बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--218

मनन और निदिध्‍यासन(प्रवचनबीसवां)

अध्‍याय—18
सूत्र--

            कच्चिदेतव्छ्रुतं पार्थ त्‍वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिमानसंमोह: मनष्टस्ते धनंजय।। 72।।

अर्जन उवाच:
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्‍धा त्‍वत्ससादान्मयाव्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्‍ये वचनं तव।। 73।।

इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, है पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा स्नान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
इस प्रकार भगवान के पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्‍युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पाल करूंगा।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : गीता के सभी अध्यायों को योग—शास्त्र क्यों कहा है?

 योग शब्द का अर्थ है, जो जोड़े, जो परमात्मा से जोड़ दे, जो सत्य से जोड़ दे, जो स्वयं से जोड़ दे।
सभी शास्त्र योग—शास्त्र हैं। शास्त्र शास्त्र ही न होगा, अगर योग—शास्त्र न हो। क्योंकि परमात्मा से न जोड़ता हो, तो उसे शास्त्र कहने का कोई अर्थ ही नहीं है।
लेकिन योग की एक विपरीत परिभाषा भी है। भर्तृहरि ने कहा है, योगावियोगा:। योग वह है, जो तोड़े, जिससे वियोग हो जाए। वह बात भी बड़ी मधुर है। जो संसार से तोड़ दे, वह योग। जो शरीर से तोड़ दे, वह योग। जो परायों से तोड़ दे, वह योग।
तो योग एक दुधारी तलवार है। एक तरफ जोड़ता है, एक तरफ तोड़ता है। संसार से तोड़ता है, स्वयं से जोड़ता है। असत्य से तोड़ता है, सत्य से जोड़ता है। अज्ञान से तोड़ता है, ज्ञान से जोड़ता है।
तो विपरीत दिखाई पड़ने वाली परिभाषाएं भी विपरीत नहीं हैं। तोड़े बिना जोड़ना भी संभव नहीं है। मिटाए बिना बनाने का कोई उपाय नहीं है। मरे बिना अमृत को पाने का कोई मार्ग नहीं है।
गीता योग—शास्त्र है।
अर्जुन मोह से भरा है। मोह का अर्थ है, संसार से जुड़ा होना। मोह का अर्थ है, जिससे तुम्हारे और संसार के बीच सेतु बन जाए। मोह सेतु है, जिससे तुम पराए की यात्रा पर निकलते हो। आसक्ति की, ममत्व की, संसार की दौड़ पर जाते हो।
अर्जुन को दिखाई पड़ रहा है, मेरे हैं, पराए हैं, मित्र हैं, प्रियजन हैं, शत्रु हैं। इन सब को मारकर अगर मैं सिंहासन को पा भी लिया, तो अपनों को ही मारकर पाए गए सिंहासन में क्या अर्थ होगा! इस योग्य मालूम नहीं पड़ती इतनी बड़ी हिंसा कि सिंहासन के लिए पाने चलूं।
तो यहां थोड़ा समझने जैसा है। जो ऊपर से देखेगा, उसे तो लगेगा कि अर्जुन लोभ के ऊपर उठ रहा है। क्योंकि वह कह रहा है, क्या करूंगा इस सिंहासन को! क्या करूंगा इस राज्य—साम्राज्य को! क्या करूंगा धन—संपदा को! अगर अपनों को ही मारकर यह सब मिलता हो, इतने खून—खराबे पर अगर यह महल मिलता हो। रक्त से भर जाएगा सब और खाली सिंहासन पर मैं बैठ जाऊंगा, इसका क्या मूल्य है?
ऊपर से देखने पर लगेगा कि अर्जुन का लोभ टूट गया है। लेकिन लोभ तो टूट नहीं सकता, जब तक मोह है। और भीतर तो वह यह कह रहा है, ये मेरे हैं, इन्हें मैं कैसे मारूं! अगर ये पराए होते, तो उसे मारने में कोई अड़चन न होती। यह प्रश्न ही न उठता उसके मन में।
इनके साथ ममत्व है, भाईचारा है, बंधु—बांधव हैं। कितनी ही शत्रुता हो, तो भी साथ ही बड़े हुए हैं, एक ही परिवार में बड़े हुए हैं। एक ही घर के दीए हैं। मोह है।
अगर अर्जुन का लोभ सच में ही समाप्त हो गया होता, तो मोह। की जड़ें नहीं हो सकती थीं, क्योंकि लोभ का वृक्ष मोह की जड़ों पर ही खड़ा है।
कृष्ण को देखते अड़चन न हुई होगी कि यह बात तो बड़ी। अलोभ की करता है, लेकिन मोह पर आधार है। इसलिए यह झूठा आधार है।
जब तक मोह न टूट जाए तब तक लोभ टूटेगा नहीं। और पत्तों को कांटने से कभी भी कुछ नहीं होता, जड़ें ही कांटनी चाहिए। लोभ तो पत्तों जैसा है, मोह जड़ों जैसा है। मोह संसार से जोड़ता है।
कभी—कभी ऐसा भी हो सकता है कि मोह के कारण ही तुम संसार भी छोड़ दो। लेकिन वह छोड़ना झूठा होगा।
किसी की पत्नी मर गई। बहुत लगाव था, बड़ी आसक्ति थी।
और अब लगा कि पत्नी के बिना कैसे जी सकूंगा; नहीं जी सकता हूं। वैसा आदमी संसार छोड्कर हिमालय चला गया।
उसने संसार छोड़ा? नहीं छोड़ा। क्योंकि वह कहता है, पत्नी के बिना कैसे जी सकूंगा। उसने संसार छोड़ा नहीं है। पत्ते काटे हैं; जड़ को सम्हाला। वह यह कह रहा है, पत्नी के बिना मैं जी ही नहीं सकता। पत्नी होती, तो बड़े मजे से जीता।
उसकी शर्त थी संसार के साथ। वह शर्त पूरी नहीं हुई। वह संसार छोड़ नहीं रहा है। वह बड़ा गहरा संसारी है। शर्त को पूरा करना चाहता था। वह पूरी नहीं हुई। तो छोड़ता है। लेकिन छोड़ना पछतावे में है, पीड़ा में है।
जो त्याग पीड़ा से और दुख से पैदा हो, वह त्याग नहीं है। जो आनंद और अहोभाव से पैदा हो।
संसार छोड़ा जाए किसी असफलता के कारण—कि दिवाला निकल गया, कि जीवन में असफलता मिली, कि बेटा मर गया, कि घर में आग लग गई—ऐसी अवस्थाओं में अगर कोई संसार छोड़ दे, तो वह छोड़ना छोड़ना है ही नहीं। क्योंकि मेरा घर था, जिसमें आग लग गई, उसकी पीड़ा है। घर मेरा था ही नहीं. कभी। पत्नी मेरी थी, जो चल बसी। पत्नी मेरी कभी थी ही नहीं। तो सारी भांति होगी।
अर्जुन बात तो अलोभ की करता मालूम पड़ता है; लेकिन भीतर मोह छिपा है। तो कृष्ण उसे मोह से तोड्ने की चेष्टा कर रहे हैं। पूरी गीता में मोह से तोड्ने का उपाय है। और जिस दिन मोह से कोई टूट जाता है, स्वयं से जुड़ जाता है।
मोह दूसरे से जोड़ता है, अन्य से, पराए से, अपने से, भिन्न से। पत्नी हो, बेटा हो, पति हो, मित्र हो, धन हो, राज्य हो, स्वयं के अतिरिक्त से जोड्ने वाला तत्व मोह है।
मोह टूट जाए तो दूसरे से तो हम अलग हुए। और मोह की जगह जीवन में श्रद्धा आ जाए तो हम स्वयं से जुड़े, सत्य से जुड़े, परमात्मा से जुड़े। जैसे मोह जोड़ता है संसार से, वैसे ही श्रद्धा जोड़ती है परमात्मा से। मोह अहंकार का विस्तार है, श्रद्धा समर्पण का। इसलिए गीता के प्रत्येक अध्याय को कहा गया है, योग—शास्त्र। वह तोड़ता भी है, जो गलत है उससे। और जोड़ता भी है, जो सही है उससे।

 दूसरा प्रश्न : कल आपने समझाया कि सम्यक श्रवण से भी संबोधि घटित हो सकती है। इस संदर्भ में वेदांत के तीन चरण : श्रवण, मनन और निदिध्यासन का क्या अर्थ है?

 म्यक श्रवण से समाधि उपलब्ध हो सकती है। अगर कोई परिपूर्ण, समग्र चित्त से सुन ले, उसे सुन ले, जिसे सत्य उपलब्ध हुआ हो। कृष्ण को सुन ले, बुद्ध को सुन ले, महावीर को सुन ले; और उस सुनने में अपने मन की बाधाएं खड़ी न करे, विचार न उठाए, निस्तरंग होकर सुन ले, स्थिर चित्त होकर सुन ले, तो उतने से ही संबोधि घटित हो जाती है। क्योंकि सत्य तुमने खोया थोड़े ही है, केवल तुम भूल गए हो। सत्य को कहीं तुम छोड़ थोड़े ही आए हो; उसे छोड़ने का उपाय नहीं है। सत्य तो तुम्हारा स्वभाव है।
जैसे कोई नींद में खो गया हो, भूल जाए, मैं कौन हूं। नशे में खो गया हो, भूल जाए घर, पता—ठिकाना, अपना नाम। उसे कुछ करना थोड़े ही पड़ेगा; सिर्फ याद दिलानी होगी।
पहले महायुद्ध की घटना है। महायुद्ध हुआ, तो अमेरिका में पहली बार राशनिंग हुई; कार्ड बने, नियंत्रण हुआ। बहुत बड़ा वैज्ञानिक थामस अल्वा ग्लीसन, वह तो कभी बाजार गया भी नहीं था, कभी कुछ खरीदा भी न था। लेकिन राशन कार्ड बनवाने उसे जाना पड़ा। स्वयं ही आना होगा अपना कार्ड बनवाने।
तो वह खड़ा हो गया। लंबी कतार थी। एक—एक का नाम बुलाया जाता और लोग जाते। जब वह बिलकुल कतार के शुरू में आ गया और उसके आगे का आखिरी व्यक्ति भी बुलाया जा चुका, फिर आवाज आयी, थामस अल्वा एडीसन! पर वह खड़ा रहा, जैसे कि यह नाम किसी और का हो। दुबारा आवाज आयी, वह खुद भी इधर—उधर देखने लगा कि किसको बुलाया जा रहा है! पीछे खड़े एक आदमी ने कहा कि महानुभाव, जहां तक मुझे याद आती है, अखबारों में आपका चित्र देखा है। तो मुझे तो लगता है, आप ही थामस अल्वा एडीसन हैं। आप किसको देखते हैं? उसने कहा कि भई, ठीक याद दिलाई, मुझे खयाल ही न रहा।
एडीसन को भूल जाने का कारण था। वह इतनी प्रख्यात विचारक था, इतना बड़ा वैज्ञानिक था कि कोई उसका नाम लेकर तो बुलाता नहीं था। वर्षों से किसी ने उसका नाम तो लिया नहीं था; सम्मानित व्यक्ति था। उसके विद्यार्थी तो उसे प्रोफेसर कहते। वह भूल ही गया था, अपने काम में, धुन में, इतना लगा रहा था।
अक्सर बहुत विचारशील लोग भुलक्कड़ हो जाते हैं। इतने खो जाते हैं विचारों में कि छोटी—छोटी चीजें याद नहीं रह जातीं।
अब यह बड़ा कठिन लगता है कि कोई अपना नाम भूल जाए। लेकिन नाम भी तो सिखावन ही है। तुम कोई नाम लेकर आए तो थे नहीं संसार में। सिखाया गया है कि तुम्हारा नाम एडीसन है, राम है, कृष्ण है। सिखावन है।
हर सीखी चीज भूली जा सकती है। नाम भी भूला जा सकता है। हम भूलते नहीं, क्योंकि चौबीस घंटे उसका उपयोग होता है। और हम भूलते नहीं, क्योंकि हम बड़े अहंकारी हैं और नाम के साथ हमने अहंकार जोड लिया है।
लेकिन थामस अल्वा एडीसन बड़ा सरल चित्त आदमी था। बहुत कहानियां हैं उसके भुलक्कड़पन की। वह इतना सरल चित्त था, इतना बड़ा विचारक था कि हजार उसने आविष्कार किए। लेकिन वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाता था। वह कुछ खोज लेता, लिख देता कागज पर। फिर वह कागज न मिलता। उसके घर भर में कागज छाए हुए थे, जहां वह लिख—लिखकर छोड़ता जाता। कहते हैं कि अगर उसकी पत्नी न होती, तो वह एक भी आविष्कार न कर सकता था, क्योंकि पत्नी सम्हालकर कागजात रखती। लेकिन कागजात इतने हो गए कि पत्नी भी न सम्हाल पाए।
तो मित्रों ने कहा, तुम ऐसा क्यों नहीं करते कि अलग— अलग फुटकर कागज पर लिखने की बजाए, डायरी में लिखो। उसने कहा, यह बात बिलकुल ठीक है। उसने डायरी में लिखी। पूरी डायरी खो गई। उसने अपने मित्रों से बडी नाराजगी जाहिर की। उसने कहा कि एक—एक कागज पर लिखता था, तो एक—एक कागज ही खोता था। यह पूरी डायरी ही खो गई। इसमें कोई पांच सौ सूत्र लिखे थे। यह तुम्हारा सूत्र काम न आया!।
यह आदमी भूल गया, अपनी धुन में था। लेकिन जैसे ही पीछे के आदमी ने याद दिलाई कि आपका चेहरा अखबार में देखा है, नाम आपका ही एडीसन मालूम होता है। तत्‍क्षण स्मृति आ गई। परमात्‍मा को हम भूल सकते हैं, खो नहीं सकते। क्योंकि परमात्मा कोई परायी बात नहीं, तुम्हारे भीतर का अंतर्तम है, तुम्हारे ही मंदिर में विराजमान, तुम्हीं हो। तुम्हारी निजता का ही नाम है; तुम्हारे स्वभाव की ही प्रतिमा है।
इसलिए श्रवण से भी सबोधि घटित हो सकती है। कोई इतना ही कह दे कि तुम ही हो। यही तो उपनिषद कहते हैं, तत्वमसि श्वेतकेतु! तू ही है, श्वेतकेतु।
यह घटना बड़ी प्रीतिकर है। श्वेतकेतु सब जानकर घर आया है। लेकिन पिता ने कहा, यह जानना किसी काम का नहीं है। तूने ब्रह्म को जाना या नहीं?
श्वेतकेतु ने कहा, अगर मेरे गुरु को पता होता, तो वे जरूर मुझे सिखाते। उन्होंने हाथ खोलकर लुटाया है। जो भी उन्हें मालूम था, उन्होंने सब मुझे दिया है। और उन्होंने स्वयं ही मुझसे कहा कि श्वेतकेतु, अब मेरे पास सीखने को कुछ भी नहीं बचा। अब तू घर लौट जा। वे झूठ न बोलेंगे।
तो फिर उद्दालक ने, श्वेतकेतु के पिता ने कहा, तो फिर तुझे मुझे  ला। फल तोड़ लाए गए। श्वेतकेतु के पिता ने कहा, इन्हें कांट। फल काटे गए। बीज ही बीज भरे थे।
पिता ने कहा, यह एक बीज इसमें से चुन ले। क्या यह एक बीज इतना बडा वृक्ष हो सकता है? श्वेतकेतु ने कहा, हो सकता है नहीं; होता ही है। एक बीज बो देने से इतना बड़ा वृक्ष हो जाता है। तो पिता ने कहा, इस बीज में वृक्ष छिपा होगा। तू बीज को भी कांट। हम उस सूक्ष्म वृक्ष को खोजें, जो इसके भीतर छिपा है।
श्वेतकेतु ने बीज भी काटा, पर वहा तो कुछ भीं न था। वहां तो शून्य हाथ लगा। श्वेतकेतु नै कहा, यहां तो मैं कुछ भी नहीं देखता हूं। उद्दालक ने कहा, जो नहीं दिखाई पड़ रहा है, जो अदृश्य है, उसी से यह महावृक्ष, यह दृश्य पैदा होता है। और हम भी ऐसे ही शून्य से आए हैं। वह जो नहीं दिखाई पड़ता है, उससे ही हमारा भी जन्म हुआ है।
श्वेतकेतु ने पूछा, क्या मैं भी उसी महाशून्य से आया हूं? इस प्रश्न के उत्तर में ही उपनिषदों का यह महावचन है, तत्वमसि श्वेतकेतु! हां, श्वेतकेतु, तू भी वहीं से आया है, तू भी वही है। और कहते हैं, यह अमृत वचन सुनकर श्वेतकेतु ज्ञान को उपलब्ध हो गया। यह तो श्रवण से ही हुआ। कुछ करना न पडा। यह तो किसी ने चेताया। सोए थे, किसी ने जगाया। आंख खुल 1 गई। होश आ गया।
श्रवण से ही हो सकता है। लेकिन वेदात के ये तीन सूत्र बड़े महत्वपूर्ण हैं। वेदांत कहता है, श्रवण, मनन और निदिध्यासन। पहले सुनो; फिर गुनो, फिर करो। सुनो, फिर सोचो, फिर साधो।
तो फिर ये तीन सूत्रों की क्या जरूरत है? इन सूत्रों की जरूरत इसलिए है, क्योंकि तुम्हारा सुनना पूरा नहीं है। तुम सुनते हो और नहीं सुनते हो।
अगर मैं तुमसे कहूं श्वेतकेतु, तुम वही हो। सुना तुमने, लेकिन नहीं सुना। अन्यथा श्वेतकेतु जिस ब्रह्म को उपलब्ध हो गया सुनकर, तुम भी हो जाते!
सुन तो लेते हो, लेकिन उतर नहीं पाता, तीर गहरे नहीं जाता। हृदय के द्वार बंद हैं, शिलाएं अटकी हैं, झरना भीतर बहता नहीं है। शिलाओं पर टकरा जाते हैं महावचनों के तीर और वापस लौट आते हैं। तुम वैसे के वैसे रह जाते हो। ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि शिला पर थोड़े—से निशान छूट जाते हैं, जिनको तुम पांडित्य कहते हो। लेकिन हृदय बिंधता नहीं, निशाना लगता नहीं।
तुम डांवाडोल हो रहे हो, इसलिए तीर कहीं से भी जाए, तुम्हारे अंतस्तल को नहीं भेद पाता। तुम कंपते हुए हो, चंचल चित्त हो। सुनते तो हो, लेकिन चंचल चित्त कैसे सुन पाएगा? स्थिर चित्त चाहिए। थिर प्रज्ञा चाहिए। नहीं तो तुम सुन भी लेते हो, पर सुनना कान का ही हो पाता है, हृदय का नहीं हो पाता। आत्मा तक आवाज नहीं पहुंचती। आंख भी खुल जाती है, तो भी भीतर की दृष्टि बंद ही बनी रह जाती है।
इसलिए वेदांत कहता है कि श्रवण से कुछ लोग उपलब्ध हो जाएंगे। वे बड़े अनूठे, विरले पुरुष हैं, जिन्होंने सुना और काफी हो गया। अधिक लोग उतने से न पहुंच पाएंगे। उन्हें कमी पूरी करनी पड़ेगी। जो उन्होंने सुना है, उसे गुनना पड़ेगा, सोचना पड़ेगा, उस पर ध्यान करना पडेगा।
एक बार सुनने से नहीं हुआ है, तो जो सुना है, उसको भीतर गुंजाना, बार—बार सोचना, स्वाध्याय करना, बहुत—बहुत मन की अवस्थाओं में उसी—उसी गज को फिर—फिर उठाना। शायद किसी दिन संधि मिल जाए। किसी दिन मन ताजा हो और बात पकड़ जाए। किसी दिन मन के द्वार जाने—अनजाने खुले छूट गए हों, और तीर भीतर प्रविष्ट हो जाए। किसी दिन प्रफुल्लता हो तुम्हें घेरे हुए, ऐसी भाव—दशा हो कि तुम आनंद और अहोभाव से भरे हो, उस क्षण जो कान तक सुना था, वह हृदय तक पहुंच जाए।
और चौबीस घंटे तुम्हारी चित्त की दशा बदलती है। सुबह तुम कुछ और, दोपहर होते —होते कुछ और, सांझ होते—होते कुछ और। कभी थके हो, कभी क्रोधित हो, कभी प्रसन्न हो, कभी उदास हो, कभी आनंदित हो। इन सभी दिशाओं में, इन सभी दशाओं में तुम एक ही अनुगूंज को उठाए जाना, शायद किसी दिन तालमेल बैठ जाए। तो जो सुनने से नहीं हो सका, वह शायद मनन से हो जाए।
तो मनन का अर्थ है, पुनरुक्ति; उसी—उसी को बार—बार सोचना; उसी—उसी को बार—बार गुनना। एक चोट से नहीं टूटी चट्टान, तो बार—बार उस पर चोट किए जाने का नाम मनन है। टूटेगी। जलधार भी गिरती है, वह भी तोड़ देती है चट्टानों को। तो अगर मनन की धार गिरेगी, तो भीतर की चट्टान टूटेगी।
कबीर ने कहा है, रसरी आवत जात है, सिल पर परत निशान। वह मनन के लिए कहा है, कि रस्सी आती—जाती है कुएं के घाट पर, पत्थर है मजबूत; रस्सी कोई मजबूत तो नहीं है, पत्थर से क्या मुकाबला। लेकिन रसरी आवत जात है, सिल पर परत निशान। वह जो सिल बहुत मजबूत थी, वह भी साधारण—सी रस्सी के आते—जाते, आते—जाते, वर्षों में निशान से भर जाती है।
श्रवण तो एक चोट है। मनन चोट के सातत्य का नाम है। अगर एक चोट से नहीं टूटी है बात। कुछ होंगे, जिनकी टूट जाएगी। पर वे विरले होंगे। उनके ऊपर नियम नहीं बनाया जा सकता। कोई श्वेतकेतु कभी जाग जाएगा एक ही वचन से। लेकिन श्वेतकेतुओं की भीड़ नहीं मिलती है। और श्वेतकेतु से बाजार भरे हुए नहीं हैं। और श्वेतकेतु पृथ्वी पर खोजने जाओगे, सदियों में कभी एकाध मिलता है। वह नियम नहीं है। वह अपवाद है।
इसलिए मनन की जरूरत है। श्रवण के साथ सोचना, चोट करना।
लेकिन फिर बहुत हैं, जो श्रवण भी करते रहते हैं जन्मों—जन्मों और कुछ भी नहीं होता। मनन भी चूक गया, श्रवण भी चूक गया, तब निदिध्यासन। तब तुमने जो सुना है, तब तुमने जो सोचा है, उसे साधना भी है।
अब यह तुम हैरान होओगे जानकर कि साधना का अर्थ ही यह है कि तुम बहुत कमजोर हो, इसलिए साधना की जरूरत है। जो बलशाली हैं, वे सुनकर मुक्त हो जाते हैं। जो उनसे थोडे कम बलशाली हैं, वे सोचकर मुक्त हो जाते हैं। जो उनसे भी कम बलशाली हैं, उनको साधना करनी पड़ती है।
बुद्ध ने कहा है, कुछ घोड़े हैं, वे तब तक न चलेंगे, जब तक उनको मारो न। कुछ घोड़े हैं, सिर्फ कोड़ा फटकासे और वे चल पड़ेंगे। और कुछ घोड़े हैं, कोड़े की छाया देखकर दौड़ते हैं। फटकारने की भी जरूरत नहीं है। कोड। है, इतनी याददाश्त उनको होना काफी है।
तो कुछ हैं, जो सुनकर उपलब्ध होते हैं। कुछ हैं, जो सोचकर, सोच—सोचकर, मनन, चिंतन! और कुछ हैं, जो साधकर।
तीसरा वर्ग जगत में बड़े से बड़ा वर्ग है। अगर सौ मनुष्य हों, तो सत्तानबे प्रतिशत तो तीसरे वर्ग के होंगे। वे साधना किए बिना मुक्त न हो सकेंगे। दो प्रतिशत ऐसे लोग होंगे, जो मनन से मुक्त हो जाएंगे। और एक प्रतिशत ऐसा व्यक्ति होगा, जो श्रवण से मुक्त हो जाएगा।

 तीसरा प्रश्न: सम्यक श्रवण को उपलब्ध होने का उपाय क्या है?

 पाय है, तन्मयता से सुनना। उपाय है, ऐसे सुनना जैसे एक—एक शब्द पर जीवन और मृत्यु निर्भर है। उपाय है, ऐसे सुनना जैसे पूरा शरीर कान बन गया; और कोई अंग न रहे। ऐसे सुनना, जैसे यह आखिरी क्षण है; इसके बाद कोई क्षण न होगा; अगले क्षण मौत आने को है। ऐसी सावधानी से सुनना कि अगर अगले क्षण मौत भी आ जाए, तो पछताना न पड़े।
सम्यक श्रवण को सीखने का अर्थ है, सुनते समय सोचना नहीं, विचारक नहीं। क्योंकि तुम अगर विचार रहे हो, तो सुनेगा कौन? और मन की यह आदत है।
मैं बोल रहा हूं और तुम सोच रहे हो कि ये ठीक कहते हैं कि गलत कहते हैं! तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे तर्क में बात पटती, नहीं पटती! तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे संप्रदाय से मेल खाती, नहीं खाती! तुम सोच रहे हो कि तुमने जिसे गुरु माना, वह भी यही कहता, नहीं कहता!
तुम मुझे सुन रहे हो, वह ऊपर—ऊपर रह गया, भीतर तो तुम सोच में लग गए।
मैं देखता हूं अगर तुमसे मेल खाती है, तुम्हारा सिर हिलता है कि ठीक। इसलिए नहीं कि मैं ठीक कह रहा हूं। अगर उतना तुम सुन लो, तो तुम श्वेतकेतु हो जाओ। जब तुम सिर हिलाते हो, तो मैं जानता हूं तुम्हारे संप्रदाय से मेल खा रही है बात; तुम्हारे शास्त्र के अनुकूल पड़ रही है; तुम्हारे सिद्धात से विरोध नहीं है।
जब मैं देखता हूं कि तुम्हारा सिर इनकार में हिल रहा है, तो मैं जानता हूं कि तुम्हारे पक्ष में नहीं पड़ रही है बात। तुम अब तक जैसा मानते रहे हो, उससे भिन्न है, या विपरीत है।
और जब मैं देखता हूं कि तुम दिग्विमूढ़ बैठे हो, तब तुम तय नहीं कर पा रहे कि पक्ष में होना कि विपक्ष में होना। बात तुम्हारी समझ में ही नहीं पड़ रही कि तुम निर्णय ले सको।
इन तीनों से बचना। इस बात की फिक्र मत करना सुनते समय कि तुम्हारे पक्ष में है या नहीं। क्योंकि अगर तुम्हारा पक्ष सत्य है, तब तो सुनने की जरूरत ही नहीं। तब तो मेरे पास आने का कोई प्रयोजन ही नहीं। तुम जानते ही हो। तुमने पा ही लिया है। यात्रा पूरी हो गई।
अगर तुमने नहीं पाया है, अगर अभी भी यात्रा जारी है और खोज जारी है, और तुम्हें लगता है अभाव, खटकता है अभाव, खोजना है, पाना है, पहुंचना है। तो फिर तुमने जो अब तक सोचा है, उसे किनारे रख देना; उसको बीच में मत लाना। अन्यथा वह तुम्हें सुनने ही न देगा। और तुम जो सुनोगे, उसको भी रंग से भर देगा, अपने ही रंग से भर देगा। तुम वही सुन लोगे, जो तुम सुनने आए थे। और तुम उन—उन बातों को सुनने से चूक जाओगे, जो तुमसे मेल न खाती थीं। तुम्हारा मन चुनाव कर लेगा।
तुम मन को सुनने मत देना। मन को कहना, तू चुप। पहले मैं सुन लूं। अगर सुनने से हो गया, ठीक। अगर न हुआ, तो फिर तेरा उपयोग करेंगे, फिर मनन करेंगे। लेकिन पहले मुझे परिपूर्ण भाव से सुन लेने दे।
और मजे की बात यह है, जिन्होंने परिपूर्ण भाव से सुन लिया, उन्हें मनन करने की जरूरत नहीं रह जाती।
मनन की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि सुनते समय भी तुम सोचे जा रहे हो। एक धुआं तुम्हें घेरे हुए है विचारों का। बचपन से तुमने हर चीज के संबंध में धारणा बना ली है। वह धारणा तुम्हें पकड़े हुए है।
बचपन में तुम्हारी समझ कितनी थी? तुम्हारा बोध कितना था? लेकिन तुमने सब धारणाएं बचपन में बना ली हैं और उन धारणाओं को तुम बुढ़ापे तक खींच रहे हो! यह बड़ी उलटी बात है। बचपन की धारणाएं तो मूढ़ता की धारणाएं हैं, उनको बुढ़ापे तक खींच रहे हो!
बचपन में तुमने पूछा था, संसार किसने बनाया? और तुम्हारे पिता ने या गुरु ने या शिक्षक ने कहा, परमात्मा ने बनाया, ऐसे ही जैसे कुम्हार घड़े रचता है। अब भी तुम्हारे मन में परमात्मा की वही धारणा है, वही बचपन की। बचपन में हल हो गई थी बात, ठीक। तुम्हें बात जंच गई कि कुम्हार बर्तन— भांडे बनाता है, बढ़ई फर्नीचर बनाता है। बिना बनाए तो ये चीजें बन नहीं सकतीं, कोई बनाने वाला होगा। बस, तुम तृप्त हो गए थे। अब भी तुम उसी धारणा से भरे हो।
मैंने सुना है, एक परिवार के बैठकखाने में दो मछलियां काच के बर्तन में चक्कर मार रही थीं। एक मछली ने रुककर दूसरी से पूछा, तुम्हारा क्या खयाल है, ईश्वर है या नहीं? दूसरी मछली थोड़ी दार्शनिक प्रकृति की थी। उसने थोड़ा विचार किया। उसने कहा, होना ही चाहिए, अन्यथा हमारा पानी रोज कौन बदलता है! अगर परमात्मा न हो, तो इस बर्तन का पानी कौन बदलता है रोज!
मछलियों के लिए यह बहुत भारी घटना है कि कोई पानी बदलता है।
तुम्हारा परमात्मा भी इन मछलियों के परमात्मा से ज्यादा नहीं है। क्योंकि तुम सोच नहीं सकते कि बिना बनाए चीजें कैसे बनायी जाएंगी! लेकिन तुम्हारे बचपन में तुमने जो धारणा पकड़ी थी, कभी तुमने पूछा कि परमात्मा को किसने बनाया है?
तब तुम्हारी धारणा डगमगाने लगेगी। तब तुम्हें संदेह उठेगा। तब तुम्हें लगेगा कि अगर परमात्मा बिना बनाया हो सकता है, तो फिर यह धारणा कुम्हार की और बढ़ई की, नासमझी की है।
लेकिन बचपन की धारणाए तुम्हें घेरे रखती हैं। नास्तिकता— आस्तिकता, हिंदू —इस्लाम, जैन—बौद्ध, सब बचपन में पकड़ी गई धारणाएं हैं। उनसे तुम घिरे बैठे हों। उनकी दीवारें तुम्हारे चारों तरफ हैं। वह तुम्हारा कारागृह है।
जब तुम सुनने आते हो, तो उस कारागृह के बाहर आकर सुनो, खुले आकाश के नीचे।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि जो मैं कह रहा हूं उसे मान लो। मानने का तो सवाल ही नहीं है। मैं तो तुमसे कह रहा हूं? पहले सुन लो, मानने की बात तो बाद में उठती है। पहले समझ तो लो कि मैं क्या कह रहा हूं! फिर मानना, न मानना।
और मजे की तो घटना यह है कि अगर सत्य हो, तो तुम्हें सोचने की जरूरत ही न पड़ेगी। अगर तुमने खुले आकाश के नीचे खड़े होकर सुन लिया, तो सत्य को सुन लेना ही पर्याप्त है। तुम्हारा रोआं—रोआं उसके साथ सिहर उठेगा। तुम्हारी धड़कन— धड़कन उसे ताल देगी। तुम्हारी समग्रता कहेगी, ठीक है।
यह नहीं कि तुम्हारे मन के कुछ विचार कहेंगे, ठीक है। तुम्हारा समग्र अस्तित्व कहेगा कि ठीक है। हड्डी—मांस—मज्जा कहेगी कि ठीक है। यह कोई तर्क की निष्पत्ति न होगी, यह तुम्हारे पूरे जीवन की भाव—दशा बन जाएगी।
तो श्रवण से उपलब्ध हो सकता है कोई, लेकिन श्रवण सीखना पड़े। अभी तो तुम सभी मानते हो कि श्रवण तुम जानते ही हो, क्योंकि तुम्हारे कान ठीक हैं। और कोई कान का डाक्टर नहीं कहता कि कान में कोई खराबी है। तुम समझे कि बस, जब कान में कोई खराबी नहीं है, तो सम्यक श्रवण है ही।
कान का डाक्टर जिसको ठीक सुनना कहता है, उसको हम ठीक सुनना नहीं कहते। कान थोड़े ही सुनते हैं। कान तो केवल उपकरण हैं। कान के पीछे जो बैठा है, वह सुनता है।
हां, कान बिगड जाएं, तो उस तक खबर नहीं पहुंचती। कान सिर्फ खबर पहुंचाते हैं।
यह तो ऐसे ही है, जैसे किसी ने फोन किया। तुमने फोन उठाया। फोन थोड़े ही सुनता है, तुम सुनते हो। लेकिन तुम नहीं सुनने को राजी हो, तुम जबरदस्ती सुन रहे हो, कि ठीक है। या तुम पहले से ही तय हो कि यह आदमी गलत है। अब किया है फोन, तो सुने लेते हैं। फोन थोडे ही सुनता है।
कान तो फोन से ज्यादा नहीं है। वह तो यंत्र है। उनके पीछे तुम जो हो, तुम्हारी चेतना जो पीछे खड़ी है। कान से आने दो आवाज; मन को तुम्हारे और कान के बीच खड़ा मत होने दो। हटाओ। मन से कहो, तू जरा रास्ता दे। मेरी आंख को जरा खाली छोड़, मेरे कान को जरा खाली छोड़। मैं देख सकूं। फिर जरूरत होगी, तुझे बुला लेंगे।
अगर श्रवण से न हो सके, तो फिर मनन करना। फिर मन को बुला लेना। और अगर मन से भी न हो सके, तो फिर साधना करना। फिर शरीर को भी बुला लेना।
ये तीन अंग हैं। सुनकर ही हो जाए, तो शुद्ध चैतन्य में घट जाता है। सुनकर न हो, तो मन की सहायता की जरूरत है; तो मनन। अगर मनन से भी न हो, तो फिर शरीर की भी साधना में जरूरत है; तो फिर निदिध्यासन।
जब चेतना, मन और शरीर तीनों लग जाते हैं, तो साधना। जब चेतना और मन दोनों लगते हैं, तो मनन। और जब चेतना शुद्ध सुनती है, अकेली, और उतना ही काफी होता है, तो सम्यक श्रवण।

 चौथा प्रश्न : कृष्ण के प्रति आकर्षित होना क्या जीवन के अन्य आकर्षणों से मुक्त होना नहीं है?

सोचना पड़े। यहीं कृष्ण का भेद है।
अगर तुम महावीर में आकर्षित होते हो, तो तुम्हें। संसार के समस्त आकर्षणों से मुक्त होना पड़ेगा। अगर महावीर की तरफ जाते हो, तो संसार के विपरीत जाना पड़ेगा। वह महावीर का मार्ग है। लेकिन कृष्ण के संबंध में मामला जरा नाजुक है और गहरा है।
कृष्ण कहते हैं, अगर तुम्हें मेरी तरफ आना है, तो तुम्हें संसार के आकर्षण में ही मुझे खोजना पड़ेगा; क्योंकि मैं वहा भी मौजूद हूं। वहां से भागने की कोई जरूरत नहीं है।
इसे ऐसा समझो। तुम्हें भोजन में रस है। अगर तुम महावीर की सुनते हो, तो अस्वाद व्रत होगा। तब तुम्हें स्वाद छोड़ना है। भोजन ऐसे कर लेना है कि काम है, जरूरत है, स्वाद नहीं लेना है। भोजन को ऐसे शरीर में डाल देना है कि काम शरीर का चल जाए, लेकिन उसमें कोई रस नहीं लेना है। स्वाद छोडना है, भोजन जारी रखना है। भोजन बेस्वाद हो जाए, अस्वाद हो जाए, स्वादहीन हो जाए, स्वादातीत हो जाए। स्वाद न रह जाए। बस, शरीर का धर्म है, पूरा कर देना है। तो भोजन ले लेना है।
अगर तुम कृष्ण की बात समझो, तो कृष्ण कहते हैं कि तुम इतना गहरा स्वाद लो कि भोजन के स्वाद में ही तुम्हें ब्रह्म का स्वाद आने लगे, अन्न ब्रह्म हो जाए। स्वाद की गहराई में उतरो।
महावीर कहते हैं, अस्वाद, कृष्ण कहते हैं, महास्वाद।
ये संसार में खिले हुए फूल हैं। एक तो उपाय है कि इनकी तरफ पीठ कर लो, अपने भीतर प्रविष्ट हो जाओ। एक उपाय है, इन फूलों के सौंदर्य में इतने गहरे उतर जाओ कि फूल की देह तो भूल जाए, सिर्फ सौंदर्य का ही स्पंदन रह जाए, तो भी तुम पहुंच जाओगे।
तुम जहां हो अभी, वहां से दो रास्ते जाते हैं। एक रास्ता है, संसार की तरफ पीठ कर लो, आंख बंद कर लो, अपने में डूब जाओ।
इसलिए महावीर परमात्मा की बात नहीं करते, सिर्फ आत्मा की बात करते हैं। आंख बंद करो, अपने में डूब जाओ।
कृष्ण परमात्मा की बात करते हैं। वे कहते हैं, यह सब चारों तरफ जो फैला है, वही है। जरा गौर से देखो! तुम्हें संसार दिखा है, क्योंकि तुमने गौर से नहीं देखा है। संसार दिखने का अर्थ है, है तो परमात्मा ही, तुमने ठीक से नहीं देखा है। देखने में थोड़ी जरा भूल हो गई है, इसलिए संसार दिखाई पड़ रहा है।
संसार परमात्मा ही है, गलत ढंग से देखा गया। जरा आंख को सम्हलो; जरा चित्त को साफ करो, जरा और गौर से देखो और तन्मय होकर देखो; और लीन हो जाओ। और तुम पाओगे कि संसार तो मिट गया, परमात्मा मौजूद है। संसार तो खो गया, परमात्मा प्रकट हो गया।
कृष्ण के अर्थों में अगर तुम आकर्षित होते हो परमात्मा की तरफ, तो जीवन के आकर्षणों से हटने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन के आकर्षण को भी परमात्मा को ही समर्पित कर देने की जरूरत है। इसलिए तो अर्जुन को वे युद्ध से भागने नहीं दे रहे हैं। अगर। अर्जुन ने महावीर से पूछा होता, महावीर कहते कि बिलकुल ठीक अर्जुन, जल्दी तुझे समझ आ गई। छोड़! कुछ सार नहीं है युद्ध में। हाथ सिर्फ रक्त से रंगे रह जाएंगे। सदा के लिए पाप हो जाएगा। और जो मिलेगा, वह कूड़ा—करकट है। राज्य—महल, धन—संपत्ति, क्या है उसका मूल्य!
वे ठीक कहते हैं। वह भी एक मार्ग है।
और कृष्ण भी कहते हैं कि भागने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ। तू अज्ञान को छोड़ दे। ज्ञान से देखा गया संसार ही परमात्मा है। अज्ञान से देखा गया परमात्मा संसार जैसा मालूम पड़ता है।
कृष्ण की कीमिया ज्यादा गहरी है। मुझसे भी कृष्ण का ज्यादा तालमेल है।
महावीर की बात ठीक है, उससे भी लोग पहुंच जाते हैं। लेकिन वह ऐसे ही है कि तुम किसी तीर्थयात्रा पर निकले हो। एक रास्ता मरुस्थल से होकर जाता है। वह भी पहुंचता है। और एक रास्ता वन—प्रातों से होकर गुजरता है, जहां झरने हैं, झरनों का कल—कल नाद है, जहां फूल खिलते हैं अनूठे, जहां हवाएं सुगंधों से भरी हैं, जहां पक्षी गीत गाते हैं अलौकिक के, जहां वृक्ष सदा हरे हैं, जहां बहुत गहरी छाया है, जहां जल है, जहां रस— धाराएं बहती हैं।
तो दो रास्ते हैं, एक मरुस्थल से होकर जाता है, एक सुंदर वन—प्रातों से होकर जाता है।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मरुस्थल में कोई सौंदर्य नहीं है। मरुस्थल का भी एक सौंदर्य है। तुम्हारी परख की बात है। कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो मरुस्थल के सौंदर्य के दीवाने हैं।
योरोप का एक बहुत बड़ा विचारक, लारेंस, पूरी जिंदगी अरब में रहा। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जैसा सौंदर्य अरब के रेगिस्तानों में है, वैसा संसार में कहीं भी नहीं है।
जब मैंने इसे पढा, तो मैं चौंका। रेगिस्तान में सौंदर्य? फिर मैंने उसकी किताब बड़े गौर से पढ़ी कि इस आदमी का भी एक अनूठा अनुभव है। और उसकी बात में भी थोड़ी सचाई है।
वह कहता है कि जैसा सन्नाटा मरुस्थल में होता है, वैसा सन्नाटा कहीं भी नहीं हो सकता। और जैसा विस्तीर्ण विराट मरुस्थल में दिखता है, वैसा कहीं नहीं। वृक्ष हैं, पहाड़ियां हैं, बाधा डाल देती हैं। मरुस्थल असीम है, कोई कूल—किनारा नहीं दिखता। जहां तक देखते चले जाओ, वही है। आकाश जैसा है। और मरुस्थल में एक तरह का सौंदर्य है। और एक तरह की पवित्रता, एक तरह की शुचिता है। रेत का कण—कण स्वच्छ है।
रात जैसी मरुस्थल की सुंदर होती है, कहीं भी नहीं होती। दिनभर का उत्तप्त जगत और रात सब शीतल हो जाता है। और मरुस्थल में तारे जैसे साफ दिखाई पडते हैं, कहीं नहीं दिखाई पड़ते। क्योंकि सभी जगह थोड़ी न थोड़ी भाप हवा में होती है। इसलिए भाप की परतें हवा में होती हैं, तारे साफ नहीं दिखाई पड़ते, थोडे धुंधले होते हैं। मरुस्थल में तो कोई भाप होती नहीं, हवा बिलकुल शुद्ध होती है, सूखी होती है, उसमें कोई जलकण नहीं होते, इसलिए तारे इतने निकट मालूम होते हैं, और इतने माफ मालूम होते हैं कि हाथ बढ़ाया और छू लेंगे।
निश्चित ही, जब मैंने लारेंस को पढ़ा, तो मुझे लगा कि उसकी बात में भी सचाइयां हैं। मरुस्थल का भी अपना आकर्षण है। तब बात इतनी है कि तुम्हें जो रुचिकर लगे।
महावीर का मार्ग मरुस्थल का मार्ग है। वे सूखे रेगिस्तान से गुजरते हैं। जरूर उनको सौंदर्य मिला होगा। अन्यथा वे क्यों गुजरते! कोई कारण न था। उन्होंने उस सूखी भूमि में भी कुछ देखा होगा, लारेंस की तरह, कोई सन्नाटा, कोई स्वच्छता, कोई ताजगी उन्हें वहा मिली होगी। विराट का उन्हें अनुभव हुआ होगा।
पर वन—प्रांतों से गुजरने का भी अपना मजा है।
कृष्ण का रस बिना छोड़े, संसार से बिना भागे, संसार से ही गुजरकर परमात्मा तक पहुंचने का रस है।
दोनों पहुंच जाते हैं। इसलिए तुम्हें जो रुचिकर लगे, उसे चुन लेना। और इस रुचि की बात को जन्म पर मत छोड़ना। क्योंकि जन्म से रुचि का कोई संबंध नहीं है।
अब मैं ऐसे जैनों को जानता हूं, जिनके लिए कृष्ण बड़े काम के हो सकते हैं। लेकिन वे उनका उपयोग न करेंगे। वे कहते हैं, यह कुंजी हमारे काम की नहीं है। इस घर में हम पैदा ही नहीं हुए हैं। हम तो महावीर के मार्ग से जाएंगे। और उनकी पूरी जीवन—दशा महावीर से मेल नहीं खाती।
ऐसे हिंदुओं को मैं जानता हूं जो कृष्‍ण की भक्ति— भाव किए चले जाते है। लेकिन भक्ति— भाव का उनसे कोई तालमेल नहीं है। उनके लिए मरुस्थल जमता। उनके होंठों पर भक्ति के गीत शोभा नहीं देते। उनके हृदय का उससे कोई साथ नहीं है। वे संकोच से भरे हुए आरती करते हैं। उनको लगता है, यह क्या मूढ़ता कर रहे हैं! लेकिन अब जिस घर में पैदा हुए हैं, पूरा करना पड़ता है। वे डरे—डरे हैं।
ध्यान रखना, जन्म से तुम्हारे जीवन की कोई व्यवस्था नहीं बनती। तुम अपनी समझ से खोजने की कोशिश करना, किससे तुम्हारा तालमेल है? और साहस रखना। जिसके साथ तालमेल हो, उसके साथ जाने की हिम्मत रखना। तो शायद तुम पहुंच जाओगे। अन्यथा तुम बहुत भटकोगे।

 पांचवां प्रश्न : मोक्ष फलित होता है यदि श्रद्धा और शरणागति से, तो बंधन किससे फलित होता है?

 संदेह और अहंकार से।

 छठवां प्रश्न : कृष्ण ने अर्जुन के प्रति अपना उपदेश समाप्त कर तरंत गीता—माहात्म्य बताना क्यों उचित समझा?

 हला कारण, अर्जुन की चेतना उस घड़ी के करीब आने लगी, जहां वह भी कृष्ण रूप हो जाएगा। जल्दी ही वह घडी करीब आएगी। अर्जुन को पता चले, इसके पहले कृष्ण को पता चल जाना स्वाभाविक है।
तुम्हें पता चले, इसके पहले मुझे पता चल जाना स्वाभाविक है कि क्या हो रहा है। तुम्हारे ध्यान में उतरने के पहले मुझे पता चल जाएगा कि तुम उतर रहे हो। तुम्हारी समाधि फलित होने के पहले मैं तुम्हें खबर दे दूंगा कि समाधि आने के करीब है। उसकी पहली पगध्वनिया तुम्हें नहीं, मुझे सुनाई पड़ेगी; क्योंकि मैं उन पगध्वनियों को पहचानता हूं। तुम्हारे लिए तो वे पहली बार बजेंगे स्वर, तुम उनको पहचान न पाओगे।
अर्जुन पहुंचने लगा है करीब, जहां वह कहेगा कि मैं निःसंशय हुआ। जहां वह कहेगा, तुम्हारे प्रसाद से मेरा संशय क्षीण हो गया; मेरे अज्ञान से भरा हुआ मोह मिट गया; और तुम्हारी अनुकंपा से मैं थिर हो गया हूं मेरी प्रज्ञा ठहर गई। अब तुम आज्ञा दो, वही मैं करूंगा। अब मेरा कोई होना नहीं है। अब तुम्हीं हो।
जल्दी ही वह घड़ी आ रही है। उस घड़ी का आगमन अर्जुन के अचेतन में शुरू हो गया है।
जैसे पानी में एक बबूला उठता है, रेत से उठता है बबूला। उठता है ऊपर की तरफ। चलता है धरातल की तरफ। समय लगता है। जितनी गहरी पानी की धार हो। जब सतह पर आ जाएगा, तब तुम्हें दिखाई पड़ता है कि बबूला पानी का प्रकट हुआ। लेकिन जो गहरे डुबकी मारना जानता है, वह जानता है कि कब बबूले ने यात्रा शुरू की।
अर्जुन के भीतर उसकी गहरी अंतरात्मा से यह भाव उठना शुरू हो गया है। इसकी सुगंध उसके चारों तरफ आने लगी होगी। कृष्ण के नासापुट अर्जुन की उस भीनी सुगंध से भर गए होंगे। पहचान लिया होगा उन्होंने कि फूल अब खिला, अब खिला; कली अब खिली, अब खिली। पंखुड़ियां अब खुलने के करीब हैं। सुबह होती है, रात जा चुकी है।
इसके पहले कि अर्जुन कहे कि मैं पहुंच गया वहां, जहां तुम पहुंचाना चाहते थे, तुम्हारी अनुकंपा से, उन्होंने गीता का माहात्म्य कहा। क्यों? क्योंकि इसके बाद अर्जुन योग्य हो जाएगा। जो कृष्ण ने अर्जुन से कहा है, अर्जुन किसी और से कहने में समर्थ हो जाएगा। बता देना जरूरी है कि वह किससे कहे, किससे न कहे। क्योंकि अक्सर ऐसा होता है।
जैसे छोटे बच्चों को तुमने देखा हो, जब वे पहली दफा चलना शुरू करते हैं, तो दिनभर चलने की कोशिश करते हैं। क्योंकि चलना ( इतना नया अनुभव होता है, इतना आह्लादकारी, कि वे बार—बार फिर खड़े हो जाते हैं; थक जाते हैं, मगर फिर खड़े हो जाते हैं।
तुमने छोटे बच्चों को देखा होगा, जब वे बोलना शुरू करते हैं, तो दिनभर बकवास करते हैं। वे बकवास इसलिए कर रहे हैं कि एक नई कला उन्हें उपलब्ध हुई है; वे उसका उपयोग करना चाहते हैं। तुम कहते हो, चुप रहो! वे चुप रह नहीं सकते; क्योंकि अगर ' वे चुप रहें, तो जिंदगीभर के लिए चूक जाएंगे। वे तो बोलेंगे, वे तो चर्चा करेंगे; वे तो बात करेंगे, वे तो एक ही बात को बार—बार कहेंगे। वे फिर—फिर लौटकर आ जाएंगे कोई खबर लेकर, कि बाहर ऐसा हो रहा है! इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है, बात करने से मतलब है। क्योंकि एक नई कला उपलब्ध हुई है। वे। उसका अभ्यास कर लेना चाहते हैं।
और ठीक ऐसी ही घटना तब घटती है, जब तुम्हें पहली दफा परमात्म—जीवन का अनुभव होता है। तब तुम्हारे पूरे प्राण उसे दूसरों। से कहना चाहते हैं।
तो कृष्ण कहते हैं, उससे कहना, जो सुनने को राजी हो। उससे कहना, जो भक्ति— भाव से सुनने को राजी हो। उससे कहना, जो तपपूर्वक सुनने को राजी हो।
इसके पहले कि अर्जुन के जीवन में वह नया उन्मेष उठे और वह कहने लगे लोगों को, उसे सचेत कर देना जरूरी है
और वे गीता का माहाक्य भी कहते हैं इसके साथ ही। क्यों? क्योंकि यह भी हो सकता है कि कहीं ये सारी शर्तें—कि उससे मत कहना, जो सुनने को राजी न हो; उससे मत कहना, जो भाव से न सुने, भक्ति से न सुने; उससे मत कहना, जो तपश्चर्यारत न हों—कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन चुप ही रह जाए; कहे ही न। वह भी दुर्घटना होगी। क्योंकि इसके जीवन में आए और यह कहे ही न। गलत को कहे, दुर्घटना होगी। अनकहा रह जाए, बिन कहा रह जाए तो दुर्घटना होगी।
तो इसलिए वे माहात्म्‍य भी कहते हैं कि कहने का क्या—क्या लाभ है अर्जुन। जो इसको कहेगा, वह मेरा सर्वाधिक प्यारा है। वह मेरे प्यारों में अति उत्तम है। जो इसे कहेगा, वह मेरा काम कर रहा है; समर्पित है। जो इसे कहेगा, वह कहकर ही सभी पापों से मुक्त हो जाएगा। वह उन स्थानों को, उन स्थितियों को पाएगा, जो परम पुण्यों से मिलती हैं। सिर्फ कहकर भी!
तो दो बातें हैं, एक तो वे चेता रहे हैं कि गलत से मत कहना। और दूसरा वे कह रहे हैं, गलत के डर से कहीं चुप मत रह जाना। कहना जरूर! ठीक को खोजकर कहना; हर किसी को मत कहना। इसलिए इसके पहले कि अर्जुन के भीतर कृष्ण का फूल खिले, उन्होंने गीता माहात्म्य की बात कही है।
अब सूत्र:

इस प्रकार गीता का माहात्म्‍य कहकर भगवान कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
पूछने को ही पूछ रहे हैं। जांच के लिए पूछ रहे हैं। इसलिए पूछ रहे हैं कि अर्जुन को खबर मिली या नहीं! जो हुआ है, उसकी खबर कृष्ण को तो मिल गई है।

झेन फकीर कहते हैं कि जब उनका कोई शिष्य ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, तो उसे आकर बताने की जरूरत नहीं रहती। गुरु खुद ही उसके पास जाकर उसे. कहता है कि अब क्या कर रहा है बैठा हुआ! आकर बताया नहीं; खबर नहीं दी?
बोकोजू अपने गुरु के पास था वर्षों तक। अनेक बार कुछ छोटे—मोटे अनुभव होते—कभी कुंडलिनी जगती लगती, कभी भीतर प्रकाश होता, कभी कोई कमल खिलता मालूम होता—वह आ—आकर खबर देता। गुरु कहता, यह कुछ भी नहीं है। सब मन का खेल है। थक गया। वर्षों आना, बार—बार कहना, और गुरु यही कहे, मन का खेल है। यह कुछ भी नहीं। यह बच्चों की बातें छोड़। यह नासमझों की बातें छोड़। सभी अनुभव सांसारिक हैं। उस अवस्था को पाना है, जहां कोई अनुभव नहीं रह जाता, केवल साक्षी बचता है, देखने वाला बचता है, दृश्य कोई भी नहीं।
फिर एक दिन बोकोजू आया, वह द्वार के भीतर प्रविष्ट ही हुआ था कि गुरु खड़ा हो गया और उसने कहा, तो आज हो गया बोकोजू। बोकोजू ने कहा, लेकिन आज तो मैंने कुछ कहा ही नहीं। और हर बार मैं आकर कुछ कहता था, तुम इनकार करते रहे। और आज मेरे बिना कहे.......!
गुरु ने कहा, जब हो जाता है, तो तुझसे पहले हमें पता चलता है। आज तेरी चाल और है, आज तेरे चारों तरफ की हवा और। आज तेरे भीतर जो नाद गज रहा है, जिन्होंने अपना नाद सुन' लिया है, वे उसे सुनने में तत्‍क्षण समर्थ हो जाएंगे।
कृष्ण को पता तो चल गया है, इसीलिए माहात्म्य कहा है। नहीं तो माहात्म्य कहने की कोई जरूरत न थी। अब तक नहीं कहा; अठारह अध्याय बीत गए। अचानक माहात्म्य कहा है। अचानक यह बताया कि कौन पात्र है, किसको कहना। अचानक यह कहा है कि कहने का कितना मूल्य है। बिन कहे मत रह जाना।
पता चल गया है, लेकिन पूछते हैं माहात्म्य कहकर, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? तूने सुना, क्या कहा मैंने? ले समझा, क्या कहा मैंने? तू जागा? तूने देखा, कौन हूं मैं? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
वे यह कह रहे हैं, अब भीतर जरा टटोलकर देख, कहां है तेरा मोह? कहा हैं वे बातें तेरे भीतर कि ये मेरे अपने प्रियजन खड़े हैं, इनको मैं कैसे काटू? अब जरा पीछे मुड़, खोज। कहां गए वे प्रश्न, संदेह—शंकाएं? वे सारी चित्त की विचलित दशाएं कहां हैं अब? तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
भगवान के ऐसा पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्‍यूत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पालन करूंगा।
एक—एक शब्‍द बहुमूल्‍य है। सारी गीता की चेष्‍टा इन थोड़े—से शब्दों के लिए थी कि अर्जुन के भीतर ये थोड़े—से शब्द प्रकट हो सकें। यह कृष्ण का पूरा आयोजन, इतनी—इतनी बार अर्जुन को समझाना, बार—बार अर्जुन का छिटक—छिटक जाना, कृष्ण का फिर—फिर उठाना, यह इन थोड़े—से शब्दों को सुनने के लिए था।
सारे गुरुओं की चेष्टाएं शिष्य से इन थोड़े—से शब्दों को सुनने के लिए हैं, कि किसी दिन वह घड़ी आएगी सौभाग्य की और शिष्य का हृदय अहोभाव से भरकर कहेगा, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मुझे स्मृति प्राप्त हुई, संशयरहित हुआ मैं स्थित हूं और आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा है।
हे अच्‍यूत.....।
अच्‍यूत का अर्थ होता है, जो कभी डिगाया न जा सके। अर्जुन ने बहुत डिगाने की कोशिश की कृष्ण को। कितने संदेह उठाए! कितने प्रश्न पूछे! कोई भी थक जाता। कोई भी कहता कि बस, बहुत हुआ। अब मेरा सिर मत खा। लेकिन बार—बार कृष्ण फिर अनुकंपा से भरे अपना हाथ बढ़ा देते हैं।
तो अर्जुन कहता है, हे अच्‍यूत, तुम जो कि डिगाए नहीं जा सके.।
और वही गुरु तो तुम्हें थिर कर सकेगा, जिसे तुम डिगा न सको। जो गुरु तुम से डिग जाए, वह तुम्हें कैसे अनडिगा बना सकेगा? वह तो असंभव है।
कृष्ण न तो नाराज हुए, न परेशान हुए, न चिंतित हुए, न निराश हुए। जरा भी डिगे नहीं।
तो अर्जुन कहता है, हे अच्‍यूत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ। तुम्हारे प्रसाद से....।
यह बहुत बहुमूल्य बात है। वह सीधा भी कह सकता था, मेरा मोह नष्ट हुआ। लेकिन तब भूल हो जाती। तब गीता अभी समाप्त नहीं हो सकती थी। यात्रा और चलती।
अगर वह कहता, मेरा मोह नष्ट हुआ, तो मेरा अभी भी महत्वपूर्ण था। मोह नष्ट हो गया, इसको भी वह मेरे का ही आभूषण बना लेता। अभी भी वह अकड़ से कहता, मेरा मोह नष्ट हुआ। तो कृष्ण को फिर चेष्टा करनी पड़ती।
नहीं; पहली बार उसने कहा है, आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ। मेरे प्रयास से नहीं, तुम्हारे अनुग्रह से। तुम बरसे मेरे ऊपर—अकारण। मेरी कोई पात्रता न थी; मेरा कोई पुण्य का उदय भी न था। मैं खो जाता अंधकार में, तो शिकायत करने का कोई उपाय न था। लेकिन तुम बरसे, तुम औघड़दानी, तुमने बिना मेरी पात्रता की फिक्र किए मेरे ऊपर खूब बरसा की, खूब अमृत बरसाया। तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ।
जब भी मैं नष्ट होता है, तो वह परमात्मा के प्रसाद से नष्ट होता है। अगर तुम यह कहो कि मेरे ही प्रयास से नष्ट हुआ, मेरी साधना। से, मेरे तप से, तो वह अभी नष्ट हुआ ही नहीं। अभी तपस्वी के भीतर तप में तपा हुआ अहंकार खड़ा ही रहेगा। यह खतरनाक अहंकार है। यह पवित्र अहंकार है। यह साधारण आदमी के अहंकार से भी ज्यादा उपद्रव से भरा हुआ रोग है। '
साधारण आदमी का अहंकार तो रोगग्रस्त है, अपवित्र है। उसे भी लगता है कि यह बीमारी जैसा है, छोड़ना है। नहीं छूटता, मजबूरी है। पर छोड़ने की आकांक्षा है।
पवित्र अहंकार, जिसको कृष्णमूर्ति ने पायस ईगोइज्म कहा है, वह साधु पुरुषों को उपलब्ध होता है। तप किया, ध्यान किया, धारणा की, समाधि को पाया, चेष्टा से उत्पन्न हुआ, श्रम से पाया, अपने ही प्रयास से पाया, तो बड़ा सघन और सूक्ष्म अहंकार निर्मित होता है।
अगर कृष्ण जरा—सा शब्दों में फर्क पाते, अगर अर्जुन जरा बदलकर बात कहता, जमीन— आसमान का अंतर हो जाता। अगर उसने इतना ही कहा होता, मेरा मोह नष्ट हो गया, तो अभी और चेष्टा करनी जरूरी थी। अभी मोह भला नष्ट हो गया हो, लेकिन अब इस नष्ट हुए मोह ने एक और नया अहंकार खड़ा कर दिया, कि मेरा मोह नष्ट हो गया।
आपकी कृपा से, तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया हे अच्‍यूत, और मुझे मेरी स्मृति प्राप्त हुई।
वह यह नहीं कहता कि मुझे कुछ नया मिल गया। जो मिला है, वह केवल स्मृति है, वह स्मरण है। जो मिला है, वह केवल याददाश्त है। जिसे मैं भूल गया था, जो मेरे भीतर था और जिसकी तरफ मेरी नजर न रही थी, तुमने मेरी दृष्टि को फेर दिया। तुमने मुझे याद दिला दी। तुमने मुझे मुझसे ही मुलाकात करवा दी, मुझे मुझसे ही मिला दिया।
पर तुम्हारे प्रसाद से हुआ है। अपने हाथ से तो मैं कभी भी यहां न पहुंच पाता। शायद जितनी मैं चेष्टा करता, उतनी ही स्मृति मुश्किल होती चली जाती।
जिसको कबीर सुरति कहते हैं, नानक सुरति कहते हैं, जिसको बुद्ध ने सम्यक स्मृति कहा है, वही अर्जुन कहता है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई। अब मैं पहचान गया अपने को। अब मुझे याद आ गई मेरे होने की। अपने ही अस्तित्व से मुलाकात हो गई। अब मैं अपने आमने—सामने खड़ा हूं।
और इसलिए अब मैं संशयरहित स्थित हूं......।
जिस दिन भी तुम्हें स्मरण आ जाता है कि तुम कौन हो, उसी क्षण सब संशय गिर जाते हैं। विस्मरण की अंधेरी रात में ही संशयों की बाढ़ उपजती है। स्मरण के प्रकाश में सब संशय ऐसे ही खो जाते हैं, जैसे दीया जल जाए, तो अंधेरा खो जाता है। सुबह सूरज उग आए, तो रात विदा हो जाती है, रात के तारे विदा हो जाते हैं। संशयरहित हुआ स्थित हूं..।
और अब मुझे कुछ करना नहीं पड़ रहा है स्थिर होने के लिए। अचानक मैं पाता हूं हे अष्णुत, कि स्मृति क्या आ गई, मैं स्थित हो गया हूं। मेरी प्रज्ञा ठहर गई। अब दीए की लौ हिलती नहीं। तूफान आएं, आंधिया उठें, मेरे भीतर कोई कंपन नहीं हो रहा है। स्थित हुआ मैं अपने भीतर ठहर गया हूं।
यह गीता का लक्ष्य है, स्थितप्रज्ञ की अवस्था। जब चेतना थिर हो जाए; जैसे कोई दीए की लौ हो, और हवा के झोंके उसे कंपान सकें; थिर रहे, अकंप, निष्कंप।
और अब आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता हूं।
अब तक वह कहता था, मैं ऐसा करना चाहता हूं वैसा करना चाहता हूं। ये मेरे प्रियजन हैं, इन्हें मैं मारना नहीं चाहता। मैं त्याग करना चाहता हूं। मैं संन्यास लेना चाहता हूं। पहली बार उसने कहा कि अब मैं थिर हुआ; स्मृति मुझे आ गई, अच्‍यूत; अब तुम्हारी आज्ञा। अब तुम्हारी मर्जी। अब तुम जो कहो। अब मुझे रत्तीभर भी प्रश्न नहीं है। तुम जो कहोगे, वह ठीक है या गलत, यह सवाल नहीं है। अब तुम जो कहोगे, वह ठीक ही है।
यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। जब तक ऐसी दशा न आ जाए तब तक गुरु से मिलन नहीं। जब तुम ऐसा न कह सको कि अब तुम जो कहोगे, वही ठीक है; अब ठीक और गलत का कोई मापदंड तुम पर हम् लाग न करेंगे, अब तुम्हारा कहना ठीक, तुम्हारा न कहना गलत। तुम जो न कहो, वह गलत, तुम जो कहो, वह ठीक। तुम जो छोड़ दो, वह गलत, तुम जो इशारा करो, वह सही। अब तुम्हारा होना पर्याप्त है।
पर यह तभी होता है, जब स्वयं का स्मरण आ जाए। स्वयं की पहचान के साथ ही गुरु के भीतर की पहचान भी होती है।
अभी तक कृष्ण सखा थे, साथी थे, सारथी थे, हितेच्छु थे, मंगलकामी थे। जिसको बुद्ध ने कहा है, कल्याण—मित्र। मित्र थे और कल्याण चाहते थे। इस क्षण गुरु हुए।
इस घड़ी आकर अर्जुन शिष्य हो गया, इस घड़ी आकर रथ ही अर्जुन ने कृष्ण के हाथों में नहीं छोड़ा, अपने को भी छोड़ दिया, कि अब तुम मेरे भी सारथी हो गए। तुम मेरे घोड़ों को ही मत सम्हालो, अब मुझे भी सम्हालो। अब तुम मेरे रथ की ही लगाम मत पकडो, मेरी लगाम भी पकड़ लो।
अब मैं थिर हुआ। स्मरण को उपलब्ध हुआ। तुम्हें पहचान पाता हूं। तुम्हारी महिमा को देख पाता हूं तुम कौन हो। यह अपने को पहचानकर मैं तुम्हें भी पहचान गया हूं। अब मुझे कोई संशय नहीं है। अब तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा है।
जिस दिन शिष्य आज्ञा की प्रतीक्षा करता है, समर्पण हो गया। शिष्य उसी दिन शिष्य बनता है, और उसी दिन उसे गुरु में परमात्मा के दर्शन होते हैं।
आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें