व्यक्ति है परमात्मा—प्रवचन-पांचवां
महावीर के जन्म-उत्सव पर थोड़ी सी बातें आपसे कहूं, इससे मुझे आनंद होगा। आनंद इसलिए होगा कि आज मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए सिवाय महावीर के और कोई रास्ता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए महावीर के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।
ऐसा कभी कल्पना में भी संभव नहीं था कि मनुष्य खुद के विनाश के लिए इतना उत्सुक हो जाएगा। इतनी तीव्र आकांक्षा और प्यास उसे पैदा होगी कि वह अपने को समाप्त कर ले, इसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विगत पचास वर्षों से मनुष्य अपने को समाप्त करने के सारे आयोजन कर रहा है! उसकी पूरी चेष्टा यह है कि एक-दूसरे को हम कैसे समाप्त कर दें, कैसे विनष्ट कर दें! पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े हैं और दस करोड़ लोगों की उसमें हत्या की है। और ये युद्ध बहुत छोटे युद्ध थे, जिस तीसरे महायुद्ध की हम तैयारी में हैं, संभव है वह अंतिम युद्ध हो, क्योंकि उसके बाद कोई मनुष्य जीवित न बचे। मनुष्य ही जीवित नहीं बचेगा, वरन कहा जा सकता है कि कोई प्राण जीवित नहीं बचेगा।
मैं एक छोटी सी, एक छोटी सी गणना आपको दूं--अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म किया जाए और उस गरम उबलते पानी में आपको हम डाल दें तो क्या होगा? शायद आपका बचना मुश्किल हो। अगर हम पंद्रह सौ डिग्री तक लोहे को गरम करें तो वह पिघल कर पानी हो जाएगा। उस पिघले हुए लोहे में अगर हम आपको डाल दें तो क्या होगा? आपका बचना असंभव हो जाएगा। अगर हम पच्चीस सौ डिग्री तक लोहे को गर्म करें तो वह भाप बन कर उड़ने लगेगा। उस पच्चीस सौ डिग्री गर्मी में किसी भी प्राणी के बचने की कोई संभावना शेष नहीं रहेगी।
लेकिन यह कोई गर्मी नहीं है, यह कोई उत्ताप नहीं है। एक हाइड्रोजन बम के विस्फोट से जो गर्मी पैदा होती है, वह होती है दस करोड़ डिग्री। दस करोड़ डिग्री की गर्मी में किसी तरह के प्राणी के बचने की कोई संभावना नहीं होगी। और ऐसे हाइड्रोजन बम आज जमीन पर पचास हजार की संख्या में निर्मित हैं। ये पचास हजार उदजन बम इस जमीन को सात बार मिटाने में समर्थ होंगे। इसको वे पश्चिम में ओवर किल कैपेसिटी कहते हैं। वे कहते हैं कि अगर एक आदमी को हमें सात-सात बार मारना पड़े, तो भी हम जमीन को नष्ट करने में समर्थ हैं। यह बहुत आश्चर्य की बात है। एक आदमी तो एक बार में ही मर जाता है, उसे सात बार मारने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन जो सदी लोगों को विनाश करने के लिए इतनी शक्ति पैदा कर रही हो, उस सदी के संबंध में विचार करना होगा, सोचना होगा, क्या कोई पागल हो गया है? क्या मनुष्य पागल हो गया है? और मैं आपको यह आज कहना चाहूंगा कि जो मनुष्य धर्म से संयुक्त नहीं होता, वह आज नहीं कल पागल हो जाता है। और एक आदमी पागल हो जाए, यह बहुत बड़ा खतरा नहीं है--कोई पूरी कौम पागल हो जाए, कोई पूरी सदी पागल हो जाए, पूरा मनुष्य समाज पागल हो जाए तो क्या होगा?
मैं एक छोटी सी कहानी आपको कहूं, मुझे बहुत प्रीतिकर रही और मुल्क के न मालूम किन-किन लोगों के बीच मैंने जाकर उसे कहा।
ईश्वर ने यह देख कर कि मनुष्य को यह क्या हो गया है, उसने दुनिया के तीन बड़े प्रतिनिधि राष्ट्रों के लोगों को अपने पास बुलाया। ऐसा कोई ईश्वर कहीं है नहीं। ऐसा ईश्वर कहीं भी नहीं है, जो किसी को बुलाए। एक काल्पनिक और झूठी कहानी आपसे कह रहा हूं।
ईश्वर ने दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया--अमरीका को, रूस को, ब्रिटेन को। और उसने उनसे कहा कि तुम इतनी शक्ति तो पैदा कर लिए हो, लेकिन उस शक्ति से तुम कोई सृजन नहीं कर पाते। तुमने इतनी शक्ति पैदा की है, लेकिन उससे जीवन के लिए तुम सहयोगी नहीं बन रहे हो। तुम्हारी सारी शक्ति तुम्हारी मृत्यु बन जाए, यह बहुत आश्चर्यजनक है। अगर मैं तुम्हारे कुछ सहयोगी बन सकूं, अगर मेरा कोई वरदान तुम्हारे काम आ सके, तो वरदान मांग लो।
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, एक ही वरदान हम मांगते हैं--एक छोटा सा वरदान पूरा हो जाए और हमारी सब तृप्ति हो जाएगी। ईश्वर ने प्रफुल्लित होकर कहा, मांगो! और अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, एक हमारी आकांक्षा है कि जमीन तो रहे, लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। ईश्वर ने बहुत वरदान दिए होंगे। कहानियां हैं हजारों ईश्वर के वरदान देने की, लेकिन ऐसा वरदान कभी किसी ने मांगा नहीं था! उसने बहुत उदासी और दुख से रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा।
उस प्रतिनिधि ने कहा, महानुभाव! एक तो हमारा कोई विश्वास नहीं है कि आपकी कोई सत्ता है। हम मानते नहीं कि ईश्वर है। और पच्चीसों वर्ष हुए हमने अपने मंदिरों और मस्जिदों से, और अपने गिरजाघरों से आपको निकाल कर बाहर कर दिया है। लेकिन हम आपको वापस प्रतिष्ठा देंगे और फिर आपकी मूर्तियों के सामने धूप और दीए जलाएंगे, अगर एक छोटी सी बात पूरी हो जाए तो वह प्रमाण होगा कि ईश्वर है। ईश्वर ने कहा, कौन सी बात? उस रूस के प्रतिनिधि ने कहा, एक छोटी सी बात, जमीन के नक्शे पर अमरीका के लिए कोई रंग और रेखा न रह जाए। ईश्वर ने बहुत हैरान और घबड़ा कर ब्रिटेन के प्रतिनिधि की तरफ देखा। उसने जो कहा वह मन में रख लेने जैसा है। उसने कहा कि मेरे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएं, हमारी आकांक्षा पूरी हो जाती है।
यह बात हमें हंसने जैसी लगती है। यह बात हंसने जैसी नहीं है, यह बात रोने जैसी है। और इससे बड़ी बात रोने जैसी दूसरी नहीं हो सकती है। और अगर आप इस पर हंसते हैं, तो आप गलती करते हैं। मैंने बहुत सोचा कि मैं भी इस पर हंस पाऊं, मैं नहीं हंस पाया। मैंने इस कहानी को अपने से बहुत बार कहा है और मैंने चाहा कि मैं हंस लूं, लेकिन मैं नहीं हंस पाया और मेरा हृदय आंसुओं से भर गया है। और यह कहानी बिलकुल झूठ है, मैंने कहा; लेकिन यह कहानी झूठ नहीं है, यह कहानी बिलकुल सच है।
यह कहानी इसलिए सच है कि हमारी ये आकांक्षाएं आज हैं। आज हम चाहते हैं कि नष्ट हो जाएं, दूसरे मिटा दिए जाएं। हम यह समझ रहे हैं कि हमारे जीवन का रहस्य इस बात में है कि दूसरे को मृत्यु मिल जाए! हम नासमझ और पागल हैं। जीवन का रहस्य इसमें है कि दूसरों को और महान जीवन मिल जाए। अगर हम जीवन चाहते हैं खुद, तो जीवन हमें बांटना होगा। जो मौत को बांटेगा वह स्वयं मौत में गिर जाएगा।
यह जो कहानी मैंने कही, इसलिए मैंने कहा कि यह रोने जैसी है, यह आज दुनिया की हालत है। और यह दुनिया की हालत है, इससे यह मत समझना कि यह आपकी हालत नहीं है। आपका भी आनंद इसमें है कि आपका पड़ोसी मर जाए! आपकी भी खुशी इसी में है कि कोई समाप्त हो जाए! आप चौबीस घंटे इस प्रयत्न में लगे हैं, विचार से, मन से, वाणी से कि किसी को नष्ट कर दें!
अधार्मिक वह है जो दूसरे के नष्ट करने का विचार करता है। और धर्म की शुरुआत इस बात से होती है कि जो अपने निर्माण का विचार करता है। धर्म की शुरुआत इस बात से होती है कि जिसका ध्यान इस बात में है कि मैं जीवन को उपलब्ध हो जाऊं। अधर्म की शुरुआत इस बात से होती है, जिसे इस बात का ध्यान है कि दूसरा मृत्यु को उपलब्ध हो जाए; दूसरा मिट जाए, दूसरा गिर जाए। धर्म की शुरुआत इस बात में है कि मैं जीवन को उपलब्ध हो जाऊं। और धर्म की सिद्धि इस बात में है कि सब जीवन को उपलब्ध हो जाएं।
ऐसी जो स्थिति है, ऐसे जो विनाश का चिंतन है...।
ट्रूमैन को, जब वह अमरीका के प्रेसिडेंट थे और जब उनकी आज्ञा से हिरोशिमा और नागासाकी पर पहला अणु बम गिराया गया, और वहां लाख लोग सोते-सोते समाप्त हो गए, दूसरे दिन सुबह ट्रूमैन जब उठे तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि रात आपको नींद आई? यह पूछने जैसा था। अगर मेरी आज्ञा से एक लाख लोग समाप्त हो जाएं, फिर अनंत काल तक इस जगत में मैं सो नहीं सकता हूं। और अगर मैं सो जाऊं, तो मुझे आदमी कहना मुश्किल है, मुझे पत्थर कहना होगा। पत्रकारों ने उनसे सुबह-सुबह पूछा, रात आपको नींद आई? ट्रूमैन ने कहा, बहुत वर्षों के बाद पहली दफा सोया! उन्होंने कहा, बहुत वर्षों के बाद पहली दफा सोया, मामला खतम हो गया! हम जीत गए!
एक लाख आदमी रात सोए हुए समाप्त हो गए हैं, इसकी पीड़ा जिन्हें न छूती हो, ऐसे मनुष्यों के समाज और युग को विक्षिप्त कहने की मुझे आज्ञा नहीं देंगे? ऐसे समय को पागल कहने की मुझे आज्ञा नहीं देंगे? और स्मरण रखें, यह मैं किन्हीं और के लिए नहीं कह रहा हूं, यह मैं आपसे कह रहा हूं। यह मैं हर एक से कह रहा हूं। क्योंकि हम हैं, जो इसे बनाते हैं। हम हैं, जो समय को बनाते हैं और सदी को बनाते हैं। समय और सदी आसमान से नहीं उतरते, हम उन्हें निर्मित करते हैं, हम उनके निर्माता हैं।
हर आदमी जो मौजूद है इस जमीन पर, इस जमीन पर जो हो रहा है, उसका सहयोग उसमें है। अगर दुनिया में दस करोड़ लोग मारे गए हैं, स्मरण रखें, उस हत्या का जिम्मा आप पर है। कोई यह भूल से न समझे कि उस हत्या पर मेरा जिम्मा नहीं है। जो सोचता हो कि मैं चींटियों को बचा कर निकल जाता हूं, जो सोचता हो कि पानी छान कर मैं पी लेता हूं, इसलिए मुझ पर हिंसा का क्या भार है, वह नासमझ है। उसे पता नहीं, हिंसा बहुत गहरी और बहुत सामूहिक है। अगर मेरे मन में थोड़ा सा भी क्रोध उठता है, अगर मेरे मन में थोड़ी सी भी घृणा उठती है, अगर मेरे मन में दूसरे को नष्ट करने का थोड़ा सा भी खयाल उठता है, तो नागासाकी में जो अणु बम गिरा, उसमें मेरा हाथ है। और भविष्य में भी अगर किसी मुल्क पर, किसी का दुर्भाग्य होगा और अणु बम गिरेंगे, उसमें मेरा हाथ होगा। वह मेरे छोटे से क्रोध की चिनगारी, जब लाखों लोगों के क्रोध की चिनगारियां इकट्ठी होती हैं तो युद्ध में परिणत हो जाती हैं। बड़े युद्ध आकाश में नहीं लड़े जाते हैं, लोगों के हृदय में लड़े जाते हैं।
अगर आपके हृदय में क्रोध उठता है, सारे युद्धों के लिए आप जिम्मेवार होंगे। अगर आपके हृदय में घृणा उठती है, सारे युद्धों का भार और उत्तरदायित्व आपको अनुभव करना होगा। और जब तक यह अनुभव न हो, जब तक मैं सारी जमीन पर जो हो रहा है उसमें अपने को सहयोगी अनुभव न करूं, तब तक मैं धार्मिक नहीं हो सकता हूं।
यह जो स्थिति है समय की, यह जो रुख है चीजों का, यह जो प्रवाह है समय का, इसे बदलना होगा अगर मनुष्य को बचाना है। अगर मनुष्य को बचाना है, तो मनुष्य को बदलना अपरिहार्य हो गया है। और अगर हम थोड़ी देर भी चूक गए और मनुष्य को हम नहीं बदल सके तो मनुष्यता को बचाना असंभव हो जाएगा। यह पचास वर्ष भी मुश्किल है कि आदमी बच जाए। यह मुश्किल है कि हम सन दो हजार देख पाएं। हम बीसवीं सदी को पूरा होते देख पाएं, यह असंभव मालूम होता है। जैसा मनुष्य है, अगर वह वैसा ही रहा, तो यह मुश्किल है कि मनुष्य के बचने की कोई संभावना मानी जाए। मनुष्य का भाग्य और मनुष्य का जीवन और भविष्य समाप्त हो गया है। एक ही आशा की किरण है कि मनुष्य परिवर्तित हो सके। और वह मनुष्य के परिवर्तन की किरण महावीर से मिल सकती है।
जब मैं यह कहता हूं वह महावीर से मिल सकती है, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि वह क्राइस्ट से नहीं मिल सकती, मेरा यह मतलब नहीं है कि वह कृष्ण से नहीं मिल सकती, मेरा यह मतलब नहीं है कि वह बुद्ध से नहीं मिल सकती। जब मैं कहता हूं, महावीर से मिल सकती है, तो मेरा मतलब महावीर में बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट सम्मिलित हैं। मुझे यह दिखाई नहीं पड़ता कि एक दीए में जो रोशनी जलती है, वह दूसरे दीए की रोशनी से भिन्न होती है। और जब मैं कहता हूं इस दीए से रोशनी मिल सकती है, तो मैं यह कह रहा हूं कि रोशनी केवल दीए से मिल सकती है। और वे दीए कहीं भी जले हों, वे महावीर के नाम से जले हों, वे बुद्ध के नाम से जले हों, वे कृष्ण के नाम से जले हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रोशनी को पहचानें और शरीरों को छोड़ दें। मिट्टी के दीयों को छोड़ दें और प्रकाश की ज्योति को पहचानें।
महावीर में वह ज्योति है। और वह ज्योति, जो लोग उस ज्योति को प्रेम करेंगे और जो लोग उस ज्योति को आमंत्रित करेंगे अपने भीतर, उनके भीतर भी जल सकती है। जिनके दीए बुझे हों, वे उन दीयों के करीब जाएं जहां रोशनी जल रही है। और जिनके भीतर के प्राण सो गए हों, वे उन प्राणों के स्रोतों से संबंधित हो जाएं जहां अनंत जीवन उपलब्ध हुआ है। उनके भीतर भी घटना घट सकती है।
इस विचार से मैं आनंदित हूं कि महावीर के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कहूंगा। आनंदित इसलिए नहीं हूं कि महावीर के स्मरण का कोई मूल्य है, आनंदित इसलिए हूं कि शायद वह स्मरण आपके भीतर कोई प्यास पैदा कर दे। शायद वह स्मरण आपके भीतर कोई अपमान पैदा कर दे। शायद आपको लगे कि जो महावीर के भीतर संभव हो सका, वह जब तक मेरे भीतर संभव न हो जाए, तब तक मेरी मनुष्यता अपमानित है। तब तक मैं अपनी ही आंखों में गिरा हुआ और पतित हूं। और इस जगत में अपनी आंखों में गिर जाने से बड़ी दुर्घटना दूसरी नहीं है। हम अपने संबंध में सोचेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगा, हम अपने संबंध में विचार करेंगे और अंतर्दर्शन करेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगा--हम क्या हैं और हम क्या हो सकते हैं?
हम क्या हो सकते हैं, इसके सबूत हैं महावीर, इसके सबूत हैं बुद्ध, इसके सबूत हैं कृष्ण। हर मनुष्य क्या हो सकता है, इसके प्रतीक हैं वे। मुझे ऐसा लगता है--आज सुबह ही मैंने कहा--मुझे ऐसा लगता है कि जब मैं आपकी तरफ देखता हूं तो मुझे ऐसा लगता है जैसे बीजों का एक ढेर लगा हो और हर बीज वृक्ष हो सकता हो, ऐसा ही मुझे लगता है। जैसे सारी जमीन पर महावीर भरे हों, लेकिन बीज की शक्ल में। और अगर चाहें वे और संकल्प की ऊर्जा उनमें जागे और अग्नि उनमें प्रज्वलित हो साधना की, तो शायद उनके बीज भी फूट जाएं और उनसे वृक्षों का जन्म हो जाए।
महावीर अगर वृक्ष हैं, तो आप भी उसी वृक्ष के बीज हैं। अगर यह स्मरण, उनकी स्मृति का दिन आपके भीतर यह भाव पैदा कर दे, अगर यह खयाल पैदा कर दे, अगर यह सपना पैदा कर दे कि जो उनके लिए संभव हुआ, वह मुझे भी संभव हो सकता है, तो यह घटना आनंद की बन जाएगी। इसलिए मैंने कहा कि मैं आनंदित हूं। महावीर के संबंध में कुछ कहूं, इसके पहले थोड़ी सी बातें मुझे और कह देनी हैं।
मैं यहां आया, आते से ही मुझे पता चला, आते से ही मुझे बताया गया कि कुछ लोगों ने कहा है कि अगर मैं बोलूंगा, तो वे मुझे पत्थर मारेंगे। वे इसलिए पत्थर मारेंगे कि मेरी बातें महावीर के विपरीत हैं। मैंने उनसे कहा, अगर वे पत्थर मुझे मारेंगे तो वे साबित करेंगे कि वे महावीर के प्रेमी नहीं हैं। अगर मेरी बातें महावीर के विपरीत हैं, तो भी मुझे पत्थर मारने का कोई कारण पैदा नहीं होता। और जो मुझे पत्थर मारेगा, वह अगर सोचता हो कि वह महावीर का प्रेमी है, तो वह पागल है, वह नासमझ है। महावीर के प्रेम की पहली शर्त यह है कि जब तुम्हें कोई पत्थर मारे तो तुम उसे प्रेम देना। महावीर के प्रेम की पहली शर्त यह है कि जब तुम्हें कोई पत्थर मारे तो तुम उसे प्रेम देना।
मैंने पूछा कि वे मुझे क्यों पत्थर मारेंगे? तो मुझे बताया गया, मुझे कुछ बातें बताई गईं, उनका मैं उल्लेख करूं, उनके माध्यम से महावीर को समझना आसान होगा।
मुझे बताया गया कि मैं जब कहता हूं महावीर, तो मैं भगवान नहीं जोड़ता।
मैंने कहा, मेरा प्रेम भगवान जैसे औपचारिक शब्द को जोड़ने को राजी नहीं होता। जिनको हम प्रेम करते हैं, जितना हम उनको प्रेम करते हैं उतनी ही औपचारिक बातें उनके संबंध में व्यर्थ हो जाती हैं। अगर महावीर को स्मरण करते वक्त इतना प्रेम न भरता हो कि हम उन्हें तू कह कर बुला सकें, तो हममें प्रेम ही नहीं है। इसलिए मैंने कहा, मैं तो उनको भगवान नहीं कहूंगा। भगवान न कहने का मतलब यह है कि मैं उनको भगवान जानता हूं। भगवान न कहने का मतलब यह है कि मैं पहचानता हूं कि वे भगवान हैं। इसे कहने और दोहराने की बात नहीं है, इसे हृदय में समझने और पहचानने की बात है। जो इसे कहेंगे केवल, इसे दोहराते रहेंगे मंत्र की तरह, इनके दोहराने से कुछ होने का नहीं है।
मुझे कहा गया कि मैं जो कहता हूं, वह शास्त्र के विपरीत है।
मैंने कहा, महावीर की आस्था शास्त्र में नहीं है। महावीर की आस्था स्वयं में है। और अगर महावीर की कोई क्रांति है बहुमूल्य, तो वह यह है कि उन्होंने इस मुल्क को शास्त्र से मुक्त करने की कोशिश की। महावीर के समय शास्त्र सब कुछ थे, वेद सब कुछ थे। महावीर ने कहा, वेद नहीं, शास्त्र नहीं, स्वयं का सत्य, स्वयं का अनुभव अर्थपूर्ण है। महावीर ने कहा, हम शब्दों को न मानेंगे, हम तो अनुभूतियों को मानेंगे।
लेकिन हम ऐसे पागल हैं कि जिस महावीर ने यह कहा हो कि शास्त्र नहीं है मूल्यवान, स्वयं का अनुभव और स्वाद मूल्यवान है, हम उनकी ही वाणी का शास्त्र बना लेंगे और उसको पूजेंगे! यह घटना सारी जमीन पर घटी है--महावीर के अनुयायियों में ही नहीं, सारी जमीन पर--कृष्ण के अनुयायियों में, क्राइस्ट के अनुयायियों में या मोहम्मद के अनुयायियों में।
मोहम्मद ने कहा है शांति और मोहम्मद के इस्लाम धर्म का अर्थ भी होता है शांति का धर्म। लेकिन उनके भक्तों ने क्या किया? उनके भक्तों ने जितनी अशांति दुनिया में फैलाई और किसी ने नहीं फैलाई!
क्राइस्ट ने कहा है कि तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा उसके सामने कर देना। लेकिन क्राइस्ट के मानने वालों ने जितने गालों पर चांटे मारे हैं, उनका कोई हिसाब नहीं है! और क्राइस्ट के मानने वालों ने जितनी छातियों पर संगीनें कोंची हैं और जितनी छातियों पर पैर रौंदे हैं, उसका कोई मुकाबला नहीं है! बहुत आश्चर्यजनक मालूम होता है।
महावीर ने कहा है, प्रेम! और अगर महावीर का कोई भक्त कहता हो कि हम किसी को पत्थर मारेंगे, तो विचारणीय हो जाएगा। और महावीर ने कहा है, अपरिग्रह! और महावीर के भक्तों के पास परिग्रह ही परिग्रह इकट्ठा हो, तो विचारणीय हो जाएगा। और महावीर ने कहा है, स्वयं का अनुभव! और कोई महावीर की वाणी को ही अगर वेद बना दे तो गलती हो जाएगी, तो विचारणीय हो जाएगा।
मैं आपको कहूं कि दुनिया में इस धर्म के जितने मानने वाले हैं, उनमें से मुश्किल से कोई अनुयायी है। जिनकी आप पूजा करते हैं, उनके ही आप दुश्मन हैं, उनके ही आप शत्रु हैं! नीत्शे ने एक वचन कहा था। उसने कहा था, पहला और अंतिम क्रिश्चियन सूली पर लटका कर मार डाला गया--पहला और अंतिम क्रिश्चियन! उसने कहा था, क्राइस्ट पहला और अंतिम क्रिश्चियन था। उसके बाद कोई क्रिश्चियन नहीं हुआ। मैं आपको स्मरण दिलाऊं, महावीर के बाद भी कोई जैन नहीं हुआ।
तो कृष्ण के बाद या बुद्ध के बाद, सबके साथ वैसी घटना घटी है। और जो उनके पीछे दिखाई पड़ते हैं, वे उनके पीछे नहीं हैं। जो उनके पीछे मालूम पड़ते हैं, वे उनके पीछे नहीं हैं। महावीर के पीछे होना आसान नहीं है। और इस भूल में कोई न पड़ जाए कि मैं जैन घर में पैदा हो गया तो महावीर के पीछे हो गया। पागल, अगर बातें इतनी सस्ती होतीं, अगर मामले इतने आसान होते, तो सब हल हो गया होता।
धार्मिक होना इस जगत में सबसे बड़े दुस्साहस की बात है।
धार्मिक होना पैदाइश से संबंधित नहीं है। धार्मिक होने के लिए तो दूसरा जन्म खुद लेना होता है। एक जन्म है जो मां-बाप से मिलता है, वह कोई जन्म है! वह केवल शरीर का जन्म है। एक दूसरा जन्म है, जो खुद के संकल्प और साधना और श्रम से उत्पन्न करना होता है। वही वास्तविक जन्म है। उसके बाद ही, उसके बाद ही व्यक्ति धार्मिक बनता है। तो कोई इस भूल में न रहे कि महावीर के मानने वालों के घर में पैदा हो गए हैं, तो हम जैन हो गए हैं।
महावीर के घर में पैदा होने से कोई जैन नहीं होता।
उपनिषदों में एक ऋषि हुआ, उद्दालक। उसका पुत्र जब अध्ययन करके शास्त्रों का घर वापस लौटा, सारे शास्त्रों का अध्ययन करके वापस लौटा, तो गरूर से और अहंकार से भरा हुआ आया। पंडित से ज्यादा प्रगाढ़ अहंकार और किसका होता है? वह गरूर से और अहंकार से भरा हुआ घर में आया। पिता ने देखा, अहंकार की सीमा नहीं है! पिता ने पूछा, सब पढ़ आए? उसने कहा, मैं सब पढ़ आया, जो भी पढ़ने योग्य था, सब पढ़ आया। जो भी पढ़ने जैसा था, सब पढ़ आया। सब शास्त्र, सब वेद पढ़ कर लौटा हूं।
उसके पिता ने आंख नीची कर ली और उसने कहा कि जहां तक मैं देख रहा हूं तुम्हें, मुझे दिखाई पड़ता है कि जो पढ़ना था, वही तुम छोड़ कर सब पढ़ आए हो। उसने पूछा, क्या है वह? उसके पिता ने कहा, जो शास्त्रों में नहीं लिखा है, जो वेदों-पुराणों में नहीं लिखा है, जो कभी लिखा नहीं जा सका, जो कभी लिखा नहीं जा सकेगा, उसे जो पढ़ लेता है, वही तो पढ़ता है। और उसे जो पढ़ लेता है, उसे जान कर वह सब जान लेता है। तो तुम अगर किताब ही पढ़ कर लौटे हो, तो अभी पढ़ना तुम्हारा शुरू भी नहीं हुआ।
उसने कहा, उसे मैं कैसे जानूं? और उसे जानना क्या जरूरी है?
उसके पिता ने कहा, हमारे परिवार में अब तक ब्राह्मण होते रहे हैं, ब्राह्मण-बंधु नहीं। उसके पुत्र ने पूछा, इसमें फर्क क्या है? उसने कहा, जो ब्राह्मण के घर में पैदा होने से ब्राह्मण कहलाए, वह ब्राह्मण-बंधु है। और जो ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण कहलाए, वह ब्राह्मण है।
मुझे बात ठीक लगती है। जो क्रिश्चियन के घर में पैदा होने से क्रिश्चियन कहलाए, वह क्रिश्चियन-बंधु है। जो जैन घर में पैदा होने से जैन कहलाए, वह जैन-बंधु है। जैन होना, क्रिश्चियन होना बड़ी दूसरी बातें हैं।
तो मैंने उनको कहा कि मुझे तो यह दिखाई पड़ता है कि महावीर की क्रांति शब्द के विपरीत है और निःशब्द के पक्ष में है, शास्त्र के विपरीत है और स्वयं के पक्ष में है। सारे शास्त्रों से और सारे सिद्धांतों के जाल से महावीर मुक्त करना चाहते हैं, ताकि आपका अंतर्गमन हो सके। शास्त्र बाहर हैं और सत्य भीतर है। जो शास्त्रों में खोजेगा, वह खोजेगा, पा नहीं सकेगा। और जो भीतर डूबेगा, वह पा लेगा।
एक बात और कहूं, जो भीतर पा लेता है, वही शास्त्र को समझ भी पाता है। क्योंकि जो भीतर अनुभव कर लेता है, अनुभव ही उन शब्दों के अर्थों को भी स्पष्ट कर जाता है। जो स्वयं को जानता है, वह शास्त्र को समझ पाता है। जो शास्त्र को ही समझता रहता है, वह कभी स्वयं को नहीं जान पाता।
महावीर की बुनियादी क्रांति शब्द के, सिंबल के विपरीत है, प्रतीक के विपरीत है। और अगर वे कहते हैं कि मेरी बात शास्त्र के विपरीत मालूम होती है, तो मैंने कहा, हो सकता है, मेरी बात महावीर के पक्ष में हो, इसलिए शास्त्र के विपरीत पड़ जाती हो। अब तक सारे शास्त्र, जिन्होंने सत्य जाना है, उनके विपरीत पड़ जाते हैं। यह बड़ी आश्चर्य की बात है! यह बहुत आश्चर्य की बात है, ऐसा हो जाता है और उसका कारण है।
मैंने एक बाउल फकीर का एक गीत पढ़ा था। उसने अपने गीत में कहा है, जब कोई व्यक्ति धर्म की ज्योति को उपलब्ध होता है, तो उसके हाथ में ज्ञान की मशाल आ जाती है। उसकी मशाल से प्रभावित होकर न मालूम कितने अंधे और आंखहीन लोग उसके पीछे हो जाते हैं। उसके अनुग्रह में, उसके प्रेम में, उसके प्रकाश की संभावना में बहुत लोग उसके पीछे चलने लगते हैं। फिर वह आदमी एक दिन समाप्त हो जाता है। और जब वह आदमी गिरता है तो उसकी मशाल भी गिर जाती है। और तब कोई अंधा उनमें से, जो पीछे उसके हो गए थे, उस मशाल को उठा लेता है। लेकिन दुर्घटना यह हो जाती है, उस मशाल में जो ज्योति थी, वह डंडे में नहीं थी। उस मशाल में जो ज्योति थी, वह उस आदमी के प्राणों में थी, जो उसे पकड़े था। उस ज्योति को अपने प्राणों से वह जलाए था। उसके गिरते ही ज्योति तो बुझ जाती है, डंडा हाथ में रह जाता है! और अंधे उस डंडे को लेकर चलते हैं! वह जो धर्म का डंडा है, उसे लेकर चलते हैं, जिसकी ज्योति बुझ जाती है! इसलिए ये डंडे आपस में टकराते हैं।
बहुत से अंधे हैं जमीन पर। बहुत से अंधे उन डंडों को लिए हैं। और वे सारे अपने-अपने डंडों को लेकर अंधेरे में चल रहे हैं! इसलिए उनकी आपस में टक्कर हो जाती है। धर्मों की कहीं टक्कर हो सकती है? दो धर्म कहीं लड़ सकते हैं?
लेकिन धर्म लड़ते हुए मालूम पड़ते हैं! इसका अर्थ है कि वहां धर्म नहीं होगा, वहां डंडे रह गए हैं अंधे आदमियों के हाथों में। और अंधे अंधों का नेतृत्व करते हैं! यह दुर्भाग्य है, और यह सदा होता रहा है, और इसके पीछे कारण है।
इसके पीछे कारण है। जो व्यक्ति भी यह सोचता हो कि दूसरे की ज्योति से मैं चल सकता हूं, वह गलती में है। अपनी ज्योति से ही केवल चलना होता है।
एक साधु एक संध्या को अपने एक मित्र साधु को विदा करता था। रात अंधकार से भरी थी। उसके मित्र ने कहा, इस अंधेरे में मैं कैसे जाऊं? उसके दोस्त साधु ने कहा, मैं दीया जला देता हूं। उसने एक दीया जलाया और अपने मित्र के हाथों में दिया। लेकिन जैसे ही वह मित्र दीए को लेकर सीढ़ियां उतरने लगा, उस साधु ने उस दीए को फूंक कर बुझा दिया! घुप्प अंधकार और भी गहरा हो गया! उसके मित्र ने कहा, यह क्या किया? दीया दिया और बुझा भी दिया? उसके मित्र ने कहा, दूसरे का दीया काम नहीं पड़ता। अपनी ज्योति हो तो ही अंधकार से बचना है। अपनी ज्योति न हो, दूसरे के दीए काम नहीं पड़ते हैं।
मैं आपको कहूं, महावीर का दीया भी आपके काम नहीं पड़ सकता, जब तक कि आपके भीतर दीया अपना न जल जाए।
इस बात को महावीर ने बड़े अदभुत ढंग से कहा। इस बात को उन्होंने बड़े गहरे ढंग से कहा, बड़े गहरे ढंग से प्रतिपादित किया। उन्होंने कहा, परमात्मा के प्रसाद से भी कोई सत्य को नहीं पा सकता है। उन्होंने कहा, किसी गुरु-कृपा से कोई सत्य को नहीं पा सकता है। किसी के आशीर्वाद से, किसी से भिक्षा में, किसी से दान में, किसी से चोरी में सत्य को नहीं पाया जा सकता। सत्य को पाना हो तो स्वयं का श्रम करना होगा। इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई। उसका अर्थ है कि अपनी मेहनत, और अपनी मेहनत के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। और जो अपनी मेहनत के सिवाय कोई रास्ता सोचता हो, उसके मन में चोरी है, उसके मन में भिक्षा है। और सब मिल जाए चोरी से, सत्य नहीं मिल सकता है। जो न चुराया जा सकता है, जो न मांगा जा सकता है, जो न छीना जा सकता है, जिसे तो केवल अपने श्रम से ही उपजाना होता है, ऐसे सत्य को पाने की जो परंपरा है, वह श्रमण परंपरा है। और मेरा मानना यह है कि सारी दुनिया में जब भी किन्हीं ने सत्य पाया है, तब वे श्रमण रहे हैं, तब उन्हें श्रम करना पड़ा है। मुफ्त में सत्य कभी किसी को उपलब्ध नहीं हुआ।
तो जिस महावीर ने यह कहा हो कि अपने ही श्रम और अपनी ही प्रतिष्ठा और अपने ही आधार पर खड़े होकर, अशरण, सारी शरण छोड़ कर जो व्यक्ति अपनी साधना में संलग्न होता है, वह सत्य को पाता है। उसका मानने वाला कोई कहता हो कि मेरी बात शास्त्र के विपरीत पड़ जाती है, तो मैंने कहा, सोचना तुम, मेरी बात शास्त्र के विपरीत नहीं पड़ती होगी, तुम्हारे विपरीत पड़ जाती होगी। और जिस दिन जानोगे भीतर, तो पाओगे कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैंने चाहे शास्त्र देखा हो या न देखा हो, इससे भेद नहीं पड़ता। अगर सत्य कुछ है तो आपने कोई भी शास्त्र न देखा हो और अपने भीतर प्रविष्ट हो जाएं तो सारे शास्त्र देख लिए हो जाएंगे। और आपकी वाणी और आपका विचार और आपकी अनुभूति की गवाही सारे शास्त्र बन जाएंगे। और जिसने शास्त्र सीखे हों, उनको दोहरा कर रट लिया हो, उनको स्मरण कर लिया हो, उनके सूत्रों को दोहरा कर समझाना शुरू कर दिया हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। इसलिए मैंने कहा, शास्त्र नहीं, स्वयं--महावीर की प्रतिष्ठा है। स्वयं के प्रवेश को उनका आग्रह है।
और यह आग्रह, यह आग्रह इस पूरे मनुष्य के इतिहास में अलौकिक है, असाधारण है। इससे ज्यादा सम्मान मनुष्य को और किसी ने नहीं दिया, जितना महावीर ने दिया है। इससे ज्यादा सम्मान और गरिमा और गौरव, और किसी ने नहीं दिया मनुष्य को, जितना महावीर ने दिया है। क्योंकि महावीर ने कहा, परमात्मा कहीं ऊपर नहीं है, परमात्मा प्रत्येक के विकास का अंतिम चरण है। परमात्मा प्रत्येक के भीतर है।
क्षुद्रतम मनुष्य को जिसने परमात्मा कहा; क्षुद्रतम, निम्नतम, पाप में घिरे मनुष्य के जिसने परमात्मा होने की घोषणा की--इससे बड़ा और सम्मान क्या हो सकता है? और जिसको कहा कि स्वयं परमात्मा है व्यक्ति, उसके ऊपर कोई शास्त्र नहीं हो सकता, उसके ऊपर कोई गुरु नहीं हो सकता, उसके ऊपर कोई संप्रदाय नहीं हो सकता। ये सारे बंधन हैं। और व्यक्ति इनको छोड़ कर स्वयं में प्रविष्ट हो तो वह अपने परमात्मत्तत्व को, अपनी आत्मा को जानने में समर्थ होता है।
इसलिए मैंने कहा, अगर बात शब्दों के विपरीत भी पड़ती हो, तो पड़ जाने दें।
फिर मैं यह सोचा, मुझे यह भी बताया गया कि मैं यह कहता हूं कि महावीर ने मूर्तियों का विरोध किया है, मैं यह कहता हूं कि महावीर ने मूर्तियों का विरोध किया है, और परंपरा तो मूर्तियों को पूजती है। मैंने कहा, मुझे मूर्तियों से क्या लेना-देना है, लेकिन इतना मैं कहूंगा, महावीर ने मूर्त का विरोध किया है और अमूर्त में प्रवेश का आग्रह किया है।
महावीर का आग्रह क्या है? महावीर का आग्रह है कि जो दिखाई पड़ता है, वह मूल्यवान नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ता और जो पीछे छिपा है, जो अदृश्य है, जो दृश्य नहीं बनता, वह मूल्यवान है। महावीर यह कहते हैं, जिसका रूप है, उसका कोई मूल्य नहीं है; जिसका रूप नहीं है, उसका मूल्य है। यह मेरी देह दिखाई पड़ रही है, यह मेरी मूर्ति है, लेकिन यह मैं नहीं हूं। और अगर मेरी इस देह को आकर कोई पत्थर मारे, तो उसने मेरी मूर्ति को पत्थर मारे, मुझे पत्थर नहीं मारे। और अगर मेरी इस देह को कोई काट दे और टुकड़े-टुकड़े कर दे, तो उसने मेरी मूर्ति को खंडित किया, मुझे खंडित नहीं किया।
जो दिखाई पड़ रहा है, वह मूर्ति है। जो नहीं दिखाई पड़ता, जो कभी दिखाई नहीं पड़ सकता, क्योंकि जो हमेशा देखने वाला है, जो हमेशा द्रष्टा है और दृश्य नहीं हो सकता, उस आत्मा के लिए महावीर का आग्रह है। महावीर का तो पूरा आग्रह अमूर्त के लिए है। लेकिन पागल हम हो सकते हैं कि महावीर की भी मूर्ति बना कर हम पूजें।
महावीर की जो मूर्ति है, वह महावीर के शरीर की मूर्ति होगी, महावीर की मूर्ति कैसे हो जाएगी? महावीर की जो मूर्ति बनाई है, वह उनकी देह की मूर्ति होगी, महावीर की मूर्ति कैसे हो जाएगी? महावीर की कोई मूर्ति बना सकता है? यह असंभव है और यह कभी संभव नहीं हुआ और न कभी होगा। जिसको देखा भी नहीं जा सकता जिस आत्मा को, उसकी मूर्ति क्या बनाई जा सकेगी? और महावीर का असली शरीर खंड-खंड होकर नष्ट हो गया और मिट्टी में मिल गया, तो तुम्हारी मूर्तियों को तुम कब तक सम्हाले रखोगे?
और पागल हो, असली मूर्ति जब खंड-खंड होकर मिट्टी हो जाती है तो अगर मैं तुम्हारी मूर्तियों को कहूं कि उन्हें छोड़ दो--जो खंड-खंड हो जाता है, उसका कोई मतलब नहीं है--तो मुझ पर नाराज मत हो जाना। और यह मत समझ लेना कि महावीर के प्रति मेरी दृष्टि अश्रद्धा की है। मैं जानता हूं, अश्रद्धा आपकी है, जो महावीर को पत्थर में खोजते हों। मेरी तो श्रद्धा है, क्योंकि मैं उन्हें चिन्मय में खोजता हूं, अमृत में और अमूर्त में खोजता हूं।
फिर मैंने कहा, ठीक ही है। जो मूर्तिपूजक हैं, अगर वे यह सोचें कि हम पत्थर मारेंगे, तो ठीक ही सोचते हैं, उनकी विचार-सरणी गलत नहीं है, पत्थर से ऊपर वे सोच भी नहीं सकते हैं। पत्थर से ऊपर उनकी धारणा नहीं हो सकती। अपने मित्र को मैंने सुबह कहा, उनसे कहो कि वे पत्थर मारें, उससे उनका मूर्तिवादी होना जाहिर होगा और मुझे मौका मिलेगा। अगर उनके पत्थर मुझे लगें और फिर भी मेरे हृदय में उनके प्रति प्रेम हो, तो मैं समझूंगा कि महावीर के प्रति मैंने श्रद्धांजलि जाहिर कर दी। तो मैंने उनसे कहा, उन्हें कहो कि वे पत्थर मारें। वे गलती करेंगे अगर पत्थर मुझे नहीं मारेंगे, क्योंकि उससे जाहिर होगा कि उनकी श्रद्धा क्या है और मुझे भी मौका मिलेगा कि मैं जाहिर कर सकूं कि मेरी श्रद्धा क्या है। ईश्वर वह मौका दे कि मुझ पर पत्थर गिरें। ईश्वर मुझे मौका दे कि मैं देख सकूं कि मेरे भीतर उन पत्थरों के बीच भी प्रेम उठता है या नहीं। अगर प्रेम नहीं उठा, तो फिर प्रेम की बात करना बंद कर दूंगा। फिर उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। तो मैं निमंत्रण देता हूं, अगर किसी के भी मन में पत्थर मारने का कोई खयाल आता हो, तो जरूर उसका उपयोग कर ले।
और मैं यह कहना चाहता हूं कि महावीर की शिक्षा में, महावीर की बुनियादी शिक्षा में मुझे दो ही बातें दिखाई पड़ती हैं, और उनमें प्रेम प्रथम है। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा है, वह प्रेम है। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा है, वह प्रेम के सिवाय और क्या है?
महावीर की जीवन-साधना को मैं विचार करता हूं, तो मुझे दो बात दिखाई पड़ती हैं। एक तो बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि महावीर सत्य को पाने को उत्सुक हैं। सत्य का वे अनुसंधान कर रहे हैं। और दूसरी बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि वे प्रेम का विस्तार कर रहे हैं। सत्य को भीतर खोद रहे हैं और प्रेम को बाहर फैला रहे हैं। सत्य तो भीतर पाया जाता है और प्रेम बाहर फैलाया जाता है। जब अपने अंतिम अणु की आखिरी इकाई में कोई व्यक्ति प्रविष्ट हो जाता है, तो वह सत्य को उपलब्ध होता है। और जब इस विराट जगत के अंतिम प्राणी तक कोई व्यक्ति अपने प्रेम को पहुंचा देता है, तो वह सत्य को उपलब्ध होता है।
सत्य का विकास दोतरफा है: अपने भीतर प्रविष्ट हों तो आंतरिक गहराई में ज्ञान उपलब्ध होगा और समस्त के भीतर प्रविष्ट हो जाएं, तो आंतरिक गहराई में प्रेम या अहिंसा उपलब्ध होगी। जैसे कोई वृक्ष बढ़ता है, तो नीचे उसकी जड़ें गहरी जाती हैं और ऊपर उसका पौधा बढ़ता चला जाता है। जिस व्यक्ति की सत्य में जितनी गहराई बढ़ेगी, उसके जीवन के बाहर के पौधे में प्रेम उतना ही बढ़ता चला जाएगा।
प्रेम परीक्षा और कसौटी है।
इसलिए महावीर ने कहा, अहिंसा परम धर्म है।
महावीर ने कहा, अहिंसा ज्ञान की कसौटी और परख है।
अगर ज्ञान के बाद अहिंसा न आ जाए, तो वह ज्ञान झूठा होगा, वह मिथ्या होगा।
हम ज्ञान को तो नहीं जान सकते, हम तो प्रेम को जान सकते हैं। महावीर के ज्ञान को आपने देखा है? महावीर के ज्ञान को कैसे देखिएगा? महावीर को जो सत्य उपलब्ध हुआ है, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? क्राइस्ट को जो सत्य उपलब्ध हुआ है, किसी ने देखा? वे तो हमारे अनुमान हैं कि उनको सत्य उपलब्ध हुआ। हमने देखा है उनका प्रेम, हमने पहचाना है उनका प्रेम। और वह अनंत प्रेम ने हमें यह गवाही दी है कि भीतर सत्य उपलब्ध हुआ होगा। अगर भीतर सत्य उपलब्ध न हो तो इतना अनंत प्रेम कैसे हो सकता है?
प्रेम परीक्षा और प्रमाण है। उसे महावीर ने अहिंसा कहा है।
अहिंसा का मतलब इतना नहीं है कि दूसरे को दुख मत पहुंचाओ। जबरदस्ती दूसरे को कोई दुख पहुंचाने से रुक जाए, तो वह अपने को दुख पहुंचाना शुरू कर देता है। दुख पहुंचाने की इतनी इच्छा रहती है कि अगर दूसरे को दुख पहुंचाने से जबरदस्ती रुक जाएं, तो आप अपने को दुख पहुंचाना शुरू कर देंगे। ऐसे फकीर और साधु हुए हैं, जो अपने शरीर को इसलिए सता रहे हैं कि सताने का जो मजा वे दूसरों पर ले सकते थे, वह मजा उन्होंने बंद कर दिया है। वे अपने शरीर को सता रहे हैं। ऐसे फकीर हुए हैं कि जो अपने पेट में, अपनी कमर में कांटों के पट्टे पहने रहेंगे, ताकि कांटे उनकी कमर में घुसते रहें और घाव बना रहे। ऐसे फकीर हुए हैं, जो जूतों में उलटी खीलियां लगा लेंगे, ताकि पैरों में घाव बने रहें और उन घावों में से हमेशा रक्त बहता रहे। ऐसे फकीर हुए हैं, जो अपनी जननेंद्रियां काट लेंगे, अपनी आंखें फोड़ लेंगे।
इन पागलों को कोई साधु कहेगा? ये वे लोग हैं, जिन्होंने हिंसा की वृत्ति को बाहर जबरदस्ती रोक लिया है। लेकिन वेग रुकते नहीं हैं, अगर बाहर जाने से रोक देंगे, वे खुद पर पलट जाते हैं। जो आदमी जबरदस्ती बाहर हिंसा रोकेगा, वह आत्म-हिंसा में लग जाता है। वह अपने पर हिंसा करना शुरू कर देता है।
महावीर आत्म-हिंसा को नहीं कह रहे। इसलिए महावीर हिंसा त्याग को नहीं कह रहे हैं। महावीर से किसी ने पूछा, अहिंसा क्या है? तो महावीर ने कहा, आत्मा अहिंसा है।
बड़ा ही अदभुत उत्तर दिया। और इससे गहरा कोई उत्तर जमीन पर आज तक नहीं दिया गया है। बड़ा अजीब, असंगत मालूम होता है। हम पूछते हैं, अहिंसा क्या है? महावीर कहते हैं, आत्मा अहिंसा है! मतलब क्या है?
मतलब यह है कि जो आदमी अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाएगा, वह आदमी अहिंसा को उपलब्ध हो जाएगा। और जो आदमी अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित नहीं है, वह केवल हिंसा निरोध कर सकता है, अहिंसा को नहीं पा सकता है। हिंसा छोड़ देनी एक बात है, अहिंसा पा लेनी बिलकुल दूसरी बात है। अहिंसा बहुत पाजिटिव है, बहुत विधायक है। और विधायक है, इसलिए मैंने कहा प्रेम है।
तो महावीर की साधना दो शब्दों में बंटी है: सत्य और अहिंसा।
सत्य को पाना हो, तो महावीर कहते हैं, सब छोड़ कर अपने भीतर प्रविष्ट हो जाओ। महावीर कहते हैं, जो भी मूर्त है, उसे छोड़ दो। आंख से जो दिखाई पड़ता है, आंख में इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां कुछ दिखाई न पड़े। कान से सुनाई पड़ता है, कान में इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां कुछ सुनाई न पड़े। पांचों इंद्रियों से जो घटित होता है, उसमें इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां किसी इंद्रिय का कोई प्रभाव न पहुंचता हो। उस अवस्था में, जहां इंद्रियों का कोई प्रभाव नहीं पहुंचता, अतीन्द्रिय चेतना में प्रवेश शुरू होता है। जहां सब मूर्त प्रभाव क्षीण हो जाते हैं, जहां कोई मूर्त खबर नहीं पहुंचती, जहां जगत का कोई समाचार नहीं पहुंचता, वहां व्यक्ति अपने से संबंधित और अपने में प्रतिष्ठित होता है। वहां वह स्वयं को जानता है। स्वयं को जानना है तो समस्त पर से विमुक्त, समस्त पर से दूर हट जाओ, भीतर प्रविष्ट हो जाओ। उस एकांत तनहाई में अपने को जाना जा सकता है।
मैंने एक साधु के संबंध में पढ़ा। एक साधु एक पहाड़ के किनारे खड़ा था। उसके कुछ मित्र उससे मिलने गए। उन्होंने रास्ते में सोचा, यह साधु उस पहाड़ पर खड़ा-खड़ा क्या करता होगा? एक व्यक्ति ने कहा, कभी-कभी उसके कुछ मित्र साथ आते हैं, वे शायद पीछे छूट गए हों, वह उन्हें देख रहा होगा, उनकी प्रतीक्षा करता होगा। दूसरे मित्रों ने कहा, हमें विश्वास नहीं आता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। उसे देख कर प्रतीक्षा का बोध नहीं होता। किसी ने कहा, कभी-कभी उसकी गाय खो जाती है। वह अपनी गाय को शायद पहाड़ी पर खड़ा होकर खोजता हो। तीसरे मित्र ने कहा, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। तीसरे ने कहा, ऐसा प्रतीत होता है, शायद वह प्रभु का चिंतन और ध्यान कर रहा है। वे निर्णय नहीं कर सके। उन्होंने कहा, हम चलें और पूछ लें।
वे गए और उन्होंने उस साधु को पूछा। उससे पूछा, आपका कोई मित्र आया है, जो पीछे छूट गया है, और आप प्रतीक्षा करते हैं? उस साधु ने कहा, नहीं। उन्होंने पूछा, आपकी गाय खो गई है क्या, आप पहाड़ी में देख रहे हैं? उस साधु ने कहा, नहीं। उन्होंने पूछा, क्या आप प्रभु का चिंतन कर रहे हैं? प्रभु की प्रार्थना कर रहे हैं? उस साधु ने कहा, नहीं। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, फिर आप क्या कर रहे हैं? उस साधु ने कहा, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। सब करना छोड़ कर खड़ा हुआ हूं।
महावीर ने इस अवस्था को सामायिक कहा है, इसको ध्यान कहा है। जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं और सब छोड़ कर चुपचाप रह गया हूं। उस मौन की अवस्था में--जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मेरी इंद्रियों के सारे व्यापार शून्य हो गए हैं, जब मेरी सारी इंद्रियों की चहल-पहल बंद हो गई है, जब मेरे चित्त की सारी दौड़ निरुद्ध हो गई है--उस घड़ी में, उस क्षण में मुझे स्वयं का दर्शन होता है। सत्य को जानना हो तो चित्त-निरोध के माध्यम से स्वयं में प्रविष्ट होना होता है। और जो व्यक्ति स्वयं में प्रविष्ट हो जाता है, उसे अदभुत अनुभव होता है।
उसे अनुभव होता है पहला: उसे दिखाई पड़ता है, जो मेरे भीतर है, वह सबके भीतर है। और जैसे ही उसे यह दिखाई पड़ता है, जो मेरे भीतर है, वह सबके भीतर है, उसका जीवन प्रेम से आपूरित हो जाता है, उसके जीवन में अहिंसा आ जाती है। जैसे ही उसे दिखाई पड़ता है कि जो मेरे भीतर है, उसे यह भी दिखाई पड़ता है, वह जो भीतर है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। उसका सारा भय विलीन हो जाता है। भय के साथ परिग्रह चला जाता है। क्योंकि परिग्रह वे करते हैं, जो भयभीत हैं। परिग्रह मूल बीमारी नहीं है, मूल बीमारी भय है। जो जितना भयभीत है, उतना परिग्रह करता है। कंजूस के ऊपर दया करो, वह भयभीत है, इसलिए परिग्रह कर रहा है। जो जितना अभय होता है, उतनी ही सुरक्षा का विचार छोड़ देता है। जो जितना अभय होता है, उतना परिग्रह छोड़ देता है।
मोहम्मद जिस रात मरने को थे...। उनका रोज का नियम था, सांझ को--लोग जो उन्हें भेंट कर जाते--सांझ को खाने के बाद जो बचता, वे बांट देते। एक भी चावल का दाना घर में न रखते। जिस रात वह मरने को थे, बीमार थे, और वैद्यों ने कहा, मर जाएंगे, उनकी पत्नी को डर हुआ। उसने पांच दीनार, पांच रुपए बचा कर रख लिए कि शायद रात, असमय में बीमारी बढ़ जाए और वैद्य को बुलाना पड़े।
मोहम्मद आधी रात को बोले कि मुझे ऐसा लगता है, मेरे घर में कोई परिग्रह किया गया है। उसकी पत्नी ने कहा, तुम्हें यह कैसे पता चला? मैंने पांच रुपए रोके हैं, लेकिन तुम्हें यह पता कैसे चला? मोहम्मद ने कहा, तू इतनी भयभीत मालूम हो रही है कि मुझे शक हुआ। इतना भयभीत आदमी अपरिग्रही नहीं हो सकता।
सोचते हैं आप! मोहम्मद ने कहा, तू इतनी भयभीत है मेरे मरने से कि मैं यह समझ भी नहीं सकता कि तूने रुपए न बचाए होंगे। रुपए बांट दे, ताकि मैं निश्चिंत मर सकूं; और यह नाम मेरे पीछे न रहे कि मोहम्मद के मरते वक्त पांच रुपए पास में थे।
वे रुपए बांट दिए गए और मोहम्मद ने चादर ओढ़ ली और लोगों ने देखा, उनकी श्वास विलीन हो गई। मोहम्मद ने यह कहा कि तू इतनी भयभीत है, इसलिए मैं जान रहा हूं कि तूने जरूर कुछ रोका होगा।
यह मैंने इसलिए कहा कि जिसके भीतर भय है, वह परिग्रही होगा। इसलिए मैं आपसे परिग्रह छोड़ने को क्या कहूं! परिग्रह छोड़ने के लिए पागल कहते होंगे। मैं आपसे भय छोड़ने को कहता हूं। भय जड़ है। परिग्रह कोई जड़ नहीं है। और भय तब छूटेगा, जब आपको दिखाई पड़े कि मेरे भीतर जो है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। क्योंकि मृत्यु एकमात्र भय है, और सब भय का मूल आधार है।
जो व्यक्ति स्वयं में प्रविष्ट होता है, वह देखता है कि मैं अमृत हूं, और तलवारें मुझे छेद नहीं सकतीं, और अग्नि मुझे जला नहीं सकती, और पवन मुझे उड़ा नहीं सकता। कोई रास्ता नहीं है कि मुझे खंड-खंड और टुकड़े-टुकड़े किया जा सके। मैं अखंड और अमृत हूं। ऐसा जो बोध है, उसका परिणाम अपरिग्रह होता है।
और जब कोई अपने भीतर प्रविष्ट होता है तो उसे दिखाई पड़ता है, यह आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है। इस आत्मा का न तो कोई काम है, न कोई राग है। तब उसके जीवन से अब्रह्मचर्य गिर जाता है और ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। मैं आपको यह कह रहा हूं कि जो सत्य को जानता है, अनिवार्यतया सत्य के अनुभव के बाद उसके जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य के फूल लग जाते हैं। जो सत्य के बीज बोता है, वह अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की फसल काटता है।
तो अगर अहिंसा पानी हो, प्रेम पाना हो, अपरिग्रह पाना हो, तो अपरिग्रह साधने में मत लग जाना, अहिंसा साधने में मत लग जाना। वैसी साधी हुई और कल्टीवेटेड अहिंसा झूठी होती है। वह अभिनय है, वह एक्टिंग है, वह असलियत नहीं है। इसलिए ऊपर से अहिंसा मालूम होगी और भीतर हिंसा बनी रहेगी।
कल मुझे किसी ने कहा कि कोई साधु हैं, जो मेरा विरोध करते हैं। मेरी एक प्यारी बहन मेरे साथ थी। उसने कहा कि फिर वे साधु नहीं होंगे। क्योंकि साधु को किसी से क्या विरोध हो सकता है! और जिसको विरोध हो सकता है किसी से, वह साधु कैसे हो सकेगा! तो साधुता ऊपर होगी, विरोध भीतर है। असाधुता भीतर होगी। हम ऊपर कपड़े ओढ़ ले सकते हैं, उसमें क्या दिक्कत है? और इस जमीन पर सारे लोग कपड़े ओढ़े हुए हैं और उनके असली नंगे आदमियों का हमें पता नहीं चल रहा है।
तो मैं आपको यह कहूं कि अहिंसा ऊपर से मत थोपना, कागज के फूल ऊपर से मत चिपका लेना। अगर सच में चाहते हैं कि अहिंसा के फूल विकसित हों, तो समाधि को साधना, सत्य को साधना, स्वयं में प्रविष्ट होना।
महावीर की मूल शिक्षा स्वयं-प्रवेश की है।
महावीर की मूल शिक्षा आत्म-बोध और आत्म-ज्ञान की है।
और जो अपने को जानता है, वह सब पा लेता है। सारे गुण उसमें बहे चले आते हैं। सारी श्रेष्ठताएं, सारी नैतिकताएं उसके पीछे छाया की तरह लग जाती हैं। जो स्वयं को जानता है, उसके जीवन में क्रांति अनायास हो जाती है। स्वयं को जानना एकमात्र चर्या में परिवर्तन, एकमात्र आचरण की क्रांति का मूल आधार है।
ऐसे मैं सत्य को महावीर की मूल आधार, मूल साधना अनुभव करता हूं।
और इस सत्य को जो पाना चाहे स्वयं में प्रविष्ट होकर, उसे कुछ बातें छोड़ देनी होंगी। पहली बात उसे यह छोड़ देनी होगी कि सत्य के संबंध में उसने जो धारणाएं बना ली हों, जो बिलीव्स बना लिए हों, जो विश्वास बना लिए हों, वे छोड़ देने होंगे। अज्ञान में सत्य के संबंध में जो भी धारणा होगी, वह असत्य होगी। सत्य को जिसे जानना है, उसे सारे विश्वास, सारी आस्थाएं छोड़ देनी होंगी और हिम्मत से शून्य में कूदना होगा। क्योंकि अगर हम सत्य के संबंध में पहले से धारणाएं बना लें, तो हम सत्य को कभी नहीं जान सकेंगे।
हम सत्य को तभी जान सकेंगे, जब हम सत्य के पास धारणा-शून्य होकर पहुंचें, खाली और रिक्त होकर पहुंचें, हमारे मन में कोई विचार न हो। हमारे मन में कोई धारणा, कोई कांसेप्ट न हो, कोई सिद्धांत न हो, कोई डॉक्ट्रिन न हो, कोई डॉग्मा, कोई संप्रदाय, कोई धर्म न हो। जब खाली और शून्य कोई अपनी आंखों को उठाता है, जब कोई मौन होकर अपनी आंखों को सत्य की तरफ उठाता है, तो उसे दर्शन होते हैं उसके, जो है। और जब तक कोई सोचता-विचारता है, तब तक उसके दर्शन नहीं होते, जो है।
अगर प्रकाश को जानना है तो आंख खोलो, प्रकाश को सोचो मत। और अगर सत्य को जानना है, तो स्वयं में भीतर प्रविष्ट हो जाओ, सत्य के संबंध में विचार और धारणाएं मत बनाओ। धारणाएं और विचार बनाने वाले पंडित हो सकते हैं, प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं होते।
महावीर कहते हैं, सब छोड़ दो और निराधार हो जाओ।
कल-परसों मैं एक कहानी कहता था। महावीर का शिष्य था गौतम। और महावीर के निर्वाण होने के समय तक गौतम को केवल-ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ था। महावीर ने उससे कहा कि तूने सब छोड़ दिया है। तू मुझको भी छोड़ दे। तो तुझे केवल-ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा।
लेकिन महावीर जैसे प्यारे आदमी को छोड़ना क्या आसान है! संसार छोड़ देना बहुत आसान है। इन अदभुत पुरुषों के चरण छोड़ने कैसे आसान है! लेकिन अदभुत हैं, अलौकिक हैं वे लोग जो अपने चरण छोड़ने को भी कहे हैं।
महावीर ने कहा, तू मुझे छोड़ दे। एक ही बाधा रह गई है कि तू मुझमें अटका है। यह अटकन भी छोड़ दे और मुक्त हो जा! सारी अटकन छोड़ दे, निराधार हो जा!
जो निराधार हो जाता है, वह स्वयं के आधार को पा लेता है। जो बाहर किसी भी आधार को पकड़े है, वह अपने को कैसे पा सकेगा? जब तक बाहर दृष्टि है, भीतर कैसे पहुंचेंगे? महावीर भी बाहर हैं, तीर्थंकर भी बाहर हैं, भगवान भी बाहर हैं। सबसे अशरण हो जाओ।
महावीर का निर्वाण हो गया। जब महावीर की मृत्यु हुई, मोक्ष हुआ, तो गौतम गांव के बाहर गया था। रास्ते में लौटते राहगीरों ने कहा, महावीर ने देह छोड़ दी। गौतम रोने लगा। उसने कहा, मेरा अब क्या होगा? उन भगवान के रहते मैं सत्य को न जान सका, अब मेरा क्या होगा? अब तो मैं निराधार हो गया, अब तो मेरा दीप बुझ गया, अब तो मेरा मार्गदर्शक खो गया। अब मेरा कौन है?
उन राहगीरों ने कहा, उन परम कृपालु भगवान ने अंतिम समय में तुम्हारे लिए एक सूत्र-वचन छोड़ा है। गौतम ने कहा, क्या कहा है, मुझे शीघ्र कहो! और वह वचन अदभुत था। और उस वचन को हृदय में रख लें। सारे धर्मों के लोग उस वचन को हृदय में रख लें। बहुमूल्य है वचन। महावीर ने कहा, गौतम, तू सारी नदी को पार कर गया, अब किनारे को पकड़ कर क्यों रुक गया है! किनारे को भी छोड़ दे।
महावीर ने कहा, गौतम, तू सारी नदी पार कर गया, अब किनारे को पकड़ कर क्यों रुक गया है! किनारा भी छोड़ दे। और इस वचन को सुनते ही गौतम को ज्ञान उत्पन्न हो गया। एक ही संध्या बाद गौतम को केवल-ज्ञान उत्पन्न हो गया! उसने सत्य को जाना।
जिसे सत्य को जानना है उसे संपत्ति ही नहीं छोड़नी पड़ती, जिसे सत्य को जानना है उसे चित्त से सारा कचरा छोड़ देना होता है और शून्य हो जाना होता है। जो शून्य होगा, वह पूर्ण को पाने का हकदार हो जाता है। और जो सब छोड़ देगा, वह सब पाने का अधिकारी बन जाता है। यही संन्यास है।
संन्यास का अर्थ बाहर कपड़े-लत्ते छोड़ देने से नहीं है। संन्यास का अर्थ, भीतर जो कपड़े-लत्ते और फर्नीचर इकट्ठा हो गया है दिमाग में, उसको छोड़ देने से है। भीतर जो कचरा-कबाड़ इकट्ठा हो गया है, उसे छोड़ देने से है। और स्मरण रखें, उस कचरे में कई चीजें सोने की भी हैं, लोहे की भी हैं। लोहा छोड़ देने में उतनी दिक्कत नहीं होती। असली सवाल सोने को छोड़ देने का है। भीतर चित्त से शुभ और अशुभ के जो विचार छोड़ देगा, वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध होता है। अशुभ के विचार छोड़ना आसान है, शुभ के विचार छोड़ना कठिन है। लेकिन जो शुभ-अशुभ दोनों को छोड़ देता है, जो पाप-पुण्य दोनों चिंतनाओं को छोड़ देता है, जो धर्म-अधर्म दोनों चिंतनाओं को छोड़ कर शून्य में प्रविष्ट होता है, वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। तब वही केवल शेष रह जाता है, जो है। वही केवल शेष रह जाता है, जिसकी सत्ता है। वही केवल शेष रह जाता है, जो सत्य है। उसे जान कर अपूर्व आनंद को, अपूर्व मुक्ति को व्यक्ति अनुभव करता है। उसके पहले हम मुर्दे हैं। उसके पहले कोई अपने को जीवित न समझे। उस सत्य को जानने के पहले हम मुर्दे हैं।
इसलिए मैं कहता हूं कि मुर्दे हैं। मैं अपना स्मरण करता हूं। मैं जिस दिन पैदा हुआ, उस दिन से मैं जान रहा हूं कि मैं रोज मर रहा हूं, मैं रोज मरता जा रहा हूं। एक दिन यह मरण की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। इसको मैं जीवन कैसे कहूं, यह तो ग्रेजुअल डेथ है! यह तो क्रमिक मृत्यु है! यह तो आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाना है! इसे मैं जीवन कैसे कहूं? जीवन क्या कभी मर सकता है? जो जीवन है, वह कभी नहीं मरता। जो जीवन है, वह अमृत होगा। जो मर जाता है, वह जीवन नहीं है। अभी हम मुर्दे हैं। लेकिन हमारे भीतर अमृत बैठा हुआ है। और अगर हम मुर्दे की खोल के भीतर प्रविष्ट हो जाएं, तो हम अमृत को अनुभव कर सकेंगे और सच्चे जीवन को उपलब्ध कर सकेंगे।
महावीर की ये शिक्षाएं किसी एक धर्म के लिए नहीं हैं। महावीर का यह मार्ग किसी एक व्यक्ति के लिए, किसी एक संप्रदाय के लिए, किसी घेरे के लिए नहीं है। इतने बड़े विराट पुरुष जिनका प्रेम अनंत तक पहुंचता हो, किसी के लिए नहीं होते, सबके लिए होते हैं। ईश्वर करे कि जैन जो समझते हैं कि महावीर हमारे हैं, महावीर का पिंड और पीछा छोड़ दें, ताकि वे सबके हो जाएं।
अभी दस वर्षों बाद महावीर की पच्चीस सौवीं वर्षगांठ होगी। पच्चीस सौ वर्ष उस दिव्य जीवन को हुए पूरे होंगे। और तब मैं चाहता हूं कि सारी दुनिया अनुभव करे कि उनकी मूल शिक्षा क्या है। और सारी दुनिया अनुभव करे महावीर में, कि उसमें क्राइस्ट भी मौजूद हैं उनमें और कृष्ण भी मौजूद हैं और बुद्ध भी मौजूद हैं। उनकी ज्योति को सारी दुनिया अनुभव कर सके। दस वर्षों बाद सारी दुनिया को यह बोध हो सके कि महावीर सबकी संपत्ति हैं। यह बोध तभी होगा, जब उन पर संपत्ति होने का अधिकार उनके पीछे जो खड़े हैं, वे छोड़ दें। वे कहें कि महावीर उसके हैं जो उनका प्यासा होगा। और सच है यह, पानी उसका है जो प्यासा है। और कुआं उसका है जो उसमें पानी पीता है। वे नासमझ जो कुएं के बाहर बैठे हों और कुएं की बातें करते हों, कुआं उनका नहीं है।
महावीर सबके हों, सबके हो सकें, उनकी शिक्षा सबके काम आ सके, और यह मनुष्य जो विकृत हो गया है, यह मनुष्य जो अस्वस्थ और विक्षिप्त और बीमार हो गया है, इस मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए वे आधार बन सकें, ऐसी कामना करता हूं। अंत में सबके भीतर बैठे हुए महावीर के लिए मैं अपने प्रणाम दूंगा और एक बात आपसे कहूंगा।
अगर आपका प्रेम यह कहता हो कि महावीर की यह शिक्षा और उनके प्रेम और ज्ञान की शिक्षा दूर-दूर तक व्याप्त हो जाए, और ये समुद्र की लहरें उसे दूर किनारों तक ले जाएं, और ये हवाएं उसे अनंत तक पहुंचा दें, तो महावीर का एक छोटा सा वचन है, वह हम सारे लोग अपने हाथों को ऊपर उठा कर कहेंगे, ताकि वह वचन गूंजे और उसकी लहरें और तरंगें दूर तक पहुंच जाएं। और वह वचन उपयोगी है। सारी दुनिया से उसमें अमृत बरस सकता है। महावीर ने कहा है--महावीर ने कहा है: मित्ति मे सव्व भुए सू--मेरी सारे प्राणियों से मैत्री है। वैरं मज्झ न केवई--और मेरा किसी से कोई विरोध नहीं।
यह सत्य, यह विचार, उनके जीवन-आधार, उनकी साधना का मूल अनुभव है। मैं चाहूंगा, हम तीन बार हाथ ऊपर उठा कर इसे दोहराएंगे अपनी पूरी शक्ति से, ताकि यह समुद्र, ताकि ये हवाएं, ताकि यह आकाश गूंजे उससे और यह विचार करोड़ों-करोड़ों लोगों को प्रभावित करे, उनको परिवर्तित करे। हम अपने दोनों हाथ ऊपर उठाएं। सारे लोग उठाएं, कोई आदमी इतनी कंजूसी न करे कि थोड़ी देर को दो हाथ न उठा सके और मैं तीन बार दोहराऊंगा, हम अपनी पूरी शक्ति से उस वचन को दोहराएंगे। मैं कहूंगा पहले, फिर आप उसे दोहराएंगे।
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
एक साथ और जोर से।
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
"वैरं मज्झ न केवई!'
सबकी आवाजें: "वैरं मज्झ न केवई!'
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
"वैरं मज्झ न केवई!'
सबकी आवाजें: "वैरं मज्झ न केवई!'
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
"वैरं मज्झ न केवई!'
सबकी आवाजें: "वैरं मज्झ न केवई!'
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