अध्याय—15
सूत्र—
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्जानं वा गुणान्यितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचमुष:।। 10।।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यज्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यक्यधेतस:।। 11।।
परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी ज्ञानीजन नहीं जानते है केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।
क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए हस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी हम आत्मा को नहीं जानते हैं।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न : किसे समर्पण करें? किसे समर्पण करना चाहिए, इसकी कैसे तसल्ली हो? और तब तक क्या जारी रखें?
तसल्ली कभी भी न होगी। क्योंकि जो मन तसल्ली मांगता है, तृप्त होना उसका स्वभाव नहीं। वह भूल—चूक खोज ही लेगा।
आप बुद्ध के पास से भी गुजरे हैं, कृष्ण के पास से भी, महावीर के पास से भी। आप पहली दफा पृथ्वी पर नहीं हैं। तसल्ली कोई आपको दे नहीं पाया। अगर किसी ने भी तसल्ली दी होती, तो आप यहां होते नहीं।
भूलें आपने सब में खोज ली हैं। इसलिए नहीं कि भूलें थीं। इसलिए कि भूल खोजने में आप पारंगत हैं, कुशल हैं। जहां भूल न हो, वहा भी आप देख ले सकते हैं। फिर व्याख्या आपके ऊपर निर्भर है। तथ्य तो केवल उन्हें दिखाई पड़ते हैं, जिनका मन खो गया। आप तो तथ्य की व्याख्या करते हैं। और आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखना चाहते हैं, जो आप देख सकते हैं।
मेरे एक मित्र हाईस्कूल में ड्राइंग के शिक्षक थे। किसी कारण से उनको जेल हो गई। जब वे वापस लौटे और मैं गांव गया, तो मैंने उनसे पूछा कि जेल का जीवन कैसा रहा? उन्होंने कहा, और तो सब ठीक था, लेकिन जेल की मेरी जो कोठरी थी, उसके कोने नब्बे डिग्री के नहीं थे।
ड्राइंग का शिक्षक! उन्हें बड़ी तकलीफ रही होगी। वे जो दीवार के कोने थे, नब्बे डिग्री के नहीं थे!
आप पर निर्भर होता है, आप क्या देखेंगे। आप पर निर्भर है, आप कैसी व्याख्या करेंगे।
'महावीर के पास से आप गुजरें, हो सकता है उनका नग्न खड़ा होना आपको कठिनाई में डाल दे। शायद आपको लगे कि नग्न खड़ा आदमी भला कैसे हो सकता है? भले आदमी तो सदा अपने को वस्त्र से ढाके हुए हैं। इस पर भरोसा न आएगा, तसल्ली न आएगी।
जीसस के पास से आप गुजरें, और यह जीसस दावा करता है कि मैं परमात्मा का पुत्र हूं। आपके अहंकार को चोट लगेगी कि आपके अतिरिक्त और कोई कैसे परमात्मा का पुत्र होने का दावा कर सकता है! जरूर यह धोखेबाज है, बेईमान है। और फिर जब जीसस को सूली लगेगी, तब भी आप व्याख्या करेंगे। आप कहेंगे, न मालूम किन कर्मों का फल भोग रहा है यह आदमी! और अगर सच में ईश्वर का पुत्र है, तो अब सूली पर चमत्कार दिखाना चाहिए। कोई चमत्कार नहीं हुआ।
मोहम्मद के पास से आप गुजरेंगे, तो भी अपनी व्याख्या ही आप करेंगे। मोहम्मद ने नौ स्त्रियों से शादी कर ली थी। तसल्ली आपको न होगी। आप अपने को ही बेहतर समझेंगे, कम से, एक से ही निबटारा कर रहे हैं। यह आदमी नौ स्त्रियों से शादी कर लिया है। महाकामी मालूम पड़ता है!
तसल्ली आपको कोई भी न दे सकेगा। कृष्ण तो आपको बिलकुल तसल्ली न दे सकेंगे। आप में से एक भी तसल्ली उनके द्वारा नहीं पा सकेगा। इतनी सखियां हैं! इतना राग—रंग है! नाच है, युद्ध है, धोखाधड़ी है, बेईमानी है, झूठ बोलना है। सब उनमें है। अगर आप तसल्ली की तलाश में हैं, तो आपके समर्पण का कोई उपाय नहीं है। सच तो यह है कि तसल्ली की खोज समर्पण से बचने का ढंग है। जिन्हें समर्पण करना है, वे पत्थर को भी समर्पण कर सकते हैं।
और समझ लेने की बात यह है कि वह आदमी समर्पण के योग्य था या नहीं, यह बात ही व्यर्थ है। आपने समर्पण किया, आपको फल मिल जाएगा। वह आदमी गलत भी रहा हो, वह आदमी ठीक न भी रहा हो, योग्य भी नहीं था कि उसके चरणों में आप झुकें। लेकिन उस आदमी का सवाल भी नहीं है। आप झुके, आप झुक सके, आप बदल जाएंगे। और अगर समर्पण की तलाश स्वयं को बदलने के लिए है, तो तसल्ली की बात ही मत सोचो।
फिर एक और बात समझ लेने की है। अगर कोई व्यक्ति सच में ही आपको पूरी तसल्ली दे दे, तो आपके झुकने का अर्थ क्या रह जाएगा? अगर परमात्मा आपके सामने खड़ा हो और सब भांति आपको तसल्ली हो जाए, तब आपका सिर झुके, तो आपका अहंकार नहीं झुक रहा है। अगर सब तरह तसल्ली ही हो गई, तो सिर को झुकना ही पड़ रहा है, इसमें गुण क्या है? इसका मूल्य क्या है? इससे कोई आत्मक्रांति घटित न होगी।
इसलिए बहुत—से संत तो इस भांति जीते हैं, ताकि आपको तसल्ली न हो सके। उनके पूरे जीवन की व्यवस्था यह है कि आपको तसल्ली न होने देंगे।
गुरजिएफ के पास एक महिला थी, अलेक्वेंड्रा डि साल्जमन। एक बड़ी संगीतज्ञ की पत्नी थी। और गुरजिएफ की आदत थी कि जब भी कोई व्यक्ति उसके पास आए, तो पहले वह उससे कहता था, सारा रुपया—पैसा, जेवर, जायदाद, जो भी हो, मुझे दे दो। कई तो इसीलिए भाग जाते थे कि हम यहां धर्म की तलाश में आए, और यह आदमी सारा धन, जेवर पहले मांगता है!
यह डि साल्जमन और उसकी पत्नी बड़े भक्त थे। और जब गुरजिएफ ने उनसे कहा कि तुम अपना सब जेवर पहले मेरे पास छोड़ दो, तुम खाली हाथ हो जाओ, क्योंकि तब ही मैं तुम्हें भर सकूंगा। तो साल्जमन, पति तो राजी हो गया। लेकिन जैसा स्त्रियों का मन होता है, साल्जमन की पत्नी का मोह अपने कुछ हीरे—जवाहरातों में था। बड़े परिवार की महिला थी। एक हीरे में तो उसका बहुत ही लगाव था।
तो उसने अपने पति को कहा कि मैं क्या करूं? उसके पति ने कहा, तेरे लिए दो ही उपाय हैं। या तो तू सब दे दे। वह एक हीरा नहीं बचाने देंगे। और या कुछ भी मत दे। लेकिन तब तू निर्णय कर ले। क्योंकि मैं तो सब छोड़कर उसके चरणों में जा रहा हूं। अगर तू गुरजिएफ को छोड़ती है, तो मुझे भी छोड़ दे।
उसकी पत्नी ने हिम्मत की। अपना हीरा, अपने सब जवाहरात, अपने सब गहने—लाखों रुपए के थे—वे सब एक पोटली में बांधे और गुरजिएफ के चरणों में जाकर रख दिए। दूसरे दिन गुरजिएफ ने बुलाया और पूरी पोटली उसे वापस कर दी।
कोई पंद्रह दिन बाद एक दूसरी महिला आई और गुरजिएफ ने उससे भी कहा कि तू सारे अपने जेवर मुझे दे दे। उसने साल्जमन की पत्नी को पूछा कि क्या करना चाहिए? साल्जमन की पत्नी ने कहा, मैं नहीं जानती। मैंने दिए थे, वे मुझे वापस मिल गए। तो उसने सोचा, जब वापस ही मिल जाना है, तो डरना क्या? वह गुरजिएफ को दे आई। उसने कभी वापस न किए।
अब यह जो गुरजिएफ है, इसे कोई प्रयोजन हीरे और जवाहरात से नहीं है; लेकिन उस मन से तो प्रयोजन है, जो पकड़ता है, छोड नहीं सकता। जो छोड़ सकता है, उसके वापस लौटाए जा सकते हैं। जो छोड नहीं सकता, उसके वापस लौटाने असंभव हैं।
और गुरजिएफ यहां से पैसा लेता और दूसरी जगह बांट देता। एक से मांगता और दूसरे को दे देता। उसके व्यवहार से लगेगा कि पैसे पर उसकी पकड़ है।
और गुरजिएफ ने अपने शिष्यों को कहा है कि मैं सब भांति अपने में अविश्वास पैदा करवाने की कोशिश करवाता हूं। और उसके बाद भी अगर कोई विश्वास कर ले, तो समर्पण है; तो उसका अहंकार उसी वक्त खो जाता है।
इसलिए जिनको आप साधारणत: संत पुरुष समझते हैं, जो सब भांति आपके मापदंड में साधु हैं, उनके पास आपके जीवन में कोई क्रांति कभी घटित नहीं होने वाली। आप सब भांति कसौटी पर कसकर उनको समर्पण करते हैं। समर्पण आप करते ही नहीं। क्योंकि समर्पण तो वही कर सकता है, जो जानता है, मेरी योग्यता क्या कि मैं कसौटी पर कसूं!
जो आपकी कसौटी पर खरा उतरा और उस पर आपने समर्पण किया, तो आपने समर्पण किया ही नहीं, आपकी कसौटी जिंदा है। यह आदमी आपसे छोटा है। आपने सब भांति इसे परख लिया। और आपका मन राजी हो गया कि बिलकुल ठीक, तब आपने समर्पण किया। समर्पण की कोई क्रांति घटित नहीं होगी।
समर्पण की क्रांति तो तब ही घटित होती है, जब मन डांवाडोल है, जब मन डरता है, जब मन भरोसा भी नहीं कर पाता है। और जब अहंकार सब तरह के सुझाव देता है कि भाग जाओ, हट जाओ, तब भी आप साहस करते हैं और छलांग लगाते हैं। उसी छलांग में अहंकार की मृत्यु हो जाती है। पक्के भरोसे के साथ, तसल्ली के साथ जब आप समर्पण करते हैं, तो समर्पण झूठा है। समर्पण है ही नहीं। वहा कोई छलांग ही नहीं है।
आपने सब भांति परख कर ली कि रास्ता साफ—सुथरा है; यहां कोई गड्डे नहीं हैं। और यहां कोई छलांग का खतरा नहीं है; यहां किसी खाई में गिर जाने का डर नहीं है। रास्ता है पक्का पटा हुआ, हाई—वे है। उस पर आप चल रहे हैं।
वे ही संत पुरुष आपके समर्पण में सफल हो पाते हैं, आपको समर्पण करवाने में, जो आपकी कसौटी पर बंधने को राजी नहीं हैं। लेकिन एक बड़े मजे की घटना घटती है, कि जैसे ही वैसा संत पुरुष चल बसता है, उसके जीवन का ढंग उसके भक्तों के लिए आगे आने वाले दिनों में फिर कसौटी बन जाता है।
महावीर नग्न खड़े हैं। यह नग्नता उस वक्त अड़चन की बात थी। और जिन्होंने इस नंगे आदमी को समर्पण किया, वे क्रांतिकारी लोग थे। उन्होंने बड़ी हिम्मत जुटाई होगी। लेकिन उसके बाद, महावीर की मृत्यु के बाद, उन क्रांति पुरुष, जो उनके भक्त बने थे, उनके बच्चे और बेटे, उनकी कोई क्रांति नहीं है। उनको अगर आप बुद्ध के पास ले जाएं, तो वे देखते हैं और सोचते हैं कि यह आदमी कपड़े पहने हुए है, इसलिए संत नहीं हो सकता। इसलिए उनका समर्पण बुद्ध के लिए नहीं होगा।
इसलिए अगर जैन को आप राम के मंदिर में ले जाएं, तो सिर नहीं झुका सकता। क्योंकि यह कैसा भगवान, जो गहनों से सजा हुआ खड़ा है! और यह कैसा भगवान, जिसकी सीता पास में है! यह असंभव है। तसल्ली नहीं होती है।
इसलिए जैन राम को भगवान नहीं मान सकता है। कोई उपाय नहीं उसके मन में मानने का। उसकी अपनी कसौटी है। और कसौटी उसने महावीर से ले ली है। लेकिन महावीर खुद अत्यंत क्रांतिकारी व्यक्ति थे। और जो लोग उनसे राजी हुए थे, उन्होंने समर्पण किया था।
इसलिए हर बुद्ध पुरुष के पास समर्पित लोग इकट्ठे होते हैं, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद परंपरा बन जाती है, लीक बन जाती है। फिर लीक से लोग चलते चले जाते हैं। फिर सबके पास अपनी धारणाएं, मापदंड होते हैं।
आपका कोई मापदंड होगा, इसलिए पूछते हैं, तसल्ली कैसे करें? क्या है आपके पास मापदंड? कोई यंत्र नहीं है, जिससे जाना जा सके कि कौन व्यक्ति जाग गया, कौन प्रबुद्ध हुआ, किसका शान प्रज्वलित हुआ। कौन हो गया कृष्ण, कौन हो गया क्राइस्ट, कोई जांचने का उपाय नहीं है, कोई व्यवहार की कसौटी नहीं है। क्योंकि दुनिया में सैकड़ों बुद्ध पुरुष हुए हैं, सबका व्यवहार अलग—अलग है, सबकी निजता है, सबका व्यक्तित्व है।
हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध नाराज हों। लेकिन क्राइस्ट नाराज होते हैं। तो जिसने बुद्ध को कसौटी मान लिया, वह क्राइस्ट को नाराज देखकर समझेगा कि यह आदमी योग्य नहीं है, इसको अभी ज्ञान नहीं हुआ।
क्राइस्ट इतने नाराज हो गए कि उन्होंने अपना कोड़ा हाथ में रूप। लिया, और यहूदियों के मंदिर में प्रवेश कर गए। और उन्हों। पुरोहितों को चोट मारी और जो ब्याज लेने वाले दुकानदार वहां बैर! थे, उनके तख्ते उलट दिए, और उनको खदेड़कर बाहर कर दिया। जो बुद्ध को मानता है आधार, वह कहेगा, यह आदम। क्रांतिकारी हो सकता है; लेकिन अभी शांत नहीं हुआ है।
लेकिन जिसने क्राइस्ट को आधार माना है और उनके प्रेम में जो जीया है और जिसने उनको समर्पण किया है, वह बुद्ध को देखकर कहेगा, यह शांति निर्जीव है, यह आदमी नपुंसक है। जहां इतनी कठिनाई है समाज में, वहां यह चुपचाप वृक्ष के नीचे बैठा हुआ है! जहां इतनी पीड़ा, इतना दुख, इतनी दरिद्रता है, वहां इसकी शांति में कुछ भी क्रांति पैदा नहीं होती, तो इसकी शांति का कोई भी मूल्य नहीं है।
कैसे कसौटी खोजिएगा? क्या रास्ता है? महावीर लात मार देते हैं धन पर, जनक साम्राज्य में सिंहासन पर बैठे हैं। दोनों बुद्ध पुरुष हैं।
प्रत्येक बुद्ध पुरुष अनूठा है, इसलिए कोई कसौटी बनती नहीं। कोई सार निचोड़ा नहीं जा सकता है कि कैसे हम नापे! और नापने वाला कभी नहीं सोचता कि मैं कहां हूं? कैसे मैं नापूंगा?
किनारे पर आप खड़े हैं, और हिंद महासागर की गहराई को नापने की कोशिश कर रहे हैं! उस गहराई में उतरना पड़ेगा। जमीन पर आप बैठे हैं, और एवरेस्ट की ऊंचाई नापने की कोशिश कर रहे हैं! उस ऊंचाई पर चढ़ना पड़ेगा।
बुद्ध हुए बिना बुद्धों को पहचानने का कोई उपाय नहीं। तसल्ली कैसे होगी? तसल्ली कभी किसी को नहीं हुई है। अगर आप तसल्ली के लिए रुके हैं, तो सदा ही रुके रहेंगे।
हिम्मत करें। और जहां थोड़ा—सा भी आकर्षण मालूम होता हो, मत रुके कि जब सौ प्रतिशत तसल्ली होगी, तब छलांग लेंगे। वैसा कभी भी नहीं होगा। तो जहां मन आकर्षित होता हो और जिस व्यक्ति के द्वार से आपको किसी अज्ञात की हवा का हलका—सा झोंका भी लगता हो; जिसकी उपस्थिति में आपके भीतर ऊंचाइयों के द्वार खुलते हों; नए स्वप्न गाते हों, जिसकी मौजूदगी आपको बदलती हो; जिसके पास स्वाद आता हो किसी अनजान, अज्ञात का; वहा साहस करें और तसल्ली की फिक्र मत करें। गणित मत बिठाएं।
यह काम जोखम का है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि दुकानदार धर्म में असफल रहते हैं, जुआरी जीत जाते हैं। यह काम कोई हिसाब—किताब का नहीं है कि आप पूरा पक्का पता लगा लेंगे कि एक रुपया लगा रहे हैं, तो कितनी बचत होगी? कि नहीं होगी? यह दाव है। इसमें सब खो सकता है, सब मिल सकता है। इसमें छोटे हिसाब से नहीं चलेगा।
और जिंदगी बड़ी बेबूझ है, गणित की तरह नहीं है, पहेली की तरह है। यह पहेली की तरह जो जिंदगी है, इसमें अगर आप बहुत हिसाबी—किताबी हैं, तो धर्म आपके लिए नहीं है, फिर व्यवसाय आपके लिए है।
यह बिलकुल जोखम का काम है। यहां कोई पक्की गारंटी नहीं है कि आप किसी को समर्पण करेंगे, तो वह योग्य होगा ही। भूल हो सकती है। पर भूल से कोई खतरा नहीं है। क्योंकि समझने की बात यह है, जिसको आप समर्पण करते हैं, उसकी योग्यता से क्रांति घटित नहीं होती; समर्पण से क्रांति घटित होती है।
इसलिए एक वृक्ष के नीचे रखे हुए पत्थर को आप समर्पण कर दें और क्रांति घटित हो जाएगी। असली सवाल आपके झुकने, अपने को मिटाने का है। किसके बहाने मिटाया, यह बात गौण है। और मैं आपसे कहता हूं, ऐसा अक्सर हुआ है कि अज्ञानी गुरुओं के पास भी कई बार शिष्य ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं।
यह बिलकुल उलटा लगेगा, क्योंकि यह गणित नहीं समझ में आएगा। जब तक गुरु शानी न हो, तब तक कैसे शिष्य शान को उपलब्ध हो सकता है? शानी गुरुओं के पास भी शिष्य वर्षों रहे हैं और अज्ञानी रहे हैं!
इसलिए मैं कहता हूं; जीवन पहेली जैसा है। क्योंकि ज्ञानी गुरु के पास भी आप बैठे रहें बिना समर्पित, तो शानी गुरु कुछ भी नहीं कर सकता। उसकी आंखें आपके काम नहीं आ सकतीं, और न उसका हृदय आपके लिए धड़क सकता है, न उसकी अनुभूति आपकी अनुभूति बन सकती है। और अज्ञानी गुरु भी कभी काम आ सकता है, अगर आप समर्पण कर दें। क्योंकि समर्पण करना ही घटना है, गुरु तो सिर्फ बहाना है।
जैसे आप कमरे में आते हैं; कोट निकालते हैं; खूंटी पर टल देते हैं। खूंटी तो सिर्फ बहाना है। कोई भी खूंटी काम दे जाएगी। लाल रंग की है, कि हरे रंग की है, कि पीले रंग की है, कि बेरंग की है; कि छोटी है, कि बड़ी है, कि लकड़ी की है, कि लोहे की है, कि सोने की है; इसकी तसल्ली करने की बहुत जरूरत नहीं।
खूंटी है; कोट टांगा जा सकता है। कोट टैग जाएगा। कोट होना चाहिए टांगने को आपके पास।
समर्पण चाहिए, तैयारी चाहिए अपने को खोने और मिटाने की, तो कोई भी गुरु काम दे देगा।
मगर यह जो सवाल है, यह सबके मन में उठता है, कि जब तक तसल्ली न हो...। तो आप भटकेंगे। तसल्ली कभी भी न होगी। यह मन ऐसा है कि तसल्ली होने ही नहीं देगा। मन की सारी प्रक्रिया अविश्वास पैदा करवाने की है। इसे समझ लें।
मन का ढांचा संदेह जन्माने का है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मन में संदेह लगते हैं। तो मन में कभी श्रद्धा तो लगती ही नहीं; वह उस वृक्ष के बीज में ही नहीं है। कोई व्यक्ति मन के द्वारा श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता, मन के द्वारा सिर्फ संदेह को उपलब्ध होता है। मन यानी संदेह।
तो जिस मन से आप खोजने जाएंगे, उसमें आपको संदेह मिलते चले जाएंगे। और जब संदेह आपको मिलेगा, तो कैसे समर्पण कर सकते हैं? समर्पण तो वे ही लोग कर सकते हैं, जो अपने मन से थक गए हैं।
तसल्ली के कारण नहीं किसी पर, अपने मन पर जिनकी श्रद्धा उठ गई है, जो अपने मन से ऊब गए हैं और परेशान हो गए हैं, और जिन्होंने मन के सब रास्ते टटोल लिए हैं; मन के साथ सब मार्गों पर चलकर देख लिया है, मन की सब बातें मान लीं और फिर भी कहीं कोई आनंद नहीं पाया; जो अपने मन से ऊब गए हैं, जो अपने मन से विषाद से भर गए; वे लोग समर्पण करते हैं।
मन को छोड़ना समर्पण है। क्योंकि मन को छोड़ा कि श्रद्धा का जन्म हुआ। जहां आपको कल संदेह दिखाई पड़ते थे, वहीं श्रद्धा दिखाई पड़ने लगेगी। जहां कल आपको तसल्ली पैदा नहीं होती थी, वहां अचानक तसल्ली हो जाएगी, ट्रस्ट हो जाएगा। एक गहरा भाव पैदा हो जाएगा और आप मार्ग पर चलना शुरू कर देंगे। कौन मांगता है तसल्ली? आप! अगर आप कहीं पहुंच गए हैं, तो तसल्ली की कोई जरूरत नहीं, समर्पण की कोई जरूरत नहीं। अगर कहीं नहीं पहुंचे हैं.......।
तो धार्मिक व्यक्ति और अधार्मिक व्यक्ति में एक ही फर्क है। अधार्मिक व्यक्ति सब पर संदेह करता है, अपने को छोड़कर। और धार्मिक व्यक्ति अपने पर संदेह करता है, सब को छोड़कर।
जो अपने पर संदेह करता है, उसको गुरु जल्दी मिल जाएगा, क्योंकि वह तसल्ली कर सकता है। जो दूसरे पर संदेह करता है, उसे गुरु कभी भी नहीं मिल सकता। क्योंकि वह कहीं भी जाए, अपने पर उसका भरोसा है, जिसने कहीं भी नहीं पहुंचाया है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बहुत नाराज था; उछल—कूद रहा था, क्रोध में आगबबूला हो रहा था। उसके मित्र पंडित रामचरणदास उसके पास बैठे थे। वे उससे पूछ रहे थे कि नाराजगी क्या है? तो वह कह रहा था, मेरी पत्नी ने मुझे धोखा दिया! बेईमान है, दुश्चरित्र है। घर से निकाल देने योग्य है।
तो उसके मित्र ने पूछा कि आखिर क्या तुम्हारे पास प्रमाण है? किस आधार पर कहते हो कि पत्नी दुश्चरित्र है? किस आधार पर इतने नाराज और पागल हुए जा रहे हो?
नसरुद्दीन ने कहा, मेरे पास प्रमाण है। कल पूरी रात वह घर से गायब रही। और सुबह जब आई और मैंने पूछा, तो उसने मुझे धोखा दिया है। वह कहती है कि मैं अपनी सहेली तारा के घर पर रात रुक गई। यह बात सरासर झूठ है। तो पंडित रामचरणदास ने पूछा कि इसका तुम्हारे पास प्रमाण है कोई? तो उसने कहा, पूरा प्रमाण है। क्योंकि तारा के घर तो रातभर मैं रुका था।
मन पूरे समय दूसरे पर संदेह कर रहा है। मन अपने पर लौटता ही नहीं।
तो अगर आप इस मन को लेकर खोजने चले हैं, तो गुरु से आपका मिलना कभी भी नहीं हो सकता। अगर इस मन से थक गए हैं या न थके हों, तो और थोड़ी मेहनत करें, और थक जाएं। जब थक जाएं, तो गुरु से मिलना हो जाएगा।
और गुरु को खोजने कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। गुरु हो सकता है आपके घर में मौजूद हो। लेकिन आपका मन उससे संबंध न जुड्ने देगा।
आपका मन हट जाए, तो आंखें साफ हो जाएंगी, खोज सरल हो जाएगी। और शायद आपको खोजने भी न जाना पड़े। वह व्यक्ति आपको खोजता आ जाए। लेकिन तसल्ली की खोज वाला मन कभी भी नहीं खोज पाता है।
और पूछा है, तब तक क्या करें?
तब तक इस मन के दुख जितने भोग सकें, भोगें। कोई और उपाय नहीं है। और जहां—जहां यह मन ले जाए और भटकाए, भटकें। इस मन से पूरी तरह थक जाना है। थक जाएं।
यह मन उसी तरह का है, जैसे एक छोटे बच्चे को कहें कि बैठ जाओ एक कोने में, शांत बैठो, हिलो—डुलो मत! तो बडी मुश्किल में हो जाता है बच्चा। क्योंकि सब शक्ति उसकी ऊर्जा भागती है।
वह कुछ करना चाहता है। उसको बिठा देना कष्टपूर्ण है। उसके। बिठाने का एक ही उपाय है कि पहले उससे कहो कि घर के दस चक्कर लगा। और जितनी तेजी से बन सके, उतनी तेजी से लगा। और जब वह थक जाए और हाथ—पैर जोड्ने लगे कि अब मैं नत। दौड़ सकता; अब बस! तब उससे कहो कि बैठ जा।
इस मन को पहले दौड़ा लें। यह आधा— आधा दौडा हुआ होगा। तो यह कहीं रुकने न देगा। जहां भी आप जाएंगे, यह आपके दौड़ के लिए कारण खोज लेगा। इसे दौड़ा ही लें अच्छी तरह।
जितना संदेह करना है, संदेह कर लें। जितने तर्क करने हैं, तर्क कर लें। जितना विचार करना है, विचार कर लें। कुनकुने नहीं, पूरे उबल जाएं। भाप बनने दें इसे। बड़ा कष्ट होगा, नर्क। :। जाएगा खड़ा।
यही अड़चन है। न तो समर्पण करते हैं कि सब शांत हो जाए; और न उबलते हैं पूरे कि सब तरह से भाप पैदा हो जाए। कुछ भी नहीं करते। बीच में कुनकुनाते रहते हैं। यह जो कुनकुनापन है, यह : आदमी का दुख है।
संदेह ही करना है, तो पूरा कर लें। पूरा संदेह भी श्रद्धा पर ले जाएगा। नर्क से गुजरना पड़ेगा। बडी पीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा से गुजरकर एक बात हाथ में आ जाएगी कि यह मन सिवाय दुख के और कहीं भी नहीं ले जाता है। यह द्वार है दुख का। यह प्रतीति हो जाएगी, तो आप इस मन के द्वारा तसल्ली नहीं खोजेंगे। अल्प इस मन को हटा देंगे और सीधा संपर्क साधेंगे। फिर समर्पण आसान है।
जब तक समर्पण न होता हो, तसल्ली खोजने का मन जारी रहता हो, तब तक इसका दुख पूरी तरह भोगें। और धीमे — धीमे नहीं। होमियोपैथी के डोज मत लें। पूरा जहर इकट्ठा पी लें। या इस पार या उस पार। दो में से कहीं भी पार हो जाएं। बीच में मत उलझे रहें। तो मैं यहां देखता हूं, अनेक लोग थोडी तसल्ली भी करते है। थोड़ी नहीं भी करते हैं। यह उनकी स्थिति है, नपुंसकता की स्थिति है। इससे इंपोटेंस पैदा होती है। इससे कहीं जा नहीं सकते। मेरे पास कोई आता है और वह कहता है कि थोड़ा आप पर विश्वास आता है, थोड़ा नहीं भी आता।
मैं कहता हूं, दो में से तू कुछ भी चुन। यह थोड़ा विश्वास भी छोड़ दे, तो मुझसे छुटकारा हो। इस थोड़े विश्वास की वजह से तू मेरे से दूर भी नहीं जा सकता। अकारण समय खराब कर रहा है। और थोडा अविश्वास है, उसकी वजह से मेरे पास भी नहीं आ सकता। थोडा अविश्वास है, तो मुझसे संबंध भी नहीं बनता। और थोड़ा विश्वास है, तो मुझसे संबंध टूटता भी नहीं। यह बड़ी दुविधा की स्थिति है। मुझसे संबंध टूटे, तो किसी और से बन सके। हो सकता है, कहीं और विश्वास घटित हो जाए। वहां भी जाना नहीं हो पाता, क्योंकि थोड़ा विश्वास यहां है।
यह ऐसी हालत है, जैसे किसी वृक्ष की हम आधी जड़ें बाहर निकाल लें और आधी जमीन में रहने दें। तो न तो वृक्ष में फूल लगें, न फल आएं, न पत्तों में हरियाली रहे और न वृक्ष मरे।
कभी आप अस्पतालों में जाएं; हिंदुस्तान के अस्पतालों में भी अब वैसी हालत आती जाती है। यूरोप और अमेरिका में तो बहुत है। लोग सौ वर्ष के हो गए हैं, सवा सौ वर्ष के हो गए हैं, और लटके हैं अस्पतालों में। उनको मरने नहीं दिया जाता और जीने का उनका कोई उपाय नहीं रहा है। तो किसी को आक्सीजन दी जा रही है, किसी के हाथ—पैर उलटे बांधे हुए हैं, उनको दवाइयां पिलाई जाती हैं।
वे मुरदा जिंदा हैं। न तो मर सकते हैं, क्योंकि ये डाक्टर मरने न देंगे। और न जी सकते हैं, क्योंकि डाक्टरों के हाथ के बाहर है उनको जीवन देना। जीवन उनके भीतर से बह चुका है। पर मौत को भी नहीं आने दिया जा रहा है।
इस अधूरी अवस्था में लटके लोग पश्चिम में आवाज उठा रहे हैं अथनासिया की। वे कहते हैं कि हमें मरने का हक होना चाहिए। और जब हम लिखकर दे दें कि हम मरना चाहते हैं, तो हमें बचाने की कोशिश बंद हो जानी चाहिए। लेकिन अभी तक कोई राज्य इतनी हिम्मत नहीं कर पाता कि मरने का हक दे।
डाक्टर भी जानते हैं कि यह आदमी मर जाए तो अच्छा। लेकिन फिर भी उसे दवाइयां दिए जाते हैं जिंदा रखने के लिए; क्योंकि उनको उनके अंतःकरण की पीड़ा है। अगर हम दवा न दें और यह आदमी मरे, तो उनको जिंदगीभर लगेगा कि हमने मारा।
जो व्यक्ति थोड़ा—सा विश्वास करता है और थोड़ा—सा अविश्वास, वह अस्पतालों में लटके हुए इन व्यक्तियों की भांति हो जाता है, न जी सकता है, न मर सकता है; न दूर जा सकता है, न पास आ सकता है।
तो या तो छलांग लगा लें; या समझें कि यह खाई आपके लिए नहीं है। कहीं और कोई खाई होगी। तो इस खाई से हट जाएं।
निर्णायक होने की जरूरत है। अपना निर्णय लेने की जरूरत है। गलत निर्णय भी बुरा नहीं है, लेकिन अनिर्णय बुरा है। क्योंकि गलत निर्णय भी बल देता है। कुछ तो तय हुआ। उस तय होने के साथ आपके भीतर इंटीग्रेशन पैदा होता है, अखंडता आती है। लेकिन अनिर्णय, कुछ भी तय नहीं, इनडिसीसिवनेस, तो आप धीरे—धीरे भीतर बिखर जाते हैं। भीतर आत्मा संगृहीत नहीं हो पाती, खंड—खंड हो जाती है। यह खंडित स्थिति छोड़े।
तो जब तक, पहली तो बात, तसल्ली की खोज बंद कर दें। न बंद कर सकते हों, तो खोज को पूरा करें। समर्पण कर दें। न समर्पण होता हो, तो असमर्पण का पूरा दुख भोग लें। मध्य में मत रहें। मध्य से कोई कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है। छलांग केवल अति से ही लग सकती है।
दूसरा प्रश्न :
दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, ऐसा आपने कहा। फिर आप जैसे पुरुषों के बोलने में सार्थकता क्या है कि जिसके लिए लोक प्रार्थना करता है?
दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, इसका अर्थ है कि दूसरों के अनुभव आपके अनुभव नहीं बन सकते हैं, दूसरे की प्रतीति आपकी प्रतीति नहीं बन सकती है। लेकिन दूसरे का संपर्क संक्रामक हो सकता है। दूसरे की सन्निधि संक्रामक हो सकती है। अगर आप दूसरे के प्रति खुले हों, तो जैसे बीमारियां पकड़ सकती हैं आपको, वैसे ही स्वास्थ्य भी पकड़ सकता है।
अनुभव दूसरे के काम नहीं आते। अगर आप कृष्ण के पास हों, तो कृष्ण के अनुभव आपके अनुभव नहीं बन सकते। लेकिन कृष्ण की मौजूदगी में अगर आप समर्पित हों, तो आपके अपने जीवन का विकास शुरू हो जाता है। उस विकास में कभी अनुभव घटित होंगे। वे अनुभव कोई दूसरा आपको नहीं दे सकता, लेकिन दूसरे की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम कर सकती है। उससे स्फुरणा हो सकती है। वह प्रेरणा बन सकती है। उससे धक्का लग सकता है।
लेकिन उसके लिए जरूरी है कि आप खुले हों। आपका हृदय बंद न हो; आपके मस्तिष्क पक्षपात से न घिरे हों। आप राजी हों अनजान में जाने के लिए, अपरिचित में उतरने के लिए; जिसको आपने कभी नहीं जाना है, उस रास्ते पर किसी के पीछे चलने के लिए। अनहोना घटित हो सकता है। अनचाहा घटित हो सकता है। उस जोखम को उठाने की तैयारी भीतर हो।
इसीलिए तो हम अपने को बंद रखते हैं कि कहीं कोई जोखम न हो जाए।
एक मित्र मेरे पास आए। और उन्होंने मुझे कहा कि मैं शिविर में आने से डरता हूं कि कहीं कुछ सच में ही हो न जाए। बच्चे हैं, पत्नी है, घर—द्वार है। और अभी इन सबको बड़ा करना है, सम्हालना है। अभी संसार का दायित्व है, उसे पूरा निभाना है। डर लगता है कि कहीं जाएं और कहीं कुछ हो ही न जाए!
उनका डर ऐसे स्वाभाविक है। और ठीक भी है। मगर इस डर के कारण वे बंद हैं। तो मैंने उनसे कहा, मेरे पास भी क्यों आए हो? क्योंकि आना फिजूल है। यहां भी डर तो भीतर होगा ही। उस डर की आडू से अगर तुम मुझसे मिलोगे, तो मिलन हो ही न पाएगा। वह डर भीतर बैठा है, कहीं कुछ हो न जाए। तो जब डर चला जाए, तब ही आना।
और जल्दी कुछ भी नहीं है। समय अनंत है। और इतने जन्म आपके हुए हैं; और इतने ही जन्म हो जाएंगे; कोई जल्दी नहीं है। मगर डर की दीवार अगर भीतर हो, तो फिर आप किसी के भी पास जाएं, जाने से कुछ न होगा। अकेली पार्थिव मौजूदगी कुछ भी नहीं कर सकती है। मेरा जो अनुभव है, वह मैं आपको दे नहीं सकता। लेकिन अगर आप खुले हों, अगर आप मेरे साथ बहने को राजी हों, तो आपके अनुभव घटने शुरू हो जाएंगे। वे आपके ही होंगे।
लेकिन मैं आपका हाथ पकड़कर कहीं ले चलूं, कहूं कि आओ मकान के बाहर सूरज निकला है, और फूल खिले हैं, और आकाश में बड़ी रंगीनी है! तो मैं आपका हाथ पकड़कर बाहर ले जा सकता हूं, लेकिन जब आप आंख खोलेंगे और सूरज को देखेंगे, तो वह अनुभव आपका ही होगा, वह मैं आपको नहीं दे सकता। इस कमरे में बैठा हुआ मैं आपको वह अनुभव नहीं दे सकता। मैंने कितना ही सूरज देखा हो, और कितने ही फूल खिले देखे हों, और कितना ही आकाश रंगीन हो, यहां बैठकर मैं आप से आकाश की बात कर सकता हूं, सूरज की बात कर सकता हूं? लेकिन अनुभव नहीं दे सकता।
शब्द अनुभव नहीं हैं। और अगर आप मेरे शब्दों से राजी हो जाएं, तो मैं आपका दुश्मन हूं। क्योंकि आप समझ लें कि शब्द सूरज सूरज है, आकाश शब्द आकाश है, तो फिर आप बाहर जाना, खोजना, आकाश की तलाश ही बंद कर देंगे। यहीं बैठे सब मिल गया।
लेकिन मैं यहां आपके भीतर प्यास जगा सकता हूं अनुभव नहीं दे सकता। या मेरी मौजूदगी को अगर आप देखें, तो प्यास जग सकती है। और अगर मेरे साथ दो कदम चलने को राजी हों, तो बाहर भी पहुंच सकते हैं। फिर जो आप देखेंगे, वह आपका ही अनुभव होगा।
अनुभव निजी है और कभी भी हस्तांतरित नहीं हो सकता। इसलिए मैंने कहा कि अनुभव, दूसरे के अनुभव काम नहीं आते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आप दूसरों से सीख नहीं सकते हैं। अनुभव नहीं सीख सकते, लेकिन कैसे वे अनुभव तक पहुंचे, वे सारी विधियां, वे सारे मार्ग आप सीख सकते हैं।
इसलिए बुद्ध पुरुष सिद्धात नहीं देते, केवल विधियां देते हैं। निष्पत्ति नहीं देते, केवल मार्ग देते हैं। क्या होगा वहां पहुंचकर, यह नहीं बताते, कैसे वहां पहुंच सकोगे, इतना ही बताते हैं।
बुद्ध ने कहा है, मैं मार्ग बताता हूं; चलना तुम्हें है, पहुंचना तुम्हें है, जानना तुम्हें है। मैं सिर्फ मार्ग बता सकता हूं।
जो उस मार्ग से गुजरे हैं, उस मार्ग की खबर आपको दे सकते हैं। उनके अनुभव काम नहीं आते, लेकिन उनकी मौजूदगी, उनका व्यक्तित्व, उनका प्रकाश, उनका मौन, अगर आप खुले हों, तो संक्रामक हो जाता है। जैसे मलेरिया पकड़ता है, वैसे ही बुद्धत्व भी पकड़ता है।
लेकिन मलेरिया के लिए हम खुले होते हैं, तैयार होते हैं। अभी यहां एक आदमी खांस दे, दस—पंद्रह आदमी खांसेंगे। उसके लिए हम तैयार हैं। रोग के लिए हम तैयार हैं! लेकिन अभी यहां एक आदमी शांत हो जाए, तो दस—पंद्रह आदमी शांत नहीं हो जाएंगे। दुख के प्रति हम संवेदनशील हैं। आनंद के प्रति ऐसी ही संवेदनशीलता का नाम समर्पण है।
तीसरा प्रश्न :
इस विराट विश्व के संदर्भ में अपनी तुच्छता का बोध आदमी में हीनता की ग्रंथि को मजबूत बनाकर उसे पंगु बना सकता है। और हीनता— भाव निरअहंकारिता नहीं है। कृपया बताएं कि हीनता से बचकर अहंकार—विसर्जन के लिए क्या किया जाए?
पहली बात, हीनता की ग्रंथि, इनफीरिआरिटी काप्लेक्स अहंकार का ही हिस्सा है। अहंकार के कारण ही हमें हीनता मालूम होती है।
यह जरा कठिन लगेगा। अगर आप में अहंकार न हो, तो आप में हीनता हो ही नहीं सकती। हीनता इसलिए मालूम होती है कि आप समझते तो अपने को बहुत बड़ा हैं और उतने बड़े आप अपने को पाते नहीं। जितना बड़ा आप अपने को समझते हैं, उतना बड़ा पाते नहीं हैं। वास्तविक जगत में आप पाते हैं, छोटे हैं। उससे हीनता पैदा होती है।
अहंकार जितना बड़ा होगा, उतनी ज्यादा हीनता मालूम होगी। अहंकार जितना कम होगा, हीनता उतनी ही कम होगी। अहंकार नहीं होगा, हीनता खो जाएगी। हीनता और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
इसलिए जो आदमी विनम्र है, वह हीन नहीं होता। उसको हीनता पकड़ ही नहीं सकती। जो आदमी दंभी है, उसको ही हीनता पकड़ती है।
मेरे पास न मालूम कितनी बार तरह—तरह के लोग आते हैं। कोई आकर कहता है कि मेरा आत्म—विश्वास ज्यादा कैसे हो? मुझमें बडा आत्म—अविश्वास है, कोई आकर कहता है। कोई कहता है कि मुझमें हीनता की ग्रंथि है, तो यह कैसे मिटे? ठीक बीमारी को नहीं पकड पा रहे हैं वे, केवल लक्षण को पकड़ रहे हैं।
अगर आत्म—अविश्वास है, तो इसे स्वीकार कर लें कि यह मेरा हिस्सा हुआ। जैसे आपकी छ: फीट ऊंचाई है या पांच फीट ऊंचाई है, तो आप क्या करते हैं? स्वीकार कर लेते हैं कि मैं पांच फीट ऊंचा हूं।
लेकिन आप सोचते हैं कि छ: फीट होना था। कोई दूसरा छ: फीट है। तो फिर हीनता शुरू हुई। एक फीट आप कम हैं, अब इसको किसी तरह पूरा करना जरूरी है। तब आप पंजे के बल खड़े होकर चलना शुरू करेंगे। उससे कष्ट पाएंगे, उससे बड़ी पीड़ा होगी।
सारी दुनिया में स्त्रियां बड़ी एड़ी का जूता पहनती हैं। वह सिर्फ पुरुष की ऊंचाई पाने की चेष्टा है। उससे बड़ा कष्ट होता है, क्योंकि चलने में वह आरामदेह नहीं है। जितनी ऊंची एड़ी हो, उतनी ही कष्टपूर्ण हो जाएगी। लेकिन फिर धीरे— धीरे उसी कष्ट की आदत हो जाती है। फिर हड्डियां वैसी ही जकड़ जाती हैं; फिर सीधे पैर से जमीन पर चलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन स्त्री के मन में थोड़ा—सा संकोच है। पुरुष से थोड़ी उसकी ऊंचाई कम है।
पूरब की स्त्रियों ने इतनी फिक्र नहीं की ऊंची एड़ी के जूतों की। क्योंकि उनमें अभी भी पुरुष के साथ बहुत प्रतिस्पर्धा नहीं है। लेकिन पश्चिम में भारी प्रतिस्पर्धा है।
दूसरा बड़ा है, उससे कष्ट शुरू होता है। लेकिन कष्ट की क्या बात है! आप छ: फीट के हैं, मैं पांच फीट का हूं। न तो एक फीट बड़े होने से कोई बड़ा होता है, न एक फीट छोटे होने से कोई छोटा होता है। कि आप बहुत अच्छा गा सकते हैं, मैं नहीं गा सकता हूं। तो अड़चन कहां खड़ी होती है!
यह सब मुझमें भी होना चाहिए। यह मेरा अहंकार मान नहीं सकता कि कुछ है, जो मुझमें कम है। फिर जीवन में अनुभव होता है, बहुत कम है। तो हीनता आती है, आत्म—अविश्वास आता है। फिर इससे दूर होने के लिए हम उपाय करते हैं और एड़ियों वाले जूते पहनते हैं, उनसे और कष्ट पैदा होता है, और सारा जीवन विकृत हो जाता है।
इन सारे रोगों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, आप जैसे हैं, वैसे अपने को स्वीकार करें। आपके पास दो आंखें हैं, तो आपने स्वीकार किया। आंखों का रंग काला है या हरा है, तो आपने स्वीकार किया। किसी की नाक लंबी है, किसी की छोटी है, तो उसने स्वीकार किया। ये तथ्य हैं; उन्हें स्वीकार कर लें कि ऐसा मैं हूं। और जो मैं हूं इस मेरी स्थिति से क्या उपलब्धि हो सकती है, उसकी चेष्टा, उस पर सृजनात्मक श्रम।
लेकिन दूसरे से स्पर्धा हो, तो आप पागल हो जाएंगे। और करीब—करीब सारे लोग पागल हो गए हैं। स्पर्धा विक्षिप्तता लाती है। और ऐसा तो कभी भी नहीं होगा.....।
ऐसी हालत है करीब—करीब। मैं एक यात्रा पर था। एक मेरे मित्र खुद ही ड्राइव कर रहे थे। तो जैसे ही कोई गाड़ी उनको आगे दिखाई पड़ती रोड पर, वे अपनी गाड़ी तेज कर देते। कोई गाड़ी उनसे आगे कैसे हो सकती है! मैं थोड़ी देर तो देखता रहा कि जैसे ही उनको गाड़ी दिखाई पड़ती कोई आगे कि वे पगला जाते। वे गाड़ी तेज करके जब तक उसको पीछे न कर दें, तब तक उनको बेचैनी रहती।
मैंने उनसे पूछा कि क्या तुम सोचते हो इस रास्ते पर कभी ऐसी हालत आएगी कि आगे कोई गाड़ी न हो? तुम पगला जाओगे। रास्ते पर कोई न कोई गाड़ी आगे होगी ही।
तुम अपनी रफ्तार से चलो। तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचना है, उसके हिसाब से चलो। मगर कोई भी गाड़ी आगे हो, तो उसे पार करने की क्या तकलीफ है?
कोई बहुत गहरी हीनता की ग्रंथि होगी कि मैं किसी दूसरे से पीछे कैसे रह सकता हूं! और ऐसा जीवन के रास्ते पर भी यही है। आप इसकी फिक्र में नहीं होते कि आपको कहां जाना है। इसकी भी कोई चिंता नहीं कि कहीं पहुंचना है। लेकिन कोई आपके आगे न हो! वह चाहे नरक जा रहा हो, तो भी आपको उसको पीछे करना है!
मैंने सुना है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक ओपेनहेमर अमेरिकी प्रेसिडेंट को सलाह दिया कि जल्दी करें, क्योंकि रूसी चांद पर पहुंचने में हमसे आगे हैं। शुरू में वे थे भी। तो ओपेनहेमर ने कहा अमेरिका के प्रेसिडेंट को कि हम जल्दी करें, नहीं तो वे चांद पर हमसे पहले पहुंच जाएंगे। प्रेसिडेंट ने ऐसे ही कहा कि लेट देम गो टु हेल—जाने दो उनको नरक, जाने दो उनको दोजख। ओपेनहेमर ने कहा कि अगर इस रफ्तार से गए, तो वहा भी वे हमसे पहले पहुंच जाएंगे। और यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता!
तो कौन कहां जा रहा है, यह बड़ा सवाल नहीं है आपको, आप से आगे भर न जा पाए।
आपकी जिंदगी में कई बार आपके रास्ते इसीलिए बदल गए कि संयोग से आगे एक आदमी मिल गया, जो कहीं और जा रहा था।
आपको खयाल में नहीं है। अगर आप विश्लेषण करेंगे, तो आपको साफ दिखाई पड़ेगा कि आप चले जा रहे थे और एक आदमी और अच्छी कार में चला जा रहा था, आपकी जिंदगी बदल गई। क्योंकि आपको उससे अच्छी कार चाहिए। आप चले जा रहे थे, किसी से मित्रता हो गई, जिसके पास आपसे बड़ा मकान था। अब आप मुश्किल में पड़ गए; आपके पास उससे बड़ा मकान होना चाहिए।
और आप भूल ही जाते हैं कि आप कहां जाना चाहते हैं? क्या होना चाहते हैं? यह अहंकार बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई मुझसे आगे हो; इससे हीनता अनुभव होती है। और कोई न कोई आगे होगा। जीवन के रास्ते पर कभी किसी आदमी ने अनुभव नहीं किया कि मैं सबके आगे हूं।
नेपोलियन सब कुछ जीत ले, तो भी छोटी—छोटी चीजों में दुखी हो जाता था। एक दिन उसकी घड़ी बिगड़ गई, तो उसे सुधारने की कोशिश में उसने हाथ बढ़ाया। उसकी ऊंचाई ज्यादा नहीं थी, पांच ही फीट थी। तो उसका हाथ नहीं पहुंचा घडी तक, तो उसका जो अर्दली था, वह छ: फीट लंबा जवान था। उसने जल्दी से आकर ठीक कर दिया। नेपोलियन ने अपनी डायरी में लिखा है कि मुझे इतनी पीड़ा हुई कि जैसे मैं सारा संसार हार गया। अर्दली! और उसका हाथ पहुंच गया और मेरा नहीं पहुंचा!
आप थोड़ा सोचें, नेपोलियन की जगह आप भी होते, तो ऐसी ही पीड़ा होती। रोज यही पीड़ा हो रही है।
हीनता अनुभव होने लगती है, क्योंकि बडा अहंकार है। अगर नेपोलियन स्वीकार करता कि मैं पांच फीट का हूं; ठीक है। और यह छ: फीट का है। तो इसका हाथ पहुंचेगा, मेरा नहीं पहुंचा। यह तथ्य की बात है; इसमें अड़चन क्या है? और हाथ पहुंच जाने से कौन—सी ऊंचाई सिद्ध हो गई? तब फिर कोई हीनता नहीं है।
और जब हम निरंतर जोर देते हैं समर्पण के लिए, शून्य होने के लिए, तो हीनता पैदा करने के लिए नहीं, विनम्रता पैदा करने के लिए। और विनम्रता हीनता से बिलकुल उलटी बात है। क्योंकि विनम्रता तब पैदा होती है, जब अहंकार जाता है। और जब अहंकार जाता है, तो हीनता अपने आप चली जाती है, वह उसकी छाया है। आप विनम्र आदमी को तो कभी हीन कर ही नहीं सकते।
लाओत्से ने कहा है कि मुझे कभी कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। और मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर सका, क्योंकि मैंने कभी सम्मान चाहा नहीं।
कहा जाता है, लाओत्से किसी सभा में जाता—अगर वह यहां आता सुनने, तो वह बिलकुल अंत में, जहां जूते उतारे जाते हैं, वहा बैठता। क्योंकि वह कहता, वहां से कभी कोई उठा नहीं सकता। आप लाओत्से को हीन नहीं कर सकते। कोई उपाय नहीं है उसे हीन करने का। और ध्यान रखें, जो आदमी अंतिम बैठने में समर्थ है, उसके पास बड़ी आत्मा चाहिए। वह इतना आश्वस्त है अपने होने से कि अंतिम बैठने से अंतिम नहीं होता हूं।
और जो आदमी पहले बैठने की कोशिश कर रहा है, वह आश्वस्त नहीं है। वह डरा हुआ है। वह जानता है कि अगर मैं पहला बैठा नहीं, तो लोग समझेंगे कि मैं पहला नहीं हूं। उसे अपने पर भरोसा नहीं है। जिसे अपने पर भरोसा है, वह कहीं भी बैठे, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।
विनम्रता हीनता नहीं है। विनम्रता अहंकार का विसर्जन है। विनम्रता इस बात की घोषणा है कि मैं जैसा हूं, वैसा हूं। और मेरी किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं है। और अगर मुझे विकास करना है, तो वह मेरा विकास है, वह दूसरे से संबंधित नहीं है। वह दूसरे की तुलना और कपेरिजन में नहीं है।
जैसे ही यह बोध आना शुरू हो जाता है, कि मैं मैं हूं तुम तुम हो। तुम जैसे हो, तुम्हारे लिए भले हो, मैं जैसा हूं, मेरे लिए भला हूं। न तुमसे कोई स्पर्धा है, न तुम्हारी जगह लेने की कोई आकांक्षा है। मेरी अपनी जगह है; परमात्मा ने मुझे मेरी जगह दी है। मुझे मेरी जगह पर अंकुरित होना है। और जैसे ही व्यक्ति दूसरों से प्रतिस्पर्धा छोड़ देता है, वैसे ही परमात्मा में उसका विकास शुरू हो जाता है। और जब तक व्यक्ति दूसरों से उलझता रहता है, तब तक परमात्मा के जगत में उसका कोई विकास नहीं हो पाता। क्योंकि उसका ध्यान दूसरों पर लगा है, परमात्मा पर तो ध्यान ही नहीं है उसका।
अगर तुम मंदिर में भी जाते हो, तो भी तुम इस बात की फिक्र करते हो कि प्रार्थना उस जगह पर बैठकर करो जो नंबर एक है! प्रार्थना का क्या संबंध नंबर एक से! मंदिर में भी कतारें हैं। वहा भी अहंकारी आगे बैठा है! वह दूसरे को आगे नहीं बैठने देगा।
अभी कुंभ का मेला भरने को है, वहा अहंकारी पहले स्नान करेंगे। उस पर दंगा—फसाद हो जाता है, हत्याएं हो जाती हैं, लट्ठ चल जाते हैं। और चलाने वाले संन्यासी हैं। क्योंकि वे कहते हैं, पहले हमारा हक है, पहले हम स्नान करेंगे।
धर्म का क्या संबंध है पहले से? धर्म का संबंध अगर कुछ है, तो अंतिम से है। आखिरी होने के लिए जो राजी है, वह परमात्मा का प्यारा हो जाता है।
प्रथम होने की जो दौड़ में है, वह परमात्मा से लड़ रहा है। प्रथम होने की दौड़ नदी में उलटी धारा में तैरने की कोशिश है। अंतिम होने के लिए राजी होने का मतलब है, धारा में बह जाना, धारा के साथ एक हो जाना। जहां नदी ले जाए, हम वहीं जाने को राजी हैं। समर्पण बहने की कला है। और यह पूरा अस्तित्व परमात्मा है। इसमें जो बहने की कला सीख लेता है, मंदिर उसके लिए दूर नहीं है। मंदिर में वह पहुंच ही गया है।
अब हम सूत्र को लें।
परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।
शरीर छोड़कर जाते हुए को……।
जब शरीर छूटता है, और आपका बहुत बार छूटा है, लेकिन वह घड़ी चूक—चूक जाती है। क्योंकि शरीर छूटने के पहले ही आप बेहोश हो जाते हैं। जब भी कोई मरता है, मरने के पहले ही बेहोश हो जाता है। तो मौत का अनुभव नहीं हो पाता और मृत्यु की जो रहस्यमय घटना है, वह अनजानी रह जाती है।
मरने के पहले आदमी मूर्च्छित हो जाता है। इसलिए मृत्यु में जो भेद घटित होता है, शरीर अलग होता है, आत्मा अलग होती है, इंद्रियों के फूल पीछे पड़े रह जाते हैं, सुगंध, सूक्ष्म वासनाएं, संस्कार आत्मा के इर्द—गिर्द सुगंध की तरह लिपटे हुए नई यात्रा पर निकल जाते हैं। यह घटना हमारी समझ में नहीं आ पाती, क्योंकि हम ग्रच्छइrत होते हैं। मूर्च्छित हम क्यों हो जाते हैं मरते क्षण में?
एक जीवन की व्यवस्था है कि दुख एक सीमा तक झेला जा सकता है। जहां दुख असह्य हो जाता है, वहीं मूर्च्छा आ जाती है। इसलिए जब आप कभी—कभी कहते हैं कि मैं असह्य दुख में हूं तो आप गलत कहते हैं। क्योंकि असह्य दुख में आप होश में नहीं रह सकते, आप बेहोश हो जाएंगे। तभी तक होश रहता है, जब तक सहने योग्य हो।
इसलिए जब भी कोई पीड़ा बहुत हो जाएगी, आप बेहोश हो जाएंगे। कोई भी आघात गहरा होगा, आप बेहोश हो जाएंगे।
मूर्च्छा दुख का असह्य हो जाना है। और मृत्यु सब से बड़ा दुख है, हमारे लिए। हम डरते हैं मिटने से, इसलिए। मृत्यु के कारण नहीं है दुख, मिटने से डरते हैं इसलिए; कि मैं मिट जाऊंगा, मैं मिटा! इससे जो भय, पीड़ा और संताप पैदा होता है, उसके धुएं में चित्त बेहोश हो जाता है।
लेकिन जिन लोगों ने जीवन में ही समर्पण की कला साधी हो, मृत्यु उन्हें बेहोश नहीं कर पाएगी। क्योंकि मिटने के लिए वे पहले से ही तैयार हैं। वे तलाश कर रहे हैं। वे मिटने का ही विज्ञान खोज रहे हैं। जिन्होंने योग साधा हो, तंत्र साधा हो, जिन्होंने ध्यान के कोई प्रयोग किए हों, प्रार्थना की हो कभी, उनकी तलाश एक ही है कि मैं कैसे मिट जाऊं, क्योंकि मेरा होना पीड़ा है। मृत्यु के क्षण में ऐसे लोग सहर्ष मृत्यु के लिए राजी होंगे।
संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा!
अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है?
चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है।
उस चित्रकार ने कहा, यह प्रतीक है कि मृत्यु की कुल्हाडी सभी को काट डालती है, तोड़ डालती है। अगस्तीन ने कहा, और सब ठीक है, कुल्हाड़ी अलग कर दो और हाथ में चाबी दे दो।
चित्रकार ने कहा, कुछ समझ में नहीं आया! चाबी से क्या लेना—देना? अगस्तीन ने कहा, जो हमारा अनुभव है, वह यह है कि मृत्यु सिर्फ एक नया द्वार खोलती है, किसी को मिटाती—करती नहीं। इसलिए चाबी! नया द्वार खोलती है।
लेकिन नया द्वार उनके लिए खोलती है, जो होशपूर्वक मरते हैं। जो बेहोशी से मरते हैं, उनकी तो गरदन ही काटती है। उनके लिए तो मृत्यु के हाथ में कुल्हाड़ी ही है।
शरीर छोड़कर जाते हुए को हम नहीं जान पाते, क्योंकि हम बेहोश होते हैं। और हम तभी जान पाएंगे, जब मृत्यु में होश सधे। इसका अभ्यास करना होगा। इसका इतना अभ्यास करना होगा कि यह चेतन से उतरते—उतरते अचेतन में चला जाए। और जब तक यह अचेतन में न चला जाए अभ्यास.।.
इसलिए योग दो शब्दों का उपयोग करता है, वैराग्य और अभ्यास। बस, प्रक्रिया पूरी उन दो में समाई हुई है। वैराग्य की हमने बात की, क्या है वैराग्य। और दूसरा है कि उसका गहन अभ्यास, रोज—रोज साधना। ताकि मरने के पहले आपके भीतर इतना उतर जाए कि मृत्यु उसको हिला न सके।
मेरे एक मित्र हैं। मिलिट्री में मेजर हैं। उनकी पत्नी मेरे पड़ोस में रहती थीं। वे तो कभी—कभी आते थे। जगह—जगह उनकी बदलिया होती रहती थीं। पत्नी उनकी एक कालेज में प्रोफेसर थीं।
जब भी मित्र आते, तो पत्नी थोड़ी परेशान हो जाती। क्योंकि और तो सब ठीक था, बहुत प्यारे आदमी हैं, लेकिन रात में धुर्राते बहुत थे। और पत्नी अकेली रहने की आदी हो गई थी वर्षों से। तो जब भी साल में महीने, दो महीने के लिए आते, तो उसकी नींद हराम हो जाती थी।
उसने मुझे एक दिन कहा कि बड़ी अजीब हालत है। कहते भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता; वे कभी आते हैं। लेकिन मेरी नींद मुश्किल हो जाती है। या मैं यह कहूं कि मैं दूसरे कमरे में सोऊ, तो भी अशोभन मालूम पड़ता है, इतने दिन के बाद पति घर आते हैं। और रात में तो सो ही नहीं पाती।
मैंने उनसे पूछा कि मुझे पूरा ब्यौरा दो।
तो उसने कहा कि जब भी वे बाएं सोते हैं, तो घुर्राते हैं। जब दाएं बदल लेते हैं करवट, तो ठीक सो जाते हैं। पर रात में उनको सोते में करवट कौन बदलवाए! और वजनी शरीर है, भारी, सैनिक हैं। और बदलाओ उनको करवट, तो नींद टूट जाएगी।
तो मैंने उसको कहा कि मैं तुझे एक मंत्र देता हूं; उनके कान में अभ्यास करना। दूसरे दिन उसने अभ्यास करके मुझे कहा कि अदभुत मंत्र है!
छोटा—सा मंत्र था। मैंने कहा, उनके कान में कहना राइट टर्न। मिलिट्री के आदमी। जिदगीभर का अभ्यास। मंत्र काम कर गया। जैसे ही उसने कहा राइट टर्न, उन्होंने नींद में अपनी करवट बदल ली।
मौत के क्षण में तो आप तभी होश रख पाएंगे, जब जिंदगीभर अभ्यास किया हो। और वह इतना गहरा हो गया हो कि मौत भी सामने खड़ी हो, तो भी चित्त बेहोश न हो। अचेतन तक, अनकांशस तक पहुंच जाना जरूरी है।
इसलिए समर्पण का जितना से जितना प्रयोग हो सके, जितना ज्यादा प्रयोग हो सके, जिन—जिन स्थितियों में आप अपने को खो सकें, खोए। अपने को सम्हाले मत। क्योंकि वह खोना इकट्ठा होता जाएगा। रत्ती—रत्ती इकट्ठा होते—होते उसका पहाड़ बन जाएगा। और जब मौत आएगी, तो आप होशपूर्वक जा सकेंगे।
और जो व्यक्ति होशपूर्वक मर गया, उसका दूसरा जन्म होशपूर्वक होता है। क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही द्वार के दो हिस्से है इस तरफ से जब हम प्रवेश करते है, तो मृत्यु; और जब उसी
दरवाजे से उस तरफ निकलते है, तो जन्म। जैसे एक ही दरवाजे पर लिखा होता है, भीतर। तो बाहर से जब हम प्रवेश करते हैं, तो भीतर, वह बाहर जब हम खड़े थे दरवाजे के। लेकिन जैसे ही दरवाजे के भीतर गए, दूसरा जगत शुरू हो गया।
मृत्यु, इस शरीर से बाहर; और जन्म, दूसरे शरीर में भीतर। लेकिन प्रक्रिया एक ही है। अगर आप होशपूर्वक मर सकते हैं, तो आपका जन्म होशपूर्वक होगा। और तब आपको पिछले जन्म की याद रहेगी। और तब पिछले जन्म के अनुभव व्यर्थ नहीं जाएंगे। उनका निचोड़ आपके हाथ में होगा। और तब आपने जो भूलें पिछले जन्म में कीं, वे आप इस जन्म में न कर सकेंगे। अन्यथा हर बार वही भूल है। और यह चक्र दुष्टचक्र है, विशियस सर्किल है। हर बार भूल जाते हैं; फिर वही भूल करते हैं।
ऐसा आप बहुत बार कर चुके हैं। यही काम जो आप आज कर रहे हैं, इसको आप अनंत बार कर चुके हैं। यही शादी, यही बच्चे, यही धन, यही पद—प्रतिष्ठा, यही लड़ाई—झगड़ा, कलह, अदालत,
दुकान; यह आप बहुत बार कर चुके हैं।
काश, आपको एक दफे भी याद आ जाए कि यह आप बहुत बार कर चुके हैं, तो इसमें जो आज आप इतना रस ले रहे हैं, वह एकदम खो जाएगा। यह पागलपन मालूम पड़ेगा। आप एकदम ठहर जाएंगे।
मृत्यु में जो होशपूर्वक मरे, वह जन्म में भी होशपूर्वक पैदा होता है। और जो मृत्यु और जन्म में होशपूर्वक रह जाए, वह जीवन में होशपूर्वक रहता है। क्योंकि मृत्यु और जन्म छोर हैं; बीच में जीवन है। और हम तीनों में बेहोश हैं।
इसलिए हम कितना ही सुनें कि शरीर नहीं है, आत्मा है, यह बात बैठती नहीं है। कितना ही कोई कहे कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं, मान भी लें, तो भी यह बात भीतर उतरती नहीं। क्योंकि हमारा अनुभव नहीं है। लगता तो ऐसे ही है कि शरीर ही होंगे। यह आत्मा हवा मालूम पड़ती है, हवाई बात मालूम पड़ती है।
कृष्ण कहते हैं, परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं। क्योंकि मूर्च्छा सतत है। केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व को जानते हैं।
कौन—सा है ज्ञान—नेत्र जो ज्ञानियों को मिल जाता है? उसको ही मैं अमूर्च्छा कह रहा हूं। होशपूर्वक घटनाओं को घटने देना, मृत्यु को, जन्म को, जीवन को। ये तीन घटनाएं हैं। अगर ये तीनों होशपूर्वक घट जाएं, तो आपके पास ज्ञान—नेत्र उपलब्ध हो गया। जहां आप हैं, वहीं से शुरू करना पड़ेगा। जन्म तो पीछे छूट गया। मौत आगे आ रही है। वह अभी दूर है। जीवन अभी है। जीवन के साथ शुरू करना जरूरी है कि हम जीएं, तो ज्ञानपूर्वक जीएं। जो भी करें, होशपूर्वक करें। बार—बार होश छूट जाएगा, फिर उसे पकड़े।
रास्ते पर चलें, तो होश से। भोजन करें, तो होश से। किसी से बात करें, तो होश से। एक बात सतत बनी रहे कि मेरे द्वारा मूर्च्छा में कुछ न हो। कोई गाली दे, तो पहले होश को सम्हाले, फिर उत्तर दें।
आप चकित हो जाएंगे, होश सम्हल जाए तो उत्तर निकलेगा नहीं। और होश न सम्हला हो, तो जो आप नहीं करना चाहते, वह भी हो जाता है, वह भी निकल जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा पर गया। दो मित्र साथ थे। तीनों बैलगाडी से यात्रा कर रहे थे। तीनों ने चिटें डालकर तय किया कि भोजन कौन बनाएगा। एक का नाम आ गया। पर उसमें भी एक शर्त थी। वह शर्त यह थी कि जिसका नाम आ जाएगा, वह भोजन बनाएगा; लेकिन बाकी दो में से कोई भी भोजन की शिकायत न कर सकेगा। और जिसने शिकायत की, उसी दिन से भोजन उसको बनाना पड़ेगा।
मुल्ला बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नाम तो दूसरे का आया, इससे प्रसन्न हुआ। लेकिन भोजन उसने इतना रही बनाना शुरू किया कि वह खाया न जाए और शिकायत कर नहीं सकते। शिकायत की, तो खुद बनाना पड़े।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन, फिर उसने होश खो दिया। तीसरे दिन उसने कहा कि इट टेस्ट्स लाइक हार्स शिट—घोड़े की लीद जैसा इसका स्वाद है। लेकिन तभी उसको खयाल आया, तो उसने कहा, बट डिलीशियस—पर बड़ा स्वादिष्ट है। क्योंकि कंप्लेंट नहीं करनी है, शिकायत नहीं करनी है।
अगर आप खयाल रखेंगे, तो चौबीस घंटे ऐसे मौके आपको आएंगे, जब आधा वाक्य बेहोशी में निकलेगा, और तब आपको खयाल आएगा; आधा तब आप पीछे से कहेंगे, बट डिलीशियस।
जीवन है हाथ में अभी, और अभी ही कुछ किया जा सकता है। वाणी, विचार, आचरण, सब पहलुओं पर होश की साधना। जो भी मैं कहूं जो भी मैं सोचूं जो भी मैं करूं, वह होशपूर्वक हो, इतना भर काफी है। तो धीरे—धीरे आप पाएंगे कि बेहोशी टूटने लगी। और बेहोशी के टूटने के साथ ही दुख टूटने शुरू हो जाते हैं। बेहोशी के कारण ही दुखों को हम निमंत्रण देते हैं। और बेहोशी के कारण ही हम वे क्षण चूक जाते हैं जिनसे आनंद उपलब्ध हो सकता था।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक गधा था। और गधे को अक्सर सर्दी लग जाती, तो वह कंपने लगता, बुखार आ जाता। तो वह लेकर गया उसको एक जानवरों के डाक्टर के पास।
उस डाक्टर ने जांच—पड़ताल की और उसको दो गोलियां दीं और एक पोली नली दी। और कहा कि नली में गोलियों को रखना और एक छोर गधे के मुंह में डालना और दूसरे से फूंक मार देना, तो गोलियां इसके पेट में चली जाएंगी। गोलियां बहुत गरम हैं, एक ही दिन में ठीक हो जाएगा।
शाम को ही नसरुद्दीन लौटा, तो वह लट्ठ लिए हुए था। उसने जाकर दरवाजे पर लट्ठ मारा और कहा, कहां है वह डाक्टर का बच्चा? डाक्टर भी डरा, क्योंकि उसकी आंखें लाल, चेहरा सुर्ख, पसीने से भरा हुआ।
डाक्टर ने पूछा कि क्या हुआ?
उसने कहा, तूने पूरी बात क्यों न बताई?
कौन—सी पूरी बात?
नसरुद्दीन ने कहा, गधे ने पहले फूंक मार दी; गोलियां मेरे पेट में चली गईं!
उस डाक्टर ने पूछा, तुम करने क्या लगे?
उसने कहा, मैं जरा दूसरे सोच में पड़ गया, जरा देर हो गई। गोली रखकर, मुंह में नली लगाकर मैं बैठा और कुछ दूसरा खयाल आ गया।
उतने खयाल में तो बेहोशी हो जाएगी।
हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। कुछ कर रहे हैं, कुछ खयाल आ रहा है। कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है। कुछ सोचा था, कुछ परिणाम आते हैं। कभी भी वही नहीं हो पाता, तो हम चाहते हैं। वह होगा भी नहीं, क्योंकि वह केवल तभी हो सकता है, जब होश पूरा हो।
जिसका होश पूरा है, उसके जीवन में वही होता है, जो होना चाहिए। उससे अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। जिसका जीवन मूर्च्छा में चल रहा है, वह शराबी की तरह है। जाना चाहता था घर, पहुंच गया कहीं और। क्योंकि पैर का उसे कोई पता नहीं कि कहा जा रहे हैं। वह शराबी की तरह है। करना चाहता था कुछ और, हो गया कुछ और।
मैं पड़ता था एक शराबी के संस्मरणों को। वह एक रात ज्यादा पीकर लौटा। पत्नी से बचने के लिए कि पत्नी को पता न चले..। और ज्यादा पी गया, तो रास्ते पर कई जगह गिरा था। तो चेहरे पर कई जगह खरोंच और चोट लग गई। तो वह बाथरूम में गया और उसने मलहम की पट्टियां अपने चेहरे पर लगाई। जाकर चुपचाप बिस्तर में सो गया। और बड़ा प्रसन्न हुआ कि पत्नी को पता भी नहीं चला; शोरगुल भी नहीं हुआ; खरोंच वगैरह भी सुबह तक काफी ठीक हो जाएगी; पता भी नहीं चलेगा। बात निपट गई।
लेकिन सुबह ही उसकी पत्नी चिल्लाती बाथरूम से बाहर आई कि तुमने बाथरूम का दर्पण क्यों खराब किया है? पति ने पूछा, कैसा दर्पण!
क्योंकि वह रात बेहोशी में जो मलहम—पट्टी चेहरे पर लगानी थी, दर्पण पर लगा आया था। होश न हो, तो यही होगा। करेंगे कुछ, हो जाएगा कुछ। और शराबी को होना बिलकुल आसान है। क्योंकि चेहरा दिखाई दर्पण में पड़ रहा था, वहीं उसने पट्टिया लगा दीं।
कृष्ण कह रहे हैं कि केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।
केवल वे ही, जो होश से जगे हुए हैं और प्रतिपल जिनका ज्ञान जाग्रत है, वे ही जन्म में, मृत्यु में, जीवन में, भीतर के तत्व को पूरी तरह पहचानते हैं।
क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं। और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं।
यत्न ही काफी नहीं है। यत्न जरूरी है, पर्याप्त नहीं है। प्रयास तो करना होगा सघन, लेकिन अकेला प्रयास काफी नहीं है, हृदय की शुद्धि भी चाहिए।
यहां थोड़ा—सा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि लोग सिर्फ प्रयास ही करते रहते हैं, बिना इस बात की फिक्र किए कि भाव शुद्ध नहीं है, हृदय शुद्ध नहीं है। तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं। कोई आदमी हृदय को शुद्ध न करे और एकाग्रता को साधे, कनसनट्रेशन को साधे। साध सकता है।
बुरे से बुरा आदमी भी एकाग्रता साध सकता है। एकाग्रता से बुराई का कोई लेना—देना नहीं है, बल्कि बुरा आदमी शायद एकाग्रता ज्यादा आसानी से साध सकता है। क्योंकि बुरे आदमी का एक लक्षण होता है कि वह जिस काम में भी लग जाए, पागल की तरह लगता है। और बुरा आदमी जिद्दी होता है, क्योंकि बुराई बिना जिद्द के नहीं की जा सकती। तो बुरे आदमी के लिए हठयोग बिलकुल आसान है। उसको पकड़ भर जाए उसके खयाल में भर आ जाए। और बुरा आदमी दुष्टता कर सकता है, दूसरों के साथ भी, अपने साथ भी। दुष्टता करने में उसे अड़चन नहीं है।
अगर आप हठयोग साधेंगे, तो ऐसा लगेगा कि क्यों सताओ इस शरीर को! क्यों इतना आसन लगाकर बैठो! पैर दुखने लगते हैं; आंख से आंसू झरने लगते हैं। दुष्ट आदमी इनकी फिक्र नहीं करता। वह दूसरे को भी सता सकता है, उतनी ही मात्रा में खुद को भी सता सकता है।
इसलिए आप हैरान होंगे जानकर कि आपके तथाकथित योगियों में, महात्माओं में आधे से ज्यादा तो दुष्टजन हैं। पर उनकी दुष्टता दूसरों की तरफ नहीं है। इतनी भी उनकी बड़ी कृपा है। अपनी ही तरफ किए हुए हैं। इससे समाज को उनसे कोई हानि नहीं है। अगर हानि है, तो उनको खुद को है।
अगर एक दुष्ट हत्यारा एकाग्रता साधे, तो साध सकता है। लेकिन उसकी एकाग्रता से खतरा होगा। क्योंकि एकाग्रता से शक्ति आएगी, और हृदय शुद्ध नहीं है। उस शक्ति का दुरुपयोग होगा। आपने दुर्वासा ऋषि की कहानियां पढ़ी हैं। बस, वह इस तरह का आदमी दुर्वासा हो जाएगा। उसके पास शक्ति होगी; क्योंकि अगर वह कुछ भी कह दे, तो उसका परिणाम होगा।
अगर कोई व्यक्ति बहुत एकाग्रता साधा हो, तो उसके वचन में एक शक्ति आ जाती है, जो सामान्यत: दूसरों के वचन में नहीं होती। उसका वचन आपके हृदय के अंतस्तल तक प्रवेश कर जाता है। वह जो भी कहेगा, उसके पीछे बल होगा। हमारी जो कथाएं हैं, वे झूठी नहीं हैं, उन कथाओं में सच है।
अगर एकाग्रता साधने वाला आदमी कह दे कि तुम कल मर जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है। इसलिए नहीं कि उसके कहने में कोई जादू है, बल्कि उसके कहने में इतना बल है कि वह बात आपके हृदय में गहरे तक प्रवेश कर जाएगी। उसका तीर गहरा है, एकाग्र है, और उसने वर्षों तक अपने को साधा है। वह एक विचार पर अपनी पूरी शक्ति को इकट्ठा कर लेता है। तो उसका विचार आपके लिए सजेशन बन जाएगा।
वह कह देगा, कल मर जाओगे! तो उसकी आंखें, उसका व्यक्तित्व, उसका ढंग, उसकी एकाग्रता, उसकी अखंडता, उस विचार को तीर की तरह आपके हृदय में चुभा देगी। अब आप लाख कोशिश करो, उस विचार से छुटकारा मुश्किल है। वह आपका पीछा करेगा। कल आने तक, वह कल आने के पहले ही आपको आधा मार डालेगा। कल आप मर जाएंगे।
अभिशाप इसलिए लागू नहीं होता कि परमात्मा अभिशाप पूरा करने को बैठा है, कि दुर्वासाओं का रास्ता देख रहा है कि अभिशाप दें, और परमात्मा पूरा करे। लेकिन दुर्वासा ने एकाग्रता साधी है वर्षों तक; पर हृदय शुद्ध नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सिर्फ यत्न काफी नहीं है। अगर अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, तो यत्न करते हुए भी अज्ञानीजन आत्मा को नहीं जानते हैं।
इसलिए दो बातें हैं। प्रयत्न चाहिए और साथ—साथ हृदय की शुद्धि चाहिए।
तो बुद्ध और महावीर जैसे साधकों ने तो हृदय की शुद्धि को पहले रखा है, ताकि भूल—चूक जरा भी न हो पाए। आहार शुद्धि, शरीर शुद्धि, आचरण शुद्धि, सब तरह से शुद्ध हो जाए व्यक्ति, फिर वे कहते हैं, यत्न करो। नहीं तो खतरा है।
ऐसे खतरे कोई अतीत में कहानियों में घटे हैं, ऐसा ही नहीं है। अभी इस सदी के प्रारंभ में रूस में एक बहुत अदभुत व्यक्ति था, रासपुतिन। अनूठी प्रतिभा का आदमी था। ठीक उसी हैसियत का आदमी था, जिस हैसियत के आदमी गुरजिएफ या रमण। लेकिन एक खतरा था कि हृदय की शुद्धि नहीं थी।
रासपुतिन गहन साधना किया था। और पूरब की जितनी पद्धतिया हैं, सब पर काम किया था। ठेठ तिब्बत तक उसने खोजबीन की थी, और अनूठी शक्तियों का मालिक हो गया था। लेकिन हृदय साधारण था। साधारण आदमी का हृदय था। इसलिए जो चाहता, वह हो जाता था। लेकिन जो वह चाहता, वह गलत ही चाहता था। वह ठीक तो चाह नहीं सकता था।
पूरे रूस को डुबाने का कारण रासपुतिन बना, क्योंकि उसने जार को प्रभावित कर लिया। खासकर जार की पत्नी जारीना को प्रभावित कर लिया। उसमें ताकत थी।
और ताकत सच में अदभुत थी। उसके दुश्मनों ने भी स्वीकार किया। क्योंकि जब उसको मारा, हत्या की गई उसकी, तो उसको पहले बहुत जहर पिलाया, लेकिन वह बेहोश न हुआ। एकाग्रता इतनी थी उसकी। उसको जहर पिलाते गए, वह बेहोश न हुआ। जितने जहर से कहते हैं, पांच सौ आदमी मर जाते, उनसे वह सिर्फ बेहोश ही नहीं हुआ, मरने की तो बात ही अलग रही।
फिर उसको गोलिया मारी, तो कोई बाईस गोलिया उसके शरीर में मारी, तो भी नहीं मरा! तो फिर उसको बांधकर और पत्थरों से लपेटकर वोलग़ के अंदर उसको डुबो दिया। और जब दो दिन बाद उसकी लाश मिली, तो उसने पत्थरों से अपने को छुड़ा लिया था। बंधन काट डाले थे। और डाक्टरों ने कहा कि वह पत्थरों की वजह से नहीं मरा है; उसके दो घंटे बाद मरा है।
अंदर भी वोल्गा में वह इतना सारा—इतना नशा, इतनी जहर, इतनी गोलियां, पत्थर बंधे—फिर भी उसने अपने पत्थर छोड़ लिए थे और अपने बंधन भी अलग कर डाले थे। हो सकता था, वह निकल ही आता। गहन शक्ति का आदमी था। लेकिन सारा प्रयोग उसकी शक्ति का उलटा हुआ।
रूस की क्रांति में लेनिन का उतना हाथ नहीं जितना रासपुतिन का है। क्योंकि रासपुतिन ने रूस को बरबाद करवा दिया। जार के ऊपर उसका प्रभाव था। उसने जो चाहा, वह हुआ। सारा उपद्रव
हो गया। उस उपद्रव का फल लेनिन ने उठाया। क्रांति आसान हो गई। आधा काम रासपुतिन ने किया, आधा लेनिन ने।
अगर हृदय शुद्ध न हो, तो शक्ति तो यत्न से आ सकती है। लेकिन उससे आत्मा नहीं आ जाएगी। यह रासपुतिन के पास इतनी ताकत है, लेकिन आत्मा नहीं है। यह शक्ति भी मन और शरीर की है।
हृदय की शुद्धि का अर्थ है, भावों की निर्मलता। बच्चे जैसा हृदय हो जाए। कठोरता छूटे, क्रोध छूटे, अहंकार छूटे, ईर्ष्या—द्वेष छूटे, घृणा—वैमनस्य छूटे और हृदय शुद्ध हो; और साथ में योग का यत्न हो। यत्न और शुद्ध भाव।
इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ योगी होना काफी नहीं है, भक्त होना भी जरूरी है। सिर्फ योगी खतरनाक है, सिर्फ भक्त कमजोर है।
भक्त निर्बल है। वह सिर्फ दीनता—हीनता की प्रार्थना कर सकता है कि तुम पतित—पावन हो और मैं पापी हूं मुझे मुक्त करो। यह सब कह सकता है। लेकिन निर्बल है। उसके पास कोई शक्ति नहीं है। योगी के पास बड़ी शक्ति इकट्ठी हो सकती है, लेकिन उसके पास भाव नहीं है।
जहां भक्त और योगी का मिलन होता है, जहां भाव और यत्न दोनों संयुक्त हो जाते हैं, वहां आत्मा उपलब्ध होती है।
आज इतना ही।
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