शुक्रवार, 9 मार्च 2018

भक्तिसूत्र (नारद)—प्रवचन-17

सत्रहवां प्रवचनकान्ता जैसी प्रतिबद्धता है भक्ति

दिनांक १७ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
 सूत्र :
त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकांता भजनात्मकं
वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम्
भक्त एकान्तिनो मुख्याः
कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः
पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति
कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि
तन्मयाः
मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः
यतस्तदीयाः


आज के लिए पहला सूत्र--
"त्रिभंगपूर्वकं'...
"तीन--स्वामी, सेवक, सेवा--ऐसे रूपों को भंग कर नित्य दासभक्ति से या नित्य कांताभक्ति से प्रेम करना चाहिए--प्रेम ही करना चाहिए'
जीवन के सारे अनुभव त्रैत के हैं--द्वैत के ही नहीं, त्रैत के हैं। सत्य है अद्वैत। लेकिन मनुष्य के अनुभव सभी त्रैत के हैं। देखते हो कुछ, तत्क्षण तीन भंग हो जाते हैं-- देखने वाला, दिखाई पड़ने वाली चीज, और दोनों के बीच दर्शन का संबंध। जानते हो कुछ, तो ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान। ऐसी त्रिवेणी है सारे अनुभव की।
सत्य एक है, लेकिन साधारणतः दिखाई पड़ता है, द्वैत है--ज्ञाता, ज्ञेय क्योंकि बीच का ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता; वह सरस्वती है, वह दृश्य नहीं है। प्रयाग के तीर्थ पर तीन नदियां मिलती हैं--गगां, यमुना, सरस्वती। गंगा दिखाई पड़ती है, यमुना दिखाई पड़ती है, सरस्वती अदृश्य है। तीर्थ बनाया ही इसलिए है वहां क्योंकि त्रिवेणी ही सारे जीवन का तीर्थ है। यहां दो तो दिखाई पड़ते हैं, तीसरा छुपा-छुपा है। द्रष्टा, दृश्य दिखाई पड़ते हैं, दर्शन का अनुमान करना पड़ता है। दृश्य भी पकड़ में आ जाता है, द्रष्टा भी पकड़ में आ जाता है--दर्शन को तुम अपनी मुट्ठी में न बांध पाओगे; वह अदृश्य सरस्वती है। सरस्वती को ज्ञान की देवी कहा है, वह ज्ञान की प्रतिमा है। ज्ञान कहो, दर्शन कहो--वह छिपा हुआ स्रोत है।
सत्य एक है--अद्वैत, साधारण देखने पर दो मालूम पड़ता है--द्वैत; ठीक से खोजने पर पता चलता है--त्रैत।
नारद का यह पहला सूत्र कहता है, त्रिभंग से मुक्त हो जाना जरूरी है। त्रिवेणी के पार, त्रिवेणी के गहरे में उतरना है, ताकि उस एक स्रोत का पता चल जाए जहां से गंगा, यमुना, सरस्वती, सभी निकलती हैं और अंततः जाकर फिर उसी स्रोत में विलीन हो जाती हैं। सागर का पता चल जाए, जहां से नदियों का आविर्भाव है और जहां नदियों का अवसान है।
"तीन रूपों को भंग कर, नित्य दासभक्ति से या नित्य कांताभक्ति से प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए'
यह तीन के पार जाने का जो उपाय है, उसका नाम ही प्रेम है। प्रेम एकमात्र तत्व है संसार में, जो संसार के विपरीत है। प्रेम अकेला एक स्रोत है जो संसाार के भीतर भी है और बाहर ले जाने में, जो संसार के विपरीत है। प्रेम अकेला एक स्रोत है जो संसार के भीतर भी है और बाहर ले जाने वाला भी है; संसार में होकर भी जो संसार में नहीं है; पृथ्वी पर जो किसी और लोक की किरण है; अधंकार में जो दूर सूरज की किरण है। उस किरण के सहारे को अगर पकड़ लिया तो सूरज तक पहुंच जाओगे।
इसलिए प्रेम का अनुभव परमात्मा के निकटतम है। क्यों? क्योंकि प्रेम के क्षण में न तो प्रेमी रह जाता न प्रेयसी रह जाती--प्रेम ही रह जाता है। अगर प्रेयसी भी हो, प्रेमी भी हो और बीच में दोनों के प्रेम हो, तो यह प्रेम कामवासना है, प्रेम नहीं है। क्योंकि प्रेम तो त्रिभंग के पार है। वहां तीनों मिट जाते हैं और एक ही रह जाता है। सब स्वर एक ही महासंगीत में सम्मिलित हो जाते हैं।
अगर तुमने कभी प्रेम का क्षण जाना हो तो जिससे तुमने प्रेम किया हो, या जिसके पास तुम्हारे जीवन में प्रेम का झरना फूटा हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि कुछ ऐसा हो जाता है: तुम तुम नहीं रह जाते; कहीं दीवालें गिर जाती हैं, सीमाएं धूमिल हो जाती हैं, भेद समाप्त हो जाते हैं। प्रेमी और प्रेयसी दूसरों को दो दिखाई पड़ते हैं; पर प्रेमी प्रेयसी में प्रविष्ट हो जाता है, प्रेयसी प्रेमी में प्रविष्ट हो जाती है। वहां भेद करना मुश्किल हो जाता है। कौन-कौन है, इसका भी पता चलाना मुश्किल हो जाता है। इतना आत्मैक्य हो जाता है!
प्रेम का अर्थ है, दूसरा अपने जैसा मालूम पड़े, तभी प्रेम। अगर दूसरा दूसरे जैसा मालूम पड़ता रहे तो काम। काम तो संसाार का है; प्रेम परमात्मा का है।
इसलिए नारद कहते हैं, इस तीन के भंग के पार जाना हो, इस तीन के विभाजन के पार जाना हो--और पर जाए बिना परमात्मा की कोई गंध न मिलेगी--तो प्रेम ही एकमात्र मार्ग है। प्रेम ही करना चाहिए! प्रेम ही करना चाहिए!
प्रेमैव कार्यम्, प्रमैव कार्यम्! बस एक प्रेम ही करने जैसा है। एक प्रेम ही बस होने जैसा है। एक प्रेम में ही डुबकी लगानी है और अपने को खो देना है।
प्रेमी को पता भी नहीं चलता कि हुआ क्या? और अपने को खो देता है, गंवा देता है।
जान तुझ पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता हुआ क्या है!
तुम्हें इतना भी पता चल जाए कि प्रेम हुआ है तो फासला हो गया; तुम प्रेमी बन गए; त्रिभंग खड़ा हो गया! यह भी पता नहीं चलता, हुआ क्या है! बचता भी नहीं कोई जिसको पता चले कि हुआ क्या है!
तुम जब तक बने हो तब तक तो प्रेम होगा ही नहीं। तुम ही तो अवरोध हो। इधर तुम गिरे उधर प्रेम आविर्भूत हुआ। तुम्हारे गिरने से ही प्रेम का उठना है। तुम जब तक अकड़े खड़े हो तब तक प्रेम न हो सकेगा; तब तक तुम लाख प्रेम की बातें करो, कोरी होंगी, चले हुए कारतूस जैसी होंगी, चलाते रहो, उससे कुछ हल न होगा। बातचीत होगी। उसमें प्राण न होंगे, सत्व न होगा। हवा में साबुन की झाग के बबूले बनाते रहो, गीत गाओ, कविता करो-- लेकिन यह सब अपने को भुलाने का उपाय है, क्योंकि तुम अभी हो।
प्रेम कुर्बानी मांगता है। और छोटी-मोटी कुर्बानी नहीं। कुछ और देने से न चलेगा। तुम कहो, धन दे देंगे; तुम कहो, यश दे देंगे; तुम कहो, शरीर दे देंगे--नहीं कुछ और देने से न चलेगा, तुम्हें अपने को ही देना पड़ेगा।
इसलिए प्रेम परम यज्ञ है। और दूसरे यज्ञ तो बड़े सस्ते हैं--घी डाल दो, अनाज डाल दो, धन-पैसे से हो जाते हैं। जब तक तुमने अपने को न डाला अग्नि में प्रेम की, तब तक तुमने यज्ञ किया ही नहीं, तब तक तुमने धोखा किया। असली को तो बचाते रहे, जो डालने योग्य था उसे तो बचाते रहे, जो डालने योग्य था ही नहीं उसको जलाते रहे। और गेहूं और घी डालने से क्या होगा? क्या बिगाड़ा है गेहूं और घी ने तुम्हारा? लेकिन आदमी ने हजारों उपाय खोजे हैं, ताकि अपने को बचा ले, कुछ और डालने से चल जाए।
लेकिन प्रेम तुम्हें मांगता है; तुमसे कम पर राजी न होगा। तुम कुछ और देकर प्रेम को समझा न पाओगे। प्रेम तुम्हारी कीमत से मिलता है, जब तुम अपने को दांव पर लगाते हो।
अक्ल कहती है न जा कूचा-ए-कातिल की तरफ
सरफरोशी की हवश कहती है चल क्या होगा!
तुम्हारे भीतर दोनों आवाजें उठेंगी। तुम्हारी होशियारी कहेगी; अक्ल कहेगी...अक्ल कहती है न जा कूचा-ए-कातिल की तरफ! यह परमात्मा तो बड़ा हत्यारा है, इसकी तरफ मत जाओ! यह प्रेमी तो खतरनाक है! इसमें तो तुम डूबोगे और खो जाओगे। यह तो तुम अपने कातिल की तरफ चले।
यह ठीक है। परमात्मा कातिल है, खयाल रखना। मार ही डालेगा। तुम्हें बचने न देगा। तुम्हारी गर्दन उतरेगी। मगर तुम्हारी गर्दन जब उतरेगी तभी तुम्हारे जीवन में पहली दफा महाप्रकाश का जन्म होगा। तुम मिटोगे तभी तुम पाओगे, होने का लुफ्त क्या है, होने का मजा क्या है! अस्तित्व की पहेली तुम्हें समझ आएगी। मिटकर ही पाओगे।
जीसस ने कहा है: जो बचाएंगे वे खो देंगे अपने को। जो खोने को राजी हैं, वे बच जाएंगे।
यह प्रेम का गणित बड़ा उलटा है। संसार का गणित यह है कि जो अपने को बचाएगा वह बचेगा, जो अपने को गंवाएगा वह खो जाएगा। संसार का गणित यह है कि जो अपने को बचाएगा वह रोको धन को, खर्च मत कर देना। रोकोगे तो ही बढ़ेगा। संसार का गणित कहता है, अगर धन बढ़ाना हो, तो रोको धन को, खर्च मत कर देना। रोकोगे तो बढ़ेगा। संसार का गणित कृपण बनाता है, कंजूस बनाता है। संसार का गणित एक तरह की आध्यात्मिक कब्जियत सिखाता है: रोक लो! सड़ा-गला कुछ भी हो, रोक लो, कहीं खो न जाए!
मनस्विद कहते हैं कि कब्जियत कंजूस की बीमारी है। कंजूस को कब्जियत होती ही है। सभी कब्जियतवाले भला कंजूस न हों, लेकिन सभी कंजूस कब्जियतवाले होते हैं। क्योंकि जब तुम चीजों को पकड़ने लगते हो तो छोड़ने की हिम्मत खो जाती है। मल-मूत्र को भी त्यागने की हिम्मत खो जाती है, और तो क्या त्यागोगे!
कंजूस की पकड़ सभी चीजों पर होती है। उसके हाथ में जो पड़ जाए, वह पकड़ लेता है, मुट्ठी बांधना जानता है, खोलना भूल गया है। तो जीवन की सहज मल-निष्कासन जैसी क्रियाएं भी रुक जाती हैं। रोकने की उसकी आदत इतनी सघन हो गई है कि जाने-अनजाने वह रोक ही लेता है। अचेतन हो गई है प्रक्रिया।
संसार का गणित तुम्हें कंजूस बनाता है। वह कहता है, रोको तो ही बचेगा।
मैंने सुना है, एक भिखमंगा एक द्वार पर खड़ा भीख मांग रहा था। गृहिणी बाहर आई। भिखमंगे का चेहरा शालीन था, कुलीन था। वस्त्र यद्यपि फटे-पुराने थे, लेकिन लगते थे कभी उन्होंने रौनक देखी होगी। चेहरे से लगता था, अभिजात्य घर में पैदा हुआ होगा। पूछा कि यह दुर्दशा तुम्हारी कैसे हुई? उसने कहा, "तुम घबड़ाओ मत! अगर ऐसे ही भिखमंगों को देती रही तो ऐसी ही हालत तुम्हारी भी हो जाएगी। ऐसे ही हमारी हुई। दे-देकर मिटे। तुम घबड़ाओ मत, जल्दी तुम्हारी भी हमारे जैसी हालत हो जाएगी'
संसार का गणित तो रोकने का है। प्रेम का गणित बिलकुल उलटा है। प्रेम है दान। और जो प्रेम सीख लेता है, वह और सब तो दे ही डालता है, अपने को भी दे डालता है। वस्तुतः वह अपने को देता है, उसी में सब दे दिया। जब मालिक को ही दे दिया तो फिर उसकी मालकियत कहीं पीछे बची?
लेकिन बुद्धि तुमसे हमेशा कहती रहेगी, "परमात्मा की तरफ मत जाओ, क्योंकि वहां गए कि मिटे। धर्म से बचो। इसलिए तो लोग धर्म की तरफ तभी जाते हैं जब एक पैर उनका कब्र में उतर जाता है; वे कहते हैं, अब तो मरना ही है, चलो अब थोड़ा धर्म भी कर लें। बुढ़ापे में, जराजीर्ण हो कर, जीवन आया और जा भी चुका, गर्द-गुबार छूट गई है अब, पलभर के मेहमान हैं, अब गए तब गए--तब उन्हें परमात्मा का स्मरण आता है। यह भी बुद्धि की होशियारी है, बुद्धि कहती है, "अब क्या हर्ज है, अब तो ले लो नाम!'
अकसर तो ऐसा होता है कि आदमी ले भी नहीं पाता नाम, मर जाता है; बेहोश हो जाता है मरने के पहले। पंडित-पुजारी उनके कान में राम का नाम ले देते हैं। बेहोशी में गंगाजल उसके मुंह में डाल देते हैं। मंत्राच्चारण होता है। कथापाठ हो जाता है। वह मर रहा है, वह सुन भी नहीं सकता है अब। जब सुन सकता था, जब देख सकता था, तब उसने व्यर्थ की चीजें देखीं, व्यर्थ की चीजें सुनीं। जब हाथ फैल सकते थे तब वह कूड़ा-कर्कट सम्हाले रहा। अब मरते वक्त जब कुछ भी पकड़ने की क्षमता न रह गई और जब सब छूटने ही लगा, जिसको पकड़-पकड़ कर जिया था और सोचा था कि सारी संपदा यही है, जब अपने हाथ से जाने लगी--तब वह कहता है, "चलो! अब परमात्मा को ही अपने को दे दें'। लेकिन यह देना कुछ सार्थक नहीं। इस देने से कुछ सार नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे खोटे सिक्के को कोई दान कर दे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बड़ा खुश था। मुझे मिलने आया। मैंने पूछा, "बड़े प्रसन्न हो?' कहने लगा, "दो आदमियों का उपकार करके आ रहा हूं'। मुझे भरोसा न आया। पूछा, "क्या उपकार किया है?' उसने कहा, "दस रुपये का एक नोट था नकली, मेरे पास। एक गरीब आदमी को मैंने भेंट किया और कहा, एक रुपया तू रख ले, नौ वापस कर दे। वह भिखमंगा गया पास की दुकान पर, उसने दस की रेजगारी ले ली। नौ मुझे वापस कर दिए, एक रख लिया उसने। दो आदमियों का भला करके आ रहा हूं!' मैंने पूछा, "इसमग दो कौन हैं जिनका भला हुआ?' कहने लगा, "एक तो भिखमंगे को एक रुपया मिला, "और एक मुझे नौ रुपये मिले। क्योंकि नोट तो नकली ही था'
लोग दान भी करते हैं तो खोटे सिक्कों का कर आते हैं। तुम दान ही तभी करते हो जब तुम्हारे पास कोई ऐसी चीज आ पड़ती है जिसका तुम्हें कुछ उपयोग नहीं सूझता। मैं जानता हूं, कुछ चीजें तो समाज में घूमती ही रहती है। तुम किसी को दे देता हो, फिर वह किसी को दे देता है, फिर वह किसी को दे देता है। व्यर्थ की चीजें होती हैं। भेंट करने का ही मजा लोग ले लेते हैं।
संसार का सारा गणित यह है: पकड़ो, छूट न जाए! और प्रेम का सारा गणित यह है कि छोड़ दो, क्योंकि जिन्होंने पकड़ा उनका छीन लिया गया है। जिन्होंने छोड़ दिया, उनका कोई छीनेगा कैसे? इधर तुम देते हो--वस्तुतः तुम जो देते हो उसी के तुम मालिक हो। इस सूत्र को हृदयस्थ कर लो। कंठस्थ तो तुम कर सकोगे, उससे कुछ सार नहीं। हृदयस्थ कर लो! जो तुम देते हो उसी के तुम मालिक हो। जो तुम पकड़ते हो उसके तुम गुलाम। जिसे तुम्हें देने की हिम्मत नहीं उसके तुम मालिक कैसे हो सकते हो?
प्रेम तुम्हें मालिक बनाता है।
स्वामी राम अमरीका गए। वे अपने को शहंशाह कहा करते थे। अमरीका में लोगों ने उनसे पूछा कि आपके पास कुछ भी नहीं है, आप अपने को शहंशाह कहते हैं। उन्होंने कहा, "इसीलिए! सब दे डाला। जो-जो दे डाला उसके तो मालिक हो गए। और अपने को भी दे डाला। जिस दिन अपने को दिया, उस दिन मालकियत पूरी हो गई। अब इस मालकियत को कोई छीन न सकेगा। हम शहंशाह हैं, क्योंकि हमारे पास कुछ भी नहीं है'
उन्होंने किताब लिखी तो किताब को नाम दिया: "राम बादशाह के छह हुक्मनामे'। छह आज्ञाएं बादशाह राम की! पास कुछ भी न था। मगर राम जैसा सम्राट मुश्किल से पैदा होता है। उनके जैसी खुशी, उनके जैसा आनंद, उनके जैसा नृत्य, उनके जैसी मौज--जैसे सदा ही बहार में रहे, बसंत ही बसंत रहा, पतझड़ कभी आया भी नहीं।
प्रेम में पतझड़ आता ही नहीं। प्रेम ने पतझड़ जाना ही नहीं। प्रेम में एक ही ऋतु है--बसंत।
दो--और तुम खिले! अगर वृक्ष भी कंजूस हों तो खिल न पाएंगे, क्योंकि फूल तो बंट जाते हैं। फूल तो खिला नहीं कि सुगंध उड़ी नहीं। फूल तो खिला नहीं कि दिगदिगंत में हवाएं ले जाएंगी, बांट डालेंगी। अगर पेड़ कंजूस हों तो फूल न खिलेंगे, क्योंकि खिलने में तो डर होगा; ज्यादा से ज्यादा कलियों तक पहुंचेंगे, फिर सिकुड़कर रह जाएंगे कि कहीं हवाएं ले न जाएं, छीन न लें, दान न हो जाए!
मगर ध्यान रखना, वृक्ष की शोभा, वृक्ष का सम्राज्य तभी है जब उसकी सब ऊर्जा फूल बन जाए और वह लुट जाए।
"प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए'
बस करने योग्य प्रेम है, इसलिए दुबारा दोहराया है नारद ने: "प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए!' कुछ और करने जैसा नहीं है, क्योंकि प्रेम देना है अपने को समग्र भाव से।
यह इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है!
यहां पहुंचते वही है जो डूब जाते हैं। यहां जो किनारों को पकड़कर बैठ जाते हैं, वे कभी नहीं पहुंच पाते। मुझे ऐसा कहने दो कि जो किनारे पर बैठते हैं वे डूब जाते हैं; जो मंझधार में डूबते हैं उन्हें किनारा मिल जाता है।
मिटना ही कला है प्रेम की। मिटना ही प्रार्थना है। अगर प्रार्थना करते-करते तुम पिघले न, तो तुमने व्यर्थ माथापच्ची की। अगर प्रार्थना करते-करते तुम बह न गए सभी दिशाओं में, तो तुम्हारी प्रार्थना भी तुम्हारी अक्ल का ही हिसाब है। सोचते हो, चलो यह भी कर लो, कौन जाने परमात्मा हो!
एक चर्च में एक पादरी बोल रहा था। वह थोड़ा हैरान हुआ। एक बुढ़िया सामने ही बैठी थी। वह जब भी ईश्वर का नाम लेता तब वह "आमीन' कहती थी। वह तो ठीक था। आमीन "ओऽम्' का ही रूपांतरण है। स्वागत का भाव है उसमें। लेकिन जब वह शैतान का नाम लेता तब भी वह कहती थी--"आमीन'। वह थोड़ा हैरान हुआ। पूरा प्रवचन हो जाने पर वह उतरा मंच से नीचे, उस बुढ़िया के पास गया, कि मेरी समझ में नहीं आय। ईश्वर का नाम लेकन तो मैंने बहुतों को आमीन करते देखा, लेकिन तू शैतान के नाम में भी करती है!
बुढ़िया ने कहा, "मरने का वक्त है, किसी को नाराज करना ठीक नहीं। पता नहीं कहां जाना हो, किससे मिलना हो! शैतान के हाथ में पड़ें कि भगवान के हाथ में पड़ें! दोनों को ही राजी रखना ठीक है। अब यह सुविधा मेरे पास नहीं है कि ज्यादा सोच-विचार करूं। मरना करीब है। इसलिए मैं तो दोनों की प्रार्थना कर लेती हूं'
यह बुद्धि का हिसाब है। जैसे-जैसे मौत करीब आती है, तुम परलोक का इंतजाम करने लगते हो कि अब यहां तो छूटने लगा; फैलाया था बड़ा पसारा, सिकुड़ने लगा; यहां तो अब विदा होने की घड़ी आ गई; लोग तो अर्थी तैयार करने लगे; जल्दी ही बैंड-बाजा उठ जाएगा; चल पड़ोगे--अब थोड़ा उस परलोक की भी खबर कर लें; कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा हो ही! फिर हर्ज क्या है! नहीं हुआ तो कुछ बिगड़ता नहीं है; अगर हुआ तो कहने को तो रहेगा कि याद किया था।
ऐसे ही बेईमानों ने कहानियां भी गढ़ रखी हैं कि एक पापी मर रहा था, उसके बेटे का नाम नारायण था, उसने जोर से मरते वक्त बुलाया--"नारायण, नारायण! तू कहां है, नारायण'।--और मर गया! कहते हैं, ऊपर के "नारायण' धोखे में आ गए! उसे उन्होंने स्वर्ग भेज दिया!
आदमी की बेईमानी की कोई सीमा नहीं है। पंडित-पुरोहित ये कहानियां सुनाते हैं; लोगों को कहते हैं, "घबड़ाओ मत, मरते वक्त भी अगर नाम ले लिया एक बार, बस हो गया'! लेकिन जिसको तुमने जीवन में न पुकारा उसे तुम मरने में कैसे पुकार सकोगे? जिसका नाम तुम्हारे ओठों पर जीवित-जीवित न आया, मृत्यु के क्षण में तुम्हारे मुरझाये ओठों पर उसके नाम की कुछ शोभा होगी? हृदय जब भरा-पूरा था, तब तुम वेश्याओं के द्वार पर लुटाते रहे। जब प्राणों में ऊर्जा थी तब तिजोड़ी भरते रहे। जब कुछ करने के दिन थे तब तो तुमने व्यर्थ और गलत ही किया। अब जब सब तरफ से सूख गए, हाथ सब तरफ से छीन लिए गे, सब दरवाजे बंद हो चुके तब--तब तुम मंदिर के द्वार पर आ बैठे! अब तुम "नारायण-नारायण' कर रहे हो! ऐसे कहीं हो सकता है? ऐसा धोखा कहीं हो सकता है?
तुम्हारे जीवनभर का आलेख होगा, तुम्हारी मृत्यु के क्षण का नहीं; क्योंकि मृत्यु का क्षण तो तुम्हारे जीवनभर का निचोड़ है। तुम लाख नारायण कहो, अगर जीवन में तुम्हारे नारायणन बसा था, तो मरते वक्त तुम्हारे ओंठ से भला निकल जाए, तुम्हारे प्राणों की गहराई से न आ सकेगा; तुम्हारी परिधि पर भला हो जाए! राम-नाम चदरिया ओढ़ लेना। इससे किसको धोखा दोगे तुम?
अस्तित्व को धोखा नहीं दिया जा सकता। इसलिए प्रतीक्षा मत करो कि कल कर लेंगे, कि अभी तो जवानी है, अभी तो हम जवान हैं, अभी तो जरा राग-रंग देख लें!
रामकृष्ण के पास एक आदमी आता था। वह काली का बड़ा भक्त था और साल में दो-चार दफे बकरे चढ़ावा देता था और भोज दिलवा देता था; फिर अचानक उसने बंद कर दिया। रामकृष्ण ने कहा, "हुआ क्या?' आया--कहा कि तू तो बड़ा भक्त था और तू तो सदा बकरे चढ़वाता था, दो-चार दफा साल में उत्सव मनवा देता था--अब क्या चित्त धार्मिक न रहा? उसने कहा, "धार्मिक तो अब भी हूं, लेकिन दांत टूट गए!'
आदमी मंदिर में भी जो करता है वह अपने ही लिए करता है। वह उत्सव वगैरह...काली तो बहाना था; वह तो मांसाहार को धर्म की आड़ में करने का उपाय था। पर अब दांत ही टूट गए! नहीं हो सकेगी। उसमें पूजा की सुगंध न होगी। उसमें अर्चना की धूप न उठेगी। उसमें तुम्हारी दुर्गंध ही होगी, उसमें जीवनभर की सड़ांध ही होगी।
करने योग्य तो एक ही बात है--और वह प्रेम है। लेकिन "इक आग का दरिया है और डूब के जाना है'
तीन-स्वामी, सेवक, सेवा; या ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय; या द्रष्टा, दर्शन, दृश्य--सभी त्रिभंगिमां छोड़ देनी हैं। त्रिवेणी के पार उठे तो असली तीर्थ शुरू होता है। त्रिवेणी में डुबकी लगाई और उस जगह पहुंच गए जहां तीनों एक हो गए हैं...।
हिंदुओं के पास बड़ी सुंदर मूर्ति है--त्रिमूर्ति--ब्रह्मा, विष्णु, महेश! एक ही मूर्ति में तीनों के चेहरे हैं। किसी भी चेहरे से प्रवेश करो, भीतर एक जगह आ जाएगी जहां तीनों मिलते हैं। मूर्ति तो एक ही है, चेहरे भर तीन हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही परमात्मा के तीन चेहरे हैं।
एक को पाना है। तीन के पार जाना है। और पार जाने का प्रेम के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। क्योंकि प्रेम ही जोड़ता है, बाकी सब चीजें तोड़ती हैं। घृणा तोड़ती है। जिससे घृणा हो जाए उससे हम टूट जाते हैं। जिससे घृणा हो जाए वह हमारे पास भी खड़ा हो तो करोड़ों मील का फासला हो जाता है। फिर जिससे प्रेम हो जाए उससे हम जुड़ जाते हैं। करोड़ों मील का फासला हो तो भी वह हमारे पास ही होता है; हृदय की धड़कन के बिलकुल पास होता है। प्रेम जोड़ता है।
घृणा अहंकार की अभिव्यक्ति है। जिसने प्रेम किया वह निरहंकारी हुआ।
बड़े शौ व तवज्जो से सुना दिल के धड़कने को
मैं यह समझा कि शायद आपने आवाज़ दी होगी।
प्रेमी तो अपने दिल की धड़कन में भी उसी की आवाज सुनता है। दिल भी धड़कता है तो वह आंख बंद करके रस लेता है: "होगी उसी के पैरों की आवाज'!
"कतील' अब दिल की धड़कन बन गई है चाप कदमों की
कोई मेरी तरफ आता हुआ मालूम होता है।
दिल की धड़कन भी उसी के पैरों की आवाज हो जाती है। आंख खोलते हो जहां, वही दिखाई पड़ता है। तू ही तू है! पर प्रेम चाहिए। लोग परमात्मा को खोजने निकलते हैं और प्रेम है नहीं। परमात्मा को तो तुम छोड़ो; तुम प्रेम को खोज लो, परमात्मा अपने से बंधा चला आएगा। कच्चे धागे से चले आएंगे सरकार बंधे!
प्रेम का धागा बड़ा कच्चा है, पर उससे मजबूत कोई चीज ही नहीं। बड़ा कोमल है! लेकिन तुमने कभी खयाल किया कि लोहे कि जंजीरें भी तोड़ दो, प्रेम का कच्चा सा धागा भी तोड़ते नहीं बनता। कितनी ही बड़ी जंजीरें तोड़ी जा सकती हैं। जिन्हें डाला जा सकता है उन्हें तोड़ा जा सकता है। प्रेम भर नहीं टूटता। क्योंकि तुम्हारे ढाले ढलता नहीं। प्रेम तुमसे बड़ा है, कैसे टूटेगा? वस्तुतः तोड़ने वाला तो प्रेम में पहले ही टूट जाता है; तोड़नेवाला ही नहीं बचता।
"तीन रूपों को भंग कर नित्य दास्यभक्ति से या नित्य कांताभक्ति से प्रेम करना चाहिए'
क्या है दास्यभक्ति? क्या है कांताभक्ति? दोनों एक ही है। जब कोई स्त्री किसी को प्रेम रती है तो फर्क तुम समझना।
नारद को कांताभक्ति शब्द का उपयोग करना पड़ा। जब कोई स्त्री किसी पुरुष को प्रेम करती है तो उसे प्रेम का गुणधर्म बड़ा भिन्न होता है--उससे--जब कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है। दोनों के गुणधर्म में बड़ी गहराई का फर्क है। पुरुष के लिए हजार कामों में प्रेम एक काम है। और हजार चीजें भी हैं करने को उसे; उन्हीं के बीच-बीच में समय निकालकर वह प्रेम भी कर लेता है। यश भी कमाना है, धन भी कमाना है, पद-प्रतिष्ठा है, दुकान है--हजार काम हैं। प्रेम उन्हीं के बीच में एक विश्राम है। स्त्री की बात बड़ी अलग है। स्त्री के लिए प्रेम की उसका एकमात्र काम है, और कुछ भी नहीं। उसे कुछ और नहीं करना है। प्रेम न हो स्त्री के जीवन में तो बिलकुल सूनी रह जाती है। पुरुष के जीवन में प्रेम न हो तो भी कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता; वह हजार और चीजों से भर लेता है--धन से, पद से; राजधानियों में पहुंच जाता है। उसके और भी प्रेम हैं--प्रेम के अलावा। हजार तरह के! कुछ न मिले, कुछ मूढ़तापूर्ण काम करने लगता है--चलो, टिकटें ही इकट्ठी करो, पोस्टल स्टाम्प ही इकट्ठे करो, घुडदौड़ में चले जाओ।
जरा सोचें, किसी घोड़े को कहो कि आदमियों की दौड़ हो रही है, आदम-दौड़ हो रही है, कोई घोड़ा न आएगा देखने। मगर आदमी हजारों की संख्या में खड़े हैं। यह पूरा कोरगांव पार्क घुड़दौड़ देखनेवालों का निवास-स्थान है। बस जब घुड़दौड़ होती है पूना में, तब वे आ जाते हैं, बस्ती आबाद हो जाती है, अन्यथा खाली हो जाती है। घोड़े भी हंसते होंगे कि आदमियों-से गधे न देखे! फिर घोड़ा कम-से-कम घोड़ा तो है।
फुटबाल हो कि हाकी हो कि बालीबाल हो, कि दो जगंली आदमी कुश्ती लड़ रहे हों, उसी को देखने खड़े हैं, धक्कमधुक्की खा रहे हैं। हजारा काम है आदमी को, चैन नहीं है! प्रेम तो बीच-बीच का विश्राम है; वह जीवन की मूल धारा नहीं है, राह के किनारे-किनारे है। वह भी पोस्टल स्टाम्प जैसा ही एक शौक है; कर लिया तो ठीक, न किया तो कुछ हर्ज नहीं।
स्त्री प्रेम न कर पाए तो उसके भीतर कुछ अनखिला रह जाता है। इसलिए तुम हैरान होओगे, स्त्री एक बार प्रेम कर लेती है तो जैसे सदा के लिए प्रेम कर लेती है, एक पुरुष उसके लिए सदा के लिए हो जाता है। पुरुष इतनी जल्दी एक में नहीं डूबता। पुरुष की आकांक्षा और स्त्रियों पर घूमती ही रहती है; वह लाख उपाय करे, लेकिन उसकी नजर भटकती रहती है। पुरुष की नजर आवारा है। अगर पुरुष का बस चले--और धीरे-धीरे उसने इंतजाम किए हैं सब--अगर उसका बस चले तो विवाह समाप्त हो जाएगा। पश्चिम के मुल्कों में जहां पुरुष ने काफी सम्पत्ति और सम्पन्नता पैदा की ली है, वहां विवाह टूट रहा है।
स्त्री जब भी किसी के प्रेम में पड़ती है तो वह पहले ही विवाह का सोचने लगती है; और पुरुष जैसे ही किसी के प्रेम में पड़ता है, वह विवाह से बचने की सोचने लगता है।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे बोला कि अब आखिर आज जा ही रहा हूं। "हुआ क्या?' मैंने कहा, "दांत के डाक्टर के पास जा रहे हो, कहां जा रहे हो? कोई बीमारी हो गई है? कोई झंझट है, अदालत में कोई मुकदमा है?'
उसने कहा कि नहीं, विवाह करना है। अब तक टाला!
पुरुष टालता है। स्त्री आतुर होती है, क्योंकि स्त्री को प्रेम एकोन्मुख है, एकांत है। पुरुष का प्रेम छितरा-छितरा है। पुरुष खानाबदोश है; घर बनाकर रहने में उसे बेचैनी मालूम पड़ती है। स्त्रियों ने घर बनवाए। सारी सभ्यता स्त्रियों के कारण बनी। नहीं तो पुरुष तो घूमता ही रहता डेरा-डंगा लेकर; तम्बू काफी था! मकान! इतना ठोस बनाने की जरूरत क्या है! तम्बू लगा लेते! आज यहां, कल वहां, परसों वहां!
नये पर पुरुष का रस है। भंवरे की तरह है--एक फूल, दूसरा फूल, तीसरा फूल! किसी फूल के साथ प्रतिबद्ध नहीं हो पाता, कमिट नहीं कर पाता। स्त्री करवा लेती है उससे। बेचैनी में, मजबूरी में, उलझन में फंस गया, निकल नहीं पाता। अपनी ही कही बातें अपनी ही गर्दन पर फंस जाती हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी ने अपनी प्रेयसी को कहा, "तू मुझसे विवाह करेगी?' उसने कहा, "हां, निश्चित!' फिर वह आदमी बिलकुल चुप ही बैठ गया। घड़ी भारी लगने लगी। उस स्त्री ने कहा, "कुछ बोलो भी'। उसने कहा, "अब और बोलने को बचा क्या! बोल चुके। अब जिंदगी में बोलने को कुछ नहीं बचा। कितना टाला, आल निकल गया!'
इसलिए नारद कहते हैं: कांताभक्त्ति! भक्त को अगर परमात्मा से भक्ति करनी है तो स्त्री से प्रेम सीखना पड़ेगा। फिर एक पर ही प्रतिबद्ध होना पड़ेगा।
तुम्हारा प्रेम बंटा हुआ है; थोड़ा इस दिशा में, थोड़ा उस दिशा में; थोड़ी राजनीति भी कर लो, थोड़ा धन कमा लो; थोड़ा धर्म भी कर लो; थोड़ी प्रतिष्ठा में हज्र क्या है; सभी कुछ बांट लो, बटोर लो! जिंदगी छोटी है, हाथ छोटे हैं, समय बहुत संकीर्ण है! तुम हजार दिशाओं में दौड़कर पगला जाते हो।
प्रेम अहर्निश एक दिशा में यात्रा है। इसलिए कांताभक्ति! एक बार स्त्री किसी के प्रेम में पड़ जाए, फिर उसके लिए संसार में कोई दूसरा पुरुष रह नहीं जाता। यही तो अड़चन है। इसलिए स्त्री पुरुष को नहीं समझ पाती, पुरुष स्त्री को नहीं समझ पाता। पुरुष के लिए और भी स्त्रियां हैं। और पुरुष हमेशा अनुभव करता है कि नये-नये संबंध हो जाएं तो शायद ज्यादा सुख होगा। स्त्री की प्रतीति यह है कि संबंध जितना गहरा हो उतना ज्यादा सुख होगा।
पुरुष मात्रा पर जाता है; स्त्री, गुण पर। इसलिए सम्राट हैं, तो हजारों रानियों को इकट्ठा कर लेते हैं। फिर भी मन नहीं भरता। पुरुष का मन भरता नहीं--भर सकता नहीं। क्योंकि मन भरने की तो तभी सम्भावना है जब प्रेम गहरा हो, गुणात्मक हो। एक के साथ इतनी तल्लीनता आ जाए, इतना तादात्म्य हो जाए कि भेद गिर जाएं। प्रेम तो तभी तृप्त होता है जब प्रार्थना की सुगंध प्रेम में उठने लगे।
समय चाहिए!
पुरुष का प्रेम मौसमी फूलों की तरह है; अभी बोए; दोत्तीन सप्ताह बाद आना शुरू हो जाए। सर्दी आएगी, बाग-बगीचे मौसमी फूलों से भर जाएंगे। स्त्री का प्रेम मौसमी फूलों जैसा नहीं है; समय लगता है। जितना बड़ा वृक्ष, जितना आकाश में ऊपर उठाना हो, उतना जमीन में गहरी जड़ों को जाना पड़ता है। जितना वृक्ष ऊपर जाता है उतनी ही जड़ें नीचे गहरी जाती हैं। मौसमी फूलों की कोई जड़ें होती हैं; जरा हिला दो, उखड़ गए! इसलिए तो दो-चार छह सप्ताह में आ जाते हैं; पर दो-चार छह सप्ताह में विदा भी हो जाते हैं। क्षणभंगुर है पुरुष का प्रेम। उफान आता है उसमें, ज्वार आता है उसमें लेकिन भाटे के आने में देर नहीं लगती। ज्वार के पीछे ही छिपा भाटा भी चला आता है। अगर पुरुष के प्रेम को गौर से देखो, तो तुम उसे पाओगे कि जब वह प्रेम के क्षण में होता है, तब तो यह भूल ही जाता है कि मैं पुरुष हूं, क्या कह रहा हूं। वह कहता है, "सदा तुझे प्रेम करूंगा! तेरे अतिरिक्त और कोई मेरे लिए प्रेम का पात्र नहीं है'। पुरुष ये बातें कहता है; जब कहता है तब वह भी आविष्ठ होता है उन बातों से--लेकिन घड़ीभर बाद उसे लगता है, "यह मैं क्या कह गया! इसे पूरा कर पाऊंगा? असम्भव मालूम होता है'। स्त्री इन बातों को हृदय से कहती है। सच तो यह है, स्त्री ये बातें कहती नहीं, अनुभव करती है।
अगर तुम दो प्रेमियों के बैठे देखो, तो तुम स्त्री को चुप पाओगे, पुरुष को बोलते पाओगे। सत्री चुप रहती है, कहना क्या है! जो है, है। जो है, वह अपनी दीप्ति से ही चमकेगा; उसे शब्द दे कर ओछा क्यों करें? ऐसा नहीं कि स्त्री चुप बोलना नहीं जानती--स्त्री पुरुष से ज्यादा बोलना जानती है। लेकिन प्रेम के क्षण में स्त्री चुप होती है। बात इतनी बड़ी है कि कही नहीं जा सकती। ऐसे तो स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा बोलने में कुशल होती हैं। बच्चियां पहले बोलती हैं बच्चों की बजाय। लेकिन सालभर पहले बोलना शुरु कर देती हैं। लड़के थोड़ा देर लगाते हैं बोलने में। स्कूलों में भी लड़कियां ज्यादा प्रथम कोटि की आती हैं; बोल सकती हैं; लिख सकती हैं। कुशल हैं बोलने में। पुरुष का बोलना इतना कुशल नहीं है।
लेकिन जब स्त्री-पुरुष प्रेम में पड़ते हैं, स्त्री चुप होती है, पुरुष बोलता है। क्योंकि जो नहीं है, वह बोल-बोलकर उसकी आभा पैदा करता है, आभास पैदा करता है। स्त्री चुप्पी से बोलती है। एक बार प्रेम में पड़ जाए तो वह सदा के लिए पड़ गई। इसलिए तो इस देश में हजारों स्त्रियां सती हो गईं अपने प्रमियों के पीछे, लेकिन कोई पुरुष कभी सता नहीं हुआ। इधर पत्नी मरी नहीं कि वह दूसरी पत्नी को लाने के विचार करने लगता है--वस्तुतः तो यह है कि मरने के पहले ही करने लगता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। आखिरी क्षण उसने कहा कि "मुझे पता है कि तुम मेरे मर जाने के बाद विवाह करोगे, तुम अकेले न रह सकोगे। करना, लेकिन एक बात खयाल रखना'। नसरुद्दीन ने कहा, "कभी नहीं करूंगा, तू बिलकुल चिंता मत कर। कभी भी नहीं करूंगा। असम्भव है यह बात'। और उसने कहा कि वह मैं जानती हूं, तुम मुझे व्यर्थ का भरोसा मत बंधाओ; सिर्फ एक बात का भरोसा मुझे बता दो, मेरे गहने और मेरे कपड़े उस स्त्री को मन पहनने देना।
नसरुद्दीन ने कहा, "यह झंझट की बात हुई। फातिमा तो तेरे गहने आएंगे भी नहीं और तेरी साड़ी भी नहीं आएगी'
वे तय ही कर चुके हैं कि किससे शादी करनी है!
पुरुष थिर नहीं है, चंचल है। इसलिए नारद को कहना पड़ा: "कांताभक्त्ति'। जैसे कोई स्त्री किसी को प्रेम करती है, ऐसा परमात्मा को प्रेम करना।
"दास्याभक्ति'!
दास शब्द निंदित हो गया बहुत। लेकिन उसमें भी कुछ राज है। अब तो दुनिया में कोई दास होते नहीं। और अगर किसी कम्यूनिस्ट को ये नारद के सूत्र मिल जाएं तो वह कहेगा, यह आदमी तो बुर्जुआ, पूंजीवादी मालूम पड़ता है, केपिटलिस्ट है, दासों की बातें कर रहा है, कह रहा है कि दास्यभक्ति होनी चाहिए, दासों जैसा होना चाहिए! दासता को मिटा दिया!
जिस दासता को तुमने मिटा दिया है उसकी बात नहीं हो रही है। यह एक ऐसी बात है कि कभी-कभी घटती है। यह भी प्रेम हा एक कि कोई किसी को अपनी सारी मालकियत दे देता है। छीन नहीं लेती--कोई-कोई दे देता है! कोई किसी के चरणों का दास हो जाता है। इतना हो जाता है कि अगर दोनों के जीवन बचाने का मौका आए और एक ही बचता हो, तो दास अपने मालिक को बचाएगा, अपने को नहीं। अगर घर में आग लगी हो तो दस जल जाएगा, मालिक को बचा लेगा।
दास्याभक्ति का इतना ही अर्थ है कि तुमने जिसे मालिक जाना, उसको ही तुम अपनी आत्मा भी जानना। परमात्मा मालिक है, स्वामी है। या तो कांताभक्ति करना या दास की भक्ति करना। क्योंकि दास भी अपना तादात्म्य छोड़ देता है अपने से, और मालिक के साथ जुड़ जाता है; और कांता भी अपने को बिलकुल भूल जाती है, अपने पति के साथ एक हो जाती है।
तुमने देखा! विवाह कर लाते हो स्त्री को, तुम्हारा नाम स्त्री के साथ जुड़ जाता है, तुम्हारा कुल, तुम्हारा गोत्र तुम्हारी जाति स्त्री के साथ जुड़ जाती है। इससे उलटा नहीं होता। तुम्हारी स्त्री की जाति तुम्हारे नाम से नहीं जुड़ती। स्त्री अपने को तुम में खो देती है, तुम उसमें अपने को नहीं खोते। तुम विवाह कर लाते हो स्त्री का नाम भी बदल देते हो। वह प्रसन्न होती है उसके नाम के बदल जाने से क्योंकि अतीत का मूल्य ही क्या अब! जो प्रेम के पहले था, वह था ही नहीं। असली जीवन तो अब शुरू हुआ। नया जन्म: नया जीवन! वह नया नाम चाहती है। वह नया भाव चाहती है अपने जीवन का। वह नाम भी बदल लेती है।
विवाह तुम करते हो स्त्री से, तो स्त्री के घर रहने पुरुष नहीं जाता, स्त्री पुरुष के घर रहने आती है। कभी मजबूरी में किसी कारण से पुरुष को जाना पड़ता है तो बड़ा लज्जित भाव से जाता है। घरजवांइ की जैसी फजीहत होती है, वह सभी जानते हैं। कभी एकाध पर यह मुसीबत आ जाती है कि घरजंवाई बनना पड़ता है, तो दीन-हीन हो जाता है।
तुम जरा गौर करो। आखिर पुरुो अगर विवाह करके अपनी पत्नी के घर रहने जाता है तो दीन-हीन की क्या जरूरत है? मगर वह समझता है, कुछ मजबूरी हो गई, अवश हो गया, असहाय हो गया, दूसरों पर निर्भर हो गया! लेकिन तुमने कभी इससे उलटा होते देखा? खयाल तुम करो, स्त्री तुम्हारे घर में आती है, दूसरे के घर में आती है, अपने को सब भांति लुटा देती है, और कभी दीन-हीन अनुभव नहीं करती, सौभाग्यशालिनी अनुभव करती है। यही नहीं, मजे की बात यह है कि अपने को पूरी तरह सर्वस्व दान करके अचानक तुम्हारे घर की मालकिन हो जाती है, "घरवाली' हो जाती है। घर तुम्हारा था, सत्री "घरवाली' हो जाती है! तुमको कोई "घरवाला' नहीं कहता। और ऐसा अनुभव नहीं करती कि दूसरे के घर में आ गई है। अपने को इतना खो देती है कि पराया नहीं बचता।
इसलिए नारद कहते हैं: कांताभक्त्ति या दासभक्ति...! इतने एक हो जाना परमात्मा से कि फासला न रह जाए।
नियाजे-इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है
जहां है शुक्र शिकायत किसी को क्या मालूम!
एक ऐसा भी मुकाम है प्रेम की यात्रा में; जहां तुम इतने एक हो जाते हो कि धन्यवाद देने में भी शिकायत मालूम पड़ेगी।
तुमने कभी खयाल किया! पश्चिम में चलता है, क्योंकि पश्चिम में संबंध औपचारिक हो गए, उनकी गहराई खो गई। अगर बेटा मां के लिए कुछ करता है तो मां भी कहती है,"थैंक्यू! धन्यवाद!'
हिन्दुस्तान में कोई मां न कहेगी। धन्यवाद बेटे से! यह तो बड़ा परायापन हो जाएगा। बाप बेटे के लिए कुछ करता है तो पश्चिम में बेटा धन्यवाद देता है, न दे तो अशिष्ट है। लेकिन पूरब में! बाप बेटे के लिए कुछ करता है और अगर बेटा धन्यवाद दे तो बाप बड़ा चौंकेगा कि हुआ क्या! तू कोई पराया है?
जहां संबंध औपचारिक होता है वहां धन्यवाद ठीक है। लेकिन जहां संबंध आत्मीय है वहां तो धन्यवाद शिकायत हो गई। धन्यवाद भी शिकायत हो जाती है, ऐसी भी प्रेम की एक मंजिल है।
नियाजे-इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है
जहां है शुक्र शिकायत किसी को क्या मालूम!
मैं तुमसे निरंतर कहता हूं कि प्रार्थना धन्यवाद है। लेकिन फिर एक ऐसी मंजिल भी आती है...।
यह तो शुरूआत की बात है कि प्रार्थना धन्यवाद है। यह तो मैं तुमसे इसलिए कहता हूं, ताकि तुम प्रार्थना को मांग न बनाओ। मांगने मत जाओ परमात्मा से, धन्यवाद देने जाओ। लेकिन जल्दी ही अगर तुम्हारा धन्यवाद गहन होने लगा, तो एक दिन तुम पाओगे: अब तो धन्यवाद देना भी शिकायत जैसा हो गया, क्योंकि परमात्मा से यह जाकर कहना कि तूने बहुत दिया, जाहिर है कि तुम कह रहे हो, लेकिन बहुत तुमने माना नहीं। औपचारिक है। अगर परमात्मा न देता तो...।
रामकृष्ण के पास जब केशवचंद्र मिलने आए, पहली बात तो विवाद किया, फिर धीरे-धीरे उनके सत्संग में आने लगे, उनसे प्रभावित हुए, आंदोलित हुए, परमात्मा की भक्ति भी करने लगे। तो रामकृष्ण ने एक दिन पूछा कि "तुम करते क्या हो भक्ति में? क्या विधि-विधान है तुम्हारा?' उन्होंने कहा, "धन्यवाद देता हूं परमात्मा को। धन्यवाद देता हूं कि तूने जीवन दिया, आंखे दीं, कान दिए, हाथ दिए, प्राण दिए, बुद्धि दी, इतना सब कुछ दिया! मेरे बिना कमाए दिया! मेरे बिना मांगे दिया!'
रामकृष्ण लेकिन उदास हो गए? केशवचंद्र ने कहा, "आप सुनकर उदास क्यों हो गए? उन्होंने कहा, "धन्यवाद देता है? अगर परमात्मा आंखें न देता, तू अंधा होता, तो फिर धन्यवाद देता कि नहीं? फिर नहीं देता। अगर बहरा होता तो? परमात्मा ने जो दिया है उसके कारण तू धन्यवाद देता है। अगर न दिया होता तो, फिर क्या करता तूं?'
धन्यवाद में भी शिकायत है। परमात्मा के सामने हो जाना काफी है। पहले मांग छोड़ो। धन्यवााद के कांटे से मांग का कांटा निकाल लो। फिर दोनों कांटे फेंक दो। फिर धन्यवाद भी क्या देना? उसी का सब है, धन्यवाद रखने लायक जगह भी बीच में नहीं बचती।
"भक्ता एकान्तिनो मुख्याः'
दूसरा सूत्र: "एकान्त अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठ है'
जैनों के पास एक शब्द है--अनेकांत। उसके विपरीत में शब्द है--एकांत। अनेकांत में जैनों का कहना है कि संसार में एक वस्तु नहीं है, अनेक वस्तुएं हैं; संसार अनंत वस्तुओं का जोड़ है। जैन अद्वैतवादी तो है नहीं, द्वैतवादी भी नहीं हैं--अनेकवादी हैं। इसलिए उनके दर्शनशास्त्र का ही नाम अनेकांत दर्शन हो गया। भक्त कहता है, एक ही है। जैन शास्त्र अत्यन्त तर्ककुशल है। जैन शास्त्र पढ़ोगे तो गणित जैसा मालूम पड़ेगा। साफ-सुथरा है बहुत--गणित साफ-सुथरा होता ही है। तर्क बहुत स्पष्ट है--तर्क स्पष्ट होते ही हैं। लेकिन गीत नहीं है, संगीत नहीं है। थोथा-थोथा है, ऊपर-ऊपर है। मरुस्थल जैसा है; फुलवाड़ी नहीं है, हरियाली नहीं है। रूखा रेगिस्थान मालूम होता है।
ठीक अनेकांत से विपरीत दृष्टि भक्त की है। इसलिए तो जैन भक्त नहीं है। वे भगवान को भी नहीं मानते, क्योंकि अगर भगवान को मानेंगे तो एक को मान लेना पड़ेगा। वे कहते हैं, अनंत वस्तुएं हैं, अनंत पदार्थ हैं--लेकिन कोई एक नहीं है सबको जोड़नेवाला। वे कहते हैं, मनके तो बहुत हैं, लेकिन मनकों में पिरोया हुआ एक सूत्र नहीं है जो माला बना दे।
भक्तिशास्त्र कहता है, मनकों से कहीं माला बनी? यद्यपि भीतर पड़ा हुआ धागा दिखाई नहीं पड़ता, मनके ही दिखाई पड़ते हैं; लेकिन मनकों से कहीं माला बनी? ढेर लग सकता था। अगर अनंत वस्तुएं होतीं और उन सबको जोड़नेवाला कोई एक न होता, तो संसार में ढेर हाता चीजों का, व्यवस्था नहीं हो सकती थी। तुम मनकों का ढेर लगा सकते हो, माला नहीं बना पाओगे। गले में तो पहनोगे कैस? लेकिन जगत बंधा हुआ, गुथा हुआ मालूम पड़ता है। अलग-अलग चीजें नहीं मालूम पड़ती। तुमने कोई चीज देखी जो अलग है? सब जुड़ा है। वृक्ष जमीन से जुड़े हैं, जमीन सूरज से जुड़ी है, सूरज चांदत्तारों से जुड़े हैं। सब जुड़ा है, गुंथा है, माला है। तो निश्चित ही इतनी अनंत चीजों का जोड़नेवाला कोई एक सूत्र, कोई सूत्रधार है, इन सबके भीतर पिरोया हुआ एक धागा--उस धागे का नाम ही परमात्मा है।
एकांत भक्ति श्रेष्ठ है। और भक्त तो कैसे दो का हो सकता है? एक का ही हो सकता है। इस्लाम इसलिए कहता है, सिवाय अल्लाह के और कोई परमात्मा नहीं है; सिवाय परमात्मा के और कोई परमात्मा नहीं। इस्लाम भक्ति का ही विस्तार है। सिवास एक परमात्मा के और कोई परमात्मा नहीं। एक! अनन्य!
जब तुम एक को पूजोगे तो तुम भी संगठित हो जाओगे। जब तुम अनंत की दृष्टि रखोगे, तुम भी अनंत टुकड़ों में टूट जाओगे। तुम्हारी दृष्टि तुम्हारा जीवन बन जाती है। एक को स्वीकार किया कि तुम भी एक होने लगे। जो तुम्हारी जीवनदृष्टि है, अन्ततः तुम्हारी जीवन-शैली भी बन जाएगी।
भक्त को एकांत, अनन्य होना चाहिऐ। क्योंकि प्रेम दो को जानता ही नहीं।
मीरा नाचती-नाचनी, कहते हैं, वृंदावन पहुंच गई। वृंदावन में एक मंदिर था, बड़ा मंदिर था कृष्ण का। और उस मंदिर का पुजारी सारे देश में ख्यातिलब्ध था। बड़ा प्रकांड पंडित था, बड़ा-महात्मा था। मगर वह स्त्री का मुंह नहीं देखता था। कृष्ण का भक्त था। लेकिन उसके मंदिर में स्त्रियों को आने की मनाही थी। मीरा नाचती हुई मंदिर में पहुंच गई। महापंडित तो घबड़ा गया, महात्मा तो बहुत घबड़ा गया। उसका सब महात्मापन डगमगा गया कि स्त्री भीतर आ कैसे गई! द्वारपाल भी खड़े थे, लेकिन मीरा के नाच में कुछ खो गए, कुछ मस्ती छा गई, न रोक पाए। कुछ ऐसी लहर की तरह मीरा आई, कुछ ऐसी धुन के साथ आई कि द्वारपाल ठगे से खड़े रह गए! सदा रोक दिया था और स्त्रियों को, लेकिन स्त्री यह कुछ और ही थी। आग की एक लपट थी! एक झटके में वह भीतर पहुंच गई! एक क्षण को द्वारपाल ठिठके कि वह तो अंदर थी! मंजीरा उसका बज रहा था। वह तो नाच रही रही थी।
पुजारी बहुत नाराज हुआ। वह आया और कहा कि मैंने सुना है तेरा नाम, लेकिन स्त्री की यहां आने की मनाही है। यहां केवल पुरुष ही आ सकते हैं।
मीरा ने कहा, "तुम मुझे चौंका दिए! मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष नहीं? तुम भी पुरुष हो? मैंने तो कृष्ण के अतिरिक्त और किसी में पुरुष नहीं देखा।
एक धक्का लगा छाती में महात्मा के। बात तो ठीक थी। भक्त होकर और कृष्ण के अतिरिक्त फिर कौन पुरुष है! फिर तो सभी स्त्रियां हैं; किसको रोकते हो तुम? मीरा ने कहा, किसी को रोकने का हक किसी को नहीं है। पुरुष तो एक परमात्मा है, बाकी तो सब उसकी सखियां हैं। तुम भी सखी हो। छोड़ो यह भ्रम पुरुष होने का।
मीरा ने ठीक ही कहा, उचित ही कहा। भक्त के लिए भगवान ही एकमात्र बचता है।
एकांत भक्त्ति ही श्रेष्ठ है। लेकिन तुम्हारा मन एक भीड़ है।
मैं अनेक घरों में मेहमान होता था, जब यात्रा करता रहा। कभी-कभी ऐसे घरों में पहुंच जाता जहां उनका पूजा-गृह भी घर में बनाया होता। सब तरह के देवी-देवता बैठे हैं। पचास-साठ-सत्तर छोटे-छोटे, शंकर जी...जहां से जो मिल गए वहीं से ले आए। हनुमान जी भी जमे हैं। रामचंद्र जी भी बैठे हैं। और यह तो छोड़ो जितने कैलेंडर छपते हैं, सब, सब लगे हैं। बाजारा है। उपासनागृह है? और भक्त को इतनी फुर्सत कहां, तो घंटी लेकर सबके सिर पर ऐसा बजाता हुआ चला जाता है! इकट्ठा होलसेल! सभी को हाथ जोड़कर नमस्कार कर दिया...!
मैं उनसे पूछता कि "यह मामला क्या है, इतना बाजार क्यों भरा हुआ है?'
"भाव यह रहता है, कहीं कोई नाराज न हो जाए'
कल-परसों एक मित्र अपने मित्र की खबर लाए कि उनको संन्यास लेना है, लेकिन वे हनुमान जी के भक्त हैं। तो वे आने में डरते हैं कि कहीं हनुमान जी नाराज न हो जाएं! हनुमान जी से मेरा कौन-सा झगड़ा है? वे नाराज किसलिए हो जाएंगे?
तुम्हारा भगवान भी तुम्हारा भय है। भय से कहीं पूजा हुई, भय से कहीं प्रेम हुआ? भय कहीं परमात्मा तक ले जाएगा? जिससे भय हो जाता है, उसमें तो घृणा हो जाती है। जिससे भय हो जाता है वह तो दुश्मन हो जाता है। भय के कारण तुम सिर झुकाकर, हाथ-पैर जोड़कर, राजी कर लेते हो कि देखो, परेशान न करना। रोज-रोज भक्ति करते हैं, ध्यान रखना! लेकिन यह पूजा तो न हुई, यह कोई भक्ति तो न हुई।
फिर मैं निरंतर सोचता हूं कि अगर तुम्हारी भक्ति ठीक चल रही है, तो मेरे पास भी आने की क्या जरूरत है! ठीक नहीं चल रही है, इसलिए यहां आना चाहते हो। अगर हनुमान से ही प्रेम लग गया तो उसी बहाने पहुंच जाओगे, यहां आने की जरूरत क्या है? मगर यहां आने का खयाल बताता है कि डर के मारे पूजा तो किए जा रहो हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है। तो और कहीं भी टटोलते होंगे, लेकिन यह नाव भी न छूटे, दूसरी नाव पर भी पैर रख लें। तो सब तरफ के देवी-देवता लोग-इकट्ठे कर लेते हैं।
भक्त तो एकांत होता है। एक काफी है; नाम उसका कुछ भी रख लो--अल्लाह कहो, राम कहो, रहीम कहो, जो तुम्हें कहना हो, तुम्हारी मर्जी। नाम तुम चुन लो। उसका कोई नाम तो है नहीं; पुकारने के काम आ जाता है--चुन लो। बहाना है नाम तो।
घर में तुम्हारे बेटा पैदा होता है, बिना नाम के पैदा होता है; नाम रख लेते हो, बुलाने में सुविधा हो जाती है। भगवान का कोई भी नाम रख लो। जो रंग-रूप बनाना हो, वह रंग-रूप बना लो। ये तो सब बहाने हैं, ये तो सब खूंटियां हैं। लेकिन असली चीज पास है जिसको खूंटी पर टांगना है? प्रार्थना, प्रेम, पूजा तुम्हारे पास है? और जिसके पास प्रेम है, पूजा है, वह कहीं भी टांग देगा। खूंटी न मिलेगी तो बिना खूंटी के टांग देगा। द्वार-दरवाजे पर टांग देगा।
ध्यान रखना, एक के प्रति ही अनन्य भाव से डूब जाना है। वहीं से पहुंच जाओगे।
मेरे पास मुसलमान आते हैं, हिंदू आते हैं, ईसाई आते। मैं उनसे कहता हूं, तुम ईसाई हो तो ईसाई बने रहो, मुसलमान हो तो मुसलमान बने रहो। कुछ इससे बाधा नहीं आती। मस्जिद में करनी है पूजा, मस्जिद में; मंदिर में करनी है , मंदिर में--कोई अड़चन नहीं, सभी घर उसके हैं। पर कहीं भी करो तो! ऐसे घाट ही मत बदलते रहना। प्यास लगी हो तो पानी भी तो पीयो। यह घाट बदलने से क्या होगा? वहां प्यास थे, यहां प्यासे रह जाओगे। क्योंकि पीने की तमीज ही नहीं है।
असली बात तो झुकने की है, अंजुलि भरने की है। नदी तो बही जा रही है, तुम तट पर ही अकड़े खड़े रहो, उतरो न, झुको न, चुल्लू में पानी न भरो, तो नदी कोई छलांग लगाकर तुम्हारे कंठ में नहीं उतर जाएगी।
"एकांत भक्ति ही, श्रेष्ठ है'
एक बचे तुम्हारे मन में, तुम्हारे प्राण में, तुम्हारे तन में, तो उस एक के आधार पर तुम्हारे भीतर के खंड जुड़ने लगेंगे, अखंड हो जाएंगे। ऐसे तुमने सौ-पचास देवी-देवता पूजे तो वे इतना ही बता रहे हैं कि तुम भीड़ हो एक। सच तो यह है कि पूजा का गृह सूना होना चाहिए; एक भी न हो, खाली हो। उस खालीपन में पुकारो एक को। उस शून्य से उठने दो तुम्हारे हृदय की आह, तुम्हारा रुदन तुम्हारे आंसू; पत्थरों की मूर्तियों से थोड़े ही कुछ होता है। होता तो तुम्हारे हृदय की भाव-दशा से है। इतना ही हो कि तुम्हारे भीतर उसे पाने की प्रगाढ़ अभीप्सा हो।
आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं खूने जिगर होने तक
 हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन
खाक हो जाएंगे हम, तुमको खबर होने तक।
भक्त तो यह कहता है कि प्रेम धीरज मांगता है। माना, प्रेम धीरज मांगता है पर मेरी अभीप्सा बेचैन है। प्रेम कहता है, ठहरो, होगा--लेकिन मेरी अभीप्सा, मेरी प्यास कहती है, "बहुत देर वैसे ही हो गई। अब और देर न कराओ। अब मिलन काके और न ठहराओ, अब और स्थगित न करो'!
आशिकी सब्र तलब--प्रेम तो धीरज है; तपन्ना बेताब--लेकिन पाने की आकांक्षा प्रज्ज्वलित होकर जल रही है। दिल का क्या रंग करूं खूने जिगर होने तक--मुझे मालूम है कि तुम मिलोगे तो मुझे मिटा दोगे, लेकिन तब तक क्या करूं? दिल का क्या रंग करूं--क्या उपाय करूं इस दिल के लिए? खूने जिगर होने तक--तुम मिलोगे तो एक ही आंख, एक ही तुम्हारी दृष्टि--और मैं राख हो जाऊंगा, लेकिन तब तक क्या करूं, यह तो बताओ। हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन--यह भी हमें पता है कि तुम धोखा न दोगे। यह भी पता है कि भरोसा तुम पर रखा जा सकता है। यह भी पता है कि तुम देर भी न करोगे। खाक हो जाएंगे हम, तुमको खबर होने तक! लेकिन तुम्हें खबर होगी, तभी न! तुम्हें पता चलेगा, तभी न! धोखा भी न करोगे, देर भी न करोगे--सब माना; लेकिन हमारी आवाज तुम तक पहुंचेगी, तब तक तो हम खाक ही हो जाएंगे, तबाह हो जाएंगे।
तो भक्त रोता है, गिड़गिड़ाता है, पुकारता है, दीवाने की तरह, गीत गाता है, सब्र बांधता है, धीरज रखता है, और अभीप्सा को भी जलाता है। एक बड़ी बेबूझ दशा है भक्त की।
"ऐसे अनन्य भक्त कण्ठावरोध, रोमांच और अश्रुयुक्त नेत्रवाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हुए अपने कुलों को और पृथ्वी को पवित्र करते हैं'
ऐसे अनन्य भक्त, उसकी याद में आंदोलित, उसकी प्यास में दीवाने, उसका पुकार रहे हृदय के कोने-कोने से, रोआं-रोआं उसी को आवाज दे रहा--ऐसे भक्त, कण्ठावरोध, उनका गला रुंध जाता है, कहते नहीं बनता, आंसू भर आते हैं।
भक्ति कोई शास्त्र थोड़े ही है कि बैठे और पढ़ लिया। भक्ति तो अस्तित्वगत है, जीवन-रूपांतरण है।
"ऐसे अनन्य भक्त कण्ठावरोध'...बोलना चाहते हैं, बोल नहीं पाते, कंठ रुंध जाता है। "रोमांच'...रोएं खड़े हो जाते। "अश्रुयुक्त'...आंखें आंसुओं से भरी होती है। "परस्पर सम्भाषण करते हैं', एक-दूसरे को धीरज बंधाते हैं, एक-दूसरे को अपना अनुभव बताते हैं।
माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं
तू मिरा शौक देख...म
लेकिन मेरी प्यास तो देख, तू मेरी अभीप्सा तो देख, तू मेरी बेचैनी तो देख।
तू मिरा शौक देख, तू मेरी अभीप्सा तो देख, तू मेरी बेचैनी तो देख।
तू मिरा शौक देख, मिरी इन्तज़ार देख!
मेरी प्रतीक्षा देख! मेरी पात्रता मत देख! पात्रता मेरे पास क्या है!
भक्त तो कहता है, "मैं कुछ भी नहीं हूं, दावा नहीं कर सकता हूं। यह नहीं कह सकता कि तुझे मिलना ही पड़ेगा। मेरी कमाई क्या है! इतना ही कह सकता हूं कि जरा मेरी आंखों में भरे आंसू देख! मेरे हृदय में उठता रुदन देख! मेरा रोआं-रोआं कंपता है तेरे लिए! तेरी प्रतीक्षा में आतुर हूं। आंख के किवाड़ खोले बैठा हूं!'
तू मिरा शौक देख, मिरी इंतज़ार देख!
भक्त दावा तो नहीं कर सकता; योगी कर सकता है--इतने आसान करता है, इतने प्राणायाम करता है। इतनी सदियों से तपश्चर्या, व्रत-उपवास करता और अभी तक तू नहीं मिला?
तुमने कभी खयाल किया, जरा-सा तुम कुछ करते हो तो फौरन तुम्हें पात्रता का बोध उठता है कि अरे, तीन दिन से ध्यान कर रहे हैं, अभी तक कुछ हुआ नहीं! तुम कैसी मूढ़तापूर्ण बातें कर लेते हो!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि सात दिन हो गए, अभी तक कुछ हुआ नहीं। तुमने मजाक समझी है? अभी आंसुओं से तुम्हारी आंखें भी गीली न हुईं? अभी कंठावरोध भी कहां हुआ? अभी तुमने पुकारा ही कहां?
"भक्त कंठावरोध, रोमांच, अश्रुयुक्त नेत्रवाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हुए पृथ्वी को पवित्र करते हैं'
रोमांच...। परमात्मा की याद ही पुलक से भर देती है! कभी प्रेमी की याद की? कभी द्वार-दरवाजे पर बैठकर प्रेमी भी प्रतीक्षा की? राह से पुलिसवाला निकल जाता है, दौड़कर आ जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया! डाकिया दस्तक देता है, भागे चले जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया! पत्ते खड़खड़ात हैं हवा में सूखे, द्वार खोल लेते हो कि शायद प्रेमी आ गया!
जिसका तुम्हें इंतजार है, तुम्हें उसी-उसी की खबरें चारों तरफ आभास होती हैं। मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बैठा था, उसके घर। एक ऊंट निकला। मैं थोड़ा चकित हुआ। नसरुद्दीन की आंखें बड़े भाव से भर गईं और जैसे उसे किसी बड़ी मधुर वस्तु की याद आ गई; जैसे लार मुंह में आ गई और उसने गटक ली। मैंने पूछा, "मामला क्या है? ऊंट को देखकर तुम्हें किस बात की याद आई?' उसने कहा, "ऊंट को देखकर मुझे खीर, पूरी, हलवा, इस-इस तरह की चीजें याद आईं'। मैंने कहा, "मैंने कभी सुना नहीं कि ऊंट का कोई भोजन से संबंध है!' उसने कहा, "इससे क्या फर्क पड़ता है, मुझे तो रेलगाड़ी देखकर भी हलवा, पूरी, खीर की खबर आती है'। मैंने कहा, तेरा दिमाग खराब है'। उसने कहा, "दिमाग खराब नहीं है, रोजे के दिन हैं, उपवास कर रखा है! हर चीज को देख कर बस...। ऊंट और रेलगाड़ी और हवाई जहाज, इससे कोई संबंध नहीं है'
तुमने कभी उपवास किया? सब तरफ भोजन दिखाई पड़ता है!
संसार परमात्मा से उपवास है। अगर तुम सच में भूखे हो तो तुम्हें हर जगह वही दिखाई पड़ेगा।
साथ हर सांस के मिरे दिल से
 आ रही, अभी खबर तेरी।
कंठावरोध होगा; जैसे गले से कुछ निकलना चाहता है, निकल नहीं पाता। क्योंकि परमात्मा के लिए कहां से शब्द लाओ! कैसे कहो, उसकी याद भी कैसे कहो! जिक्रे-यार भी कैसे करो! उस प्यारे का वर्णन कैस करो! कंठ रुक-रुक जाता है। हृदय में कुछ होता है, लहर उठती है, कंठ तक आती है, लेकिन प्रगट नहीं हो पाती। भक्त थरथराता है।
थरथराता है अब तलक खुर्शीद
सामने तेरे आ गया होगा।
भक्त कहता है, सूरज को तो देख, अभी भी थरथराता है--जरूर तेरे सामने आ गया होगा।
थरथराता है अब तलक खुर्शीद
सामने तेरे आ गया होगा।
भक्त जैसे-जैसे परमात्मा के करीब आने लगता है, वैसे ही उसके पैर डगमगाने लगते हैं, उसकी हालत शराबी की हो जाती है।
परमात्मा अनूठी शराब है। जिसने वह शराब पी ली, फिर किसी शराब की कोई जरूरत न रही। और शराब कुछ ऐसी है कि उससे होश बढ़ता है, घटता नहीं--लेकिन जीवन तरंगायित हो जाता है। जैसे दुलहन सजकर चली, अपने प्रेमी को मिलने! भक्त तो सदा ही सुहागरात में जीता है। प्रतिपल उसके प्रेमी से मिलन होने की संभावना है। किस क्षण वीणा बज उठेगी, किस क्षण पुकार आ जाएगी, किस क्षण वह स्वीकार हो जाएगा--हर क्षण प्रतीक्षा का है!
"भक्त एक-दूसरे से संभाषण करते हैं'
फर्क समझ लेना। दार्शनिक, पंडित एक-दूसरे से विवाद करते हैं, संवाद नहीं। उन्हें सिद्ध करना है कुछ। अपनी सिद्ध करनी है तो दूसरे की असिद्ध करनी ही पड़ती है बात। भक्त को विवाद नहीं है। दो भक्त मिल जाते हैं, बैठ जाते हैं पास, आंसुओं से बोलते हैं, रोएं-रोएं से बोलते हैं। उनका एक संभाषण है।
संभाषण का अर्थ होता है: एक-दूसरा एक-दूसरे को सहारा दे रहा है। रास्ता अंधेरा है और लंबा है। यह अंधेरी रात उसकी याद और उसकी चर्चा में कट जाए तो भली। सुबह तो आएगी, लेकिन सुबह बड़ी दूर है। जैसे-जैसे सुबह करीब आती है, अंधेरा और बढ़ता जाता है। तो भक्त एक-दूसरे को सांत्वना, भक्त एक-दूसरे को सहारा देते हैं। भक्त एक-दूसरे को, उनके भीतर क्या घटा है, क्या घट रहा है, उसका निवेदन करते हैं। विवाद का सवाल नहीं है। विवाद होता है दो सिरों के बीच में; संभाषण होता है दो हृदयों के बीच में।
ध्यान रखना, अगर तुम्हें परमात्मा को खोजना है तो ऐसे लोगों का संग खोजना जहां संभाषण हो सके; जिनके पासबैठकर सत्संग हो सके; जिनके पास बैठकर उस प्रेमी की याद सघन हो; जिनके आंसू तुम्हारे भीतर के आंसुओं को भी पुकार दे दें; जिनके भीतर बिजती हुई वीणा तुम्हारी वीणा के तारों को भी छेड़ दे। वस्तुतः मंदरों का यही उपयोग था कि वहां वे लोग मिल जाएं तो अलग-अलग खोज में लगे हैं, और एक-दूसरे को सहारा दे दें, और ऐसा न रहे कि हम अकेले ही हैं, कोई और भी खोजने चला है; अर भी लोग मार्ग पर हैं; हम अकेले नहीं हैं, संगी-साथी हैं। और जो हम हो रहा है, वैसा दूसरों को भी हो रहा है। ताकि भय न पकड़े। नहीं तो बहुत बार ऐसा लगेगा, "क्या हम पागल होने लगे! ऐसा तो पहले कभी न होता था कि आंखें बात-बात में भर जाती हैं! ऐसा तो पहले कभी न होता था कि बात-बात में कंठ अवरूद्ध हो जाता हो!'
रामकृष्ण निकलते थे तो उनके शिष्यों को उन्हें बचाकर ले जाना पड़ता था कि रास्ते में कोई "जयराम जी' न कर ले! इतना ही काफी था उनके लिए। किसी ने कह दिया "जयराम जी', वे वहीं, खड़े हो गए आंख बंद करके। गिर जाएं सड़क पर, आंसू बहने लगें। कहीं उन्हें ले जाते थे तो पहले से लोगों का चेता देते थे कि भगवान की चर्चा मत छेड़ देना।
कहीं शादी-विवाह में बुला लिया एक बार उनको। किसी भक्त के घर शादी थी, वे चले गए। वह सब गड़बड़ हो गई शादी। क्योंकि किसी ने परमात्मा की बात छेड़ दी, रामकृष्ण नाचने लगे, वे बेहोश हो गए, तो दूल्हा-दुल्हन को तो लो भूल गए। रामकृष्ण बेहोश पड़े हैं। छह दिन तक बेहोश रहे। शादी-विवाह का तो सारा मामला ही खराब हो गया।
क्या हो जाता था? रामकृष्ण से लोग कहते थे, "आपको हो क्या जाता है?' वे कहते, "जैसे ही कोई उसकी याद दिला देता है, एक तूफान आ जाता है। फिर मैं अपने बस में नहीं रहता। फिर नियंत्रण नहीं कर पाता'
सत्संग का यही उपयोग है कि वहां एक ही दिशा में चलनेवाले लोग बैठ जाएं, थोड़ी बात कर लें; एक-दूसरे का मन हलका कर लें; एक-दूसरे से कह दें वह जो सकहा नहीं जा सकता है। यह संभाषण में हो ही संभव है; विवाद हो, तब तो तुमसे और मुश्किल हो जाएगी; तुम कह नहीं पाए कि दूसरा झंझट करने को, विवाद करने को खड़ा हो गया।
विवादी से थोड़े बचना प्रारम्भ में। जैसे कि हमारे बगीचे में छोटा-सा पौधा लगता है; तो हम उसके चारें तरफ बागुड़ लगा देते हैं कांटों की; बड़ा हो जाएगा, फिर कोई जरूरत न रहेगी। लेकिन अभी अगर उसको छोड़ देंगे बिना बागुड़ के, जानवन खा जाएंगे, बच्चे तोड़ डालेंगे, कुछ-न-कुछ दुर्घटना घट जाएगी। जब तुम्हारे भीतर भक्ति का अंकुर नया-नया है, तब तुम्हें सत्संग चाहिए; फिर तो तुम्हीं बड़े वृक्ष हो जाओगे; फिर तो तु अपने ही बल से खड़े हो जाओगे; फिर कोई जरूरत न रहेगी।
..."संभाषण करते हुए अपने कुलों और पृथ्वी को पवित्र करते हैं'
परमात्मा की याद भी पवित्रता लानेवाली है। परमात्मा मिल जाए, तब तो कहना क्या! लेकिन उसका जिक्र, उसकी याद भी पवित्र कर जाती है। थोड़ी देर को ही सही, तुम्हारी आंखें आकाश की तरफ उठती हैं। थोड़ी देर को ही सही, पदार्थ को तुम भूलते हो। थोड़ी देर को ही सही, तुम्हारे जीवन का वातायन खुलता है--उस दिशा में, जिस दिशा में तुम कभी भी नहीं गए; अज्ञात, अनजान तुम्हारे भीतर थोड़ा-सा प्रवेश पाता है; तुम नये हो जाते हो!
"ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म और शास्त्रों को सत्शास्त्र कर देते हैं'
यह बड़ा अनूठा सूत्र है।
तीर्थों के कारण कोई भक्ति को उपलब्ध नहीं होता--लेकिन भक्त जहां हो जाएं वहीं तीर्थ बन जाते हैं। कोई कर्म सुकर्म नहीं है, जब तक कि तुम्हारे जीवन में परमात्मा का हाथ प्रविष्ट न हो जाए। तुम्हारे किए तो सभी कर्म दुष्कर्म होंगे। परमात्मा तुम्हारे भीतर से कुछ करे तो सुकर्म होगा।
कर्मों को सुकर्म कर देता है भक्त, और शास्त्र सत्शास्त्र  हो जाते हैं।
शास्त्रों को पढ़कर कोई भक्त्ति को उपलब्ध नहीं होता--लेकिन भक्त्ति को उपलब्ध हो जाए तो सारे शास्त्रों का प्रमाण हो जाता है स्वयं, सारे शास्त्रों के लिए गवाही हो जाता है, साक्षी हो जाता है। तब वह कह सकता है, "मेरी तरफ देखो! शास्त्र पर भरोसा न आए, छोड़ो; यहां जीवित शास्त्र हूं मैं, मेरी तरफ देखो! मेरी आंखों में आंखें डालकर देखो! मेरे पास आओ! मेरी तरंगों को अनुभव करो!'
सारे शास्त्र सफल हो जाते हैं। यह बड़े मजे की बात है--क्योंकि नारद ने पहले कहा कि भक्त्त को शास्त्र की कोई जरूरत नहीं। वेद का भी त्याग कर देता है भक्त। लेकिन एक ऐसी घड़ी आती है, जब भक्त उपलब्ध होता है तो सारे वेद उसकी मौजूदगी के कारण सत्य हा जाते हैं। वह फिर-फिर प्रमाण ले आता है कि परमात्मा है। वह फिर-फिर ऋचाओं को पुनरुज्जीवित कर देता है।
इश्क ने हमको जियारत गाहे-आलम कर दिया
 गर्दे-गम से हो गया तामीर काबा एक और।
प्रेम ने हमें संसार के लिए एक तीर्थस्थान बना दिया। प्रेम ने हमें संसार के लिए एक तीर्थस्थान बना दिया कि लोग तीर्थयात्रा कर जाएं।
गर्दे-गम से हो गया तामीर काबा एक और।
और परमात्मा के विरह में जो पीड़ा झेली गई, उससे ही एक और नया काबा निर्मित हो गया।
जहां भक्त हैं वहीं काबा है। जहां भक्त हैं वहीं काशी है। जहां भक्त हैं वही गिरनार। जहां भक्त हैं वहां सभी कुछ है, क्योंकि वहां परमात्मा फिर पृथ्वी पर अवतरित हुआ है। भक्त ने जगह खाली कर दी है; भक्त के सिंहासन पर परमात्मा फिर विराजमान हुआ है। इसे भक्त कहे या न कहे; यह प्रगट होने लगता है।
किस तरह तेरी मुहब्बत को छुपाए रखिए
खामुशी भी लबे इज़हार हुई जाती है।
छिपाना असंभव है। भक्त चुपा भी हो तो चुप्पी में भी उसी का संदेश प्रगट होने लगता है। 
 किस तरह तेरी मुहब्बत को छुपाए रखिए
खामुशी भी लबे इज़हार हुई जाती है।
चुप रहते हैं तो भी वक्तव्य हो जाता है। चलते हैं तो वक्तव्य हो जाता है। आंख हिलती है तो वक्तव्य हो जाता है। बोलें तो बोलें, न बोलें तो भी शास्त्र के लिए प्रमाण मिल जाता है।
हज़ारों बार कोशिश कर चुका हूं
नहीं छुपतीं मुहब्बत की निगाहें।
असंभव है! जब तुम्हारे घर में दीया जलेगा, कैसे छिपाओगे? अंधेरी रात में गुजरनेवाले लोगों को भी दूर-दूर से भी रात के अंधेरे में तुम्हारे घर की रोशनी द्वार-दरवाजों के रन्ध्रों से प्रगट होने लगेगी। घर में दीया जला है तो दूर-दूर से यात्री आने लगेंगे।
यह जो भक्त की परम दशा है, यह करीब-करीब पागल जैसी है। करीब-करीब कहता हूं, क्योंकि पागल जैसी भी है और पागल जैसी नहीं भी है।
कबूं रोना, कबूं हंसना, कबूं हैरान हो रहना
मोहब्बत क्या भले-चंगे को दीवाना बनाती है!
भक्त जरा बेबूझा हो जाता है; हंसने लगता है, कभी रोने लगता है, कभी चुप रह जाता है, कभी हैरानी से ठिठककर आकाश को देखता है। भक्त तुम्हारे बीच होता है लेकिन बहुत दूर होता है--किसी और लोक में होता है! उसने कुछ देखा है जो उसे दिवाना बना गया।
"ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म, शास्त्रों को सत्शास्त्र कर देते हैं, क्योंकि वे तन्मय हैं।
तन्मयाः!'
क्योंकि वे परमात्मा में लीन हैं; क्योंकि वे परमात्मा में डूबे हैं; क्योंकि उन्होंने परमात्मा को अवसर दिया। वे परमात्मा के वाहन बन गए हैं। उन्होंने अपने को तो पोंछ डाला! उन्होंने परमात्मा के लिए पूरी जगह खाली कर दी! वे हए अपने और परमात्मा के बीच से! उन्होंने शून्य का पात्र रख दिया उसके सामने, परमात्मा उसमें बरस गया है।
"तन्मयां'!
भक्ति का सूत्र है: तन्मय हो जाना। तो तुम करो उसमें तन्मय हो जाओ, वहीं भक्ति पैदा हो जाती है। खाना बना रहे हो, मकान झाड़ रहे हो, लकड़ी काट रहे हो, कुछ भी कर रहे हो--तन्मय हो जाओ। लकड़ी काटते समय बस लकड़ी काटने की क्रिया रह जाए, तुम न रहो। झाड़ते समय झाड़ना रह जाए, तुम न रहो। और सतत एक भाव-दशा बनी रहे--उसी के लिए! उसी के लिए लकड़ी काटते हैं। उसीक लिए आंगन बुहारते हैं! उसी के लिए भोजन बनाते हैं!
जैसे-जैसे तुम्हारा कर्म तुम्हें डुबाने लगे, तुम तल्लीन होने लगो, वैसे-वैसे "पितृगण प्रमुदित होते हैं, देवता नाचते हैं, यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है'
"मोदन्ते पितरो'! जो जा चुके तुम्हारे पितर, वे भी प्रमुदित होते हैं। धन्य, तुम उनके घर में पैदा हुए! धन्य, तुमने उनका होना भी सार्थक किया!
"नृत्यन्ति देवताः'! स्वर्ग के देवता भी नाचते हैं: फिर घटी घटना! फिर कोई भक्त हुआ! फिर कोई भगवान हुआ! फिर घटी घटना! फिर कोई मिटा और किसी ने परमात्मा को अपने सिंहासन पर विराजमान किया! फिर एक मंदिर बना, एक तीर्थ बना, एक काबा निर्मित हुआ! स्वभावतः देवता न नाचेंगे तो कौन नाचेगा!
महावीर के संबंध में कहा जाता है, जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए, तीनों लोकों का संगीत बरसा। असमय फूल खिल गए! आकाश से देवता फूल बरसान लगे!
ये सब प्रतीक-कथाएं हैं। ये इतना ही कह रहे हैं कि जब भी कोई ऐसी परम दशा को उपलब्ध होता है तो सारा अस्तित्व उस व्यक्त्ति के माध्यम से एक आकाश की ऊंचाई को छूता है।
तुम भी उसी परम की योजनाएं हो! तुम्हारे भीतर से भी उसने एक हाथ फैलाया है! तुम्हारे भीतर से परमात्मा सतत सक्रिय है कि कोई श्रेष्ठतर, और श्रेष्ठतर दशा उत्पन्न हो! तुम चैतन्य के शिखर बन जाओ! तुम्हारी सफलता में परमात्मा की भी सफलता है। तुम्हारी विफलता में उसकी भी हार है। क्योंकि तुम उसके सृजन हो, उसके कृत्य हो!
"नृत्यंति देवताः'
"और यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है'
"उनमें (भक्तों में) जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादि का भेद नहीं है।
भक्त तो सिर्फ भक्त है--न हिंदू, न मुसलमान। भक्त तो सिर्फ भक्त है--न शूद्र, न ब्राह्मण। भक्त होना काफी है, फिर सब विशेषण व्यर्थ हुए।
आशिक तो किसी का नाम नहीं
कुई इश्क किसी की जात नहीं
कब याद में तेरा साथ नहीं
सब हाथ में तेरा हाथ नहीं!
क्या जाता है प्रेम की?
आशिक तो किसी का नाम
कुछ इश्क किसी की जात नहीं!
वहां न कोई वर्ण है, न वर्ण-भेद है।
जब तक तुम्हारे आसपास ऐसी क्षुद्र दीवारें बनी हैं तब तक तुम परमात्मा के लिए द्वार न खोल पाओगे। अगर तुम मुसलमान हो तो मुसलमान रहते ही तुम परमात्मा को न पा सकोगे। अगर तुम हिंदू हो तो हिंदू रहते ही तुम परमात्मा को न पा सकोगे। क्योंकि इतने छोटे घेरे तुमने बनाए हैं।
उठाइए भी दैरो हरम की ये सबीलें
बढ़ते नहीं आगे जो गुज़रते हैं इधर से!
यहीं अटक जाते हैं। कोई मंदिर में अटका है, कोई मिस्जद में अटका है। परमात्मा तक पहुलचने के साधन ही बाधक बन गए मालूम होते हैं। मंदिर से आगे जाना है। मस्जिद से बहुत आगे जाना है। ये कोई मंजिलें नहीं--रास्ते के पड़ाव हैं, बस काफी हैं; थोड़ी देर को विश्राम करने को रुक गए, ठीक है--लेकिन भूल मत जाना, इनमें खो मत जाना!
न जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, किसी क्रियादि को कोई भेद नहीं है, "क्योंकि वे उनके ही हैं, भगवान के ही हैं'
"यतस्तदीयाः'
भक्त तो भगवान का है, फिर हिंदू कैसे हो सकता है, फिर मुसलमान कैसे हो सकता है, फिर ब्राह्मण कैसे हो सकता है, शूद्र कैसे हो सकता है?
"यतस्तदीयाः'
"क्योंकि वे उनके ही हैं, भगवान के ही हैं'। भगवान के हो गए, फिर ये छोटे-छोटे खिलौने हैं, फिर ये छोटे-छोटे मंदिर-मस्जिद के झगड़े हैं, फिर ये छोटे-छोटे रंग और हड्डी और चमड़ी के फासले हैं।
जनक ने एक महासभा बुलाई। सभी पंडितों को आमंत्रित किया; सिर्फ एक आदमी को आमंत्रित नहीं किया--वह आदमी था: अष्टावक्र! वह अनूठा ज्ञानी था। लेकिन उसका शरीी आठ जगह से इरछा-तिरछा था--अष्टावक्र।  इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ गया था--आठ जगह से तिरछा।
सभा में यह आदमी शोभा न देगा; सम्राट की सभा में ऐसा कूबड़ निकला हुआ, सब तरफ से झुका, इरछा-तिरछा, एक हंसी-मजाक का कारण बनेगा--उसे नहीं बुलाया था। लेकिन अष्टावक्र के पिता को बुलाया था। कोई काम पड़ गया घर, तो अष्टावक्र बुलाने पिता को सभा में आ गया। जैसे ही वह अंदर आया, ब्रह्मज्ञानियों की सभा थी, वे सभी हंसने लगे उसकी चाल देखकर, उसकी कुरूपता देखकर! जनक भी थोड़े बेचैन हुए। लेकिन और भी हैरानी हो गई, अष्टावक्र ने चारों तरफ देखा और वह इतने जोर से खिलखिलाकर हंसा कि सारे पंडित एक क्षण को तो अवाक रहकर ठिठक गए, यह उनकी समझ में ही न आया कि यह आदमी किसलिए हंसा!
जनक ने पूछा, "ये किसलिए हंसते हैं, वह तो मैं समझा; लेकिन तुम किसलिए हंसे?'
तो अष्टावक्रने कहा, "मैं इसलिए हंसा कि तुमने तो ब्राह्मणों को बुलाया था, ये तो सब चमार हैं। ये चमड़ी के जानकार हैं! मुझको नहीं देखते, चमड़े का देखते हैं। मैं तुमसे कहता हूं, मुझसे ज्यादा सीधा इनमें से कोई भी नहीं है, बिलकुल सीधा हूं! शरीर तिरछा है, माना। इसलिए हंसता हूं कि इन चमारों को बुलाकर तुम ब्रह्मज्ञान की चर्चा करवा रहे हो। निकाल बाहर करो इनको!'
ठीक कहा अष्टावक्र ने। चमड़े से जो भेद करे, वह चमार।
भक्त तो भगवान के हैं। अब इससे और ऊपर होना क्या रहा! अब क्या और विशेषण रहा! सब विशेषण गिर गए।
तुमसे भी मैं यही कहता हूं: भगवान के हो रहो! मंदिर-मस्जिदों को छोड़ो, भूलो! फासले छोड़ो, मिटाओ! फासले तो तुम्हें आदमियों से भी न मिलने देंगे, परमात्मा से मिलने की तो बात दूर। कम-से-कम इतना तो करो कि आदमियों से ही मिलने की क्षमता बना लो, तो उससे संभावना पैदा होगी कि कभी तुम परमात्मा से भी मिल सकते हो।
परमात्मा को पाना हो तो अभेद की दृष्टि चाहिए, अभेद का दर्शन चाहिए।
"यतस्तदीयाः! वे भगवान के हैं!'

आज इतना ही। 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें