शनिवार, 2 दिसंबर 2017

10--जिन्दगी –(कविता)-स्वामी आनंद प्रसाद मनसा



10--जिन्दगी –(कविता)


ऐ जिन्‍दगी तुझे हम यूं ही गुजरने नहीं देंगे।
हम तुझे सज़ाऐगें और सवारगें
बनाएगें फिर एक नई दुलहन।
तेरे मासूम उदास चेरहे पर
फिर लोटा लायेंगे नई ताजगी
तेरे सूखे-पथराये होठों पर
लेकर आएँगे एक नई मुस्‍कान,
जीवन के इस वीरान पड़े चमन में
देखना लौटेगें एक दिन नई बहार
चाहें वो हमें लानी ही क्‍यों न पड़े उधार
उन बिखरे-कुचले फूलों से ही
चुन कर लायेगे कुछ कलियां
और तेरे विरान चमन को साज-संवार देंगे हम
तेरे ख़्वाबों में फिर से भर देंगे नये-नये रंग
वो उदास मायुष तेरे माथे का सिंदूर
फिर से दमक उठेगा
कहीं दूर उतंग पर उगते
सूर्य की लालिमा की तरह
मायूसी और उदासी
तेरे दामन को छोड़ कर
छुप जाएगी कही अंधेरी गलियों में
और फेल जाएगा तेरे जीवन में स्‍वर्णीम प्रकाश
तेरे पेर फिर थिरक उठेंगे
बांध कर उन टूटे घुँघरुओं को
जिनमे खो गया कहीं मेधमल्‍हार
उस सुरमयी मधुर पक्षियों के गान से
तू डोल उठेगी, हवाओं के दामन पर इठलाती,
एक मरमर पूकार बनकर
लोट आयेगी फिर वही अठखेलियां
झरनों का वो मधुर नाद
चारो तरफ गुंजायमान होगा वृंदगान
फिर दूर कहीं अंबर के सरपर इंद्र
सज़ा देगा फिर इंद्रधनुष ताज
वो थके हुए मुसाफिर
जो रूक गये है कहीं चलते—चलते
फिर पायेंगे अपने पैरों में नयी आभा
और तैरा मधुर नाद
देगा गीत में नई उमंग
और वो टूटा बिखरा साहस
फिर खड़ा हो चल पड़ेगा
उस सफर पर
नई उल्‍लास और उत्‍साह से भर कर
एक पूर्णता की दमक
पूकार दे रही होगी
दूर किसी......दूर सितिज
की मुंडेर से।
प्‍यारे सदगुरू।
स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’





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