शुक्रवार, 30 मार्च 2018

जरथुस्‍त्र--नाचता गाता मसीहा--ओशो


जरथुस्‍थ-(नांचता  गाता  मसीहां)
ओशो
(फ्रेड्रिक नीत्‍शे की दस स्‍पेश जरथुस्‍त्रा’)
परिचय
जरथुस्त्र अनंतता के इस परम विस्तार में जरूर कहीं हंस रहे होंगे। मनुष्य के बहुत प्रारंभिक इतिहास में ही वह एक, संबुद्ध सद्गुरु थे, और उनके संबंध में अभिलिखित व उपलब्ध कुछ छिट—पुट टुकड़ों से निष्कर्ष निकलता है कि वह बहुत स्वच्छंद व आश्चर्यजनक व्यक्ति थे।
ओशो ने फ्रेड्रिक नीत्शे की प्रतिभा को पहचाना जब पहली बार उन्हें अपने युवा काल में दस स्पेक जरथुस्त्रा (ऐसा जरथुस्त्र बोले ) देखने को मिली। न केवल उन्होंने इसके रचयिता की मेधा को पहचाना, बल्कि यह कृति स्वयं उनके जीवन की मिसाल थी। ओशो मानव मन के पार गये जब  21 मार्च 1953 को उन्हें संबुद्धत्व की घटना घटी। वह स्वयं आज के युग के जरथुस्त्र हैं।
फेड्रिक नीत्शे एक गंभीर व समर्पित दार्शनिक था — गंभीर अपने कार्य के संबंध में, और समर्पित सत्य को। वह विशाल स्वभदर्शी अंतर्दृष्टि का व्यक्ति था — बृहदाकार छलांगें लेने में सक्षम, न केवल अपने समय की स्वीकृत बल्कि स्वीकार्य सीमाओं के भी पार। उसका साहस उसकी बुद्धि के टक्कर का था, और उसने मनुष्य के सैद्धांतिक क्षितिजों को बदल दिया है।
काश, नीत्शे पूरब में पैदा हुआ होता, खासकर भारत में, तो वह संबुद्ध हो गया होता। लेकिन पश्चिम ने कभी समझा ही नहीं कि चेतना मन के पार जा सकती है। जब मन ने इतनी गहराई से खोज कर ली है — ज्ञात का साक्षात्कार कर चुका, अज्ञात में छलांग लगा चुका, और अंततः अज्ञेय के आमने—सामने आ गया, वह और आगे नहीं जा सकता। इस बिंदु पर मानव मन या तो मन के पार जा सकता है, ' अथवा वह मन से नीचे गिर सकता है — पागलपन में। नीत्शे की क्षमता थी संबुद्ध होने की, लेकिन उसके पास उस अनिवार्य संघटक की कमी थी जो इसे संभव बनाता है — एक जीवित, संबुद्ध सद्गुरु जो व्यक्ति को पार में ले जाए।
अपनी सृजनात्मक मेधा में, नीत्शे ने अतीत से एक महान सद्गुरु को खोज निकाला, जरथुस्त्र,  और उनके संबंध में इस ढंग से लिखा जिसने उसे अपनी समस्त अभीप्साओं, अपने सपनों, और असह्य कैद बन चुकी बातों से छूट निकलने की अपनी समस्त लालसाओं को प्रक्षेपित करने का मौका दिया। नीत्शे ने लंबे काल से मृत व धूल जम गये जरथुस्त्र को नया जीवनदिया... अथवा क्या ऐसा था कि जरथुस्त्र ने कल्पांतरों के पार हाथ बढाया और नीत्शे को नयी आशा प्रदान की? वह जैसा हो वैसा हो, कहानी ने अब एक नयी और अप्रत्याशित महा छलांग ली है। यद्यपि नीत्शे मर चुका है, और अपना सद्गुरु पाये बिना मरा, जरथुस्त्र कहलाने वाली उसकी रचना को एक जीवित संबुद्ध सद्गुरु मिल गया — ओशो।
अब वृत्त पूरा हो चुका है : इस पुस्तक में ओशो, एक जीवित सदगुरू काल्पनिक ''जरथुस्त्र'' पर भाष्य दे रहे हैं अपनी स्वयं की संबुद्ध दृष्टि की स्पष्टता द्वारा यह संकेत करते हुए कि कहां नीत्शे की दृष्टि सत्य के निकट पहुंची और कहां वह छोटी पड़ गयी।
एक गहन उन्मुक्त हास्य अस्तित्व के आरपार प्रतिध्वनित हो रहा होगा एक विशाल वृत्त की भव्य पूर्णता पर जो काल व दिक् दोनों का अतिक्रमण कर गया है। जरथुस्त्र नाचे और लोगों पर अपना प्रेम बरसाया — हजारों वर्षों पूर्व। आज ओशो ठीक वही कर रहे हैं, केवल और बढ़—चढ़ कर। हमारे पास जरथुस्त्र के मजाकों का, उनके उफनते हास्य का, क्षण में उनकी जीवंत उपस्थिति का कोई अभिलेख (रेकार्ड ) नहीं है। लेकिन ओशो में, अस्तित्व अपनी सर्वाधिक पुलक, अपनी सर्वाधिक उत्कृष्टता, अपनी सर्वाधिक प्रसादमयता में विराजमान है। हां, यह सब सच है — और एक रुचिर शरारत की गुणवत्ता भी उनमें है जो मुझे सोचने को बाध्य करती है कि जरथुस्त्र भी ओशो से एक—दो बातें सीख सकते थे। शायद यह इसी कारण है कि जरथुस्त्र ने स्वयं को ओशो की नजर में लाने के लिए इतना कष्ट उठाया है।
ओशो—पूरब के संबुद्ध सदगुरू—का मिलन जर्मनी के गंभीर, रहस्‍यदर्शीय स्‍वप्‍नद्रष्‍टा नीत्‍शे से होता है। इन पृष्‍ठों में ओशो नीत्‍शे की गंभीरता को अपने अक्षुण्‍ण हर्षोल्लास में तिरोहित कर लेते है। जरथुस्‍त्र को एक हंसते पैगम्‍बर में रूपांतरित करते हुए। शायद यह स्‍वयं नीत्‍शे की नियति हुई होती। यदि उसे ओशो से स्‍वयं मुलाकात का सौभाग्‍य मिला होता।

स्‍वामी दवगीत, बी. डी. एस., .....
जुलाई 1987 पूना।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें