बिरहिनी मंदिर
दियना बार—(यारी)
ओशो
यारी की पुकार भी
खाली नहीं गयी। यारी भी भर उठे--बड़ी सुगंध से! और लुटी सुगंध! उनके गीतों में बंटी
सुगंध! और जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में परमात्मा का आगमन होता है तो गीतों की
झड़ी लग जाती है;
उस व्यक्ति की श्वास-श्वास गीत बन जाता है। उसका उठना-बैठना संगीत
हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ जाते हैं वहां तीर्थ बन जाते हैं।
ऐसे ही एक अदभुत व्यक्ति के साथ आज हम
यात्रा शुरू करते हैं। यारी का जन्म हुआ दिल्ली में। नाम था: यार मुहम्मद। फिर
मुहम्मद तो जल्दी ही खो गया; क्योंकि जिसे परमात्मा को पुकारना हो, वह हिंदू नहीं रह सकता, वह मुसलमान भी नहीं रह सकता,
वह ईसाई भी नहीं रह सकता। परमात्मा को पुकारने के लिए कुछ शर्तें
पूरी करनी पड़ती हैं।
और पहली शर्त है--विशेषण छोड़ देने पड़ते हैं, आग्रह छोड़ देने पड़ते हैं, मंदिर और मस्जिद छोड़ देने
पड़ते हैं। तभी तो खुद मंदिर बनोगे, खुद मस्जिद बनोगे। जब तक
बाहर के मंदिर और मस्जिद को पकड़े रहोगे, याद ही न आएगी कि
अपने भीतर भी एक मंदिर था। और उस मंदिर में न कभी दीप जले, और
उस मंदिर में न कभी धूप जली। उस मंदिर में कभी नाद न हुआ। अपने भीतर भी एक मस्जिद
थी, जिसमें कभी अजान न उठी, जिसमें कभी
नमाजें न पढ़ी गईं, जहां अंधेरा था तो अंधेरा ही रहा।
ओशो
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