शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--206

समाधान और समाधि—(प्रवचन—आठवां)

अध्‍याय—18
सूत्र——

मुक्ततङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्विक उच्यते।। 26।।
रागी कर्मफन्सेप्सुरर्लब्‍धो हिंसात्क्कोऽशुचि:
हर्षशक्रोन्वित: कर्ता राजस: परिर्कीर्तित:।। 27।।
अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस:।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्‍यते।। 28।।

तथा हे अर्जुन, जो कर्ता आसक्‍ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष— शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्‍विक कहा गया है।
और जो आसक्‍ति से युक्‍त कर्मों के कल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष— शोक से लिपायमान है, वह कर्ता राजस कहा गया है।
तथा जो विक्षेपयुक्‍त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, धमंडी, धूर्त और दूसरे की आजीतिका का नाशक एवं शौक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह कर्ता तामस कहा जाता है।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : आपको सुनने से जो समाधान मिलता है, वह स्थायी रहे, इसके लिए जी तड़पता है। इस तड़पन में यदि मृत्यु घटित हो जाए, तो क्या वह समाधि नहीं होगी? भगवान महावीर ने तो ऐसी मृत्यु की इजाजत दी है। क्या आप वैसी इजाजत नहीं दे सकते?

 प्रश्न को तीन हिस्सों में समझें।
पहला, आपको सुनने से जो समाधान मिलता है, वह स्थायी रहे, इसके लिए जी तड़पता है।
समाधान मिलेगा, तो स्थायी होगा ही। उसके लिए जी को तड़पाना व्यर्थ है। समाधान न मिलता हो, तो ही स्थायी करने की आकांक्षा पैदा होती है। जो बात समझ में आ गई, आ गई; उसे मूलने का उपाय भी नहीं। उसे तुम चाहोगे भी कि छूट जाए, तो छूटेगी नहीं। जो बात समझ में नहीं आई, उसे ही पकड़ने की चाहना पैदा होती है, क्योंकि उसके छूटने का डर है। समाधान नहीं मिलता होगा, सांत्वना मिलती होगी। और तुम भूल कर रहे हो।
मुझे सुनकर सांत्वना मिलती होगी, तब तो छूट जाएगी। जब तक सुनोगे, तब तक मिलेगी। क्योंकि जो मुझे सुनकर सांत्वना मिलती है, वह मेरे शब्दों से मिल रही है। मेरे शब्दों के आस—पास तुम्हारे मन का एक अलग रूप प्रकट होने लगता है। थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो संसार को, व्यवसाय को, जीवन की चिंता, आपा— धापी को। थोड़ी देर को तुम मेरे पास शात होकर बैठ जाते हो, थोड़ी देर तुम मुझे प्रतिध्वनित करने लगते हो।
लेकिन वह ध्वनि तुम्हारी नहीं है, वह ध्वनि मेरी है। वह जो तुम्हें आभास होता है, वह प्रतिफलन है। मुझसे दूर हटोगे, प्रतिफलन छूटने लगेगा। घर पहुंचते—पहुंचते पाओगे, वापस संसार में आ गए। वही चिंता है, वही पीड़ा है, वही अशांति है, वही उपद्रव है। तब एक सवाल उठेगा। तुम सोचोगे, समाधान मिला था, लेकिन स्थायी नहीं हुआ।
समाधान तो स्थायी ही होता है। समाधान तो परिवर्तित होता ही नहीं। यह सांत्वना थी। जैसे तुम किसी बड़े वृक्ष की छाया में बैठ गए। वहां धूप तुम पर न पड़ी। फिर तुम यात्रा पर निकले। फिर धूप तुम पर पड़ने लगी।
मेरे पास तुम एक छाया में बैठ जाते हो। उतनी देर को छाया मिल जाती है। वह छाया तुम्हारी नहीं है। उससे तुम्हें विश्राम तो मिल सकता है, लेकिन वह तुम्हारी जीवन—संपदा नहीं बन सकती।
समाधान का अर्थ है, जो मैं कह रहा हूं उसका प्रतिफलन नहीं, बल्कि जो मैं कह रहा हूं उसकी समझ तुम्हारे भीतर हो रही है। तुम मुझे सुन रहे हो, सिर्फ बुद्धि से नहीं, तुम्हारी समग्रता से, तुम्हारा रोआं—रोआं सुन रहा है। तुम्हारी धड़कन— धड़कन सुन रही है। सुनते समय तुम बिलकुल ही मिट गए हो। ऐसा नहीं कि संसार को भूल गए हो, सुनते समय तुम हो ही नहीं, तुम एक रिक्त शून्य हो; तो समझ पैदा होगी।
तब मुझसे दूर जाओगे, तो समझ घटेगी नहीं, बल्कि बढ़ेगी। वैसे ही बढ़ेगा, जैसा छोटा पौधा बड़े वृक्ष के नीचे नहीं बढ़ पाता है। थोड़ा उसे दूर जाना पड़ता है, थोड़ा हटना पड़ता है।
मुझसे दूर जाओगे, समझ बढ़ेगी, क्योंकि संसार में कसौटी मिलेगी। वहां परीक्षा होगी समझ की। वहा अवसर होंगे, जब कि समझ खो सकती थी और नहीं खोएगी। भरोसा बढ़ेगा; पैर जमीन पर थिर हो जाएंगे; आस्था गहन होगी। और वह आस्था मुझ पर गहन नहीं होगी; वह आस्था तुम्हारी अपने पर गहन होगी। और जब तक तुम्हें अपने पर आस्था न आ जाए, तब तक यह डर बना ही रहेगा कि जो समझ है, वह उधार है, वह कहीं खो न जाए। तो पहली तो बात सांत्वना को कभी भूलकर भी समाधान मत समझना। सांत्वना ऊपर—ऊपर है। वह किसी और के कारण है, तुम्हारे कारण नहीं है। समझ तुम्हारे कारण पैदा होती है, उसका बीजारोपण तुम्हारे भीतर होता है। वह तुम्हारे भीतर बढ़ती है। वह तुम्हारी चेतना का विकास है।
समाधान तुम्हारी अपनी संपदा है, सांत्वना किसी और की संपदा है। ऐसे ही, जैसे किसी के पास बहुत संपदा हो और तुम उस संपदा की गिनती करते रहो और भूल जाओ कि यह तुम्हारी है या तुम्हारी नहीं है।
बुद्ध ने कहा है, एक आदमी राह पर बैठकर दूसरे लोगों की गाय— भैंसों की गिनती करता रहता है। वे निकलती हैं सांझ, घर वापस लौटती हैं, सुबह नदी की तरफ जाती हैं। वह उनकी गिनती करता रहता है।
उस गिनती का क्या मूल्य है! उस गिनती में थोड़ी देर तुम भूल सकते हो कि तुम दरिद्र हो, कि तुम दीन हो। भिखारी भी सम्राट के महल के सामने खड़े होकर थोड़ी देर को भूल जा सकता है, चमत्कृत हो सकता है। लेकिन देर— अबेर यथार्थ प्रकट होगा, भिक्षापात्र दिखाई पड़ेगा। तब सांत्वना खो जाएगी।
सांत्वना किसी बहुत गहरे काम की नहीं है। समाधान की फिक्र करो। समाधान का अर्थ है, जो मैं कह रहा हूं उसके काव्य में नहीं, जो मैं कह रहा हूं उसके संगीत में नहीं, बल्कि उसके अर्थ में ड़बो। और उसके अर्थ को अपने में गहराओ। जो मैं कह रहा हूं उसे जीवन में कसो, उसे उतारो। जब मौका मिले, तभी घड़ी है पहचान की कि सांत्वना है या समाधान है।
क्रोध के संबंध में मैंने तुमसे कहा कि जागकर क्रोध को देखना। भाषा तो समझ में आ गई, लेकिन जागकर देखना थोड़े ही समझ में आ गया। मैंने जो कहा, वह शब्दशः समझ में आ गया, लेकिन अर्थश: थोड़े ही समझ में आया।
घर जाओगे, पत्नी कुछ कहेगी, क्रोध की अग्नि उठेगी, भभकेगी, तब जागकर देखना। वहां असली कसौटी है। सांत्वना तो जल जाएगी, समाधान निखरकर प्रकट होगा। सांत्वना तो राख हो जाएगी, कूड़ा—कर्कट है। समाधान शुद्ध स्वर्ण की तरह बाहर आ जाएगा। अग्नि में ही कसौटी है।
इसलिए तो मैं कहता हूं कि भागो मत संसार से। समझो बुद्धों से, जीओ संसार में। समझ लो उनसे, ले लो सारसूत्र, पर कसौटी बाजार में है। ध्यान की परीक्षा हिमालय में नहीं है, बाजार में है। नहीं तो तुम सुनते—सुनते खो भी जा सकते हो। सुनते—सुनते ही तुम्हारे मन में यह एहसास और भ्रम पैदा हो सकता है, समझ गए। तब तुम एक बड़ी विडंबना में पड़ जाओगे। जो नहीं है तुम्हारे पास, समझोगे, तुम्हारे पास है। ऐसे वर्ष खो सकते हैं। जीवन बहुमूल्य है, ऐसे मत खोना, सांत्वना बटोरने में मत खोना। क्योंकि गए क्षण वापस नहीं लौटते हैं।
तो पहली तो बात, सुनकर तुम्हें जो मिलता है, वह सांत्वना है, समाधान नहीं। इसीलिए उसे स्थायी बनाए रखने की कामना पैदा होती है, क्योंकि वह छूट—छूट जाता है। सांत्वना को स्थायी बनाया ही नहीं जा सकता। तब तुम क्या करो?
कामना की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ समाधान खोजने की जरूरत है। समाधान खोजने का मार्ग है, जो मैं तुमसे कहता हूं उसे जीवन की परिस्थितियों में कसो। उसे मौके दो कि वह टकराए तूफानों से, आंधियों से। कई बार दीया बुझेगा। घबड़ाने की जरूरत भी नहीं है। लेकिन कभी ऐसी घड़ी आएगी कि तूफान चलता रहेगा और दीया नहीं बुझेगा। बस, उसी दिन समाधान मिला। कभी ऐसी घड़ी आएगी, आंधिया उठेंगी और भीतर कोई कंपन न आएगा। उसी दिन समाधान आया।
समय लगता है। समाधान कोई बच्चों का खेल तो नहीं; बड़ी प्रौढ़ता है, बड़ा आंतरिक विकास है। समाधान ही तो अंततः समाधि बनेगा। वह तो समाधि की तैयारी है तुम्हारे भीतर। समाधान समाधि के भवन की नींव है। सस्ते मिल नहीं सकता। मुझे सुनने से कैसे मिल जाएगा? कितने बुद्ध पुरुष हुए हैं! कितने लोगों ने सुना है! सुनकर अगर कुछ होता, तो दुनिया रूपांतरित हो गई होती। उस भूल में तुम मत पड़ना।
नहीं, वह आत्मा न तो प्रवचन से मिलती है, न शास्त्रों से, न बहुत सुनने से। नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यों, न मेधया, न बहुधा श्रुतेन। कितना ही सुनो, सुनकर वह नहीं मिलेगा।
क्या मैं यह कह रहा हूं कि सुनना बंद कर दो? नहीं, यह भी मैं नहीं कह रहा हूं। सुनो, लेकिन सुनने से वह नहीं मिलता। जीओ! सुनने से सूत्र मिलते हैं जीने के, जीने से समाधान मिलता है। सुनने और जीने के बीच जो फासला है, वही सांत्वना और समाधान के बीच दूरी है।
और समय को खोओ मत, अन्यथा पीछे पछताओगे। जब मैं हूं तूम्‍हारे साथ, तुम्हें कुछ सूत्र दे रहा हूं, इनका उपयोग कर लो।
एक बहुत पुरानी अरेबियन कथा है कि तीन यात्री तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। धूप भयंकर थी। मरुस्थल का सूर्य! दिन को चल नहीं सकते थे। तो दिनभर तो विश्राम करते थे, रात की शीतलता और ठंडक में यात्रा करते थे। एक अमावस की रात, घनघोर अंधेरा है। कहीं कुछ सूझता नहीं। वे एक ऐसे स्थल से गुजर रहे हैं, जहां बड़े कंकड़—पत्थर हैं। कोई सूखी नदी का स्थान है।
अचानक अंधेरे से एक आवाज आई, रुको! घबड़ाकर रुक गए। प्राण कैप गए। कौन होगा इस अंधेरे में! और उस आवाज ने कहा, घबड़ाओ मत, झुको। झुक गए। जब आज्ञा थी और कोई खतरा लेना अंधेरे में उचित न था। शायद अब गर्दन पर उतरी तलवार, अब उतरी। लेकिन आवाज ने कहा कि कंकड—पत्थर बीनो और खीसों में भर लो। बात जरा बेहूदी—सी लगी। किसी प्रयोजन की न मालूम पड़ी। लेकिन न कहना उचित भी न था। अंधेरे में पता नहीं कौन है, क्या है। कंकड़—पत्थर खीसों में भर लिए। उस आवाज ने कहा, अब उठो और अपनी यात्रा पर चलो। और कहीं भी पास पड़ाव मत करना, और सुबह के पहले ठहरना मत।
वे चलने लगे, घबडाए हुए, कंपित। चलते—चलते आवाज ने कहा, और तुमसे कहे देता हूं सुबह तुम सुखी भी होओगे और दुखी भी। रातभर चलते रहे और सोचते रहे, मतलब क्या है! प्रयोजन क्या है! और सुबह तुम सुखी भी होओगे और दुखी भी। यह सुबह कौन—सा उपद्रव ला रहा है!
सुबह हुई; सूरज उगा। रुके। कंकड़—पत्थर निकालकर देखे। खुश भी हुए, रोए भी। क्योंकि वे कंकड़—पत्थर न थे, हीरे—जवाहरात थे। खुश हुए कि इतने हीरे—जवाहरात मुफ्त मिल गए। रोए कि और क्यों न भर लिए।
मेरे साथ हो जब तक, जितना समेट सको, समेट लो। अन्यथा एक दिन खुश भी होओगे और दुखी भी।
सांत्वना काफी नहीं है। उस मोह से ऊपर उठो। समाधान जरूरी है। और समाधान का अर्थ है, जो मैं कहता हूं वह तुम्हारे जीवन में उतरे। और मजा यह है कि कठिन नहीं है, अगर तुम उतारना शुरू करो। एक —एक कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन तुम बैठे ही रहो यह सोचते कि हजारों मील की यात्रा, मेरी दुर्बल देह, छोटे पैर, कहां पूरा करूंगा! तुम पहला कदम ही न उठाओ, तब तो छोटी—सी यात्रा भी पूरी नहीं होती।
दुर्बल देह है माना। पैर छोटे हैं माना। एक कदम ही चल सकोगे एक दफा माना। लेकिन एक—एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
सांत्वना से उठो, समाधान की तरफ चलो। छोटे—छोटे कदम होंगे, लेकिन मंजिल आ जाती है।
धर्म नष्ट हो जाता है सांत्वना में ही, तब धर्म एक अफीम का नशा है। मार्क्स ने ठीक ही कहा है कि हजारों लोगों के लिए धर्म अफीम का नशा है। ठीक भी कहा है और इससे गलत बात भी कभी नहीं कही गई।
ठीक कहा है, जहां तक नौ सौ निन्यानबे लोगों का संबंध है। उन्होंने धर्म को सांत्वना समझ लिया है। तब वह अफीम है, तब तुम पीओ और मस्त रही। कुछ फल नहीं होता, सिर्फ जीवन व्यय होता है, व्यर्थ होता है; नाली की धार में बहा जाता है। गंवाते हो, कमाते कुछ भी नहीं। नौ सौ निन्यानबे आदमियों के संबंध में मार्क्स ने जो कहा है, बिलकुल ठीक कहा है, धर्म अफीम का नशा है।
लेकिन हजार में एक आदमी ऐसा भी है, जिसके लिए मार्क्स ने गलत कहा है। और वह एक आदमी काफी है मार्क्स को गलत करने के लिए। उसके लिए धर्म परम जागरण है, नशा नहीं, होश है। और वही असली आदमी है, जिसके द्वारा धर्म का सार समझा जाना चाहिए। नौ सौ निन्यानबे उपयोग ही नहीं कर रहे हैं। भूल उनकी है, धर्म की कोई भूल नहीं है।
धर्म तो जगाने को है। लेकिन तुम धर्म की चर्चा सुनते—सुनते सिर्फ नींद ही लेते रहो, तो कसूर किसका है!
सांत्वना से सजग, पहली बात। और दूसरी बात, स्थायी करने की बात ही मत उठाओ। वह कामना ही गलत है। उसका मतलब है कि तुम इस क्षण में नहीं हो; आगे जा चुके। तुम कल की सोचने लगे। समझ आज पैदा होगी। तुम कल का विचार करते हो कि स्थायी कैसे हो जाए।
एक मेरे मित्र हैं। वे यहां आते हैं। डाक्टर हैं, सुसंस्कृत हैं। उनको मैं कुछ कहता भी नहीं, क्योंकि वे बड़े संकोची आदमी हैं। कहूंगा, उनको दुख होगा। वे ऐसा बैठकर, झुककर नोट लेते रहते हैं। उन्हें पता है कि मैं इसके पक्ष में नहीं हूं। यह भी पता है कि मुझे पता है, क्योंकि वे मुझसे छिपते हैं और अपनी डायरी छिपाए रहते हैं। उनका इरादा क्या है? वे यह सोच रहे हैं कि कहीं भूल न जाए जो सुन रहा हूं? तो उसे नोट कर रहे हैं।
मगर मुझे सुनते वक्त समझ में न आया, तो अपनी डायरी को घर जाकर पढ़ते वक्त क्या खाक समझ में आएगा! यहां मैं जिंदा बोलता हूं, वहा डायरी मुर्दा होगी। मगर यह उनकी ही भूल है, ऐसा नहीं है। करोड़ों की भूल है।
सदगुरु जीवित होता है, उसकी तो लोग फिक्र नहीं करते। जब शास्त्र बन जाता है सदगुरु का, जब डायरी लिखी जा चुकी होती है, तब विचार करना शुरू करते हैं।
तुम भी कृष्ण के समय में रहे होओगे। अन्यथा होने का उपाय नहीं है, क्योंकि जो भी है, वह सदा से है। तब तुम चूक गए। अब तुम गीता पढ़ रहे हो। तुम बुद्ध के समय में रहे होओगे, तब तुम चूक गए। अब तुम धम्मपद पढ़ रहे हो। तुमने मोहम्मद की वाणी से भी कुरान सुना होगा, लेकिन वह तुम्हारे कंठ न उतरा। अब तुम कुरान कंठस्थ कर रहे हो। जान दाव पर लगाए देते हो।
क्या मामला है? तुम अभी क्यों नहीं जी पाते? वही एकमात्र ढंग है जीने और होने का और समाधान का।
मैं जो कह रहा हूं, उसे समझो। स्थायी करने की क्या चिंता है? एक बात खयाल रखो, अगर समझ गए, तो स्थायी रहेगा, इसलिए विचार करने की जरूरत नहीं। अगर न समझे, तो लाख विचार करो स्थायी करने का, स्थायी नहीं रह सकता। उतर जाए तुम्हारे मांस—मज्जा में, तुम्हारे प्राणों में, ऐसा गहरा पहुंच जाए कि तुम उससे छुटकारा भी पाना चाहो तो न पा सकी, तुम उसे भुलाना भी चाहो तो न भूल सको। भूलोगे कैसे?
मेरा अपना अनुभव यह है कि जो समझ में आ जाता है, फिर भूलता नहीं। और अगर भूलता है, तो उसका मतलब इतना ही है कि समझ में आया नहीं था।
तुमने जो भी स्कूल में, कालेज में, विश्वविद्यालय में पढ़ा होगा, वह समझ में तो कभी आया ही न था। और विश्वविद्यालयों में किसी को चिंता भी न थी कि तुम्हें समझ में आए। उनकी चिंता थी कि परीक्षा में काम आ जाए, बस। इतनी देर समझ रह जाए, काफी है। इतनी देर टिक जाए याददाश्त, पर्याप्त है, कि तुम परीक्षा में उत्तर लिख दो; बस। फिर तुम भूल जाना।
इससे ज्यादा और मूढ़तापूर्ण क्या दशा हो सकती है शिक्षा की कि सिर्फ परीक्षा के लिए सब सिखाया जा रहा है। परीक्षा के बाद परीक्षार्थी को कोई फिक्र नहीं कि उसमें से कुछ याद रहता है कि नहीं रहता। कितना समय व्यतीत और व्यर्थ खराब होता है!
थोड़ी ही बातें समझ लो, पर समझ लो, ताकि वे तुम्हारे प्राणों का हिस्सा हो जाएं। तो उनका दीया जलता रहेगा, अंधेरे रास्तों पर रोशनी मिलेगी। और जब जीवन की दुर्गंध तुम्हें घेरने लगेगी, तो तुम्हारे भीतर की सुगंध तुम्हें बचाएगी। और जब रास्ते के कांटे तुम्हारे पैरों में चुभेंगे, तो भीतर के फूल तुम्हें सुरक्षा देंगे।
समझ सूत्र है, संसार से पार होने का। वही नाव है, वही एकमात्र उपाय है। सांत्वना के झूठे सिक्कों से राजी मत हो जाना। सांत्वना अफीम है। धर्म सांत्वना नहीं है। धर्म समाधि है, जागरण है।
दूसरी बात, इस तड़पन में यदि मृत्यु घटित हो जाए, तो क्या वह समाधि नहीं होगी?
तड़पन में तो समाधि हो ही कैसे सकती है! समाधान ही नहीं होगा, समाधि तो बहुत दूर। हजारों समाधान मिलकर समाधि बनती है। जैसे हजारों नदियां गिरकर सागर बनता है, जैसे हजार—हजार वृक्ष मिलकर अरण्य बनता है, ऐसा हजारों समाधान मिलकर समाधि बनती है। अनेक—अनेक मार्गों से, अनेक— अनेक आयामों से समाधान की नदियां गिरती हैं तुम्हारे प्राणों में और एक ऐसी घड़ी आती है, जहां तुम लबालब हो जाते हो, भरपूर हो जाते हो, इतने भर जाते हो कि तुम उलीचने लगते हो, बांटने लगते हो, तब समाधान समाधि बनता है।
नहीं, तड़पन से काम न होगा। तड़पन तो रुग्ण दशा है, वह तो भिखारी की अवस्था है, जिसके हाथ में कुछ भी नहीं है, जो रो रहा है, पता रहा है। जब तक मांग है, तब तक समाधि कैसी? जब तक आंखों में आंसू हैं, तब तक दर्शन कैसा? दृष्टि कैसी? जब तक हृदय में तड़पन है, तब तक तूफान है, शांति कहां! वह संगीत कहां, जिससे परम का साक्षात हो सके!
नहीं, अगर तड़पते हुए मरोगे, तो तड़पते हुए फिर पैदा हो।र जाओगे, समाधि नहीं पैदा होगी। तड़पते हुए तुम मरते रहे हो बहुत ः बार, अब भी होश नहीं आया! कभी धन के लिए तड़पते मरे, कभी प्रेम के लिए तड़पते मरे, कभी पद के लिए तड़पते मरे। अब तुम कुछ बदलाहट नहीं कर रहे हो, परमात्मा के लिए तड़पते मरे, लेकिन मर रहे हो तड़पते। वह पुरानी आदत जारी है। विषय बदल जाते हैं, तुम नहीं बदलते।
धन के लिए तड़पो, क्या फर्क पड़ता है! कि धर्म के लिए तड़पो, क्या फर्क पड़ता है! तड़पता हुआ हृदय। ऐसा समझो कि मछली पड़ी है रेत में और तड़प रही है। अब वह पैसिफिक महासागर के लिए तड़प रही है कि हिंद महासागर के लिए, इससे क्या फर्क पड़ता है! तड़प रही है। रेत पर प्राण जल रहे हैं।

