स्वधर्म, स्वकर्म और वर्ण—(प्रवचन—तेरहवां)
अध्याय—18
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तव्छृणु।। 45।।
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमथ्यर्ब्य सिद्धिं विन्दति मानव:।। 46।।
श्रेयाक्यधर्मा विगुणः परधर्माफ्लनुष्ठितात्।
स्वभावनिक्तं कर्म कुर्वब्रानोति किल्बिषम्।। 47।।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोश्मीय न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। 48।।
एवं इस अपने—अपने स्वाभाविकि कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म मैं लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन। हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाक्कि कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता हे।
इसलिए अच्छी कार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता।
अतएव है कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सब ही कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न : आपने कहा कि जब शिष्य तैयार होता है, तो गुरु मिल जाते हैं; जैसे अर्जुन को गहन विषाद के समय कृष्ण का सहारा मिला। तो क्या कारण है कि नीत्से जैसे लोगों को उनके चरम विषाद में भी किसी गुरु का सहारा नहीं मिल पाता है?
शिप्य तैयार हो, तो गुरु मिल जाता है। लेकिन शिष्य-शिष्य होने को राजी ही न हो, तब गुरु मिल भी जाए तो भी मिलने का कोई अर्थ नहीं, सार नहीं।
अर्जुन को विषाद हुआ और उसने जिज्ञासा की, मुमुक्षा की; वह किन्हीं के चरणों में झुका, किन्हीं से जानने के लिए आतुर हुआ, तो गुरु की वर्षा हो सकी उसके ऊपर। प्यास थी, तो जल सरोवर निकट आ गया।
नीत्से अर्जुन से भी ज्यादा बड़े विषाद से भरा है; उसका विषाद अर्जुन से कम नहीं है, ज्यादा है; उसकी पीड़ा भयंकर है। उसकी पीड़ा अंततः उसे विक्षिप्तता में ले गयी। जीवन के अंतिम दिन पागलखाने में ही बीते। लेकिन सीखने की उसकी कोई मंशा नहीं है, जिज्ञासा करने की कोई आकांक्षा नहीं है; किसी से पूछने को वह तैयार नहीं है।
न केवल यही कि वह किसी से पूछने को तैयार नहीं है, वह यह भी मानने को तैयार नहीं है कि कोई बता सकता है या कोई जानता है। उसके द्वार गुरु के लिए बिलकुल बंद हैं। गुरु को निमंत्रण तो उसने दिया ही नहीं है; द्वार भी बंद कर रखे हैं। गुरु द्वार पर भी खड़ा हो जाए, तो वह स्वीकार करने को राजी नहीं है। झुकने की वृत्ति उसमें नहीं है।
और जो झुकना न जानता हो, वह शिष्य कैसे हो सकेगा? शिष्य की सारी कला तो झुकने की कला है। निश्चित ही, मैं कहता हूं कि जब भी कोई शिष्य तैयार होता है, गुरु उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन शिष्यत्व को मत भूल जाना। वह तैयारी प्राथमिक है।
नीत्से तो तैयार ही न था सीखने को; कहीं भूल—चूक से कोई सिखा न दे, इसके लिए भी उसने सब विपरीत आयोजन कर रखा था। वह अगर दस्तखत भी करता था, तो उसमें भी एंटी क्राइस्ट लिखता था; जीसस का शत्रु, पीछे दस्तखत करता।
जीसस से शत्रुता का क्या कारण है उसके लिए? एक ही कारण है कि यह एक आदमी मालूम पड़ता है, जिसके सामने शायद झुकना पड़े। जिसके सामने झुकना पड़े, उसके तो वह विरोध में है। उसने जगह—जगह घोषणा की है कि ईश्वर मर चुका है और मनुष्य पूर्णरूपेण स्वतंत्र है। और जब भी उससे पूछा गया कि तुम क्यों कहते हो कि ईश्वर मर चुका है? तो वह कहता है कि दो ईश्वर कैसे हो सकते हैं! या तो ईश्वर हो सकता है या मैं हो सकता हूं। और अगर कोई और ईश्वर है, तो यह मेरे बरदाश्त के बाहर है। उस सिंहासन पर तो केवल मैं ही हो सकता हूं।
ऐसा जहां अहंकार हो, वहां गुरु से मिलन नहीं हो सकता। ऐसी जहां दुर्दम्य अस्मिता हो, अनमनीय जहां भाव हो, वहां सरोवर भी पास रहे, तो भी तुम्हारी प्यास न बुझेगी। झुकोगे, अंजुलि में भरोगे जल को, तो ही तो कंठ तक ले पाओगे। सरोवर उछलकर तुम्हारे कंठ में न चला जाएगा। और अगर तुम जिद्द ही कर रखे हो, तो सरोवर उछले भी, तो तुम भाग खड़े होओगे।
नीत्से बचता रहा। और इसका स्वाभाविक जो परिणाम होना था, वह हुआ। वह विक्षिप्त हुआ। इतना अहंकार विक्षिप्तता में ले जाएगा। विनम्रता विमुक्ति में ले जाती है; अहंकार विक्षिप्तता में। झुको, मिटो, तो तुम्हारे ऊपर जीवन के सभी आनंद बरस जाते हैं; तुम जीवन की परम संपदा के मालिक हो जाते हो। मत झुको, सूखते जाते हो, जड़ें टूटती जाती हैं। एक दिन तुम जीर्ण—जर्जर, एक खंडहर मात्र रह जाते हो।
अर्जुन के लिए गुरु मिला, नीत्से को गुरु नहीं मिल सका, क्योंकि नीत्से इनकार कर रहा है। अर्जुन में संदेह भला हों, अस्वीकार नहीं है। अर्जुन अपने संदेहों को रखता है। अर्जुन कोई अंधा अनुयायी नहीं है, कि कृष्ण जो कहते हैं, उसे मान लेता है। लेकिन मौलिक रूप से, कृष्ण जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, मेरे संदेह ही गलत हो सकते हैं, कृष्ण का वक्तव्य नहीं; यह उसकी श्रद्धा है। संदेह हैं; उनका निवारण करना है। लेकिन संदेह कोई सत्य नहीं है। उनसे मुक्त होना है, उनको पकड़ नहीं रखना है।
नीत्से बिलकुल उलटा है, संदेह उसे नहीं है, सत्य ही उसके पास है! वह तो दूसरों का संदेह मिटाने के लिए सत्य देने को तैयार है। नीत्से गुरु बनने को तैयार है, शिष्य बनने को नहीं।
और जो शिष्य नहीं बना, वह गुरु तो कभी बन ही न सकेगा। उसकी गुरुता तो पागलपन होगी। जिसने सीखा नहीं है, वह देगा कैसे? जिसने पाया नहीं, वह लुटाका कैसे? जिसके पास है नहीं, वह बांटेगा कैसे?
दूसरा प्रश्न : आपने कल कहा कि जो ही में जीता है, जो भी हो, उसे स्वीकार करता है, वह आस्तिक है। परंतु अनेक बार मुझसे समग्रता से न भी निकला है। यदि अस्तित्व की समग्रता से न निकले, तो क्या वह भी आस्तिकता ही नहीं है?
न समग्रता से निकलता ही नहीं; निकल ही नहीं सकता; वह उसका स्वभाव नहीं।
इसे थोड़ा समझो। मामला थोड़ा नाजुक है।
जब भी तुम नहीं कहते हो, तब तुम टूट जाते हो समग्रता से। यह जो विराट अस्तित्व है, नहीं कहते ही तुम्हारे और इसके बीच एक खाई खड़ी हो जाती है।
तुम जिससे भी नहीं कहते हो, उसी से टूट जाते हो। तुम जहां नहीं कहते हो, वहीं तुम एक छोटे—से खंड हो जाते हो। अखंड से तुम्हारा नाता अलग हो जाता है। नहीं दरार है।
और जब भी तुम नहीं कहते हो, तब तुम्हारे भीतर की समग्रता से भी नहीं निकल सकता है। क्योंकि नहीं में विरोध है, नहीं में प्रतिरोध है, रेसिस्टेंस है, संघर्ष है। संघर्ष कभी तुम्हारी पूर्णता से नहीं निकल सकता। विश्राम ही तुम्हारी पूर्णता से निकल सकता है। संघर्ष से तुम आज नहीं कल थक ही जाओगे। नहीं कहने वाला आदमी आज नहीं कल टूट ही जाएगा।
और जब तुम नहीं कहते हो, तो उसका मतलब क्या है? उसका मतलब यह है कि तुम अपने को ऊपर रखते हो, अपने को ज्यादा समझदार मानते हो। तभी नहीं कहते हो।
आस्तिक कहता है, यह जो समग्रता है जीवन की, यही ऊपर है। मैं तो इसी की एक तरंग हूं। सागर की तरंग सागर से नहीं कैसे कह सकती है! और अगर कहेगी, तो टूट जाएगी। तो जमकर बर्फ बन जाएगी; तब कह सकती है।
नहीं कहने के लिए दूर होना जरूरी है, फासला जरूरी है। तुम जब नहीं का उपयोग भी करते हो, तब भी तुम पाओगे, तत्क्षण बड़ा फासला पैदा हो जाता है। जब भी तुम हा कहते हो, सेतु बन जाता है; टूटी हुई चीजें जुड़ जाती हैं। खाई पट जाती है। बंद द्वार खुल जाते हैं। तुम अलग नहीं रह जाते।
अगर तुम्हारी न तुम्हें तोड़ती है समग्र से, तो तुम्हारे भीतर भी तुम्हारी समग्रता में नहीं हो सकती। अगर तुम वहां भी खोज करोगे, तो पाओगे कि वहां भी नहीं कहने वाला अलग खड़ा है।
नहीं कहने के लिए अहंकार को अलग खड़ा होना अत्यंत जरूरी है। अन्यथा नहीं कौन कहेगा? वहां कहने वाला और जो कहा गया है, वे अलग—अलग होंगे।
जब तुम हां कहते हो, तब वस्तुत: हां कोई कहता नहीं, हां निकलता है। नहीं कही जाती है। ही तुमसे उठता है, जैसे श्वास उठती है।
तुम इसको प्रयोग करके देखो। जब भी तुम नहीं कहो, तब गौर करना, तुम्हारे भीतर क्या घटता है? तुम्हारी श्वास अवरुद्ध हे जाती है; पूरी श्वास तुम नहीं ले सकते। जब तुम नहीं कहते हो, तब श्वास पूरी नहीं जाती, वह भी टूट जाती है। जब तुम नहीं कहते हो, तब तुम्हारे भीतर कोई चीज सिकुड़ जाती है, फैलती नहीं। जब तुम नहीं कहते हो, तब अचानक तुम क्षुद्र हो जाते हो।
जब तुम हा कहते हो, तब तुम्हारे भीतर कोई चीज फैलती है। जब तुम हा कहते हो, तब तुम्हारी श्वास पूरी चलती है, हृदय पूरा धड़कता है। ही कहकर एक हल्कापन मालूम होता है। नहीं कहकर एक बोझ बन जाता है। नहीं कहते ही चित्त में तनाव खिंच जाता है। हा कहते ही सब विराम हो जाता है।
यह बहुत मजे की बात है। दुनिया की सब भाषाओं में ही के लिए अलग—अलग शब्द हैं, लेकिन न के लिए करीब—करीब न ही शब्द है। नो हो, नहीं हो, नू हो, लेकिन न के लिए सारी दुनिया की भाषाओं में न ही शब्द है। यह बड़े आश्चर्य की बात है।
ही के लिए अलग—अलग शब्द हैं। पर अधिकतम भाषाएं न के लिए एक ही शब्द उपयोग करती हैं। न में ही कुछ नहीं है, कुछ इनकार है। न में नकार है, निगेशन है। न ध्वनि में ही कुछ तोड्ने वाली बात है।
तुम ही के लिए उपयोग किए जाने वाले शब्दों को विचार करो। ही कहो, यस कहो, इनकार नहीं है, अस्वीकार नहीं है, विरोध नहीं है। तुम किसी चीज से मिलने के लिए आगे बढ़ते हो, तुम्हारा हाथ फैलता है, तुम आलिंगन को तत्पर हो।
और इसको तुम सूत्र समझ लो, जो तुम्हें बाहर समग्र से जोड़ता है, वही तुम्हारे भीतर के समग्र से आ सकता है। अगर बाहर के समग्र से तुम्हें तोड़ता है, तुम्हारे भीतर कभी समग्र से नहीं आ सकता।
लेकिन अहंकार नहीं कहने में मजा पाता है। नहीं अहंकार की सुरक्षा है। और जितना तुम नहीं कहोगे, उतना ही अहंकार में धार आती जाती है। ऐसी जगह भी तुम नहीं कहते हो, जहां कहने की कोई जरूरत ही न थी।
छोटा बच्चा मां से पूछता है, बाहर खेल आऊं? नहीं! कोई मतलब न था। वह बिना पूछे भी जाएगा, पूछकर भी जाएगा, नहीं कहने के बाद भी जाने वाला है। और बाहर खेल आने में हर्ज भी क्या था! लेकिन नहीं स्वाभाविक मालूम होता है, आदत बन गई है। नौकर पूछता है, आज तनख्वाह मिल जाए। नहीं! ऐसा भी नहीं कि आज पैसे घर में न थे या देने में कोई अड़चन थी, लेकिन नहीं कहने में एक सुविधा है।
जाकर देखो रेलवे स्टेशन पर, बुकिंग क्लर्क देखते ही नहीं। तुम खड़े हो; वह अपने काम में लगा हुआ है। काम में शायद लगने की जरूरत भी न हो; क्योंकि जब वहां कोई नहीं होता, तब वह विश्राम करता है। जब खिड़की पर कोई टिकट लेने वाला नहीं होता, तब वह सिगरेट पीता है पैर फैलाकर, आराम करता है। जैसे ही कोई खिड़की पर दिखाई पड़ा, कि रजिस्टर पर झुक जाता है। वह नहीं कह रहा है। वह कह रहा है, रुको, ठहरो, क्या समझ रखा है अपने आपको!
छोटी—सी सत्ता मिल जाए, कि तुम क्लर्क हो गए, कि पुलिसवाले हो गए, कि फिर देखो तुम्हारा नहीं कैसा प्रकट होने लगता है! कि तुम बाप हो गए, बेटे के ऊपर सत्ता मिल गई, कैसा नहीं प्रकट होने लगता है!
इसे जरा गौर करना। सौ में निन्यानबे मौके पर तो तुम पाओगे, नहीं की कोई जरूरत ही न थी, वह निष्प्रयोजन था। लेकिन एक प्रयोजन वह पूरा करता है, वह तुम्हारे अहंकार को भरता है।
अगर तुम ही कह दो, तो ताकत मालूम नहीं होती, शक्ति नहीं मालूम होती। ही में ऐसा लगता है कि अपनी कोई शक्ति नहीं कि न कह सकें। न कहने में ताकत, शक्ति, अधिकार मालूम होता है। इसलिए न से अहंकार भरता है।
न अहंकार का भोजन है। ही अहंकार की मृत्यु है। और जहां अहंकार मिट जाएगा, वहीं तुम समग्र हो सकोगे; क्योंकि अहंकार तुम हो नहीं। अहंकार तो गांठ है, रोग है, बीमारी है। वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है; तुम्हारे स्वभाव में पड़ गई गांठ है। उस गांठ के साथ तुम कितने ही अपने को बांध लो, तुम गांठ हो नहीं। इसलिए तुम कभी पूरे हो नहीं सकते।
और अगर तुम धीरे— धीरे न कहना बंद कर दो, होश से भर जाओ, न के कारण पहचानने लगो कि क्यों कहते हो, और धीरे— धीरे न गिरती चली जाए, वैसे—वैसे तुम पाओगे, तुम भीतर भी जुड्ने लगे, बाहर भी जुड्ने लगे।
एक ऐसी घड़ी आती है, जब हां ही भीतर का स्वर रह जाता है, तभी परम आस्तिकता है। तब मृत्यु भी आती हो, तो नहीं का स्वर नहीं उठता। अभी तो छोटी—छोटी बातों में उठता है। जरूरत नहीं है, वहां भी उठता है। जीवन भी आता हो, तो भी उठता है। फिर तो मृत्यु भी आती हो, तो ही का स्वर ही स्वागत करता है। और जिस दिन तुमने ही के साथ मृत्यु का स्वागत कर लिया—मृत्यु को मार डाला, मृत्यु को जीत लिया, अमृत को उपलब्ध हुए।
जिस दिन तुमने सुख में, दुख में, पराजय में, जीत में, हर घड़ी ही कहने का राज सीख लिया, उसी दिन तुम निमित्त हो गए, उसी दिन तुम परमात्मा के उपकरण बन गए। अब तुम्हारी कोई फलाकांक्षा न रही; अब उसकी ही मर्जी तुम्हारी मर्जी है। अब वह जहां ले जाए, तुम जाने को राजी हो। न ले जाए, तो न जाने को राजी हो। भटकाए तो भटकने को राजी हो, पहुंचाए तो पहुंचने को राजी हो। अब वह बीच मझधार में डुबा दे तुम्हारी नाव को, तो यही किनारा है। उस ड़बते क्षण में भी तुम्हारे मन से इनकार न उठेगा।
जीसस आखिरी क्षण में, सूली पर लटके हुए एक क्षण को न से भर गए। अहंकार की आखिरी रेखा शेष रह गई होगी; पता भी नहीं चला था; सूली के क्षण में ही पता चला होगा स्वयं को भी। सूली पर जब लटकाए गए और जब हाथों में खीले ठोंके गए, तो एक क्षण को विह्वल हो गए। मौत द्वार पर खड़ी थी। और साधारण मौत न थी। बिस्तर पर लेटे हुए नहीं आ रही थी, सूली लग रही थी। हजारों लोग पत्थर और गालियां फेंक रहे थे। अपमान का स्वर गंज रहा था; चारों तरफ निंदा थी, जैसे कि जघन्य अपराधी को मारा जा रहा हो। एक क्षण को किसी के भी प्राण कंप जाएंगे।
मुझे अच्छा भी लगता है कि जीसस के प्राण भी कंपे, इससे पता चलता है कि जीसस मनुष्य हैं और मनुष्यता से ही आए हैं। मनुष्य के ही बेटे हैं। परमात्मा के बेटे बने, लेकिन मूलतः मनुष्य के बेटे हैं। पूरी मनुष्यता सूली पर उस दिन लटकी थी। और मनुष्य दीन है, दुर्बल है, कंपता है, डरता है, गिरता है, उठता है; सभी कमजोरियां हैं।
जीसस ने उस दिन जो कमजोरी प्रकट की, वह बड़ी प्रीतिकर है। एक क्षण को वे भूल गए सारी आस्तिकता। भूल गए एक क्षण को अपना सारा स्वीकार— भाव। उठाया सिर आकाश की तरफ और कहा कि यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? यह क्या हो रहा है मेरे ऊपर? एक क्षण को शिकायत आ गई, इनकार आ गया।
लेकिन सम्हल गए। तत्क्षण सम्हल गए कि यह इनकार, यह अस्वीकार, यह शिकायत तो यही बताती है कि मैं अभी परमात्मा से पूरा—पूरा राजी नहीं हूं। आंखें नीचे झुक गईं, उनमें आंसू भर गए होंगे; और उन्होंने प्रार्थना की कि हे परमात्मा, मेरी नहीं, तेरी ही मर्जी पूरी हो। तू जो कर रहा है, ठीक ही कर रहा है।
इस एक क्षण में क्रांति घटी। वह जो मनुष्य था, अचानक दिव्य हो गया। वह जो साधारण हड्डी, मांस, मज्जा की देह थी, अब हड्डी, मांस, मज्जा की देह न रही। मृण्मय का जगत पार हो गया। वह देह अब चिन्मय से भर गई। वह ज्योति जग गई, परम ज्योति उतर गई। उसी ही के क्षण में जीसस जोसेफ नाम के बढ़ई के लड़के न रहे। उसी क्षण में जीसस जीसस न रहे, क्राइस्ट हो गए। वे परम भाव को उपलब्ध हो गए।
बस, इतना ही फासला है तुम्हारी दीनता में और परम धन में, तुम्हारी दुख की अवस्था में और तुम्हारे आनंद में। तुम्हारे नर्क और स्वर्ग में नहीं और ही का फासला है। जितनी बड़ी नहीं, उतना बड़ा नर्क। नहीं यानी नर्क। छोटी नहीं, छोटा नर्क, थोड़ी—सी नहीं, तो थोड़ा—सा नर्क। नहीं बिलकुल नहीं, हां ही ही रह जाए, तो स्वर्ग ही स्वर्ग है।
तीसरा प्रश्न : मनुष्य का स्वधर्म क्या है और परधर्म क्या है?
कृष्ण दो शब्दों का उपयोग करते हैं। दोनों ठीक से समझ लेने चाहिए। एक तो है स्वधर्म और एक है स्वकर्म। स्वधर्म का तो अर्थ है, तुम अपनी आत्यंतिक निजता में जो हो, तुम्हारे स्वभाव का जो मौलिक स्वर है। जहां सब विचार खो गए, सब कर्म खो गए, गहन शून्य बचा, उस भीतर के शून्य का जो गुणधर्म है, उसका नाम स्वधर्म है।
इसका तो यह अर्थ हुआ कि स्वधर्म वस्तुत: एक—सा ही होगा। मेरा स्वधर्म और तुम्हारा स्वधर्म अलग नहीं हो सकता। क्योंकि जब मैं पहुंचूंगा उस पड़ाव पर, तो वही शून्य मिलेगा, जो तुम्हें मिला है। लेकिन वह तो आत्यंतिक घटना है, आखिरी घटना है।
कृष्ण, बुद्ध और क्राइस्ट एक ही शून्यता को उपलब्ध हो गए हैं; एक ही शुद्ध भाव को उपलब्ध हो गए हैं। लेकिन उसको तो बाहर से देखने का कोई उपाय नहीं है। वह तो भीतर की अनुभूति है। उसको तो पहचानने का कोई लक्षण भी नहीं है। बाहर से तो तुम जिसे पहचानोगे, वह है स्वकर्म। वह भिन्न—भिन्न है।
कर्म है तुम्हारी परिधि और धर्म है तुम्हारा केंद्र। तुम्हारे केंद्र पर तो तुम्हारे अतिरिक्त कोई कभी नहीं पहुंच सकता। इसलिए तू_म ही जानोगे। यद्यपि वह केंद्र एक ही जैसा है सभी के भीतर। लेकिन तुम्हारे केंद्र पर तुम्हीं पहुंचोगे, मेरे केंद्र पर मैं ही पहुंचूंगा। अगर तुम मेरे केंद्र पर पहुंच जाओ, तो वह मेरा केंद्र ही न रहा। वह गली इतनी संकरी है कि उसमें दो समाते ही नहीं।
केंद्र पर तो मैं ही अकेला रह जाऊंगा। अगर वहां दो बिंदु भी बन सकते हैं, तो वह अभी केंद्र नहीं है। जहां सिर्फ एक ही बिंदु बनता है, जहां केवल परकार की नोक ही समाती है, बस वही। परिधि पर बहुत बिंदु बन सकते हैं। परिधि भिन्न—भिन्न होगी, अलग— अलग रंग की होगी। तो स्वकर्म।
यह जो विभाजन है, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, ब्राह्मण, यह स्वकर्म का विभाजन है। यह तुम्हारी परिधि है। क्षत्रिय की गहराई में भी तुम उसी ब्रह्म को पाओगे, जिसको ब्राह्मण की गहराई में पाओगे। उसी को शूद्र की गहराई में भी पाओगे। लेकिन कर्म भिन्न—भिन्न हैं, परिधि भिन्न—भिन्न हैं।
कृष्ण बहुत बार स्वधर्म को स्वकर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त करते हैं, इससे तुम्हें भांति हो सकती है। भांति का कोई कारण नहीं है। समझ लेना चाहिए।
शूद्र को वे कहते हैं कि तू अपने स्वकर्म में रहकर ही उपलब्ध हो सकता है। ब्राह्मण को कहते हैं, तू अपने स्वकर्म में रहकर ही उपलब्ध हो सकता है। बोलचाल की भाषा में इसी को स्वधर्म कहा जाता है। कामचलाऊ है; बहुत पारिभाषिक नहीं है। कहना चाहिए, स्वकर्म।
कृष्ण का कहना यह है कि जिस कर्म में तुम पैदा हुए हो, जिस परिवार में, जिस वर्ण में तुम पैदा हुए हो, उसमें पैदा होना भी अकारण तो नहीं हो सकता। तुमने चाहा होगा, तुमने कमाया होगा, तुमने पिछले जन्मों में उस तरह की वासना की होगी। अब तुम पैदा हो गए हो।
क्योंकि जन्म भी अकारण नहीं है। वह भी तुम्हीं ने चुना है। वह भी तुम्हारा ही चुनाव है। कोई शूद्र के घर में अकारण नहीं आ जाता, न कोई ब्राह्मण के घर में अकारण आ जाता है। अकारण इस जगत में कुछ होता ही नहीं, हो भी नहीं सकता।
जन्मों—जन्मों की वासना, आकांक्षा, अभीप्सा तुम्हें लाती है। तुम पुरुष बन गए हो, स्त्री बन गए हो, वह तुम्हारी जन्मों—जन्मों की आकांक्षाओं का परिणाम है। तुमने उसे संजोया है, बीज की तरह बोया है। अब तुम फसल काट रहे हो। हालाकि जब तुमने बीज बोए थे, वह तुम्हें सारी स्मृतियां भूल गईं। अब जब तुम फसल काट रहे हो, तुम्हें याद भी नहीं आता कि ये बीज तुमने कभी बोए थे! और आज तुम यह भी सोचोगे कि कैसे कोई आदमी शूद्र होना चाहेगा! होना चाहने का सवाल नहीं है। अब तुम थोड़ा समझने की कोशिश करो। तुम चाहे शूद्र न भी होना चाहते हो, लेकिन जिस ढंग से तुम जीते हो, उस ढंग से तुम कुछ अर्जित कर रहे हो।
एक आदमी है, जो सिर्फ खाता है, पीता है, सोता है। जिसका जीवन तमस से भरा है। वह ब्राह्मण हो इस जन्म में; मगर जिसका जीवन केवल खाने—पीने, सोने का जीवन है, यह आदमी अगले जन्म में शद्र होने की तैयारी कर रहा है। प्रकृति इसे शूद्र की तरफ भेज देगी। क्योंकि जो यह आदतें बना रहा है, वे शूद्र की आदतें हैं। और प्रकृति तो सदा तुम्हारे साथ सहयोग करने को राजी है। तुम्हें अगर इसमें ही सुख मिल रहा है, तो तुम्हें शूद्र ही बना देना अच्छा है। असल में ब्राह्मण घर में रहकर और इस तरह का व्यवहार करके तुम्हें दुख ही मिलेगा।
क्षत्रिय घर में रहोगे और तलवार उठाना न जानोगे, तो कष्ट ही पाओगे। क्षत्रिय घर में रहोगे और वेद, उपनिषद पढ़कर उन्हीं में ड़बे रहोगे, तो बड़ी लोकनिंदा होगी। वहां तलवार हाथ में उठाने की क्षमता चाहिए ही; वह संघर्ष का जगत है।
लेकिन अगर तुम वेद, उपनिषद में ड़बे रहे, तो तुम अगले जन्म में ब्राह्मण हो जाओगे। तुम्हारी जीवन—यात्रा उस तरफ मुड़ जाएगी। तुम ऐसे घर को खोज लोगे, जहां तुम्हारी आकांक्षाओं की सहज तृप्ति हो सके।
कोई ब्राह्मण है और तलवार लिए घूमता है! उचित होगा कि यह क्षत्रिय घर में पैदा हो, ताकि पहले ही क्षण से इसे तलवार की छाया में ही बढ़ती मिले। उसी तरह का वातावरण हो, उसी तरह के संस्कार हों, उसी तरह की हवा हो, जो इसे सहारा दे, ताकि इसके भीतर जो तलवार लेकर घूमने का नशा है, वह पूरा हो जाए।
जो भी घटता है, अकारण नहीं घटता।
तो कृष्ण कहते हैं, अगर तुम शूद्र घर में पैदा हुए हो, तो तुमने बहुत बार चाहा। अब पैदा हो गए; अब परेशान हो रहे हो। अब इस जीवन को परेशानी में मत बिताओ और इस जीवन में अब नाहक दूसरे वर्ण में और दूसरे कर्म के जगत में प्रवेश करने की चेष्टा मत करो। उससे समय व्यय होगा, शक्ति व्यय होगी, जीवन खराब होगा।
ज्यादा उचित यही है कि जो कर्म तुम्हें मिल गया है, जो पात्र होने की तुमने अब तक कमाई की थी, वह तुम्हें मिल गया है; अभिनय में वही तुम्हें मिल गया है, अब तुम उसे पूरा करते रहो। और उसको पूरा करते हुए ही तुम परमात्मा को साधने में लग जाओ। यह ज्यादा आसान होगा।
अपने कर्म को करते हुए अगर तुम ध्यान में उतरने लगो, तो तुम यहीं से मुक्त हो जाओगे। कोई वर्ण बदलने की जरूरत नहीं है। कोई देह बदलने की जरूरत नहीं है। कुछ ऊपर की परिधि बदलने की जरूरत नहीं है। जो जहां है, वहीं से अपने केंद्र में सरक सकता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्म को बदलने के लिए बहुत चिंता मत करो, स्वकर्म में ही जीओ, ताकि तुम अपने स्वधर्म को उपलब्ध हो सको। लेकिन स्वकर्म में जीते हुए स्वधर्म को उपलब्ध करने की चेष्टा, यत्न चलता रहे, होश सधा रहे। सूत्र खोए न।
नहीं तो तुम अभी शूद्र हो, ब्राह्मण बनने की कोशिश कर रहे हो। क्षत्रिय हो, शूद्र बनने की कोशिश कर रहे हो। कोई ब्राह्मण है, वह क्षत्रिय बनने की कोशिश कर रहा है। यह जीवन यूं ही खो जाएगा। और जहां तुम पैदा हुए हो, जहां तुम्हें जन्म से एक हवा मिली है, उस हवा में जीवन को बिता लेना सबसे ज्यादा सुगम है; उसके लिए तुम तैयार हो। इसलिए व्यर्थ उपद्रव खड़ा मत करो। जीवन ऐसा बिता दो बाहर, जैसा मिला है, और भीतर उसकी खोज कर लो, जो तुम्हारे भीतर छिपा है।
स्वकर्म में जीते हुए स्वधर्म को पाना आसान है। स्वकर्म को बदलकर स्वधर्म को पाना मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि एक नया उपद्रव तुम्हारे जीवन में स्वकर्म को बदलने का हो जाएगा। और यह कठिन है।
यह ऐसे ही है, जैसे एक आदमी डाक्टर की तरह तो शिक्षित हुआ। जब वह सारी शिक्षा लेकर एम डी. होकर घर वापस लौटा, तब उसको खयाल चढ़ा कि संगीतज्ञ हो जाए! अब ये इतने दिन बेकार गए। यह आधा जीवन जो डाक्टर होने में गंवाया, वह गया। उसका कोई सार न हुआ। अब वह संगीतज्ञ होने की धुन में लग गया।
अब संगीतज्ञ की शिक्षण—व्यवस्था बिलकुल अलग है, चिकित्सक की शिक्षण—व्यवस्था बिलकुल अलग है। उनमें कोई तालमेल नहीं है। इसे अ ब स से शुरू करना पड़ेगा। और आधी उम्र तो गई और अब यह फिर अ ब स से शुरू करता है। और अ ब स से शुरू करके जब यह मरने के करीब होगा, तब कहीं यह थोड़ी—बहुत संगीत की कुशलता को उपलब्ध हो पाएगा। तब भी यह तृप्त न जा सकेगा इस दुनिया से। अतृप्ति बनी रह जाएगी। उचित तो यही था कि अगर इसे स्वधर्म को खोजना हो, तो स्वकर्म को करते—करते चुपचाप खोज ले, क्योंकि स्वकर्म सुविधापूर्ण है।
स्वधर्म तो तुम्हारा भी वही है, जो मेरा है। सबका वही है। क्योंकि स्व की गहराई पर तो एक का ही वास है। लेकिन परिधियाँ सब की अलग हैं, देहें सब की अलग हैं, आत्मा एक है। तुम्हारे भीतर का शून्य तो एक है; लेकिन उस शून्य को ढाके हुए वस्त्र अलग— अलग हैं। उनके रंग अलग, रूप अलग, ढंग अलग। कोई जरूरत नहीं है कि तुम वस्त्र बदलों। तुम्हारे वस्त्रों में ही घटना घट जाएगी।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, कभी तुम्हें ऐसा भी लगे कि दूसरे का कर्म अपने से सुविधापूर्ण है, तो भी तुम झंझट में मत पड़ना। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। जब तुम पास जाओगे, तब कठिनाइयां तुम्हें मालूम पड़ेगी। जिसके तुम पास होते हो, उसकी कठिनाइयां दिखाई पड़ती हैं। जिसके तुम दूर होते हो, उसके सुख दिखाई पड़ते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, अपने ही कर्म में जीते हुए अपने धर्म को पा लेना। इसको गहरे से समझ लें। क्योंकि हमारा प्रयोजन कर्म को साधना नहीं है, हमारा प्रयोजन मूलत: धर्म को साधना है। तो इन व्यर्थ की बातों में समय मत गंवाना; जितना समय इनमें जाएगा, वह व्यर्थ गया। उतने समय को तुम जीवन—संपदा की खोज करने में लगा सकते थे।
तो कोई हर्ज नहीं, जूता बनाते हो, जूते बनाते रहना। कुछ तो करना ही होगा। चाहे जूते बनाओ, चाहे सोने के आभूषण बनाओ; कुछ तो करना ही होगा। और अगर जूते बनाने वाले घर में पैदा हुए हो, तो कुछ हर्ज नहीं है। ज्यादा कुशल हो। बचपन से ही जाना है। वही घटता रहा है चारों तरफ। वह तुम्हारे खून में समा गई है कला। वह जो सोनी के घर पैदा हुआ है, उसके खून में समा गई है कला कि वह सोने को गलाने में, ढालने में कुशल हो गया है।
हमने इस देश में एक फिक्र की थी कि जहं! तक बने, बाहर का जीवन ज्यादा समय न ले और ज्यादा शक्ति न ले। इसलिए हमने व्यवस्थित कर दिया था वर्णों को, कि अपने— अपने वर्ण में व्यक्ति चुपचाप काम करता रहे।
शूद्र के लिए हमने कहा कि वह जो भी करे, सेवा की भांति करे।
बस, उससे जीवन—यापन पूरा हो जाता है, इतना काफी है। शेष जो बच जाए समय, वह भीतर के लिए लीन होने में लगा दे।
वैश्य को हमने कहा है, वह सत्य की तरह व्यवसाय करता रहे। व्यवसाय ही करे, सिर्फ सत्य को उसमें जोड़ दे। जैसे शूद्र काम करे, लेकिन सेवा को जोड़ दे। उसके लिए सेवा ही स्वधर्म तक
जाने का मार्ग बन जाएगी। वैश्य को सत्य व्यवहार ही स्वयं तक जाने का मार्ग बन जाएगा।
क्षत्रिय को अपलायन; भागे न, पीठ न दिखाए जीवन की समस्याओं से, वही उसके लिए है। जीवन के घने संघर्ष में बिना भय के खडा रहे, अभय। वही उसके लिए मार्ग बन जाएगा।
ब्राह्मण के लिए? वह सिर्फ ब्राह्मण नाम—मात्र को न रहे, ब्रह्म का उदघोष! सोते, उठते—बैठते, ब्रह्म का भाव, सुरति बनी रहे, स्मृति बनी रहे। फिर करता रहे, जो उसे करना है। जो करने योग्य है, कर्तव्य है, वह करे। लेकिन भीतर वह साधे रहे। ब्राह्मण ब्रह्म की स्मृति से पहुंच जाता है वहीं जहां शूद्र सेवा के भाव से पहुंचता है। इसलिए एक बहुत मजे की बात है। दुनिया में इतने धर्म पैदा हुए हैं, इन सभी धर्मों का अलग—अलग बातों पर जोर है। और अगर तुम गौर करोगे, तो तुम पाओगे कि वह जोर इसी कारण है।
जैसे कि जीसस का जोर सेवा पर है। जीसस शूद्र घर से आए हैं, बढ़ई के लड़के हैं, जोर सेवा पर है।
हमने बहुत पहले यह खोज लिया था कि शूद्र के जीवन में सेवा पर जोर होगा। इसलिए ईसाइयत खूब फैली; दुनिया का कोई धर्म इतना नहीं फैला। आधी दुनिया आज ईसाई है। स्वाभाविक है।
तुम यह मत समझना कि वह ईसाई मिशनरी लोगों को जबरदस्ती ईसाई बना रहा है इसलिए; स्वाभाविक है। क्योंकि शूद्र दुनिया में बड़ी से बड़ी जमात है।
सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। इसलिए सेवा की बात सभी को जम सकती है। और जो लोग इस मुल्क में भी शूद्र के वर्ग से आए हैं, उनका जोर भी सेवा पर है।
विवेकानंद, वे शूद्र हैं, कायस्थ घर से आए हैं। उनका जोर सेवा पर है। इसलिए रामकृष्ण मिशन पूरा का पूरा सेवा में लग गया, वह विवेकानंद की वजह से।
रामकृष्ण मिशन रामकृष्ण मिशन नाम को ही है; वह विवेकानंद मिशन है। विवेकानंद ने ही बनाई सारी जीवन—दृष्टि। रामकृष्ण को तो कभी खयाल भी नहीं था यह सेवा और इस सबका! लेकिन विवेकानंद को है। तो पूरा मिशन अस्पताल खोलता है, स्कूल चलाता है, बीमारों के हाथ—पैर दबाता है, इलाज करता है। सेवा में संलग्न हो गया है।
जो —जो धर्म जहां—जहां से आए हैं, उस स्रोत को अपने साथ लाएंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
वैश्यों में जो मनीषी पैदा हुए हैं, जैसे श्रीमद् राजचंद्र, तो सारा जोर सत्य पर है, सत्य व्यवहार, प्रामाणिकता। वह वैश्य की जीवन—धारा का अंग है। वही उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण मालूम होगा।
जो धर्म ब्राह्मणों से अनुस्थूत हुए हैं, उनका सारा जोर प्रभु—स्मरण, ब्रह्म—स्मरण, उस पर ही है।
क्षत्रियों से आने वाले जितने धर्म हैं, जैसे जैन; उनका सारा जोर संघर्ष पर है, संकल्प पर है, लड़ने पर है। महावीर सोच ही नहीं सकते कि समर्पण, क्षत्रिय सोच नहीं सकता, वह भाषा उसकी नहीं है। किस परमात्मा के चरणों में समर्पण? कोई परमात्मा नहीं है। आत्मा ही परमात्मा है। इसलिए कोई समर्पण नहीं। गहन संकल्प। कहीं कोई भक्ति, भाव की गुंजाइश नहीं है। शुद्ध विचार! और विचार से पलायन न करना, भागना नहीं। विचार को ही उसकी परम शुद्धि तक ले जाना और संघर्ष को उसके आखिरी रूप में प्रकट करना; अपने से ही संघर्ष! ताकि जो—जो गलत है, वह काट डाला जाए।
महावीर योद्धा हैं, इसीलिए तो उनको नाम महावीर का दिया है। उनका नाम वर्धमान था, वह हमने बदल दिया। क्योंकि वह नाम जमा नहीं फिर। उनकी सारी जीवन—दृष्टि योद्धा की है, संघर्षशील की है, अपलायनवादी की है, लड़ने की है। लड़कर ही उन्होंने पाया है।
ब्राह्मण की सारी दृष्टि समर्पण की है; उसके चरणों में सब छोड़ देने की है। उससे भाव उठा है, भक्ति उठी है, ब्रह्म—स्मरण उठा है।
पर सभी पहुंचा देते हैं वहीं। स्वधर्म तो एक है; लेकिन स्वकर्म अनेक हैं। और तुम अपने स्वकर्म से भागने की व्यर्थ चिंता मत करना। उससे कुछ सार नहीं है। उससे तो जन्मों—जन्मों भागते रहे हो।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, अपना स्वकर्म अगर थोड़ा पीड़ादायी भी मालूम पड़े और दूसरे का थोड़ा सुखद भी मालूम पड़े, तो भी उसे मत चुनना। अपने पीड़ादायी स्वकर्म को ही करते—करते पाना हो जाता है। दूसरे के स्वकर्म को चुनने में उपद्रव है। वह भयावह है। स्वधर्मे निधन श्रेय: परधमों भयावह:। वह बहुत भयभीत करने वाला है, उससे बचना।
लेकिन यहां परधर्म और स्वधर्म का उपयोग वे परकर्म और स्वकर्म के लिए कर रहे हैं।
चौथा प्रश्न : तीर्थंकर या अवतार होने के लिए क्षत्रिय होना क्यों जरूरी बन गया?
कारण हैं, कर्म की व्यवस्था में ही कारण हैं।
जैसा मैंने कहा कि तीन गुण हैं, तमस, रजस, सत्य; और तीन ही मौलिक वर्ण हैं, शूद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण। वैश्य सभी का मिश्रण है। वह एक समझौता है, चौराहा है, भीड़ है। वह वस्तुत: वर्ण नहीं है, बल्कि सभी वर्णों का संगम है। ये जो तीन वर्ण हैं, इन तीनों की तीन अलग जीवन— धाराएं हैं।
शूद्र आत्यंतिक रूप से बहिर्मुखी है; एक्सट्रोवर्ट जिसको दा ने कहा है। उसकी दृष्टि बाहर देखती है, भीतर नहीं। इसीलिए तो सेवा ही उसके लिए धर्म हो सकता है। दूसरे को ही वह देख सकता है। या तो दूसरे को लूटे या दूसरे की सेवा करे। लूटे तो अधर्म हो जाता है; सेवा करे तो धर्म हो जाता है। लेकिन नजर उसकी दूसरे पर है। शूद्र है एक्सट्रोवर्ट, बहिर्मुखी, बाहर ही उसकी आंख खुलती है।
ब्राह्मण है अंतर्मुखी; उसकी बाहर आंख नहीं खुलती, वह है इंट्रोवर्ट। इसलिए स्मरण, प्रभु का स्मरण, भाव, ध्यान, समाधि, ये उसके लिए सार्थक हैं। ब्राह्मण से तुम सेवा की बात ही कहो, तो उसके समझ में नहीं आती कि क्या बात कर रहे हो! किसकी सेवा करनी?
शूद्र से कहो कि भाव करो, ध्यान करो, उसे समझ में नहीं आता, क्या ध्यान करना है! कैसा ध्यान करना है! ध्यान का मतलब ही उसे होता है, बाहर कुछ आलंबन चाहिए।
ब्राह्मण भीतर की तरफ जाता है, उसकी अंतर्धारा बह रही है। वह उसकी सारी जीवन—ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है। शूद्र की बाहर की तरफ बहती है। क्षत्रिय द्वार पर खड़ा है।
ऐसा समझो कि एक ब्राह्मण है, वह आंख बंद किए बैठा है भीतर के भाव में लीन। इसलिए ब्राह्मणों ने जितनी ध्यान की विधियां खोजी हैं, उन सबमें आंखें बंद, इंद्रियों को बंद करो, इंद्रियों का नियमन करो, सब इंद्रियों के द्वार बंद कर दो और भीतर डूब जाओ, अपने में खो जाओ; वहीं सब पाने को है।
शूद्र की आंख पूरी खुली हुई है। उसने अगर कभी धर्म भी पाया है, तो किसी के चरणों की सेवा करते हुए पाया है, वे चाहे असली चरण हों, चाहे परमात्मा की मूर्ति के चरण हों। वह किसी मूर्ति के मुख को देखकर आनंदित हुआ है। उसने परमात्मा के मुखारविंद को देखा है, उसके चरणों को छुआ है, नाचा है। पर उसकी आंख खुली रही है। सेवा से ही उसने जाना है, दूसरे से ही उसने जाना ०,। क्षत्रिय मध्य में खड़ा है। उसकी आधी आंख खुली है, आधी बंद है। वह द्वार पर है। वह जरा आंख बंद करे, तो भीतर देख सकता है; जरा आंख खोले, तो बाहर देख सकता है। वह दोनों के बीच सेतु है, अर्ध—बहिर्मुख, अर्ध— अंतर्मुख है।
अब यह थोड़ी समझने की बात है कि तीर्थंकर होने के लिए या अवतार होने के लिए क्षत्रिय ही ठीक हो सकता है। क्योंकि जो बहिर्मुख है, वह स्वयं को उपलब्ध ही नहीं होता; वह दूसरे के चरणों में समर्पित हो जाता है। इसलिए उससे कभी जीवन—साधना का शास्त्र निर्मित नहीं हो सकता। जो अंतर्मुख है, वह अपने में ही ड़ब जाता है। वह इतना गहरा ड़ब जाता है कि उससे भी जीवन का शास्त्र निर्मित नहीं होता। वह इतनी भी चिंता नहीं करता कि दूसरे को समझाए, कि दूसरे को उठाए, कि सहारा दे।
एक अपने में खो जाता है, एक दूसरों में खो जाता है। जो मध्य में खड़ा है, वह अपने में भी डुबकी लेता है और बाहर भी डुबकी लेता है। वह अपने को भी जानता है और दूसरों को भी जानता है। और जब उसके जीवन में फूल खिलते हैं, तो उसकी सुगंध बाहर जानी शुरू होती है। और जब उसके जीवन में ज्ञान का प्रकाश होता है, तो वह बांटना भी चाहता है। वह सिर्फ दीए को भीतर छाती में छिपाकर नहीं जीता। वह बांटना चाहता है। वह अर्ध —बहिर्मुखी है। इसलिए वह गुरु बन सकता है, तीर्थंकर बन सकता है, अवतार बन सकता है।
अवतार या तीर्थंकर का अर्थ है, जिसने स्वयं पा लिया और अब जो हजारों के लिए पाने का मार्ग बने। इसलिए जैन कहते हैं कि अवतार न तो ब्राह्मण के घर से आ सकता है, न शूद्र के घर से आ सकता है। इसमें बड़ा अर्थ है, इसमें बड़ा मनोविज्ञान है। यह बात बड़ी गहरी है और साफ है।
अवतार बनने के लिए या तीर्थंकर बनने के लिए दोनों बातें चाहिए, अपने में गहरी डुबकी भी चाहिए और दूसरे में रस न खो जाए। तो महावीर और बुद्ध दोनों कहते हैं, प्रज्ञा हो और करुणा हो, तभी कोई तीर्थंकर हो सकता है।
अगर सिर्फ प्रज्ञा हो, बोध हो जाए और करुणा पैदा न हो, तो वह आदमी खुद लीन हो जाएगा परमात्मा में, लेकिन उसके द्वारा कोई घाट न बनेगा, नाव न बनेगी, जिस पर बैठकर दूसरे लोग यात्रा करें। अगर प्रज्ञा के साथ—साथ करुणा का जन्म हो, मैंने जान
लिया, दूसरों को भी जनाऊं, ऐसा भाव भी जन्मे, तो ही वह आदमी दूसरों के काम आ सकेगा।
तो जो भीतर ड़ब गया, वह तो अपनी डोंगी लेकर पार हो जाएगा। वह कोई बड़ी भारी नाव न बनाएगा, जिसमें हजारों लोग जा सकें। वह तीर्थंकर न हो सकेगा। या जो दूसरों की सेवा में ड़ब गया, वह सेवा के द्वारा पहुंच जाएगा, लेकिन उसके भीतर के जीवन का शास्त्र तो कभी उसे प्रकट न होगा। वह उसके भीतर की भूगोल से तो परिचित न होगा कि दूसरों को भी नक्शा दे सके।
इसलिए शूद्र तीर्थंकर नहीं हो सकता; खुद ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। ब्राह्मण तीर्थंकर नहीं हो सकता, खुद ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। क्षत्रिय ही तीर्थंकर हो सकता है, जो द्वार पर खड़ा है, जो एक झलक भीतर की लेता है और एक झलक बाहर की लेता है, जो भीतर से खजाना लाता है और बाहर लुटाता है; इस कारण।
पांचवां प्रश्न : आपने कहा है कि आनंद का कोई अनुभव नहीं होता। क्या संतों के गीत, बुद्ध पुरुषों के वचन, सदगुस्थ्यों की वाणी आनंद— अनुभव से नहीं आती?
नहीं; आनंद से आती है, आनंद—अनुभव से नहीं आती। फर्क बारीक है, लेकिन महत्वपूर्ण है।
आनंद—अनुभव का तो यह अर्थ हुआ कि तुम अलग हो और अनुभव अलग है। प्यास लगी, तुमने जल पीया। कंठ जलता था, तब एक अनुभव हो रहा था पीड़ा का, प्यास का। लेकिन तुम वह पीड़ा न थे। कंठ में पीड़ा थी, तुम जानने वाले थे। फिर जल पीया, ठंडी धार, शीतल धार जल की भीतर गई, कंठ तृप्त हुआ। अब तृप्ति का अनुभव हो रहा है कंठ में, अब भी तुम देखने वाले हो।
अनुभव तो अलग होता है, देखने वाला अलग होता है। तुम साक्षी हो। आनंद का कोई साक्षी नहीं होता। क्योंकि जिसके भी तुम साक्षी हो, वह संसार।
आनंद हमने परमात्मा का स्वभाव कहा है। हमने ऐसा नहीं कहा कि परमात्मा आनंदित है। हमने कहा, परमात्मा आनंद है, सच्चिदानंद है। यह उसका स्वभाव है।
जब कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है, तो ऐसा नहीं जैसा कि और चीजों को उपलब्ध होता है, ऐसे आनंद भी हाथ में आ गया, नहीं। अचानक पता चलता है कि मैं आनंद हूं। तब आनंद का अनुभव नहीं होता, तुम आनंद ही होते हो।
जिसका भी अनुभव होता है, वह तो पराया है। वह तो आज है, कल छूट जाएगा। वह तो पानी का बुदबुदा है, बनेगा, मिटेगा, लहर आई, गई। उसका तो ज्वार भी होगा, भाटा भी होगा।
आनंद आता है, तो फिर जाता नहीं। आनंद होता है, तो फिर नहीं नहीं होता। आनंद तुम्हारा स्वभाव है, तुम उससे रत्तीभर भी फासले पर नहीं होते। तुम उसे देखते नहीं, तुम उसका अनुभव नहीं करते, तुम वही हो जाते हो। तुममें और उसमें इंचभर का फासला नहीं होता। इसलिए मैं कहता हूं कि आनंद का अनुभव नहीं होता। दुख का अनुभव होता है, सुख का अनुभव होता है; आनंद का अनुभव नहीं होता। इसलिए सुख—दुख दोनों ही संसार के ही सिक्के हैं। आनंद भर परमार्थ है।
बुद्ध पुरुषों की वाणी आनंद के अनुभव से नहीं पैदा होती, आनंद से ही पैदा होती है, सीधे आनंद से ही बहती है। बुद्ध पुरुष मिट ही गए; आनंद ही बचा।
अगर बुद्ध पुरुष भी बचा है और आनंद, तो अभी बुद्ध पुरुष पैदा ही नहीं हुआ और आनंद भी पैदा नहीं हुआ। जहां बुद्ध पुरुष स्वयं तो खो जाता है और आनंद ही रह जाता है। कोई नहीं रहता भीतर जानने वाला कि आनंद हो रहा है, आनंद ही बस होता है, अकेला आनंद ही होता है, फिर जो बहता है! फिर वह शांति में बहे, मौन में बहे, वाणी में बहे, मीरा का गीत बन जाए, चैतन्य का नृत्य बने, कुछ कहा नहीं जा सकता।
ये सब कर्म हैं, ये स्वकर्म हैं; ये अलग— अलग हैं। मीरा नाचेगी, बुद्ध चुप होकर बैठ जाएंगे। चैतन्य मदमस्त हो जाएंगे, गांव—गांव डोलेंगे। महावीर नग्न खड़े हो जाएंगे, किसी से बोलेंगे भी नहीं। ये सब के अलग—अलग ढंग हैं; जो घटा है, वह एक है।
किसी को मौन कर जाता है, किसी को मुखर कर जाता है; किसी को नचा देता है, किसी को बिलकुल मौन पत्थर की मूर्ति बना देता है। पर जो घटा है, वह एक है। परिधि अलग—अलग हैं।
छठवां प्रश्न : कहा जाता है कि रावण भी ब्रह्मज्ञानी था। क्या रावण भी रावण उसकी मर्जी से नहीं था? क्या रामलीला सच में ही राम की लीला थी?
निश्चित ही, रावण ब्रह्मज्ञानी था। और रावण के साथ बहुत अनाचार हुआ है। और दक्षिण में जो आज रावण के प्रति फिर से समादर का भाव पैदा हो रहा है, वह अगर ठीक रास्ता ले ले, तो अतीत में हमने जो भूल की है, उसका सुधार हो सकता है।
लेकिन वह भी गलत रास्ता लेता मालूम पड़ रहा है दक्षिण का आंदोलन। वे रावण को तो आदर देना शुरू कर रहे हैं, राम को अनादर देना शुरू कर रहे हैं।
आदमी की मूढ़ता का अंत नहीं है, वह अतियों पर डोलता है। वह कभी संतुलित तो हो ही नहीं सकता।
यहां तुम रावण को जलाते रहे हो, वहां अब उन्होंने राम को जलाना शुरू किया है। तुमने एक भूल की थी, अब वे दूसरी भूल कर रहे हैं।
रावण ब्रह्मज्ञानी था। यह भी परमात्मा की मर्जी थी कि वह यह पार्ट अदा करे। उसने यह भली तरह अदा किया। और कहते हैं, जब राम के बाण से वह मरा, तो उसने कहा कि मेरी जन्मों—जन्मों की आकांक्षा पूरी हुई। राम के हाथों मारा जाऊं, इससे बड़ी और कोई आकांक्षा हो भी नहीं सकती। क्योंकि जो राम के हाथ मारा गया, वह सीधा मोक्ष चला जाता है। गुरु के हाथ जो मारा गया, वह और कहां जाएगा!
और जैसे पांडवों को कहा है कृष्ण ने कि मरते हुए भीष्म से जाकर धर्म की शिक्षा ले लो, वैसे ही राम ने लक्ष्मण को भेजा है रावण के पास कि वह मर न जाए, वह परम ज्ञानी है; उससे कुछ ज्ञान के सूत्र ले आ। उस बहती गंगा से थोड़ा तू भी पानी पी ले। लेकिन कठिनाई क्या है? कठिनाई हमारी यह है कि हमारी समझ चुनाव की है। अगर हम राम को चुनते हैं, तो रावण दुश्मन हो गया। अगर हम रावण को चुनते हैं, तो राम दुश्मन हो गए। और दोनों को तो हम चुन नहीं सकते। क्योंकि हमको लगता है, दोनों तो बड़े विरोधी हैं, इनको हम कैसे चुनें!
और जो दोनों को चुन ले, वही रामलीला का सार समझा। क्योंकि रामलीला अकेली राम की लीला नहीं है, रावण के बिना हो भी नहीं सकती। थोडा रावण को हटा लो रामलीला से, फिर रामलीला बिलकुल ठप्प हो जाएगी, वहीं गिर जाएगी। सब सहारे उखड़ जाएंगे।
राम खड़े न हो सकेंगे बिना रावण के। राम को रावण का सहारा है। प्रकाश हो नहीं सकता बिना अंधेरे के। अंधेरा प्रकाश को बड़ा सहारा है। जीवन हो नहीं सकता बिना मृत्यु के। मृत्यु के हाथों पर ही जीवन टिका है। जीवन विपरीत में से चल रहा है।
राम और रावण, मृत्यु और जीवन, दोनों विरोध वस्तुत: विरोधी नहीं हैं, सहयोगी हैं। और जिसने ऐसा देखा, उसी ने समझा कि रामलीला का अर्थ क्या है। तब विरोध नाटक रह जाता है। तब भीतर कोई वैमनस्य नहीं है। न तो राम के मन में कोई वैमनस्य है, न रावण के मन में कोई वैमनस्य है। और इसीलिए तो हमने इस कथा को धार्मिक कहा है। अगर वैमनस्य हो, तो कथा नहीं रही, इतिहास हो गया।
इस फर्क को भी ठीक से समझ लो। पुराण और इतिहास का यही फर्क है। इतिहास साधारण आदमियों की जीवन घटनाएं हैं। वहां संघर्ष है, विरोध है, वैमनस्य है, दुश्मनी है। पुराण! पुराण नाटक है, लीला है। वहां वास्तविक नहीं है वैमनस्य; दिखावा है, खेल है। जो मिला है अभिनय, उसे पूरा करना है।
कथा यह है कि वाल्मीकि ने राम के होने के पहले ही रामायण लिखी। अब जब लिख ही दी थी, तो फिर राम को पूरा करना पड़ा। कर भी क्या सकते थे। जब वाल्मीकि जैसा आदमी लिख दे, तो तुम करोगे क्या! फिर उसको पूरा करना ही पड़ा।
यह बड़ी मीठी बात है। द्रष्टा कह देते हैं, फिर उसे पूरा करना पड़ता है। इसका अर्थ कुल इतना ही है, जैसे कि नाटक की कथा तो पहले ही लिखी होती है, फिर कथा को पूरा करते हैं नाटक में। नाटक में कथा पैदा नहीं होती। कथा पहले पैदा होती है, फिर कथा के अनुसार नाटक चलता है। क्या किसको कहना है, सब तय होता है। जीवन का सारा खेल तय है। क्या होना है, तय है। तुम नाहक ही अपना बोझ उठाए चल रहे हो। अगर तुम समझ लो कि सिर्फ नाटक है जीवन, तो तुम्हारा जीवन रामलीला हो गया, तुम पुराण—पुरुष हो गए, फिर तुम्हारा इतिहास से कोई नाता न रहा। फिर तुम इस भ्रांति में नहीं हो कि तुम कर रहे हो। फिर तुम जानते हो कि जो उसने कहा है, हो रहा है। हम उसकी मर्जी पूरी कर रहे हैं। अगर वह रावण बनने को कहे, तो ठीक।
रावण को तुम मार तो नहीं डालते! जो आदमी रावण का पार्ट करता है रामलीला में, उसको तुम मार तो नहीं डालते कि इसने रावण का पार्ट किया है, इसको मार डालों। जैसे ही मंच के बाहर आया, बात खतम हो गई। अगर उसने पार्ट अच्छा किया, तो उसे भी तगमे देते हो।
असली सवाल पार्ट अच्छा करने का है। राम का हो कि रावण का, यह बात अर्थपूर्ण नहीं है। ढंग से पूरा किया जाए _ कुशलता से पूरा किया जाए। अभिनय पूरा—पूरा हो, तो तुम पुराण—पुरुष हो गए। लड़ो बिना वैमनस्य के, संघर्ष करो बिना किसी अपने मन के; जहां जीवन ले जाए बहो। तब तुम्हारे जीवन में लीला आ गई। लीला आते ही निर्भार हो जाता है मन। लीला आते ही चित्त की सब उलझनें कट जाती हैं। जब खेल ही है, तो चिंता क्या रही! फिर एक सपना हो जाता है।
इसी अर्थ में हमने संसार को माया कहा है। माया का अर्थ इतना ही है कि तुम माया की तरह इसे लेना। अगर तुम इसे माया की तरह ले सको, तो भीतर तुम ब्रह्म को खोज लोगे। अगर तुमने इसे सत्य की तरह लिया, तो तुम भीतर के ब्रह्म को गंवा दोगे।
अब सूत्र:
एवं इस अपने—अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्पाप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन।
हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। तुम्हारी जीवन— धारा ही तुम्हारी पूजा हो। उससे अन्यथा पूजा की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम जो कर रहे हो, उसके ही फूल तुम उसके चरणों में चढ़ा दो। किन्हीं और फूलों को तोड़कर लाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारा कर्म ही तुम्हारा अर्ध्य, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी अर्चना हो जाए।
हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। इसलिए कर्मों को बदलने की व्यर्थ की झंझट में मत पड़ना। जो करते हो, उस करने को ही उसके चरणों में चढ़ा देना। कह देना कि अब तू ही कर, मैं तेरा उपकरण हुआ। अब मेरे हाथ में तेरे हाथ हों, मेरी आंख में तेरी आंख हो, मेरे हृदय में तू धड़क।
वही धड़क रहा है। तुमने नाहक की नासमझी कर ली है। तुम बीच में अकारण आ गए हो।
इसलिए अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। और कृष्ण कहते हैं, दूर के ढोल सुहावने हैं, उनसे बचना। यह सदा होता है कि दूसरा तुम्हें ज्यादा ठीक स्थिति में मालूम पड़ता है। ऐसा है नहीं कि वह ठीक स्थिति में है, मालूम पड़ता है। उसके कारण हैं। क्योंकि दूसरे के भीतर को तो तुम देख नहीं पाते, न उसकी पीड़ा को, न उसके दंश को, न उसके नर्क को। तुम देख पाते हो उसके ऊपर के व्यवहार को, उसकी परिधि को, उसके आवरण को।
मुस्कुराता हुआ देखते हो तुम अपने पड़ोसी को, तुम सोचते हो, पता नहीं कितने आनंद में है! वह भी तुम्हें मुस्कुराता हुआ देखता है बाहर खड़ा हुआ। वह भी सोचता है, पता नहीं तुम कितने आनंद में हो! ऐसा धोखा चलता है। न तुम आनंद में हो, न वह आनंद में है। हर आदमी को ऐसा ही लग रहा है कि सारी दुनिया सुखी मालूम पड़ती है एक मुझको छोड्कर। हे परमात्मा, मुझ ही को क्यों दुख दिए चला जाता है! क्योंकि तुम्हें अपने भीतर की पीड़ा दिखाई पड़ती है और दूसरे का बाहर का रूप दिखाई पड़ता है।
बाहर तो सभी सज—संवरकर चल रहे हैं। तुम भी चल रहे हो। तुम भी किसी की शादी में जाते हो, तो जाकर रोती शक्ल नहीं ले जाते, हंसते, मुस्कुराते, सजकर, नहा धोकर, कपड़े पहनकर पहुंच जाते हो। वहां एक रौनक है। और ऐसा लगता है कि सारी दुनिया प्रसन्न है।
सड़कों पर चलते लोगों को देखो सांझ, सब हंसी—खुशी मालूम पड़ती है। लेकिन लोगों के जीवन में भीतर झांको, और दुख ही दुख है। जितने भीतर जाओगे, उतना दुख पाओगे।
इसलिए किसी के ऊपर के रूप और आवरण को देखकर मत भटक जाना। और यह मत सोचने लगना कि अच्छा होता कि मैं ब्राह्मण होता, कि देखो ब्राह्मण कितने मजे में रह रहा है! कि अच्छा होता मैं क्षत्रिय होता, कि क्षत्रिय कितने मजे में रह रहा है!
अब यह बहुत हैरानी की बात है कि सम्राट भी ईर्ष्या से भर जाते हैं साधारण आदमियों को देखकर। क्योंकि उनको लगता है, साधारण आदमी बड़े मजे में रह रहे हैं।
सुना है मैंने कि नेपोलियन लंबा नहीं था, ऊंचाई उसकी ज्यादा नहीं थी। उसके सिपाही उससे बहुत लंबे थे। इससे उसे बड़ी पीड़ा होती थी। वह सम्राट भी हो गया, महासम्राट हो गया, लेकिन जब
भी कोई लंबा आदमी देख लेता, उसके प्राण में दंश हो जाता। एक दिन वह अपने कमरे में घड़ी को ठीक करना चाहता था, लेकिन घड़ी ऊंची लगी थी और उसका हाथ नहीं पहुंच रहा था। तो उसके कायारक्षक ने, बाडीगार्ड ने कहा, रुकिए, मैं आपसे बड़ा हूं मैं ठीक किए देता हूं। नेपोलियन ने कहा, क्षमा मांगो इस वचन के लिए! तुम मुझसे लंबे हो, बड़े नहीं।
उसके मन में सदा पीड़ा थी कि लोग लंबे हैं। वह छोटा था, जरा बौना था।
तुमने कभी पंडित नेहरू के चित्र देखे माउंटबेटन और लेडी माउंटबेटन के साथ! तुम बहुत हैरान होओगे। मैंने जितने चित्र देखे, उनमें हमेशा वे सीढ़ियों पर खड़े हैं। माउंटबेटन दो सीढ़ियां नीचे खड़े हैं, वे सीढ़ी पर खड़े हैं। लेडी माउंटबेटन एक सीढ़ी नीचे खड़ी हैं, वे एक सीढ़ी ऊपर खड़े हैं। क्योंकि वे पांच फीट पांच इंच! और लेडी माउंटबेटन और माउंटबेटन जैसे लंबे आदमी जरा मुश्किल से खोजे जा सकते हैं।
वह अनजाना ही रहा होगा। जानकर वे हर बार जब फोटो उतरती है, ऐसा खड़े हो जाते हों, तो कभी चूक भी जाते। वह अनजाना ही रहा होगा, लेकिन भीतर अचेतन में कहीं कोई बात रही होगी।
सम्राट भी राह पर चलते मस्त फकीर को देखकर ईर्ष्या से भर जाते हैं कि काश! इसकी मस्ती हमारे पास होती! अपने महल में रात उदास, विषाद से भरे हुए, बाहर किसी भिखमंगे का गीत सुनने लगते हैं और प्रायों में ऐसा होने लगता है, काश, हम भी इतने स्वतंत्र होते और इस तरह राह पर गीत गाते और कोई चिंता न होती और वृक्ष के तले सो जाते!
अगर ऐसा न होता, तो बुद्ध महल छोड्कर ही क्यों आए होते? महावीर ने क्यों महल छोड़े होते? जरूर भिखमंगों की मस्ती से ईर्ष्या आ गई होगी। नहीं तो जाने का कोई कारण न था।
कृष्ण कहते हैं, दूसरे से बहुत प्रलोभित मत हो जाना। और अगर तुम अपने ही नियत कर्म में, जो तुमने जन्मों—जन्मों में अर्जित किया है, जिसके लिए तुम्हारे संस्कार तैयार हैं, वहां तुम दुखी हो, तो अपरिचित कर्म में तो तुम और भी दुखी हो जाओगे, तुम और भी कष्ट पाओगे, क्योंकि उसके तो तुम आदी भी नहीं हो। इसलिए अपने स्वाभाविक कर्म और आचरण में रहते हुए, उस कर्म को नियत मानकर करते हुए, परमात्मा की मर्जी है ऐसा जानते हुए, व्यक्ति स्वधर्म को प्राप्त हो जाता है, पाप से मुक्त हो जाता है। अतएव हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए.......।
और कभी ऐसा भी लगे कि यह कर्म तो दोषयुक्त है, तो भी इसे मत त्यागना।
क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। तुम ऐसा तो कोई कर्म खोज ही न सकोगे, जिसमें दोष न हो। अगर तुम दोष ही खोजने गए, तो तुम कुछ भी न कर पाओगे। तुम दोष भी न खोज पाओगे, क्योंकि उस खोज में भी कई दोष होंगे। श्वास लेने तक में हिंसा हो रही है। तो करोगे क्या?
कृष्ण कहते हैं, अगर तुम बधिक के घर में पैदा हुए हो और हत्या ही तुम्हारा काम है, तो भी तुम मत घबड़ाना; तुम इसको भी परमात्मा की मर्जी मानना। तुम चुपचाप किए जाना उसको ही सौंपकर, तुम अपने ऊपर जिम्मा ही मत लेना। तुम कर्ता मत बनना, फिर कोई कर्म तुम्हें नहीं घेरता है।
और तुम यह मत सोचना कि यह पापपूर्ण कर्म है, इसे छोडूं। कोई ऐसा पुण्य कर्म करूं, जिसमें पाप न हो।
ऐसा कोई कर्म नहीं है। क्या कर्म करोगे, जिसमें पाप न हो? यहां तो हाथ हिलाते भी पाप हो जाता है, श्वास लेते भी प्राणी मर जाते हैं। तुम जीओगे, तो पाप होगा; चलोगे, तो पाप होगा; उठोगे—बैठोगे, तो पाप होगा। और अगर इस सबसे तुम सिकुड़ने लगे, तो तुम पाओगे कि जीवन एक बड़ी दुविधा हो गई।
कहते हैं, महावीर रात करवट भी नहीं बदलते हैं। क्योंकि वे डरते हैं कि कहीं रात करवट बदली, कहीं कोई कीड़ा—मकोड़ा आ गया हो, रात सरककर पास बैठ गया हो, दब जाए! तो रातभर एक ही करवट सोए रहते। अब यह भी बड़ी अजीब—सी अवस्था हो जाएगी।
महावीर भोजन करने में भयभीत हैं, क्योंकि पाप होगा। खेती—बाड़ी करने में भयभीत हैं, क्योंकि पौधे मरेंगे, कटेंगे। चलने में डरते हैं, क्योंकि कहीं कोई कीड़ा—मकोड़ा न मर जाए। वर्षा में चलना रोक देते हैं, क्योंकि वर्षा में बहुत कीड़े —मकोड़े पैदा हो जाते हैं। रात नहीं निकलते, अंधेरे में बाहर नहीं जाते। क्योंकि अंधेरे में कोई दब जाए, कोई हिंसा हो जाए।
अब इतने भयभीत हो जाओगे, और तो भी हिंसा होती ही रहेगी। श्वास तो लोगे, पलक तो झपोगे, होंठ तो खोलोगे। एक बार होंठ के खुलने और बंद होने में कोई एक लाख कीटाणु मर जाते हैं। तो महावीर बारह साल मौन रह गए, कि होंठ ही नहीं खोलेंगे!
अब महावीर के भक्तों का एक वर्ग है, जो मुंह पर पट्टी बांधे हुए है। वह इसी डर से कि मुंह से जो गर्म हवा निकलती है, वह जब दूर तक जाती है, तो कई कीटाणुओं को मार देती है। तो वह दूर तक न जाए। मगर फिर भी गर्म हवा तो निकलती ही रहेगी। स्नान न करो, क्योंकि जल के कीटाणु मर जाएंगे। क्या करोगे? ऐसे अगर जीए, तो तुम नर्क बना लोगे चारों तरफ। और फिर भी, फिर भी कर्म तो दोषयुक्त हैं ही। जैसे हर जगह जहां अग्नि है, वहां धुआं है, ऐसे जहां कर्म है, वहां दोष है। तो फिर क्या उपाय है? एक ही उपाय है कि तुम कर्ता मत रहो। तुम उससे कह दो, तू जो करवाएगा, हम करते रहेंगे। हम तेरे संदेशवाहक हैं।
जैसे पोस्टमैन आता है चिट्ठी लेकर। अब किसी ने गाली लिख दी चिट्ठी में, इसलिए पोस्टमैन जिम्मेवार नहीं। कि तुम उससे लड़ने लगते हो, कि उठा लेते हो लट्ठ कि खड़ा रह, कहां जाता है! तू यह चिट्ठी यहां क्यों लेकर आया! या कोई प्रेम—पत्र ले आया, तो तुम उसे कोई गले लगाकर और नाचने नहीं लगते हो। तुम जानते हो कि यह तो पोस्टमैन है। चिट्ठी कोई और भेज रहा है। यह तो सिर्फ बेचारा बोझा ढोता है। ले आता है, घर तक पहुंचा देता है।
परमात्मा कर्ता हो जाए और तुम केवल उसके उपकरण। इसलिए फिर जो भी कर्म नियति से, प्रकृति से, स्वभाव से, संयोग से तुम्हें मिल गया है, तुम चुपचाप उसे किए चले जाओ, कर्ता— भाव छोड़ दो, जहां भी हो, वहीं कर्ता— भाव छोड़ दो।
कृष्ण का सारा जोर है कर्ता— भाव छोड़ देने पर, कर्म को छोड़ने पर नहीं। क्योंकि छोड़—छोड़कर भी कहां जाओगे! जहां जाओगे कर्म तुम्हें घेरे ही रहेगा।
हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्मों को त्यागना नहीं, क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें