मैं अपने प्राइमरी स्कूल के हाथी-द्वार के सामने खड़ा था.....ओर उस फाटक ने मेरे जीवन में बहुत सह बातों को आरंभ किया। मैं वहां अकेला नहीं खड़ा था। मेरे पिता भी मेरे साथ खड़े थे। वह मुझे स्कूल में भरती कराने आए थे। उस बड़े फाटक को देखते ही मैंने उनसे कहा: ‘नहीं।’
अभी भी मुझे वह शब्द सुनाई देता है। एक छोटा बच्चा जो सब कुछ खो चुका है, मैं अभी भी उस छोटे बच्चे के चेहरे पर अंकित प्रश्न-चिह्न को देख सकता हूं—वह सोच रहा हे कि अब क्या होने बाला है।
मैं खड़े-खड़े फाटक की और देखता रहा और मेरे पिता ने पूछा: ‘क्या तुम इस बड़े फाटक से इतने प्रभावित हो गए? ’
प्राइमरी स्कूल में भरता होने से पहले मेरा प्रथम शबद यही था ‘नहीं’ और तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि विश्वविद्यालय से विदा लेने के बाद मेरा अंतिम शब्द भी यहीं था—‘नहीं’। पहली घटना के समय मेरे अपने पिता मेरे साथ खड़े थे। उस समय वे बहुत अधिक उम्र के नहीं थे। लेकिन मेरे जैसे छोटे बच्चे को वे बहुत बड़े लग रहे थे। दुसरी घटना के समय उससे भी बड़े फाटक पर मैं ऐ वयोवृद्ध सज्जन के साथ खड़ा था।
विश्वविद्यालय का वह पुराना फाटक सदा के लिए गिरा दिया गया है। लेकिन वह मेरी स्मृति में है। अभी भी मैं उसे देख सकता हूं—पुराना दरवाजा, नया नहीं। नये वाले के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है। नये फाटक को देख कर तो मुझे रोना आ गया, क्योंकि पुराना फाटक सचमुच भव्य और शानदार था। सीध-सादा सा, लेकिन भव्य। नया फाटक तो बहुत भद्दा और बदसूरत है। शायद वह आधुनिक है। लेकिन समस्त आधुनिक कला भद्दी और कुरूप है। पुराने जमाने में कुरूपता को स्वीकार नहीं किया गया था। शायद कुरूपता को अपनाना क्रांतिकारी माना गया है। लेकिन यदि क्रांति कुरूप हो तो यह क्रांति नहीं, प्रतिक्रिया है। नये फाटक को मैंने केवल एक बार देखा था और बाद मैं उस सड़क से बहुत बार गुजरा लेकिन हमेशा अपनी आंखें बंद कर लीं। बंद आँखो से मैं पुराने फाटक को फिर से देख सकता था।
विश्वविद्यालय का पुराना फाटक बहुत ही साधारण सा था। वह उस समय बना था जब विश्वविद्यालय अभी शुरू ही हो रहा था और वे कोई शानदार इमारत नहीं बना सकें थे। सब लोग मिलिट्री बैरकों में रहते थे, क्योंकि विश्वविद्यालय बहुत जल्दी में शुरू किया गया था। और होस्टल यह पुस्तकालय बनाने का भी समय नहीं था। वह मिलिट्री की खाली कह गई जगह थी। लेकिन वह जगह अपने आप में बहुत सुंदर थी। वह एक छोटी पहाड़ी पर थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय वहां पर सेना ने, शत्रु पर निगरानी रखने के लिए राडार लगा रखा था। छोटी पहाड़ी पर बना यह स्थान बहुत सुंदर था। मुझे तो यह बहुत पसंद था। सेना ने इसे छोड़ दिया, क्योंकि अब वहां पर उनका कोई काम नहीं था। उनका उस स्थान को छोड़ना मेरे लिए वरदान बन गया, क्योंकि मैं इसके सिवाय किसी और विश्वविद्यालय में शायद ही पढ सकता।
इसका नाम था, सागर विश्वविद्यालय। सागर का अर्थ: समुद्र। सागर में अति सुंदर झील है और वह इतनी बड़ी है कि उसे झील न कह सागर कहा जाता है। सचमुच यह सागर जैसी ही दिखाई देती है। इसमें इतनी बड़ी लहरें उठती है कि विश्वास ही नहीं होता कि यह झील है। इतनी बड़ी लहरों वाली मैंने केवल दो झीलें देखी है, ऐसा नहीं है कि मैंने केवल दो ही झील ही देखी है। मैंने बहुत सी सुंदर झीलें देखी है—कश्मीर में, दार्जिलिंग में, नैनीताल में, और बहुत सी दक्षिण भारत में, नंदी हील्स में। लेकिन इतनी बड़ी समुद्र जैसी लहरों वाली मैंने केवल दो झील देखी है—सागर की झील और भोपाल की झील। भोपाल की तुलना सागर की झील छोटी है। भोपाल कि झील तो शायद संसार में सबसे बड़ी झील होगी। उसमें तो मैंने बारह से पंद्रह फिट ऊंची लहरें उठती देखी है। किसी और झील में ऐसा नहीं होता। वह बहुत बड़ी है। एक बार मैंने नाव में उसका पूरा चक्कर लगाने की कोशिश कि और इसमें मुझे सत्रह दिन लगे। मैं उतनी रफ्तार से जा रहा था जितनी तुम कल्पना कर सकते हो और इसलिए भी क्योंकि वहाँ कोई पुलिस वाले न थे और न ही कोई रफ्तार की सीमा थी। इस यात्रा की समाप्ति पर मैंने अपने आप से कहा: ‘हे भगवान, कितनी सुंदर झील है। और वह सैकडों फिट गहरी थी।’
सागर की झील भी ऐसी ही है, लेकिन वह छोटी है। लेकिन दुसरें अर्थों में, इसमें जो सौंदर्य है वह भोपाल की झील में नहीं है। सागर की झील के चारों और पहाड़ियां है, बहुत बड़ी नहीं, लेकिन बहुत सुंदर। खासकर सुबह सूर्योदय के समय और शाम को सूर्यास्त के समय अत्यंत आकर्षक और मनमोहक दिखाई देती है। और अगर पूर्णिमा की रात हो तो तुम जानोगे कि सुंदरता किसे कहते है। पूर्णिमा की रात को इसमें नौका विहार करते समय ऐसा लगता है बस अब कुछ और नहीं चाहिए।
वह बहुत ही सुंदर स्थान है। लेकिन वहां पर उस पुराने फाटक के न रहने का मुझे बहुत अफसोस है। मुझे मालूम था कि एक न एक दिन उसे वहां से हटा दिया जाएगा, क्योंकि विश्वविद्यालय का उदघाटन करने कि लिए उसे जल्दी से अस्थायी ढंग से तैयार किया गया था।
यह दूसरा फाटक था जो मुझे याद है। जब मैंने विश्वविद्यालय छोड़ा तो मैं इस फाटक पर अपने प्रोफेसर श्रीकृष्ण सक्सेना के साथ खड़ा था। कुछ सालों पहले वे मर चुके है। उन्होंने मुझे संदेश भेजा था कि वे मुझसे मिलना चाहते है। मुझे भी उनसे मिलना बहुत अच्छा लगता, लेकिन अब कुछ नहीं किय जा सकता है? हां, अगर वे जल्दी ही किसी संन्यासिन के गर्भ में जन्म ले लें ताकि वे मुझ तक पहुंच सकें तो मैं तुरंत उन्हें पहचान लुंगा—इतना वादा मैं करता हूं।
प्रोफेसर सक्सेना अनोखे गुणों वाले व्यक्ति थे। मैं अनेक प्रोफेसर, अध्यापकों और रीडरों को जानता हूं। लेकिन इन सब में से केवल वहीं मुझे पहचान सके। और वे मानते थे कि उनके इस शिष्य को शिष्य नहीं अपितु उनका गुरु होना चाहिए था।
वे फाटक पर खड़े मुझे यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि मुझे विश्वविद्यालय नहीं छोड़ना चाहिए। वह मुझसे कह रहे थे, तुम्हें इस समय नहीं चाहिए, खासकर तब तक विश्वविद्यालय ने तुम्हें पी. एँच. डी. स्कौलरशिप दी है। तुम्हें इस अवसर को खोना नहीं चाहिए।‘ वे घुमा-फिरा कर बार-बार यही कह रहे थे कि में उनका सबसे प्रिय छात्र हुं। उन्होंने कहा: ‘सारी दुनिया में मेरे छात्र है, विशेषत: अमरीका में (अमरीका में उनहोंने बहुत समय तक पढा़या था) उनके भविष्य से मेरा कोर्इ संबंध नहीं है। उनका भविष्य उनका भविष्य है। और आंखों में आँसू भर कर वे बोले, जहां तक तुम्हारा प्रश्न है, तुम मेरे भविष्य हो।’ उनके इन शब्दों को मैं कभी नहीं भूल सकता। मुझे उन्हें दोहराने दो। उन्होंने कहा: ‘इन दूसरे विद्यथिर्यों का भविष्य उनका अपना भविष्य था, तुम्हारा भविष्य मेरा भविष्य है।‘
मैंने उनसे पूछा: ‘क्यों?’ मेरा भविष्य आपका भविष्य क्यों है?’
उन्होंने कहा: ‘उसके बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकता। और वे रोने लगे।’
मैंने कहा: ‘मैं समझता हूं। कृपया आप रोइए मत। मेरी इच्छा के विरूद्ध कुछ भी करने के लिए मुझे समझाया नहीं जा सकता और मेरा मन अलग ही आयाम में चलता है। आपको निराश करते हुए मुझे बहुत दुःख हो रहा है। मुझे यह भी अच्छी तरह मालूम है कि आपको मुझसे बहुत आशा थी। समस्त विश्वविद्यालय में प्रथम आने के कारण जब मुझे गोलडमेडल मिला था (जो आपको भी नहीं मिला था।) तो आप एक छोटे बच्चे की तरह कितने खुश हुए थे।’
उस गोल्ड़-मेडल का मेरे लिए कोई महत्व नहीं था। मैंने तो डाक्टर श्री कृष्ण सक्सेना के सामने ही उस मैडल को इतने गहरे कुएं में डाल दिया कि अब दुबारा उसको कोई खोज नहीं सकता।
उन्होंने कहा: ‘तुम क्या कर रहे हो? मैं तो मैडल को कुएं में फेंक चुका था। और मुझे स्कौलरशिप मिलने पर उन्हें बहुत खुशी हुई थी और उसकी अवधि दो से पाँच बरस तक थी।
उन्होंने कहा: ‘फिर से सोचों, कुछ समझने की कोशिश करो।’
पहला फाटक था हाथी-द्वार जिसके सामने मैं अपने पिता के साथ खड़ा था और जिसके भीतर मैं नहीं जाना चाहता था और अंतिम फाटक भी हाथी-द्वार था। जिसके सामने मैं अपने बूढ़े प्रोफेसर के साथ खाड़ा था। और उसके भीतर भी मैं दुबारा प्रवेश नहीं करना चाहता था। एक ही बार काफी था—दुबारा बहुत ज्यादा हो जाता।
प्रथम फाटक से जो बहस शुरू हुई वह दूसरे फाटक तक चलती रही। जो ‘नहीं’ मैंने पिता से कहा वही ‘नहीं’ मैंने अपने प्रोफेसर से कहा। वे मेरे लिए अपने पिता जैसे ही थे। उन्होंने मेरी देखभाल पिता से भी बढ़ कर की। जब मैं बीमार पड़ता तो वे रात भर न सोते और मेरे बिस्तर के पास बैठे रहते। मैं उनसे कहता, आप बूढे हो गए है, डाक्टर—मैं उन्हें डाक्टर कहता था—कृपा करके अब आप सो जाइए।‘ तब वे कहते, ‘मैं तब तक नहीं सोऊंगा जब तुम मुझसे यह वादा नहीं करोगे कि कल तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे।’ और मुझे वादा करना पड़ता—जैसे कि बीमार या ठीक होना मेरे वायदे पर निर्भर था। लेकिन एक बार मैंने उनसे यह वादा किया था और मैं अच्छा हो गया था। इसीलिए तो में कहता हूं कि इस दुनिया में जादू जैसा कुछ है।
वह ‘नहीं’ तो मेरे अस्तित्व की विशेषता बन गया था, मैंने अपने पिता से कहा था, ‘नहीं, मैं इस फाटक के भीतर नहीं जाना चाहता। यह स्कूल नहीं है, यह जेल है, कारागृह है। इसका यह फाटक और इस इमारत का यह रंग। बडी हैरानी की बात तो यह है कि भारत में जेल और स्कूल दोनों एक ही रंग के होते है। दोनों लाल ईंटों के बने होते है। इसलिए मालूम ही नहीं होता कि यह स्कूल है या जेल। ऐसा लगता है कि किसी ने अच्छा खाया मजाक किया है।’
मैंने कहा: ‘इस स्कूल को तो देखिए, आप इसको स्कूल कहते है? यह कैसा फाटक है, और आप चाहते है कि मैं इसके भीतर चार साल के लिए भरती हो जाऊँ। ’
इस समय जो वार्तालाप शुरू हुआ वह कई वर्षों तक चलता रहा और तुम इसे कई बार सुनो गे, क्योंकि कहानी में यह कहीं न कहीं पर आ ही जात है।
मेरे पिता ने कहा: ‘मुझे हमेशा इसी बात का डर था।’ और हम लोग फाटक के बाहर खड़े थे, क्योंकि मैं अभी तक उनके साथ भीतर जाने के लिए राज़ी नहीं हो रहा था। वे कहते गए, मुझे डर था कि तुम्हारे नाना, और विशेषत: तुम्हारी नानी तुम्हें अपने लाड़-प्यार से बिगाड़ देंगे।
मैंने कहा: ‘आपका यह शक या डर बिलकुल ठीक था। अब तो मैं बिगड़ ही चुका हूं। अब कोई कुछ नहीं कर सकता। इसलिए चलिए घर वापस चलें।’
मेरे पिता ने कहा: ‘क्या कहा? तुम्हें शिक्षित तो होना ही है।’
मैंने कहा: ‘शिक्षा की यह कैसी शुरूआत है? मुझे हां या नहीं कहने की भी स्वतंत्रता नहीं है। क्या इसे शिक्षा कहते है। अगर आप यहीं चाहते हैं तो मुझसे पूछिए ही मत, यह रहा मेरा हाथ, इसे पकड़ कर आप मुझे भीतर घसीट लें। इससे मुझे यह संतोष तो होगा कि इस भद्दी संस्था में मैंने अपनी इच्छा से प्रवेश नहीं किया। इतना कृपा तो आप मुझ पर कर ही सकते है।‘
मेरे पिता परेशान होकर मुझे भीतर घसीटने लगे। वे थे तो सीधे आदमी, लेकिन वे तुरंत समझ गए कि ऐसा करना ठीक नहीं है। उन्होंने मुझसे कहा: ‘मैं तुम्हारा पिता हुं, लेकिन मेरा तुम्हें घसीट कर भीतर ले जाना उचित नहीं है।’
मैंने कहा: ‘इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। आपने जो किया है बिलकुल ठीक किया है। क्योंकि जब तक कोई मुझे घसीट कर भीतर न ले जाता मैं अपन आप नहीं जाउुंगा। मेरा फैसला है: नहीं आप मुझ पर अपना फैसला थोप सकते है, क्योंकि मैं सब प्रकार से आप पर आश्रित हूं—भाजन, कपड़े और मकान के लिए आप पर निर्भर हूं। आप मुझसे जबरदसती कर सकते है।’
वाह, कैसा प्रवेश था स्कूल में—घसीट कर ले जाने का, इसके लिए मेरे पिता अपने आप को कभी माफ न कर सके। जिस दिन उन्होंने संन्यास लिया उस समय पहली बात जो उन्होंने मुझसे कही थी वह यह थी, मुझे माफ करना। मैंने कई बार, जाने-अनजाने, तुम्हारे साथ गलत व्यवहार किया है—उन सबके लिए मैं तुमसे माफी चाहता हूं।‘
उस स्कूल में प्रवेश करने के साथ ही मेरे नये जीवन की शुरूआत हुई। इससे पहले तो मैं वर्षों तक जंगली पशु की भाति स्वच्छंद और मुक्त घूमता रहा। मैं जंगली मनुष्य की भांति नहीं कह सकता, क्योंकि कोई जंगली मनुष्य नहीं है। कभी-कभार कोई आदमी जंगली मनुष्य सा मुक्त हो जाता है—जैसा अब मैं हूं, बुद्ध थे, जरथुस्त्र थे, जीसस थे। लेकिन उस समय सह कहना बिलकुल सच था कि में कई सालों तक जंगली पशु की भाति रहता था। लेकिन वह जीवन एडोल्फ हिटलर, बेनी टो मुसोलिनी, नेपोलियन, सिकंदर महान से कही ऊँचा था। मैं सबसे बुरों के नाम ले राह हूं। बुरे इस अर्थ में कि वे समझते थे कि वे सबसे अधिक सभ्य है।
सिकंदर महान समझता था कि वह अपने समय का सबसे अधिक सभ्य आदमी है। एडोल्फ हिटलर अपनी आत्म कथा ‘माई स्ट्रगल’ में....मुझे नहीं मालूम कि जर्मन लोग इसके शीर्षक का उच्चारण कैसे करते है। मुझे तो यही याद है: मैन केम्प। शायद यह गलत है, होगा ही, क्योंकि यह जर्मन भाषा मैं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसका उच्चरण क्या है। मुझे तो हैरानी हुई यह जान कर कि इस पुस्तक में हिटलर यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि जिस अतिमानव की स्थिति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य हजारों वर्षों से प्रयास कर रहा है, उसने उस स्थिति को उपलब्ध कर लिया है। और हिटलर कह पार्टी, नाजी, और हिटलर की जाति, नॉर्डिक-आर्य समस्त संसार पर शासन करेंगे। और यह शासन एक हजार वर्ष तक चलेगा।
ये सब पागल आदमी की बातें है। लेकिन यह पागल आदमी बहुत शक्तिशाली था। जब वह बोलता था—चाहे वह बकवास ही हो—तो लोगों को उसे सुनना ही पड़ता था। वह समझता था कि वह सच्चा आर्य है और नॉर्डिक जाति शुद्ध खून वाली जाति है। लेकिन वह तो स्वप्न देख रहा था।
मनुष्य तो शायद ही कभी अतिमानव बना है। ‘अति’ या ‘परा’ का अर्थ उच्च नहीं है। सच्चा अतिमानव तो उसको कहा जाता हे जो अपने कार्यों, विचारों और भावों के प्रति सजग रहता है, जो अपने जीवन तथा। मृत्यु और प्रेम को होशपूर्वक देखता है।
उस दिन से जो वार्तालाप मेरे और पिता के बीच शुरू हुआ और जो बीच-बीच में भी चलता रहा और उसका अंत तभी हुआ जब वे संन्यासी बने। उसके बाद तो तर्क का कोई सवाल ही नहीं उठा, क्योंकि उनहोंने समर्पण कर दिया था। जिस दिन उनहोंने संन्यास लिया में मेरे पैर पकड़ कर रो रहे थे। मैं खड़ा था और क्या तुम भरोसा कर सकते हो कि मेरे सामने बचपन का यह दृश्य बिजली की तरह कौंध गया—वह स्कूल, वह हाथी-द्वार और उसके सामने खड़ा छोटा बच्चा जो भीतर नहीं जाना चाहता और मेरे पिता उसको जबर्दस्ती खींच रहे हैं। उस दृश्य की याद आते ही मैं मुस्कुरा उठा।
पिता ने पूछा: ‘क्यों मुस्कुरा उठा।’
मैंने कहा: ‘मुझे यह देख कर खुशी हो रही है कि आखिर वह संघर्ष समाप्त हो गया है।’
और यही तो हो रहा था।
मुझे इस बात की खुशी है कि मुझे जबरदस्ती खींच कर भीतर ले जाया गया, मैं अपने आप अपनी स्वेच्छा से कभी नहीं गया। वह स्कूल बहुत ही भद्दा था। असल में सभी स्कूल ऐसे ही होते है। परिस्थिति तो ऐसी निर्मित करनी चाहिए कि जहां बच्चे स्वयं ही कुछ सीखें, लेकिन उन्हें शिक्षित करना ठीक नहीं है। शिक्षा तो कुरूप होगी ही।
और स्कूल में पहली चीज मैंने क्या देखी? वह पहली चीज थी मेरी प्रथम कक्षा का अध्यापक, मैंने सुंदर लोग देखे है और कुरूप लोग भी देखे है, लेकिन वैसी चीज मैंने दुबारा कभी नहीं देखी। ‘चीज’ को रेखांकित करो। उस ‘चीज’ को मैं ‘कोई’ नहीं कह सकता? कैसा अद्भुत आदमी जो आदमी जैसा दिखार्इ ही नहीं देता था। मैंने अपने पिता की और देख कर कहा: ‘इसके लिए आप मुझे भीतर घसीट कर भीतर लाए है’?
मेरे पिता ने कहा: ‘चुप रहो।’ लेकिन वह इतने धीमे से बोल कि वह चीज कहीं सुन न ले। वह मास्टर मुझे पढ़ाने बाला था। मैं तो उस आदमी को देख भी नहीं सकता था। परमात्मा ने उसका चेहरा बड़ी ही जल्दबाजी में बनाया होगा। ऐसा लगता है कि परमात्मा को बाथरूम जाने की जल्दी थी, इसलिए उसने जल्दी में इस आदमी को बना दिया। कैसा अद्भुत आदमी बनाया, उसके केवल एक आँख थी और नाक टेढ़ी थी। वह एक आँख ही गजब की थी और उसके साथ वह टेढ़ी नाक उसके चेहरे को और भी भद्दा बना रही थी। और वह विशालकाय था। सात फिट ऊँचा था। और उसका वज़न कम से कम चार सौ पौंड रहा होगा।
देवराज, तुम बताओ कि ये मेडिकल शोध को इस प्रकार चुनौती केसी देते है? उसका वज़न चार सौ पौंड था, लेकिन फिर भी बहुत स्वस्थ था। न उसने कभी छुट्टी ली, न कभी वह डाक्टर के पास गया। शहर के सब लोग कहते थे कि वह लोहे का बना हुआ है। उसे लोहा तो नहीं कहूँगा वरन कांटेदार लोहे की तार कहना चाहिए। वह इतना बदसूरत था कि मैं उसके बारे में और कुछ नहीं कहना चाहता। हालांकि कुछ बातें तो मुझे कहनी ही पड़ेगी, लेकिन उसके बारे में सीधे मुझे कुछ नहीं कहना है।
वह मेरा पहला मास्टर था। मेरा मतलब अध्यापक था। क्योंकि भारत में स्कूल के अध्यापक को भी मास्टर ही कहा जाता है। इसलिए मैं कहता हूं कि वह मेरा पहला मास्टर था। आज भी अगर मैं उस आदमी को देख लू तो मैं कांपने लगूंगा। उसको तो आदमी नहीं, घोड़ा कहना चाहिए।
मैंने अपने पिता को कहा: ‘पहले कि आप साइन करें इस आदमी को तो देख लें।’ उन्होंने कहा, ‘क्या हुआ है इसे, इसने मुझे पढा़या है, मेरे पिता को पढा़या है—यह तो पीढ़ियों से यहां पर पढ़ा रहा है।’
उनकी बात बिलकुल सच थी। इसीलिए तो कोई उसकी शिकायत नहीं करता था। अगर कोई अपने पिता से उसकी शिकायत करता तो उत्तर में वे कहते, ‘मैं इसके बारे में कुछ नहीं कर सकता। वह मेरी भी अध्यापक था। अगर मैं उसके पास शिकायत लेकर जाऊँ तो वह मुझे भी सज़ा दे सकता हे।’
सो मेरे पिता ने कहा: ‘वह ठीक ही तो है। कुछ भी गलत नहीं है। और उन्होंने कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए।
तब मैंने अपने पिता से कहा: ‘आप अपनी मुसीबतों पर हस्ताक्षर कर रहे है इसलिए बाद में मुझे दोष मत देना।’
उन्होंने कहा: ‘तुम अजीब लड़के हो।’
मैंने कहा: ‘निश्चित ही हम एक-दूसरे के लिए अजनबी है। मैं आपसे कई वर्षों तक दूर रहा हूं। और मेरी मित्रता तो थी आम और देवदार के पेड़ों से, पहाड़ों से, नदियों से और समुद्रों से। मैं व्यापारी नहीं हूं और आप व्यापारी हैं। आपके लिए पैसा ही सब कुछ है और मैं तो उसे गिन भी नहीं सकता।’
आज भी....मैंने कई वर्षों से पैसे को हाथ नहीं लगाया। ऐसी जरूरत ही नहीं हुई। यह मेरे लिए बहुत अच्छा है कयोंकि इस दुनिया के गणित को मैं बिलकुल नहीं जानता। मैं तो अपने ही ढंग से चलता हूं। मैं उसके आर्थिक नियमों के अनुसार नहीं चलता, चल ही नहीं सकता—उन्हें मेरा अनुसरण करना पड़ता है। मैंने पिता से कहा: ‘आप पैसे की भाषा को समझते है और मैं नहीं समझता। हमारी भाषा ही अलग-अलग है। और याद रखिए, आपने मुझे गांव जाने से रोका है, अब कोई संघर्ष हो तो मुझे दोष मत देना। मैं तो समझता हूं वह आप नहीं समझते और आप जो समझते है वह मैं नहीं समझता ओ समझना भी नहीं चाहता। दद्दा, हम दोनों एक-दूसरे के लिए नहीं बने। हम दोनों का तालमेल हो ही नहीं सकता।’
हम दोनों के बीच जो फासला था उसे मिटाने के लिए उनको जीवन भर का समय लग गया लेकिन यह यात्रा उन्ही को करनी पड़ी। इसीलिए मैं कहता हुं कि में बहुत जिद्दी हूं—मैं तो एक इंच भी इधर से उधर नहीं होता। और यह सारा बखेड़ा शुरू हुआ हाथ-द्वार से।
मैरा पहला अध्यापक—मैं उसका असली नाम नहीं जानता, स्कूल का कोई भी बच्चा नहीं जानता था। वे उसे काना मास्टर कहते थे। काना अर्थात एक आँख वाला। हिंदी में काना का अर्थ होता है। एक आँख वाला तो हाता ही है साथ मैं कोसने के लिए भी इसका प्रयोग किया जात है। इसलिए उसकी उपस्थिति में तो हम लोग मास्टर कहते थे लेकिन जब वह वहां नहीं होता था तब हम केवल काना कहते थे।
वह स्वयं तो कुरूप था ही, साथ ही वह जो भी करता था वह भी कुरूप होता था।
स्कूल में मेरे प्रथम दिन ही कुछ न कुछ तो घटने ही वाला था—कोई न कोई बखेड़ा खड़ा होत है। वह मास्टर बड़ी बेरहमी से बच्चों को सज़ा देता था। बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार करते मैंने न किसी को देखा न सुना है। मैं ऐसे कई लोगो को जानता था जिन्होंने इसके कारण स्कूल छोड़ दिया था और वे बेचारे अशिक्षित ही रह गए। वह बहुत ज्यादती करता था। तुम लोग तो सोच भी नहीं सकते कि वह क्या-क्या करता था। और अब मैं बताता हूं कि पहले ही दिन मेरे साथ क्या हुआ और उसके बाद तो बहुत कुछ होने वाला था।
वह गणित पढ़ा रहा था। मैं थोड़ा बहुत गणित जानता था कयोंकि मेरी नानी ने मुझे घर पर ही थोड़ा बहुत गणित और भाषा सिखा दी थी। वह मैं खिड़की से बाहर सूरज की रोशनी में चमकते हुए सुंदर पीपल के पेड़ को देख रहा था। दूसरा ऐसा कोई पेड़ नहीं है जो सूरज की रोशनी में इतना अच्छा चमकता हो। क्योंकि हर एक पत्ता अपना नृत्य अलग करता है। और दूसरी और हजारों चमकते हुए पत्ते एक साथ नाचते और गीत गात है जिसके कारण समस्त पेड़ वाद्यवृंद बन जाता है। अलग-अलग स्वर का सामूहिक संगीत बन जाता है।
पीपल का वृक्ष बड़ा विचित्र वृक्ष है, क्योंकि बाकी सब पेड़ तो दिन के समय कार्बन डाइआकसाइड को अपने भीतर खींच लेते है। और आक्सीजन को बाहर छोड़ते है...अब जो भी
हो, तुम लोग ठीक कर लो, क्योंकि न तो मैं पेड़ हूं, न वैज्ञानिक, और न ही कैमिस्ट। लेकिन पीपल का पेड़ चौबीस घंटे आक्सीजन छोड़ता है। पीपल के पेड़ के नीचे तुम सो सकते हो, लेकिन दूसरे पेड़ों के नीचे नहीं। क्योंकि वे सेहत के लिए खतरनाक है। मैने हवा में नाचते पीपल के पत्तों को देखा, हर पत्ते पर सूरज चमक रहा था। और सैकडों तोते एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूद रहे थे। और अकारण खुश हो रहे थे। क्यों न होते? उनको तो स्कूल नहीं जाना था।
मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। बस, वह काना मास्टर मुझ पर बरस पडा। उसने मुझको कहा: ‘पहले से ही बात साफ हो जानी चाहिए।’
मैंने कहा: ‘हाँ आप ठीक कह रहे है, मैं भी इस बात से सहमत हूं, आरंभ से ही बात साफ हो जानी चाहिए, सब कुछ सही और ठीक तरह से होना चाहिए।’
उसने पूछ: ‘जब में गणित पढ़ा रहा था तो तुम खिड़की के बाहर क्यों देख रहे थे?’
मैंने उत्तर दिया: ‘गणित को देखना नहीं सुना जाता है। मुझे आपके सुंदर चेहरे को नहीं देखना। उससे बचने के लिए ही मैं खिड़की के बाहर देख रहा था। जहां तक गणित का सवाल है, मैंने सुन लिया है और मुझे मालूम है। आप मुझसे उसके बारे में पूछ सकते है।’
उसने मुझसे पूछा और यहीं से शुरू हुई लंबी मुसीबत—मेरे लिए नहीं, उसके लिए। मुसीबत यह थी कि मैंने सही उत्तर दिया। उसे तो विश्वास ही नहीं हुआ और उसने कहा: ‘तुम सही हो या गलत। मैं तो तुम्हें सज़ा दूँगा ही क्योंकि जब अध्यापक पढ़ा रहा हो उस समय खिड़की से बहार देखना ठीक नहीं है। मुझे उसने अपने सामने बुलाया। मैने उसके सज़ा देने के तरीकों के बारे में सुन रखा था। वह तो ‘’मार्क्विस दि सादे’’ जैसा आदमी था। अपने डेस्क से उसने पेंसिलों का डिब्बा निकाला। मैं उसकी इन पेंसिलों के बारे में सुन चुका था। वह पेंसिल को हर उँगली के बीच में फंसा कर हाथ को जोर से दबा कर पूछता, ‘और दबाऊ?’ और जोर से दबाऊ? छोटे बच्चों के साथ वह ऐसा करता। वह तो तानाशाह था। मेरे इस वक्तव्य को रिकार्ड कर लेना चाहिए, ‘जो लोग शिक्षक बनते है उनमें कोई कमी होती है, उनके भीतर कुछ गलत होता है। शायद उनमें दूसरे पर शासन करने को इच्छा होती है। या शक्ति पाने की लालसा होती है शायद वे सब थोड़े बहुत तानाशाह होते है।’
मैंने उस पेंसिलों को देख कर कहा: ‘मैंने इन पेंसिलों के बारे में सुना है। लेकिन इनको मेरी अंगुलियों में डालने से पहले इतना याद रखिए कि यह काम आपको बहुत महंगा पड़ेगा—शायद आपको अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़े। वह राक्षस की भाति हंसा और उसने कहा, कौन मुझे रोक सकता है?’
मैं न कहा: ‘सवाल यह नहीं है। मैं तो यह पूछना चाहता हुं कि जब गणित पढा़या जा रहा हो तो क्या खिड़की से बाहर देखना अपराध है? और जो पढा़या जा रहा था उसके विषय में पूछे गए प्रश्न का उत्तर जब मैंने दे दिया है और जब उसके हर शब्द को मैंने दोहरा दिया हे तो तब खिड़की से बाहर देखना कोई अपराध है? जब उस क्सालरूम में इस खिड़की को बनाने का क्या प्रयोजन है? इसको क्यों बनाया गया है? दिन भर इस कमरे में कोई न कोई कुछ न कुछ तो पढ़ाता ही रहता है। रात को तो खिड़की की कोई जरूरत नहीं होती क्योंकि उस समय तो इसमें से देखने बाला कोई नहीं होता।’
उसने कहा: ‘तुम मुसीबत की जड़ हो।’
मैंने कहा: ‘हां, बिलकुल ठीक कहा। मैं अभी हेड मास्टर के पास यह पूछने जा रहा हूं, कि जब मैंने आपको सही उत्तर दे दिया है तो क्या आपका मुझे सज़ा देना वैध है’? न्यायसंगत है?’
यह सुनते ही वह कांप उठा, थोड़ा नरम पडा। मुझे यह देख कर हैरानी हुई क्योंकि मैंने सुना हुआ था कि वह किसी भी तरह दबने बाला नहीं है। फिर मैंने कहा: ‘इसके बाद में म्यूनिसिपैलिटी कमेटी के सभापति के पास जाऊँगा, क्योंकि वह इस स्कूल को चलाता है। कल मैं पुलिस कमिश्नर को लेकर यहाँ आऊँगा ताकि वह अपनी आंखों से देख ले कि यहां पर कैसा गलत व्यवहार किया जाता है।’
उसका कांपना दूसरों को तो दिखाई नहीं दिया, लेकिन मैं उन सब चीजों को देख सकता हूं जिन पर दूसरों का ध्यान नहीं जाता। मैंने उससे कहा: ‘तूम मानो गे तो नहीं लेकिन तुम कांप रहे हो। खैर, अभी तो हेड मास्टर के पास जा रहा हूं।’
मैं हेड मास्टर के पास गया और उसने कहा: ‘मुझे मालूम है कि यह आदमी बच्चों बहुत यातना देता है। जो गैर-कानूनी है। लेकिन मैं इसके बारे में कुछ नहीं कर सकता हूं, क्योंकि वह इस शहर का सबसे पुराने अध्यापक है। और प्राय: सब लोगो के पिता या दादा इसके शिष्य रह चुके है। इसलिए कोई भी उस पर अंगुलि नहीं उठा सकता।‘
मैंने कहा: ‘मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है।’
मेरे पिता और दादा भी इसके शिष्य थे, लेकिन मुझे अपने पिता या दादा की भी परवाह नहीं है। मैं तो इस परिवार का ही नहीं हूं। मैं इनसे दूर रहा हूं। मैं यहां पर विदेशी हूं।‘
हेड मास्टर ने कहा: ‘यह तो मैं तुरंत ही समझ गया कि तुम यहां पर अजनबी हो। लेकिन बेटे, इस मुसीबत में न पड़ो तो अच्छा है, क्योंकि यह तुम्हें बहुत सताएगा।’
मैंने कहा: ‘यह इतना आसान नहीं है। सब प्रकार के अत्याचारों के विरूद्ध मेरे संघर्ष की शुरूआत यहीं से होगी। मैं जी-जान से लडूंगा। और मैंने उसकी मेज को मुक्के से मारा—छोटे बच्चे का मुक्का—और उससे कहा: ‘शिक्षा की मुझे कोई परवाह नहीं है। लेकिन अपनी स्वतंत्रता की मुझे चिंता है। कोई मुझे आकारण परेशान नहीं कर सकता। आप मुझे शिक्षा की नियमावली दिखाइए। में पढ़ नहीं सकता लेकिन आपको मुझे यह बताना पड़ेगा कि जब मैंने सब प्रश्नों के उत्तर सही दिए है ता मेरा खिड़की से बाहर देखना क्या गैर-कानूनी है?’’
उसने कहा: ‘अगर तुमने सही उत्तर दिए है तो इसका सवाल ही नहीं उठता कि तुम कहां देख रहे थे।’
मैंने कहा: ‘आप मेरे साथ आइए।’
वे शिक्षा नियमावली की पुरानी सी किताब को अपने साथ लेकर आए, जिसे शायद कभी किसी ने नहीं पढ़ा था। हेड मास्टर ने काने मास्टर से कहा: ‘अच्छा होगा कि इस बच्चे को परेशान मत करो। वह इतनी जल्दी हार मानने वाला नही है। और शायद तुम्हारे लिए ही मुसीबत खड़ी हो जाएगी।’ वह काना मास्टर डर तो गया लेकिन इसके कारण वह और भी आक्रामक हो गया। उसने कहा: ‘आप फ़िकर मत करें। मैं इस बच्चें को दिखा दूँगा। इस नियमावली की चिंता कौन करता है? मैं जीवन भर यहाँ पर अध्यापक रहा हूं और आज यह बच्चा मुझे नियम सिखाने आया है?’
मैंने कह: ‘कह या तो मैं इस स्कूल की इमारत में रहूंगा या तुम, हम दोनों एक साथ नहीं रह सकते। सिर्फ कल तक इंतजार करो।’
मैं जल्दी से घर गया और पिता को सब बता दिया। उन्होंने कहा: मुझे तो पहले से ही यह डर था कि स्कूल में दाखिल हो तुम दूसरों को और स्वयं को तो मुसीबत में ड़ालोगे ही साथ ही मुझे भी उसमें घसीटोगे।‘
मैंने कहा: ‘नहीं, मैं तो केवल आपको बता रहा हुं कि क्या हुआ, ताकि बाद में आप मुझसे यह न कहा सकें कि मैंने आपको अंधेरे में रखा।’
मैं पुलिस कमिश्नर के पास गया। वह बहुत अच्छा आदमी था। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि कोई पुलिसवाला आदमी इतना अच्छा हो सकता है।
उसने कहा: ‘मैंने इस आदमी के बारे में सुना है। मेरे अपने बेटे को इसने परेशान किया है। लेकिन आज तक किसी न शिकायत नहीं कि। सताना या यातना देना गैर-कानूनी है, लेकिन आज तक किसी नह शिकायत नहीं करे तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। मैं खुद भी इसकी शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि मुझे डर है कि यह मेरे बेटे को फेल कर देगा। इसलिए वह जो करता है उसे करने दो। कुछ महीनों की ही बात हे, तब मेरा बेटा दूसरी क्लास में चला जाएगा।’
मैंने कहा: ‘मैं यहां पर शिकायत करने आया हूं। मुझे दूसरी क्लास में जाने की कोई चिंता नहीं है। मैं तो इस क्लास में अजीवन रहने को तैयार हूं। उसने मेरी और देखा। मरी पीठ थपथपाई और कहा, ‘तुम जो कर रहे हो ठीक कर रहे हो। मैं कल आऊँगा।’
इसके बाद मैं म्यूनिसिपैलिटी कमेटी के सभापति के पास गया, जो गोबरगणेश निकाला। उसने कहा: ‘मुझे सब मालूम है, लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता। तुम्हें उसको सहन करना होगा। उसके साथ जीना सीखना पड़ेगा।’
मैंने उससे कहा: ‘और वे शब्द आज तक मुझे याद है। मैंने कहा: मेरे अंत: करण को जो गलत लगता है उसे मैं कदापि सहन नहीं कर सकता।’
उसने कहा: ‘मैं कुछ नहीं कर सकता तुम उप सभापति के पास जाओ। शायद वह तुम्हारी कुछ मदद कर सके।’
इस सुझाव के लिए मैं उस गोबरगणेश का आभारी हूं, क्योंकि उस गांव के उप सभापति शंभु दुबे, मेरे अनुभव में उस पूरे गांव में एक अकेले मूल्यवान व्यक्ति सद्धि हुए। जब मैंने उसने दरवाजे को खटखटाया—तब मैं केवल आठ या नौ साल का था। और वे उप सभापति थे। वह उनहोंने कहा: ‘हां, अंदर आ जाइए,’ उनहोंने समझा कि कोई वयस्क आदमी उनसे मिलने आया है। इसलिए मुझे देख कर वे थोड़ा अचकचा गए।'
मैंने कहा: ‘माफ कीजिएगा, मैं बहुत बड़ा नहीं हूं, न पढ़ा-लिखा ही हूं, लेकिन मैं उस काने मास्टर की शिकायत करने आया हूं।’
जैसे ही उन्होंने मेरी कहानी सुनी कि वह मास्टर प्रथम श्रेणी के बच्चों को कैसे सताता है, उनकी अंगुलियों में पेंसिल दबा कर अपने हाथ से उनको दबाता है। और उनके नाखूनों के नीचे पिन चुभाता है—यह सात फीट ऊँचा आदमी है और उसका वज़न चार सौ पौंड है—उनको तो इन बातों पर विश्वास ही न हुआ।
उन्होंने कहा: ‘मैंने इस आदमी के इन कारनामों के बारे में सुना तो है लेकिन किसी ने आज तक उसकी शिकायत क्यों नहीं की?’
मैंने कहा: ‘लोगों ने उसकी शिकायत इसलिए नहीं कि क्योंकि उनको डर है कि उनके बच्चों को और अधिक सताया जाएगा।’
उन्होंने कहा: ‘क्या तुम्हें डर नहीं है?’
मैंने कहा: ‘नहीं, क्योंकि मैं फेल होने को तैयार हुं और वह ज्यादा से ज्यादा यही कर सकता है।’
मैंने कहा: ‘मैं फेल हो न को तैयार हूं मुझे सफल होने की चिंता नहीं है। लेकिन मैं आखिर मैं आखिर दम तक लडूंगा। या तो वह आदमी या मैं, उस इमारत में हम दोनों एक साथ नहीं रह सकते।’
शंभु दुबे ने मुझे अपने पास बुलाया और मेरा हाथ पकड़ कर उन्होंने मुझसे कहा: ‘मुझे हमेशा विद्रोही लोग बहुत अच्छे लगते है। लेकिन मैंने कभी सोचा भी न था कि तुम्हारी उम्र का बच्चा भी विद्रोही हो सकता है। मैं तुम्हें बधाई देता हूं।’
बस उसी समय से हम मित्र बन गए और यह मित्रता उनकी मृत्यु तक बनी रही। उस गांव की जनसंख्या बीस हजार थी। लेकिन भारत में उसे गांव ही माना जाता है। भारत में जब तक किसी स्थान की जनसंख्या एक लाख न हो जब तक उसे नगर नहीं मान जाता। जब जनसंख्या पंद्रह लाखा की होती है तो उसे शहर माना जाता है। अपने सारे जीवन में मैंने उस गांव में शंभु दुबे जैसे गुणों वाला और उस जैसी योग्यता वाला और कोई दूसरा आदमी नहीं देखा, मेरा यह कहना तुम्हें अतिशयोक्ति जैसा लगेगा लेकिन सच तो यही है कि समस्त भारत में मुझे कोई दूसरा शंभु दुबे नहीं मिला। वे अनूठे थे दुर्लभ थे।
जब मैं सारे भारत में यात्रा कर रहा था तो वे महीनों मेरी प्रतीक्षा करते थे कि कब में एक दिन के लिए उस गांव में आऊं। उस गांव से जब भी मेरी ट्रेन गुजरती तो केवल वे ही स्टेशन पर मुझसे मिलने आते। हां, मैं अपने माता-पिता को नहीं सम्मिलित कर रहा हूं, वे भी आते, लेकिन उनको तो आना ही था। लेकिन शंभु दुबे मेरे रिश्तेदार नहीं थे, वे मुझसे प्रेम करते थे। और प्रेम आरंभ हुआ उस दिन से जब मैं उनके पास काने मास्टर की शिकायत करने गया।
शंभु दुबे म्यूनिसिपैलिटी कमेटी के उप सभापति थे। उन्होंने मुझसे कहा: ‘तुम चिंता मत करों। इस आदमी को सज़ा मिलनी चाहिए। उसका सेवा काल समाप्त हो गया है। उसने उसे बढ़ाने के लिए प्रार्थना-पत्र दिया है। लेकिन हम उसे नहीं बढ़ाएंगे। कल से तुम उसको स्कूल में नहीं देखोगे।’
मैंने उनसे कहा: ‘क्या यह वादा है?’
हम ने एक-दूसरे की आंखों में देखा। उन्होने हंस कर कहा, ‘हां’ यह वादा है।‘
दूसरे दिन काना मास्टर चला गया। उसके बाद तो वह मेरी और देख भी नहीं सकता था। मैंने कई बार उससे मिलने की कोशिश की, उसको विदा देने के लिए कई बार उसके दरवाजे को खटखटाया, लेकिन वह तो कायर था—शेर की खाल में भेड़ था। स्कूल के उस पहले दिन ने बहुत सी बातों को आरंभ कर दिया।
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