बुधवार, 14 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-50

 निकलंक-- दीवाना था मेेेेरा 

      यह अच्‍छा है कि मैं देख नहीं सकता.....पर मुझे पता है कि क्‍या हो रहा है। पर मैं क्‍या कर सकता हूं—तुम्‍हें तुम्‍हारी टेकनालॉजी के हिसाब से चलना होगा। और मेरे जैसे आदमी के साथ स्‍वभावत: तूम बड़ी मुश्‍किल में हो। मैं बंधा हूं और तुम्‍हारी कोई मदद नहीं कर सकता।
      आशु, क्‍या तुम कुछ कर सकती हो? तुम्‍हारी थोड़ी सी हंसी उसे शांत रखने में मदद करेगी। वह बहुत अजीब बात है कि जब कोई और हंसने लगता है तो पहला आदमी रूक जाता है। उनको नहीं, पर मुझे कारण साफ है। जो हंस रहा होता है वह तुरंत सोचता है कि वह कुछ गलत कर रहा है। और तुरंत गंभीर हो जाता है।
      जब तुम देखो कि देव गीत रास्‍ते से थोड़ भटक रहा है तो हंसों, हरा दो उसे। वह नारी मुक्‍ति का सवाल है। और अगर तुम अच्‍छी हंसी हंसों तो वह तुरंत अपने नोट लेना शुरू कर देगा। तुमने अभी शुरू भी नहीं किया और वह अपने होश में आ गया।
      कल मैं तुमसे कहा रहा था कि मैं उस रात पेड़ से कुदा, उस बेचारे मास्‍टर को चोट पहुंचाने नहीं बल्‍कि उसे यह बताने के लिए कि किस तरह का विद्यार्थी उसे मिला है। किंतु यह बात काफी आगे बढ़ गई। यहां तक कि मुझे भी आश्‍चर्य हुआ जब मैंने उसे इतना घबड़ाया हुआ देखा। वह सिर्फ डर ही नहीं गया। वह आदमी गायब हो गया।
      एक क्षण के लिए तो मुझे भी लगा कि अब इसे रोक देना चाहिए, सोचा कि वह बूढा आदमी है। शायद मर जाए या कुछ हो जाए,शायद पागल हो जाए या कभी अपने घर ही वापस न आए। क्‍योंकि उस गली के अलावा उसके घर जाने का कोई और रास्‍ता ही न था। तो उसे उस पेड़ के नीचे से ही जाना पड़ता। पर अब बहुत देर हो चुकी थी। वह अपनी पेंट वहीं छोड़ कर भाग गया था।
      मैंने उस पतलून को उठाया और नानी के पास जाकर कहा: यह रही उसकी पेंट, और आप सोचती थीं कि वह मुझे पढ़ाएगा। यह रही उसकी पेंट।
      उन्‍होंने कहा: क्‍या हुआ?
      मैंने कहा: सब कुछ हो गया। वह आदमी नंगा ही भाग गया और मुझे नहीं पता कि अब वह अपने घर कैसे जाएगा। और मैं जल्‍दी में हूं—आपको बाद में सारी बात बताऊंगा। आप पेंट को रख लीजिए। अगर वह यहां आए तो उसे दे देना।
      किंतु आश्‍चर्य तो यह कि वह कभी भी हमारे घर पतलून लेने नहीं आया। मैंने उसे कील से उस नीम के पेड़ से ठोंक कर लटका दिया। कि अगर वह उसे ले जाना चाहे तो उसे मुझसे न पूछना पड़े। पर उस नीम के पेड़ से पेंट ले जाने का मतलब तो यह था कि उस भूत को मुक्‍त करना जो उसने सोचा कि उसके ऊपर कुदा था।
      हजारों लोग जो वहां पेड़ के पास से गूजरें थे उन्‍होंने उस पेंट को देख होगा। लोग वहां एक प्रकार की साइकोएनलिसिस, एन एफलेक्‍टिव—तुम उसे क्‍या कहते हो देवराज? प्‍लसबो।   
      प्‍लेसी-बो, ओशो।    
      प्‍लेासबा।
      ठीक है, पर मैं इसे प्‍लास-बो ही कहूंगा। तुम अपनी किताब में ठीक कर लेना। प्‍लासी-बो सही है। पर मैंने तो सारा जीवन इसे प्‍लास-बो ही कहा है। और अच्‍छा है कि मैं अपनी तरह ही रहूँ—गलत हो या सही। कम से कम तुम्‍हारा अपना तो है। इसके बारे में देवराज सही हो और में गलत ही होऊंगा, पर मैं इसे प्‍लास-बो कहने में सही हूं—उसका नाम नहीं, पर जो व्‍यवहार मैंने किया उसमें एक स्‍वाद देने के लिए।
      सही या गलत कभी भी मेरे लिए कोई महत्‍व का नहीं रहा है। जिसे मैं पसंद करता हूं वह सही—और मैं नहीं कहता कि वह सबके लिए सही है। मैं कोई हठी नहीं हूं। मैं तो सिर्फ पागल आदमी हूं। ज्‍यादा से ज्‍यादा...उससे ज्‍यादा मैं कुछ और नहीं कहता।
      मैं क्‍या कह रहा था?
      आप कह रहे थे कि लोग उस पेड़ के पास एक तरह की साइकोएनलिसिस के लिए आते थे।
      शायद ये प्लसबो है। अजीब बात है पर यह काम करती है। सही या गलत, इससे फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो परिणाम की फिक्र है। परिणाम कैसे,किससे आता है वह गौण है। मैं व्‍यावहारिक व्‍यक्‍ति हूं।
      मैंने अपनी नानी से कहा कि चिंता मत करो। मैं यह पेंट अब नीम के पेड़ पर लटका दूँगा। और आप पक्‍का समझ लीजिए कि इसका प्रभाव होगा।
      उन्‍होंने कहा: मैं तुम्‍हें और तुम्‍हारे तरीकों को जानती हूं। अब सारे गांव को पता चल जाएगा कि यह पेंट किसकी है। अगर वह आदमी अपनी पेंट लेने इधर आता भी तो नहीं आएगा। यह पतलून वह आदमी खास दिनों पर पहनता था तो वे फैमस थीं।
      उस पर आदमी का क्‍या हुआ? मैंने उसे सारे गांव में खोजा, पर स्‍वभावत: वह मिलने वाला नथा। क्‍योंकि वह नंगा था। तो मैंने सोचा कि थोड़ा रुकते है शायद रात देर से वह वापस आ जाए। शायद वह नदी के दूसरी तरफ चला गया हो क्‍योंकि वहीं सबसे करीब जगह थी जहां कोई और तुम्‍हें देखेगा नहीं। वह पर आदमी कभी वापस नहीं आया। इस तरह मेरा निजी शिक्षक गायब हो गया। मैं अभी सोचता हूं कि बिना उसकी पेंट के उसका क्‍या हुआ होगा। मुझे उसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं है, लेकिन उसने बिना पेंट के कैसे सब किया होगा? और वह बिना पेंट के शरीर तो मिलता। और अगर वह मर भी गया था तो भी उसे देखता वह हंसता जरूर, क्‍योंकि उसकी पेंट प्रसिद्ध थी। यहां तक कि उसे ‘’मिस्‍टर पेंट स’’ भी कहा जाता था। मुझे तो उसका नाम भी याद नहीं है। और उसके पास बहुत सारी पेंट थी। उस गांव में यह कहानी प्रचलित थी कि उसके पास तीन सौ पैंसठ पेंट है। हर रोज के लिए एक-एक। मुझे नहीं लगता कि यह सच है। सिर्फ गप्‍प होगी। पर उसका हुआ क्‍या?
      मैंने उनके परिवार से पूछा: उन्‍होंने कहा: हम इंतजार कर रहे है। पर उस रात के बाद से हमने भी उन्‍हें देखा नहीं।
      मैंने कहां: अजीब बात है....मैंने अपनी नानी से कहा: उसके इस तरह से गायब होने से मुझे कभी-कभी शक होता है कि  भूत होते है.....क्‍योंकि मैं तो सिर्फ उसका भूतों से परिचय करवा रहा था। और यह अच्‍छा है कि उसकी पेंट पेड़  से लटका है।     
      मेरे पिता बहुत नाराज हुए कि मैं इतनी गंदी बेहूदा हरकत कर सकता हूं। मैंने उन्‍हें इतना नाराज कभी नहीं देखा था।      
      मैंने कहा: लेकिन मैंने ऐसा प्‍लान नहीं किया था। मैंने सोचा भी न था कि वह आदमी इस तरह वाष्‍पीभूत हो जाएगा। यह तो मेरे लिए भी थोड़ी ज्‍यादा हो गया। मैंने तो एक साधारण सी बात की थी। पेड़ पर ढोल लेकर बैठ गया था, जोर से ढोल बजाया ताकि उसका ध्‍यान उस तरफ आ जाए कि क्‍या हो रहा है और दुनिया की सारी बात भूल जाए। और मैं कूद पडा।
      और यह तो मेरी रोज की बात थी। मैंने बहुत लोगों को भगाया था। मेरी नानी कहती थी, शायद पूरे गांव में यह अकेली गली है जहां रात को कोई और आता-जाता नहीं है। सिवाय तुम्‍हारे।
      अभी उस दिन कोई मुझे कार-स्‍टिकर दिखा रहा था। बहुत सुंदर स्‍टिकर था, लिखा था ‘’यह रास्‍ता मेरा है, मुझ पर भरोसा करो।‘’ उस स्‍टिकर को पढ़ते समय मुझे अपनी उस गली की याद आई जो हमारे घर के पास से गुजरती थी। कम से कम रात को वह रास्‍ता सिर्फ मेरा ही था। दिन के समय वह सरकारी रास्‍ता था किंतु रात को सिर्फ मेरा अपना रास्‍ता था। आज भी मैं सोचता हुं कि कोई भी रास्‍ता उतना शांत हो सकता है जितना वह रास्‍ता रात के समय होता था।
      किंतु मेरे पिता इतने गुस्‍से में थे कि उन्‍होने कहा: कुछ भी हो जाए मैं इस नीम के पेड़ को काटवा कर रहूंगा और यह सब धंधा जो तुमने चला रखा है मैं खत्‍म कर दूँगा।    
      मैंने कहा: कौन सा धंधा? मैं कीलों की चिंता मैं था क्‍योंकि वहीं मेरी एक मात्र कमाई थी। उन्‍हें उस बता का कुछ पता नहीं था।
      उन्‍होंने कहा: यह गंदा धंधा जो तुमने चला रखा है, लोगों को डराने का...ओर अब उस आदमी का सारा परिवार लगातार मुझे परेशान करता है। हर रोज कोई न कोई  आकर मुझे कहता है कि कुछ करो। मैं क्‍या कर सकता हूं।
      मैंने कहा: मैं कम से कम आपको पेंट दे सकता हूं। सिर्फ वहीं रह गई है। और जहां तक पेड़ का सवाल है, मैं आपसे कहता हूं कि उसे कोई भी काटने को तैयार न होगा।
      उन्होनें कहा: तुम्‍हें उसकी चिंता करने कि जरूरत नहीं है।
      मैंने कहा: मैं चिंता नहीं कर रहा। मैं तो आपको सचेत कर रहा हूं ताकि आप समय बरबाद न करे।
      और तीन दिन के बाद उन्‍होंने मुझे बुलाया और कहा: तुम भी गजब के हो। तुमने मुझसे कहा कि उसे कोई भी काटने को तैयार नहीं होगा। अजीब बात है, मैंने उन सब लोगों से पूछ लिया जो उसे काट सकते थे, ज्‍यादा लोग इस गांव में है भी नहीं केवल थोडे से पेड़ काटने वाले है—लेकिन कोई काटने को तैयार नहीं है। उन सभी ने कहा, नहीं। भूतों का क्‍या करेंगे।
      मैंने उनसे कहा: मैंने आपको पहले ही कहा था, मैं तो इस शहर में किसी को नहीं जानता जो इस पेड़ को छुएगा भी, अगर मैं ही इसे काटने का तय कर लू तो बात अलग है। लेकिन अगर आप चाहते है तो मैं किसी को खोज  सकता हूं। लेकिन आपको मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा।  
      उन्‍होंने कहा: मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता। कभी किसी को पता ही नहीं चलता कि तुम क्‍या पलान कर रहे हो। तुम मुझसे कहोगे कि पेड़ काटने वाले हो पर कुछ और ही कर ड़ालोगे। नहीं मैं तुमसे यह कहने के लिए नहीं कह सकता।
      वह पेड़ बिना कटे रह गया, कोई काटने को तैयार ही न था। मैं बेचारे अपने पिता को परेशान करता था, दद्दा पेड़ का क्‍या हुआ? वह अभी तक वहीं खड़ा है—मैंने आज सुबह ही उसे देखा। आपको अभी तक कोई लकड़ी काटने वाला नहीं मिला।
       और वे चारों और देखते कि कोई सुन तो नहीं रहा है। फिर मुझसे कहते: क्‍या तुम मुझे अकेला नहीं छोड़ सकते?
      मैंने कहा: मैं कभी-कभार ही तो आपके पास आता हूं सिर्फ उस पेड़ के बारे में पूछने। आप कहते है कि आपको उसे काटने के लिए कोई नहीं मिलता। मुझे पता है कि आप लोगों से पूछते रहते हैं और मुझे पता है कि वह सब मना करते है। मैं तो उनसे पूछता रहा हूं।
      उन्‍होंने कहा: किस लिए।
      मैंने कहा: नहीं, पेड़ काटने के लिए नहीं, सिर्फ उनको बताने के लिए कि पेड़ में क्‍या है—भूत है। मुझे नहीं लगता कि उसे काटने के लिए कोई तैयार होगा जब तक कि आप मुझसे यह करने को न कहेंगे। और निश्‍चित ही वे ऐसा करने में झिझक रहे थे। तो मैंने कहा: ठीक है, फिर वह पेड़ नहीं कटे गा।
      और वह पेड़ तब तक नहीं कटा जब तक मैं गांव में था। जब मैंने वह गांव छोड़ा तो मेरे पिता ने किसी दूसरे गांव से एक मुसलमान लकड़ी काटने वाले को किसी तरह बुला कर वह पेड़ कटवाया। पर एक अजीब बात हुई, पेड़ तो कट गया,पर वह फिर से उगने लगा, और उसे पूरी तरह से हटाने के लिए उन्‍होनें वहां पर एक कुआं खुदवाया। किंतु वे अनावश्‍यक परेशान हुए, क्‍योंकि उस पेड़ की जड़ें इतनी नीचे तक चली गई थी और उन्‍होंने पानी को भी इतना कड़वा कर दिया था जितना कि तुम सोच भी नहीं सकते। उस कुएं का पानी को कोई तैयार नहीं हुआ।
      फिर जब मैं घर वापस आया तो मैंने अपने पिता को कहा: आपने कभी मेरी बात नहीं मानी। आपने एक सुंदर वृक्ष को नष्‍ट कर दिया। और यह गंदा गड्ढा करवा दिया। और अब इसका क्‍या उपयोग है। आपने कुआं बनवाने में पैसे खराब किए और अब आप उसका पानी भी नहीं पी सकते।
      उनहोंने कहा: शायद कभी-कभी तुम सही होते हो। मुझे यह समझ आ गया, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता।
      उन्‍होंने वह कुआं ढंक देना पडा। अभी भी वह कुआँ वहां पर ढंका हुआ है। अगर तुम कुछ पत्‍थर हटाओगे, सिर्फ ऊपर से डाला गया मलबा, तो तुम कुआं पाओगें। अब तक तो पानी बिलकुल कड़वा हो गया होगा।    
      मैं तुम्‍हें यह कहानी क्‍यो बताना चाहता था?—उस निजी अध्‍यापक की वजह से। उसका पहला दिन और उसने मुझे प्रभावित करने के लिए कि वह बहुत ही निर्भय और हिम्मत वर व्‍यक्‍ति है और भूतों में उसे विश्‍वास नहीं है।
      मैने कहा: सच मैं। आप भूतों में भरोसा नहीं करते।
      उसने कहा: निश्‍चित ही, मैं भरोसा नहीं करता। मैं देख सकता था कि यह कहते हुए भी वह डर रहा था।
      मैंने कहा: भरोसा करते हो या नहीं, पर आज रात मैं तुम्‍हारा भूतों से परिचय करवाऊंगा। मैंने कभी न सोचा था कि सिर्फ परिचय से ही वह व्‍यक्‍ति गायब हो जाएगा। क्‍या हुआ उसका। जब भी में गांव गया तो हमेशा उसके घर जाता पता करने कि वह घर आ गया या नहीं।
      वे कहते: तुम क्‍यों इसमें दिलचस्‍पी रखते हो। हम तो अब इस बात को भूल ही गए है कि वह वापस आएगा।
      मैंने कहा: मैं नहीं भूल सकता। क्‍योंकि मैंने जो देखा उसमे ऐसा सौंदर्य था, और मैं तो उसका सिर्फ किसी से परिचय करवा रहा था।
      उन्‍होंने कहा: किससे।
      मैंने कहा: था कोई—और मैं अभी परिचय पूरा भी नहीं करवा पाया था,और मैंने उसके बेटे से कहा, तुम्‍हारे पिता ने जो किया वह बिलकुल ही भद्र नहीं था। वे अपनी पेंट छोड़कर भाग गये।
      उनकी पत्‍नी जो कि कुछ पका रही थी, हंसी और बोली, मैं हमेशा यही कहती थी कि अपनी पतलून को जोर से बाँध कर और पकड़ कर रख करो, लेकिन वे सुनते ही न थे। अब  उनकी पतलून चली गई और वे भी।
      मैंने कहा: आप उनको अपनी पतलून को जोर से पकड़ कर रखने को क्‍यों कहती थी।
      उन्होने कहा: तुम नहीं समझोगे। बात साफ है। ये सारे पतलून उन्‍होंने तब बनवाए थे। जब वे जवान थे,और अब ये सब ढीले हो गए थे, क्‍योंकि उनका वज़न कम हो गया था। तो हमेशा डर रहता था कि एक न एक दिन उनकी पतलून नीचे गीर जाएगी और शर्म की स्‍थिती पैदा हाँ जाएगी।
      तब मुझे याद आया कि वह हमेशा अपने हाथ पतलून की जेब में रखते थे। पर स्‍वभावत: जब तुम भूतों से मिलते हो तो तुम याद नहीं रख सकते कि अपने हाथ जेब में रखना है और पतलून को जोर से पकड़ कर रखना है। कौन ऐसे मैं पतलून की फ़िकर करता है। जब इतने सारे भूत तुम पर कूद रहे हो।
      उन्‍होंने भागने से पहले एक और चीज की....मुझे नहीं पता कि वे कहां गए। इस दुनिया में ऐसी बहुत सी बातें है जिनको कोई अत्‍तर नहीं है। और यह उन्‍हीं में गिनी जा सकती है। मुझे मालूम कि क्‍यों पर भागने से पहले उसने अपनी लालटेन को बुझा दिया था। उस  अध्‍यापक के बारे में यह भी प्रश्‍न था जो बिना अत्‍तर के रह गया। एक तरह से वह महान आदमी था। मैंने कई बाद सोचा कि उसने लालटेन को बुझा क्‍यों दिया था। फिर एक दिन एक छोटी सी घटना से इस सवाल का उत्‍तर मिल गया। मेरा मतलब यह नहीं कि आदमी वापस आ गया, नहीं, पर दूसरे प्रश्न का उत्‍तर मिल गया।
      उसका बच्‍चा बाथरूम में तब तक नहीं जाता था जब तक की उसकी मां दरवाजे पर खड़ी न होती। और अगर रात को समय होता ते स्‍वभावत: उसको लैंप रखना पड़ता। मैं उनके घर गया था। और दिन के समय मैंने मां को अपने बच्‍चे को कहते सुना, तुम खुद लैंप लेकर नहीं जा सकते। 
      उसने कहा: ठीक है, मैं लैंप ले जाता हूं। मुझे जाना है। मैं और नहीं रूक सकता।
      मैंने कहा: दिन के समय में लैंप का उपयोग क्‍यों करना। मैंने डायोजनीज की कहानी सुनी है, क्‍या यह दूसरा डायोजनीज है। लैंप क्‍यों ले जाना।
      मां हंसी और उसने कहा: उसी से पूछ लो।
      मैंने कहा: राजू तुम दिन के समय क्‍यों लैंप ले जाना चाहते हो।
      उसने कहा: दिन हो रात इससे क्‍या फर्क पड़ता है। भूत तो सभी जगह होते हे। अगर लैंप पास में हो तो इस बात से बचा जा सकता है। कि कही अंजाने में उससे टकरा न जाएं।
      उस दिन मुझे समझ आया कि उस अध्‍यापक ने उस दिन भागने से पहले लैंप क्‍यों बुझा दिया था।   शायद उसने सोचा होगा अगर लैंप को जलाए रखा तो भूत उसे खोज लेगा। लेकिन यदि उसे बुझा दिया—और यह सिर्फ मेरा तर्क है—यदि उसे बुझा दिया, तो कम से कम वक उसे देख नहीं पाएंगे और वह उन्‍हें धोखा देकर भाग जाएगा।
      परंतु उसने सच ही गजब का काम किया। सच बताऊ तो ऐसा लगता है कि वह सदा से ही अपनी पत्‍नी से भागना चाहता था। और यह अंतिम मौका मिल गया जिसका उसने पूरी तरह से उपयोग किया। यह व्‍यक्‍ति इस तरह के अंत पर न आता अगर उसने अभय, निर्भीकता से शुरूआत न कि होती और अगर ऐसा न किया होता तो मैं भूतों से नहीं डरता।
      लेकिन मैंने कहा: मैं आपसे नहीं पूछ रहा। और उसकी पतलून कंप रही थी जब उसने भूत शब्‍द कहा।
      मैंने कहा: सर, आपका पेंट बहुत अजीब है। मैंने कभी भी कुछ भी ऐसा कंपते हुए नहीं देखा। पेंट कितनी जीवंत दिख रही है।
      उसने नीचे अपनी पेंट को देखा—मैं अभी भी उसे देख सकता हूं—और उसके पैर बुरी तरह कांप रहे थे।
      सच तो यह है कि मेरे प्राइमरी स्‍कूल के दिन पूरे हो गए। निश्‍चित ही हजारों और चीजें घटीं जिनके बारे में बातें नहीं की जा सकतीं.....ऐसा नहीं कि उनका कोई मूल्य नहीं है—जीवन ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका कोई मूल्‍य न हो—पर सिर्फ इसलिए कि समय नहीं है। इसलिए सिर्फ कुछ उदाहरण से ही काम चलेगा।
      प्राइमरी स्‍कूल तो सिर्फ मिडिल स्‍कूल की शुरूआत थी। मैने मिडिल स्‍कूल में प्रवेश किया, और पहली बात जो मुझे याद है—तुम मुझे जानते हो, मैं अजीब चीजें देखता हूं...
      मेरी सैक्रेटरी सभी तरह के अजीब-अजीब कार-स्टिकर इकट्ठे करती है। उनमें से एक है—सावधान, मैं भ्रमों के लिए ब्रेक लगाता हुं। मुझे पसंद आया,बहुत अच्‍छा लगा।
      पहली बात जो मुझे याद है वह आदमी....सौभाग्‍य से या दुर्भाग्‍य से, क्‍योंकि यह जानना कठिन है, कि सौभाग्‍य या दु भाग्य—लेकिन पागल था। मेरी तरह पागल भी न था। वह सच में ही पागल था। गांव में वह झक्‍की मास्‍टर की तरह जाना जाता था। झक्‍की का अर्थ होता है, जो पागल, कुक्‍कू या क्रेज़ी कर होता है। यह मेरे मिडिल स्‍कूल में पहले अध्‍यापक थे। शायद इसीलिए कि वह सच में पागल थे, हम तुरंत दोस्‍त बन गए।
      मेरी अध्‍यापकों के साथ दोस्‍ती होना दुर्लभ ही था। थोड़ी सी ऐसा जातियां है जैसे राजनीतिज्ञ, पत्रकार, और शिक्षक,जिन्‍हें मैं पसंद नहीं करता। हालांकि मैं उन्‍हें भी पसंद करना पसंद करूंगा। जीसस कहते है: अपने दुश्‍मन को प्रेम करो। ठीक है, पर वे कभी स्‍कूल नहीं गए,तो उन्‍हें शिक्षकों के बारे में पता नहीं है। इतना तो पक्‍का है, अन्‍यथा उन्‍होंने कहा होता: अपने शिक्षकों को छोड़कर दुश्‍मनों को प्रेम करो।
      निशिचत ही वहां कोई पत्रकार या राजनीतिज्ञ या ऐसे कोई लोग न थे जिनका सारा काम सिर्फ लोगों का खून चूसना हो। जीसस दुश्‍मनों की बात कर रहे थे—पर मित्रों के बारे में क्‍या? उन्‍होंने कभी नहीं कहा कि अपने मित्रों को प्रेम करो....क्‍योंकि मुझे नहीं लगता कि एक दुश्‍मन कुछ ज्‍यादा नुकसान पहुंचा सकता है, असली नुकसान तो मित्र ही पहुँचाता है।
      मैं पत्रकारों से घृणा करता हूं और जब मैं घृणा करता हूं तो फिर इसका कुछ और अर्थ नहीं है। मैं शिक्षकों से घृणा करता हूं। मैं दुनिया मे शिक्षक नहीं चाहता। पुराने अर्थों में शिक्षक नहीं। शायद किसी अलग तरह के बुजुर्ग मित्रों को खोजना होगा।     
      पर यह व्‍यक्‍ति जो पागल आदमी की तरह जाना जाता था। तुरंत मेरा मित्र बन गया। उनका पूरा नाम राजाराम था। पर वे राजू झक्‍की की तरह जाने जाते थे। राजू पागल। मैंने सोचा ही था कि वह वैसे ही होंगे जैसे जाने जाते थे।
      जब मैने उन्‍हें देखा—तुम्‍हें भरोसा ही न आएगा, पर उस दिन पहली बार मैंने जाना कि पागल दुनिया मे स्वस्थ चित होना ठीक नहीं है। उनको देख कर एक क्षण के लिए ऐसा लगा जैसे समय रूक गया है। कितना समय बीता कहना मुश्किल है पर उन्होंने मेरा नाम,पता वगैरह रजिस्‍टर में भरना था तो उन्‍हें ये प्रश्‍न पूछे।
      मैंने कहा: क्‍या हम मौन नहीं रह सकते।
      उन्‍होंने कहा: मैं तुम्‍हारे साथ मौन रहना पसंद करूंगा पर हमें यह गंदा काम पहले खत्‍म कर देना चाहिए फिर हम शांत मौन बैठ सकेंगे।    
      जिस तरह उन्‍होंने कहा—हमें यह गंदा काम खत्‍म कर देना चाहिए...मुझे समझने के लिए काफी था कि कम से कम ये व्यक्ति जानता है कि क्‍या काम गंदा है: ब्‍यूरोक्रेसी,दफतरशाही और अंतहीन लाल-फीता शाही। उन्‍होंने जल्‍दी से काम खत्‍म किया, रजिस्‍टर बंद किया और कहा ठीक है, अब हम मौन बैठ सकते है। क्‍या मैं तुम्‍हारा हाथ आपने हाथ में ले सकता हूं।
      एक शिक्षक से मुझे ऐसी उम्‍मीद न थी। मैंने कहा: तो लोग जो कहते है वह सही है कि आप पागल है—या शायद मैं जो अनुभव कर रहा हूं वह सही है कि आप अकेले ऐ स्वस्थ चित शिक्षक है पूरे गांव में।
      उन्‍होंने कहा: पागल होना ही अच्‍छा है, यह बहुत तरह के उपद्रव से बचाता है।
      हम हंसे और मित्र बन गए। तीस साल तक लगातार जब तक कि उनकी मृत्‍यु न हो गई मैं उनके पास सिर्फ बैठने के लिए जाता था। उनकी पत्‍नी कहती थी, मैं सोचती थी कि सिर्फ मेरे पति ही इस गांव में एक पागल आदमी है। पर यह सही नहीं है। तुम भी पागल हो। उनहोंने कहा: मुझे आश्‍चर्य होता है कि तुम क्‍यों इस पागल व्‍यक्‍ति से मिलने आते हो। और वे हर पहलू से पागल थे।
      उदाहरण के लिए, वे स्‍कूल घोड़े पर बैठ कर आते थे। यह कोई बुरी बात न थी। उस इलाके में, लेकिन उलटे पीछे की तरफ मुंह करके बैठते थे। उनके बारे में यह बात मुझे बहुत पसंद थी। घोड़े पर ऐसे बैठना जैसे कोई और नहीं बैठता—पीछे की तरफ मुंह करके बैठना एक अजीब अनुभव है। बाद में मैंने मुल्‍ला नसरू दीन की कहानी बताई कि वह कैसे अपने गधे पर पीछे की तरफ मुंह करके बैठता था। जब उसके विद्यार्थी गांव से बाहर जाते तो स्‍वभावत: उन्‍हें शर्म आती। फिर एक विद्यार्थी ने पूछा कि मुल्‍ला, सभी गधे पर बैठते है, उसमें कोई बुराई नहीं है। आप गधे पर बैठ सकते है पर पीछे की तरफ मुंह करके...., गधा एक तरफ  जा रहा है ओर आप उलटी पीछे की दिशा में देख रहे है। लोग हंसते है और कहते है कि देखो पागल मुल्‍ला को देखो। और हमें शर्म आती है। क्‍योंकि हम आपके विद्यार्थी है।
      मुल्‍ला ने कहा: मैं तुम्‍हें समझाता हूं। मैं तुम्‍हारी और पीठ करके नहीं बैठ सकता,वह तुम्‍हारा अपमान होगा। मैं अपने ही विद्यार्थी का अपमान नहीं कर सकता। तो वह तो सवाल ही नहीं उठता वैसे बैठने का। दूसरे रास्‍ते खोजें जा सकते है। तुम सब गधे के आगे भी उलटे चल सकते हो मेरी और देखते हुए, पर यह बहुत ही मुश्‍किल होगा। और तुम्‍हें और भी ज्‍यादा शर्म आएगी। निशचित ही तब तुम्‍हारा मुंह मेरी तरफ होगा और तब अपमान का सवाल ही नहीं उठता। पर तुम्‍हारे लिए पीछे की तरफ चलना बहुत कठिन होगा और हम सभी लंबी यात्रा पर जा रहे है। तो सिर्फ एक ही स्‍वाभाविक और आसान उपाय यही है कि मैं गधे पर उलटा,पीछे की तरफ मुंह करके बैठूं। गधे को कोई तकलीफ नहीं है। कि मैं गधे देख रहा। वह वहां देख सकता है जहां हम जा रहे है और निशिचत स्‍थान पर पहुंच जाएगा। मैं तुम्‍हारा अपमान नहीं करना चाहता। इसलिए सर्वोंतम उपास यही है कि मैं गधे पर पीछे की तरफ मुंह करके बैठूं।
      यह अजीब बात है पर लाओत्से भी अपने भैंसे पर पीछे की तरफ मुंह करके बैठता था, शायद इसी वजह से। पर उसके उत्‍तर का करण का कुछ पता नहीं है। चीनी लोग ऐसी बातों का उत्‍तर नहीं देते और वे पूछते भी नहीं है। वे बड़े भद्र लोग है। सदा एक-दूसरे के प्रति झुकते है।
      ये यह सब करने के लिए दृढ़ निश्चित था जो करना मना होता था। जैसे उदाहरण के लिए जब मै कालेज में था तो मैं पायजामा और बिना बटन का कुरता पहनता था। मेरे एक प्रोफेसर इंद्र बहादुर खरे, उनका मुझे याद है। हालांकि उनकी मृत्‍यु काफी समय पहले हो गई है पर इस कहानी की वजह से जो मैं तुम्‍हें बताने जा रहा हुं, मैं उन्हें नहीं भूल सकता।  
      वे कालेज में होने वाले सभी उत्‍सवों के इंचार्ज थे और क्‍योंकि मैं सारे आवर्ड जीत कर कालेज में ला रहा था। इसलिए उन्‍होंने तय किया कि सभी मैडल स, कप्‍स और शील्‍डस  के साथ मेरी फोटो ली जानी चाहिए! इसलिए हम फोटो स्टूडियों में गए। लेकिन वहां एक समस्‍या खड़ी हो गई जब उन्‍होंने कहा। अपने बटन लगाओ।
      मैंने कहा: यह संभव नहीं है।
      उन्‍होंने कहा: क्‍या? तुम अपनी बटन नहीं लगा सकते।
      मैंने कहा: देखिए, आप देख सकते  है। ये बटन असली नहीं है। बटनों के  लिए काज ही नहीं है। उन्‍हें लगाया नहीं जा सकता। मुझे बटन लगाना पंसद नहीं है इसलिए मेरे दर्जी को मैंने कह रखा है मेरे कपड़ों में काज बनाने की जरूरत नहीं है। बटन टके है आप देख सकते है। इसलिए फोटो में बटन आएंगे।
      वे बहुत ही नाराज हो गए, क्‍योंकि उन्‍हें कपड़ों आदि की बहुत ही ज्‍यादा फ़िकर थी, तो उन्‍होंने कहा, ‘’फिर फोटो नहीं ली जा सकती।
      मैंने कहा: ठीक है, फिर मैं जाता हूं।
      उन्‍होंने कहा: मेरा मतलब यह नहीं है, क्‍योंकि उन्‍हें डर था कि मैं कोई उपद्रव खड़ा कर दूँगा। प्रिंसिपल के पास चला जाऊँगा। उन्‍हें अच्‍छी तरह से पता था कि ऐसा कोई कानून नहीं है कि जब तुम्‍हारी फोटो ली जाए तो तुम्‍हारे बटन बंद होने चाहिए।
      मैंने उन्‍हें यह कहते हुए याद कराया कि ‘’ अच्‍छे से जानिए कि कल आप मुशिकल में पड़ेंगे। इसके विरूद्ध कोई कानून नहीं है। अच्‍छे से पढ़ो, जानकारी लो, होम वर्क करो और फिर कल प्रिंसिपल के आफिस में मिलना। वहां सिद्ध करना कि बिना बटन बंद किए फोटो नहीं खिंचवा या जा सकता।
      उन्‍होंने  कहा: तुम निश्चित ही अजीब विद्यार्थी हो। मुझे पता है कि मैं यह सिद्ध नहीं कर पाऊगा इसलिए कृपया फोटो खिंचवा लो। मैं जाता हूं पर तुम्‍हारा फोटो लेना ही होगा।
      वह फोटो अभी भी सुरक्षित है। मेरे भाइयों में से एक मेरा चौथा भाई निकलंक, अपने बचपन से ही मुझसे संबंध सभी चीजों को इकट्ठी करता रहा है। सभी उस पर हंसते थे। मैंने भी उससे पूछा,निकलंक, मुझसे संबंधित सब चीजों को इकट्ठी करने की तुम क्‍यों फ़िकर करते है?
      उसने कहा: मुझे नहीं मालुम, पर किसी तरह एक गहरी भावना मेरे अंदर है। मुझे ऐसा लगता है। कि किसी दिन इन चीजों की जरूरत पड़ेगी।
      मैंने कहा: फिर ठीक है। अगर तुम्‍हें लगता है तो फिर ठीक है। तुम ऐसा करते रहो।
      और निकलंक की वजह से ही मेरे बचपन के कुछ चित्र बच गए है। उसने ऐसी चीजों को संजो कर रखा है, जिनका आज मूल्य है।
      वह हमेशा चीजें इकट्ठी करता था। यहां तक कि अगर मैं कुछ कचरे की डलिया में भी डाल देता तो वह देखता कि कहीं मैंने कुछ अपना लिखा हुआ तो नहीं फेंका। कुछ भी होता मेरी लिखाई की वजह से वह रख लेता। पूरा शहर सोचता कि वह पागल है। लोगों ने मुझसे कहा भी, आप तो पागल हो ही, वह आपसे भी ज्‍यादा पागल लगता है।
      पर उसने मुझसे जितना प्रेम किया है उतना पूरे परिवार में किसी ने नहीं किया। हांलाकि सभी मुझसे प्रेम करते है, पर उस जैसा नहीं। उसके पास वह फोटो जरूर होगा क्‍योंकि वह हमेशा चीजें इकट्ठी करता रहा है। मुझे याद है कि मैंने वह फोटो,बटन खुला हुआ, उसकी एकत्रित चीजों में देखा है। और मैं अभी भी इंद्र बहादुर के चेहरे पर झुंझलाहट देख सकता हूं। वे सभी चीजों के बारे में बहुत ही सख्‍त किस्‍म के आदमी थे। पर मैं भी अपने किस्‍म का आदमी था।
      मैंने उससे कहा: फोटो के बारे में भूल जाओ। यह मेरी फोटो होगी या आपकी। आप अपनी फोटो बटन बंद करके निकलवाना लेकिन  आपको पता है कि मैं अपनी बटनों को कभी बंद नहीं करता। अगर इस फोटो के लिए मैं बंद करूं तो यह झूठी होगी। या तो ऐसे ही मेरी फोटो लो या फिर इसके बारे में भूल जाओ।
      यह बहुत अच्‍छा था, बहुत सुंदर....पर सीधे रहो। मेरे साथ समतल होना लागू नहीं होता। ठीक। जब सब चीजें अच्‍छी, बहुत अच्‍छी चल रही हो तब रूक जाना बेहतर होता है। और देव गीत, यह बहुत सुंदर है, पर बस हो गया । देवराज,उसकी मदद करो। आशु, तुम भी अपना काम अच्‍छे से करो। मैं बोलते रहना पसंद करता पर समय पूरा हो गया है। कहीं न कहीं तो रूकना ही होता है।
बस।
--ओशो      
     
   
     
     

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