मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-09


अचौर्य—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 13 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई
 प्रश्नोत्तर :

आचार्य श्री, अचौर्य पर आपने कहा है कि शरीर, भाव या मन के तल पर किसी दूसरे की नकल या किसी दूसरे का अनुगमन चोरी है। लेकिन जीवन अंतर्संबंधों का एक जाल है; यहां सब जुड़े हुए हैं। तब व्यक्ति अपनी शुद्धतम मौलिकता तथा बाहर से आने वाली सूक्ष्म तरंगों के प्रभाव अथवा आरोपण को किस प्रकार पृथक करे? और वह उससे कैसे बचे?

जीवन अंतर-संबंधों का जाल है, लेकिन जीवन सिर्फ अंतर-संबंध ही नहीं है। अंतर संबंधित होने के लिए भी व्यक्ति चाहिए, अंतर-संबंध भी दो व्यक्तियों के बीच संबंध है; लेकिन दो व्यक्ति भी चाहिए, जिनके बीच संबंध हो सके। तो जीवन, जो हमें बाहर दिखायी पड़ता है वह तो अंतर-संबंध है, लेकिन एक और भी जीवन है भीतर, जो अंतर-संबंधित होता है। वह व्यक्ति अगर न हो, तो अंतर-संबंध सब झूठ हो जाते हैं। जुड़ेगा कौन?

प्रेम एक संबंध है; लेकिन प्रेमी का व्यक्तित्व भी चाहिए। और वह व्यक्तित्व यदि उधार है, तो व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व सदा अपना ही होता है, उधार नहीं। जो उधार है, वह व्यक्तित्व ही नहीं है। वह सिर्फ धोखा है। वह चेहरा है, जो हमने दूसरों को दिखाने के लिए ओढ़ लिया है। उस चेहरे के भीतर कोई भी नहीं है। प्राणवान, निजता लिये हुए, इंडीविजुअलिटी लिये हुए कोई भी नहीं है। जिसे हम साधारणतया व्यक्ति कहते हैं, वह इंडीविजुअल नहीं है, सिर्फ पर्सनैलिटी है। जिसे हम साधारणतया व्यक्ति कहते हैं, वह निजता नहीं है, बल्कि ओढ़े हुए वस्त्रों का समूह है। जैसे प्याज है। प्याज के छिलके को अगर कोई उतारता चला जाये, तो ऐसा लगेगा कि अब इस छिलके के बाद प्याज मिलेगी, अब इस छिलके के बाद प्याज मिलेगी! छिलकों को उतारता चला जाये तो छिलके ही मिलते हैं, प्याज कभी मिलती नहीं। ऐसे ही हम भी एक गठरी हैं, जिसमें सब उधार इकट्ठा होता चला गया है। लेकिन अगर इस उधार व्यक्तित्व के पीछे उतरते चले जायें, तो पीछे शून्य ही हाथ लगेगा। और पीछे यदि आत्मा न हो, निजता न हो, तो सारा जीवन झूठा हो जाता है।
जीवन की गहरी से गहरी चोरी अनुकरण, नकल, अनुसरण है। जब भी कोई व्यक्ति किसी और जैसा बनने की चेष्टा में रत होता है तभी गहरे में चोर हो जाता है। जब भी कोई व्यक्ति किसी और को अपने ऊपर ओढ़ लेता है, तो नकली हो जाता है, असली नहीं रह जाता। आथेंटिक, प्रामाणिक निजता उसकी खो जाती है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरों से आई हुई तरंगें हम ग्रहण न करें। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरों से हम संबंधित न हों। दूसरों से हम जरूर ही संबंधित हों, लेकिन स्व को बचाते हुए। क्योंकि फिर संबंधित कौन होगा, अगर स्व भी खो गया। दूसरों से तरंगें आयेंगी, उन्हें लेना भी पड़ेगा; उन्हें लें जरूर, लेकिन वे तरंगें ही न बन जायें। उन्हें लें भी, दें भी; लेकिन उनके पार भी आप बचे रहें; उनसे अछूता भी पीछे कोई खड़ा रहे; उस सारे लेन-देन के बाद भी कोई बच जाये, जो लेन-देन के बाहर है।
अंग्रेजी में एक शब्द है--एक्सटेसी। हमारे पास एक शब्द है--समाधि। समाधि को जो लोग अंग्रेजी में रूपांतरित करते हैं, वे एक्सटेसी करते हैं। एक्सटेसी बड़ा अदभुत शब्द है। एक्सटेसी का मतलब है, बाहर खड़े होना, टु स्टैंड आउट साइड। एक्सटेसी का मतलब है, जीवन की सारी धारा में होते हुए भी हर पल बाहर खड़े होना। जीवन में बहते हुए, जीवन के बाहर भी हमारे भीतर कुछ रह जाये, वही हमारी निजता है, वही हमारा होना है। अगर हम जीवन में पूरी तरह खो गए हैं और हमारे पास हमारे संबंधों के अतिरिक्त कुछ भी न बचा, तो हमने अपनी आत्मा खो दी है।
आत्मा का और कोई अर्थ नहीं है। आत्मा का अर्थ ही यही है कि सब हो फिर भी भीतर, कुछ अछूता, अस्पर्शित, अनटच्ड, बाहर रह जाये। रास्ते पर चल रहे हैं; लेकिन चलते समय भी कुछ आपके भीतर होना चाहिए, जो नहीं चल रहा है। क्रोध से भरे हैं; लेकिन क्रोध से भरे क्षण में भी कोई आपके भीतर होना चाहिए, जो आपके क्रोध को भी देख रहा है। भोजन कर रहे हैं; भोजन करते समय भी कोई आपके भीतर होना चाहिए जो भोजन नहीं कर रहा है, बल्कि जो यह भी जान रहा है कि भोजन किया जा रहा है।
अगर प्रतिपल जीवन के अंतरजाल में हम अपने भीतर किसी को बचा पाते हैं, तो वह जो बचा हुआ है, जो शेष है, द रिमेनिंग, वही हमारी निजता है। उस निजता का जिसके पास अस्तित्व नहीं है, वह आदमी आदमी कहे जाने का हकदार नहीं रह जाता। उसके पास कोई आत्मा नहीं है। उसने अपनी आत्मा खो दी है।
हममें से बहुत कम लोगों के पास इस अर्थों में आत्मा है...बहुत कम लोगों के पास! हम वही हैं--छिलकों का जोड़; वस्त्रों का जोड़; उसके पीछे और कुछ भी नहीं है। इसे भी मैं चोरी कहता हूं। यह चोरी है। किसी का धन चुरा लेना बहुत बड़ी चोरी नहीं है, लेकिन किसी का व्यक्तित्व ओढ़ लेना बहुत बड़ी चोरी है। किसी के वस्त्र चुरा लेना बहुत बड़ी चोरी नहीं है, लेकिन किसी के जैसे बनने की चेष्टा में अपने को खो देना बहुत बड़ी चोरी है। किसी के मकान पर कब्जा कर लेना उतनी बड़ी चोरी नहीं है--चोरी है, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह चोरी नहीं है--पर उतनी बड़ी चोरी नहीं है, जितनी अपनी आत्मा को खोकर किसी आत्मा की छाया बन जाना बड़ी चोरी है।
सुना है मैंने कि एक आदमी की जिंदगी में कुछ देवता नाराज हो गए थे और उन्होंने उसे अभिशाप दे दिया था। वह अभिशाप बड़ा अजीब था। उन्होंने अभिशाप दे दिया था कि आज से तेरी छाया खो जायेगी! वह आदमी हंसा। उसने देवताओं से कहा, छाया से मुझे प्रयोजन भी क्या है? अगर मैं बच गया, तो छाया न होने से मुझे क्या कमी पड़नेवाली है? छाया पड़ती है मेरी या नहीं पड़ती है, इसकी मैंने आज तक न चिंता की, न फिक्र की। तुम पागल तो नहीं हो गए हो? अगर नाराज ही हो गए हो, तो यह अभिशाप कोई बड़े काम का मालूम नहीं पड़ता। लेकिन देवता हंसे, क्योंकि देवता उस आदमी से ज्यादा जानते थे।
वह आदमी अपने गांव में लौटा हंसता हुआ कि देवता भी पागल हो गए मालूम होते हैं। छाया खोने से मेरा क्या खो जायेगा! लेकिन गांव में आकर उसको पता चला कि देवता पागल नहीं हैं, वही मुश्किल में पड़ गया है। जिस आदमी ने भी देखा कि उसकी छाया नहीं पड़ती है, वह उसे देखकर भागा। पत्नी ने द्वार बंद कर लिया। पिता ने कहा, हट जाओ, मेरी आंख के सामने दुबारा मत आना। तुम भूत हो, प्रेत हो--क्या हो? मित्रों ने दरवाजे बंद कर लिए। ग्राहक उसकी दूकान पर आने बंद हो गए। रास्ते से निकलता तो लोग अपने मकानों में अपने बच्चों को बुला लेते कि भीतर आ जाओ, वह आदमी निकल रहा है जिसकी छाया नहीं है। उस आदमी का गांव में जीना मुश्किल हो गया।
अंततः गांव के लोगों ने निर्णय किया कि इस आदमी को गांव के बाहर कर दें। यह आदमी खतरनाक है। ऐसा कभी सुना नहीं कि छाया रहित आदमी हो। और अंततः उस गांव के लोगों ने उस आदमी को बाहर निकाल दिया। तब उस आदमी को पता चला कि छाया खोकर बहुत कुछ खो गया है।
लेकिन उस आदमी को तो हम छोड़ें, हम सिर्फ छाया हैं, आत्मा हमने खो दी है। हमारा कितना खो गया है उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। हम सिर्फ शैडोज हैं, हम सिर्फ छायाएं हैं। उस आदमी की सिर्फ छाया खो गई थी तो वह इतनी मुश्किल में पड़ गया और हमारी तो आत्मा भी खो गई है, तो हम कितनी मुश्किल में न होंगे? लेकिन चूंकि सभी की खो गई है, इसलिए हमें कोई गांव के बाहर नहीं कर देता है। और अगर छाया खो जाए, तो दूसरे को पता भी चल जाता है, लेकिन आत्मा खो जाए, तो सिर्फ स्वयं को ही पता चल सकता है, किसी दूसरे को पता नहीं चल सकता। क्योंकि आत्मा कोई बाह्य घटना नहीं है।
इसलिए अचौर्य की बात समझते समय एक प्रश्न निरंतर अपने से पूछना चाहिए, कुछ भी मेरे पास है जिसे मैं कह सकूं कि मेरी निजता है? जो मैं जन्म के साथ लाया था? जो मैंने जीवन में नहीं सीखा? कुछ भी मेरे पास है, जो जन्म के पहले भी मेरा था?
यदि ऐसा कुछ भी आपको स्मरण आता हो कि आपके पास है, जो जन्म के पहले भी आपके पास था, तो आप आश्वस्त हो सकते हैं कि आप जब मरेंगे, तब भी आपके पास कुछ बच रहेगा। लेकिन अगर जन्म के बाद का ही सब पाया हुआ है, तो मृत्यु उस सब को छीन लेगी। जन्म के पहले का अगर आपके पास कुछ भी है और ऐसा लगता है कि जिसे आपने जीवन से नहीं सीखा, जीवन से नहीं लिया, जीवन से नहीं पाया; जिसे लेकर ही आप आए हैं; जो आपका स्वभाव है; तो मृत्यु से डरने का कोई कारण फिर आपके लिए नहीं है। क्योंकि जो आपने जीवन से नहीं पाया, उसे मृत्यु नहीं छीन पाती।
लेकिन हम सब डरते हैं मरने से। हम डरते हैं इसीलिए--इसलिए नहीं कि मृत्यु दुखदायी है। आज तक किसी ने नहीं कहा कि मृत्यु दुखदायी है--मृत्यु दुखदायी है इसलिए नहीं डरते, बल्कि इसलिए डरते हैं कि जीवन जिसे हम कहते हैं, उसमें हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मृत्यु से बचकर हमारे पास बच सके। वह सब छीन लिया जायेगा। जो भी हमने दूसरों से पाया है, उसे हम कभी मृत्यु के पार नहीं ले जा सकते हैं। चाहे वह धन हो, चाहे वह यश हो, चाहे वह ज्ञान हो, चाहे वह व्यक्तित्व हो, वह कुछ भी हो; जो हमने दूसरों से पाया है, वह मेरा नहीं है।
तो हम चोर हैं। वह जो दूसरों से हमने इकट्ठा कर लिया है, वही हमारी चोरी है। यह बहुत गहरी चोरी है, जिसे अदालत नहीं पकड़ेगी। यह बहुत गहरी चोरी है, जिसका कानून से कोई संबंध नहीं है। यह चोरी एक और बहुत बड़े कानून से संबंधित है, जिस कानून का नाम धर्म है। यह चोरी भी किसी अदालत में पकड़ी जाती है, लेकिन वह अदालत परमात्मा की अदालत है।
क्या हमारे पास कुछ भी हमारा है? जिसे मैं कह सकूं कि सीखा नहीं, अनलर्न्ड; कह सकूं, किसी से लिया हुआ नहीं; कह सकूं कि मैं ही हूं। अगर ऐसा कुछ भी नहीं है, तो हम जिस जीवन को जी रहे हैं, वह चोरी का जीवन है। और ऐसा नहीं है। लेकिन एक बार भी यह स्मरण आ जाये कि मेरे पास ऐसी कोई संपदा नहीं जो मेरी हो, मेरे पास ऐसी कोई निजता नहीं जो मेरी हो, तो जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है।
इसलिए आप यह मत सोचना कि आपने कौड़ी नहीं चुराई। आप यह मत सोचना कि आपने किसी के घर से सामान नहीं चुराया। उस चोरी से धर्म का क्या लेना-देना है! उस चोरी से तो आदमी का कानून ही निपट लेता है। धर्म का तो किसी और चोरी से प्रयोजन है, जो कानून की पकड़ में नहीं आती; जिसका अदालतें निर्णय नहीं कर सकतीं; जो न्यायाधीश की सीमा के बाहर है।
धर्म का उस चोरी से संबंध है, जो प्रभावों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है, चेहरों की चोरी है। और हम सब चुराए हुए से जी रहे हैं। हम सब ऐसे जी रहे हैं, जैसे हम कोई और हों। हम हम नहीं हैं। मैं मैं नहीं हूं, किसी और की तरह जी रहा हूं।
इस अर्थ में मैंने कहा था कि अचौर्य मनुष्य की आत्मा में निजता की उपलब्धि का मार्ग है, और चोरी मनुष्य की आत्मा के खोने की विधि है। यह भाव के तल पर हो सकती है, विचार के तल पर हो सकती है, शरीर के तल पर हो सकती है।
हम चलते तक नहीं अपने जैसे! हम चलना भी दूसरों से सीख लेते हैं। हम विचार भी नहीं करते अपने जैसा; हम विचार भी दूसरों से सीख लेते हैं! हम भाव भी नहीं करते अपने जैसा; हम भाव भी दूसरों से सीख लेते हैं! सुबह आदमी अखबार पढ़ लेता है और फिर दिन भर अखबार में पढ़ी बातों की चर्चा लोगों से करता रहता है! और उसे कभी खयाल नहीं आता कि वह जो बोल रहा है उसमें उसका अपना कुछ भी नहीं है। गीता पढ़ लेता है, फिर जिंदगी भर दोहराये चला जाता है, और कभी नहीं पूछता लौटकर कि मैं जो बोल रहा हूं, उसमें मेरा कुछ भी नहीं!
सब बोलना, सोचना, उठना, बैठना सब सीखा हुआ है। तो ऐसी जिंदगी में आनंद की वर्षा नहीं हो सकती। ऐसी जिंदगी में अमृत की झलक नहीं मिल सकती। ऐसा आदमी रूखा मरुस्थल होगा। क्योंकि झरने सदा प्राणों से बहते हैं, जिनमें हरियाली पैदा होती है। और जो उधार झरने में जीता है, वह उस आदमी की तरह है जो दूसरे के मकानों को गिनकर सोचता है कि मेरे हैं; जो दूसरों की आंखों को गिनकर सोचता है कि मेरी हैं; जो दूसरों के विचारों को गिनकर सोचता है कि मैं विवेकवान हो गया; जो शास्त्रों को संग्रहीत करके समझता है कि ज्ञान आ गया!
ऐसा आदमी इतनी बुनियादी भ्रांति में जीता है कि अपने पूरे जीवन को व्यर्थ गंवा सकता है। और हम गंवा देते हैं। लेकिन एक बार यह सवाल हमारे सामने उठ जाये, तो यह सवाल हमारा पीछा करेगा कि मैं चोर तो नहीं हूं? और अगर यह सवाल हमारा पीछा करने लगे, तो हमें घड़ी-घड़ी दिखायी पड़ने लगेगा कि अभी जो मैं हंस रहा था, वह हंसी मैंने किसी और के होंठों से सीखी है; कि अभी मैं जो रो रहा था, वे आंसू सच्चे न थे; अभी जो मैंने नमस्कार किया, उस नमस्कार में मेरे प्राणों की कोई आहट न थी; कि अभी जो मैंने प्रेम किया, उसमें प्रेम बिलकुल न था, वह मैंने किसी ड्रामा में पढ़ा था; कि अभी जो मैंने बात कही अपने प्रेमी से, वह मेरा किसी फिल्म में सुना हुआ डायलाग था।
काश! आदमी की जिंदगी में यह सवाल उठ जाये, तो आदमी आज नहीं कल, चोरी से मुक्त होने लगता है; उसकी निजता उभरने लगती है; फिर वह अपने ढंग से हंसता है, जीता है। यह दुनिया बहुत सुंदर हो सकती है। यहां अगर लोग हंसते अपने ढंग से हों, रोते अपने ढंग से हों, सोचते अपने ढंग से हों, तो यह दुनिया बहुत प्राणवान और जीवंत हो सकती है।
अभी यह दुनिया जीवंत नहीं है; मुर्दों का एक बहुत बड़ा संग्रह है, जहां सब मरे हुए जी रहे हैं। यद्यपि हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे ही मुर्दे हैं। हमने भी सुबह अखबार पढ़ा है, पड़ोसी ने भी अखबार पढ़ा है। वह भी अखबार से बोल रहा है, हम भी अखबार से बोल रहे हैं। हमने भी कुरान पढ़ी है, उसने भी कुरान पढ़ी है; वह भी कुरान से बोल रहा है, हम भी कुरान से बोल रहे हैं। उसने भी वहीं से सीखा है, जहां से हमने सीखा है। हमारी बातें तालमेल खाती हैं और ऐसा लगता है कि सब ठीक चल रहा है, लेकिन ठीक कुछ भी नहीं चल रहा है।
इतना दुख नहीं हो सकता, अगर जिंदगी ठीक चलती हो। और जो आदमी अपने को पा ले, उस आदमी की जिंदगी में चाहे और कुछ भी न रहे, अपना होना ही इतना काफी होता है कि कुछ भी न हो, तो भी उसके आनंद को नहीं छीना जा सकता है। उससे सब छीन लिया जाये, लेकिन उसके आनंद को नहीं छीना जा सकता। क्योंकि निजता से बड़ा कोई भी आनंद नहीं है।
जब एक फूल खिलता है अपनी पूर्णता में, तब आनंद की सुगंध चारों तरफ बह उठती है। बस, फूल का पूरा खिल जाना ही उसका आनंद है। आदमी की भी निजता का फूल, इंडीविजुअलिटी का फूल, जब पूरा खिल जाता है, तो जीवन आनंद से भर जाता है। फुलफिलमेंट, आप्त हो जाता है, सब भर जाता है। फिर कुछ भी न हो--धन न हो, यश न हो, पद न हो--तो भी सब कुछ होता है। और यदि यह निजता न हो, तो पद हों बड़े, धन हो बहुत, यश हो काफी, तब भी कुछ नहीं होता, भीतर सब खाली होता है।
आज पश्चिम में एक शब्द की बहुत जोर से चर्चा है। वह शब्द है--एंपटीनेस। आज पश्चिम में जितने बड़े विचारक हैं--चाहे सार्त्र हो, चाहे कामू हो, चाहे मार्सेल हो, और चाहे हाइडेगेर हो--आज पश्चिम के जितने चिंतनशील लोग हैं, वे सब कहते हैं कि हम बड़े रिक्त मालूम हो रहे हैं, हम बिलकुल खाली-खाली हैं। ऐसा लगता है कि हमारे भीतर कुछ भी नहीं है; हम सिर्फ कंटेनर रह गए हैं, कंटेंट बिलकुल नहीं है। हम सिर्फ डब्बा हैं, जिसके भीतर कुछ भी नहीं बचा है। भीतर सब रिक्त है और खाली है।
पश्चिम में आज रिक्तता की बड़ी जोर से चर्चा है; होनी नहीं चाहिए। क्योंकि आज उनके पास धन है बहुत, जितना पृथ्वी पर कभी भी नहीं था। उनके पास महल हैं आकाश को छूते हुए, जिन महलों के सामने अशोक और अकबर के महल झोपड़े हो जाते हैं। उनके पास चांद तक पहुंचने की शक्ति है। उनके पास सारी पृथ्वी को घड़ी आध घड़ी में विनष्ट कर देने का विराट आयोजन है। फिर रिक्तता क्यों है? फिर एंपटीनेस क्यों है? फिर क्या कारण है कि भीतर सब खाली है?
कारण है। बाहर सब है, भीतर कुछ भी नहीं है; आत्मा नहीं है, निजता नहीं है। सब है, सिर्फ आदमी नहीं है। सब है, चांद पर पहुंचने की ताकत है, पर अपने तक पहुंचने की सामर्थ्य नहीं है। धन है बहुत, स्वयं का होना बिलकुल नहीं है। महल हैं बहुत बड़े, पर उसमें रहनेवाला बहुत छोटा, न के बराबर, शून्य!
चोरी का यह परिणाम है। पश्चिम को अचौर्य सीखना पड़ेगा, तो रिक्तता मिटेगी, तो एंपटीनेस मिटेगी। मार्सेल को, कामू को, सार्त्र को निजता, इंडीविजुअलिटी को जगाने के नियम सीखने पड़ेंगे, खोजने पड़ेंगे।
सब जब हो जाये, तभी पता चलता है कि मैं नहीं हूं। और तब जो पीड़ा मन को पकड़ लेती है, वह दुनिया की कोई दरिद्रता नहीं पकड़ा सकती। यह जो अचौर्य है, यह निजता को पाने का सूत्र है; और चोरी स्वयं को खोने का सूत्र है।


आचार्य श्री, आपने कहा है कि हिंदू होना, जैन होना, ईसाई होना, यह सब किसी व्यक्ति के पीछे अनुगमन है, इसलिए यह सब चोरियां हैं। लेकिन हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्ध--क्या ये सब उधार व्यक्तित्व हैं? और क्या ये शाश्वत नियमों पर आधारित विभिन्न संस्कृतियां नहीं हैं? क्या इन विभिन्न संस्कृतियों के बीच जीवन का शुभ फलित नहीं हो सकता है? इसमें आप चोरी कैसे देखते हैं?

हावीर चोर नहीं हैं, उनसे ज्यादा अचोर व्यक्ति खोजना मुश्किल है; लेकिन महावीर जैन नहीं हैं, महावीर जिन हैं। और जिन और जैन के अंतर को थोड़ा समझ लेना उचित है। जिन वह है, जिसने अपने को जीता; जैन वह है, जो जीतनेवाले के पीछे चलता है। गौतम बुद्ध चोर नहीं हैं, उनसे ज्यादा अचोर व्यक्ति खोजना मुश्किल है; लेकिन गौतम बुद्ध बुद्ध हैं, बौद्ध नहीं हैं। बुद्ध वह है, जो जागा है; बौद्ध वह है, जो जागे हुए के पीछे चलता है।
ऐसे ही, जीसस चोर नहीं हैं, लेकिन जीसस, क्राइस्ट हैं। क्राइस्ट का मतलब, जिसने अपने को सूली दे दी और उसे पा लिया, जो स्वयं को मिटाने से उपलब्ध होता है। लेकिन जीसस क्रिश्चियन नहीं हैं। क्रिश्चियन वह है जो सूली पर लटके हुए आदमी के पीछे चलता है। और फर्क बहुत पड़ जाते हैं। जीसस की गर्दन सूली पर लटकती है और ईसाई की गर्दन में छोटा-सा क्रास लटका रहता है। गर्दनों में क्रास नहीं लटकते, क्रासों पर गर्दनें लटकती हैं। जीसस सूली पर चढ़ते हैं, वे क्राइस्ट हैं; क्रिश्चियन अपने गले में एक सोने की सूली लटका लेता है! एक तो सोने के क्रास नहीं होते, सोने की सूलियां नहीं होती; अगर सोने की सूलियां होंगी, तो सिंहासन किस चीज का बनाइएगा? और सूलियां गलों में नहीं लटकाई जातीं, गले सूलियों पर लटकाये जाते हैं। क्रिश्चियन चोर हैं।
मुहम्मद बात और है, मुसलमान बात और है। मुहम्मद दुनिया में हों, यह सुखद है, सुंदर है; मुसलमान दुनिया में हों, यह खतरनाक है। महावीर दुनिया में हों, स्वागत के योग्य हैं; लेकिन जैन दुनिया में हों, खतरनाक है। बुद्ध बात और है, सुगंध और है; बुद्ध को माननेवाला दुर्गंध है, सुगंध नहीं है। इसके कारण हैं।
पहला कारण तो यह कि जैसे ही किसी व्यक्ति ने यह तय किया कि मैं किसी दूसरे के पीछे चलूंगा, वैसे ही वह अपनी आत्मा को खोने वाला हो जाता है। दूसरे के पीछे चलने का उपाय ही नहीं है। असल में दूसरे के पीछे चलने का मतलब यह है कि यह आदमी जीवन की वास्तविक यात्रा से बचना चाहता है। जो जिन नहीं होना चाहता, वह जैन हो जाता है। जो बुद्ध नहीं होना चाहता है, वह बौद्ध हो जाता है। जो क्राइस्ट होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, वह क्रिश्चियन हो जाता है। यह समझौता है। क्रिश्चियन होने में कुछ भी नहीं करना पड़ता है। क्राइस्ट होना, जिंदगी को जोखम में डालना है। जैन होने में क्या करना पड़ता है? जिन होना बड़ी तपश्चर्या है। जैन होने में सिर्फ जिनों की पूजा करनी पड़ती है। पूजा खेल है। जिन होने में पूजा नहीं करनी पड़ती, साधना करनी पड़ती है। साधना संकट है; साधना श्रम है; साधना संकल्प है।
असल में जो व्यक्ति अपनी आत्मा को पाने का श्रम नहीं उठाना चाहता, वह किसी तरह की पूजा करके अपने मन के लिए खेल पैदा कर लेता है। जो व्यक्ति स्वयं को नहीं पाना चाहता, वह किसी दूसरे के पीछे चलने का खेल खेलने लगता है। और दूसरे के पीछे चलकर कोई कभी अपने को पा नहीं सका है। क्योंकि दूसरा सदा बाहर है और मैं कितना ही दूसरे के पीछे चलूं, सारी पृथ्वी घूम आऊं, तो भी मैं भीतर नहीं पहुंच जाऊंगा। अगर मुझे भीतर पहुंचना है, तो बाहर चलना बंद करना पड़ेगा। और अनुगमन सदा बाहर चलना है। अनुगमन में सदा बाहर चलना ही होगा; दूसरा बाहर है, उसके पीछे बाहर ही जाना पड़ेगा।
महावीर किसी के पीछे नहीं जाते, जीसस किसी के पीछे नहीं जाते, कृष्ण किसी के पीछे नहीं जाते। यह बड़े मजे की बात है कि जो लोग किसी के पीछे नहीं गए, उनके पीछे कितने लोग चले जाते हैं! बुद्ध किसी के पीछे नहीं जाते, लेकिन बुद्ध के पीछे बहुत लोग चले जाते हैं। अगर बुद्ध से ही कुछ सीखना है तो कम से कम एक बात तो सीख ही लेनी चाहिए कि किसी के पीछे नहीं जाना है। अगर महावीर से ही कुछ सीखना है, तो एक बात सीख लेनी चाहिए कि किसी की पूजा से कुछ भी होनेवाला नहीं है; क्योंकि महावीर किसी की पूजा में नहीं हैं। अगर जीसस से ही कुछ सीखना है, तो एक बात सीख लेनी चाहिए कि परमात्मा को बिना क्रिश्चियन हुए भी पाया जा सकता है। जीसस तो क्रिश्चियन नहीं थे। अगर मुहम्मद से कुछ सीखना है, तो एक बात पक्की सीख लेनी चाहिए कि परमात्मा का मुसलमान से कुछ लेना-देना नहीं है। मुहम्मद तो मुसलमान नहीं थे। परमात्मा मुहम्मद को भी मिल सकता है, जो मुसलमान नहीं हैं।
जिनके पीछे सारी दुनिया चल रही है, वे किसी के पीछे नहीं चलते। और उनके पीछे हम इसीलिए चल रहे हैं कि हम भी वह पा लें, जो उन्होंने पाया! लेकिन हम देखें तो विज्ञान में कहीं भूल हो गई है, गणित में कहीं चूक हो गई है। उन्होंने पाया ही इसलिए कि वे अपने भीतर जाते हैं, और हम पाना चाहते हैं किसी के पीछे जाकर!
पीछे जाना, बाहर जाना है। इसलिए सब तरह के अनुगमन को मैं चोरी कहता हूं! और इस तरह के अनुगमन से संस्कृति पैदा नहीं हुई। संस्कृति के पैदा होने में उल्टी बाधा पड़ी है। और ये सारे अनुयायी सिवाय लड़ने के इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं करते रहे हैं। इन सारे अनुयायियों ने पृथ्वी को खून और रक्त से भरने के सिवाय फूलों से नहीं भरा है। और चर्च, और मंदिर, और मस्जिद, और गुरुद्वारे मनुष्य को लड़ाने का उपक्रम बन गए, उपकरण बन गए। आदमी का इतिहास धर्मों के युद्धों से भरा है। इन अनुयायियों ने मुहम्मद और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट को मानकर, कृष्ण और क्राइस्ट बनने की तो कोई घटना नहीं घटायी, लेकिन एक-दूसरे की हत्या करने में बहुत कुशलता दिखायी।
यह हत्या बहुत तरह की है। कुछ लोग तलवारों को लेकर कूद पड़ते हैं, और कुछ लोग केवल विचारों की तलवारें चलाते रहते हैं, सिद्धांतों की। जैन मुसलमान के, मुसलमान हिंदू के, हिंदू ईसाई के, ईसाई बौद्ध के सिद्धांतों का खंडन करते रहते हैं। अगर बहुत जोश आ जाये और सिद्धांतों से लड़ाई-झगड़ा ठीक से न हो सके, तो फिर तलवारें भी खिंच जाती हैं।
आदमी बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट के होने की वजह से ज्यादा आनंदित होना चाहिए था, लेकिन इनके होने की वजह से बड़ा उपद्रव हुआ है। बर्ट्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि परमात्मा अगर जीसस को न भेजता, तो क्या हर्जा था? तो कम से कम ईसाई तो न होते। ईसाइयों ने मध्यऱ्युग में सारे यूरोप में लाशें बिछा दीं।
अगर जीसस के लिए बर्ट्रेंड रसल जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को यह प्रार्थना सोचनी पड़ी कि परमात्मा को क्या हर्ज था कि जीसस को न भेजता, इस एक आदमी को न भेजने से पृथ्वी ज्यादा शांत हो सकती थी, कम से कम लड़नेवाला ईसाई तो न होता, तो सोचने जैसा है।
जीसस के आने से पृथ्वी बुरी नहीं हुई। जीसस के आने से तो पृथ्वी में सुगंध बढ़ती; जीसस के आने से तो पृथ्वी पर गीत फैलता; जीसस के आने से तो पृथ्वी धन्यभागी होती; लेकिन हो नहीं पाई, क्योंकि जीसस आए नहीं कि पीछे क्रिश्चियन आ गया। जीसस जो बनाते हैं, क्रिश्चियन मिटा देता है। जीसस कहते हैं, प्रेम करो पड़ोसी को अपने ही जैसा, क्रिश्चियन पड़ोसी के लिए तलवार पर धार रखता है। मुहम्मद कहते हैं कि एक ही परमात्मा है और सभी उसके बेटे हैं; लेकिन मुसलमान उसी के बेटों को काटने निकल पड़ता है। हिंदू कहते हैं, सभी कुछ परमात्मा है, फिर भी शूद्र को छूते वक्त सभी कुछ परमात्मा है, यह वेदांत का खयाल एकदम तिरोहित हो जाता है। बड़े से बड़े ज्ञानी को हो जाता है! मुसलमान के साथ बैठते वक्त सरक कर बैठ जाता है बड़े से बड़ा ज्ञानी, जो कहता है कि ब्रह्म सबमें विराजमान है। अचानक पता चलता है कि ब्रह्म मुसलमान में विराजमान होने से डरता है।
जीसस, कृष्ण, क्राइस्ट, महावीर, बुद्ध, कनफ्यूसियस, इन सबके होने से जगत सौभाग्यशाली था। लेकिन इनके पीछे एक बाढ़ आती है उन उपद्रवियों की, जो संगठन खड़े करते हैं, जो संगठनों को लड़ाते हैं। अनुयायियों के दल खड़े होते हैं, और धर्म राजनीति बन जाता है। जैसे ही धर्म अनुयायियों के हाथ में पड़ता है, संगठित होता है, आर्गनाइज्ड हो जाता है, वैसे ही राजनीति बन जाता है। धर्म संगठन नहीं है। धर्म साधना है। अनुयायी संगठन बनाते हैं। तब साधना एक तरफ और संगठन महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और संगठन के जो बाहर हैं, वे दुश्मन हो जाते हैं। जो संगठन के भीतर हैं, वे अपने हैं; और संगठन के जो बाहर हैं, वे पराये हैं।
और इसीलिए हर धर्म, आदमी को खंडों में बांटता चला जाता है। आज पृथ्वी पर कोई तीन सौ धर्म हैं। आदमी तीन सौ खंडों में बंटा हुआ है। धर्म को तो जोड़ना चाहिए, धर्म तोड़ने के लिए नहीं है। लेकिन कौन तोड़ता है? महावीर तोड़ते हैं? मुहम्मद तोड़ते हैं? दो में से एक ही बात हो सकती है--या तो महावीर ही तोड़नेवाले हैं, और या फिर जैन तोड़ने वाला है। या तो मुहम्मद ही तोड़ते हैं, या फिर मुसलमान तोड़ता है। या तो जीसस ही उपद्रवी हैं, या तो क्रिश्चियन उपद्रवी हैं।
मेरी समझ है कि महावीर, जीसस और मुहम्मद उपद्रवी नहीं हैं। क्योंकि जिनके अपने जीवन में उपद्रव की शांति हो गई, वे किसी दूसरे के जीवन में उपद्रव नहीं बन सकते; वे दूसरे के जीवन में भी शांति का ही संदेश हैं। लेकिन उनके पीछे आनेवाला अनुयायी जब खड़ा हो जाता है...।
और अनुयायी के साथ एक रहस्य है। एक साइंटिफिक सूत्र अनुयायी का समझ लेना चाहिए। और यह बड़ा मजेदार मामला है कि अकसर विपरीत आदमी अनुयायी बनते हैं। अकसर अगर महावीर ने सब छोड़ दिया है, तो महावीर के पास चरणों में वे ही लोग आयेंगे जिनके पास सब है। क्यों? अगर महावीर उपवासे रहते हैं, तो महावीर के पास भोजनभट्ट इकट्ठे हो जायेंगे! उसका कारण है। अगर महावीर को भोजन की कोई चिंता नहीं है, तो जो आदमी भोजन को चौबीस घंटे सोचता है, वह सबसे पहले प्रभावित होता है। सोचता है, यह महावीर बड़ा अदभुत आदमी मालूम होता है! मैं तो चौबीस घंटे भोजन के बारे में ही सोचता हूं, रात सपने में भी भोजन करता हूं। और यह आदमी महीनों भोजन नहीं करता! यह महातपस्वी है! वह महावीर के पैरों में पड़ जाता है। महावीर नग्न खड़े हैं, तो जिसको वस्त्रों से बहुत मोह है, और जो शरीर को जरा भी नग्न करने में असमर्थ है, वह महावीर को मानता है, कि यह आदमी साधारण नहीं है।
इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जैन धर्म के अनुयायी कपड़े की दूकान कर रहे हैं सारे मुल्क में। इसमें महावीर की नग्नता का कुछ न कुछ हाथ है। इसमें जरूर कहीं न कहीं कोई बात है।
इसमें आश्चर्य नहीं है कि ईसाइयों ने सारी दुनिया को तहस-नहस किया, और ईयाइयों ने सारी दुनिया पर साम्राज्य फैलाया। कहां जीसस! जिसने कहा था कि जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना; और जिसने कहा था कि जो तुम्हारा कोट छीन ले, उसे तुम कमीज भी दे देना; और जिसने कहा था, जो तुमसे एक मील तक बोझा ढोने को कहे, तुम दो मील तक चले जाना। इस आदमी को माननेवाले लोग सारी दुनिया पर गुलामी ढा देंगे--ये कोट भी छीन लेंगे, कमीज भी छीन लेंगे; ये दो मील की जगह दो हजार मील लोगों को चला देंगे; ये एक गाल पर भी चांटा मारेंगे और दूसरा गाल भी मोड़कर उस पर भी चांटा मार देंगे--यह कभी जीसस ने सोचा न होगा। जीसस जैसे विनम्र आदमी के पास इस तरह के लोग इकट्ठे हो जाएंगे? लेकिन इकट्ठे हो गए!
असल में विरोधी आकर्षित करता है। जैसे स्त्री के प्रति पुरुष आकर्षित होता है, पुरुष के प्रति स्त्री आकर्षित होती है। इसी भांति जीवन में सब आकर्षण पोलर हैं, सब आकर्षण विरोधी के, अपोजिट के हैं; सब आकर्षण में दूसरा आकर्षित होता है। त्यागी के पास भोगी इकट्ठे हो जाते हैं। तपस्वियों के पास जो तपश्चर्या बिलकुल नहीं कर सकते, वे चरणों पर सिर रखकर बैठ जाते हैं। परमात्मा के खोजियों के पास संसार को पागल की तरह पकड़े हुए लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। और फिर ये ही अनुयायी बनते हैं। इसलिए तत्काल परवर्शन शुरू हो जाता है। तत्काल, जो महावीर ने कहा, जैन उसे विकृत कर डालते हैं। जो जीसस ने कहा, ईसाई उसे नष्ट कर देते हैं। जो मुहम्मद ने कहा, मुसलमान ही उसे मिटानेवाला बन जाता है। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है; लेकिन है। विपरीत आकर्षक है।
इसलिए मैं कहता हूं कि समस्त अनुयायियों को पृथ्वी से विदा हो जाने की जरूरत है। मुहम्मद रहें, बुद्ध रहें, उनकी सुगंध रहे, बीच में अनुयायी न हों। महावीर की चर्चा हो, लेकिन अनुयायी न हों। महावीर की बात लोग सुनें, समझें, पढ़ें, लेकिन कोई इस पागलपन में न पड़े कि कहे, मैं उनका अनुयायी हूं। समझें, पढ़ें, सोचें, आनंदित हों, प्रसन्न हों, नाचें, लेकिन पकड़ें मत। काफी हो चुका पकड़ना, और उस पकड़ने के बुनियादी सूत्र का खयाल न होने से बड़ी कठिनाई हो गई है।
वह बुनियादी सूत्र है कि अपोजिट, विरोधी आकर्षक होता है, और हम उसके पास इकट्ठे हो जाते हैं। वह जो इकट्ठा होना है, वही तत्काल दुश्मन के हाथ में चीज चली जाती है। यह जिंदगी में करीब-करीब ऐसा ही नियम है, जैसे पानी में लकड़ी को डालते ही तिरछी हो जाती है--होती नहीं, दिखायी पड़ने लगती है, तत्काल। पानी और हवा के नियम अलग- अलग हैं। जैसे ही लकड़ी हवा में आती है वापस सीधी हो जाती है। पानी में डालो, फिर तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। महावीर में जो लकड़ी बिलकुल सीधी है, जैन में बिलकुल तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। बुद्ध में जो जीवन सीधा सरल है, बौद्ध में बिलकुल जटिल और तिरछा हो जाता है। मुहम्मद की जिंदगी में जो प्रेम है, वह मुसलमान की जिंदगी में घृणा बन जाता है। जीसस की जिंदगी में जो समर्पण है, वही जीसस के अनुयायी की जिंदगी में आक्रमण बन जाता है। अब अनुयायियों से सावधान होने के लिए काफी इतिहास प्रामाणिक है।
इसका यह मतलब नहीं कि मैं कोई महावीर का दुश्मन हूं। दुश्मन तो उनके अनुयायी हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कोई जीसस का दुश्मन हूं। दुश्मन तो उनके अनुयायी हैं। अगर जीसस को उनकी शुद्धता में बचाना हो, तो अनुयायी के कांच अलग कर देना चाहिए। और किसी आदमी को अनुयायी बनने से कुछ नहीं मिलता। सिर्फ जिसका वह अनुयायी बनता है, उसको भ्रष्ट...उसके सिद्धांतों को, उसके जीवन को विकृत करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर पाता है। वह अपने जीवन को तो ठीक नहीं कर पाता।
मैं अभी एक छोटी-सी कहानी पढ़ रहा था। एक बच्चा अपने पिता से बात कर रहा है। उस बच्चे ने अपनी किताब में से एक कहावत पढ़कर सुनायी है। किताब में लिखा हुआ है कि आदमी उसके संग से पहचाना जाता है। ए मैन इज नोन बाई हिज कंपनी, आदमी अपने संग से पहचाना जाता है। उस लड़के ने अपने पिता से पूछा, क्या यह बात सही है? उसके पिता ने कहा, यह बिलकुल ही सही है। तो उस लड़के ने कहा, अब एक सवाल और पूछना है। एक अच्छा आदमी और एक बुरा आदमी इन दोनों में दोस्ती है। कौन किससे पहचाना जायेगा? बुरा आदमी अच्छे आदमी के साथ है, इसलिए समझना चाहिए कि अच्छा आदमी है? या अच्छा आदमी बुरे आदमी के साथ है, इसलिए समझना चाहिए कि बुरा आदमी है? अब किसको किससे पहचानें? पिता मुश्किल में पड़ गया है!
जीसस पहचाने जा रहे हैं ईसाई के द्वारा, इसलिए जीसस को पहचानना मुश्किल हो गया है। महावीर पहचाने जा रहे हैं जैन के द्वारा, इसलिए महावीर को पहचानना मुश्किल हो गया है। अनुयायी हट जायें, तो इनके फूल अपनी पूरी खूबसूरती में खिल सकें; इनके दीये अपनी पूरी ज्योति में जल सकें; और एक मजा और आ जाए कि हम सारे जगत की संपत्ति के मालिक हो जायें।
अभी जो महावीर को मानता है, वह समझता है कि मुहम्मद उसकी संपत्ति नहीं हैं। और जो मुहम्मद को मानता है, वह समझता है, बुद्ध से मुझे क्या लेना-देना है। उनसे अपना कोई लेना-देना नहीं है। वह और किसी की बपौती हैं, हमारी नहीं। अगर दुनिया में किसी दिन अनुयायी न रहें, तो सारी दुनिया का हेरीटेज, सारी दुनिया की बपौती, प्रत्येक आदमी की बपौती होगी। उसमें सुकरात भी मेरे होंगे, मुहम्मद भी मेरे होंगे, महावीर भी मेरे होंगे। और तब हम ज्यादा संपन्न होंगे। और तब संस्कृति पैदा होगी।
अभी तो संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। अभी तो बहुत तरह की विकृतियां हैं और उन विकृतियों को हम अपनी-अपनी संस्कृति कहे चले जाते हैं। मनुष्य की संस्कृति उस दिन पैदा होगी, जिस दिन सारे जगत का सब कुछ हमारा होगा। सोचें इसे एक और उदाहरण से, तो खयाल में आ जाये।
अगर विज्ञान में भी पच्चीस मत बन जायें, तो दुनिया में विज्ञान बनेगा कि मिटेगा? अगर न्यूटन के माननेवाले एक गिरोह बना लें और आइंस्टीन के माननेवाले दूसरा गिरोह बना लें; और न्यूटन के माननेवाले कहें, आइंस्टीन को हम नहीं मान सकते हैं, क्योंकि इसने हमारे गुरु की बातों के कुछ विपरीत बोल दिया है। और मेस्पलान को मानने वाले तीसरा गिरोह बना लें। और फ्रेडहायल को मानने वाले चौथा गिरोह बना लें। और गिरोह बनते ही चले जायें। अभी दोत्तीन सौ वर्षों में पचास जो बड़े वैज्ञानिक हुए हैं, पचास गिरोह हो जायें, तो विज्ञान विकसित होगा कि मरेगा?
विज्ञान विकसित हो सका, क्योंकि वैज्ञानिकों के कोई गिरोह नहीं थे। वैज्ञानिकों ने जो भी दिया है, वह सब वैज्ञानिकों की सामूहिक बपौती है। धर्म संस्कृति पैदा नहीं कर पाया, क्योंकि धर्म के गिरोह बन गए हैं। धर्म के दुनिया में तीन सौ गिरोह हैं, इसलिए धर्म कैसे पैदा हो? अगर ये गिरोह बिखर जायें...!
महावीर ने भी दिया है, महावीर ने एक कोने से सत्य का एक दर्शन दिया है, बुद्ध ने किसी दूसरे कोने से वह दर्शन दिया है, मुहम्मद ने किसी तीसरे कोने से वह दर्शन दिया है, क्राइस्ट उसी की कोई चौथी खबर ले आए हैं। ये सारी की सारी संपत्तियां हमारी हैं, मनुष्य की हैं; और अगर ये सारी संपत्तियां इकट्ठी हों, और हम सब इसके वसीयतदार हों, तो दुनिया में संस्कृति पैदा होगी। अभी तो संस्कृति नहीं है, सिर्फ खंड-खंड विकृतियां हैं। और अगर यह सारी संपत्ति हमारी हो, तो दुनिया में धार्मिक चित्त पैदा होगा। अभी धार्मिक चित्त नहीं, केवल सांप्रदायिक चित्त है, सेक्टेरियन माइंड है; अभी रिलीजियस माइंड दुनिया में नहीं है।
हां, कभी-कभी कोई एक आदमी धार्मिक पैदा होता है, तो उसके आसपास तत्काल सांप्रदायिक इकट्ठे हो जाते हैं। और वह आदमी जिंदगी भर मेहनत करके जो खोज पाता है, उसके आसपास इकट्ठे लोग थोड़े ही दिनों में उसकी मेहनत नष्ट करके विकृत कर देते हैं।
महावीर किसी के भी नहीं हैं, और बुद्ध किसी के भी नहीं हैं; या सबके हैं। कोई उनका मालिक नहीं है, कोई उनका दावेदार नहीं है; या फिर सब उनके दावेदार हैं। यह स्थिति बने, तो धर्म भी एक विज्ञान बन जाये। धर्म है भी विज्ञान। मेरी दृष्टि में तो परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। लेकिन अब तक बन नहीं पाया है। और धर्म अगर विज्ञान बने, तो जीवन सुसंस्कृत होगा; तो जीवन रिफाइंड होगा; तो जीवन विकसित होगा। अभी तो धर्म विकृति ही बन पाया। क्योंकि संप्रदाय ही निर्मित होते हैं और कुछ भी निर्मित नहीं होता है।
कौन है जिम्मेवार? अनुयायी जिम्मेवार हैं। अगर अनुयायी भी कहीं पहुंच गया होता यह सब उपद्रव करके, तो भी हम कहते। अनुयायी कहीं भी नहीं पहुंच पाता है। कभी पहुंचा नहीं, कभी पहुंच भी नहीं सकेगा, क्योंकि वह मौलिक सूत्र ही भूल गया है।
खोजना है स्वयं को तो भीतर चलना होगा। दूसरे के पीछे जो गया, वह स्वयं को खो सकता है, पा नहीं सकता।


आचार्य श्री, आपने प्याज का उदाहरण देते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के अनेक चेहरे हैं, मुखौटे हैं--चुराये हुए। और यह मुखौटे तो होंगे, और हर हालत में होंगे। केवल भेद करना पड़ेगा सद-मुखौटों का और असद-मुखौटों का। मैं किसी से घृणा करता हूं, लेकिन जब वह मेरे पास आता है तो मैं मुस्कुराकर उसका स्वागत करता हूं। यह मेरा एक बनावटी चेहरा है, जिसे मैं उसके सामने व्यक्त करता हूं। लेकिन साथ ही साथ मेरे मन में असीम पीड़ा है, दुख है, फिर भी मैं मुस्कुराता हूं। तो यह चेहरा, यह मुखौटा, मेरा सद-मुखौटा होगा। मुखौटा तो जरूर होगा।
आपने मृत्यु को समझा, मृत्यु के रहस्य को समझा, और आप जीवन को जी रहे हैं--यह भी एक प्रकार का मुखौटा हुआ। आपने सत्य पर विजय प्राप्त कर ली, असत्य पर विजय प्राप्त कर ली, और सत्य का उदघोष करते हैं--यह भी एक मुखौटा हुआ। और साथ ही साथ, एक बात और कह दूं कि एक बंसी, जिसकी छाती छिदी हुई है, लेकिन उसकी स्वर-लहरी लोगों पर सम्मोहन डाल देती है। क्या वह बांसुरी का मुखौटा नहीं है? पैर की पायल, जिसकी छाती में कंकड़ गड़े हुए हैं, लेकिन जिससे उसकी झंकार निकलती है, जिससे उसमें संगीत उत्पन्न होता है, क्या वह पायल का मुखौटा नहीं है? अगर यही बात है, तो इन दोनों में भेद तो करना पड़ेगा। और इन दोनों का भेद, मैं आपसे प्रार्थना करूंगा, कि आप समझायें कृपा करके। और साथ ही साथ एक बात और कि यदि जीवन एक विराट अंतर-संबंध है, तो व्यक्तित्व अनेक रूपों में, विधाओं में प्रगट होगा। व्यक्तित्व की इस विभिन्नता को आप नकली मुखौटे कैसे कह सकेंगे?
बालक पैदा हुआ। इस जन्म का नहीं, जन्म-जन्मांतर का संस्कार लेकर साथ में आया। मां से उसे प्रेम मिला, वात्सल्य मिला; पिता से उसे ज्ञान मिला, रास्ता मिला, मार्ग मिला; शिक्षक से उसे वाणी समझने को मिली, विचार करने के लिए प्रेरणा मिली; और संसार में जहां-जहां वह घूमा, उसने कई अनुभव प्राप्त किए। वह प्राप्त अनुभव भी क्या चोरी की श्रेणी में आ जायेंगे? और यदि ऐसा हुआ, तो यह व्यक्तित्व कटकर अलग हो जायेगा। वह संस्कार बनाकर अपना निजी व्यक्तित्व फिर कैसे पैदा कर पायेगा, जब तक कि दूसरे व्यक्तित्वों से कुछ न कुछ अनुभव ग्रहण न करे? ये दो प्रश्न मैं आपके सामने रखता हूं।

मुखौटे का, मास्क का, शायद अर्थ ठीक से समझ में नहीं आ सका। आपके मुंह का नाम मुखौटा नहीं है। जब आप अपने मुंह पर नाटक में एक दूसरा मुख लगा लेते हैं-- समझें, रावण का मुंह लगा लेते हैं--तब वह लगाया हुआ मुंह, मुखौटा है। आपका चेहरा मुखौटा नहीं है, लेकिन अपने चेहरे पर जब आप कोई दूसरा नकली चेहरा लगा लेते हैं, जिसकी कोई जड़ें आपके भीतर नहीं होतीं, जिससे आपके प्राणों का कोई भी संबंध नहीं होता, सिर्फ धागे से कान में लटका होता है जो, जिसका हृदय की धड़कन से कोई भी सेतु नहीं होता, तब वह मुखौटा है। मुंह का नाम मुखौटा नहीं है। मुखौटा झूठे मुंह का नाम है, फाल्स फेस का नाम है। पहले तो मुखौटे का ठीक अर्थ समझ लें।
चेहरा मुखौटा नहीं है। लेकिन जरूरी नहीं है कि आप कागज के या प्लास्टिक के बने हुए मुखौटे लगायें, तब झूठा चेहरा पैदा हो। आप इसी चेहरे पर बहुत से झूठे चेहरे पैदा करने में सफल हो जाते हैं। जैसे कहा कि किसी आदमी से मेरी घृणा है, और वह मेरे पास आता है, तब मैं मुस्कुराकर उसका स्वागत करता हूं, पर भीतर घृणा उबलती है। तब यह मुखौटा है। और यह मुखौटा बड़ा खतरनाक है। यह मुखौटा उपयोगी मालूम होता है। इसकी यूटीलिटी दिखायी पड़ती है। इस भांति मैं उस आदमी को अपनी घृणा बताने से अपने को रोक लेता हूं। लेकिन घृणा इससे मिटती नहीं। और खतरा यही है कि मैं उस आदमी को तो धोखा दूंगा ही, धीरे-धीरे मैं अपने को भी धोखा दे लूंगा। और बार-बार झूठी मुस्कुराहट मेरी घृणा को भीतर दबाती जायेगी। और एक दिन मैं भी भूल जाऊंगा कि मैं उसे घृणा करता हूं। बाहर हंसता रहूंगा और भीतर मेरी घृणा छिपी रहेगी।
नहीं, धार्मिक व्यक्ति अगर घृणा अनुभव करता है, तो उसके पास दो ही उपाय हैं: या तो वह घृणा अनुभव न करे तो मुस्कुराये; और अगर घृणा ही अनुभव करनी है, तो कृपा करके मुस्कुराये न, घृणा ही अपने चेहरे से प्रगट कर दे। इसके दो फायदे हैं। यदि वह घृणा अपने चेहरे से प्रगट कर दे, तो घृणा प्रगट करने से जो नुकसान उठाने हैं, वे तो उठाने पड़ेंगे। वे नुकसान उठाने की हिम्मत होनी चाहिए। घृणा प्रकट कर देने से जो नुकसान उठाने पड़ेंगे, घृणा की जो पीड़ा अनुभव करनी पड़ेगी, वही पीड़ा, वही हानि उसे घृणा को बदलने का कारण बनेगी। अन्यथा वह बदलेगा क्यों? जिंदगी में जो नुकसान होंगे घृणा से, जिंदगी में जो बाधा पड़ेगी घृणा से, वही तो कारण बनेगी उसे इस बात के लिए सोचने के लिए मजबूर करने वाली कि वह अपनी घृणा को बदले। क्योंकि घृणा जीवन को नर्क में डाले दे रही है।
लेकिन हम मुस्कुराहट बताकर बाहर स्वर्ग बनाने की कोशिश करते हैं, और भीतर नर्क निर्मित होता चला जाता है। फिर उस नर्क को हम मिटायेंगे कैसे? जिस नर्क की पीड़ा को हम पूरा अनुभव नहीं करते और भीतर छिपा लेते हैं, तो वह पीड़ा मिटने के बाहर हो जाती है।
और एक और मजे की बात है कि जब भीतर घृणा होती है, तो आपके होंठों की मुस्कुराहट से आप ही सोचते होंगे कि आपने मुस्कुराकर दूसरे का स्वागत किया। लेकिन जब भीतर घृणा होती है, तो होंठों पर आई हुई मुस्कुराहट बिलकुल जहरीली हो जाती है, और दूसरा उसे अच्छी तरह देख पाता है कि वह मुखौटा है। बाहर हंस सकते हैं आप, लेकिन भीतर की घृणा को प्रगट होने से रोकना बहुत मुश्किल है। वह प्रगट हो जाती है। होंठ से, आंख से, उठने से, बैठने से, वह सब तरह से प्रगट हो जाती है।
इसलिए जो झूठी मुस्कुराहट थी वह सिर्फ दबाने का काम करती है, उससे कोई कम्युनिकेशन, उससे कोई संदेश नहीं पहुंच पाता। उससे दूसरा प्रसन्न नहीं लौटता है। और कई बार तो दूसरा आदमी इस बात से प्रसन्न ही होगा कि आप एक आथेंटिक और प्रामाणिक आदमी हैं। अगर आपको क्रोध है किसी पर, तो स्पष्ट कह दें कि मुझे क्रोध है, और मैं क्रोधी आदमी हूं। और क्रोध कर लें, और क्रोध की पीड़ा को भोग लें, और क्रोध के परिणाम झेल लें, तो आज नहीं कल, यह क्रोध की अग्नि ही आपको क्रोध के बाहर ले जाने का कारण बनेगी। अन्यथा भीतर क्रोध होगा, बाहर हंसी होगी; और धीरे-धीरे वह क्रोध भीतर इकट्ठा होकर जलाता रहेगा; और बाहर झूठी हंसी, सूखी हंसी, व्यर्थ हंसी फैलती रहेगी निष्परिणाम, बिना किसी परिणाम के। कोई उस हंसी से प्रसन्न नहीं होगा। कोई उस हंसी से आनंदित नहीं होगा। क्योंकि लोग हंसी से आनंदित नहीं होते। हंसी के पीछे पूरा व्यक्तित्व हंसना चाहिए, तभी वह हंसी किसी दूसरे के हृदय को छू पाती है। हंसी के साथ पूरे प्राण हंसने चाहिए, तभी उस हंसी में जीवन होता है। हंसी के साथ सब रोआं-रोआं हंसना चाहिए, तभी उस हंसी में अमृत का वरदान होता है, अन्यथा नहीं होता है।
यह जो हम मुखौटे लगाते हैं, धार्मिक व्यक्ति इन्हीं मुखौटों को उतारने की बात करता है। इसलिए अचौर्य का अर्थ है, ऐसे मुखौटे छोड़ना है। कठिनाई तो होगी, क्योंकि धर्म तपश्चर्या है। धर्म की तपश्चर्या का मतलब धूप में खड़ा होना नहीं है। धर्म की तपश्चर्या का मतलब है जीवन की सब तरह की धूप में खड़े होने की हिम्मत। जब क्रोध है, तो कहें कि क्रोध है। और जब घृणा है, तो कहें कि घृणा है। कम से कम ईमानदार तो बनें। कम से कम सिंसियर तो हों। कह दें कि ऐसा है। उस पीड़ा का अनुभव करें, जीयें उसे। उस जीने में से ही गुजरने से हाथ जलेंगे। जले हुए हाथ ही कल रोकने का कारण बनते हैं। और जिस आदमी पर आपने क्रोध प्रकट किया और कहा कि क्रोध है, जिस आदमी पर आपने घृणा की और कहा कि घृणा है, कल अगर आप उस आदमी के साथ हंसेंगे और प्रेम करेंगे, तो वह समझेगा कि आपमें प्रेम भी है। अन्यथा जिसकी घृणा झूठी है, जो झूठा हंसता है, और जो झूठा रोता है, उसकी जिंदगी में बाकी सब चीजें भी संदिग्ध हो जाती हैं।
इसलिए अगर कभी किसी बाप ने अपने बेटे पर सच-सच क्रोध नहीं किया, तो ध्यान रखना बाप की क्षमा भी बेटा कभी ईमानदारी से स्वीकार नहीं कर पायेगा। वह जानता है, बाप बेईमान है; क्षमा भी पता नहीं...। अगर किसी पत्नी ने अपने पति पर कभी क्रोध नहीं किया, क्रोध को दबाया और छिपाया और मुस्कुराई, तो ध्यान रखना, जब वह सच में भी कभी मुस्कुरायेगी, तब भरोसा करना बहुत मुश्किल होगा; क्योंकि आथेंटिक व्यक्तित्व नहीं है उसके पास। प्रामाणिक व्यक्तित्व नहीं है उसके पास। उसके प्रेम के सच्चे होने की भी संभावना रोज-रोज कम होती जायेगी।
जिसकी घृणा झूठी है, उसका प्रेम सच्चा नहीं हो सकता। जिसका क्रोध झूठा है, उसकी क्षमा सच्ची नहीं हो सकती। जिसकी मुस्कुराहट झूठी है, उसके आंसुओं का क्या भरोसा है? जिंदगी तक सारी की सारी एक झूठ की कहानी हो जाती है।
धर्म इसके खिलाफ बगावत है। धर्म विद्रोह है। धर्म एक रिबेलियन है। धर्म इनसिंसियरिटी के खिलाफ, बेईमानी के खिलाफ ईमानदार होने की घोषणा है। वह कहता है, आंसू होंगे, तो रोयेंगे; मुस्कुराहट होगी, तो हंसेंगे। और जो आदमी इतना ईमानदार होता है, वह बहुत ज्यादा देर तक घृणा से भरा हुआ नहीं रह सकता। उसके कारण हैं। जो आदमी इतना ईमानदार है, वह बहुत दिन तक क्रोध से भरा हुआ नहीं रह सकता। उसके कारण हैं। क्योंकि ईमानदारी इतनी बड़ी घटना है, सिंसियरिटी इतनी बड़ी घटना है कि ऐसे आदमी की जिंदगी में, बेईमानी जहां समाप्त हो गई हो, जहां बेईमानी इनकार कर दी गई हो, वहां क्रोध और घृणा के कांटे लगने मुश्किल हो जाते हैं। क्योंकि बेईमानी बीज है, जिसमें सब कुछ लगता है। अगर वह बीज ही टूट गया, तो बाकी चीजें अपने-आप गिरनी शुरू हो जाती हैं।
यह सिंसियरिटी कि आदमी अपने साथ ईमानदार है, बहुत ज्यादा देर तक क्रोध को बर्दाश्त नहीं कर सकती। क्योंकि जो आदमी अपने साथ ईमानदार है, उसे आज नहीं कल यह दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा कि क्रोध अपने ही हाथ से अपने को ही दुख देना है।
बुद्ध ने कहीं मजाक में कहा है कि जब मैं किसी आदमी को क्रोध करते हुए देखता हूं, तो मुझे बड़ी हंसी आती है। क्योंकि वह आदमी दूसरे की भूल के लिए अपने को दंड दे रहा है। वह कहता है कि इस आदमी ने गाली दी, इसलिए मैं क्रोध कर रहा हूं। गाली उसने दी है, कसूर उसका है, दंड वह अपने को दे रहा है!
क्रोध भीतर जलाता है। कोई आग इतना नहीं जलाती, और कोई आग चमड़ी के भीतर, हड्डियों के भीतर प्रवेश नहीं करती। लेकिन क्रोध की आग आत्मा तक जला डालती है। भीतर सब जला डालती है। भीतर राख कर देती है।
जब एक आदमी साधारण आग में हाथ डालने से हाथ खींच लेता है तो वह आदमी क्रोध की आग में कैसे हाथ डाल पाता है? डाल पाता है इसीलिए, कि उसने कभी पूरी तरह देखा ही नहीं कि वह क्रोध में हाथ डाल रहा है। क्रोध में हाथ डालता है, दिखाता है कि हम फूलों को छू रहे हैं। भीतर घृणा में जलता है, होंठों पर मुस्कुराहट रखता है। यह मुस्कुराहट ही देखता रहता है और अटका रहता है इस मुस्कुराहट में, और हाथ जल जाते हैं भीतर उस आग में।
अगर कोई आदमी झूठी हंसी न हंसे और अपने प्राणों के सारे रुदन को, पीड़ा को, कष्ट को देखे, तो आज नहीं कल, यह जलती हुई आग उसे दिखाई पड़ जाती है। इस दुनिया में इतना नासमझ कोई भी नहीं है कि जो देख ले क्रोध को, देख ले घृणा को, और फिर भी उस में वह रह सके। यह असंभव है। वह उसके बाहर आ जाता है।
इसलिए जब मैंने कहा कि हम मुखौटे लगाकर चोरी करते हैं, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि आप मुस्कुराते हैं तो मुखौटा है। मुस्कुराहट तब मुखौटा होगी, जब भीतर कोई मुस्कुराहट नहीं है, मुस्कुराहट सिर्फ ऊपर है। रोना तब मुखौटा होगा, जब आंसू भीतर बिलकुल नहीं हैं, सिर्फ आंखों में आंसू हैं। स्वागत करना तब मुखौटा होगा, जब भीतर प्राण कह रहे हों कि यह आदमी कहां से आ गया, और बाहर से आप कह रहे हैं, अतिथि देवता हैं। आप आइए, विराजिए! तब अतिथि तो अपमानित होता ही है, देवता भी अपमानित होते हैं।
नहीं, कह दें जैसा है, वैसा ही कह दें। कठिन होगा। वह कठिनाई पैदा होनी ही चाहिए। क्योंकि कठिनाई होगी तो ही मुक्ति होगी। कठिन होगा, घर आए मेहमान से अगर कहें कि आपने बड़े संकट में डाल दिया है; देवता बिलकुल नहीं मालूम पड़ रहे हैं आप--बड़ी कठिनाई होगी, झूठा चेहरा बचाना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन इस कठिनाई को सहने से, आज नहीं कल, अतिथि देवता मालूम पड़ सकता है। क्योंकि इतना जो सरल हो जायेगा उसे ही अतिथि देवता मालूम पड़ सकता है। जो इतना कनिंग है, जो इतना चालाक है कि भीतर कह रहा है कि यह दुष्ट कहां से आ गया, और ऊपर से कह रहा है, आप देवता हैं, विराजिए, घर में आनंद छा गया है! इस आदमी को अतिथि देवता कभी भी मालूम नहीं पड़ सकते। यह आदमी अपने साथ इतनी चालाकी कर रहा है कि यह चालाकी इसे कुटिल कर देगी, जटिल कर देगी, तिरछा कर देगी। इसका सारा व्यक्तित्व तिरछा होता चला जायेगा।
पूरी जिंदगी हम इसी तरह की कुटिलताएं इकट्ठी करते हैं और तब सब झूठा हो जाता है। धार्मिक आदमी इस बात की घोषणा है कि वह जटिलता छोड़ेगा, वह सरल होगा; जैसा है, वैसा ही होगा; जैसा है, वैसा ही दिखलायेगा। तब मुखौटे गिरते हैं। और तब आदमी का असली चेहरा प्रकट होना शुरू होता है।
सबके पास असली चेहरे हैं, लेकिन हमने इतने-इतने मुखौटे उन पर ओढ़े हैं कि हमें खुद भी पता नहीं रह गया कि मेरा असली चेहरा कौन-सा है। आईने के सामने भी जब आप खड़े होते हैं, तो सौ में निन्यानबे मौके यही होंगे कि आईने में जिसको देखकर आप हंस रहे होंगे, वह मुखौटा होगा। आईने में भी हम वही नहीं होते, जो हम हैं। आईने में भी अपने को हम वही दिखलायी पड़ना चाहते हैं, जो हम सोचते हैं कि हम हैं। तो आईने के सामने भी आदमी बन-ठन कर खड़ा हो जाता है!
मैंने सुना है एक औरत के संबंध में कि वह बदशकल थी। कोई उसके सामने आईना कर दे, तो वह आईना तोड़ देती थी। वह कहती थी, कहां का रद्दी आईना सामने ले आए, शकल को बिलकुल खराब किये दे रहा है। आईने तोड़ देती थी, क्योंकि आईने में दिखायी पड़ता था कि शकल बदसूरत है, तो कहती थी कि आईना खराब है।
हम सब भी आईने तोड़ना पसंद करेंगे, शकल बदलनी पसंद नहीं करेंगे। लेकिन आईने तोड़ने से शकलें नहीं बदलती हैं, और आईने तोड़ने से जिंदगी नहीं बदलती। जिसे मैं मुखौटा कह रहा हूं, उससे मेरा यह प्रयोजन है कि झूठे चेहरे जो हम आरोपित कर लेते हैं अपने पर, न करें। इसका यह भी मतलब नहीं है कि जिंदगी में चेहरे बदलेंगे नहीं। जिंदगी में चेहरा रोज बदलेगा, लेकिन वह आपका ही चेहरा होना चाहिए। जब जिंदगी में अंधेरा छायेगा, तो आंखों में आंसू भी आयेंगे; कल जब एक मित्र मर जायेगा, तो आंसू भी आयेंगे। और कल जब दूर का बिछुड़ा हुआ साथी मिलेगा, तो हृदय में धड़कनें भी उठेंगी खुशी की, और गीत भी निकलेंगे। चेहरा तो बदलेगा आपका प्रतिपल। उसे बदलना चाहिए। रिस्पांसिव होना चाहिए। लेकिन वह चेहरा आपका ही होना चाहिए।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि एक ही चेहरा बना कर बैठे रहें। फिर तो पत्थर का चेहरा चाहिए। फिर जिंदगी नहीं चल सकती। फिर तो आपके पास एक चेहरा चाहिए, जो पत्थर का हो...।
मैंने सुना है कि अमेरिका के एक बहुत बड़े करोड़पति के पास एक आदमी दान लेने गया। दान उसने छोटा-सा ही मांगा था। लेकिन उस करोड़पति ने कहा कि मैंने एक नियम बना रखा है: मेरी एक आंख नकली है--पत्थर की, और एक असली है। जो आदमी बता दे कि मेरी कौन-सी आंख नकली है, उसी को मैं दान देता हूं। और अब तक कोई बता नहीं पाया है। तुम बताओ। उस आदमी ने देखा और कहा कि आपकी बाईं आंख नकली है। उस करोड़पति ने कहा, हैरान कर दिया तुमने, कैसे पता चला? उस आदमी ने कहा, बाईं आंख में थोड़ी दया मालूम पड़ती है। मैंने सोचा कि इसे पत्थर की होना चाहिए।
चेहरे सख्त और कठोर नहीं हो सकते। सिर्फ मरे हुए आदमी के कठोर हो सकते हैं, जिंदा आदमी के नहीं हो सकते। बच्चे के चेहरे को देखें, जैसे हवा के झोंके बदल रहे हों, ऐसे बदल रहा है। बूढ़े के चेहरे को देखें, जैसे पथरीला हो गया है। बूढ़े चेहरे का मतलब ही यह होता है कि अब सब कुछ तय हो गया, फिक्स्ड हो गया। अब तरलता नहीं है, लिक्विडिटी नहीं है।
नहीं, जब मैं यह कह रहा हूं कि चेहरे मत बदलें, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि चेहरे को पत्थर का कर लें। मैं यह कह रहा हूं कि नकली चेहरे मत बदलें। आपका असली चेहरा तो बदलेगा, प्रतिपल बदलेगा। जब आकाश में चांद निकलेगा, तब वह और होगा; और जब अंधेरी रात होगी, तब वह और होगा; जब सुबह फूल खिलेंगे, तब और होगा; और जब सांझ फूल झरेंगे, तब और होगा; और जब रास्ते पर एक भिखारी दिखायी पड़ेगा, तब और होगा। होगा ही। होना ही चाहिए।
जिंदगी सेंसिटीविटी है, जिंदगी संवेदनशीलता है, और चेहरा तरल होना चाहिए; लेकिन होना आपका चाहिए। तरलता आपकी होनी चाहिए। वह बदलाहट तो प्रतिपल होती रहेगी, क्योंकि प्रतिपल जिंदगी में सब बदल रहा है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। यहां सब बदल रहा है। इस प्रतिपल हो रही बदलाहट में आप भी बदलेंगे। हवा के झोंके आयेंगे तो पत्ता पूरब की तरफ उड़ेगा, हवा के झोंके आयेंगे तो पश्चिम की तरफ उड़ेगा, हवा रुक जायेगी तो पत्ते ठहर जायेंगे। जिंदगी ठीक वृक्ष पर लटके हुए पत्ते की तरह है। सब प्रतिपल कंप रहा है। जिंदगी में परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई भी स्थिरता नहीं है। जिंदगी में परिवर्तन ही एकमात्र चीज है, जो परिवर्तित नहीं होती है।
हैराक्लाइटस ने कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिवर। तुम एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते हो।
एक ही क्षण में भी दोबारा नहीं उतरा जा सकता है। जिंदगी एक नदी है, इसमें सब बदलता रहेगा। लेकिन वह बदलनेवाली चीज आपकी हो, वह चेहरा आपका हो, वह प्रामाणिक हो। आप हों, फिर भले ही बदलते रहें। बदलना जिंदगी है। और इस बदलाहट में भी अगर उसका स्मरण रह सके, जो भीतर इस बदलाहट को भी देखता रहता है, तो समाधि उपलब्ध हो जाती है।
चेहरा आपका हो; बदलते हुए चेहरे की धारा में पीछे साक्षी, विटनेस भी हो, जो देखता रहे। जो देखे कि जब चांद निकलता है, तो आंखें हंसती हैं; जब अंधेरी रात आती है, तो आंखें रोती हैं; और जब फूल महकते हैं, तो मन नाचता है; और जब फूल झरते हैं, तो प्राण रोते हैं; और जब प्रिय-जन मिलते हैं, तो आनंद मालूम होता है; और जब प्रिय-जन बिछुड़ते हैं, तो दुख मालूम होता है--यह सब देखता रहे पीछे कोई आपके। वह पीछे देखनेवाला भी है।
लेकिन चेहरा आपका हो, तो वह देखता भी रहे। नकली, प्लास्टिक के चेहरों में वह देखे भी क्या! वे नहीं बदलते। जब नकली चेहरा आप बदलते हैं, तो चेहरा बदलना पड़ता है--एक चेहरा हटाकर दूसरा लगाना पड़ता है। जब आपका अपना चेहरा बदलता है, तो वही चेहरा जिंदगी के नए सरअंजाम में, जिंदगी की नई धारा में, नया हो जाता है। चेहरा वही होता है, सिर्फ जिंदगी के नए रिस्पांस, जिंदगी के प्रति नई प्रतिध्वनि, उसे नया कर जाती है। लेकिन भीतर कोई जाग कर देखता रहे, तो धीरे-धीरे बदलता हुआ चेहरा संसार मालूम पड़ने लगता है, और न बदलता हुआ साक्षी ब्रह्म मालूम पड़ने लगता है। तब आप अपने भी पार उठ जाते हैं--बियांड योरसेल्फ--अपने भी पार चले जाते हैं। और जब कोई अपने भी पार चला जाता है, तभी परमात्मा में प्रवेश है।
एक सवाल और पूछ लें।


आचार्य श्री, आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व और चेहरे आरोपित कर लेना सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखंड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आस-पास अनेक नए-नए संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी व परिपक्वता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाइए।

हली बात, अगर कोई व्यक्ति मेरे जैसा होने की कोशिश करे, तो मैं उसे रोकूंगा; उसे मैं कहूंगा कि मेरे जैसा होने की कोशिश आत्मघात है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसा होने की कोशिश की यात्रा पर निकले, तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं, उनका गवाह बनने में मुझे कोई एतराज नहीं है। लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं। मेरा कोई शिष्य नहीं है। मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं, तो मुझे गवाह बन जाने में कोई एतराज नहीं है। लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आये, तो मुझे भारी एतराज है। तो मैं किसी को शिष्य नहीं बना सकता हूं, क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं। अगर कोई मेरे पीछे चलने आये, तो मैं उसे इनकार करूंगा; लेकिन कोई अगर अपनी यात्रा पर जाता हो और मुझसे शुभकामनाएं लेने आये, तो शुभकामनाएं देने की भी कंजूसी मैं करूं, ऐसा संभव नहीं है।
मैं गैरिक वस्त्र नहीं पहनता हूं। मैंने गले में कोई माला नहीं पहनी है। ये जो संन्यासी आपको दिखाई पड़ रहे हैं, इनमें मेरी नकल का कोई कारण नहीं है।
फिर यह भी पूछते हैं आप कि किसी को भी बिना उसकी पात्रता का खयाल किये मैं उसके संन्यास को स्वीकार कर लेता हूं?
जब परमात्मा ने ही हम सब को हमारी बिना किसी पात्रता के स्वीकार किया है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हो सकता हूं? हम सबकी पात्रता क्या है जीवन में? और संन्यास के लिए एक ही पात्रता है कि आदमी अपनी अपात्रता को पूरी विनम्रता से स्वीकार करता है। इसके अतिरिक्त कोई पात्रता नहीं है। अगर कोई आदमी कहता है कि मैं पात्र हूं, मुझे संन्यास दें, तो मैं हाथ जोड़ लूंगा; क्योंकि जो पात्र है उसको संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं है। और जिसे यह खयाल है कि मैं पात्र हूं, तो वह संन्यासी नहीं हो पायेगा। क्योंकि संन्यास विनम्रता का फूल है। वह ह्यूमिलिटी का फूल है। वह विनम्रता में खिलता है।
जो आदमी पात्रता के सर्टिफिकेट लेकर परमात्मा के पास जायेगा, शायद उसके लिए परमात्मा के दरवाजे नहीं खुलेंगे। लेकिन जो दरवाजे पर अपने आंसू लेकर खड़ा हो जायेगा, और कहेगा कि मैं अपात्र हूं, मेरी कोई भी तो पात्रता नहीं है कि द्वार खुलवाने के लिए कहूं; लेकिन फिर भी प्यास है, आकांक्षा है; फिर भी लगन है, भूख है; फिर भी दर्शन की अभीप्सा है; दरवाजे उसके लिए खुलते हैं।
तो मेरे पास कोई आकर संन्यास के लिए कहता है, तो काफी है, मैं कभी उसकी पात्रता नहीं पूछता। क्योंकि जो संन्यासी होना चाहता है, इतनी उसकी इच्छा क्या काफी नहीं है? जो संन्यासी होना चाहता है, इतनी उसकी प्यास, उसकी प्रार्थना क्या काफी नहीं है? क्या इतनी लगन, अपने को दांव पर लगाने की इतनी हिम्मत काफी नहीं है? और पात्रता क्या होगी? प्यास के अतिरिक्त, और प्रार्थना के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? अपने को छोड़ने के अतिरिक्त, समर्पण के अतिरिक्त, सरेंडर के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? लेकिन समर्पण के लिए भी कोई पात्रता चाहिए होती है?
पात्र समर्पण नहीं कर पायेंगे; क्योंकि वे समझते हैं कि वे अधिकारी हैं। लेकिन जिन्हें अपनी अपात्रता का पूरा बोध है, वे समर्पण कर पाते हैं। परमात्मा के द्वार पर जो असहाय हैं, अपात्र हैं, दीन हैं, अयोग्य हैं, लेकिन फिर भी जिनका हृदय प्रार्थना से भरा है, उनके लिए परमात्मा का द्वार सदा ही खुला है। लेकिन जो पात्र हैं, सर्टिफाइड हैं, योग्य हैं, काशी से उपाधियां ले आए हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, तपश्चर्या के धनी हैं, उपवासों की फेहरिस्त जिनके पास है कि उन्होंने इतने उपवास किए हैं, ऐसे व्यक्ति अपने अहंकार को ही भर लेते हैं। और अहंकार से बड़ी अपात्रता कुछ भी नहीं है।
सभी स्वयं को पात्र समझनेवाले लोग अहंकार से भर जाते हैं। सिर्फ अपने को अपात्र समझनेवाले लोग ही निरहंकार की यात्रा पर निकल पाते हैं। इसलिए मैं उनसे उनकी पात्रता नहीं पूछ सकता हूं। फिर मैं उनका गुरु नहीं हूं, जो उनसे उनकी पात्रता पूछूं। वे मेरे पास सिर्फ इसलिए आए हैं कि मैं उनका गवाह बन जाऊं। इस संबंध में दोत्तीन बातें और कहूं। शायद कल इस बाबत और भी आपसे बात करूंगा तो साफ हो सकेगी।
संन्यास मेरे लिए व्यक्ति और परमात्मा के बीच सीधे संबंध का नाम है। उसमें कोई बीच में गुरु नहीं हो सकता। संन्यास व्यक्ति का सीधा समर्पण है। उसके बीच में किसी के मध्यस्थ होने की कोई भी जरूरत नहीं। और परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और एक आदमी उसके लिए समर्पित होना चाहे, तो समर्पित हो सकता है। और फिर अपात्र समर्पण से पात्र बनना शुरू हो जाता है। और फिर अपात्र संकल्प, समर्पण, प्रार्थना से पात्र बनना शुरू हो जाता है।
संन्यासी सिद्ध नहीं है, संन्यासी तो सिर्फ संकल्प का नाम है, कि वह सिद्ध होने की यात्रा पर निकला है। संन्यासी तो सिर्फ यात्रा का प्रारंभ-बिंदु है, अंत नहीं है। वह तो सिर्फ शुभारंभ है। वह तो मील का पहला पत्थर है, मंजिल नहीं है। लेकिन मील के पहले पत्थर पर खड़े आदमी से पूछें, जिसने अभी पहला कदम भी नहीं उठाया, उससे पूछें कि मंजिल पर पहुंच गये हो, तो ही चल सकते हो। तो जो मंजिल पर पहुंच ही गया है, वह चलेगा ही क्यों? और जो नहीं पहुंचा है, वह मंजिल कहां से दिखाये कि मैं मंजिल पर पहुंच गया हूं।
पहला कदम तो अपात्रता में ही उठेगा। लेकिन पहला कदम भी कोई उठाता है, यह भी बड़ी पात्रता है; और पहले कदम की भी कोई हिम्मत जुटाता है, तो यह भी बड़ा संकल्प है।
संन्यास मेरी दृष्टि में बहुत और तरह की बात है। संन्यास मेरी दृष्टि में सिर्फ एक बात का स्मरण है कि मैं अब स्वयं को परमात्मा के लिए समर्पित करता हूं; अब मैं स्वयं को सत्य की खोज के लिए समर्पित करता हूं। अब मैं साहस करता हूं कि धार्मिक चित्त की तरह जीने की चेष्टा करूंगा।
इसलिए ये जो गैरिक वस्त्र आपको दिखाई पड़ रहे हैं, ये उनके स्मरण के लिए हैं, रिमेंबरिंग के लिए हैं, कि उनको स्मरण बना रहे हैं कि अब वे वही नहीं हैं, जो कल तक थे। दूसरे भी उन्हें स्मरण दिलाते रहें कि अब वे वही नहीं हैं, जो कल तक थे।
वस्त्रों की बदलाहट से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी अपने वस्त्र बदल सकता है। गले में माला डाल लेने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी गले में माला डाल सकता है; और माला का उपयोग कर सकता है। गले में डली माला उसके जीवन में आए रूपांतरण की निरंतर सूचना है।
आप बाजार जाते हैं और कोई चीज लानी होती है, तो कपड़े में गांठ बांध लेते हैं। जब भी गांठ याद पड़ती है, खयाल आ जाता है कि कोई चीज लाने को आये थे। गांठ चीज नहीं है; और जिसने गांठ बांध ली, वह चीज ले ही आयेगा, यह भी पक्का नहीं है। क्योंकि जो चीज भूल सकता है, वह गांठ भी भूल सकता है। लेकिन फिर भी जो चीज भूल सकता है, वह गांठ बांध लेता है; और सौ में नब्बे मौकों पर गांठ की वजह से चीज ले आता है।
ये कपड़े, यह माला, यह सारा बाहरी परिवर्तन है, यह संन्यास नहीं है। यह सिर्फ गांठ बांधना है कि मैं एक संन्यास की यात्रा पर निकला हूं; कि उसका स्मरण, कि उसका सतत स्मरण मेरी चेतना में बना रहे। वह स्मरण सहयोगी है।
इस संबंध में कल और आपसे बात कर सकूंगा,
आज के लिए बस।



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