 n


र्कंउँँ गीता दर्शन भाग— 8 ऊँ

 तड़पने का मतलब है, जो है, उससे तुम तृप्त नहीं, जो नहीं है, उसकी मांग है। तड़पने का और क्या अर्थ होता है? तुम जैसे हो, उससे राजी नहीं; और तुम्हें जैसा होना चाहिए, जैसी तुम्हारी कामना है होने की, वह पूरी नहीं होती। तड़पने का मतलब है कि तुम्हारे होने में और तुम्हारे होने के आदर्श में फासला है।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि धन के लिए तड़पने वाले आदमी की तड़पन छोटी ही होगी, लेकिन जो आदमी समाधि के लिए तड़प रहा है, उसकी तड़पन तो और भी ज्यादा हो जाएगी। क्योंकि धन तो मिल भी जाए, समाधि?
धन तो कितनों को मिल जाता है, गधों को मिल जाता है। इसमें कुछ तड़पने का बड़ा भारी मामला भी नहीं है। अगर तुममें थोड़ी बुद्धि हो, तो जिनको धन मिल रहा है, उनको देखकर ही तुम अपने हाथ जोड़ लोगे कि अब इस दिशा में जाने की कोई जरूरत नहीं। पद मूढ़ों को भी मिल जाता है। अब उसमें जाने की कोई जरूरत नहीं है। किसी को भी मिल जाता है। जो भी पागल की तरह लगा रहता है, उसी को मिल जाता है। तो अब तुम्हारी कुछ प्रतिभा के लिए वहां कोई चुनौती नहीं है। देखो अपने पदाधिकारियों को, राजनेताओं को। वहां अगर बुद्धि हो, तो अड़चन होती है, बुद्धि न हो, तो बड़ी गति होती है।
मैंने सुना है कि एक मस्तिष्क के सर्जन ने एक आदमी का आपरेशन किया, एक राजनेता का। मस्तिष्क में कुछ खराबी थी। उसने पूरा मस्तिष्क बाहर निकाल लिया। लेकिन कई घंटे लगने थे, तो उसने खोपड़ी वगैरह सीकर राजनेता को सुला दिया। वह अपने काम में लग गया।
लेकिन राजनेता और एक जगह बैठा रहे! उसने देखा, सर्जन काम में लगा है और वह बिलकुल ठीक है, तो वह निकल भागा। सर्जन बड़ा हैरान हुआ। जब मस्तिष्क ठीक हो गया, तो वह आदमी नदारद। बहुत खोजबीन की, उसका कोई पता न चला।
पांच साल बाद पता चला कि वह देश के प्रधानमंत्री हो गए हैं। वह सर्जन उनके मस्तिष्क को लेकर गया कि महाराज, हम खोज—खोजकर परेशान हो गए अब पता चला कि आप प्रधानमंत्री हो गए हैं। उसने कहा, अब तुम यह मस्तिष्क ले ही जाओ। इसी से तो अड़चन हो रही थी। जब से इसको खोया है, तब से ऐसी गति हो रही है।
मस्तिष्क बाधा है कहीं। वहां तुममें थोड़ी बुद्धि हो, तो अड़चन आएगी। थोड़ी समझ होगी, तो अड़चन आएगी। वहां तो नासमझी की गति है। वहां तो अगर तुम देख लोगे शक्लें राजनेताओं की, उनकी सुंदर देहें, उनके चेहरे, तुम भाग खड़े होओगे। धनपतियों की तरफ गौर से देख लो।
नहीं; वह तो शायद पूरी भी हो जाए, धन की, पद की आकांक्षा। वह तड़पन कोई बड़ी तड़पन नहीं है; वह कोई आधी—तूफान नहीं है। वह तो ऐसी ही छोटी—मोटी हवाओं का बहना है। लेकिन

 परमात्मा के लिए तड़पोगे, तब तो रोआं—रोआं कंप जाएगा।
उस कंपते हुए मरोगे, तो समाधि कैसे होगी? समाधि का तो अर्थ होता है, निष्कंप! जीवन की चेतना, जीवन की ज्योति निष्कंप हो जाए। ज्ञानियों ने कहा है, ऐसी जले, जैसे कि किसी घर में द्वार—दरवाजे बंद हों, हवा का कोई झोंका भी भीतर न आता हो, और दीए की लौ अकंप जलती हो, जरा भी न कंपती हो, ऐसी दशा है चेतना की। तड़पते हुए तो कैसे अकंप रहेगी? सब तड़प जब खो जाती है, तभी वह दशा उपलब्ध होती है।
तो यह मत सोचो कि तड़पते हुए मरोगे, तो समाधि हो जाएगी, नहीं। मरने का विचार भी अभी क्या कर रहे हो? इतने थक गए कि अब जीवन में समाधान की आशा नहीं रही। कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।
और ध्यान रखो, जो जीते—जी नहीं घटेगा, वह मृत्यु में भी नहीं घट सकता। मृत्यु तो पूरे जीवन की पूर्णाहुति है, वह तो जीवन का ही निष्कर्ष है। मृत्यु कहीं बाहर से थोड़े ही आती है, तुम्हारे भीतर ही जन्मती है, बड़ी होती है, बढ़ती है। मृत्यु में तुम वही हो पाओगे अपने पूरे निखार में, तुम्हारे जीवन का सारा सार शिखर पर पहुंच जाएगा। वह तो वीणा की आखिरी चोट है, आखिरी झंकार है, वह तो स्वरों का आखिरी आरोहण है। उसके पार फिर कुछ नहीं। लेकिन जीवनभर तुम उसी को इकट्ठा करते हो। जैसे कोई लहर उठती है, उठती है, ऊपर जाती है। वह जो आखिरी ऊंचाई है लहर की, वही मृत्यु है।
तो जो तुमने जीवन में नहीं साधा, उसे तुम मृत्यु में पाने की कामना मत करो। जो तुमने आज नहीं साधा, वह कल तुम्हारे पास कैसे होगा? जो तुमने इस क्षण नहीं पाया, वह अगले क्षण कहां से आएगा?
अगला क्षण इस क्षण से पैदा हो रहा है। कल आज से निकलेगा। मृत्यु तुम्हारे जीवन के भीतर से आएगी। फिक्र छोड़ो, आज के इस क्षण को पूरा जी लो। इसी से कल का क्षण सुधर जाएगा। कल के क्षण से परसों निकलेगा। एक—एक कदम, तुम्हारे भीतर से उठते जाएंगे।
जीवन सम्हलता गया, तो मौत में तुम पाओगे, तुम सम्हल गए। तब मृत्यु शत्रु नहीं मालूम होगी; तब मित्र मालूम होगी। वह जीवन की परम ऊंचाई है। आखिरी उदघोष है। लेकिन जो तुम्हारे जीवन में नहीं, उसे तुम मृत्यु में पाना चाहो, तो तुम नासमझी में हो।
और तुम पूछते हो कि महावीर ने तो मृत्यु की इजाजत दी है, क्या आप वैसी इजाजत नहीं दे सकते?
नहीं, मैं मृत्यु की नहीं, जीवन की इजाजत देता हूं। मैं चाहता हूं तुम जीओ। मैं चाहता हूं, तुम प्रगाढ़ता से जीओ। मैं चाहता हूं तुम इतनी गहराई से जीओ कि मृत्यु भी रूपांतरित हो जाए। तुम्हारे जीने की शैली ही मृत्यु को भी बदल दे। मृत्यु भी तुम्हारे जीवन में समाविष्ट हो जाए। वह कुछ अलग— थलग चीज न रह जाए। वह भी तुम्हारे इस महोत्सव में सम्मिलित हो जाए।
नहीं, मृत्यु पर मेरा जोर नहीं है। मेरा जोर जीवन पर है। और इतने जीवन पर है, इतने प्रगाढ़ जीवन पर है, इतने समग्र जीवन पर है कि मृत्यु उसके बाहर नहीं रह जाती, भीतर समाविष्ट हो जाती है।
और जिस दिन तुम मृत्यु में भी जीते हो, उसी दिन मृत्यु समाप्त हो गई। जिस क्षण मरते समय भी तुम्हारे जीवन की प्रगाढ़ता में कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम्हारे जीवन का संगीत अपने आत्यंतिक स्वरों में बजता है और मृत्यु भी उस महासंगीत में स्वर जोड़ती है, उसी दिन जानना, अब तुम मृत्यु के पार हो गए। वह जीवन की विजय है। मरकर भी न मरना, मरते हुए भी न मरना, वही मृत्यु में अमृत को खोज लेना है।
मेरा जोर जीवन पर है। और मैं तुम्हें किसी भी तरह के पलायन की शिक्षा नहीं देता। न तो मैं तुमसे कहता हूं बाजार को छोड्कर जंगल जाओ। न तुमसे कहता हूं, घर को छोड्कर बेघर हो जाओ। न तुमसे कहता हूं जीवन को उजाड़ो और मृत्यु को आलिंगन करो। नहीं। मैं तुमसे कहता हूं विरोधों के बीच चुनना नहीं है, दोनों विरोधों के बीच एक समन्वय को साधना है।
महावीर ने ऐसी आज्ञा दी होगी, क्योंकि महावीर संसार—विरोधी हैं। उनका संन्यास एकागी है, उनका संन्यास मृत्यु—उन्मूख है। वे कहते हैं, सब बेकार है, छोड़ो। मैं कहता हूं सब इतना बेकार है, छोड़ना भी क्या! छोड़ने में भी तो ऐसा लगता है, कुछ न कुछ सार रहा होगा, तभी तो छोड़ा। नहीं तो छोड़ते? छोड़ने योग्य कुछ भी नहीं है।
महावीर कहते हैं, हटो, यहां सब व्यर्थ है। मैं कहता हूं हटकर भी कहीं जाओगे? जहां जाओगे, तुम तो तुम ही रहोगे। कोई फर्क न पड़ेगा। मैं कहता हूं हटो मत; बदलों। महावीर का आग्रह परिस्थिति के बदलने पर है, मेरा आग्रह तुम्हारी अंतर्स्थिति बदलने पर है। इसलिए महावीर कहते हैं कि अगर जीवन से परमात्मा न सधता हो, तो मर ही जाओ; उसमें कोई सार नहीं है जीवन में। मैं तुमसे कहता हूं, मरकर भी कहां जाओगे? फिर पैदा हो जाओगे। बहुत बार मर गए, अब तक समझ न आई? कितनी बार तुम मर चुके हो, कोई संख्या है! कोई हिसाब है! लेकिन आदमी को समझ आती ही नहीं। अनुभव से आदमी सीखता नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने शादी की। यह कोई सातवीं शादी थी। फिर भी वही बैंडबाजे बजाए। बिलकुल शोभा न देती थी, बुढ़ापे की शादी थी। और जब रात सुहागरात के दिन पत्नी के पास लेटा, तो पत्नी ने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, मुझसे पहले कितनी स्त्रियां तुम्हारे साथ इस बिस्तर पर लेट चुकी हैं?
क्षण बीते, मिनट बीतने लगे, आधा घंटा होने को आया। पत्नी ने कहा कि मैं अभी भी प्रतीक्षा कर रही हूं; तुमने उत्तर नहीं दिया। उसने कहा, गिनती तो पूरी कर लेने दो। अभी मैं गिनती कर रहा हूं। आधा घंटा बीत गया, अभी गिनती चल रही है।
लेकिन कितनी ही बार, वही कृत्य से गुजर जाओ, समझ पैदा नहीं होती मालूम पड़ती। हजार बार प्रेम करो, अनुभव आ जाए, तो प्रेम प्रार्थना बन जाती है। अनुभव न आए, तो प्रेम एक सड़ाध हो जाती है। हजार बार जन्मों, अनुभव आ जाए, तो जीवन धर्म बन जाता है; अनुभव न आए, तो जीवन एक दुर्गंधयुक्त, सड़ी हुई जीवन—दशा रह जति है। अनुभव आ जाए, तो तुम्हारे भीतर रूपांतरण होने शुरू होते हैं।
मरे तो तुम बहुत बार हो। और अब भी जरा सी गड़बड़ होती है कि मरने की तैयारी हो जाती है। मरने को कोई भी तैयार है। मैं तुमसे कहता हूं तुम जीओं। मरना कोई बहादुरी नहीं है। वह तो कायर का ही हिस्सा है, वह भागने का आखिरी हिसाब है। जंगल भी भाग गए, वहां भी भाग नहीं पाते। मर गए। मरने का मतलब बिलकुल भाग गए। अब कोई भीतर खींचकर नहीं ला सकता।
लेकिन तुम खुद ही आ जाओगे। भागने वाला कहा भागकर जाएगा! भागना ही बताता है कि वासना मरी नहीं; पाने की आकांक्षा मरी नहीं। फिर लौट आओगे। किसी और द्वार से, किसी और देह में, किन्हीं और वस्त्रों में, किन्हीं और रूपों में फिर हाजिर हो जाओगे।
ऐसे कोई भाग नहीं सका है कभी। इसलिए मैं तुम्हें मरने की बात ही नहीं कहता कि मरो। मैं कोई आत्मघात नहीं सिखाता। मैं तुमसे कहता हूं जीओ, परिपूर्णता से जीओ। तुम इतनी परिपूर्णता से जीओ कि मृत्यु भी तुम्हारे जीवन को खंडित न कर पाए। तुम ऐसे जीवन को उपलब्ध हो जाओ कि मृत्यु घटे, तुम्हारे बाहर ही घटे, तुम्हारे भीतर उसका कोई भी प्रभाव न पहुंच पाए। तुम मृत्यु से अछूते मर जाओ।
बस, फिर तुम्हारे आने का कोई उपाय नहीं। फिर तुम गए पार। तब तुम्हें महाजीवन मिलेगा। मरने से नहीं मिलता महाजीवन, इस जीवन को रूपांतरित करने से मिलता है।

 दूसरा प्रश्न : कर्म के सात्विक होने के लिए गीता कहती है कि उसे कर्तापन के अभिमान से. मुक्त और फलाकांक्षा से रहित होने के साथ—माँथ शास्त्र—विहित भी होना चाहिए। लेकिन क्या कर्तापन और फलाकांक्षा से मुक्त कर्म शास्त्र—सम्मत होने के लिए काफी नहीं है?

 नुष्य बहुत जटिल है और जीवन बड़ा सूक्ष्म है। इसलिए बहुत होश से कदम उठाना आवश्यक है। देखने पर तो ऐसा लगता है कि फलाकांक्षा से मुक्त हो गया कर्म, अहंकार से मुक्त हो गया। अब शास्त्र—सम्मत होने की क्या जरूरत है? इतना काफी होना चाहिए। अब यह शास्त्र की भी शर्त क्यों लगी है इसके पीछे कि शास्त्र—सम्मत हो? यह शर्त भी समझने जैसी है। कृष्ण ने लगाई है, तो बड़े गहरे कारण हैं। तुम अपने को धोखा दे सकते हो अनंत—अनंत प्रकारों से, इसलिए यह शर्त है। अगर तुम अपने को धोखा न दो, तब तो किसी शास्त्र—सम्मत होने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन तुम्हारे जैसा अपने को ही धोखा देने वाला खोजना मुश्किल है।
तुम अहंकारशून्य हो गए ऐसा तुम मान ले सकते हो बिना अहंकारशन्य हुए। वस्तुत: न मालूम कितने लोग मानते हैं कि उनका कोई अहंकार नहीं है। और जब वे यह कह रहे हैं, तब भी तुम उनकी आंखों में देख सकते हो, अहंकार की लपटें जल रही हैं।
कितने ही लोग कहते हैं कि हम कोई फलाकांक्षा से थोड़े ही काम में लगे हैं। यह तो परमात्मा करवा रहा है, कर रहे हैं। लेकिन तुम गौर करो। इस परमात्मा का उन्हें कोई भी पता नहीं है, जिसकी वे बात कर रहे हैं जो करवा रहा है। वस्तुत: वे इस परमात्मा का भी अपने ही स्वार्थों के लिए उपयोग कर रहे हैं। जो उन्हें करना है, उसी को वह परमात्मा करवा रहा है, ऐसा कहते हैं।
और धोखा अगर कोई अपने को देता ही चला जाए, तो ऐसा उलझ जाता है अपने ही बनाए जाल में कि उसे पता ही नहीं चलता कि कहां से निकले, कैसे निकले। तुम्हारा मन ही तुमसे कहे चला जाएगा कि यह परमात्मा कर रहा है; किए जाओ।
तुम कैसे पहचानोगे कि यह तुम्हारा मन कह रहा है या परमात्मा करवा रहा है? तुमने परमात्मा की कभी कोई वाणी सुनी है, जिससे तुम परख कर लो, पहचान कर लो कि अपना मन नहीं बोल रहा है, परमात्मा करवा रहा है?
अहंकार इतना कुशल है कि वह निरहंकार के भीतर भी छिप सकता है। वह कह सकता है, मुझ जैसा विनम्र आदमी कौन! लेकिन मुझ जैसा विनम्र आदमी कौन, यह अहंकार की घोषणा है। मुझ जैसा कौन?
लोग आते हैं, वे कहते हैं, मैं तो आपके पैरों की धूल हूं। वे यह कह रहे हैं कि आप इनकार करो कि नहीं—नहीं; आप और पैरों की धूल! अगर तुम स्वीकार कर लो कि आप बिलकुल ठीक ही कह रहे हैं, मुझे तो पहले से ही पता है कि आप पैरों की धूल हैं। वह आदमी नाराज होगा। वह जो कह रहा था, उसको ही स्वीकार करने से नाराज होगा।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, हम बिलकुल बेईमान, चोर, हम कैसे समर्पण करें! अगर मैं उनसे कह दूं र बिलकुल ठीक कह रहे हो, तो वे बड़े चौंककर देखते हैं कि मैं बिलकुल असंस्कारी मालूम होता हूं। यह भी बात कोई कहने की थी। वे तो शिष्टाचार निभा रहे थे। यह मैंने स्वीकार कर लिया। न, वे यह कह रहे हैं कि मैं उनसे कहूं आप और बेईमान? कभी नहीं! तब उनका अहंकार तृप्त होता है।
ऐसे जटिल जाल हैं। इसलिए कृष्ण ने एक शर्त लगाई है कि वह शास्त्र—सम्मत हो।
शास्त्र क्या है? शास्त्र उन पुरुषों की वाणी है, जिन्होंने जाना। उनकी वाणी से अगर तुम्हारे जीवन का मेल खा जाए, तो मन धोखा न दे पाएगा। अगर मेल न खाए, तो मन धोखा दे सकता है। उन्होंने जो कहा है, अगर तुम्हें लगे कि तुम्हारी जीवन— धारा बिलकुल उसके अनुकूल बह रही है, तो वह कसौटी हो गई तुम्हारे लिए। शास्त्र तो भर कसौटी है। मन धोखा न दे पाए, इसलिए एक उपाय है, एक व्यवस्था है।
अगर तुम सोचते हो कि शास्त्र से कोई अड़चन पड़ रही है, तो उसका मतलब साफ है। उसका मतलब साफ है कि मन शास्त्र से डरता है। क्योंकि शास्त्र तो सीधी—सीधी बात कह देगा। और मन डरता है कि धोखा देने के उपाय कम हो जाएंगे, प्रवंचना मुश्किल हो जाएगी; आत्मवचना की संभावना टूट जाएगी। इसलिए मन कहता है, मुझे मुझ पर छोड़ दो। जब मैं ही हूं तो किस शास्त्र की कोई जरूरत है?
लेकिन अगर तुम ही काफी होते, तब तो निश्चित ही शास्त्र की कोई जरूरत न थी। तुम काफी नहीं हो। तुम्हारे भीतर कोई न कोई कसौटी चाहिए, जिससे तुम कसते रही और धोखे से बचते रहो।
शास्त्र तो सदियों—सदियों का सार है। हजारों—हजारों वर्षों में सैकड़ों बुद्ध पुरुषों ने जो जाना है, उसका निचोड़ है। वह किसी एक फूल की सुगंध भी नहीं है। वह तो हजारों फूलों से निचोड़ा गया इत्र है। तो करोड़ों—करोड़ों अनुभवों का निचोड़ है और बड़ी दूर की यात्रा करके तुम्हारे पास से गुजर रहा है। शास्त्र की गंगा तुम्हारे पास से बह रही है। तुम्हें जब भी कुछ संदेह हो, जब भी कोई दुविधा हो, तब तुम उस गंगा के पास जाकर निर्णय ले सकते हो।
लेकिन आदमी के धोखे का कोई अंत नहीं है। शास्त्र से भी आदमी अपने को धोखा दे सकता है। क्योंकि शास्त्र तो मुर्दा है। तुम उसमें भी तो व्याख्या अपनी थोप सकते हो। शास्त्र पढ़ते वक्त तुम शास्त्र थोड़े ही पढ़ते हो, तुम अपने को ही शास्त्र में पढ़ लेते हो। तुम जो पढ़ना चाहते हो, वही पढ़ लेते हो।
इसलिए शास्त्र से भी ऊपर सदगुरु को रखा है। ये सब तुम्हारी बेईमानी की वजह से इंतजाम करने पड़े हैं। क्योंकि सदगुरु की तुम व्याख्या न कर सकोगे। वह जीवित बैठा है। तुम अपनी व्याख्या से अपने को धोखा न दे सकोगे। इसलिए सदगुरु को तो हम श्रेष्ठतम रखते हैं।
अगर कृष्ण उपलब्ध हों, तब गीता की फिक्र मत करो। क्योंकि गीता में तो डर है।
एक हजार व्याख्याएं हैं गीता की। अभी कृष्ण भी आ जाएं, तो उनका दिमाग भी विक्षिप्त हो जाए एक हजार व्याख्याएं कृष्ण के वचन की! इसका मतलब यह हुआ कि या तो कृष्ण जो बोले हैं, उसके एक हजार अर्थ थे। तो अर्जुन पागल हो गया होता बजाय समाधि को उपलब्ध होने के। कृष्ण का तो एक ही अर्थ रहा होगा। कृष्ण का तो एक ही स्वर रहा होगा, ही सतत चोट रही होगी अर्जुन के ऊपर।
लेकिन ये हजार व्याख्याएं कैसे पैदा हो गई हैं? यह हजार लोगों का अपना—अपना अनुभव गीता के ऊपर आरोपित करना है।
अगर कृष्ण उपलब्ध हों, तो गीता की फिक्र मत करना। पहला तो काम है, कृष्ण को खोजना। इसलिए पुराने दिनों में पहले तो साधक सदगुरु को खोजता था। अगर सदगुरु न मिले, अगर सदगुरु का मिलना असंभव हो, तो फिर शास्त्र। वह नंबर दो है, दोयम। वह नंबर एक नहीं है।
अगर शास्त्र भी उपलब्ध न हो, तब फिर स्वयं का विवेक। वह नंबर तीन है। लेकिन स्वय के विवेक में डर है, शास्त्र से सहारा ले लेना। उसमें भी थोड़ा—सा डर तो है। सदगुरु न मिले, तो मजबूरी में शास्त्र। अन्यथा कोई जरूरत नहीं है। तब सदगुरु ही शास्त्र है।
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा। तुम क्या सोचते हो, शास्त्र मौजूद न थे उस दिन। वेद थे, उपनिषद थे। अर्जुन जाकर वेद और उपनिषदो से पूछ लेता। लेकिन नहीं, जब जीवित शास्त्र मौजूद हो, तो क्या वेद को पूछना ! जब वेदों में जिसकी वाणी गूंजी हो वह खुद मौजूद हो, तो क्या वेद को पूछना! उसने कृष्ण से पूछ लिया। अब तुम गीता से पूछते हो जब जरूरत पड़ती है। तुम वही भूल कर रहे हो, जो अर्जुन ने नहीं की।
जाओ, खोजो सदगुरु को। शास्त्र सस्ते में मिल जाता है, यह सच है, बाजार में बिकता है। गुरु को खोजना कठिन होगा। लेकिन जो खोज ले गुरु को, वह सौभाग्यशाली है। क्योंकि फिर खुद का धोखाबंद हो जाता है।
ये सारी शर्तें लगाई गई हैं, तुम्हारे कारण। अगर तुम अपने को धोखा न दो, तो न तो गुरु की कोई जरूरत है, न शास्त्र की कोई जरूरत है। पर वह बड़ी भारी समस्या है कि तुम अपने को धोखा न दो। यह होना ही मुश्किल दिखता है कि तुम अपने को धोखा न दो। तुम धोखा दोगे ही।
मैं तुमसे जो कह रहा हूं तुम वही थोड़े ही सुनते हो जो मैं तुमसे कह रहा हूं। क्योंकि जब मेरे पास लोग आकर मुझे बताते हैं कि आपने ऐसा कहा, तब मैं चौंकता हूं।
एक युवक ने मुझे आकर एक दस दिन पहले कहा कि जब से आपकी किताबें पढ़ी, जब से आपको सुना, बस तब से एक ही आकांक्षा पैदा हो गई है कि विल पावर, संकल्प की शक्ति कैसे पैदा हो। मैंने कहा कि तू मेरे ही सामने कह रहा है! मैं चिल्लाए चला जाता हूं कि समर्पण कैसे हो और विल पावर तूने कहा पढ़ लिया! उसने कहा, आपकी ही किताबों में और आपके ही वचनों में।
वह थोड़ा चौंका, जब मैंने उसे मना किया। लेकिन वह बिलकुल आश्वस्त था, जब उसने पहली दफा कहा कि उसने मेरे ही द्वारा सीखा है। मैंने कहा, तू कहीं भूल कर रहा है। तू चाहता होगा, संकल्प शक्ति कैसे बढ़े, क्योंकि तेरे भीतर कहीं न कहीं कोई हीनता की ग्रंथि होगी। तू अपने को इनफीरिअर समझता है। तू कहीं न कहीं अपने को ओछा समझता है, कमजोर समझता है।
तेरे ढंग से दिखता है। तू चलता है, तो उसमें कोई बल नहीं है। तेरी आंखों से दिखता है कि अगर कोई तेरी तरफ गौर से देखे, तू आंखें बचा लेता है। तू बोल भी रहा है, तो सिर नीचे किए हुए है। तू शंकित है, संशयग्रस्त है। तेरा हाथ कैप रहा है। वह जो कागज हाथ में लेकर तू आया है, जिसमें तू लिख लाया है अपने सब प्रश्न, वह हाथ में कागज रखे बैठा है, तो तेरा हाथ कैप रहा है।
और तू कागज में लिखकर क्यों आया? जब तू मिलने ही आया था, तो सीधी बात हो जाती। वह भी तुझे भरोसा नहीं है अपने पर कि तुझे जो पूछना है, तू पूछ सकेगा। तो कागज में लिख लाया है। तेरे भीतर कोई बड़ी हीनता की ग्रंथि है। उसके कारण तेरे भीतर आकांक्षा है कि संकल्प की शक्ति, विल पावर कैसे बढ़े। मैंने कभी नहीं कहा है। तू गलत आदमी के पास आ गया।
अब इस आदमी ने कैसे पढ़ा? पढ़ा—लिखा युवक है, विश्वविद्यालय से शिक्षित युवक है, किसी कालेज में लेक्चरर है। इसने यह पढ़ा कैसे जो कि मैंने कभी कहा नहीं?
अपने ही मन को फैला लिया। अपने ही मन पर रंग लिया जो मैंने कहा है उसको। तो उसने कहा, जाने दें वह, लेकिन यह बताएं कि विल पावर कैसे बढ़े! जाने दें, आपने न कहा होगा। उस झंझट में मैं नहीं पड़ता, लेकिन विल पावर कैसे बढ़े, यह बता दें।
तो मैंने कहा, तू सीधे ही पूछ। मुझे बीच में क्यों लेता है! और मैं तो विल पावर के विरोध में हूं। क्योंकि मेरा सारा कहना ही यह है कि सारी संकल्प की शक्ति अहंकार को ही बढ़ाती है। समर्पण चाहिए। कैसे छूट, यह पूछ। बढ़ाने की क्या जरूरत है? मिटाना है, खोना है अपने को, लीन होना है।
बस, जैसे संबंध छूट गया। जैसे अब मुझसे उसका कोई नाता नहीं, बात टूट गई। जीवित आदमी के पास भी जाकर हम अपने को थोपने की कोशिश करते हैं, तो मरे हुए शास्त्र का तो क्या कहना! तुम उसके साथ क्या—क्या दुर्व्यवहार करते होओगे, कहना मुश्किल है। तुम जो अर्थ निकालना चाहते हो, निकाल लेते हो।
इसलिए मैं तो तुमसे कहता हूं अगर कृष्ण मिलते हों, आग में डाल दो गीता को, स्वाहा कर दो। न मिलते हों, तब क्या करो। मजबूरी है, शब्द से फिर सहारा खोजो। अगर वह भी उपलब्ध न हो, तो फिर और बड़ी मजबूरी है। तब अपने ही पैर से चलने की कोशिश करो, जितना भी चल सको। देखें, शायद कुछ रास्ता बन जाए।
लेकिन सदगुरु सदा उपलब्ध है। ऐसा हो भी नहीं सकता इस परमात्मा के विराट विस्तार में कि जो चाहता हो, जिसकी अभीप्सा हो, उसके लिए सदगुरु किसी क्षणों में अनुपलब्ध हो जाए।
भूख है, तो भोजन है.। प्यास है, तो पानी है। अगर अभीप्सा है, तो सदगुरु भी होगा; कहीं न कहीं होगा। शायद थोड़ा खोजना पड़े। और जितनी बहुमूल्य चीज खोजनी हो, उतनी देर लगतीहै, मुश्किल लगती है, श्रम उठाना पड़ता है। अड़चन भी है, तो तुम्हारे कारण होगी। अड़चन भी कोई सदगुरु अपने आस—पास खड़ी नहीं किए हुए है। तुम ही अपनी अड़चन अपने चारों तरफ लेकर चल रहे हो। मैं एक अमेरिकन कवि का संस्मरण पढ़ रहा था। उसने लिखा कि वह एक रात ट्रेन में सवार हुआ केलिफोर्निया जाने को। डब्बे में एक और युवक था। होगी कोई तीस साल की उम्र। और तो कोई था नहीं। रात तो दोनों सो गए। सुबह एक—दूसरे से परिचय हुआ। जिस जगह कवि बैठा था, उस युवक ने कहा, क्षमा करें, मुझे उस खिड़की पर बैठ जाने दें। तो कवि ने पूछा कि क्या कारण है? इतनी खिड़कियां हैं, इस पर ही बैठने का क्या कारण है? उस कमरे में केवल दो ही आदमी हैं।
तो उस युवक ने कहा, अब आप पूछते हैं तो आपको कहता हूं। आज से दस साल पहले मैंने एक जघन्य अपराध किया। मैं जेल में डाल दिया गया। दस साल की सजा हुई। छूटकर घर वापस लौट रहा हूं। शंकित हूं। दस साल में मेरे परिवार से कोई मुझे जेल में मिलने नहीं आया। आशा तो यही करता हूं कि वे लोग सीधे—सादे हैं, ग्रामीण हैं, इतनी दूर की यात्रा सैकड़ों मील की उनके लिए करनी असंभव रही होगी। पर कौन जाने, शायद उन्होंने मुझे त्याग ही दिया! दस वर्षों में एक पत्र भी मेरे परिवार से नहीं आया। आशा तो यही करता हूं कि वे लोग गैर पढ़े—लिखे हैं, इसलिए न लिख सके होंगे। लेकिन मन में यह भय भी है कि हो सकता है, उन्होंने जानकर ही न लिखा हो। किसी और से तो लिखवा ही सकते थे! वे लौग गरीब हैं, गैर पढ़े—लिखे हैं, पर कुलीन हैं और बड़े स्वाभिमानी हैं। मेरे कारण जो उनकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा है, शायद वे मुझे अंगीकार करने को राजी भी न हों।
तो मैंने उनको लिखा है कि फला—फला ट्रेन से मैं आ रहा हूं। सुबह होते ही, सूरज के उगते ही, गाव में यह ट्रेन प्रवेश करेगी। गाव के बाहर ही, स्टेशन के पूर्व ही हमारा खेत है। उसमें सेव का एक बड़ा वृक्ष है। वह स्टेशन की लाइन के बिलकुल करीब है। तो मैंने उनको लिखा है, उस पर तुम एक सफेद झंडी लगा देना, ताकि मुझे पता चल जाए कि मैं लौट सकता हूं घर। अगर सफेद झंडी लगी मिली, तो मैं स्टेशन पर उतर जाऊंगा और घर आ जाऊंगा। अगर न लगी मिली, तो ट्रेन पर सवार रहूंगा। कहीं भी उतर जाऊंगा फिर, और संसार में खो जाऊंगा। फिर तुम मेरा नाम दुबारा न सुन सकोगे।
इसलिए इस जगह मुझे बैठ जाने दें। इस खिड़की से वह वृक्ष ठीक से दिखाई पड़ेगा। कवि भी अभिभूत हो गया। जगह दे दी। लेकिन जैसे—जैसे गांव करीब आने को होने लगा, युवक बेचैन हो गया। उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं।
उसने कवि से फिर प्रार्थना की कि आप कृपा करके वापस यहां बैठ जाएं, क्योंकि मेरी आंखों में इतने आंसू भर गए हैं कि मैं देख भी नहीं पा रहा हूं। आप मेरे लिए देख दें। कहीं ऐसा न हो कि झंडी हो और मुझे दिखाई न पड़े। या ऐसा भी हो सकता है कि झंडी न हो और मेरी कल्पना के कारण मुझे दिखाई पड़ जाए, मैं इतना भावाविष्ट हूं। आप वापस आ जाएं और मुझे बता दें।
कवि भी भावाविष्ट हो गया। वह बैठ गया है। वह देख रहा है बाहर टकटकी लगाए। उसकी आख से भी, जैसे ही वृक्ष दिखाई पड़ा, आंसुओ की धार लग गई। उस युवक ने उसे हिलाया और कहा कि क्या झंडी नहीं है? उसने कहा, नहीं, मैं इसलिए नहीं रो रहा हूं। मैं इसलिए रो रहा हूं कि पूरे वृक्ष पर झंडियां ही झंडियां हैं। पत्ते तो दिखाई ही नहीं पड़ते। हजारों झंडियां बांध दी हैं उन्होंने।
बाधाएं हैं, तो तुम्हारे कारण हो सकती हैं। परमात्मा तो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है वृक्ष पर हजारों झडिया बांधकर। यह बिलकुल स्वाभाविक है। तुम उससे पैदा हुए हो। तुम कितने ही संसार में भटक जाओ और कितने ही जघन्य तुमने कृत्य किए हों, इससे क्या फर्क पड़ता है! वह तुम्हें मिलने भी न आया हो, इससे भी क्या फर्क पड़ता है! कोई चिट्ठी—पाती भी उसने न लिखी हो, इससे भी क्या फर्क पड़ता है! हृदय के द्वार बंद होते ही नहीं। तुम जिससे पैदा हुए हो, उसके द्वार तुम्हारे लिए बंद नहीं हैं।
तुम जरा खोजो। तुम थोड़ा—सा प्रयास करो। तुम अगर अपनी आंखों से न देख सको, तो सदगुरु की आंखों से देख लो। शायद तुम्हारी आंखें बहुत पीड़ा से भरी हैं, बहुत आंसुओ से, भाव से, संभावनाओं से, भय से।
सदगुरु का इतना ही मतलब है, उसके पास अब साफ आख है, जिसमें न आंसू तिरते हैं, न पीड़ा उतरती है, न सुख उत्तेजित करता है, न दुख विह्वल करता है। उसकी आख अब कोरी और साफ और निर्दोष है। वह सीधा देख सकता है।
अगर तुम कंप रहे हो, तो उसके द्वारा देख लो, जो नहीं कैप रहा है। वह तुम्हें ठीक—ठीक तुम्हारे घर का पता बता दे।
अगर सदगुरु उपलब्ध न हो सके.। इस कारण नहीं कि सदगुरु होते नहीं। सदगुरु सदा हैं। पृथ्वी कभी उनसे खाली नहीं होती। अगर सदगुरु न मिल सके, तो उसका कारण तुम्हीं होओगे। क्योंकि सदगुरु को पाने का अर्थ है, किसी के चरणों में झुकने की कला। वह तुम्हें मुश्किल पड़ेगी। और अगर यह तुम्हारे लिए मुश्किल है, तो जान लेना कि शास्त्र भी तुम्हारे काम न आएगा। क्योंकि अगर तुम किसी गुरु के चरण में नहीं झुक सकते, तो तुम शास्त्र के चरणों में कैसे झुकोगे! सिर झुका लोगे, मगर झुकोगे नहीं। तुम शास्त्र पर आरोपित हो जाओगे, शास्त्र को स्वयं पर आरोपित न होने दोगे।
इसलिए बड़े मजे की बात है, जो सदगुरु से लाभ ले सकता है, वह शास्त्र से भी लाभ ले सकता है। जो शास्त्र से लाभ ले सकता है, वह बिना शास्त्र के भी चल सकता है। जो सदगुरु से लाभ नहीं ले सकता, वह शास्त्र का भी लाभ न ले पाएगा। जो शास्त्र का लाभ नहीं ले पाएगा, वह अपने से भी लाभ नहीं ले पाएगा।
इसलिए मुझे जीसस का वचन बार—बार प्रीतिकर लगता है कि जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।
जो सदगुरु से लाभ ले सकता है, वह शास्त्र से भी लाभ ले सकेगा, उसे और दे दिया जाएगा। जो शास्त्र का लाभ ले सकता है, वह अपने से भी लाभ ले सकता है, उसे और दे दिया जाएगा। तुम खुलों, शर्तों से मत डरो। अपने मन पर थोड़ा नियंत्रण करना होगा। उस नियंत्रण की थोड़े दिन के लिए ही जरूरत है। एक बार तुम मन से अलग होकर जीवन को जीने लगो, फिर न गुरु की जरूरत है, न शास्त्र की। फिर तुम ही गुरु हो, तुम ही शास्त्र हो। और सारे गुरुओं की चेष्टा यही है कि तुम्हारे भीतर का गुरु तुम्हें उपलब्ध हो जाए।

तीसरा प्रश्न : मैंने जीवन में जो बड़ी से बड़ी चीजें अब तक देखी हैं, वे हैं, हिमालय, आकाश और रजनीश। और आपने उस दिन कहा कि मैं तुम्हारे भीतर भी हूं। मुझे विश्वास नहीं होता कि यह विराट मुझ क्षुद्र के भीतर कैसे समाया है?

 क्षुद्र कहीं है ही नहीं; विराट ही विराट है। क्षुद्र होता, तो विराट नहीं समाता, यह बात सच है। क्षुद्र कहीं होता, ?ई तो विराट कैसे समाता, यह बात भी बिलकुल ठीक है। लेकिन क्षुद्र कहीं है ही नहीं। वह तुम्हारी देखने की भूल है। सीमा यहां कहीं है ही नहीं। सीमा तुम्हारी देखने की भ्राति है। है तो असीम। ऐसी ही है सीमा, जैसे कोई अपनी खिड़की के भीतर से आकाश को देखता है, तो खिड़की की चौखट आकाश पर लगी मालूम पड़ती है। चौखट खिड़की की है, आकाश पर कोई चौखट नहीं है। लेकिन खिडकी की सीमा आकाश की सीमा बन जाती है। आकाश भी ऐसा लगता है, जैसे कि फ्रेम किया हुआ कोई आकाश का चित्र हो।
पश्चिम के एक बहुत बड़े चित्रकार सलवादोर डाली ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने चित्रों पर फ्रेम लगाने बंद कर दिए थे। मित्रों ने पूछा, क्या हो गया? तो डाली ने कहा कि जीवन के अनुभव से जाना कि फ्रेम कहीं भी नहीं है। यह आदमी की ईजाद है। आकाश पर कहीं कोई फ्रेम है? कहां शुरू होता है आकाश? कहां अंत होता है? किस चीज पर तुमने अब तक पाया है कि कोई सीमा है?
यह छोटा—सा वृक्ष, जो तुम्हें छोटा—सा दिखाई पड़ता है, छोटा नहीं है। देखने की भूल है। इस वृक्ष की जड़ें जमीन में समाई हैं। यह जमीन का हिस्सा है। जमीन बहुत बड़ी है। इस वृक्ष के पत्ते आकाश में फैले हैं। वह आकाश में समाया है। यह वृक्ष छोटा नहीं है। इस वृक्ष के प्राण सूरज की किरणों से बंधे हैं। तभी तो सुबह होती है, तो प्रफुल्लित हो जाता है; सांझ होती है, कुम्हला जाता है। सूरज इसका हिस्सा है। सब जुड़ा है। यहां अनजुडा कुछ भी नहीं है।
तुम सीमित हो? तुम अपने पिता से जुड़े हो, मां से जुड़े हो। तुम्हारी मां अपने मा और पिता से जुड़ी है, तुम्हारे पिता अपने मां और पिता से जुड़े हैं। लौटो जरा पीछे, जोड़ की खोज करो, तो तुम पाओगे कि सृष्टि के आदि में—अगर कभी कोई आदि रहा हो, प्रारंभ रहा हो —तो उससे तुम जुड़े हो। तुम्हारे बच्चे तुमसे जुड़े होंगे, उनके बच्चों के बच्चे तुमसे जुड़े होंगे। अगर सृष्टि का कभी कोई अंत होगा, तो तुम्हारा उसमें हाथ होगा, तुम जुड़े रहोगे। एक हाथ इस तरफ, एक हाथ उस तरफ। दोनों तरफ अनंत से जुड़े हो।
तुम छोटे हो? यह तुम्हारी चमड़ी सूरज से जुड़ी है। तुम्हारा रोआं—रोआं श्वास ले रहा है, हवाओं से जुड़ा है। तुम्हारे पैर पृथ्वी से जुड़े हैं। तुम्हारा कण—कण पृथ्वी से आ रहा है। कभी फलों की शक्ल में, कभी भोजन की शक्ल में तुम रोज पृथ्वी को खा रहे हो। तुम कहा समाप्त होते हो? कहां तुम्हारा प्रारंभ है?
नहीं, क्षुद्र यहां कुछ भी नहीं है। सब फ्रेम आदमी की ईजाद है। जीवन बिलकुल ही निराकार है।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि विराट तुममें है, तब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विराट क्षुद्र में है। मैं यह कह रहा हूं तुम विराट हो। असल में मैं यह कह रहा हूं—अगर तुम और भी ठीक से समझ सको—कि तुम हो ही नहीं, विराट है।

 चौथा प्रश्न : अभी आपको मैं कहीं से भी चखूं? खारा ही खारा पाता हूं। वह घड़ी भी कभी आएगी जब आप मीठे ही मीठे लगने लगें?

 ब तक तुम हो, मुझे तुम खारा ही खारा पाओगे। जब तुम मिटोगे, तब तुम मुझे मीठा ही मीठा पाओगे। यह मेरा स्वाद नहीं है, जो तुम्हें खारा लगता है। अगर यह मेरा ही स्वाद है, तब तो फिर सदा ही खारा रहेगा। फिर तो यह कभी मीठा न हो सकेगा।
नहीं, तुम्हारे अहंकार के कारण यह स्वाद है। अहंकार हटते ही तुम पाओगे कि सब मीठा हो गया। मैं ही मीठा हो जाऊंगा, ऐसा नहीं है, सब कुछ मीठा हो जाएगा। सारा अस्तित्व एक माधुर्य से भर जाता है, जब तुम्हारा अहंकार मिट जाता है। तुम्हारा अहंकार खारा करने वाला तत्व है। खारा भी ठीक नहीं है, कडुवा करता है, विषयुक्त कर देता है।
उससे छूटो। तब पूरी प्रकृति बड़ी मिठास से भरी है। उसी मिठास में तुम परमात्मा की पहली पगध्वनियां सुनोगे। परमात्मा तो मीठा है, तुम्हारी जीभ पर नमक लगा है।
तुमने कभी देखा, बुखार के बाद उठते हो, मीठा भी मीठा नहीं लगता, स्वादिष्ट भी स्वादिष्ट नहीं लगता।
अहंकार का एक ज्वर है, जो तुम्हारे स्वाद को बिगाड़ रहा है। उसे जाने दो। जीवन बड़ा स्वादिष्ट है, बड़ा सुस्वादु है। जीवन अमृत है।

 आखिरी सवाल : लेन गुरु अक्सर अपने शिष्यों से पूछते हैं, एक हाथ से ताली कैसे बजेगी? हम नए—नए शिष्य आपसे पूछते हैं, एक हाथ से ताली कैसे बजेगी?

 रोज बजती है और तुम सुनते ही नहीं। जो तुम नहीं चाहते, वह मैं तुम्‍हें दे रहा हूं। जो तुमने कभी नहीं मांगा, वह मैं तुम्हें बांट रहा हूं। ताली एक हाथ से बज रही है। जिसके लिए तुम तैयार भी नहीं हो, वह मैं तुम में उंडेल रहा हूं। ताली बिलकुल एक हाथ से बज रही है। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करो।
तुम जहां नहीं जाना चाहते, या तुमने कभी सपना भी जहां जाने का नहीं देखा था, वहा मैं तुम्हें ले चल रहा हूं। तुम्हारी तरफ से जो हाथ होना चाहिए ताली बजने को, वह तो नहीं है। मेरे अकेले हाथ से ताली बज रही है। और जिस दिन तुम्हारा हाथ वहा मौजूद हो जाएगा, मैं अपने हाथ को खींच लूंगा। फिर भी एक ही हाथ से ताली बजेगी। फिर कोई जरूरत न रहेगी मेरे हाथ की। फिर तुम स्वयं समर्थ हो गए।
एक हाथ से ताली बजना तो प्रतीक है। वह तो बहुत गहरा प्रतीक है अनाहत नाद का।
दुनिया में सभी चीजें दो हाथों से बजती हैं, परमात्मा में एक हाथ से बजती है। क्योंकि वहा दूसरा कोई है नहीं। इस संसार में सभी नाद आहत नाद है। तबला बजाओं, तो ठोंकना पड़े; सितार बजाओं, तो तार खींचने पड़े। दो की चोट चाहिए। बोलो, तो कंठ का संघर्षण चाहिए।
परमात्मा तो अकेला है। वहा दूसरा कोई है नहीं। वहां गायक और गीत एक हैं। वहां मूर्तिकार और मूर्ति एक हैं। वहा दूसरा तो है ही नहीं। उस एक को ही हम परमात्मा कहते हैं। लेकिन वह बज रहा है, अनंत से बज रहा है।
सुनो उसका नाद। उसको ही हमने अनाहत नाद कहा है, जो बिना दो चीजों के संघर्षण से, बिना आहत बजता है, अनाहत। उस नाद को हमने ओंकार नाम दिया है।
मैं तुमसे बोल रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं वह तो आहत है। लेकिन जो मैं कहना चाहता हूं वह अनाहत है। जो तुम सुन रहे हो, वह तो आहत है; जो तुम्हें सुनना चाहिए, वह अनाहत है। जैसे—जैसे तुम राजी होओगे, तरल होओगे, पिघलोगे, वैसे—वैसे तुम्हें वह सुनाई पड़ने लगेगा, जो कहा नहीं जा सकता, लेकिन फिर भी बज रहा है। जिसे कोई बजा नहीं रहा है, फिर भी अहर्निश उसकी ही गंज है।
रोज एक हाथ की ताली बज रही है। जल्दी करो; सदा न बजती रहेगी। तैयार हो जाओ।

अब सूत्र:

तथा हे अर्जुन, जो कर्ता आसक्ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष —शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्विक कहा जाता है।
और जो आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला, लोभी, दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी, हर्ष—शोक से लिपायमान है, वह कर्ता राजस कहा गया है।
तथा जो विक्षेपयुक्त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह कर्ता तामस कहा जाता है। तामस से समझें। कृष्ण तो सदा सात्विक से शुरू करते हैं। पर अच्छा है, तामस से समझें। क्योंकि वहीं कहीं पास में आप खड़े होंगे। प्रथम से ही समझना ठीक है।
विक्षेपयुक्त चित्त वाला।
ऐसा चित्त जो करीब—करीब विक्षिप्त है। तुम क्या करते हो, क्यों करते हो, वह भी साफ नहीं।
कल एक युवक ने मुझे रात आकर कहा कि महीनेभर पहले एक लड़की से मिलना हो गया। उससे शादी कर ली। क्यों कर ली, यह भी ठीक पता नहीं। स्वयं उसने कहा, क्यों कर ली, यह भी ठीक पता नहीं। बस, कर ली। फिर आपके वचनों के संपर्क में आ गया। दूर केलिफोर्निया से आया है। संन्यास ले लिया। क्यों ले लिया, पक्का साफ नहीं। बस, हो गया। अब यहां आ गया।
अब पत्नी, जिससे शादी कर ली और उसके दो बच्चे हैं पिछले पति से, वह वहा परेशान है। वह कहती है, वापस आओ, क्योंकि वह दिक्कत में है। जाना नहीं चाहता। क्यों नहीं जाना चाहता? मालूम नहीं। और यहां एक दूसरी स्त्री के प्रेम में पड़ गया, अब। क्या करूं?
यह विक्षिप्त चित्त है। यह तुम्हारा ही चित्त है। ऐसे ही तो तुम करते रहे हो। कर लेते हो, फंस जाते हो, ढोते हो। क्यों किया था पहले चरण में, यह भी साफ नहीं। अंत आ जाता है जीवन का, शरुआत क्यों की थी, इसका कोई पता नहीं।
होश नहीं है, तो ऐसा होगा। तब कोई भी तरंगें तुम्हारे जीवन में आती रहेंगी और तुम्हें बहाती रहेंगी। तुम पागल आदमी की तरह दौड़ते रहोगे, कभी उत्तर, कभी दक्षिण। लेकिन क्यों दौड़ते हो, कहां जाना चाहते हो, कुछ साफ नहीं।
तामस चित्त का लक्षण है कि होश नहीं होगा, मूर्च्छा होगी। होश होगा, तो करने के पहले तुम सोचोगे। होश होगा, तो उत्तरदायित्व होगा। तुम सोचोगे, इस स्त्री से विवाह कर रहा हूं दायित्व ले रहा हूं; इन बच्चों का पिता हो जाऊंगा, इनकी चिंता करनी होगी। तैयारी है भविष्य के बोझ को लेने की? कोई ऐसा कारण है, कोई ऐसा गहन प्रेम है, जिसके कारण फिर यह सारा बोझ लेने से बचने की आकांक्षा पैदा न होगी? तो ठीक है।
लेकिन पक्का पता ही नहीं है कि प्रेम भी है या नहीं। एक हवा का झोंका आया और बह गए। जैसे पानी पर कोई लकड़ी का टुकड़ा बहता रहता है। कोई घाट पहुंचना नहीं, हवा जहां पहुंचा देती है, थोड़ा पहुंच जाते हैं। कहीं रुक भी जाते हैं, कहीं बह भी जाते हैं। कहीं भी अंत हो जाएगा आखिर में।
मैंने एक घटना सुनी है। वास्तविक घटना है। उन्नीस सौ उनचास में एक आदमी, जिसका नाम जैक वर्म, समुद्र के तट पर अमेरिका में बैठा था। हारा— थका, जुआरी है, सब हार चुका है, आत्महत्या की सोच रहा है। ऐसा बैठा—बैठा उठाकर कंकड़ पानी में फेंकने लगा। रेत के घरपूले बनाने लगा। बड़ा बेचैन है, कुछ करने को चाहिए।
ऐसा रेत में हाथ डाला, तो एक बोतल दबी हुई हाथ में आ गई। उत्सुकतावश बोतल खींच ली। देखा, तो बोतल बंद है और भीतर एक कागज का टुकड़ा है। खोली, तो कागज के टुकड़े में—बड़ी हैरानी में पड़ गया, समझा कि किसी ने मजाक किया है—कागज के टुकड़े में लिखा है कि मेरी संपदा के तुम आधे अधिकारी नियुक्त किए जाते हो। मेरा वकील—उसका पता दिया है—इससे मिलो। बारह करोड़ रुपए मैं छोड्कर मर रही हूं। उसमें आधे मेरे वकील के होंगे, आधे तुम्हारे। किसी महिला अलेक्वेंड्रा के दस्तखत हैं। सोचा कि जरूर किसी ने मजाक किया है। ऐसे ही बोतल डाल दी, बैठा रहा। लेकिन फिर यह भी हुआ कि पता नहीं, इस दुनिया में अघट भी घटता है। हर्ज भी क्या है, फोन करके पूछ लिया जाए इस आदमी को। क्योंकि वकील तो लंदन में है।
फोन किया रात। वकील ने कहा कि ठीक है, मजाक नहीं है। वह महिला अलेक्जेंड्रा, थोडी विक्षिप्त स्वभाव की थी। और जीवनभर उसने ऐसे ही जीया। मरते वक्त जब मैंने उससे पूछा कि तू संपत्ति का क्या कर जा रही है? तो उसने कहा कि जिस तरह मैं जीयी हूं पानी में हवा के झोंकों में बहती हुई, ऐसी ही मेरी संपत्ति पानी में बहती हुई किसी को मिलेगी। ऐसे मैं किसी का नाम नहीं लिख जाती। यह बोतल उसने बंद की और थेम्स नदी में डाली, लंदन में।
बारह साल लग गए उस बोतल को पहुंचने में अमेरिका के सागर तट पर, पर पहुंच गई। एक आदमी को मिल भी गई। वह आदमी छ: करोड़ रुपए की संपत्ति का मालिक भी हो गया। ये जो बारह करोड़ रुपए हैं, ये सिंगर मशीन के जो मालिक हैं, उनकी ही वह वसीयतदार थी महिला। वह तो मर चुकी है। उसे कभी पता भी न चलेगा, किसको मिले। लेकिन उसने एक अच्छा मजाक किया। वह जीवनभर भी ऐसे ही जीयी। उसने विवाह भी किया, तो ऐसे ही। वह जाकर एक होटल के बाहर खड़ी हो गई। करोड़पति महिला थी। उसने कहा, जो आदमी होटल से बाहर निकलेगा, पहला आदमी, उससे विवाह का निवेदन करूंगी। और उसने उसी से विवाह किया। वह आदमी राजी हो गया, क्योंकि इतनी बड़ी करोड़पति महिला। वह एक वेटर था होटल का, जो बाहर निकल रहा था।
लेकिन तुम कहोगे, यह पागल थी। लेकिन तुम्हारी जिंदगी में कुछ इससे ज्यादा भिन्न घटनाएं हैं? अगर गौर से देखोगे, तो बहुत भिन्न न पाओगे।
पड़ोस में कोई लड़की रहती है; उसके प्रेम में पड़ गए। कुल कारण इतना है कि वह पड़ोस में थी। पड़ोस में कोई और भी हो सकता था। कोई वजह नहीं है। स्कूल में गए। पचास स्कूल थे गाव में। एक स्कूल में भर्ती मिली। वहां किसी लड़की के प्रेम में पड़ गए, क्योंकि वह क्लास में थी। इसमें और होटल से निकलने वाले पहले आदमी में तुम कोई बुनियादी गणित का भेद देखते हो?
कोई भेद नहीं है। जीवन करीब—करीब विक्षिप्त है। ऐसे ही चल रहा है, ऐसे ही बहा जा रहा है। इसको कृष्ण कहते हैं, तामस चित्त। विक्षिप्त चित्त वाला, घमंडी, भयंकर अभिमान ग्रस्त, अहंकार से भरा हुआ......।
ध्यान रखना, राजस व्यक्ति भी अभिमानी होता है और तामसी भी। दोनों में क्या फर्क है?
तामसी व्यक्ति अभिमानी होता है बिना कारण। और राजस व्यक्ति अभिमानी होता है सकारण। अगर वह अभिमान करता है, तो उसका कारण है। अभिमान तो दोनों करते हैं। तामसी को कोई कारण भी नहीं है अभिमान करने का। उस घमंड को हम तामसी कहते हैं जिसमें कोई कारण भी नहीं।
एक आदमी बहुत बुद्धिमान है और इसलिए अहंकारी है। समझ में आता है। एक आदमी महाबुद्ध है, फिर भी अहंकारी है और सोचता है कि मैं महाबुद्धिमान हूं। तो पहले को हम अहंकार कहते हैं, दूसरे को घमंड कहते हैं। घमंड जिसमें कोई आधार भी नहीं है। आधार भी हो, तो थोड़ा क्षम्य है।
धूर्त......।
वह कभी भरोसा न करेगा किसी का भी। और किसी को कभी जीवन में मौका न देगा कि कोई उस पर भरोसा कर ले। हर जगह चालबाजी करेगा। असल में वह सोचता है कि चालबाजी से ही सब कुछ उपलब्ध होता है। आलसी है, करने से बचता है, चालबाजी से रास्ता निकालता है।
दूसरों की आजीविका का नाशक।
और उसके जीवन की प्रक्रिया विध्वंसक होगी, डिस्ट्रक्टिव होगी। वह कुछ कर तो न सकेगा, क्योंकि करने में श्रम चाहिए, सातत्य चाहिए, लगन चाहिए, पूरे जीवन को समर्पित करने की क्षमता चाहिए। वह तो उसमें नहीं है। उसमें तो एक क्षण में हवा बदल जाती है, उसका मौसम बदल जाता है, तो जीवनभर को किसी चीज में लगाकर सफलता की तरफ ले जाने की संभावना उसकी नहीं है।
तो वह कभी क्रिएटिव, सृजनात्मक तो नहीं होगा, लेकिन सृजन की कमी वह विध्वंस से पूरी करेगा। वह चीजों को तोड्ने में मजा लेगा। वह लोगों के जीवन को नष्ट करने में मजा लेगा। उसका रस मिटाना होगा, बनाना नहीं। इसलिए तामसी व्यक्ति कभी भी कुछ सृजन न कर पाएगा। न तो उससे एक गीत बनेगा, न वह एक मूर्ति बनाएगा। वह मूर्ति तोड़ सकता है।
तुमने सुनी होगी एक घटना, कुछ ही महीनों पहले रोम, वेटिकन


 में जीसस की सब से सुंदर मूर्ति एक अमेरिकन ने तोड़ दी।
बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। वह मूर्ति इस पृथ्वी पर जीसस की सबसे सुंदर मूर्ति थी; माइकलएंजलो की सबसे महान कृति थी। अरबों रुपयों में भी उसका मूल्य नहीं आका जा सकता। माइकलएंजलो ने अपना सारा प्राण उस मूर्ति में समा दिया था। वह एक मूर्ति बचती और माइकलएंजलो की सारी कृतिया खो जाएं, तो भी माइकलएंजलो अप्रतिम रहेगा। किसी ने कभी सोचा भी न था कि उस मूर्ति के पास पहरा बिठाने की जरूरत है। कौन पागल उसको तोड़ेगा!
और एक अमेरिकन ने जाकर, एक हथौड़े को छिपाकर वह भीतर गया वेटिकन के चर्च में, और जाकर जीसस की मूर्ति पर हथौड़े से चोट की। इसके पहले कि वह पकड़ा जा सके, उसने हाथ, सिर, कई अंग खंडित कर दिए।
पूछे जाने पर कि तेरा क्या विरोध है इस मूर्ति से? उसने कहा, अगर माइकलएंजलो इसको बनाकर प्रसिद्ध हो गया, तो मैं इसको तोड़कर प्रसिद्ध होना चाहता हूं।
वह प्रसिद्ध हो गया, इसमें कोई शक नहीं। सदियों—सदियों तक, जब तक वह खंडित मूर्ति रहेगी, इस पागल का नाम भी संयुक्त हो गया।
एक माइकलएंजलो है, जो वर्षों में बना पाता है; और एक आदमी है, जो क्षण में तोड़ देता है। तोड्ने में क्षण लगता है। इसलिए तामसी कर सकता है, क्योंकि उसके पास क्षण की मनोदशाएं होती हैं। बनाने में वर्षों लगते हैं; तामसी नहीं कर सकता। वर्षों तक तो कोई भाव टिकता ही नहीं है। मिटाना तो क्षण में हो जाता है, बनाना तो जीवनभर की प्रक्रिया है।
इसलिए तामसी को कृष्ण कहते हैं, वह नाशक है।
शोक करने के स्वभाव वाला.......।
उसको शोक की स्थितियों की जरूरत नहीं रहती, उसका स्वभाव शोक करने का है। वह दुखी रहता है। तुम उसके लिए कोई भी कारण नहीं जुटा सकते, जिससे वह सुखी हो जाए। वह हर जगह दुख के कारण खोज लेगा। कितनी ही सुंदर स्थिति हो,। कितनी ही सुखद स्थिति हो, उसमें वह कुछ न कुछ दुख के कारण खोज लेगा। वह उसका स्वभाव है।
दुख में रमे रहना, उसके जीवन की चर्या है, उसका ढंग है। वह उदास रहेगा। उदासी उसकी जीवन—शैली है। शिकायतें ही उससे उठेंगी; धन्यवाद उससे कभी नहीं उठ सकते। इसलिए तामसी कभी प्रार्थना नहीं कर सकता।
आलसी, दीर्घसूत्री.........।
हमेशा चीजों को पोस्टपोन करने वाला होगा। दीर्घसूत्री, कल कर लूंगा, परमो कर लूंगा। जो अभी हो सकता है, उसे वह कल पर छोड़ेगा; फिर कल आएगा, फिर कल पर छोड़ेगा। ऐसे उसका जीवन एक लंबा पोस्टपोनमेंट होगा, स्थगन होगा। वह जीएगा कभी नहीं। वह सिर्फ जीने की सोचेगा, कभी जीऊंगा।
ऐसे उसके जीवन का अवसर खो जाता है। उसके हाथ मौत ही लगती है, जीवन नहीं लग पाता। क्योंकि जीवन तो उसका है, जो अभी जी ले, यहीं जी ले, इसी क्षण जी ले। जिसने कल पर टाला, उसके हाथ में आखिर मौत की राख लगेगी।
फिर दूसरा है राजस पुरुष, राजस कर्ता।
जो आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला..।
वह आसक्तिपूर्ण है। कर्मों के फल चाहता है, कर्मों में उसे उत्सुकता नहीं है। वह वर्षों तक कर्म कर सकता है। लेकिन उसकी उत्सुकता कर्म में नहीं है, उसकी उत्सुकता फल में है। वह वर्षों तक संलग्न रह सकता है, आलसी नहीं है। वह एक ही काम को कर सकता है जीवनभर; फल की आशा भर बनी रहे। तो अपनी पूरी जीवन—ऊर्जा को उंडेल देगा। लेकिन लक्ष्य भविष्य में है। कृत्य करना पड़ता है, इसलिए करेगा। असली बात फल है। आसक्ति उसमें गहन होगी।
लोभी तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला होगा.......।
जहां भी लोभ है, वहां दूसरे को कष्ट देना ही पड़ेगा। क्योंकि लोभ छीनेगा, शोषित करेगा। फर्क समझ लेना।
तामसी स्वभाव वाला व्यक्ति भी नाशक होता है, लेकिन वह नाश में रस लेता है। राजस स्वभाव का व्यक्ति नाश में रस नहीं लेता, लोभ उसका कारण है। लोभ के लिए नाश करना पड़े, तो वह करता है। लेकिन राजस व्यक्ति अकारण नाश नहीं करेगा। तामस व्यक्ति अकारण नाश कर देगा। उसका रस ही नाश है। राजस व्यक्ति को कोई लोभ होगा, तो करेगा।
जैसे कि कोई राजस व्यक्ति जीसस की मूर्ति को नहीं तोड़ सकता था, जब तक कि कोई कहता कि हम तुझे एक करोड़ रुपया देंगे, जा तू तोड़ दे। तो तोड़ देता। लेकिन ऐसे अकारण नहीं तोड़ता; सिर्फ तोड़ने के लिए नहीं तोड़ता। वह कहता, मैं कोई पागल हूं! मिलेगा क्या? वह हमेशा लोभ के कारण जीएगा।
अशुद्धाचारी.............।
क्योंकि जहां लोभ है, वहां आचरण शुद्ध नहीं हो सकता। लोभ ही तो अशुद्धि है।
हर्ष—शोक से लिपायमान.............।
तामसी व्यक्ति शोक में लिपायमान होता है। उसको हर्ष घटता ही नहीं। राजसी व्यक्ति को कभी—कभी हर्ष की घड़ियां आती हैं। शोक तो आता है, लेकिन हर्ष भी आता है। तुम उसे कभी हंसते हुए भी पाओगे। तुम उसे कभी रोते हुए भी पाओगे, लेकिन रोना उसकी शैली नहीं है। अगर वह रोता है, तो सिर्फ इसलिए रोता है कि हंसने की जो चेष्टा कर रहा था, वह सफल नहीं हो पाई। हारकर रोता है। चाहता था हंसना, मजबूरी है, इसलिए रोता है।
तामसी व्यक्ति रोना ही चाहता था। तुम उसको हंसा न सकोगे। तुम हंसाने की कोशिश करोगे, तो और जोर से वह रोने लगेगा। रोने में उसका रस है। रोना ही उसका सुख है।
हर्ष—शोक से लिपायमान कर्ता राजस कहा जाता है। और फिर सबसे ऊपर सात्विक कर्ता है। जो कर्ता आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य—उत्साह से युक्त, कार्य के सिद्ध होने न होने में हर्ष, शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता सात्विक कहा जाता है।
उसकी कोई आसक्ति नहीं है। वह करता है, इसलिए नहीं कि कोई लोभ है, कि कुछ पाना है। वह करता है, कर्तव्यवश। वह करता है, क्योंकि परमात्मा ने भेजा है। वह करता है, क्योंकि पाता है, मैं जी रहा हूं और जीवन कृत्य है। वह पाता है कि मैं जीवन के मध्य में खड़ा हूं और जीवन में कर्म से जाने का कोई उपाय नहीं है। तो कर्म करता है।
जो भी कर्तव्य है, वह करता है। जो भी शास्त्र—सम्मत है, करता है। जो भी सदगुरु उपदेशित है, करता है। लेकिन करने में कोई आसक्ति नहीं है। ऐसा नहीं है कि अगर आज मृत्यु आ जाए, तो वह कहेगा, मुझे काम पूरा कर लेने दो। वह कहेगा कि मैं राजी हूं। आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला........।
उसकी कोई अपनी अस्मिता नहीं है। परमात्मा के साथ ही उसका ऐक्य है। वह कहता है, वही अकेला मैं कहने का हकदार है। और कोई मैं कहने का हकदार नहीं है। जो सबका केंद्र है, वही कह सकता है, मैं। हम तो उसकी परिधि हैं, उसकी वल्लरियां हैं, तरंगें हैं, लहरें हैं। सागर कहे मैं, ठीक। लहर कैसे कहे!
धैर्य.......।
परम धैर्य उसमें तुम पाओगे। राजसी व्यक्ति में तुम धैर्य न पाओगे। तामसी में तुम धैर्य पाओगे, लेकिन वह धैर्य नहीं है, आलस्य है। वह धैर्य का धोखा है। राजसी व्यक्ति सदा जल्दी में होगा, क्योंकि फल पाना है।
सात्विक व्यक्ति प्रतीक्षा कर सकता है। वह प्रतीक्षा के मधुर आनंद को जानता है। कोई जल्दी नहीं है। जब होगा, तब होगा। वह किसी भी घटना को समय के पहले नहीं करवा लेना चाहता। उसे बेमौसम के फल नहीं चाहिए। जब पकेगा मौसम, जब फल आएंगे, तब तक वह बैठा प्रतीक्षा कर सकता है। उसकी प्रतीक्षा आलस्य नहीं है, क्योंकि वह श्रम पूरा करेगा। उसका श्रम तनाव नहीं है राजसी व्यक्ति जैसा, क्योंकि उसके श्रम में प्रतीक्षा है, आतुरता नहीं है।
उत्साह से युक्त।
उसे तुम हमेशा हलका—फुलका, नाचता, उत्साहयुक्त पाओगे। तुम कभी उसे हारा— थका न पाओगे। तुम कभी उसे बेमन न पाओगे। तुम कभी उसे ऐसा न पाओगे, जैसा कि आलसी सदा मिलता है और राजसी कभी—कभी मिलता है—उदास, पराजित, सर्वहारा, जैसे सब खो गया। तुम उसे सदा खिला हुआ पाओगे, सुबह के फूल की भांति। तुम सदा उसे ज्योतिर्मय पाओगे। क्योंकि फल की जिसकी कोई आकांक्षा नहीं, कर्म ही उसे फल हो जाता है। वह जो कर रहा है, वही उसका आनंद हो जाता है। प्रतिपल जीवन है। वह कभी पोस्टपोन नहीं करता, वह कल के लिए छोड़ता नहीं। आज ही कर लेता है।
सात्विक व्यक्ति ऐसे जीता है, जैसे यह आखिरी दिन है। और ऐसे भी जीता है, जैसे जीवन का कभी अंत न होगा। सात्विक व्यक्ति एक विरोधाभास है, एक पैराडाक्स है। वह रोज सुबह उठता है और सोचता है, यह आखिरी दिन है, आज की सांझ आखिरी होगी। इसलिए पूरी तरह जी लूं कल तो है नहीं।
कल नहीं है, इसलिए आज को पूरी तरह जीता है। लेकिन आतुरता से नहीं जीता, जल्दी में नहीं जीता, कि जीवन को आज में ही सिकोड़ लूं पूरा, क्योंकि कल नहीं है। तब वह इस तरह भी जीता है, जैसे अनंत है काल, कभी अंत न होगा, समय की कोई सीमा न आएगी। तुम उसके पैरों में गति भी पाओगे और धैर्य भी। तुम उसके कृत्य में उत्साह भी पाओगे, गति भी पाओगे, प्रतीक्षा भी। सात्विक व्यक्ति इस जगत में सबसे बड़ा संगीत है। उसके पार जो हो जाता है, जिसको गुणातीत कृष्ण कहते हैं, वह फिर इस जगत के पार है। सात्विक व्यक्ति इस जगत की आखिरी ऊंचाई है।

 समाधि ० तामसिक व्यक्ति आखिरी खाई है, सात्विक आखिरी गौरीशंकर। उसके पार भी एक व्यक्तित्व है, जो गुणातीत है —कृष्ण का, बुद्ध का। उनको हम सिर्फ सात्विक नहीं कह सकते। वे बचे ही नहीं, उनको सात्विक कहने का भी उपाय नहीं है।
धैर्य और उत्साह से युक्त, कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष—शोकादि विकारों से रहित...।
उसके लिए हर्ष और शोक दोनों विकार हैं, बीमारिया हैं। न तो वह सुख चाहता, न वह दुख चाहता। तब उसके जीवन में महासुख घटता है। महासुख सुख नहीं है। महासुख दुख का अभाव नहीं है। महासुख सुख—दुख दोनों से मुक्ति है। तब उसके जीवन में बड़ी शांति होती है, बड़ी निगूढ़ शांति होती है, जिसको खंडित करने की कोई भी संभावना नहीं है। क्योंकि न उसे दुख मिटा सकता, न उसे सुख मिटा सकता।
क्या तुमने कभी यह गौर किया कि सुख भी एक तरह का ज्वर है! जब पकड़ता है, तो थकाता है। सुख भी एक तरह की उत्तेजना है, बेचैन कर जाती है। दुख तो है ही बेचैनी, लेकिन सुख भी बेचैनी है। और तुमने यह कभी खयाल किया कि दुख में तुमने किसी को मरते न देखा होगा, सुख में बहुत लोग मर जाते हैं। अति सुख हो जाए, हृदय ठप्प हो जाता है; अति दुख में नहीं होता।
तो सुख बड़ी गहन उत्तेजना है, शायद दुख से भी ज्यादा। शायद दुख तो हमें इतना मिलता है कि हम उसके लिए राजी हो गए हैं। सुख हमें कभी—कभी मिलता है; ऐसा अनजाना अतिथि, कि जब आता है, तो हम इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि तोड़ जाता है।
दुनिया में जितने भी हृदय के दौरे पड़ते हैं, वे चालीस और पैंतालीस के बीच अधिकतम, चालीस और पैंतालीस की उम्र के बीच, क्योंकि ये ही सफलता के दिन हैं। आदमी चालीस और पैंतालीस के बीच सफल होने के करीब आता है—धंधे में, पद में, प्रतिष्ठा में। ये दिन हैं। इनमें जो चूक गया, फिर बहुत मुश्किल है।
पैंतालीस तक भी जो संसार में कुछ न पा सका, फिर वह न पा सकेगा। क्योंकि अब शक्ति के दिन गए, खोज के दिन गए, लड़ने के दिन गए। पैंतालीस और चालीस के पहले बहुत कम लोग पा सकते हैं; वे ही लोग पा सकते हैं, जिनको वंश —परंपरागत सुविधा मिली हो। जिसे अपने ही पैरों से खड़ा होना हो, वह करीब चालीस और पैंतालीस के बीच सफल होता है; वहीं हार्ट अटैक, वहीं हृदय के दौरे, वहीं हार्ट फैल्योर, वहीं हृदय का बंद होना भी घटता है।
अमेरिका में ऐसा मजाक है कि जिस आदमी को पैंतालीस साल की उस तक ह्रदय का दौरा न पड़ा, उसका जीवन बेकार ही गया; बेकार ही गया, क्योंकि वह असफल आदमी है। सफलता आती है, तो हृदय का दौरा भी आता है।
तुम अब की बार जब तुम्हारे जीवन में सुख आए, तो जरा गौर करना कि सुख भी कैसी बेचैनी की अवस्था है! कैसा चित्त उद्विग्न होता है!
सात्विक व्यक्ति जान लेता है, दुख तो बेचैनी है ही, सुख भी बेचैनी है। और सात्विक व्यक्ति यह भी जान लेता है कि सुख—दुख दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो सुख है, वही दुख हो जाता है। अगर सुख ज्यादा देर रुक जाए, तो दुख हो जाता है। अगर दुख भी ज्यादा देर रुक जाए, तो उसका दुख मिट जाता है, वह भी सुख जैसा लगने लगता है। वे अलग—अलग नहीं हैं, वे एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। वह दोनों को छोड़ देता है।
न तो उसे कार्य के सिद्ध होने पर हर्ष होता, न शोक होता। हारने पर रोता नहीं, जीतने पर हंसता नहीं। क्योंकि न अब हार अपनी है न जीत अपनी है। हारे तो परमात्मा; जीते तो परमात्मा। जो उसकी मर्जी। सात्विक व्यक्ति तो सिर्फ निमित्त हो रहता है।

 आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें