बारहवां प्रवचन—अभी
और यहीं है भक्ति
दिनांक १२ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न-सार :
1—भगवान, भक्ति और भोग में
क्या कुछ आंतरिक तारतम्य है?
2—एक मित्र ने...सुझाव दिया है! कि नारद के सूत्र
में सुधार होना चाहिए!
3—क्या कारण है कि कामवासना के उठने पर होश में
भी उसकी प्रगाढ़ता बनी रहती है?
4—जिसे आप स्वप्न कहते हैं, वह हमें सत्य मालूम देता है और आपका सत्य हमारे लिए स्वप्नवत है। किसकी
गंगा उलटी बहती है?
5—सत्रह-अठारह वर्ष की उम्र में मेरे पिताजी
धूनीवाले बाबा के सान्निध्य में कुछ अनुभव पाकर विक्षिप्त हो गए, समाज में स्वीकृत न हो सके...! अब जीवन के अंतिम चरण में उनके लिए नये
जन्म की क्या कोई संभावना है?
पहला प्रश्न: भगवान, भक्ति और भोग में क्या कुछ आंतरिक तारतम्य है?
भोग को जानता है सिर्फ भक्त ही। भक्त के अतिरिक्त भोग को किसी ने जाना
नहीं; क्योंकि भोग तो सिर्फ भगवान का ही हो सकता है। जिसे
तुम संसार में भोग कहते हो वह तो भोग की छाया भी नहीं; वह तो
भोग की दूर की, प्रतिध्वनी भी नहीं; उसे
तो भोग का आभास कहना भी गलत होगा--भोग की भ्रांति है।
जिन्होंने परमात्मा को जाना उन्होंने ही भोगा। भोग भक्त और भगवान के
बीच का संबंध है। भोग की गंगा बहती है भगवान औरभक्त के किनारों के बीच--एक तरफ
भगवान, दूसरी तरफ भक्त, बीच में भोग की
गंगा का प्रवाह ।
भोग बड़ा बहुमूल्य शब्द है--योग से ज्यादा बहुमूल्य। लेकिन मेरे अर्थ
को ठीक से समझ लेना। योग तो फिर भी मनुष्य की बुद्धि का जोड़ है, हिसाब-किताब है, विधि-विधान है। भोग बुद्धि का नहीं,
हृदय का परमात्मा से जोड़ है; न कोई हिसाब है,
न कोई किताब है, न कोई विधि-विधान है। समग्र
समर्पण है; समग्र निवेदन है।
भक्त अपने को भगवान के चरणों में रख देता है; उसी क्षण से श्वास-श्वास में भगवान का भोग शुरू हे जाता है।
भोग के अर्थ को जाना तो जा सकता है, कहा नहीं जा सकता;
क्योंकि भोग स्वाद की बात है। जिसने लिया हो, वही
जानेगा। और जिसने जाना हो, वह भी कह न सकेगा; क्योंकि स्वाद की बात है, गूंगे का गुड़ है। और सारे
स्वाद तो इन्द्रियों के हैं। आंख से रूप का स्वाद मिलता है। कान से स्वर का स्वाद
मिलता है। हाथ से स्पर्श का स्वाद मिलता है। परमात्मा तुम्हारी समग्रता का स्वाद
है। आंख, कान, हाथ, पैर--तुम पूरे के पूरे एक ही लयबद्धता में , एक ही
नृत्य में लीन हो जाते हो। आंखें देखती ही नहीं, सुनती भी
हैं। कान सुनते ही नहीं, देखते भी हैं। हाथ छूते ही नहीं,
गंध भी लेते हैं। तुम्हारी पूरी समग्रता अस्तित्व के साथ आंदोलित
होती है। उस घड़ी का नाम स्वाद है।
जिन्हें तुमने संसार में स्वाद जाना है, वे तो केवल
इन्द्रियों के आभास हैं, धोखे हैं। जिसने परमात्मा का स्वाद
जान लिया, संसार के स्वाद अपने से ही छूट जाते हैं। छोड़ना
पड़े तो एक बात पक्की है कि तुमने परमात्मा के स्वाद को नहीं जाना।
इसलिए भक्त त्याग की बात ही नहीं करता। यह कोई सौदा नहीं है कि तुम
छोड़ोगे तो परमात्मा को पाओगे। तुम परमात्मा को पा लोगे तो तुम पाओगे, अचानक बहुत कुछ छूटने लगा। जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं,
ऐसा ही कुछ व्यर्थ हो जाएगा और गिर जाएगा। स्वाभाविक है कि जब परम
स्वाद मिले तो क्षुद्र का स्वाद गिर जाए। जब परम भोग सजा हो तो रूखे-सूखे के लिए
कौन राजी होगा! जब उसका मंदिर खुले तो कौन क्षुद्र में अपना आवास बनाएगा! इसलिए भक्त
के लिए भोग तो बड़ा अनूठा शब्द है।
भक्त अपने को समर्पित करता है। वह कहता है, "तुम्हीं सम्हालो! अपने को सम्हालता हूं तो अहंकार निर्मित होता है। अहंकार
ही दूरी खड़ी करता है। जितना मैं होता जाता हूं उतना दूर होता चला जाता हूं'। तो भक्त कहता है, "तुम्हीं सम्हालो! मैं अपने
को बीच में खड़ा न करूंगा। न तो करूंगा जप, न करूंगा तप,
न त्याग, न तपश्चर्या--क्योंकि उस सबसे अंहकार
निर्मित होता है। उस सबसे लगाता है: मैं कुछ हूं'!
करने से स्वभावतः "मैं' निर्मित होता है।
इसलिए भक्ति कोई कृत्य नहीं है। भक्ति शुद्ध समर्पण है।
भक्त कहता है, "मैं सम्हाल नहीं सकता अपने को, छोड़ता हूं तुम्हारे चरणों में! तुम्हीं जहां ले जाओ, चलूंगा; तुम्हीं जो कराओ, करूंगा;
तुम्हीं श्वास लो, तो श्वास लूंगा, तुम्हीं रुक जाओ तो रुक जाऊंगा'। ऐसा समग्र न्योछावर,
सर्वस्व दान--तत्क्षण भोग की घड़ी आ जाती है--इधर तुमने अपने को छोड़ा
उधर परमात्मा तुम्हें मिलना शुरू हुआ।
भगवान, भक्त्ति और भोग, तीनों बड़े जुड़े
हुए शब्द हैं। योग तो कहता है, हम टूट गए हैं, जोड़ना पड़ेगा। योग का अर्थ होता है: जोड़। योग शब्द का ही अर्थ होता है:
जोड़। योग कहता है: हम टूट गए हैं परमात्मा से, जोड़ना पड़ेगा।
भोग का अर्थ होता है: हम जुड़े ही हैं, भोगना शुरू करो। देर
कैसी? व्यर्थ प्रतीक्षा किसकी कर रहे हो? हम जड़े ही हैं, जोड़ना नहीं है। अगर टूट गए होते तो
जोड़ने का फिर कोई उपाय न था। टूटे नहीं हैं, इसलिए जुड़ सकते
हैं। जोड़ने की चर्चा की मत उठाओ। जुड़े हैं।
तुम हो कैसे सकते हो बिना परमात्मा से जुड़े हुए? एक क्षण को भी न हो सकोगे, एक पल को भी न हो सकोगे।
वही श्वास लेगा तो श्वास चलेगी। वही सूरज बनकर चमकेगा तो शरीर को उत्ताप मिलेगा।
वही हवाओं में आएगा तो प्राण मिलेगा। वही वर्षा में आएगा तो प्यास बुझेगी। वही
भोजन में आएगा तो शक्ति मिलेगी। वही हजार-हजार रूपों में आएगा तो ही तुम जी सकोगे।
एक क्षण को भी उससे टूटे कि जीना समाप्त हुआ। उससे जुड़े होने का नाम ही तो जीवन
है।
इसलिए भक्त कहता है: टूटना तो हुआ ही नहीं, जोड़ने की बात ही गलत है। भक्त कहता है: जुड़े हैं, अब
बस भोगना है। भक्त कहता है: तुम जुड़े हो और भोग नहीं रहे--कैसे पागल हो! किस बात
की प्रतीक्षा कर रहे हो? उत्सव की पूरी तैयारी हो चुकी है।
सब पूरा-पूरा तैयार है, तुम बैठे कैसे हो उदास? तुम राह किसकी देखते हो? जिसकी तुम राह देखते थे वह
आ ही चुका है। वह तुम्हारे भीतर ही निनादित है। तुम किसे पुकार रहे हो? जिसने पुकारा है, वही तो तुम्हारी पुकार है। तुम
किसे खोजने चले हो? जो खोजने निकला है, उसमें ही तो छिपा है।
भक्त कहता है: भोगो! एक पल भी खोने जैसा नहीं है: तैयारी करनी होती तो
समय लगता। इसलिए भक्ति की दृष्टि बड़ी अनूठी है। योग की दृष्टि में तो समय समाविष्ट
है; कुछ करोगे, कल कुछ होगा, फल
मिलेगा, बीज बोओगे, फसल उगेगी, काटोगे--हजार उपद्रव हैं--वर्षा होगी, न होगी;
संयोग मिलेंगे, बनेंगे, न
बनेंगे! लेकिन भक्त कहता है, कल की तो बात ही नहीं। जिसे तुम
भोगना चाहते हो वह इसी क्षण तुम्हारे हाथ में है।
ऐसा देखते ही, ऐसी सुध आते ही--इसको ही सुरति, इसको ही स्मृति, इसको ही बोध...ऐसी सुरति आते ही
भक्त नाचने लगता है। इसलिए भक्त नाचे। योगियों ने साधा--भक्त नाचे। योगियों ने बड़े
विधि-विधान बनाए--भक्तों ने भोगा। योगियों ने आसन, प्राणायाम,
व्यायाम किए--भक्तों ने उठा ली वीणा।
उत्सव तैयार ही है। समारम्भ रचा ही हुआ है। यहां देर है ही नहीं। यहां
क्षणभर भी खोना अपने ही कारण खोना है, उसके कारण नहीं।
भोग की दृष्टि यह है, परम भोग की, भक्त के भोग की दृष्टि यह है कि एक भी तैयारी की जरूरत नहीं है। समय
अनिवार्य नहीं है। इसी क्षण आया हुआ है तुम्हारे द्वार पर परमात्मा। इसी क्षण उसने
तुम्हें चारों ओर से घेरा है। उसी का स्पर्श तुम्हें हो रहा है हवाओं में। उसी की
श्वास तुम्हारे हृदय को गतिमान किए है। वही है तुम्हारा सोच-विचार। वही है
तुम्हारा ध्यान। इस बात की प्रतीति, प्रत्यभिज्ञा, बस काफी है।
इसलिए भक्त्त एक छलांग लगाता है। योगी का सिलसिला है, सीढ़ियां-दर-सीढ़ियां चढ़ता है। भक्त एक छलांग लगाता है--बोध की छलांग। एक
क्षण पहले उदास था, हारा थका था। एक क्षण पहल संतप्त था। एक
क्षण पहले नरक में था; एक क्षण बाद स्वर्ग में।
भक्त चमत्कार है! एक क्षण पहले राख ही राख था, कहीं फूल न दिखाई पड़ते थे। सुधि के आते ही एक क्षण बाद फूल खिल गए। तुम
कल्पना ही न कर पाओगे कि यह कैसे हुआ। भक्त के पास भी उत्तर नहीं है। योगी के पास
उत्तर है। योगी कहेगा, "ऐसा-ऐसा किया, इतना-इतना साधा, ऐसी-ऐसी विधियां कीं, ऐसे-ऐसे उपाय किए--यह इसका फल है'।
योगी का गणित है। भक्त का कोई गणित नहीं--भक्त का प्रेम है। इसलिए
मीरा को किसी ने देखा कभी योग साधते? हां, अचानक एक दिन नाचते देखा। अचानक एक दिन बह चली, नाच
उठी। इसीलिए तो किसी की समझ में भी न आया, घटना इतनी आकस्मिक
थी। कोई भरोसा न कर सका।
महावीर समझ में आते हैं--बारह वर्ष की लंबी तपश्चर्या है। जिनके पास
बुद्धि नहीं है उनको भी समझ में आ जाते हैं--इतना श्रम किया, अगर आनंद को उपलब्ध हुए, तो बात हिसाब की है। बुद्ध
समझ में आते हैं--छह वर्ष का कठिन श्रम, साधना--फिर आगर आनंद
को उपलब्ध हुए, ठीक।
मीरा बेबूझ है! कल तक घूंघट में छिपी थी, किसी को पता भी न था। कभी किसी ने जाना भी न था कि कुछ साधा है इसने।
अचानक, पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! घर के लोग भी भरोसा न
कर सके--"पागल हो गई! मस्तिष्क खराब हो गया! कहीं ऐसे मिला है परमात्मा?
बड़ी मुश्किल से मिलता है'।
हमारे अहंकार ने बड़ी मुश्किलें खड़ी कर ली हैं। हमारा अहंकार जो सरलता
से मिल जाए, उसके लिए राजी नहीं होता। अहंकार कहता है: पहाड़-पर्वत
चढ़ने पड़ेंगे। ऐसा हाथ फैलाने से जो मिल जाए, घर बैठे जो मिल
जाए, अहंकार उससे राजी नहीं होता, भरोसा
नहीं करता। महावीर को मिला होगा, मीरा को कैसे मिला?
मीरा का नृत्य आकस्मिक है--लेकिन भक्त्ति आकस्मिक है! इस बात को ठीक
से समझ लेना। भक्ति की कोई साधना नहीं है; भक्ति सिद्धि है पहले
ही क्षण से; सिर्फ बोध की बात है।
कभी उन मदभरी आंखों से पिया था इक जाम
आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश
नहीं।
एक बार झलक मिल जाए, बस काफी है। एक बार परमात्मा की
प्रतीति आ जाए, एक बार ऐसे समझ उठ खड़ी हो बिजली की कौंध की
तरह कि वह उपलब्ध है, मैं रुका किसलिए, प्रतीक्षा किसकी करता हूं--तो जो नृत्य शुरू होता है, उसका फिर कोई अंत नहीं।
कभी उन मदभरी आंखों से पिया था इक जाम
आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश
नहीं।
भक्ति का होश बेहोशी जैसा है। भक्त का ध्यान तल्लीनता जैसा है। भक्त
का होना न होने जैसा है। भक्त अपने को खोकर ही पाता है। भक्त अपने को डुबाता है, जैसे बूंद गिर जाए सागर में। भक्त जुआरी है।
बूंद जब सागर में गिरती है तो पक्का क्या है कि बचेगी! पक्का क्या है
कि खो ही न जाएगी सदा को? पक्का हो भी नहीं सकता। गारंटी होगी भी तो कैसी होगी,
कौन देगा? बूंद मिटने को तैयार होती है,
मिटते ही सागर हो जाती है।
लेकिन ध्यान रखना, यह जो भोग है, यह जो परमात्मा और उसके प्रेमी के बीच घटता है, भगवान
और भक्त के बीच जो धारा बहती है जीवन की--यह कुछ समझने-समझाने की बात नहीं है। जो
मैं तुमसे कह रहा हूं, वे सिर्फ इशारे हैं; खयाल में आ जाएं तो कूद पड़ना। यह मैं तुम्हारी, समझ
बढ़ जाएगी मेरे कहने से, इसलिए नहीं कह रहा हूं। यह तुम्हारा
ज्ञान कुछ थोड़ा और बढ़ जाएगा भक्ति के संबंध में, इसलिए नहीं
कह रहा हूं। क्योंकि भक्ति का ज्ञान से क्या लेना-देना?
एक ऐसा राज भी दिल के निहांखाने में है
लुत्फ जिसका कुछ समझने में न समझाने में है।
बहुत गहरे हृदय के आत्यंतिक तल पर छिपा है रहस्य; न समझ में आता है न समझाने में आता है। भक्ति बेबुझ है। भक्ति एक पहेली है,
एक रहस्य है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, भक्ति
उनके लिए नहीं है। वे अपनी बुद्धि के कारण ही खोते चले जाएंगे। जो अपने को समझदार
समझते हैं, भक्ति उनके लिए नहीं है। यह तो नासमझों के लिए
है। मगर नासमझी को लुत्फ और मज़ा और। समझदारी बड़ी गरीब है। नासमझी की संपदा बड़ी है।
समझदारी तो बड़ी क्षुद्र है--तुम्हारी है। नासमझी विराट है। समझदारी तो ऐसी है जैसे
छोटा सा दिया जलता हो, और टिमटिमाती रोशनी हो। नासमझी ऐसी है
जैसे विराट अमावस की रात हो, गहन अंधकार हो, और न छोर, कोई सीमा नहीं!
भक्त तो अपनी नासमझी से परमात्मा के पास पहुंचता है। और समझदारी से
कोई भी पहुंचा है, ऐसा सुना नहीं। समझदारी रोक लेती है, पैर की जंजीर हो जाती है। समझदारी नाच नहीं बन पाती। नाचकर ही कोई पहुंचता
है। समझदारी गंभीर हो जाती है।
एक मित्र ने पूछा है--पूछा नहीं, समझदार होंगे--सुझाव
दिया है। सुझाव दिया है कि नारद के सूत्र में कहा गया कि भक्ति से भगवान मिलता
है--यह बात ठीक नहीं। भक्ति से शक्ति मिलती है--शक्ति से भगवान मिलता है। सूत्र
में सुधार होना चाहिए।
ऐसी बुद्धिमानी पैर की जंजीर हो जाएगी। ऐसी बुद्धिमानी तुम्हें
पहुंचाएगी न, अटका देगी--बुरी तरह अटका देगी। नारद का समझ लो। नारद
को समझाने मत चलो। नारद से कुछ मिलता हो, ले लो। नारद को
देने मत चलो। तुम्हारे पास अभी है क्या जो तुम दोगे? अगर
तुम्हें यह ही पता हो गया होता तो तुम यहां आते क्यों? तुम
किसकी तलाश कर रहे हो फिर?
लेकिन बुद्धि हिसाब लगा लेती है उन सब चीजों का जिनका उसे कोई पता भी
नहीं। बुद्धि उन सब चीजों के संबंध में भी सिद्धांत बना लेती है जिनका स्वप्न भी
उसे नहीं आया। तुम्हें न भगवान का पता है, न तुम्हें भक्ति का
पता है। हां, तुमने कुछ किताबें पढ़ ली होंगी। किताबों से कुछ
तुमने सूचनाएं इकट्ठी कर ली होंगी। अब तुम कुछ तर्कजाल में पड़ गए होओगे। इस
तर्कजाल से कोई कभी पहुंचा नहीं। यही अटकाता है।
नासमझी चाहिए। पांडित्य नहीं, बड़ी असहाय भाव की दशा
चाहिए। तर्क नहीं, हारा हुआ तर्क चाहिए; मिटा हुआ, टूटा हुआ तर्क चाहिए। जब तक तुम्हें लगता
है तुम अपनी रह बना लोगे, तभी तक तुम भटकोगे। तब तक तुम जो
राह बनाओगे, वही तुम्हारा भटकाव होगी। जिस दिन तुम असहाय हो
जाओगे और पाओगे, "मेरे किए कुछ भी नहीं होता। बुद्धि से
कुछ समझ में आता नहीं। खूब समझ कर बैठ गया हूं, कहीं पहुंच
नहीं पाता'।...जिस दिन तुम थके-मांदे, हारे-पराजित,
असहाय, रोने लगोगे, आंसू
बहने लगेंगे--तर्क नहीं चाहिए, आंसू चाहिए--बुद्धि में विचार
न उठेंगे, भाव उठने लगेगा; जिस दिन तुम
बैठकर सोच-विचार न करोगे, नाचने लगोगे, बुद्धि में तर्क का शोरगुल नहीं, पैरों में घूंघर
बंधे होंगे--उस दिन, उस दिन पहली दफा वर्षा होगी, तुम्हारी भूखी-प्यासी भूमि पर; उस दिन पहली दफा
भगवान से तुम्हारा संस्पर्श होगा; भोग का पता चलेगा।
भक्तों ने कुछ कहा नहीं है; जो कहा है, उससे कुछ साफ नहीं होता। भक्तों ने कोई तर्क नहीं किया है। जो बात भी की
है, वह इंगित की है, व्याख्या की नहीं
है; प्रणाम नहीं है कोई उसमें, सीधे-सीधे
वक्तव्य हैं।
अगर भक्तों को समझना हो तो शास्त्रों में जाने का कोई सार नहीं
है--किसी भक्त की आंखों में जाना।
क्या हुस्न का अफसाना महदूद हो लफ्जों में
आंखें ही कहें उसको आंखों ने जो देखा है।
मीरा की आंखों में या चैतन्य की आंखों में...! वहीं है शास्त्र भक्ति
का। तो भक्त को समझने का ढंग ही और है। और भक्ति के शास्त्र को समझने के आयाम ही
और हैं। अगर सोच-विचार से तुम अभी थक नहीं गए हो, अभी थोड़ी और उमंग बची
है तड़फड़ा लेने की, तो तुम भक्ति की बातों में अभी मत पड़ो। तो
अभी बहुत है--वेदांत है, वेद हैं, उपनिषद
हैं। तो अभी योग है, सांख्य है। अभी बहुत शास्त्र पड़े हैं।
अभी थोड़ा वहां सिर फोड़ लो। जब तुम बिलकुल ही टूट जाओ और जब तुम्हें ऐसा लगे कि
कहीं के कोई द्वार नहीं मिलता; जब तुम रोने-रोने को हो जाओ;
जब तुम्हारे हृदय से एक आह निकले असहाय अवस्था की--वही प्रार्थना बन
जाएगी। वहीं से तुम्हारे जीवन में भक्त का अनुभव शुरू होता है। तुम्हारी हार में
ही भक्त पैदा होता है--तुम्हारी जीत से नहीं, तुम्हारी पराजय
में; तुम जहां बिलकुल लहूलुहान पड़ गए हो जमीन पर; जहां तुम्हारे पंख क्षत-विक्षत हो गए हैं और अपना किया अब कुछ भी नहीं
चलता--उसी क्षण, उस गहन पीड़ा से प्रार्थना उठती है। और तब एक
अनूठा अनुभव होता है, कि तुम नाहक ही दौड़-धूप कर रहे थे;
भगवान दूर न था, तुम्हारे दौड़ने के कारण दूर मालूम
पड़ता था। तुम व्यर्थ ही आयोजन कर रहे थे। तुम्हारे आयोजन ऐसे थे कि उनके कारण ही
बाधा पड़ती थी, अवरोध आता था। काश, तुम
कुछ न करते और सिर्फ खुली आंख से देख लेते, तो भगवान द्वार
पर खड़ा था। तुम्हारी व्यवस्था ने ही तुम्हें भटकाया था।
भोग तो स्वाद है--मिलेगा तो मिलेगा। भोग के संबंध में मैं कुछ भी कहूं, उससे हो सकता है भोग का लोभ पैदा हो जाए, लेकिन भोग
की कोई समझ न आएगी। इतना ही अगर तुम मेरी बात से समझ लो कि तुम्हारे जीवन में अभी
भोग जैसा कुछ भी नहीं है...! तुम्हारे धार्मिक गुरु, तुम्हारे
साधु-संत तुम्हें कहते हैं, "छोड़ो भोग, पाप है'। मैं तुमसे कहता हूं, "तुमने भोग किया ही नहीं। छोड़ने योग्य तुम्हारे पास है क्या?'
तुम्हारे साधु-संत तुम्हें समझाते हैं कि संसार के भोगों के कारण ही
तुम परमात्मा तक नहीं पहुंच पा रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा तक जब तक न
पहुंचोगे तब तक तुम्हें पता भी न चलेगा कि जिन्हें तुम भोग कह रहे हो, वे भोग हैं ही नहीं। तुमने कांटों को फूल समझा है। सब तरह से लहूलुहान हो,
फिर भी तुम कांटों को फूल समझे चले जाते हो। दुख ही पाते हो जहां
तुम सुख खोजते हो, फिर भी तुम सुख माने चले जाते हो।
तुम भोगी नहीं हो, विक्षिप्त भला होओ। तुम भोगी कतई
नहीं हो, भूले हुए भला होओ। तुमसे भूल भला हो रही हो,
पाप नहीं हो रहा है। तुम पर दया आ सकती है, तुम्हारे
ऊपर निंदा आने का कोई कारण नहीं है। इसलिए जो तुम्हें पापी कहते हो, जो तुम्हारी निंदा करता हो और जो तुमसे कहता हो, "तुम कुछ ऐसे भोग में पड़े हो जिसके कारण तुम परमात्मा तक नहीं पहुंच पा रहे
हो, " वह तुम्हें मुक्ति की तरफ ले जा न सकेगा। क्योंकि
उसके निषेधों के कारण, उसके विरोधों के कारण तुम्हारा भोग
में और आकर्षण बढ़ता चला जाता है--जिसे तुम भोग कहते हो, जो
भोग नहीं है। उसके निषेध तुम्हें और लोलुप करते हैं।
हजवे मैंने तेरा ऐ शेख! भरम खोल दिया
तू तो मस्जिद में है, नियत तेरी मैखाने में है।
वह जो मंदिर-मस्जिद में शराब की बुराई कर रहा है, उसकी बुराई भी उसके भीतर के राज को खोले दे रही है। बुराई भी हम उसी की
करते हैं जिसमें हमारा रस होता है।
हजवे मैंने तेरा ऐ शेखे! भरम खोल दिया--यह जो तूने निंदा की है शराब
की, इससे तरे भीतर का राज भी पता चल गया: तू तो मस्जिद में है, नियत तेरी मैखाने में है--तू यहां मस्जिद में बैठा होगा, लेकिन मन तेरा अभी भी मैखाने में है।
अगर तुम्हारा धर्मगुरु स्त्रियों की निंदा कर रहा हो तो समझना कि
स्त्रियों में रस अभी कायम है। अगर धन को गाली दे रहा हो, उपवास की शिक्षा दे रहा हो, तो समझना कि रस अभी भोजन
में है। और उसके विरोध से तुम्हारा रस मिटेगा नहीं, उसके
विरोध से बढ़ेगा। क्योंकि जितना ही तुम्हें कोई चीज कही जाए कि बुरी है, निषेध किया जाए, इनकार किया जाए, उतना ही मन को लगता है कि जरूर कुछ होगा, तभी तो
इतने सारे धर्मगुरु, इतने मंदिर-मस्जिद इसके विरोध में खड़े
हैं।
जिस दरवाजे पर लिखा हो, "भीतर झांकना
मना है', वहां झांकने का मन हो जाता है। तो जिन-जिन चीजों को
लोगों ने पाप कहा है उन-उनको करने की आकांक्षा प्रबल हो गई है।
तुम छोटे से बच्चे को देखो! छोटा बच्चा मन का सबूत है, क्योंकि मन सभी के छोटे बच्चों जैसे हैं। उससे तुम कहो कि फलां चीज मत
खाना, उसे शायद याद भी न थी, तुमने
कहकर और याद दिला दी। उससे कहो कि फलां जगह मत जाना, दुनिया
बड़ी है, शायद वह जाता भी न उस जगह; लेकिन
तुमने अब सारी दुनिया को इनकार कर दिया और एक ही जगह पर उसका ध्यान आकर्षित कर
दिया। अब वहीं जाएगा। तुम्हारे कहने ने ही बता दिया कि जरूर कुछ राज होगा, अन्यथा कौन किसको मना करता है? जरूर कोई बात काम की
होगी, रहस्य की होगी!
ईसाइयों की कथा है कि परमात्मा ने आदमी को बनाया और उससे कहा कि यह एक
वृक्ष है--ज्ञान का वृक्ष--इसके फल तू मत खाना। बगीचे में अनंत वृक्ष थे, मगर सब वृक्ष व्यर्थ हो गए, अदम की आंखें उसी वृक्ष
पर लटक गईं। रात सोते-जागते उसको उसी-उसी की याद आने लगी होगी। स्वाभाविक है। भूल
अदम की नहीं, भूल परमात्मा की है। इतने वृक्ष थे, अगर न कहा होता तो मैं समझता हूं शायद अभी तक भी वह खोज न पाया होता;
खोजने की जरूरत ही न रही। तुमने तख्ती लटका दी।
जहां-जहां निषेध है, वहां-वहां निमंत्रण हो जाता है।
जहां कोई कहे, "मत करो', करने की
प्रबल आकांक्षा जगती है। अहंकार नहीं के साथ जूझने लगता है, प्रतिरोध
पैदा होता है।
जिन चीजों को लोगों ने पाप कहा है, उन्होंने तुम्हें
ग्रस लिया। मैं तुमसे कहता हूं, कोई पाप नहीं है, तुम्हारी भूल हो सकती है। भूल है! "पाप'--तुम्हारी
छोटी-छोटी भूलों के लिए बहुत बड़ा शब्द हो गया! इतना बड़ा शब्द का उपयोग ठीक नहीं।
कोई आदमी को भोजन में थोड़ा रस आ रहा है, इसको "पाप'...!
भूल भला हो, पाप क्या है? किसी आदमी को वस्त्र पहनने में सुख मिलता है--भूल भला हो, पाप क्या है? और जिसको वस्त्र पहनने में रस मिलता है
वह केवल एक बात की खबर देता है कि उसे अपने आंतरिक सौंदर्य का कोई पता नहीं;
उसे आंतरिक सौंदर्य का पता हो जाए तो बाहर की सजावट वह बंद कर देगा।
जो आदमी धन के पीछे दौड़ रहा है, वह इतनी ही खबर देता
है कि उसे भीतर के धन की कोई खबर नहीं। जो आदमी बाहर के पदों की तलाश कर रहा है,
उसे परमपद की कोई सूचना नहीं मिली, अन्यथा छोड़
देगा। हीरे जिसे मिल जाएं, वह कंकड़-पत्थर छोड़ ही देता है।
मैं तुमसे कंकड़-पत्थर छोड़ने को नहीं कहता--मैं तुमसे हीरों का स्मरण करने को कहता
हूं।
भक्ति का सारा शास्त्र भगवान
के स्मरण के लिए है, संसार के त्याग के लिए नहीं है। वही भेद है भक्ति और
योग में। योग कहता है: संसार छोड़ो, परमात्मा मिलेगा। भक्ति
कहती है: परमात्मा को खोज लो, संसार छूट जाएगा। भोग परमात्मा
का उठ आए तुम्हारे जीवन में, सब भोग अपने से निस्तेज हो जाते
हैं। जब सूरज उग जाता है, तारे छिप जाते हैं: जब परम भोग का
सूर्य उगता है तो सब टिमटिमाते तारे, अनंत हों तो भी खो जाते
हैं। असंख्य हों तो भी खो जाते हैं।
लेकिन ध्यान रखना, तुम्हें लेना पड़ेगा। मैं स्वाद
के गीत गा सकता हूं। मेरी आंखों में तुम थोड़ा झांको तो शायद तुम्हें स्वाद की थोड़ी
ध्वनि भी सुनाई पड़ जाए। लेकिन स्वाद तो तुम्हें ही लेना पड़ेगा, तभी स्वाद होगा।
और मजा यह है कि कुछ भी करना नहीं है, तुम मालिक पैदा हुए
हो। तुम महल की सीढ़ियों पर बैठे रो रहे हो। चाबी तुम्हारे हाथ में है, तुम भूल ही गए हो।
तुम जैसे हो, जहां हो, भक्ति का यह बुनियादी
सूत्र है: तुम वहीं भोगना शुरू कर दो। तुम जैसे हो, जहां हो,
वहीं तुम परमात्मा के स्मरण को उपलब्ध हो जाओ। याद करो उसकी। क्या
होगा इसका अर्थ? इसका यह अर्थ होगा, मैं
तुमसे यह कहूंगा, अब तुम जब भोजन करो तो भोजन की फिक्र मत
करना, परमात्मा को खोजना भोजन में। इसलिए उपनिषद कहते हैं:
अन्नं ब्रह्म। वह बड़े ज्ञानियों की बात है, बड़े पहुंचे हुए
पुरुषाग की बात है। भोजन में भगवान! जब तुम एक सुंदर स्त्री को गुजरते देखो तो
स्मरण करना: सब सौंदर्य उसी का है। रसो वे सः! सब रस उसी का है! जब तुम फूल को
खिला देखो तो उसी को प्रणाम करना, क्योंकि सब खिलना उसी का
है। पक्षी गीत गाएं, तब तुम गौर से सुनना। क्योंकि कंठ हों
अनेक, गीत तो उसी का है। धीरे-धीरे तुम चारों तरफ जीवन में
उसका स्मरण इस तरह करना कि उसके अतिरिक्त तुम्हें कोई दिखाई ही न पड़े।
भक्ति सुगम है, सरल है, सहज है। लेकिन अगर तुम्हें
कठिनाई में ही रस हो तो बात और; तो फिर बहुत योगशास्त्र हैं;
फिर उलटे-सीधे व्यायाम करने की बहुत सुविधाएं हैं।
दूसरा प्रश्न: आपने कल कहा कि क्रोध को होशपूर्वक
देखने पर क्रोध विलीन हो जाता है। लेकिन क्या कारण है कि कामवासना के उठने पर होश
में भी उसकी प्रगाढ़ता बनी रहती है। ऐसा क्यों है?
होश संदिग्ध होता है। होश ही न होगा। अन्यथा, होश के होने पर काम हो कि क्रोध, लोभ हो कि मोह,
सभी विसर्जित हो जाते हैं। तो फिर तुमने होश को ठीक से सम्हाला न
होगा। तो कहीं चूक हो गई होगी। बजाय यह सोचने के, यह पूछने
के, कि होश रहने पर भी कामवासना क्यों नहीं जाती, तुम पुनः अपने होश पर प्रश्न उठाना। ऐसा तो होता ही नहीं।
होश का अर्थ तो केवल इतना ही है कि होश के क्षण में तुम्हें कोई भी
चीज घेर नहीं सकती, बस। नाम से फर्क नहीं पड़ता--काम है, क्रोध है, मोह है, लोभ है--यह
सवाल नहीं है। होश के क्षण में तुम सिर्फ साक्षी रह जाते हो। तो तुम किसी भी चीज
से ग्रसित नहीं हो सकते! हां, होश का क्षण खो जाए, तो तुम फिर पुनः ग्रसित हो जाओगे; या होश का क्षण आए
ही न, तुम अपने को धोखा दे लो और समझा लो कि होश का क्षण है।
लेकिन यह होश की परिभाषा है, कसौटी है, कि उस क्षण में तुम शुद्ध निर्विकार हो जाते हो। होश के क्षण में तुम
भगवान हो जाते हो। उस क्षण में तुम्हें कोई भी चीज पकड़ नहीं सकती; अगर पकड़ लेती हो तो होश का क्षण नहीं है, तुमने किसी
तरह अपने साथ आत्मवंचना कर ली है।
उन्हें सआदते-मंजिल रसी नसीब हो गया
वो पांव राहे तलब में जो डगमगा न सके।
यदि तुम्हारे पैर न डगमगाएं, तो इसी जीवन में
आखिरी मंजिल उपलब्ध हो जाती है। किन पैरों की बात है? होश के
पैरों की बात है। अगर होश न डगमगाए तो जिसको कृष्ण ने गीता में "स्थितिप्रज्ञ'
कहा है, कि जिसकी चेतना थिर हो जाती है,
जिसकी चेतना में कोई कंपन नहीं होता, अकंप हो
जाती है--उस अकंप दशा में कोई चीज प्रभावित नहीं करती, क्योंकि
प्रभावित हुए कि कंपन शुरू हुआ। प्रभाव यानी कंपन, डगमगाहट।
तो, मैं यह कहूंगा कि फिर से होश को साधना। और जल्दी न
करो, कामवासना बड़ी गहरी वासना है। तुम्हारी भूल मैं समझता
हूं कहां हो जाती है। तुमने अभी उड़ना भी नहीं सीखा आंगन में, और तुम बड़े आकाश की यात्रा पर निकल जाते हो; गिरोगे--मुश्किल
में पड़ोगे। अभी तुम जरा नदी के किनारे थोड़ा तैरना सीखो, फिर
गहरे सागरों में उतरना।
होश के साथ यही कठिनाई है कि तुम सोचते हो, चलो होश का प्रयोग कर लें कामवासना पर। कामवासना सबसे गहरी वासना है। इतनी
जल्दी मत करो। पहले ऐसी चीजों पर होश को साधो, जिनमें किनारे
पर थोड़ा प्रशिक्षण हो जाए। जैसे राह पर चल रहे हो, होशपूर्वक
चलो। सिर्फ चलने के प्रति होश रहे। भूल-भूल न जाओ। याद बनी रहे कि चल रहा हूं--यह
बायां पैर उठा, यह दायां पैर उठा। अब यह एक छोटी सी क्रिया
है जिसका कोई बंधन नहीं तुम्हारे ऊपर। तुम चकित होओगे कि इसमें भी होश नहीं सधता!
भूल-भूल जाओगे।
बैठे हो शांत, श्वास पर होश साधो। बुद्ध ने श्वास पर होश साधने को
सब से महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना; क्योंकि श्वास चौबीस घंटे
चल रही है, तुम न भी कुछ करो तो भी चल रही है। तो इस सहज
क्रिया पर होश को साधना आसान होगा। और जब चाहो तब साध सकते हो--जरा आंख बंद करो,
श्वास को देखो और होश को साधो। श्वास भीतर जाए, होशपूर्वक भीतर ले जाओ--जानते हुए जागते हुए, कि
श्वास भीतर जा रही है भीतर पहुंच गई है, वापस लौटने लगी,
बाहर गई, बाहर निकल गई फिर भीतर आने लगी--माला
बना लो श्वास की--भीतर-बाहर, भीतर-बाहर! एक-एक गुरिया श्वास
का सरकाते रहो। तुम चकित होओगे कि यह भी भूल-भूल जाता है। क्षणभर को होश आएगा,
फिर मन चला गया दुकान पर, कुछ खरीदने लगा,
बेचने लगा, किसी से झगड़ा हो गया; फिर चौंकोगे, पाओगे: "अरे! घड़ी बीत गई! कहां
चले गए थे, श्वास तो भूल ही गई!' फिर
पकड़कर ले आओ। इसको मैं किनारे का अभ्यास कहता हूं।
श्वास में कुछ झंझट नहीं है। अब तुम या तो क्रोध पर साधोगे...। क्रोध
रोज तो होता नहीं, प्रतिमल होता नहीं, कभी-कभी
होता है; जब होता है तब इतनी प्रगाढ़ता से होता है कि तुम
गहरे में उतर रहे हो; जब होता है तब इतनी बातें दांव पर लग
जाती हैं कि शायद तुम सोचोगे: "फिर देख लेंगे होश इत्यादी! यह अभी तो निपट
लें'।
कामवासना तो बहुत गहरी है, क्योंकि प्रकृति ने
उसे बहुत गहरा बनाया है, क्योंकि जीवन उस पर निर्भर है। अगर
कामवासना इतनी आसान हो कि तुमने चाहा और छूट जाए, तो तुम
शायद पैदा ही न होते, क्योंकि तुमसे पहले बहुत लोग छूट चुके
होते; तुम्हारे होने की संभावना न के बराबर होती। माता-पिता
नहीं छूट सके, इसलिए तुम हो। तुम भी इतनी आसानी से न छूट
जाओगे, क्योंकि तुम्हारे बच्चों को भी होना है; वे भी प्रतीक्षज्ञ कर रहे हैं कि ऐसे भाग मत जाना बीच से।
जीवन बहुत कुछ टिका है कामवासना पर। इसलिए उसका छूटना इतना आसान नहीं
है। असंभव नहीं है, आसान भी नहीं है। और तुम्हारी यह भूल होगी, अगर तुम इतनी कठिन प्रक्रिया पर पहले ही अभ्यास करो। यह मन की तरकीब है।
मन हमेशा तुम्हें कठिन चीजें सुझा देता है, ताकि तुम पहले ही
दांव में हार जाओ...चारों खाने चित्त! फिर तुम सोचते हो: "छोड़ो भी! यह कुछ
होने वाला नहीं!'
मन तुम्हें ऐसी दुविधा में उतारता है जहां तुम हार जाओ और मन जीत जाए।
तुम्हारी हार में मन की जीत है। तो मन तुम्हें तरकीबें ऐसी बताता है कि तुम पहली
दफा पांव उतारो नदी में कि डुबकी खा जाओ, कि सदा के लिए भयभीत
हो जाओ कि यहां जान का खतरा है, जाना ही नहीं!
थोड़े बोधपूर्वक चलो। पहले ऐसी चीजों पर होश साधो जिनका कोई भी बल नहीं
है: राह पर चलना, श्वास सका देखना; कोई भी ऐसी
चीज--पक्षी गुनगुना रहे हैं गीत, बैठकर शांति से उनका गीत
सुनना। सतत होश रहे, इतनी बात है। अखंडित होश रहे, धारा टूटे न। जैसे कि कोई तेल को एक पात्र से दूसरे पात्र में डालता है तो
अखंड धारा रहती है तेल की, टूटती नहीं--बस ऐसी होश की
तुम्हारी धारा रहे। पक्षी गुनगुनाते रहें गीत, तुम सुनते ही
रहो, सुनते ही रहो, सुनते ही रहो;
एक क्षण को भी तु कहीं और न जाओ।
तो धीरे-धीरे किनारे का अभ्यास करो। जैसे-जैसे अभ्यास घना होगा, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर उत्फुल्लता बढ़ेगी। जैसे-जैसे अभ्यास घना होगा,
तुम्हारे भीतर अपने प्रति आश्वासन, विश्वस
बढ़ेगा। फिर तुम धीरे-धीरे प्रयोग करना। वह
भी जल्दी नहीं करना।
क्रोध पर भी प्रयोग करने हों तो क्रोध भी हजार तरह के हैं। एक क्रो है
जो तुम्हें अपने बच्चे पर आ जाता है। उस पर अभ्यास करना आसान होगा क्योंकि बच्चे
के क्रोध में प्रेम भी सम्मिलित होता है। फिर एक क्रोध है जो तुम्हें दुश्मन पर
आता है, उसमें प्रेम बिलकुल सम्मिलित नहीं है; उस पर अभ्यास करना कठिन होगा। तुम क्रोध में भी गौर करना कि कहां अभ्यास
शुरू करो। जो अति निकट हैं, जिन पर तुम क्रोध करना भी नहीं
चाहते और हो जाता है, उन पर अभ्यास करो। फिर कुछ हैं जो बहुत
दूर हैं--दूर ही नहीं, विपरीत हैं; जिन
पर तुम चाहोगे भी कि क्रोध न हो, तो भी भीतर की चाह है कि हो
जाए; जिन पर तुम खोजते हो, अकारण भी,
कि कोई निमित्त मिल जाए और क्रोध हो जाए--उन पर जरा देर से अभ्यास
करना। पहले अपनों पर, फिर पड़ोसियों पर, फिर शत्रुओं पर। इतने जल्दी तुम अगर शत्रु पर अभ्यास करने चले जाओगे,
तो यह ऐसी ही हुआ कि तलवार हाथ में ली और सीधे युद्ध के मैदान में
पहुंच गए, कोई प्रशिक्षण न लिया। पहले प्रशिक्षण लो।
प्रशिक्षण का मतलब होता है: पहले मित्र के साथ ही तलवार चलाओ। शत्रु के साथ चलाना
खतरनाक हो जाएगा। अभी मित्र के साथ खेल-खेल में तलवार चलाओ। जब हाथ सध जाएं,
भरोसा आ जाए, सुरक्षा हो जाए, तब थोड़े आगे बढ़ना।
यह मेरे अनुभव में आया है हजारों लोगों पर ध्यान का प्रयोग करने के
बाद कि लोग जल्दी ही ऐसा कुछ प्रयोग करते हैं कि जिसमें टूट जाएं, ताकि झंझट खत्म, ताकि फिर अपनी वापस दुनिया में चले
गए कि यह होनेवाला नहीं, यह होता होगा किसी और को--कोई
सौभाग्यशाली, कोई अवतारी पुरुष, कोई
संत-महात्मा--यह अपने से होनेवाला नहीं है! मगर पहले ही इस तरह की कोशिश करते हो,
जिसमें कि पहले ही कदम पर हार हाथ लगे। यह तुम्हारे मन का जाल है।
इस मन से सावधान।
अगर तुमने क्रो पर होश साधा तो क्या होगा? क्या कसौटी है कि क्रोध पर होश सधा? प्रमाण क्या
होगा? प्रमाण यह होगा कि अगर क्रोध पर होश वस्तुतः सधा तो
तुम क्रोध की करुणा का आविर्भाव पाओगे। अगर करुणा पैदा न हो तो होश का धोखा हुआ,
सधा नहीं। क्योंकि क्रोध की जो ऊर्जा है, कहां
जाएगी? तुम होश साध लोगे, लेकिन क्रोध
में जो ऊर्जा पदा हुई थी, जो शक्ति जन्मी थी, वह कहां जाएगी। तुम्हारे होश के सधते ही वह शक्ति रूपांतरित होती है।
होश कीमिया है। होश तो एक प्रक्रिया है, जिससे गुजरकर
शक्तियां रूपांतरित होती हैं, अधोगामी शक्तियां ऊर्ध्वगामी
होती हैं; तुम ऊर्ध्वरेतस् बनते हो। नीचे की तरफ जानेवाली
ऊर्जाएं ऊपर की तरफ जानेवाले पंख बन जाती हैं।
क्रोध पर अगर होश सधा, करुणा पैदा होगी ही।
बुद्ध ने उसे कसौटी कहा है। अगर कामवासना पर क्रोध सधा, महान
ब्रह्मचर्य का आविर्भाव होगा; तुम ए अनूठी ऊर्जा, शीतल ऊर्जा से भर जाओगे; तुम्हारे भीतर फूल ही फूल
खिल जाएंगे; एक गहर संतोष, परितोष,
तृप्ति तुम्हें घेर लेगी; बिना किसी कारण के
तुम महासुख का अनुभव करोगे। ऐसा सुख तुमने संभोग में कभी नहीं जाना था! ऐसे सुख की
शायद संभोग में बहुत दूर की प्रतिध्वनि मिली थी। अब तुम पहचान पाओगे कि अरे,
संभोग में जिसे जाना था, वह इसी महासुख की बड़ी
दूर की छाया थी--जैसे हजार-हजार परदों के पीछे से छिपी हुई रोशनी का तुमने देखा हो,
फिर सब परदे उठ गए और तुमने रोशनी का साक्षात दर्शन किया हो!
कामवासना में अगर होश जगेगा तो ब्रह्मचर्य का आविर्भाव होगा। जब मैं
ब्रह्मचर्य कहता हूं तो तुम्हारे साधु-संन्यासियों का ब्रह्मचर्य नहींख जो
जबरदस्ती कामवासना को दबाकर बैठे हैं। उनका ब्रह्मचर्य तो तुम्हारी कामवासना से भी
बदतर और रुग्ण हैं। जब मैं ब्रह्मचर्य की बात कहता हूं तो मेरा मतलब है: जिस
चैतन्य में कामवासना होश की प्रक्रिया से गुजर गई और जहां अब कुछ भी दमन नहीं; जहां सब कूड़ा-कर्कट जल गया, सिर्फ सोना बचा; जहां सारी कीचड़ कमल हो गई! तुम सुगंध से भर जाओगे। तुम्हें नहीं भर जाओगे,
दूसरे भी तुम्हारे पास उस सुगंध के झोकों को अनुभव करने लगेंगे!
तुम्हारे पैर जमीन पर होंगे और जमीन पर नहीं पड़ेंगे। तुम रहोगे यहीं, और कहीं और दूसरे लोक से जुड़ जाओगे। तुम जानोगे निश्चित रूप से; क्योंकि इतनी बड़ी घटना है, बिना जाने नहीं घटेगी।
अगर लोभ पर तुम्हारा होश जागा तो तुम्हारे जीवन में दान का जन्म होगा; तुम बांटने लगोगे। और बांटकर तुम ऐसा न अनुभव करोगे कि जिसको तुमने दिया,
उस पर तुमने कोई उपकार किया। तुम उलटे यही अनुभव करोगे कि जिसने स्वीकार
किया उसने उपकार किया।
जो अंतर की आग, अधर पर
आकर वही पराग बन गई
पांखों का चापल्य सहज ही
आंखों का आकाश बन गया
फूटा कली का भाग्य, सुमन का
सहसा पूर्ण विकास बन गया
अवचेतन में छिपी घृणा ही।
चेतन का अनुराग बन गई।
वह जो-जो अंधेरे में पड़ा है तुम्हारे भीतर, रोशनी जलते ही रूपांतरित होता है।
अवचेतन में छिपी घृणा ही
चेतन का अनुराग बन गई।
घृणा प्रेम बन जाती है। क्रोध करुणा बन जाता है।
द्वंद्व-लीन मानस का मधु छल
प्राणों का विश्वास बन गया
वृद्ध तिमिर का सित कुंतल दल
दृग का दिव्य प्रकाश बन गया
स्व की चरमासक्ति स्वयं से
छलकर परम विराग बन गई।
जो अभेद है अनायास वह
भाषित हो कर भेद बन गया
सप्तम स्वर तक पहुंच भैरवी
कोमल राग विहाग बन गई
जो अंतर की आग, अधर पर
आ कर वही पराग बन गई।
अग्नि पराग बन जाती है। कांटे फूल बन जाते हैं।
होश की प्रक्रिया कीमिया है।
मनुष्य अपने भीतर सब लेकर आया है--सब! होश से गुजर जाए तो जिसे तुम
संसार कहते हो, वही सत्य बन जाता है। होश से गुजर जो तो जिसे तुमने
पत्थर जाना है, वही परमात्मा बन जाता है।
इसलिए होश बहुमूल्य शब्द है। इसे सम्हालना संपदा की भांति। इससे बड़ी
और कोई संपदा नहीं है। होश, स्मृति, सुरति, सम्यक बोध--नाम बहुत हैं, बात एक ही है।
तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि तुम स्वप्न पर श्रद्धा
करते हो और सत्य पर संदेह। पर जिसे आप स्वप्न कहते हैं, वह हमें सत्य मालूम देता है और आपका सत्य हमारे लिए स्वप्नवत है।
कृपापूर्वक बताएं कि किसकी गंगा उलटी बहती है--आपकी या हमारी? और क्यों और कैसे?
लोकतंत्र की बात पूछो तो तुम्हारी गंगा सधी बहती है। लेकिन सत्य से
लोकतंत्र का कोई संबंध नहीं। भीड़ से सत्य तय नहीं होता।
तो फिर कसौटी क्या है?
एक ही कसौटी है कि अगर गंगा सीधी बहती हो तो आनंदित होगी, सहज होगी, संगीतपूर्ण होगी; सागर
की तरफ पहुंच रही है, अपना घर पास आ रहा है--प्रतिपल पुलकित
होगी; नृत्य करती होगी; समारोहपूर्वक
होगी। गंगा अगर उलटी बहती हो तो दीन-हीन होगी, परेशान होगी,
तनाव से भरी होगी, दुखी होगी, संतप्त होगी। तो तुम्हीं सोच लो। अगर तुम प्रसन्न हो, आनंदित हो, तो धन्यभाग, तुम्हारी
गंगा सीधी बह रही है। अगर तुम दुखी हो, पीड़ीत हो, परेशान हो, तो ऐसा समझ कर मत बैठ जाना कि गंगा सीधी
बह रही है; क्योंकि तब तक तो फिर तुम्हारे इस दुर्भाग्य से
छूटने का उपाय भी न रहा। अपने-अपने भीतर कस लेना। अपनी-अपनी गंगा है। अगर उलटी बह
रही हो तो आनंदपूर्ण नहीं हो सकती। उलटा होगर कोई कभी आनंदपूर्ण हुआ? शीर्षासन करके जरा खड़े होकर देखो, कितनी देर कर
पाओगे?
जहां-जहां जीवन में प्रक्रियाएं उलटी हो जाती हैं, वहीं पीड़ा पैदा होती है। पीड़ा का अर्थ ही केवल इतना है। पीड़ा इंगित है,
सूचक है कि कहीं कुछ गलत हो गया, कहीं कुछ बात
स्वभाव के प्रतिकूल हो गई, स्वाभाविक न रही।
सुख का अर्थ है: सभी कुछ स्वाभाविक है तो सुख है। दुख का अर्थ है: सभी
कुछ अस्वाभाविक हो गया है। दुख दुश्मन नहीं है; दुख तो मित्र है;
दुख तो खबर दे रहा है कि कहीं कुछ गलत हो गया है, ठीक कर लो। दुख तो यही कह रहा है कि जहां चले जा रहे हो वह मंजिल नहीं है;
बदलो; राह बदलो, लौटो!
जैसे ही तुम ठीक दिशा में चलने लगोगे, सुख का सरगम बजने
लगेगा।
सुख है क्या?...जब तुम अनुकूल जा रहे हो स्वभाव के।
महावीर से किसी ने पूछा: सत्य क्या है? तो महावीर ने कहा: बत्थु
सहावो धम्म! जो वस्तु का स्वभाव है, वही सत्य है, वही धर्म है।
मनुष्य दुखी है: स्वभाव के प्रतिकूल है, धर्म के प्रतिकूल है।
तुम अपने भीतर जांच कर लो। अगर दुखी हो, गंगा उलटी बह रही है।
फिर देर न करो, क्योंकि ज्यादा देर उलटे बहते रहे तो उलटे
बहने का अभ्यास हो जाता है। फिर जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी रूपांतरण करो। दुख
के साथ बैठकर मत रह जाना, नहीं तो दुख भी आदत बन जाता है।
फिर तुम दुख को छोड़ना भी चाहते हो और छोड़ना भी नहीं चाहते; एक
हाथ से पकड़ते हो, एक हाथ से हटाते हो, चाहते
हो मुक्ति हो जाए दुख से, और बीज भी बोए चले जाते हो,
क्योंकि आदत हो गई है।
पर इसको तुम मापदण्ड, कसौटी, निकष
समझो। यह कोई मान लेने की बात नहीं है, अन्यथा मैं हार
जाऊंगा। उस दृष्टि से बुद्ध-महावीर सदा हारे हैं, अकेले हैं।
अगर भीड़ से सत्य निर्णीत होता है तो बुद्ध गलत हैं, भीड़ सही
है। लेकिन सत्य का भीड़ से क्या लेना-देना? सत्य तो भीतरी
अनुभव है। उससे दूसरे की तुलना का भी कोई संबंध नहीं है। मैं तुमसे यह भी नहीं
कहता कि तुम मुझसे तुलना करो। मैं तुमसे यही कहता हूं कि तुम अपने भीतर ही
जांच-परख करो, अवलोकन करो। अगर दुखी हो गंगा उलटी बह रही है।
अगर सुखी हो तो सौभाग्य, गंगा बिलकुल सीधी बह रही है। फिर
तुम किसी के चक्कर में मत पड़ना। फिर तुम किसी की शिक्षा स्वीकार मत करना। अगर तुम
सुख में हो तो सावधान रहना, किसी के पीछे मत चलना, नहीं तो कोई तुम्हारी गंगा उलटी चलवा देगा। अगर तुम सुख में हो तो सुख में
जीना। चाहिए ही क्या और?
अगर तुम सुख में हो तो आनंद तक पहुंच जाओगे। सुख प्रमाण है कि ठीक जगह
चल रहे हैं, मंजिल आ जाएंगी। अगर तुम दुख में हो तो सुख तक ही
पहुंचना मुश्किल है, आनंद तक तो कैसे पहुंचोगे?
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन!
फूल तो खिले हैं चारों तरफ, पर कुछ लोग हैं
जिन्होंने कांटों को चुनने की आदत बना ली है। अपना-अपना दामन! जो कांटे ही चुनते
हैं, फिर पीड़ित होते हैं--फिर भी कांटे चुनना जारी रखते हैं!
काफी समय हुआ, बहुत देर हो गई! काफी जन्मों तक तुम कांटे इकट्ठे किए
हो। अभी भी तुम्हारी आंख में सुख का फूल खिला हुआ मालूम नहीं होता। अभी भी
तुम्हारे हृदय में वह साज नहीं बज रहा है जिसे सुख का कहें!
चेतो!
बदलो!
रूपांतरित होओ!
किसी और से कहने की बात नहीं है--खुद को ही समझ लेने की है।
तुम जिन्हें सत्य कहते हो, अगर वे सत्य हों तो
तुम्हारा दामन फूलों से भर गया होता; क्योंकि सत्य से कभी
किसी ने दुख पाया नहीं। तुम्हारी हालत ऐसी है कि जितना तुम दौड़-धूप करते हो उतने
हाथ खाली होते चले जाते हैं; उतना दामन भिखारी की झोली बनता
जाता है; भरता तो नहीं, उलटा खाली होता
है। जिंदगीभर दौड़कर आदमी भिखारी की तरह गिरकर मर जाता है--हाथ खाली! सारी जिंदगी
की चेष्टा तुम्हारी आत्मा को एक भिक्षापात्र से ज्यादा नहीं बना पाती। कहीं पहुंच
नहीं पाते। शायद बचपन में कहीं थे, तो वह भी चूक गया। मंजिल
के पास आना तो दूर, शायद और दूर निकल गए।
इसे थोड़ा गौर करो। इसे जांचते रहो।
एक-एक कदम महंगा है अगर गलत दिशा में उठाया जा रहा है, क्योंकि लौटना पड़ेगा। एक-एक कदम महंगा है, क्योंकि
फिर पुनः यात्रा करनी पड़ेगी।
तुम्हारे जीवन में जिसे तुम सत्य कहते हो, अगर वह सत्य है तो तुम तृप्ति क्यों नहीं हो? नहीं,
मैं तुमसे कहता हूं: रात तुम सोए, नींद में तुम्हें
भूख लगी, तुमने एक सपना देखा कि राजमहल में निमंत्रण मिला है,
तुम भोज में सम्मिलित हुए हो, तुमने खुब भरपेट
भोजन किया--लेकिन सुबह, क्या तुम पाओगे, तुम्हारा पेट भरा है? या कि सुबह तुम पाओगे, कि यह तो सिर्फ रात अपनी भूख को झुठला लेने की तरकीब थी? यह सपना तो भूख को मिटानेवाला न था, भूख को छिपा
लेनेवाला था। इससे भूख मिटी नहीं, इससे भूख दब गई। इससे शरीर
को कोई तृप्ति और कोई पोषण तो न मिलेगा।
सपने में तुमने कितने ही अच्छे भोजन किए हों, किसी काम के नहीं--रूखी-सूखी रोटी भी शायद ज्यादा पोषक हो अगर सच्ची हो,
असली हो।
तुम्हारे सपने सच नहीं हो सकते, अन्यथा तुम तृप्त
होते; तुम्हारा पेट भरा होता; तुम्हारी
क्षुधा शांत होती; तुम्हारे भीतर चैन की बंसी बजती--वह तो
नहीं सुनाई पड़ती। तुम्हारे भीतर तो अहर्निश एक आर्त्रनाद हो रहा है, एक दुख और पीड़ा का शोरगुल मचा है। तुम्हारी वीणा से संगीत उठता नहीं मालूम
पड़ता, सिर्फ व्यर्थ का कोलाहल होता हुआ मालूम होता है।
निश्चित ही, तुम जिन्हें सत्य कहते हो, वे
स्वप्न हैं।
मेरे सत्य तुम्हें स्वप्न मालूम पड़ेंगे, स्वाभाविक है। लेकिन
इतना मैं तुमसे कह सकता हूं: कोलाहल खो गया है। दुख बहुत दूर निकल गया है; उसकी पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। इतना तुमसे कह सकता हूं: आनंद बरसा है।
और अगर तुम समझदार हो, अगर तुममें थोड़ी भी मात्रा समझ की है,
तो तुम मेरे स्वप्नों को, जो तुम्हें स्वप्न
जैसे मालूम पड़ते हैं, उनको ही चुनना पसंद करोगे अपने सत्यों
की बजाय; क्योंकि तुम्हारे सत्यों ने क्या दिया है? माना कि आज तुम्हें मेरे सत्य स्वप्न जैसे मालूम पड़ते होंगे; लेकिन फिर भी अगर तुम समझदार हो तो अपने सत्यों की बजाय मेरे स्वप्न
चुनोगे।
तुमने अगर सत्य तो बहुत चुनकर देख लिए, कहां पहुंचे? चलो, मेरे सपनों की भी परीक्षा कर लो! दो कदम मेरे
साथ भी चलकर देख लो, अपने साथ चलकर तो तुमने बहुत देख लिया।
आखिरी प्रश्न: भगवान! मेरे पिता जी सत्रह-अट्ठारह
वर्ष की उम्र में धूनीवाले बाबा के पास अकेले गए और वहां से लौटते समय रास्ते में
उन्हें कुछ अनुभव हुआ और वे विक्षिप्त हो गए। तब से आज तक वे जीवन को दो विपरीत
तलों में बारी-बारी से जीते हैं--एक विक्षिप्तता का और दूसरा सामान्य
समाज-स्वीकृत। जब वे विक्षिप्तता की दशा में होते हैं, तब उनका स्वास्थ्य बिलकुल ठीक होता है और वे अभय से भरे होते हैं, साधु-संतो के पास जाते हैं, तीर्थयात्रा करते हैं,
चिंता-मुक्त मस्ती से जीते हैं। और जब वे सामान्य दशा में होते हैं,
तब रुग्ण हो जाते हैं, भयभीत, चिंतित और गंभीर रहते हैं, और पूरे समय घर में ही
बने रहते हैं। आज उनकी उम्र सत्तर वर्ष है। आप कृपाकर मुझे कहें कि इस जीवन में
क्या उनकी नियति यही है, या उनके लिए भी जीवन के अंतिम चरण
में नये जन्म की कोई संभावना है।
नरेन्द्र ने पूछा है। नरेन्द्र के पिता को मैं जानता हूं। उनकी स्थिति
का मुझे पूरा-पूरा पता है। और ऐसी दुर्घटना बहुत लोगों के जीवन में घटी है। जो
सौभाग्य हो सकता था वह दुर्भाग्य हो गया। समझना जरूरी है।
सत्य की दिशा में कभी-कभी किसी उपलब्ध व्यक्ति के करीब अचानक झलक मिल
जाती है। उस झलक के मिलने के बाद स्वभावतः व्यक्त्ति में दो तल हो जाते हैं। जो
झलक मिली, वह किसी और दिशा में खींचती है और उस व्यक्त्ति का
अपना व्यक्तिव किसी और दिशा में खींचता है। एक द्वंद्व उत्पन्न हो जाता है।
फिर वह जो झलक मिली, वह कुछ ऐसी मस्ती से भर देती
है--लगता है कि पागलपन है। न केवल व्यक्ति को लगता है, पागलपन
है बल्कि परिवार के लोगों को, प्रियजनों को, मित्रों को, समाज को भी लगता है, पागलपन है। और जब वह व्यक्ति उस झलक से नीचे उतर आता है तो समाज को,
परिवार को, मित्रों को लगता है, अब ठीक हुआ। हालत बिलकुल उलटी है। वह जो पागलपन की दशा है, वही ठीक दशा है।
नरेन्द्र के पिता को अगर बचपन से ही, जब उनको यह घटना घटी,
तभी से अगर जबरदस्ती स्वास्थ्य लिाने की चेष्टा न की गई होती और
उनकी विक्षिप्तता को एक भक्त की अहोभाव की दशा समझा गया होता, तो वे कभी के खिल गए होते। लेकिन परिवार ने, घर ने,
समाज ने भी समझा कि यह पागलपन है, इसका इलाज
होना चाहिए। बहुत इलाज किए गए उनके। जबरदस्ती दवाइयां दी गई उनको।
और वे भी मानते हैं कि यह पागलपन है! पागलपन जैसा लगता ही है, क्योंकि इतना अनूठा लोक शुरू होता है, खुद भी भरोसा
नहीं आता। तो वे भी साथ देते हैं इलाज में, चिकित्सा में।
फिर भी जो झलक मिली थी, वह इतनी महत्वपूर्ण थी कि लाख दवांए
भी उससे नीचे नहीं उतार पाईं; फिर-फिर पकड़ लेती हैं।
कभी उन मदभरी आंखों से पिया था इक जाम
आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश
नहीं।
फिर-फिर लौट-लौटकर वह झलक उनको पकड़ लेती हैं!
और कितना साफ मामला है अगर समझ लो! जब भी वे पागल होते हैं, तभी वे स्वस्थ होते हैं, तब उनको कोई बीमारी नहीं रह
जाती, तब वे बड़े प्रसन्न होते हैं, बड़े
मस्त होते हैं! मैंने उनकी मस्ती देखी है। तब वे वैसे होते हैं जैसे हर मनुष्य को
होना चाहिए। तब वे गीत गाते हैं। तब सुबह से उन्हें तीन बजे गांव नदी पर स्नान
करते देखा जा सकता है--गुनगुनाते, नाचते! वे प्रसन्न होते
हैं। उनके सब रोग खो जाते हैं। उनके चेहरे पर रौनक आ जाती है। आंखों में एक चमक आ
जाती है। तब वे तीर्थयात्रा पर निकल जाते हैं! तब संतों का सत्संग करते हैं। तब
सुबह तीन बजे से भजन गाते हैं। लेकिन गांवभर उनको पागल समझता जब वे मस्त होते हैं।
तब उनकी मस्ती का कोई ठिकाना नहीं होता। तब उनके प्याले से उनकी मस्ती बहती है। तब
पूरा गांव उनको पागल समझता है। तब उनका इलाज शुरू हो जाता है। जब गांव उनका इलाज
कर लेता है, तब वे रुग्ण हो जाते हैं; तब
उनकी आंखों की चमक चली जाती है; तब उनके चेहरे की मस्ती खो
जाती है; तब बड़े भयभीत हो जाते हैं; तब
से घर से निकलने में डरने लगते हैं; तब वे कमजोर हो जाते हैं,
रुग्ण हो जाते हैं, बिस्तर से लग जाते हैं--तब
लोग कहते हैं, "अब ठीक हो गए! अब पागल नहीं हैं'।
अब यह मामला बिलकुल सीधा-साफ है: जब वे पागल हैं, तब वे ठीक हैं। लेकिन समाज को पागलपन लगता है, घर के
लोगों को भी पागलपन लगता है। क्योंकि हम यह मान ही नहीं सकते कि कोई आदमी होश में
और इतना मस्त हो सकता है। हम सब इतने रुग्ण और परेशान और दीन-हीन, और हमारे बीच अचानक एक आदमी इतनी मस्ती दिखला रहा है,जरूर दिमाग खराब हो गया है! दुखी होना हमारी कसौटी है सामान्य स्वास्थ्य
की; प्रसन्नचित्त हो जाने से शक होने लगता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, "बड़ी शांति मिल
रही है; लेकिन घर लौटकर जाएंगे, कुछ
लोगों को ऐसा तो न लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है?'
समाज करीब-करीब रुग्ण दशा को स्वास्थ्य मानकर जी रहा है। इसलिए जब
तुम्हारे भीतर कोई मस्त हो जाता है तो मुश्किल मालूम होती है।
महावीर मस्त हो गए, तो लागों ने गांव से निकाल
भगाया। महावीर मस्ती में नग्न घूमने लगे, तो लोगों ने गांव
में न घुसने दिया। मीरा मस्त हो गई तो प्रियजनों ने जहर भिजवाया कि मर जाए;
क्योंकि उसकी मस्ती सारे घर के ऊपर बोझ हो गई; उसकी मस्ती पागलपन हो गई। लोक-लाज छोड़ दी उसने। जो कभी घर से न निकली थी,
घूंघट के बाहर न आई थी, वह बाजारों में नाचने
लगी।
वह आवारा हो गई!
मीर दीवानी हुई; लेकिन उसकी दीवानगी परम
स्वास्थ्य है!
यही झंझट नरेन्द्र के पिता के साथ हो गई। अभी भी उपाय है--अगर उनके
पागलपन को स्वास्थ्य मान लिया जाए और उनका इलाज न किया जाए, और जब वे पागल हो जाएं तो सार घर उत्सव मनाए और उनके पागलपन में सम्मिलित
हो जाए, और उनको आश्वासन दे कि तुम बिलकुल ठीक हो। उनके मन
से यह भ्रांति टूट जाए कि मैं गलत हूं, तो उनके भीतर का जो
द्वैत पैदा हो गया है, वह विसर्जित हो जाएगा।
वे जिनके पास गए थे--धूनीवाले बाबा--वे एक परमहंस व्यक्ति थे। उनके
पास घटना घट गई होगी। वे एक महानुभाव थे। उनकी छाया में कोई बात पकड़ गई होगी। फिर
भूले नहीं भूली वह मस्ती, फिर गई नहीं। फिर जमाने बीत गए, पचास साल हो गए उस बात को। लेकिन अगर शुभ की एक झलक मिल जाए तो घेर-घेर
लेती है, बार-बार घेर लेती है।
सौभाग्य का क्षण आया था, उसे हमने बदल दिया,
रूपांतरित कर दिया, उसे दुर्भाग्य बना दिया।
हुदूदे-कूचा-ए-महबू है वहीं से शुरू
जहां से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए।
परमात्मा का घर वहीं से पास है, प्रेमी का घर आने लगा
करीब--"हुदूदे कूचा-ए-महबूब है वहीं से शुरू'-उस प्यारे
के घर की सीमाएं पास आने लगीं," जहां से पड़ने लगें पांव
डगमगाए हुए'--जहां से मस्ती आने लगे, शराब
का नशा छाने लगे--पास है उसका घर।
वे उस घर बहुत पास होकर लौट आए हैं। वे भूलते भी नहीं--भूल भी नहीं
सकते। उनका कोई कसूर भी नहीं है। लेकिन समाज नासमझ है, समाज के मूल्य गलत हैं। वे परमहंस हो गए होते, वे
पागल होकर रह गए हैं।
उनके बस के बाहर है कि वे उसको भूल जाएं, और हम उन्हें साथ न दे सके कि वे इसको भूल जाते जिसको हम स्वास्थ्य् कहते
हैं। उसे तो भूल ही नहीं सकते थे। पचास साल बहुत लंबा वक्त होता है। हर कोशिश की
है उन्होंने। खुद भी कोशिश की है। लेकिन मामला कुछ ऐसा है--
वो जो एक रब्ते-मुहब्बत है मिटाना उसका
मेरी ताकत में नहीं, आपकी कुदरत में नहीं।
वह जो प्रेम का एक संबंध है, वह जो एक अहोभाव है,
वह जो एक घड़ी है, वह आदमी की ताकत में नहीं कि
उसको मिटा दे, अगर हो जाए, और परमात्मा
के स्वभाव में नहीं कि उसको मिटा दे।
मेरी ताकत में नहीं, आपकी कुदरत में नहीं।
उनके "पागलपन' को पागलपन कहने में भूल हो गई
है। अभी भी कुछ बात नहीं बिगड़ गई है। अभी भी काश, उन्हें
स्वीकार किया जा सके! न केवल स्वीकार, बल्कि अहोभाव से,
धन्यभाव से, उनसे कहा जो सके कि हमसे भूल हो
गई। अगर परिवार उनसे कह दे कि "हमसे भूल हो गई और हम व्यर्थ ही तुम्हें
खींचते रहे, वह हमारी गलती थी, हमारी
नासमझी थी; हम समझ न पाए कि क्या तुम्हें हुआ है, तुमने कौन सा झरोखा खोल लिया! हम अंधे हैं। और हमने तुम्हें अपनी तरफ
खींचने की कोशिश की। उस खींचत्तान में सब टूट गया। न तुम वहां जा पाए, न तुम वहां के हो पाए। यहां के तुम हो नहीं सकते, वह
तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर है'।
जिसकी आंख उस पर पड़ गई, वह लौट नहीं सकता;
हां, खींचत्तान में दुर्दशा हो जाएगी। वही
दुर्दशा उनकी हो गई है। उन्हें स्वीकृति चाहिए--सम्मानपूर्वक स्वीकृति चाहिए,
ताकि उनके भीतर का भी भाव यह हो जाए कि ठीक हुआ है।
ध्यान रखना, आज की दुनिया में ऐसे बहुत से पागल पागलखानों में बंद
है जो आज से हजार साल पहले अगर होते तो परमहंस हो गए होते; और
ऐसे भी हुआ है कि आज से हजार साल पहले ऐसे बहुत से पागल परमहंस समझे गए, जो आज होते तो पागलखानों में होते। समाज के मापदण्ड पर बहुत कुछ निर्भर
करता है।
परमहंस में बहुत कुछ पागल जैसा होता है। पागल में भी बहुत कुछ परमहंस
जैस होता है। भेद करना बड़ा मुश्किल है, बड़ा बारीक है। पर अगर
भेद न हो सके तो भी मेरा मानना यह है कि पागल को भी परमहंस कहो, हर्जा नहीं है; लेकिन परमहंस को पागल मत कहना। मेरी
बात समझ में आई? अगर भेद न भी हो सके, अगर
मनस-शास्त्री तय भी न कर पाएं कि सीमा-रेखा कहां है, तो तुम
पागल को भी परमहंस कहना, क्या हर्ज है? तुम्हारे परमहंस कहने से वह कुछ ज्यादा पागल न हो जाएगा। लेकिन परमहंस को
पागल कभी मत कहना, क्योंकि पागल कहने से, वह जो जहां जा रहा था, जा न पाएगा। और यहां तो अब हो
नहीं सकता; वह आधा-आधा हो जाएगा, द्वंद्व
हो जाएगा।
एक दुर्भाग्य हो गया जो सौभाग्य हो सकता था। अभी भी लेकिन दूर समय
नहीं गया है। कभी भी इतनी देर नहीं होती। जब जाग जाओ तभी सुबह है!
आज इतना ही।
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