समय वापस नहीं जा सकता, लेकिन मन जा
सकता है। ऐसा मन जो कभी कुछ भी भूल सकता एक ऐसे व्यक्ति को देना जो स्वयं को ता
अमन की स्थिति में पहुंच ही गया है साथ ही दूसरों को भी इससे छुटकारा पाने के लिए
कह रहा है, कितना व्यर्थ है।
जहां तक मेरे मन का प्रश्न है—या रखना कि
मेरा मन, मैं नहीं—वह वैसा ही यंत्र है, जैसा यहां पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
मेरे मन का अर्थ है सिर्फ एक मशीन, पर एक अच्छी मशीन, जो ऐसे व्यक्ति को दी गई
है जो उसे फेंक देगा। इस लिए मैं कहता हूं कि यह कितनी बरबादी है।
लेकिन मुझे कारण मालूम है। जब तक तुम्हारे
पास बढ़िया मन न हो तब तक उसे फेंक देने की समझ तुम्हारे भीतर नहीं हो सकती। जीवन
विरोधाभासों से भर हुआ है। यह कोई बुरी बात नहीं है। इसके कारण जीवन अधिक रंगीन हो
जाता है।
कल मैं तुम्हें उस घटना के बारे में बता रहा
था जो जैन मुनि और मेरे बीच घटी। वह कहनी वही समाप्त नहीं हुई। क्योंकि दूसरे
दिन फिर उसे अपने भोजन भिक्षा के लिए मेरे नाना के घर आना था। तुम लोगे के लिए
समझना मुश्किल होगा कि जब वह मुनि इतने गुस्से में हमारे घर से चला गया तो उसे
दुबारा क्यों आना था। मुझे इसके संदर्भ में बताना पड़ेगा। जैन मुनि केवल जैन
परिवार से ही भिक्षा ले सकता है, और किसी से भी नहीं। और उसके दुर्भाग्य से उस
छोटे से गांव में केवल हमारा ही परिवार जैन था। अपने भोजन के लिए वह और कहीं भी जा
नहीं सकता था। हालांकि वह कहीं और जाना पसंद करता, लेकिन यह उसके धार्मिक नियमों
के विरूद्ध था। इसलिए न चाहते हुए भी वह विवशता में फिर दूसरे दिन भी हमारे घर
आया।
मैं और मेरी नानी, दोनों ऊपर इंतजार कर रहे
थे, खिड़की से देख रहे थे, क्योंकि हमें पता था कि उसे आना पड़ेगा। मेरी नानी ने
मुझसे कहा: ‘देखो वह आ रहा है। अब आज तुम उससे क्या पूछने बाले है?
मैंने कहा: मुझे नहीं मालूम। पहले कम से कम उसे खाना खा लेने दो। उसके बाद अपनी
पुरानी प्रथा के अनुसार वह इस परिवार तथा अन्य एकत्रित लोगों को उपदेश देगा।’
वह अत्यंत सावधानी से और बहुत संक्षेप में
बोला। साधारणत: इतने संक्षेप में ये बोलते नहीं है। लेकिन तुम चाहे बोलों या न बोलों,
अगर कोई प्रश्न पूछना चाहे तो पूछ ही सकता है। वह तुम्हारे मौन के बारे में ही
प्रश्न पूछ सकता है। वह मुनि अस्तित्व के सौंदर्य के बारे में बोल रहा था। उसने
सोचा कि शायद इस पर न कोई प्रश्न उठेगा और न कोई झंझट होगी। लेकिन झंझट हो गई,
मैं खड़ा हो गया। मेरी नानी कमरे के पीछे बैठी हंस रही थी—अभी भी मैं उनकी हंसी
सुन सकता हूं। मैंने उन मुनि से पूछा:’ इस सुन्दर विश्व का सृजन किस ने किया।’
जैन परमात्मा को नहीं मानते। पश्चिमी ईसाई
विचारधारा के लोगों के लिए यह समझना बहुत मुश्किल है कि कोई धर्म ऐसा भी हो सकता
है जो परमात्मा को न मानें, जैन धर्म ईसाई धर्म से अधिक परिष्कृत है, अधिक ऊँचा
है, कम से कम वह परमात्मा और होली घोस्ट और सारी बकवास बातों में विश्वास नहीं
करता। तुम मानो या न मानो, जैन धर्म नास्तिक धर्म है। क्योंकि नास्तिक होते हुए
भी धार्मिक होना विरोधाभासी लगता है। जैन धर्म शुद्ध नैतिकता है, इसमें कोई परमात्मा
नहीं है।
इसलिए जब मैंने जैन मुनि से पूछा कि इस
सौंदर्य का सृजन किसने किया, साफ था कि वह
कहेगा किसी ने नहीं।
इसी का मैं इंतजार कर रहा था। तो मैंने कहा:
‘क्या ऐसा सौंदर्य कोर्इ नहीं बना सकता है।‘
उसने कहा: ‘कृपया मुझे गलत मत समझो, इस बार
वह पूरी तैयारी करके आया था। इस लिए वह कुछ आश्वस्त दिखाई दे रहा था। कोई नहीं
से मेरा तात्पर्य किसी विशेष से नहीं है।’
तुम लोगों ने एलिस थ्रू दि लुकिंग ग्लास’
कहानी याद होगी। रानी एलिस से पूछती है। यहां आते समय क्या तुम्हें कोई मुझसे
मिलने के लिए आते हुए मिला था।‘
एलिस ने कहा: ‘मुझे कोर्इ नहीं मिला।’
रानी परेशान दिखाई देती है, और कहती है, ‘आश्चर्य
है, तब तो ‘कोई नहीं’ को तुमसे पहले यहां आ जाना चाहिए था, लेकिन वह अभी तक आया क्यों
नहीं।’
एलिस एक अंग्रेज महिला की तरह भीतर ही भीतर
हंसी, लेकिन उसका चेहरा गंभीर बना रहा और उसने कहा: ‘महोदया, ‘कोई नहीं’ कोई नहीं
है।’
रानी ने कहा: ‘हां मैं जानती हूं कि ‘कोई
नहीं’ कोई नहीं है। लेकिन उसे इतनी देर क्यों हो रही है?
लगता है कि ‘कोई नहीं’ तुमसे आहिस्ता चलता है।’
एलिस कुछ
तैश में आकर कहती
है, ‘मुझसे तेज कोई नहीं चलता है।’
तो रानी कहती है, ‘यह तो और
भी
अजीब बात है। अगर ‘कोई नहीं’ तुमसे तेज चलत है, तो वह अभी तक आया क्यों नहीं।
तब एलिस अपनी गलती समझती है, लेकिन अब देर हो चुकी थी। उसने दुबारा कहा: ‘महोदया कोई नहीं
कोई है।’
रानी ने उत्तर दिया: ‘हां मैं जानती हूं कि
‘कोई नहीं काई नहीं’, लेकिन प्रश्न यह है कि वह अभी तक आया क्यों नहीं।’
मैंने जैन मुनि से कहा: ‘मुझे मालूम है कि
‘कोई नहीं कोई नहीं’ लेकिन आप अस्तित्व की इतनी प्रशंसा, इतनी सराहना कर रहे है
कि मुझे आश्चर्य हो रहा है, क्योंकि जैन ऐसा नहीं करते। ऐसा लगता है कि कल के
अनुभव के कारण आपने अपना ढंग ही बदल लिया है। आप अपनी चाल, अपनी नीति बदल सकते है
लेकिन आप मुझे नहीं बदल सकते। मैं फिर पूछता हूं कि अगर जगत को किसी ने नहीं बनाया
तो यह बना कैसे?’
उसने इधर-उधर देखा। सब चुप थे सिवाय मेरी
नानी के जो जोर से हंस रही थी। मुनि ने मुझसे पूछा: ‘क्या तुम्हें मालूम है
किसने बनाया है।’
मैंने कहा: ‘यह सदा से यहां है, इसके कहीं से
आने या बनाने की जरूरत नहीं है।’
आज भी मैं पैंतालीस साल के बाद उस वाकय की
पुष्टि कर सकता हूं। बुद्धत्व और फिर न-बुद्धत्व के बाद, इतना सब पढ़ने-लिखने और
उसे पूर्णत: भूल जाने के बाद, उसे जान कर ‘’जो है’’ तथा फिर भी उसकी और ध्यान न
देकर मैं अभी भी उस छोटे बच्चे की तरह यह कह सकता हूं—विश्व सदा से यहां है,
इसके सृजन की या कहीं से आने की कोई जरूरत नहीं है। यह सिर्फ है।
जैन मुनि तीसरे दिन नहीं आया। वह हमारे गांव
से दूसरे गांव चला गया जहां पर एक और जैन परिवार था। लेकिन मुझे उसे श्रद्धांजलि
अर्पित करनी चाहिए। अनजाने ही उसने एक छोटे बच्चे को सत्य की यात्रा पर चला
दिया। तब से मैं न जाने कितने लोगों से वही सवाल पूछा है और उसी अज्ञान से सामना
हुआ है, कोई उत्तर न मिला। बडे़-बडे़ विद्वान, पंडित, ज्ञानी और महात्मा–जिनकी
हजारों लोग पूजा करते है—और फिर भी एक बच्चे द्वारा पूछे गये साधारण से प्रश्न
का अत्तर नहीं दे पाते।
सच तो यह है कि किसी भी मूलभूत प्रश्न का
उत्तर कभी दिया ही नहीं गया। और मैं कहता हूं कि किसी भी मूलभूत प्रश्न का उत्तर
कभी दिया नहीं जाएगा। कयोंकि जब तुम मूल भूत प्रश्न पर आते हो तो उसका उत्तर
होता ही नहीं। होता है सिर्फ मौन—किसी पंडित, या साधु या महात्मा का मूर्खतापूर्ण
मौन नहीं, बल्कि तुम्हारा अपना मौन। अपितु वह मौन जो तुम्हारे भीतर विकसित होता है। उसके सिवाय और
कोई उत्तर नहीं। इस जगत में ऐसे बहुत से मौन को उपलब्ध लोग हुए है जो दूसरों की
कोई सहायता नहीं कर सके। जैन उनको अरिहंत कहते है। और बौद्ध उन्हें अर्हत कहते
है। दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है।
अरिहंत और अर्हत तो बहुत हुए है लेकिन जब कि
इन्हें उतर मिल गया, फिर भी ये उसकी धोषणा न कर पाए। और जब तक तुम उसकी धोषणा
करने योग्य न होओ, घर की छत से घोषणा न कर सको, तब तक तुम्हारे अतर को मूल्य
नहीं है। भीड़ में, जहां सब प्रश्नों से भरे हुए है, यह सिर्फ एक व्यक्ति का अत्तर
है। जल्द ही अरिहंत की मृत्यु के साथ उसका मौन भी समाप्त हो जाता है। वह ऐसे खो
जाता है जैसे कोई पानी पर लिखता रहा हो। तुम लिख सकते हो, लेकिन तुम लिख भी न पाओगें
कि वे हस्ताक्षर खो जाएंगे।
असली सदगुरू सिर्फ जानता ही नहीं है वह लाखों
लोगो की सहायता करता है। उसका ज्ञान निजी नहीं है। वह उन सबके लिए खुला है, उपलब्ध
है जो उसे ग्रहण करने के लिए तैयार है। मैंने उतर जान लिया है। प्रश्न तो मेरे साथ
हजारों साल से, कई जन्मों से, कई शरीरों के साथ चल रहा था लेकिन अब पहली बार उतर
घटा है। यह हुआ है क्योंकि मैं निरंतर, बिना किसी परिणाम के भय के प्रश्न को
पूछता ही रहा हूं।
मैं इन प्रसंगों को इसलिए याद कर रहा हूं
ताकि तुम्हें यह बता सकूँ कि जब तक कोई पूछता नहीं है। जब कोई सब द्वारों से धकेल
दिया जाता है, तब सब द्वार बंद हो जाते है, तब हम अंत में अपने भीतर मुड़ते है। और
वहीं उतर है। वह लिखा हुआ नहीं है। तुम्हें बाइबिल कोई तोरा, कोई कुरान, कोई
गीता, कोई धम्मपद या ताओ तेह किंग नहीं मिलेगी। न कोई परमात्मा न परम पित जो
मुस्कुराए और पीठ थप थपा कर कहे कि ‘शाबाश बेटे, तुम घर आ गए। मैं तुम्हारे सब
पाप क्षमा कर देता हूं।’ नहीं वह तुम्हे
कोई नहीं मिलेगा। वहाँ पर मिलेगा अदभुत मौन, परम मौन—इतना सधन कि लगता है
उसको छू लें.......एक सुंदर स्त्री की तरह। उसे सुंदर स्त्री की तरह अनुभव किया
जा सकता है। पर बहुत ही सघन और स्पर्शनीय।
मैंने सदा सौंदर्य से प्रेम किया है। जहां
कहीं भी सौंदर्य दिखाई दिया—तारों में, मनुष्य के शरीर में, फूलों में, या पक्षी
की उडान में—जहां कहीं भी। क्योंकि मेरी समझ में यह नहीं आता की सौंदर्य को प्रेम
किए बिना कोई सत्य को कैसे जान सकता है। सत्य की दिशा में सौंदर्य एक राह है, और
राह और मंजिल दो नहीं हो सकते। तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं होगा कि सताईस वर्ष की
उम्र में—मैं पहले ही बुद्ध हो चुका था—अपनी सुन्नत कराई, सिर्फ सूफी मत में
प्रवेश पाने के लिए। जहां वे लोग बिना सुन्नत के व्यक्ति को स्वीकार नहीं करते
थे। मैंने कहा: ‘ठीक है, करो। यह शरीर तो आखिर नष्ट होने ही वाला है और तुम तो थोड़ी
सी चमड़ी काटने वाले हो।’
यहां तक कि उन्हें भी मेरी बात पर विश्वास
नहीं हो रहा था। मैंने कहा, मेरा भरोसा करो, और जब मैंने तर्क करना शुरू किया तो उन्होने कह, सुन्नत कराने के लिए तुम
तुरंत तैयार हो गए, और अब जो कहते है उसे स्वीकार करने को बिलकुल तैयार नहीं हो।
मैंने कहा: ‘मेरा यही तरीका है। अनावश्यक और
गौण बातों को मैं स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार हूं, लेकिन सारभूत और महत्वपूर्ण
बातों के लिए मैं अड़ जाता हूं, उनके लिए कोई भी मुझसे हां नहीं करा सकता।’
निश्चित ही उन्हें अपने तथाकथित सूफी मत से मुझे
निष्कासित करना पडा। लेकिन मैंने उनसे कहा: ‘मुझे निकाल कर तुम लोगों ने दुनिया
को यह सिद्ध कर दिया है कि तुम नकली सूफी हो। एक मात्र असली सूफी को तुम निकाल रहे
हो। सच तो यह है कि मैं तुम सब को निष्कासित करता हूं।’
हैरान होकर उन्होंने एक-दूसरे को देखा।
लेकिन यही सच है।
बचपन से ही मुझे तर्क करने में बहुत मजा आता
था। अच्छा वातावरण मिलना कितना मुश्किल है। मैं यह पहली बार स्वीकार कर रहा
हूं—मैंने सूफी मत में प्रवेश किया और उन मूर्खों और उन को भी सुन्नत करने दी।
अफसोस कि अपने पूरे जीवन में मैं कोई सच्चा सूफी न खोज सका, लेकिन यह सिर्फ
सूफियों के लिए ही सही नहीं है; मुझे कोई सच्चा ईसाई या सच्चा हमीद, भी नहीं
मिला।
जे. कृष्णमूर्ति ने मिलने के लिए मुझे बंबई
से आमंत्रित किया था। जो व्यक्ति संदेश लेकर आए वे हम दोनों के मित्र थे,
परमानंद। मैंने उनसे कहा, परमानंद वापस जाइए और कृष्णमूर्ति से कहिए कि अगर वे
मुझसे मिलना चाहते है तो उन्हें यहां आना चाहिए। वही उचित है बजाय इसके कि वे
मुझे वहां बुला रहे है।
परमानंद ने कहा: ‘लेकिन वे आपसे कई वर्ष बड़े
है।’
मैंने कहा: ‘आप उनके पास जाएं और उनकी और से
उतर न दे। यदि व कहते है कि वे मुझसे बड़े है तो फिर मेरा वहां जाना बेकार है, क्योंकि
जागरण न तो बड़ा होता हो सकता है न छोटा; वह सदा एक सा है—नित नूतन, सनातन।’
वे गए और कभी लोट कर नहीं आए, क्योंकि कृष्णमूर्ति
जैसे वयोवृद्ध व्यक्ति मुझसे मिलने कैसे आ सकता थे। फिर भी वे मुझसे मिलना चाहते
थे। यह बड़ी मजेदार बात है, नहीं क्या? मैं उनसे कभी नहीं मिलना चाहता
था। अन्यथा मैं उनके पास चला गया होता। वे मुझसे मिलना चाहते थे और फिर भी चाहते
थे कि मैं उनके पास जाऊँ। तुम्हें मानना चाहिए कि वह जरा ज्यादती थी। परमानंद
उतर लेकर कभी वापस नहीं आए। दूसरी बार जब वे आए तो मैंने पूछा, क्या हुआ।‘
उन्होंने कहा: ‘कृष्णमूर्ति बहुत नाराज हो
गए; इतने गुस्से कि मैंने दुबारा कभी उनसे अब पूछा ही नहीं।’
इसके कारण उनके मन में मेरे प्रति विरोध भाव पैदा हो गया। तब से वे
मेरे खिलाफ बोलते रहे है। जैसे ही वे मेरे किसी संन्यासी को देखते है तो वे ठीक साँड़
जैसा व्यवहार करते है। अगर तुम किसी साँड़ को लाल झंडा दिखा दो, तो तुम जानते हो
क्या होगा। ठीक वही होता है जब वे मेरे किसी संन्यासी को लाल में देखते है तो,
एक दम गुस्से से पागल हो जाते है। मैं कहता हूं कि अपने पिछले जनम में वे अवश्य
सांड रह होंगे, इसलिए वे लाल रंग से अपनी दुश्मनी नहीं भूले है।
जे. कृष्णमूर्ति मेरे विरोध में है, लेकिन
में कहता हूं मैं उनके विरोध में नहीं हूं। मैं अभी भी उनसे प्रेम करता हूं। वे
बीसवीं सदी के सबसे सुंदर व्यक्ति है। मुझे ऐसा कोई जीवत व्यक्ति दिखाई नहीं
देता जिसके साथ मैं उनकी तुलना कर सकूँ। लेकिन उनकी एक सीमा है और वही सीमा उनकी
बाधा बन जाती है। सीमा यह है कि वे अति बौद्धिक होने कि कोशिश करते है। और अगर ऊपर
उठना हो, अगर शब्दों और संख्याओं के पार जाना हो तो संभव नहीं है।
कृष्णमूर्ति को इसके पार होना चाहिए। लेकिन
वे विक्टोरिया के समय की बौद्धिकता से बंध गए है। उनकी बौद्धिकता आधुनिक भी नहीं
है, एक शताब्दी पुरानी है। वे कहते है कि यह उनका सौभाग्य है कि उनहोंने उपनिषद,
गीता, कुरान को नहीं पढ़ा है। तब फिर वे क्या पढ़ते है, आपको बताता हूं, वे घटिया
जासूसी उपन्यास पढ़ते है। कृपा करके यह किसी को कहना मत, नहीं तो वे अपना सिर
दीवाल पर पटकन लगेंगे। मुझे उनके सिर की चिंता नहीं है, मुझे दीवाल की चिंता है।
जहां तक उनके सिर का सवाल है, पिछले पचास वर्षो से भी अधिक से उनके सिर में
माइग्रेन है। वह मेरी उम्र से ज्यादा समय है। माइग्रेन का दर्द असह्य होता है।
अपनी डायरी में उन्होंने लिखा है कि दर्द के कारण कई बार अपना सिर दीवाल पर पटकना
चाहते थे। हां, मुझे दीवाल की चिंता है।
उनको माइ्रग्रेन का दर्द क्यों होता है।
बहुत बुद्धिवादिता के कारण, और कुछ नहीं। यह मेरी कुर्सी बनाने बाले बेचारे आशीष
की तरह नहीं है। लेकिन उनका दर्द शारीरक है। और जे. कृष्णमूर्ति का माइग्रेन आध्यात्मिक
है। जे. कृष्णमूर्ति के प्रवचन को सुन कर अगर तुम्हारे सिर में दर्द न हो तो
इसाक मतलब है कि या तो तुम संबुद्ध हो या तुम्हारे पास सिर ही नहीं है। दूसरी
संभावना अधिक है। पहला कारण तो थोड़ा मुश्किल है।
मैं यह कह रहा था कि दिगंबर
जैन मुनि से मेरा जो पहला सामना हुआ उसी से तथाकथित साधुओं और महात्माओं के साथ
सामना करने का मेरा सिलसिला आरंभ हुआ। इन सब को बुद्धिवाद को तकलीफ है और मैं इनको
खींच कर ठोस धरातल पर ले आने के लिए पैदा हुआ था। लेकिन इन्हें समझदार बनाना बहुत
ही मुश्किल है, शायद ये कुछ समझना ही नहीं चाहते क्योंकि उन्हें डर है। शायद
नासमझ बने रहने में ही इनको फायदा है। इनको धार्मिक लोगों की तरह आदर मिलता है।
मेरे लिए तो ये सिर्फ गोबर-गणेश है।
मेरी नानी ठेठ भारतीय स्त्री नहीं थी। उनके लिए
तो पश्चिम भी थोड़ा कम विदेशी होता। और याद रखो, वे पूर्णत: अशिक्षित थी। शायद
इसीलिए वे बहुत दूरदर्शी थी। शायद वे मुझमें कुछ देख सकती थीं जिसके बारे में उस
समय मैं बिलकुल अनजान था। शायद इसीलिए वे मुझसे इतना प्रेम करती थी।....मैं कह
नहीं सकता....अब वे जीवित नहीं है। एक बात मैं जानता हुं कि अपने पति की मृत्यु
के बाद वे उस गांव कभी वापस नहीं गई। वे मेरे पिता के गांव में ही रही। मुझे उन्हें
वहीं छोड़ना पडा। लेकिन जब मैं वापस गया तो मैं उनसे बार-बार पूछता, ‘नानी, क्या
हम लोग गांव वापस चल सकते है।’
तो वे हमेशा कहती, ‘क्या करने, तुम तो यहां हो।’
वे तीन सीधे’- साधे शबद संगीत की तरह मेरे भीतर गूँजते
रहते है। कि ‘तुम यहां हो’ मैं भी तुमसे यहीं कहता हूं।....वे मुझसे बहुत प्रेम
करती थीं.....ओर तुम्हें मालूम है कि कोई भी तुम्हें मुझसे ज्यादा प्रेम नहीं
कर सकता।
यह
सुंदर है।
तुम ‘यहां’ कभी नहीं आए।
काश कि मैं तुम्हें भी ऊंचे आकाश में
निमंत्रित कर सकता।
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