14 मई, 1975, प्रातः,
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र :
मन रे जागत रहिये भाई।
गाफिल होइ बसत मति खोवै।
चोर मुसै घर जाई।
षटचक्र की कनक कोठरी।
बस्त भाव है सोई।
ताला कुंजी कुलक के लागै।
उघड़त बार न होई।
पंच पहिरवा सोई गये हैं,
बसतैं जागण लागी,
जरा मरण व्यापै कछु नाही।
गगन मंडल लै लागी।
करत विचार मन ही मन उपजी।
ना कहीं गया न आया,
कहै कबीर संसा सब छूटा।
राम रतन धन पाया।
मनुष्य चेतना के दो आया है: एक मूर्च्छा, एक अमूर्च्छा। मूर्च्छा का अर्थ है सोये-सोये जीना; बिना होश के जीना। अमूर्च्छा का अर्थ है, होशपूर्वक जीना; जाग्रत, विवेकपूर्ण। मूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया बुझा है। अमूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया जला है।
मूर्च्छा में रोशनी बाहर होती है। बाहर की रोशनी से ही आदमी चलता है। जहां इंद्रियां ले जाती हैं, वहीं जाता है। इंद्रियों की कामना ही खुद की कामना बन जाती है। क्योंकि खुद का कोई पता ही नहीं। मन जो सुझा देता है, वही जीवन की शैली हो जाती है। क्योंकि अपने स्वरूप का तो कोई बोध नहीं। लोग जो समझा देते हैं, समाज जो बता देता है, वहीं आदमी चल पड़ता है क्योंकि न तो अपनी कोई जड़ें होती हैं अस्तित्व में, न अपना भान होता है। मैं कौन हूं, इसका कोई पता ही नहीं।
तो जीवन ऐसे होता है, जैसे नदी में लकड़ी का टुकड़ा बहता है। जहां लहरें ले जाती हैं, चला जाता है। जहां धक्के हवा के पहुंचा देते हैं, वहीं पहुंच जाता है। अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, निजता नहीं। जीवन एक भटकन है।
निश्चित ही ऐसी भटकन में कभी जिल नहीं आ सकती। मंजिल तो सुविचारित कदमों से पूरी करनी पड़ती है। भटकाव बहुत हो सकता है यात्रा नहीं हो सकती। यात्रा का अर्थ है कि तुम्हें पता हो तुम कौन हो; कहां हो! कहां जा रहे हो! क्यों जा रहे हो! होशपूर्वक ही यात्रा हो सकती है। होशपूर्वक ही तीर्थयात्रा हो सकती है। इसलिए ज्ञानियों ने होश को ही तीर्थ कहा है।
अमूर्च्छित चित्त, जागा हुआ चित्त बिलकुल दूसरे ही ढंग से जीता है। उसके जीवन की व्यवस्था आमूल से भिन्न होती है। वह दूसरों के कारण नहीं चलता, वह अपने कारण चलता है। वह सुनता सबकी है। वह मानता भीतर की है। वह गुलाम नहीं होता। भीतर की मुक्ति को ही जीवन में उतारता है। कितनी ही अड़चन हो, लेकिन उस मार्ग पर ही यात्रा करता है जो पहुंचायेगा। और कितनी ही सुविधा हो, उस मार्ग पर नहीं जाता, जो कहीं नहीं पहुंचायेगा।
क्योंकि उस सुविधा का क्या अर्थ? मार्ग कितना ही सुंदर हो, कंटकाकीर्ण न हो, चोर-लुटेरे न हों, मार्ग पर, सब सुरक्षा हो, सुविधा हो लेकिन अगर मार्ग कहीं पहुंचाता ही न हो, तो उस मार्ग की सुविधा और सौंदर्य का क्या करिएगा? मार्ग कंटकाकीर्ण हो, राह लुटेरों से भरी हो, जंगली जानवरों का भय हो, लेकिन कहीं पहुंचाता हो, तो जाने योग्य है।
अमूर्च्छित व्यक्ति का जीवन भटकाव नहीं, एक सुनियोजित यात्रा है। लेकिन वह नियोजन कौन देगा? समाज उस नियोजन को नहीं दे सकता। समाज तो अंधों की भीड़ है। वह तो मूर्च्छित लोगों का समूह है। अगर तुमने समाज की सुनी, तो तुम अंधेरे में ही भटकते रहोगे। भीड़ तो बोधपूर्ण नहीं है। हो भी नहीं सकती। कभी-कभी कोई एकाध व्यक्ति अनेकों में बोध को उपलब्ध होता है। तो भीड़ तो बुद्धों की नहीं है।
अमूर्च्छित व्यक्ति अपने भीतर अपने जीवन की विधि खोजता है। अपने होश में अपने आचरण को खोजता है। अपने अंतःकरण के प्रकाश से चलता है। कितना ही थोड़ा हो अंतःकरण का प्रकाश, सदा पर्याप्त है। इतना थोड़ा हो कि एक ही कदम पड़ता हो, तो भी काफी है। क्योंकि दुनिया में कोई भी दो कदम तो एक साथ चलता नहीं।
छोटे से छोटा दीया भी इतना तो दिखा ही देता है, कि एक कदम साफ हो जाए। एक कदम चल लो, फिर और एक कदम दिखाई पड़ जाता है। कदम-कदम करके हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
अमूर्च्छित व्यक्ति विद्रोही होता है। अमूर्च्छित व्यक्ति एक-एक क्षण, पल-पल एक ही बात को साधता है; और वह बात यह है, कि कुछ भी मुझसे ऐसा न हो जाए, जो मूर्च्छा को बढ़ाए, मूर्च्छा कसे ग्रहण करे। ध्यान रखना, एक-एक बूंद पानी की गिरती है, चट्टानें टूट जाती हैं। एक-एक बूंद होश की गिरती है, और तुम्हारी जन्मों-जन्मों की चट्टान हो मूर्च्छा की, निद्रा की टूट जाती है। लेकिन एक-एक बूंद गिरनी चाहिए।
तो प्रतिपल अमूर्च्छित व्यक्ति की चेष्टा यही होती है, कि हर क्षण का उपयोग एक ही संपदा को पाने में कर लिया जाए। वह यह, कि मेरे भीतर का विवेक प्रगाढ़ हो, जागे।
मूर्च्छित चित्त की तीन अवस्थाएं हैं, जिन्हें हम जानते हैं।
एक, जिसे हम जाग्रत कहते हैं; जो कि शब्द उचित नहीं है। क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति जागेगा कैसे? उसका जागरण नाममात्र का जागरण है। कहने भर का जागरण है। सुबह सूरज उगता है, पशु-पक्षी जाग आते हैं, पौधे जाग आते हैं, तुम भी जाग जाते हो। क्या पशु पक्षी जाग्रत हैं; क्या पौधे जाग्रत हैं? तुम भी नहीं हो। सिर्फ शरीर का विश्राम पूरा हो गया, इसलिए तुम उठते हो, चलते हो, बैठते हो। ऐसा लगता है, जैसे जागे हो। लेकिन यह सिर्फ लगना मात्र है। इसका वास्तविक जागरण से कोई दूर का भी संबंध मुश्किल से बनता है।
मैंने सुना है, कि मुल्ला नसरुद्दीन को किसी ग्रामीण परिचित ने, किसान ने गांव से एक मुर्गी भेज दी भेंट में। जो आदमी मुर्गी लेकर आया था, स्वभावतः नसरुद्दीन ने उसका काफी स्वागत किया। मुर्गी का शोरबा बनवाया। उसे शोरबा पिलाया। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने जाकर गांव में खबर कर दी, आदमी बहुत अच्छा है। और अतिथि को तो बिलकुल देवता मानता है।
फिर तो गांव से लोगों का आना शुरू हो गया। दूसरे ही दिन दूसरा आदमी मौजूद हो गया। नसरुद्दीन ने पूछा, आप कौन? उसने कहा, कि जिसने मुर्गी भेजी थी, उसका दूर का रिश्तेदार हूं। उसका भी नसरुद्दीन ने स्वागत किया। घर आया आदमी! फिर कितने ही दूर का रिश्तेदार हो, रिश्तेदार ही है उसी का, जिसने मुर्गी भेजी थी।
लेकिन फिर बात सीमा के बाहर होने लगी। रिश्तेदारों के रिश्तेदार आने लगे। रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्र आने लगे। रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्रों के मित्र आने लगे। पत्नी बेचैन हो गई। उसने कहा, यह मुर्गी तो एक अपशगुन सिद्ध हुई। हम इस इनकार ही कर देते। यह तो पूरा गांव चला आ रहा है। नसरुद्दीन ने बहुत सोचा। कुछ करना ही पड़ेगा। और दूसरे दिन सुबह फिर एक आदमी खड़ा है। आप कौन हैं? उसने कहा, कि जिसने मुर्गी भेजी थी, उसके रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्रों का मित्र हूं। नसरुद्दीन ने कहा, आइए। स्वागत है।
लेकिन वह आदमी बड़ा हैरान हुआ, जब भोजन उसे कराया गया तो सिर्फ कुनकुना पानी था शोरबे के नाम पर। उस आदमी ने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन मैंने बड़ी चर्चा सुनी थी आपके आतिथ्य की। और यह तो कुनकुना पानी है। नसरुद्दीन ने कहा, माफ करिए। कुनकुना पानी नहीं है। मुरगी के शोरबे का शोरबे का शोरबे का शोरबा है।
आपकी जागृति बस मुर्गी के शोरबे का शोरबे का शोबरे का शोरबा है। अगर बुद्धि जागृति जागृति है तो आपकी जागृति रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्रों का मित्र है। बहुत लंबा फासला है। बुद्ध को हमने जागृत कहा है। बुद्ध शब्द का अर्थ है--जो जाग गया। जो होश से भर गया।
अगर बुद्ध मापदंड हों जागरण के, तो तुम्हारा जागरण क्या होगा? एक खोटा सिक्का, जो सिक्के जैसा लगता है, लेकिन सिक्का है नहीं। एक झूठ, जा सत्य का दावा करता है, लेकिन सत्य है नहीं। एक मुर्दा लाश, जो ठीक जीवित आदमी जैसी ही मालूम पड़ती है, नाक नक्शा बिलकुल जीवित आदमी जैसा, लेकिन भीतर कोई प्राण नहीं है। एक बुझा हुआ दीया, जिसमें सब हैं; दीया है, बाती है, तेल है लेकिन ज्योति नहीं।
मूर्च्छा के तीन रूप हैं। एक, जिसे हम जागृति कहते हैं; जो बिलकुल खोटी है। क्योंकि जागे हुए भी तुम जागे हुए नहीं होते। जागकर भी तुम जो करते हो, वह खबर देता है कि तुम सोचे हुए हो।
तुमने हजार दफे तय किया है, कि अब दोबारा क्रोध नहीं करेंगे। और फिर एक आदमी अपमान कर देता है, या तुम्हें लगता है अपमान कर दिया। या किसी आदमी का भीड़ में तुम्हारे पैर पर पैर पड़ जाता है--और एक क्षण भी नहीं लगता। एक क्षण की देरी भी नहीं होती, और आग उबल उठती है। और तुमने उनके बार तय किया है कि अब क्रोध न करेंगे। हजार बार कसमें ली हैं। हजार बार पछताए हो। वह सब कहां चला गया पछतावा? यह याददाश्त इतनी जल्दी कैसे खो जाती है? होश होता, तो साथ रहती। बेहोशी में याददाश्त साथ कैसे रह सकती है? क्षण में आग जल उठती है। फिर वही क्रोध खड़ा है। फिर तुम पछताओगे घड़ी भर के बाद; लेकिन न तुम्हारे पछतावे का कोई मूल्य है और न तुम्हारे क्रोध का कोई मूल्य है। तुम्हारा पछतावा भी झूठ है। क्योंकि तुम कितनी बार पछता चुके। अब रुकते नहीं। अब रुक जाओ।
एक आदमी मेरे पास आया। और उसने कहा, जिंदगी भर हो गई--उसकी उम्र कोई पैंसठ साल होगी--बस, एक ही चीज मुझे कष्ट दे रही है, मेरा क्रोध। इससे मेरा घर भर पीड़ित है। मेरे बच्चे, मेरी पत्नी, मेरी जीवन एक कलह की लंबी कहानी है। मगर यह क्रोध मुझसे नहीं जाता। और अभी भी है मौत करीब आई जा रही है। लेकिन यह क्रोध मुझे आग की तरह कंपाता रहता है।
और मैंने हजार बार पश्चात्ताप कर लिया। कसमें खा ली मंदिरों में जा कर, साधुओं के चरणों में सिर रख कर, कि शायद उनकी कृपा का साथ मिल जाए। भगवान को साक्षी रखकर मंदिरों में कसम खा ली। वह भी काम नहीं आती। जब क्रोध पकड़ता है। तो भगवान की सामर्थ्य भी काम में नहीं आती। उस वक्त मैं सब भूल ही जाता हूं। एक क्षण को मैं होता ही नहीं। कौन आ जाता है मेरे भीतर भूत-प्रेत जैसा, और मैं क्या कर गुजरता हूं, इसका मुझे खुद ही समझ नहीं आता। पीछे लौट कर देखता हूं, तो मानने का मन नहीं होता, कि मैंने ऐसा किया होगा। क्या करूं? आप साक्षी हो जाए। मुझे संकल्प करवाएं।
मैंने कहा, कि मैं वह भूल न करूंगा जो दूसरों ने तुम्हारे साथ की है। तुमसे मैं सिर्फ एक प्रार्थना करता हूं कि तुम पश्चात्ताप का त्याग कर दो। क्रोध तो चलने दो। इतना तो कर सकते हो कि अब क्रोध आएगा। तो पश्चात्ताप न करेंगे।
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि यह तो मैं कर ही सकता हूं। इसमें क्या अड़चन? उसे पता नहीं, कि जो क्रोध नहीं छोड़ सकता, वह पश्चात्ताप भी नहीं छोड़ सकता। छोड़ना तो होश की बात है। मैंने कहा, तो जिस दिन पश्चात्ताप छूट जाए, तुम आ जाना। उसी दिन क्रोध भी छुड़वा दूंगा।
महीने भर बाद वह आदमी वापिस आया और उसने कहा कि आपने धोखा दिया। पश्चात्ताप भी नहीं छूटता। इसमें तो कोई अड़चन नहीं है। यह तो किसी शास्त्र ने तुमसे कहा नहीं, यह तो छोड़ ही सकते हो। पश्चात्ताप के तो विरोध में कोई भी हनीं है। क्रोध के विरोध में तो सारी दुनिया है। तुम पश्चात्ताप छोड़ दो। उसने कहा, नहीं। बात मेरी समझ में आ गई। आप क्या समझाना चाहते थे, वह मुझे दिखा गया। मैं कुछ भी नहीं छोड़ सकता। मैं हूं ही नहीं।
जब तक तुम जागे नहीं हो, तुम हो ही नहीं। तुम्हारा होना सिर्फ एक भ्रांति है। सिर्फ एक खयाल है। जिसकी कोई जड़ें नहीं है। सिर्फ एक सपना है; जिसकी कोई सार्थकता नहीं और जिसमें कोई पौदगलिकता नहीं; जिसमें कोई पदार्थ नहीं; जिसमें कोई बल नहीं। न तुम पश्चात्ताप छोड़ सकते हो, न तुम क्रोध छोड़ सकते हो। करते जरूर हो। वह भी कहना ठीक नहीं है, कि तुम करते हो। उचित होगा कहना, कि वह भी होता है। तुम यंत्रवत हो। नहीं तो छोड़ देते।
जिस काम को तुम करते हो, उसे तुम छोड़ सकते हो; यह नियम है। जिस काम को तुम करते ही नहीं, उसको तुम छोड़ोगे कैसे? जैसे होता है, उसको तम कैसे छोड़ोगे? बटन दबाते हो, बिजली का बल्ब जल जाता है। क्या बिजली के बल्ब के हाथ में यह बात है, कि वह न जले; या जब चाहे तब जले? या जब उसका भाव न हो, तो कह देस अभी विश्राम कर रहा हूं? नहीं, बटन दबाती है तो बिजली का बल्ब जल जाता है। शायद बिजली का बल्ब भी अपने भीतर सोचता होगा कि मैं जलता हूं, मैं बूझता हूं। वह गलती में है। तुम भी बुझते नहीं, जलते नहीं।
एक आदमी ने गाली दी, बटन दबा दी। जल गए! एक आदमी आया, कहने लगा, कैसे देवपुरुष हो आप! प्रसन्न हो गए! एक आदमी ने कहा, कैसी सुंदर मूर्ति है। और भीतर फूल खिल गए। और एक आदमी ने कह दिया, कि जरा देखो भी तो अपना चेहरा दर्पण में। ऐसी बेहूदी शक्ल कहीं नहीं देखी--कि आग लग गई। बटने हैं। तुम नहीं हो।
बुद्ध के पास एक आदमी आया और उसने कहा, कि मुझे कुछ शिक्षा दें। मैं संसार की सेवा करना चाहता हूं। बुद्ध उदास हो गए। वह आदमी कहने लगा, आप उदास क्यों हो गए हैं? बुद्ध ने कहा कि उदास इसलिए हो गया हूं, क्योंकि तुम अभी हो ही नहीं। संसार की सेवा कौन करेगा? और तुम सेवा के नाम से दूसरों को सताने लगोगे। तुम कृपा करो। तुम पहले अपनी सेवा कर लो। पहले तुम हो तो जाओ।
गुरजिएफ--पश्चिम का एक बहुत बड़ा रहस्यवादी संत इस सदी का--कहता था, कि आत्मा सभी के भीतर नहीं है। उसकी बात में थोड़ी सच्चाई है। क्योंकि आत्मा तो उन्हीं के भीतर है, जो जागे हुए हैं। बाकी तो सिर्फ मिट्टी के पुतले हैं बाकी तो सब पदार्थ हैं। उनके भीतर अभी आत्मा का कोई आविर्भाव नहीं हुआ है।
उसकी बात में सचाई है। क्योंकि आत्मवान होने का एक ही अर्थ होता है, कि तुम अपने मालिक हुए। अब तुम जो चाहो, वही होगा। तुम हवा में कंपते हुए पत्ते नहीं हो, कि जब झोंका आएगा तब कंपोगे और जब झोंका नहीं आएगा तो लाख चाहो, तो कंप सकोगे। अब तुम यंत्रवत नहीं हो। तुम मनुष्य हो। मनुष्य का अर्थ है, कि अब तुम्हारे भीतर से निकलेंगे तुम्हारे कृत्य। बाहर की घटनाओं से पैदा न होंगे। परिस्थितियां नहीं, अब तम मूल्यवान हो। तभी तो तुम आत्मवान होओगे। अन्यथा आत्मा है, यह केवल सिद्धांत है।
कभी-कभी किसी व्यक्ति में आत्मा होती है। तुममें आत्मा ऐसे ही है, जैसे बीज में वृक्ष। हुआ न हुआ बराबर। हो सकता है, लेकिन है नहीं। और हो सकता और होने में बड़ा फर्क है। वह केवल संभावना है बीज की, कि अगर ठीक ठीक समुचित भूमि मिले, समुचित खाद मिले, समुचित सुरक्षा मिले, समुचित जल, समुचित सूर्य की किरणें मिलें, सुरक्षा मिले तो संभावना है, कि बीज वृक्ष हो सकेगा। लेकिन बहुत सी शर्ते पूरी हों, तब। अन्यथा बीज बीज की तरह ही मर जाएगा और वृक्ष न हो सकेगा।
अधिकतम लोग शरीर की तरह ही जीते हैं शरीर की तरह ही मर जाते हैं। बीज उनका ऐसे ही खो जाता है। अवसर आता है और जाता है। आत्मवान होने का अर्थ है--होश, विवेक, जागृति। तुम्हारे कृत्य तुम्हारे भीतर से निकलने लगें। अभी तुम्हारे कर्म, कर्म नहीं हैं, प्रतिकर्म हैं। प्रतिकर्म यानी रिएक्शन। कोई कुछ करता है, उसकी प्रतिक्रिया में तुम्हारे भीतर कुछ होता है। अगर कोई प्रेम करता है, तो तुम प्रेम करते हो। और कोई घृणा करता है, तो तुम घृणा करते हो।
जीसस का वचन है, शत्रु को भी प्रेम करो। इसका क्या मतलब हुआ? यह कोई नीति की शिक्षा नहीं है। जीसस जैसे व्यक्तियों को नीति में क्या उत्सुकता? यह धर्म का गहनतम सूत्र है। जीसस कहते हैं, शत्रु को प्रेम करो। वे यह कह रहे हैं, मित्र को तो प्रेम करना प्रतिक्रिया है, वह तो सभी मरते हैं। शत्रु को घृणा करना भी प्रतिक्रिया है। वह तो सभी करते हैं। जिसने शत्रु को प्रेम कर लिया, वह मालिक हो गया। उसने प्रतिक्रिया तोड़ दी। वह अपने कर्म का खुद मालिक हो गया।
शत्रु को पूरी चेष्टा कर रहा है, कि तुम उसे घृणा करो। लेकिन तुमने उसकी चेष्टा तोड़ दी। वह तो बटन दबा रहा था तुम्हारा क्रोध की लेकिन तुमने प्रेम का प्रवाह पैदा कर दिया। अगर तुम अपने शत्रु को प्रेम कर पाओ तो तत्क्षण तुम यंत्रवत्ता से मुक्त हो गए। तब तुम्हारे प्रतिकर्म खो गए। अब तुम कर्मवान हुए।
और यह बड़े मजे की बात है; प्रतिकर्म बांधते हैं, कर्म नहीं बांधता। असल में प्रतिकर्मों से ही कर्मों की शृंखला बनती है। जब कोई व्यक्ति होशपूर्वक कर्म करता है तो उससे कोई बंधन पैदा नहीं होता।
तुमने कभी जीवन में कोई कर्म होशपूर्वक किया है। होशपूर्वक करने का अर्थ है, तुम्हारे शरीर का यंत्र जो करना चाहता हो वह नहीं; तुम्हारे भीतर का होश जो करना चाहता हो वही तुमने कभी किया है? शरीर कहता था, करो क्रोध, मन कहता था, करो क्रोध। मन में तो गाली उठ आई थी, शरीर ने डंडा उठा लिया था। कभी ऐसा हुआ है, कि डंडा हाथ में रह गया हो, गाली मन में रह गई हो और तुम अछूते, अस्पर्शित भीतर खड़े रहे? तुम्हारी ज्योति पर छांव भी न पड़ी इस डंडे की। तुम्हारी ज्योति पर गाली का दंश भी न आया। तुम्हारी ज्योति निष्कलुष बनी रही--कमलवत। पानी छुआ ही नहीं।
अगर ऐसा तुमने कभी किया है, तो तुम्हें पहली दफा पता चलेगा कि अमूर्च्छा क्या है, जागृति क्या है, होश क्या है! उसी क्षण तुम परम-आनंद से भर जाओगे। तुम मुक्त हो गए। अब तुम्हें कोई चला नहीं सकता। अब तुम्हें कोई धका नहीं सकता। अब तुम अपने मालिक हो। यही तो मालकियत है,जिसकी तलाश चल रही है। अब तुम सम्राट हो गए।
जब तक तुम बंधे हो यंत्रवत्ता से तब तक तुम एक भिखारी हो। तुम्हारा जागरण, नाम-मात्र का जागरण है। खोटा सिक्का है। मूर्च्छा का पहला रूप है--जागरण--सुबह से सांझ तक जिसे तुम जानते हो, वह जागरण ऊपर-ऊपर है। भीतर तो निद्रा बहती रहती है। तुमने कभी खयाल किया? आंखें बंद करके थोड़ी देर बैठ जाओ। तत्क्षण तुम सपना देखने लगोगे। आंख खुली थी, वृक्ष, लोग, रास्ता, दुकान, बाजार दिखाई पड़ रहा था। आंख बंद की--सपना शुरू!
मैंने सुना है, कि मुल्ला नसरुद्दीन को फुटबाल का बहुत शौक था। शौक इतना ज्यादा हो गया था, जैसा कि अक्सर लोगों को हो जाता है। जब बाढ़ आती है तो कोई सीमाओं का खयाल रख कर थोड़ी आती है! क्रिकेट के पागल हैं, कि अगर उनकी टीम हार जाए तो रेडियो, जिसमें वे कामेंन्ट्री सुन रहे थे, उसको पटक देते हैं। हाकी के दीवाने हैं। मुल्ला नसरुद्दीन फुटबाल का दीवाना था।
पत्नी परेशान हो गई थी। क्योंकि वह दिन में बैठकर कुर्सी पर भी लातें फटकारता था। फुटबाल! रात सोता तो भी सपने में लाते फेंकता, और ऊधम मचाता। पत्नी डाक्टर के पास गई और उसने कहा, बहुत हो गया। अब यह फुटबाल का इलाज करना ही पड़ेगा। तो डाक्टर ने उसे दवा दी, कि यह ट्रेंक्विलाइजर है, शामक है। इसे ले जाओ। इसकी एक गोली दे दोगे, तो रात भर मुल्ला शांत रहेगा।
पत्नी घर आई। उसने मुल्ला से कहा कि यह गोली मैं ले आई हूं। तुम शांति से सो सकोगे। रात सोते वक्त इसे लेना है। मुल्ला ने कहा, अगर आज न लूं और कल लूं तो कोई हर्जा? उसकी पत्नी ने कहा, क्यों? आज क्या मामला है? उसने कहा, आज फायनल मैच है--सपने में।
अगर तुम आंख बंद करो तो तुम पाओगे कि कहां न मालूम कितने तरह के मैच चल रहे हैं सपनों के। जरा आंख बंद की, कि सपना दौड़ने लगता है। सपना दौड़ ही रहा था। सिर्फ आंख खुली थी, तुम बाहर उलझे थे, इसलिए खयाल नहीं था। सपना नींद का लक्षण है क्योंकि बिना नींद के सपना हो ही नहीं सकता। इसे तुम सूत्र की तरह याद रखना; सपना नींद का लक्षण है। और अगर जागते-जागते भी तुम्हारे भीतर सपना चलता है तो उसका अर्थ है, तुम्हारे भीतर नींद ही चलती है। ऊपर-ऊपर, सतह पर जरा से तुम जागे हुए लगते हो। भीतर सपना चल रहा है।
तुम रास्ते पर चलते लोगों को देखो। वे उस रास्ते पर चल रहे हैं--ऊपर-ऊपर। भीतर दूसरे ही रास्ते हैं, जिन पर उनका मन चल रहा है। लोगों को खाना खाते देखो। कौर बना रहे हैं, मुंह में खाना डाल रहे हैं। बिलकुल होश में लगते हैं। लेकिन जरा गौर से उनके चेहरे को देखो। भीतर कुछ और चल रहा है। शायद उन्हें पता भी न हो कि वे भोजन कर रहे हैं। वे किसी दूसरे लोक में किसी सपने में संलग्न है। उनके ओठ कंप रहे हैं। बात चल रही है किसी और से, जो वहां मौजूद नहीं है।
लोग रास्ते पर चले जा रहे हैं और होंठ हिलते हैं। हाथ में मुद्राएं होती रहती हैं। जैसे वे किसी से चर्चा कर रहे हैं, जो वहां मौजूद है, तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, उनके सपने में मौजूद है।
तुम अपना ही निरीक्षण करो। तुम पाओगे, तुम जो भी करते हो, वह ऊपर-ऊपर है। भीतर कुछ और भी चल रहा है। भीतर सपना चल रहा है। भीतर नींद भरी है। ऊपर जरा सी पतली सतह है जागरण की। वह काम-चलाऊ है। उससे कोई आत्मा की उपलब्धि न होगी और न परमात्मा मिलेगा। वह इतनी धीमी मंदी रोशनी है, कि उससे वह प्रगाढ़ अंधकार न टूटेगा, जो तुम्हारे जीवन के भीतरी तलों को घेरे हुए हैं।
वह ऐसे है, जैसे जुगनू हो। चमकती है जुगनू, लेकिन जुगनू की चमक मग बैठ कर तुम कोई गीता थोड़े ही पढ़ सकते हो! ऐसा ही जागरण है, जुगनू की चमक जैसा। उसमें तुम भीतर के परमात्मा को थोड़े ही देख पाओगे। उसमें कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। उसमें जुगनू तक दिखाई नहीं पड़ती; और तो क्या कुछ दिखाई पड़ेगा। बस, जरा सी चमक। उतना ही तुम्हारा जागरण है। वह भी चमक पल भर की है। जुगनू के पंख खुले--चमक। पंख बंद हुए--चमक बंद। ऐसे प्रतिपल तुम सोते, जागते हो। होश पकड़ते हो खोते हो।
दूसरी अवस्था है। तुम्हारे स्वप्न की। स्वप्न बड़ी अनूठी घटना है। क्योंकि जो है ही नहीं, वह स्वप्न में तुम्हें वास्तविक मालूम होता है। तुम्हारी तंद्रा कितनी गहरी न होगी! और तुमने कोई सपना नया नहीं देखा है। तम रोज रात देखते हो। अगर आदमी साठ साल जीएगा तो कम से कम बीस साल सोएगा। आठ घंटे रोज सोएगा। एक तिहाई दिन सोएगा। साठ साल आदमी जिंदा रहेगा, तो बीस साल से ज्यादा सोएगा। रोज तुम सोते हो। रोज रात तुम सपना देखते हो। और रोज रात तुम्हें सपने में सपना सच मालूम होता है। तुम्हारा होश बिलकुल भी नहीं है। हां, पहली दफा तुमने सपना देखा हो, सच मालूम हो जाए। क्योंकि परिचय न था। लेकिन सुबह हर दिन जागते हो और पाते हो कि सपना झूठ था। बीस वर्ष सोओगे, जाओगे। हर बार पाओगे कि सपना झूठ था। फिर से सोओगे फिर सपना सच मालूम होगा।
तुम्हारा होश कैसा होश है? तुम्हारा अनुभव कैसा अनुभव है? तुम्हारे जीवन में कोई भी संग्रहीत होता है, या नहीं होता? तुम्हारा ज्ञान निर्मित होता है, या नहीं होता?
एक बच्चा एक बार भूल करे तो हम कहते हैं चलो, माफ कर दो। फिर दोबारा वही भूल करता है, तो हम कहते हैं चलो बच्चा है। लेकिन तीसरी दफे हम सोचने लगते हैं, कि जब कुछ करना पड़ेगा। लेकिन तुम तो करोड़ों बार वही भूल कर चुके। रोज सांझ सोते हो, तब तुम जानते हो कि रात जो दिखाई पड़ता है, वह झूठा है। सुबह कर जानते हो, कि झूठा है। लेकिन रात के आठ घंटों में सच हो जाता है--तुम्हारे लिए ही। तो तुम्हारा जानना भीतर जाता ही नहीं। कांटा भी ज्यादा चुभ जाता है, इतना भी तुम्हारा जानना नहीं चुभेगा। जानने की कोई लकीर ही तुम्हारे ऊपर नहीं बनती।
महाभारत की कथा है, कि पांचों पांसठ वन में भटकते हैं। वे एक झील के किनारे आए हैं। वे प्यासे हैं। छोटे भाई को भेजा है पानी लेने, लेकिन जैसे ही वह झुक कर पानी भरने लगा, एक यक्ष ने, जो झील का मालिक था, उसने आवाज दी कि ठहरो। इस झील का नियम है, कि जो मेरे तीन प्रश्नों का उत्तर देगा वही केवल जल ले सकता है। और शर्त है, कि अगर तुम उत्तर न दे पाए या गलत उत्तर दिए, तो तुम उस झील से जिंदा न लौट सकोगे।
प्यासा था, नकुल, भाई भी प्यासे थे। तो उसने कहा, मैं राजी हूं जवाब देने को। लेकिन जवाब दे न पाया। गिर पड़ा। दूसरा भाई आया, तीसरा भाई आया; चार भाई लौटे नहीं झील से, तो युधिष्ठिर खोजने आए। चारों की लाशें पड़ी हैं किनारे पर। हैरान हुए थक क्या हुआ?
आवाज आई। जैसे ही झुके पानी को, कि ठहरो। जो तुम्हारे भाइयों के साथ हुआ, वही तुम्हारे साथ हो जाएगा। चुनौती है। तीन सवाल है। जवाब दे दो। क्योंकि इन तीन सवालों के जब मुझे जवाब मिल जाएंगे तो मैं इस यक्ष की योनि सु मुक्त होऊंगा। यह मेरे लिए अभिशाप है। तो मैं खोज रहा हूं जवाब। और जब तक मुझे जवाब न मिलेगा, मैं पानी न पीने दूंगा। पानी पीया तो मरोगे। बिना जवाब दिए भागने की कोशिश की तो मरोगे। जवाब तो चाहिए ही। जवाब गलत हुए तो मरोगे। युधिष्ठिर ने कहा, तुम पूछो तो।
उसने पहला ही सवाल पूछा, वह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है। वह उसने पूछा कि मनुष्य के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात तुम्हें क्या अनुभव हुई? युधिष्ठिर ने कहा, कि मनुष्य जान कर भी जानता नहीं, सीख कर भी सीखता नहीं। मनुष्य सीखता ही नहीं।
कहते हैं, यक्ष ने स्वीकार कर लिया कि यह मनुष्य के जीवन में सबसे अनूठी घटना है। कितना ही अनुभव हो, अनुभव का सार--नवनीत इकट्ठा नहीं होता।
कितनी बार तुमने सपना देखा,फिर भी तुम धोखा खाओगे? आज रात फिर सपना देखोगे। और जब सपना देखोगे तो झूठ सच मालूम होने लगता है। जिसको झूठ सच मालूम होता हो, हजारों बार जान कर भी उसके होश को होश कहोगे? वह प्रगाढ़ रूप से बेहोश है। सपना बेहोशी का लक्षण है। गहनतम बेहोशी का लक्षण है। सिर्फ मन पर बनी लकीरें और चित्र वास्तविक मालूम होने लगते हैं। असंगत घटनाएं भी सपने में सही मालूम पड़ती हैं।
एक मित्र चला आ रहा हैं--सपने में। तुम देखते हो, अचानक वह घोड़ा कैसे हो गया। तो भी तुम्हारे मन में यह संदेह पैदा नहीं होता, कि जो अभी तक आदमी था, अचानक घोड़ा कैसे हो गया? सपने में संदेह पैदा ही नहीं होता। बड़े से बड़े संदेहवादी भी सपने में संदेह नहीं करते। और जिसने सपने में संदेह कर लिया,उसका सपना टूट जाता है। वह सपने के बाहर हो जाता है।
सत्य के लिए चाहिए श्रद्धा, और सपने के लिए चाहिए संदेह। सत्य उसे मिलता है, जो श्रद्धा करता है। सपना उसका छूटता है, जो संदेह करता है। तुम उलटा ही कर रहे हो। सत्य पर संदेह करते हो, सपने पर श्रद्धा करते हो।तुम शीर्षासन कर रहे हो।
पैर पर खड़े हो जाओ। सपने पर करो संदेह। और जिस दिन तुम सपने पर संदेह कर लोगे, उसी दिन तुम पाओगे, सत्य पर श्रद्धा करना आसान हो गया। एकदम आसान हो गया। तुम अपने पैर पर खड़े हो गए। सपने पर संदेह आते ही सपना टूट जाता है। इतना भी तुम्हें खयाल आ जाए रात नींद में...कि यह सपना है, उसी वक्त टूट जाएगा। क्योंकि इतना होश भी पर्याप्त है सपने की मौत के लिए। सपना तो झूठ है।
मूर्च्छित व्यक्ति की दूसरी अवस्था है--स्वप्न। और तीसरी अवस्था है--निद्रा। तुम्हारी जागृति भी झूठी। सपने में तो जरा भी नहीं रह जाती। जागने में थोड़ी सी रहती मालूम पड़ती है। एक आभास, एक छाया, एक प्रतिध्वनि, लेकिन सपने में बिलकुल नहीं रह जाती। तो निद्रा में तो क्या रह जाएगी, जब सपना भी नहीं रह जाता? तब तो तुम ऐसे हो जाते हो जैसे सड़क पर पड़ी हुई चट्टान। तुम होते ही नहीं।
निद्रा का अर्थ है, स्वप्न शून्य निद्रा। तब तुम होते ही नहीं। तुम्हारा होना बिलकुल ही विलुप्त हो जाता है। दीया बिलकुल ही बुझ गया। अब जुगनू भी नहीं टिमटिमाती। जागने में जुगनू टिमटिमाती थी। सपने में जुगनू थी, पंख बंद थे। टिमटिमाती नहीं थी। निद्रा में समाप्त ही हो गई। बंद पंख की जुगनू भी नहीं है।
ये साधारण चित्त की अवस्थाएं हैं, मूर्च्छित चित्त की।
अमूर्च्छित चित्त की क्या दशा है? अमूर्च्छित चित्त की कोई अवस्थाएं नहीं हैं। क्योंकि अमूर्च्छित व्यक्ति अभी सपना नहीं देखता। अमूर्च्छित व्यक्ति को सपना हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिसको होश है उसे सपना कैसे धोखा दे पाएगा। कैसे झूठ सच मालूम होगा? जैसे प्रकाश के जलने पर अंधेरा खो जाता है, ऐसे ही होश के आने पर सपने खो जाते हैं। अमूर्च्छित व्यक्ति, जागा हुआ प्रबुद्ध व्यक्ति सपने से मुक्त हो जाता है, और निद्रा से भी।
इसका यह अर्थ नहीं, कि वह सोता नहीं। सोता है, लेकिन जागा हुआ सोता है। जैसे तुम जागे हुए भी सोते हो, वैसे वह सोया हुआ भी जागता है।
कृष्ण ने गीता में कहा है कि योगी उस समय भी जागता है, जब भोगी की रात है। जब भोगी सोता है, तब भी योगी जागता है। इसका यह अर्थ नहीं, कि कृष्ण सोते नहीं थे। शरीर तो विश्राम करेगा, शरीर तो यंत्र है। थकेला और विश्राम करेगा। और शरीर के पुनर्जीवन के लिए विश्राम जरूरी है। बस, शरीर ही सोता है लेकिन। भीतर का दीया जलता ही हरता है। शरीर सोया रहता है। भीतर का पुरुष जागा रहता है।
जागृत व्यक्ति की कोई अवस्थाएं नहीं हैं। जागृति ही उसकी अवस्था है। वह जागे में भी जागता है, सोने में भी जागता है। जागना उसका स्वभाव है। और इसलिए समस्त योग एक ही कुंजी में भरोसा करता है। और वह कुंजी है, जाग जाना। जिस दिन जागने की कुंजी तुम्हारे नींद के ताले पर लग जाती है, खुल गए द्वार।
कबीर ने इन वचनों में उसी कुंजी की चर्चा है। इन्हें समझो। मन रे जागत रहिये भाई।
बड़ी गहरी नींद है। जागते-जागते ही टूटेगी। निरंतर निरंतर अभ्यास करने से ही मिटेगी। लड़ते रहने से ही कटेगी। चेष्टा जारी रहे; कितनी ही छोटी हो, तो भी एक दिन बूंद-बूंद गिर कर यह चट्टान टूट जाएगी।
रहीम ने कहा है, रसरी आवत जात है, सिल पर पड़ निशान। रस्सी ताकत क्या? लेकिन चलती रहती है कुएं पर, भरती रहती है पानी को, और मजबूत से मजबूत चट्टान पर निशान बन जाता है। अगर तुम्हें बोध की रसरी सरकती ही रहे तो तुम्हारे जीवन के घाट पर, तो कितनी ही हो, गहरी तंद्रा, आज नहीं कल निशान छूट जाएगा।
मन रे जाग रहिये भाई।
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई।
असावधान होकर जीओगे, गाफिल होकर जीओगे, बेहोश जीओगे, नशे-नशे में जीओगे तो वह जो भीतर बसता है, वह जो भीतर का मालिक है, उसका तुम्हें कभी पता न चलेगा। वह जो भीतर बसा है तुम्हारे घर में।
संस्कृत में, सांख्य और वैशेषिक शास्त्रों में आत्मा को पुरुष कहा है। पुरुष शब्द.बड़ा प्यारा है। पुरुष शब्द उसी घात से बनता है जिससे पुर बनता है। पुर यानी नगर। कानपुर, नागपुर पुर यानी नगर। और पुरुष यानी जो उस नगर के भीतर रहता है--निवासी।
कबीर उसको कहते हैं बसत--वह जो बसा है। हम कहते हैं न गांव को: बस्ती--वह जो भीतर बसा है।
गाफिल होइ बसत मति खोवै।
अगर बेहोश चले, तो वह जो भीतर बसा है, उसकी जो प्रतिभा है, उसकी जो चमक है, जो आभा है वह खो जाएगी। उसकी मति धूमिल हो जाएगी। उसके ऊपर धूल जम जाएगी। दर्पण पर धूल जम जाती है, तो दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। ऐसे तुम्हारे भीतर जो बसा है, अगर नींद की पर्त ही पर्त तुम जमाते गए, तो उसकी मति, उसकी प्रतिभा, उसकी चमक खो जाएगी।
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई।
और जब भीतर का पुरुष, भीतर का दीया अंधेरे से ढंक जाए, गहन रात में खो जाए, भीतर की प्रतिभा सो जाए, जागी न हो, तो फिर चोर घर में घुसना शुरू हो जाता है।
बुद्ध ने कहा है, घर में कोई न भी हो और सिर्फ दीया जलता हो तो भी चोर डरते हैं। घर में कोई न भी हो लेकिन दीया जलता हो, तो भी चोर दूर दूर चलते हैं। क्योंकि दीए के जलने की खबर, शायद घर में कोई हो! जिस दिन भीतर का दीया जलता है, उस दिन प्रवेश नहीं करते।
चोर कौन है? जो भी तुम्हें प्रतिक्रिया में ले जाते हैं, वे सभी चोर हैं।
किसी ने गाली दी और तुम प्रभावित हो गए। चोर भीतर घुस गया। अब यह चोर तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा। यह बड़े मजे की बात है; गाली देनेवाला तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाता था, न पहुंचा सकता था। उसकी कोई सामर्थ्य न थी। चोर बाहर था। क्या करेगा? लेकिन तुमने चोर को भीतर बुला लिया। तुम क्रोधित हो गए। अब नुकसान होगा।
महावीर ने बार-बार कहा है, कि तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र भी नहीं है और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु भी नहीं है। अगर तुम चोरों को भीतर घुसने दोगे, तो तुम्हीं शत्रु हो। जिसने गाली दी, वह शत्रु नहीं है। क्योंकि इसकी गाली तो बाहर पड़ी रह जाती, अगर तुम अक्रोध में रहे आते। अप्रभावित अगर तुम गुजर जाते, तो इसकी गाली भीतर प्रवेश कैसे करती? किसी ने सम्मान किया, सम्मान में कोई खतरा नहीं है। लेकिन तुम अकड़ गए, अहंकार आ गया। चोर भीतर घुस गया। चोर तुम्हारे कारण भीतर घुसता है, दूसरे के कारण नहीं।
एक सुंदर स्त्री गुजरी। उसे पता भी न होगा, कि आप वहां मंदिर के सामने खड़े क्या कर रहे थे। या मंदिर के भीतर आप तो पूजा कर रहे थे और एक स्त्री भी आकर झुकी। स्त्री को कुछ पता भी न हो, स्त्री का कुछ हाथ भी न हो, चोर आपके भीतर घुस गया। किसी ने गाली दी, तब तो हमें यह भी लगता है कि कम से कम इसने गाली तो दी। कुछ तो इसका हाथ है। लेकिन एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, उसने आपकी तरफ देखा भी नहीं, लेकिन चोर भीतर घुस गया। आपने चोर खुद ही बुला लिया। काम जग गया। वासना जग गई। आप गाफिल हो गए। मुश्किल में पड़ गए। बेचैनी हो गई। एक उत्तप्तता ने घेर लिया। खो दिया केंद्र अपना। सपना जग गया। नींद आ गई।
गाफिल होइ बसत माति खौवे, चोर मुसै घर जाई।
जैसे ही तुम गाफिल हुए, जैसे ही चोर भीतर घुस जाता है। तो तुम्हारी गफलत ही असली कारण है।
बुद्ध एक गांव के पास से गुजरे। लोगों ने गालियां दीं, अपमान किया। बुद्ध ने कहा, क्या मैं जाऊं, अगर बात पूरी हो गई हो? क्योंकि दूसरे गांव मुझे जल्दी पहुंचना है। लोगों ने कहा, यह कोई बात नथी। हमने भद्दे से भद्दे शब्दों का प्रयोग किया है क्या तुम बहरे हो गए? क्या तुमने सुना नहीं।
बुद्ध ने कहा कि सुन रहा हूं। पूरे गौर से सुन रहा हूं। इस तरह सुन रहा हूं, जैसा पहले मैंने कभी सुना ही न था, लेकिन तुम जरा देर तक के आए। दस साल पहले आना था। अब मैं जाग गया हूं। अब चोरों को भीतर घुसने का मौका न रहा। तुम गाली देते हो। मैं देखता हूं, गाली मेरे तक आती है और लौट जाती है।
ग्राहक मौजूद नहीं है। तुम दुकानदार हो। तुम्हें जो बेचना है, तुम ले आए हो। लेकिन ग्राहक मौजूद नहीं है। ग्राहक दस साल हुए मर गया। पीछे के गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाए थे। मेरा पेट भरा था, तो मैंने उससे कहा, वापिस ले जाओ। मैं तुमसे पूछता हूं, वे क्या करेंगे? किसी ने भीड़ में से कहा, जाकर गांव में बांट देंगे, खा लेंगे।
बुद्ध ने कहा, तुम क्या करोगे? तुम गालियों के थाल सजा कर लाए। मेरा पेट भरा है। दस साल से भर गया। तुम जरा देर कर के आए। अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को वापस ले जाओगे, बांटोगे, या खुद खाओगे? मैं नहीं लेता। तुम गलत आदमी के पास आ गए। और जब तक मैं न लूं, तुम कैसे गाली दे सकते हो? देना तुम्हारे हाथ में है, लेने की मालकियत तो सदा से मेरे हाथ में है। देने से ही तो काम पूरा नहीं हो जाता। वह अधूरी प्रक्रिया है।
और मजा यह है, कि अगर तुम लेने को तत्पर हो, तो बिना दिए भी मिल जाता है। कोई आदमी हंस रहा है। वह किसी और कारण से हंस रहा है, तुमको चोट लग गई। तुम समझे, तुम्हारे कारण हंस रहा है। तुम्हारी अकड़ ऐसी है कि तुम सोचते हो, दुनिया में जो भी हो रहा है, तुम्हारे कारण हो रहा है। लोग हंस रहे हैं, तुम्हारी वजह से हंस रहे हैं? लोग धीरे-धीरे घुसपुस करके बातें कर रहे हैं, तो तुम्हारी निंदा कर रहे हैं। अन्यथा घुसपुस करके क्यों बातें करेंगे?
जैसे तुम केंद्र हो सारे संसार के, कि जो भी यहां हो रहे, वह तुम्हारी वजह से हो रहा है? फूल खिल रहे हैं, तो तुम्हारे लिए? चांदत्तारे उग रहे हैं तो तुम्हारे लिए? गालियां आ रही हैं तो तुम्हारे लिए? लोग हंसते रहे हैं, मजाक कर रहे हैं तो तुम्हारे लिए। तुमने सारी दुनिया को अपने सिर पर उठा रखा है। जो तुम्हें नहीं दिया गया है, वह भी तुम ले लेते हो।
होशपूर्ण व्यक्ति, बुद्ध जैसा व्यक्ति वही लेता है, जो लेना है। तुम्हारे देने का सवाल नहीं है, तुम्हारे न देने का सवाल नहीं है। बुद्ध मालिक हैं। गुलामी के दिन होते दस साल पहले, तो पता भी न चलता और गालियां ले ली होतीं
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर आई।
षटचक्र की कनक कठोरी, बस्त भाव है सोई।
कबीर कहते हैं--यह भीतर का--कबीर का--मनुष्य के अंतस्तल का विश्लेषण है।
योग छह चक्रों को मानता है; जिनके भीतर छिपी है तुम्हारी चेतना। ये छह षटचक्र तुम्हारे इस शरीर के हिस्से नहीं हैं। इस शरीर के भीतर जो छिपा है सूक्ष्म शरीर, उस सूक्ष्म शरीर के हिस्से हैं। यह छह चक्र ऊर्जा के चक्र हैं। इन छह चक्रों के कारण ही तुम ऊर्जावान हो। तुम्हें जो जीवन में शक्ति मालूम पड़ती है--उठते हो, बैठते हो, चलते हो, काम करते हो, फिर थक जाते हो फिर शक्ति वापस लौट आती है इन छह चक्रों के, इन छह डायनेमोंज के द्वारा तुम्हारे भीतर ऊर्जा पैदा हो रही है।
जैसे डायनेमो पैदा करता है विद्युत को। जैसे तुम पानी से विद्युत को पैदा होते देखो? पानी में विद्युत छिपी पड़ी है। लेकिन उसे निकालने के लिए यंत्र चाहिए। पानी में विद्युत का प्रगाढ़ रूप छिपा है। लेकिन यंत्र चाहिए, जिनसे विद्युत बाहर आ जाए और उपयोग में आ जाए।
तुम्हारी आत्मा प्रगाढ़ ऊर्जा है, अनंत ऊर्जा है। जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा स्वयं परमात्मा से नहीं है। अनंत, अक्षय उसकी शक्ति है। लेकिन उस शक्ति को सक्रिय बनाने के लिए भीतर छह चक्र हैं। उन चक्रों के घूमने से, निरंतर घूमने से आत्मा की शक्ति शरीर तक प्रवाहित होत है। योग उन छह चक्रों को जगाने की बड़ी चेष्टा करती है।
जब वे छह ही चक्र ठीक-ठीक सक्रिय हो जाते हैं, तब जीवन में बड़ी ऊर्जा का आविर्भाव आता है। तब तुम अन थके जीते हो। तब तुम्हारे भीतर का एक बाढ़ होती है ऊर्जा की। तुम कितनी ही बांटो, बंटता नहीं। तुम कितना ही लुटाओ, लुटता नहीं। तुम देते चले जाओ, और बहता चला आता है। तब तुम्हारी अपार क्षमता हो जाती है। तब तुम्हारा दान कोई सीमा नहीं जानता। तुम प्रेम बांटो, प्रेम बढ़ता है। तुम ज्ञान बांटो, ज्ञान बढ़ता। तुम जो चाहो। एक बार ये छह चक्र ठीक से चलने लगे, तुम्हारे यंत्र सुनियोजित व्यवस्था से चलने लगे, तो तुम्हारे भीतर कभी भी बाढ़ की कभी नहीं आती। तब तुम कभी कृपण नहीं होते। इसलिए आज तक कोई भी व्यक्ति, जिसने भीतर की थोड़ी सी गंध पाई हो, कृपण नहीं पाया गया है।
सारी मनुष्यता कृपण है। कृपणता का कारण है, क्योंकि तुम्हें लगा है, चुक जाएगा। जो तुम्हारे पास है, वह इतना थोड़ा है, कि तुम डरे हो। उसे बचाते हो। और बड़ी जटिल बात यह है कि जितना तुम बचाते हो, उतना ही तुम्हारी षटचक्रों की प्रक्रिया कम हो जाती है। क्योंकि जब जरूरत ही नहीं रहती--बांटते हो, तो जरूर पैदा होती है। जरूरत पैदा होती है तो चक्र घूमते है। ज्यादा ऊर्जा को लाते हैं। जब जरूरत ही नहीं रहती, चक्र थिर हो जाते हैं, जंग खा जाते हैं। चलते ही नहीं।
कृपण आदमी कमजोर हो जाता है। कृपण से ज्यादा कमजोर कोई भी नहीं। लोभ कमजोर हो जाता है। दानी फैलता है। लोभी सिकुड़ जाता है। ऐसे ही, जैसे एक कुंआ है; तुम उसमें पानी भर लेते हो रोज, तो कुएं के नीचे झरने हैं, उन झरनों से पानी चला आता है। नया पानी, नये जल के स्रोत खुल जाते हैं। तुम रोज पानी उलीचते जाते हो। नया पानी कुएं में आता जाता है। लेकिन कुएं का तल हमेशा वही रहता है। खींच लो कितना ही पानी, फिर कुएं में पानी भर जाता है; और यह पानी नया होगा। और नये डरने खुल जाएंगे। जितनी जरूरत होगी, उतनी ऊर्जा बहेगी।
लेकिन किसी कुएं में कंजूसी आ जाए, या किसी कुएं के मालिक को कृपणता आ जाए, कि इतना सा पानी है कुल। इसको खींचकर लुटा दिया, तो कुंआ खाली हो जाएगा। कुंआ कोई घड़ा नहीं है, कि तुमने निकाल लिया तो खाली हो जाएगा। कुंआ कोई मुर्दा नहीं है। जीवंत धारा है उसकी। वह नीचे सागर से जुड़ा है। कंजूसी मत करो। नहीं तो कुंआ सड़ेगा उसका पानी पीने योग्य नहीं रह जाएगा। और बढ़ेगा तो नहीं, उसके झरने धीरे-धीरे बंद हो जाएंगे। उनकी जरूरत न रहेगी। उन पर मिट्टी जम जाएगी। कंकड़ बैठे जाएंगे। कुएं का पानी सड़ेगा। और झरने बंद हो जाएंगे। ऐसा ही होता है कृपण आदमी के जीवन में। जिस आदमी के जीवन में थोड़ी सी भी जागृति आती है, वह बांटना शुरू करता है। वह अपने को बांटता है। जितना बांटता है, उतना बढ़ता है। जितना बांटता है, उतने नये स्रोत उपलब्ध होते हैं। जितना बांटता है, उतना ही पाता है, अनंत शक्ति उपलब्ध है। अनंत ऊर्जा उपलब्ध है।
षटचक्र की कनक कोठरी।
तुम स्वर्ण के अंबार हो। तुम्हारी संपदा की कोई सीमा नहीं--इसलिए कनक कठोरी। तुम स्वर्ण के खजाने हो। वह खजाना भी कोई मरा हुआ स्वर्ण नहीं है। जीवंत ऊर्जा है परमात्मा की। लेकिन वह छह चक्रों के द्वारा जुड़ा है।
षटचक्र की कनक कोठरी, बस्त भाव है सोई।
और उस कोठरी के भीतर ही, उस अनंत संपदा के भीतर ही बसा हुआ है पुरुष, तुम्हारी आत्मा। ये छह चक्र सक्रिय होने चाहिए। जितने सक्रिय होंगे, उतना ही भीतर प्रवेश होगा। और ठीक अंतरतम में, ठीक मध्य बिंदु पर, तुम्हारे होने के ठीक केंद्र में परमात्मा छिपा है। वही है असली बसनेवाला। शरीर घर है। मन घर है। और मन से भी गहरा घर षटचक्र है। ताला कुंजी फुलफ के लागै, उघड़ता बार न होई।
बस, ठीक कुंजी तुम्हें मिल जाए, ताले में लग जाए, तो कुंडलिनी जागृत हो जाती है। ऊर्जा जग जाती है। उन छहों चक्रों में एक ही ऊर्जा का प्रवाह हो जाता है। छह चक्रों को जोड़ने वाली ऊर्जा का नाम कुंडलिनी है। चक्र अलग-अलग चलते हैं, तो तुम संसार के काम के योग्य शक्ति पैदा कर पाते हो।
जब छहों चक्र इकट्ठे एक सूत्र में आबद्ध हो जाते हैं, जैसे कि माला के मनके एक ही धागे में बंध जाते हैं। अलग-अलग मनके भी मनके हैं, लेकिन माला नहीं। अलग-चक्र भी चक्र हैं, और उनसे शक्ति पैदा होती है, लेकिन माला नहीं है अभी। जब छहों चक्र जुड़ जाते हैं एक धारा में, एक लयबद्धता में, छहों एक साथ सक्रिय होते हैं और उन छहों के बीच एक संगीत निर्मित हो जाता है, एक माला अनुस्यूत हो जाती है, तो उसी का नाम कुंडलिनी है। और जिस दिन कुंडलिनी जग जाती है--उघड़ता बारत न होई। फिर तुम्हारे परमात्मा स्वरूप के उघड़ने में क्षण भर की भी देर नहीं होती।
पंच पहिरवा सोई गए हैं, बसतैं जागण लागी।
और जैसे ही तुम जागते हो, पांचों इंद्रियां सो जाती हैं। जब तक पांचों इंद्रियां जागती हैं, तब तब तुम सोए रहते हो। जैसे जैसे इंद्रियां सोती जाती है, शांत हो जाती हैं, वही ऊर्जा, जो इंद्रियों से प्रवाहित होकर बाहर जा रही थी, वही ऊर्जा अंतर्यात्रा पर निकल जाती है। उसी से तुम जागने लगते हो।
पंच पहिरवा सोई गए हैं, बसतैं जागण लागी।
वह जो भीतर बसा है, वह जाग गया। वे पांच पहरेदार सो गए।
जरा मरण व्यापै कछु नाही, गगन मंडल लै लागी।
और अब न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म। क्योंकि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह कभी जन्मा नहीं, कभी मरा नहीं। मरना और जन्मना उसके बाहर की घटना है। तुम्हारा शरीर मरा है, जन्मा है, तुम्हारा मन, तुम्हारे रूप, नाम, अनंत अनंत बार बदले हैं। लेकिन वह जो भीतर छिपा है अविनाशी, वह सदा वही का वही रहा है। वह कभी बदला नहीं। न पैदा हुआ, न मरेगा। न वह बनाया गया है और न मिटेगा।
जरा मरण व्यापै कछु नाही...
और जिसने उसकी साक्षात अनुभूति कर ली, उसके लिए मृत्यु का भय मिट जाता है। और जीवन की अभीप्सा मिट जाती है। वह जीवन की जो जिजीविषा है--लस्ट फार लाइफ, वह भी मिट जाती है।
...गगन मंडल लै लागी।
अब उसकी तो सारी ज्योति, लौ, लगन शून्य की तरफ लग जाती है। गगन यानी शून्य,
आकाश, निराकार। ब्रह्म कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो। अब तो उसकी सारी ज्योति शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है।
तुम्हारी जीवन ज्योति सदा वस्तुओं की तरफ प्रवाहित होती है। आकृति की तरफ, रूप की तरफ, धन की तरफ, शरीर की तरफ, मकान की तरफ, लेकिन सदा वस्तुओं की तरफ। इंद्रियां वस्तुओं की तरफ प्रवाहमान हैं। चेतना सदा निर्विकार, निराकार, शून्य की तरफ प्रवाहमान है।
पंच पहिरवा सोई गये हैं, बसतैं जागण लागी।
जरा मरण व्यापै कछु नाही, गगन मंडल लै लागी।
करत विचार मन ही मन उपजी, ना कहीं गया न आया।
कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया।
करत विचार--यह सूत्र बड़ा मूल्यवान है। कबीर के एक-एक सूत्र में एक-एक उपनिषद समा जाए।
करत विचार मन ही मन उपजी...
कबीर जिसे विचार कहते हैं, वह तुम्हारा विचार नहीं है। तुमने तो कभी विचार किया ही नहीं तुम्हारे भीतर विचार तो बहुत हैं, लेकिन तुमने विचार कभी नहीं किया। इस भेद को ठीक से समझ लेना। थाटस--विचारों की तो तुम्हारे भीतर भीड़ है, लेकिन थिंकिंग--विचार की तुम्हारे भीतर बिलकुल संभावना नहीं। विचार तुम्हारे भीतर बहुत हैं, लेकिन तुम्हारा उसमें कौन सा विचार है? सब उधार हैं। तुमने क्या विचारा है? बाहर से आ गया है। जो बाहर से आ जाए, उसे क्या विचार कहना! दूसरे का है, बासा है, जुटन है, अच्छिष्ठ है, त्साज्य है। तुम्हारा अपना कोई विचार है?
जिसको तुम अपना भी कहते हो, वह भी गौर करोगे तो पाओगे किसी और से, कहीं से पा लिया है। ज्यादा से ज्यादा तुम इतना ही कर पाए होगे, कि किसी एक के विचार की टांग और किसी दूसरे के विचार का सिर और किसी तीसरे के विचार के हाथ जोड़ कर तुमने एक प्रतिमा बना ली हो। जो नई लगती हो। लेकिन वह नई है नहीं। वह भी दूसरों के विचारों का जोड़ है। संयोग नया होगा, लेकिन विचार पुराना है। उसमें कुछ भी नया नहीं है।
मौलिक विचार तो तुम्हें तभी हो पाएगा, जब ध्यान लग जाए। ध्यान का अर्थ है जब विचारों की भीड़ चली जाए। इसलिए असली विचार की क्षमता तो तब आती है, जब विचारों की भीड़ विदा हो जाती है। जब भीतर मन का खुला आकाश रह जाता है, जिसमें एक भी बादल विचार का नहीं। तब विचार की क्षमता उपजती है। तब तुम विचार करते नहीं। तब तुम सोचते नहीं, तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब विचार दर्शन हो जाता है।
करत विचार मन ही मन उपजी
कबीर उसी विचार की बात कर रहे हैं। कि ऐसे बैठे ध्यान में--शांत! कोई विचार की भीड़ नहीं, शून्य में लगन लगी, शून्य की तरफ भागती लौ जीवन की, ऐसे विचार के क्षण में--मन ही मन उपती। भीतर यह उठा। भीतर आविर्भूत हुआ यह भाव। यह धारणा जन्मी।
...न कहीं गया न आया।
न तो कहीं गया अब तक, और न कहीं आया अब तक। न कोई जन्म हुआ, न कोई मृत्यु हुई।
सब सपना था। जन्म और मरना और सारा व्यापार दोनों के बीच--सब सपना था। इसलिए हिंदू इस संसार को माया कहते हैं। माया का अर्थ है, जो वस्तुतः जो जागते हैं, उन्हें दिखाई पड़ता है कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह भी सपना था। न कहीं गया, न आया। सदा से वहीं हूं, जहां था। शाश्वत, सनातन, नित्य! जरा भी अंतर नहीं पड़ा।
तुम आते हो, जाते हो। थोड़ा समझो; घर से तुम उठे, यहां चले आए। यहां से उठोगे, घर जाओगे, दुकान, दफ्तर जाओगे। लेकिन तुम्हारे भीतर जो है, वह कहीं आया? कहीं गया? वह तो वहीं के वहीं है। शरीर डांवाडोल, उठ कर यहां चले आए। शरीर डांवाडोल, उठकर वापस चले गए। लेकिन तुम्हारे भीतर जो चितस्वरूपन है तुम्हारा, वह कहीं आया? कहीं गया? वह तो वहीं की वहीं है।
तुम चाहे लंदन जाओ, चाहे कलकत्ता, चाहे मास्को, चाहे पेकिंग, शरीर ही जाएगा, आएगा। मन जाएगा। आएगा। तुम तो वहीं के वहीं रहोगे। तुम कहां जाओगे? तुम कैसे जाओगे? उस परिचित, उप परम-चेतना का कोई आवागमन नहीं है।
इसलिए कबीर अनूठी बात कह रहे हैं...
करत विचार मन ही मन उपजी...
ऐसे शांत शून्य के क्षण में उठी यह बात।
...न कहीं गया न आया।
और जैसे ही यह प्रतीति हुई, कि न कहीं गया न आया--
कहे कबीर संसा सब छूटा...
उसी क्षण सब संशय छूट गए।
...राम रतन धन पाया।
उसी क्षण मिल गई वह संपदा, जो परमात्मा की है, ब्रह्म की है--पाइबो रे पाइबो रे ब्रह्मज्ञान।
राम रतन धन पाया।
और जब तक रतन का धन न मिल जाए, तब तक जानना कि तुम मूर्च्छित हो। वह कसौटी है। वही निकष है।
जैसे सोने को कसते हैं, निकष पर, कसौटी पर, ऐसे ही अमूर्च्छा पर कसे जाओगे तुम। अगर मूर्च्छित हो, तो तुम मिट्टी हो। अमूर्च्छित हो, तो तुम परमात्मा हो। मूर्च्छित, तो तुम मृण्मय। अमूर्च्छित, तो तुम चिन्मय। मूर्च्छा ही तुम्हारे जीवन की टूट जाए तो कुछ और तोड़ना नहीं है।
ज्ञानियों ने नहीं कहा, चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, हिंसा मत करो। नहीं। ज्ञानियों ने तो इतना ही कहा है, कि मूर्च्छा मत करो, और जिसने मूर्च्छा न की, वह बेईमानी करेगा नहीं। कर नहीं सकता। चोरी करेगा नहीं। चोरी हो नहीं सकती। हिंसा असंभव है।
महावीर से कोई पूछता है साधु कौन? असाधु कौन? तो महावीर ने बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र दिया है। महावीर ने कहा, कि जो सोया है, वह असाधु। जो जागा है, वह साधु असुत्ता मुनि। सुत्ता अमुनि।
जैन साधु भी सोच विचार में पड़ेंगे। क्योंकि महावीर को कहना था, जो अहिंसा का पालन करता है वह साधु। जो रात्रि भोजन नहीं करता वह साधु। जो पानी छान कर पीता है वह साधु। लेकिन महावीर ने बात ही नहीं उठाई अहिंसा की। महावीर ने रात दिन की चर्चा ही न की। पानी छानने न छानने की कोई चर्चा ही नहीं उठाई।
महावीर उठाते वैसी चर्चा, तो साधारण साधु रहते। महावीर जाग्रत पुरुष हैं--बुद्धत्व को, जिनत्व को उपलब्ध। उन्होंने कुंजी की बात की। सारसूत्र कहा--सुत्ता अमुनि। दो छोटे शब्द!
सोया, वह असाधु। असुत्ता मुनि: जागा, वह साधु।
वही कबीर कह रहे हैं--
मन रे, जागत रहिये भाई।
आज इतना ही।
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