अध्याय—40
(ध्यान का अनुभव)
इस तरह से
ये जीवन के चौथे मृत्यु द्वार को मैं छूकर आया हूं। ये एक नादानी नहीं तो ओर क्या
है क्या अभी भी मेरे अंदर बालपन एक अलहड़ पन समया है, अकसर बहुत लाडप्यार के कारण
आदमी का लडकपन कैसा थिर सा हो जाता है मानों उसमें गति ही न हो। आज आधुनिक भागदौड में
बच्चे कितनी जल्दी अपना बालपन खो देते है। ओर युवां अपना यूवा पन। समाज उनको स्वछंद
विकास करने ही नहीं देता है। इस सुंदर माहोल में जीवन का रस्सा स्वाद अनुभव बड़े
भाग्य से मिलता है ओर मेरी नजरों में इसकी कोई कदर नहीं। मैं इस अमूल्य अवसर को यूहीं
फेंकता फिरता हूं। इस वरदान की अगर मैं कदर नहीं करुंगा तो कब—कब मेरे पास फिर लोट
का आयेगा कब—कब कुदरत मुझे मोंके देती रहेगी। जीवन में जरूर कुछ अच्छा किया होगा....तो
ये स्थान ये मनुष्य मुझे मिले है। मुझे इस सब की कदर करनी चाहिए नहीं तो प्रकृति
भी नाराज हो जायेगी। आपने द्वारे दिये इस जीवन की कदर ने देख कर इसे मुझसे छिन
लेगी। ओर मैं तो खुद ही इसे फैंकने के लिए तैयार हूं। ये सब बातें सोच कर मेरा मन
उदास हो गया। ओर मुझे अंदर से अपने पर क्रोध ओर गिलानि एक साथ हो रही थी। ओर मन
में एक पश्चाताप भी कि अब ऐसा नहीं करूंगा परंतु ऐसा पहली बार नहीं उन पहली दुर्घटनाओं
के बाद भी शायद मैंने ऐसा ही सोचा होगा।
सुबह जब दशा मैदान के लिए भी घर से बहार निकला तो वैसी उमंग नहीं थी
मन में कि मैं किसी कैद से निकल रहा हूं। हमारे ही विचार हमें किस तरह से भ्रमित करते
है अगर हम उसे पीछे मुड़ कर देखे तो वह हमे साफ दिखाई दे जाते है। मन जिस तरह से
एक अल्हड़ की भांति फुदकता था....छटपटाता था। आगे जाने का भी अधिक मन नहीं किया।
वहीं गली के नुक्कड़ तक गया। वहाँ पर दो कुत्ते रहे थे कालू और लंबू वह पास आगर
चमचा गिरी करने लगे। किसी तरह से मैंने उन्हें अपने से दूर किया। इतनी देर में
अंदर से ध्यान के संगीत आवाज शुरू हो गई मन एक चुंबक की तरह उधर खिंचा चला जा रहा
था और मैं जल्दी से घर के अंदर घूस कर ध्यान के कमरे की ओर गया धक्का मार कर
देखा तो वह खुल गया। आज कल दीदी और पापा सुबह ध्यान करने लगे है। पापा जी जो
दूकान पर मम्मी के साथ चार बजे जाते है छ: बजे आ जाते है और फिर दीदी के साथ ध्यान
करते है।
उसके बाद फिर टाईल काटी जाती है। मशीन की घिर.....घिर.....कितनी कानों
को चूबती है। और उसका तेज घूमता बलैड़ कैसे पापा जी के हाथ के पास से जाता है मेरा
तो दम निकल जाता है। जरा सी चूक और हाथ साफ। पापा जी आंखों में चश्म लगा कर और
हाथों में रबर के दस्ताने पहनकर क्या हीरों बन कर टाईल काटते है। मैं पास बैठकर
देखता रहता हूं। आज कल इधर उपर जो क्यारियां बनाई जा रही है उन पर टाईल लगाने का
काम चल रहा है। मुकेश और प्रभु उनमें मिट्टी लाकर डालते है। उस नई ताजा मिट्टी पर
चढ कर सूंधना बहुत चित को भाता है। सब मिट्टी की गंध अलग होती है। मेरे को बहुत
भाती है.....मिट्टी को मोटे—मोटे सोटो से क्यारियों में दबाया जाता है। कितने ही
पेड़ नीचे रखे है मैं तो सब के नाम नहीं जानता। सब सब को सुंध करे देखता रहता है।
सोचता रहता हूं उपर तो एक दम से अपना जंगल ही बन जायेगा फिर बहार जाने की जरूरत नहीं
होगी उन्हीं के बीच खूब घूमा करूंगा।
पड़ोस के मामा—मामी को मरे करीब एक दो साल गुजर गया लगता है कल की ही
बात है। उनके रिस्ते दार मकान के लिए किस तरह से लड़ रहे थे। और आखिर एक ने उस पर
कब्जा कर लिया और रहने लगा हे। अब में उधर से जाता हूं तो वह मुझे टेढ़ी नजरों से
देखता है। मामा—मामी सच ही अच्छे थे ये आदमी तो कुछ धूर्त सा लगता मुझको है। मुझे
क्या है लगा करे। मामा ने तो अपनी सब गाये अपने सामने ही उन्हें जंगल में छोड़
दिया गया था। और सच वह गाये किसी के पास रहती भी नहीं थी। शायद मामा को अपनी मृतयु
का भान हो गया होगा। सब किस तरह से चले जाते है। फिर पीछे कोई मुड़ कर देखता ही
नहीं। जीते जी कितना शोर गुल मचाते है हम। कभी कभी वह हमारे घर भी आते थे। तब मुझे
बंद कर दिया जाता था। मेरा कम ही भरोसा किया जाता किसी से दौस्ती करने का।
क्योंकि जरा सा भी बुरा लगे मुझे मै उसे बर्दाश्त नहीं करता था। ओर मोका मिले तो
काट भी लेता था।
काम अपनी मंथर गति से चल रहाथा अब लग रहा परंतु इस बीच एक घटना घटी शायद
मेरी कमजोरी के कारण या शरीर बुढापे की और लोट रहा था। मेरे शरीर में जो पहले बड़े—बड़े
चितके से उभर आये थे। वह दौबारा उभर आये और शुशु के नीचे एक गांठ निकल आई है जो
बहुत दर्द करती है। परंतु इस बात का कई दिनों तक किसी को पता नहीं चला क्योंकि वह
उभरे चितके तो बोलों के अंदर थे। फिर इन दिनों काम की बहुतायत हो गई थी। दूकान के
साथ—साथ पापा जी को रामरतन के साथ भी काम देखना होता था। कुछ दिन उदासी भरे थे
कहीं कोई कारण भी नजर नहीं आ रहा था।
इसी बीच एक दिन एक स्वामी जी (स्वामी नरेंद्रबोधि सत्व) जी घर पर
आये। मैं भौंकता दरवाजे की और भागा। जैसी मेरी आदत थी उनके साथ एक और स्वामी जी
थे जो अकसर ध्यान करने आते थे। मैं भागता हुआ नीचे पहूंचा परंतु स्वामी जी (गोपाल
डेरी वाले) को तो मैं जानता था परंतु इनको तो पहली बार देख रहा था सो इनसे घर का
खतरा हो सकता है। इस लिए अपनी सुरक्षा में मैं चार चौकस था। तब मैं जैसे ही भौंकता
हुआ उनके पास गया वह मुझसे जरा भी नहीं डरे। ऐसा मैंने पहली बार महसूस किया कि
आपकी तरंग पूरी की पूरी आपकी ओर लोट आये हालाकि पापा जी भी मुझसे नहीं डरते फिर भी
मैं मससूस करता हूं जब किसी खास मोके पर जब वह मुझे नहला रहे या दवा लगा रहे होते
तो उन्हें एक डर भी घेरे हुए होता है। और ये मैं जानता हूं। परंतु आज पहली बार
कोई ऐसा पुरूष मिला जिसके अंदर कोई भय नहीं है। ये मेरे लिए नया अनुभव था एक चमत्कार
। उन्होंने मेरे सर पर हाथ फैरा और कहने लगे पोनी तू ठीक तो हे। और मेरे पूरे
शरीर में एक सितलता सी छा गई। पापा जी को भी मैं इतने दिन से जानता हूं ओर कितने ही लोग हमारे घर पर आते है।
परंतु इस तरह का मनुष्य मैंने पहली बार देखा है। मम्मी जी की पापा जी की तरंग
अभी तक मेरे जीवन की अनूठी तरंगे थी। वह भी मेरी समझ के परे भी परंतु ये तो लगता
हे लाखों करोड़ा मील पीछे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा है। क्या देखू कुछ भी दिखाई
नहीं दे रहा है। मेरे पूर्वजों ने जो अनुभव सुंध कर महसुस कर मेरी सुरक्षा के लिए दिये
थे वे सब मिटर फैल हो रहे है। उनका होना न होने के बराबर है। काश कोई एक बार किसी बुद्ध
का संग जान ले....फिर वह इस घरा पर यूं ही नहीं चल सकता उसके जीवन में एक उडान एक उत्सव
भर जायेगा। उसके कदम जमींन पर नहीं होगे.....चहे वह उडना न जानता हो।
मैं तो स्वामी जी का दीवाना हो
गया। लोग किस तरह से पागल हो सकते है किसी बुद्ध के पीछे। ये मैं नहीं कह सकता, इसके अनेक कारण हो सकते है परंतु ये तो अकारण है। परंतु इतना जरूर जान रहा
हूं कि मैं तो कुछ पल में अपने को भूल गया हूं कि मैं कौन हूं....बस एक ही चीज है
जो सामने है स्वामी जी। मैं उनके आगे नांचता कुदता चल रहा था वह भी किसी बात का
अवरोध या विरोध नहीं कर रहे थे। जबकि दूसरे वाले स्वामी मुझे पर झल्लाने की कोशिश
कर रह है परंतु स्वामी जी के स्वभाव ओर प्रेम के आगे वह लाचार थे। पापा जी भी आ
गये उन्होंने स्वामी की को पैरों में झुक कर प्रणाम किया ये सब में बडे गोर से देख
रहा था। मैं समझने की कौशिश कर रहा था। ओर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था मैं भी
चाहता था कि स्वामी जी के पैरों में लेट जाऊं। उन्हें चाटूं चूमु एक धूलधमास की तरह
उनमें रचबस जाऊं। स्वामी जी पूरे घर में घूम—घूम कर देख रहे थे। मैं उनके साथ था
बल्कि उन्हें चलने के लिए भी मेरी इजाजत लेनी होती थी। पापाजी एक—एक चीज दिखा रहे
थे जिन्हें देख स्वामी गददग हो रहे थे। मुझे सब अच्छा लग रहा था इसी तरह पूरे घर
में घूमने के बाद स्वामीजी छत पर गये ओर छत पर टेरिस गार्डन को देख कर तो वह
हतप्रभ रह गये। वहां उगे एक—एक पैड़ पौधे के बारे मे स्वामी जी से पूछते रहे। ओर
तब मैं देख रहा था स्वामी एक छोटे से पेड़ से कुछ तोड़ कर खा रहे थे। मैं उनके
मूंह को देखे जा रहा था। कि वह क्या खा रहे ह। तब उन्होंने मुझसे कहा पोनी तु भी
खायेगा। ओर एक टुकड़ा उन्होंने मेरे मुख में डाल दिया। मेरा सारा मुख खटास से भर
गया। ओर मैंने एक हलकी सी थनथनी ली। यह देख कर सब हंसने लगे। परंतु में सोच रहा था
कि स्वामी जी तो इस फल को कितने आनंद ले कर खा रहे थे। जैसे कोई मिठाई खा रहे है।
वह फल नारंगी थी।
सब ने फिर ध्यान किया पिरामिंड में
उस दिन तो गजब हो गया। वैसे तो परिमिंड में जाना ही एक चमत्कार है परंतु ये तो
सोने पर सुहागे वाली बात हो गई। उस दिन मुझे कितना अच्छा लग रहा था आप लोगों को
शब्दो में बता नहीं सकता। नींद की गहराई ओर जागरण ये क्षणांत में घटित होता था।
पहले इस पर मैं बहुत गर्व करता था। कि मैं कितना गहरा सोता हूं जब सोता हूं तो बस
सोता हूं बहार कोई पकड़ नहीं होती। ओर जब कोई घंटी या बाहर की ध्वनि गहरे से बहार
लती है तो पल में खड़ा हो जाता हूं। परंतु पापा या किसी दूसरे को मेंने इतनी जल्दी
उठते नहीं देखा उनके चहेरे पर एक खमोशी से निरवता एक छदमसा कोहरापन फेला ही नहीं
भरा पड़ा था। एक तमस चेहरे पर फैली होती है। सोने से उठने के बाद पापा जी का चेहरा
ओर आंखें भी गहरे में अभी सोई ही होती है। परंतु मैं पल में उठ जाता था। परंतु आज
न जाने क्या हो गया। जब ध्यान में लेटा था तो इतना गहरा नहीं जा पा रहा था। एक
झिना सा पर्दा रोके हुए था लोरी की तरह से। मैं लाख आपने को भूलने की कोशिश कर रहा
था ओर चला जाना चाहता था अचेतन में जहां कोई नहीं हो में भी न हूं। वहीं तो सुखद
नींद होती है। परंतु आज तो एक जागरण डूबने ही नहीं दे रह है। जैसे पानी में आप
लेटे है ओर वह अपने स्वभाव के विपरीत आपको उपर फैके जो रहा है। आप चाह कर गुपची
लगा कर डूब नहीं पाते बार—बार उपर तल पर आ जाते हो। वह निभारता आपको सुखद तो लगेगी।
परंतु पहली बार जब आपको उसका अनुभव नहीं तो अपने परेशान हो जाओेगे। यहीं परेशानी
मेरी थी।
ध्यान के बाद सब उठ रहे थे। मैं
अंदर से महसूसकर रहा था। ओर अपने चिर परिचित अंदाज में एक झटते से उठना चाह रहा
था। ताकी दरवाजा खुले ओर सबसे पहले में निकल जाऊ कही अंदर बंद
रह गया तो कैसे निकलुगा। ये मेरी अपनी समझ थी क्योंकि आप मुझे कितना ही बुद्धु
कहें परंतु मैं अपने से समझदार किसी को मानता नहीं आपको मेरी बात सून का धक्का
लगे या बुरा लगे पर हकीकत यही है। परंतु आज उठा ही नहीं जा रहा था। किसी तरह से हिम्मत
कर के उठा। लेकिन समय है की समझ के परे होता जा रहा था। मेरे जीवन का ये पहला
अनुभव है जैसे या तो आप घर में है या गली में आप दहलीज पर खड़े नहीं रह सकते। ओर
कोई रह सकता हे ये में नहीं जानता परंतु मैं तो इससे पहले कभी रहा था। वहां पर
ठहरना एक कला है। एक थिरता है एक संतुलन है।
स्वामी जी जब जा रहे थे तो मैं निरीह
आंखों से उन्हें देख रहा था। पापा जी मम्मी जी के रहते मुझे इससे पहले कोई ओर
नहीं चाहिए था। उन दोनों में ही मेरी पूर्णता थी। परंतु स्वामी जी का संग साथ इन
कुछ ही घंटो में इस घर से बहुत भारी पड़ रहा था। यहां 7—8 साल रहने पर भी अगर आज
अभी मुझे कोई कहे की आपको कौन चुनना है तो सच कहु मैं स्वामी नरेन्द्रबोधीसत्व के
संग चला जाता। चाहे आप मुझे ऐहसान फरामोश ही क्यों न समझे। परंतु सच उनके संग साथ
की वो तरंगे अभुतपूर्व थी। आज न कुछ खाने को मन कर रहा था पूरा शरीर एक अद्भुत
खुशी से भरा हुआ था। स्वामी जब चले गये तो मन किसी उदासी ने नहीं घेरा। परंतु
उनके जाने के बाद भी एक पसन्नता भरी रही। मैं दूर तक उन्हें गली में जाते देखता
रहा। पापाजी स्वामीजी को छोड़ने के लिए जा रहे थे दीदी अपना बैग लिए साथ थी वह
दूर गली के नुक्कड पर खड़ी होकर हाथ हिलाने लगी। तब सब रूक गये ओर मुझे देखने
लगे। मेरा मन भर आया मेरे पास मम्मी जी थी। उन्होंने इस तरह से खोया—खोया देख कर
मुझे अपने सिने से लगा लिया। मैंने भी अपनी आंखें बंद कर ली ओर मां के आँचल में
भूल गया सारे संसार को। कितने दिन तक मन उन लहरों में गोते खाता रहा हिलोरे लेता
रहा। डूबता उतरता रहा।
स्वामीजी के जाने के बाद कुछ ही
दिन में उनके संग का प्रभाव गायब हो गय। अब मुझे ये देख कर अचरज हो रहा था क्या
हो गया था मुझे क्या स्वामी जी उर्जा ने मुझे अपने बस में सम्मोहित कर लिया था।
कुछ लोग जीवन में इसी तरह के बहाव में बह जातो हे ओर उसे प्रेम समझते होगे ओर कुछ
ही दिन में जब उर्जा का प्रभाव खत्म होगा तो बाद में पश्चाप करते होंगे ओर जीवन
फिर कलह कलेश से भर जाता होगा। अब मुझे समझ में आ रहा था मैं कैसे स्वामी जी
उर्जा में बह रहा था। ओर अब वही फैसला करने के लिए कहा जाये तो मैं हजार बार मना
कर दूंगा की पापा मम्मी जी को तब भी नहीं छोडु चाहे कोई मुझे सारी दूनिया ही क्यों
ने दे दे।
परंतु ऐसा नहीं है स्वामी का यहां
आना निरर्थक गया। वो संग साथ ध्यान के वे क्षणिक पल जीवन में कुछ ऐसा दे गये
जिनके बारे में शब्दों में नहीं कहा जा सकता। उस दिन स्वामी जी के संग जो ध्यान
करने के बाद ध्यान का आयाम ही बाद गया। वहीं पिरामिंड था परंतु उसकी सुगंध उसकी
सब तरंगे ही पूर्णरूपसे बदल गई मानों स्वामी जी की उर्जा इतनी सघन थी की अभी भी
वहां भरी खड़ी है। आप अंदर गये नहीं ओर उसके द्वारा घेर लिये जाओगे। अब मेरी नींद
भी कुछ अजीब तरह की होने लगी थी। पहले जैसी गहराई तो थी परंतु उसके बीच एक पतला सा
जागरण का तार हमेशा बना रहता था। ओर दूसरी बात जो मुझे बीच में सपन आने लगे थे वह
टूकड़ो में टूटने लगे थे। जैसे ही सपना शुरू होता ओर मैं उसे देख रहा होता वह टूट
जाता। ये पता नहीं क्यों हो रहा था। इस
तरह से जैसे आप पर्दे पर एक चित्र देख रहे है ओर वह पर अचानक प्रकाश कर दिया जाये
तो चित्र भी चलता रहेगा ओर प्रकाश के कारण वह थोड़ा धूंधला हो जायेगा। अच्छा भी
लगता क्योंकि ये नया अनुभव था। ओर जब ध्यान के बाद उठता तो कितनी सहजता से चेतना
शरीर पर आ रही होती ओर उसके बाद भी मैं लेटा रहता। कितना सुखद लगता है आप अपने
मालिक बन रहे है। बीच दहलीज पर खड़े है ओर आपकी मर्जी है आप चाहे तो वहां खड़े रह
सकते है। ओर चाहे घर के बहार जा सकते है। लेकिन इसमें ऐसा नहीं था कि मैं दहलीज पर
घंटो खड़ा रहा सकता था केवल मिनटो का अधिकार था। पहले जब में पापा मम्मी या किसी के
चेहरे पर फैली तमस को देखता तो अपने पर बहुत
गुमान होता था ओर अब है कि मुझे वो लुभा रही है। हमारी समझ ही कितनी है बहुत
छोटी.....सी मैं कई बार आँगन में बैठा होता ओर चिंटियों को आते जाते देखता तो
सोचता इनका संसार तो कितना छोटा है। अगर एक चींटी को पकड़ कर जंगल में ले जाया
जाये तो वह यहां कभी नहीं आ सकती या वो कभी देख सोच भी नहीं वहां एक दूकान है वहां
एक जंगल है। बस क्या हम सब इसी में नहीं घीरे ओर इसे ही हम बहुत ज्ञान समझते है।
अब भुआ जी कहां से आती है ओर कहा जाती है इस बात का मुझे भी कुछ पता नहीं। तब मैं
आपने को ज्ञानी समझा तो मुझे अपने पर हंसी आने लगती। ये बात मुझ पर या चींटियों पर
ही नहीं प्रत्येक प्राणीपर लागू होती होगी।
अब जब से स्वामीजी आये है मुझे इस
लेटे रहने का राज पता चला है। अब में इसमें खोया रहता हूं। अंदर ही अंदर जब आप
लेटे है ओर तब आप कुछ तो देखेगे। तो क्या देखेगे। मैं अंदर ही अंदर अपने को देखता
रहता। कहां मैंरे पैर है। कहां नाखुन है कहां पर अब मख्खी बैठी या कुछ चींटी चढ़ी
कहां मेंरा मुख है ओर कहां मेरे कान है। ये सब देखते—देखते मुझे एक नया अनुभव होना
शुरू हो गया। मुझे अपना शरीर अंदर से बहुत बड़ा ओर दूर दिखाई देने लगता। लगता है
मेरे शरीर का विस्तार हो गया है। इस सब के अलावा जब ओशो जी के प्रवचन चल रहे होते तो उन्हें सुनता तो
वह ध्वनि मुझे कान से न सुनी जाने के अलावा कहीं पूरे शरीर में छू रही होती ओर
मेरा पूरा शरीर उस घ्वनि से घिरा होता। पहले वह ज्यादा से ज्यादा मेरे मस्तिष्क
को या कान को भेदती थी।
ओर वह एक प्रकार का आयतन बना लेती
ओर में उसमें अंड़े की तरह से बंद हो जाता था। कितनी ही बार तो मुझे लगता में कैद
में फंस गया हूं। या मुझे जकड़ कर दिया गया है। लेकिन वह बंदर एक मुक्ति का ऐहसास
देता। मेरा शरीर तो जडवत एक मृत हो पड़ा रहता लेकिन में फिर भी अंदर कहीं अपने को
मुक्त महसूस करता। तब तो मैं उसमें डूबा ही रहता ओर ज्यादा से ज्यादा उस संग का
आनंद लेता। अब ध्यान के अंदर जब लेता होता था तो एक समय मुझे भय लगता था। ओर मैं
डर के मारे कांपने लग जाताथा। ओर रोना शुरू कर देता इस तरह से तब पापा जी को या तो
वह संगीत बंद करना पड़ता या उसे कम करना पड़ता या मेरे शरीर पर हाथ फेर कर संतावना
देना होता। इस बात का मुझे दुःख भी होता कि मेरी वजह से सब का ध्यान खराब हो रहा
हे परंतु इस ध्यान का लालच तुझे अंदर खिचे जे जाता था।
लेकिन स्वामी जी के आने के बाद वह
भय न जाने कहां कफूर हो गया। अब वही संगीत बजता ओर में उसे मस्त सुनता रहा सुनता
ही नहीं उसमें डूबता उतरता रहता। अब ही तो ध्यान का पड़ाव शुरू हुआ है। इतने दिन
से तो उसकी खुदाई हो रही थी। तब मेरी समझ में आ रहा था कि जब में उस गहरे कुए में
झांक कर देख रहा था ओर सोच रहा कि कैसे उन लोगों को पता चलता होगा की यहां पर पानी
है। चारों ओर तो केवल मिट्टी ओर पहाड़,जंगल,झाड आदि ही है। सच उस आदमी के सहास ओर संकल्प की दाद देनी होगी। जिसने
पहली बार कुए का आविष्कार किया होगा। ओर ध्यान भी क्या इसी तरह की खुदाई नहीं
है। हम खोदते है तब उनके कहीं भय कहीं, पीड़ा, कहीं दूख ही मिलता है शांति का जल तो बहुत गहरे में होता है....उसके लिए
तो अंनत खुदाई करनी होती है। तो इतने लोग यहां ध्यान करने आये ओर चले गये क्या
सब को उस शांति रूपी जल का स्वाद मिल गया होगा। मुझे नहीं लगता । वह बीच में पत्थर
मिट्टी से घबरा कर भाग गये। नहीं भागे तो पापा मम्मी तब तो उन्हें उस जल का स्वाद
जरूर मिल गया हो। स्वाद ही नहीं मिला होगा वह तो उस में अब गोते लगाते होंगे। ओर
सोच कर मैं उठा ओर मम्मी ओर पापाजी के सामने जाकर बैठ गया ओर उनके चेहरे ओर आंखों
को देखने लगा। कि क्या सच ही उन्हें वह स्वाद मिल गया......ओर वो मुझे इस तरह
से अपनी ओर देखता देख कर हंसने लगे। तब पापाजी कहा की देखो पोनी अब गुरु होने
वालाहै।
ओर सच मैं यही सोच रहा था। मेरे मन
की बात पापा जी ने पकड़ ली तो मैं झेप गया ओर झुक कर बैठ गया ओर अपनी आंखें नीची
कर ली। चारों ओर खुशी का ठहका गुंजगया ओर में अपनी मुर्खता
पर हंसा भी ओर शर्माया भी।
आज इतना ही ......पोनी का सब को प्रेम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें