बुधवार, 14 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-43

मृत्‍यु के बाद भी मैं उपल्‍बध रहूंगा

      ओके.। मुझे हमेशा इत बात पर आश्‍चर्य हुआ है कि परमात्‍मा ने इस दुनिया को छह दिनों में कैसे बना दिया। ऐसी दुनिया, शायद इसीलिए अपने बेटे को जीसस कहा। अपने ही बेटे के लिए ये कैसा नाम चुना? उसने जो किया उसके लिए यह किसी दूसरे को सज़ा देना चाहता था। किंतु दूसरा कोई तो वहां था नहीं। होली घोस्‍ट तो सदा गैर-हाजिर रहता है। वह तो घोड़े की पीठ पर बैठा रहता है। इसीलिए मैंने चेतना को उसे खाली करने को कहा है। क्‍योंकि किसी घोड़े पर बैठना जिस पर पहले से ही कोई बैठा हो, ठीक नहीं है। मेरा मतलब है कि घोड़े के लिए ठीक नहीं है। और चेतना के लिए भी। जहां तक होली घोस्‍ट का सवाल है, मुझे इससे कोई मतलब नहीं है। मुझे होली घोस्‍ट से या अन्‍य प्रकार के भूतों से काई हमदर्दी नहीं है। मैं जीवित लोगों के साथ हूं।
      भूत तो मृत की छाया है और अगर वह होली या पावन है तो भी उसका क्‍या फायदा। और वह बदसूरत भी है। चेतना, मुझे होली घोस्‍ट की जरा भी चिंता नहीं थी। अगर तुम उस पर सवार हो जाओ तो मुझे कोई आपत्‍ति नहीं है। होली घोस्‍ट की सवारी करो, परंतु यह कुर्सी तो एक पूरे आदमी के लिए भी नहीं बनी है। यह बैठने के लिए बनी ही नहीं है। आधा आदमी ही बैठ सकता है। यह इस तरह बनी हुई है कि कोई इस पर बैठ कर सो न सके।
      जब उस कुर्सी पर कोई बैठ भी नहीं सकता तो सोएगा कैसे? यह कुर्सी इस छोटे से नोऑज-आर्क में भी रखी नहीं जा सकी, फिट ही नहीं हुई। नोऑज-आर्क इतना छोटा है कि खुद नोह को बाहर खड़े होना पडा। क्‍योंकि तुम सब प्राणि यों के लिए भी जगह रखनी थी।
      देव गीत, मैं क्‍या कह रहा था?
      होली घोस्‍ट सदा गैर-हाजिर रहता है। और इस समय वह घोड़े पर सवार बैठा है।
      (हंसी..sssss)
      हां, यह तो मुझे याद है। मुझे मालूम था कि तुम नोट नहीं लिख सके इसलिए  ध्यान रखो। किंतु मैं काम चला लुंगा। मैंने तो जीवन भी बिना कोई नोट लिखे काम चला लिया है।
      उस अंतिम दिन जवाहरलाल ने मुझसे जो पूछा वह सचमुच बहुत अजीब था। उन्‍होंने पूछा: तुम्‍हारे विचार में क्‍या राजनीतिक संसार में रहना ठीक है?
      मैंने कहा: नहीं, यह ठीक नहीं है, यह एक प्रकार का अभिशाप है। पिछले जन्‍म में आपने कोई खराब कर्म किया होगा इसीलिए आज आपको भारत का प्रधान मंत्रि बनना पडा।
      उन्‍होंने कहा: हां, तुम बिलकुल ठीक कहते हो। मैं इससे सहमत हूं।
      मस्‍तो को भरोसा ही न आया कि मैं प्रधानमंत्री को इस प्रकार से उत्‍तर दे सकता हूं। और भी अधिक आश्‍चर्य तब हुआ कि वे मुझसे सहमत भी हो गए है।
                मैंने कहा: इससे मेरे और मस्‍तो के बीच चल रही लंबी बहस आज खत्‍म होती है। और वह भी मेरे पक्ष में। मस्‍तो तुम इससे सहमत हो।
      उसने कहा: अब तो सहमत होना ही पड़ेगा।
      मैंने कहा: होना पड़ेगा, जैसे शब्‍द मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। इससे तो अच्‍छा है असहमत होना। कम से कम उस असहमति में कुछ जान तो होगी। ऐसा मरा हुआ चूहा मुझे मत दो। ऐ तो वह चूहा है, वह भी मरा हुआ। तुमने मुझे चील समझ रखा है?
                जवाहरलाल ने बारी-बारी से हम दोनों की और देखा।
      मैंने कहा: आपने निर्णय कर दिया, मैं आपका बहुत आभारी हूं। वर्षो से मस्‍तो इसी दुविधा में है, वह तय ही नहीं कर पाता था कि अच्‍छे आदमी को राजनीति में होना चाहिए कि नहीं?
                हम लोगों ने बहुत विषयों पर चर्चा की। उस घर में अर्थात प्रधानमंत्री के घर में शायद की कोई मीटिंग इतने समय तक चली हो। जब हमने बात समाप्‍त की, साढे नौ बज चुके थे। पूरे तीन घंटे। जवाहरलाल ने भी कहा कि यह मेरे जीवन की शायद सबसे लंबी मीटिंग रही और बहुत सफल और सार्थक भी।
      मैंने उनसे कहा: इससे आपको क्‍या मिला? आपको क्‍या लाभ हुआ?
                उन्‍होंने कहा: मुझे मिली एक ऐसे व्‍यक्‍ति की मित्रता जो इस दुनिया का नहीं है और न कभी होगा। मेरे लिए तो इस मित्रता की याद बहुत पावन रहेगी। और उनकी सुंदर आंखों से आंसू आ रहे थे।
      मैं जल्‍दी से बाहर चला गया ताकि उन्‍हें किसी प्रकार का संकोच न हो। किंतु वे मेरे पीछे-पीछे आए और उन्‍होंने कहा- इतनी तेजी से बाहर जाने की कोई जरूरत नहीं थी।
      मैंने कहा: आंसू तेजी से आ रहे थे। वे एक साथ हंसे और रोंए भी।
      ऐसा बहुत ही कम होता है—और सिर्फ या तो पागल आदमी ऐसा व्‍यवहार करता है या बहुत ही प्रतिभाशाली। वे पागल नहीं थे। वे अत्‍यंत प्रतिभाशाली थे।
      बाद में मस्तो और मैं प्राय: इस भेंट की चर्चा करते रहते थे। विशेषत: उनकी हंसी और उनके आंसुओं का एक साथ दिखाई देना क्‍यों? इसलिए कि सदा की भांति हम दोनों सहमत नहीं हो रहे थे। वह एक सामान्‍य बात हो गई थी। अगर मैं सहमत हो जाता तो उसे भरोसा ही नहीं आता। वह बहुत ही बड़ा झटका, शॉक होता। मैंने कहा: वे रोंए तो अपने लिए थे और हंसे थे मेरी स्वतंत्रता पर। और मस्‍तो का कहना था कि वे अपने लिए नहीं बल्‍कि तुम्‍हारे लिए रोंए। उन्‍हें यह दिखाई दे रहा था कि तुम एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण राजनीतिज्ञ शक्‍ति बन सकते है, और अपने इस विचार पर वे स्‍वयं ही हंस पड़े। मस्‍तो की व्याख्या यही थी। अब तो इसका फैसला नहीं हो सकता था परंतु सौभाग्‍य से संयोगवश जवाहरलाल ने ही हमारी इस बहस का निर्णय कर दिया। मस्‍तो ने ही मुझे बताया, तो कोई समस्‍या न थी।
      मस्‍तो ने हिमालय में गायब होने से पहले, मुझे सदा के लिए छोड़ कर जाने से पहले और मेरे पुनर्जीवित हो के लिए मेरे मरने से पहले मस्‍तो ने मुझे बताया कि जवाहरलाल तुम्‍हें बार-बार याद कर रहे थे। पिछली भेंट में उन्‍होंने मुझसे कहा था कि अगर उस विचित्र लड़के से तुम्‍हारी मुलाकात हो और अगर आप उसके शुभचिंतक है तो उसे राजनीति से दूर रखना। मैंने तो इस मूर्खों के साथ अपना जीवन बरबाद कर दिया। मैं नहीं चाहता कि यह लड़का इन निहायत बेवकूफ लोगों से वोट की मांग करे। अगर उसके जीवन में तुम कोई दिलचस्‍पी रखते हो तो राजनीति से उसे सुरक्षित रखना।
      मस्‍तो ने कहा: बस उनकी इस बात ने हमारी बहस का निर्णय तुम्‍हारे पक्ष में कर दिया। जब कि मैं तुमसे बहस कर रहा था। और मैं तुमसे सहमत नहीं था। फिर भी दिल से में तुम्‍हारे साथ था।
      इसके बाद जवाहरलाल कई वर्षो तक जीवित रहे किंतु मैं उनसे दुबारा नहीं मिला। परंतु जैसी उनकी इच्‍छा थी और जैसा निर्णय मैं ले चुका था—उनकी सलाह ने मेरे निर्णय की पुष्‍टि की—मैंने अपने जीवन में कभी किसी को वोट नहीं दिया और न मैं किसी राजनीतिज्ञ दल का सदस्‍य बना। स्‍वप्‍न में भी नहीं। सच तो यह है कि पिछले तीस वर्षों से मैंने स्‍वप्‍न ही नहीं देखा। मैं देख ही नहीं सकता हूं।
      मैं स्‍वप्‍न देखने का रिहर्सल कर सकता हूं ये थोड़ा अजीब लगेगा—स्‍वप्‍न की रिहर्सल परंतु वास्‍तव में सपना नहीं देख सकता। क्‍योंकि उसके लिए अचेतन मन की आवश्‍यकता है, और वह मेरे पास नहीं है। अगर तुम मुझे बेहोश भी कर दो तो भी मैं सपना नहीं देख सकूंगा। मुझे बेहोश करने के लिए किसी विशेष तकनीक की आवश्‍यकता नहीं होगी—मेरे सिर पर प्रहार करने से ही मैं बेहोश हो जाऊँगा। परंतु मैं इस प्रकार की बेहोशी की बात नहीं कर रहा हूं।
      बेहोशी से मेरा तात्‍पर्य यह है कि दिन के समय या रात के समय जब तुम अनेक प्रकार के काम करते हो तो बिना जाने ही उन्‍हें किए चले जाते हो—उसको करते समय तुम्‍हें ख्‍याल ही नहीं आता कि तुम क्‍या कर रहे हो—उसका होश नहीं रहता, उसका बोध नहीं रहता। एक बार होश आ जाए तो सपना देखना समाप्‍त हो जाता है। सपना देख ही नहीं सकते। दोनों एक साथ होना संभव नहीं है। इन दोनों का सह-अस्‍तित्‍व असंभव है। जब तुम सपना देखते हो तो बेहोशी में ही देखते हो। और अगर होश बना रहे, सजगता बनी रहे तो तुम सपना नहीं देख सकते। हां, सपना देखने का ढोंग कर सकते हो। ओर उसको सपना नहीं कहा जा सकता। यह तुम्‍हें भी मालूम है।
      में क्‍या कहा रहा हूं।
      तीस साल से आपने स्‍वप्‍न नहीं देखा है। हालांकि जवाहरलाल कई वर्षो तक जीवित रहे, परंतु मैं दुबारा उनसे कभी नहीं मिला।
      ठीक। उनसे दुबारा उनसे मिलने की जरूरत ही नहीं थी। हालांकि बहुत लोगों ने मुझसे कहा। लोगों को विभिन्‍न स्रोतों से पता चल गया—जवाहर लाल के घर से, उनके सैक्रेटरी से कि मैं उनको जानता था ओर वे मुझे बहुत प्रेम करते थे। इसलिए जब उन लोगो को अपना कोई काम कराना होता तो वे मेरे पास आते कि मैं उनकी सिफारिश कर दूँ।
      मैं कहता: क्‍या तुम पागल हो? मैं उनको बिलकुल नहीं जानता।
                वे कहते: लेकिन हमारे पास इसका प्रमाण है।
      मैंने कहा: आप अपने प्रमाण अपने पास ही रखिए। शायद सपने में हम दोनों मिले होंगे किंतु वास्‍तव में नहीं।
      उन्‍होंने कहा: हम तो पहले ही ये शक था कि तुम थोड़े पागल हो किंतु अब हमें पक्‍का विश्‍वास हो गया है।
      मैंने कहा: हां, बहुत अच्‍छा हो अगर तुम इस खबर को फैला दो और मेरे थोडे पागल होने की बात ही मत करना—मैं पूरा पागल हूं। इस खबर को फैलाने मैं कंजूसी मत करना।
मैं पूरा पागल हूं।   
      मुझे धन्‍यवाद दिए बगैर वे लोग चले गए परंतु मैं तो उन्‍हें धन्‍यवाद देना चाहता था। इसलिए मैने कहा: मैं आपको अच्‍छा धन्‍यवाद देता हूं। उन्‍होंने  एक-दूसरे से कहां: लो, देखो, यह हमें अच्‍छा धन्‍यवाद दे रहा है। पागल है पागल।
      मुझे पागल कहलाना अच्‍छा लगता था। अभी भी लगता है। जिस पागलपन को मैं जान गया हुं उससे अधिक सुदंर और कुछ नहीं हो सकता है।
      हिमालय जाने से पहले एक दिन मस्‍तो ने मुझसे कहा कि जवाहरलाल ने मुझे इस आदमी का नाम दिया है—घनश्याम दास बिरला। यह भारत में सबसे अमीर आदमी है। वह जवाहरलाल के परिवार के बहुत नजदीक है। किसी भी प्रकार की आवश्‍यकता होने पर उससे सहायता ली जा सकती है। और जब जवाहरलाल उसका पता मुझे दे रहे थे तो उन्‍होंने कहा कि यह लड़का मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया है। मैं भविष्‍यवाणी करता हूं कि एक दिन वह...ओर मस्‍तो चुप हो गया।
      मैंने कहा: क्‍या हुआ? वाक्‍य तो पूरा करो। मस्‍तो ने कहा: हां, अभी पूरा करता हूं। यह मौन भी उनका ही था। मैं तो उनकी नकल कर रहा हूं। तुम जो पूछ रहे हो वहीं मैंने उनसे पूछा था। तब जवाहरलाल ने वाक्‍य को पूरा किया। मस्‍तो ने कहा कि मैं तुम्‍हें बताता हूं कि कारण क्‍या था।
      जवाहरलाल ने का कि एक दिन वह बनेगा....ओर फिर चुप हो गए। शायद वे अपने भीतर शब्‍दों को नाप-तौल रहे थे या वे जो कहना चाहते थे वह स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा था। तब उन्‍होंने कहा: शायद वह एक दिन महात्‍मा गांधी बनेगा। इन शब्‍दों द्वारा जवाहरलाल मुझे सबसे बड़ा सम्मान दे रहे थे। महात्‍मा गांधी उनके गुरु थे और उन्‍होंने ही यह फैसला किया था कि जवाहरलाल नेहरू ही भारत के पहले प्रधानमंत्री बनेंगे। इसलिए यह स्वभाविक था कि महात्‍मा गांधी को जब गोली लगी तो जवाहरलाल रो पड़े। रोते हुए उन्‍होंने रेडियों पर कहा था। रोशनी बुझ गई, मैं और कुछ नहीं कहना चाहता। वे हमारी रोशनी थे, हमारे प्रकाश थे। अब हमें अंधेरे में रहना पड़ेगा।
      अगर उन्‍होंने मस्‍तो से यह बात थोड़ी झिझक के साथ कही, तो या तो वे सोच रहे थे कि क्‍या इस अनजाने लड़के की तुलना विश्‍वविख्‍यात महात्‍मा से की जा सकती है। या वे महात्‍मा के साथ अन्‍य प्रसिद्ध नामों के बारे में सोच रहे थे.....मेरा ख्‍याल है कि संभावना इसी की है, क्‍योंकि मस्‍तो ने उनसे कहा: अगर मैंने यह बात इस लड़के को बताई तो वह तुरंत कहेगा: गांधी, उनके जैसा तो मैं कभी नहीं बनना चाहता। महात्‍मा गांधी बनने के बजाए तो मैं नरक मैं जाना पसंद करूंगा। उसकी यही प्रतिक्रिया होगी। मैं उसे अच्‍छी तरह से जानता हूं। इस तुलना को वह सहज नहीं कह सकेगा। यह आपसे प्रेम करता है। किंतु इस नाम के कारण उसे प्रेम को नष्‍ट न करें।
      मैंने कहा मस्‍तो: यह तो ज्‍यादती है, उनसे यह सब कहने की कोई जरूरत न थी। वे वृद्ध हैं। और जहां ते मेरा प्रश्‍न है में जानता हूं कि उन्‍होंने मेरी तुलना अपनी समझ के अनुसार एक महानतम व्‍यक्‍ति से की है।
      मस्‍तो ने कहा: जरा रुको तो। जब मैंने यह कहा तो जवाहरलाल ने कहा: हां, मुझे यही शक था। इसीलिए मैं सोच में पड़ गया था कि कहूं या न कहूं। अच्‍छा, उसे यह मत बताना, इसे बदल दो। शायद वह गौतम बुद्ध बन जाए।
      भारत के महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है कि जवाहरलाल गुप्त ढंग से गौतम बुद्ध से बहुत प्रेम करते थे। गुप्‍त ढंग से क्‍यो? क्‍योंकि उन्‍हें कोई भी संगठित धर्म पसंद नहीं था। और वे परमात्‍मा में विश्‍वास नहीं करते थे। और जवाहरलाल भारत के प्रधान मंत्रि थे।
      मस्‍तो ने कहा: तब मैंने जवाहरलाल से कहा: क्षमा करना, आपने जो कहा वह ठीक ही है। किंतु सच तो यह है कि इस लड़के को कोई भी तुलना पसंद नहीं है। तब मस्‍तो ने मुझसे पूछा: क्‍या तुम्हें मालूम है कि जवाहरलाल ने क्‍या कहा। उन्होंने कहा: ऐसे ही व्‍यक्‍ति का में आदर करता हूं। ऐसा ही व्‍यक्ति मुझे प्रिय है। हर संभव ढंग से उसकी रक्षा करना, उसे सुरक्षित रखना ताकि राजनीति में वह फंस न जाए। उसे उस राजनीति से दूर रखना जिसने मुझे बरबाद कर दिया। मैं नहीं चाहता कि उसे भी इसी दुर्भाग्‍य का सामना करना पड़े।
      इसके बाद मस्‍तो गायब हो गया। मैं भी गायब हो गया। इसलिए शिकायत करने के लिए कोई नहीं बचा। परंतु स्‍मृति चेतना नहीं है। और स्‍मृति बिना चेतना के भी काम कर सकती है। शायद अघिक कुशलता से। आखिर कंप्‍यूटर क्‍या है। स्‍मृति की एक प्रणाली। अहं मर चुका है। अहं के पीछे जो है वह शाश्‍वत है। परंतु दिमाग को जो अंश है वह अस्‍थायी है और वह मर जाएगा।
      मृत्‍यु के बाद भी मैं अपने लोगों को उतना ही उपलब्‍ध रहूंगा जितना अभी हूं। परंतु यह उस पर निर्भर है। इसीलिए अब मैं धीरे-धीरे उनकी दुनिया से गायब हो रहा हूं ताकि अधिक से अधिक यह उनकी बात होती जाए।
     मैं तो शायद एक प्रतिशत ही हूं। और उनका प्रेम, उनकी श्रद्धा और उनका समर्पण निन्यानवे प्रतिशत है। किंतु जब मैं चला जाऊँगा तब इससे भी अधिक की आवश्‍यकता होगी—एक सौ प्रतिशत। तब मैं शायद और भी अधिक अपलब्‍ध रहूंगा उनके लिए जो ‘’अफॅर्ड’’ कर सकते है। जो अफॅर्ड कर सकते है। इसे बड़े मोटे अक्षरों में लिखों। क्‍योंकि अधिकतम धनी वही है जो प्रेम और श्रद्धा में शत-प्रतिशत समर्पण अफॅर्ड कर सकता है।
     और मेरे पास ऐसे लोग है। इसलिए मृत्‍यु के बाद भी में उनको निराश नहीं करना चाहता। मैं चाहता हूं कि इस पृथ्‍वी पर वे सर्वाधिक परिपूर्ण लोग हों। मैं यहां पर रहूँ या न रहूँ, मैं बहुत आनंदित होऊंगा। मुझे बहुत खुशी होगी।
--ओशो
    

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