रविवार, 14 जनवरी 2018

नंगलकुल को उदासी में वैराग्‍य पैदा हुआ—(कथायात्रा—023)

नंगलकुल को उदासी में वैराग्‍य पैदा हुआ--(कथा--यात्रा)

श्रावस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन— यापन करता था। वह अत्यंत दुखी था जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी। वह संन्यस्त हुआ। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल— नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया। अतीत से संबंध तोड़ना आसान भी तो नहीं है चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो तो छोड़ना शायद और भी कठिन होता है।
संन्यस्त हो कुछ दिन तो वह बड़ा प्रसन रहा और फिर उदास हो गया। मन का ऐसा ही स्वभाव है— द्वंद्व। एक अति से दूसरी अति। इस उदासी में वैराग्य से वैराग्य पैदा हुआ। वह सोचने लगा इससे तो गृहस्थ ही बेहतर थे। यह कहां की झंझट मोल ले ली! यह संन्यस्त होने में क्या सार है?

इस विराग से वैराग्य की दशा में वह उस हल को लेकर पुन: गृहस्थ हो जाने के लिए वृक्ष के नीचे गया। किंतु वहां पहुंचते— पहुंचते ही उसे अपनी मूढ़ता दिखी। उसने खड़े होकर ध्यानपूर्वक अपनी स्थिति को निहारा— कि मैं यह क्या कर रहा हूं।
उसे अपनी भूल समझ आयी। पुन: विहार वापस लौट आया फिर यह उसकी साधना ही हो गयी। जब— जब उसे उदासी उत्पन्न होती वह वृक्ष के पास जाता; अपने हल को देखता और फिर वापस लौट आता।
भिक्षुओं ने उसे बार— बार अपने हल—नंगल को देखते और बार— बार नंगल के पास जाते देख उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया!
लेकिन एक दिन वह हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। और फिर उसे किसी ने दुबारा हल— दर्शन को जाते नहीं देखा। भिक्षुओं को स्वभावत: जिज्ञासा जगी इस नंगलकुल को क्या हो गया है। अब नहीं जाता है उस वृक्ष के पास। पहले तो बार— बार जाता था।
उन्होने पूछा : आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता बात क्या है?
नंगलकुल हंसा और बोला जब तक आसक्ति रही अतीत से जाता था। जब तक संसर्ग रहा तब तक गया। अब वह जंजीर टूट गयी है। मैं अब मुक्त हूं।
इसे सुन भिक्षुओं ने भगवान से कहा भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व प्राप्ति की घोषणा कर रहा है। यह कहता है मैं मुक्त हूं।
भगवान ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा और कहा भिक्षुओ! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को समाप्त कर लिया है। उसे जो पाना था उसने पा लिया है और जो छोडना था छोड़ दिया है वह निश्चय ही मुक्त गया है।

तब उन्होंने ये दो एक कहे :

 अत्‍तना चोदयत्‍तानंपटिवासे अत्‍तमत्‍तना।
सो अत्‍तगुत्‍तो सतिमा सुखं भिक्‍खु विहाहिसि ।।
अत्‍त हि उत्‍तनो नाथो अत्‍ता हिह अत्‍तनो गति।
तस्‍मा सज्‍जमयत्‍तानं अस्‍सं भद्रंव वाणिजो ।

 'जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा, जो आप ही अपने को संलग्न करेगा, वह आत्म—गुप्त—अपने द्वारा रक्षित—स्मृतिवान भिक्षु सुख से विहार करेगा। वह मुक्त हो जाता है।
'मनुष्य अपना स्वामी आप है; आप ही अपनी गति है। इसलिए अपने को संयमी बनावे, जैसे सुंदर घोड़े को बनिया संयत करता है।
पहले दृश्य को समझ लें। प्यारा दृश्य है।
एक निर्धन आदमी बुद्ध के विहार के पास ही अपना हल चलाकर छोटी—मोटी खेती—बाड़ी करता था। निर्धन था बहुत। किसी भांति जीवन—यापन होता था। दो सूखी रोटी मिल जाती थी। फटे —पुराने वस्त्र; नंगा नहीं था। रूखी—सूखी रोटी, भूखा नहीं था। मगर जीवन में और कुछ भी न था। एक गहन बोझ की तरह जीवन को ढो रहा था।
वह अत्यंत दुखी था, जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
गरीब दुखी हैं, गरीबी के कारण नहीं। क्योंकि अमीर भी दुखी हैं! जो हार गए, वे दुखी हैं, हारने के कारण नहीं। क्योंकि जो जीत गए, वे भी दुखी हैं।
बुद्ध कहते हैं. यहां सभी दुखी हैं। मनुष्य होने में ही दुख समाया हुआ है।
इसलिए तुम झूठे कारणों पर मत अटक जाना। तुम यह मत कहना कि मैं गरीब हूं? इसलिए दुखी हूं। यही तो भ्रांति है। तो जो आदमी सोचता है मैं गरीब हूं इसलिए दुखी हू तो वह अमीर होने में लग जाता है। फिर अमीर होकर एक दिन पाता है कि जिंदगी अमीर होने में बीत गयी और दुखी मैं उतना का उतना हूं; शायद थोड़ा ज्यादा हो गया हूं। क्योंकि गरीब आदमी ज्यादा दुख भी नहीं खरीद सकता। गरीब की हैसियत कितनी! अमीर आदमी ज्यादा दुख खरीद सकता है। उसकी हैसियत ज्यादा है।
गरीब आदमी की दुख में भी तो क्षमता होती है न! अब एक आदमी गरीब है, तो बैलगाड़ी में चलेगा। हवाई जहाज में उड़ने का दुख नहीं जान सकता। कैसे जानेगा? वह तो कोई हवाई जहाज में उड़े तब……

तो वह आदमी बड़ा दुखी था।
बुद्ध कहते हैं : दुखी होना ही आदमियत है। इसमें कारण मत खोजना कि यह कारण है, वह कारण है। आदमी जहां भी होगा, दुखी होगा। जब तक आदमी के पार न हो जाए, तब तक दुखी होगा। आदमियत कारण है। तो तुम दुख बदल ले सकते हो, मगर इससे कुछ फर्क न पड़ेगा।
उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी।
यह बुद्ध की ज्योति पड़ने का क्या मामला है?
अपने खेत में चलाता होगा हल—बक्सर। बुद्ध वहा से रोज निकलते होंगे। वह विहार के पास ही खेती—बाड़ी करता था। देखता होगा रोज बुद्ध को जाते। यह शांत प्रतिमा! यह प्रसादपूर्ण व्यक्तित्व! खड़ा हो जाता होगा कभी—कभी अपने हल को रोककर। दो क्षण आंख भरकर देख लेता होगा, फिर अपने हल में जुत जाता होगा। यह रोज होता रहा होगा।
जैसे रसरी आवत—जात है, सिल पर परत निशान। पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है, रस्सा आता रहे, जाता रहे। करत—करत अभ्यास के जड़—मति होत सुजान। रोज—रोज देखता होगा। फिर और ज्यादा—ज्यादा देखने लगा होगा। फिर बुद्ध जाते होंगे, तो पीछे दूर तक देखता रहता होगा, जब तक आंख से ओझल न हो जाएं। फिर धीरे— धीरे प्रतीक्षा करने लगा होगा कि आज अभी तक आए नहीं! कब आते होंगे! फिर किसी दिन न आते होंगे, तो तलब लगती होगी। लगता होगा कि आज आए नहीं! कभी ऐसा भी होता होगा कि बुद्ध होंगे बीमार, नहीं गए होंगे भिक्षा मांगने, तो शायद आश्रम पहुंच गया होगा! कि एक झलक वहां मिल जाए!
फिर बुद्ध को देखते —देखते बुद्ध के और भिक्षु भी दिखायी पड़ने शुरू हुए होंगे। ये बुद्ध अकेले नहीं हैं, हजारों इनके भिक्षु हैं। और सब प्रफुल्लित मालूम होते हैं! सब आनंदित मालूम होते हैं! मैं ही एक दुख में पड़ा! मैं कब तक इस हल—बक्सर में ही जुता रहूंगा?
ऐसे विचारों की तरंगें आने लगी होंगी। इन्हीं तरंगों में एक दिन बुद्ध की बंसी में फंस गया होगा।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी।
एक दिन लगा होगा मेरे पास है क्या! इस आदमी के पास सब था। राजमहल थे.। खोजबीन की होगी; पता लगाया होगा। यह आदमी कैसा! लगता इतना प्यारा और इतना सुंदर है, और है भिखारी! लगता है सम्राटों का सम्राट। चाल में इसकी सम्राट का भाव है। भाव— भंगिमा इसकी कुछ और है। यह होना चाहिए राजमहलों में, यह यहां क्या कर रहा है आदमी!
पता लगाया होगा। पता चला होगा. सब था इसके पास। सब छोड़ दिया। इसको विचार उठने लगे होंगे कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। यह एक हल है; यह नंगल। बस यही मेरी संपत्ति है। और मेरे पास है क्या छोड़ने को! मैं भी क्यों न इस आदमी की छाया बन जाऊं? मैं भी क्यों न इसके पीछे चल पडूं? एकाध बूंद शायद मेरे हाथ भी लग जाए—जो इसका सागर है उसकी। और जब इतने लोग इसके पीछे चल रहे हैं और पा रहे हैं.....। माना कि मैं अभागा हूं, लेकिन फिर भी शायद कुछ हाथ लग जाए।
धीरे— धीरे रस लगा होगा, राग लगा होगा।
धन्यभागी हैं वे, जिनका बुद्धों से राग लग जाए; जिनको बुद्धों से प्रेम हो जाए। क्योंकि उनके जीवन का द्वार खुलने के करीब है।
तो एक दिन संन्यस्त हो गया। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल—नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया।
सोचा होगा कि क्या भरोसा, अनजान रास्ते पर जाता हूं —जंचे, न जंचे! आज उत्साह में, उमंग में हूं, कल पता चले कि सब फिजूल की बकवास है, तो अपना नंगल तो सम्हालकर रख दो। कभी जरूरत पड़ी, तो फिर लौट आएंगे। रास्ता कायम रखा लौटने का कि कभी अड़चन आ जाए, तो ऐसा नहीं कि सब खतम करके आ गए। फिर लौटना ही मुश्किल हो जाए।
तो विहार के पास ही एक झाडू पर ऊपर सम्हालकर अपने नंगल को रख दिया। यह प्रतीक है इस बात का इसी तरह हम अपने अतीत को सम्हालकर रखे रहते हैं। संन्यस्त भी हो जाते हैं, तो अतीत को सम्हालकर रखते हैं कि लौटने के सब सेतु न टूट जाएं।
जो अतीत को तोड़ देता है, वही संन्यासी है। जो अतीत में अपना घर नहीं रखता, वही गृहस्थ नहीं है। जो कहता है : जो गया, गया। अब तो जो है, है। जो यहां है और अभी है।
तो यह कथा—प्रतीक प्यारा है। कि गरीब आदमी; और तो कुछ था नहीं उसके पास। कोई तिजोड़ी नहीं थी। कोई बैंक—बैलेंस नहीं था। कुछ भी नहीं था। एक नंगल था, एक हल था। उसको रख आया कि कभी जरूरत पड़े, तो एकदम असहाय न हो जाऊं।
अतीत से संबंध तोड़ना बड़ा कठिन है, चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो, तो छोड़ना और भी कठिन है। क्योंकि लगता है, गरीब आदमी हूं। यही तो एक संपदा है छोटी सी। यही चली गयी, तो फिर कुछ न बचेगा। अमीर तो शायद कुछ छोड़ भी दे, क्योंकि उसके पास और बहुत कुछ है। इतना छोड़ने से कुछ हर्जा नहीं है।
अमीर शायद धन भी छोड़ दे, क्योंकि वह जानता है : उसके परिवार के लोग भी धनी हैं। कल अगर लौटेगा, अपना धन नहीं होगा, तो भी अपने परिवार के लोगों का धन होगा। अमीर तो शायद सब छोड़ दे, क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा भी है, क्रेडिट भी है। कल अगर लौटकर आएगा, तो प्रतिष्ठा से भी जी लेगा। उधार भी मिल जाएगा।
लेकिन गरीब आदमी! उसके पास तो हल है। दो पैसे कोई देगा नहीं उधार। प्रतिष्ठा तो कोई है नहीं। परिवार तो कुछ है नहीं। जिनको अपना कह सके, ऐसा तो कोई है नहीं। यह एक नंगल ही बस सब कुछ है। तो उसको रख दिया उसने। यही इसका परिवार है; यही इसका धन है; यही इसकी सारी की सारी आत्मा है। उसने उसे सम्हालकर रख दिया।
संन्यस्त हो कुछ दिन तक तो बड़ा प्रसन्न रहा। और फिर उदास हो गया।
यह रोज घटता है। यह यहां भी घटता है। जब कोई आदमी संन्यस्त होता है, तो बड़ी आशाओं, उमंगों, उत्साहों से भरा होता है। लेकिन तुम्हारी आशा के अनुकूल ही थोड़े ही संसार चलता है। और तुम्हारी अपेक्षाएं थोड़े ही जरूरी रूप से पूरी होती हैं। फिर तुम अपेक्षाएं भी बहुत कर लेते हो। तुम अपेक्षाएं जरूरत से ज्यादा कर लेते हो। उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जितना श्रम करना चाहिए, वह तो करते नहीं। अपेक्षाएं अटकी रह जाती हैं; पूरी नहीं होतीं। जितना संकल्प चाहिए, वह तो होता नहीं। फिर धीरे— धीरे उदासी पकड़ती है।
लोग सोचते हैं कि शायद संन्यस्त हो गए, तो सब हो गया। संन्यस्त होने से सिर्फ शुरुआत होती है यात्रा की। सब तो अभी होना है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, कि बस, संन्यास दे दीजिए। फिर दो—चार महीने बाद आते हैं कि अभी तक कुछ हुआ नहीं! जैसे कि संन्यास से कुछ होने वाला है।
संन्यास तो सिर्फ सूचना थी कि अब हम कुछ करेंगे। वह तो कुछ किया नहीं। वे सोचते हैं कि संन्यास ले लिया, सो सब हो गया। अब जैसे जिम्मेवारी मेरी है! अब वे मुझे अदालत में ले जाने की इच्छा रखते हैं कि अभी तक किया क्यों नहीं!
तो यह आदमी संन्यस्त हो गया था। सोचता होगा : बुद्ध के शिष्य हो गए; अब और क्या करना है? फिर उदासी आनी शुरू हुई होगी। क्योंकि बुद्ध कहते हैं : विपस्सना करो। बुद्ध कहते हैं : ध्यान करो। बुद्ध कहते हैं : संकल्प करो। बुद्ध कहते हैं : भीतर जाओ। यह जाता होगा भीतर; इसको नंगल दिखायी पड़ता होगा। झाड़ पर लटका नंगल! जाता होगा भीतर; वही विचार आते होंगे पीछे अतीत के। सोचता होगा? यह कहां की झंझट में मैं......! कहां भीतर जाना? कहां है भीतर? क्या है भीतर? अंधेरा— अंधेरा दिखता होगा। कि अच्छी झंझट में पड़े! अपना हल चलाते थे, अपनी दो रोटी कमा लेते थे। वह भी गयी और यह भीतर जाना!
यह तो सोचा ही नहीं था। बुद्ध को देखा था। बुद्ध की महिमा देखी थी। बुद्ध का गौरव देखा था। बुद्ध का प्रकाश देखा था। उसी लोभ में पड़कर संन्यस्त हो गया था। अब यह करना भी पड़ेगा कुछ! यह तो सोचता था : ऐसे ही मिल जाएगा। पीछे चलते —चलते मिल जाएगा।
तो कई दफे उदासी आ जाती है।
पहली दफा जब उदासी आयी, तो उसने सोचा : इसमें कोई सार नहीं। यह अपना काम नहीं है। गया। उचट गया वैराग्य से मन। पहुंचा अपने वृक्ष के पास। सोचा : हल को लेकर पुन: गृहस्थ हो जाऊं।
लेकिन मन ऐसा ही क्षणभंगुर है।
यहां रोज ऐसा होता है। कोई मुझसे पूछता है कि मन बहुत उदास है, मैं क्या करूं? मैं कहता हूं? तीन दिन बाद आओ। वह सोचता है : तीन दिन बाद मैं उपाय बताऊंगा। तीन दिन बाद वह आता है। वह कहता है : अब मन उदास नहीं है। मैंने कहा : वापस जाओ। इतना काफी है। इससे समझो कि ये सब क्षणिक भाव— भंगिमाएं हैं। इनमें इतने उलझो मत। आती हैं, जाती हैं। मौसम की तरह बदलती हैं।
सुबह सूरज; दुपहर बादल घिर गए! सांझ बूंदा—बांदी हो गयी।
अब हर चीज को समस्या मत बनाओ कि बूंदा—बांदी हो गयी; अब क्या करें? जैसे कि अब जिंदगीभर बूंदा—बांदी होती रहेगी! कल सुबह फिर सूरज निकलेगा। अब बादल घिर गए; अब क्या करें? मैं कहता हूं : तीन दिन बाद आओ। तीन दिन बाद बादल छंट जाते हैं।
यह गया होगा। जब तक वृक्ष के पास पहुंचा, तब तक बात बदल गयी। बादल घिरे थे, अब छंट गए। सूरज निकल आया। इसने सोचा अरे! मैं—और यह क्या कर रहा हूं! जब हल—बक्सर जोतता था, तो कौन सा सुखी था? दुख के सिवा कुछ भी न था। अब न हल—बक्सर जोतने पड़ते, न मेहनत करनी पड़ती। भिक्षा मांग लाता हूं। पहले से अच्छी रोटी मिल रही है। अच्छी दाल, अच्छी सब्जी मिल रही है। और बुद्ध का सत्संग। पहले तड़फता था। कब निकलेंगे? एक क्षणभर को देख पाता था। अब चौबीस घंटे उनकी सन्निधि है। यह मैं क्या कर रहा हूं?
सोचा होगा कि इतनी बड़ी संपदा पाने चला हूं —बुद्धत्व; थोड़ा श्रम तो करना ही होगा। थोड़ा भीतर भी हल—बक्सर चलाना होगा।
बुद्ध कहते थे मैं भी किसान हूं। मैं भीतर की खेती—बाड़ी करता हूं। भीतर बीज बोता हूं। भीतर की फसल काटता हूं।
ऐसे ही किसानों से बुद्ध ने कहा होगा यह, क्योंकि किसान किसान की भाषा समझे।
सोचकर कि यह तो मैं गलत कर रहा हूं यह तो मैं व्यर्थ कर रहा हूं; यह तो मैं किस दुर्भाग्य में सोचा कि वापस लौट जाऊं! नहीं, नहीं। ऐसा सोचकर, विचारकर फिर दृढ़—निश्चय हो वापस लौट आया। उसे अपनी मूढ़ता दिखी और पुन: संन्यास की उमंग से भर गया।
फिर यह तो उसकी साधना ही हो गयी। क्योंकि कोई एक दिन आ गयी उदासी, चली गयी; ऐसा थोडे ही है। बादल एक दिन घिरे और चले गए! बार—बार घिरे, बार—बार घिरे और बार—बार जाए। फिर तो उसे तरकीब हाथ लग गयी। फिर तो उसने सोचा यह अदभुत तरकीब है। जब भी झंझट आती, चले गए। जाकर देखा अपने नंगल को।
उस नंगल को देखकर ही उसको अपने पुराने दिन सब साफ हो जाते, कि वहीं कौन सा सुख था। महानरक भोग रहे थे। उससे अब हालत बेहतर है। अब चीजें सुधर रही हैं और धीरे— धीरे शाति भी उतरती है। और कभी—कभी मन सन्नाटे से भी भर जाता है। और कभी—कभी बुद्ध जिस शून्य की बात करते हैं, उसकी थोड़ी सी झलक, हवा का एक झकोरा सा आता है। और बुद्ध जिस ध्यान की बात करते हैं, यद्यपि पूरा—पूरा नहीं सम्हलता, लेकिन कभी—कभी, कभी—कभी खिड़की खुलती है। क्षणभर को सही, मगर बड़े अमृत से भर जाती है। यह हो तो रहा है। अभी बूंद—बूंद हो रहा है, कल सागर—सागर भी होगा। बूंद—बूंद से ही तो सागर भर जाता है।
ऐसा बार—बार जाता और बार—बार वहां से और भी ज्यादा प्रफुल्लित और आनंदित होकर लौटने लगा। यह तो उसकी साधना हो गयी। जब—जब उदासी उत्पन्न होती, वृक्ष के पास जाता, हल को देखता, वापस लौट आता। ऐसा अनंत बार हुआ होगा!
भिक्षुओं ने उसे बार—बार जाते देखकर तो उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया। वे कहने लगे. यही इसका परिवार है। क्योंकि आदमी अपने परिवार की तरफ जाता है। कोई अपनी पत्नी को छोड़ आया, तो सोचता है वापस जाऊं। फिर अपनी पत्नी को लेकर गृहस्थ हो जाऊं। कोई अपने बेटे को छोड़ आया; सोचता है. जाऊं। अब बेटे को फिर स्वीकार कर लूं और गृहस्थ हो जाऊं।
इसका कोई और नहीं है। यह नंगलकुल है। इसका एक ही कुल है; एक ही परिवार है। वह है नंगल। उसमें कुछ है भी नहीं सार। उसको कोई चुरा भी नहीं ले जाता। झाडू पर अटका है; कोई ले जाने वाला भी नहीं है गांव में। मगर यही उसकी कुल संपदा है। उसका नाम रख दिया—नगलकुल।
वह न मालूम कितनी बार गया! न मालूम कितनी बार आया! लेकिन हर बार जब आया, तो बेहतर होकर आया। हर बार जब आया, तो निखरकर आया। हर बार जब आया, तो और ताजा होकर आया। यह तो घटना भीतर घट रही थी। बाहर तो किसी को पता नहीं चलता था कि भीतर क्या हो रहा है।
एक दिन हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। पकती गयी बात। पकती गयी बात। पकती गयी बात। एक दिन फल टपक गया। एक दिन लौटता था नंगल को देखकर और बात स्पष्ट हो गयी। अतीत गया, वर्तमान का उदय हो गया।
अर्हत्व का अर्थ होता है चेतना वर्तमान में आ गयी। अतीत का सब जाल छूट गया, सब झंझट छूट गयी। यही क्षण सब कुछ हो गया। इस क्षण में चेतना निर्विचार होकर प्रज्वलित होकर जल उठी।
और फिर उसे किसी ने दुबारा नंगल को देखने जाते नहीं देखा। स्वभावत: भिक्षुओं को जिज्ञासा उठी। पूछा आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता है?
नंगलकुल हंसा। हंसा अपनी मूढ़ता पर जो वह हजारों बार गया था। और उसने कहा. जब तक आसक्ति रही अतीत से, तब तक गया। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब तो नाता टूट गया। अब न मैं नंगल का, न नंगल मेरा। अब तो मेरा कुछ भी नहीं। अब तो मेरे भीतर मैं भी नहीं। अब तो जंजीरें टूट गयीं। अब तो मैं मुक्त हूं।
लेकिन भिक्षुओं को यह बात सुनकर जंची नहीं। जंची इसलिए भी नहीं कि कोई पसंद नहीं करता यह कि हमसे पहले कोई दूसरा मुक्त हो जाए। हमसे पहले—और यह नंगलकुल हो गया? यह तो गया—बीता था; आखिरी था। इसको तो लोग जानते थे कि है यह गाव का गरीब। यहीं खेती—बाड़ी करता रहा। फिर संन्यासी भी हो गया, तो कोई बड़ा संन्यासी भी.। वह नंगलकुल! बार—बार जाए दर्शन को। और किसी चीज के दर्शन न करे, नंगल के दर्शन करे! यह—और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए? यह कभी नहीं हो सकता।
उन्होंने जाकर भगवान को कहा : भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व—प्राप्ति की घोषणा करता है। कहता है, मैं मुक्त हो गया हूं।
लेकिन जो औरों को नहीं दिखायी पड़ता, वह सदगुरु को तो दिखायी पड़ेगा। तुम्हें दिखायी पड़ेगा, उसके पहले सदगुरु को दिखायी पड़ेगा।
बुद्ध ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा।
करुणा से—क्योंकि वे ईर्ष्यावश ऐसा कह रहे हैं। करुणा से—क्योंकि राजनीति प्रवेश कर रही है उनके मन में। करुणा से—क्योंकि उनके अहंकार को चोट लग रही है। कोई वर्षों से संन्यासी था। कोई बड़ा पंडित था। कोई बड़ा ज्ञानी था। कोई बड़े कुल से था, राजपुत्र था। इनको नहीं मिला और नंगलकुल को मिल गया? वह तो अछूत था; आखिरी था।
बुद्ध ने कहा : भिक्षुओं! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को पूर्ण कर लिया।
इसने यद्यपि किसी और से उपदेश ग्रहण नहीं किया, लेकिन अपने आपको रोज—रोज उपदेश देता रहा। जब—जब गया उस वृक्ष के पास, अपने को उपदेश दिया। ऐसे धार पड़ती रही, पड़ती रही। अपने को ही जगाया अपने हाथों से।
यह बड़ा अदभुत है नंगलकुल। इसकी महत्ता यही है कि इसने धीरे— धीरे करके अपने को स्वयं अपने हाथों से उठा लिया है। यह बड़ी कठिन बात है। लोग दूसरे के उठाए—उठाए भी नहीं उठते हैं!
उसे जो पाना था, उसने पा लिया। और जो छोड़ना था, वह छोड़ दिया। तब बुद्ध ने ये गाथाएं कहीं :
अत्‍तना चोदयत्‍तानंपटिवासे अत्‍तमत्‍तना।
सो अत्‍तगुत्‍तो सतिमा सुखं भिक्‍खु विहाहिसि ।।

'जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा, जो आप ही अपने को संलग्न करेगा, वह आत्म—गुप्त स्मृतिवान भिक्षु सुख से विहार करेगा।'
उसकी किसी को कानो—कान खबर नहीं होगी। उसके भीतर ही, आत्मगुप्त, चुपचाप फूल खिल जाएगा।
जो अपने आपको प्रेरित करता रहेगा, जो अपने आपको जगाने की चेष्टा करता रहेगा, वह जाग जाता है और किसी को कानो —कान खबर भी नहीं होती।

अत्‍ता हि उत्‍तनो नाथो अत्‍ता हिह अत्‍तनो गति।
तस्‍मा सज्‍जमयत्‍तानं अस्‍सं भद्रंव वाणिजो ।।

 'मनुष्य अपना स्वामी आप है; आप ही अपनी गति है। यह बुद्ध का परम उपदेश है—

अत्‍ता हि उत्‍तनो नाथो अत्‍ता हिह अत्‍तनो गति।

 किसी दूसरे की कोई वस्तुत: जरूरत नहीं है। अगर तुम अपने को जगाने में लग जाओ, निश्चित ही जाग जाओगे।

 अत्‍ता हि उत्‍तनो नाथो अत्‍ता हिह अत्‍तनो गति।

 मनुष्य अपना स्वामी आप।

 अत्‍ता हिह अत्‍तनो गति।

 अपनी गति आप। आत्म—शरण बनो।
बुद्ध का जो अंतिम वचन था, मरने के पहले, वह भी यही था : अप्प दीपो भव—अपने दीए स्वयं बन जाओ।

 ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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