जिस गांव में मेरा जन्म हुआ था वह ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा नहीं था। वह एक छोटी सी रियासत थी जिस पर एक मुसलमान
बेगम शासन करता
थी। अभी मैं उसे
देख सकता हूं। बड़ी अजीब
बात है, वह भी इंग्लैंड की महारानी जैसी ही सुंदर थी, बिलकुल वैसी ही सुन्दर। लेकिन एक अच्छी बात यह थी कि
वह मुसलमान थी। लेकिन इंग्लैंड की महारानी मुसलमान नहीं थी। ऐसी औरतों को हमेशा मुसलमान होना चाहिए, क्योंकि उन्हें एक
पर्दे के पीछे,
बुरक़े में छिपे रहना
होता है। वह बेगम कभी-कभी हमारे गांव आती थी। और उस गांव में केवल मेरा घर ही ऐसा थी जहां वह ठहर सकती थी।
और इसके अतिरिक्त वह मेरी नानी को बहुत प्रेम करती थी।
मेरी नानी और वह, दोनों आपस में बातें कर रही
थी जब पहली बार मैंने उस महारानी को बिना बुरक़े के देखा थी। मुझे तो विश्वास ही
न हो सका कि यह घरेलू सी दिखाई देने बाली अति साधारण औरत महारानी है। तब मेरी समझ
में आया कि बुरक़े का उद्देश्य क्या है, इसे हिंदू पर्दा कहते है। यह कुरूप
औरतों के लिए अच्छा है।
इससे अच्छी दुनिया में यह कुरूप पुरुषों के लिए भी अच्छा
रहेगा। कम से कम तब तुम अपनी कुरूपता से दूसरों पर आक्रमण तो नहीं करोगे।
मैं तो उस बेगम के सामने ही हंस पड़ा। उसने
पूछा: ‘तुम क्यों हंस रहे हो।’
मैंने कहा: ’मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं
हमेशा सोचता था कि इस पर्दे का, इस बुरक़े को उद्देश्य क्या है। आज मेरी समझ में
आया।’ मैं नहीं सोचता कि उसकी समझ में आया, क्योंकि वह मुसकराई। यद्यपि वह कुरूप
थी लेकिन मुझे मानना पड़ेगा कि उसकी मुस्कान बहुत सुंदर थी।
इस दुनिया में बड़ी अजीब बातें होती हैं1
मैंने ऐसे अनेक सुंदर लोगों को देखा हे जिनके चेहरे मुस्कराते समय कुरूप हो जाते
है। मैंने अपने बचपन में महात्मा गांधी को देखा है। वे बहुत ही कुरूप थे। उनकी
कुरूपता बेजोड़ थी। लाजवाब थी, लेकिन उनका सौंदर्य उनकी मुस्कान में थी। वे जानते
थे कि कैसे मुस्कराना चाहिए। उसमें उनसे मेरा कोई विरोध नहीं है। हां, अन्य बातों
में मैं उनका विरोध करता हूं, क्योंकि उनकी मुस्कुराहट को छोड़ कर बाकी उनकी सब
बातें फिजूल थी। सचमुच वे महान ‘बोधि गार्बेज’ थे। उनकी तुलना में हमारा बोधि
गार्बेज कुछ नहीं है।
मैंने सुना है कि लोग स्वामी बोधि गर्भ को
बोधि गार्बेज कहते है। मुझे यह पसंद आया। उन्होने उस नाम के साथ कुछ जोड़ दिया
है। सच तो यह है कि उन्होंने उसे वहीं पर रख दिया है जहां पर वह है। मैंने उसे
बोधि गर्भ नाम दिया है जो सिर्फ उसका भविष्य हो सकता है। लेकिन लोगों को तो वही
दिखार्इ देता हे जो उनकी आँख के सामने होता है। वे उसे बोधि गार्बेज कहते है। शायद
यह नाम महात्मा गांधी के लिए भी उपयुक्त होता।
मैं यह कह रहा था कि मेरा गांव एक छोटी सह
रियासत, बहुत छोटी, भोपाल में था और वह ब्रिटिश राज्य का हिस्सा नहीं था। भोपाल
की बेगम कभी-कभी वहां आती थी। मैं उस समय का जिक्र कर रहा था जब मैं उस औरत की
कुरूपता और उसके बुरक़े की सुंदरता पर हंस पड़ा थी। उसका बुरक़ा बहुत ही सुंदर था।
वह हीरे-मोतियों से जड़ा हुआ थी। वह मेरी नानी से इतनी प्रभावित थी कि उसने उनको
राजधानी के आगामी वार्षिकोत्सव के लिए आमंत्रित किया। मेरी नानी ने कहा: ‘मेरा
जाना संभव नहीं है, क्योंकि मैं अपने बच्चे को इतने दिन के लिए छोड़ नहीं सकती।’
इस पर बेगम न कहा: ‘यह तो कोई समस्या नहीं है। इसे भी साथ ले आइए। मुझे भी यह
बहुत प्यारा लगता है।’
मेरी समझ में न आया कि वह मुझ से क्यों प्यार
करती है। मैंने तो कोई गलती नहीं की कि जिसकी मुझे यह सज़ा मिले। उस औरत के प्रेम
