अध्याय—36 (मेरा दवा की गोलियां खाना)
कुछ भय ओर
अभय हमारे शरीर में किस तरह से जमा रहे है। जैसे—जैसे हम बड़े होते जाते है हमारे
चेतन या अचेतन में जमा सब भाव हमारे मन पर प्रकट होने लग जाते है। इसी तरह से
अचानक मुझे बीमार आदमी से अधिक भय लगने लगा था। जब भी कोई बीमार होता तो मैं उसके
पास जाने से कतरता था। जिसका कारण में खुद भी नहीं जातना था हां इतना जानता था कि
जब मैं बिमार होता थोड़ा या अधिक तो मुझे लगता मैं मर जाऊंगा। पहले इस बात का मुझे
कोई भय नहीं था। ये अभी कुछ ही दिनों से ऐसा हुआ है। किसी—किसी ध्यान का संगीत
सूननें पर भी मेरे अंदर तक प्राण कांप जाते ओर में डर कर सुबकने लग जाता था। वह
संगीत ऐसा मेरे अंदर घंसता चला जाता की जैसे वह मुझे चीर रहा है। ओर मैं दो टुकडो
में विभाजन हो रहा हूं। मैं चाह कर भी उस समय अपने शरीर को हिला नहीं सकता था।
परंतु एक जागरण अंदर होता जो मुझे ये सब महसुस करा रहा था। मैं डर रहा हूं ओर मैं
हिल नहीं सकता। जैसे मुझे कोई जोर से दबा रहा है एक पतली सुरंग की भांति ओर मुझे
डर लगता की में इसमें फंस गया तो कैसे निकलुंगा। तब अकसर या तो मम्मी या पापा अपना
ध्यान छोड कर मुझे सहलाते ओर आवाज देते.....तब मैं धीरे-धीर शरीर पर आता। वहां आने
का मन नही था वह भय भी कितना शांति दाई था.....उसे शब्द नहीं दिये जा सकते।
दादा जी अचानक बीमार हो गये। वैसे तो छोटी मोटी बीमारी को दादा जी कुछ
नहीं समझते थे परंतु इस बार हालत कुछ अधिक ही खराब हो गई इस लिए उन्हें घर पर
लाना पड़ा क्योंकि दादा जी घैर में रहते थे। जहां पर हमारी दूकाने थे उसके उपर
दादा जी कमरा था वह खाना खाने या टी वी देखन आते ओर बच्चो के साथ खुब मोज करते।
मैंने तो उन्हें कभी घर पर सोते नहीं देखा वह तो उन दिनों भी वहीं जाकर सोते थे
जब पापा जी मम्मी ओर बच्चे कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाते थे। पूरे घर मे मैं
अकेला ही सोता था। हां कभी कभार जरूर सो जाते थे। अब उनका बोरियाबस्तर घर लाना
पड़ा। कुछ दिन बाद दादा जी तो ठीक हो गये। ओर चले गये वापस अपने कमरे में जहां वह
रहते थे। यानि दूकान के उपर वाले सब कमरों में दादा जी अकेले रहते थे। लेकिन उन्हें
एक बीमारी थी की वह दवा कम ही खाते थे। आधी से अधिक इधर उधर छूपा देते या फैक
देते। बुढा आदमी भी बच्चे की तरह हो जाता है। उसमें एक बालपन छूपा होता है वह
निकल कर बहार आ जाता है जीवन का र्वतुल पूरा हो रहा होता है।
तब वह दवा जो उन्होंने फैकी थी....गोल....रंगीन गोलिया....एक कौने
में मुझे दिखाई दी। मैंने उन्हें सूंध कर देखा उनसे कोई खास गंध नहीं आ रही थी।
की उनहें खाना या नहीं खाना। ये मेरी समझ के बहार की बात थी। ऐसा क्यों में समझ
नही पाया। मिर्च को सूंध कर ही में समझ जाता की यह तीखी है....या यह मिठी है...परंतु
दवा के साथ ऐसा क्यों नहीं.....किस घास को खाना है या नहीं मै सब जानता था....कोन
प्राणी खतरनाक है सांप या दूसरा हिंसक प्राणी अब मैने जैसे शेर नहीं देखा परंतु क्या
आप सोचते है शेर को देख कर मैं इसी तरह सह खड़ा रहूंगा.....नहीं उसे देखते ही मेरे
प्राण सूख जाये ओर मैं अधमरा हो जाऊंगा। शायद ये हमारे पूर्वजो का अनुभव जो हमारे
डी न ए समाया है। वही हमे जिंदा रखे है। वहीं हम अपनी वंश परम्परा से अपने बच्चों
को देते जाते है....हमें उसे जीना ओर भोगना होता है....तब वह अगली पीढ़ी को मिल ही
जाये ऐसा संभव नहीं है। अब जिस तरह से हजारों कुत्ते रोड़ पार करते हुए मर जाते
है। ओर कितने ही इस तरह से रोड़ पर करते है की आदमी का बच्चा क्या आदमी भी नहीं
कर सकता। मैं तो कम से कम नहीं कर सकता। गाड़ी को देख कर यही समझुगा की मैं इससे पहले
निकल जाऊंगा। क्योंकि अपनी दौड़ की गति को मेरा शरीर जन्मों से जानता है। परंतु
गाड़ी का आविष्कार तो इसी सदी में हुआ है। पहले बैलगाड़ी की गति क्या थी ओर धीरे—धीरे
गाड़ी की गति का अनुमान भी लगाना सहज नहीं हो रहा। तब सो मे दस पशु ही इस अनुभव के
बाद जिंदा रह पायेगे। ओर कभी न कभी वह भी धोखा खाकर मर जायेगे। फिर यह अनुभव अगली
पीढ़ी को कैसे पहूंचे.... कितना कठिन है पशु का विकास.....अब यह बात दवा पर भी
लागू होती है। हमारे पूर्वजो ने ये सब जाना नहीं इस लिए हमें मिला नहीं। ओर मैं इस
अनुभव के विकास का हिस्सा बनने पर उतावला हो रहा था। पहले भी मैं अपने जीवन को दो
तीन बार दाव पर लगा चूका हूं ये तो मनुष्य के संग साथ हूं इस लिए जिंदा हूं वरना
तो कब की राम नाम सत्य हो चुकी होती। जब एक बार मैं कछवा छाप खा ली ओर मेरी आंते
कट गई। मैं सोचता हूं कि मैं कितना मुर्ख हूं की कछवा छाप की गंध या उसका कड़वा पन
भी मुझे महसूस नही हुआ। ओर अब अपने को बहुत ज्ञानी सकझ रहा हूं।
और करने जा रहा हूं वहीं गलती। कितना ज्ञान आभी आपके सर पर में मढ़ा
परंतु सबक कुछ नहीं सिखा.....इस लिए जीवन इतना सरल नहीं है। ये कठिन है मकड़ जाल के
समान अगर आप इसमें जितने अधिक हाथ पैर मारोगे उतना ही उलझते चले जाओगे। एक दिन दो
दिन...मेरे सब्र का बांध टूट गया या मेरे जीवन सदा इसी तरह बीच मे टूटता रहा ओर
उसके तार बीच में ही टूट गये। ओर बार—बार मैं वहीं सब करता रहूंगा जब तक पूर्णता
से इसे जी न लूं....तब आगे की गति है। ओर वह मधुर रंगीन गोलिया मैंने खा ली....गोली
बहार से तो एक दम से मिठी थी। जो मेरी कमजोरी थी। मिठा हमारे लिए जहर है....ऐसा
में हजारों बार सुन चूका हूं क्या हमारे शरीर का ढांचाइस तरह से निर्मित हुआ है
कि मीठा हम हजम ही नहीं कर पाते....या शरीर गुलोकोश को अधिक मात्रा में तोड़ ही
नहीं पाता। मुहं में कुछ देर तक तो मिठा घूलता रहा। बहुत अच्छा लग रहा था ओर अंदर
ही अंदर सोच रहा था कि दादा भी कितना मूर्ख है जो इतनी मीठी गोली भी नहीं खाता ओर
इधर उधर फैक देता है।
लेकिन कुछ देर में ही मेरे पेट में दर्द शरू हो गया....लगा अभी अंदर
जो जमा है सब बहार निकल जायेगा....सर में चक्कर आने लगे....लगा मेरा सीना ओर गला जल
रहा है....मैं अपने वर्तन के पास गया ओर खुब पानी पीया....लगता था पानी पीता ही
रहूं....पेट फटने को हो रहा था ओर प्यास बुझ ही नहीं रही थी। ऐसा पहले हुआ था जब
गर्मी के दिनों में अधिक दूर तक तेज दौड़ता था परंतु कुछ ही मिनट में बैठ कर अपनी
जीभ बहार निकाल कर शरीर को ठंडा कर लेता था। वही प्रक्रिया मैंने अभी की। लेकिन सब
बहार आना चाह रहा था। अचानक मुहं से चिकने साबून क तरह से झाग निकलने लगे। जैसे
मुझे नहलाते या कपड़े धोते समय मैंने देखे थे। तब में उनके बुलबुले पकड़ पकड़ कर
किस तरह से खेलता था। ओर उन्हें फोड़ कर देखना चाहता था कि इनमें क्या भरा है।
कितने मुलायम सुंदर है। परंतु छूते ही वह फूट जाते थे। परंतु मेरे मुख से जो झाग
निकल रहे थे वह बहुत गाढ़े थे। पूरा मूहं झाग से भर गया। ओर मुझे बेचेनी होने लगी।
मैने ओर पानी पीया ओर उसके बाद उलटी में झाग के साथ सब खाना बहार आ गया। अब की बार
मैंने फिर पानी पीया....परंतु प्यास बुझ ही नहीं रही थी। अब मुझे लगा ये सब गड़बड
हो गई है। ओर मैं खुली छत की ओर भागा। वहां पर बच्चे दरी बिछा कर पढ़ रहे थे।
मेरी आंखें लाल हो गई मुझे इतना साफ दिखाई भी नहीं दे रहा था। बस एक
अनुमान की यह दीदी है....यह वरूण है....लेकिन वह इस तरह से मेरा रूप देख कर डर
गये। ओर हैमांशु तो रोने लगा.....दीदी पोनी को क्या हो गया....उसके मुहं से तो
झाग आ रहे है। ओर मैं समझ गया कि बच्चे मुझ से डर रहे है। यहां मेरी कुछ मदद नहीं
हो सकती। ओर तेजी से नीचे की ओर भागा उसी समय मम्मी जी ने दरवाज खोला ओर में एक
बंद पींजरे मे उस पंछी की तरह बहार उड जाना चाहता था। जिसका उस पींजरे में दम
घूटने वाला था। लगता था किसी खुली जगह पर चला जाऊं....मैं भागा दूकान के
पास....सोचा वहां पापा जी है वे जरूर मेरी मदद करेंगे ....ओर कौन मेरी मदद करें।
लेकिन मेरा दुर्भाग्य देखियें उस समय दूकान पर तीन चार ग्रहाक खड़ थे पापा जी का ध्यान
उन की ओर था। मैं वहां कुछ ही देर खड़ा रहा....परंतु मेरी बैचेनी मुझे कह रही थी कि
कहीं दूर निकल जा। काश में दूकान के अंदर चला जाता ओर अपनी शानपत्ति न दिखाता तो
इतना कष्ट नहीं उठता परंतु प्रत्यके प्राण अपने को अधिक होशियार समझता है।
मैं जंगल का रास्ता जनता था। जैसे जैसे मैं भाग रहा था मैरे पेट की
ऐठन बड़ रही थी। मेरी सांसे तेजी से चल रही थी। लगता था अब गिरा तब गिरा। ओर शरीर
से पकड़ मेरी छूट रही थी लग रहा था शरीर दूर भागा जा रहा है ओर मैं उसे देख रहा
हूं। न मुझे थकावट थी ओर न ही कुछ भार मुहं से सांस लेना भी कठीन होता जा रहा था।
किसी तरह से मेरा शरीर पानी के नाले तक पहुंचा ओर में नीचे की ओर उतरने लगा। तभी
मेरे पट की ऐठन अधिक हुई ओर में एक कोने में खड़ाहोकर उलटी करने लगा। पैट में जो
भी जमा था वह सब निकल गया इस बार कुछ खून की लाल बूंदे भी उलटी में आई थी। मेरा सर
चकरा रहा था। ओर मैं बैठ गया या यु कहीए की गिर गया। मेरी आंखें बंद हो रही थी।
मुझे नींद का गहरा झोका आ रहा था। कितनी मिठी थी वह नींद....लगता था बस इसी मुलायम
रेत पर लेट कर सो जाऊं। परंतु मन मे एक वासना थी पापा जी को देख ही नहीं पऊंगा। ओर
क्या इसी तरह से हमेशा के लिए सो जाऊंगा। जीववेषणा ने जोर मारा ओर जो शरीर हार
मान गया था उसे फिर अंदर से जीववेषणा ने जीवित रहने का सहास दिया। प्राणी मरता तब
है जब वह जीवन की जीव वेषणा से थक जाता है या हार जाता है।
किसी तरह से मैंने अपने आप को झंकझोरा ओर खड़ा किया शरीर है की पत्थर
होता जा रहा था। वह मेरी आज्ञा भी मनने से इंकार कर रहा था जेसे बहुत थकने के बाद
आप लेटे हो ओर आप का मन तो उठ गया लेकिन शरीर अभी भी सोया है...ओर आप उसे उठाना
चाहते हो ओर वह एक करवट बदल कर मिठी नींद का आनंद लेना चहता है। आप लाख चाहते है
कि शरीर उठे परंतु वह थिर ही रहता है। किसी तरह से डोलते डालते शरीर को में खीच कर
पानी के पास ले गया। वहां की मुलायम मिट्टी में पेर रखते ही शरीर मे एक ठंडी सी
सिहरन हुई....पानी तलवार की तरह से चूभ रहा था। वैसे तो पानी मुझे बहुत पसंद है।
मन नहीं कर रहा था फिर भी मैंने पानी पिया....मुंह का स्वाद एक दम अकबका हो गया
था। पानी भी कडवा लगा रहा था। दो चार कदम बढ़ा कर मैं उस किचड़ में लेट
गया....पहले तो उस किचड़ में जाने से मुझे बहुत डर लगता था क्योंकि उसके अंदर जोक
रहती थी। जो पेट के नीचे चीपट जाती थी। ओर शरीर का खून पीने लगती थी। लेकिन अब कोई
भय नहीं था। ओर सब आज कोई जोक मेरे शरीर से चिपट ही नहीं रही थी या मुझे शरीर का
ही होश नहीं रहा था।
किचड़ में लेटने से एक सकुन सा मिला अंदर जो जल रहा था उस पर किसी ने
मरहम लगा दिया। ओर मैंने आंखें बद कर ली.....दूर आसमान पर सूर्य अपने घर जाने की
तैयारी कर रहा था सेमल के पेड़ हजारों पक्षी अपनी मधुर गान गा रहे थे। सब का
मिश्रित गान वातावरण में एक मधुर कालाहल भर रहा था। मैं जानता था अभी कुछ देर में
ही सूर्य अस्त हो जायेगा। ओर अंधेरा घिरने लगेगा। लेकिन मैं अंदर से सोच रहा था
तब तक मैं ठीक हो जाऊगा ओर फिर रात होने से पहले घर चला जाऊंगा.....इसी सब सोच
विचार के करते मेरी आंखें लग गई। परंतु न जाने कब मुझे नींद आ गई। इतनी गहरी ओर
सुखद नींद जीवन कुछ ही बार आती है। वैसे तो नींद में कहीं जागरण भरा होता है। एक
होश बना रहता है, परंतु आज इतनी गहरी नींद......सच गहरी नींद शायद मोत जैसी ही होती होगी।
तब तो उस में सब डूब जाता है। पानी ओर कीचड़ के मिश्रण ने शरीर के उत्ताप्त को
कम कर दिया। ओर दूर कहीं कोयल का मधुर गान हवा में गूंज रहा था....आसमान पर चांद
चमक रहा था.....सूर्य तो अस्त हो गया था कब का। दिमाग मेरा एक दम से जम गया था।
एक ठंडी बर्फ की तरह। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कौन हूं.....कहां से आया
हूं......दूर गिदड़ो की हाऊ.....हाऊ....की किलकार सूनाई दे रही थी। मैं समझने की
कोशिश कर रहा था अभी रात शुरू हुई है या खत्म हो रही है। क्योंकि ज्यादा तर
गिदड़ जब घर से निकलते है तब बोलते है या तब घर जाने की तैयार....तब सब को निर्देश
दिया जाता है कि आब घर चलो.....
किचड़ से बहार आने पर मुझे कुछ ठंड लगी हवा भी कुछ ठंडी थी.....मैं
बहार निकलकर चार कदम चला ओर मुझे चक्कर आ गये। ओर मै मुलाय सूखे रेत में बैठ गया
कहना ठीक नहीं रहेगा.....एक दम से गिर गया......गिले शरिर पर मुलायम नरम रेत बहुत
सुखद लग रहा था। मानों में अपनी मां के मुलायम बालों पर सर रख कर सो रहा हूं। पेट
मे ऐठन अभी भी हो रही थी। कूछ देर इसी तरह पड़े रहने के बाद.....लगा पेट से सब
बहार निकल जायेगा। ओर में किसी तरह से खड़ा हुआ ओर उलटी करने लगा। अब भी उलटी में
घास में जाकर की। पेट से केवल लाल पानी निकल रहा था। शायद वह लाल खून हो। कुछ सफेद
गोल....गोल.....गांठे भी साथ थी ओर अधिक मात्रा में तो पानी ही था। मूंह एक दम से
कड़वा हो गया.....लगा पानी पी लू.....जैसे ही मैंने पानी में अपने पैर
रखे.....पूरा शरीर में एक ठंडी लहर बिजली की गति से दौड़ गई। परंतु पानी तो पीना
ही था। सो कुछ देर तो इस ठंड को बरदास्त करना ही था। लगा इतने ठंड़े पानी में मैं
कैसे इतनी देर तक लेटा रहा।
पानी पी कर मैं बहार बैठ गया। ओर बहुत सोचने की कौशिश करने लगा कि मैं
कौन हूं कहा से आया या अब किधर चलू.....परंतु होनी देखिये या मेरे भोग जो अभि भी
मुझे भोगने थे...जो इस स्वर्ग के घर निकाल कर कहां—कहां तक ले जाते है। ओर में
नाले कि दूसरी तरफ चल दिया। चाल तो क्या बस किसी तरह से अपने शरीर को ढोते
हुए....कितनी रात गुजरी है.....मैं कहां हूं.....कौन हूं......किधर जाना है इस बात
का मुझे जरा भी भान नहीं। मानों में एक नींद मे हूं.....मेरी आंखे खूली जरूर है
परंतु वह कुछ निर्देश नहीं दे पा रही। मस्तिष्क एक से सून्न हो गया था। बिना
मस्तिष्क के शरीर एक मिट्टी का लोंदा
है। मस्तिष्क कितना महत्व पूर्ण हे शरीर के लिए....वह किसी खतरे से पहले ही किस
तरह से निर्देश देता है....कहां दर्द है...कब भूख लगी है। परंतु एक बात जो अब भी
जीवित थी वह मन की बैचनी.....यानि की मन ओर माईड़....बुद्धि दोनों अलग होते है।
मैं तो उन्हें अभी तक एक ही समझता था।
कितनी देर चला रहा कूछ पता नहीं.....न तो मुझे पता की कहां जाना है
....बस मे अपने चलते शरीर को देखता रहा....आस पास क्या है मैं कहां पर हूं....कोन
सी चीज क्या है....मुझे नहीं पता। उंचाई पर चल रहा हूं या नीचाई पर शायद दीवार भी
आ जाती तो मैं उस में टक्कर मार देता। आंखें खूली जरूर थी परंतु वह काम अधिक नहीं
कर रही थी। देख रही थी.......परंतु देखने से महत्वपूर्ण समझना जरूरी है।
चरेयवेति....चरयवेति....चलता ही रहा जब तक शरीर ने जवाब नहीं दे दिया में चलता ही
रहा बस जब थक गया तो लेटा ओर सौ गया।
चलते रहने से शरीर एक हरकत में था, वह गिरना चाहता था परंतु अंदर कुछ उसे चला रहा था। इस
सब के द्यविंद के बीच मेरा जीवन बेल खडी थी। अब मेरा जीवन राम भरोसे था। पता नही
मेरे मरने के बाद मुझे कोई पहचान पायेगा या नहीं.......
बस....एक गहरी शांति ओर नींद्र में डूब रहा था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें