सोमवार, 2 अप्रैल 2018

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--09)

श्वास की कीमिया—(प्रवचन—नौवां)

तीसरी प्रश्नोत्तर चर्चा

प्रश्न :  ओशो रूस के बहुत बड़े अध्यात्मविद् और मिस्टिक जॉर्ज गुरजिएफ ने अपनी आध्यात्मिक खोज— यात्रा के संस्मरण 'मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन' नामक पुस्तक में लिखे हैं। एक दरवेश फकीर से उनकी काफी चर्चा भोजन को चबाने के संबंध में तथा योग के प्राणायाम व आसनों के संबंध में हुई जिससे वे बड़े प्रभावित भी हुए। दरवेश ने उन्हें कहा कि भोजन को कम चबाना चाहिए कभी— कभी थी सहित भी निगल जाना चाहिए; इससे पेट शक्तिशाली होता है। इसके साथ ही दरवेश ने उन्हें किसी भी प्रकार के श्वास के अभ्यास को न करने का सुझाव दिया। दरवेश का कहना था कि प्राकृतिक श्वास—प्रणाली में कुछ भी परिवर्तन करने से सारा व्यक्तित्व अस्तव्यस्त हो जाता है और उसके घातक परिणाम होते हैं इस संबंध में आपका क्या मत है?

 समें पहली बात तो यह है कि यह तो ठीक है कि अगर भोजन चबाया न जाए, तो पेट शक्तिशाली हो जाएगा। और जो काम मुंह से कर रहे हैं वह काम भी पेट करने लगेगा। लेकिन इसके परिणाम बहुत घातक होंगे।

पहली तो बात यह है कि मुंह जो है वह पेट का हिस्सा है। वह पेट से अलग चीज नहीं है। वह पेट की शुरुआत है। पेट और मुंह दो चीजें नहीं हैं, दो अलग चीजें नहीं हैं; मुंह पेट की शुरुआत है। तो कहां से पेट शुरू होता है, यह जिस आदमी से गुरजिएफ की बात हुई उस दरवेश को कुछ पता नहीं है। पेट कहां से शुरू होता है? पेट मुंह से शुरू होता है। और अगर मुंह का काम आपने नहीं किया.. .उसका काम है और अनिवार्य काम है। अगर उसे आप छोड़ दें तो पेट उस काम को करने लगेगा। लेकिन उस करने में दोहरे नुकसान होंगे।

 मुंह के साथ मस्तिष्क के आंतरिक संबंध:

एक नुकसान तो यह होगा कि शरीर का सारा काम बंटा हुआ है। एक तरह का डिवीजन ऑफ लेबर है, श्रम विभाजित है शरीर में। अगर हम इस श्रम—विभाजन को तोड़ दें और एक ही अंग से और काम भी लेने लगें, तो वह अंग तो शक्तिशाली हो जाएगा, लेकिन जिस अंग से हम काम लेना बंद कर देंगे वह एकदम शक्तिहीन हो जाएगा। और पेट अगर बहुत शक्तिशाली हो तो आप एक पशु तो हो जाएंगे बड़े शक्तिशाली, लेकिन अगर मुंह कमजोर हो जाए तो आप मनुष्य नहीं रह जाएंगे। क्योंकि मुंह की कमजोरी के बहुत घातक परिणाम हैं। क्योंकि मुंह के साथ हमारे मस्तिष्क के बहुत आंतरिक संबंध हैं, जैसे पेट के संबंध हैं, वैसे मस्तिष्क के संबंध हैं। और हमारे मुंह के शक्तिशाली होने पर निर्भर करता है कि हमारे मस्तिष्क के स्नायु शक्तिशाली हों।
तो जैसे एक आदमी अगर गूंगा है, बोल नहीं सकता, तो उसके मस्तिष्क के बहुत से हिस्से सदा के लिए बेकार रह जाएंगे। गूंगा आदमी बुद्धिमान नहीं हो सकता। अंधा आदमी बहुत बुद्धिमान हो जाएगा। गूंगा आदमी ईडियट हो जाएगा, उसमें बुद्धि विकसित नहीं होगी। क्योंकि उसके मुंह के साथ बहुत से उसके मस्तिष्क के जोड़ हैं। और मुंह के चलाने के साथ आपके पेट का चलना शुरू हो जाता है। अगर आप मुंह न चलाएं, तो पेट का जो चलना शुरू होना है वह भी बहुत कठिन बात है। और हमारे मुंह के पास कुछ चीजें हैं, जो पेट के पास नहीं हैं।

 प्रश्न: सलाइवा?

 हां, सलाइवा; जो कि नहीं है पेट के पास और उसके लिए उसे अतिरिक्त श्रम करना पड़े। और यह बात सच है कि कोई अंग अगर काम करे तो शक्तिशाली होता है। लेकिन अगर उसे ऐसा काम करना पड़े जो कि उसका नहीं है, तो क्षीण होता है; क्योंकि उस पर अतिरिक्त भार है।
और भी बड़े मजे की बात है कि पेट के बहुत से काम को जब हम विभाजित कर देते हैं— कुछ मुंह कर लेता है, कुछ पेट कर लेता है—तो हमारी जो ऊर्जा है, हमारी जो एनर्जी है, वह पेट पर केंद्रित नहीं हो पाती। वह पेट से मुक्त होना शुरू होती है। इसलिए जैसे ही आप खाना खाते हैं, नींद आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि आपके मस्तिष्क में जो शक्ति थी वह भी पेट अपने भीतर बुला लेता है। वह कहता है कि अब उसे भी काम में लगा देना है। क्योंकि खाना बहुत बुनियादी तत्व है जीवन के लिए। सोचना वगैरह गौण बातें हैं, इनमें पीछे लगेंगे, अभी पेट को पचा लेने दें। तो जैसे ही आप खाना खाते हैं, वैसे ही मन सोने का होने लगता है। उसका कारण यह है कि मस्तिष्क से सारी ऊर्जा वापस बुला ली गई।
पेट पर जितना काम बढ़ेगा, मस्तिष्क उतना कमजोर होता चला जाएगा। क्योंकि उसको उतनी ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी। और जो नॉन—एसेंशियल हिस्से हैं जीवन में, वह उनसे खींच लेगा। मस्तिष्क जो है वह लग्जूरियस हिस्सा है। उसके बिना जानवर काम चला रहे हैं। वह कोई जीवित होने के लिए जरूरी हिस्सा नहीं है। लेकिन पेट जीवित होने के लिए जरूरी हिस्सा है। उसके बिना कोई काम नहीं चला रहा, वृक्ष भी काम नहीं चला सकता उसके बिना। तो वह बहुत एसेंशियल केंद्रीय तत्व है।
तो हमारे मस्तिष्क वगैरह को शक्ति तभी मिलती है, जब वह पेट से बचती है। अगर वह पेट में लग जाए तो वह मस्तिष्क को नहीं मिलती। इसलिए गरीब कौम के पास मस्तिष्क धीरे— धीरे क्षीण होने लगता है, विकसित नहीं होता। क्योंकि उसकी पेट पर सारी की सारी शक्ति लग जाती है। और उसके पेट से ही कुछ नहीं बचता कि वह कहीं और जा सके, शरीर के और हिस्सों में फैलाव हो सके।

 रिफाइंड फूड से मस्तिष्क का विकास:

तो जितना हम पेट का काम कम कर दें, उतना ही मस्तिष्क विकसित होता है। इसलिए जितना रिफाइंड फूड है, जिसको कि पेट को पचाने में कम से कम ताकत लगती है, उतना मस्तिष्क विकसित होता चला जाता है। इसलिए जिस दिन हम सिंथेटिक फूड ले सकेंगे, सिर्फ गोली आपने ली और आपका काम पूरा हो गया, उस दिन मस्तिष्क को इतनी ऊर्जा मिलेगी जितनी कभी भी नहीं मिली। और उस ऊर्जा के अनंत परिणाम होंगे।
असल में, पेट का काम नहीं बढ़ाना है, पेट का काम रोज कम करना है। अगर गौर से देखें तो जैसे—जैसे नीचे उतरेंगे उतना पेट का काम ज्यादा पाएंगे पशु में। जैसे एक भैंस है, वह चौबीस घंटे ही चबा रही है, चौबीस घंटे ही खा रही है। उसका पेट का ही काम पूरा नहीं हो पाता। इसलिए मस्तिष्क जैसी चीज की उसमें झलक नहीं मिल पाती। मनुष्य उतना ही विकसित होता चेला जाएगा जितनी पेट से ऊर्जा उसकी मुक्त होने लगेगी। अगर बहुत ठीक से समझें तो जिस दिन मनुष्य पेट से मुक्त होगा उसी दिन पशुता से मुक्त हो जाएगा। उस दिन के बाद उसको पशु होने का कोई अर्थ नहीं है। और इसलिए पेट का काम बढ़ाना नहीं है, पेट का काम निरंतर कम करना है।
उपवास का यही प्रयोजन है। क्योंकि पेट का काम कुछ देर के लिए बिलकुल बंद हो जाए, तो मस्तिष्क के लिए पूरी शक्ति मिल जाती है। इसलिए उपवास के क्षण में मस्तिष्क में शक्ति का बड़ा तीव्र प्रवाह होता है। ज्यादा खाना खा लें तो मस्तिष्क की शक्ति सब पेट में चली जाती है तत्काल। इसलिए बहुत खाना खा लें तो फिर तो मस्तिष्क काम कर ही नहीं सकता। तो इसलिए पेट का काम निरंतर कम करना है। मुंह उसमें हाथ बंटाता है। इसलिए जितना आप चबा लें उतना हितकर है। यानी इतना चबा लें कि पेट को काम ही न बचे तो और भी ज्यादा हितकर है। और बड़े मजे की बात यह है, बड़े मजे की बात यह है, इसको थोड़ा सा देखने जैसा है, क्योंकि आदमी का सारा विकास पेट से मुक्त होने का विकास है। वह धीरे— धीरे पेट से मुक्त होने की कोशिश में लगा हुआ है। ठीक से ठीक भोजन खोज रहा है कि उसको डाइजेशन का उपद्रव कम हो जाए।
तो एक तो मैं तो इसमें गवाही नहीं दूंगा।
अच्छा दूसरी बात यह है कि हमारे मस्तिष्क का जो हिस्सा है.. .मुंह दो चीजों से जुड़ा है—इधर पेट से और इधर मस्तिष्क से। मुंह दोनों के बीच में पड़ता है। अगर हम आदमी का सारा विकास देखें तो वह, ठीक समझें हम तो, मुंह का ही विकास है। बाकी सारा शरीर इस छोटे से सिर का ही काम कर रहा है। बाकी सब जो है वह फैक्ट्री इस छोटे से सिर के लिए चल रही है। चाहे हमारा प्रेम हो, चाहे हमारी बुद्धि हो, चाहे हमारी प्रतिभा हो, वह बहुत गहरे में हमारे मुंह से संबंधित है। और इसका हम कैसे उपयोग करते हैं, कितना ज्यादा उपयोग करते हैं, यह कितना मजबूत होता है, उतनी ही ऊर्जा नीचे की तरफ जाने की बजाय ऊपर की तरफ जानी शुरू होती है। तो इसका तो ज्यादा से ज्यादा उपयोग होना चाहिए।
और अगर ठीक से चबाया हो किसी ने तो उसके दांत ही नहीं गिरेंगे। अगर ठीक से चबाया हो, तो वह जो बात कह रहा है दरवेश, वह कभी नहीं घटेगी। अगर किसी ने जिंदगी भर ठीक से चबाया तो दांत तो गिरेंगे ही नहीं। वह मरते दम तक अपने ठीक वही दांत लेकर जाएगा जो दांत लेकर आया था। शायद उससे भी ज्यादा मजबूत, क्योंकि वे इतना काम कर चुके होंगे। और जितना उसका मुंह मजबूत हो, उतना ही उसका पेट मजबूत होगा। क्योंकि मुंह शुरुआत है उसके पेट की। यानी मुंह जो है वह पेट का द्वार ही है। वह पेट से अलग कोई चीज नहीं। उसको अलग मानकर चलना गलत है। और अगर हड्डी, जैसा वह कह रहा है कि हड्डी भी ऐसे ही गटक जाओ, गटक सकते हैं आप, और पेट उसकी भी चेष्टा करेगा, लेकिन वह इनझूमन चेष्टा होगी। और तब पेट को इतनी शक्ति की जरूरत पड़ेगी कि आप कुछ और काम ही नहीं कर पाएंगे, बस हड्डी पचा ली तो बहुत काम हो गया। और आप पेट केंद्रित हो जाएंगे। आपका व्यक्तित्व जो है वह पेट पर केंद्रित हो जाएगा।

 जीवन के महत्वपूर्ण काम— अंधेरे में:

और दूसरी और जो बात है वह यह है कि पेट जितने अचेतन में हो उतना अच्छा। आपको उसका पता न चले, उतना उसकी वर्किंग जो है, स्मूथ और अच्छी होगी। अगर आपको पेट का पता चले तो आप रूग्‍ण हो जाएंगे। असल में, हमारे व्यक्तित्व में कुछ चीजें हैं, जो हमारी चेतना में नहीं होनी चाहिए। चेतना में होंगी तो आप नुकसान पाएंगे। तो पेट का काम जितना हलका हो, उतना ही अचेतन होगा, अनकांशस होगा। आपको पता नहीं चलेगा पेट का।
और जितना पेट का कम पता चलेगा उतने आप स्वस्थ और वेल बीइंग अनुभव करेंगे। अगर ठीक से समझें तो आपकी जो इलनेस का जो बोध है बीमारी का वह पेट के बोध से शुरू होता है। जैसे ही आपको पता चला कि पेट भी है शरीर में कि आप बीमार हुए। अगर आपको पता न चले कि पेट है तो आप स्वस्थ हैं। और पेट का जो काम है वह जो है आपकी अचेतना का काम है। जीवन के जितने महत्वपूर्ण काम हैं, वे अंधेरे में होते हैं और उनके लिए चेतना की जरूरत नहीं है। जड़ें अंधेरे में, जमीन में बड़ी होती हैं। बच्चा मां के पेट में अंधेरे में बड़ा होता है। हमारे पेट का सारा का सारा काम हमारे ज्ञान के बाहर होता है। आपके ज्ञान के भीतर उसको लाने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर पेट पर बहुत काम आपने डाला तो वह आपके ज्ञान के भीतर आ जाएगा तत्काल, क्योंकि उस पर अतिरिक्त श्रम पड़ेगा। और पेट शान में आया तो आप चौबीस घंटे रुग्ण हैं।
तो गुरजिएफ को कुछ तो बहुत अदभुत बातों का खयाल था। लेकिन एक खतरा उसके साथ हुआ और वह यह कि वह बहुत सी परंपराओं से संबंधित था। इसलिए कई अर्थों में वह भानुमति का पिटारा है। और वह कभी भी तय नहीं कर पाया कि इनके बीच तालमेल क्या है। अब यह बात जंचती है, दरवेश ने जब कही तो उसे यह बात जंच गई। अगर उसे जो मैं कह रहा हूं यह भी कहता, यह बात भी जंच सकती थी। और इन दोनों का तालमेल बिठालना बहुत मुश्किल हो जाता।

 प्राणायाम और कृत्रिम श्वास से हानि का खतरा:

दूसरी जो बात कह रहा है वह प्राणायाम और कृत्रिम श्वास के लिए, उसमें भी कुछ बातें सच हैं। असल में, ऐसा कोई असत्य नहीं होता जिसमें कि कुछ सत्य न हो; होता ही नहीं; होता ही नहीं। अच्छा वह जो उसमें सत्य होता है वही प्रभाव लाता है; और उसके साथ वह जो असत्य है वह भी सरक जाता है, हमें कभी पता नहीं चलता कि क्या हो गया। अब इसमें बहुत सच्चाई है कि जहां तक बने, साधारणत:, जीवन का जो सहज क्रम है, उसमें बाधा नहीं डालनी चाहिए। उपद्रव होने का डर है। तो जो व्यवस्था चल रही है सहज— आपकी श्वास की, उठने की, बैठने की, चलने की—जहा तक बने उसमें बाधा नहीं डालना उचित है। क्योंकि बाधा डालने से ही परिवर्तन शुरू होंगे।
यह ध्यान रहे कि हानि भी एक परिवर्तन है और लाभ भी एक परिवर्तन है; दोनों ही परिवर्तन हैं। तो आप जैसे हैं, अगर ऐसे ही रहना है, तब तो कुछ भी छेड़छाड़ करनी उचित नहीं है; लेकिन अगर कुछ भी इससे जाना है कहीं भी, कोई भी परिवर्तन करना है, कोई भी ट्रांसफामेंशन, तो हानि का खतरा लेना पड़ेगा। वह जो.. .हानि का खतरा तो है ही, कि आपकी जो श्वास चल रही है अभी, अगर इसको और व्यवस्था दी जाए तो आपके पूरे व्यक्तित्व में अंतर पड़ेंगे। लेकिन अगर आप अपने व्यक्तित्व से राजी हैं, और सोचते हैं कि जैसा है ठीक है, तब तो उचित है। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि यह व्यक्तित्व पर्याप्त नहीं मालूम होता, तो अंतर करने पड़ेंगे।

 श्वास परिवर्तन से व्यक्तित्व में रूपांतरण:

और तब श्वास पर अंतर सबसे कीमती बात है। और ये जो.......जैसे ही श्वास पर आप अंतर करेंगे वैसे ही आपके भीतर बहुत सी चीजें टूटनी और बहुत सी नई चीजें बननी शुरू हो जाएंगी। अब हजारों प्रयोग के बाद यह तय किया गया है कि वह श्वास के किस प्रयोग से कौन सी चीजें बनेंगी, कौन सी टूटेंगी। और अब करीब—करीब सुनिश्चित बात हो गई है।
जैसे कुछ तो हम सबके भी अनुभव में होता है। जैसे जब आप क्रोध में होते हैं तो श्वास बदल जाती है; वह वैसी नहीं रहती जैसी थी। अगर कभी बहुत ही साइलेंस अनुभव होगी तो भी श्वास बदल जाएगी; वह वैसी नहीं रहेगी जैसी थी। अगर आपको पता चल गया है कि साइलेंस में श्वास कैसी हो जाती है, तो आप अगर वैसी श्वास कर सकें तो साइलेंस पैदा हो जाएगी। ये जो दोनों हैं, ये दोनों इंटर—कनेक्टेड हैं। जब मन कामातुर होगा तो श्वास बदल जाएगी। अगर मन कामातुर हो और आप श्वास को न बदलने दें, तो आप फौरन पाएंगे कि कामातुरता विदा हो गई। वह काम विलीन हो जाएगा, वह टिक नहीं सकता; क्योंकि बॉडी के मेकेनिज्य में सारी चीजों में तारतम्य होना चाहिए तभी कुछ हो सकता है। अगर क्रोध जोर से आ रहा है और उस वक्त आप श्वास धीमी लेने लगें, तो क्रोध टिक नहीं सकता; क्योंकि श्वास में उसको टिकने की जगह नहीं मिलेगी।

 श्वास और मन के वैज्ञानिक नियम:

तो श्वास के जो अंतर हैं, वे बड़े कीमती हैं। और श्वास के अंतर से आपके मन का अंतर पड़ना शुरू होगा। और जब साफ हो चुका है और बहुत वैज्ञानिक रूप से साफ हो चुका है श्वास की कौन सी गति पर मन की क्या गति होगी, तब खतरे नहीं हैं। खतरे थे उनको जिन्होंने प्रारंभिक प्रयोग किए हैं; खतरा आज भी है उसको जो जीवन की किसी भी दिशा में प्रारंभिक प्रयोग करता है। लेकिन जब प्रयोग साफ हो जाते हैं तो वे बहुत साइंटिफिक हैं। यानी यह असंभव है कि एक आदमी श्वास को शांत रखे और क्रोध कर ले। यह असंभव है, ये दोनों बातें एक साथ नहीं घट सकतीं। इससे उलटा भी संभव है कि अगर आप उसी तरह की श्वास लेने लगें जैसी आप क्रोध में लेते हैं, तो आप थोड़ी देर में पाएं कि आपके भीतर क्रोध जग गया। तो प्राणायाम ने आपके चित्त के परिवर्तन के लिए बहुत से उपाय खोजे हैं।

 प्राकृतिक और अप्राकृतिक श्वास:

और दूसरी बात यह है कि जिसको हम कह रहे हैं आर्टिफीशियल ब्रीदिंग और जिसको हम नेचरल कह रहे हैं, यह फासला भी समझने जैसा है। जिसको आप नेचरल कह रहे हैं, वह भी नेचरल नहीं है; वह ब्रीदिंग नेचरल नहीं है। बल्कि बहुत ठीक से समझा जाए तो वह ऐसी आर्टिफीशियल ब्रीदिंग है जिसके आप आदी हो गए हैं, जिसको आप बहुत दिन से कर रहे हैं इसलिए आदी हो गए हैं; बचपन से कर रहे हैं इसलिए आदी हो गए हैं। आपको पता नहीं है कि नेचरल ब्रीदिंग क्या है। इसलिए दिन भर आप एक तरह से लेते हैं श्वास, रात में आप दूसरी तरह से लेते हैं। क्योंकि दिन में जो ली थी वह आर्टिफीशियल थी, और इसलिए रात में नेचरल शुरू होती है जो कि आपकी हैबिट के बाहर है।
तो रात की ही श्वास की प्रक्रिया ज्यादा स्वाभाविक है बजाय दिन के। दिन में तो हमने आदत डाली है ब्रीदिंग की, और आदत के हमारे कई कारण हैं। जब आप भीड़ में चलते हैं तब आप एहसास करें, जब आप अकेले में बैठते हैं तब एहसास करें, तो आप पाएंगे आपकी ब्रीदिंग बदल गई। भीड़ में आप और तरह से श्वास लेते हैं, अकेले में और तरह से। क्योंकि भीड में आप टेंस होते हैं। चारों तरफ लोग हैं, तो आपकी ब्रीदिंग छोटी हो जाएगी; ऊपर से ही जल्दी लौट जाएगी; पूरी गहरी नहीं होगी। जब आप आराम से बैठे हैं, अकेले हैं, तो वह पूरी गहरी होगी। इसलिए जब रात आप सो गए हैं तो वह पूरी गहरी होगी।.......वह आपने दिन में कभी नहीं ली है, क्योंकि वह इतनी कभी गहरी नहीं गई कि आवाज भी कर सके।

 पेट से श्वास लेना निर्दोषता का लक्षण:

तो जिसको हम कह रहे हैं नेचरल वह नेचरल नहीं है, सिर्फ कंडीशंड आर्टिफीशियल है; निश्चित हो गई है, आदत हो गई है। इसलिए बच्चे एक तरह से ब्रीदिंग ले रहे हैं। अगर बच्चे को सुलाएं, तो आप पाएंगे उसका पेट हिल रहा है, और आप ब्रीदिंग ले रहे हैं तो छाती हिल रही है।
बच्चा नेचरल ब्रीदिंग ले रहा है। अगर बच्चा जिस ढंग से श्वास ले रहा है, आप लें, तो आपके मन में वही स्थितियां पैदा होनी शुरू हो जाएंगी जो बच्चे की हैं। उतनी इनोसेंस आनी शुरू हो जाएगी जितनी बच्चे की है। या अगर आप इनोसेंट हो जाएंगे तो आपकी ब्रीदिंग पेट से शुरू हो जाएगी।
इसलिए जापान में और चीन में बुद्ध की जो मूर्तियां हैं, वे उन्होंने भिन्न बनाई हैं; वे हिंदुस्तानी शइर्तयों से भिन्न हैं। हिंदुस्तान में बुद्ध का पेट छोटा है; जापानी और चीनी मुल्कों में बुद्ध का पेट बड़ा है, छाती छोटी है। हमें बेहूदी लगती है। हमें बेहूदी लगती है कि यह बेडौल कर दिया। लेकिन वही ठीक है। क्योंकि बुद्ध जैसा शांत आदमी जब श्वास लेगा तो वह पेट से ही लेगा। उतना इनोसेंट आदमी छाती से श्वास नहीं ले सकता, इसलिए पेट बड़ा हो जाएगा। वह पेट जो बड़ा है, वह प्रतीक है।

 प्रश्न झेन संत का?

 हां, वह प्रतीक है। सब झेन मास्टर्स का पेट बड़ा है। वह प्रतीक है। उतना बड़ा न भी रहा हो, लेकिन वह बड़ा ही डिपिक्ट किया जाएगा। उसका कारण है कि वह श्वास जो है, वह पेट से ले रहा है; वह छोटे बच्चे की तरह हो गया है।
तो जब हमें यह खयाल में साफ हो गया हो, तो नेचरल ब्रीदिंग की तरफ हमें कदम उठाने चाहिए। हमारी ब्रीदिंग आर्टिफीशियल है। वह दरवेश गलत कह रहा है कि आप आर्टिफीशियल ब्रीदिंग मत करो। आर्टिफीशियल ब्रीदिंग हम कर रहे हैं। तो जैसे ही हमें समझ बढ़ेगी, हम नेचरल ब्रीदिंग की तरफ कदम उठाएंगे। और जितनी नेचरल ब्रीदिंग हो जाएगी, उतने ही जीवन की अधिकतम संभावना हमारे भीतर से प्रकट होनी शुरू होगी।
और यह भी समझने जैसा है कि कभी—कभी एकदम आकस्मिक रूप से अप्राकृतिक ब्रीदिंग करने के भी बहुत फायदे हैं। और एक बात तो साफ ही है कि जहां बहुत फायदे हैं वहीं बहुत हानियां हैं। एक आदमी दुकानदारी कर रहा है, तो जितनी हानियां हैं उतने फायदे हैं। एक आदमी जुआ खेल रहा है, तो जितने फायदे हैं उतनी हानियां हैं। क्योंकि फायदा और हानि का अनुपात तो वही होनेवाला है। तो वह बात तो ठीक कह रहा है कि बहुत खतरे हैं, लेकिन आधी बात कह रहा है। बहुत संभावनाएं भी हैं वहां। वह जुआरी का दांव है।
तो अगर हम कभी किसी क्षण में थोड़ी देर के लिए बिलकुल ही अस्वाभाविक— अस्वाभाविक इस अर्थों में कि जिसको हमने नहीं की है अभी तक—इस तरह की ब्रीदिंग करें, तो हमें अपने ही भीतर नई स्थितियों का पता चलना शुरू होता है। उन स्थितियों में हम पागल भी हो सकते हैं और उन स्थितियों में हम मुक्त भी हो सकते हैं—विक्षिप्त भी हो सकते हैं, विमुक्त भी हो सकते हैं। और चूंकि उस स्थिति को हम ही पैदा कर रहे हैं, इसलिए किसी भी क्षण उसे रोका जा सकता है। इसलिए खतरा नहीं है। खतरे का डर तब है, जब कि आप रोक न सकें। जब आपने ही पैदा किया है तो आप तत्काल रोक सकते हैं। और आपको प्रतिपल अनुभव होता है कि आप किस तरफ जा रहे हैं। आप आनंद की तरफ जा रहे हैं, कि दुख की तरफ जा रहे हैं, कि खतरे में जा रहे हैं, कि शांति में जा रहे हैं, वह आपको बहुत साफ एक—एक कदम पर मालूम होने लगता है।

 अजनबी स्थिति के कारण मूर्च्छा पर चोट:

और जब बिलकुल ही आकस्मिक रूप से, तेजी से ब्रीदिंग बदली जाए, तो आपके भीतर की पूरी की पूरी स्थिति बदलती है एकदम से। जो हमारी सुनिश्चित आदत हो गई है श्वास लेने की, उसमें हमें कभी पता नहीं चल सकता कि मैं शरीर से अलग हूं। उसमें सेतु बन गया है, ब्रिज बन गया है। शरीर और आत्मा के बीच श्वास की एक निश्चित आदत ने एक ब्रिज बना दिया है। उसके हम आदी हो गए हैं।
यानी वह मामला ऐसा ही है कि जैसे आप रोज अपने घर जाते हैं और कार का आप व्हील घुमा लेते हैं और आपको कभी न सोचना पड़ता है, न विचार करना पड़ता है, आप अपने घर पर जाकर खड़े हो जाते हैं। लेकिन अचानक ऐसा हो कि व्हील आप दाएं मुडाएं और व्हील बाएं मुड़ जाए, कि जो रास्ता रोज आपका था, अचानक आप पाएं कि वह रास्ता आज पूरा का पूरा घूम गया है और दूसरा रास्ता उसकी जगह आ गया है, तब एक स्ट्रेजनेस की हालत में आप पहुंचेंगे, और पहली दफा आप होश से भर जाएंगे। वह जो होश से भर जाएंगे आप...... स्ट्रेजनेस जो है न, किसी भी चीज का अजनबीपन, वह आपकी मूर्च्छा को तोड़ देता है तत्काल। व्यवस्थित दुनिया, जहां सब रोज वही हुआ है, वहां आपकी मूर्च्छा कभी नहीं टूटती; आपकी मूर्च्छा टूटती है वहां, जहां अचानक कुछ हो जाता है।
जैसे कि मैं बोल रहा हूं इसमें आपकी मूर्च्छा न टूटेगी। अचानक आप पाएं कि यह टेबल बोलने लगी, तो यहां एक आदमी भी बेहोश नहीं रह जाएगा। उपाय नहीं है बेहोश रहने का। यह टेबल अचानक बोल उठे, एक शब्द बोले—मैं हजार शब्द बोल रहा हूं तो भी आप मूर्च्छित सुनेंगे—लेकिन यह टेबल एक शब्द बोल दे तो आप सब इतनी अवेयरनेस में पहुंच जाएंगे जिसमें आप कभी नहीं गए; क्योंकि वह स्ट्रेज है, और स्ट्रेंज आपके भीतर की सब स्थिति तोड़ देता है।
तो श्वास के अनूठे अनुभव जब स्ट्रेजनेस में ले जाते हैं, तो आपके भीतर बड़ी नई संभावनाएं होती हैं और आप होश उपलब्ध कर पाते हैं और कुछ देख पाते हैं। और अगर कोई आदमी होशपूर्वक पागल हो सके, तो इससे बड़ा कीमती अनुभव नहीं है—होशपूर्वक अगर पागल हो सके।

 प्रश्न: इंपासिबल है!

 हां, यह इंपासिबल है, इसीलिए तो इससे कीमती अनुभव नहीं है।

 ध्यान—प्रयोग में अजनबी, अज्ञात स्थितियों का बनना:

तो यह जो मैं प्रयोग कह रहा हूं यह प्रयोग जो है ऐसा है कि भीतर आपका पूरा होश है और बाहर आप बिलकुल पागल हो गए हैं। जो कि आप कोई भी आदमी अगर कर रहा होता तो आप कहते, पागल है। भीतर तो आपको पूरा होश है और आप देख रहे हैं कि मैं नाच रहा हूं। और आप जानते हैं कि अगर यह कोई भी दूसरा आदमी कर रहा होता तो मैं कहता कि यह पागल है। अब आप अपने को पागल कह सकते हैं। लेकिन दोनों बातें एक साथ हो रही हैं— आप यह जान भी रहे हैं कि यह हो रहा है। इसलिए आप पागल भी नहीं हैं; क्योंकि आप होश में पूरे हैं और फिर भी वही हो रहा है जो पागल को होता है।
इस हालत में आपके भीतर एक ऐसा स्ट्रेज मोमेंट आता है कि आप अपने को अपने शरीर से अलग कर पाते हैं। कर नहीं पाते, हो ही जाता है। अचानक आप पाते हैं कि सब तालमेल टूट गया। जहां कल रास्ता जुड़ता था वहां नहीं जुड़ता और जहां कल आपका ब्रिज जोड़ता था वहां नहीं जुड़ता; जहां व्हील घूमता था वहां नहीं घूमता। सब विसंगत हो गया है। वह जो रेलेवेंसी थी रोज—रोज की, वह टूट गई है; कहीं कुछ और हो रहा है। आप हाथ को नहीं घुमाना चाह रहे हैं, और वह घूम रहा है; आप नहीं रोना चाह रहे हैं, और आंसू बहे जा रहे हैं; आप चाहते हैं कि यह हंसी रुक जाए, लेकिन यह नहीं रुक रही है।
तो ऐसे स्ट्रेंज मोमेंट्स पैदा करना अवेयरनेस के लिए बड़े अदभुत हैं। और श्वास से जितने जल्दी ये हो जाते हैं, और किसी प्रयोग से नहीं होते। और प्रयोग में वर्षों लगाने पड़े, श्वास में दस मिनट में भी हो सकता है। क्योंकि श्वास का इतना गहरा संबंध है हमारे व्यक्तित्व में कि उस पर जरा सी लगी चोट सब तरफ प्रतिध्वनित हो जाती है।

 अव्यवस्थित श्वास का प्रयोग कीमती:

तो श्वास के जो प्रयोग थे, वे बड़े कीमती थे। लेकिन प्राणायाम के जो व्यवस्थित प्रयोग हैं उन पर मेरा बहुत आग्रह नहीं है। क्योंकि जैसे ही वे व्यवस्थित हो जाते हैं, वैसे ही उनकी स्ट्रेजनेस चली जाती है। जैसे एक आदमी एक—दो श्वास इस नाक से लेता है, फिर दो इससे लेता है। फिर इतनी देर रोकता है, फिर इतनी देर निकालता है। इसका अभ्यास कर लेता है। तो यह भी उसका अभ्यास का हिस्सा हो जाने के कारण सेतु बन जाता है। एमेथॉडिकल हो जाता है।
तो मैं जिस श्वास को कह रहा हूं वह बिलकुल नॉन—मेथॉडिकल है, एब्सर्ड है। उसमें न कोई रोकने का सवाल है, न छोड़ने का सवाल है। वह एकदम से स्ट्रेंज फीलिंग पैदा करने की बात है कि आप एकदम से ऐसी झंझट में पड़ जाएं कि इस झंझट को आप व्यवस्था न दे पाएं। अगर व्यवस्था दे दी, तो आपका मन बहुत होशियार है, वह उसमें भी राजी हो जाएगा कि ठीक है। वह इस नाक को दबा रहा है, इसको खोल रहा है; इतनी निकाल रहा है, उतनी बंद कर रहा है; तो उसका कोई मतलब नहीं है, वह एक नया सिस्टम हो जाएगा, लेकिन स्ट्रेजनेस, अजनबीपन उसमें नहीं आएगा।
और आपको मैं चाहता हूं कि किसी क्षण में आपकी जो भी रूट्स हैं, जितनी भी जड़ें हैं और जितना भी आपका अपना परिचय है, वह सब का सब किसी क्षण में एकदम उखड़ जाए। एक दिन आप अचानक पाएं कि न कोई जड़ है मेरी, न मेरी कोई पहचान है, न मेरी कोई मां है, न मेरा कोई पिता है, न कोई भाई है, न यह शरीर मेरा है। आप एकदम ऐसी एब्सर्ड हालत में पहुंच जाएं जहां कि आदमी पागल होता है। लेकिन अगर आप इस हालत में अचानक पहुंच जाएं आपकी बिना किसी कोशिश के, तो आप पागल हो जाएंगे। और अगर आप अपनी ही कोशिश से इसमें पहुंचें तो आप कभी पागल नहीं हो सकते, क्योंकि यह आपके हाथ में है, अभी आप इसी सेकेंड वापस लौट सकते हैं।

 ध्यान प्रयोग द्वारा पागलपन से मुक्ति:

तो मेरा तो मानना है कि अगर हम पागल को भी इतनी श्वास— और मैं यहां चाहूंगा कि यह प्रयोग करने जैसा है— अगर हम पागल को भी यह श्वास का प्रयोग करवाएं तो उसके स्वस्थ हो जाने की पूरी संभावना है। क्योंकि अगर वह पागलपन को भी देख सके कि मैं पैदा कर लेता हूं तो वह यह भी जान पाएगा कि मैं मिटा भी सकता हूं। अभी पागलपन उसके ऊपर उतर आया है, वह उसके हाथ की बात नहीं है।
इसलिए यह जो प्रयोग है, इसके खतरे हैं, लेकिन खतरे के भीतर उतनी ही संभावनाएं हैं। और पागल भी अगर इसको करे तो ठीक हो सकता है। और इधर मेरा खयाल है पीछे कि इसको पागल के लिए भी इस प्रयोग को करवाने जैसा है। और जो आदमी इस प्रयोग को करता है उसकी गारंटी है कि वह कभी पागल नहीं हो सकता। वह इसलिए पागल नहीं हो सकता कि पागलपन को पैदा करने की उसके पास खुद ही कला है। जिस चीज को वह ऑन करता है उसको ऑफ भी कर लेता है। इसलिए आप उसको कभी पागल नहीं बना सकते। यानी किसी दिन ऐसा नहीं हो सकता कि वह अपने वश के बाहर हो जाए। क्योंकि उसने, जो वश के बाहर था, उसको भी वश में करके देख लिया है।
जिस श्वास की बात मैं कह रहा हूं वह श्वास बिलकुल ही नॉन—रिदमिक नॉन—मेथॉडिकल है। और कल जैसा किया था, वैसा भी आज नहीं कर सकते आप, क्योंकि उसका कोई मेथड ही नहीं है। कल जैसा किया था, वैसा भी आज नहीं कर सकते; अभी शुरू जैसा किया था, अंत करते तक भी वैसा नहीं कर सकते। वह जैसी होगी! और खयाल सिर्फ इतना है कि आपकी सब जो कंडीशनिंग है माइंड की वह ढीली पड़ जाए।
वह जो दरवेश कह रहा है, वह ठीक कह रहा है कि कई नट और कई बोल्ट ढीले पड जाएंगे। वे करने हैं ढीले। वे नट— बोल्ट बहुत सख्ती से पकड़े हुए हैं और आत्मा और शरीर के बीच फासला नहीं हो पाता उनकी वजह से। वे एकदम से ढीले पड़ जाएं तो ही आपको पता चले कि कुछ और भी है भीतर, जो जुड़ा था और अलग हो गया है। लेकिन चूंकि वे श्वास की चोट से ही ढीले हुए हैं, वे श्वास की चोट जाते ही से अपने आप कस जाते हैं; उनको अलग से कसने के लिए कोई इंतजाम नहीं करना पड़ता। उनको इंतजाम करने की कोई जरूरत नहीं है।
हां, अगर श्वास पागलपन की हो जाए आपके भीतर, कि आपके वश के बाहर हो, आब्सेशन बन जाए और चौबीस घंटे उस ढंग से चलने लगे, तो फिर वह स्थिति खराब हो जा सकती है। लेकिन कोई घंटे भर के लिए अगर यह प्रयोग कर रहा है, और प्रयोग शुरू करता है और प्रयोग बंद कर देता है, तो जैसे ही वह प्रयोग बंद करता है, वैसे ही वे सब के सब अपनी जगह वापस सेट हो जाते हैं। आपको अनुभव भर रह जाता है पीछे कि एक अनुभव हुआ था जब मैं अलग था और अब सब चीजें फिर अपनी जगह सेट हो गई हैं। लेकिन अब सेट हो जाने के बाद भी आप जानते हैं कि मैं अलग हूं—जुड़ गया हूं संयुक्त हूं लेकिन फिर भी अलग हूं।
श्वास के बिना तो काम ही नहीं हो सकता है। ही, यह बात वह ठीक कह रहा है कि खतरे हैं। तो खतरे तो हैं ही, और जितने बड़े जीवन की हमारी खोज है उतने बड़े खतरे के लेने की हमें तैयारी होनी चाहिए। फर्क मैं इतना ही करता हूं कि एक तो वह खतरा है जो हम पर अचानक आ जाता है, उससे हम बच नहीं सकते; और एक वह खतरा है जो हम पैदा करते हैं, उससे हम कभी भी बच सकते हैं। यानी अब इतना मूवमेंट होता है शरीर का—इतना—रो रहा है कोई, चिल्ला रहा है, नाच रहा है, और एक सेकेंड उसको कि नहीं, तो वह सब गया। चूकि यह क्रिएटेड है, यह उसने ही पैदा किया है सब, यह एक बात है। और यह अपने आप हो जाता है जब—कि एक आदमी सड़क पर खड़े होकर नाच रहा है—खुद नहीं उसने कुछ किया है, अब वह रोक भी नहीं सकता, क्योंकि कहां से यह आया, कैसे यह हुआ, उसे कुछ पता नहीं।
तो मेरी तो अपनी समझ यह है कि यह आज नहीं कल, जो मैं कह रहा हूं यह एक बहुत बड़ी थैरेपी सिद्ध होगी। और आज नहीं कल, पागल को स्वस्थ करने के लिए यह अनिवार्य रास्ता बन जाएगा। और अगर हम प्रत्येक बच्चे को स्कूल में इसे करा सकें तो हम उस बच्चे के पागल नहीं होने की व्यवस्था किए दे रहे हैं, वह कभी पागल नहीं हो सकता। वह इम्यून हो जाएगा—स्प। और वह मालिक हो जाएगा—इन सारी स्थितियों का मालिक हो जाएगा।

 विभिन्न सूफी विधियां:

लेकिन जिस दरवेश से उसकी बात हुई है, गुरजिएफ की, वे दूसरे पथ के राही हैं। उन्होंने श्वास का कोई प्रयोग नहीं किया। उन्होंने स्ट्रेजनेस दूसरी तरह से पैदा की। और यही तकलीफ है। तकलीफ क्या है कि एक रास्ते को जाननेवाला आदमी तत्काल दूसरे रास्ते को गलत कह देगा। लेकिन कोई भी चीज किसी रास्ते के संदर्भ में गलत और सही होती है।
एक बैलगाड़ी में चके में एक डंडी लगी हुई है, कील लगी हुई है। एक कारवाला कह सकता है कि बिलकुल बेकार! लेकिन कार के संदर्भ में बेकार होगी, वह बैलगाड़ी में उतनी ही सार्थक है जितनी कार में कोई चीज सार्थक हो।
तो किसी चीज का गलत और सही होना एब्लोल्युट अर्थ नहीं रखता। लेकिन हमेशा यह भूल होती है।

 रात्रि—जागरण:

अब जैसे कि सूफी दरवेश है, वह दूसरे ढंग से इस तरफ पहुंचा है; उसके ढंग और हैं। जैसे सूफी जो है, वह निद्रा पर चोट करेगा, श्वास पर नहीं। तो नाइट विजिल्स की बड़ी कीमत है दरवेश के लिए। महीनों जागता रहेगा! लेकिन जागने से भी वही स्ट्रेजनेस पैदा हो जाती है जो श्वास से पैदा होती है। अगर महीने भर जाग जाएं तो आप उसी तरह पागल हालत में पहुंच जाते हैं जिस हालत में श्वास से पहुंचेंगे।
तो एक तो नींद पर वह चोट करेगा, क्योंकि नींद बड़ी स्वाभाविक व्यवस्था है। उस पर चोट करने से फौरन आपके भीतर विचित्रताए शुरू हो जाती हैं। लेकिन उसमें भी खतरे इतने ही हैं, बल्कि इससे ज्यादा हैं, क्योंकि लंबा प्रयोग करना पड़े। एक दिन की नींद के तोड्ने से नहीं होता वह। महीने भर, दो महीने की नींद तोड देनी पड़े।
लेकिन दो महीने की नींद तोड़कर अगर कुछ हो जाए तो एक सेकेंड में आप बंद नहीं कर सकते उसको। लेकिन दस मिनट की श्वास से कुछ भी हो जाए तो एक सेकेंड में बंद हो जाता है। दो महीने की नींद अगर नहीं ली है, तो आप अगर आज सो भी जाओ तो भी दो महीने की नींद आज पूरी नहीं होनेवाली। और दो महीने जो नहीं सोया है, वह आज शायद सो भी न पाए; क्योंकि वह जरा खतरनाक जगह से उसने काम शुरू किया है।
तो नाइट विजिल का बड़ा उपयोग है, फकीर रात—रात भर जागकर प्रतीक्षा करेंगे कि क्या होता है। तो उन्होंने उससे शुरू किया है। दूसरा उन्होंने नृत्य से भी शुरू किया है।

 नृत्य का उपयोग:

नृत्य को भी उपयोग किया जा सकता है शरीर से अलग होने के लिए। लेकिन वे भी उनके प्रयोग ऐसे ही हैं कि अगर नृत्य सीखकर किया आपने तो नहीं हो सकेगा। जैसा कि मैंने कहा कि प्राणायाम से नहीं होगा, क्योंकि वह व्यवस्थित है। अब एक आदमी ने अगर नृत्य सीख लिया, तो वह शरीर के साथ एक हो जाता है। नहीं, आप—जो कि नाच जानते नहीं— आप से मैं कहूं—नाचिए! और आप एकदम नाचना शुरू कर दें, कूदना—फांदना, तो हो जाएगा। हो जाएगा इसलिए कि यह इतना स्ट्रेज मामला है कि आप इसके साथ अपने को एक न कर पाएंगे कि यह मैं नाच रहा हूं! यह आप एक न कर पाएंगे। तो नाच से उन्होंने प्रयोग शुरू किए हैं, रात की नींद से शुरू किए हैं।

 ऊन के वस्त्र, उपवास, कांटे की शय्या:

और तरह की उपद्रव की चीजें, जैसे कि ऊन के वस्त्र हैं। अब ठेठ रेगिस्तान की गरम हालत में ऊन पहने हुए हैं! तो शरीर के विपरीत चल रहे हैं। कोई उपवास कर रहा है, वह भी शरीर के विपरीत चल रहा है। कोई कांटे पर पैर रखे बैठा है, कोई कांटे की शय्या बिछाकर उस पर लेट गया है, वे सब स्ट्रेजनेस पैदा करने की तरकीबें हैं।
लेकिन एक पथ के राही को कभी खयाल में नहीं आता, और स्वभावत: नहीं भी आता है, कि दूसरे पथ से भी ठीक यही स्थिति पैदा हो सकती है।
तो वह दरवेश को तो कुछ पता नहीं प्राणायाम के बाबत। हां, अगर वह कुछ करेगा तो नुकसान उठा सकता है। वह कुछ करेगा तो नुकसान उठा सकता है और खतरे ज्यादा हो सकते हैं। खतरे ऐसे हो सकते हैं, जैसे कि एक बैलगाड़ी की कील को आपने कार के चाक में लगा दिया हो। तो वह कहेगा कि भई, यह कील बड़ी खतरनाक है, कभी मत लगाना, क्योंकि इससे तो हमारी गाड़ी खराब हो गई।
अब जो आदमी रात भर जग रहा है, अगर वह प्राणायाम का प्रयोग करे तो पागल हो जाएगा—फौरन पागल हो जाएगा। उसके कारण हैं; क्योंकि ये दोनों चोटें एक साथ व्यक्तित्व नहीं सह सकता।

 लंबे उपवास में आसन और प्राणायाम हानिप्रद:

इसलिए जैनों ने प्राणायाम का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि उपवास से वे स्ट्रेजनेस पैदा कर रहे हैं। अगर उपवास के साथ प्राणायाम करें तो बहुत खतरे में पड़ जाएंगे। एकदम खतरे में पड़ जाएंगे। इसलिए जैन के लिए कोई प्राणायाम का उपयोग नहीं रहा; बल्कि वह जैन साधु कहेगा कि कोई जरूरत नहीं है। मगर उसे पता नहीं है कि वह प्राणायाम को इनकार नहीं कर रहा है, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है कि उसकी व्यवस्था में उसके लिए कोई जगह नहीं है, वह दूसरी चीज से वही काम पैदा कर ले रहा है।
इसलिए जैनों ने कोई योगासन वगैरह के लिए फिकर नहीं की। क्योंकि उपवास की हालत में, लंबे उपवास की हालत में, योगासन वगैरह बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। तो उनके लिए बहुत मृदु आहार चाहिए, घी चाहिए, दूध चाहिए, अत्यंत तृप्तिदायी आहार चाहिए। उपवास कर देता है रूखा भीतर बिलकुल, और जठराग्नि इतनी बढ़ जाती है, क्योंकि उपवास से बिलकुल पेट आग हो जाता है। इस आग की हालत में कोई भी आसन खतरनाक हो सकते हैं। यह आग मस्तिष्क तक चढ़ सकती है और पागल कर सकती है। तो जैन संन्यासी कह देगा कि नहीं—नहीं, आसन वगैरह में कुछ सार नहीं है, सब बेकार है।
लेकिन जिस रास्ते पर उनका उपयोग है, उस रास्ते पर उनकी कीमत बड़ी अदभुत है। अगर ठीक आहार लिया जाए, तो आसन अदभुत काम कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए शरीर का बड़ा स्निग्ध होना जरूरी है। बिलकुल ऐसा ही मामला है जैसे कि लुब्रीकेटिंग हालत होनी चाहिए बॉडी की, क्योंकि एक—एक हड्डी और एक—एक नस और एक—एक स्नायु को फिसलना है, बदलना है। उसमें जरा भी रूखापन हुआ तो टूट जाएगी। अत्यंत लोचपूर्ण चाहिए। और उस लोचपूर्ण हालत में अगर शरीर को ये सारी की सारी जो........

 आसन : अनोखी देह—स्थितियां:

अब ये जो आसन हैं, ये भी स्ट्रेंज पोजीशस हैं, जिनमें आप कभी नहीं होते। और हमें खयाल नहीं है कि हमारी सब पोजीशन हमारे चित्त से बंधी हुई है। अब एक आदमी चिंतित होता है और सिर खुजाने लगता है। कोई पूछे कि तुम सिर किसलिए खुजा रहे हो? चिंता से सिर खुजाने का क्या संबंध है? लेकिन अगर आप उसका हाथ पकड़ लें तो आप पाएगे—वह चिंतित नहीं हो सकता। उसके चिंतित होने के लिए अनिवार्य है कि वह अपने सिर पर हाथ ले जाए। अगर उसका हाथ पकड़ लिया जाए तो वह चिंता नहीं कर सकता। क्योंकि उस चिंता के लिए उतना एसोसिएशन जरूरी है कि वह हाथ की मसल्‍स इस जगह पहुंचें, अंगुलियां इस स्थान को छुए, इस स्नायु को छुए, इस पोजीशन में जब वह हो जाएगा तो बस तत्काल उसकी चिंता सक्रिय हो जाएगी। अब इसी तरह की सारी की सारी मुद्राएं हैं, आसन हैं।
तो वे बहुत अनुभव से...... .जैसा मैं अभी सुबह ही कह रहा था कि अब यह ध्यान का जो प्रयोग हुआ इसमें अपने—आप आसन बनेंगे, अपने—आप मुद्राएं आएंगी। निरंतर हजारों प्रयोग के बाद यह पता चल गया कि चित्त की कौन सी दशा में कौन सी मुद्रा बन जाती है। तब फिर उलटा काम भी शुरू हो सका—वह मुद्रा बनाओ तो चित्त की वैसी दशा के बनने की संभावना बढ़ जाती है। जैसे कि बुद्ध बैठे हुए हैं, अगर आप ठीक उसी हालत में बैठें, तो आपको बुद्ध की चित्त—दशा में जाने में आसानी होगी। क्योंकि चित्त—दशा भी शरीर की दशाओं से बंधी हुई है। बुद्ध जैसे चलते हैं, अगर आप वैसे ही चलो, बुद्ध जैसी श्वास लेते हैं, अगर वैसी श्वास लो, बुद्ध जैसे लेटते हैं, वैसे लेटो; तो बुद्ध की जो चित्त की दशा है उसको पाना आपके लिए सुगमतर होगा। और या आप बुद्ध की चित्त—दशा को पा लो तो आप पाओगे कि आपके चलने, उठने, बैठने में बुद्ध से तालमेल होने लगा। ये दोनों चीजें पैरलल हैं।

 गुरजिएफ की अधूरी जानकारी:

अब जैसे कि गुरजिएफ जैसे लोगों को, जो कि एक अर्थ में अपरूटेड हैं, इनके पीछे कोई हजारों वर्ष का काम नहीं है, तो इनको पता नहीं है। इनको पता नहीं है, हजारों वर्ष का काम नहीं है। और फिर इस आदमी ने दस—पच्चीस अलग—अलग तरह के लोगों से मिलकर कुछ इकट्ठा किया है। उसमें कई यंत्रों के सामान यह ले आया है। वे सब अपनी—अपनी जगह ठीक थे, लेकिन सब इकट्ठे होकर बड़े अजीब हो गए हैं। उनमें से कभी कोई किसी पर काम कर जाता है, लेकिन पूरा किसी पर काम नहीं कर पाता। इसलिए गुरजिएफ के पास जितने लोगों ने काम किया, पूर्णता पर उनमें से कोई भी नहीं पहुंच सका। वह पहुंच नहीं सकता। क्योंकि जब वह आता है तो कोई चीज एक काम कर जाती है उस पर, तो वह उत्सुक तो हो जाता है और प्रवेश कर जाता है, लेकिन दूसरी चीजें उलटा काम करने लगती हैं। क्योंकि सिस्टम जो है, पूरी की पूरी सिस्टम नहीं है एक। कहना चाहिए कि मल्टी—सिस्टम्स का बहुत कुछ उसमें ले लिया है उसने।
अच्छा और कुछ सिस्टम्स का उसे बिलकुल पता नहीं है। उसके पास उनकी जानकारी नहीं है। उसकी ज्यादा जानकारी सूफी दरवेशों से है। उसे तिबेतन योग का कोई विशेष पता नहीं है; उसे हठयोग का भी कोई बहुत विशेष पता नहीं है। जो उसने सुना है, वह भी विरोधियों के मुंह से सुना है; वह भी दरवेशों से सुना है। वह हठयोगी नहीं है। तो उसकी जो जानकारी हठयोग के बाबत या कुंडलिनी के बाबत जो भी जानकारी है, वह दुश्मन के मुंह से सुनी गई जानकारी है, विपरीत पथगामियों के द्वारा सुनी गई जानकारी है। उस जानकारी के आधार पर वह जो कह रहा है वह बहुत अर्थों में तो कभी असंगत ही हो जाता है।
जैसे कुंडलिनी के बाबत तो उसने निपट नासमझी की बात कही; उसका उसे कुछ पता ही नहीं है। वह उसको कुंडा—बफर ही कहे चला जा रहा है। और बफर अच्छा शब्द नहीं है। वह यह कह रहा है कि कुंडलिनी एक ऐसी चीज है, जिसके कारण आप ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो पाते, वह बफर की तरह काम कर रही है। और उसको पार करना जरूरी है। उसे मिटाकर पार कर जाना जरूरी है। इसलिए उसको जगाने की तो चिंता में ही मत पड़ना।
अब उसे पता ही नहीं है कि वह क्या कह रहा है। बफर्स हैं व्यक्तित्व में, ऐसी चीजें हैं जिनकी वजह से हम कई तरह के शॉक्स झेल जाते हैं। कुंडलिनी वह नहीं है; कुंडलिनी तो शॉक है। मगर उसे पता नहीं है। कुंडलिनी तो खुद बड़े से बड़ा शॉक है। जब कुंडलिनी जगती है तो आपको बड़े से बड़ा शॉक लगता है आपके व्यक्तित्व में। बफर और हैं दूसरे आपके भीतर, जिनसे वह शॉक एज्जार्बर्स की तरह वे काम करते हैं, वे पी जाते हैं उसे। उन बफर्स को तोड्ने की जरूरत है। लेकिन वह उसको ही बफर समझ रहा है। और उसका कारण है कि उसे कुछ पता नहीं है। अनुभव तो है ही नहीं उसे उसका, जिनको अनुभव है उनके पास बैठकर उसने कोई बात भी नहीं सुनी।
और इसलिए कई दफे बड़ी अजीब हालतें हो जाती हैं। गुरजिएफ, कृष्णमूर्ति, इन सब के साथ बहुत अजीब हालत हो गई है। इनके साथ अजीब हालत यह है कि वे जो सीक्रेट्स हैं उन शब्दों के पीछे और उन शक्तियों के पीछे, उनका कभी भी उन्हें कोई व्यवस्थित ज्ञान नहीं हो सका। और कठिन भी बहुत है। असल में, एक जन्म में संभव भी नहीं है। अगर एक आदमी दस— बीस जन्मों में दस—बीस व्यवस्थाओं के बीच बड़ा हो, तभी संभव है, नहीं तो संभव नहीं है। दस—बीस जन्मों में दस—बीस व्यवस्थाओं के बीच बड़ा हो, तब कहीं किसी अंतिम जन्म में वह उन सब के बीच कोई सिंथीसिस खोज सकता है, नहीं तो नहीं खोज सकता।
लेकिन आमतौर से ऐसा होता है कि एक आदमी एक व्यवस्था से पहुंच जाता है तो दूसरा जन्म ही क्यों ले? बात ही खत्म हो गई। इसलिए सिंथीसिस नहीं हो पाती। और इधर मैं सोचता हूं इस पर, इस पर कभी काम करने जैसा है कि सारी दुनिया की व्यवस्थाओं के बीच एक सिंथीसिस संभव है। अलग—अलग छोर से पकड़ना पड़ेगा; घटनाएं वही घटती हैं, लेकिन अलग— अलग तरकीबें हैं उनको घटाने की।

 झेन फकीरों के अनोखे उपाय:

अब जैसे झेन फकीर है, वह एक आदमी को खिड़की से उठाकर फेंक देगा। सिर्फ स्ट्रेजनेस पैदा होती है, और कुछ नहीं। लेकिन वह कह देगा, प्राणायाम की कोई जरूरत नहीं है; यह भस्त्रिका से क्या होगा? उसका कारण है। लेकिन भस्त्रिका से नहीं होगा तो एक आदमी को खिड़की से फेंकने से क्या होगा? बुद्ध से, महावीर से जाकर कहो, किसी को खिड़की से फेंकने से ज्ञान हो गया। तो वे कहेंगे, पागल! आदमी रोज गिर जाते हैं मकानों से, कहीं ज्ञान होता है!
लेकिन गिरना एक बात है, फेंका जाना बिलकुल दूसरी बात है। जब एक आदमी मकान से गिरता है तो यह वैसा ही है जैसे एक आदमी पागल हो गया। लेकिन जब हम चार आदमी उठाकर काकू भाई को बाहर फेंक दें खिड़की के, और काकू भाई जानते हैं कि ये फेंके जा रहे हैं, तो एक स्ट्रेजनेस अनुभव होगी। जब वे गिरते हैं जमीन पर और जाते हैं फिंके हुए, तब पूरे वक्त अवेयर होते हैं कि यह क्या हो रहा है। उस वक्त फौरन वे अलग हो जाते हैं, बॉडी से अलग हो जाते हैं।
अब एक झेन गुरु के पास गए, उसने एक डंडा उठाकर खोपड़ी पर मार दिया आपके। स्ट्रेंज है! आप गए थे कि भाई, मुझे आत्म—शांति चाहिए, उसने एक डंडा मार दिया। एकदम स्ट्रेजनेस पैदा हो गई। लेकिन हिंदुस्तान में नहीं पैदा होगी। अगर आप यहां डंडा मारेंगे तो वह आदमी भी आपको डंडा मार देगा; वह लड़ने के लिए तैयार हो जाएगा। जापान में सिर्फ होगी, क्योंकि जापान में उसकी व्यवस्था खयाल में आ गई लोगों को कि झेन फकीर डंडा मारकर भी कुछ कर सकता है।
अब एक फकीर है, और आप गए हैं और वह आपको मां—बहन की गाली देने लगा! वह स्ट्रेजनेस पैदा कर देगा उससे। कहां आप गए थे ब्रह्मज्ञानी के पास, और वह मां—बहन की गाली दे रहा है खुले आम आपको। लेकिन आपको पता हो तो। पता न हो तो आपको दिक्कत पड़ जाएगी। आप दोबारा जाएंगे नहीं, कि यह आदमी गलत है, गाली बकता है। लेकिन उस व्यवस्था के भीतर उसका भी उपयोग किया गया है। वह गाली बककर भी स्ट्रेजनेस पैदा कर देगा।
एक फकीर थे, गाडरवाड़ा के पास एक जगह है साईखेड़ा। तो वे कुछ भी कर सकते थे। वे गाली भी बकते थे, और आप सब बैठे हैं, खड़े होकर सब के सामने पेशाब करने लगें! मगर बड़ा स्ट्रेंज हो जाता। एकदम स्ट्रेंज हो जाता था कि वे खड़े होकर यहीं पेशाब करने लगें— और आप एकदम चौंककर खड़े हो जाएं। एकदम स्ट्रेंज हो जाएगी इस कमरे की हालत—यह क्या हो गया! वे गाली तो देते ही थे, मारने भी दौड़ते थे। और मारेंगे तो मीलों तक दौड़ते चले जाएंगे उस आदमी के पीछे। लेकिन जो उनके पास जाते थे और जो समझने लगे थे, उनको बहुत लाभ हो गया। जो नहीं समझते थे, वे समझे पागल आदमी है। पर नहीं जो समझते उनसे कोई लेना—देना भी क्या है! जो समझते थे उनको फायदा हो गया। क्योंकि जिस आदमी के पीछे वे दो मील दौड़ते चले गए, उसको बहुत स्ट्रेंज हालत में खड़ा कर दिया। और हजारों की भीड़ दौड़ रही है, और वे उसको मारने दौड़ रहे हैं, और वह आदमी भागा जा रहा है। अब यह पूरा स्ट्रेंज एटमास्फियर हो गया!
बहुत सी व्यवस्थाओं से वही किया जा सकता है। दूसरी व्यवस्थावाले को कभी पता नहीं चलता। और कठिनाई एक और है अगर पता भी हो, कई बार पता भी हो, जैसे मेरे को कुछ पता है अगर, तब भी जब मैं एक व्यवस्था की बात कर रहा हूं तो मुझे एक्सट्रीम पर बात करनी पड़ती है, नहीं तो उसका परिणाम नहीं होगा। अगर मुझे पता भी है कि दूसरी बात से भी हो सकता है, लेकिन जब मैं एक बात कह रहा हूं तो मैं कहूंगा कि किसी से नहीं हो सकता, इसी से होगा। कारण है वह भी। कारण है, क्योंकि आपके पास दिमाग नहीं कि आप इतना सब.. .सबसे होगा, ऐसा समझकर आपको ऐसा ही लगेगा कि किसी से नहीं होगा। और वे सब इतनी विपरीत व्यवस्थाएं हैं कि सबसे कैसे होगा, आप इसी झंझट में पड़ जाएंगे। इसलिए बहुत बार तो ज्ञानियों को भी, जो जानते भी हैं, उनको भी अज्ञानी की भाषा बोलनी पड़ती है। उनको कहना पड़ता है. सिर्फ इसी से होगा, और किसी से नहीं हो सकता!
इसलिए मैं तो बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं क्योंकि मैं जानता हूं : उससे भी हो सकता है। उससे भी यह हो सकता है।
आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें