तीसरा प्रवचन--बड़ी संवेदनशील है भक्ति
दिनांक १३ जनवरी, १९७६; श्री
रजनीश आश्रम पूना
सूत्र
सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात्।।
निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः।।
तस्मिन्नन्यता तद्धिरोधिषूदासीनता च।।
अन्याश्रयाणां त्यागो५नन्यता।।
लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्धिरोधिषूदासीनता।।
भवतु निश्चयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम्।।
अन्यथा पातित्याशङ्कया।।
लोको५पि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीधारणावधि।।
जीवन
की व्यर्थता जब तक प्रगाढ़ अनुभव न बन जाए तब तक परमात्मा की खोज शुरू नहीं होती।
जीवन की व्यर्थता का बोध ही उसकी तरफ पहला कदम है। जब तक ऐसी भ्रांति बनी है कि
यहां कुछ खोज लेंगे,
पा लेंगे, यहां कुछ मिल जायेगा सपनों की
दुनिया में--तब तक परमात्मा भी एक सपना ही है; तब तक तुम उसे
खोजने नहीं निकलते; तब तक तुम स्वयं को दांव पर भी नहीं
लगाते।
परमात्मा
मुफ्त मिलनेवाला नहीं है। जो भी तुम हो, तुम्हारी परिपूर्ण सत्ता जब तक
दांव पर न लग जाए, तब तक परमात्मा से कोई मिलन नहीं। क्योंकि
प्रेम इससे कम पर नहीं मिल सकता। और प्रार्थना इससे कम पर शुरू नहीं होती। यह काम
जुआरियों का है, दुकानदारों का नहीं। यहां पूरी खोने की
हिम्मत चाहिए। दीवानगी चाहिए! मस्ती चाहिए!
लेकिन
यह तभी संभव हो पाता है जब जो तुम्हारे पास है, वह व्यर्थ दिखायी पड़ता है; वह कूड़ा-करकट हो जाता है, तब तुम उसे पकड़ते नहीं।
करोड़ों
लोग परमात्मा के शब्द का उच्चार करते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं; लेकिन उसकी कोई झलक नहीं मिलती। क्या
पूजा व्यर्थ है? नहीं, करनेवालों ने की
ही नहीं। क्या प्रार्थना शून्य आकाश में खो जाती है, कोई प्रत्युत्तर नहीं आता?
प्रार्थना थी ही नहीं; अन्यथा प्रत्युत्तर
तत्क्षण आता है। इधर तुमने पुकारा भी नहीं कि उधर प्रत्युत्तर मिला नहीं! पर तुमने
पुकारा ही नहीं। तुम सोचते हो कि तुमने पुकारा, तुम सोचते हो
कि तुमने प्रार्थना की; लेकिन कभी तुमने हृदय को दांव पर
लगाया नहीं।
आधे-आधे
मन से न होगा।: पूरे-पूरे की मांग है।
तो, जब तक
तुम्हें लगता है कि संसार में अभी कुछ मिल सकता है, रस कायम
है, जब तक तुम जागे नहीं, सपने में
थोड़े उलझे हो, जब तक तुम्हें सपने में भरोसा है कि यह सच
है--तब तक परमात्मा की तरफ आशाओं का प्रवाह, आकांक्षाओं का
प्रवाह शुरू नहीं होता; तब तक प्रार्थना तुम्हारी अभीप्सा
नहीं होती, तुम्हारे हृदय की भाव-दशा नहीं होती; तब तुम्हारी प्रार्थना भी तुम्हारी चालाकी, तुम्हारे
गणित, तुम्हारी होशियारी का हिसाब होती है। तुम सोचते हो:
"चलो, हो-न-हो कहीं परमात्मा हो ही न, प्रार्थना भी कर लो, पूजा भी कर लो, बिगड़ता क्या है! हानि क्या है! अगर लाभ हुआ तो हो जाएगा, न हुआ तो हानि तो कुछ भी नहीं।'
मैंने
सुना है, एक नाटकगृह में ऐसा हुआ कि मध्य नाटक में, जो नाटक
का प्रधान पात्र था, उसे हृदय का दौरा पड़ गया। संयोजक परदे
के बाहर आया, उसने क्षमा मांगी कि क्षमा करें, दुख की बात है, हृदय के दौरे के कारण प्रमुख नायक की
मृत्यु हो गयी है और नाटक आगे न हो सकेगा। हम क्षमा-प्रार्थी हैं, लेकिन हमारे कोई हाथ की बात भी नहीं।
लोग
नाटक में बड़े उलझे थे। अभी तो जिज्ञासा जगी थी, और यह तो बीच में सब टूट गया--जैसे
नींद टूट गई!
एक
स्त्री ने खड़े होकर कहा कि छाती के ऊपर मालिश करो, अभिनेता की।
मैनेजर
ने कहा,
"देवी जी, वह मर चुका है। अब मालिश से
क्या लाभ होगा?'
उस
स्त्री ने कहा,
"लाभ न हो, हानि क्या होगी?'
बस
तुम्हारी प्रार्थना ऐसी ही है कि अगर लाभ न हुआ, कोई हर्जा नहीं,
"हानि क्या होगी!' सभी नास्तिक आस्तिक
होने लगते हैं, क्योंकि जैसे-जैसे मौत करीब आती है और पैर
लड़खड़ाते हैं और अंधेरा घना होने लगता है और आकाश के तारे छुपने लगते हैं, सब आशाओं के दिये बुझने लगते हैं और लगता है कि अब सिर्फ कब्र के अतिरिक्त
और कोई जगह न रही, तो नास्तिक भी परमात्मा का स्मरण करने
लगता है: कौन जाने, शायद हो!
लेकिन
"शायद' से प्रार्थना नहीं बनती। "शायद' से समझदारी तो
समझ में आती है, प्रेम समझ में नहीं आता।
समझदारी
से कोई कभी समझदार नहीं हुआ। समझदारी के कारण ही तो तुम नासमझ बने हो। तुम्हारी
समझदारी ही महंगी पड़ रही है।
तो, परमात्मा
की तरफ अगर तुम होशियारी से जा रहे हो, बही-खाते का हिसाब
वहां भी फैला रहे हो, सोचते हो कि ठीक है, संसार को भी संभाल लें, परमात्मा को भी संभाल लें,
दोनों नावों पर सवार हो जाएं--तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। तुम
मुश्किल में पड़े हो, क्योंकि मैं देखता हूं, तुम दोनों नावों में आधे-आधे खड़े हो।
नाव
पर तो एक ही चढ़ा जाता है...एक ही नाव पर चढ़ा जाता है, अन्यथा
दुविधा पैदा हो जाती है। दो दिशाओं में चलोगे तो टूट जाओगे, खंड-खंड
हो जाओगे, बिखर जाओगे। और जब तुम ही खंड-खंड हो गये, बिखर गये, जब तुम्हारे भीतर ही एकतानता न रही,
तो प्रार्थना कौन करेगा, पूजा कौन करेगा?
भीड़ थोड़े ही पूजा करती है; भीतर की एकता से
पूजा उठती है; भीतर की अखंडता से सुगंध उठती है प्रार्थना
की।
तो
इस बात को पहले खयाल में ले लेना चाहिए तो ही भक्ति-सूत्र समझ में आ सकेंगे।
यह
जिंदगी अगर तुम्हें अभी भी रसपूर्ण मालूम पड़ती है तो थोड़ा और जी लो। आज नहीं कल, रस टूट
जायेगा।
जितना
आदमी सजग हो उतने जल्दी रस टूट जाता है। जितना आदमी बेहोश हो, उतनी देर
तक रस टिकता है। बेहोशी रस का सहारा है। जितनी तुम्हारे भीतर बुद्धिमानी
हो--होशियारी नहीं कह रहा हूं, चालाकी नहीं कह रहा हूं;
बुद्धिमत्ता हो--उतनी जल्दी तुम जीवन के रस से चुक जाओगे। और जब
जीवन का रस चुकता है तभी तुम्हारी रसधार जो जीवन में नियोजित थी, मुक्त होती है: अब संसार में जाने को कोई जगह न बची; अब वह रास्ता न रहा; अब चीजों की तरफ दौड़ने की बात न
रही; अब संग्रह को बड़ा करना है, मकान
बड़ा बनाना है धन इकट्ठा करना है, पद-प्रतिष्ठा पानी है--यह
सब व्यर्थ हुआ;अब तुम अपने घर की तरफ लौटते हो।
"घर बयाबां में बनाया नहीं हमने लेकिन
जिसको
घर समझे हुए थे वह बयाबां निकला।'
कोई
रेगिस्तान में घर नहीं बनाया था, लेकिन जिसको घर समझे हुए थे वही रेगिस्तान
निकला, वही वीरान निकला।
जिस
दिन तुम्हें अपना घर बयाबां मालूम पड़े, वीरान मालूम पड़े...वीरान है;
सिर्फ तुम अपने सपनों के कारण उसे सजाये हो। जरा चौंककर देखो: जिसे
तुम घर कह रहे हो, वह घर नहीं है, ज्यादा-से-ज्यादा
सराय है; आज टिके हो, कल विदा हो जाना
पड़ेगा। जो छिन ही जाना है, उसको अपना कहना किस मुंह से संभव
है? जहां से उखड़ ही जाना पड़ेगा, जहां
क्षण-भर को ठहरने का अवसर मिला है,, पड़ाव हो सकता है,
मंजिल नहीं है, और मंजिल के पहले घर कहां! घर
तो वहीं हो सकता है जहां पहुंचे तो पहुंचे, जिसके आगे जाने
को कुछ और न रहे।
परमात्मा
के अतिरिक्त कोई घर नहीं हो सकता।
मुझसे
लोग पूछते हैं,
"संन्यास की परिभाषा क्या?' तो मैं कहता
हूं, "दो तरह के घर बनानेवाले हैं, दो तरह के गृहस्थ हैं: एक जो संसार में घर बनाते हैं, उनको हम गृहस्थ कहते हैं; एक जो परमात्मा में घर
बनाते हैं, वे भी गृहस्थ हैं, उनको हम
संन्यासी कहते हैं--सिर्फ भेद करने को। घर अलग-अलग जगह बनाते हैं। एक हैं जो पानी
पर जीवन को लिखते हैं, लिख भी नहीं पाते और मिट जाता है;
और एक हैं जो जीवन की शाश्वतता पर लिखते हैं। एक हैं जो रेत पर घर
बनाते हैं, जिनकी बुनियाद ही डगमगा रही है; और एक है जो जीवन की शाश्वतता को आधार की तरह स्वीकार करते हैं।'
पहला
सूत्र है: "वह भक्ति कामना युक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोध-स्वरूपा है।'
संसार
यानी कामना।
संसार
का ठीक अर्थ समझ लो,
क्योंकि तुम्हें संसार का भी अर्थ गलत ही बताया गया है।
कोई
घर छोड़कर भाग जाता है तो वह कहता है, संसार छोड़ दिया। कोई पत्नी को
छोड़कर भाग जाता है तो वह कहता है, संसार छोड़ दिया। काश,
संसार इतना स्थूल होता! काश, तुम्हारी पत्नी
के छोड़ जाने से संसार छूट जाता! काश, बात इतनी सस्ती होती!
तो संन्यास बहुत बहुमूल्य नहीं होता।
संसार
न तो पत्नी में है,
न घर में है, न धन में है, न बाजार में है, न दुकान में है--संसार तुम्हारी
कामना में है। जब तक तुम मांगते हो कि मुझे कुछ चाहिए, जब तक
तुम सोचते हो कि मेरा संतोष, मेरा सुख, मुझे मिल जाए, उसमें है, तब तक
तुम संसार में हो।
जब
तक मांग है तब तक संसार है।
संसार
का अर्थ है: तुम्हारा हृदय एक भिक्षापात्र है, जिसको लिये तुम मांगते फिरते
हो--कभी इस द्वार, कभी उस द्वार। कितने ठुकराये जाते हो!
लेकिन फिर-फिर संभलकर मांगने लगते हो। क्योंकि एक ही तुम्हारे मन में धारणा है कि
और ज्यादा, और ज्यादा मिल जाए, तो शायद
सुख हो!
"और' की दौड़ संसार है।
तो
तुम मंदिर में भी बैठ जाओ और वहां भी अगर तुम मांग रहे हो तो तुम संसार में ही हो।
तुम हिमालय पर चले जाओ,
वहां भी आंख बंद करे अगर तुम मांग ही रहे हो, परमात्मा
से कह रहे हो, "और दे, स्वर्ग दे,
मोक्ष दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम
क्या मांगते हो। संसार का कोई संबंध इससे नहीं है कि तुम क्या मांगते हो; अन्यथा संसार छोड़ने का ढोंग भी हो जाता है और संसार छूटता भी नहीं।
संसार
तुम्हारे भीतर है,
बाहर नहीं। संसार तुम्हारी इस मांग में है कि "मैं जैसा हूं
वैसा काफी नहीं हूं, कुछ चाहिए जो मुझे पूरा करे; मैं अधूरा हूं, अतृप्त हूं, कुछ
मिल जाए जो मुझे पूरा करे, तृप्त करे, संतुष्ट
करे!'
स्वयं
को अधूरा मानने में और आशा रखने में कि कुछ मिलेगा जो पूरा कर देगा, बस वहां
संसार है।
मांग
छूटी: संसार छूटा! तब कोई घर छोड़ने की जरूरत नहीं है, न पत्नी
को छोड़ने की जरूरत, न पति को, न बच्चों
को--उनको कोई कसूर नहीं है!... घर में रहते तुम संसार से मुक्त हो जाते हो।...
पत्नी के पास बैठे तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। बच्चों को सजाते-संभालते तुम
संसार से मुक्त हो जाते हो। क्योंकि संसार से मुक्त होने को केवल इतना ही अर्थ है
कि अब तुम तृप्त हो, जैसे हो, जो हो;
तुम्हारे होने में अब कोई मांग नहीं है; तुम्हारे
होने में अब कोई आकांक्षा नहीं है; तुम्हारा होना कामनातुर
नहीं है; तुम अब कामनाओं का फैलाव नहीं हो, विस्तार नहीं हो--तुम बस हो: तृप्त, यही क्षण,
और जैसे तुम हो, पर्याप्त है, पर्याप्त से भी ज्यादा है।
तब
तुम्हारी प्रार्थना धन्यवाद बन जाती है, मांग नहीं। तब तुम मंदिर कुछ
मांगने नहीं जाते; तुम उसे धन्यवाद देने जाते हो कि
"तूने इतना दिया, अपेक्षा से ज्यादा दिया, जो कभी मांगा नहीं था वह दिया। तेरे देने का कोई अंत नहीं! हमारा पात्र ही
छोटा पड़ता जाता है और तू भरे जा रहा है!'
...तब भी तुम रोते हो जाकर मंदिर में, लेकिन तब तुम्हारे
आंसुओं का सौंदर्य और!
जब
तुम मांग से रोते हो,
तब तुम्हारे आंसू गंदे हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं। जब तुम अहोभाव से रोते हो, तुम्हारे
आंसुओं का मूल्य कोई मोती नहीं चुका सकते। तब तुम्हारा एक-एक आंसू बहुमूल्य है,
हीरा है। आंसू वही है, लेकिन अहोभाव से भरे
हुए हृदय से जब आता है, तो रूपांतरित हो जाता है।
तुम
जरा फर्क करके देखना। तुम दुख में भी रोये हो, पीड़ा में रोये हो, असंतोष में रोये हो, शिकायत में रोये हो; कभी अहोभाव में भी रोकर देखना; कभी आनंद में भी रोकर
देखना--और तुम पाओगे: तुम्हारे बदलते ही आंसुओं का ढंग भी बदल जाता है। तब आंसू
फूलों की तरह आते हैं। तब आंसुओं में एक सुगंध होती है जो इस लोक की नहीं है।
मीरा
भी रोती है, पर मीरा के आंसू भिखारी के आंसू नहीं है। चैतन्य भी रोते हैं, लेकिन चैतन्य के आंसू दीन-दरिद्र नहीं हैं, कुछ मांग
से नहीं निकल रहे हैं, किसी अभाव से पैदा नहीं हुए हैं--किसी
बड़ी गहन भाव-दशा से जन्मे हैं! गंगा का जल भी उतना पवित्र नहीं है।
"वह भक्ति कामना युक्त नहीं है, क्योंकि वह
निरोधस्वरूपा है।'
निरोधस्वरूपा!
साधारणतः
भक्ति-सूत्र पर व्याख्या करनेवालों ने निरोधस्वरूपा का अर्थ किया है कि जिन्होंने सब
त्याग दिया, छोड़ दिया। नहीं, मेरा वैसा अर्थ नहीं है। जरा सा
फर्क करता हूं, लेकिन फर्क बहुत बड़ा है। समझोगे तो उससे बड़ा
फर्क नहीं हो सकता।
निरोधस्वरूपा
का अर्थ यह नहीं है कि जिन्होंने छोड़ दिया--निरोधस्वरूपा का अर्थ है कि जिनसे छूट
गया। निरोध और त्याग का वही फर्क है। त्याग का अर्थ होता है: छोड़ा निरोध का अर्थ
होता है: छूटा,
व्यर्थ हुआ। जो चीज व्यर्थ हो जाती है उसे छोड़ना थोड़े ही पड़ता है,
छूट जाती है।
सुबह
तुम रोज घर का कूड़ा-करकट इकट्ठा करके बाहर फेंक आते हो तो तुम कोई जाकर अखबारों के
दफ्तर में खबर नहीं देते कि आज फिर त्याग कर दिया कूड़े-करकट का, ढेर-का-ढेर
त्याग कर दिया! तुम जाओगे तो लोग तुम्हें पागल समझेंगे। अगर कूड़ा-करकट है तो फिर
छोड़ा, इसकी बात ही क्यों उठाते हो?
तो
जो आदमी कहता है,
"मैंने त्याग किया, "वह आदमी अभी भी
निरोध को उपलब्ध नहीं हुआ। क्योंकि त्याग करने का अर्थ ही यह होता है कि अभी भी
सार्थकता शेष थी।
अगर
कोई कहता है कि मैंने बड़ा स्वर्ण छोड़ा बड़े महल छोड़े गौर से देखना: स्वर्ण अभी भी
स्वर्ण था, महल अभी भी महल थे। "छोड़ा'!
छोड़ना बड़ी चेष्टा से हुआ। चेष्टा का अर्थ ही यह होता है कि
रस अभी कायम था; फल पका न था, कच्चा था,
तोड़ना पड़ा।
पका
फल गिरता है;
कच्चा फल तोड़ना पड़ता है।
तो
त्यागी तो सभी कच्चे हैं। निरोध को उपलब्ध व्यक्ति पका हुआ व्यक्ति है। त्याग और
निरोध का यही फर्क है। नारद कह सकते थे, "त्यागस्वरूपा है', पर उन्होंने नहीं कहा। "निरोधस्वरूपा'! व्यर्थ
हो गयी जो चीज, वह गिर जाती है, उसका
निरोध हो जाता है।
सुबह
तुम जागते हो तो सपनों का त्याग थोड़े ही करते हो, कि जागकर तुम कहते हो,
"बस रात-भर के सपने छोड़ता हूं।' जागे कि
निरोध हुआ। जागते ही तुमने पाया कि सपने टूट गये; सपने
व्यर्थ हो गये; सपने सिद्ध हो गये कि सपने थे, बात समाप्त हुई; अब उनकी चर्चा क्या करनी है!
जो
त्याग का हिसाब रखते हैं,
समझना, भोगी ही हैं--शीर्षासन करते हुए,
उलटे खड़े हो गये हैं, भोगी ही हैं।
एक
संन्यासी को मैं जानता हूं जो भूलते ही नहीं...। कोई चालीस साल पहले उन्होंने छोड़ा
था संसार--छोड़ा था,
निरोध नहीं हुआ था--चालीस साल बीत गये, अभी भी
छूटा नहीं। छोड़ा हुआ कभी छूटता ही नहीं। वे अभी भी कहते रहते हैं कि मैंने लाखों
रुपये पर लात मार दी। मैंने उनसे एक दिन कहा कि लात लग नयी पायी; तुमने मारी होगी; चूक गयी! उन्होंने कहा, क्या मतलब?'
चालीस
साल हो गये...छूट गया,
छूट गया। इसकी चर्चा क्यों खींचते हो, इसे
रोज-रोज याद क्यों करते हो? रस कायम है। लाखों में अभी भी
मूल्य है। अभी भी तुम दूसरों को भूलते नहीं बताना कि मैंने लाखों पर लात मारी।
तुमने बैंक-बैलेंस कायम रखा है। गिनती जारी है। नहीं, यह
त्याग तो है, निरोध नहीं।'
त्याग
झूठा सिक्का है निरोध का। निरोध बड़ी अदभुत घटना है!
रामकृष्ण
के पास एक आदमी आया,
हजार सोने की अशर्फियां लाया था, दान करने,
उनको देने। उन्होंने कहा, "मुझे जरूरत
नहीं। तू एक काम कर, गंगा में फेंक आ।' वह गया, लेकिन घंटा-भर हो गया, लौटा नहीं, तो रामकृष्ण ने आदमी भेजे कि देखो,
क्या हुआ, कहीं दुख में डूब तो नहीं मरा! गये
तो वह एक अशर्फी को बजा-बजाकर फेंक रहा था, भीड़ इकट्ठी हो
गयी थी, लोग चमत्कृत हो रहे थे। तो उन्होंने आकर कहा कि वह
एक-एक अशर्फी गिन-गिनकर फेंक रहा है।
तो
रामकृष्ण गये और उससे कहा,"नासमझ! जब कोई इकट्ठा करता है तब तो गिनना समझ में आता है। लेकिन जब
फेंकना ही है तो क्या गिनकर फेंकना! नौ सौ निन्यानबे थीं कि हजार थीं, क्या फर्क पड़ता है! कोई हिसाब रखना है पीछे कि कितनी फेंकी, कि कितनी दान कीं? अगर हिसाब रखना है तो फेंक ही मत,
अपने घर ले जा। जब हिसाब ही नहीं छूटता है तो अशर्फियां छोड़ने से
कुछ भी न होगा। असली चीज हिसाब का छूटना है; असली चीज
अशर्फियां छोड़ने से कुछ भी न होगा। असली चीज हिसाब का छूटना है; असली चीज अशर्फियों का छूटना नहीं है।'
जीसस
ने कहा है: "तुम्हारा एक हाथ जो दान करे, दूसरे हाथ को पता न पड़े।'
सूफी
फकीर कहते हैं: "नेकी कर, कुएं में डाल। हिसाब मत रख। किया भूल, कुएं में डाल दे। बात खत्म हो गयी, जैसे कभी हुई ही
न थी।'
लेकिन
तुम जाओ अपने त्यागियों के पास, महात्माओं के पास, तुम
उनके पास पूरा हिसाब पाओगे। हिसाब ठीक भी नहीं पाओगे, बहुत
बढ़ा-चढ़ाया हुआ है। हजार छोड़े होंगे तो लाख हो गये हैं। अब पूछता कौन है? और त्याग की परीक्षा भी क्या है, कसौटी भी क्या है?
तुम्हारे पास लाख रुपये हैं तो तुम रुपये दिखा सकते हो; लेकिन जिसने लाख छोड़े हैं उसके पास प्रमाण क्या है कि उसने लाख छोड़े कि दस
लाख छोड़े? न केवल महात्याग ऐसा करते हैं, महात्माओं के शिष्य उसको बढ़ाते चले जाते हैं।
महावीर
ने महल छोड़ा,
धन-संपत्ति छोड़ी, जैनियों ने जो शास्त्र लिखे
हैं, उनमें इतना बढ़ा-चढ़ा कर लिखा है, वह
सरासर झूठ है। क्योंकि महावीर का साम्राज्य बड़ा छोटा-सा था कोई बड़ा नहीं था।
महावीर के समय भारत में दो हजार राज्य थे। कोई बहुत बड़ा नहीं था, एक छोटी डिस्ट्रिक्ट से ज्यादा नहीं, एक छोटे जिले
से ज्यादा नहीं था। इतने हाथी-घोड़े जितने जैनियों ने लिखे हैं, अगर होते तो आदमियों के रहने की जगह न रह जाती। लेकिन बढ़-चढ़ जाता है।
कुरुक्षेत्र
के मैदान में युद्ध हुआ। हिंदू उसकी जो कहानी बताते हैं, उसको अगर
सुनो तो ऐसा लगता है कि उस युद्ध के लिए पूरी पृथ्वी कम पड़ेगी। कुरुक्षेत्र का
छोटा-सा मैदान उसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेनाएं बन नहीं सकतीं; लड़ना तो दूर, अगर वे प्रेम भी करना चाहें, शांत खड़े होकर, तो भी संभव नहीं है। लड़ने के लिए
थोड़ी जगह चाहिए, स्थान चाहिए! लेकिन बढ़ता जाता है...।
बुद्ध
के भक्तों ने जो लिखा है वह सच नहीं है, क्योंकि बुद्ध की भी जगह बड़ी छोटी
थी, वह कोई बहुत बड़ा साम्राज्य नहीं था। लेकिन जिस तरह की
कहानियां हैं... और कहानियां बढ़ती चली गयी हैं।
क्यों? इन कहानियों
को बढ़ाने का कारण क्या है? कारण साफ है कि हम त्याग को भी धन
की मात्रा से ही समझ पाते हैं, और कोई उपाय नहीं है।
समझो, अगर
महावीर फकीर के घर पैदा होते और पास धन न होता, तो तुम कैसे
जानते कि उन्होंने त्याग किया? वे घर छोड़ देते, लेकिन त्यागी तो नहीं हो सकते थे। महात्यागी तुम कैसे कहते? था ही नहीं कुछ तो छोड़ा क्या?
तुम्हें
भीतर के रहस्य तो दिखायी नहीं पड़ते, बस बाहर की चीजें दिखायी पड़ती हैं।
तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि केवल धनी ही त्यागी हो सकते हैं। तब तो इसका अर्थ हुआ
कि त्यागी होने के पहले बहुत धनी हो जाना जरूरी है। तब तो इसका अर्थ हुआ कि
परमात्मा के जगत में भी अंततः धन का ही मूल्य है, उसी से
हिसाब लगेगा।
एक
फकीर ने सब छोड़ दिया,
उसके पास दो पैसे थे। महावीर ने भी सब छोड़ दिया, उनके पास करोड़ रुपये थे, परमात्मा के सामने हिसाब
में महावीर जीत जाएंगे, गरीब हार जाएगा। दो पैसे छोड़े!
इन्होंने करोड़ छोड़े!
नहीं, परमात्मा
के राज्य में तुमने क्या छोड़ा, इसका सवाल नहीं है; छोड़ा या नहीं छोड़ा, बस इसका ही सवाल है; छोड़ा या छूटा, इसका ही सवाल है।
निरोध
का अर्थ है: छूट जाता है।
जिन्होंने
संसार के सत्य को देखा,
उनके जीवन में निरोध आ जाता है। उस निरोध को नारद ने भक्ति का
स्वभाव कहा।
"वह भक्ति कामना युक्त नहीं है, और निरोधस्वरूपा है।'
उसका स्वरूप है निरोध।
जैसे
ही संसार से कामना हटती है,
वही कामना परमात्मा की दिशा में प्रार्थना बन जाती हैं, वही ऊर्जा है! कोई अलग ऊर्जा नहीं है। वे ही हाथ जो भिक्षापात्र बने थे,
प्रार्थना में जुड़ जाते हैं। वही हृदय जो धन-संपत्ति को मांगता
फिरता था, परम अहोभाव में झुक जाता है। वही जीवन-ऊर्जा जो
नीचे की तरफ भागती थी, खाई-खड्ड खोजती थी, आकाश की तरफ उठने लगती है।
"तेरी राह किसने बतायी न पूछ, दिले मुज्त्तरब राहबर
हो गया।'
तेरी
राह किसने बतायी, यह मत
पूछ--प्यासा दिल सदगुरु हो गया; व्याकुल हृदय मार्गदर्शक बन
गया!
"तेरी राह किसने बतायी न पूछ
दिले
मुज्त्तरब राहबर हो गया।'
जिस
दिन संसार से तुम्हारा रस टूटता है, व्याकुलता जगती है परमात्मा की।
वही मार्गदर्शक हो जाता है। वही तुम्हें ले चलता है। उसी के सहारे लोग पहुंचते है।
संसार
की मांग करता हुआ व्यक्ति उन हजार चीजों में चाहे तो परमात्मा की मांग का भी जोड़
ले सकता है, लेकिन वह फेहरिश्त में एक नाम होगा--लंबी फहेरिश्त में! और मेरे खयाल से
आखिरी होगा। अगर तुम्हारी फेहरिश्त में हजार नाम हैं तो वह एक हजार एक होगा।
मेरे
पास लोग आ जाते हैं और वे कहते हैं, "हम प्रार्थना करना चाहते हैं
समय कहां!' इन्हीं लोगों को मैं सिनेमा में बैठे देखता हूं।
इन्हीं लोगों को मैं क्लब-घर में ताश खेलते देखता हूं। इन्हीं लोगों को अखबार को
पढ़ते देखता हूं सुबह से उठकर। इन्हीं लोगों को व्यर्थ की गपशप में संलग्न देखता
हूं। ये ही लोग हजार तरह के उपद्रव में जुड़ जाते हैं, लड़ाई-झगड़ों
में जुड़ जाते हैं। हिंदू मुसलमानों को काटने लगते हैं, मुसलमान
हिंदुओं को काटने लगते हैं। ये ही लोग! लेकिन जब प्रार्थना का सवाल उठता है तो
कहते हैं, "समय कहां!'
वे
क्या कह रहे हैं?
वे यह कह रहे हैं कि और बड़ी चीजें हैं परमात्मा से, समय पहले उनको दें, फिर बच जाए तो परमात्मा को दें।
वे यह नहीं कह रहे हैं कि समय नहीं हैं; वे यह कह रहे हैं,
समय तो है--समय तो सभी के पास बराबर है--लेकिन और चीजें ज्यादा
जरूरी हैं। परमात्मा क्यू में बिलकुल अंतिम खड़ा है। पहले धन इकट्ठा कर लें,
मकान बना लें, इज्जत-प्रतिष्ठा संभाल लें,
फिर...। ऐसे परमात्मा प्रतीक्षा ही करता रहता है, फिर' कभी आता नहीं--आयोग ही नहीं, क्योंकि इस संसार की दौड़ कभी पूरी नहीं होती।
यहां
कुछ भी पूरा होनेवाला नहीं है। यहां तो जितना पीयो उतनी प्यास बढ़ती जाती है। यहां
तो जितना भोजन करो उतनी भूख बढ़ती जाती है। यहां तो जितनी तिजोड़ी भरती जाए, उतना ही
आदमी भीतर कृपण होता चला जाता है। दुनिया बड़ी अदभुत है! यहां गरीब के पास तो अमीर
का दिल मिल भी जाए, अमीर के पास बिलकुल गरीब का दिल होता है।
इन
हजार उपद्रवों में अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा को भी एक आकांक्षा बना लेंगे, तो संभव
नहीं है। परमात्मा तो अभीप्सा बने, तो ही तुम अधिकारी होते
हो। अभीप्सा का अर्थ होता है: सारी इच्छाएं उसी की इच्छा में परिणत हो जाएं,
सारे नदी-नाले उसी के सागर में गिर जाएं; उसके
अतिरिक्त कुछ भी न सूझे; उसके अतिरिक्त हृदय में कोई आवाज न
रहे; उसके अतिरिक्त श्वासों में कोई स्वर न बजे; उसका ही इकतारा बजने लगे!
फकीरों
के पास तुमने इकतारा देखा है। कभी सोचा न होगा, इकतारा प्रतीक है: परमात्मा के लिए
एक ही तार काफी है। सितार में और बहुत तार होते हैं, वीणा
में बहुत तार होते हैं और सारंगी में बहुत तार होते हैं--वे संसार के प्रतीक हैं;
इकतारा, परमात्मा का।
बस
इकतारा! एक ही अभीप्सा का स्वर बजने लगे, दूसरी कोई ध्वनि भी न रह जाए,
तो ही
"रग रग में नेशे इश्क है, ऐ चारागर मेरे!
यह
दर्द वह नहीं,
के कहीं हो, कहीं न हो।'
रगरग
में नेशे इश्क है,
ऐ चारागर मेरे!
यह
दर्द वह नहीं,
कि कहीं हो, कहीं न हो।'
जब
परमात्मा का दर्द तुम्हारे रग-रग में समा जाता है; जब तुम्हारा रोआं-रोआं उसी
को पुकारता है; सोते और जागते अहर्निश उसका ही स्मरण बना
रहता है; करो कुछ भी, याद उसकी ही;
जाओ कहीं, याद उसकी ही; बैठो
कि उठो कि सोओ, याद उसकी ही-- जब रग-रग में ऐसा समा जाता है,
तभी तुमने पात्रता पायी, तभी तुम अधिकारी हुए।
और
ध्यान रखना, आज नहीं कल, इस महाक्रांति में उतरना ही पड़ेगा। लाख
तुम कोशिश करो इस संसार को घर बना लेने की, सफलता मिलनेवाली
नहीं है। कोई कभी सफल नहीं हो पाया। सपने को सच कितना ही मानो, सपना एक दिन टूटता ही है। सपने का स्वभाव ही टूट जाना है। तुम उसे सच मान
कर थोड़ी-बहुत देर नींद ले सकते हो, लेकिन सदा के लिए यह नींद
नहीं हो सकती। सपने का स्वभाव ही शुरू होना, समाप्त होना है।
इस संसार को, तुम लाख कोशिश करो...हम सब कोशिश कर रहे
हैं...हम, हमारी सारी कोशिश यही है कि बुद्ध, नारद, मीरा इन सबको हम गलत सिद्ध कर दें।
हम
सबकी कोशिश क्या है?
हमारी कोशिश यही है कि हम सिद्ध कर देंगे कि, संसार
में सुख है; हम सिद्ध कर देंगे कि परमात्मा आवश्यक नहीं है;
हम सिद्ध कर देंगे कि जीवन परमात्मा के दिन पर्याप्त है; हम सिद्ध कर देंगे कि धन में है कुछ, कि यह सपना
नहीं है, माया नहीं है, सत्य है।
छोड़ो
इस मूढ़ता को,
कभी कोई कर नहीं पाया! लेकिन इस करने की कोशिश में लोग अपने जीवन को
गंवा देते हैं।
"हजार तरह तखय्युल ने करवटें बदली
कफस
कफस ही रहा, फिर भी आशियां न हुआ।'
नहीं, यह घर न
बन पाएगा। यह जगह कारागृह है, यह घर न बन पाएगी। यहां तुम
अजनबी हो। यहां तुम लाख उपाय करो, और कल्पनाएं कितनी ही
करवटें बदलें, हजार तरह से कल्पनाएं, सपने
को संजोएं, लेकिन यह जाल कल्पना का ही रहेगा।
कल्पना
तुम्हारी है;
सत्य परमात्मा का है। जब तक तुम सोचोगे-विचारोगे, तब तक तुम सपने में रहोगे। जब तुम सोच-विचार छोड़ोगे और जागोगे, तब तुम जानोगे, सत्य क्या है।
सत्य
मुक्तिदायी है। और जो मुक्त करे वही घर है। जहां स्वतंत्रता हो वही घर है।
कारागृह
में और घर में फर्क क्या है? दीवालें तो उन्हीं ईंटों की बनी हैं, दरवाजे उन्हीं लकड़ियों के बने हैं।
कारागृह
और घर में फर्क क्या है?
घर में तुम मुक्त हो; कारागृह में तुम मुक्त
नहीं हो--बस इतना ही फर्क है।
घर
स्वतंत्रता है;
कारागृह गुलामी है।
"हजार तरह तखय्युल ने करवटें बदलीं
कफस
कफस ही रहा, फिर भी आशियां न हुआ।'
कारागृह
में तुम बदलते रहो कल्पनाएं अपनी, सोचते रहो, जाले बुनते
रहो सपनों के, सजाते रहो भीतर से कारागृह को-- नहीं, घर न हो पाएगा।
जो
जितनी जल्दी जाग जाए इस संबंध में उतना ही सौभाग्यशाली है; जितनी देर
लगती है उतना ही समय व्यर्थ जाता है; जितनी देर लगती है उतनी
ही गलत आदतें मजबूत होती चली जाती है; जितनी देर लगती है
उतने ही बंधन और भी सख्त होते चले जाते हैं और तुम्हारी शक्ति क्षीण होती चली जाती
है उन्हें तोड़ने की। इसलिए बुढ़ापे की प्रतीक्षा मत करना। अगर समझ आए तो जब समझ आ
जाए, क्षण-भर भी स्थगित मत करना उस समझ को।
"लौकिक और वैदिक समस्त कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं।'
संस्कृत
का मूल बहुत अदभुत है! हिंदी में अनुवाद जो लोग करते हैं, उन्हें
त्याग और निरोध का कोई भेद साफ नहीं है।
संस्कृत
का मूल कहता है:
लोक, वेद,
व्यापार, इस सबका निरोध हो जाए, न्यास हो जाए, वही भक्ति है।
इसे
समझें हम।
इस
लोक और परलोक के व्यापार का निरोध हो जाए...।'
इस
लोक का व्यापार है: धन की दौड़ है, पद की दौड़ है। परलोक का भी व्यापार है: सुख,
आनंद, मोक्ष, वे भी
यात्रा ही हैं, वे भी दौड़ हैं। किसी तरह इस संसार से तुम
ऊबते हो, ऊब नहीं पाए कि तुम दूसरे संसार के सपने देखते शुरू
कर देते हो। इसी तरह सपने देखनेवालों ने स्वर्ग बनाये, स्वर्ग
में हजार कल्पनाओं को जगह दी, जो-जो यहां पूरा नहीं हो पाया
है, वह-वह वहां रख लिया है। और कभी-कभी तो कल्पनाएं बड़ी
मूढ़तापूर्ण मालूम होती हैं कि विचारों तो बड़ी हैरानी होती है।
मुसलमान
कहते हैं, उनके स्वर्ग में बहिश्त में, शराब के चश्मे बहा रहे
हैं। यहां पीने नहीं देते। यहां कहते हैं पाप और वहां चश्मे बहाते हैं। तुम सोच सकते
हो, बात बिलकुल सीधी है, यह चश्मों की
कल्पना किसने की होगी। यह उन्होंने की है जिनको यहां पीने में रस था और त्याग कर
दिया। यह सीधी-सी बात है, सीधा मनोविज्ञान है। यहां पीना
चाहते थे, लेकिन डर की वजह से पी न पाये। यहां पीना चाहते थे,
लेकिन धार्मिक शिक्षण की वजह से पी न पाये। यहां पीना चाहते थे
लेकिन हिम्मत न जुटा पाये, तो अब स्वर्ग में चश्मे बहा रहे
हैं। यहां चुल्लू-चुल्लू मिलती है, वहां डुबकी लगाएंगे।
"जाहिद के कस्रे-जुहूद की बुनियाद है यही
मस्जिद
बहुत करीब थी,
मैखाना दूर था।'
वह
जिनको तुम त्यागी समझते हो,
उनके त्याग में अधिकतर तो कारण यही है कि मस्जिद करीब थी और मधुशाला
दूर थी...इतना ही। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म का शिक्षण देनेवाले लोग तो पास थे,
शराब का विज्ञापन करनेवाले लोग दूर थे। मां-बाप, समाज, परिवार, मंदिर-मस्जिद,
स्कूल-विद्यालय, वे सब शराब के खिलाफ हैं,
वे सब मस्जिद और मंदिर के पक्ष में हैं। इसलिए बैठ तो गये मंदिर में,
बैठ तो गये मस्जिद में, लेकिन मन का राग,
मन की कामना, कोई शिक्षण से थोड़े ही मिटती है;
अनुभव से मिटती है। सोचते तो शराब की ही हैं; यहां
नहीं मिली, तो अब कल्पना में फैलाव करते हैं; स्वर्ग में मिलेगी!
हिंदुओं
का स्वर्ग है...।
और
बड़े मजे की बात है,
अगर तुम किसी भी जाति का स्वर्ग ठीक से पहचान लो तो तुम यह भी समझ
जाओगे: उस जाति ने किन-किन चीजों की वर्जना की है। उस जाति के शास्त्रों को पढ़ने
की जरूरत नहीं, उसका स्वर्ग समझ लो, फौरन
पता चल जाएगा कि इस जाति ने किन-किन चीजों को जबरदस्ती त्याग है।
...हिंदुओं के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है, जहां सभी
कामनाएं पूरी हो जाती हैं, बैठ जाओ उसके नीचे बस! ऐसा भी
नहीं कि कुछ समय का फासला पड़ता हो; समय लगता ही नहीं है।
तुमने यहां कामना की कि यहां पूरी हुई! तुमने कहा, "भोजन
आ जाए', थाल आ गये! बस तुम यहां कह भी नहीं पाये थे और थाल
मौजूद हो गये।
हिंदुओं
के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है--क्यों? क्योंकि हिंदुओं ने सभी इच्छाओं के
त्याग का आग्रह किया है। सभी इच्छाओं का त्याग! स्वभावतः: जो किसी तरह अपने को
समझा-बुझाकर त्यागी हो जाएगा, वह इसी आशा में जी रहा है कि
कभी तो मरेंगे, यह देह तो कोई ज्यादा दिन चलनेवाली नहीं है,
और कुछ साल बीत जाएं, फिर कल्पवृक्ष है! फिर
उसके नीचे बैठ जाएंगे!
तुमने
कभी देखा, दिन में कभी उपवास कर लो तो तुम रात-भर भोजन के सपने देखते हो! ब्रह्मचर्य
का व्रत ले लो तो सपने में स्त्रियां ही स्त्रियां दिखायी पड़ती हैं।
ये
सपने हैं: कल्पवृक्ष! शराब के चश्मे! ये इस बात की खबर दे रहे हैं कि तुमने
किस-किस चीज को जबरदस्ती छोड़ दिया है--अनुभव से नहीं, पक कर
नहीं। संस्कार, शिक्षण,दबाव...!
"मस्जिद बहुत करीब थी, मैखाना दूर था!' उतने दूर जाने की तुम हिम्मत न जुटा पाये। जाते तो प्रतिष्ठा दांव पर लगती
थी। तो तुमने एक तरकीब निकाली कि यहां मस्जिद में रहो, स्वर्ग
में मयखाने में रह लेंगे। ऐसे तुमने अपने को समझाया। ऐसे तुमने समझौता किया।
तुम्हारे
स्वर्ग तुम्हारी कल्पनाओं के जाल हैं, और तुम्हारे नरक...? स्वर्ग तुमने अपने लिए बनाये हैं और नरक दूसरों के लिए--वे भी बड़े
विचारणीय हैं।
हिंदुओं
का नरक है, तो भयंकर आग जल रही है, सतत अग्नि जलती है, बुझती नहीं। उसमें जलाये जा रहे हैं लोग। भारत गरमी से पीड़ित देश है। यहां
सूर्य तपता है। तो शीतलता स्वर्ग में...शीतल मंद बयार बहती है! सुबह ही बनी रहती
है स्वर्ग में, दोपहर नहीं आती। बस सुबह की ही ताजगी बनी
रहती है। फूल खिलते हैं, मुरझाते नहीं। और शीतल हवा कहती
रहती है। नरक में भयंकर लपटें हैं। वह गरम देश की धारणा है।
तिब्बती, वे नहीं
बनाते, वे नहीं कहते कि नरक में लपटें हैं। उनका स्वर्ग गरम
और ऊष्ण है, क्योंकि ठंडे मुल्क के लोग मरे जा रहे हैं ठंड
से; नरक में बर्फ-ही-बर्फ जमी है; उसमें
लोग गल रहे हैं बर्फ में!
न
तो कहीं कोई स्वर्ग है,
न कहीं कोई नरक है। स्वर्ग तुम बनाते हो अपने लिए। जो-जो कामनाएं
तुम पूरी करना चाहते थे और नहीं कर पाये, तो तुम स्वर्ग में
कर लेते हो। स्वर्ग हिंदुओं का बिलकुल एयरकंडीशंड है, वातानुकूलित
है। वहां कोई ताप नहीं लगती। पसीना नहीं आता स्वर्ग में--पसीना आता ही नहीं।
और
जो तुम छोड़ दिये हो,
अपने लिए कल्पना कर रहे हो, और दूसरों ने नहीं
छोड़ा... समझो कि तुम शराब पीना चाहते थे और नहीं पी पाये, तो
तुमने अपने लिए तो स्वर्ग में इंतजाम कर और जी रहे हैं, उनके
लिए क्या करोगे? उनको भी दंड तो मिलना ही चाहिए, क्योंकि तुमने त्याग किया, उन्होंने त्याग नहीं किया,
तो उनको नरक की लपटों में जलाया जाएगा। और वहां शराब तो दूर,
पानी भी पीने को न मिलेगा। आग की लपटें होंगी, कंठ आग से भरा होगा, और पानी नहीं मिलेगा! पानी की
बूंद नहीं मिलेगी!
इससे
पता चलता है तुम्हारे मन का, तुम्हारी खुद की परेशानी का, तुम्हारी हिंसा का, तुम्हारी वासना का। न किसी
स्वर्ग का इससे पता चलता है, न किसी नरक का इससे पता चलता
है।
भक्ति
तो उसे उपलब्ध होती है जिसको न इस संसार की कोई कामना रही न उस संसार की। जिसकी
कामना का व्यापार निरुद्ध हो गया; जिसने कहा, "अब हमें
कुछ मांगना ही नहीं है, न यहां न वहां', मां ही छोड़ दी--उसे सब मिल जाता है "यही'
"उस प्रियतम भगवान में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी
निरोध कहते हैं।'
बिलकुल
ठीक।"उस प्रियतम भगवान में अनन्यता'...! जैसे हम उसके साथ एक हो गये,
अनन्य! जरा भी भेद न रह जाए! रत्ती भर भी फासला न रह जाए! मैं और तू
का फासला न रह जाए!
"उस प्रियतम में अनन्यता अपने आप ही उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता बन
जाती है।'
"उदासीनता' शब्द को समझ लेना जरूरी है। उदासीनता
निरोध का मार्ग है।
जिसको
तुम त्यागी कहते हो,
वह उदासीन नहीं होता। जो आदमी शराब का त्याग करता है, वह शराब के प्रति उदासीन नहीं होता; शराब के प्रति
बड़े विरोध में होता है--उदासीन कैसे होगा? विरोध में होता
है।
उदासीन
का अर्थ है: हमें कोई प्रयोजन नहीं। विरोध का अर्थ है: शराब जहर है।
जो
आदमी कामवासना में उदासीन होता है, वह कामवासना के विरोध में नहीं
होता। अगर कोई दूसरा कामवासना में जा रहा है तो इससे उसके मन में निंदा पैदा नहीं
होती--"यह उसकी मर्जी है! यह उसकी समझ है! उसका समय न आया होगा, कभी आयेगा।' उस पर करुणा आ सकती है, क्रोध नहीं आता।
जो
आदमी धन में उदासीन है,
उसके मन में धन की कोई निंदा नहीं होती। वह धन का पाप नहीं कहता। वह
इतना ही कहता है कि धन की उपयोगिता है, लेकिन वह उपयोगिता
बड़ी क्षणिक है। वह इतना ही कहता है कि धन सब कुछ नहीं है। वह यह नहीं कहता कि धन
कुछ भी नहीं है। वह इतना ही कहता है, संसार में उपयोगी होगा;
लेकिन संसार सब कुछ नहीं है। वह धन के विरोध में नहीं है।
ऐसे
त्यागी हैं कि अगर उनके सामने तुम रुपये ले जाओ तो वे आंख बंद कर लेते हैं। अब वह
उदासीनता न हुई। ऐसे त्यागी हैं जो धन को हाथ से नहीं छूते। यह उदासीनता न हुई।
एक
आदमी मुझे मिलने आया--एक संन्यासी। कोई दो वर्ष हुए। तो मैंने उन्हें कहा कि ठीक
है, कभी एक शिविर में आ जाओ तो ध्यान करो। उन्होंने कहा कि यह जरा मुश्किल है।
उनके साथ एक आदमी और था। तो मैंने पूछा, "इसमें क्या
मुश्किल है?'
उन्होंने
कहा, "मैं पैसा नहीं छूता। तो टेन में सफर करो तो टिकट भी खरीदनी पड़ती है।'
तो
मैंने कहा,
"तुम यहां तक कैसे आये?'
तो
वे बोले,
"यह आदमी साथ है। पैसे यह रखता है; मैं
छूता भी नहीं। तो यही साथ आने को तैयार हो तो ही मैं शिविर में आ सकता हूं।
अब
यह तो पैसे से भी ज्यादा बड़ी गुलामी हो गयी। पैसा, और यह आदमी भी उलटा...।
इससे तो अकेले पैसे ही गुलामी भी ठीक थी, अब यह कम-से-कम
आदमी एक और उपद्रव है। और पैसे इन्हीं के हैं,, रखता वह है!
यह दोहरी गुलामी हुई!
उदासीनता
का अर्थ है: हो तो हो ठीक,
न हो तो ठीक। उदासीनता में को पक्षपात नहीं है। उदासीनता बड़ी अदभुत
बात है। वह वैराग्य का परम लक्षण है।
इसलिए
अगर तुम किसी वैरागी में पाओ उदासीनता की जगह विरोध, तो समझना कि चूक हो गयी।
अगर वह घबड़ाये तो समझना कि रस कायम है, जिस चीज से घबड़ाता है
उसी का रस कायम है। अगर धन छूने से डरे तो समझना कि धन का लोभ भीतर मौजूद है। अगर
स्त्री को देखने से डरे तो समझना कि कामवासना भीतर मौजूद है। क्योंकि हम उसी से
डरते हैं जिसमें गिरने की हमें संभावना मालूम होती है, शंका
मालूम होती है।
उदासीनता
का अर्थ है: कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऐसा
हुआ कि बुद्ध एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे, पूर्णिमा की रात थी, और पास के नगर से कुछ युवक, धनपतियों के लड़के,
एक वेश्या को लेकर जंगल में आ गये थे-- मौज-रंग करने! वे तो शराब
पीकर मस्त हो गये, वेश्या ने मौका देखा कि वे तो शराब पीकर
होश खो दिये हैं, वह भाग खड़ी हुई।
जब
सुबह होने के करीब आयी और उनको ठंड लगी और होश आया और देखा कि वह 'वेश्या तो
भाग गयी है, तो वे उसकी खोज में निकले। उसी रास्ते पर बुद्ध
ध्यान करते थे, उनके पास आये और उन्होंने कहा कि "यहां
से कोई स्त्री तो नहीं निकली?'
बुद्ध
ने कहा,
"कोई निकला जरूर, लेकिन स्त्री थी या
पुरुष, यह जरा कहना मुश्किल है--क्योंकि मेरा रस ही न रहा।
कोई निकला जरूर, लेकिन स्त्री थी या पुरुष, इसमें मेरा रस न रहा।'
यह
उदासीनता है।
बुद्ध
ने कहा कि जब तक मेरा रस था, तब तक गौर से देखता भी था: कौन कौन है! अब मेरा
कोई रस नहीं है।
जब
रस खो जाता है तो सिर्फ एक उदासीनता होती है, एक शांति तुम्हें घेर लेती है।
उसमें कोई पक्षपात नहीं होता।
उस
प्रियतम में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध कहते हैं।' "पीना-न-पीना
एक है जाहिद! खता मुआफ
नीयत
जब एतबार के काबिल नहीं रही।'
जब
तक नीयत पर एतबार न हो,
जब तक अपने भीतर की स्थिति पर भरोसा न हो तब तक तुम कसमें भी ले लो,
तो कुछ फर्क नहीं पड़ता; व्रत धारण कर लो,
कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि असली बात तो नीयत है। तुम पियो न पियो,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; घर में रहो कि बाहर
रहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; पूजा
करो कि न करो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--असली सवाल तुम्हारे
भीतर की नीयत का है। अगर नीयत साफ है तो तुम कहीं भी रहो, मंदिर
ही पाओगे। अगर नीयत साफ नहीं है, तो तुम मंदिर में रहो,
तुम वेश्यागृह में ही रहोगे। क्योंकि आदमी अपनी नीयत में रहता है,
अपने भीतर की मनोदशा में रहता है।
"उस प्रियतम में अनन्यता...।'
"कैसी तलब, कहां की तलब, किसलिए
तलब
हम
हैं तो वह नहीं है,
वह है तो हम नहीं।'
एक
ही बच सकता है प्रेम में,
दो नहीं। या तो परमात्मा बचेगा तो तुम न बचोगे, या तुम बचोगे तो परमात्मा न बचेगा।
"कैसी तलब, कहां की तलब, किसलिए
तलब
हम
हैं तो वह नहीं है,
वह है तो हम नहीं।'
अनन्यता
का अर्थ है: एक ही बचेगा।
प्रेम
गली अति सांकरी तामे दो न समाय'--उसमें दो नहीं समा सकते।
तो
भक्त धीरे-धीरे भगवान हो जाता है, भगवान धीरे-धीरे भक्त हो जाता है।
रामकृष्ण
पूजा करते हैं तो भोग लगाने के पहले खुद चख लेते हैं। मंदिर के ट्रस्टियों ने
बुलाया कि "यह तो पूजा न हुई। किस शास्त्र में लिखा है? भगवान को
भोग पहले लगाओ, फिर तो बचे, वह तुम
भोजन करो। लेकिन यह तो बात तो गलत हो रही है। यह उलटा हो रहा है। तुम भगवान को
झूठा भोग लगा रहे हो! तुम पहले चखते हो।'
रामकृष्ण
ने कहा,
"संभाल लो फिर अपनी नौकरी, मैं चला।
क्योंकि मेरी मां जब भी भोजन बनाती थी तो पहले खुद चखती थी, फिर
मुझे देती थी। जब मां का प्रेम इतनी फिक्र करता था तो यह प्रेम तो उससे भी बड़ा है।
मैं बिना चखे भोग नहीं लगा सकता भगवान को, पता नहीं लगाने
योग्य है भी या नहीं!'
ऐसी
अनन्यता, ऐसी निकटता, इतनी समीपता, कि
धीरे-धीरे सीमाएं खो जाएं! तो कभी ऐसा होता है कि रामकृष्ण दिन-भर नाचते रहते और
कभी ऐसा होता कि पखवाड़ा बीत जाता और मंदिर में न जाते। फिर बुलाये गये के यह क्या
मामला है, मंदिर खाली पड़ा रहता है, पूजा
नहीं होती। रामकृष्ण कहते, "जब होती है तब होती है,
जब नहीं होती तब नहीं होती। जब "वह' बुलाता
है और जब अनन्यता का भाव जगता है तभी...। जब दूरी रहती है, तब
क्या सार? जब मैं रहता हूं तब पूजा किसकी? जब वही बचता है तभी होती है। जब यह मेरे हाथ में नहीं है कि वही बचे। जब
होता है तब होता है। सहजस्फूर्त है!'
रामकृष्ण
जैसा पुजारी फिर किसी मंदिर को न मिलेगा। दक्षिणेश्वर के भगवान धन्यभागी हैं कि
रामकृष्ण जैसा पुजारी मिला।
अनन्य-भाव
का अर्थ है: "मैं'
और "तू' दो नहीं, एक
ही बचता है। वस्तुतः दोनों तरफ से प्रेमी-प्रेयसी या भक्त और भगवान, दोनों खोते हैं और दोनों के बीच में एक नये का आविर्भाव होता है: एक नये
ज्योतिर्मय चैतन्य का आविर्भाव होता है, जिसमें भक्त भी खो
गया होता है एक कोने से, दूसरे कोने से भगवान भी खो गया होता
है।
भक्त
और भगवान तो द्वैत की भाषा है; भक्ति तो अद्वैत है।
"उस प्रीतम में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध
कहते हैं।'
और
जिसने भी उसके साथ ऐसी एकतानता साध ली, वह संसार के प्रति उदासीन हो जाता
हैं; छोड़ना नहीं पड़ता संसार, त्यागना
नहीं पड़ता संसार, सब छूट जाता है, व्यर्थ
हो जाता है; सार्थकता ही नहीं रह जाती; छोड़ने को क्या बचता है।
"अपने प्रीतम को छोड़कर दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है।'
परमात्मा
तुम्हें ऐसा भर दे के तुम्हारे भीतर कोई रत्ती-भर जगह न बचे तो उससे भरी हुई नहीं
है, तुम लबालब उससे भर जाओ, तुम ऊपर से बहने लगो ऐसे भर
जाओ, कोई दूसरा आश्रय न बचे, किसी
दूसरे की तरफ कोई लगाव न रह जाए, सभी लगाव उस एक के प्रति ही
समर्पित हो जाएं...।
"देखता था मैं निगाहों से हर एक जा तुझको
देखता
था मैं निगाहों से हर एक जा तुझको
और
उन्हीं में तू निहां था,
मुझे मालूम न था।'
"आंखों से खोजता था तुझे सब जगह और यह मुझे पता नहीं था कि मेरी आंखों में
ही बैठा हुआ है! तू खोजनेवाले में ही छिपा है। तू मेरे देखने में ही छिपा है। और
मैं निगाहों से खोजता था हर एक जा तुझको, और यह पता न था...!
तुम
जब तक परमात्मा को बाहर खोज रहे हो, खोज न पाओगे। वह उन निगाहो में ही
छिपा है, उस दृष्टि में ही, उस देखने
की क्षमता में ही! वह तुम्हारे होश में छिपा है। वह तुम्हारे होने में छिपा है।
"देखता था मैं निगाहों से हर एक जा तुझको
और
उन्हीं में तू निहां था,
मुझे मालूम न था।'
तुम
मंदिर हो।
परमात्मा
को खोजने किसी और मंदिर में जाने की जरूरत नहीं है। अपने ही भीतर डूब कर पाया है, जिन्होंने
भी पाया है।
अगर
तुम सारे आसरे छोड़ दो,
सारे सहारे छोड़ दो, तो तुम अपने ही डूब जाओगे।
जो भी तुम पकड़े हो आसरे की तरह, वही तुम्हें अपने से बाहर
अटकाये हुए है। धन का आसरा है, पद का आसरा है, मित्र का आसरा है, संगी-साथियों का, परिवार का आसरा है, पति-पत्नी का आसरा है! जिन-जिन
आसरों को तुम सोच रहे हो कि ये सहारे हैं, सुरक्षा हैं,
वही तुम्हें बाहर अटकाये हैं।
छोड़
दो सब आसरे!
बे-आसरे
हो जाओ!
बे-सहारा
हो जाओ!
असहाय
हो जाओ!
और
अचानक तुम पाओगे: तुम्हें अपने ही भीतर वह भूमि मिल गयी जिसे जन्मों-जन्मों खोजते
थे और न पाते थे;
अपने ही भीतर वह हाथ मिल गया जो शाश्वत है। अब किसी और आसरे की कोई
जरूरत न रही।
"लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करन ही उसके प्रतिकूल
विषय में उदासीनता है।'
और
फिर ऐसा व्यक्ति जिसकी अनन्यता सध गयी परमात्मा से, जिसका तार मिल गया, तन्मयता बंध गयी, एक सामंजस्य आ गया, हाथ परमात्मा के हाथ में हो गया जिसका--ऐसा व्यक्ति फिर उसके ही अनुकूल
कर्म करता है, ""वह' जो
करवाता है वही करता है। फिर उसका अपना कर्ता-भाव चला जाता है। फिर वह कहता है,
"जो वह करवाये! जो उसकी मर्जी! जो नाच नचाये, वही मेरा जीवन है।' फिर अपनी तरफ से निर्णय लेना,
अपनी तरफ से विचार करना, संभव नहीं है।
"विधि-निषेध से अतीत अलौकिक प्रेम प्राप्ति का मन में दृढ़ निश्चय हो जाने
के बाद भी शास्त्र की रक्षा करनी चाहिए, अन्यथा गिर जाने की
संभावना है
यह
सूत्र महत्वपूर्ण है,
क्योंकि ऐसा घटता है। जब तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम परमात्मा के
अनुसार चलने लगे, जब तुम्हें ऐसा लगता है कि अब तो तुम एक हो
गये, तो सारी विधि-निषेध के पार हो गये, अब समाज का कोई नियम तुम पर लागू नहीं होता।
सच
है, कोई नियम लागू नहीं होता; लेकिन इसका यह अर्थ नहीं
कि तुम नियम छोड़कर चलने लगो। तुम पर नियम नहीं लागू होता, समाज
तो अब भी नियम में जीता है। तुम जिस समाज में हो, उस समाज के
लिए तुम अड़चन मत बनो, सहारा बनो; उस
समाज के लिए तुम उपद्रव का कारण न बनो, मार्ग बनो।
इसलिए
नारद कहते हैं,
"विधि-निषेध से अतीत...।' कोई नियम लागू
नहीं होता प्रेम पर, भक्त पर। वह पहुंच गया वहां, सब नियमों के पार, परम नियम उसे मिल गया प्रेम का,
अब उस पर कोई नियम लागू नहीं होता। लेकिन फिर भी, अगर वह रास्ते पर चले तो उसे बाएं ही चलना चाहिए, क्योंकि
सारा ट्रैफिक बाएं ही चल रहा है। अगर वह दाएं चलने लगे, वह
कहे कि हम तो भक्ति को उपलब्ध हो गये, तो खतरा है--खतरा है
पतन का। असल में इस तरह का आग्रह वही आदमी करेगा जो अभी उपलब्ध ही नहीं हुआ है;
वस्तुतः उपलब्ध नहीं हुआ है। क्योंकि उपलब्ध होकर तो कोई नहीं गिरता,
असंभव है गिरना।
इसे
थोड़ा गौर से समझ लेना।
जो
उपलब्ध नहीं हुआ है परमात्मा को, वही इस तरह का आग्रह करेगा के मुझ पर तो कोई
नियम लागू नहीं होता। यह अहंकार की नयी उदघोषणा है। यह अहंकार का नया खेल शुरू
हुआ। एक नया संसार चला अब। वह कहेगा, मुझ पर कोई नियम लागू
नहीं होता। मैं तो अब उसके ही सहारे जीता हूं। इसलिए जो "वह' करवाता है वही करता हूं।
इसकी
आड़ में कहीं तुम अपने अहंकार को मत छिपा लेना। कहीं ऐसा न हो कि यह भी धोखा हो
तुम्हारा।
इसलिए
सूत्र कहता है: सजग रहना। ऐसी स्थिति भी आ जाये कि तुम विधि-निषेध के पार हो जाओ, तो भी
शास्त्र की रक्षा जारी रखना। उस रक्षा में तुम्हारी रक्षा है। उस रक्षा में दूसरों
की रक्षा तो है ही, तुम्हारी भी रक्षा है। क्यों? तुम अपने अहंकार को सजाने-संवारने का नया उपाय न पा सकोगे।
और
स्मरण रखना, जो विधि-निषेध के पार हो गया, वह विधि-निषेध को
तोड़ने की चिंता में नहीं पड़ता। जो पार ही हो गया, वह चिंता
क्या करेगा तोड़ने की! वह कमल जैसा पार हो जाता है पानी के। जो पार हो गया है वह
जीवन को चुपचाप स्वीकार कर लेता है जैसा है; लोग जैसे जी रहे
हैं, ठीक है।
छोटे
बच्चे खिलौनों से खेल रहे हैं, तुम वहां जाते हो, तुम
जानते हो, वे खिलौने हैं; तुम जानते हो,
खेल के नियम सब बनाये हुए हैं। लेकिन बाप भी छोटे बच्चों के साथ जब
खेलता है तो खेल के नियम मानता है। वह यह नहीं कह सकता कि मैं कोई छोटा बच्चा नहीं
हूं, मैं नियम के बाहर हूं। छोटे बच्चों के साथ छोटे बच्चों
की तरह ही व्यवहार करेगा--यही प्रौढ़ का लक्षण है।
तो
जो व्यक्ति वस्तुतः भक्ति के परम सूत्र को उपलब्ध होता है, वह तोड़
नहीं देता जीवन की व्यवस्था को। वह कोई अराजकता नहीं ले आता।
जीसस
ने कहा है कि मैं शास्त्र को खंडित करने नहीं, पूर्ण करने आया हूं।
वह
शास्त्र के मूल स्वभाव का पुनः पुनः उदघाटन करता है। वह शास्त्र के खो गये सूत्रों
को पुनः पुनरुज्जीवित करता है। वह शास्त्र पर जम गयी धूल को हटाता है। वह शास्त्र
के दर्पण को निखारता है ताकि फिर तुम शास्त्र के दर्पण में अपने चेहरे को देख सको, फिर तुम
अपने को पहचान सको। सदियों में शास्त्र पर जो धूल जम जाती है, सदियों में स्त्री पर जो व्याख्या की परतें जम जाती हैं, उनको फिर वह अलग कर देता है, लेकिन शास्त्र की रक्षा
करता है। क्योंकि शास्त्र तो उनके वचन हैं जिन्होंने जाना। वे बुद्धपुरुषों के वचन
हैं। व्याख्याएं कितनी ही गलत हो गयी हों, लोगों ने कितना ही
गलत अर्थ लिया हो, लेकिन मूल तो बुद्धपुरुषों से आता है,मूल तो गलत नहीं हो सकता।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि मैं क्यों शास्त्रों की व्याख्या कर रहा हूं। इसीलिए कि जो धूल
जमी हो वह अलग हो जाए,
ताकि मैं तुम्हें उनका खालिस सोना जाहिर कर सकूं। अगर मैं तुम्हें
कभी शास्त्र के विपरीत भी मालूम पड़ूं, तो समझना कि तुम्हारे
समझने में कहीं भूल हो गयी है; तो समझना कि तुमने शास्त्र का
जो अर्थ समझा था वह अर्थ शास्त्र का न था, इसलिए मैं विपरीत
मालूम पड़ रहा हूं। अन्यथा मैं भी तुमसे कहता हूं कि शास्त्र का खंडन करने नहीं,
शास्त्र का शुद्धतम स्वरूप आविष्कृत करने की सारी चेष्टा है।
"लौकिक कर्मों को भी तब तक (बाह्म ज्ञान रहने तक) विधिपूर्वक करना चाहिए,
पर भोजनादि कार्य, जब तक शरीर रहेगा, होते रहेंगे।
जो
बाह्य कर्म हैं,
उन्हें साधारणतः जैसी विधि हो, जैसी समाज की
धारणा हो, वैसे ही करते जाना चाहिए--बाह्य ज्ञान रहने तक!
क्योंकि भक्ति में ऐसी घड़ियां भी आती हैं जब बाह्य ज्ञान बिलकुल खो जाता है,
तब सूत्र लागू नहीं होता। क्योंकि ऐसी भी घड़ियां आती हैं जब मस्ती
ऐसे शिखर छूती है कि बाह्य ज्ञान ही नहीं रह जाता। रामकृष्ण छह-छह दिन के लिए
बेहोश हो जाते थे। जब फिर अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तब वे अपने में इतने लीन हो
जाते थे, इतने दूर निकल जाते थे कि उनके शरीर को ही संभालकर
रखना पड़ता था।
लेकिन
भोजनादि कार्य तब तक होते रहेंगे जब तक शरीर है।'
इस
सूत्र से यह समझ लो कि जीवन में वासना तो हटनी चाहिए, जरूरतें
हटाने का सवाल नहीं है। भोजन तो जरूरी है। वस्त्र जरूरी हैं। छप्पर जरूरी है,
उसका कोई निषेध नहीं है; निषेध है गैर जरूरी
का, जो कि केवल मन की आकांक्षा से पैदा होता है, जिसके बिना तुम रह सकते थे, मजे से रह सकते थे,
जिसके बिना कोई अड़चन न पड़ती थी, शायद और भी
मजे से रह सकते।
एक
बहुत बड़ा विचारक हुआ: अल्डुअस हक्सले। कैलिफोर्निया में उसका मकान था, और
जीवन-भर उसने बड़ी बहुमूल्य चीजें इकट्ठी की थीं--पुराने शास्त्र, बहुमूल्य अनूठी किताबें, चित्र, पेंटिंग, मूर्तियां, शिल्प।
बड़ा संवेदनशील व्यक्ति था। उसके पास बहुमूल्य भंडार था अनूठी चीजों का। सारे संसार
से उसने इकट्ठा किया था। उसकी कीमत कूतनी आसान नहीं। अचानक एक दिन आग लग गयी और सब
जलकर राख हो गया।
अल्डुअस
हक्सले ने कहा कि मैंने तो सोचा था कि मैं मर जाऊंगा इसके दुख से, लेकिन
अचानक, जिसकी कभी अपेक्षा भी न की थी, ऐसा
अनुभव हुआ कि जैसे एक बोझ हलका हो गया। एक बोझ! वह खुद भी चौंका यह अनुभव देखकर।
सामने ही जल रहा है उसका विशाल संग्रहालय और वह सामने खड़ा है लपटों के, और उसने कहा कि मुझे लगा कि मैं एकदम हलका हो गया हूं और मुझे ऐसा लगा
जैसे मैं स्वच्छ हो गया हूं।' आई फैल्ट क्लीन"। एक
ताजगी!
तुम्हें
पता नहीं है कि बहुत-सी गैरजरूरी चीजों ने तुम्हें जीवन तो नहीं दिया है, बोझ दिया
है। उनके बिना तुम ज्यादा स्वस्थ हो सकते थे। उनके बिना तुम ज्यादा प्रसन्न हो
सकते थे। उन्होंने सिर्फ तनाव दिया है, चिंता दी है।
जरूरत
को छोड़ने का कोई सवाल नहीं है। भक्ति कोई जबरदस्ती त्याग नहीं सिखाती। यह भक्ति की
खूबी है और उसकी स्वाभाविकता है। जीवन की सामान्य जरूरतें पूरी होनी ही चाहिए।
तो
भक्ति कोई जबरदस्ती नहीं करती कि तुम नग्न खड़े हो जाओ, तुम उपवास
करो, तुम शरीर को तपाओ व्यर्थ--ऐसी दुष्टता ऐसी हिंसा भक्ति
नहीं सिखाती। यह भक्ति की खूबी है और उसकी स्वाभाविकता है। जीवन की सामान्य
जरूरतें पूरी होनी ही चाहिए।
तो
भक्ति कोई जबरदस्ती नहीं करती कि तुम नग्न खड़े हो जाओ, तुम उपवास
करो, तुम शरीर को तपाओ व्यर्थ--ऐसी दुष्टता, ऐसी हिंसा भक्ति नहीं सिखाती।
भक्ति
कहती है: यह जो परमात्मा का मंदिर है तुम्हारा घर, इसकी साज-संभाल जरूरी है।
यह उसका घर है। इसे तुम्हें "उसके' योग्य स्वच्छ और
ताजा सुंदर रखना चाहिए। लेकिन जरूरत और वासना में फर्क समझना आवश्यक है।
मैंने
सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था, शादी
करना चाहता था। तो उस स्त्री ने कहा, "नसरुद्दीन,
और तो सब ठीक है, एक बात मैं पूछना चाहती हूं,
कि तुम उन पुरुषों में तो नहीं हो जो शादी के बाद पत्नी को दफ्तरों
में काम करवाते हैं या नौकरी करवाते हैं?
नसरुद्दीन
ने कहा,"भूलकर भी इस तरह का मत सोच। कभी भी मेरी पत्नी काम पर जाने वाली नहीं है।
हां, एक बात और, अगर कपड़ा, रोटी, मकान जैसी विलास की चीजों की तूने मांग की तो
फिर मैं नहीं जानता...। लेकिन रोटी, कपड़ा, मकान, ऐसी विलास की चीजें मत मांगना।'
विलास
और जरूरत में फर्क करना जरूरी है।
भक्ति
स्वस्थ सहज मार्ग है। स्वाभाविक, अस्वाभाविक नहीं। भक्ति तुम जैसे हो, तुम्हारी जरूरतों को स्वीकार करती है। कहीं कोई अकारण अपने को कष्ट देना,
पीड़ा देना, व्यर्थ के तनाव खड़े करने, उनसे आदमी परमात्मा के प्रेम को उपलब्ध नहीं होता, उनसे
तो और सघन अहंकार को उपलब्ध होता है।
भक्ति
त्याग नहीं है,
निरोध है। जो अपने से छूट जाए। जो व्यर्थ है छूट जाएगा। जो सार्थक
है, जरूरी है, शेष रहेगा।
इसलिए
आखिरी सूत्र है: लौकिक कर्मों को भी तब तक (बाह्य ज्ञान रहने तक) विधिपूर्वक करना
चाहिए, पर भोजनादि कार्य जब तक शरीर रहेगा, होते रहेंगे।
भक्ति
की यह स्वाभाविकता ही उसके प्रभाव का कारण है।
भक्ति
बड़ी संवेदनशील है। वह जीवन को कुरूप करने के लिए उत्सुक नहीं है, जीवन का
सौंदर्य स्वीकार है। क्योंकि जीवन अन्यथा परमात्मा का ही है, अंततः वही छिपा है! उसको ध्यान में रखकर ही चलना उचित है।
जो
व्यर्थ है वह छूट जाए। जो सार्थक है वह संभल जाए। जो कूड़ा-करकट है वह अपने आप गिर
जाए, जो बहुमूल्य है वह बचा रहे।
भक्ति
को अगर तुम ठीक से समझो तो तुम पाओगे धर्म की उतनी सहज, स्वाभाविक
और कोई व्यवस्था नहीं है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें