक्षित हो
गया हूं इतनी इनसिक्योरिटी
मुझे मालूम पड़
रही है कि मैं
मरा; मिट
गया। अब मैं
इस, जो
अनुभव मुझे
हुआ है, यह
ट्रामैटिक
है। अब इस
अनुभव से मैं
उबार न सकूंगा
अपने को कभी।
अब यह भय मेरा
पीछा करेगा।
अब मैं सो न
सकूंगा। अब
मैं उठ न
सकूंगा। यह मौत
जो मैंने देखी
है, यह
अतिशय हो गई।
अब तुम्हारे
पुराने दो हाथ
अकेले काम न
करेंगे। अब
तुम जैसे थे, उतने से ही
काम न चलेगा।
अब तुम और भी
प्यारे होकर
प्रकट हो जाओ।
इसका
मतलब यह है कि
अब तुम अनंत
प्रेम होकर प्रकट
हो जाओ। तुमने
जो मौत मुझे
दिखा दी, उसको
संतुलित करने
के लिए दूसरे
पलड़े पर तुम चारों
हाथ फैलाकर
मुझे झेल लो, ताकि मैं
सुरक्षित हो
जाऊं।
यह सिर्फ
काव्य—प्रतीक
है चार हाथ
का। इसका मतलब
यह है कि तुम मां
का हृदय बन
जाओ मेरे लिए।
और ऐसी मां का, जो इस जगत
में ही नहीं, उस जगत में
भी! जिसकी गोद
में मैं सिर
रख दूं और भूल
जाऊं जो मैंने
देखा है। जो
मैंने देखा है,
उसे मैं भूल
जाऊं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मृत्यु से
जितना भय आदमी
के मन में है, उसी भय के
कारण आदमी
मोक्ष को
खोजता है। और
मनोवैज्ञानिक
और अनूठी बात
कहते हैं, वह
शायद समझ में
एकदम से न भी
आए। वे कहते
हैं, मोक्ष
की जो धारणा
है आदमी की, वह वही है, जो बच्चे को
गर्भ की
स्थिति में
होती है। जब बच्चा
गर्भ में होता
है, तो
पूर्ण
सुरक्षित, एकोल्युटली
सिक्योर्ड
होता है। कोई
असुरक्षा
नहीं होती
गर्भ में। कोई
भय नहीं होता।
कोई चिंता
नहीं। कोई
जिम्मेवारी
नहीं। कोई
नौकरी नहीं
खोजनी। कोई
मकान नहीं
बनाना। कोई
भोजन इकट्ठा
नहीं करना। कल
की कोई फिक्र
नहीं है। सब
आटोमैटिक है।
बच्चा
गर्भ में
पूर्ण मोक्ष
की हालत में
है, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं। सब
उसको मिल रहा
है। बिना
मांगे मिलता
है। जरूरत के
माफिक मिलता
है। उसे कुछ
करना नहीं
पड़ता। वह
तैरता रहता है,
जैसे कि
विष्णु तैर
रहे हैं
क्षीरसागर
में। ऐसा
बच्चा मां के
पेट के द्रवीय
पदार्थों के
क्षीरसागर
में तैरता
रहता है। कोई
चिंता नहीं।
कोई फिक्र
नहीं। कोई
उपद्रव नहीं।
संसार का कोई
पता नहीं। कोई
दूसरा नहीं, कोई स्पर्धा
नहीं। कोई
मृत्यु का पता
नहीं। कुछ भी
पता नहीं।
निश्चिंत, परम
शांति में
बच्चा रहता
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मोक्ष की जो
धारणा है, वह
मनुष्य के मन
में जो गहरा
गर्भ का अनुभव
है, उसी का
विस्तार है।
वे थोड़ी दूर
तक ठीक कहते हैं।
क्योंकि हमें
खयाल ही कैसे
मिलता है आनंद
का? दुख हम
जानते हैं।
सुख भी थोड़ा—बहुत
जानते हैं।
लेकिन हम सबके
मन में यह भी लगा
रहता है कि
आनंद मिले। आनंद
का हमें अनुभव
कहां है? हम
सब चाहते हैं,
शांति
मिले। शांति
को हम जानते
तो हैं नहीं।
इसलिए बिना
जाने किसी चीज
की वासना कैसे
जगती है?
जब तक
दुनिया में
कार नहीं थी, तो किसी
आदमी के मन
में वासना
नहीं जगती थी
कि कार हो।
बैलगाड़ी हो, अच्छे बछड़े
वाली हो, रथ
हो—वह होता
था। लेकिन कार
हो, ऐसा
किसी आदमी के
मन में वासना
नहीं जगती थी।
लेकिन अब जगती
है, क्योंकि
अब कार दिखाई
पड़ती है।
चारों तरफ मौजूद
है।
शांति
को आदमी जानता
ही नहीं, अशांति को
ही जानता है, तो यह शांति
की आकांक्षा
कहां से जगती
है! मनस्विद
कहते हैं कि
वह जो गर्भ का
नौ महीने का
अनुभव है, वह
गहरे अचेतन
में बैठ गया
है। वहां हमको
पता है कि नौ
महीने हम किसी
गहरी शांति
में रह चुके
हैं। नौ महीने
जिंदगी
निश्चिंत थी,
सुरक्षित
थी। मृत्यु का
कोई भय न था।
हम अकेले थे।
और सब तरह से
मालिक थे।
कल्पवृक्ष के
नीचे थे।
हमने
कल्पना की कि
स्वर्ग में
कल्पवृक्ष
होंगे, उनके नीचे
आदमी बैठेगा।
इच्छा करेगा,
करते ही
इच्छा पूरी हो
जाएगी। आपको
अगर कल्पवृक्ष
मिल जाए, तो
बहुत सम्हलकर
उसके नीचे
बैठना।
क्योंकि आपको
अपनी इच्छाओं
का कोई भरोसा
नहीं है।
मैंने
सुना है, एक दफा एक
आदमी—वह यहां
मौजूद होगा
आदमी— एक दफा
कल्पवृक्ष के
नीचे पहुंच
गया भूल से। उसको
पता भी नहीं
था कि यह
कल्पवृक्ष
है। उसके नीचे
बैठकर उसको
ऐसे ही लगा कि
बहुत भूख लगी
है, अगर
कहीं भोजन मिल
जाता...। वह
एकदम चौंका, एकदम
थालियां
चारों तरफ आ
गईं। वह थोड़ा
डरा भी कि यह
क्या मामला है,
कोई भूत—प्रेत
तो नहीं है यहां!
कहीं यहां कोई
भूत—प्रेत न
हो! थालियां
तिरोहित हो
गईं, भूत—
प्रेत चारों
तरफ खड़े हो
गए। वह घबड़ाया
कि यह तो बड़ा
उपद्रव है, कोई गला न
दबा दे! भूत—प्रेतों
ने उसका गला
दबा दिया।
आपको
अगर
कल्पवृक्ष
मिल जाए, तो भागना, क्योंकि
आपको अपनी
इच्छाओं का
कोई पक्का पता
नहीं कि आप
क्या मांग
बैठेंगे! क्या
आपके भीतर से
निकल आएगा! आप झंझट
में पड़ जाएंगे,
वहां पूरा
हो जाता है सब
कुछ।
मनस्विद
कहते हैं कि
कल्पवृक्ष की
कल्पना गर्भ
की ही अनुशइत
और स्मृति का
विस्तार है।
गर्भ में
बच्चा जो भी
चाहता है, चाहने के
पहले—
कल्पवृक्ष के
नीचे तो पहले
चाहना पड़ता है,
फिर मिलता
है—गर्भ में
बच्चा चाहता
है, उसके
पहले मां के
शरीर से उसे
मिल जाता है।
बच्चे को कभी
वासना की पीड़ा
नहीं होती। जो
मांगता है, मांगने के
पहले मिल जाता
है। वह तृप्त
होता है, पूर्ण
तृप्त होता
है।
यह जो कृष्ण
का विराट, विकराल, भयंकर रूप
देखकर अर्जुन
घबड़ा गया है।
वह कह रहा है, तुम चारों
हाथ वाले गर्भ
बन जाओ। मैं
तुममें डूब
जाऊं, तुम्हारे
प्रेम में, तुम्हारी
सुरक्षा में।
जो मैंने देखा
है, इसको
बैलेंस कर दो।
दूसरे पलड़े पर
इतना ही प्रेम,
इतनी ही
सुरक्षा बरसा
दो।
कृष्ण
कहते हैं, तेरे लिए,
जो अति
दुर्लभ है और
देवता भी जिसे
देखने को तरसते
हैं, वह
मैं तेरे लिए
प्रकट करता
हूं। हे
अर्जुन, न
वेदों से, न
तप से, न
दान से, न
यज्ञ से, इस
प्रकार
चतुर्भुज रूप
वाला मैं देखा
जाने को शक्य
हूं जैसा तू
मुझे देखता
है। परंतु हे
श्रेष्ठ तप
वाले अर्जुन,
अनन्य
भक्ति करके तो
इस प्रकार
चतुर्भुज रूप वाला
मैं
प्रत्यक्ष
देखने के लिए
और तत्व से जानने
के लिए तथा
प्रवेश करने
के लिए अर्थात
एकीभाव से
प्राप्त होने
के लिए भी
शक्य हूं।
जो छीन—झपट
करता है तप से, जो सौदा
करता है कि
मैं यह देने
को तैयार हूं
मुझे यह अनुभव
चाहिए, उसको
तो यह अनुभव
नहीं मिल पाता,
क्योंकि यह
अनुभव प्रेम
का है। सत्य
को रूखा— सूखा
साधक पा लेता
है, लेकिन
चार भुजाओं
वाला, प्रेमपूर्ण,
भक्त ही पा
पाता है। साधक
भी सत्य को पा
लेता है।
लेकिन उसका जो
अनुभव होता है,
वह सत्य का
होता है, मैथमेटिकल,
गणित का।
भक्त का जो
सत्य का अनुभव
होता है, वह
होता है काव्य
का, प्रेम
का। गणित का
नहीं, पोएटिकल।
भक्त पहुंचता
है रस से डूबा
हुआ।
और
जैसे आप हैं, वैसे ही
सत्य का आपको
अनुभव होता
है। अगर आप रस
से भरे हैं, प्रेम से
भरे गए हैं, तो सत्य जिस
रूप में प्रकट
होता है, वह
प्रेम होता
है। अगर आप
गणित, तर्क,
विचार, साधना,
तप, हिसाब
से भरे गए हैं,
कैलकुलेटेड,
तो जो सत्य
प्रकट होता है,
उसका रूप
गणित होता है।
अरस्तु
ने कहा है कि
परमात्मा बड़ा
गणितज्ञ है।
किसी और ने
नहीं कहा।
क्योंकि
अरस्तु बड़ा गणितज्ञ
था। और अरस्तु
सोच ही नहीं
सकता था
परमात्मा की
और कोई छवि, जो गणित
से भिन्न हो।
क्योंकि गणित
अरस्तु के लिए
परम सत्य है।
और गणित से
ज्यादा
सत्यतर कुछ भी
नहीं है।
इसलिए अरस्तु
को लगता है, परमात्मा भी
एक बड़ा
गणितज्ञ है और
सारा जगत गणित
का एक खेल है।
मीरा
से कोई पूछे, तो मीरा
कहेगी, परमात्मा
एक नर्तक है।
सारा जगत
नृत्य का एक विस्तार
है।
अगर
बुद्ध से कोई
पूछे, तो
बुद्ध कहेंगे,
परम शून्य,
शांति, मौन।
विराट मौन, जहां कुछ भी
नहीं है; न
लहर उठती है, न मिटती है।
सदा से ऐसा ही
है।
यह
प्रत्येक
व्यक्ति जिस
तरह से
पहुंचता है, जो उसके
पहुंचने की
व्यवस्था
होती है, जो
उसका अपना
व्यक्तित्व
का ढांचा होता
है, उसके
अनुकूल
परमात्मा उसे
प्रतीत होता
है। और जब वह
उसे भाषा देता
है, तब और
भी अनुकूल हो
जाता है।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
तप से तो यह
रूप मिलने
वाला नहीं, क्योंकि
तपस्वी इस रूप
की मांग भी
नहीं करता।
महावीर
की हम सोच भी
नहीं सकते कि
वे कहें कि सत्य, चार
भुजाओं वाला
हमारे सामने
प्रकट हो!
असंभव।
अशक्य।
अकल्पनीय।
महावीर
कहेंगे कि
क्या मतलब है
चार भुजाओं
वाले से! ऐसे
सत्य की कोई
जरूरत नहीं।
महावीर के लिए
सत्य कभी चार
भुजाओं वाला
सोचा भी नहीं
जा सकता।
अर्जुन
कह रहा है कि
चार भुजाओं
वाला सत्य। प्रेमपूर्ण
सत्य। मां के
हृदय जैसा, गर्भ
जैसा सत्य।
जहां मैं
सुरक्षित हो
जाऊं। मैं
भयभीत हो गया
हूं। एक छोटे
बच्चे की
पुकार है, जो
इस जगत में
अपनी मां को
खोज रहा है।
इस पूरे अस्तित्व
को जो मां की
तरह देखना
चाहता है।
तो कृष्ण
कहते हैं, लेकिन
अनन्य भक्ति
से जिसने
पुकारा हो, प्रेम से
जिसने पुकारा
हो, उसके
लिए मैं
प्रत्यक्ष हो
जाता हूं इस
रूप में। न
केवल
प्रत्यक्ष हो
जाता हूं
बल्कि वह मुझमें
प्रवेश भी कर
सकता है और
मेरे साथ एक
भी हो सकता
है।
हे
अर्जुन, जो पुरुष
केवल मेरे लिए
ही सब कुछ
मेरा समझता हुआ
संपूर्ण
कर्तव्य—कर्मों
को करने वाला
और मेरा परायण
है अर्थात मेरे
को परम आश्रय
और परम गति
मानकर मेरी
प्राप्ति के
लिए तत्पर है
तथा मेरा भक्त
है और आसक्तिरहित
है; स्त्री,
पुत्र, धनादि
संपूर्ण
सांसारिक
पदार्थों में
स्नेहरहित है
और संपूर्ण
भूत—प्राणियों
में वैर— भाव
से शून्य है, ऐसा वह
अनन्य भक्ति
वाला पुरुष
मेरे को ही
प्राप्त होता
है।
इस अंत
में दो—तीन
बातें समझ
लेने जैसी हैं
और बहुत उपयोग
की हैं। जो
साधक हैं, उनके लिए
बहुत काम की
हैं।
पहली
बात, कृष्ण
कहते हैं, जो
सब कुछ मेरे
ऊपर छोड़ दे।
प्रेम छोड़ता
है, घृणा
छोड़ने से डरती
है। क्योंकि
घृणा में अपने
को सुरक्षित
खुद ही करना
होता है।
प्रेम छोड़ता
है। प्रेम का
मतलब ही है कि
हम दूसरे पर
सब छोड़ दें।
मैंने
सुना है, एक युवक
विवाह करके
लौट रहा था।
पानी के जहांज
से यात्रा कर
रहा था। जोर
का तूफान आया,
उसकी
प्रेयसी
कंपने लगी और
घबड़ाने लगी, लेकिन वह
युवक शांत था।
उसकी प्रेयसी
ने कहा कि तुम
इतने शांत
क्यों हो!
यहां तो मौत
दिखाई पड़ती
है। नाव
डूबेगी लगता
है। मल्लाह भी
घबड़ा गए हैं।
उस युवक ने
कहा, घबड़ाओ
मत। ऊपर जो है,
मैंने सब उस
पर छोड़ दिया
है। उसकी
स्त्री ने कहा,
कुछ भी हो, छोड़ा हो या न
छोड़ा हो, यहां
मौत खडी है!
उस
युवक ने अपनी
म्यान से
तलवार खींच
ली। नंगी
चमकती हुई
तलवार थी, उसने
अपनी प्रेयसी,
पत्नी के
कंधे पर तलवार
रखी। पत्नी
हंसने लगी।
उसने कहा, यह
तुम क्या खेल
कर रहे हो!
उस युवक
ने पूछा कि
नंगी चमकती
हुई तलवार; जरा—सा
धक्का और तेरी
गर्दन अलग हो
जाए; तुझे
मेरे हाथ में
तलवार देखकर
भय नहीं लगता?
तो उसकी
पत्नी ने कहा,
तुम्हारे
हाथ में तलवार
देखकर भय कैसा?
तुमसे मेरा
प्रेम है।
उस
युवक ने तलवार
भीतर रख ली और
उसने कहा कि
उससे मेरा
प्रेम है।
उसके हाथ में
तूफान देखकर
मुझे कोई भय नहीं
लगता। उसकी
मर्जी। अगर
डुबाने में ही
हमें कुछ लाभ
होता होगा, तो ही वह
डुबाएगा। और
अगर बचने में
कोई हानि होती
होगी, तो
वह हमें नहीं
बचाएगा। उस पर
छोड़ा हुआ है।
प्रेम
छोड़ता है
पूरा।
तो कृष्ण
कहते हैं, जिसने
पूरा मेरे ऊपर
छोड़ा है। और
जो प्रत्येक
काम को ऐसे करता
है, जैसे
वह मेरा, कृष्ण
का काम है, उसका
नहीं है; जिसका
अहंभाव पूरा
समर्पित है और
जो— यह बड़ा
कठिन मालूम
पड़ेगा सूत्र—
और जो
आसक्तिरहित
है। पत्नी में,
बच्चे में,
धन में
जिसकी कोई
आसक्ति नहीं
है। जिसने
अपना सारा
प्रेम मेरी
तरफ मोड़ दिया
है।
इसके
दो मतलब हो
सकते हैं। एक
खतरनाक मतलब
है, जो
लोग आमतौर से
ले लेते हैं।
वह मतलब यह है
कि पत्नी को
प्रेम मत करो,
बच्चे को
प्रेम मत करो।
सब तरफ से
प्रेम को सिकोड़
लो और
परमात्मा के
चरणों में डाल
दो। यह आमतौर
से लिया गया
मतलब है, जो
खतरनाक है।
क्योंकि इसका
परिणाम, इसका
परिणाम एक ऐसा
आदमी होता है,
जो सब तरफ
से सूख जाता
है, रसहीन
हो जाता है।
और यह पत्नी
और बच्चे और
परिवार और
मित्रों से जो
प्रेम को
खींचता है, इस छीना—झपटी
में ही प्रेम
मर जाता है।
यह
करीब—करीब ऐसा
है, जैसे
एक लगाए हुए
पौधे को कोई
उखाड़कर कहीं
और लगाने चला।
और उखाड़कर
प्रेम को
पत्नी की तरफ
से, परमात्मा
में लगाने में
ही प्रेम की
जड़ें सूख जाती
हैं। वह
परमात्मा तक
कभी पहुंच
नहीं पाता।
पत्नी से तो
उखड़ जाता है, और परमात्मा
तक कभी पहुंच
नहीं पाता।
लेकिन यह आम
भाव है, जो
लोगों ने लिया
है।
मेरी
ऐसी दृष्टि
नहीं है। मेरा
मानना यह है
कि पत्नी के
प्रति भी
तुम्हारा जो
प्रेम है, वह भी कृष्ण
का ही प्रेम
है, तुम्हारा
प्रेम नहीं
है। तुम अपने
को हटा लो, प्रेम
को मत हटाओ।
क्योंकि जब
कर्मों में
तुम कहते हो
कि सब कर्म
उसके हैं, तो
प्रेम भी उसका
है। पत्नी के
प्रति
तुम्हारा जो
प्रेम है, वह
भी कृष्ण का
है, तुम्हारा
नहीं है। और
पत्नी में
तुम्हें जो भी
दिखाई पड़े, पत्नी को
देखना बंद कर
देना और कृष्ण
को देखना शुरू
करना।
बच्चे
से हटाना मत
प्रेम को।
उसमें सूख
जाएगा। पौधा
बहुत कमजोर
है। वैसे ही
तो प्रेम नहीं
है। बच्चे से
क्या खाक
प्रेम है! या
पत्नी से क्या
प्रेम है! ऐसे
ही ऊपर—ऊपर तो
लगाए हुए हैं।
मौसमी पौधा
है। उसको उखाड़कर
परमात्मा में
लगाने गए, उखाड़ की
छीना—झपटी में
ही टूट जाता
है। और जड़ें
उसकी इतनी कमजोर
हैं कि वह
परमात्मा तक
पहुंचती
नहीं।
बेहतर
तो यह है कि
पत्नी में ही
और थोडे गहरे
जड़ों को पहुंचा
देना। इतने
गहरे पहुंचा
देना कि पत्नी
ऊपर रह जाए और
भीतर
परमात्मा हो
जाए। और बच्चे
में प्रेम को
इतना उंडेल
देना कि बच्चा
दिखना बंद हो
जाए और बाल—गोपाल
दिखाई पड़ने
लगें! तो
पत्नी नहीं
रही, बच्चा
नहीं रहा। सारा
प्रेम
परमात्मा को
समर्पित हो
गया।
ये दो
रास्ते हैं।
पहला रास्ता
आमतौर से प्रचलित
है, मैं
उसके सख्त
खिलाफ हूं।
मेरी
व्याख्या तो यही
है कि जहां भी
तुम्हारा
प्रेम हो, वहां
परमात्मा को
देखना शुरू
करना। प्रेमी
को भूल जाना
और परमात्मा
को देखना।
धीरे— धीरे वही
पौधा जो
तुम्हारी
पत्नी पर लगा
था, जड़ें
फैला लेगा और
परमात्मा में
प्रवेश कर जाएगा।
क्योंकि
तुम्हारी
पत्नी में
काफी परमात्मा
है। तुम्हारे
पति में काफी
परमात्मा है।
कोई परमात्मा
की वहा कमी
नहीं है। और
कहीं उखाड़कर
ले जाने की
जरूरत नहीं है,
वहीं गहरा
करने की जरूरत
है।
प्रेम
की गहराई
प्रार्थना बन
जाती है। और
प्रेम अगर
पूर्ण गहन हो
जाए, तो
जहां पहुंच
जाता है, वहीं
परमात्मा है।
कृष्ण
कहते हैं, सारा
प्रेम मुझे दे
दे। वे यह
नहीं कहते कि
उखाड़ ले कहीं
से। वे यह
कहते हैं, सारा
प्रेम मुझे दे
दे। जहां से
भी दे, मुझको
ही देना। तेरी
नदी कहीं से
भी गिरे, मेरे
सागर में ही
गिरे। रास्ता
कोई भी हो, किनारे
कोई भी हों, किनारों से
छूटकर तू सागर
तक नहीं पहुंच
सकेगा।
किनारों में
बहना मजे से, लेकिन जानना
कि ये किनारे
भी सागर में
पहुंचा रहे
हैं।
जीवन
की सारी प्रेम—
धारा
परमात्मा की तरफ
बहने लगे, और कहीं
आसक्ति न रह
जाए। यह मेरा
अर्थ है। सारी
आसक्ति
परमात्मा की
तरफ बहने लगे।
और जिस दिन सारी
आसक्ति
परमात्मा की
तरफ बहने लगे,
उस दिन
स्वभावत: जगत
में कोई वैर—
भाव न रह
जाएगा। यह
मेरी
व्याख्या
समझें, तो
ही खयाल में
आएगा।
अगर आप
पहली गलत व्याख्या
समझते हैं, तो जगत
पूरा वैरी हो
जाता है। वह
पति पत्नी को छोड्कर
भागता है, पत्नी
वैरी हो जाती
है। और जिससे
आप प्रेम को तोड़ते
हैं, तो
तटस्थ होना
मुश्किल है।
प्रेम को अगर
तोड़ते हैं, तो घृणा
पैदा करनी
पड़ती है, तभी
तोड़ पाते हैं।
जिस पत्नी को
मैंने प्रेम किया
है, अगर आज
उससे मैं
प्रेम को
हटाऊं, तो
मुझे एक ही
काम करना
पड़ेगा कि मुझे
इसके प्रति
घृणा पैदा
करनी पड़ेगी!
इसलिए
साधु—संत
लोगों को कहते
हैं कि क्या
है तुम्हारी
पत्नी में!
मांस—हड्डी, मांस—मज्जा,
पीप, खून,
यही सब भरा
हुआ है। इसको
देखो। इसको
देखने से वितृष्णा
पैदा होगी।
इसको देखने से
घृणा पैदा
होगी। किस
पत्नी के पीछे
दीवाने हो रहे
हो, इसमें
है ही क्या? सिर्फ कचरे
का ढेर है
भीतर। उसको
जरा देखो।
लेकिन
जिस पत्नी में
कचरे का ढेर
है, और
जो साधु—संन्यासी
समझा रहे हैं,
उनके भीतर
क्या है? वही
कचरे का ढेर
है। और मजा यह
है कि वे कचरे
के ढेर से ही
पैदा हुए हैं।
जिस मां से
पैदा हुए हैं,
उसी कचरे के
ढेर से पैदा
हुए हैं। उसी
का विस्तार
हैं। उसी मवाद,
उसी खून, उसी हड्डी—मांस
का थोड़ा सा और
फैलाव हैं।
अगर आपको
प्रेम हटाना
है संसार से, जबरदस्ती, तो आपको
घृणा पैदा
करनी पड़ेगी।
वैर— भाव पैदा
करिए, तो
आप कहीं प्रेम
को हटा
पाएंगे।
और
कृष्ण का
दूसरा सूत्र
है कि वैर— भाव
किसी से रखना
मत। इस संसार
में किसी के
प्रति वैर—
भाव न रह जाए।
बड़ी मुश्किल
बात है। संसार
में वैर— भाव न
रहे, यह
तभी हो सकता
है, जब
संसार में
प्रेम— भाव
इतना गहरा हो
जाए कि वैर—
भाव न बचे।
तो
संसार से
प्रेम को मत
तोड़ना, संसार में
प्रेम की धारा
को गहन करना।
गहन करना। और
खोदना। और
खोदना। और
संसार के
प्रायों तक
प्रेम को
पहुंचा देना।
कोई वैर— भाव न
रह जाएगा। और
उस प्राण के
केंद्र पर ही
परमात्मा है।
आज
इतना ही।
पांच मिनट
रुकेंगे। आज
आखिरी दिन है, इसलिए
बिना कीर्तन
किए कोई भी न
जाए। और बीच में
कोई उठे न। जब
तक धुन चले, तब तक बैठे
ही रहें, खड़े
भी न हों।
पांच मिनट साथ
में जोर से
कीर्तन में
भागीदार हों।
शरीर को भी
थोडा भाग लेने
दें।
(गीता
दर्शन—भाग—5)
अध्याय—11
समाप्त
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