रस बरसे मैं भीजूं—(प्रवचन—पहला)
दिनांक 1 अक्टूबर, 1975;
श्री
ओशो आश्रम, पूना,
सारसूत्र :
राम तजूं पै गुरु
न बिसारूं।
गुरु को सम हरि को
न निहारू।।
हरि ने जनम दियो
जग माहीं।
गुरु ने आवागमन
छुटाहीं।।
हरि ने पाचं चोर
दिये साथा।
गुरु ने लई छुटाया
अनाथा।।
हरि ने कुटुंब जाल
में गेरी।
गुरु ने काटी ममता
बेरी।।
हरि ने रोग भोग
उरझायौ।
गुरु जोगी कर सबै
छुटायौ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ।
गुरु ने आतम रूप
लखायौ।।
हरि ने मोसूं आप
छिपायौ।
गुरु दीपक दै ताहि
दिखायौ।।
फिर हरि बंधि
मुक्ति गति लाये।
गुरु ने सबही भर्म
मिटाये।।
चरनदास पर तन मन
वारूं।
गुरु न तजूं हरि
को तज डारूं।।
रस बरसै मैं भीजूं
बिन धन परत
फुहार--यह वार्तामाला एक नयी ही यात्रा होगी। मैं अब तम मुक्त पुरुषों पर बोला
हूं। पहली बार एक मुक्तनारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्त पुरुषों पर बोलना आसान
था। उन्हें मैं समझ सकता हूं--वे सजातीय हैं। मुक्तनारी पर बोलना थोड़ा कठिन
होगा--वह थोड़ा अजनबी रास्ता है। ऐसे तो पुरुष और नारी अंतरतम में एक हैं, लेकिन
उनकी अभिव्यक्तियां बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। उनके होने का ढंग, उनके
दिखायी पड़ने की व्यवस्था, उनका वक्तव्य, उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्न है बल्कि
विपरीत है।
अब तक किसी मुक्तनारी पर नहीं बोला। तुम
थोड़ा मुक्त पुरुषों को समझ लो, तुम थोड़ा मुक्ति का स्वाद चल लो, तो शायद मुक्तनारी को समझना भी आसान हो जाए।
जैसे सूरज की किरण तो सफेद है, पर
प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाता है। हरा रंग लाल रंग नहीं है, और न लाल रंग हरा रंग है; यद्यपि दोनों एक ही किरण
से टूटकर बने हैं, और दोनों अंततः मिलकर पुनः एक किरण हो
जाएंगे। टूटने के पहले एक थे, मिलने के बाद फिर एक हो जाएंगे,
पर बीच में बड़ा फासला है; और फासला बड़ा
प्रीतिकर है। बड़ा भेद है बीच में, और भेद मिटना चाहिए। भेद
सदा बना रहे, क्योंकि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल लाल हो,
हरा हरा हो। तभी तो, हरे वृक्षों पर लाल फूल
जाते हैं। हरे वृक्षों पर हरे फूल बड़ी शोभा न देंगे। लाल वृक्षों पर लाल फूल फूल
जैसे न लगेंगे।
परमात्मा में तो स्त्री और पुरुष एक हैं।
वहां तो किरण सफेद हो जाती है। लेकिन अस्तित्व में, प्रकट लोग में, अभिव्यक्ति में बड़े भिन्न हैं; और उनकी भिन्नता बड़ी
प्रतिकर है। उनके भेद को मिटाना नहीं है, उनके भेद को सजाना
है। उनके भेद को नष्ट नहीं करना है, उनके भीतर छिपे अभेद को
देखना है। स्त्री और पुरुष एक ही स्वर दिखायी पड़ने लगे--बिना भेद को मिटाये--तो
तुम्हारे पास आंख है।
वीणावादक वीणा के तारों को छेड़ता है। बहुत
स्वर पैदा होते हैं। उंगलियां वही हैं, तार भी वही हैं, छेड़खानी का थोड़ा सा भेद है; पर बड़े भिन्न स्वर पैदा
होते हैं। सौभाग्य है कि भिन्न स्वर पैदा होते हैं, नहीं तो
संगीत का कोई उपाय न था। अगर एक ही स्वर होता तो बड़ा बेसुरा हो गया होता, बड़ी ऊब पैदा होती।
संसार सुंदर है, क्योंकि
भेद में अभेद है। सारे स्वरों के बीच वही उंगलियों का स्पर्श है, उन्हीं तारों की ध्वनि है। संगीतज्ञ एक है, संगीत का
माध्यम एक है, पर संगीत की तरंगों में बड़े भेद हैं।
पुरुष बड़ी अलग तरंग है, स्त्री बड़
अलग तरंग है। अलग ही नहीं, मैं कहता हूं बड़ी विपरीत, एक दूसरे के प्रतिकूल जाती हुई तरंगें हैं; और
इसीलिए तो स्त्री-पुरुष के बीच इतना आकर्षण है। एक-दूसरे से भिन्न हैं, इसलिए एक-दूसरे को जानने, उघाड़ने, एक दूसरे के रहस्य को पहचानने की तीव्र आकांक्षा है।
मैं
कबीर पर बोला,
फरीद पर बोला, नानक पर बोला, बुद्ध, महावीर और सैकड़ों मुक्त पुरुषों पर बोला,
वह बात इकसूरी थी। आज दूसरे स्वर को जोड़ता हूं। उस दूसरे स्वर को
समझने के लिए, उस पहले स्वर ने तुम्हें तैयार किया है।
क्योंकि एक बड़ी अनूठी घटना घटती है: पुरुष भी जब मुक्ति के आखिरी सोपान पर
पहुंचाता है, तो स्त्री जैसा हो जाता है, स्त्रीवत हो जाता है। यही तो दादू ने कहा, कि आशिक
माशूक हो गया। जो प्रेमी था, अब प्रेयसी हो गया। और फरीद
अपने से ही कहता है कि बहन, अगर तू ऐसा कर कि उस एक सच्चे की
ही आस मुझमें रह जाए, तो प्यारा बहुत दूर नहीं है।
अगर तुम बुद्ध के जीवन को समझो, तो तुम
बुद्ध के जीवन में वैसी स्त्रैणता पाओगे जैसी श्रेष्ठतम स्त्री में कभी-कभी उपलब्ध
होती है--वही सुकोमल भाव पाओगे। कहो उसे करुणा, लेकिन अगर
गहरे में झांक कर देखोगे तो पाओगे, वह करुणा बुद्ध के भीतर
जनम रही नयी स्त्री का अनुसंग है, छाया है। महावीर में तुम
उसे अहिंसा की तरह पाओगे। लेकिन जब भी कोई पुरुष मुक्त होगा तो अचानक तुम पाओगे
उसके जीवन में बड़ा स्त्रैण माधुर्य आ गया। ये सभी गुण जिनकी फरीद ने चर्चा
की--धीरज, शील--ये सभी गुण स्त्रैण हैं। शीतल गुण है,
बहुत सुकोमल है। और धीरता--धैर्य--स्त्रैण गुण है।
पुरुष में धैर्य नहीं है। पुरुष बड़ा अधीर है, सदा जल्दी
में है। अगर पुरुष को बच्चे पालने पड़े तो संसार में बच्चे नहीं बचेंगे--उतना धैर्य
नहीं है। अगर पुरुष को गर्भ संभालना पड़े तो गर्भपात ही गर्भपात हो जाएंगे संसार
में; कोई पुरुष गर्भ संभालने को राजी न होगा--नौ महीने की
प्रतीक्षा किसे हो सकती है; पुरुष जल्दी में है, तेजी में है। समय का उस बड़ा बोध है।
स्त्री अनंत में जीती है, पुरुष समय
में जीता है--
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। हम
दोपहर के विश्राम के बाद बैठकर गपशप कर रहे थे--कि पत्नी ने झांका और उसने कहा कि
सुनो जी, बच्चों को संभालना, मैं थोड़ा डाक्टर के पास जाती हूं,
दांत निकलवा आऊं। मुल्ला उछलकर खड़ा हो गया, कोट
में हाथ डाल दिया और बोला, ठहरो फजलू की मां, तुम्हीं बच्चों को संभालो, दांत मैं निकलवा आता हूं।
बच्चों को संभालना ऐसा उपद्रव है! उतना धैर्य पुरुष के पास नहीं। बच्चे को बड़ा
करना तो बहुत मुश्किल होगा--बीस-पच्चीस वर्ष लगते हैं, तब
कहीं कोई बच्चा अपने पैरों पर खड़ा हो पाता है।
धैर्य स्त्री के लिए सुगम है, पुरुष के
लिए साधना है। इसलिए फरीद कहते हैं, धैर्य सीधी। स्त्री मन
को लगेगा, इससे साधने जैसा क्या है? यह
मैं तुम्हें फर्क समझा रहा हूं। स्त्री मन को लगेगा, धैर्य
साधने जैसा क्या है? धैर्य तो है ही। फरीद कहते हैं, शील साधो। स्त्री को लगता है, शील न हो तो बात ही
क्या हुई! शील तो स्वभाव है।
स्त्री को अगर साधना हो, तो शील को
तोड़ना साधना पड़ता है। शील उसे सहज आता है। जैसे वृक्षों में पत्ते आते हैं,
ऐसे स्त्री में शील आता है। शीलवान पुरुष खोजना जरा मुश्किल होता
है। शीलहीन स्त्री भी खोजनी जरा मुश्किल होती है। स्त्रियां अगर शील खोती हैं,
तो पुरुषों के प्रभाव में खो देती हैं, और
पुरुष अगर शील को उपलब्ध होते हैं, तो स्त्रियों के प्रभाव
में उपलब्ध होते हैं। जो पुरुष के लिए बड़ी तपश्चर्या से मिलता है, वह स्त्री को जनम से मिलता है। कुछ और बातें हैं जो पुरुष को जनम से मिलती
हैं, स्त्री को नहीं मिलती।
अगर स्त्री को सैनिक बनना हो, तो बड़ी
तपश्चर्या से गुजरना पड़ेगा; लेकिन साधु बनने के लिए किसी
तपश्चर्या से नहीं गुजरना पड़ेगा। अगर स्त्री को युद्ध के मैदान पर जाना हो तो बड़ी
तैयारी करनी होगी, बड़े प्रशिक्षण से गुजरना होगा; लेकिन स्त्री को अगर मंदिर में जाकर प्रार्थना करनी हो, पूजा करनी हो, अर्चना करनी हो, तो उसे किसी से भी सीखने की जरूरत नहीं है। तुम छोटी सी बच्ची को मंदिर ले
जाओ, और जैसे वह जनम से जानती है कि मंदिर में कैसे झुकना।
और तुम लड़के को ले जाओ, तुम उसको गर्दन झुकाओ, वह खड़ा हो हो जाता है। झुकना उसे आता नहीं। झुकना बात जंचती नहीं। वह
झुकाना चाहेगा, झुकना न चाहेगा।
पुरुष के लिए संघर्ष स्वाभाविक है, युद्ध
स्वाभाविक है।
पुरुष जीतने का एक ही रास्ता जानता
है--संघर्ष।
स्त्री जीतने का एक दूसरा रास्ता जानती
है--समर्पण।
पुरुष जीत कर भी कर जाता है, स्त्री
हार कर भी जीत जाती है। ऐसा उनका भेद है, और सुंदर है।
विपरीत भी जाते हैं, फिर भी उनमें एक गहरा तालमेल है।
क्योंकि पुरुष जीत कर हारता है, स्त्री हार कर जीतती है,
इसलिए दोनों में ताल-मेल भी हो जाता है--विरोध मिल जाते हैं,
दोनों एक-दूसरे के साथ बैठ जाते हैं।
पुरुष भी जब मुक्ति के करीब पहुंचता है, तो उसमें
स्त्रैण फूल खिलते हैं। और स्त्री जब मुक्ति के करीब पहुंचती है तब उसमें पुरुष
जैसे फूल खिलते हैं।
इसे तुम थोड़ा समझ लो।
मैंने पहले भी कहा है, मैं फिर
कहूं, जैनों के चौबीस तीर्थंकर में एक स्त्री है। उसका नाम
है मल्लीबाई। लेकिन दिगंबर जैन उसके नाम को मल्लीनाथ कर दिए हैं, क्योंकि वे यह स्वीकार नहीं कर पाते कि कोई स्त्री मुक्ति हो सकती है।
स्त्री पर्याय से मुक्ति है ही नहीं। तो, वे मानते ही नहीं
कि मल्लीबाई मल्लीबाई थी, वे तो कहते हैं मल्लीनाथ। उनकी बात
में भी थोड़ा अर्थ है। अर्थ यही है कि जब कोई स्त्री मुक्ति के करीब पहुंचेगी,
तो उसमें पुरुष जैसे फूल खिलेंगे। और जब कोई पुरुष मुक्ति के करीब
पहुंचेगा, तो उसमें स्त्री जैसे फूल खिलेंगे।
ऐसा क्यों होता है?
इसे जानने को थोड़ा मनुष्य के मन में प्रवेश
करना पड़ेगा।
प्रत्येक के भीतर दोनों हैं। पुरुष के भीतर
स्त्री छिपी है,
स्त्री के भीतर पुरुष छिपा है। ऐसा होगा ही, क्योंकि
प्रत्येक दोनों से पैदा होता है। तुममें तुम्हारी मां ने भी आधा दान दिया है,
तुम्हारे पिता ने भी आधा दान दिया है। तुम स्त्री नहीं हो सकते
अकेले, तुम अकेले पुरुष भी नहीं हो सकते। स्त्री और पुरुष के
संगम हो तुम। वहां दोनों आकर मिल गए हैं, उससे तुम्हारा
निर्माण हुआ है। तो तुममें आधी स्त्री होगी, आधा पुरुष होगा।
फर्क क्या होगा फिर पुरुष और स्त्री में?
फर्क इतना ही होगा: पुरुष में पुरुष ऊपर
होगा, स्त्री भीतर छिपी होगी। स्त्री गहरे में होगी, पुरुष
परिधि पर होगा। स्त्री में फर्क यह होगा, कि स्त्री में
स्त्री ऊपर होगी, पुरुष नीचे दबा होगा। और जब तुम मुक्त
होओगे, जब तुम्हारी चेतना अपने शांत केंद्र की तरफ वापस
लौटेगी, तो जो छिपा है वह प्रकट होगा। जो प्रकट था वह तो था
ही, अब तक जो छिपा रहा था वह भी प्रकट होगा। इसलिए पुरुष
फरीद कहता है: आशिक माशूक हो जाते हैं। उस आखिरी घड़ी में अचानक तुम पाते हो पुरुष
तो मैं था, लेकिन अब कुछ नया घट रहा है; भीतर एक नया द्वार खुल रहा है जो अब तक बंद पड़ा था।
और स्वभावतः, जो अब तक प्रकट न हुआ था।
उसकी ताजगी बड़ी होती है। जो अब तक प्रकट रहा, उस पर तो धूल जम
गयी होती है। वह तो तुम जी लिए इतने दिन तक, वह तुम्हारे
अनुभव का हिस्सा हो गया, उसका नावीन्य खो गया। जब छिपा हुआ
अचानक प्रकट होता है, पुरुष में जब स्त्री प्रकट होती
है--मुश्किल के क्षण के करीब, आत्मकेंद्र के करीब--तब पुरुष
को बिलकुल अच्छादित कर लेती है। इसलिए बुद्ध पुरुष स्त्रैण हो जाते हैं; उनको ढांक लेती है। बुद्धत्व को उपलब्ध स्त्रियों में पुरुष का भाव पैदा
होता है। छिपा हुआ पुरुष एकदम प्रकट हो जाता है।
यह केंद्र के करीब की घटना है--करीब-करीब जब
तुम बस आखिरी कदम के करीब हो। यह केंद्र की घटना नहीं है। अभी केंद्र से एक कदम का
फासला है। परिधि पर नहीं हो अब, केंद्र पर भी नहीं पहुंचे हो--बस केंद्र के
करीब आ गए, परिधि छोड़ दी। जो बीच में छिपा था वह प्रकट हो
गया। अंतिम कदम में तो तुम पुरुष रह जाओगे न स्त्री। केंद्र पर तो दोनों खो
जाएंगे। वहां तो तुम्हारा रंग एक ही रह जाएगा; शुभ्र,
सफेद। न तुम लाल होओगे, न तुम हरे होओगे--वहां
इंद्रधनुष खो जाएगा।
जहां इंद्रधनुष खोता है, वहीं
संसार खो जाता है।
फिर एक बचता है। उस एक को हमने एक भी नहीं
कहा, क्योंकि एक कहने से भी दो का खयाल आता है। हमने उसे अद्वैत कहा। हमने इतना
ही कहा कि वह दो नहीं है। वहां फिर न कोई स्त्री है न पुरुष है।
हिंदुओं ने बड़ी हिम्मत की है। ब्रह्म को
नपुंसकलिंग में रखा है--न स्त्री, न पुरुष; क्योंकि वहां तो
दोनों ही खो जाएंगे। जीसस के वचनों में एक बड़ी अजीब बात है; ईसाइयों
को बड़ी कठिनाई होती है। जीसस बार-बार अपने शिष्यों से कहते हैं--क्या तुम परमात्मा
के लिए नपुंसक होना चाहोगे? ईसाइयों को बड़ी कठिनाई होती है,
यह भी क्या बात हुई! पर जीसस ठीक कह रहे हैं। आखिरी घड़ी में तो यही
होगा, तुम दोनों न रह जाओगे। तुम दोनों के पार हो जाओगे,
तुम दोनों से मुक्त हो जाओगे।
मैं गयी रात, यहूदियों का एक शास्त्र
मिदरेस पढ़ रहा था। उसमें एक वचन आता है। वचन है: द तोरा हैज टू पाथस--धर्म के दो
मार्ग हैं; वन इज आफ सनलाइट, एनादर इज
ओफ द स्नो--सूर्य का उत्तप्त और दूसरा है बर्फ का शीतल; इफ
यू विल फालो द फर्स्ट, यू विल डाइ आफ सन--अगर तुम पहले मार्ग
पर गए तो तुम सूर्य के पात से मरोगे; इफ यू फालो द सेकिंड,
यू विल डाई आफ स्नो--अगर दूसरे मार्ग से गए तो तम बर्फ की ठंडक में
मर जाओगे।
व्हाट टु डू--तब करें क्या?
तो मिदरेस कहती है, वाक
बिटवीन द टू--दोनों के बीच चलो। वह बीच न पुरुष है, न
स्त्री। अगर तुम पुरुष के मार्ग से गए तो तुम ताप से मरोगे; अगर
तुम स्त्री के मार्ग से गए, तुम ठंडक से मर जाओगे। तब करें
क्या? दोनों के बीच चलें। पर वह घटना तो घटती है आखिरी बिंदु
पर। जहां व्यक्ति केंद्र पर पहुंचता है वहां दोनों से मुक्त हो जाता है। सूर्य की
किरण फिर सूर्य की किरण हो गयी, इंद्रधनुष आये और गए,
संसार बना और मिटा; तुम फिर मूल पर वापस आ गए,
उदगम उपलब्ध हुआ।
स्त्रैण चित्त की थोड़ी सी बातें समझ लें फिर
सहजो-वाणी को समझना आसान हो जाएगा। पहली बात; स्त्रैण चित्त की अभिव्यक्ति ध्यान
की नहीं है, प्रेम की है। उसे ध्यान प्रेम से ही उपलब्ध होता
है। उसने ध्यान को भी प्रेम से ही जाना है। वह प्रेम से ही तरोबोर है। उसके लिए
ध्यान का नाम प्रार्थना है।
पुरुष अकेला जी सकता है। वस्तुतः पुरुष
अकेला ही होना चाहता है। अहंकार संबंधित नहीं होना चाहता, क्योंकि
संबंधित होने में झुकना पड़ता है, थोड़ी अकड़ छोड़नी पड़ती है,
दूसरे के तल पर आना पड़ता है। मैत्री का अर्थ ही यही है, कि हम दूसरे को अपने समान मानें; और प्रेम का तो
अर्थ यह है कि दूसरे को हम अपने से ऊपर मानें। तो युद्धशील पुरुष का मन मैत्री के
लिए तैयार नहीं होता--प्रेम के लिए बहुत कठिनाई है--प्रार्थना तो असंभव है।
प्रार्थना का तो अर्थ है, हम दूसरे के चरणों में सिर रख दें।
पुरुष रखता भी है तो पूरे भाव से नहीं रखता, मजबूरी में रखता
है। कोई और उपाय नहीं देखता, तो रखता है। असहाय हो जाता है,
तो रखता है। बल से नहीं रखता, निर्बलता से
रखता है। जीता हुआ नहीं रखता, हार जाता है तो रखता है।
सौभाग्य नहीं मानता सिर झुकाने में। भीतर तो ऐसा ही लगता है कि कैसा अभागा क्षण
आया।
पश्चिम की भाषाओं में समर्पण के लिए शब्द है
उसमें वह भाव नहीं है जो पूर्व की भाषाओं में है। सरेंडर--उससे खबर मिलती हैं तुम
हार गए। पश्चिम में सरेंडर का अर्थ होता है--किसी ने तुम्हें हार दिया और झुका
दिया। पूर्व में अर्थ होता है समर्पण का--तुम हारे और झुके, किसी ने
झुकाया नहीं। पश्चिम की भाषाएं पुरुष से प्रभावित हैं, बहुत
ज्यादा। पूर्व की भाषाएं, स्त्री से बहुत प्रभावित हैं।
इसलिए पूर्व की भाषाओं में जितना महत्वपूर्ण है वह तुम सब स्त्रैण पाओगे। ममता,
करुणा, अहिंसा, दया
प्रार्थना, पूजा, अर्चना सब स्त्रैण
शब्द हैं, जो भी सुकोमल है, माधुर्य से
भरा है, उसे हमने स्त्रैण शब्द दिया है; उसमें कुछ स्त्री का गुण है।
पुरुष के लिए ध्यान, तप,
साधन, योग आसान है; स्त्री
के लिए प्रेम, प्रार्थना, पूजा अर्चना।
पुरुष ऐबस्ट्रेक्ट शब्दों को बड़ा मूल्य देता
है--आकाशी शब्द--यथार्थ नहीं, जिन्हें छुआ जा सके, जिन्हें
हाथ में पकड़ा जा सके। नहीं, वह दूर की बात करता है, आकाश की बातें करता है। स्त्री बहुत यथार्थवादी है, वह
निकट की बात करती है, पड़ोस की बात करती है। तुम स्त्रियों की
बात सुनो; पड़ोस में क्या हो रहा है, इसकी
चर्चा होगी। तुम पुरुषों की बात सुनो--वियतनाम में क्या हो रहा है, इजराइल में क्या हो रहा है, स्त्री को यह बता जंचती
नहीं। इतने दूर की क्या बात! इससे लेना-देना नहीं कुछ। पुरुष को यह बात नहीं जंचती
कि पड़ोस की स्त्री किसी के साथ भाग गयी; इसमें इतना क्या है?
इसमें क्या रखा है, चलता रहता है पड़ोस में यह
सब! असली घटनाएं इजराइल में घट रही हैं, अमेरिका में घट रही
हैं, वियतनाम में घट रही हैं--सारी दुनिया पड़ी है, इतनी बड़ी पृथ्वी पड़ी है। और पुरुष का मन इससे भी नहीं भरता, वह कहता है चांद पर जाना है, मंगल पर जाना है।
स्त्री सदा सोचती है कि करोगे क्या चांद पर, मंगल पर जाकर!
ज्यादा अच्छा हो, थोड़े घर के बगीचे को सुधार लो ,लान की घास बढ़ गयी है उसे काट लो, कि घर गंदा है इसकी
सफाई कर लो, चांद पर जा के क्या करोगे? दूर, जो बहुत दूर है--सुदूर है, वह स्त्री को नहीं भाता। उसे निकट चाहिए--वह मां है, वह पत्नी है और पृथ्वी है! उसे निकट, और करीब,
और यथार्थ!
मनुष्य-मनुष्य में यहां बड़ा भेद है।
स्त्री-पुरुष में यहां बड़ा भेद है। पुरुष कहेगा--मातृभूमि, स्त्री
कहेगी--अपना घर! पुरुष कहेगा--मनुष्यता, मानवता; स्त्री कहेगी--मेरा बेटा, मेरा पति, मेरा भाई! स्त्री की सीमा परिवार पर पूरी हो जाती है। स्त्री छोटे दीए की
तरह है, जो अपने चारों तरफ थोड़ी सी दूर तक प्रकाश डालता है।
उस प्रकाश का परिवार है। पुरुष टार्च की तरह है। अपने आसपास कुछ प्रकाश नहीं डालता,
लेकिन बड़ी दूर तक उस किरण...दूर की चीज देखने की उत्सुकता है।
पुरुष दूर दृष्टि है, स्त्री
निकट दृष्टि है।
इसका यह अर्थ हुआ कि पुरुष जब परमात्मा की
बात करता है,
तब गुरु की बात करती है स्त्री; क्योंकि
परमात्मा तो बहुत दूर, गुरु बहुत पास। परमात्मा तो हो सकता
है सिर्फ एक प्रत्यय, एक धारणा, एक
शब्द हो! किसने जाना, किसने देखा? लेकिन
गुरु बहुत यथार्थ है, उसके चरण हाथ में पकड़े जा सकते हैं।
परमात्मा के चरण कहां पकड़ोगे? स्त्री के लिए गुरु ज्यादा
महत्वपूर्ण हो जाता है, परमात्मा से भी।
सहजो का वचन बड़े नास्तिक का मालूम पड़ता
है--राम तजूं पै गुरु न बिसारूं। परमात्मा को छोड़ सकती हूं, मुझे कुछ
अड़चन नहीं है राम के त्यागने में, लेकिन गुरु को छोड़ना असंभव
है। पुरुष को यह कहने में थोड़ी सी हिचक होगी। वह कहेगा कि गुरु को छोड़ना ही है,
परमात्मा को ही पाना है; एक दिन तो गुरु को
छोड़ना ही पड़ेगा, और परमात्मा से मिलन करना होगा। स्त्री
कहेगी, अगर परमात्मा को ही मिलना है तो गुरु में ही आ जाए;
और इसे छोड़ने का कोई उपाय नहीं है।
गुरु को छोड़कर परमात्मा नहीं पाना है, गुरु में
ही परमात्मा पाना है। यह यथार्थ की पकड़ है, क्योंकि गुरु
करीब है, वास्तविक है। तुम्हारी जैसी उसकी देह है, तुम्हारे जैसी उसकी वाणी है, तुम्हारी जैसी उसकी आंख
है। तुमसे वह ज्यादा है, लेकिन तुम जैसा तो है ही। वह प्लस
भी है, उसमें कुछ धन भी है, तुमसे कुछ
ज्यादा भी है, लेकिन तुम जैसा तो निश्चित है।
परमात्मा बिलकुल तुम जैसा नहीं है। वह कितना
ही ज्यादा हो,
लेकिन उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती, उसको छूने का
कोई उपाय नहीं है। अगर तुम पुरुषों की वाणी सुनो, तो वे
कहेंगे--अव्यक्त, निराकार, निर्गुण। न
कभी किसी ने देखा, न कभी किसी ने सुना, न कभी किसी ने छुआ। वहां से शब्द लौट आते हैं, हाथ
के पहुंचने का तो सवाल क्या! आंख उसे देख नहीं सकती--वह कोई वस्तु नहीं है,
पदार्थ नहीं है, उसका कोई रूप नहीं है। वह
निराकार, निर्गुण अस्तित्व है। कहां है, मत पूछो। सब कहीं है।
स्त्री को ये बातें कोरी मालूम पड़ती हैं, ये शब्द
मालूम पड़ते हैं, बड़े-बड़े। इनके भीतर सच्चाई नहीं मालूम पड़ती।
स्त्री कहती है, वह सगुण हो तो भी भरोसे के योग्य है। उसमें
आकार हो, तो ही हमें भरोसा बैठेगा। क्योंकि स्त्री प्रेम
करना चाहती है, ध्यान नहीं।
इस फर्क को समझो।
जिस पर ध्यान करना हो वह निराकार हो तो भी
चलेगा। अगर आकार हो उसका,
तो ध्यान में बाधा पड़ेगी। लेकिन जिसे प्रेम करना हो उसका आकार न हो,
कैसे प्रेम करोगे? गले कैसे लगाओगे उसको?
कैसे पुकारोगे उसे अपने हृदय के पास? वह
निराकार है। यह निराकार शब्द बिलकुल कोरा मालूम पड़ेगा। इससे कोई भक्ति तो उठेगी
नहीं, इसमें कोई प्रेम का आविर्भाव न होगा। यह इतना बड़ा है
कि इस परम पकड़ छूट जाती है। इसमें डूब सकते हो, लेकिन इसे
प्रेम कैसे करोगे? इसमें मिट सकते हो, मर
सकते हो, लेकिन इसके साथ जिओगे कैसे? भक्त
कहता है: नहीं, सगुण है। सभी गुण उसके हैं, वह कहता है। आकार है उसका। सभी आकार उसके हैं। फूल में, पत्ते में, पहाड़ में, झरने में
उसने ही आकार लिए हैं। स्त्रैण चित्त आकार के पार जाना नहीं चाहता, जाने की जरूरत भी नहीं है। पुरुष-चित्त को आकार में बंधन लगता है।
इसे तुम समझना--
पुरुष को प्रेम में भी बंधन लगता है, स्त्री को
प्रेम में मुक्ति लगती है। पुरुष प्रेम में भी पड़ता है तो सोचता है, कहां बंधन में पड़ रहा हूं! स्त्री प्रेम में पड़ती है तो वह कहती है,
ये बंधन प्यारे हैं, क्योंकि इन्हीं ने मुझे
मुक्त किया। अब यह भाषा, बड़ी दुनिया अलग-अलग है इन दो भाषाओं
की।
स्त्री के लिए प्रेम मुक्ति, पुरुष के
लिए प्रेम बंधन।
पुरुषों ने ही गढ़े होंगे बहुत से शब्द। मेरे
पास निमंत्रण आ जाते हैं,
किसी पिता का निमंत्रण आता है कि मेरा बेटा प्रणय बंधन में बंध रहा
है। काहे के लिए बंध रहा है प्रणय-बंधन में! विवाह-बंधन में बंध रहे है, आपका आशीर्वाद चाहिए! बंधन में बंधने के लिए किसके लिए आशीर्वाद की जरूरत
है! कारागृह में जा रहा है, न जाए तो अच्छा। लेकिन पुरुष की
भाषा में विवाह बंधन है! और वह हमेशा सोचता है--भागो, भागो,
घर छोड़ो! हिमालय जाओ! गृहस्थी छोड़ो!!! रहता भी है, तो भी बेमन से रहता है। ऐसा कि मजबूरी, क्या करे! जो
नहीं सकते--बच्चे हैं, पत्नी है, बड़ा
बंधन है, उत्तरदायित्व है। स्त्रियों ने कभी इस तरह के
संन्यास की बात नहीं की: कि छोड़ो, भागो, हिमालय जाओ। स्त्री ने जहां वहीं, आसपास अपने
परमात्मा को खोजने की कोशिश की है।
निकट में उसे पाने की कोशिश की है।
उपनिषद कहते हैं--परमात्मा दूर से भी दूर, पास से भी
पास है।
इसमें जोड़ देना चाहूंगा: पुरुष के लिए दूर
से दूर, स्त्री के लिए पास से पास है।
इसलिए पुरुष को हंसी गाती है: कृष्ण की
मूर्ति लिए बैठी है स्त्री। सजाती है, गहने पहनाती है, मुकुट लगाती है, मोर-मुकुट बांधती है, मोर-पंख लगाती है। आंख से आंसू बहते हैं, आनंद विभोर
होकर नाचती है। पुरुष हंसता है: पागलपन है। पुरुष जंगल जाता है, सब छोड़कर भाग जाता है, धनी रमाता है, आग जलाता है, वृक्षों के नीचे अकड़कर बैठा रहता है।
स्त्री को लगता है: दिमाग खराब हो गया। यह बिलकुल स्वाभाविक है दोनों का लगना।
दोनों के ढंग-आयाम अलग हैं। इसलिए मैंने कहा कि एक नयी यात्रा शुरू होती है।
सहजो अकेली स्त्री नहीं होगी जिस पर मैं
बोलूंगा, पर शुरुआत उससे होती है क्योंकि उसमें स्त्री बड़े परिशुद्ध रूप में प्रकट
हुई है। यह भी तुम से कह दूं इसके पहले उसके वचनों में हम उतरें कि जैसे मैंने
कहा: तब भी वह जो चर्चा पूरी नहीं हो पाती, अधूरी ही रहती
है--आखिरी फरीद फरीद है, लाख कहे बहन! जब फरीद बहन कह रहा है
तब भी भीतर भाई है। वह जानता है कि भाई है। अगर अचानक तुम फरीद से आकर कह दो कि
बहन क्या कर रही हो, तो वह भी नाराज हो जाएगा कि आप...दिखायी
नहीं पड़ता? वह खुद कह रहा है, चलता है!
तुम मत कहना। कितनी कोशिश फरीद करे, लेकिन पुरुष पुरुष है।
उसे जब स्त्रैण भाव आता है तब वह भी उसे बाहर से घेरता है, ऐसा
लगता है जैसे बादलों ने घेर लिया। घिर जाता है, झुक जाता है;
लेकिन फिर भी गहरे में तुम उसे पाओगे कि पुरुष पुरुष है। उसके झुकने
में भी तुम एक तरफ की अकड़ पाओगे। रस्सी जल भी जाती है तो भी अकड़ थोड़ी मिट जाती है।
राख हो जाती है तो वह राख में भी अकड़ के निशान बने रहते हैं। यह स्वभाविक है,
ऐसा होगा ही।
बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हो गए, फिर भी वह
स्त्रियों को दीक्षित नहीं करना चाहते थे। ज्ञान को उपलब्ध हो गए--कोई कमी न रही;
उन्होंने यह जान लिया कि न कोई स्त्री है, न
कोई पुरुष है--फिर भी भेद रहा, फिर भी बाहर के लिए फर्क रहा।
स्त्रियों ने जब आज्ञा चाही--कि हमें भी दीक्षित करें, तो वे
झिझके। यह झिझक उस रस्सी की है, जो जल गयी, अब बची नहीं है; लेकिन फिर भी पुरानी रूप-रेखा बनी
है। एक को झिझक गए, कि स्त्रियों को दीक्षा देने से उपद्रव
होगा। यह उपद्रव का खयाल ही बुद्ध को आया--इसीलिए आया-- कि उन्हें अपने पुरुष होने
की स्मृति है, अभी भी। रस्सी जल गयी है, निशान रह गए हैं। वे जानते हैं कि स्त्रियों को दीक्षा से स्त्रियां और
पुरुष साथ-साथ होंगे--उपद्रव होगा। आकर्षण बढ़ेगा, पुरुष
स्त्री के प्रेम में पड़ेंगे; और पुरुष अगर अपने को बचाए भी
तो भी मुश्किल होगी, क्योंकि स्त्रियां प्रेम किए बिना रह नहीं
सकतीं। पुरुष भागेंगे भी तो बहुत अर्थ न होगा। और स्त्री के जीतने के ढंग ऐसे हैं,
वह इतनी कुशलता से--बिना शोर-शराबा किए, बिना
हथियार, अस्त्र-शस्त्र उठाये--इस तरह हरा देती है कि कठिन
होगा। कभी कोई भिक्षु बीमार होगा तो स्त्री उसका सिर दबा देगी, उसका पैर दबा देगी। लेकिन उसके सिर दबाने और पैर दबाने में प्रेम का राग
का एक स्वर उठने लगेगा। शायद स्त्री ने यह जानकर दबाया भी न थी सिर कि इससे कोई
राग पैदा होगा। सोचा भी न था, यह भाव में भी न था; पर यह सवाल नहीं है, होगा। यह भिक्षु इस स्त्री के
प्रति कोमल हो जाएगा। इस भिक्षु के स्वप्नों में यह स्त्री उतरने लगेगी। कभी-कभी
यह भिक्षु ऐसे ही लेट जाएगा, सिर में दर्द न होगा तो भी कि
उस स्त्री के कोमल हाथ इसे छू दें। धीरे-धीरे यह आकांक्षा गहरी हो जाएगी।
तो बुद्ध डरे। वह डरा कौन? वह
पुरुष--जो जा चुका है, जिसकी राख रह गयी है--वह डरा। लेकिन
जब बहुत आग्रह किया गया, तो बुद्ध के झुके। उन्होंने कहा ठीक
है। लेकिन बहुत बेमन से झुके। उन्होंने कहा कि मेरा धर्म हजारों वर्ष रहता,
अब पांच सौ वर्ष से ज्यादा न रह सकेगा। क्योंकि जहां स्त्री-पुरुष
पास-पास होंगे वहां घर बसेगा।
और बुद्ध का संन्यास तो पुरुष का संन्यास
है--वह घर के विपरीत है। वह भिक्षु का संन्यास है, वह जंगल जानेवाले का
संन्यास है--वह परिवार के विपरीत है। उन्होंने कहा कि जहां स्त्री होगी, वहां जल्दी ही वह परिवार बसाना शुरू कर देगी।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर दुनिया में पुरुष
की चलती तो घर नहीं होते--टेन्ट, तंबू ज्यादा से ज्यादा। लोग अपना तंबू लेकर,
जैसे कि खानाबदोश घूमते हैं, ऐसे घूमते।
घर बसाना पुरुष को जंचता ही नहीं। वह एक जगह
बसना भी नहीं चाहता,
उसका चित्त बड़ा चंचल है। वह कहता है, देखो
दुनिया को--जाओ यहां, जाओ वहां। स्त्री की समझ में नहीं आता
कि कहां जा रहे हो! किसलिए जा रहे हो!! घर में आनंद है--शांति से बैठो। उनको चैन
नहीं है। वे चले लाइंस-क्लब, रोटरी-क्लब, पूना-क्लब--वे भागे। घर लौटे हैं दिनभर के थके-मांदे, वे कहते हैं, अब विश्राम के लिए क्लब जा रहे हैं।
दुकान से नहीं छूटे तो क्लब से नहीं छूटे तो पार्टी पार्टी से नहीं छूट तो राजनीति,
राजनीति से नहीं छूटे तो कुछ...। कुछ न कुछ चाहिए उपद्रव! स्त्री को
समझ में नहीं आता कि शांति से आदमी घर में क्यों नहीं बैठ सकता! वह पुरुष का गुण
नहीं है, घर स्त्रियों ने बसाए हैं। इसीलिए हिंदी में,
ठीक ही है कि हम स्त्री को घरवाली कहते हैं। पुरुष को कोई घरवाला
नहीं कहता, वह है भी नहीं। वह शब्द उनके लिए मौजूद नहीं है।
घर तो स्त्री है, उस खूंटे से पुरुष बंध जाता है। प्रेम के
कारण रुक जाता है; अन्यथा वह भागा-भागा रहेगा।
सारी सभ्यता स्त्री के आधार पर बनी है।
क्योंकि घर ही न हों तो नगर न होंगे, नगर न होंगे तो सभ्यता खो जाएगी।
पुरुष खानाबदोश हो सकता है--बलूची--बस उस तरह का खानाबदोश हो सकता है। इसलिए,
तुमने गौर किया कि बलूचियों की स्त्रियों में पुरुष-गुण आ गए हैं।
बलूची की स्त्री से तुम्हारा पुरुष भी न लड़ पाएगा। बलूची की स्त्री तुम्हारे पुरुष
से भी ज्यादा मजबूत है। वह अगर हाथ पकड़ लेगी तो तुम हाथ न छुड़ा पाओगे। स्वाभाविक
है कि उसमें पुरुष गुण आ गए, क्योंकि वह पुरुष के साथ चल रही
है खानाबदोश बनकर। डेरा-डंगर रोज बदल लेता है। आज यहां, कल
वहां, परसों वहां। इस संघर्ष में गुजरने के कारण बलूची की
स्त्री मजबूत हो गयी है। तुम्हारे घर में बंध जाने के कारण तुम्हारा पुरुष कमजोर
हो गया है। वह स्त्रियों जैसा हो गया है, बलूची की स्त्री
पुरुषों जैसी हो गयी है। जीवन का जो दंग होता है वह प्रभावित करता है। वह
संस्कारित करता है।
पुरुष और स्त्री दो आयाम हैं। और दोनों के
भेद को बारीकी से पहचान लोगे तो सहजोबाई के पद स्पष्ट हो जाएंगे। तुम पुरुष के ढंग
से उन्हें मत समझने की कोशिश करना। तुम भूल ही जाना कि तुम कौन हो, अन्यथा
तुम्हारी धारणा बीच में बाधा देगी।
राम तजूं पै गुरु न बिसारूं। यह सिर्फ
स्त्री ही कह सकती है। क्योंकि राम तो दूर की धारणा है, कौन जाने,
हो न हो? किसने देखा? राम
वहां आकाश में हैं भी या नहीं? तो राम को हम छोड़ सकते हैं,
निराकार को छोड़ सकते हैं, पर गुरु को नहीं छोड़
सकते हैं। गुरु तो आकार में है, यहां मौजूद है--छुआ जा सकता
है, देखा जा सकता है, उसके शरीर की गंध
मिलती है, उसकी आंख से आंख में झांका जा सकता है, उसके हाथ को हाथ में लिया जा सकता है, उसके पैर
दबाये जा सकते हैं--उससे हमारा कोई सेतु है, वह यथार्थ है।
राम तजूं पै गुरु न बिसारूं--बड़ी हिम्मत की बात है, सिर्फ
स्त्री कह सकती है। फरीद भी थोड़े कंपेंगे, कबीर भी थोड़े
डरेंगे; वे कहेंगे राम तजूं? अगर इस
बात को भी कहेंगे, तो किसी और ढंग से कहेंगे, इतना सीधा न कह सकेंगे। स्त्री दो-टूक है। वह ज्यादा लंबे-चौड़े वक्तव्यों
में, और गोल-गोल वक्तव्यों में नहीं उलझती। वह सीधी बात कह देती
है। तर्क का वहां जाल नहीं है, वहां हृदय की सीधी अभिव्यक्ति
है; फिर राम को बुरा लगेगा या नहीं, यह
भी सवाल नहीं है।
राम तजूं पै गुरु न बिसारूं, गुरु को
सम हरि को निहारूं। न, गुरु के मुकाबले अब हरि को न निहार
सकूंगी। गजब की बात है। परमात्मा को भी, सहजो कह रही है कि
मैं गुरु के मुकाबले न रख सकूंगी, इसी सिंहासन पर तुम्हें न
बिठा सकूंगी। तुम होओगे भले, तुम होओगे सुंदर, तुम्हीं ने बनाया होगा संसार, माना। लेकिन गुरु के
मुकाबले तुम्हें न बिठा सकूंगी। गुरु परमात्मा के ऊपर। पुरुषों ने भी हिम्मत की है,
तो ज्यादा से ज्यादा गुरु को परमात्मा के करीब ला सकते हैं, उससे ऊपर नहीं ले जा सके। कबीर ने कहा है; गुरु
गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय! सवाल उठ गया है, किसके पैर
छुऊं, दोनों सामने खड़े हैं! बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दीयो बताय--तो मैं गुरु के पैर लगता हूं। लेकिन कारण क्या है पैर
लगने का? क्योंकि, तुम्हारी बलिहारी
तुमने गोविंद को बता दिया। असली बात तो गोविंद है। पैर गुरु के लग रहे हैं,
वे लेकिन बताने का...। पैर लगने का कारण क्या है? कारण यह है कि तुमने गोविंद बता दिया, तुम्हारे बिना
गोविंद का पता न चलता, इसलिए तुम्हारे पैर छूते हैं--तुम
साधना हो। गोविंद साध्य है। ऐसे उन्होंने पैर तो गुरु के ही छुए, लेकिन इशारा साफ कर दिया कि गोविंद गुरु के ऊपर है। बड़ी होशियारी की कबीर
ने। बड़ी राजनीति की। दोनों को राजी कर लिया। गुरु के पैर लग गए, और कह दिया कि तूने गोविंद को बताया इसलिए तेरे पैर लगते हैं। तो पैर
लगाकर गुरु को राजी कर लिया, गोविंद को भी नाराज नहीं किया,
बल्कि गोविंद को भी प्रसन्न कर लिया--कि लगता तो मेरी ही कारण है
पैर। सहजो जो कह सकती है वह कबीर न कह सके।
गुरु को सम हरि को न निहारूं। न, तुम्हें
रख सकती हूं पजा में, लेकिन गुरु के समान नहीं रख सकती।
तुम्हें सिंहासन पर न बैठा सकूंगी। जहां भी स्त्री ने प्रेम देखा, वहीं परमात्मा है। फिर और कोई परमात्मा को उससे ऊपर नहीं रख सकती, असंभव है--क्योंकि प्रेम से ऊपर कुछ भी नहीं रखा जा सकता।
कारण वह देती है, कारण बड़े
प्रीतिकर हैं:
हरि ने जनम दीयो जग माहीं। समझना; कबीर ने
भी कारण बताया कि मैं गुरु के पैर क्यों लग रहा हूं, क्योंकि
तुमने गोविंद बताया। सहजो भी कारण दे रही है, कि तुम्हें मैं
गुरु के समान न रख सकूंगी, यह साफ कहे देती हूं। कारण यह है:
हरि ने जनम दीयो जग माहीं--तुमने मुझे संसार में भेजो। इसके लिए कोई बड़ा आभार
प्रकट करने की जरूरत नहीं है। गुरु ने आवागमन किया क्या? मुझे
इस अंधकारपूर्ण पथ पर अकेला भेज दिया; इस अनजान, बेबूझ राह पर पटक दिया--यही तुमने किया। गुरु ने क्या किया? उसने मुझे फिर से प्रकाश की राह पर लगाया, उसने फिर
मुझे हाथ का सहारा दिया, जहां मैं अकेली थी वहां अकेले न
रहने दिया। तुम ने मुझे अकेला जंगलों में छोड़ दिया, वह मुझे
वापस राजपथों पर लाया। तुम किस मुंह से सोचते हो कि तुम्हें मैं गुरु के ऊपर रखूं।
नहीं, रात तजूं पै गुरु न बिसारूं, गुरु
को सम हरि को न निहारूं। हरि ने जनम दीयो जग माहीं--ठीक है, यह
स्वीकार है कि तुम्हीं जन्मदाता हो, लेकिन जन्म में पाया
क्या? इस जीवन में मिला क्या? इस जीवन
में सिवाय दुख के, संताप के, पीड़ा के
और कुछ तो उपलब्धि हुई। इस दुखों के बोध के लिए तुम्हें धन्यवाद दूं? स्त्री सुस्पष्ट है, पुरुष गोल-गोल जाता है। गुरु ने
आवागमन छुटा ही।
हरि ने पांच चार दिए साथ, गुरु ने
लई छुटाया अनाथा। तुमने पांच चोर साथ लगा दिए थे, वही
तुम्हारी कृपा है। अगर उसे कृपा कहें! पांच इंद्रियां पीछे लगा दीं, वासनाओं का जाल लगा दिया, छूट-छूट के मुश्किल हो गयी,
छूटना मुश्किल हुआ। तुमने बंधन में डाला, तुमने
मुक्त नहीं किया और तुमने अनाथ बिना था। तुम कहीं दूर छिटक गए, कौन मालिक है कुछ खबर न रही--इंद्रियों को ही मालिक समझ लिया, उनके ही पीछे दौड़ती रही, भागती रही। मृगमरीचिका में
तुमने डाला। कितने मरुस्थलों में भटकाया। किस कारण, तुम
सोचते हो कि तुम्हें गुरु से ऊपर रखूं? गुरु ने मुझे छुड़ाया
मेरी अनाथ स्थिति से मुझे छुटाया, फिर मुझे सनाथ बनाया।
हरि ने कुटुंब जाल में गेरी, गुरु ने
काटी ममता बेरी। तुमने तो मुझे फेंक दिया जाल में। ये बड़े प्रेमपूर्ण उलाहने हैं,
यह परमात्मा से सीधी-सीधी बात है, इसमें कुछ
दांव-पेंच नहीं है। यही कठिनाई है, स्त्री-पुरुष के बीच जब
भी बातचीत होती है, तो बातचीत हो नहीं पाती। क्योंकि पुरुष
दांव-पेंच से बात करता है, स्त्री सीधी बात करती है, संवाद भी नहीं पाता। क्योंकि पुरुष समझ नहीं पाता कि इतनी सीधे कोई बात
कैसे कही जा सकती है, और स्त्री समझन नहीं पाती कि इतना
घुमाने की क्या जरूरत है--बात सीधी कहो! स्त्री की बात संक्षिप्त में पूरी हो जाती
है। पुरुष हजार ढंग से, जो कहना है उसे छिपाता है, और जो नहीं कहना है उसमें ढांकता है।
गुरु ने काटी ममता बेरी। यह कोई बहुत बड़ा
काव्य नहीं है। कबीर का काव्य है, बात और है! फरीद के गीत की बात और है! सहजोबाई
के ये वक्तव्य कोई बड़े काव्य नहीं हैं, इनमें कोई बड़ी कविता
नहीं है। पर इसमें सीधी चोट है। इनमें कोई बड़ी लफ्फाजी नहीं है, कोई कला नहीं है। यह सीधी-सीधी बात है--एक साधारण, शुद्ध
हृदय स्त्री की बात है। हरि ने कुटुंब जाल में गेरी। तुमने कुटुंब का जाल बनाया,
परिवार बसाया, संसार दिया, और सब तरफ से मुझे घेर दिया था--उसमें मैं तड़पती थी, उसमें कहीं कोई शरण न थी। उसमें कहीं कोई छाया न मिलती थी, सिर्फ धूप ही धूप थी, तड़पन ही तड़पन थी। गुरु ने काटी
ममता बेरी। गुरु ने, ममता के वे जो झाड़-झंखाड़ तुमने खड़े किए
थे, उन सबको काट दिया। नहीं, तुम मुझसे
यह मत कहो कि मैं तुम्हें गुरु से ऊपर रख लूं! गुरु को सम हरि को न निहारूं। वे
मैं न कर सकूंगी। वह असंभव है मुझसे होना। मैं तुम्हें समान न निहार पाऊंगी। तुम
नाराज मत होना--नाराजगी का कोई कारण नहीं है--क्योंकि यह सीधा-साधा जीवन का तर्क
है।
हरि ने रोग भोग उरझायौ, गुरु जोगी
कर सबै छुटायौ।
गुरु ने काटी ममता बेरी--ममता को हम थोड़ा
समझ लें। यहीं तुम्हें फर्क धीर-धीरे समझ में आने शुरू हो जाएंगे। पुरुष जब भी
कहेगा, अगर वह परमात्मा से प्रार्थना भी करेगा, तो वह यही
कहेगा: मुझे अहंकार से छुड़ाओ। क्योंकि पुरुष में अहंकार ही उसकी पीड़ा है। जब
स्त्री कहेगी, तो वह कहेगी: मुझे ममता से छुड़ाओ। अहंकार
स्त्री की पीड़ा नहीं है, ममत्व उसकी पीड़ा है--मेरा बेटा,
मेरा पति, मेरा मकान, मरी
साड़ी, मेरा गहना--वह जो मेरा भाव है। स्त्री के लिए अहंकार
असली बीमारी नहीं है, मेरा-भाव--ममत्व--बीमारी है। पुरुष के
लिए मैं, और स्त्री के लिए मेरा। स्त्री का मेरा कट जाए तो
उसका में गिर जाता है, पुरुष का मैं गिर जाए तो उसका मेरा कट
जाता है। इसलिए पुरुष जब तक अहंकार से मुक्त न हो, तब तक
ममत्व से मुक्त नहीं होता; स्त्री जब तक ममत्व से मुक्त न हो,
तब तक अहंकार से मुक्त नहीं होती। इसलिए बात तो बड़ी सीधी और साफ
है--गुरु ने काटी ममता बेरी। गुरु ने धीर-धीरे समझाया, जगाया
कि कोई मेरा नहीं है--मेरा झूठ है, मेरा एक सपना है, मेरा केवल मन में उठी तरंगें हैं--असलियत नहीं है। जन्म के साथ हम अकेले
आते हैं--कोई मेरा साथ नहीं होता। मृत्यु के साथ हम अकेले जाते हैं--कोई मेरा साथ
नहीं होता। मेरे बात ही संसार है। गुरु ने काटी ममता बेरी।
हरि ने रोग भोग उरझायौ।
तीन शब्द समझ लें--रोग, भोग,
योग। रोग ऐसी दशा का नाम है, आध्यात्मिक
अर्थों में, जब व्यक्ति परमात्मा से बिलकुल टूट जाता है।
इसलिए हम रोग का अर्थ अस्वास्थ्य करते हैं। अस्वास्थ्य शब्द को ठीक से समझोगे तो
रोग का अर्थ समझ में आ जाएगा। अस्वास्थ्य का अर्थ है--जो स्वयं में स्थित न रहा।
स्वस्थ का अर्थ होता है, स्व में स्थिति, जो अपने में है, जो अपने स्वभाव में है--वह स्वस्थ।
जहां तम स्वभाव के बाहर गए--अस्वस्थ। अस्वास्थ्य रोग है।
रोग का अर्थ है: परमात्मा से सर्वाधिक दूरी।
यह तीन शब्द दूरी के मापदंड हैं--रोग:
परमात्मा से अनंत दूरी;
योग: परमात्मा से कोई दूरी नहीं--एकता; भोग:
मध्य में है। रोग और योग के बीच में जो यात्रा है, वह भोग की
है। कभी-कभी क्षण भर को परमात्मा से मिलन होता है--क्षण को मिलन होता है, वर्षों को छूटना हो जाता है--इसी को तुमने भोग कहा है। भोग का अर्थ होता
है, भोजन किया, एक क्षण भर को स्वाद की
झलक आयी, उस स्वाद में बड़ी तृप्ति लगी, उस तृप्ति के क्षण में तुम स्वभाव के करीब आए, तुम
परमात्मा के करीब आए।
इसलिए तो उपनिषद कहते हैं--अन्नं ब्रह्म। जब
ऋषि भोजन करता है,
तो परमात्मा के करीब ही आता है--अन्न के करीब नहीं है। अन्न के
द्वारा ब्रह्म को ही जानता है--अन्नं ब्रह्म।
तंत्र कहता है--संभोग भी समाधि के करीब है।
तंत्र के शास्त्र कहते हैं--विषयानंद ब्रह्मानंद सहोदर। वह जो शरीर का संभोग है, वह भी
ब्रह्मानंद का भाई है, सहोदर है, एक ही
उदर से पैदा हुआ है। पर क्षण भर को--क्षण भर को, संभोग की किसी
गहन अवस्था में, जब चित्त के विचार खो गए होते हैं, तब तुम्हारा नियंत्रण भी खो गया होता है; जब
परमात्मा तुम्हें पकड़ लेता है, और तुम उसके ही हाथों में
कंपते और डोलते हो--जैसे तूफान में उलझी हुई वृक्षों की पत्तियां डोलती हैं;
जब तुम न मालिक होते हो, न नियंत्रक होते हो,
न कर्ता होते हो: तुम संभोग के एक क्षण के क्षण से भी छोटे क्षण में,
डूब गए होते हो, खो गए होते हो--उस क्षण जो
विषयानंद है, वह ब्रह्मानंद का सहोदर है। पर यह क्षण को होगा,
फिर अनेक दिनों के लिए दूरी हो जाएगी। तो भोग करीब-करीब योग के आता
है, फिर छटक कर रोग बन जाता है।
भोग क्षणभंगुर योग है, और फिर
सदा के लिए रोग है।
सहजो कहती है, हरि ने रोग भोग उरझायौ।
तुमने या तो रोग दिया, ज्यादा से ज्यादा भोग दिया--इससे
ज्यादा मैं तुम्हें न कह सकूंगी कि तुमने कुछ और दिया। हां, कभी-कभी
तुमने झलक दी। उस झलक से भी कुछ सुख न पाया, उससे दुख और घना
हो गया। घड़ी भर को सुख पाया और बहुत घड़ियों के लिए दुख पाया। तुमने भोग दिया,
रोग दिया, इसमें कुछ बड़ी महिमा मत समझो।
गुरु ने, गुरु जोगी कर सबै छुटायो। गुरु ने
योग दिया--रोग और भोग से छुटकारा दिया। जिसको योग मिल गया, उसके
मन से शरीर के भोग तो अपने आप खो जाते हैं। क्योंकि जब श्रेष्ठतर मिल जाए तो
निकृष्ट अपने आप गिर जाता है। जब सारा हाथ में आ जाए, तो
असार को कौन पकड़ता है? जब हीरे-जवाहरात मिल जाए, तो कंकड़-पत्थर कौन बीतन है? योग को जिसने पा लिया,
उसका भोग तो विदा हो जाता है। और जिसका भोग विदा हो गया, इसे परमात्मा से दूर जाने का कोई उपाय नहीं रह जाता। वही उपाय था, जो रोग तक ले जाता था। भोग वाहन था, वही रोग तक ले
जाता था। भोग के विसर्जित होते ही रोग भी विसर्जित हो जाता है।
इससे यह मत समझ लेना कि संत पुरुष कभी रोगी
नहीं होते। संत पुरुषों को रोग पकड़ता है, लेकिन संत पुरुष कभी रोगी नहीं
होते। रामकृष्ण कैंसर से मरे तो अनेकों के मन में संदेह उठता है! रमण महर्षि भी
कैंसर से मरे। महावीर की मृत्यु गहरी पेट की बीमारी--पेचिश--से हुई। बुद्ध विषाक्त
भोजन करने के कारण शरीर में विष फैल गया, उससे मरे। महावीर
मरने के छह महीने तक पेचिश से बीमार रहे।
सवाल यह है कि जो योग को उपलब्ध हो गये, क्या उनको
भी रोग होता है? उन्हें तो रोग नहीं होता, लेकिन शरीर बड़ी अलग बात है। महावीर अलग, शरीर अलग।
तुम्हें शरीर बहुत एक मालूम होता है तुम्हारे साथ। महावीर का शरीर से भी उतना ही
फासला हो गया है, जितना रोग से। क्योंकि शरीर से जो भी संबंध
था, वह भी भोग का ही संबंध था। जिस दिन योग को उपलब्ध हुए,
वह संबंध भी टूट गया--शरीर अलग, आत्मा
अलग--बीच के सब सेतु गिर गए। ओर इन सेतुओं के गिर जाने के कारण ही, कभी-कभी गयी पुरुषों का शरीर इतना रोगग्रस्त होता है, जितना साधारण भोगियों का नहीं होता। क्योंकि शरीर की जीवन की ऊष्मा मिलनी
बंद हो जाती है। वह जो प्राणों का सहारा मिलता था, वह बंद हो
जाता है। वह जो तुम्हारा साथ मिलता था शरीर को, वह मिलना बंद
हो जाता है। अब शरीर अपने ही बल चलता है, आत्मा का कोई बल
उसे नहीं मिलता। बहुत लड़खड़ा जाता है। तो योगी पुरुष अक्सर बड़े रोगों से ग्रस्त हो
जाते हैं। मगर यह तुम्हें दिखता है कि वे रोगों से ग्रस्त हैं, उन्हें नहीं दिखता। वे तो बिलकुल रोग मुक्त हैं।
रमण को कैंसर था। डाक्टर कहते थे, महापीड़ा
का कारण होना चाहिए। लेकिन उन्हें किसी ने कभी उदास नहीं देखा। वे वैसे ही प्रसन्न
रहे, उनका फूल वैसा ही खिला रहा--उसमें कोई भेद न पड़ा। उनके
पास की गंध वैसी ही बनी रही, जैसे कुछ भी न हुआ है।
चिकित्सक--बड़े-बड़े चिकित्सक--पास आते, वे कहते कि इस घड़ी में
तो महान पीड़ा होती है--मार्फिया के इंजेक्शन देने पड़ें तो ही आदमी पीड़ा से बच सकता
है। लेकिन इनको क्या है? ये तो परिपूर्ण होश में हैं,
कहीं कोई भेद नहीं पड़ा है! जैसे कहीं दूर घट रहा है, अपने से कुछ लेना नहीं! जैसे किसी और को हुआ है!
रामकृष्ण के कंठ में कैंसर था, भोजन जाना
बंद हो गया था। पानी भी न पी सकते थे। एक दिन विवेकानंद ने पैर पकड़कर कहा कि
परमहंसदेव! पीड़ा नहीं देखी जाती। आपको नहीं है पीड़ा, हमें
पता है। लेकिन हमसे नहीं देखी जाती--हम अज्ञानी हैं। आप हमारे लिए इतना करो कि मां
से प्रार्थना करो, तुम्हारे लिए नहीं कहते, हमारे लिए करो कि--हमें पीड़ा न हो। उन्होंने कहा, तो
ठीक। आंख बंद की, फिर खिलखिला कर हंसने लगे। उन्होंने कहा,
कहा मैंने मां को, लेकिन मां ने कहा कि,
इस शरीर से तो तू बहुत पानी पी चूका, और बहुत
भोजन कर चुका। अब बाकी शरीरों से पानी पी और बाकी शरीरों से भोजन कर। तब विवेकानंद,
अब जब तू भोजन करेगा मैं तुझसे भोजन करूंगा, तेरे
कंठ से पानी पीयूंगा।
जिसका अपने शरीर से संबंध टूट गया, उसका सबकी
आत्मा से संबंध जुड़ गया--वह ब्रह्म के साथ एक हो गया। उस एक होने का नाम योग है।
योग का अर्थ होगा है: जुड़ जाना, एक हो जाना। जहां दो मिट
जाते हैं और अद्वैत पैदा हो जाता है, वहां रोग तो असंभव
है--भीतर का रोग। शरीर के रोग बहुत संभव हैं, थोड़े जरूरत से
ज्यादा ही संभव हैं, क्योंकि शरीर बड़ा बेसहारा छूट जाता है।
जीवन की आकांक्षा तो समाप्त हो गयी, जीने की कोई इच्छा न रही,
जीने का कोई भाव न रहा। योगी तो ऐसे जीता है कि ठीक है, जीना पड़ता है इसलिए जीता है। जब तब जीता है, जीता है;
जिस क्षण सांस टूटेगी, तैयार है--अपनी तरफ से
तो सांस लेनी छोड़ ही दी है--अब तो परमात्मा को ही लेनी हो तो लेता रहे। अब तो शरीर
यंत्रवत चलता है। शरीर के सहार मिट जाते हैं, और भीतर एक तरह
की लापरवाही आ जाती है शरीर के प्रति, एक उपेक्षा आ जाती है,
एक शून्य भाव पैदा हो जाता है--ममता टूट जाती है। तो कभी-कभी बड़ी
रोग पैदा हो जाते हैं। लेकिन भीतर तो रोग असंभव हो जाता है। भीतर तो रोग तभी तक
संभव है, जब तक भोग संभव है। भोग की छाया है रोग, भोग का अनुगमन है रोग, भोग के पीछे छिपा आता है रोग।
कहती है सहजो, हरि न रोग भोग उरझायौ गुरु
जोगी कर सबै छुटायो। नहीं, तुझे हम गुरु के साथ न रख सकेंगे।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ। सपने तूने दिए, कर्म का
भाव दिया, कर्म की वासना दी, कर्ता का
पागलपन दिया--न मालूम कितने भ्रमों में भरमाया, कितने जन्मों
तक भटकाया। हरि ने कर्म भर्म भरमायौ, गुरु ने आतम रूप लखायौ।
गुरु ने जगाया, और कहा कि कर्म तू नहीं है, कर्ता तू नहीं है; कहा, तू तो
मात्र अस्तित्व है। गुरु ने अपने प्रति जगाया, तूने दूसरी
चीजों के प्रति वासना से भरा--कभी धन, कभी पद, कभी प्रतिष्ठा। तूने दौड़ाया--न मालूम कितने लक्ष्यों की ओर, गुरु ने सब लक्ष्य काट दिए, तीर को भीतर की तरफ मोड़
दिया। कहा, जाग और अपने को जान--गुरु ने आतम रूप लखायौ। नहीं,
गुरु को सम हरि को न निहारूं, राम तजूं पै
गुरु न बिसारूं।
हरि ने मोसूं आप छिपायौ--और हद कर दी तूने!
संसार में भटकाया,
अपने को भी मुझसे छिपा लिया! हरि न मोसूं आप छिपायौ, गुरु दीपक दै ताहि दिखायौ--और गुरु ने दीया दिया: ध्यान का, प्रार्थना का, समाधि का। तेरे पर्दे हटाये। तू
अंधेरे में छिपा था, रोशनी दी। गुरु ने तुझे प्रकट किया,
गुरु ने तुझे आमने-सामने किया। हरि ने बंधि मुक्ति गति लाए। तुमने
ही संसार में बंधन और मुक्ति पैदा किए, तुमने ही
बांधने-छोड़ने का उपद्रव उठाया, जन्म और मरण दिए। गुरु ने
सबही भर्म मिटाये। यह वचन बहुत क्रांतिकारी है, इसे थोड़ा
बारीकी से समझने की कोशिश करें। साधारणतः लोग सोचते हैं, जब
बंधन मिट जाते हैं तो आदमी मुक्त हो जाता है। लेकिन जब बंधन मिट जाते हैं, तो वस्तुतः मुक्ति भी मिट जाती है; क्योंकि मुक्ति
तो बंधनों का ही हिस्सा है। जहां जंजीरें गिर गयी वहीं स्वतंत्रता भी गिर जाती है।
स्वतंत्रता का खयाल तो जंजीरों के कारण पैदा होता है।
एक आदमी कारागृह में बंद है तो वह सोचता है, मुक्त कब
हो जाऊंगा। तुमने कभी सोचा है कारागृह के बाहर कि धन्यवाद परमात्मा कि हम मुक्त
हैं! तुम कभी सोचते नहीं मुक्ति की बात, कारागृह में बंधा
हुआ आदमी सोचता है? मुक्त कब हो जाऊं? बाहर
था तब उसने भी न सोचा था--मुक्त हूं, बड़ा धन्यभागी हूं। बंधन
से मुक्ति का भाव पैदा होता है। तो बंधन और मुक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
फिर हरि बंधि मुक्ति गति लाए। तुम ही बंधन
और मुक्ति दोनों को लाए। गुरु ने सबही भर्म मिटाये। गुरु ने सभी बंधन तो तोड़े ही
मुक्ति भी तोड़ डाली। वह भी एक भ्रम था। गुरु ने संसार से ही मुक्त न किया, मोक्ष से
भी मुक्त कर दिया--गुरु ने परम मुक्त कर दिया। अब कोई मोक्ष भी नहीं है।
साधारणतः मनुष्य का मन द्वंद्व में सोचता
है। तुम सोचते हो,
संसार बंधन है, तो मोक्ष कहीं होगा; जब संसार छोड़ दोगे, तो मोक्ष की उपलब्धि होगी। लेकिन
जिस दिन संसार छूट जाता है, उसी दिन मोक्ष भी छूट जाता
है--और जब तक मोक्ष भी न छूट जाए, तब तक तुम मोक्ष को उपलब्ध
ही हुए। तुमने कभी कभी खयाल किया, जब तुम बीमार पड़ते हो,
तो स्वास्थ्य की कामना पैदा होती है। जब तुम स्वस्थ रहते हो,
तब तो बीमारी का पता चलता, और न स्वास्थ्य का।
स्वास्थ्य का क्या कोई पता चलता है? सिर दर्द होती है,
तो सिर का पता चलता है। जब सिर में दर्द नहीं होता, जब तुम्हें सिर का पता चलता है? तुम्हें कभी पता
चलता है कि सिर बिलकुल स्वस्थ है? जब सिर बिलकुल स्वस्थ होता
है, तो सिर का पता ही नहीं चलता। स्वास्थ्य का पता कैसे
चलेगा?
संस्कृत में दुख के लिए जो शब्द है, वह वेदना
है। वेदना बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। उसके दो अर्थ होते हैं। उसका एक अर्थ होता है
दुख, और एक अर्थ होता है ज्ञान। उसी शब्द से तो वेद बना है
विद--विद्वान--बना है। वेदना का अर्थ है ज्ञान, और वेदना का
अर्थ है दुख। सिर्फ दुख का ही ज्ञान होता है। सुख का कोई ज्ञान होता है? इसलिए यह शब्द बड़ा कीमती है। तुम्हें जब सिर में दर्द होता है, तो सिर का पता चलता है। पैर में गड़ता है, तो पैर का
पता चलता है। जीवन में पीड़ा होती है, तो जीवन का पता चलता
है। अगर सब पीड़ा मिट जाए, कोई दुख न हो, तो तुम्हें क्या पता चलेगा?
शरीर की परिपूर्ण स्वस्थ अवस्था विदेह
होगी--देह का भी पता न चलेगा। छोटे-बच्चों को देह का पता नहीं चलता, उन्हें
पता ही नहीं होता कि देह भी है। धीरे-धीरे जैसे-जैसे मुसीबतें आती हैं, देह का पता चलना शुरू होती है। बूढ़े आदमी को पता चलता है देह का--उसको देह
का ही पता चलता है--उठता है तो चलता है, बैठता है तो पता
चलता है, भोजन करता है तो पता चलता है, स्नान करता है तो पता चलता है, सांस लेता है तो पता
चलता है। कोई बात करता है तो पता चलता है, क्योंकि कान ठीक
से सुनते नहीं। कोई सामने आता है तो पता चलता है, क्योंकि
आंख ठीक से देखती नहीं। वृद्ध को शरीर ही शरीर का पता चलता है। बच्चे को शरीर का
कोई पता नहीं चलता। स्वास्थ्य का कोई ज्ञान नहीं होता। ज्ञान भी एक तरफ की बीमारी
है, बोध भी बीमारी का हिस्सा है। वेदना और वेद, दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं।
हरि ने तो मुक्ति दी, बंधन दिए;
संसार दिया, मोक्ष दिया। गुरु ने सब ही भर्म
मिटाये--उसने संसार से तो छुड़ाया ही, मोक्ष से भी छुड़ाया।
चरनदास पर तन मन वारूं।
सहजोबाई चरनदास की भक्त थी। चरनदास एक अदभुत
फकीर हुए, कभी उनकी भी बात करेंगे। चरनदास पर तन मन वारूं, गुरु
न तजूं हरि को तज डारूं। परमात्मा ही मिल गए हैं गुरु के चरणों में। चरणदास पर तन
मन वारूं--सब उन पर न्योछावर है। गुरु न तजूं हरि तो तज डारूं--जैसे चरणदास में
सारा परमात्मा साकार हो उठा है। और गुरु में जब तक सारा परमात्मा साकार न हो उठे,
तब तक गुरु भाव पैदा नहीं होता, तब तक तुम
गुरु में गुरु के देख ही न पाओगे। अगर तुम्हें गुरु में पूरा परमात्मा न दिखे तो
उतनी ही तुम्हारी श्रद्धा की कमी रह जाएगी। पर असंभव है, पुरुष
के लिए बहुत असंभव है; बड़ी साधना से संभव है। स्त्री के लिए
बिलकुल सुगम है।
इसलिए एक घटना घटी है मनुष्य के इतिहास में।
पुरुषों जैसे गुरु नहीं हुए। स्त्रियों जैसे शिष्य नहीं हुए। महावीर, बुद्ध--इन
जैसे गुरु खोजना मुश्किल है--या चरनदास, फरीद, कबीर...। सहजो, मीरा, दया,
राबिया, थैरेसा--इन जैसी शिष्याएं खोजना
मुश्किल है।
मुझसे लोग उनके बार पूछते हैं कि दुनिया में
इतने सदगुरु हुए,
लेकिन स्त्रियों में कोई ऐसा सदगुरु नहीं हुआ--ऐसा ख्यातिलब्ध! इतना
पुरुषों ने धर्म स्थापित किए, स्त्रियों ने कोई धर्म स्थापित
नहीं किया! इतने शास्त्र हैं--कुरान, बाइबिल, गीता--सब पुरुषों के उच्चारण हैं, किसी स्त्री ने
उच्चारण न किया। प्रश्न संगत है। आश्चर्य होता है, क्यों ऐसा
हुआ! लेकिन हुआ है, तो पीछे कोई गहरा कारण है। पुरुष गुरु हो
सकता है आसानी से, शिष्य होना उसे कठिन है--क्योंकि शिष्य
होने के लिए झुकना पड़ता है। झुकना उसे कठिन है। बड़ी मुश्किल है उसे झुकने में। वह
ध्यान कर सकता है, प्रार्थना करना मुश्किल है। ध्यान
करते-करते, ध्यान करते-करते वह अहंकार को झुकाता नहीं है,
अहंकार को मिटा डालता है। इस फर्क को समझ लेना। अहंकार को झुकाना
पुरुष के लिए कठिन है, मिटाना कठिन नहीं है--वह कहता है,
मिटा डालेंगे। इसलिए पुरुष कहता है, मिट
जाएंगे पर झुकेंगे नहीं, टूट जाएंगे पर झुकेंगे नहीं। अहंकार
को मिटा डालता है, ध्यान की आग को जलाकर अहंकार को जला देता
है, लेकिन किसी के चरणों में झुकाने नहीं जाता। न महावीर,
न बुद्ध। न मिटा डालते हैं, जला डालते हैं,
रक्त दग्ध कर देती हैं, निरहंकारी हो जाते
हैं।
तो निरहंकार के भी दो रूप हैं। एक तो है, अहंकार को
जला देना। वह निरंकार पैदा होता है बुद्ध, महावीर का
निरअहंकार--पुरुष की निरहंकारिता। और एक है, अहंकार को झुका
देना; तब सहजो, दया, मीरा, उनकी निरहंकारिता पैदा होती है। और ध्यान रखना,
पुरुष की निरहंकारिता शून्य होगी, स्त्री की
निरहंकारिता बड़ी भरी होगी। पुरुष की गागर खाली होगी जब वह निरहंकार होता है,
स्त्री की गागर पूरी भरी होगी जब वह निरहंकार होती है, क्योंकि उसने मिटाया तो कुछ नहीं है, अहंकार का भी
उपयोग कर लिया; अहंकार को भी झुकाया है, मिटाया नहीं है--उसका भी उपयोग कर लिया, उसको भी
साधन बना लिया।
स्त्री झुकने में कुशल है, इसलिए
स्त्रियों में परम भक्त हुए, परम शिष्य हुए, शिष्यत्व की जो आखिरी ऊंचाई है वह स्त्रियों ने पायी। लेकिन गुरुत्व की
आखिरी ऊंचाई उन्हें संभव नहीं है। इसलिए तुम समझने की कोशिश करो, महावीर के चालीस हजार संन्यासी थे, उसमें तीस हजार
स्त्रियां थीं। और यही अनुपात सदा से रहा है। मेरे पास भी चार व्यक्ति आते हैं,
तो तीन स्त्रियां और एक पुरुष। यही अनुपात सदा से रहा है। जब मेरे
पास स्त्रियां आती हैं, तो मैं पाता हूं, तत्क्षण उनके और मेरे बीच कोई ताल बैठ जाता है--तत्क्षण। पुरुष और मेरे
बीच ताल बैठने में थोड़ा समय लगता है, थोड़ी देर होती है,
थोड़ी खींच-घसीट होती है। थोड़ा वह चेष्टा करता है न झुके, थोड़ी अकड़ रखता है, हृदय को खोलता नहीं--बचाने की
कोशिश करता है।
मेरे पास पुरुष आते हैं, अगर उनको
अपना भी प्रश्न कहना हो तो वे कहते हैं, मेरे एक मित्र हैं,
उनके चित्र में बड़ा तनाव रहता है, रात नींद
आती; कोई उपाय है? मैं उनसे कहता हूं,
तुम अपने मित्र को ही भेज देते और वे पूछ लेते, कि मेरे एक मित्र हैं जिनको बड़ा तनाव रहता है, चित्र
में बेचैनी रहती है, रात नींद नहीं आती, तो कहीं ज्यादा सच होता। पुरुष अपनी बीमारी भी कहने में डरता है, क्योंकि झुकने में--यह कहना कि मुझे नींद आती, आप से
कुछ सीखने आया हूं--अड़चन होती है।
स्त्रियां आती हैं, इतना भी
नहीं कहीं कि अड़चन है, बेचैनी है; उनकी
आंख से आंसू झरने लगते हैं, उनका सारा शरीर कंपने लगता
है--कहने की भी जरूरत नहीं होती; बेचैनी है, वह प्रकट हो जाती है।
मोहम्मद पर कुरान अवतरित हुई, वह पहाड़
पर, एकांत में थे। उनको आवाज सुनायी पड़ी आवाज थी: पढ़। तो वे
घबड़ा गए उन्होंने कहा, मैं पढ़ना नहीं जानता। फिर आवाज आयी:
तू फिकर मत कर, तू पढ़। उन्होंने कहा, आप
भी कैसी बात कर रहे हैं, और आप कौन हैं, मुझे डराए मत! और मुझे पढ़ना आता ही नहीं। फिर आवाज आयी कि जब मैं कहता हूं
तो आ जाएगा, तू पढ़।
कुरान शब्द का अर्थ होता है: पढ़ना। तो
मोहम्मद ने पढ़ा;
आंख बंद की और पढ़ना शुरू किया; कोई अदृश्य
किताब आंखों के सामने थी, वे दोहराने लगे। यही कुरान की पहली
आयतें उतरीं । वे इतना घबरा गए कि यह क्या हो रहा है उन्हें भरोसा न आया; उन्हें अपने पर भरोसा न आया। उन्हें अपने पर भरोसा न आया, जो घटी उस पर भरोसा न आया। कोई परमात्मा है, कोई उघाड़ रहा है जीवन के सत्य, इस पर भरोसा न आया। वह भागे हुए घर आए, उन्हें बुखार
आ गया। वे दुलाई में दबकर पड़ रहे। उनकी पत्नी ने--आयशा ने--पूछा कि क्या हुआ है,
तो उन्होंने सारी घटना बतायी। वह पत्नी उनकी पहली शिष्य बनी,
वह फौरन उनके चरणों में झुक गयी। उसने कहा कि इसमें अविश्वास का
सवाल नहीं। यह तो महान घटना घटी, तुम घबराओ मत! उसकी श्रद्धा
ने मोहम्मद में श्रद्धा लायी। उसने पैर छू लिए, वह उसी क्षण
शिष्य हो गयी।
मोहम्मद की पहली शिष्य स्त्री थी, पुरुष
नहीं; और मोहम्मद को खुद भी भरोसा नहीं आया था, एक स्त्री ने भरोसा किया, उसके सहारे उनको भरोसा आया,
हिम्मत बढ़ी। उनकी स्त्री ने उन्हें धीरे-धीरे राजी किया तुम डरो मत,
लोगों से कहो--जो हुआ है वह अपूर्व है--उसे छिपाकर नहीं रखना है:
परमात्मा ने तुम्हें पैगंबर की तरह चुना है। पहली मुसलमान उनकी पत्नी थी, मोहम्मद पहले मुसलमान नहीं हैं।
यही जीसस के साथ हुआ। जब जीसस को सूली लगी, सब पुरुष
भाग गए--क्योंकि मौत के क्षण में तो केवल प्रेम ही साथ रह सकता है, ज्ञान भी छिटक जाता है। मौत जब सामने आती है, तो
जिनका लगाव हृदय का था वही रुक सकते हैं; जिनका लगाव
मस्तिष्क का था वे कहेंगे, अब क्या मतलब रहा! भागो अपनी जान
बचाओ! अपने ही हित के लिए जीसस के साथ थे, जब अपनी ही मौत
आने लगी तो अब साथ रहने का क्या अर्थ है? पुरुष तो सब भाग गए,
स्त्रियां बचीं।
तुमने अगर जीसस को सूली से उतारते हुए चित्र
देखें हों, तो तीन स्त्रियां सूली से उतार रही हैं, पुरुष कोई
भी नहीं है। उनमें एक वेश्या थी--मेरी मेग्दलीन। पंडित भाग गए, वेश्या न भागी। इसलिए तो मैं कहता हूं, कभी-कभी पापी
भी पहुंच जाते हैं, और पंडित नहीं पहुंच पाते। पंडितों के
पास तो कुछ खोने को भी था, वेश्या के पास कुछ भी खोने को न
था--वह डरे भी क्या?
फिर, तो दिन बाद जब जीसस का अवतरण
हुआ--पुनरुज्जीवन हुआ--वे फिर से जागे, और कब्र खाली पायी
गयी, तो पुरुषों ने सोचा--जीसस के शिष्यों ने--कि कोई जंगली
जानवर लाश को ले गया। लेकिन, मेरी मेग्दलीन ने सोचा कि जीसस
ने कहा था कि तीन दिन बाद मैं फिर वापस आऊंगा, वे जरूर लौट
आए--वह अंधेरी रातों में उन्हें खोजने लगी। वह जंगल पहाड़ों में खोजने लगी। वह पहली
थी, जिसे जिसस दिखायी पड़े। शिष्यत्व हो तो ही गुरु दिखायी
पड़ता है। उसका नया रूप, मृत्यु के पार अमृत-रूप, उसका पुनरुज्जीवन दिखायी पड़ता है।
जीसस को देखकर वह आनंद विह्यल गांव में भागी
आयी। उसने जीसस के शिष्यों को जाकर कहा; वे सब बैठे हिसाब लगा रहे थे कि अब
कैसे प्रचार करना, अब जीसस की वाणी को कैसे संग्रहीत करना,
लोगों तक कैसे खबर पहुंचानी, मठ-मंदिर कैसे
बनाने; वे सब हिसाब-किताब में लगे थे। जीसस तो गए अब
जिम्मेवारी उन पर पड़ गयी था। वे दुकान को फैलाने की सोच रहे थे। चर्च बनाना...। इस
स्त्री ने आकर, भागकर कहा कि तुम क्या कर रहे हो बैठे यहां?
जीसस पुनरुज्जीवित हुए हैं। मैंने अपनी इन आंखों से उन्हें देखा है,
मैंने अपने इन हाथों से उन्हें छुआ है, मैं
भूल ही नहीं सकती। तुम पाओगे, मेरे पीछे! उन्होंने कहा,
पागल औरत! पागलपन अपना अपने पास रख। हमारे पास समय खाने का नहीं है।
जो मर गया वह मर गया। अगर चमत्कार होना था तो उसी दिन हो जाता, कुछ नहीं हुआ; वह बात समाप्त हो गयी, जीसस अब नहीं हैं। अब तो हमें पीछे क्या करना है उसका हिसाब करने दो,
व्यर्थ की बातों में मत पड़ो।
किसी ने उसकी सुनी नहीं, और कहानी
बड़ी अदभुत है। जीसस यह देखकर कि कोई मानने को भी राजी नहीं, खुद
उनकी तलाश में निकले। दो शिष्य एक रास्ते पर मिल गए, वे उनके
साथ हो लिए। उन्होंने उनसे पूछा कि कहां जा रहे हो? उन्होंने
कहा कि हम पास के गांव में जा रहे हैं, हम जीसस के भक्त हैं;
उनकी मृत्यु हो गयी--सूली दे दी गयी--हम उनके प्रचार करने जा रहे
हैं।और जीसस साथ हैं...और उनमें से कोई उन्हें पहचान नहीं पा रहा है...। और जीसस
ने कहा, पूरी कहानी सुनाओ, क्या हुआ?
तो उन्होंने पूरी कहानी सुनायी। लेकिन फिर भी, इतने देर साथ रहने के बाद वे उन्हें पहचाने नहीं।
वे गांव में पहुंच गए। दोनों मित्र भोजन
करने एक भोजनालय में गए,
तो उन्होंने जीसस को भी बुलाया। जीसस उनके साथ बैठे; और जब उन्होंने रोटी तोड़ी, जैसा कि जीसस की सदा से
आदत थी--कि वे रोटी तोड़ते और अपने मित्रों को बांटते--जब उन्होंने रोटी तोड़ी और
उनको बांटी, तब उनको थोड़ा सा शक हुआ कि इस आदमी का ढंग तो
ऐसा मालूम पड़ता है जैसे जीसस रोटी तोड़ते थे और बांटते थे। फिर भी उन्हें भरोसा न
आया; उन्होंने अपने मन के भाव को भीतर छिपा लिया। और जीसस ने
कहा, नासमझो! तुम्हारे भीतर श्रद्धा भी पैदा होती है तो तुम
उसे दबा देते हो, तुम्हारे भीतर भाव भी पहचान का उठता है तो
तुम भरोसा नहीं करते। तुम से तो मेरी मेग्दलीन अच्छी! उसने देखा और भरोसा कर लिया।
देखने में और भरोसा करने में क्षण भर की देर न हुई--युगपत हो गया। दर्शन श्रद्धा
हो गयी।
जैन शास्त्र श्रद्धा शब्द का उपयोग नहीं
करते। श्रद्धा की जगह से सम्यक दर्शन शब्द का उपयोग करते हैं। ठीक करते हैं।
क्योंकि दर्शन होते ही जो श्रद्धा न हो जाए, वह भी क्या कोई श्रद्धा है! देखा
और हो जाए, तो ही श्रद्धा है। देखा, फिर
संदेह उठे, प्रमाण खोजे पाए, तब हो तब
तर्कनिष्ठ निष्कर्ष है--श्रद्धा नहीं। देखने के बाद विचार करना सुलभ फिर श्रद्धा
हो, पुरुष में ऐसा ही होता है, क्योंकि
उसका संबंध बुद्धि से है। स्त्री देखती है, हृदय में एक
ऊर्मि उठती है, एक लहर दौड़ती है--वह लहर काफी भरोसा है,
वह लहर स्वतः प्रमाण है।
चरनदास पर तन मन वारूं। और कोई परमात्मा
नहीं है अब सहजो को। यह गुरु मिल गया इस पर सब लुटा दूं। गुरु न तजूं हरि को तज
डारूं--परमात्मा को छोड़ भी सकती हूं, गुरु के नहीं छोड़ सकती हूं।
स्त्रियां परम भक्त, परम शिष्य हो पायी, वह उनके लिए सहज है। इससे तुम यह मत समझना कि पुरुष में कुछ विशेषता है,
इसलिए गुरु हो पाया। शिष्य होना भी उतनी ही महान है जितना गुरु
होना। पूर्ण रूप से शिष्य हो जाना उसी ऊंचाई पर पहुंच जाना है जिस पर पूर्ण गुरु
होकर कोई पहुंचता है। गुरु वे व्यक्ति बन पाते हैं जिन्होंने ध्यान से उपलब्धि की
है। भक्त, शिष्य वे व्यक्ति बन पाते हैं जो प्रेम के मार्ग
से चले हैं। गुरु का मतलब है जो दूसरे को रास्ता बता सके, दूसरे
को रास्ता सिखा सके।
इसे थोड़ा समझ लो।
प्रेम तो सिखाया नहीं जा सकता किसी को, ध्यान
सिखाया जा सकता है। जिसने ध्यान से पाया है वह सिखा सकता है कि यह रास्ता है।
ऐसे-ऐसे काटो, ऐसे-ऐसे, धीरे-धीरे
अहंकार गिर जाएगा--तुम मुक्त हो जाओगे। ध्यान का तो शास्त्र बन सकता है, ध्यान विधि है। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं बन सकता, प्रेम
कोई विधि थोड़े हैं? प्रेम तो हो जाए तो हो जाए, न हो तो न हो। किए से क्या होगा?
इसलिए अगर तुम्हारे भीतर प्रेम की उठती हो
किरण, तो दबाना मत। फिर ध्यान की कोई जरूरत नहीं है, प्रेम
ही सब संभाल लेगा। अगर न उठती हो प्रेम की किरण और एक रूखे मरुस्थल हो, जहां प्रेम का कोई बीज नहीं टूटता, कोई अंकुर नहीं
आता, तो फिर तुम ध्यान संभालना--फिर ध्यान के अतिरिक्त
तुम्हारा कोई छुटकारा नहीं है।
ध्यान से जो गए हैं वे तो गुरु बन सकते हैं, प्रेम से
जो गए हैं उन्होंने शिष्यत्व में ही सब कुछ पा लिया। और प्रेम से जो गए हैं,
वे दूसरे को सिखा नहीं सकते, सिखाने का मामला
नहीं है, सिखाने की बात नहीं है। प्रेम कोई कला समभाव ही है!
प्रेम तो जीवन का अंतरतम भाव है। साहसी पहुंच जाते हैं क्षण में सीखने का सवाल
नहीं है, डूबने का सवाल है। जैसे कि नदी में कोई तैरता हो तो
तैरना सिखाया जा सकता है; तुम किसी के डूबना सिखा सकते हो?
डूबना सिखाने की क्या जरूरत है? जिसको डूबना
है वह डूब सकता है, अभी तुम यह थोड़े ही कहोगे कि साल भर
डुबना सीखेंगे, तब डूबेंगे। अगर साल भर डूबना सीखा, तो फिर कभी डूबोगे ही नहीं। क्योंकि डूबना सीखने में तो तुम तैरना सीख
जाओगे! डूबना तो अभी हो सकता है। हां, तैरना साल भर सीखने
में होगा।
ध्यान तैरने जैसा है--सीखना पड़ेगा, प्रेम
डुबने जैसा है।
अहंकार को मिटाना है--समय लगेगा, अहंकार को
झुकाना है--अभी झुका सकते हो। अहंकार मौजूद है, सिर्फ झुकाने
की बात है। स्त्रैण चित्त सरलता से झुक जाता है। स्त्रियां ऐसे हैं जैसे वृक्षों
पर चढ़ी हुई लताएं, झुकाव आसान है। वृक्ष को झुकना मुश्किल है,
लता को झुकने में क्या लाता है।
इसलिए सहजोबाई का पहला सूत्र ठीक से समझ लो।
वह सूत्र है: प्रेम का। और यह मत सोचना--नहीं तो गलती हो जाएगी--कि वह ईश्वर के
विपरीत बोल रही है। भूल हो जाएगी। वह बड़े प्रेम से बात कर रही है। वह यह कह रही है, तुमने
दिया भी क्या है? अब तुम नाहक बड़े सिंहासन पर विराजमान होने
की कोशिश मत करो। यह बड़े प्रेम का उलाहना है। अब तुम थोड़े नीचे ही बैठो गुरु से।
यह बड़े प्रेम की वार्ता है।
कबीर के मन में तो थोड़ा सा डर भी होगा कि
ऐसी बात कहें या न कहें। लेकिन प्रेम कहीं डरता है? इसलिए हिम्मत से सहजो कहती
है: राम तजूं पै गुरु बिसारूं, गुरु को सम हरि को न निहारूं।
तुम यह मत सोचना कि यह कोई नास्तिक है। उस जैसा परम आस्तिक खोजना मुश्किल है। यह
तो आस्तिक ही कह सकता है, नास्तिक क्या खाक कहेगा! उसकी इतनी
हिम्मत कहां होगी। यह तो वही कह सकता है जो जानता है हृदय की गहराई में कि गुरु
में उसने परमात्मा को पा ही लिया है; जो जानता है कि
परमात्मा उपलब्ध ही हो गया है, वह ऐसी मीठी वार्ता कर सकता
है, उलाहरने की।
यह तो भक्त का और भगवान का रूठने का खेल है।
वह यह कह रही है कि छोड़ो भी, ज्यादा मत अकड़ो! तुमने कुछ दिया नहीं ऐसा!
संसार दिन, बंधन दिए, वासनाएं दी;
अनाथ कर दिया, अंधेरे में फेंक दिया--गुरु ने
उठाया है। अब मुझसे यह न होगा कि तुमको ऊपर बैठा लूं, तुम
नीचे ही बैठो। और, मैं मानता हूं कि अगर परमात्मा सहजो के
सामने उपस्थित होगा, तो वह सहजो का आदर करेगा--गुरु से थोड़ा
नीचे बैठेगा। इसलिए नहीं कि वह नीचा है। इसलिए कि वह जानता है, उसके नीचे होने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए नहीं कि वह नाराज होगा,
बल्कि वह जानता है कि बड़े प्रेम से कही गयी बात है--एक झिड़की है,
प्रेम का उलाहना है--और सहजो उसे नीचे बिठालने को नहीं कह रही है।
सहजो उसे कैसे नीचे बिठालेगी, थोड़ा सोचो! जो अपने गुरु को
परमात्मा से नीचे नहीं बिठाल सकती, वह परमात्मा को गुरु से
नीचे बिठाल सकेगी? असंभव। पर प्रेमियों की बात को तुम तर्क
से मत तौलना। प्रेमी कहते कुछ हैं, कहना कुछ और चाहते हैं।
प्रेमी कहते कुछ और हैं, कह कुछ और देते हैं--प्रेमियों का
वार्तालाप बड़ा परोक्ष है।
सहजो को अगर संक्षिप्त में हम कर लें, तो वह यह
कह रही है कि तुम मेरे गुरु में विराजमान ही हो गयी हो, अब
और गुरु से अतिरिक्त और पृथक तुम्हें देखने का कोई उपाय नहीं है। या तो गुरु
परमात्मा हो गया है, या परमात्मा गुरु हो गया है।
आज इतना ही
ऊ
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