शनिवार, 31 मार्च 2018

जरथुस्‍थ--नाचता गाता मसीहा--प्रवचन-28

हास्य व नृत्य की बात—(अठाईसयवां-प्रवचन)

 प्यारे ओशो,  

यहां पृथ्‍वी पर सबसे बड़ा पाप क्या रहा है? क्या यह उसका कथन नहीं थी जिसने कहा :  'धिक्कार है उनको जो हंसते हैं!'
क्या स्वयं उसने पृथ्वी पर हंसने का कोई कारण नहीं पाया? यदि ऐसा है तो उसने खोज बुरी तरह की। एक बच्चा भी कारण पा सकता है।
उसने — पर्याप्त रूप से प्रेम नहीं किया : अन्यथा उसने हमको भी प्रेम किया होता हसनेवालो को! लेकिन उसने घृणा की और हम पर ताने कसे उसने शाप दिया कि हम बिलखें व दांत
किटकिटाएं
ऐसे समस्त गैर— समझौतावादी मनुष्यों से बचो! वे दीन व रुग्ण प्रकार के हैं भीड़ वाले प्रकार के : वे इस जीवन को दुर्भावना से देखते हैं इस पृथ्वी के प्रति उनके पास कुदृष्टि है। ऐसे समस्त गैर— समझौतावादी मनुष्यों से बचो! उनके पैर बोझिल व हृदय उमसदार हैं — वे नहीं जानते कि नाचना कैसे ऐसे मनुष्यों के लिए पृथ्वी हलकी कैसे हो सकती है!...
यह हंसी का ताज यह गुलाब— मालाओं का ताज : मैने स्वयं ही इस ताज को अपने सिर पर जमाया है मैने स्वयं ही अपने हास्य का संतघोषण किया है। मैने आज इसके लिए किसी अन्य को पर्याप्त मजबूत नहीं पाया है।
नृत्यकार जरयुस्त्र हलका जरथुस्त्र जो अपने पंखों से संकेत करता है। उड़ान के लिए तैयार समस्त पक्षियों को संकेत करता तत्पर एवम् तैयार आनंदपूर्वक निर्भार—हृदय :
पैगंबर जरमुस्त्रु हंसता पैगंबर जरमुस्त्रु  अधैर्यवान न गैर— समझौतावादी मनुष्य वह जो कूद— फांद व नटखटपने से प्रेम करता है; मैने स्वयं ही इस ताज को अपने सर पर जमाया है!... तुम उच्चतर मनुष्यो तुम्हारे संबंध में सर्वाधिक बुरा है : तुममें से किसी ने भी नृत्य करना नहीं सीखा है जैसा कि मनुष्य को नृत्य करना चाहिए — स्वयं के पार तक नृत्‍य करना। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम असफल होते हो)।
कितना कुछ अभी भी संभव है। तो स्वयं के पार तक हंसना सीखा। अपने हृदयों को उन्नत करो तुम उत्कृष्ट नर्तको ऊंचे! और ऊंचे! और जी भर कर हंसना मत भूलो! यह हंसी का ताज यह गुलाब— मालाओं का ताज : तुम तक मेरे बंधुओ मैं फेकता हूं यह ताज! मैने हास्य का
संतघोषण कर दिया है; तुम उच्चतर मनुष्यो सीखो — हंसना!...
'यह मेरी सुबह है मेरा दिन प्रारंभ होता है : उठो अभी, उठो, महा मध्याह्न वेला!'

... ऐसा जरमुस्त्र ने कहा और अपनी गुफा छोड़ दी प्रदीप्त और ओजस्वी जैसे सुबह का सूरज अंधेरे पर्वतों के पीछे से उभर रहा हो।

रथुस्त्र नितात सही हैं जब वह कहते हैं, यहां पृथ्वी पर सबसे बड़ा पाप क्या रहा है? क्या यह उसका कथन नहीं था जिसने कहा : 'धिक्कार है उनको जो हंसते हैं। 'लेकिन सारे तुम्हारे संत यही कह रहे हैं, सारे तुम्हारे धर्म यही कह रहे हैं, सारे तुम्हारे तथाकथित महान लोग यही कह रहे हैं। और इसे वे बिना कारण के नहीं कह रहे हैं।
एक सर्वाधिक़ क्र बात जो मनुष्य के साथ की गयी है वह है उसे उदास और गंभीर बनाना। इसे किया जाना ही था, क्योंकि मनुष्य को बिना उदास व गंभीर बनाए उसे गुलाम बनाना असंभव है — गुलाम गुलामी के समस्त आयामों में : आध्यात्मिक रूप से किसी काल्पनिक ईश्वर का गुलाम, किसी काल्पनिक स्वर्ग व नर्क का; मनोवैज्ञानिक रूप से गुलाम, क्योंकि उदासी, गंभीरता स्वाभाविक नहीं हैं, उन्हें मन पर जबरन लादा जाना होता है और मन खंड—खंड हो जाता है, छिन्न—भिन्न हो उठता है; और शारीरिक रूप से भी गुलाम, क्योंकि जो व्यक्ति हंस नहीं सकता वह सचमुच में स्वस्थ व समग्र नहीं हो सकता।
हास्य एक—आयामी नहीं है; इसमें मनुष्य की आत्मा के तीनों आयाम हैं। जब तुम हंसते हो, तुम्हारा  . शरीर उसमें सम्मिलित होता है, तुम्हारा मन उसमें सम्मिलित होता है, तुम्हारी आत्मा उसमें सम्मिलित होती है। हास्य में भेद खो जाते हैं, विभाजन खो जाते हैं, खंडमना व्यक्तित्व खो जाता है। लेकिन यह उन लोगों के विपरीत पड़ता था जो मनुष्य का शोषण करना चाहते थे — राजे—महाराजे, पंडित—पुरोहित, चालबाज राजनीतिश। उनके समस्त प्रयास जैसे—तैसे मनुष्य को कमजोर व रुग्ण करने के थे : मनुष्य को दुखी बना दो और वह कभी विद्रोह नहीं करेगा।
मनुष्य का हास्य उससे छीन लेना उसका जीवन ही छीन लेना है। मनुष्य से हास्य का छीना जाना आध्यात्मिक बधियाकरण है।

क्‍या उसने स्वयं पृथ्वी पर हंसने का कोई कारण नहीं पाया 7 यदि ऐसा है तो उसने खोज बुरी तरह की। एक बच्चा भी कारण पा सकता है। वास्तव में, केवल बच्चे ही खिलखिलाते व हंसते पाये जाते हैं। और वयस्क लोग सोचते हैं कि क्योंकि वे अज्ञानी बच्चे हैं उन्हें क्षमा किया जा सकता है — अभी वे सभ्य नहीं हुए हैं, अभी वे आदिम ही हैं। मां—बाप का, समाज का, शिक्षकों का, पंडित—पुरोहितों का सारा प्रयास ही यही है कि कैसे उन्हें सभ्य बना देना, कैसे उन्हें गंभीर बना देना, कैसे उन्हें ऐसा बना देना कि वे गुलामों की तरह व्यवहार करें, स्वतंत्र व्यक्तियों की तरह नहीं।

सने — पर्याप्त रूप से प्रेम नहीं किया : अन्यथा उसने हमको भी प्रेम किया होता हंसनेवालों को। दरअसल, समाज में जो व्यक्ति दिल खोल कर हंसता है—एक समग्र हंसी—उसका सम्मान नहीं होता। तुम्हें गंभीर दिखना होगा; उससे पता चलता है कि तुम सभ्य हो और पागल नहीं हो। हंसना तो बच्चों का काम है और पागलों का, या फिर आदिम लोगों का।

च्चे हंस सकते हैं क्योंकि उन्हें किसी बात की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि उन्हें किसी बात की अपेक्षा नहीं है, उनकी आखों में एक स्पष्टता है चीजों को देखने की — और दुनिया इतने बेतुकेपन से इतनी हास्यास्पदताओं से भरी हुई है! केले के छिलकों पर फिसल कर इतना गिरना हो रहा है कि बच्चा उसे देखने से बच नहीं सकता! यह हमारी अपेक्षाएं हैं जो हमारी आखों पर परदे का काम करती हैं।
क्योंकि सारे धर्म जीवन के खिलाफ हैं, वे हंसी के पक्ष में नहीं हो सकते। हास्य तो जीवन और प्रेम का अनिवार्य अंग है। धर्म तो जीवन के, प्रेम के, हास्य के, हर्षोल्लास के खिलाफ हैं; वे उस सब कुछ के खिलाफ हैं जो जीवन को धन्यता और वरदान की एक विराट अनुभूति बना सकता है।
अपनी जीवन—विरोधी प्रवृत्ति के कारण, उन्होंने पूरी मानवता को नष्ट कर दिया है। उन्होंने उस सब को छीन लिया है जो मनुष्य के भीतर रसपूर्ण है; और उनके संत दूसरों द्वारा अनुसरण किये जाने के लिए उदाहरण बन गये हैं। उनके संत बस सूखी हड्डियां हैं — उपवास करते, स्वयं को तमाम—तमाम ढंगों से यातनाएं देते, अपने शरीर को यंत्रणा देने के लिए नये उपाय, नये ढंग खोजते। जितना ज्यादा वे स्वयं को सताते रहे हैं, उतने ही ऊंचे उनकी सम्माननीयता उठती रही है। उनको एक सीढ़ी मिल गयी है, एक उपाय और—और सम्माननीय होते जाने का : बस स्वयं को सताओ, और लोग शताब्दियों तक तुम्हारी पूजा करने और तुम्हें याद रखने वाले हैं।
आत्म—प्रताड़ना एक मनोवैज्ञानिक बीमारी है। पूजा करने के लिए उसमें कुछ भी नहीं है; वह एक धीमी आत्महत्या है। लेकिन हमने सदियों से इस धीमी आत्महत्या को सहारा दिया है, क्योंकि यह धारणा हमारे मन में कहीं गहरे बैठ गयी है कि शरीर और आत्मा दुश्मन हैं एक—दूसरे के। जितना ज्यादा तुम शरीर को सताते हो उतने ही ज्यादा आध्यात्मिक तुम हो। जितना ज्यादा तुम शरीर को सुख, मौज, प्रेम, हास्य की अनुमति देते हो, उतने ही कम आध्यात्मिक तुम हो। यह दो में विभाजन मूल कारण है कि क्यों मनुष्य से हास्य विदा हो गया है।
उसने — पर्याpt रूप से प्रेम नहीं किया : अन्यथा उसने हमको भी प्रेम किया होता हंसनेवालों को! लेकिन उसने घृणा की और हम पर ताने कसे उसने शाप दिया कि हम बिलखें और दांत किटकिटाए
मैंने मध्ययुगीन यूरोप के गिरजाघरों के चित्र देखे हैं... उपदेशक का काम था लोगों को नरकाग्नि से और उन यंत्रणाओं से जो वे वहां झेलेंगे बहुत ज्यादा डरा देना। उनके वर्णन इतने सजीव होते कि बहुत सी स्त्रिया गिरजाघरों में ही बेहोश हो जाया करतीं। ऐसा सोचा जाता था कि महानतम उपदेशक वह था जो सबसे ज्यादा लोगों को बेहोश बना सके — वह एक तरीका था पता करने का कि महानतम उपेदशक कौन ???
है।  समूचा धर्म एक सरल से मनोविज्ञान पर आधारित है : नर्क के नाम पर भय का विस्तार, और स्वर्ग के नाम पर लोभ का विस्तार। वे लोग जो पृथ्वी पर स्वयं का आनंद ले रहे हैं वे नर्क में पड़ने वाले हैं। स्वभावत: मनुष्य भयभीत हो उठता है — बस छोटे से सुखों के लिए केवल सत्तर वर्ष के जीवन के लिए उसे अनंत काल तक नरक भोगना पडेगा!

दि सचमुच कहीं नर्क और स्वर्ग हैं, तो स्वर्ग के बजाय नर्क कहीं ज्यादा स्वस्थ जगह होगी क्योंकि स्वर्ग में तुम सारे सूखी हड्डी वालों को पाओगे, कुरूप जंतु जो संत कहे जाते रहे हैं, स्वयं को सताते हुए। वह जाने योग्य जगह नहीं है। नर्क में तुम्हें सारे कवि मिलेंगे, सारे चित्रकार, सारे मूर्तिकार, सारे रहस्यदर्शी, सारे वे लोग जिनका संग — साथ वरदान सिद्ध होनेवाला है। तुम वहा सुकरात को पाओगे, तुम वहा गौतम बुद्ध को पाओगे — हिंदुओं ने उनको नर्क में फेंक दिया है, क्योंकि वह वेदों में विश्वास नहीं करते थे जिन पर सारा हिंदू धर्म आधारित है। तुम महावीर को पाओगे, क्योंकि वह हिंदू वर्ण—व्यवस्था में विश्वास नहीं करते थे; उन्होंने उसकी निंदा की। तुम बोधिधर्म, च्चाग्ब्ल लाओत्सु को पाओगे। तुम उन सारे महान लोगों को पाओगे जिन्होंने जीवन क्रो योगदान किया है — सारे महान वैज्ञानिक और कलाकार जिन्होंने इस पृथ्वी को थोड़ा और सुंदर किया है।
तुम्हारे संतों ने क्या योगदान किया है? वे सर्वाधिक निरर्थक लोग हैं, सर्वाधिक अनुर्वर। वे बस एक बोझ रहे हैं; और वे परजीवी रहे हैं, वे बेचारे मनुष्यों का खून चूसते रहे हैं। वे स्वयं को यातना दे रहे थे और दूसरों को सिखाते रहे अपने आप को यातना देना; वे मनोवैज्ञानिक रुग्णता फैला रहे थे।

से समस्त गैर— समझौतावादी मनुष्यों से बचो! वे दीन व रुग्ण प्रकार के हैं भीड़ वाले प्रकार के : वे इस जीवन को दुर्भावना से देखते हैं इस पृथ्वी के प्रति उनके पास कुदृष्टि है। ऐसे समस्त गैर— समझौतावादी मनुष्यों से बचो! उनके पैर बोझिल व हृदय उमसदार हैं — वे नहीं जानते कि नाचना कैसे। ऐसे मनुष्यों के लिए पृथ्वी हलकी कैसे हो सकती है!
जिस दिन मनुष्य हंसना भूल जाता है, जिस दिन मनुष्य हसी—खेलपूर्ण रहना भूल जाता है, जिस दिन मनुष्य नाचना भूल जाता है, वह मनुष्य नहीं रह जाता; वह अर्ध—मानवीय योनियों में गिर गया। खिलवाड़पना उसे हलका बनाता है; प्रेम उसे हलका बनाता है; हास्य उसे पंख देता है। हर्षोल्लास से नाचते हुए वह सुदूरतम सितारों को छू सकता है, वह जीवन के रहस्यों में ही प्रवेश पा सकता है। 
हास्य व नृत्य की बात  यह हंसी का ताज यह गुलाब— मालाओं का ताज : मैने स्वयं ही इस ताज को अपने सिर पर जमाया है,  मैंने स्वय ही अपने हास्य का संतधोषण किया है। मैंने आज उसके लिए किसी को मजबूत नहीं पाया है। समस्त रहस्यदर्शियों ने स्वयं को बहुत अकेला महसूस किया है — उनकी ऊंचाइयां उनको बहुत अकेला कर देती हैं। भीड़ तो नीचे घाटियों में अंधेरी गुफाओं में जीती है। वे अपनी गुफाओं से कभी बाहर नहीं आते।
नृत्यकार जरमुस्त्रु हलका जरथुस्त्र जो अपने पंखों से संकेत करता है उड़ान के लिए तैयार समस्त पक्षियों को संकेत करता तत्पर एवम् तैयार आनंदपूर्वक निर्भार— हृदय :
पैगंबर जरमुस्त्रु हंसता पैगंबर जरमुस्त्रु  अधैर्यवान न गैर— समझौतावादी मनुष्य वह जो कूद— फांद व नटखटपने से प्रेम करता है; मैने स्वयं ही इस ताज को अपने सिर पर जमाया है! तुम उच्चतर मनुष्यो तुम्हारे संबंध में सर्वाधिक बुरा है : तुममें से किसी ने भी नृत्य करना नहीं सीखा है जैसा कि मनुष्य को नृत्य करना चाहिए — स्वयं के पार तक नृत्य करना! इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम असफल होते हो!
किसी छुद्र बात में विजयी होने के बजाय किसी महान बात में असफल होना बेहतर है — कम से कम तुमने प्रयास किया! स्वयं का अतिक्रमण करने में असफलता भी महान विजय है। प्रयास मात्र ही, अभीप्सा मात्र ही तुम में एक रूपांतरण लाती है।
स्वयं के पार तक नृत्य करना — वही जरथुस्त्र की अनिवार्य शिक्षा है। वह स्वयं की घोषणा करते हैं.. हंसता पैगंबर के रूप में।
कितना कुछ अभी भी संभव है। तो स्वयं के पार तक हंसना सीखो! अपने हृदयों को उन्नत करो तुम उक्ष्ट नर्तको ऊंचे! और ऊंचे! और जी भरकर हंसना मत भूलो! यह हंसी का ताज यह गुलाब— मालाओं का ताज तुम तक मेरे बंधुओ मैं फेकता हूं यह ताजा मैने हास्य का संतघोषण (कैनेनाइजेशेन) कर दिया है; तुम उच्चतर मनुष्यो सीखो — हंसना।
' यह मेरी सुबह है मेरा दिन प्रारंभ होता है; उठो अभी, उठो, महा मध्याह्न वेला!'

... ऐसा जरथुस्त्र ने कहा और अपनी गुफा छोड़ दी प्रदीप्त और ओजस्वी जैसे सुबह का सूरज अंधेरे पर्वतों के पीछे से उभर रहा हो।

समाप्‍त

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