करने के विचार मात्र से ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते है। उस समय वह चुड़ैल जैसी
दिखाई देती थी। गोंद जैसी चिपचिपी, अपने जीवन में अगर मुझे किसी से डर लगा है तो
केवल उस औरत से। लेकिन राजधानी में बेगम का मेहमान बन कर जाना और उसके उस आलीशान
महल में ठहरना जिसके बारे में सैकड़ों कुहनियाँ सुनी हुई थी। इतना रोमांचक था कि
मैं अपनी नानी के साथ वहां वार्षिकोत्सव देखने गया। हालांकि मैं उस औरत को फिर
कभी देखना नहीं चाहता था।
मुझे वह महल याद है। वह भारत में सबसे सुंदर
महल था। एक हजार एकड़ में वह फैला हुआ था। पाँच सौ एकड़ में पेड़-पौधों का जंगल था
और पाँच सौ एकड़ की झील थी। बेगम ने हमारी बहुत खातिर की, क्योंकि हम उसके मेहमान
थे। लेकिन मैंने पूरी कोशिश की कि मैं उसके चेहरे को न देखूं। शायद वह अब भी जीवित
है, क्योंकि उस समय वह अधिक उम्र की न थी।
बाद में उस महल के बारे में एक अजीब संयोग की
बात हुई। हां, मैं उसे संयोग ही तो कह सकता हूं। जिस दिन मैं हिमालय में रहने के
लिए तैयार हो गया उसी दिन भोपाल बेगम के बेटे ने फोन किया कि अगर हमें पसंद हो तो
वे अपना यह महल हमें देने के लिए तैयार है—वही महल जिसके बारे में मैं तुम्हें
बता रहा हूं। वह महल...कुछ देर के लिए तो मुझे इस बात पर विश्वास ही न हुआ। उनकी
सारी रियासत का विलय भारत में हो चुका था। उसका सब कुछ खो गया था। उनके पास केवल
एक हजार एकड़ जमीन और यह महल ही बचा थी। लेकिन राज्य का यह बचा हुआ भाग भी बहुत
सुंदर था। पाँच सो एकड़ में लगे हुए प्राचीन पेड़ और पाँच सौ एकड़ की झील असल में
भोपाल की बड़ी झील के ही हिस्से थे।
भारत में भोपाल की झील ही सबसे बड़ी झील है।
यह इतनी बड़ी है कि मेरे ख्याल में संसार की किसी भी झील की तुलना इससे नहीं की
जा सकती। मुझे याद नहीं है कि कितने मील चौडी है, लेकिन इतना मालूम हे कि एक
किनारे से दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता। महल की पाँच सौ एकड़ जमीन भी इसी झील का
अंश है और ये सब महल के अंतर्गत है।
मैंने कहा: ‘अब तो बहुत देर हो गई है।
राजकुमार और उनकी मां अगर अब भी जिंदा है तो उनसे कहना कि हम उनके बहुत आभारी है।
लेकिन अब मैंने हिमालय जाने का निर्णय कर लिया है, सात से मैं कुछ हजार एकड़ जमीन
लेने की कोशिश कर रहा था। लेकिन ये राजनीतिज्ञ सदा कोई न कोई अड़ंगा लगा देते है।
राजकुमार से कहना कि मुझे याद है कि में आपकी मां का मेहमान बन कर आपके महल में
ठहरा था। अभी वे जीवित हैं या नहीं, मुझे मालूम नहीं। मुझे वह महल बहुत ही अच्छा
लगा था। और अभी भी वह मुझे पसंद है। आप इसे मुझे भेंट करना चाहते हैं, इसके लिए
मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूं, लेकिन अब मैं हिमालय जा रहा हूं।’
मेरी सैक्रेटरी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ। और
उसने कहा: ‘वे आपको यह महल मुफ्त में भेंट कर रहे है और आप अस्वीकार कर रहे है।
उसकी कीमत तो करोड़ो की होगी।’
मैंने कहा: ‘दस-बीस करोड़ का तो कोई सवाल
नहीं उठता। मेरा धन्यवाद इस रकम से कहीं अधिक मूल्यवान है। उनसे कह दो कि वे
आपको धन्यवाद देते है। आपका ये प्रस्ताव कुछ घंटे देर से मिला। अगर पहले यह
प्रस्ताव आता तो शायद स्वीकार कर लिया जाता। अब तो कुछ नहीं किया जा सकता।’
जब राजकुमार ने मेरा यह संदेश सुना, तो उसको
सहज विश्वास ही न हुआ कि कोई इतने बड़े महल को मुफ्त में लेने से भी इनकार कर
सकता है। उससे केवल इतना ही कहा गया, ‘’खेद है, धन्यवाद’’।
मैं उस महल को जानता हूं। एक बार बचपन में
मैं वहां मेहमान बन कर गया थी और फिर बाद में भी दुबारा एक बार गया था। मैंने उसे
एक बच्चे की दृष्टि से देखा और फिर एक नवयुवक की दृष्टि से भी देखा है। जब बच्चा
था तो इसके अनुपम सौंदर्य के बारे में मुझे कोई धोखा नहीं हुआ था—उस समय मैं इसके
बारे में जो समझ सका था। वह महल उससे कहीं अधिक सुंदर था। बच्चे की दृष्टि और
उसकी समझ की अपनी सीमाएं होती है। वह तो केवल उसी को देख सकता है जो उसके ठीक सामने
होता है। अपनी युवावस्था में जब मैं उस महल में फिर से मेहमान की तरह गया तो मुझे
ऐसा लगा कि यह इस संसार में सबसे सुंदर इमारत है, विशेषकर जिस प्रकार इसका स्थान
निर्धारण किया गया है। लेकिन मुझे इनकार करना पड़ा।
कभी-कभी इन्कार करना भी अच्छा लगता है। क्योंकि
मुझे मालूम था कि अगर मैंने इस प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया तो सैकड़ों
मुसीबतें शुरू हो जाएगी। यह महल मेरा महल न हो सकेगा। अशिक्षित, अनैतिक, भ्रष्टाचारी
राजनीतिज्ञ, जो इतने शक्तिशाली बन गए है, अवश्य ही बीच में कूद कर बना-बनाया काम
बिगाड़ देते। जब कि मैंने महल को लेने से इनकार कर दिया था फिर भी वे इसमें कूद ही
पड़े, क्योंकि उन्होंने समझा कि राजकुमार झूठ बोल रहा है। क्योंकि इस प्रकार के
प्रस्ताव को कौन ठुकरा सकता है।
मुझे पता चला है कि वे अब राजकुमार को हर
संभव तरीके से परेशान कर रहे है। यह जानने के लिए कि उसने वह महल मुझे क्यों भेंट
किया। मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। असलियत में कुछ हुआ नहीं। केवल एक टेलीफोन
आया और बस वह काफी हो गया। राजनीतिज्ञ तो सब देशों में होते है, लेकिन भारत कि
राजनीतिज्ञों जैसे कहीं नहीं है। भारत के राजनेता इस दुनिया में सबसे बुरे है।
इसका कारण स्पष्ट है। दो हजार साल तक भारत गुलाम रहा है। सौभाग्य से उन्नीस सौ
सैंतालीस में यह स्वतंत्र हो गया। मैंने सौभाग्य से इसलिए कहा, क्योंकि अभी
भारत इस स्वतंत्रता के योग्य नहीं है, इसका सारा श्रेय तो इंग्लैंड़ के उस समय
के प्रधामंत्री एटली को जाता है। वह समाज वादी था, एक तरह का स्वप्न देखने बाला
था। वह स्वतंत्रता और समानता आदि आदर्शों के बारे में सोचता था। भारतीय-स्वतंत्रता
का वास्तविक पिता तो वही था। भारत ने उसको अर्जित नहीं किया, न उसमें इसकी योग्यता
थी। केवल भाग्य से उस समय इंग्लैंड का प्रधानमंत्री एटली था।
दो हजार वर्षों की गुलामी के कारण भारतीय
बहुत चालाक हो गए है, अपने को जीवित रखने के लिए, अपने अस्तित्व को बनाए रखने के
लिए गुलाम को चालाक होना ही पड़ता है। भारत की गुलामी तो चली गई, लेकिन चालाकी बच
गई, कोई एलटी उसे नष्ट नहीं कर सका। यह किसी के हाथ में नहीं है। पूरे देश में यह
फैली हुई है। इस शताब्दी के अंत में भारत की जनसंख्या इस संसार में सबसे अधिक
होगी। इसके विचार मात्र से मेरी तो नींद उड़ जाती है।
जब कभी मैं सोना नहीं चाहता तो मैं इस सदी के
अंत में भारत की दशा के बारे में सोचता हूं। चह काफी है, तब तो नींद की गोलियां भी
दे दो तो मुझे पर कोई असर नहीं होगा। भारत की जनसंख्या की समस्या और इन
छोटे-छोटे राजनेताओं की भरमार के विचार मात्र से मैं डर जाता हूं। क्या तुम इससे
बढ कर कोई और दुःख स्वप्न सोच सकते हो?
मैंने उस सुंदर महल को लेने से इनकार किया।
मुझे अभी भी दस बात का अफसोस है कि मुझे एकमात्र ऐसे आदमी को इनकार करना पड़ा जो
बदले में बिना पैसे माँगें मुझे ऐसी भेंट देना चाहता था। लेकिन मैं भी क्या करता,
मुझे उसके लिए अफसोस है। मुझे मना करना पड़ा, क्योंकि तब तक मैं निर्णय ले चुका
था। और एक बार निर्णय कर लेने के बाद—चाहे वह ठीक हो या गलत—मैं उसे बदल नहीं
सकता, न ही उसे रद्द कर सकता हूं। यह मेरे खून में ही नहीं है। यह एक प्रकार की
हठधर्मी पन है, जिद्दी पन है।
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