सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--213

गीता—पाठ और कृष्‍ण–पूजा—(प्रवचन—प्रंदहवां)

अध्‍याय—18
सूत्र—

ब्रह्मभूत: प्रसन्‍नत्‍मा न शोचिई न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते यराम्।। 54।।
भक्त्‍या मामीभजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वत:।
ततो मां तत्‍वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 55।।
सर्क्कर्माण्यीप सदा कुर्वाणो मद्व्ययाश्रय:।
मत्प्रसादादवानोति शाश्वतं पदमध्ययम्।। 56।।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्‍चित्त: सततं भव।। 57।।
मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तश्ष्यिसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्‍न श्रोष्यीस विनङ्क्ष्‍यसि।। 58।।

फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्‍ति को प्राप्त होता है।
और उस परा— भक्‍ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूं तथा उस भक्ति से मेरे को तत्व से जानकर तत्काल ही मेरे मैं प्रविष्ट हो जाता है।
और मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों की सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।
इसिलए है अर्जुन, तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को आलंबन करके निरंतर मेरे में चित्त वाला हो।
इस प्रकार तू मेरे में निरंतर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म—मृत्‍यु आदि सब सकंटों को अनायास ही तर जाएगा। और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : ब्रह्म में एकीभाव के लिए कल के सूत्र में विशुद्ध बुद्धि, एकांत, मनोविजय, दृढ वैराग्य, ध्यान—योग की परायणता आदि अनेक शर्तें बतायी गयी हैं, जब कि उनमें से किसी एक के भी ठीक से सध जाने से सब सध जा सकता है। ऐसा क्यों है?

निश्चय ही, एक के सध जाने से सब सध जाएगा, लेकिन वह एक प्रत्येक के लिए अलग—अलग होगा। किसी के लिए दृढ़ वैराग्य होगा वह एक; किसी के लिए ध्यान—योग होगा; किसी के लिए समत्व; किसी के लिए कुछ और। इसलिए कृष्ण ने सारी बातें गिना दी हैं। उनमें से एक ही तुमने साध लिया, तो सब सध जाएगा।
सब साधना नहीं है। लेकिन अनेक प्रकार के लोग हैं, भिन्न—भिन्न उनकी जीवन—व्यवस्था है, भिन्न—भिन्न उनके प्रकार हैं। उन सबके लिए एक ही मार्ग नहीं हो सकता। इसलिए तुम इस चितना में मत पड़ना कि इतने सब कैसे सधेंगे! तुम इन सब में उस एक को चुन लेना, जिससे तुम्हारे हृदय की वीणा बजती हो। इसमें से एक को चुन लेना, जिससे तुम्हारा तालमेल बैठता हो।
जैसे हो सकता है, तुम अगर बुद्धि—केंद्रित व्यक्ति हो, तो भक्ति की बात तुम्हें न जमेगी। किसी के परायण होना, किसी के लिए समर्पित होना, किसी के चरणों में अपने को डाल देना, तुम्हें जंचेगा ही नहीं। तुम डाल भी दोगे, तो भी अधूरा—अधूरा होगा। और अधूरे से कभी भी पूरे को नहीं पाया जा सकता। और तुम जबरदस्ती अपने को समझाकर अपने से विपरीत कुछ कर भी लोगे, तो सतह पर ही होगा। ऊपर से रंग—रोगन हो जाएगा; भीतर तुम वही रहोगे, जो तुम थे।
इसलिए भूलकर भी ऐसी कोई बात मत करना जो तुम्हें जंचती ही न हो। जो तुम्हें प्रथम से ही न जंचे, अंततः उससे तुम कहीं पहुंच न पाओगे। उसे तुम पहले ही छोड़ देना। और घबड़ाने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि और मार्ग हैं, जिनमें से कोई तुम्हें जम जाएगा, जंच जाएगा।
अगर तुम बुद्धिवादी व्यक्ति हो, तो हृदय की बात तुम्हें बेतुकी मालूम होगी। तो तुम्हारे लिए तो उपाय यही होगा कि तुम बुद्धि को शुद्ध करने में लग जाओ। तुम बुद्धि के सोने को ही निखारो। तुम विचार का सब कूड़ा—करकट छोड़ दो, तुम निर्मल बुद्धि हो जाओ। तुम्हारी बुद्धि एक दर्पण बन जाए जिसमें कोई तरंगें न उठती हों। जैसे शांत झील हो और पूर्णिमा का चांद उसमें झलके, ऐसी तुम्हारी बुद्धि हो जाए।
वही विशुद्ध बुद्धि है। और ऐसा करके तुम वही पा लोगे, जो हृदय वाला व्यक्ति भक्ति से पाता है, पूजा—प्रार्थना से पाता है। प्रेमी जिसे प्रेम से पाता है, उसे तुम ऐसे शुद्ध बुद्धि के द्वारा भी पा लोगे।
क्योंकि वह अगर एक ही द्वार से मिलता होता, तो बड़ी मुश्किल हो जाती। अनंत उसके द्वार हैं। वस्तुत: जितने व्यक्ति हैं, उतने ही उसके द्वार हैं। तुम जहां खड़े हो, वहीं से उसका मार्ग है। तुम्हें किसी दूसरे व्यक्ति जैसा नहीं होना है। न तुम्हें किसी और के वस्त्र ओढ़ने हैं, न किसी और के विचार धारण करने हैं। तुम्हें तो अपने को समझना है। और तुम्हारी उस समझ से ही तुम्हारा द्वार खुल जाएगा। लेकिन हो सकता है, तुम बुद्धिवादी व्यक्ति न हो, तो चिंता का कारण नहीं है, तो तुम भक्ति को चुनना, प्रेम—प्रार्थना—पूजा को चुनना; अर्चना तुम्हारा जीवन बन जाए, आराधना तुम्हारे भाव की दशा बने। वहां से भी तुम वहीं पहुंच जाओगे।
तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाए, तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है। तुम्हारी बुद्धि शुद्ध हो जाए, तो हृदय शुद्ध हो जाता है। तुम्हारे भीतर कहीं से भी शुद्धि की किरण उतर आए। कहां से उतरती है, यह बात गौण है। बस, उतर आए कि तुम्हारे भीतर का अंधकार टूट जाएगा। ऐसा समझो कि तुम्हारे भवन के बहुत द्वार हैं, बहुत वातायन, खिड़कियां हैं। कमरे में अंधेरा भरा है। अब पूरब की खिड़की से सूरज की किरण आए, कि पश्चिम की खिड़की से सूरज की किरण आए, कि दक्षिण की खिड़की से सूरज की किरण आए, इससे क्या फर्क पड़ता है! किरण किसी भी खिड़की से आए, भीतर का अंधकार मिट जाएगा।
तो तुम ध्यान, भीतर का अंधकार मिटे, इस पर देना। इसलिए कृष्ण ने सारे मार्ग कहे हैं।
दो तरह के व्यक्ति हैं। एक हैं, जो जीवन के अंतर्संबंधों में ही परमात्मा की झलक पाते हैं। एकांत में होते ही वे मरुस्थल जैसे हो जाते हैं। उनके भीतर सब सूख जाता है। उनके लिए तो अंतर्संबंध में ही झरना बहता है जीवन का।
तो ऐसे व्यक्ति अगर महावीर जैसे पर्वत—पहाड़ों में एकांत खड़े हो जाएंगे, तो सिर्फ सूखेंगे, मुरझाएंगे। उनके जीवन का कमल खिलेगा नहीं। वह बात उनके लिए थी ही नहीं। उनके जीवन में प्रफुल्लता न आएगी। तुम पाओगे कि वे कुम्हला गए। वे जितने बाजार में थे, उससे भी कम हो गए जंगल में जाकर। उनके भीतर कुछ नष्ट हो गया, टूट गया। उनके लिए तो उचित था कि वे जीवन के संघर्ष में ही, लोगों की भीड़ में ही, अंतर्संबंधों में ही खोजते उसे। एकांत उन्हें न जमेगा।
पर दूसरे तरह के लोग भी हैं कि भीड़ में जाते ही उन्हें लगता है कि उनका जीवन संकट में पड़ गया। दूसरे की मौजूदगी काटे की तरह चुभने लगती है। अंतर्संबंध सिर्फ दुख देते हैं। भीड़ सिर्फ
उपद्रव मालूम पड़ती है। समाज में उन्हें रस नहीं है। जब भी वे कभी खोज लेते हैं एक कोना, एकांत, जहां थोड़ी देर को अकेले में हो जाते हैं, वहीं उनके जीवन का वैभव खिलता है। तो उनके लिए कोई जरूरत नहीं है कि वे संबंधों में खोजें।
कृष्णमूर्ति निरंतर लोगों से कहते हैं, अंतर्संबंध दर्पण है। उस अंतर्संबंध में ही तुम अपने ध्यान को खोजना।
कुछ लोगों के लिए यह बात ठीक है; सभी के लिए ठीक नहीं। जिनके लिए यह ठीक नहीं है, उन्हें तो एकांत ही खोजना पड़ेगा। वे तो जब बिलकुल अकेले हो जाएंगे, उस परम एकाकीपन में ही उनके भीतर का नाद उन्हें सुनायी पड़ेगा। उन्हें दूसरे के माध्यम से जाने की जरूरत नहीं है।
पर कुछ लोग हैं, जिन्हें स्वात में कुछ भी सुनायी न पड़ेगा, जिन्हें एकांत भयावना मालूम होगा, जो अकेले में सिर्फ मृत्यु का अनुभव करेंगे, जीवन की कोई भी झलक न आएगी।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, विशुद्ध बुद्धि, एकांत, मनोविजय, दृढ़ वैराग्य, ध्यान—योग परायणता.....। कुछ भी, जो तुम्हें ठीक लग जाए। और इसलिए भी वे कहते हैं कि तुम्हें ठीक—ठीक पता भी नहीं है कि कौन—सी बात ठीक जमेगी। तुम्हें प्रयोग करने पड़ेंगे।
जीवन तो एक निरंतर प्रयोग है। उसमें गणित के फार्मूले नहीं हैं कि तुमने पकड़ ली लकीर और चल पड़े। पहले तो तुम्हें खोजना ही होगा कि कौन—सा मार्ग तुम्हें जमेगा। बहुत बार भटकोगे, बहुत बार गलत मार्ग पर चलोगे, लौटोगे, वापस आओगे। अनेक भूलें होंगी, चूके होंगी, तब कहीं ठीक से साज बैठेगा। तो इसलिए अगर एक ही मार्ग बता दिया जाए, तो डर है कि तुम पहुंच ही न पाओगे। ऐसा हुआ, एक मजे की घटना घटी। मैं वर्धा में बजाजवाड़ी में मेहमान था। जमनालाल जी का अतिथिगृह। जमनालाल जी के पुराने मुनीम, वृद्ध, बड़े अनुभवी और अनूठे सज्जन चिरंजीलाल बड़जात्या मेरी देख—रेख करते थे।
जिस दिन मुझे बजाजवाड़ी छोड़नी थी, जाना था वर्धा से, ट्रेन मेरी रात तीन बजे जाती थी। तो मैंने उन्हें कहा कि तीन बजे मुझे जाना है। तो उन्होंने कहा, आप चिंता न करें। मैं सभी इंतजाम किए देता हूं। मैंने उनसे पूछा, सभी इंतजाम? उन्होंने कहा, आप रुके, आप देखेंगे।
उन्होंने ड्राइवर को बुलाया, कहा कि कार ठीक दो बजे यहां द्वार पर लग जानी चाहिए। फिर तांगे वाले को बुलाया और उसे कहा कि ठीक दो बजे तांगा खड़ा कर देना। फिर एक रिक्शे वाले को बुलाया और कहा कि तू तो रिक्‍शा अभी ले आ और यहीं सो जा। मैंने उनसे पूछा, मुझ अकेले के लिए तीन बहुत ज्यादा हो जाएंगे। कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि जमनालाल जी से मैंने कुछ बातें सीखीं, उनमें एक यह है कि एक काम करना हो, तो तीन इंतजाम करने चाहिए। अगर कार आ गयी, तो ठीक। क्या भरोसा, आदमी सौ जाए, झपकी लग जाए! सर्द रात है, कार स्टार्ट ही न हो! तो तांगा वाला आ जाएगा। मगर घोड़ा बीमार पड़ जाए; तांगा वाला किसी और काम मैं उलझ जाए, भूल जाए, न आ सके। तो यह रिक्शा वाला यहां सोया ही हुआ है। और अगर कोई भी न रहा, तो मैं तो यहां हूं ही। सामान मैं ढोऊंगा; हम पैदल चलेंगे। तो मैंने सब इंतजाम कर लिए हैं!
कृष्‍ण सारे इंतजाम किए दे रहे हैं। इसलिए कृष्ण बार—बार बहुत—से शब्द दोहराते हैं। तुम कहोगे, एक से कहने से ही काम चल जाता, इतने शब्द क्यों दोहराते हैं? क्यों बार—बार दोहराते हैं? वे सब इंतजाम कर रहे हैं, ताकि कोई भी संभावना शेष न रह जाए, जिससे तुम पहुंच सकते थे और जिसका तुम्हें पता न हो। सब द्वार खोल देते हैं। फिर तुम्हें जिससे आना हो, जिससे आना तुम्हें जमे, रास पड़े, तुम उसी से आ जाना।
मार्ग सब उसी के हैं। सब मार्ग उसी की तरफ ले जाते हैं। लेकिन कोई मार्ग किसी को ले जाएगा, कोई मार्ग किसी और को ले जाएगा।

 दूसरा प्रश्न : आपने कहा कि भगवत्ता हमें घेरकर खडी है; उसकी अहर्निश वर्षा हो रही है; सिर्फ हमारी पात्रता नहीं है। हमें हमारी अपात्रता का बोध आत्महीनता के भाव से भरने लगता है। उससे बचकर पात्रता को कोई कैसे उपलब्ध हो?

 गर आत्महीनता का भाव पैदा हो गया, तो पात्रता तो बढ़ेगी नहीं, अपात्रता मजबूत हो जाएगी। क्योंकि उसे पाने चले हो, हीन— भाव से उसे न पा सकोगे। हीन— भाव में तो आदमी सिकुड़ जाता है। हीन— भाव में तो आदमी अपने पर ही आस्था खो देता है। हीन— भाव में तो आदमी डर जाता है, मैं न पा सकूंगा! मेरी योग्यता नहीं है! परमात्मा मिलने को भी राजी हो, तो वह भाग खड़ा होता है कि यह हो ही नहीं सकता। मैं, और परमात्मा को पा लूं? यह नहीं हो सकता। मैं तो अपात्र, मैं तो महापापी, मैं तो दीन—हीन, अपराधी!
जब मैं तुमसे कहता हूं कि उसकी अहर्निश वर्षा हो रही है, तो सत्य ही कह रहा हूं। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। हवाओं में वही बहता है, फूलों में वही खिलता है, चांद—तारों में उसी की रोशनी है, झरनों में उसी का नाद है। मैं बोलता हूं, तो वही बोलता है; तुम सुनते हो, तो वही सुनता है। उसके अतिरिक्त कुछ और है नहीं। इसलिए वह तो निरंतर ही बरस रहा है, अपने पर ही बरस रहा है; क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। अपने को ही अपने को दिए जा रहा है, क्योंकि कोई दूसरा भी लेने वाला नहीं है।
लेकिन यह भी मैं जानता हूं कि तुम उससे चूकते जा रहे हो। उसकी वर्षा हो रही है, लेकिन तुम पहचान नहीं पाते। वह द्वार पर दस्तक देता है, लेकिन तुम कुछ समझ नहीं पाते। तुम अपनी नींद में हो, अपनी तंद्रा में हो। वह सामने भी खड़ा हो जाता है, तो तुम्हें प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। फूल के पास से तुम गुजर जाते हो, फूल ही दिखता है, वह नहीं दिखाई पड़ता। झरने में नाद हो रहा है, पानी की आवाज सुनाई पड़ती है, वह नहीं सुनाई पड़ता।
मैंने सुना है, दो ईसाई फकीर एक पहाड़ी रास्ते से गुजरते थे। दूर पहाड़ के शिखर पर बने एक चर्च की संध्या घटिया बजने लगीं। बर्ड मधुर घंटियों का नाद था। सारा पहाड़ अनुगूंज से भर गया। घाटियां प्रतिध्वनि से भर गयीं। एक फकीर ने आह्लादित होकर दूसरे से कहा, सुनते हो, कितना मधुर नाद है! इससे प्यारी घंटियां मैंने कभी नहीं सुनीं। और घाटियों ने भी किस स्वागत से प्रतिध्वनि की है!
उस आदमी ने कहा, जब तक यह घंटियों का उपद्रव बंद नहीं होता, तब तक मैं कुछ भी नहीं सुन पाऊंगा। तुम क्या कह रहे हो, यह भी मुझे सुनाई नहीं पड़ रहा है। इन घंटियों को बंद हो जाने दो। झरने में तुम्हें नाद सुनाई पड़ता है, नदी का, पानी का। और अगर मैं तुमसे कहूं सुनो परमात्मा का नाद! तो तुम कहोगे, पहले यह पानी की बकवास तो बंद हो जाने दो। फिर ही मैं सुन सकूंगा। और वही बकवास उसका नाद है।
जहां भी तुम देखते हो, तुम उसी को देखते हो, पहचान नहीं पाते। देखते तो उसी को हो, भूल अगर है तो पहचान की है। लेकिन

 इससे तुम यह मत समझ लेना कि तुम अपात्र हो। पात्र तुम पूरे हो, जरा से होश की जरूरत है। आंखें तुम्हारे पास हैं, जरा खोलने की बात है। हाथ तुम्हारे पास हैं, जरा फैलाने की बात है। हृदय तुम्हारे पास है, जरा धड़कने की बात है। सब तुम्हारे पास है। जरा—सा संयोग बिठाना है और संगीत का जन्म हो जाएगा।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि तुम्हारी पात्रता के कारण ही तुम मिलते हो, नहीं मिलते हो, तो इससे तुम अपराध— भाव से मत भर जाना कि मैं अपात्र हूं, अन्यथा मेरी बात का तुमने उलटा ही अर्थ लिया। क्योंकि जितनी ग्लानि पैदा हो जाएगी, उतनी ही अपात्रता सुनिश्चित हो जाएगी।
मैं जब कह रहा हूं कि अहर्निश उसकी वर्षा हो रही है, तो तुम नाचो कि कोई फिक्र नहीं। मैं पात्र नहीं हूं, लेकिन वह तो बरस रहा है; पात्रता पैदा कर लेंगे। मैं पात्र भी होता और उसकी वर्षा सदा न होती, तो फिर मैं क्या करता? वह ज्यादा दुखद हालत होती। अभी तो बरस रहा है, है मौजूद। हम नहीं पहचान रहे। पहचान लेंगे, आज नहीं कल।
देखने की दृष्टि पर निर्भर करता है। आनंदित हो जाओ कि सिर्फ तुम्हारी ही पात्रता का सवाल है। उसकी तरफ से कोई बाधा नहीं है। थोड़ा सोचो, बाधा उसकी तरफ से होती और तुम पात्र भी होते, तो क्या करते!
मैंने सुना है, एक जापानी कंपनी ने, एक जूता बनाने वाली कंपनी ने अपने एजेंट को अफ्रीका भेजा। कोई सौ वर्ष पहले की बात है। और एक अमेरिकी कंपनी ने भी अपने जूता बनाने वाले, जूता बेचने वाले एजेंट को अफ्रीका भेजा। दोनों एक ही दिन उतरे। दोनों ने साथ ही जाकर बाजार की तलाश की। दोनों साथ ही लौटे। पोस्ट आफिस से जाकर दोनों ने तार किए अपने—अपने मालिकों को।
अमेरिकन ने लिखा कि तत्काल दूसरे हवाई जहाज से वापस आ रहा हूं क्योंकि यहां जूते बिकने की कोई संभावना नहीं। कोई जूता पहनता ही नहीं। जापानी ने लिखा कि यहां दो—तीन महीने लगेंगे। धंधे की बड़ी संभावना है। जूते इतने बिक सकते हैं, जितने की आप कल्पना ही नहीं कर सकते। क्योंकि जूते किसी के पास भी नहीं हैं!
तथ्य एक ही था कि लोग जूता नहीं पहनते थे। एक ने देखा, जब पहनते ही नहीं हैं, तो खरीदेगा कौन! बात खतम हो गयी। वह निराश हो गया। वह लौटने की तैयारी करने लगा। एक ने देखा, जब किसी के पास भी जूते नहीं हैं, सभी बिना जूते के घूम रहे हैं, तो बाजार की पूरी संभावना है। इससे बडा बाजार कहां मिलेगा! तो जरा वक्त लगेगा, लोगों को समझाना पड़ेगा कि तुम नंगे पैर हो। लेकिन जूते की बिकने की बड़ी संभावना है।
तथ्य तो एक ही होता है, देखने के ढंग अलग—अलग होते हैं। तुम्हारी अपात्रता को तुम ग्लानि मत बनाओ। तुम्हारी अपात्रता को तुम प्रसन्नता समझो। क्योंकि परमात्मा मौजूद है, सिर्फ तुम्हारी जरा—सी भूल से चूक रहा है। तो भूल सुधार लेंगे। जैसे ही भूल सुधर जाएगी, सब ठीक हो जाएगा।
और ध्यान रखना, तुम कोई पाप नहीं कर रहे हो, सिर्फ भूल कर रहे हो। यहीं भारतीय जीवन—दृष्टि में और ईसाइयत—यहूदी जीवन—दृष्टि में भेद है।
यहूदी और ईसाई कहते हैं, आदमी पापी है। हम कहते हैं, आदमी अज्ञानी है। इसमें बड़ा फर्क है। जब हमने किसी को पापी कह दिया, तो हमने निर्णय ले लिया। हमने सुधार का द्वार बंद कर दिया। हमने घोषणा ही कर दी कि अब कोई संभावना नहीं है। हमने वक्तव्य दे दिया मूल्य का, कि तुम पापी हो। हमने गाली दे दी। लेकिन भारत में हम इतना ही कहते हैं कि आदमी से भूलें होती हैं, पाप नहीं होता।
एक छोटा बच्चा दो और दो जोड़ रहा है और पांच लिख देता है। इसको तुम पाप कहोगे या भूल? दो और दो चार होते हैं, माना। छोटा बच्चा जोड़ता है, दो और दो पांच लिख देता है। यह पाप है या भूल?
इसको तुम कहोगे, यह भूल है। पाप कहना जरा जरूरत से ज्यादा हो जाएगा। इसमें पाप जैसा कुछ भी नहीं है। और भूल भी कोई बहुत बड़ी नहीं है, क्योंकि चार और पांच में फासला कितना है? जरा—सा ही फासला है। बच्चा काफी करीब पहुंच गया है। जरा एक कदम इधर—उधर और, कि सब ठीक हो जाएगा।
हम कहते हैं, जीवन में आदमी की भूलें हैं, पाप कुछ भी नहीं है। भूलें सुधारी जा सकती हैं। पाप को सुधार भी लो, तो भी कचोट रह जाती है। पाप को सुधार भी लो, तो दाग छूट जाता है। पाप को सुधार भी लो, तो यह खयाल रह जाता है कि कभी मैं पापी था। भूल ऐसे मिट जाती है, जैसे पानी पर खींची रेखाएं मिट जाती हैं। पाप ऐसा है, जैसे पत्थर पर खींची गयी रेखा हो।
यदि तुम पूरब की मनोभावना को समझो, तो हमने पूरब में पाप माना ही नहीं है। पाप को भी हम एक भूल ही कहते हैं। बस, भूल है; छोटे बच्चे हैं, होगी ही, स्वाभाविक है। इसमें छोटे बच्चों को कोई बहुत आत्मग्लानि से भरने की जरूरत नहीं है।
अगर तुम परमात्मा को चूक रहे हो, तो बिलकुल स्वाभाविक है। इससे कोई दंश मत लो, सिर पर बोझ मत लो।
अगर तुम अहोभाव से भरकर चलो, विधायक दृष्टि से भरकर चलो, तो पात्रता पैदा होने लगेगी। जितने ही तुम हलके हो जाओगे बोझ से, उतने ही पात्र हो जाओगे, उतने ही तुम्हें पंख लग जाएंगे। तब तुम उड़ सकते हो।
नहीं; मेरी बातों को सुनकर अगर आत्मदीनता का भाव आने लगा, तो तुम चूक ही गए मेरी बात ही। तुम कुछ और ही समझ गए, जो मैंने कहा ही न था।
यही तो मुझमें और तुम्हारे और महात्माओं में फर्क है। उनकी चेष्टा है कि वे तुम्हें अपराधी सिद्ध करें। उनकी चेष्टा है कि वे तुम्हें दीन सिद्ध करें। उनकी चेष्टा है कि वे तुम्हें ग्लानि से भर दें, तुम्हें नर्क भेज दें।
मैं तुमसे कहता हूं कि नर्क कहीं है ही नहीं, स्वर्ग को ही गलत ढंग से देखना है। नर्क तुम्हारी आत दृष्टि है। ऐसे ही जैसे गुलाब की झाड़ी के पास तुम गए। बड़े फूल खिले हैं। और तुम फूलों को तो न देखे और कीटों से उलझ गए और कांटे गिनने लगे। और तब कांटे गिनने में कोई कांटा चुभ गया। फिर तुम डर गए। फिर तुम डर गए कि इस फूल के पास जाना भी उचित नहीं है। तुम घबड़ा गए। न तो तुम फूल की सुगंध जान पाए, न उसका सुकुमार, कुंवारापन जान पाए; न फूल की ताजगी जान पाए, न फूल का गीत सुन पाए। काटे से उलझ गए।
जैसे गुलाब के फूल में काटे हैं, ऐसे स्वर्ग में गलत ढंग से प्रवेश कोई कर जाए, तो नर्क है। तुम सुख को भी दुख बना लेते हो अपनी ही दृष्टि के कारण। दुख भी सुख बन जाता है दृष्टि के रूपांतरण से। मुसलमान फकीर बायजीद एक रास्ते से गुजरता था। चोट लग गयी। एक पत्थर से पैर टकरा गया। आकाश की तरफ देखकर प्रार्थना कर रहा था चलते—चलते। स्मरण कर रहा था प्रभु का। चोट लग गई। पैर लहूलुहान हो गया। वहीं घुटने टेककर बैठ गया। लेकिन उसकी आखों से खुशी के आंसू बहने लगे।
उसके भक्तों ने कहा, यह जरा जरूरत से ज्यादा है। जिसकी तुम प्रार्थना करते हो, वह तुम्हारी इतनी भी फिक्र नहीं करता कि तुम आकाश की तरफ देख रहे हो, तो वह कम से कम तुम्हारे पैर को बचाए! उसको कुछ पड़ी ही नहीं है। तुम खाली आकाश में ही अपनी बातें किए चले जा रहे हो। यह सब प्रार्थना बेकार है। कोई है नहीं वहां। और अब तुम किसलिए प्रसन्न हो रहे हो? पैर से खून बह रहा है!
बायजीद ने कहा, नासमझो, तुम्हें पता नहीं। फांसी हो सकती थी, उसने बचा दी। बुराइयां और भूलें तो मैंने इतनी की हैं कि अगर आज फांसी भी लगती, तो भी कम थी। लेकिन सिर्फ पैर में थोड़ी—सी पत्थर की चोट लगी, थोड़ा—सा खून बहा; उसकी बड़ी कृपा है। प्रार्थना सुन ली गयी।
बायजीद ने कहा, तुम्हें पता नहीं है, क्या हो सकता था। मुझे पता है, क्या हो सकता था। प्रार्थना न होती आज बचाने को, तो फांसी लगती। प्रार्थना ने छाते की तरह ढाक लिया, बचा लिया। जरा—सी चोट लगी, बच गए। धन्यवाद न दूं! प्रसन्नता से नाचूं न! अगर देखने की दृष्टि विधायक हो, तो तुम शिकायत में से भी धन्यवाद खोज लोगे। देखने की दृष्टि निषेधात्मक हो, तो तुम अहोभाव में भी शिकायत खोज लोगे। तुम पर निर्भर है। स्वर्ग तुम्हारी दृष्टि है, नर्क तुम्हारी दृष्टि है।
मेरी बातों को सुनकर तुम अपात्रता के भाव से मत भर जाना, अपात्रता की ग्लानि से मत भर जाना। मेरी बात को सुनकर तो तुम इस आनंद से भरना कि परमात्मा अहर्निश बरस रहा है। जरा—सी भूल है।
बुद्ध कहते थे, वर्षा हो रही हो, तुम घड़े को उलटा रख दो; पानी गिरता रहेगा, घड़ा खाली का खाली रह जाएगा। जरा—सी ही बात थी। ऐसा न रखकर, वैसा रख दिया होता; उलटा न रखा होता। कोई बहुत बड़ी भूल नहीं हो रही थी, लेकिन इतनी—सी भूल और घड़ा पानी से खाली रह जाएगा। उलटा रख दिया।
तुम्हारी अपात्रता भी इतनी ही है, जैसे घड़ा उलटा हो। कोई बहुत बड़ी समस्या मत बनाओ।
मेरे अनुभव में ऐसा है कि तुम छोटी—छोटी समस्याओं को भी बड़ा बना लेते हो। क्योंकि तुम्हारा अहंकार हर चीज को बड़ा बनाने में कुशल हो गया है, छोटी बातें मानता ही नहीं। फोड़ा—फुंसी हो जाए, तुम कैंसर की बात शुरू कर देते हो। तुम्हारा अहंकार मानता ही नहीं कि तुम जैसे महापुरुष को फोड़ा—फुंसी हो सकता है! होगा, तो कैंसर ही होगा।
मैं एक कालेज में प्रोफेसर था। एक महिला भी वहां प्रोफेसर थी। उसकी बकवास मुझे रोज ही सुननी पड़ती। जब भी मैं उसके आस—पास कहीं पड़ जाता, वह अपना रोना शुरू कर देती।
उसके पति ने एक दिन मुझे फोन किया कि आप मेरी पत्नी की बातों को ज्यादा गंभीरता से मत लेना। वह बढ़ा—चढ़ाकर कहती है। तो मैंने उसको कहा कि आज ही वह मुझे कह रही थी कि उसको कैंसर की बीमारी है! उसका पति हंसने लगा। उसने कहा कि कोई बीमारी वगैरह नहीं है। लेकिन उसके अहंकार को छोटी चीजें जंचती ही नहीं। छोटी—मोटी बीमारी उसे होती ही नहीं। उसे बडी बीमारियां होती हैं।
तुम्हारा अहंकार ऐसा है कि तुम हर चीज को बड़ी कर लेते हो। बुराई को भी बड़ा कर लेते हो। और बड़ी हैरानी की बात है।
संत अगस्तीन ने कन्‍फेशंस लिखे हैं अपने जीवन के। उनको पढ़ते वक्त बहुत बार ऐसा लगता है कि वह बढ़ा—चढ़ाकर कह रहा है। इतने पाप आदमी कर नहीं सकता। यह आदमी की हैसियत के बाहर है। यह मुझे सदा से शक था कि इसमें कुछ बढ़ा—चढ़ाकर इसने कहा है।
लेकिन कोई पापों को क्यों बढ़ा—चढ़ाकर कहेगा! अब मनोवैज्ञानिक भी मुझसे राजी हैं। जितना वे अध्ययन कर रहे हैं कन्‍फेशंन का, उतना ही वे कहते हैं कि इस आदमी ने बढ़ा—चढ़ाकर बात कही है।
गांधी ने अपनी आत्मकथा में जिन पापों का उल्लेख किया है, वह काफी बढ़ा—चढ़ाकर किया है। उतने पाप किए नहीं हैं।
अब तुम कहोगे कि आदमी अच्छाइयों को बढ़ा—चढ़ाकर कहे, यह तो समझ में आता है। बुराइयों को क्यों कोई बढ़ा—चढ़ाकर कहेगा? बुराइयों को तो आदमी ढांकता है!
यह बात सच है कि बुराइयों को आदमी ढांकता है। वह भी अहंकार के लिए, ताकि किसी को पता न चले। बुराइयों को वह उघाड़ता भी है, वह भी अहंकार के लिए, ताकि किसी को पता चले कि इतनी बुराइयां मैंने कीं और उनको मैं पार भी कर गया और अब मैंने सब छोड़ दिया है।
एक संत के संबंध में मैं पढ़ रहा था। कहते हैं, वह बड़ा विनम्र आदमी था। लेकिन मरते वक्त जो वचन उसने कहे....... उसके भक्त तो ऐसा ही मानते हैं कि बड़ी विनम्रता में कहे, लेकिन मैं थोड़ा हैरान हुआ। मरते वक्त उसने परमात्मा की तरफ आंखें उठायी और कहा कि देख, मुझसे बड़ा पापी कोई भी नहीं।
भक्त तो सोचते हैं कि उसने कहा कि मुझसे बड़ा पापी कोई भी नहीं। कैसा विनम्र आदमी है! लेकिन वह यह कह रहा है कि मुझसे बड़ा पापी कोई भी नहीं। पापियों में भी मैं प्रमुख हूं। मुझे कोई मात नहीं कर सकता।
अहंकार अदभुत है। वह पुण्य में भी आगे खड़ा होना चाहता है, पाप में भी आगे खड़ा होना चाहता है! असल में अहंकार को मजा सिर्फ आगे खड़े होने का है। कहीं भी खड़ा करो, आगे खडा करो। बर्नार्ड शा ने कहा है कि मैं मरकर स्वर्ग जाना पसंद न करूंगा, अगर मुझे नंबर दो खड़ा होना पड़े। मैं मरकर भी नर्क जाना ही पसंद करूंगा, अगर मुझे नंबर एक खड़ा होना मिल जाए तो।
नर्क भी तैयार है, जाने को, लेकिन नंबर एक। दोयम, दूसरे नंबर खड़े होना पड़े स्वर्ग में, कि जीसस आगे खड़े हों, बर्नार्ड शा पीछे खड़ा हो; नहीं जंचता। इससे तो नर्क ही बेहतर। कम से कम वहां आगे तो खड़े होंगे; नंबर एक तो खड़े होंगे।
अहंकार नंबर एक होना चाहता है, कुछ भी उपाय से। इसे थोड़ा खयाल रखो।
आत्मग्लानि का अतिशय रूप कहीं अहंकार का ही एक ढंग न हो। कहीं अपने पाप को ज्यादा समझकर तुम अपने अहंकार को मत भर लेना। ऐसी जटिलता है।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि परमात्मा बरस रहा है, तब तुम वर्षा पर ध्यान दो। और तुम्हारी पात्रता अगर नहीं बैठ रही है, तो कुल मतलब इतना है कि इरछा—तिरछा रखा है पात्र, उलटा रखा है, मुंह ढंका है। बस, ऐसी कोई छोटी—मोटी भूलें हैं, जिनमें कोई बड़े गौरव की जरूरत नहीं है। इनको ऐसे ही ठीक किया जा सकता है, जैसे कोई दो और दो को पांच जोड़ता हो; फिर दो और दो को चार जोड़ ले और सब ठीक हो जाता है।
अपने को ज्यादा मूल्य मत दो, अपात्रता के लिए भी मत दो।

 तीसरा प्रश्न : गीता में जगह—जगह परमात्म—प्राप्ति के लिए आसक्ति और ममत्व से रहित बुद्धि की मांग है, साथ—साथ प्रेम और भक्ति की भी। क्या आसक्ति और लगाव के बिना प्रेम और भक्ति संभव है?

 भी संभव है। अगर प्रेम में आसक्ति है, तो वह मोह हो गया। अगर प्रेम में आसक्ति नहीं है, तो वह भक्ति हो गयी। प्रेम तो दोनों के मध्य में है, मोह और भक्ति। अगर प्रेम आसक्ति में गिर जाए, तो मोह हो जाता है। अगर प्रेम आसक्ति से मुक्त हो जाए तो भक्ति हो जाता है। और प्रेम दोनों के मध्य में है।
अगर ठीक से समझो, तो प्रेम कोई अवस्था नहीं है, संक्रमण है। अगर तुमने जल्दी न की, तो प्रेम नीचे ग़ीरेगा और मोह बन जाएगा। अगर तुमने जल्दी की, तो प्रेम भक्ति बन जाएगा। प्रेम अपने आप में एक यात्रा है। प्रेम कोई स्थिर स्थिति नहीं है, संक्रमण है, मोह और भक्ति के बीच की यात्रा है।
और अगर तुमने किसी को भी प्रेम किया है, किसी को भी, तो तुमने दोनों बातें जानी होंगी। अगर तुमने अपने बेटे को प्रेम किया! है, अगर तुम मां हो और अपने बेटे को प्रेम किया है, या पत्नी हो और पति को प्रेम किया है; या पति हो और अपनी पत्नी को प्रेम किया है, या मित्र को प्रेम किया है; अगर तुमने प्रेम किया है, तो तुमने सब बातें जानी होंगी। कभी—कभी तुमने पाया होगा कि प्रेम मोह बन जाता है और तब दुख देता है। और कभी—कभी तुमने यह भी पाया होगा कि प्रेम अचानक भक्ति बन जाता है और तब परम प्रसाद रूप हो जाता है।
मां अपने बेटे को अगर प्रेम कर सके ऐसा कि उसमें आसक्ति न हो, तो बेटे में उसे कृष्ण ही दिखाई पड़ने लगेंगे। तो वह बेटा चलेगा, उसकी पायल बजेगी और उसे कृष्य का स्मरण आने लगेगा। उसे बेटे की उस छोटी—सी छवि में परमात्मा विराजमान दिखाई पड़ेगा।
जहां भी तुम्हारा प्रेम आसक्ति से मुक्त होता है, वहीं परमात्मा को देखने के लिए द्वार खुल जाता है। अगर तुमने अपनी पत्नी को भी प्रेम किया है और उसमें आसक्ति धीरे— धीरे समाप्त हो गयी है तो पत्नी की चेतना में तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। प्रेम जब ऊंचाई पर उठता है, उसको पंख लगते हैं, आसक्ति के पत्थर उससे हट जाते हैं, फंदा छूट जाता है, तब वह भक्ति की तरफ उड़ने लगता है। और जब प्रेम का पक्षी दब जाता है पत्थरों से, गले में फांसी लग जाती है, आसक्ति से घिर जाता है, तो मोह हो जाता है।
प्रेम दोनों के बीच में है। और ध्यान रखना, अगर तुमने कुछ न किया, तो प्रेम अपने आप तो नीचे गिरता है। क्योंकि सभी चीजें अपने आप नीचे की तरफ जाती हैं, स्वाभाविक है। जैसे पानी नीचे की तरफ जाता है। छोड़ दो, बहता रहेगा। जहां भी नीचाई पाएगा, वहीं चला जाएगा। गड्डों में पहुंच जाएगा अपने आप। गड्डों में जाने। के लिए कोई आयोजन न करना पडेगा। लेकिन ऊपर चढ़ाना हो, पहाड़ पर ले जाना हो, तो फिर पानी को चढ़ाने का आयोजन करना पड़ेगा, फिर शक्ति लगानी पडेगी। वहीं साधना शुरू होती है। वहीं तप का प्रारंभ है।
कृष्ण ठाक कहते हैं, प्रेम और भक्ति, उनसे ही परमात्मा को।' कोई पाता है। और आसक्ति और ममत्व से ही कोई परमात्मा से चूकता है।
एक से लगते हैं। तुम्हें तो कोई फर्क ही नहीं लगता। तुम तो। सोचते हो, प्रेम, मोह, भक्ति, इनमें कुछ फर्क दिखाई नहीं पड़ता। असल में तुम न तो प्रेम को जानते हो, न भक्ति को। तुम सिर्फ मोह को जानते हो। तुमने निम्नतम दशा जानी है प्रेम की।
तुम्हारी अवस्था ऐसी है, जैसे किसी आदमी ने बर्फ जाना हो। न तो पानी जाना, न भाप जानी। बर्फ जाना सख्त पत्थर की तरह, जमा हुआ। अगर तुम उसे समझाओ भी कि इसकी एक ऐसी भी दशा है, जब बर्फ पानी बन जाता है; पिघलता है, बहता है। तो वह मानेगा नहीं कि यह पत्थर जैसी चीज कैसे पिघलेगी! कैसे बहेगी! लेकिन तुमने अगर पानी जाना है, तो तुम पाते हो कि पानी बहता है। बर्फ तो जमा है, सख्त, मृत; पानी में जीवन है।
और भी एक दशा है, वह भाप की है, कि पानी वाष्पीभूत हो जाता है, आकाश की तरफ उठने लगता है, अदृश्य में खो जाता है। वह भक्ति है।
और जीवन में प्रत्येक चीज के तीन रूप होते हैं। ऐसा कोई वैज्ञानिक कहते हों, ऐसा ही नहीं है, आध्यात्मिक भी ऐसा ही कहते हैं कि जीवन में हर चीज के तीन रूप होते हैं। एक तो बर्फ की तरह जमा हुआ, एक पानी की तरह पिघला हुआ, एक भाप की तरह उड़ता हुआ।

 मोह बर्फ है, प्रेम पानी है, भक्ति भाप है।

 चौथा प्रश्न : गीता इस मुल्क में सर्वाधिक पड़ी और सुनी गयी और कृष्ण भी सर्वाधिक पूजे गए। फिर ऐसा कैसे हुआ कि इस देश से गीत और उत्सव खो गया और संन्यास सड़ांध से भर गया?

 गीता को पढ़ने से कोई जीवन में गीत नहीं आता। गीता को पढ़ना गीतामय हो जाना नहीं है। वहीं भूल हो गयी।
कृष्ण से सुनकर इन अनूठे शब्दों को, अर्जुन जागा। हमने इन शब्दों में कुछ जादू है। हमने सोचा, इन शब्दों में कुछ कुंजियां हैं। हमने सोचा, ये शब्द अर्जुन के हृदय के ताले को खोल दिए, तो हमारे हृदयों के ताले भी इन शब्दों से खुल जाएंगे। तो गीता का पाठ शुरू हुआ


पांच हजार साल से हम गीता का पाठ कर रहे हैं। किसी का ताला खुलता नहीं। लगता है, शब्दों में कोई चाबी नहीं है। न केवल ताला खुलता नहीं, बल्कि गीता को दोहरा—दोहराकर ताला और जंग खा जाता है। खुलता तो है ही नहीं, खुलने की आशा भी टूट जाती है।
इस भांति के पीछे कारण है। पहली बार घटना घटी थी, ताला खुला था। हमने देखा था कि अर्जुन जागा, अनूठा हो गया, नया हो गया, अद्वितीय हो गया। उठ गया गर्त से अंधकार के और प्रकाश हो गया। निश्चित ही, उसके संदेह मिट गए और उसने आत्म— भाव को पाया; वह कृष्णमय हो गया। यह हमने देखा था। स्वभावत, देखकर हमें लगा कि इन्हीं शब्दों को हम भी दोहराए जाएं।
लेकिन जो घटना घटी थी, वह शब्दों की नहीं थी। कृष्ण जो कह रहे थे, वह तो बहाना था। कृष्ण का होना असली चीज थी।
अर्जुन जो जागा, वह कृष्ण के कहने से नहीं जागा। वह कृष्ण के होने से जागा। अर्जुन जो जागा, वह कृष्ण के शब्दों के कारण नहीं जागा, कृष्‍ण को पीकर जागा। शब्द तो बहाना था। शब्द की यात्रा तो ऊपर—ऊपर थी, भीतर एक गहरा लेन—देन चल रहा था, हृदय का हृदय से, प्राणों का प्राणों से। असली गीता वहा सवांदित हो रही थी। वह तो हमारे हाथ से चूक गयी।
मैं यहां बोल रहा हूं। कुछ होंगे, जो केवल मेरे शब्दों को सुनकर चले जाएंगे। उनके हाथ में कचरा ही रहेगा। शब्द कितने ही सुंदर क्यों न हों, कचरा ही हैं। मूल्य तो निःशब्द का है, मौन का है। लेकिन कुछ निश्चित यहां हैं, जो सुनते वक्त शब्दों पर चिंतित नहीं हैं। शब्द के बहाने तो वे यहां बैठे हैं, सुन वे मुझे रहे हैं।
अगर मैं बोलना बंद कर दूं तो जो लोग शब्द सुन रहे थे, वे आना बंद कर देंगे। फिर तो केवल वे ही बच रहेंगे दो—चार, जो मौन सुन रहे थे। उनके जीवन में ही क्रांति घटित होगी।
शब्द तो तुम्हारे मन को दिया गया खिलौना है। मन चुप नहीं होता, मैं बोलता हूं उतनी देर को चुप हो जाता है, लग जाता है। इधर मन लग गया, मन उलझ गया, तो हृदय से संबंध जोड्ने की सुविधा हो जाती है।
एक हाथ से बोलता चला जाता हूं, ताकि तुम्हारा मन उलझा रहे, दूसरे हाथ से तुम्हारे हृदय को स्पर्श करता हूं। वह तो दिखाई नहीं पड़ता। वह तो जिसका हृदय स्पर्शित होगा, वही जानेगा। वह अनुभव ही ऐसा है कि जानने वाला ही जानता है। वह गुंगे का गुड़ है; वह प्रतीति है।
तो कृष्ण ने जो अर्जुन? से कहा, वह तो गौण है। जो नहीं कहा और दिया, वही मूल है। उससे अर्जुन जागा। लेकिन हम को तो सिर्फ शब्द ही सुनाई पड़े थे।
यह गीता की कथा बड़ी अनूठी है। इसे तुम समझने की कोशिश करो।
कौरवों के पिता अंधे हैं। वे अंधे हैं, युद्ध पर जा नहीं सकते। वे घर बैठे हैं। लेकिन अंधी भी क्यों न हो, पिता की आकांक्षा; उसके पुत्र जीत जाएं, राज्य को उपलब्ध हों, वह महत्वाकांक्षा तो पीछे खड़ी है। अंधा पिता बेचैन है जानने को कि क्या हो रहा है! जा नहीं सकता खुद, आंख नहीं है देखने की, लेकिन जानने की आतुरता है, क्या हो रहा है! वह पूछता है संजय को।
संजय भी वहां मौजूद नहीं है। बड़े दूर से, सैकड़ों मील के फासले से संजय देखता है, जो वहां हो रहा है। क्या अर्जुन ने पूछा, क्या कृष्ण ने कहा; वह संजय धृतराष्ट्र को दोहराता है। ये प्रतीक बड़े कीमती हैं।
कृष्ण ने अर्जुन से कुछ कहा। जो कहा, वह तो ऊपर—ऊपर है; जो नहीं कहा, वही असली है। जो बिना कहे उंडेला, वही असली है। अर्जुन के पात्र को सीधा रख लिया और खुद उसमें उंडल गए। यह तो सिर्फ समझाना था कि पात्र सीधा बैठने को राजी हो जाए। यह तो फुसलाना था। यह तो उसे राजी करना था, ताकि वह अपने संदेह छोड़ दे, डांवाडोल होना छोड़ दे, बैठ जाए, तो कृष्ण पूरे उसमें उतर जाएं।
यह घटना तो अदृश्य में घटी। यह तो आंख वालों को भी दिखाई नहीं पड़ेगी, अंधे की तो बात ही छोड़ दो! यह तो वहां युद्ध के मैदान पर जो लोग खड़े थे, उनको भी दिखाई नहीं पड़ी। उन्होंने भी शब्द ही सुने होंगे।
सैकड़ों मील दूर संजय ने ये शब्द सुने। टेलीपैथी से सुने होंगे; या हो सकता है, रेडियो से सुने हों। दोनों एक—सी बातें हैं। पर बड़े दूर से सुने, यह बात महत्वपूर्ण है।
कृष्ण जैसे व्यक्ति जब बोलते हैं, तो एक तो अर्जुन है, जो पास से सुनता है। पास का अर्थ है, हृदय से सुनता है। और एक संजय है, जो दूर से सुनता है सैकड़ों मील फासले से। उसके पास शब्द ही पहुंचते हैं। और फिर संजय अंधे को बता रहा है, अंधे धृतराष्ट्र को, कि क्या हुआ।
सब उधार होता जा रहा है। हजारों मील का फासला, सुने गए शब्द। और संजय टेक्निकल आदमी है। वह कोई हृदय का आदमी नहीं है। वैज्ञानिक रहा होगा, रेडियोविद रहा होगा, टेलीपैथी में कुशल रहा होगा; विशेषज्ञ है, एक्सपर्ट है। उसके पास तकनीक है। वह जानता है कि सैकड़ों मील दूर से कैसे सुना जा सके। लेकिन उसके पास पास होने की कला नहीं है। नहीं तो संजय ही स्वयं ज्ञान को उपलब्ध हो जाता। वह तो सिर्फ रिपोर्टर है, अखबारनवीस।
उसको कुछ भी नहीं हुआ। वह अछूता ही रह गया। उसके चिकने घड़े पर कोई परिणाम न हुआ। इधर अर्जुन सोया था, जाग भी गया। इधर कृष्ण ने अर्जुन में अपने को उंडेल दिया। इस पृथ्वी पर घटने वाली कुछ अनूठी घटनाओं में एक घट गयी।
संजय को सारी खबर मिल रही है, मगर सब तकनीकी है। संजय पर ही दूर हो गयी बहुत, शब्दों की हो गयी, फासले की हो गयी, हृदय की न रही, मस्तिष्क की हो गयी। फिर संजय ने धृतराष्ट्र को कहा। फिर अंधे धृतराष्ट्र ने क्या समझा? कोरे शब्द रह गए, जिनमें से निःशब्द की ध्वनि भी खो गयी।
और फिर अंधे धृतराष्ट्र हजारों साल से गीता रट रहे हैं। आंखें नहीं हैं देखने की, कान नहीं हैं सुनने के, हृदय नहीं है अनुभव करने का। लिए हैं गीता, रखे बैठे हैं। रटे जा रहे हैं, दोहराए जा रहे हैं। कंठस्थ हो जाता है, लेकिन आत्मस्थ नहीं होता।
ऐसा सदा ही हुआ है और सदा ही होगा। क्योंकि बहुत कम होंगे, जो अपने हृदय को, पात्र को सीधा रखकर सुन पाएंगे। बड़े साहस की जरूरत है, क्योंकि बड़े से बड़ा खतरा है, दुस्साहस है किसी दूसरे व्यक्ति को अपने में निमंत्रित कर लेना, किसी दूसरे से आविष्ट हो जाना, किसी दूसरे के हाथ में अपने को सर्वांगीण रूप से छोड़ देना।
वही तो कृष्ण चाहते थे अर्जुन से, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं वज। सब छोड़, और मेरी शरण आ जा। बड़े साहस की बात है। क्योंकि बेईमान मन, चालाक मन कहे जाता है, कहीं धोखा न हो! पता नहीं, इस आदमी को कुछ पता भी है या नहीं है, और कहीं हम ऐसे ही ठगे न जाएं! और तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं ठगे जाने को। मगर फिर भी डर लगता है, कहीं चोरी न हो जाए। जो है ही नहीं, वह खो न जाए, इसका भी डर लगता है!
अर्जुन ने हिम्मत की। उतनी हिम्मत तुम्हारे पास नहीं है, तो तुम गीता को याद करते रहो, तो तुम पंडित हो जाओगे, गीत पैदा न होगा। और पंडित के जीवन में तो गीत होता ही नहीं। उसके जीवन में कितना ही गद्य हो, पद्य नहीं होता। उसके जीवन में कविता नहीं होती, गीत नहीं होता, सुर नहीं होता, संगीत नहीं होता। व्याकरण होगी, गणित होगा, तर्क होगा, काव्य नहीं होता।
काव्य के लिए तो प्रेमी चाहिए, पंडित नहीं। और काव्य के लिए तो एक और ही तरह की संवेदनशीलता चाहिए, जो सौंदर्य की पारखी है।
इसलिए गीता इस मुल्क में सर्वाधिक पढ़ी गयी, सुनी गयी, लेकिन कुछ हुआ नहीं। गीत खोता चला गया। हमारे हाथ में धुएं की लकीर रह गयी। जैसे आकाश से जेट निकल जाता है और पीछे धुएं की लकीर छूट जाती है, ऐसे गीता का प्राय तो निकल गया कभी का, एक धुएं की लकीर छूट गयी। उस लकीर को ही हम पकड़े बैठे हैं।
और तुमने पूछा है कि कृष्ण सर्वाधिक पूजे भी गए!
वह भी झूठ है पूजा। कृष्ण को पूजना सर्वाधिक कठिन बात है। महावीर को पूजना आसान, बुद्ध को भी पूजना आसान, क्राइस्ट को भी पूजना आसान, मोहम्मद को भी पूजना आसान, लेकिन कृष्ण को पूजना बहुत कठिन है। क्योंकि महावीर के जीवन में एक व्यवस्था है। तुम भी उस व्यवस्था को समझ सकते हो। एक नीति है, एक नियम है, एक अनुशासन है, एक मर्यादा है।
कृष्ण तो अमर्याद हैं। उनके जीवन में कोई मर्यादा नहीं है। वे तो मुक्त हवा हैं, अनप्रेडिक्टेबल हैं, उनके संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। तुम यह नहीं कह सकते कि कृष्ण क्या करेंगे। एक क्षण बाद क्या करेंगे, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। उनके वचन तक का भरोसा नहीं किया जा सकता। वे अपना वचन भी तोड़ दे सकते हैं। क्योंकि वे क्षण— क्षण जीते हैं, उनके जीवन में कोई ढांचा नहीं है।
वे कोई नहर की तरह नहीं हैं, नदी की तरह हैं। बाढ़ भी आती है, गरमी में सूख भी जाती है। गरमी में सूख जाती है, तो पतली धार हो जाती है। बाढ़ आती है, तो गांव को बहा ले जाती है, मार्ग छोड़ देती है। कृष्ण का जीवन रेलगाड़ी की पटरियों जैसा नहीं है कि उस बंधी हुई लकीर पर दौड़ रहे हैं।
इसलिए कृष्ण बहुत बेबूझ हैं। कृष्ण को पूजना आसान नहीं है। ऐसे तुम ठीक कहते हो कि लोगों ने कृष्ण को पूजा, लेकिन बिना समझे। बिना समझे की गयी पूजा का क्या मूल्य हो सकता है! मेरी अपनी समझ ऐसी है कि तुम दो कारणों से पूजते हो। एक तो छुटकारा पाने को। जिससे भी तुम छुटकारा पाना चाहते हो, तुम कहते हो, अच्छा बाबा, हाथ जोड़े, पैर छुए; रास्ते पर जाने दो।
कृष्ण की पूजा कुछ ऐसी है, अच्छा बाबा वाली पूजा, कि क्षमा करो; आप भले, एकदम ठीक हैं; विवाद भी करना उचित नहीं आपसे, क्योंकि ज्यादा देर पास खड़े होना भी ठीक नहीं।
तुम थोड़ा सोचो कृष्ण के जीवन को, ठीक शुरू से लेकर अंत तक। तुम इतने कंट्राडिक्शंस, इतनी असंगतियां पाओगे कि तुम्हारा मन कहेगा, यह आदमी पूजा योग्य है? यह आदमी धार्मिक है, यह भी संदेह की बात मालूम पड़ती है। कूटनीतिज्ञ मालूम होता है; राजनीतिज्ञ मालूम होता है; अनैतिक मालूम होता है। कोई मर्यादा नहीं है इस आदमी की। कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। लेकिन फिर भी तुम कहते हो कि पूजा है, तो उसमें थोड़ी बात तो है।
पूजा है छुटकारा पाने को, कि ठीक है। हाथ जोड़ लिए; छूटे! ऐसा सदा हुआ है। अगर कृष्ण जीवित मिल जाएं, तो तुम भाग खड़े होओगे। क्योंकि तुम्हारी सब धारणाएं खंडित हो जाएंगी।
तुम थोड़ा सोचो, कृष्ण बांसुरी बजाते तुम्हें कहीं मिल जाएं। राधा, जो उनकी पत्नी नहीं है, पास खड़ी हो। दूसरों की पत्नियां आस—पास नाच रही हों, रासलीला चल रही हो। तुम पुलिस में खबर करोगे कि पूजा करोगे?
तुम पुलिस में खबर करोगे। तुम कहोगे, यह कृष्ण कहानियों में ठीक है। यह तुम्हारे घर आकर मेहमान हो जाएं मोर—मुकुट बांधे हुए आज। तुम कहोगे, कहीं और ठहर जाओ तो अच्छा होगा। आखिर हमें इस संसार में रहना है और पड़ोस के लोग भी हैं। कोई देख ले, किसी को पता चल जाए कि आप आ गए।
इस व्यक्ति को जिन्होंने जाना, उन्होंने पूर्णावतार कहा है। पूर्णावतार अमर्याद होगा। सब मर्यादा आदमी की है, परमात्मा के लिए क्या मर्यादा हो सकती है? सब सीमा आदमी की है, परमात्मा के लिए क्या सीमा हो सकती है? सब नियम आदमी के हैं; परमात्मा के लिए क्या नियम हो सकता है?
इसलिए इसमें बड़ा रहस्य है कि कृष्ण के जीवन को हमने अमर्याद बनाया है, अमर्याद जाना है, क्योंकि परमात्मा नियम के ऊपर होगा। अगर परमात्मा नियम के नीचे है, तो परमात्मा की कोई जरूरत ही नहीं है। फिर तो नियम काफी है।
परमात्मा नियम के ऊपर होना चाहिए।
इसलिए तो जैनों ने परमात्मा को इनकार कर दिया। उनके इनकार में बड़ा अर्थ है। वे कहते हैं, अगर परमात्मा को स्वीकार किया, तो नियम का क्या होगा? उनका तर्क यह है कि अगर परमात्मा भी नियम ही मानकर चलता है, तो वह व्यर्थ है, उसकी कोई जरूरत नहीं है। नियम काफी है। और अगर परमात्मा नियम तोड़ सकता है, तब तो उसकी बिलकुल भी जरूरत नहीं है, क्योंकि तब तो सब अनियम हो जाएगा। जीवन अराजक हो जाएगा। तब तो जो पाप करता है, वह स्वर्ग भेजा जा सकता है, जो पुण्य करता है, वह नर्क में सडाया जा सकता है। तब तो त्यागी संसार में फेंका जा सकता है, भोगी मोक्ष में डाला जा सकता है। अगर परमात्मा नियम के ऊपर है।
तो जैनों ने कहा, यह खतरा मोल लेने जैसा नहीं है। परमात्मा को हम बीच में रखते ही नहीं। नियम काफी है। और नियम के ऊपर कोई भी नहीं है।
लेकिन हिंदुओं ने यह खतरा मोल लिया है। सिर्फ हिंदू अकेली जाति है संसार में, जिसने परमात्मा की एक छवि कृष्ण में बांधी है, अमर्याद। बड़ी गहरी बात है। समझ के पार जाती है। समझ तो कहेगी, कुछ मर्यादा होनी ही चाहिए, नहीं तो हम सबका क्या होगा! लेकिन एक घड़ी तो ऐसी आनी ही चाहिए, जहां सब मर्यादाएं खो जाएं, जहां नदी सब कूल—किनारे तोड़ दे और सागर में लीन हो जाए। सागर का कोई कूल—किनारा नहीं होना चाहिए।
तो कृष्ण उस अमर्याद दशा की बात है। वह हमारा संकेत है आत्यंतिक, आखिरी सत्य की तरफ। उसकी तुम पूजा करते हो बिना समझे। अगर समझकर तुम पूजा करोगे, तो तुम रूपांतरित हो जाओगे। लेकिन तुम्हारी पूजा अंधी है। तुम आंख बंद करके घंटी हिलाकर, फूल—पत्ती रखकर भाग खड़े होते हो। तुमने गौर से कभी कृष्ण के साथ आंखें नहीं मिलायी। अन्यथा या तो तुम बदलते या कृष्ण को उठाकर फेंक देते। दो में से कुछ होता।
तुम पूजा करते हो बिना आंख उठाए। ठीक से देखते भी नहीं, किसकी पूजा कर रहे हो! क्योंकि तुम खुद भी डरते हो कि अगर ठीक से आंख उठायी, तो निपटारा करना पडेगा। या तो यह कृष्ण जाएंगे और या फिर मुझे बदलना होगा। फिर सब तर्क छोड़ना पड़ेगा।
कृष्ण तो पागलों की दुनिया है, अतर्क्य की, दीवानों की। मीरा ने कहा है, सब लोक लाज खोयी। चैतन्य नाचने लगे सड्कों पर, जब कृष्ण की चैतन्य— धारा से उनका संबंध हुआ। चैतन्य ने की है पूजा, तो वे कृष्ण—रूप हो गए। मीरा ने की है पूजा, तो वह कृष्ण—रूप हो गयी।
लेकिन बाकी लोग तो धोखा दे रहे हैं, खुद को धोखा दे रहे हैं। पूजा नहीं है; सब बहाना है। करनी चाहिए; एक औपचारिक कृत्य है। हिंदू घर में पैदा हुए हो; कृष्ण की पूजा चलती रही है; कर लेनी चाहिए; कौन जाने वक्त—बेवक्त काम पड़ जाए!
मैंने सुना है, एक की स्त्री चर्च में जब भी शैतान का नाम लिया जाता, तो जल्दी से सिर झुकाती थी। शैतान का जब भी नाम लिया जाए, पादरी जब भी शैतान के संबंध में बोले, जल्दी से सिर झुकाती। पादरी भी चकित हुआ। उसकी उत्सुकता बढ़ती गयी। एक दिन उसने चर्च के बाहर पकड़ा उस बुढ़िया को और कहा कि मैं कुछ समझ नहीं पाता। परमात्मा का जब नाम लेता हूं, तब तू सिर झुकाती है, ठीक। मगर जब शैतान का नाम लेता हूं, तब भी तू सिर झुकाती है! उसने कहा, कौन जाने, वक्त पर काम पड़ जाए। कुछ कहा नहीं जा सकता!
तो तुम पूजा किए जाते हो। कौन जाने, वक्त पर काम पड़ जाए! लेकिन यह कोई हृदय की आराधना नहीं है। औपचारिकता है, चली आती है। लकीर को पीटे चले जाते हो, क्योंकि तुम्हारे पिता भी करते थे, उनके पिता भी करते थे।
पूजा का कहीं कोई किसी के पिता से संबंध जुड़ता है? पूजा तो अपने हृदय का भाव है। जब उठती है, तो सब बाध तोड़ देती है। फिर तुम हिसाब—किताब न रख पाओगे। जैसा प्रेम पागल है, भक्ति तो और भी बहुत पागल है। वह तो बहुत बावली है।
बंगाल में भक्तों का एक संप्रदाय है, उसका नाम है बाउल। बाउल का अर्थ होता है, बावले। वे सिर्फ नाचते हैं, गाते हैं। वे कृष्ण पर फूल नहीं चढ़ाते हैं। उन्होंने अपने को चढ़ाया है। वे कृष्ण की मूर्ति भी नहीं रखते। वे कहते हैं, क्या मूर्ति रखनी! जहां नाचते हैं, वहीं कृष्ण साकार हो जाते हैं। उनकी पूजा—पाठ का कोई नियम, विधि—विधान नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, कृष्ण की पूजा—पाठ का क्या विधि—विधान! जिस आदमी के जीवन में ही कोई विधि—विधान न था, हम क्या उसकी पूजा में विधि—विधान बनाएं! जब उठती है मौज, जब पकड़ लेती है मौज, तो पूजा हो जाती है।
पढ़ी भी गयी गीता, सुनी भी गयी, पूजा भी तुमने की है, सब ऊपर—ऊपर है। सब दो कौड़ी का है। इसीलिए ऐसा हुआ कि इस देश से गीत भी खो गया, नृत्य भी खो गया, उत्सव भी खो गया, और संन्यास में वह सुगंध न रही, जो कृष्ण चाहते थे कि उसमें हो। कृष्ण का संन्यास संसार के विरोध में नहीं है। कृष्ण का संन्यास संसार के मध्य में है।
और जो संन्यास भी संसार के विरोध में होगा, वह आज नहीं कल सड़ जाएगा। उसकी जड़ें उखड़ जाएंगी। वह बहुत व्यापक नहीं हो सकता। क्योंकि उसे दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा।

 और संन्यासी को गृहस्थ पर निर्भर होना पड़े, वह संन्यास कितने दिन टिक सकता है! संन्यासी को बाजार पर निर्भर होना पड़े, दुकान पर निर्भर होना पड़े, वह कितने दिन टिक सकता है!
इसलिए सभी संन्यास की परंपराएं धीरे—धीरे सड़ जाती हैं। क्योंकि उन्हें अपने से विपरीत पर निर्भर रहना पड़ता है, मोहताज होना पड़ता है।
कृष्ण ने एक और ही संन्यास की धारणा दी थी—करते हुए, जीते हुए, सिर्फ फलाकांक्षा को तोड़ दो, छोड़ दो। कर्म को करते जाओ, कर्म की फलाकांक्षा भर न रह जाए। किसी को कानों—कान पता भी न चलेगा कि तुम संन्यस्त हो गए हो। यह एक भीतरी भाव—दशा होगी। ऐसा संन्यास कभी न सडेगा, क्योंकि ऐसे संन्यास की जड़ें संसार की भूमि में होंगी।
संन्यास ऐसा वृक्ष होना चाहिए, जिसकी जड़ें तो संसार में हों और जिसकी शाखाएं आकाश में; जो पृथ्वी को और स्वर्ग को जोड़ता हो। तब नहीं सडता है; तब नए फूल आते चले जाते हैं।
अब सूत्र :

फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्ति को प्राप्त होता है।
परा—भक्ति भक्ति की ऐसी अवस्था है, जहा कुछ भी मांगने को शेष न रह जाए। जहा भक्ति ही अपने आप में अपना आनंद हो, जहा भक्ति साधन न हो, साध्य हो जाए वहा परा— भक्ति हो जाती है। अगर तुम कुछ भी मांगते हो, तो भक्ति अभी परा— भक्ति नहीं है। अगर तुमने कहा, मोक्ष मिल जाए; तुमने अगर इतना भी कहा कि आनंद मिल जाए, सत्य मिल जाए, तो भी अभी भक्ति परा— भक्ति नहीं है। अभी मांग जारी है। अभी तुम भिखारी की तरह ही भगवान के द्वार पर आए हो।
और वहा तो स्वागत उन्हीं का है, जो सम्राट की तरह आते हों, कुछ भी न मांगते हों। वह इतना ही है कि बस, भक्ति करने का अवसर मिल जाए, काफी है। भक्ति ही अपने आप में इतना महाआनंद है, इतना बड़ा सत्य है, कि कुछ और चाह नहीं; तब परा— भक्ति।
उस परा— भक्ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूं तथा जिस भक्ति से मेरे को तत्व से जानकर तत्काल ही मेरे में प्रविष्ट हो जाता है।
और परा— भक्ति के क्षण में भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। भक्ति में अलग रहते हैं। भक्ति में भक्त भक्त है, भगवान भगवान है। भक्त की आकांक्षा है कुछ अभी। और आकांक्षा ही दोनों को विभाजित करती है।
अभी भक्त पूरा नहीं खुला है, अभी अपनी मांग है। अभी अपने मन की कोई सूक्ष्म रेखा शेष रह गयी है। अभी कोई अपनी आकांक्षा का बारीक बीज बचा है, जल नहीं गया है। अभी भगवान मिल जाए...... अगर तुम अपने से पूछो, अभी भगवान मिल जाए, तो तुम उससे क्या मांगोगे? क्या कहोगे? अगर तुम गौर से देखोगे, तुम्हारी सब वासनाओं के बीज उभरने लगेंगे। मन कहने लगेगा, यह मांग लेंगे, वह मांग लेंगे। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। हजार बातें मन मांगने लगेगा।
तो अभी तो भक्ति भी पैदा नहीं हुई। भक्ति तब पैदा होती है, जब मन मुक्ति मतो, कि इस संसार से ऊब गया, थक गया। अब और जन्म, जीवन नहीं चाहता। अब परम विश्राम में लीन हो जाना चाहता हूं मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति; तब भक्ति।
लेकिन माग अभी है। जब यह मल भी खो जाती है, जब तुम मुक्ति भी नहीं मांगते। जब तुम कहते हो, जो है बिलकुल ठीक है, जैसा है बिलकुल ठीक है। तुम्हारे मन में अस्वीकार की कोई रेखा भी नहीं रही। इस क्षण तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। ऐसी परम तृप्ति का क्षण परा— भक्ति है।
उस क्षण परमात्मा और भक्त में कोई फासला नहीं रह जाता। सब सीमाएं टूट जाती हैं। उसकी तरफ से तो कोई सीमा कभी है ही नहीं। तुम्हारी तरफ से थी, वह तुमने हटा ली।
ऐसे क्षण में मेरे में तत्‍क्षण प्रवेश कर जाता है।
एक क्षण भी नहीं खोता।
और मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त होता है।
कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, कोई कर्म त्यागना नहीं पड़ता। सब करते हुए! और यही सौंदर्य है कि सब करते हुए मुक्त हो जाओ। भागकर मुक्त हुए, वह कायर की मुक्ति है, डरे हुए की मुक्ति है, भयभीत की मुक्ति है। और भागकर मुक्त हुए, तो पूरे मुक्त कभी भी न हो पाओगे। जिससे तुम भागे हो, उससे थोड़ा बंधन बना ही रहेगा।
एक जैन मुनि की मृत्यु हुई। वे कोई तीस साल पहले अपनी पत्नी को त्याग दिए, घर—द्वार छोड़ दिया। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी जैनों में। प्रतिष्ठा का बड़ा कारण तो यही था कि वे मूलतः हिंदू थे और फिर जैन हो गए।
अब यह बड़े मजे की बात है। अगर कोई मुसलमान हिंदू हो जाए, तो उसको बहुत सम्मान मिलेगा। मुसलमान अपमान करेंगे। अगर कोई हिंदू मुसलमान हो जाए, तो हिंदू अपमान करेंगे, मुसलमान बहुत सम्मान करेंगे।
तो हिंदुओं में तो उनकी कोई प्रतिष्ठा न थी, लेकिन जैनों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अपने धर्म को छोड्कर किसी और धर्म को स्वीकार करता है, तो उस धर्म के मानने वालों को यह प्रमाण मिलता है कि हमारा धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है। अन्यथा इस आदमी ने छोड़ा क्यों!
तो उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, बड़ा सम्मान था। आदमी भी ऐसे सरल थे, साधु थे, निष्ठा से अपने को साधा था। लेकिन कहीं कोई बात चूकती गयी थी। संत नहीं थे, साधु ही थे, सज्जन थे।
पत्नी मरी, खबर आयी; तो उनके मुंह से निकला कि चलो, झंझट मिटी। तो उनकी जिन्होंने आत्मकथा लिखी है, जीवन—कथा लिखी है, उन्होंने बड़े गौरव से यह लिखा है कि पत्नी के मरने पर कैसा वीतराग भाव कि उन्होंने कहा कि चलो झंझट मिटी!
जिसने लिखी है, वे मेरे पास किताब लेकर आए थे भेंट करने। मैंने किताब उलट—पुलटकर देखी। मैंने उनसे कहा कि यह तुमने सम्मान से लिखा है कि चलो झंझट मिटी? मेरे लिए तो यह बड़ी हैरानी की बात है।
तीस साल पहले जिस पत्नी को तुम छोड्कर चले आए थे, अभी उसकी झंझट बाकी थी! वह मरी और तुम कहते हो, झंझट मिटी। झंझट जरूर बाकी रही होगी। भीतर कहीं मन में लगाव बना रहा होगा।
और मैंने कहा, यह तो बड़ी हिंसात्मक बात है, किसी के मरने पर कहना कि झंझट मिटी। इसका मतलब है, तुम्हारे मन में कभी उसे मारने की भी आकांक्षा रही होगी; मर जाए ऐसा भाव रहा होगा। उसकी मृत्यु से तुम्हें हलकापन लगा! तो उसकी मृत्यु की आकांक्षा तुममें सोयी ही होगी, ज्ञात—अज्ञात।
और झंझट क्या थी तुम्हें? जिस पत्नी को तीस साल पहले छोड़ आए, कभी मिलने नहीं गए, कि वह भूखी है, कि मरती है। मुनि को तो बहुत सम्मान मिलता रहा। लाखों रुपए आस—पास लुटते रहे। बडे मंदिर बने, धर्मशालाएं खड़ी हुईं। और पत्नी पीस—पीसकर अपना जीवन चलाती रही। और झंझटे थी तुम्हें! थोड़ी हैरानी की बात है।
लेकिन कभी—कभी आकस्मिक क्षणों में सच्चाइयां बाहर आ जाती हैं। पत्नी मरी, उस वक्त एक सच्चाई बाहर आ गयी कि झंझट मिटी। झंझट थी।
मेरे देखे, बात ठीक है। जिसको भी तुम छोड्कर जाओगे, उससे तुम्हारी झंझट बनी रहेगी। छोड्कर जाने का मतलब ही है कि डरकर भाग गए, समझकर मुक्त नहीं हुए।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिसने जीवन में भक्ति के सूत्र को समझ लिया और मेरे ऊपर सब छोड़ दिया, वह सब कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त हो जाता है। उसे कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, उससे सब छूट जाता है।
छोड़ना और छूट जाना, बड़ा फासला है दोनों में। छोड़ने में तो तुम होते हो, छूट जाने में तुम नहीं होते। और जहां तुम होते हो, वहां अहंकार निर्मित होता ही रहेगा। त्यागी हो जाओगे, तो त्याग का अहंकार आ जाता है।
इसलिए हे अर्जुन, तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को अवलंबन करके निरंतर मेरे में चित्त वाला हो।
इस प्रकार तू मेरे में निरंतर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म—मृत्यु आदि सब संकटों को अनायास ही तर जाएगा। और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।
एक ही कारण है न सुनने का, बहरा होने का, वह अहंकार है। अगर तुम्हें यह पहले से ही पता है कि तुम जानते हो, तो फिर तुम सुन नहीं सकते। तुम ज्ञानी हो, सुन नहीं सकते।
अहंकार बहरापन है। वह एकमात्र बधिरता है। बहरे भी सुन लें, अहंकारी नहीं सुन सकता। कोई बहरा हो, तो जरा जोर से बोलकर बोल दो, चिल्लाकर बोल दो। लेकिन अहंकारी की बधिरता ऐसी है कि कोई भी चीज प्रवेश नहीं कर सकती। अहंकार लौह—कवच है। तो कृष्ण कहते हैं, अगर तू केवल अहंकार में घिरा रहा, समर्पण न कर सका, और मेरी बात तुझे सुनायी न पड़ी, तो तू नष्ट हो जाएगा।
नष्ट होने का इतना ही अर्थ है, यह जीवन फिर व्यर्थ हो जाएगा। ऐसे बहुत जीवन व्यर्थ और नष्ट हुए। अगर इस बार तू सुन ले, तो यह जीवन सार्थक हो जाए, सुकृत हो जाए, नष्ट न हो।
जिस दिन भी तुम अहंकार को छोड्कर देख पाओ, सुन पाओ, हो पाओ, उसी दिन जीवन सार्थक हो जाता है। उसी दिन तुम्हें जीवन का शास्त्र समझ में आ जाता है। फिर गीता पढ़ी हो, न पढ़ी हो; कुरान सुना हो, न सुना हो; कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर ही वह भगवद्गीता का नाद शुरू हो जाता है।
कृष्ण तुम्हारे भीतर हैं। वहा से अभी गीता फिर पैदा हो सकती है। सिर्फ तुम्हारे अहंकार के टूटने की बात है।
समर्पण सूत्र है, अहंकार बाधा है।
आज इतना ही।

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