जीवन-चर्या के तीन सूत्र—प्रवचन-आठवां
एक घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक संन्यासी किसी अजनबी देश से गुजरता था। वह देश अग्निपूजकों का देश था। संन्यासी जब देश के भीतर प्रविष्ट हुआ तो पहले ही उसे जो गांव मिले--वह देख कर दंग रह गया--उन गांवों में रात अंधेरा था। उन गांवों में घरों में चूल्हे नहीं जलते थे। उन गांवों के लोग आग जलाना भी नहीं जानते थे। वह तो चकित रह गया। उसने सुना था, वह अग्निपूजकों का देश है। वहां अग्नि को लोग पूजते जरूर थे, लेकिन अग्नि को जलाना नहीं जानते थे।
उसने लोगों से बात की। उन लोगों ने कहा, अग्नि अब नहीं जलती, वह सतयुग की बात है, पहले जलती थी। वे दिन बीत गए। यह कलियुग है, अब अग्नि जलने का कोई उपाय नहीं है। और फिर अग्नि सभी तो नहीं जला सकते! कोई महापुरुष, कोई तीर्थंकर, कोई ईश्वरपुत्र, कोई अवतार अग्नि को जलाने में समर्थ होता है। हम साधारणजन अग्नि को कैसे जला सकते हैं! हम तो सिर्फ अग्नि की पूजा करते हैं।
वह संन्यासी बहुत हैरान हुआ, अग्नि तो कोई भी जला सकता है। और जब उसने यह कहा कि अग्नि तो कोई भी जला सकता है, तो वे गांव के लोग बहुत नाराज हो गए। उन्होंने कहा, तुम हमारे महापुरुषों का अपमान करते हो! यह सिर्फ अलौकिक महापुरुषों के लिए संभव है कि वे आग जला सकें। हम सिर्फ अग्नि की पूजा कर सकते हैं। और अग्नि की पूजा करने को भी वे अग्नि नहीं जला सकते थे। उनके पास अग्नि के संबंध में लिखे हुए शास्त्र थे। मंदिर में रख कर उनकी ही वे पूजा करते थे।
फिर वह संन्यासी और उस देश के भीतर प्रविष्ट हुआ। दूसरे गांव आए। वहां भी अंधकार था, वहां भी अग्नि जलाना कोई भी नहीं जानता था। लेकिन उनके पास अग्नि के चित्र थे। उन चित्रों की वे पूजा करते थे। वह संन्यासी और भीतर प्रविष्ट हुआ, वह उन गांवों में पहुंचा जो देश के और भीतरी हिस्सों में थे, वहां भी अग्नि को जलाना कोई नहीं जानता था। लेकिन उनके पास अग्नि को जलाने के उपकरण थे, उनके पास पत्थर थे, जिनके घर्षण से अग्नि पैदा हो जाए। लेकिन वे कभी उन पत्थरों का घर्षण नहीं करते थे। शायद भूल गए थे। शायद उन्हें पता भी नहीं था। लेकिन उनके मंदिर में वे पत्थर रखे थे और वे उनकी पूजा कर लेते थे। फिर वह संन्यासी और भीतर प्रविष्ट हुआ और देश के केंद्र पर राजधानी में पहुंचा। वहां जरूर एक आदमी अग्नि को जलाना जानता था।
वह उस देश का महापुरोहित था, धर्मगुरु था। और उसकी, उस आदमी की लोग पूजा करते थे, क्योंकि वह चमत्कार था कि वह आदमी अग्नि जला लेता था। वर्ष में एक बार वह अग्नि जलाता था। सारे देश के करोड़ों लोग इकट्ठे होते थे और पूजा करते थे। जब वह संन्यासी राजधानी में पहुंचा तो वैसा ही अग्नि का दिवस मनाया जा रहा था। करोड़ों लोग इकट्ठे थे। और उस पुजारी की पूजा चलती थी, क्योंकि वह अग्नि जला सकता था। यह महाशक्ति का कार्य था। यह परमात्मा का विशेष आदमी था जिसको यह अधिकार मिला था। कोई और अग्नि जलाना नहीं जानता था। उसने भीड़ में चिल्ला कर उस संन्यासी ने कहा, यह क्या पागलपन कर रहे हो! अग्नि कोई भी जला सकता है। मैं तुम्हें अग्नि का जलाना बता सकता हूं। यह क्या विक्षिप्तता फैली हुई है!
पुजारियों ने उस संन्यासी को पकड़ लिया और लोगों ने कहा, यह हमारे धर्म का शत्रु है। यह हमारे धर्म का दुश्मन है। यह हमारे धर्म का अनादर करता है। यह अश्रद्धा फैलाता है। और उन्होंने उस संन्यासी को सूली पर लटका दिया। और वे प्रसन्न हुए, क्योंकि उन्होंने एक अधार्मिक नास्तिक की हत्या कर दी थी और उसे पृथ्वी से मुक्त कर दिया था।
इस कहानी से मैं क्यों शुरू करना चाहता हूं? मनुष्य की इस पृथ्वी पर धर्म की वही गति हो गई है जो अग्नि की उस देश में हो गई थी। सब तरफ धार्मिक लोग हैं जैसे उस देश में अग्नि-पूजक थे। मंदिर हैं, मस्जिद हैं, शिवालय हैं, शास्त्र हैं, मूर्तियां हैं, चित्र हैं, पूजा है, प्रार्थना है, अर्चना है। लेकिन जैसे उस देश में अग्नि नहीं थी और लोग अंधकार में जीते थे, ऐसे ही पृथ्वी पर धर्म नहीं है और लोग अंधकार में जीते हैं। हां, कभी-कभी हम पूजा कर लेते हैं। और कभी-कभी स्मरण कर लेते हैं उन लोगों का जिनके जीवन में धर्म की ज्योति जली थी।
जैसे आज ही हम यहां इकट्ठे हो गए हैं एक ऐसे ही व्यक्ति के स्मरण के लिए, महावीर के स्मरण के लिए। कभी हम कृष्ण के स्मरण के लिए इकट्ठे होते हैं, कभी राम के, कभी क्राइस्ट के, कभी मोहम्मद के। और हम उन लोगों की गुण-गाथाएं कर लेते हैं जो अग्नि जलाना जानते थे--जीवन की अग्नि, प्रेम की अग्नि, परमात्मा की अग्नि। उनकी पूजा करते हैं। उनका स्मरण करते हैं। लेकिन हम यह भूल ही गए हैं कि यह अग्नि तो हर कोई जला सकता है। यह तो प्रत्येक आदमी का अधिकार है कि वह प्रभु की ज्योति को उपलब्ध हो जाए।
लेकिन अगर कोई हमसे यह कहेगा तो हम कहेंगे, हमारे महापुरुषों का अपमान मत करो, हमारे धर्म का विरोध मत करो, हम धर्म के पूजक हैं। ऐसी अश्रद्धा की बातें मत फैलाओ। जो उस संन्यासी के साथ हुआ था, वह हमेशा संन्यासी के साथ होता रहा है। इसीलिए तो हम जीसस को सूली पर लटका देते हैं। क्योंकि वह उन लोगों का विरोध करता है, जो केवल पूजा कर रहे हैं। पूजा करने वाले लोग धर्म के शत्रु हैं। जीना! धर्म को जीना पड़ता है, पूजा नहीं करनी पड़ती। लेकिन जीसस अगर लोगों से कहता है कि तुम पूजा करने वाले लोग पागल हो, धर्म को जीओ। अग्नि को जलाओ और घर के अंधेरे को मिटाओ। न कि अग्नि के चित्रों की और शास्त्रों की पूजा करो। अग्नि तो उपयोग करने के लिए है। धर्म भी उपयोग करने के लिए है। तो फिर पुजारियों ने जीसस को सूली पर लटका दिया।
और सुकरात ने--यूनान में लोगों से कहा सुकरात ने यही कि धर्म तो जीने के लिए है। सत्य तो जीने के लिए है। उसे जीओ! तो एथेंस की अदालत ने उसे जहर पीने की आज्ञा दे दी। कि यह लोगों को बिगाड़ रहा है। लोगों की श्रद्धा को खंडित कर रहा है। और मंसूर ने जब कहा, तो यही मंसूर के साथ हुआ। और अभी हम गांधी की हत्या करके निपटे भी नहीं हैं, अभी उसकी छाया हम पर मौजूद है।
बड़े आश्चर्य की बात है कि जब महापुरुष जिंदा होते हैं, तो हम पत्थर मारते हैं, अपमान करते हैं, गोली चलाते हैं, जहर पिलाते हैं। और जब महापुरुष मर जाते हैं और हजारों वर्ष बीत जाते हैं, तो हम उनकी पूजा करते हैं। शायद यह पूजा पश्चात्ताप के लिए है। शायद हमने उनके जीवित उनके साथ जो दर्ुव्यवहार किया है उसके लिए प्रायश्चित्त कर लेना चाहते हैं। फिर हजारों साल तक प्रायश्चित्त चलता है। गांधी की पूजा चलेगी, मूर्तियां बनेंगी। महावीर की पूजा चल रही है, मूर्तियां बन रही हैं, मंदिर बन रहे हैं, स्मरण किया जा रहा है। महावीर के साथ कोई बहुत अच्छा व्यवहार हमने किया हो, ऐसा स्मरण नहीं आता।
महावीर को पत्थर मारे गए। गांव से निकाल कर बाहर किया गया। जंगली कुत्ते महावीर पर छोड़े गए। महावीर के कानों में लोहे की कीलियां ठोक दी गईं। महावीर के साथ यह हमने व्यवहार किया, जब महावीर जिंदा हैं। और जब महावीर मर जाते हैं, तब हम उनकी मूर्ति बनाते हैं, उनके चरणों में सिर रखते हैं।
आदमी पागल मालूम होता है। पूजा प्रायश्चित्त है। शायद मर जाने पर खयाल आता है, बीत जाने पर खयाल आता है। अरे, यह क्या हुआ! और फिर और भी कुछ कारण हैं शायद। शायद जिंदा तीर्थंकर, जिंदा पैगंबर, जिंदा विचारक, जिंदा सुकरात, जिंदा महावीर, जिंदा बुद्ध हमारे झेलने के बाहर होते हैं, अनबियरेबल होते हैं। वे जिस सत्य को दिखाते हैं, उसे देख कर हमारे सारे असत्य प्राण कंप जाते हैं। लेकिन जब मर जाता है कोई महापुरुष, तो उसे हम अपनी मुट्ठी में बंद कर लेते हैं। फिर हम अपने मन के हिसाब से उसकी व्याख्या कर लेते हैं। फिर हम उसके कोनों को झाड़ देते हैं। फिर हम उसकी तीखी बातों को मिटा देते हैं। फिर हम उसकी जिंदगी में जो तीर थे, उनको समाप्त कर देते हैं। हम उसे चिकना, साफ-सुथरा, अपने काम का बना लेते हैं। फिर हम उसकी पूजा करते हैं।
इसलिए मुर्दा पैगंबरों की पूजा होती है, जिंदा पैगंबरों को पत्थर मारे जाते हैं। और जब तक पृथ्वी पर यह होता रहेगा तब तक पृथ्वी पर धर्म का कोई अवतरण संभव नहीं है। जिस दिन जीवित व्यक्तित्व का समादर उत्पन्न होगा, मृत व्यक्तित्व का नहीं, उस दिन शायद पृथ्वी पर धर्म उतर सकता है। मुर्दा, मृत, अतीत महापुरुष धर्म को कैसे ला सकते हैं!
लेकिन हम उनकी ही पूजा किए चले जाते हैं। और उनकी पूजा करने की हमारी तरकीब यह है कि हम पहले उनके तीखे कोनों को झड़ा देते हैं। जहां से हमें चोट लग सकती है, वे हम मिटा देते हैं। हम अपने मतलब की व्याख्या कर लेते हैं। और फिर जब व्याख्या हमारे मतलब की हो जाती है तब हम निश्चिंत हो जाते हैं।
एक आदमी समुद्र में यात्रा करता था। तूफान आया, आंधी आई और उसकी नाव डगमगाने लगी। वह करोड़ों रुपए की संपत्ति लेकर लौट रहा था प्रदेशों से। हीरे-जवाहरात थे, मोती-माणिक थे, वह संपत्ति डूब जाएगी। वह घबरा गया। उसने हाथ जोड़े, प्रार्थना की और परमात्मा से कहा, हे प्रभु! अगर मेरा जीवन बच जाए और मेरी नाव बच जाए, तो मेरा जो महल है राजधानी में, मैं उसे बेच कर गरीबों को बांट दूंगा।
ऐसे तो वह धोखा दे रहा था और सस्ता सौदा कर रहा था। महल मुश्किल से पांच लाख रुपए का था और करोड़ों रुपए की संपत्ति थी उस नाव में। उसने सोचा कि भगवान को चकमा दे दे। और वह कोई बड़ा धोखा नहीं दे रहा था। आप चले जाते हैं कि हे भगवान, हम पांच आने का नारियल चढ़ा देंगे। मेरे लड़के की शादी करवा दो। मेरा मुकदमा जितवा दो। मेरी बीमारी दूर करवा दो। पांच आने तो अदालत का चपरासी भी रिश्वत लेने को तैयार नहीं होता। भगवान को बहुत सस्ते में...लेकिन फिर भी उसने तो, कोई इतना सस्ता नहीं था सौदा, पांच लाख का महल था उसका। पांच लाख और दस लाख के बीच में उसकी कीमत थी।
संयोग की बात, नाव बच गई। कोई भगवान पांच लाख के लोभ में आ गया हो, ऐसा तो नहीं माना जा सकता। संयोग ही रहा होगा कि नाव बच गई, वह किनारे पर लग गया। किनारे पर लगते ही उसके प्राण संकट में पड़ गए। अब क्या करूं? पांच लाख का मकान गरीबों को बांट दूं?
नींद हराम हो गई। सोचने लगा, इससे तो नाव डूब जाती तो अच्छा था। न होते हम, न रहता बांस न बजती बांसुरी। न यह चिंता आती, न यह परेशानी आती। और रात नींद खराब हो गई। मकान! और कहीं नहीं दिया गरीबों को तो कहीं भगवान नाराज न हो जाए। क्योंकि जो भगवान प्रशंसित होता है प्रार्थना से, उस भगवान से डर भी होता है कि भूल से नाराज हो जाए। उसने देखा कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता, नींद खराब हो गई, स्वास्थ्य खराब हो गया।
फिर वह गांव के धर्म-गुरु के पास गया। क्योंकि ऐसे मामलों में धर्म-गुरु ही व्याख्या कर सकते हैं ठीक-ठीक कि क्या किया जाए। उनसे ज्यादा कनिंग, उनसे ज्यादा चालाक जमीन पर कोई दूसरा आदमी नहीं है। क्योंकि उनसे ज्यादा अनजान धंधा कोई करता ही नहीं। बाकी सब धंधे पार्थिव हैं, वे परमात्मा का धंधा करते हैं। वह बड़ी अंधेरी अज्ञात दुनिया का धंधा है। वह दूकान ऐसी है कि दिखाई नहीं पड़ती। वहां बहुत चालाक और होशियार आदमी चाहिए। वे ऐसा सामान बेचते हैं जिसको हाथ में पकड़ा नहीं जा सकता, जिसको आंख से देखा नहीं जा सकता। और उसके बदले में ऐसा सामान लेते हैं जो हाथ में पकड़ा जा सकता है, आंख से देखा जा सकता है। उसने कहा धर्म-गुरु के पास चले जाएं। वह धर्म-गुरु के पास गया।
धर्म-गुरु ने कहा, क्या चिंता की बात! ऐसे मसले तो रोज शास्त्रों में आते रहते हैं, हम व्याख्या करते रहते हैं। व्याख्या करना हमारा धंधा है। उसने कान में व्याख्या बता दी।
दूसरे दिन उस करोड़पति ने राजधानी में डुंडी पिटवा दी कि महल मुझे बेचना है, जिसको खरीदना हो सुबह आ जाए। सुबह उस महल को बहुत खरीदने वाले लोग उत्सुक थे, वे आ गए। महल के सामने जो स्तंभ था, स्मृति-स्तंभ, उसमें उसने एक बिल्ली बांध दी। और कहा कि पांच लाख रुपया बिल्ली के दाम और महल का दाम एक रुपया।
लोगों ने कहा, पागल हो गए हो? बिल्ली के दाम पांच लाख रुपए! और बिल्ली खरीदनी किसको है! हम बिल्ली खरीदने नहीं आए। पर उसने कहा कि नहीं, मुझे तो बिल्ली और मकान साथ बेचना है। मकान का दाम एक रुपया और बिल्ली के दाम पांच लाख रुपए, जिसको लेना हो! इकट्ठे ही बेचूंगा एक ही ग्राहक को।
लोगों को समझ में नहीं आया। लेकिन उन्होंने कहा इससे क्या प्रयोजन है! पांच लाख का मकान था, ज्यादा का मकान था। एक आदमी ने पांच लाख की बिल्ली खरीद ली, एक रुपए में मकान खरीद लिया। पांच लाख रुपए उसने तिजोरी में बंद कर दिए, एक रुपया गरीबों में बांट दिया। व्याख्या कर ली अपने मतलब की, अपने काम की, अपने प्रयोजन की, निश्चिंत हो गया। नींद उसे गहरी आने लगी। स्वास्थ्य उसका ठीक हो गया।
महापुरुषों की, उनके जीवन की भी पीछे से हम ऐसी होशियार चालाक व्याख्या करते हैं कि उनका जीवन अपने हिसाब से निर्मित कर लेते हैं। अपना जीवन नहीं निर्मित करते, उनके जीवन को अपने हिसाब से ढाल लेते हैं। इसीलिए मुर्दा तीर्थंकर, मरे हुए अवतार, जा चुके महापुरुष अंगीकृत हो जाते हैं, पूज्य हो जाते हैं, आदृत हो जाते हैं। अभी फिर से आ जाएं वे आपके सामने, फिर विरोध शुरू हो जाएगा। इसी वक्त इनकार शुरू हो जाएगा।
जीसस क्राइस्ट को ऐसा एक बार खयाल आ गया, मैंने सुना। अठारह सौ वर्ष बीत गए हैं। उन्हें खयाल आ गया कि अब तो जमीन पर कोई एक तिहाई लोग ईसाई हो गए हैं। मेरे चर्च में पूजा करते हैं। मेरे गीत गाते हैं। मेरी तरफ हाथ जोड़ते हैं। मैंने गलती की जो मैं पहले पहुंच गया जमीन पर, अठारह सौ वर्ष पहले। अब अगर जाऊं तो मेरा ठीक स्वागत हो सकता है। जमीन तैयार है, लोग मेरे स्वागत को आतुर हैं, रोज करोड़ों प्रार्थनाएं आती हैं।
तो जीसस जेरुसलम में, अठारह सौ वर्ष बाद सूली पर लटकाए जाने के, जेरुसलम के बाजार में एक दिन सुबह-सुबह रविवार के दिन उतर आए। क्योंकि रविवार के दिन ईसाइयों को पहचानना आसान होता है। बाकी दिन कोई पता नहीं चलता कि कौन ईसाई है, कौन ईसाई नहीं है। जैसे महावीर जयंती आ जाए तो जैनियों को पहचानना आसान होता है। वैसे पता नहीं चलता कि कौन जैनी है, कौन जैनी नहीं है। तो सोचा रविवार ठीक दिन होगा, क्योंकि रविवार को ईसाई मंदिर जाता है, चर्च जाता है। चर्च के सामने ही बाजार में वह उतर कर एक झाड़ के नीचे खड़े हो गए। चर्च से ईसाई लौटते थे, धार्मिक लोग। छह दिन जो पाप करते हैं, वे एक दिन धर्म भी कर लेना भूलते नहीं हैं। सोचते हैं कि एक दिन का धर्म छह दिन के पाप को अगर मिटा देता हो तो हर्जा क्या है! फिर छह दिन पाप करने की सुविधा मिल जाती है। ऐसे निपटारा भी होता चला जाता है, झंझट भी पैदा नहीं होती।
जीसस उतरे हैं, मंदिर से निकलते हुए लोग हैं चर्च से, भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग हंसने लगे और लोगों ने कहा कि कोई बहुरूपिया मालूम होता है, बिलकुल जीसस क्राइस्ट की शक्ल बनाए हुए खड़ा है! जीसस ने कहा कि नहीं, मैं कोई बहुरूपिया नहीं हूं! मैं खुद हूं जीसस क्राइस्ट। मुझे भूल गए? मेरी प्रार्थना करते हो। मेरे चर्च से आ रहे हो।
वे लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, नासमझ जल्दी भाग जा यहां से। अभी पादरी भी आने को है बाहर। अगर उसने देख लिया तो खैरियत नहीं। भागो यहां से, यहां मत रुको।
तो जीसस ने कहा कि वह पादरी तो मेरा है। यहूदियों के पादरियों ने मुझे फांसी दी थी। यह तो अपना आदमी है। यह तो मेरा--वह तो कहता है, सर्वेंट ऑफ जीसस क्राइस्ट--वह तो मेरा सेवक है। उन लोगों ने कहा कि तुम गड़बड़ आदमी मालूम होते हो, तुम्हारा दिमाग खराब है। तभी पादरी आ गया वहां पर। बच्चे पत्थर फेंक रहे हैं, कोई छिलके फेंक रहा है, लोग हंसी उड़ा रहे हैं, कि यह कौन अभिनेता आ गया है जीसस क्राइस्ट बन कर। लेकिन मालूम बिलकुल जीसस क्राइस्ट जैसा होता है!
पादरी आ गया, उसके लिए सम्मान से लोगों ने दरवाजा दे दिया। भीड़ छंट गई। लोग उसके पैरों में झुकने लगे। जीसस क्राइस्ट सामने खड़े हैं, उनके पैर में एक आदमी नहीं झुका है। यह पादरी जीसस क्राइस्ट के नाम पर उनका एजेंट है, स्वयं निर्मित, क्योंकि जीसस क्राइस्ट ने किसी को अपना एजेंट तय नहीं किया। यह खुद, सेल्फ-एप्वाइंटेड, उसके लिए लोगों ने दरवाजा छोड़ दिया। लोग भीड़ झुक कर हाथ-पैर जोड़ने लगे। और उसने जीसस को नीचे से ऊपर तक देखा और कहा, बदमाश नीचे उतर! यह क्या ढोंग रच रखा है?
जीसस कहने लगे, तुम भी नहीं पहचानते? भीड़ नहीं पहचानती तो ठीक। उनको पसीना आ गया कि यह तो मुश्किल हो गई। मैं कहां आ गया, मैं तो सोचता था अपने लोग हैं। वह आज प्रीस्ट है, वह सबसे बड़ा पुरोहित है जेरुसलम का। तुम भी नहीं पहचानते मुझे? तू भी नहीं पहचाना मुझे? उस आदमी ने कहा, मैंने ठीक से पहचान लिया। नीचे उतरो! और चार आदमियों को कहा, पकड़ो इस आदमी को। जीसस क्राइस्ट एक बार आ चुके। अब उनके आने की न कोई जरूरत है, न कोई सवाल है।
अभी एक आदमी आकर खड़ा हो जाए और कहे कि मैं महावीर हूं। जैनी कहेंगे, पकड़ो इसको इसी वक्त! क्योंकि महावीर हो चुके, अब कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता। अंतिम तीर्थंकर हो चुका। ईश्वर का पुत्र आ चुका एक बार, अब दुबारा आने की क्या जरूरत है! मुसलमान कहते हैं कि मोहम्मद के बाद अब कोई पैगंबर नहीं। क्रिश्चियंस कहते हैं जीसस के बाद अब कोई ईश्वर का पुत्र नहीं। जैन कहते हैं महावीर के बाद अब कोई तीर्थंकर नहीं।
चार आदमियों ने पकड़ लिया है उसे और जाकर चर्च की एक कोठरी में बंद कर दिया, एक अंधेरी कोठरी में। जीसस तो बड़े हैरान हो गए कि क्या फिर से सूली लगेगी! क्या अपने ही लोग अब की बार सूली लगाएंगे! पहली सूली फिर भी समझने जैसी थी, क्षम्य थी। लेकिन इस सूली की तो व्याख्या करना भी मुश्किल हो जाएगा। क्या अपने लोग भी सूली लगाएंगे!
आधी रात बीत गई है। फिर चर्च के पादरी ने कोठरी का द्वार खोला। अंधेरे में लालटेन लेकर भीतर गया। क्राइस्ट की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। उस पादरी ने लालटेन नीचे रखी। गिर कर क्राइस्ट के पैर छुए और कहा, क्षमा करें!
जीसस ने कहा, क्या तू मुझे पहचान गया? अंततः पहचान गया न!
उस पादरी ने कहा, पहचान तो मैं वहां भी गया था। लेकिन भीड़ में स्वीकार करना उचित नहीं है। पहचान तो मैं तब भी गया था। लेकिन बाजार में पहचानना ठीक नहीं है। अकेले में ठीक है। आपके आने की कोई जरूरत नहीं है। हम आपकी तरफ से अच्छी तरह से काम चला रहे हैं। ठीक से काम चला रहे हैं। अठारह सौ साल में हमने मुश्किल से व्यवस्था जमाई है। तुम आए तो सब गड़बड़ हो जाएगा। ये पुरानी आदतें हैं तुम्हारी कि तुम जब भी आते हो, पादरियों की, पुरोहितों की, साधुओं की, संन्यासियों की, पंडितों की सारी परंपरा गड़बड़ कर देते हो। ओल्ड डिस्टरबर! तुम पुराने विध्वंसकारी हो। तो तुम्हें हम भीड़ में नहीं पहचान सकते। भीड़ में अगर तुमने गड़बड़ की तो हमें भी सूली देनी पड़ेगी। क्षमा करना, उसके सिवा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन हां, तुम न आओ, तुम आकाश में रहो। हम तुम्हारी प्रार्थना और तुम्हारे चरणों में अर्चना करते रहेंगे। हमेशा-हमेशा हम तुम्हारे भक्त हैं, हम तुम्हारे सेवक हैं।
जीसस को कुछ समझ में आया कि नहीं, मुझे पता नहीं, कि क्या हालत थी उनकी। लेकिन यही हालत है। पूजा करने तक ठीक है। लेकिन जीवंत घटना हमारे जीवन को बदलने के लिए तीव्र चैलेंज, चुनौती पैदा कर देती है। और जीवन को हम बदलना नहीं चाहते। हम धर्म को जीना नहीं चाहते। हम केवल पूजा करना चाहते हैं। इसलिए हम जब कोई महापुरुष मर जाता है...।
महावीर को शरीर छोड़े पच्चीस सौ वर्ष हो गए। पच्चीस सौ वर्ष से जयंती चल रही है। हर वर्ष स्मरण करने वाले लोग याद करते हैं। और ऐसी व्यवस्था कर ली है कि इन महावीर की जो हमने शक्ल बना ली, जो इमेज हमने क्रिएट कर ली बिलकुल झूठी, उसका असली महावीर से कोई भी नाता नहीं है, कोई भी संबंध नहीं है। बिलकुल झूठी इमेज, मुर्दा, हमारे काम की, जो हमारे हाथ की कठपुतली है। वह इमेज हमको नहीं बदली है। उस प्रतिमा ने महावीर की, उस महावीर की जीवन-दृष्टि ने हमें नहीं बदला है। हमने महावीर की जीवन-दृष्टि को अपने अनुकूल कर लिया है, बदल लिया है।
ऑस्कर वाइल्ड एक घर में मेहमान था। उस घर की सुंदर गृहिणी ने वाइल्ड को कहा, मेरे पास आपकी एक तस्वीर है। बिलकुल आप जैसी! इतनी आप जैसी कि कभी-कभी तो मैं इतनी अभिभूत हो जाती हूं कि उस तस्वीर का चुंबन कर लेती हूं। ऑस्कर वाइल्ड ने शंका से सिर हिलाया और कहा, तस्वीर लौट कर चुंबन उत्तर में देती है कि नहीं? उस स्त्री ने कहा कि नहीं, तस्वीर तो नहीं देती। तो वाइल्ड ने कहा, फिर मेरे जैसी नहीं है। मैं तो लौट कर उत्तर देता। वह तस्वीर फिर मेरे जैसी नहीं है। वह तस्वीर है और मुर्दा है, जीवंत से तो उत्तर आता। मृत से कोई उत्तर नहीं आता।
हम उत्तर चाहते भी नहीं हैं। हम पूजा कर लेते हैं, अपने घर चले जाते हैं। उस तरफ से हम कोई रिस्पांस, उस तरफ से हम कोई उत्तर नहीं चाहते। क्योंकि उस तरफ का अगर कोई उत्तर होगा तो हमारे प्राण संकट में पड़ जाएंगे। हमें अपने को बदलना पड़ेगा।
तो हम कैसे महावीर...जिस महावीर का हम स्मरण करते हैं। वह हमारा बनाया हुआ महावीर है, उस महावीर का नहीं जो था। जिस मोहम्मद को हम स्मरण करते हैं वह हमारा बनाया हुआ है। जिस राम को हम स्मरण करते हैं वह हमारा बनाया हुआ है। असली राम को, असली मोहम्मद को, असली महावीर को तो हम स्मरण कर ही नहीं सकते, क्योंकि उसकी स्मृति तो हमारे सारे जीवन का रूपांतरण सिद्ध होगी।
हम अग्निपूजक हैं। हम अग्नि को जलाना नहीं चाहते और न जलाना जानते हैं। और कुछ पुजारी हैं जो जलाना जानते हैं, तो वे नहीं चाहते कि कोई और जान ले। क्योंकि जब तक यह ज्ञान सीक्रेट है, यह रहस्य है, तब तक उनका भी मूल्य है और आदर है। हमने कैसे महावीर की तस्वीर अपने हिसाब से बना ली है, उसकी मैं चर्चा करना चाहूंगा।
अगर हमें यह खयाल आ जाए कि महावीर जैसे वे हैं, और महावीर जैसे हमने बना लिए हैं, इन दोनों में बुनियादी फर्क है, तो हमारी जिंदगी में चिंतन का और परिवर्तन का एक मौका पैदा हो सकता है। कैसी हमने तस्वीर बना ली है! और हजारों वर्षों से तस्वीर में नई-नई तस्वीरें जुड़ती चली जाती हैं। पच्चीस सौ वर्ष की यात्रा के बाद असली महावीर में और हमारे महावीर में कोई संबंध, कोई मेल-जोल नहीं रह गया। पच्चीस सौ वर्ष में इतनी प्रतिध्वनियां गूंज गईं, इतना गंगा का पानी बह गया, किनारे इतने छिल गए और बिखर गए, रेत इतनी नई आई और चली गई। और इतने लोगों ने व्याख्याएं जोड़ीं, व्याख्याएं जोड़ीं, व्याख्याएं जोड़ीं कि अब हमारे पास एक झूठी व्याख्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह गया। लेकिन वह झूठी व्याख्या हमें प्रीतिकर है, क्योंकि वह बिलकुल डेड है, मुर्दा है। वह हममें कुछ भी नहीं कर सकती। हम जैसा चाहें उसका अर्थ निकाल सकते हैं।
गीता पर एक हजार टीकाएं हैं। बड़ी अजीब बात है। कृष्ण ने अर्जुन से जो कहा उसका अर्थ एक ही रहा होगा, हजार अर्थ नहीं हो सकते। कि हो सकते हैं? अगर हो सकते हों, तो कृष्ण का दिमाग खराब रहा होगा तो ही हो सकते हैं। पागलों की बात का एक अर्थ नहीं होता, हजार, पचास हजार हो सकते हैं। पागल को खुद भी पता नहीं होता कि क्या अर्थ है। लेकिन कृष्ण पागल नहीं हैं। फिर ये एक हजार गीता की टीकाएं कैसे खड़ी हो गईं? ये एक हजार अर्थ करने वाले लोग कौन हैं? ये क्यों अर्थ किए जा रहे हैं? यह हर वर्ष, दो वर्ष के बाद फिर कृष्ण की तस्वीर को हमें अपने अनुकूल बनाना पड़ता है। फिर नई व्याख्या करनी पड़ती है।
शंकर व्याख्या करते हैं, वह व्याख्या कृष्ण का अर्थ नहीं है, शंकर का आरोपण है। शंकर को जो सिद्ध करना है वह कृष्ण पर थोपते हैं। रामानुज व्याख्या करते हैं, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। रामानुज को जो कहना है, वह कृष्ण पर थोपते हैं। तिलक व्याख्या करते हैं, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। उनको कर्मऱ्योग थोपना है, तो कृष्ण के ऊपर कर्मऱ्योग थोप देते हैं। गांधी को व्याख्या करनी है, तो अदभुत बात है, गांधी को अहिंसा थोपनी है। कृष्ण युद्ध में ले जाने का आह्वान कर रहे हैं। गांधी इसके ऊपर भी अहिंसा थोप देते हैं। अभी विनोबा को भूदान थोपना है, तो उसी में से भूदान भी निकल सकता है। जिसकी जो मर्जी हो निकाला जा सकता है। लेकिन इनको किसी को भी कृष्ण से कोई मतलब नहीं है। ये कृष्ण के इमेज को निर्मित करते चले जा रहे हैं, एक नई प्रतिमा गढ़ते चले जा रहे हैं। हर कवि को अपने अनुकूल आदमी चाहिए। वह अपने अनुकूल बना लेता है। फिर पूजा जारी हो जाती है।
हजार, दो हजार वर्षों में चीज इतनी दूर चली जाती है, इतनी अफवाह रह जाती है फिर कि उसका सच्चाई से कोई भी संबंध नहीं रह जाता। अंगारे और राख में जितना फर्क है, उतना ही असली महावीर में और हमारे महावीर में फर्क है। अंगारा जला देगा, राख को मजे से मुट्ठी में पकड़े हुए बैठे रहो। हालांकि राख अंगारे से ही आई है, इसलिए तृप्ति रहती है कि यह भी अंगारा ही है। लेकिन राख को मुट्ठी में पकड़ा जा सकता है। अंगारे को मुट्ठी में नहीं पकड़ा जा सकता। तो राख प्रीतिकर है, उसकी पूजा की जा सकती है। अंगारे की पूजा नहीं की जा सकती। अंगारे का उपयोग किया जा सकता है। अंगारे के हम मालिक नहीं हो सकते। राख के हम मालिक हो सकते हैं। राख को हम पजेस कर सकते हैं। अंगारा जिंदा चीज है। जिंदा महापुरुष अंगारा होता है। हम जिनकी पूजा करते हैं वे राख हो जाते हैं। और हजारों वर्षों में प्रतिध्वनियां होती रहती हैं, व्याख्याएं होती रहती हैं, और सब परिवर्तित हो जाता है।
एक गांव में दो पैरेलल, समानांतर रास्ते थे। दोनों रास्तों पर पूरी बस्ती आबाद थी। और जैसा अक्सर होता है, दो पड़ोसियों में कोई मेल नहीं होता, दो मोहल्लों में कोई मेल नहीं होता, दो गांवों में कोई मेल नहीं होता, दो मुल्कों में कोई मेल नहीं होता, जहां दो है वहां झगड़ा एकदम शुरू हो जाता है। पति-पत्नी में कोई मेल नहीं होता। वहां दो आए कि झगड़ा शुरू हुआ। उन दोनों समानांतर रेखाओं पर बसे हुए मोहल्लों में भी कोई मेल नहीं था। उनके धर्म अलग थे, उनकी राजनीति अलग थी, उनकी श्रद्धा अलग थी, उनके सिद्धांत अलग थे, शास्त्र अलग थे, पैगंबर अलग थे, तीर्थंकर अलग थे।
लेकिन एक-दूसरे को देखते रहते थे। एक-दूसरे के आस-पास गुजरते भी थे। मिलते तो कभी नहीं थे, पास से गुजर जाते थे। जैसे हिंदू-मुसलमान गुजर जाते हैं। जैसे ईसाई-जैन गुजर जाते हैं। जैसे श्वेतांबर-दिगंबर गुजर जाते हैं। एक से एक पागलपन हैं। दो आदमी एक-दूसरे के पास से गुजर जाते हैं, बीच में एक अनदिखी दीवाल खड़ी रहती है और मिलने नहीं देती। वैसा उन दोनों के बीच था।
लेकिन एक दिन एक फकीर आ गया। और फकीरों को कोई वास्ता नहीं होता कि तुम किस बस्ती के रहने वाले हो, किस मंदिर के पूजने वाले हो। वह दोनों में आता-जाता था। एक दोपहर वह एक बस्ती से दूसरी बस्ती में निकल रहा था। उसकी आंखों से आंसू झर-झर टपक रहे थे। उस दूसरी बस्ती के लोगों ने समझा कि पहली बस्ती में कोई मर गया। उससे पूछा भी नहीं किसी ने कि क्या हुआ।
लोग इतने समझदार हैं कि बिना पूछे भी समझ लेते हैं। कृष्ण से कोई नहीं पूछता कि तुम्हारा मतलब क्या है। लोग इतने समझदार हैं कि अपने घर में गीता रख कर अर्थ निकाल लेते हैं, व्याख्या छपा देते हैं विचारक, खर्च करके बंटवा भी देते हैं लोगों में। कृष्ण से कोई नहीं पूछता, हम अपना अर्थ निकाल लेते हैं।
फकीर को देखा कि उसकी आंख से आंसू टपकते हैं, दूसरी गली से आता है, मोहल्ले के लोगों ने समझा कि वहां कोई खतरा हो गया, कोई मर गया। यह तो पहली घटना थी समझ की। अब समझ की प्रतिध्वनियां होनी शुरू हुईं। सांझ होतेऱ्होते उस बस्ती में खबर फैल गई कि दूसरे मोहल्ले में महामारी फैली हुई है। न मालूम कितने लोग मर चुके हैं। स्वभावतः, सांझ होतेऱ्होते पच्चीस कदम आगे बढ़ गई थी बात, पच्चीस मुंह तक पहुंच गई थी। और वह आदमी ही क्या जो एक खबर को सुने और कुछ उसमें जोड़ न दे। नहीं तो दुनिया में न्यूज पैदा होने बंद हो जाएं, न्यूजपेपर बंद हो जाएं।
आदमी बड़ा क्रिएटिव है, बड़ा सृजनात्मक है, बड़ा कंसट्रक्टिव, बड़ा रचनात्मक। जरा सी चीज मिलती है, कंसट्रक्ट करता है उसको, बनाता है, ट्रेस करता है। फिर दूसरा आदमी कुछ और कंसट्रक्ट करता है। फिर आगे बढ़ती चली जाती है।
सुबह जो बात चली थी, सांझ पहचानना मुश्किल है कि यह वही बात है। सांझ तक खबर पहुंच गई गांव भर में, उस गांव में दूसरे में कि दूसरे हिस्से में महामारी फैली है, गांव खाली कर देना चाहिए। कोई जनसेवक मिल गया होगा, उसने यह भी जोड़ दिया कि गांव खाली करो, नहीं तो महामारी यहां आ जाएगी। रात गांव खाली करने में स्वयंसेवक जुट गए। स्वयंसेवक हमेशा मिल जाते हैं। कोई भी बेवकूफी करवानी हो, वे हमेशा उपलब्ध हैं। वालंटियर्स! वे कहते हैं, हम स्वेच्छा से सब कर देंगे। उन्होंने गांव खाली कर दिया।
जब एक गांव खाली होने लगा पड़ोस का तो बगल की बस्ती में जो समानांतर बसी थी, वहां भी खबर पहुंची। वहां भी पत्रकार थे, वहां भी संवाददाता थे, वहां भी मैसेंजर्स थे। उन्होंने कहा, सुनते हो, क्या सो रहे हो! हम मर जाएंगे, दूसरा हिस्सा खाली हो रहा है, वहां महामारी फैली हुई है। सुबह होतेऱ्होते उस हिस्से ने भी गांव खाली कर दिया। दोनों नदी के पार जाकर सामान ढोकर ले गए।
हजारों साल हो गए इस बात को हुए। वे गांव अब भी नदी के किनारे बसे हैं। और असली बस्ती वीरान, उजाड़, टूटी-फूटी पड़ी है--खंडहर। उनसे कोई पूछता है कि वह बस्ती क्यों बर्बाद हो गई? तुम सब यहां छोड़ कर क्यों चले आए? तो वे कहते हैं, हमारे शास्त्रों में लिखा है, और हमारे पंडित-पुरोहित बताते हैं, और हमारे पिता और उनके पिता कहते थे कि एक बार एक अज्ञात बीमारी फैली थी, और उस बीमारी के कारण असली बस्ती को छोड़ कर हम यहां आ गए थे। अज्ञात काल में कभी वह घटना घटी थी।
और कुल घटना इतनी घटी थी--काश कोई उस फकीर से पूछ लेता तो इतनी झंझट की कोई जरूरत नहीं थी--वह फकीर प्याज छीलता रहा था और प्याज छीलने की वजह से आंख में आंसू आ गए थे। लेकिन उससे किसी ने पूछा नहीं कि यह हुआ क्या।
सारी परंपराएं इस भांति पैदा होती हैं। कोई प्याज छीलता है, आंख में आंसू आ जाते हैं। महामारियां फैल जाती हैं। गांव उजड़ जाते हैं। बस्तियां बदल जाती हैं। आदमी कुछ से कुछ हो जाता है। महावीर की जिंदगी में भी यही हुआ। सभी महापुरुषों की जिंदगी में यह होता है। महापुरुष वह है, उतना ही बड़ा महापुरुष, जितना ज्यादा मिसअंडरस्टैंड किया जा सके। जितना ज्यादा हम नासमझी कर सकें किसी आदमी के प्रति, वह उतना बड़ा आदमी है। छोटा आदमी वह है जिसको मिसअंडरस्टैंड करने की कोई गुंजाइश नहीं है। जो जैसा है वैसा है।
असल में छोटे आदमी की हम कोई व्याख्या नहीं करते। साधारण आदमी की हम कोई व्याख्या नहीं करते। व्याख्या करें तो साधारण आदमी के साथ भी यही हो जाए। महापुरुषों की व्याख्या की जाती है।
महावीर के तीन-चार सूत्रों पर मैं बात करना चाहता हूं जिनकी व्याख्या ने महावीर की एक झूठी, फाल्स इमेज, एक मिथ्या प्रतिमा हमारे सामने उपस्थित कर दी। और वैसा सभी महापुरुषों के साथ हुआ है। तो जो मैं महावीर के बाबत कहता हूं, वह सब महापुरुषों के बाबत शत-प्रतिशत वैसा का वैसा सच है।
पहली बात, सारी दुनिया में यह कहा जाता है कि महावीर अहिंसा के जन्मदाता हैं। यह बात सरासर झूठ है। महावीर प्रेम के तो पुजारी हैं, अहिंसा का महावीर से कोई भी संबंध नहीं। और प्रेम और अहिंसा एक ही बात नहीं हैं। प्रेम तो जीवंत घटना है, अहिंसा व्याख्या है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। और प्रेम और अहिंसा दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है।
प्रेम तो पाजिटिव है। प्रेम तो विधायक संबंध है। और अहिंसा निगेटिव है, नकारात्मक बात है। प्रेम का अर्थ है, मैं दूसरे का मंगल चाहूं, दूसरे का कल्याण चाहूं, दूसरे के जीवन में आनंद बनूं, दूसरे के मार्ग पर फूल बिछाऊं। अहिंसा का मतलब है, मैं दूसरे का दुख न करूं, दूसरे को दुख न दूं। दूसरे को दुख न दूं, तो अहिंसा पूरी हो जाती है, प्रेम पूरा नहीं होता। प्रेम जब तक दूसरे को सुख न दे सके तब तक चुप नहीं बैठ सकता। प्रेम दूसरे के रास्ते पर फूल बिछाता है। अहिंसा केवल दूसरे के रास्ते पर कांटे न बिछाऊं, इतने भर तक जाती है। अहिंसा कहती है, दूसरे के रास्ते पर कांटे मत बिछाना। लेकिन अगर दूसरे के रास्ते पर कांटे बिछे हों, तो अहिंसा का इससे कोई संबंध नहीं कि उनको तुम बीनना कि मत बीनना।
अगर दूसरे का रास्ता खाली हो और तुम्हारे हाथ में फूल हों, तो अहिंसा का इससे कोई संबंध नहीं कि तुम उसके रास्ते पर फूल रखना कि नहीं रखना। अहिंसा निगेटिव बात है। मैं दूसरे को दुख न दूं बस इतना पर्याप्त है। इसके आगे अहिंसा की प्रेरणा नहीं है। लेकिन प्रेम की प्रेरणा अनंत है। दूसरे के रास्ते पर कांटे न बिछाऊं, यह तो है ही। दूसरे के रास्ते पर बिछे कांटे उठाऊं, यह भी है। लेकिन दूसरे के रास्ते पर कांटे न हों, यह भी पर्याप्त नहीं है। दूसरे के रास्ते पर फूल भी बिछने चाहिए, यह भी जरूरी है।
प्रेम में तो अहिंसा सम्मिलित है। प्रेम का पहला चरण अहिंसा है। दूसरे के रास्ते पर कांटे न बिछाऊं। दूसरे को दुख न दूं। तो प्रेम के बड़े विस्तार में अहिंसा तो मौजूद है। लेकिन अहिंसा का विस्तार बहुत संकीर्ण है, उसमें पूरा प्रेम मौजूद नहीं होता।
महावीर के जीवन में है प्रेम और महावीर के अनुयायियों ने पकड़ रखी है अहिंसा। तो फिर अहिंसा इस तरह के रास्ते पकड़ लेती है: पानी छान कर पीऊं, रात खाना न खाऊं, मांस न खाऊं; बस इस तरह की शक्ल पकड़ लेती है। यह निगेटिव है तो पकड़ेगी। अगर महावीर सिर्फ अहिंसक थे, कोई मूल्य की बात नहीं रह जाती फिर। महावीर अहिंसक नहीं, महावीर एक महाप्रेमी हैं। लेकिन महावीर के प्रेम को अगर हम समझेंगे, तो हमारे जीवन में क्रांति हुए बिना नहीं हो सकता। हमें जीवन को बदल लेना पड़ेगा।
प्रेम जीवन की बदलाहट की सबसे बड़ी कीमिया है, और प्रेम जीवन का सबसे बड़ा दांव है, और प्रेम जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन अहिंसा कोई दांव नहीं है। अहिंसा कोई चुनौती नहीं है। आपकी जिंदगी को बदलने की कोई खास जरूरत नहीं है। आप एक नकारात्मक रुख ले लें, बस काफी है। अगर एक रास्ते पर एक आदमी गिर पड़ा और आप उस रास्ते से गुजर रहे हैं, तो अगर आप प्रेमी हैं तो आपको उस आदमी को उठाना पड़ेगा और अगर आप अहिंसक हैं तो आपको कोई संबंध नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। आपने गिराया नहीं है, आपका कोई वास्ता नहीं है। प्रेम की तो अदभुत पुकार है आपसे, इसलिए प्रेम का कृत्य कभी पूरा नहीं होता, हमेशा अधूरा रहता है; और शेष रह जाता है, और शेष रह जाता है करने को। प्रेमी हमेशा अनुभव करता है कि जितना मुझे करना था वह मैं नहीं कर पाया हूं, जो मैंने किया वह ना-कुछ है, जो नहीं किया वह बहुत कुछ है।
लेकिन अहिंसा को यह चिंता करने की जरूरत नहीं है। महावीर तो प्रेमी हैं, महावीर के अनुयायी अहिंसक हैं। और इतनी होशियारी से बात की गई है कि ऐसा मालूम होने लगा कि अहिंसा यानी प्रेम। अहिंसा यानी प्रेम नहीं है, अहिंसा बुनियादी भूल है। और इसलिए यह परिणाम हुआ कि महावीर का अनुयायी अहिंसा की बातें भी करता रहा, लेकिन उसके जीवन में कोई प्रेम पैदा नहीं हो सका। अहिंसा होगी, प्रेम बिलकुल नहीं है। और अहिंसा बिलकुल थोथी है।
फिर यह भी ध्यान रखें, कि प्रेम के परिणाम और हैं, अहिंसा के परिणाम और हैं। जब मैं प्रेम करता हूं, जब मेरा जीवन प्रेम की एक धारा बने, तो मुझे यह फिक्र ही छूट जाती है कि प्रेम करने में मेरा क्या हो रहा है। फिक्र यह रह जाती है कि जिससे मैं प्रेम कर रहा हूं, उस पर क्या हो रहा है। जब प्रेम परिपूर्ण होता है तो व्यक्ति का अहंकार शून्य हो जाता है। उसे खयाल ही भूल जाता है कि मैं हूं भी। वही रह जाता है जिसके प्रति प्रेम है। और अगर सारे जगत के प्रति प्रेम है, जैसा कि महावीर का है--सर्व प्रेम, सर्व मंगल, सर्व करुणा की भावना--तो सबके प्रति, अनंत के प्रति जब प्रेम है, तो व्यक्ति अपने को निपट शून्य पाता है कि मैं हूं ही नहीं। क्योंकि प्रेम में स्वयं को स्मरण करने की फुरसत कहां, मौका कहां! स्वयं को तो केवल वे ही स्मरण कर पाते हैं जो प्रेम में नहीं हैं।
क्या आपको पता है, जब भी आप प्रेम में होते हैं--छोटे से प्रेम में ही सही, एक व्यक्ति से प्रेम में ही सही--जितनी देर प्रेम का क्षण आपके प्राणों को आंदोलित करता है, उतनी देर के लिए आप मौजूद नहीं रह जाते। आप नहीं हैं फिर। प्रेमी रह गया, आप नहीं हैं। आप न हो गए, आप समाप्त हो गए। वही रह गया जिसके प्रति प्रेम बहा जा रहा है। और जिसका प्रेम सर्व के प्रति बहता हो, वह तो मिट गया। वह तो न हो गया। वह शून्य हो गया। उसका अहंकार समाप्त हो जाता है।
प्रेम अहंकार की मृत्यु है। लेकिन अहिंसा अहंकार की मृत्यु नहीं है, बल्कि अहिंसा अहंकार की नई तरह से पूजा है। कैसे?
अहिंसक का यह विचार नहीं है कि दूसरे को दुख न मिले। अहिंसक का मूल विचार यह है कि मैं दूसरे को दुख दूंगा तो मुझे पाप कर्म होगा। मुझे पाप कर्म होगा मैं दूसरे को दुख दूंगा तो। मैं दूसरे को दुख दूंगा तो मुझे बुरे फल भोगने पड़ेंगे। मुझे! दूसरे का इससे कोई संबंध नहीं है। मैं दूसरे को दुख दूंगा, दूसरे की हिंसा करूंगा, हत्या करूंगा, तो मुझे नरक जाना पड़ेगा--मुझे! इससे दूसरे का कोई संबंध नहीं है। मैं अगर दूसरे को दुख न दूं, अहिंसक रहूं, तो मुझे स्वर्ग मिल सकता है। मुझे! इसमें दूसरे से कोई संबंध नहीं है। और अगर मैं सर्व हिंसा का त्याग कर दूं, बिलकुल अहिंसक हो जाऊं, किसी तरह की हिंसा मेरे जीवन में न हो, तो मुझे मोक्ष मिलेगा--मुझे! इससे दूसरे का कोई संबंध नहीं है।
अहिंसा की प्रेरणा, अहिंसा शब्द की प्रेरणा, अहंकार, स्वार्थ के अतिरिक्त दूसरी नहीं है। इसलिए तो यह अदभुत घटना दिखाई पड़ती है कि एक आदमी अहिंसक भी है और साथ ही स्वार्थी भी है। प्रेमी स्वार्थी नहीं हो सकता। प्रेमी के स्वार्थ का कोई सवाल नहीं है। प्रेमी तो स्वार्थ को छोड़ता है, खोता है, विलीन करता है। विलीन हो जाता है प्रेम में। छोड़ना भी नहीं पड़ता, खोना भी नहीं पड़ता। लेकिन अहिंसक सूक्ष्म स्वार्थ की चेष्टा में लगा हुआ है। अपना मोक्ष खोज रहा है। अपना स्वर्ग खोज रहा है। आत्मा पाने की कोशिश कर रहा है। अनंत आनंद की कोशिश कर रहा है। और चूंकि हिंसा इसमें बाधा बनती है, इसलिए हिंसा भी छोड़नी पड़ रही है। हिंसा छोड़ने में दूसरा विचारणीय नहीं है, मेरा ही हित विचारणीय है।
एक आदमी रामकृष्ण के पास आता था। उसके घर पर काली का जलसा होता, और वर्ष में दो-चार बार सैकड़ों बकरे कटते, मांस बनता, सैकड़ों लोग भोजन पर आमंत्रित होते। फिर वह बूढ़ा हो गया। फिर उसके यहां काली की पूजा बंद हो गई। तो रामकृष्ण ने पूछा कि सुनता हूं मैं कि अब काली की वह पूजा बंद हो गई। क्या हुआ? क्या तुम्हारा मन बदल गया? क्या काली से मन फिर गया? उस आदमी ने कहा कि नहीं, मेरे दांत गिर गए। रामकृष्ण ने कहा, दांत गिर गए! इससे काली की पूजा का संबंध? वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा, असल में काली की पूजा तो बहाना था। असली मतलब तो भोज, आमोद-प्रमोद, आनंद था। बकरे कटते थे, मांस बनता था, उसका मजा था। अब दांत ही न रहे तो क्या काली की पूजा! और क्या उत्सव! और क्या समारोह! वह सब बंद हो गया।
लेकिन काली की पूजा करते वक्त अगर कोई कहता कि इस आदमी के दांतों की वजह से यह पूजा कर रहा है, तो वह आदमी पकड़ लेता कि कैसी झूठ बात कर रहे हो! दांत से इसका क्या संबंध! आदमी के मोटिव्स, आदमी की प्रेरणाएं बड़ी अजीब हैं। यह हो सकता है कि एक आदमी दांतों के स्वस्थ होने की वजह से काली की पूजा कर रहा है। यह हो सकता है कि एक आदमी निपट स्वार्थ की वजह से अहिंसा की बातें कर रहा है। निपट स्वार्थ--मेरा सुख, मेरा मोक्ष, मेरा पुण्य। मैं बच जाऊं, सारी दुनिया जाए नरक में, सारी दुनिया का कुछ भी हो। मैं बच जाऊं, मैं बच जाऊं, मैं बच जाऊं। यह जो सेल्फ, यह जो स्व है, प्रेम में इसके लिए कहां गुंजाइश है!
महावीर के जीवन में अहिंसा नहीं है। महावीर के जीवन में है प्रेम। प्रेम है सर्व-मंगल का भाव। अहिंसा है स्व-मंगल की कामना। ये दोनों विरोधी बातें हैं। प्रेम यानी अहिंसा नहीं, अहिंसा यानी प्रेम नहीं। हां, प्रेम में अहिंसा तो सम्मिलित हो जाती है। वह उसकी वृहत्तर परिधि में एक छोटा सा कोना बन जाती है। लेकिन अहिंसा के छोटे से कोने में प्रेम नहीं समाता है।
लेकिन व्याख्याकारों ने होशियारी कर ली। महावीर के प्रेम को अहिंसा का नाम देते ही बुनियादी कीमत, बुनियादी कीमत बदल गई, बेसिक वैल्यू बदल गई। और फिर ढाई हजार साल से अहिंसा परम धर्म! अहिंसा परमो धर्मः! इसका उदघोष चल रहा है। साधु-संत, पंडित-पुरोहित चिल्ला रहे हैं, अहिंसा परमो धर्मः! और चिल्लाते चले जा रहे हैं। और बड़ा अदभुत है, इस नारे ने सब नष्ट कर दिया। वह महावीर के जीवन का बुनियादी स्वर, वह संगीत की खास चोट, जहां से वे मनुष्य के प्राण को छू लेना चाहते हैं, कि प्रेम हो, वह खत्म हो गई।
लेकिन कौन इस बात को कहे? क्योंकि पंडित शब्दों के अर्थ करने में कुशल होते हैं। वे कहेंगे, अहिंसा यानी प्रेम। वे कहेंगे, अहिंसा का मतलब प्रेम ही होता है। अगर अहिंसा का मतलब प्रेम ही होता है, तो प्रेम ही कहने में हर्ज क्या है! लेकिन एक छोटे से शब्द का फर्क इतने क्रांतिकारी फर्क लाता है जिसका हमें कोई हिसाब नहीं, खयाल नहीं, पता नहीं।
एक यहूदी साधु अपनी मोनेस्ट्री में, अपने आश्रम में अध्ययन के लिए गया हुआ था। उसका एक मित्र भी उसके साथ है। वे दोनों जवान हैं, वे दोनों साधना के लिए गए हुए हैं। लेकिन दोनों को सिगरेट पीने की आदत है। और बड़े परेशान हैं कि आश्रम में क्या होगा! सिगरेट पीने तो मिलेगी नहीं वहां! और मोनेस्ट्री चारों तरफ से बंद है। चौबीस घंटे भीतर रहना होता है। बाहर जाने की आज्ञा भी नहीं है। लेकिन सांझ को एक घंटे के लिए नदी के किनारे घूमने की आज्ञा मिलती है। वह भी ईश्वर-चिंतन के लिए कि जाओ नदी के किनारे घंटे भर ईश्वर-चिंतन करो। सोचा कि चलो वहीं सिगरेट पी लेंगे। लेकिन फिर खयाल आया कि साधु बनने आए हैं, आश्रम में प्रवेश लिया है, झूठ करें, चोरी करें, यह तो ठीक नहीं। सोचा गुरु से पूछ लें, आज्ञा ले लें। दोनों अपने गुरु के पास गए।
एक व्यक्ति गुरु के पास गया और गुरु ने फौरन कहा कि नहीं-नहीं, सिगरेट पीने की आज्ञा नहीं मिल सकती। वह दुखी वापस लौटा। अब तो चोरी करने का भी उपाय न रहा। वह जब वापस लौटा नदी के किनारे तो देखा कि घास पर बैठा हुआ उसका पहला मित्र तो सिगरेट पी रहा है। तो उसने पूछा कि क्या तुमने बिना पूछे सिगरेट पीनी शुरू कर दी? उसने कहा कि नहीं, मैंने पूछा और गुरु ने कहा, हां पी सकते हो। उसकी आंख से तो चिंगारी गिरने लगी जिससे इनकार किया गया था। उसने कहा, यह क्या, यह क्या भेद है! मैंने पूछा, मुझे तो एकदम गुस्से में कहा कि नहीं-नहीं, नहीं पी सकते हो। तुम्हें कैसे आज्ञा दी! चलो उठो मेरे साथ वापस।
वह दूसरा युवक हंसने लगा। और उसने कहा, क्या मैं पूछ सकता हूं तुमने गुरु से क्या पूछा था? उस युवक ने कहा, मैंने पूछा था--पूछना क्या था, सीधी बात थी--मैंने पूछा कि क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था? उस युवक ने कहा, मैंने पूछा था क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा, हां!
इतना सा फर्क! कोई फर्क भी नहीं है। क्या फर्क है इसमें कि एक आदमी ईश्वर-चिंतन करते वक्त सिगरेट पीता है कि सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन करता है! यह बात तो बिलकुल एक है। लेकिन नहीं, फर्क है। बुनियादी फर्क है। और एक के उत्तर में हां मिल सकता है और दूसरे के उत्तर में न मिल सकता है। जमीन पर कौन होगा जो कहेगा कि आप ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीएं! कोई भी नहीं कहेगा। लेकिन कोई पूछता है क्या मैं सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं, कौन मना करे! कौन मना करे, इसमें मना करने की बात क्या है! अच्छा ही है, सिगरेट पी रहे हो वह तो ठीक है, कम से कम ईश्वर-चिंतन तो कर रहे हो।
अहिंसा और प्रेम में ऐसा ही फर्क है। भाषा-कोश में फर्क नहीं है। व्याकरण में फर्क नहीं होगा। शब्द के जो जानकार हैं, वे कहेंगे एक ही बात है। लेकिन एक ही बात नहीं है।
प्रेम के उत्तर में जीवन और हो जाएगा। अहिंसा के उत्तर में जीवन और हो जाएगा। अहिंसा के उत्तर में स्वार्थ पैदा होगा। प्रेम के उत्तर में परार्थ पैदा होगा। अहिंसा के उत्तर में व्यक्ति अहंकारी होगा--अपनी खोज, मेरी खोज, मैं। और प्रेम की खोज में व्यक्ति मिटता चला जाएगा, शून्य हो जाएगा, न हो जाएगा।
तो प्रेम के रास्ते से चल कर तो कोई परमात्मा तक पहुंच सकता है, लेकिन अहिंसा के रास्ते से नहीं। यह तो पहली बात ध्यान लेने की है कि महावीर के इमेज में, महावीर की प्रतिमा में बुनियादी फर्क कर दिया। शब्द-शास्त्री बहुत कुशलता से फर्क कर सकते हैं, हमें हजारों साल तक पता न चले कि क्या फर्क हो गया! क्या फर्क कर दिया उन्होंने, क्या व्याख्या कर दी उन्होंने, पता न चले।
महावीर की दूसरी मूलभूत धारणा है, जिसको शास्त्री, पंडित, व्याख्याकार ब्रह्मचर्य कहते हैं। वह महावीर का दूसरा बुनियादी तत्व है। ब्रह्मचर्य का उनके मन में अर्थ है अमैथुन, नॉन-सेक्सुअलिटी। अमैथुन उनका अर्थ है, कि महावीर किसी तरह के शरीर संबंध में, कामुक संबंध में नहीं बंधते हैं। स्त्री-त्याग, गृह-त्याग, समस्त शारीरिक संबंधों का त्याग, समस्त कामुकता का त्याग, यह उनका अर्थ है अमैथुन का।
यह फिर वही भूल, फिर वही बात, फिर वही नकार से चीजों को पकड़ना, निगेशन से चीजों को पकड़ना। महावीर किसी को छोड़ते नहीं हैं--न स्त्री को, न शरीर को, न कामुकता को, महावीर किसी चीज को उपलब्ध होते हैं। आत्म-ऐक्य को, ब्रह्म-भाव को, सबके बीच स्वयं को अनुभव करने लगते हैं। तो जो स्वयं ही हो जाता है, उसके साथ मैथुन असंभव है। जब मैं ही हूं, सारा जीवन मेरा ही रूप है, जो आत्मा मेरे भीतर प्रवाहित हो रही है, वही दूसरे के भीतर भी प्रवाहित हो रही है। मैं ही हूं, जब यह भाव जीवन में प्रविष्ट होता है, तो भोग की संभावना समाप्त हो जाती है। भोग दूसरे का किया जा सकता है। सेक्स, काम का संबंध अन्य से हो सकता है, आत्म से नहीं, स्वयं से नहीं। उसके लिए पराए का होना जरूरी है, उसके लिए दूसरे का होना जरूरी है। पुरुष का होना जरूरी है, स्त्री का होना जरूरी है।
लेकिन महावीर जब आत्म-ऐक्य को उपलब्ध होते हैं, न कोई स्त्री रह जाती है, न कोई पुरुष रह जाता है। वहां दो नहीं रह जाते, वहां दुई नहीं रह जाती।
बुद्ध एक जंगल में बैठे थे। उस पास की राजधानी के कुछ युवक एक वेश्या को पकड़ कर जंगल में ले आए। उन्होंने शराब पी ली है, नाच-गाना किया है। और वेश्या को सता रहे हैं, परेशान कर रहे हैं। उनको नशे में डूबा देख कर, जब वे ज्यादा नशा कर गए हैं, वेश्या भाग खड़ी हुई। जब उन्हें थोड़ा होश आया, तो उन्होंने खोजा कि वेश्या कहां गई! तो उसे खोजने निकले। तो खोजने निकले, जंगल में बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। चांदनी रात है, शायद वे किसी ब्रह्म-भाव में लीन होंगे। शायद वे न मालूम किस मैत्री की कामना में डूबे होंगे। न मालूम कौन सी शांति उनके भीतर प्रविष्ट हो रही होगी। उन लोगों ने जाकर बुद्ध को हिलाया और कहा, सुनते हैं जी! यहां से एक वेश्या, एक स्त्री तो भागी नहीं गई है? नग्न थी, क्योंकि कपड़े तो हमने उससे छीन लिए थे। यहां आपने देखा तो नहीं, हम उसे खोजने निकले हैं।
बुद्ध कहने लगे, कौन निकला, कौन नहीं निकला, कहना कठिन है। क्योंकि मैं इतना शांत था, क्योंकि मैं इतना शून्य था, क्योंकि मैं इतना मौन था, कि कौन सी लहर बाहर आई और गई, मुझे बताना कठिन है। लेकिन यह भी हो सकता है कि मुझे दिखाई पड़ जाता कि कोई निकला, तो यह कहना मुश्किल था कि वह कपड़े पहने है कि नंगा है। क्योंकि जब तक किसी को नंगे देखने की कामना न हो तब तक किसी को नंगा देखना बहुत मुश्किल है, चाहे वह नंगा ही क्यों न हो। और जब तक मन में किसी को नग्न देखने की कामना हो तब तक नग्न देखना बिलकुल आसान है, चाहे वह वस्त्र ही क्यों न पहने हो। वस्त्र पहनने से किसी के नग्न सत्ता को देखने में कोई बाधा पड़ती है! कहीं वस्त्र किसी की नग्नता को रोक पाते हैं! बल्कि सच्चाई उलटी है, नग्न आदमी इतना नग्न कभी नहीं होता जितना वस्त्र पहन कर उसके शरीर की नग्नता प्रकट होने लगती है, जितना उघड़ कर शरीर प्रकट होने लगता है। वस्त्रों की ईजाद शरीर को छिपाने के लिए नहीं, उघाड़ कर प्रकट करने के लिए आदमी ने कर ली है।
अगर शरीर छिपाना हो तो कपड़े ढीले से ढीले होते चले जाएंगे। शरीर उघाड़ कर प्रकट करना हो तो कपड़े चुस्त से चुस्त होते चले जाएंगे। स्वभावतः! शरीर की नग्नता इतनी नग्न नहीं है जितनी वस्त्रों से प्रकट होकर नग्न और प्रखर और मुखर हो जाती है, बोलने लगती है। वस्त्रों ने आदमियों को, स्त्रियों को जितना नग्न किया है उतना किसी और चीज ने नहीं किया। नंगा आदमी इतना नंगा होता ही नहीं।
हो सकता है, तो बुद्ध ने कहा, कि मैं नहीं कह सकता। देख भी लेता तो पता लगाना मुश्किल था कि नग्न है कि वस्त्र पहने है, क्योंकि मेरे भीतर वह डिस्क्रिमिनेशन, वह पता लगाने का खयाल जा चुका। जब से नग्न देखने की आकांक्षा गई तब से वह भी चला गया। फिर यह भी हो सकता है कि मैं यह भी देख लेता--दिन की रोशनी होती, खाली बैठा होता, दिखाई पड़ जाता--तो भी यह पता लगाना बहुत मुश्किल था कि वह स्त्री है या पुरुष है।
क्योंकि बाहर स्त्री दिखाई पड़ती है, यह भीतर के पुरुष को मिली हुई चुनौती के कारण। वह जो भीतर पुरुष है, वह बाहर की स्त्री से आंदोलित होता है, तो बाहर की स्त्री दिखाई पड़ती है। वह जो बाहर पुरुष दिखाई पड़ता है, तो वह जो भीतर स्त्री है वह जब आतुर, आकांक्षित होती है, तब बाहर का पुरुष दिखाई पड़ता है। यह पोलैरिटी है, ये एक विद्युत के दो टुकड़े हैं। एक हिस्सा भीतर आंदोलित होता है, तो दूसरा बाहर दिखाई पड़ता है। वह दूसरा बाहर चालित होता है। उसमें मूवमेंट शुरू होते हैं।
तो बुद्ध ने कहा, बहुत मुश्किल है। तुम किसी और से पूछो मित्रो, जो खोज-बीन तुम करने निकले हो, मैं उसमें साथी-सहयोगी नहीं हो सकता हूं। मुझे क्षमा करो! लेकिन एक बात जरूर तुमसे कह सकता हूं कि तुम कब तक दूसरे को खोजते रहोगे? अपने को खोजने की कोई इच्छा नहीं है? छोड़ो भी! किसकी खोज में निकल पड़े हो! इतनी देर में तो अपने को ही खोज ले सकते हो। इतनी तन्मयता से खोज, इतनी पागल दौड़, इस अंधेरे जंगल में भागना, खोजना--किसी और को, एक वेश्या को, एक स्त्री को--इतनी खोज में तो तुम अपने को ही खोज ले सकते हो। और वेश्या को खोज कर क्या पा लोगे? इतना ही कि वह वेश्या व्यर्थ हो जाएगी और नई वेश्या खोजनी पड़ेगी। और उसको पाकर क्या पा लोगे? वह व्यर्थ हो जाएगी और नई वेश्या खोजनी पड़ेगी।
रोज हम यही कर रहे हैं। एक मकान खोजते हैं, वह व्यर्थ हो जाता है। फिर दूसरा खोजना पड़ता है। एक तिजोरी खोजते हैं, वह व्यर्थ हो जाती है खोजते ही, फिर दूसरी तिजोरी, बड़ी तिजोरी खोजनी पड़ती है। एक देश जीत लेते हैं, जीतते ही व्यर्थ हो जाता है, फिर बड़ा देश जीतना पड़ता है।
तो बुद्ध ने कहा, मैं उसकी बात करता हूं अपने को ही खोज लो। उस खोज के बाद कोई खोज शेष नहीं रह जाती।
महावीर या बुद्ध या कृष्ण अमैथुन, नो-सेक्सुअलिटी को उपलब्ध नहीं होते। उनकी चेष्टा स्त्री से बचने की, इस शरीर से बचने की नहीं, उनकी चेष्टा आत्मा को फैलाने की विकसित करने की चेष्टा है। जितनी आत्मा फैलती है, आत्म-ऐक्य होता है, उतना ही काम, उतना ही सेक्स, उतनी ही भोग की कामना क्षीण और विलीन हो जाती है। पर, दूसरा, दि अदर जब मौजूद नहीं रह जाता, जब मैं ही विस्तीर्ण हो जाता हूं और फैल जाता हूं, तब कैसी वासना! तब कैसी कामना! तब प्रेम ही शेष रह जाता है, वासना नहीं शेष रह जाती। यह बड़े आश्चर्य की बात है, वासना के लिए पोलैरिटी चाहिए, ध्रुवता चाहिए। वासना के लिए दो चाहिए। दो न हों तो वासना संभव नहीं है। जितनी दूरी हो, वासना उतनी तीव्र होती है।
एक स्त्री और पुरुष को न मिलने दें। बीच में एक दीवार खड़ी कर दें। संतरी, पहरेदार लगा दें। फिर उनकी वासना जितनी तीव्र होगी उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। यह दुनिया में जितनी सेक्सुअलिटी दिखाई पड़ रही है, इसीलिए कि स्त्री और पुरुष के बीच दीवार, बंदूक खड़ी है। बंदूक की वजह से दूरी, डिस्टेंस ज्यादा है। डिस्टेंस ज्यादा है तो खिंचाव ज्यादा है, खिंचाव ज्यादा है तो कामुकता ज्यादा है। एक आदमी अपनी प्रेयसी से जितना खिंचता है उतना अपनी पत्नी से नहीं खिंचता। पत्नी और उसके बीच कोई दीवार नहीं है, कोई फासला नहीं, कोई संतरी नहीं खड़ा, कोई पिता नहीं खड़े, कोई भाई नहीं खड़ा, कोई समाज नहीं खड़ा, कोई धर्मगुरु नहीं खड़े। छोड़ दिया समाज ने उनको, लाइसेंस दिया कि अब तुम एक हो जाओ, हम छोड़ते हैं तुमको। अब मजा गया, अब आकर्षण गया। पत्नी बेरस मालूम होती है, पति बेहूदा मालूम होता है, सब बोरडम मालूम होती है। कुछ मतलब नहीं। दूसरी स्त्री निकलती है सड़क से, आंखें चौंकती हैं, तेज हो जाती हैं। अपनी पत्नी को देख कर फीकी हो जाती हैं, ठंडी हो जाती हैं। वहां कुछ रस नहीं मालूम होता। पोलैरिटी टूट गई, फासला टूट गया।
वासना के लिए दूरी चाहिए, और प्रेम के लिए एकता चाहिए। प्रेम वहां होता है जहां दूरी मिट जाती है। वासना वहां होती है जहां दूरी तीव्र होती है, बड़ी होती है। तो वासना और प्रेम के सूत्र अलग हैं। प्रेम ब्रह्मचर्य पर ले जाता है, प्रेम आत्म-ऐक्य पर ले जाता है। तो महावीर का ब्रह्मचर्य अमैथुन नहीं है, महावीर का ब्रह्मचर्य ब्रह्म-भाव है।
लेकिन पीछे की व्याख्या कहती है कि महावीर का ब्रह्मचर्य अमैथुन है। तो साधु-संन्यासी स्त्री को छोड़ते, आंख बंद करके बैठते, कि स्त्री न दिखाई पड़ जाए, स्त्री न छू जाए, उसका वस्त्र न छू जाए। स्त्री साध्वियां छोड़ती हैं पुरुषों को देखना, दर्शन, छूना, स्पर्श। स्त्री-पुरुष को छोड़ने से मजा यह है कि जितना स्त्री-पुरुष को छोड़िए उतनी दूरी बढ़ेगी, जितनी दूरी बढ़ेगी उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ेगी। इसलिए साधु-संन्यासियों में जितनी सेक्सुअलिटी है, उतनी जमीन में किसी आदमी में नहीं होती। नहीं हो सकती है, होने का कारण टूट गया।
मैं एक साध्वी से मिल रहा था। समुद्र की हवाएं चलती थीं, समुद्र के किनारे हम बैठे थे। मेरे चादर को समुद्र की हवा उड़ा कर ले गई और साध्वी को छू गया। अब समुद्र की हवाओं को क्या पता कि एक स्त्री बैठी है, एक पुरुष बैठा है। समुद्र की हवाएं बड़ी निर्दोष, नासमझ। उनको धर्म का कोई ज्ञान नहीं है, उनको शास्त्रों का कोई पता नहीं है। कि स्त्री साध्वी को पुरुष का वस्त्र नहीं छूना चाहिए, इस किताब को शायद समुद्र की हवाओं ने नहीं पढ़ा होगा। अब समुद्र की हवा ले गई चादर को, जब तक मैं देखता-देखता चादर तो छू गया है। अब मैंने कहा चादर छू ही गया है तो छू जाने दो, चादर को भी कोई पता नहीं शास्त्रों का। लेकिन साध्वी घबड़ाई। आत्मा की बात चलती थी, परमात्मा की बात चलती थी। बात खत्म हो गई, चेहरा बदल गया। मैंने पूछा, आप कुछ परेशान हो गईं अचानक! उन्होंने कहा, हां, पुरुष का वस्त्र नहीं छूना चाहिए। आपका वस्त्र मुझे छू गया। तो मैंने कहा, अभी तो आप कह रही थीं कि आत्मा ही सत्य है, शरीर माया है। लेकिन मालूम होता है, चादर आत्मा से भी ज्यादा सत्य है। शरीर माया है, चादर सत्य है! शरीर माया है, पुरुष सत्य है! और मेरा चादर क्या पुरुष हो गया मैंने ओढ़ लिया तो? और स्त्री ओढ़ लेती तो स्त्री हो जाता? बड़े मजे हैं।
हिंदू पानी होता है, मुसलमान पानी होता है, यह मुझे पहली दफा पता चला। कि पुरुष चादर होती है, स्त्री चादर होती है। चादर सिर्फ चादर होती है। लेकिन वे कहने लगीं कि नहीं, पुरुष के चादर छूने से कामुकता के पैदा होने का डर होता है। मैंने कहा, वह डर पुरुष के चादर से नहीं होता। वह डर पुरुष से साधी गई दूरी के कारण होता है। जितनी दूरी साधी जाती है, उतना पुरुष का जरा सा संपर्क दूरी को तोड़ता है और भीतर छिपी वासना को प्रकट करता है। जितनी दूरी साधी जाती है जीवन से, उतनी ही जीवन के प्रति कामुकता विकसित होती है।
ब्रह्मचर्य चीजों का फासला नहीं साधता, चीजों के भीतर जो एक है उसको साधता है। सबके भीतर जो एक का विस्तार है, उसका अनुभव करता है, उसका स्मरण करता है, उसमें लीन होता है, उसका साक्षात करता है। और जिस दिन सबके भीतर एक का अनुभव शुरू होता है उस दिन जो घटना घटती है वह ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का संबंध अमैथुन से जरा भी नहीं है। ब्रह्मचर्य घटित होता है तो अमैथुन आता है, लेकिन अमैथुन का नाम ब्रह्मचर्य नहीं है। वह जैसा मैंने कहा प्रेम घटित हो तो अहिंसा आती है, ब्रह्मचर्य घटित हो तो अमैथुन आता है। लेकिन उलटी बात सच नहीं है, कि आपने अमैथुन साध लिया, आपने नो-सेक्सुअलिटी साध ली और आप ब्रह्मचारी हो गए।
तीसरी और अंतिम बात, वह भी ठीक ऐसी ही, क्योंकि वह तो हमारा जो हम इमेज बनाते हैं, उसके सीक्रेट वही हैं, महावीर का तीसरा सूत्र है, अपरिग्रह। सब छोड़ देना--घर, द्वार, धन-संपत्ति, वस्त्र भी--सब छोड़ देना। सब छोड़ने की इस अपरिग्रह भावना को बहुत जोरों से चिल्लाया गया कि महावीर अपरिग्रही हैं। यह वही गलती निरंतर चलती है। महावीर अपरिग्रही हैं, उन्होंने छोड़ा, इस बात में ही बुनियादी भूल हो गई। क्योंकि छोड़ वह समझ सकता है जो जानता हो कि यह मेरा है, छोड़ने के पीछे मेरे का भाव मौजूद है। मैं कहूं कि मैं यह चादर छोड़ता हूं, दो बातें तय हो गईं। पहली बात कि मैं मानता था कि चादर मेरी थी। मेरी थी तो छोड़ सकता हूं, जो मेरी नहीं थी उसे छोड़ कैसे सकता हूं।
महावीर छोड़ते नहीं, यह अनुभव करते हैं कि मेरा तो कुछ भी नहीं है। छोड़ने के पीछे, त्याग के पीछे तो अहंकार मौजूद होता है। मैं कहता हूं, यह मकान मैंने त्याग किया, यह मैंने मकान दान किया, यह धन मैं दान करता हूं। मैं तो मौजूद हूं। जहां मैं मौजूद है, वहां दान कैसा! वहां त्याग कैसा! क्योंकि मैं की तो यह घोषणा है कि मैं पजेस करता हूं, मैं इसका मालिक हूं। दान करने वाला भी मालकियत नहीं छोड़ता, ओनरशिप नहीं छोड़ता। वह यह कहता है, मैं दान करता हूं, मालिक मैं हूं। लेकिन महावीर कहते हैं कि मैं मालिक नहीं हूं, इसका मुझे पता चल गया। मैं दान क्या करूं! मैं किस चीज का दान करूं! कोई मेरी चीज होती तो मैं दान करता। कोई मेरी चीज होती तो मैं बांट देता। कोई मेरी चीज होती तो मैं छोड़ देता। मैं तो इस अनुभव पर पहुंचा हूं कि मेरी कोई चीज नहीं। असल में मैं ही कुछ नहीं हूं, मेरी चीज कुछ नहीं है। तो मैं कैसे दान, कैसा त्याग, कैसा अपरिग्रह!
लेकिन ढाई हजार साल से यह समझाया जा रहा है: अपरिग्रह! छोड़ो! पता नहीं हमें कि छोड़ने के पीछे मेरे होने का भाव मौजूद है।
एक संन्यासी से मुझे बात होती थी, वह मुझसे कहते थे कि मैंने लाखों रुपए पर लात मार दी। मैं हैरान हो गया। मैंने कहा, यह लात कब मारी? वह कहने लगे, कोई तीस साल हो गए। मैंने कहा, तीस साल हो गए! तो फिर लात ठीक से लग नहीं पाई। कहने लगे, क्यों? मैंने कहा, इसलिए कि तीस साल तक फिर उसकी याद कैसे रह सकती थी! याद अब तक बनी है। याद ओनरशिप है। स्मृति इस बात की गवाही है कि मैं मालिक था तीस साल पहले। और मेरी मालकियत की ही हैसियत से मैंने त्यागा। उस त्याग में मेरी मालकियत मौजूद थी। उस त्याग के बाद भी मौजूद है। मैं त्यागी हूं अब भी कि मैंने उन्हें छोड़ा था। मालकियत खत्म नहीं हुई।
महावीर मालकियत नहीं देखते हैं जीवन में। कोई मालिक नहीं है, कोई मालिक नहीं है। इसलिए कैसा परिग्रह, कैसा अपरिग्रह! कैसा जोड़ना, कैसा त्यागना! अपरिग्रह परिग्रह की ही छाया है। त्याग संग्रह की ही छाया है। लेकिन महावीर कहते हैं, न संग्रह, न परिग्रह है, न अपरिग्रह है, न त्याग, मेरा कुछ भी नहीं है। यह भाव, यह बोध, यह समझ, यह गहराई जब जीवन में उपलब्ध होती है...।
अहिंसा, अमैथुन, अपरिग्रह, ये तीन गलत शब्द गलत इमेज पैदा करते हैं। प्रेम, ब्रह्म-भाव, अहंकार-शून्यता, मैं नहीं हूं, मेरा कुछ नहीं है, ये महावीर की ठीक प्रतिमा को उपस्थित करते हैं। और ठीक प्रतिमा दिखाई पड़े तो उस प्रतिमा के कारण हमारे मन में भी, जीवन में भी एक नया आंदोलन, एक नई दृष्टि, एक नया दर्शन शुरू हो सकता है। हम एक नई यात्रा पर निकल सकते हैं।
तो मैं प्रार्थना करता हूं, अग्निपूजक मत बने रहें। पूजा का धर्म से कोई संबंध नहीं। अग्नि के उपभोक्ता बनें, कंज्यूमर्स! अग्नि को जलाएं, घर को रोशन करें, रोटी बनाएं। मकान को गर्म करें, दीया जलाएं, अंधेरे रास्तों पर रोशनी करें--अग्नि के उपभोक्ता बनें। धर्म के भी पूजक नहीं, धर्म के भी उपभोक्ता, कंज्यूमर्स, धर्म को भी पी जाएं घोल कर, रोटी बनाएं, खाएं उसे। जीएं, श्वास-श्वास में पीएं और जीवन में उसको फैलने दें। धार्मिक लोग चाहिए दुनिया में, धर्म-पूजक नहीं। धार्मिक जीवन चाहिए, धर्म-मंदिर नहीं। धर्म-चेतना चाहिए, धर्म-शास्त्र नहीं। धार्मिकता चाहिए--धार्मिकता--लेकिन धर्म नहीं। हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई नहीं।
महावीर न तो जैन हैं, मोहम्मद न मुसलमान हैं, जीसस क्राइस्ट न क्रिश्चियन हैं, राम न हिंदू हैं, लेकिन हमारी नासमझी, मूढ़ता के कारण हमने घेरे बना रखे हैं। महावीर किसी घेरे में हो सकते हैं? राम किसी घेरे में हो सकते हैं? क्राइस्ट किसी घेरे में हो सकते हैं? लेकिन हम, हम जो घेरों को प्रेम करने वाले लोग हैं, न केवल हम अपना घेरा बनाते हैं, हम उनको भी घेर कर खड़े हो जाते हैं। इसकी वजह से सारी मनुष्य-जाति सारे मनुष्य-जीवन के जो अनुभव थे उनसे जितनी लाभान्वित हो सकती थी, सारे जीवन के जो संपदा प्रसून थे, जो फूल थे सुगंध वाले, उनसे जितनी लाभान्वित हो सकती थी, नहीं हो सकी।
हमारे दायरे तोड़ दें! धार्मिक व्यक्ति का कोई दायरा नहीं है, कोई मंदिर नहीं है, कोई पूजा नहीं है। धार्मिक व्यक्ति का तो एक जीवन जीने का ढंग है, फिलासफी ऑफ लाइफ, जीवन को जीने का एक दर्शन है। जीवन को जीने के दर्शन में तीन सूत्रों पर ध्यान रखें और तीन गलत सूत्रों को विस्मरण करें।
अहिंसा विस्मरण करें, प्रेम को स्मरण करें। प्रेम विधायक है, अहिंसा नकारात्मक। प्रेम--सर्वभाव, सर्वमंगल। अहिंसा--निषेध, अहंकार। अमैथुन भूलें, ब्रह्म-भाव, ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का मतलब ही यह होता है कि ईश्वर जैसी चर्या, ईश्वर जैसा जीवन। ईश्वर जैसे जीवन का अर्थ: एक अद्वैत भाव। सबके भीतर जो एक है उसकी प्रतीति और अनुभूति। अमैथुन का भाव छोड़ें, अमैथुन की शिक्षा ने हिंदुस्तान को कामुक बनाया।
आज जमीन पर हमारी कौम से ज्यादा कामुक कोई कौम नहीं है। आज हमसे ज्यादा मैथुन की भाषा में सोचने वाले लोग नहीं हैं। हमारी कविताएं, हमारी किताबें, हमारे उपन्यास, हमारी फिल्में, हमारा उठना-बैठना, हमारा बोलना, सोचना, हमारे ढंग, सारे के सारे सेक्सुअलिटी से भरे हैं। और हमने अमैथुन की शिक्षा दी। हमने अहिंसा की शिक्षा दी। और हमसे ज्यादा हिंस-भाव और हमसे ज्यादा कायर लोग कहां हैं! हमसे ज्यादा मृत्यु से डरने वाले लोग कहां हैं! जिसके जीवन में प्रेम होगा वह कायर नहीं होगा। जिसके जीवन में प्रेम होगा वह मृत्यु से भयभीत नहीं होगा।
जिसके जीवन में प्रेम होगा उसका जीवन तो एक सर्व समर्पण की निरंतर प्रक्रिया होगी।
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