मेरे गांव मैं एक आश्रम था, जहां कबीर के एक बहुत प्रसिद्ध अनुयायी साहिब दास रहते थे। वे मुझसे काफी पहले हुए थे। लेकिन वे ध्यान करने वालों के लिए एक बड़ा आश्रम एक बड़ा सा मंदिर और बहुत सह गुफाएं छोड़ कर गए थे। वे बहुत सुंदर गुफाएं थी। क्योंकि उनका आश्रम नदी के बहुत निकट था। नदी के किनारे छोटी-छोटी पहाड़ियों में उन्होंने उन गुफाएं को बनाया था। और उन गुफाओं के भीतर पानी के छोटे-छोटे तालाब बने हुए थे। तुम गुफा के भीतर जा सकते थे, एक गुफा से दूसरी गुफा में जा सकते थे। यद्यपि कुछ गुफाएं बंद हो चुकी थी। या तो उनमें पूरी तरह पानी भर गया था या उनकी छत ढह चुकी थी। लेकिन उनको देखना ही अपने आप में सुदंर अनुभव था।
और उन गुफाओं में बैठ जाना....वे इतनी शांत थीं—वहां पर हवा का झोंका तक नहीं आता था। उन्होंने उन गुफाओं को ठीक उस अनुपात में बनाया था कि एक व्यक्ति उन गुफाओं में बिना आक्सीजन की कमी के रह सकता था, क्योंकि वहां बाहर से हवा नहीं आती थी। लेकिन इस गुफा का आकार तुमको कम से कम ती माह के लिए आक्सीजन दे पाने के लिए पर्याप्त था। इसलिए लोगों को उन गुफाओं में ध्यान करने के लिए भेजा जाता था।
मैं उस समय बहुत छोटा था। मेरे जन्म से कोई बीस या तीस वर्ष पूर्व ही साहिब दास गुजर चुके थे। लेकिन उनके उत्तराधिकारी, सत्या साहिब, मैं उनको अच्छी तरह से जानता था, और वे बिलकुल मूढ़ थे। किन्हीं खास कारणों से ऐसा धटित होता है, किसी भी प्रकार से ऐसा हो जाता है कि संत मूढ़ों को आकर्षित करते है।
मैं कोई संत नहीं हूं, इसलिए तुमको चिंता में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन संत मूढ़ों को आकर्षित करते है, शायद यह एक संतुलन है जो प्रकृति को बनाए रखना पड़ता है। कि यदि संत है तो संतुलन बनाए रखने के लिए खास संख्या में मूढ़ों की जरूरत पड़ती है। प्रकृति का विश्वास संतुलन में है; यह लगातार प्रत्येक चीज को संतुलित करती चली जाती है।
सत्या साहिब निपट मूढ़ थे, लेकिन वे मेरे पिता के गहरे मित्र थे। इसलिए मेरे पिता के कारण ही ऐसा हो पाया कि मेंने वहां जाना आरंभ कर दिया और इधर-उधर घूमा और उन गुफाओं को देख पाया। यह वास्तव में एक विशाल आश्रम था और साहिब दास—इनके गुरु—अवश्य ही बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व रहे होंगे।
अब वहां पर उनके उत्तराधिकारी सत्या साहिब के अतिरिक्त और कोई न था, प्रत्येक व्यक्ति छोड़ कर जा चुका था। वहां पर विशाल बाग़ था। खेत थे, और यह आश्रम एक बहुत अलक एकांत स्थान पर था, बहुत हरा भरा और साथ में बहती नदी। सत्या साहिब के गुरु को आश्रम परिसर में ही दफ़ना दिया गया था।
भारत में अनेक धर्मों में अपने संतों का दाह संस्कार नहीं किया जाता है, अन्य सभी का दाह संस्कार किया जाता है। लेकिन कुछ धर्मों में—उदाहरण के लिए, कबीर पंथियों में—वे अपने संतों का दाह संस्कार नहीं करते क्योंकि उनके शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं है।
इसलिए उनके शरीरों को ठीक इसी भांति दफनाया जाता है जैसे ईसाई और मुसलमान करते है। एक समाधि, एक कब्र बना दी जाती है। इसको कब्र नहीं कहा जाता है, इसे समाधि कहा जाता है—यही शब्द चेतना की परम अवस्था के लिए प्रयुक्त किया जाता है। क्योंकि उस व्यक्ति ने समाधि उपलब्ध कर ली है, उसकी कब्र कोई साधारण कब्र नहीं है। यह समाधि का, परम चेतना का प्रतीक है।
आश्रम बहुत विशाल था और वहां पर केवल एक व्यक्ति रह रहा था। और कबीर पंथियों की समाधियां पूरी तरह से बंद नहीं होती है, उनमें एक और खुला भाग होता है। ताकि प्रत्येक वर्ष शरीर को बाहर लाया जा सके और प्रत्येक वर्ष वे संत की पुन: पूजा कर सके।
मेरे शिक्षकों में से एक नास्तिक थे। मैंने उनसे कहा: आपको नास्तिकता पूरी तरह सही है, लेकिन आप भूतों में विश्वास करते है या नहीं?
उन्होंने कहा: भूत! मैं तो भगवान तक में भरोसा नहीं करता, मैं भूतों में विश्वास क्यों करूंगा। वे होते ही नहीं है।
मैंने कहा: यह कहने से पहले, मुझको यह सिद्ध करने का अवसर दें कि उनका आस्तित्व है, क्योंकि मेरी एक भूत से भेंट होती रहती है—इसलिए मिलता हूं,उसके साथ बातचीत करता हूं, और वह एक महान व्यक्ति, साहिब दास का भूत है।
उन्होंने कहा: क्या बकवास करते हो, तुमको यह खयाल उस बेवकूफ सत्या साहिब से ही मिला होगा। वह अपने गुरु के बारे में बात करता रहता है। कोई सुनता ही नहीं किंतु वह बोलता रहता है। और मैंने देखा है कि तुम भी वहां जाया करते हो।
मैंने कहा: यह ठीक है कह आपने मुझको वहां जाते देखा होगा लेकिन आप यह नहीं जानते कि मैंने उनके गुरु से भेंट करने की व्यवस्था भी कर ली है, जो वे स्वयं भी आज तक नहीं कर पाए।
मेरे शिक्षक थोड़े शंकित दिखाई पड़े, लेकिन मैं उसी विश्वास से बोला जैसे कि मैं सदैव बोलता हूं—उसी निशिचत ता से। मैंने कहा: कोई समस्या नहीं है, इस पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चर्चा बाद में होगी; पहले भूत से आमना-सामना हो जाने दो....
उनको थोड़ा सा भय लगने लगा। मैंने कहा: डरिय मत, मैं आपके साथ रहूंगा, और मेरे तीन या चार मित्र भी वहां रहेंगे, क्योंकि हमें साहिब दास की समाधि का दरवाजा सरकाना पड़ेगा, जो कि भारी है; फिर हमें उनकी देह को बाहर निकलना पड़ेगा।
उन्होंने कहा: ये सारे काम करने पड़ेंगे।
मैंने कहा: हां,ये सारे काम करने पड़ेंगे। देह को बाहर निकालना पड़ेगा; केवल तभी मैं साहिब दास से आकार ग्रहण करने के लिए कह सकता हूं। आपको केवल एक बात की सावधानी रखनी है: जरा भी आवाज नहीं करनी है। क्योंकि उसके उत्तराधिकारी सत्या साहिब जाग जाते है। तो समस्या हो जाएगी क्योंकि यह उनके धर्म के बिलकुल विरूद्ध है। वर्ष में केवल एक बार --उनके मृत्यु दिवस पर—उनके शरीर को समाधि से बहार निकाला जा सकता है। और जो हम करेन जा रह है, ये पूर्णत: उनके धर्म के विरूद्ध है। और उससे बहुत झंझट हो सकती है।
इसलिए बिलकुल खामोश रहिए और बहुत शांत रहें। यदि कोई परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाए कि आपको भागना पड़े तो किसी की प्रतीक्षा मत करें आरे न किसी को आवाज दे। बस दौड़ पड़ें। बस अपना खयाल रखिएगा,क्योंकि समस्या यह है: कभी-कभी भूत आपको, विशेष तौर पर आपके वस्त्रों को पकड़ लेता है। इसलिए बस खयाल रखें।
वे शिक्षक बंगाली थे—लंबा कुर्ता और धोती पहने पहनते थे—और बंगाली लोग बहुत ढीले कपड़े पहनते है, इसलिए कोई भी जो किसी काम न हो, जो भाग सके, जो किसी तरह को कठिन परिश्रम न कर सके,बंगाली बाबू कहलाता है। भारत में बंगाली बाबू पुकारा जाना अपमान है। ये दो अतियां है। यदि कोई तुमको ‘ सरदार जी’ कह कर पुकारें तो यह भी अपमान है। इसका अर्थ हो कि तुम्हारे पास दिमाग नहीं है—उस अर्थ में नहीं कि तुम ध्यानी हो, बल्कि उस अर्थ में कि तुम ऐ अयातुल्ला खोमैनी हो। या यदि कोई तुमको ‘’बंगाली बाबू’’ कहता है, तो उसका अर्थ में कि तुम एक अनुपयोगी।
और बंगालियों की कुछ विचित्र आदतें होती है। उनकी धोती इतनी ढीली होती है कि यदि वे दौड़ें तो उनका गिर जाना निशिचत है। उनके पास सदैव साल के बारहों महीने एक छाता रहता है। बरसात हो रही है या नहीं, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता; गर्मी है या गर्मी नहीं है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। और भारत में ऋतुएं बहुत निश्चित है; तुम्हें पूरे साल छाता लिए घूमने की कोई आवश्यक नहीं है। सारे भारत में कोई भी पूरे साल छाता लेकिर नहीं घूमता, लेकिन बाबू—किसी भी तरह से यह उनकी वेशभूषा का एक भाग बन चुका है। वे लगातार छाता लेकिन घूमते है बिना किसी कारण के, अनावश्यक सामान।
इसलिए मैंने अपने शिक्षक से—भट्टाचार्य था उनका पारिवारिक नाम, मैंने कहा, सर अपना छाता छोड़ कर आइएगा, क्योंकि यदि उसने आपका छाता पकड़ लिया तो—ये भूत लोग चीजों को पकड़ लेते है।
उन्होंने कहा: मैं अपना छाता नहीं सकता अपने छाते के बिना मुझको ऐसा लगता है। कि मैं नंगा हूं या कोई ऐसी चीज हैजा सतत छूटी हुई है।
और मैंने कहा: आपको अपनी धोती कस कर बंधनी पड़ेगी, क्योंकि यदि यह खुल कर गिर पड़ी तो आपको नंगा ही भागना पड़ेगा। और ये भूत तो भूत होते है: वे आपके रीति-रिवाजों,आपके शिष्टाचारों में विश्वास नहीं करते। यह आपकी धोती पकड़ सकते है और आपको अपनी धोती के बिना भागना पड़ जाएगा।
उन्होंने कहा: लेकिन वे तो संत है।
मैंने कहा: वे संत है, लेकिन अब वे भूत भी है। लेकिन अब ये आपके ऊपर निर्भर है: आप जैसे चाहें उस ढंग से आ सकते है।
वे आए। अपनी धोती को वे जितना कस सकते थे उतना कसे हुए थे। जिस ढंग से वह पहनते थे....धोती अनेक ढंगों से पहनी जा सकती थी। महाराष्ट्र के लोग सबसे अच्छी ढंग से पहना करते है। तब यह पाजामे की तरह काम करती है—दो भागों में विभाजित। इसको पहन कर तुम भाग सकते हो, तुम कार्य कर सकते हो।
बंगाली लोग सबसे बुरे ढंग से पहनते है। वह भाग जिसे वे अपनी कमर के पिछले भाग में खोंसते है वह इतना ढीला होता है कि वह भूमि को स्पर्श करता रहता है। और दूसरा भाग जो वे अपने सामने खोंसते है वह भी फर्श को छूता रहता है। ढीले-ढालें लोग।
हम आधी रात को वहाँ गए। हमने अंधेरी रात को चुना था, जब चाँदनी नहीं थी, क्योंकि यदि साहिब दास का उत्तराधिकारी हमें देख भी लेता तो.....। और मुझे भूतों के लिए अंधेरी रात की आवश्यकता थी—क्योंकि मैंने एक युवक को भूत बनने के लिए तैयार कर लिया था। यदि भट्टाचार्य अपने छाते के बिना आते है तो उनकी धोती को पकड़ने के लिए राज़ी कर लिया था।
कब्र बडी थी क्योंकि कबीर पंथियों को साहिब दास के शरीर को बाहर निकालना पड़ता था; यक एक शव पेटिका थी, जिसको तुम्हें बाहर निकालना होता था। लेकिन कब्र काफी बड़ी थी। इस लिए मेरा भूत उस शव पेटिका के साथ में लेटा हुआ था। इसलिए व्यवस्था यही थी कि हम अपने आदमी को बाहर खींच लेंगे और उसी क्षण हममें से कोई एक किसी वस्तु को गिरा देगा और कोई चीख मार कर दौड़ पड़ेगा। और इसके पहले कि भट्टाचार्य यह देख पाएँ कि भूत कौन बना हुआ है। भूत उसकी कोई वस्तु पकड़ लेगा। और ठीक ऐसा ही हुआ।
सब कुछ यथावत हुआ। भूत ने उनकी धोती पकड़ ली, और भट्टाचार्य....तुम विश्वास नहीं कर सकते कि जब कोई वास्तव में भयभीत होता है। तो वह व्यक्ति क्या कर डालता है: उन्होंने स्वयं अपनी धोती खोल डाली। उन्होंने धोती की अपने आप ही खुल जाने की प्रतीक्षा नहीं की: उन्होने अपने आप ही उसे खोल डाला धोती छाता....। भूत छाता पकड़ ही नहीं सकता था, क्योंकि भूत नीचे लेटा था और छाता भट्टाचार्य की बगल में दबा हुआ था कुछ उच्चाई पर। लेकिन भट्टाचार्य ने सोचा कोन जाने, वह भूत शायद छाते के लिए उछल पड़े ओर जब उन्होने अपनी कुर्ता उतारना आरंभ किया तो मैंने कहा, भूत संतुष्ट हो गया है—चले आइए।
दो दिन बाद मैंने उनसे पूछा: आपकी नास्तिकता का क्या हुआ।
उन्होंने कहा: वह सब बेवकूफी थी, मैं मूर्ख था। तुम सही थे—ईश्वर है। लेकिन कैसी अजीब रात थी वह।
मैंने कहा: कम से कम आपको मुझे धन्यवाद देना चाहिए—मैंने आपका कुर्ता बचा लिया था।
उन्होंने कहा: मुझे याद है वह। मैं उसे फेंक रहा था। क्योंकि यदि भूत ने मेरे वस्त्रों को पकडना आरंभ कर दिया तो मैं पकड़ लिया जाऊँगा। मैंने सोचा: मैं सभी कुछ छोड़ दूँगा जिससे कम से कम मैं अपने घर तो पहुंच सकूं। अधिक से अधिक लोग हंसेगे और यह लज्जाजनक होगा। और यह लज्जाजनक था: जग मैं अपने कुरते में वहां पहुंचा.....
हमने सभी व्यवस्थाएं कर ली थी जिससे कि लोग वहां रहें; वरना आधी रात में कौन देखेगा? एक नगर, छोटे से नगर में सभी लोग नौ बजे तक,अधिक से अधिक दस बजे ते सो जाते है। इन दिनों में न तो सिनेमा थे, न सिनेमा घर थे, इसलिए नौ बजे तक सारा नगर वीरान हो जाता था। इसलिए हमने व्यवस्था की थी। कुछ असली मजेदार होने जा रहा है; आप बस प्रतीक्षा करें। लगभग बारह बजे आप भट्टाचार्य को नग्नावस्था में घर आता देखेंगे।
उन्होंने कहा: नग्नावस्था में।
हमने कहा: लेकिन किसी को बताएं मत। वे अपने छाते तक के बिना आएंगे।
इसलिए लोग वास्तव में उत्सुक थे और वे प्रतीक्षा कर रहे थे प्रत्येक व्यक्ति अपने बिस्तर पर जागता हुआ लेटा था। भारत में गर्मियों में लोग गलियों में बिस्तर लगा कर सोते है। प्रत्येक व्यक्ति लेटा हुआ था, जगा हुआ, और जैसे ही भट्टाचार्य वहां पहुंचे वहां बहुत भीड़ इकट्ठी हो गई थी—मशालें, टॉर्चों, लालटेन, और लोग।
भट्टाचार्य पसीने से लथपथ थे बस थरथर कांप रहे थे। इसलिए हमें लोगो से कहना पडा यह उचित नहीं है—आपको वापस लोट जाना चाहिए। वे एक भूत से मिल कर आए है। और अब आप लोग उनको परेशान कर रहे है। उनको ऐसा धक्का पहुंचा है कि वह मर भी सकते है।
हमने उनको भीतर ले गए, हमने उनको भलीभाँति ठंडे पानी से स्नान कराया, होश में लाने के लिए जितना हो सका उतनी बाल्टी पानी उन पर डाला। उनको होश में लाने के लिए यह बहुत कठिन था। लेकिन आखिर कार उन्होने कहा, हां अब मुझे बेहतर लग रहा है। लेकिन भूत कहां है।
मेंने कहां: वह भूत चला गया है। हमने शव पेटिका बंद कर दी है।
और मेरा छाता और धोती, उन्होनें कहा।
मैंने कहा: उनको हम ले आए है, क्योंकि भूत एक संत है। हमारी प्रार्थना सुन ली की: बेचारे भट्टाचार्य बहुत गरीब आदमी है। और आप एक संत है, एक नास्तिक के लिए इतना दंड पर्याप्त है; इससे अधिक की आवश्यकता नहीं है—तो उन्होंने उसे वापस दे दिया है।
उस दिन से हम प्रतिदिन बेचारे भट्टाचार्य को प्रात: काल समाधि पर जाते हुए और फूल चढ़ाते हुए और प्रार्थना करते हुए और कुछ पूजा करते हुए देख करते थे।
मैंने कहा: क्या आप कबीर पंथी हो गए है?
उन्होने कहा: मुझको कबीर पंथी होना पडा। मैं कबीर पंथियों के शास्त्र, कबीर के बचन कबीर के गीत पढ़ करता हूं—वे वास्तव में सुंदर है। लेकिन मुझको तुम्हें धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि मुझको कहा: यदि तुमने भूत से मेरा आमना-सामना न कराया होता तो मैं नास्तिक ही मर जाता।
--ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें