सोमवार, 9 अप्रैल 2018

अजहू चेत गवांर-(पलटू दास)-प्रवचन-07

सहज आसिकी नाहिं—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जूलाई, 1977;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:


सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।
सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।
जीते जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन रात रहै सूली उपर बासा।।
मान बड़ाई खोय नींद भर नाहीं सोना।
तिलभर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।।
पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।2।।


यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।
खाला का घर नाहिं, सीस जब धरै उतारी।
हाथ-पांव कटि जाय, करै ना संत करारी।।
ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै
सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै।।
पलटू ऐसे घर महैं, बड़े मरद जे जाहिं।
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।

लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।
और बिगाड़ैं काम, साइत जनि सोधैं कोई।
एक भरोसा नाहिं, कुसल कहुवां से होई।।
जेकरे हाथै कुसल, ताहि को दिया बिसारी
आपन इक चतुराई बीच में करै अनारी।।
तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवार, जगत् है झूठी काया।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ै काम।।

जीसस ने कहा है : जो खोएगा वही पाएगा। जो बचाएगा, सब खो देगा।
प्रेम के शास्त्र का यह बुनियादी सिद्धांत है। कंजूस की वहां गति नहीं। पकड़ने वाले के लिए वहां उपाय नहीं। वहां खोनेवाले की मालिकी है। वहां जो बचाते हैं, दीन और दरिद्र रह जाते हैं। वहां जो लुटाते हैं, वही पाते हैं।
प्रेम का जगत् बड़ी उलटबांसी है।
संसार में एक गणित चलता है; प्रेम का गणित बड़ा उलटा है। संसार में बचाओगे तो बचेगा। प्रेम में लुटाओगे तो बचेगा। संसार में लुटाओगे तो दीन-दरिद्र हो जाओगे। प्रेम में न लुटाया तो दीन-दरिद्र हो जाओगे।
संसार से सत्य की दिशा बिल्कुल उलटी है।
संसार परमात्मा की प्रतिछाया है। जैसे कभी-कभी किसी झील पर तुम खड़े हो और झील में झांक कर देखो, तो जमीन पर तो तुम्हारे पैर नीचे हैं और सिर ऊपर है; लेकिन झील में दिखाई पड़ेगा कि पैर ऊपर हैं और सिर नीचे है।
परमात्मा से संसार ठीक उलटा है। संसार के गणित को उलटा लो तो धर्म का गणित बन जाता है।
आज के सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं। उनका मूल्य नहीं आंका जा सकता। धर्म के शास्त्र की जो बुनियादी भित्ति है, इन्हीं सूत्रों की ईंटों से बनी है। इन्हें खूब भाव से ग्रहण करना। इनके रस में डूबना।

"सीस उतारै हथ से, सहज आसिकी नाहिं।'
तुमने सदा सुना है कि भक्ति का मार्ग बड़ा सरल है। बात सच भी है और झूठ भी है। सच इसलिए कि जिन्हें प्रेम आ जाए उनके लिए भक्ति से सरल और क्या! झूठ इसलिए कि प्रेम आना बड़ा कठिन है। प्रेम आ जाए तो सब सुगम। फिर तो प्रयास करना ही नहीं होता--प्रसाद में मिलता है। प्रभु की तरफ जाना ही नहीं पड़ता भक्त को, भगवान ही भक्त को खोजने आता है। हरि सुमिरण मेरा करैं! भक्त की स्मृति हरि को होने लगती है। भक्त तो भूल ही जाता है। प्रेम में किसको याद रहती है! प्रेम की मस्ती में कौन हिसाब रखता है--मंत्र, पाठ-पूजा, प्रार्थना, उपासना! लेकिन परमात्मा स्मरण रखने लगता है। इधर भक्त का स्मरण भूलता है उधर परमात्मा में स्मरण जगता है। और मजा तो तभी है जब हरि तुम्हारा स्मरण करे। तुम्हीं स्मरण करते रहे तो कुछ खास मजा नहीं। जब आग दोनों तरफ से लगे तभी प्रेम के फल पकते हैं।
तो तुमने सुना है बहुत बार कि भक्ति बड़ी आसान है। तुमने यह भी सुना है कि कलियुग में तो भक्ति ही मार्ग है। सच्चाई है इसमें और सच्चाई नहीं भी। सच्चाई है अगर प्रेम कर पाओ। मगर प्रेम कर पाओगे? प्रश्न तो वहां खड़ा है।

"सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।'
पलटू कहते हैं : भूलकर भी यह मत सोचना कि प्रेम का रास्ता सरल है, कि आशिकी सहज है कि सुगम है। हां, सुगम है किन्हीं के लिए। जो अपने सिर को अपने हाथ से उतार कर रख दें, उनके लिए ज़रा भी कठिन नहीं है। लेकिन जिन्होंने अपने को बचा-बचा कर चाहा कि पहुंच जाएं, उनके लिए महा दुर्गम है यह पथ। वे कभी नहीं पहुंच पाएंगे। जिन्होंने सोचा कि हम अपने को भी बचा लें और परमात्मा को भी पा लें, वे भटकेंगे अनंत काल तक, कभी न पहुंच पाएंगे।
भक्ति के मार्ग पर अपने को बचाने का तो उपाय ही नहीं है। भक्ति के पहले ही कदम में अपने को गिरा देना है। समर्पण भक्ति की पहली किरण है। तपस्वी को अंतिम। तपस्वी तो अंत में गिराता है अपने अहंकार को; पहले शुद्ध करता है--उपवास से, तप से, व्रत से, योग से; शुद्ध करता है अपने अहंकार को; पहले अपने "मैं' की शुद्धि करता है। जब "मैं' बिल्कुल शुद्ध हो जाता है तब आखिरी घड़ी में, उसे याद आती है बात कि और सब तो हो गया, अब यह शुद्ध "मैं' ही बाधा बन रहा है। झीना-सा परदा रह गया, कोई भारी परदा नहीं रह गया। पारदर्शी परदा रह गया; जैसे शुद्ध कांच हो। दूर से देखो तो पता चलता है कि दरवाजा खुला ही है। पास आओगे, पास आओगे, तब पता चलेगा कि कांच का दरवाजा है, बंद है; यह कांच भी तोड़ना पड़ेगा। पारदर्शी था, इसलिए दूर से ऐसा लगता था खुला ही है, कोई दरवाजा नहीं है। अब पता चलता है कि कांच की दीवाल अभी बीच में खड़ी है। जब तक धूल जमी रहती है कांच पर तब तक तो पता चलता है कि कांच है; जब धूल बिल्कुल साफ हो जाती है तो पता ही नहीं चलता कि कांच है। फिर तो जब निकलने लगोगे आखिरी घड़ी में, संसार से परमात्मा में प्रवेश होगा, तब सिर टकराएगा।
तो भक्त को तो पहले ही कदम पर वही करना होता है जो ज्ञानी और तपस्वी अंतिम कदम पर करता है। क्योंकि भक्ति की तो पहली शर्त यही है : सीस उतारै हाथ से। अपने ही हाथ से अपने सीस को उतार कर रख देना है। दूसरा उतारता है, तब भी हम नहीं चाहते हमारा सिर उतर जाए। तो अपने हाथ से उतारना तो बड़ा कठिन हो जाएगा। सहज आसिकी नाहिं। अपने ही हाथ से अपना ही सिर काटना है। और यह सिर ऐसा है कि दूसरे के काटे न कटेगा। दूसरा तुम्हारी देह के सिर को तो काट सकता है, मगर फिर उग आएगा, फिर नया जन्म हो जाएगा। जब तक तुम न काटोगे अपने अंतरतम के सिर को, अपने अहंकार को, तब तक जन्मों की यात्रा जारी रहेगी। दूसरा नहीं काट सकता। कोई भी नहीं काट सकता। कोई उपाय नहीं है। कोई इतना सूक्ष्म अस्त्र नहीं है कि तुम्हारे भीतर के अहंकार को बाहर से काटा जा सके।
गुरु भी कह सकता है, पुकार सकता है, तुम्हें प्यास से भर सकता है, चुनौती दे सकता है, मगर काट नहीं सकता तुम्हारे अहंकार को। वह काम तो तुम्हें ही करना पड़ेगा। इसलिए बात बड़ी कठिन हो जाती है : अपना ही सिर काटना!
जब तुम सुनते हो कि अहंकार को छोड़ देना है तो तुम्हें बात इतनी कठिन नहीं मालूम पड़ती। लेकिन ज़रा ख्याल करो। राह से निकलते हो, कोई हंस देता है, सह नहीं पाते। हंसी कांटे की तरह चुभ जाती है। कोई ज़रा-सा अपमान कर देता है, आग की लपटें उठने लगती हैं। ज़रा-सी कोई प्रशंसा कर देता है तो तुम फूल के कुप्पा हो जाते हो। यह अहंकार जो दूसरे की ज़रा-सी चोट से तिलमिला जाता है और बदला और प्रतिशोध लेने को तैयार हो जाता है, इस अहंकार को तुम स्वयं ही काट पाओगे? अपने ही हाथ से काट पाओगे? और जब तक न काटो तब तक पहली शर्त ही पूरी नहीं होती; प्रेम के मंदिर में प्रवेश ही नहीं होता।

"सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।
सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।'
यह कोई मिठाई नहीं है भक्ति। बड़ी मीठी है, सच; मगर मिठाई जैसी सस्ती नहीं है। अपने को गंवाकर खरीदनी पड़ती है। इतना दाम चुकाना पड़ता है। अपने को गंवाकर मिलती है। यह कोई सस्ती शक्कर नहीं है कि घोल ली और पी ली। यह तो जीवन का परम रस है। यह तो अमृत है। इसका मूल्य बिना चुकाए नहीं मिलती है।

"सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।'
और सावधान रहना, कहीं झूठे आशिक मत बन जाना। दुनिया में बहुत लोग झूठे आशिक बन जाते हैं। झूठी आशिकी बड़ी सरल है। उसमें कोई कठिनाई भी नहीं है, क्योंकि वह तो सिर्फ आवरण है, अभिनय है, ऐक्टिंग। तुम भीतर से कुछ बदलते नहीं, ऊपर से एक वेश पहन लेते हो। झूठी आशिकी का अर्थ है अहंकार तो खोया नहीं और निर्अहंकारी होने का दावा करने लगे; समर्पण तो किया नहीं और कहने लगे आपके चरणों की धूल। शरीर को तो झुका दिया और भीतर अकड़े खड़े रहे। तो झूठी आशिकी अगर की. . . जो कि बिल्कुल सरल है। यही तो झूठ की खूबी है कि झूठ बड़ा सरल है। इसलिए तो इतना प्रलोभन झूठ में है।
इसलिए तो लोग झूठ के जाल में पड़ जाते हैं, क्योंकि झूठ सरल है। सत्य कठिन मालूम पड़ता है। सत्य कीमत मांगता है, झूठ कीमत नहीं मांगता। झूठ कहता है : जो चाहो मुझसे ले लो, मैं कोई कीमत मांगता ही नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ हूं। सत्य कहता है : जो चाहो ले लो, मगर मेरी कीमत चुका दो। लेकिन सत्य को जब तुम कीमत चुका देते हो तो तुम्हें उत्तर में कुछ मिलता है। झूठ को तुम कीमत तो नहीं चुकाते; मिलता कुछ भी नहीं और झूठ बोलने के बाद तुम्हें हजार तरह से कीमत भी चुकानी पड़ती है। झूठ बोले कि फंसे। कीमत चुकानी पड़ेगी और मिलेगा कुछ भी नहीं। यह झूठ की तरकीब है; वह कहता है, कीमत कुछ भी नहीं, मुफ्त मिल रहा हूं। यह गंगा बही जा रही है, हाथ धो लो। तुम क्यों खड़े हो? कुछ मांगता भी नहीं, ऐसे ही मुझे ले लो, अंगीकार कर लो। मैं तुम्हारा धन्यवादी रहूंगा। और इतना सरल है, सामने से गंगा बह रही है, क्यों नहीं धो लेते हाथ?
तुम्हें भी लगता है : चुकाना कुछ है नहीं, ले ही क्यों न लें? . . .े कर फंसोगे। ऐसे फंसोगे जैसे मछली फंस जाती है आटे के मोह में कांटे से। मछली तो आटे के लिए ही आती है। जब कोई मछुआ बंसी लटका कर बैठ जाता है नदीत्तट पर, तो कोई मछलियों को आटा खिलाने के लिए नहीं बैठता है, कांटा खिलाने के लिए बैठता है। लेकिन कोई कांटा मछली सीधा तो लीलेगी नहीं। कोई मछली इतनी मूढ़ नहीं है। तो आटे में छिपाना पड़ता है कांटे को। मछली तो कांटा लीलेगी, वस्तुतः कांटा लील जाएगी। सोचेगी आटा मिल रहा है, मिलेगा कांटा।
ऐसे ही झूठ ही कहता है : "कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। तुम्हारा लगता क्या है? न हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। ऐसे ही हूं, मिल रहा हूं मुफ्त, ले लो।' तुम ले लेते हो। फिर खूब कीमत चुकानी पड़ती है। फिर जन्मों-जन्मों तक कीमत चुकानी पड़ती है। क्योंकि एक झूठ को बचाने के लिए फिर दूसरा झूठ बोलना पड़ता है; दूसरे झूठ को बचाने के लिए तीसरा। फिर श्रृंखला लग जाती है। और जैसे-जैसे झूठों की कतार बढ़ती जाती है वैसे-वैसे फांसी लगती जाती है। अब सब तरफ से तुम उलझे। अब वह जो तुम बोल चुके हो उसको बचाने के लिए और बोलो और ध्यान रखना कि झूठ को सच से नहीं बचाया जा सकता; झूठ को सिर्फ झूठ से ही बचाया जा सकता है। असल में छोटे झूठ को बड़े झूठ से बचाया जा सकता है। इसलिए एक छोटा-सा झूठ बोलो और देखो कि महीने भर के भीतर तुम बड़े झूठ बोलने लगे। उस एक छोटे-से झूठ को बचाने के लिए और बड़ा घर बनाना पड़ा, और बड़ा घर। धीरे-धीरे तुम पाओगे तुम्हारी सारी जीवन की व्यवस्था झूठ हो गई; तुम असत्य हो गए। और तुम जब असत्य हो जाओगे तो तुम खो गए--बिना कुछ पाए मूल्य चुका दिया। अपनी संपदा भी गई और हाथ भी कुछ न लगा। यह बात समझ लेना।
झूठ कहता है : खर्च कुछ भी नहीं होगा, बस मुझे मुफ्त ले लो, ऐसे ही भेंट में आता हूं।
सत्य कहता है : खर्च बड़ा है, तुम्हें अपने से चुकाना होगा। और मुफ्त में नहीं मिलता हूं। लेकिन अगर तुम सत्य की कीमत चुकाओ तो सत्य जरूर मिलता है। यह विरोधाभास है।
झूठ बड़ा कुशल है; प्रलोभन देता है। सत्य सीधा-साफ; साफ-साफ कह देता है, यह कीमत लगेगी। इस कीमत से कम में नहीं होगा।

"झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं'
तो इस संसार में भी जूते पड़ेंगे, अगर झूठा प्रेम किया। क्या मतलब है जूते पड़ने से ? इस जीवन में भी दुःख ही दुःख रहेगा। यहां भी अगर झूठा प्रेम किया तो भी तुम्हारे जीवन में रसधार न बहेगी, फूल न खिलेंगे। तुम्हारे जीवन में कोयल न कूकेगी। कोई वीणा न बजेगी। तुम्हारा जीवन एक अंधकार का जीवन होगा, जहां कभी सूरज न उगेगा। इस जगत् में भी और उस जगत् में भी जूती खानी पड़ेगी। क्योंकि यहां ही प्रेम न कर पाए, साधारण मनुष्यों को, स्त्रियों को, पुरुषों को प्रेम न कर पाए, तो परमात्मा को कैसे करोगे?
साधारण प्रेम में पूरा अहंकार मांगा भी नहीं जाता। साधारण प्रेम तो कहता है थोड़ी विनम्रता, थोड़े झुको। साधारण प्रेम पूरी आत्मा मांगता भी नहीं--मांग भी नहीं सकता। कोई पत्नी तुमसे पूरी आत्मा नहीं मांगती, न कोई पति मांगता है, न कोई मित्र मांगता है, न कोई बेटा, न कोई मां, न कोई पिता। पूरी आत्मा तो तुम से मांगी नहीं जा सकती।
इस संसार में तो थोड़े-से झुको तो काफी रस तुम्हारी झोली में भर जाएगा। और थोड़े झुकोगे, रस भरेगा, और झुकने का खयाल आएगा। और झुकोगे और रस भरेगा, तब तो सूत्र समझ में आ जाएगा कि अगर बिल्कुल झुक जाओ तो पूरे रस से भर जाओ, फिर विरस समाप्त हो जाए। तब तुम्हारे जीवन का मरुस्थल गया, तुम उपवन बने। सूखे-साखे दिन गए, वर्षा के दिन आए। हरियाली आई, फूल खिले।
और इसी जीवन के झुकाव और झुकने की कला से धीरे-धीरे आदमी प्रार्थना का सूत्र समझ पाता है--पूरे झुकने का। लेकिन यहां भी हम धोखा देते हैं।
तुम खयाल करना। तुम जिनसे कहते हो हमें तुमसे प्रेम है, उनसे तुम्हें प्रेम है? कभी तुमने उस पर सोचा है? तुमने यह सोचा है कि प्रेम का अर्थ क्या होता है? तुम कभी सच में झुके हो? तुम किसी के सामने झुके हो? या कि तुम अकड़े ही रहते हो? अगर तुम अकड़े ही रहते हो तो तुम खाली ही रहोगे। सूखते जाओगे। तुम्हारा जीवन-संगीत प्रकट ही न हो पाएगा। निश्चित दुःख पाओगे बहुत, पीड़ा और कांटे, नरक में जीओगे।
प्रेम जहां नहीं वहां नरक है। प्रेम का अभाव नरक है। और अगर तुमने यहां धोखा दिया, घर में दिया तो ध्यान रखना तुम धोखेबाज, मंदिर में जाकर भी धोखा दोगे। तुमने अपनी पत्नी को कभी प्रेम नहीं किया, अपने पति को कभी प्रेम नहीं किया; वहां भी जालसाजी करते रहे। कहते रहे, बताते रहे, दिखाते रहे मगर कभी किया नहीं, क्योंकि करने में तो कुछ चुकाना पड़ता है। एक-दूसरे का शोषण करते हो और कहते हो प्रेम। एक-दूसरे को गुलाम बनाने की चेष्टा में लगे हो और कहते हो प्रेम। एक-दूसरे की छाती पर बैठ गए हो और कहते हो प्रेम। एक-दूसरे के लिए फांसी बन गए हो और कहते हो प्रेम। एक-दूसरे की स्वतंत्रता नष्ट कर दी है और एक-दूसरे का जीवन तुम्हारे कारण कारा में पड़ गया है और कहते हो प्रेम। फिर इसी प्रेम की भाषा को समझे-समझे एक दिन मंदिर जाते हो, वहां भी सिर झुकाते हो। वहां भी असली सिर नहीं झुकता। वहां भी सब पाखंड चलता है।
तुमने कभी देखा? अगर मंदिर में तुम जाओ और अकेले हो तो जल्दी पूजा खत्म हो जाती है, जल्दी प्रार्थना इत्यादि, क्योंकि कोई देखनेवाला ही नहीं तो सार भी क्या है! परमात्मा से कुछ प्रार्थना हो नहीं रही। लेकिन जिस दिन मंदिर में जलसा हो, बहुत लोग आए हों, उस दिन आरती देर तक उतरती है। उस दिन बड़े तुम बड़े भाव-विभोर होकर प्रार्थना गाते हो। उस दिन तुम्हारी आंखों में आंसू बहते हैं--सब प्लास्टिक के आंसू! उस दिन तुम लोगों को दिखा रहे हो।
मैंने सुना है, इंग्लैंड की महारानी चर्च गई। उसका जन्म-दिन था और जन्म-दिन पर वह चर्च में जाती। उस दिन वहां बड़ी भीड़ थी। हजारों लोग चर्च में आए थे। महारानी ने चर्च के प्रधान पुरोहित को कहा : "लोगों की अभी भी धर्म में श्रद्धा है, इतने लोग आए हैं!' चर्च का पुरोहित हंसा और उसने कहा : देवी, कभी बिना खबर किए आएं। ये कोई भी नहीं यहां आते। ये आपको देखने आए हैं। इनको परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है।
आदमी मंदिर में भी जाता है तो उसके प्रयोजन होते हैं। मंदिर में भी निखालिस हृदय से नहीं जाता। हां, कभी जरूरत होती है तो जाता है कि पत्नी बीमार है, बेटा बीमार है तो प्रार्थना कर आता है। मगर मतलब होता है तब। और मतलब से कहीं मजहब का जन्म हुआ है? स्वार्थ से कहीं सत्य का जन्म हुआ है? हेतु से कहीं प्रेम जन्मा है? प्रेम तो अहेतुकी है।
तो तुम यहां भी झूठ, फिर धीरे-धीरे यही झूठ तुम्हारी प्रार्थनाओं में भी झलकना स्वाभाविक है। जो तुमने बाजार में किया है वही तो तुम मंदिर में करोगे! तुम तो तुम्हीं हो न! तुम अचानक बाजार से चलते हो, जूते उतारे मंदिर में दरवाजे पर तुम सोचते हो एकदम तुम जूते उतार कर हाथ-पैर धोकर मंदिर में जब प्रवेश करने लगते हो, तो तुम बदल जाते हो? तुम कैसे बदल जाओगे? तुम अखंड बह रहे हो। तुम वही हो।
गंगा उतरी पहाड़ से, चली बहती तो काशी पर आकर अचानक पवित्र थोड़े ही हो जाती है कि काशी के घाट पर आई और पवित्र हो गई और काशी का घाट छूटा, फिर अपवित्र हो गई। या तो पवित्र रहती है पहले ही से और या फिर कभी पवित्र नहीं होती। जीवन में अचानक, अनायास, अकारण तो कुछ भी नहीं घटता। श्रृंखलाएं हैं।
तुम यहां आए, तुम आए न? तुम्हारे भीतर तुम्हारा सारा बाजार, तुम्हारा घर, तुम्हारे संबंध, तुम्हारे नाते-रिश्ते, तुम्हारा सारा अतीत तुम्हारे भीतर आकर बैठ गया है। तो तुमने जिस ढंग का जीवन जीया है उसी ढंग से तुम मुझे भी सुनोगे। यह स्वाभाविक भी है।
तो जिसने प्रेम में झूठ किया . . .। पलटू साफ कह देते हैं, . . .संत शिष्टाचार की बातों में नहीं पड़ते, औपचारिक बातों में नहीं पड़ते, साफ कह देते हैं :

"सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।'
फिर जूते खाने हों तो तैयारी रखना, झूठ प्रेम करना। यहां भी जूते पड़ेंगे, वहां भी जूते पड़ेंगे। संसार में भी दुःख पाओगे और दूसरे संसार में भी दुःख पाओगे। सुख तुम पा ही न सकोगे।
कम-से-कम एक चीज तो सच रहने दो--कम-से-कम प्रेम को तो सच रहने दो!

"जीते-जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन-रात रहै सूली पर वासा।।'
"जीते-जी मरि जाय' . . . मरते तो सभी हैं। मरना तो सभी को है। कोई भी बच तो सकेगा नहीं। फिर आशिक में, प्रेमी में, भक्त में, और साधारण संसारी में क्या फर्क है? संसारी मजबूरी में मरता है। मारा जाता है, तब मरता है। मौत जब आकर घसीटती है, तब मरता है।
संसारियों ने जो कथाएं लिखी हैं मौत की, वह तुम समझ लेना। तुम्हारे पुराणों में जो लिखा है, वे पुराण किन्हीं ज्ञानियों ने नहीं लिखे होंगे। क्योंकि जो बात लिखी है वह अज्ञान की है। तुम्हारे पुराणों में लिखा है कि जब मौत आती है तो मौत का जो राजा है यमदूत, काला-कलूटा, भयंकर, भैंसे पर सवार होकर आता है। ज्ञानियों ने तो मौत में परमात्मा को ही देखा है आते; काला-कलूटा नहीं; यमदूत नहीं; भैंसे पर सवार नहीं। यह भैंसे पर सवार जो मौत तुम्हें दिखाई पड़ी है, यह तुम्हारी वासनाओं के कारण दिखाई पड़ी है, क्योंकि यह तुम्हें दुश्मन मालूम पड़ती है। तो तुम दुश्मन को काले रंग में रंगते हो; भैंसे पर बिठालते हो। यह तुम्हें अतिथि नहीं मालूम होती। इसके साथ तुम अतिथि का संबंध नहीं बनाते--शत्रु का; आ रही है और तुम्हें जिंदगी से जबरदस्ती ले जाएगी। तुम जबरदस्ती ले जाए जाते हो, इसलिए भैंसों की जरूरत पड़ती है; यमदूतों की जरूरत पड़ती है; तुम्हें घसीटा जाता है; तुम्हें जबरदस्ती खींचा जाता है। तुम इस किनारे को जोर से पकड़ते हो। तुम छोड़ते ही नहीं। मरते दम तक तुम छोड़ते नहीं; तुम देह को पकड़ते हो, मोह को पकड़ते हो, माया को पकड़ते हो। चूंकि तुम्हारी यह दृष्टि पकड़ने की है, इसलिए मौत तुम्हें लगती है छुड़ाने आ रही है। लेकिन जो खुद ही छोड़ चुका, "जीते-जी मरि जाय'; जो मौत के आने के पहले मर गया, जो परमात्मा के चरणों में मर गया, जिसने अपने होने को शून्य कर दिया, जिसने कहा अब मैं नहीं हूं तू है--उसके लिए मौत यमदूत की तरह नहीं आती, भैंसे पर सवार होकर नहीं आती। उसके लिए तो मौत का भी मुंह बड़ा प्यारा है। वह भी परमात्मा की ही तस्वीर है। वह भी प्रभु का ही रूप है। प्रभु ही भेजता है। वही एक दिन लेकर आता है और ले जाता है। लेकिन यह तो तभी संभव है, मृत्यु में तुम्हें परमात्मा तभी दिखाई पड़ेगा, मृत्यु तुम्हारी समाधि जैसे आनंद से तभी भरेगी--जब तुम जीते-जी मर जाओ।
यही फर्क है भक्त में और संसारी में। संसारी भी मरता है, भक्त भी मरता है। संसारी बे-मन से मरता है अनिच्छा से मरता है, मारा जाता है। संसारी की हत्या होती है। भक्त मौत से मरता है; स्वयं मर जाता है। वह कहता है : जो हाथ से छूट ही जाना है उसे मैं छोड़ ही क्यों न दूं। जब छूट ही जाना है तो पकड़ना क्या! फिर यह पकड़ने की और व्यर्थ की झंझट क्यों करूं? जो मुझसे ले ही लिया जाएगा उसे देने का मजा क्यों न ले लूं? उसे बांट क्यों न दूं? उसे परमात्मा के चरणों में पहले ही क्यों न रख दूं कि जब तुम आओगे ही और ले ही लोगे तो इतना मौका मैं क्यों खोऊं कि तुम्हारे चरणों में खुद रख दिया? चढ़ा दिया, अर्पण कर दिया।

"जीते-जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।'
तन की आशा हो तो फिर तो जीते-जी कैसे मरोगे? फिर तो पकड़ोगे। मौत आ जाएगी तो भी धकाओगे; कहोगे, थोड़ी देर रुक जा। यमदूतों से डॉक्टरों को लड़वाओगे कि तुम ज़रा लड़ो, भैंसे को ज़रा हटाओ, मुझे थोड़ी देर और जी लेने दो। ऐसे बहुत-से मरीज, जो वस्तुतः मर चुके हैं, जबरदस्ती जीते हैं। अस्पतालों में लटके हैं, टांगें उलटी-सीधी बंधी हैं। ऑक्सीजन दी जा रही है कि ग्लूकोस का इंजेक्शन दिया जा रहा है। होश भी नहीं है। महीनों से अटके हैं।
अमरीका में तो बड़ा विचार चलता है कि क्या करना? कुछ लोग तो ऐसे हैं कि महीनों, सालों इस तरह अटके रहते हैं। इनको मरने देना कि इनको बचाने की कोशिश रखना? और डॉक्टर यह भी कहते हैं कि इनको बचाने का कोई मतलब नहीं है। अब ये करीब-करीब मरे हुए हैं, जबरदस्ती ये यमदूत को धकाए हुए खड़े हैं। बीच में लगा दिया है ऑक्सीजन का सिलिंडर और ग्लूकोस के इंजेक्शन और दवाइयों की लंबी कतार, कि यमदूत अपने भैंसे को लेकर घुस नहीं पाते। इनको बचाना कि मरने देना? क्योंकि ये जीवित भी नहीं हैं और मरे भी नहीं हैं।
आदमी का मोह ऐसा है जीवन से . . . तन की ऐसी आशा है . . . थोड़ी देर और जी लूं। एक दिन और सही। एक दिन सही तो भी और सही। एकक्षण ही सही तो और सही।
मरते वक्त अगर तुमसे पूछा जाए कि एक दिन अगर और जी सको तो क्या कहोगे? तुम कहोगे : "फिर क्या बात है ! एक दिन और जी लेने दें।' और इतने दिन तुमने गंवाए और कभी कुछ नहीं पाया, अब एक दिन और जी कर क्या करोगे?
तुम्हें कभी जीवन के सत्य दिखायी पड़ते हैं या नहीं दिखाई पड़ते?
भक्त वही है जिसने देखा कि इस जीवन में कुछ मिल तो रहा नहीं है, ऐसे नाहक धक्का-धुक्की हो रही है। यहां से वहां फेंके जा रहे हैं, कहीं कुछ मिलता तो है नहीं। कोई मंजिल तो हाथ आती नहीं। इस जीवन को अपने ही हाथ से चढ़ा दें।

"जीते-जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन-रात रहे सूली पर वासा।।'
और आशिक तो वही है जो कहता है कि जब बुला लो . . . उसी वक्त तैयार हूं। क्षणभर देर न होगी। बोरिया-बिस्तर भी बांधने के लिए समय न मांगूंगा; तैयार ही रखा है।
रोज रात भक्त जब सोता है तो कह कर ही सोता है कि उठा लेना रात तो मैं तैयार हूं। सुबह जब उठता है तौ चौंकता है कि आज भी नहीं उठाया। तो चलो आज दिन में जिंदगी में चलाते हो तो चल लूंगा। हर सुबह नयी और हर सांझ सोचकर सोता है कि आखिरी रात आ गई। ऐसा भक्त का तो दिन-रात सूली पर वासा है। वह तो सूली को सिंहासन बना लेता है।
और यही तो जीवन की सबसे बड़ी कला है कि सूली सिंहासन हो जाए। अकसर तो ऐसा होता है कि हम इससे उलटी कला जानते हैं। हम सिंहासन को भी सूली बना लेते हैं।
तुम देखो, सिंहासन पर बैठे लोग सूली पर लटके हुए मालूम पड़ेंगे। धन के ढेर पर बैठ जाते हैं और जीवन सिर्फ दुःख है, घाव की तरह है। पद के बड़े ऊंचे सिंहासन पर बैठ जाते हैं, लेकिन उनकी हालत बड़ी खराब है। क्योंकि चारों तरफ से कोई उनकी टांग खींच रहा है, कोई उनका पैर खींच रहा है, कोई उन्हें धक्का लगा रहा है। क्योंकि दूसरों को भी बैठना है इसी सिंहासन पर। सूली लग जाती है। पद पर पहुंच कर ही लोगों को पता लगता है। पहले पता ही नहीं चलता। पद पर पहुंच कर ही पता चलता है कि यह तो बड़ी मुसीबत है। इसी पद पर पहुंचने के लिए जीवनभर कोशिश की, मेहनत की। पहुंच कर पता चलता है कि यह तो बड़ी झंझट हो गई। मगर अहंकार के वश यह भी नहीं कह सकते कि हम उतरे जाते हैं। अब जिंदगीभर इसी दांव पर लगाया था, अब उतरें भी कैसे! जिंदगी भर लड़ें कि सिंहासन पर पहुंच जाएं। सिंहासन पर पहुंचते ही दूसरी लड़ाई शुरू होती है कि अब सिंहासन से न उतर जाएं, क्योंकि लोग खींच रहे हैं। दुश्मन तो खींचते ही हैं, मित्र भी खींचते हैं, क्योंकि मित्रों को भी बैठना वहीं है।
सिंहासन पर बैठा आदमी सूली पर लटक जाता है। यह तो संसारी की हालत है। लेकिन भक्त की हालत ठीक इससे उलटी है। भक्त को कुछ कला आती है। वह सूली पर लटक जाता है और सूली सिंहासन बन जाती है। जिसने मौत को अंगीकार कर लिया, उसके लिए इस जगत् में दुःख रह ही नहीं जाता; मौत रह ही नहीं जाती। मौत को अंगीकार किया कि मौत मिटी।
अमृत चाहिए हो तो मृत्यु को स्वीकार कर लेना।
"जीते-जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन-रात रहै सूली पर वासा।।'
उसे तो एक ही धुन लगी रहती है। उसे तो एक ही याद बनी रहती है। उसके भीतर तो एक ही जिक्र, एक ही स्मरण, एक ही सुरति चलती रहती है।

मेरे हर लफ्ज़ में बेताब मेरा सोजे-दरूं
मेरी हर सांस मुहब्बत का धुआं है साकी।
मेरे हर लफ्ज में बेताब मेरा सोजे-दरूं। मेरे भीतर की आग मेरे हर शब्द में झलकती है, वही प्रकट होती है। भीतर की आग--प्रेम की आग। वह जो भीतर उसको परमात्मा से मिलने की अहर्निश पुकार चल रही है, वह कहता है मौत के द्वार से मिलते हो तो चलो मौत का द्वार; जहां से मिलते हो मैं वहीं से गुजरने को राजी हूं।

मेरे हर लफ्ज में बेताब मेरा सोजे-दरूं
मेरी हर सांस मुहब्बत का धुआं है साकी।
और उसकी श्वास-श्वास में बस एक ही जिक्र है : मोहब्बत! मोहब्बत ! प्रेम के स्वर ही उसमें उठते हैं।

मुहब्बत इक तपिश-ए-नातमाम होती है
न सुबह होती है इसकी, न शाम होती है।
मुहब्बत इक तपिश-ए-नातमाम होती है। यह तो एक ऐसी आग है, यज्ञ की अग्नि जो कभी समाप्त नहीं होती, जलती ही रहती है। न सुबह होती है इसकी, न शाम होती है।
भक्त को पता ही नहीं रह जाता धीरे-धीरे कि कब जवानी आयी, कब गई; कब बुढ़ापा आया, कब गया; कब जिंदगी आई, कब मौत आई--कुछ पता नहीं रह जाता। उसे तो एक ही धुन रहती है। उसके भीतर तो एक ही इकतारा बजता रहता है--प्रभु के प्रेम का। जीवन से मिले तो जीवन, मौत से मिले तो मौत। सुख से मिले तो सुख, दुःख से मिले तो दुःख। उसका और कोई चुनाव नहीं है।

"मान बड़ाई खोया, नींद भर नाहीं सोना।
तिलभर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।।'
सूख जाए शरीर, हड्डी-हड्डी रह जाए, तो भी उसे पता नहीं चलता। उसके भीतर बस प्रभु का स्मरण चलता रहे, वही उसका जीवन है, वही उसकी एकमात्र आशा है।
"मान बड़ाई खोय' . . . वह सब मान-बढ़ाई भी खो देता है। जब अहंकार ही चढ़ा दिया चरणों में तो अब उसे क्या फिक्र!
मीरां ने कहा है : लोकलाज खोई। नाचने लगी मीरां सड़कों पर। राज-घर से थी, राज-रानी थी। और मेवाड़ की! घूंघट से बाहर न निकली होगी कभी। किसी ने चेहरा न देखा होगा कभी। फिर नाचने लगी रास्तों पर, पागलों की तरह दीवानी। लोक-लाज खोई। चिंता ही न रही। उसके चरणों में रख दिया सब, अब अपनी क्या चिंता रही! अब चिंता करे तो वही करे।

"मान बड़ाई खोय, नींद भर नाहीं सोना।'
भक्त को नींद कहां! शरीर सो जाए, भक्त के भीतर राम की धुन तो चलती रहती है। शरीर पड़ा रहे निद्रा में, थक जाता है तो सो जाता है; लेकिन भीतर भक्त की सुरति नहीं थकती। वहां तो सतत धार बहती रहती है।
ऐसा हुआ, रामतीर्थ अमरीका से वापस लौटे तो सरदार पूर्णसिंह उनके भक्त थे और उनके पास कुछ दिन रहे हिमालय में जाकर। एक रात सरदार पूर्णसिंह को नींद नहीं आ रही थी। कुछ चिंता में पड़ गए होंगे। रोज तो सो जाते थे तो एक चमत्कार देखने से वंचित रह गए। उस रात नींद नहीं आई तो बड़ी हैरानी हुई। पहाड़ पर एकांत में बना हुआ यह बंगला था। यहां आस-पास कोई आता भी नहीं, रात तो कोई आ भी नहीं सकता। रामतीर्थ हैं और पूर्णसिंह हैं, बस दोनों कमरे में हैं। और उन्हें सुनाई पड़ने लगा कि राम-राम की कोई धुन कर रहा है, राम-राम राम-राम का कोई पाठ कर रहा है। तो उठे, जाकर वरांडे में चक्कर लगा कर आए, बाहर देखकर आए कि कोई भी नहीं है। और जब बाहर गए तो हैरानी हुई कि बाहर कुछ आवाज धीमी हो गई और जब भीतर आए तो आवाज फिर बढ़ गई। तो वे थोड़े और चकित हुए। सोचा कि कहीं स्वामी रामतीर्थ तो राम-राम नहीं जप रहे हैं! तो पास जाकर देखा, पास गए तो आवाज और बढ़ गई। और पास जा कर देखा तो वे सो रहे हैं। वे तो गहरी नींद में हैं। फिर यह आवाज कहां से हो रही है? सिर के पास गए, पैर के पास गए, हाथ के पास गए, कान लगाकर शरीर से देखा-सुना, तो समझ में आया, पूरा रोआं-रोआं राम-राम कह रहा है!
इस बात की संभावना है। यह घटना घट सकती है। अगर प्रभु के स्मरण में ऐसी डुबकी लग जाए कि तुम भूलो ही न, भूलो ही न, तो तुम्हारे अचेतन में भी गूंज चलती रहेगी। तुम्हें भी होती है यह घटना, तुम्हें खयाल में नहीं रहती। अगर तुम रुपए की बात सोचते-सोचते सो जाओ तो रात रुपए का ही तो सपना देखते हो! रात तुम वही तो देखते हो तो दिन भर चलता रहा था मन में, वही तो व्यापार फैल जाता है। रात तुम भी तो बड़बड़ाते हो। तुम्हारी बड़बड़ाहट बता देगी कि तुम दिन भर क्या सोचते रहे थे। कोई झगड़ने लगता है रात की नींद में, गालियां बकने लगता है रात की नींद में। यह तो रोज घटता है।
तो दूसरी बात भी घट सकती है, जो चौबीस घंटे अहर्निश परमात्मा का स्मरण कर रहा है, यह स्मरण इतना गहन हो जाए कि जब शरीर सो जाए तब भी भीतर गूंजता रहे।
मंत्र के, स्मरण के चार तल हैं। एक तल, जब तुम ओंठ का उपयोग करते हो, कहते हो राम। ओंठ का उपयोग किया तो यह शरीर से है--सबसे उथला तल, सबसे छिछला तल। पर यहां से शुरू करना पड़ता है, क्योंकि शुरुआत तो उथले से ही शुरू करनी होती है। फिर ओंठ तो बंद हैं और तुम भीतर कहते हो राम--सिर्फ मन में। यह पहले से थोड़ा से थोड़ा गहरा हुआ। लेकिन मन में भी कहते हो तो कहते तो हो ही, मन के यंत्र का उपयोग करते हो। पहले शरीर के यंत्र का उपयोग करते थे, अब मन के यंत्र का उपयोग करते हो। फिर तुम उसे भी छोड़ देते हो। तुम राम कहते नहीं; तुम राम को अपने-आप उठने देते हो, तुम नहीं कहते। शांत बैठ जाते हो। जिसने बहुत राम-राम जपा है, पहले ओंठ से जपा, फिर मन से जपा--वह अगर शांत बैठ जाए, जब भी शांत होगा तो अचानक पाएगा भीतर उसके कोई जप रहा है! राम, राम, राम! वह कह नहीं रहा। अपनी तरफ से कहने की अब कोई चेष्टा नहीं है। अब तो कोई जप रहा है, तुम सुननेवाले हो गए, कहनेवाले न रहे। यह तीसरा तल है। और एक चौथा तल है। जब राम पूरा फूल की तरह खिल जाता है, तो तुम्हारा समस्त यंत्र, जीवन-यंत्र, शरीर, तन-मन, सब इकट्ठा उसी धुन से गूंजने लगते हैं।
ऐसी ही किसी घटना में पूर्णसिंह को सुनाई पड़ा होगा राम का, निद्रा में प्रभु-स्मरण।

"मान बड़ाई खोय नींद भर नाहीं सोना।
तिल भर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।।'
आशिक को शिकायत तो होती नहीं, चाहे तिलभर रक्त-मांस न बचे। शिकायत आशिक जानता ही नहीं; धन्यवाद ही जानता है। भूलकर भी उसके भीतर शिकायत नहीं उठती, कोई शिकायत नहीं उठती। जैसा है बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए। जैसा है ठीक है, तथाता-भाव होता है। दर्द भी होता है, पीड़ा भी होती है, तो भी वह कहता है : धन्यभाग मेरे, आज कल से बहुत कम है! वह धन्यवाद का रास्ता खोज लेता है।

उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
--उनकी कृपाओं का जादू इतना ही क्या कम है!

 उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
--इतनी ही उनकी कृपा बहुत, इतना ही उनका जादू-चमत्कार बहुत।

कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
--पहले से दर्द बहुत कम है, धन्यवाद।
दुःख में और पीड़ा में भी वह सुख का कोई सूत्र खोज लेता है। तुम उलटे हो। तुम्हें सुख भी मिलता हो तो तुम शिकायत का कोई कारण खोज लेते हो। तुम कहते हो : हां ठीक है, गुलाब का फूल तो है; लेकिन इतने कांटे हैं, इनके बाबत क्या? हां ठीक है, जिंदगी में कभी-कभी रोशनी भी आती है; लेकिन एक दिन और दोनों तरफ दो रात हैं, इसके बाबत क्या?
तुम कभी भी शिकायत से बच ही नहीं पाते--सुख भी मिले तो उसके पास भी शिकायत की बाढ़ खड़ी होती है।
आशिक का मतलब है : अब शिकायत क्या? जिसको प्रेम किया उससे गलत हो सकता है, यह बात ही क्या उठानी! उससे गलत हो ही नहीं सकता। प्रेमी जानता ही नहीं कि दुःख हो सकता है। दुःख में भी उसे सुख है।

"तिलभर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।
मान बड़ाई खोय नींद भर नाहीं सोना।।'
इसलिए अपने रोने की कथाएं लेकर मंदिर मत जाना। मत जाना भूलकर मस्जिद-गुरुद्वारा शिकायत लेकर, अन्यथा तुम गए ही नहीं। शिकायत ही ले जानी थी तो जाना ही नहीं। जिस दिन कोई शिकायत न हो उस दिन जाना। जिस दिन मन में कोई शिकायत का भाव न हो, अपूर्व धन्यवाद उठ रहा हो, अहोभाव जग रहा हो, तुम्हारे मन में कृतज्ञता का भाव गहरा रहा हो--उस दिन जाना। उसी दिन पहुंचोगे।

"पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।'
 बड़ा अद्भुत वचन है! पलटू कहते हैं, सुन लो पक्की बात। यह पागलों का काम है, बेवकूफों का काम है आशिकी में पड़ना--क्योंकि अपने को गंवाना पड़ता है। होशियार हो, इस तरफ चलना ही मत। चतुर-चालबाजों के लिए यह जगह नहीं है।
"पलटू बड़े बेकूफ वे' . . . जो बिल्कुल बेवकूफ हैं, नादान हैं, नासमझ हैं, सरल हैं, भोले हैं, बच्चों जैसे हैं, पागलों जैसे हैं, जिन्हें होश-हवास नहीं, जिंदगी का गणित जिन्हें नहीं आता, उनके लिए यह रास्ता है।

"पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।'
बड़े पागल ही प्रेम के रास्ते पर चलते हैं। भोले-भाले, निर्दोष चित्त लोगों का यह मार्ग है। चतुर और चालाक, गणित में होशियार और दुकानदार , उनका यह मार्ग नहीं है। वे तो कहते हैं : "अपने को गंवाओ तो फिर सार ही क्या पाने में! अपने को रहते कुछ मिले तो सार है।'
बुद्ध के पास एक सम्राट आया और उस सम्राट ने कहा कि आप कहते हैं शून्य हो जाओ। यह भी कोई बात हुई? शून्य ही हो गए तो फिर सार क्या? जब हमीं न रहे तो मोक्ष का भी क्या करेंगे और निर्वाण का भी क्या करेंगे, जब हम ही न रहे?
तुम ही सोचो, तुम किसी सुख की तलाश में जाओ और कोई कहे कि हां, मिल सकता है, मगर पहले तुम मर जाओ। तो तुम कहोगे, फिर इससे फायदा क्या? सीधा गणित है।
उस सम्राट ने कहा कि आप कहते हैं शून्य हो जाओ, तब निर्वाण मिलेगा, मगर जब मैं ही न रहा तो उस निर्वाण का मैं करूंगा भी क्या? उससे तो संसार ही बेहतर, कम से कम मैं तो हूं!
ये सांसारिक गणित है।
लेकिन उस सम्राट को पता नहीं कि एक और गणित है--महागणित है। शून्य होने का मतलब मिट जाना थोड़े ही होता है। शून्य होने का मतलब शांत हो जाना होता है। शून्य होने का मतलब होता है तुम्हारे भीतर जो उपद्रव था वह मिट गया। वह अहंकार उपद्रव है, और कुछ भी नहीं, भीड़-भाड़, शोरगुल, बेचैनी, परेशानी, तनाव, संताप। तुम्हारे भीतर जो "मैं' है वह आंधी-अंधड़ है। जैसे सागर पर आंधी आई हुई है, तूफान आया हुआ है और बड़ी लहरें उठ रही हैं; जब ये लहरें मिट जाएंगी तो सागर थोड़े ही मिट जाएगा। ये लहरें जब मिट जाएंगी तभी सागर पूरा शांत होकर अपने में थिर हो पाएगा; अपने घर आएगा।
यह "मैं' तुम्हारा वास्तविक होना नहीं है।
 इसलिए भक्त कहते हैं : सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं। अपना सिर उतार कर रख देना पड़ता है, क्योंकि यह सिर्फ बोझ है। यह सिर बोझ है।

"पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।'
पागल हैं वे जो आशिक होने जाते हैं। जो पागल हों वही चलें इस रास्ते पर। पलटू कहते हैं पहले ही सावधान कर देते हैं, यह पागलों का मार्ग है।

"सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।'
मिट जाने की तैयारी हो तो इस दिशा में चलना। खो जाने की तैयारी हो तो इस मार्ग को पकड़ना। अपने को निछावर कर देने की तैयारी हो तो ही, तो ही भक्ति का द्वार खुलता है।
एक स्वर बोलो!
जीवन में आता-सा
घूम कर जाता-सा
विवश संकल्प में
जीवन जागता-सा
दूर की हेला-सा
फूलते बेला-सा
एक स्वर बोलो
एक एकस्वर बोलो
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती
ओंठ ज़रा खोलो
एक एकस्वर बोलो!
तुम्हारा जीवन आरती तभी बनेगा जब तुम जल उठो, भभक उठो।
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
      जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती!
तुम्हीं नहीं प्रसन्न होओगे जब तुम खो जाओगे; सारा जगत्, सारा अस्तित्व प्रसन्न होता है। एक भक्त का जन्म और सारे अस्तित्व के लिए अपूर्व आनंद का अवसर है।
देव-देव हर्ष उठे!
सारा जगत्, सारे देवता आनंद-विभोर हो उठ जाते हैं जब कोई एक हिम्मतवर आदमी अपने शीश को उतारकर रख देता है।

"यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।'
यह कोई तुम्हारी मौसी का घर नहीं है कि चले गए और आराम कर लिया, कि वहां कुछ करना भी नहीं पड़ता, मेहमान बन गए।

"यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।'
यह कोई रिश्तेदारी नहीं है, यह कोई मेहमानबाजी नहीं है। यह प्रेम का घर है। यहां मिटकर आना पड़ता है।

"खाला का घर नाहिं, सीस जब धरै उतारी।'
इसकी शर्त है और शर्त बड़ी अजीब है कि शीश को बाहर ही रख आओ। मंदिर में अगर शीश को लेकर आ गए तो तुम आए ही नहीं। शीश को बाहर ही रख आए, सीढ़ियों पर, तो ही आए।

"हाथ-पांव कटि जाय, करै ना संत करारी।
खाला का घर नाहिं, सीस जब धरै उतारी।
हाथ-पांव कटि जाय, करै ना संत करारी।।'
सब मिट जाए, शीश कट जाए, हाथ-पैर कट जाए, फिर बचता क्या है?
थोड़ा समझो। शीश का अर्थ होता है : चिंतन, विचार। वह जो तुम्हारे सिर में चलती रहती है अनंत धारा विचारों की, वह मिट जाए। और हाथ-पैर का क्या अर्थ है?--वह जो करने की आतुरता कि कुछ करूं, कुछ करके दिखा दूं, कि कुछ बन जाऊं कि कुछ हो जाऊं। हाथ और पैर--तुम्हारी गति और कृत्य। तो कर्ता का भाव तुम्हारे हाथों में है। तुम्हारे जीवन की गति, तुम्हारे जीवन की दौड़, कुछ हो जाने का भाव, तुम्हारे पैरों में है। और तुम्हारे सिर में विचार--"कैसे हो जाऊं, क्या हो जाऊं, कैसा आयोजन करूं, कैसा गणित बिठाऊं?' इतने ही तो तुम हो। तुम्हारे जीवन की सारी कथा इतनी ही तो है। क्या तुम सोचते रहते हो? कैसे धन बढ़े? कैसे मकान बढ़े?कैसे प्रतिष्ठा बड़े तुम क्या सोचते हो, क्या करते हो?
संत तो वही है जिसका सिर भी कट जाए, हाथ-पैर भी कट जाए। संत तो वही है जिसको कर्ता की कोई दृष्टि ही न रह जाए। कर्ता तो एक ही है परमात्मा। करता पुरुष! एक ही कर्ता है। हम नाहक ही यह दंभ करते हैं कि हम कर्ता हैं।

"हाथ-पांव कटि जाय, करै न संत करारी।'
सब मिट जाए, होने की यह दौड़ मिट जाए, कुछ न बचे, शून्य हो जाए; लेकिन कोई करार नहीं पैदा होता, कोई कराह पैदा नहीं होती, न कोई इनकार पैदा होती है। जो भी हो, संत स्वीकार करता है; इनकार करता ही नहीं। वह कहता है : यही तेरी मरजी , यही हो, ऐसा ही हो!

दिल रहे या न रहे जख्म भरें या न भरें
चारा-साजों की खुशामद मुझे मंजूर नहीं।
दिल रहे या न रहे, यह बचूं या न बचूं, यह जिंदगी बचे या न बचे . . ."जख्म भरें या न भरें, चारा-साजों की खुशामद मुझे मंजूर नहीं' . . .लेकिन वैद्यों की खुशामद न करने जाऊंगा कि मुझे बचाओ, कि ये मेरे घाव भर दो। मैं कोई औषधियां न खोजूंगा जीवन को चलाए रखने की। मैं घावों के लिए कोई मलहम तलाश करने न जाऊंगा

दिन रहे या न रहे, जख्म भरें या न भरें
चारा-साजों की खुशामद मुझे मंजूर नहीं।
जिसको आखिरी चारा-साज मिल गया, जिसको असली वैद्य मिल गया, जिसको परमात्मा मिल गया, अब तो उसके हाथ से लगे हुए घाव भी कमल के फूल हो जाते हैं।

"ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै
सूरा रन पर जाय, बहुरी  जियता आवै।।'
और जैसे-जैसे घाव बढ़ते हैं--यह तो उलटा गणित कह रहा हूं तुमसे--जैसे-जैसे घाव बढ़ते हैं . . ."ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै' . . .भक्त वैसे-वैसे और दौड़ा कर बढ़ता है परमात्मा की तरफ, और गति से बढ़ता है। जैसे-जैसे घाव लगते हैं! तुम कहोगे, पागल हो? वह तो पलटू ने पहले ही स्वीकार कर लिया। "पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं। सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।' वह तो मान ही लिया पलटू ने कि हम तो पागल हैं, पागलों की बातें कर रहे हैं और पागल ही सुनें और पागल ही इस पर चलें। होशियारों का काम संसार में है। होशियार धन इकट्ठा करें, मकान बनाएं, परिवार बढ़ाएं। होशियार सब इकट्ठा करें और एक दिन मर जाएं और कुछ हाथ न लगे। पागल वे जो सब लुटा दें और सब पा लें। पागल यानी जुआरी; दुकानदार नहीं।

"ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै'
यह भी कोई बात हुई कि जैसे-जैसे घाव बढ़ते हैं, कदम और तेजी से पड़ने लगते हैं, क्योंकि हर घाव उसकी हर कृपा का सबूत है। हर घाव इतना ही कहता है कि वह तुम्हें शुद्ध करने को लग गया। हर घाव इतना ही कहता है कि उसने तुम्हें मिटाना शुरू कर दिया। हर घाव नया धन्यवाद पैदा कर जाता है।

"ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै
सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै।।'
जैसे शूरवीर जाता है युद्ध पर, तो गया। सब सेतु तोड़कर आता है घर से। लौटने की तैयारी रखकर नहीं आता। लौटने की टिकट की तैयारी रखकर नहीं जाता। गया तो गया। जहां से जाता है, गया।
संसार में लौटने का भाव नहीं है भक्त का। भगवान मिटा दे, घाव मारे, तो भी ठीक। और संसार में प्रतिष्ठा मिले तो भी ठीक नहीं।

"सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै'
और यह कुछ ऐसा युद्ध है भक्त और भगवान के बीच . . .। संसार के युद्ध में, संसार के साधारण युद्धों में तो बहादुर भी कभी लौट आता है, जीत कर लौट आता है। हार कर तो कभी नहीं लौटा, मर जाएगा; मगर जीत जाएगा तब तो लौट आएगा। मगर यह जो भगवान और भक्त के बीच जो सघर्ष होता , इसमें भक्त कभी नहीं लौटता--लौटता ही नहीं। गया तो गया। जैसे नदी उतर जाती है सागर में और खो जाती है, फिर लौटकर थोड़े ही आती है।

"सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै
पलटू ऐसे घर महैं बड़े मरद जे जाहिं।
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।'
इसलिए पलटू कहते हैं, पागल होओ तो चलना, मर्द होओ तो चलना। हिम्मत हो, मौत को अंगीकार कर लेने का साहस हो तो चलना। बड़े मरद जे जाहिं!
साधारणतः तुम सोचते हो, भक्ति कमजोरों की बात है। साधारणतः तुम सोचते हो कि यह तो कमजोर और काहिलों का मामला है। जिनसे कुछ नहीं बनता, जो जिंदगी में नहीं जूझ पाते, जिनकी जिंदगी में कोई पकड़ नहीं है, जिंदगी में हार गए हैं, पराजित हैं--ये मंदिरों में प्रार्थना करते हैं। यह कमजोर, काहिल, सुस्त, दीनों की बात है।
नहीं, भक्ति से बड़ा साहस और कुछ भी नहीं है, क्योंकि अपने को पूरा दांव पर लगाना पड़ता है। लौटकर आने का कोई मार्ग ही नहीं बचता। इस प्रेम की अग्नि में जो गया पतंगा, वह जल ही जाता है।

विश्व में सबसे वही हैं वीर
है जिन्होंने आप अपने को गढ़ा
और वे ज्ञानी अगम गंभीर
है जिन्होंने आप अपने से पढ़ा।
यह भक्ति तो तुम्हारे भीतर परमात्मा को गढ़ने की प्रक्रिया है। यह भक्ति तो तुम्हारे भीतर छिपे हुए परम शास्त्र को पढ़ने की प्रक्रिया है। यह बड़े साहसियों का काम है। कमजोर लोग उधार से काम चला लेते हैं; दूसरों की किताबें पढ़ लेते हैं, अपने भीतर छिपी किताब को पढ़ते ही नहीं। दूसरों ने जो कहा है परमात्मा के संबंध में, मान लेते हैं। खुद देखने जाते ही नहीं। दरिया देखे जानिए . . .। और देखकर ही जानना चाहिए। जानना तभी जब अपनी आंख से देखा हो। फिर जो भी दांव पर लगे, लग जाए।

"सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै
ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै।।
पलटू ऐसे घर महैं, बड़े मरद जे जाहिं।'
यह जो परमात्मा का घर है, यह जो परमात्मा का मंदिर है, मर्दों के लिए है, दुस्साहसियों के लिए है।

"यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।'
ले चल, हां मझधार में ले चल, साहिल-साहिल क्या जाना
मेरी कुछ परवाह न कर, मैं खूंगर हूं तूफानों का।
भक्त तो कहता है कि किनारे-किनारे लगाकर क्या नौका को चलना!
ले चल, हां मझधार में ले चल, साहिल-साहिल क्या जाना!
यह भी कोई जाना है--होशियारी-होशियारी और चतुराई और गणित और हिसाब! हिसाब-हिसाब में ही बंधे भी कोई जाना होता है!
ले चल, हां मंझधार में ले चल, साहिल-साहिल क्या जाना
मेरी कुछ परवाह न कर, मैं खूंगर हूं तूफानों का।
जिसने परमात्मा के तूफान को झेलने की तैयारी दिखला दी, अब सब तूफान छोटे हैं। अब मंझधार में नौका ले जाई जा सकती है। अब तो डूब जाने में भी मजा है। अब तो डूब जाने में ही मजा है।

"लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।'
बड़ी प्यारी बातें हैं, पलटू कह रहे हैं। कहते हैं कि यह प्रेम के लिए कोई लगन महूरत मत देखना, कोई ज्योतिषी से पूछने मत चले जाना कि कब करें प्रेम, कब करें प्रार्थना, कि ब्रह्म-मुहूर्त में करें कि रात करें कि सांझ करें, कि संध्या कब होनी चाहिए, किस पंडित-पुरोहित को बुला कर करें, कौन-सी पूजा; किस विधि से करें। विधि-विधान में मत पड़ जाना।
प्रेम की विधि एक ही है : "सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।' एक ही, विधि है : "पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।' पागल होने की तैयारी चाहिए, और कोई विधि नहीं चाहिए।
"लगन महूरत झूठ सब' . . . तो पंडित-पुजारियों के चक्कर में मत पड़ जाना। भक्ति का उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तुम सोचते हो कि सत्यनारायण की कथा करा ली तो तुम भक्त हो गए! ये तो तरकीबें हैं। तुम तो भगवान को भी धोखा देने चले हो। ज़रा सोच कर चलना : "झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहिं'
क्या कोई लग्न मुहूर्त होता है? कोई विधि-विधान होता है?

"लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।
और बिगाड़ैं काम, साइत जनि सोधैं कोई।'
और जो इन मुहूर्तों में पड़ा रहता है--शुभ मुहूर्त देखूं, शास्त्र के हिसाब से चलूं, विधि-विधान का पालन करूं, कैसे पूजा करना--इस सब में जो पड़ा रहता है, वह कभी प्रेम की दीवानगी में उतर ही नहीं पाता।
रामकृष्ण पुजारी हुए थे तो कभी पूजा करते, कभी न भी करते। और कभी करते तो दिनभर करते और कभी दो मिनट में निकल आते। और इसके पहले कि काली को भोग लगाते, खुद चख लेते। शिकायत हुई। मंदिर की जो कमेटी थी उसके सामने बुलाए गए कि यह कोई पूजा है कि किसी दिन दिनभर चलती है, फिर दो-चार दिन मंदिर बंद भी हो जाता है! फिर कभी दो मिनट में बाहर निकल आते हो। और हमने यह भी सुना है कि तुम भगवान को प्रसाद लगाने के पहले खुद चख लेते हो, वहीं मंदिर में खड़े होकर चखते हो! यह तो सब बात गड़बड़ है।
 तो रामकृष्ण ने कहा : सम्भालो अपनी फिर यह पूजा, यह मुझसे न होगी। मेरी मां जब भी कुछ बनाती थी तो पहले खुद चखती थी, फिर मुझे देती थी। मैं बिना चखे दे ही नहीं सकता। क्योंकि पता नहीं देने योग्य हो भी कि न हो, मुझे पता कैसे चले! जब मैं चख लूं और पाऊं कि हां, स्वादिष्ट है, देने योग्य है तो लगा दूं।
अब यह कुछ और ही बात हो गई। यह शास्त्र के बिल्कुल विपरीत हो गई। पहले भगवान को लगाओ, फिर अपना भोग लगा लेना। रामकृष्ण पहले अपने को लगाते। मगर उनकी बात में तो बड़ा बल है। और उन्होंने कहा कि जब दिल बैठ जाता है तो फिर कोई घड़ी-घंटों का हिसाब रहता है! जब बैठ गया दिल तो फिर बैठा रहता दिल; फिर दिनभर भी चलती है तो दिनभर भी चलती है। फिर यह कोई थोड़े ही है कि घंटे के हिसाब से . . . यह कोई स्कूल थोड़े ही है कि घंटा बजाया और क्लास शुरू; घंटा बजाया, क्लास बंद।
मेरे एक शिक्षक थे--विश्वविद्यालय में मेरे एक प्रोफेसर थे। बस एक ही शिक्षक जैसे शिक्षक थे। उनकी कक्षा में कोई भरती नहीं होता था। दो-चार सालों से उनकी कक्षा में कोई आया ही नहीं था। जब मैं पहले दफा उनकी कक्षा में गया तो उन्होंने कहा कि भाई तुम समझ लो, क्योंकि तीन-चार साल से तो कोई विद्यार्थी आया ही नहीं। झंझट यह है कि मैं घंटे से शुरू तो कर सकता हूं लेकिन खत्म नहीं कर सकता। तो घंटा बजता है कि ग्यारह बज गए तो मैं शुरू कर देता हूं। लेकिन ग्यारह बज कर चालीस मिनट पर खत्म नहीं कर सकता। क्योंकि जब तक मेरी बात पूरी न हो जाए मैं खत्म नहीं करता। कभी दो घंटे लगते हैं, कभी तीन घंटे लगते हैं। कभी पांच-दस मिनट में ही खत्म हो जाती है बात। तो अंत का कुछ पता नहीं है। इसलिए विद्यार्थी यहां आने में डरते हैं। तुम आ रहे हो तो ठीक। तुम घबड़ा जाओ तो तुम चले जाना। तुम परेशान हो जाओगे तीन घंटे हो गए सुनते-सुनते, तो तुम चुपचाप खिसक जाना, मुझे बाधा मत डालना। तुम्हारी फिर मौज हो तो फिर घूम-फिर कर लौट आना।
बड़े अद्भुत आदमी थे। ऐसा ही होता था। और मैं अकेला ही विद्यार्थी उनकी कक्षा में । मैं चला भी जाता कभी तो भी वे बोलते रहते। मैं भी लौट आता। वे मुझसे बड़े खुश थे। वे कहते थे : तुम बाधा नहीं डालते, यह बात ठीक है। मैं कभी सो भी जाता क्योंकि वे काफी लंबा बोलते। तो वे मुझे उठाते जब उनका बोलना खत्म हो जाता कि अब उठो भाई।
रामकृष्ण कहते थे, पूजा का कोई हिसाब तो नहीं हो सकता। तो कभी जमती है तो जम जाती है। कभी बैठ जाती है बात तो बैठ जाती है। कभी दिल से दिल बैठ जाता है तो मिल जाता है, तो फिर चलती है। कभी नहीं बैठता, तब कोई जबरदस्ती थोड़े ही हो सकती है। "झूठ आसिकी करै मुलुक में जूती खाहीं' तब झूठी पूजा कैसे करूं। हो ही नहीं रही, आज मन उठ ही नहीं रहा। और कभी-कभी तो मैं नाराज भी हो जाता हूं भगवान पर। तब नाराजगी में कैसे पूजा हो? जब नाराज हो जाता हूं तो ताला लगाकर बंद कर देता हूं कि पड़े रहो, अब पछताओगे! अब नहीं आऊंगा। फिर याद आने लगती है कि यह तो बात ठीक नहीं। फिर जाकर मना लेता हूं।
तो रामकृष्ण ने कहा, अगर तुम्हारी मरजी हो तो मुझे अलग कर दो, मगर मेरी पूजा तो ऐसी ही चलेगी, क्योंकि यह पूजा है।

"लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।
और बिगाड़ैं काम, साइत जनि सोधैं कोई।
एक भरोसा नाहिं, कुसल कहुवां से होई।'
जमाने भर की विधि-विधानों का फिक्र कर रहे हो और असली बात भीतर सोच ही नहीं रहे हो कि--एक भरोसा नाहिं, कुसल कहुवां से होई। उस परमात्मा पर भरोसा नहीं है, बस यह असली बात तो खो रही है। और सब इंतजाम किए ले रहे हो। विवाह का सब इंतजाम कर लिया है, बैंड-बाजे इकट्ठे कर लिए हैं, बाराती इकट्ठे हो गए हैं और यह भूल ही गए वर कहां है! बारात निकलने की तैयारी होने लगी, तब याद आई कि वर तो है ही नहीं। असली बात तो एक है; बाकी बारातियों से कहीं बारात थोड़ी ही बनती है--वर चाहिए! भरोसा!

"एक भरोसा नाहिं, कुसल कहुवां से होई।'
 कहां से तुम्हारी कुशलता होगी? तुम्हें उस एक पर भरोसा नहीं। तुम्हें एक भरोसा नहीं।

"जेकरे हाथै कुसल, ताहि का दिया बिसारी
आपन इक चतुराई, बीच में करै अनारी।।'
"जेकरे हाथै कुसल'. . . जिसके हाथ सारी कुशलता है, सारा कल्याण है, उसको तो भूल बैठे हो और पंडित-पुजारी और ज्योतिषी और विधि-विधान और हिसाब-किताब, इस सब में पड़े हो!

"जेकरे हाथै कुसल, ताहि का दिया बिसारी
आपन इक चतुराई, बीच में करै अनारी।।'
बड़े मूढ़ हो तुम, अपनी चतुराई लगा रहे हो!
चतुर जो हैं वे परमात्मा में नहीं पहुंच पाते। उनकी चतुराई ही बाधा बन जाती है। वहां तो भोले सरल चित्त लोग चाहिए।

"पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।'
"तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवार, जगत् है झूठी काया।।'
"तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया।' बिना सतगुरु की दया के एक तिनका भी नहीं टूटता। "अजहूं चेत गंवार, जगत् है झूठी काया।' यह सारा जगत् तो झूठ का फैलाव है। अब भी चेत। और कब तक सोया रहेगा?

सपनों के सारे शीशमहल फिर चकनाचूर हुए।
जब सांझ लगी घिरने, अपने साए भी दूर हुए।
जल्दी ही वक्त आ जाएगा, मौत करीब आने लगेगी। अपनी छाया भी दूर हो जाती है, दूसरों का तो कहना ही क्या! जगत् है झूठी काया।

सपनों के सारे शीशमहल फिर चकनाचूर हुए।
ऐसा कितनी बार नहीं हो चुका है! कितनी बार जन्म और कितनी बार मौत! कितनी बार सपनों के शीशमहल चकनाचूर नहीं हुए!

सपनों के सारे शीशमहल फिर चकनाचूर हुए
जब सांझ लगी घिरने, अपने साए भी दूर हुए।
इसके पहले कि सांझ घिर जाए, जागो! अजहूं चेत गंवार!

ढल गया सूरज, उदासी छा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई
पंथ थे उन्मुक्त, क्यों कर रुक गए
क्यों धरा की ओर सहसा झुक गए
दृष्टि काली डोर से टकरा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
अनमनी धरती, गगन है अनमना
रह गया सपना कि जैसे अधबना
घिर गए बादल बहुत से सुरमई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
सूर्य के अंतिम किरण-सर छूटते
और जल-दर्पण वहीं पर टूटते
टूटते ही बिंब लौ टूटे गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
सुबह आया, सांझ भी आती ही होगी। सुबह के साथ ही आ गई। सुबह के साथ सांझ का आना शुरू हुआ। इसके पहले कि सांवरी सांझ आ जाए, रात घिरे मौत की और अंधकार छा जाए और तुम्हारे हाथ में करने को कुछ भी न बचे और जिसे जिंदगीभर बसाया था, संभाला था, बचाया था, वह सब छुड़ा लिया जाए--उसके पहले देने की कला सीख लेना। उसके पहले समर्पित होने की कला सीख लेना।

"तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया।'
यही मतलब है सूत्र का। मैं कुछ कर सकूंगा, यही तो संसार की दृष्टि है। फिर धर्म में आते हो, तब भी कहते हो मैं कुछ कर सकूंगा, तो तुम्हारी वही पुरानी अकड़ जारी है। धर्म के जगत् में तो तुम कहो : मैं कुछ भी नहीं कर पाया। इस "मैं' से कुछ होता ही नहीं।
सद्गुरु के चरणों में रख दो इस "मैं' को। कहो कि अब जो तुझे करना हो कर।
सद्गुरु का अर्थ होता हैः तुमने ईश्वर तो देखा नहीं, पहचाना नहीं, भगवान् तुम्हारी कोई मुलाकात नहीं; जिसकी मुलाकात हो, उसके चरणों में रखो, वहां से शुरुआत करो। राजा से मिलना नहीं होता तो चलो वजीर से मिलो। वजीर से मिलना नहीं होता तो चलो चौकीदार से मिलो। मगर चौकीदार से भी मिलकर भी थोड़ा संबंध बनता है। तुम्हारी तो कोई पहचान ही नहीं है, चौकीदार की कम से कम पहचान है।
सद्गुरु का इतना ही अर्थ होता है कि जिसकी मुलाकात हो गई है उससे तुम भी दोस्ती बांधो। इसी दोस्ती के सहारे तुम भी जुड़ जाओगे।

"तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवार, जगत् है झूठी काया।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।'
पलटू कहते हैं : "पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।' जब प्रभु की याद आ जाए वही घड़ी शुभ है। आधी रात आ जाए तो ब्रह्ममुहूर्त। भर दुपहरी में आ जाए तो ब्रह्ममुहूर्त का अर्थ होता है जब ब्रह्मा की याद आ जाए।

"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।'
 जब उसकी स्मृति तुम्हें झकझोरने लगे; जब उसकी पुकार तुम्हें खींचने लगे; जब उसका प्रेम तुम्हें डोर में बांधने लगे; जब तुम्हारे भीतर परमात्मा की स्मृति जगने लगे, सुगबुगाने लगे; जब तुम्हारे भीतर थोड़ा-सा अंकुर फूटने लगे उसकी तरफ--कहो प्रार्थना, कहो ध्यान, कहो, सुरति, शब्द, नाम, जो तुम्हें कहना है; लेकिन जब तुम्हारे भीतर यह दिखाई पड़े कि संसार व्यर्थ है, संसार का अतिक्रमण करना है, बहुत देर हो गई, अब घर लौटना है। मालिक की याद आने लगी। साहिब की याद आने लगे।

"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।'
जब भी याद पड़ जाए नाम, वही घड़ी शुभ, वही दिन शुभ। फिर न पूछना पंडित-पुजारी-पुरोहित से, ज्योतिषी से। क्या पूछना किसी से! चौबीस घड़ियां शुभ हैं, लेकिन अशुभ हुई जा रही हैं, क्योंकि उसकी याद से नहीं जुड़ी हैं। हर पल, हर छिन शुभ है, लेकिन खाली जा रहे हैं, क्योंकि परमात्मा से नहीं जुड़ा है। जिस क्षण जोड़ बैठ जाए, सेतु बन जाए, उसी क्षण क्रांति घटनी शुरू हो जाती है; उसी क्षण तुम तुम न रहे, तुम महिमावान हो गए। इधर मिटे और महिमा आई।

"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।'
विधि-विधान में मत पड़ना। प्रेम की कोई विधि नहीं, कोई विधान नहीं। प्रेम तो पागलों की बात है, दीवानों का काम है। प्रेम तो भाव की दशा है, विचार की नहीं। विचार में विधि-विधान होते हैं। हृदय की बात है। इसलिए तो सिर को उतार देना पहली शर्त है।
ये सूत्र प्रेम का पूरा शास्त्र है। ये तुम्हारे हृदय में बैठ जाएं। इनकी थोड़ी गंध तुम्हारे जीवन में आ जाए तो तुम अपूर्व आनंद से भर जाओगे।
जीवन में एक ही आनंद है, वह परमात्मा से मिलने का आनंद है। और भी जो आनंद कभी आनंद जैसे मालूम पड़ते हैं, जाने-अनजाने परमात्मा से मिलने के कारण ही होते हैं। सुबह सूरज उगता है; प्राची पर लाली फैल जाती है; पक्षी गीत गाते हैं, हवाओं में सुवास होती है, शीतलता होती है--तुम उठे, रातभर के सोए, ताजे और तुमने उगते सूरज को देखा और तुमने कहा कितना सुंदर! और यह पल, क्षण शुभ हो गया। मगर यह सूरज का सौंदर्य उसी का सौंदर्य है। यह उसी की तस्वीर का एक हिस्सा है। यह उसका ही एक अंग है। हिमालय के उत्तुंग शिखर देखे, कुंवारी बर्फ से जमे, जिन पर कोई कभी नहीं चला, उन पर चमकती सूरज की किरणें देखीं, फैली चांदी देखी, सोना देखा पहाड़ों पर--उस अपूर्व दृश्य को देख कर तुम ठगे-ठगे अवाक रह गए। विचार क्षणभर को रुक गए। ऐसा तो कभी देखा नहीं था। इस अपूर्व ने तुम्हें अवाक कर दिया, आश्चर्य-विमुग्ध कर दिया। तुमने कहा : बड़ा सुंदर, बड़ा प्रीतिकर! परमात्मा को फिर देखा। पहाड़ पर उसकी छाया देखी।
कभी सागर के किनारे सागर की उठती लहरों को देखकर, उस तुमुल नाद को देखकर, उस विराट को फैले हुए देखकर, तुम्हारा छोटा-सा मन गुपचुप हो गया। कहा, बड़ा सुंदर है! बड़ा सुख पाया। फिर परमात्मा की एक झलक मिली।
कभी किसी की आंखों में झांककर, कभी किसी का हाथ हाथ में लेकर, प्रेम का थोड़ा-सा झरना बहा और तुमने कहा, बड़ा सुंदर व्यक्ति है, कि बड़ा प्यारा व्यक्ति है, कि मनचीता मिल गया! फिर परमात्मा मिला। फिर उसका एक हिस्सा मिला।
और ये सब छोटे-छोटे खंड हैं। इन छोटे-छोटे खंडों को ज्यादा देर नहीं अनुभव किया जा सकता। ये झलकें हैं। जैसे चांद झलकता हो झील में, सुंदर है; झलक भी असली चांद की है, मगर झलक है।
जैसे तुम दर्पण के सामने खड़े होते हो और चेहरा बना है दर्पण में, तुम कहते हो सुंदर है; मगर जो चेहरा दर्पण में बन रहा है, वह सच की ही नकल है, मगर सच नहीं है। झलक तो सच की ही है, मगर झलक स्वयं नहीं है। क्षणभंगुर है--आया, गया।
रोज-रोज ऐसे बहुत-से क्षण तुम्हारे जीवन में आते हैं, जब परमात्मा की झलक कहीं से आती है, सुध आती है। ये छोटे-छोटे सुख, क्षणभंगुर सुख भी उसी के ही हैं। लेकिन ये आएंगे और जाएंगे। धीरे-धीरे जब तुम यह समझोगे कि सारा सुख उसका है, सारा आनंद उसका है, तब तुम खंड-खंड न खोजोगे; तब तुम अखंड में खोजोगे। तब तुम ऐसे टुकड़े से राजी न होओगे; तुम कहोगे अब तो पूरा चाहिए।
और पूरा मिलता है। पूरा मिला है। मैं तो रामरतन धन पाया! पूरा मिला है। पूरा मिल जाता है। मगर मिलता उन्हीं को है जो पूरा खोने को तैयार हैं। पूरे को पाने के लिए पूरे चुकाना पड़ता है।

मैं इन सूत्रों को दोहराए देता हूं :

सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।
सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।
जीते जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन रात, रहै सूली पर वासा।।
मान बड़ाई खोय, नींद भर नाहीं सोना।
तिलभर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।।
पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।
खाला का घर नाहिं, सीस जब धरै उतारी।।
हाथ-पांव कटि जाय, करै ना संत करारी।
ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै
सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै।।
पलटू ऐसे घर महैं, बड़े मरद जे जाहिं।
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।
और बिगाड़ैं काम, साइत जनि सोधैं कोई।
एक भरोसा नाहिं, कुसल कहुवां से होई।।
जेकरे हाथै कुसल, ताहि का दिया बिसारी
आपन इक चतुराई, बीच में करै अनारी।।
तिनका टूटा नाहिं, बिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवार, जगत् है झूठी काया।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।

आज इतना ही।



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