रविवार, 8 अप्रैल 2018

कहै कबीर दीवाना-(ओशो) प्रवचन--09


अंधे हरि बिना को तेरा—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 19 मई, 1975, प्रातः,
श्री ओशो आश्रम, पूना
सूत्र :

अंधे हरि बिना को तेरा, कबन्सु कहत मेरी मेरा।
तति कुलाक्रम अभिमाना, झूठे भरमि कहा भुलाना।।
झूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमिख माहि जर जाई।
जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसार।।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।
ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई, अब हरि बिना और न कोई।।
जब पाप पुण्य भ्रम जारि, तब भयो प्रकाश मुरारी।
कहे कबीर हरि ऐसा, जहां जैसा तहां तैसा।
भूले भरम मरे जिन कोई, राजा राम करे सो होई।

मैं यदि पूछूं, तुमसे, कि संसार कहां है? तो तुम दसों दिशाओं को बताओ। लेकिन संसार वहां है नहीं। वहां तो परमात्मा है। तो शायद तुम भीतर बताओ। ग्यारहवीं दिशा में बताओ। वहां भी संसार नहीं है। वहां भी परमात्मा है। बाहर भी वही है, भीतर भी वही है।
फिर संसार कहां है? बाहर और भीतर के मध्य। जिसे हम मन कहते हैं, सारा संसार वहीं है। मन तो बाहर है, और मन न भीतर है। मन बाहर और भीतर के मध्य खड़ी दीवार है। और सारा संसार मन का विस्तार है।

जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं जो है, तुम्हें वही दिखाई पड़ता है, जो तुम्हारी कामना, तुम्हारी वासना चाहती है। तुम्हारी चाह में सब रंग जाता है। तुम्हारा राग में सब रंग जाता है। और तुम वही देख पाते हो, जो तुम्हारी भीतर की कामना तुम्हें दिखाती है। तुम्हारा देखना शुद्ध नहीं है। दृष्टि निर्मल नहीं है। विकास से भरी है।
विकार का इतना ही अर्थ, कि तुम दर्पण की तरह खाली नहीं हो कि वही दिख जाए, जो है। तुम्हें वही दिखाई पड़ता है जो तुम प्रक्षेप करते हो। कहीं सौंदर्य दिखाई पड़ता है, कहीं तुम्हें कुरूपता दिखाई पड़ती है। कहीं तुम्हें लाभ दिखाई पड़ता है। कहीं तुम्हें हानि दिखाई पड़ती है, ये सब तुम्हारी धारणाएं हैं। ये तुम्हारी वासनाएं हैं।
शुद्ध सत्य सब तरह मौजूद है--बाहर और भीतर। पर मन सबको रंग डालता है।
मैंने सुना है। कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दफ्तर में नौकर था। बूढ़ा आदमी, सत्तर साल, उम्र! लेकिन पुराना नौकर, इसलिए दफ्तर ने उसे जारी रखा। बहुत लोग थे दफ्तर में काम करने वाले। पुरुष थे, स्त्रियां थीं। और स्त्रियों के संबंध में पुरुषों में अक्सर मजाक चलता रहता है।
एक सुंदरतम स्त्री थी दफ्तर में। सावन का महीना आया, तो उसने मुल्ला नसरुद्दीन को कहा कि मुल्ला साहब! यहां और तो कोई दिखाई नहीं पड़ता, जिसे मैं राखी बांधूं। और मेरा कोई भाई नहीं है। बस, आप ही एक सरल मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। तो परसों राखी का त्योहार आता है। मैं आपको राखी बांधूंगी। लेकिन ध्यान रहे, इक्कीस रुपये और साड़ी आपको देनी पड़ेगी।
नसरुद्दीन थोड़ा चिंतित हुआ। माथे पर चिंता की रेखा आई। तो शायद उस स्त्री ने सोचा, कि इक्कीस रुपया और साड़ी महंगी मालूम पड़ती है। तो उसने कहा कि नहीं नहीं, उसकी फिक्र मत करिये। वह तो मैं मजाक कर रही थी। नसरुद्दीन ने कहा, सवाल नहीं है आप गलत समझीं। इक्कीस की जगह बयालीस रुपये ले लेना। एक साड़ी की जगह दो साड़ी ले लेना, लेकिन कम से कम रिश्ता तो मत बिगाड़ो!
भीतर मन है। उसके अपने राग हैं, अपने रंग हैं। दूसरे को तो दिखाई नहीं पड़ते, तुम्हीं को दिखाई पड़ते हैं। तुम्हारा मन दूसरों को दिखाई कैसे पड़ सकता है? तुम किस दुनिया में रहते हो वह किसी को भी पता नहीं चलता। तुम थोड़े से भरो, तो तुम्हें को पता चलना शुरू होगा।
और तुम्हारा मन सारी चीजों को रंग डालता है। किसी को तुम कहते हो मेरा, अपना। किसी को कहते हो पराया। किसी को मित्र, किसी को शत्रु। कौन है मित्र? कौन है शत्रु? जो तुम्हारे वासनाओं के अनुकूल पड़ जाए, वह मित्र। जो तुम्हारी वासनाओं के प्रतिकूल पड़ जाए, वह शत्रु। कोई अच्छा लगता है, कोई बुरा लगता है। किसी के तुम पास होना चाहते हो। किसी से तुम दूर होना चाहते हो। यह सब तुम्हारे मन का ही खुल है।
चेखोव रूस का एक बहुत बड़ा लेखक हुआ। उसने अपने संस्मरणों के आधार पर एक कहानी लिखी। उसके मित्र का लड़का कोई दस साल पहले घर से भाग गया। मित्र धनी था। लेकिन जैसे अक्सर धनी होते हैं, महा-कृपण था। और लड़के को बाप के साथ रास न पड़ी। तो लड़का घर छोड़ कर भाग गया। एक ही लड़का था। जब भागा था तब तो बाप में अकड़ थीं, लेकिन धीरे-धीरे अकड़ कम हुई। मौत करीब आने लगी। दस साल बीत गये। लड़के के लौटने के कोई आसार न मालूम पड़े।
खोजने वाले भेजे। थोड़ा झुका बाप। क्योंकि वही तो मालिक है सारी संपदा का। और मौत कभी भी घट सकती है। कोई पता न चलता था लेकिन एक दिन एक पत्र आया, कि लड़का बहुत मुसीबत में है और पास के ही शहर में है। पिता को बुलाया है। और कहा है, कि अगर आप आ जाएं तो मैं घर लौट आऊंगा। अपने से मेरी आने की हिम्मत नहीं होती। शघमदा मालूम पड़ता हूं। अपराधी लगता हूं।
तो बाप गया शहर। एक शानदार होटल में ठहरा। लेकिन रात उसने पाया, कि होटल के कमरे के बाहर कोई खांसता, खंखारता...तो दरवाजा खोलकर उस आदमी से कहा कि हट जाओ यहां से। सोने दोगे या नहीं? लेकिन रात सर्द। और बर्फ पड़ रही है। और वह आदमी जाने को राजी नहीं है। तो उसने धक्के देकर उसे बरामदे के बाहर कर दिया। फिर जाकर वह आराम से सो गया।
सुबह होटल के बाहर मैदान में भीड़ लगी पाई। कोई मर गया है। तो वह भी गया देखने। कपड़े तो वही मालूम पड़ते हैं, जिस आदमी को रात उसने बरामदे के निकाल दिया था। भीड़ में पास जाकर देखा, तो चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा। यह तो उसका लड़का है!
अपने ही लड़के को रात उसने बाहर निकाल लिया। मन को पता न हो कि वह अपना है, तो अपना नहीं है। मन को पता हो कि अपना है, तो अपना है। सारा खेल मन का है। क्षण भर पहले कोई मतलब न था। यह आदमी मरा पड़ा था। भीड़ लग गयी थी। लेकिन क्षण भर बाद अब बाप छाती पीट कर रो रहा है कि मेरा लड़का मर गया है। और अब यह पीड़ा जीवन भर रहेगी क्योंकि मैंने ही मारा।
खेल सारा मन का है। और अभी सिद्ध हो जाए, कोई दूसरा आदमी आ जाए और कहे कि यह लड़का मेरा है, तुम्हारा नहीं। तुम भूल में पड़ गए। आंसू सूख जाएंगे। प्रफुल्लता वापिस लौट आएगी। क्षण भर में सब बदल जाता है। मन का भाव बदला कि सब बदला।
चेखोज ने एक और कहानी लिखी है, कि दो पुलिसवाले एक राह से गुजर रहे हैं और एक कुत्ते ने एक आवारा आदमी को काट लिया है। कुत्ता भी आवारा है। और उस आदमी ने उसकी टांग पकड़ ली है। और होटल के पास भीड़ लगी है। और लोग कहर हे हैं इसको मार ही डालो। यह दूसरों को भी सता चुका है। पता नहीं, पागल हो। यह कुत्ता एक उपद्रव हो गया है इस इलाके में।
पुलिसवाले भी दोनों उस भीड़ में खड़े हो गए। उनमें से एक बोला कि खतम ही करो, क्योंकि हमको भी रास्ते पर चलने नहीं देता। कुत्ते कुछ सदा के खिलाफ हैं संन्यासियों, पुलिसवालों, पोस्टमैन...जो भी किसी तरह का यूनिफार्म पहनते हैं, उनके वे खिलाफ हैं। वे एकदम नाराज हो जाते हैं। हमको भी रात चलने नहीं देता। भौंकता है, उपद्रव मचाता है। मार ही डालो
तभी दूसरे पुलिसवाले ने गौर से कुत्ते को देख कर कहा, कि सोच कर करना। यह तो पुलिस इन्स्पेक्टर जनरल का कुत्ता मालूम पड़ता है। आवारा नहीं है। मैं भलीभांति पहचानता हूं।
सब रंग बदल गया। वह पुलिसवाला जो कह रहा था कि मार डालो, झपटा उस आवारा आदमी पर और कहा, कि तुमने उपद्रव मचा रखा है। ट्रैफिक को रोक रखा है? छोड़ो इस कुत्ते को। जानते हो, यह कुत्ता किसका है? कितना मूल्यवान है? कुत्ते को उठा कर उसने कंधे पर रख लिया। और उस आवारा आदमी का हाथ पकड़कर कहा कि चलो पुलिस-थाने।
तभी दूसरे पुलिसवाले ने फिर कहा कि नहीं, नहीं भूल हो गई। यह कुत्ता इन्स्पेक्टर जनरल का नहीं है, सिर्फ मालूम पड़ता है। क्योंकि उसके तो माथे पर काला चिन्ह है, इसके माथे काला चिन्ह नहीं है।
कुत्ता फेंक दिया, उस पुलिसवाले ने नीचे और कहा कि कहां का आवारा कुत्ता और मैंने उठा लिया उसको! और उस आदमी से कहा कि पकड़ उसको। खत्म कर इसको। उस आदमी ने फिर उस कुत्ते को उठा लिया। उसका टांग पकड़ ली और पछाड़ने जा ही रहा है। जमीन पर, कि दूसरे पुलिसवाले ने फिर कहा कि नहीं। संदेह होता है कि हो न हो, कुत्ता तो वही है क्योंकि बिलकुल वैसे ही मालूम हो रहा है। फिर बात बदल गई। फिर दोनों झपट पड़े उस आदमी पर कि तुझे लाख दफे कहा कि यहां पर उपद्रव मत कर। छोड़ इस कुत्ते को। फिर कुत्ता कंधे पर है।
ऐसी वह कहानी चलती है। वह कई दफा बदलती है।
और सारी जिंदगी ऐसी कहानी है। मेरा--तो सब बदल जाता है। तेरा--सब बदल जाता है। और जगत वही का वही है। न आकाश तुम्हारा है, न तारे तुम्हारे हैं, न नदी पहाड़ तुम्हारे हैं, न व्यक्ति तुम्हारे हैं। भला तुमसे पैदा हुए हों, तो भी तुम्हारे नहीं हैं। न कोई अपना है, न कोई पराया है। अगर सब हैं तो परमात्मा के हैं। अगर सब में कोई है, तो परमात्मा है। मेरा और तेरे का सारा मन का है। और मन संसार बनाता है।
फिर ध्यान रखना, तुम सोचते हो शायद कि एक संसार है, जिसमें हम सब रहते हैं; तो तुम गलती में हो। यहां जितने मन हैं, उतने ही संसार हैं। यहां जितने लोग हैं, उतने ही संसार हैं।
और एक-एक आदमी के भीतर भी एक ही मन होता तो आसानी थी। एक-एक आदमी के भीतर अनेक मन हैं। सुबह तुम्हारा मन कुछ और है, दोपहर कुछ और है। सुबह तुम अपनी पत्नी के लिए मरने के लिए तत्पर थे, कि तेरे बिना क्षण भर न जी सकूंगा। दोपहर कहते हो कि तेरे साथ न जी सकूंगा। सांझ फिर हवा बदल जाएगी। मौसम बदल जाएगा। सांझ फिर तुम बड़े प्रेम से पत्नी के पास बैठे हो। जैसे पुलिस वाला तुम्हारे कान में बार-बार दोहराए जा रहा है, कि यह अपनी है। फिर कहता है कि नहीं, अपनी नहीं है, दुश्मन है।
इससे तो उपद्रव खड़ा हो गया है। पूरे वक्त तुम्हारा मन कुछ न कुछ कहे जा रहा है। और मन भी एक नहीं है तुम्हारे भीतर, अनेक हैं। महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है, पोली साइकिक है। एक ही मन होता तो भी हल कर लेते। हजार मन हैं। इसलिए तुम्हें कुछ भी भरोसा नहीं है कि तुम किसकी मान कर चलो। तुम्हारे भीतर कोई एक आवाज नहीं है, हजार आवाजें हैं। सभी का मिश्रित कोलाहल है। एक बाजार हो तुम, एक भीड़ हो।
तो एक-एक आदमी के भी बहुत से संसार हैं। और फिर इतने लोग हैं जमीन पर, इन सब के संसार हैं।
सत्य दिखाई पड़ेगा, तो एक होगा। असत्य व्यक्तिगत होते हैं। सत्य सार्वजनिक होता है। सत्य युनिवर्सल है, सार्वभौम है। तुम्हारा सत्य और मेरा सत्य अलग नहीं हो सकता। तुम्हारा असत्य तुम्हारा, मेरा असत्य मेरा। असत्य निजी होता हैं--प्रायव्हेट। सत्य तो निजी नहीं होता। सत्य तो सार्वभौम होता है। इसलिए जहां भी तुम पाओगे, कि तुम्हारे सत्य में किसी तरह का निजीपन है, वहीं संदिग्ध हो जाना। सत्य कहीं निजी हुआ है? सत्य तो सबका है। सत्य में सब हैं।
इसलिए अगर तुम कहो, कि मेरा धर्म हिंदू है तो संदिग्ध हो जाना। तुम्हारा धर्म तुम्हारे मन का खेल होगा। क्योंकि वह मुसलमान के विपरीत है। तुम्हारा धर्म अगर जैन है, तो वह हिंदू के विपरीत है। तुम्हारा धर्म अगर सिक्ख है, तो वह जैन के विपरीत है। और धर्म तो सत्य का होगा तुम्हारा और पराये का नहीं। मेरा और तेरा नहीं। जिस दिन व्यक्ति धार्मिक होता है, उस दिन उसके धर्म में सब लीन हो जाते हैं। सब कुरान, सब बाइबिल, सब वेद। उस दिन उसके पास सार्वभौम सत्य होता है।
लेकिन यह तभी हो पाता है, जब मन खो जाता है। मन तो सार्वभौम में उठने न देगा। मन संसार है। अमन संसार के पार हो जाना है। मन से मुक्त होना, संसार से मुक्त होना है। और तब तुम्हारा सत्य तुम्हारा न होगा, सभी का होगा। आदमियों का ही हनीं, वृक्षों का भी होगा, पत्थरों का भी होगा, चांद तारों का भी होगा। क्योंकि सत्य तो एक है। सत्य तो अस्तित्व का प्राण है। वह कोई मन की धारणा नहीं है। वह तो जीवन की धारा है।
इसलिए शुद्ध धर्म सिर्फ धर्म होगा, न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई। हिंदू, मुसलमान, ईसाई मन के खेल हैं। चर्च, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वार मन की बनावटें हैं। वह मन का ही जाल है।
तुमने धर्म तक को मन से देखा है। इसलिए धर्म भी बंट गया। मन से तुम जो भी चीज देखोगे, वह तत्क्षण बंट जाएगी।मन बांटने की प्रक्रिया है। मन तोड़ने का ढंग है। तुमने कभी कांच का टुकड़ा देखा हो, प्रिज्म कहते हैं। उसमें से सूरज की किरण निकालो, वह सात रंगों मग टूट जाती है। इंद्रधनुष बन जाता है। टुकड़े के पहले, कांच के टुकड़े से गुजरने के पहले तो किरण एक थी, शुभ्र थी, श्वेत थी। टुकड़े से गुजरते ही सात हिस्सों में टूट जाती है। सतरंगा जाल फैल जाता है। इंद्रधनुष बन जाते हैं।
मन कांच का टुकड़ा है, प्रिज्म है। जीवन-चेतना की किरण कांच के इस टुकड़े में से निकल कर सात रंगों में टूट जाती है। उसका श्वेतपन खो जाता है। उसकी निर्दोषता, सरलता, कुंवारापन खो जाता है। फिर सात रंग हो जाते हैं। संसार यानी सात रंग। संसार यानी मन के द्वारा देखा गया सत्य। संसार यानी धारणाओं, वासनाओं, कामनाओं के पद के पीछे से झांका गया परमात्मा।
मन भ्रांति है। और मन की भ्रांति से संसार की विराट भ्रांति पैदा होती है।
मन न तो भीतर है क्योंकि भीतर तो परमात्मा है; और मन न बाहर है,, क्योंकि बाहर भी परमात्मा है। तो मन दोनों के बीच में है।
मन को हम क्या कहें? हिंदुओं ने माया कहा है। माया शब्द समझने जैसा है। माया का मतलब झूठ नहीं होता, माया का मतलब भ्रम नहीं होता, माया का मतलब होता है, सच और झूठ के बीच। भ्रम और यथार्थ के बीच।
मन को बिलकुल झूठ भी तो नहीं कह सकते, क्योंकि है। और कितने जन्मों से तुम्हें भटका रहा है। झूठ कैसे भटका सकता है? अगर होता ही नहीं, बिलकुल न होता, तो इतना विराट संसार जो तुम अपने चारों ओर निर्मित कर लेते हो कैसे निर्मित कर लेते? मन है तो। नहीं है, ऐसा कहना तो उचित न होगा। लेकिन परमात्मा जैसा है, ऐसा कहना भी उचित न होगा क्योंकि शाश्वत नहीं है, क्षणभंगुर है। बनता है, मिटता है। फिर बनता है फिर मिटता है।
सागर की तरह नहीं है, बुलबुले की तरह है। बुलबुला उठता है, फूटता है। बनता है, मिटता है। और बुलबुले से अगर तुमने संसार को देखा, तो तुम न तो बाहर जीते हो, न भीतर जीते हो। वह तो एक ही चीज है बाहर और भीतर। तुम मध्य में जीने लगते हो।
यह जो मध्य की दशा है, सपने जैसी है।सपना होता तो है, अन्यथा तुम देखते कैसे रात? किसी रात सुबह उठ कर तुम कहते हो, कि आज कोई सपना नहीं देखा और किसी रात कहते हो आज सपने देखे। सपना था तो! देखा है, याद भी करते हो। बता भी सकते हो। थोड़ी याददाश्त है कि ऐसा-ऐसा हुआ सपने में। है तो, लेकिन सुबह जागकर यह भी पता चलता है कि नहीं भी है।
सपना बड़ी बेबूझ पहले है। है कहो, तो गलत। नहीं है कहो, तो गलत। कुछ ऐसा है कि जैसा भी; और कुछ ऐसा है कि नहीं है जैसा भी। मध्य में है। आधा-आधा है। आधा सच है, आधा झूठ है। थोड़े से गुरु उसमें सच्चाई के हैं, क्योंकि देखा गया। और थोड़े से गुड उसमें असत्य के हैं, क्योंकि पाया नहीं गया।
देखा गया और पाया नहीं गया--यह सपना है।
देखी गई और पाई नहीं गई--यह माया है।
देखा गया और कभी उपलब्ध न हुआ--यह संसार है।
हमेशा लगा कि है; और जब भी पास गए, तो पाया कि नहीं है। दूर से मालूम पड़ा। पास आ कर खो गया। इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है। तुम जरा पास जाने की कोशिश करो। जैसे-जैसे तुम पास जाओगे, इंद्रधनुष खोने लगेगा। अगर तुम ठीक वहीं पहुंच जाओ जहां इंद्रधनुष था, इंद्रधनुष खो जाएगा। दूर से ही दिखाई पड़ता है। दूसरी चाहिए। पास आने से मिट जाता है।
सपना तुम मूर्च्छित रहो, तो दिखाई पड़ता है। होश आ जाए, तो टूट जाता है। इतना भी होश आ जाए कि मैं सपना देख रहा हूं, सपना टूट जाता है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था, कि जब तक तुम सपना न तोड़ पाओगे, तब तक तुम माया भी न तोड़ पाओगे। और वह ठीक कहता था। और उसने बड़ी अनूठी प्रक्रिया खोजी थी। वह कहता था कि तुम संसार को न तोड़ पाओगे न संसार से मुक्त हो पाओगे अभी तुम सपने से नहीं मुक्त हो सके। संसार से मुक्त होना तो बड़ी दूर की बात है। संसार तो बहुत विराट सपना है, जिसे तुमने जन्मों-जन्मों से देखा है। इतनी बार देखा है कि वह तुम्हारे देखने-देखने से सत्य हो गया है। इतनी परतें जम गई हैं तुम्हारे अनुभव की संसार के साथ, कि आज बिलकुल असंभव है। मानना कि नहीं है। पहले तुम सपना तोड़ो।
तो गुरजिएफ कहता था, अपने साधकों को, वह मैं तुमसे भी कहता हूं, बड़ा कीमती प्रयोग है। करो, तो बड़े परिणाम हो सकते हैं।
सोते वक्त रोज पांच-सात मिनिट, जैसे ही तुम्हें लगे कि अब नींद आने के करीब है, पांच-सात मिनट में आ जाएगी, तुम एक बात भीतर स्मरण रखने की कोशिश करो, कि जो भी मैं देखूंगा, जानूंगा कि यह सपना है...जो भी मैं देखूंगा, जानूंगा कि यह सपना है।
तीन महीने तक कोई परिणाम नहीं होंगे। तीन महीने तक तुम दोहराओगे, लेकिन रात सपने में भूल जाओगे। सुबह उठकर याद आएगी कि सोचा था कि जो भी देखूंगा, स्मरण रखूंगा कि सपना है; लेकिन स्मरण न रहा। सपने में पकड़ लिया।
लेकिन तीन महीने के बाद धीरे-धीरे थोड़ी थोड़ी भान की अवस्था आनी शुरू होगी। थोड़ा सा शक पैदा होना शुरू होगा। थोड़ा सा संदेह सरकेगा। सपना भी चलेगा और थोड़ी सी भीतर बेचैनी मालूम होती कि कुछ गड़बड़ है। अभी साफ नहीं होगा कि सपना है। लेकिन एक बेचैनी, कुछ है जो ठीक नहीं मालूम हो रहा, कुछ गड़बड़ है। कुछ उलझ रहा हूं जाल में। ऐसा एक धीमा-धीमा बोध उठना शुरू होगा।
अगर तुमने सतत प्रयास जारी रखा तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, छह महीने पूरे होते-होते किसी दिन अचानक ठीक बीच सपने में, नींद न टूटेगी और तुम जाग जाओगे। क्योंकि नींद टूट जाए, फिर तो कोई मतलब नहीं।
नींद टूट जाए, तब तो किसी को भी पता चल जाता है कि सपना था, लेकिन वह पता चलता है सपने में संबंध में जो जा चुका है। उसका कोई मूल्य नहीं है। मूल्य तो वर्तमान का है। अभी इस क्षण का है। एक दिन तुम पाओगे, तीन और छह महीने के बीच किसी दिन अचानक तुम पाओगे कि नींद तो लगी है, तुम भीतर जाग गए। तुम देख रहे हो कि यह सपना है। जैसे ही तुमने देखा है कि यह सपना है, सपना तिरोहित हो जाता है। खाली जगह छूट जाती है। और कहां से सपना तिरोहित होता है और वह जो खाली जगह छोड़ जाता है, वही अ मन है। वह पहली झलक है नो माइंड की। मन के न होने की पहली झलक है।
फिर इसको तुम बढ़ाए चले जाओ। धीरे-धीरे यह रोक का क्रम हो जाएगा। जैसे ही सपना पकड़ेगा, क्षण भी न बीतेगा कि तुम जाग जाओगे। सपना टूट जाएगा। नींद जारी रहेगी। और तुम पाओगे कि नींद में अगर सपना टूट जाता है, तो जागने में विचार टूटने लगते हैं। जैसे ही तुम जागने में विचार करोगे, अचानक भीतर कुछ होश से भर जाएगा और कहेगा कि ये विचार हैं, यह भी सपना है। विचार भी रुक जाएगा।
अगर नींद में सपना टूट जाए, जागने में विचार टूट जाए, तो तुम्हारा संसार छूट गया।
संसार छोड़ने के लिए हिमालय जाने से कुछ भी नहीं होता; घर छोड़ कर विरागी हो जाने से कुछ भी नहीं होता। क्योंकि घर थोड़े ही संसार है! पत्नी, बच्चे, पति थोड़े ही संसार हैं! संसार तो तुम्हारे भीतर देखने के ढंग में छिपा है। मूर्च्छा में छिपा है। तो तुम जहां जाओगे, क्या फर्क पड़ता है? तुम हिमालय चले जाओगे। तुम एक वृक्ष के नीचे कुटी बना लोगे, वह कुटी तुम्हारी हो जाएगी, जैसे महल तुम्हारा था। अब अगर कोई आकर उस कुटी पर अड्डा करने लगेगा, झगड़ा खड़ा हो जाएगा। मार-पीट हो जाएगी। वहीं फौजदारी हो जाएगी। कोई अदालत की थोड़े ही जरूरत है फौजदारी के लिए; कि शहर की जरूरत है, कि कानून की जरूरत है। तुम लड़ पड़ोगे कि यह झाड़ मेरा है। मैं पहले से ही यहां हूं। हटो यहां से। मेरा वही पकड़ लेगा। कोई तुम्हारे पैर दबाने लगेगा। वह तुम्हारा सपना हो जाएगा, वह बीमार होगा, तो तुम दुखी होने लगोगे। वह मरेगा तो तुम रोओगे। घर बस गया। गृहस्थी पैदा हो गई।
एक संन्यासी मरण शैया पर पड़ा था। और उसके शिष्यों ने पूछा कि हमारे लिए कोई आखिरी संदेश? तो उसने कहा कि जो मेरे गुरु ने मुझसे कहा था और मैंने नहीं माना, वही मैं तुमसे कहता हूं। तुम कोशिश करना मानने की। मैं असफल रहा।
सब जाग कर बैठ गए कि कोई बहुत महत्वपूर्ण बात, जो गुरु ने उसको कही थी और वह भी न मान पाया। और वह हमसे कह रहा है। उसने कहा कि तुम बिल्ली कभी मत पालना। शिष्य थोड़े हैरान हुए, कि यह कौन सा ब्रह्मज्ञान? वेद में भी इसका उल्लेख नहीं, कुरान में भी नहीं, बाइबिल में भी नहीं, यह कौन सा धर्म? क्या मरते वक्त तुम्हारा दिमाग गड़बड़ हो गया? सन्निपात में हो? हम पूछ रहे हैं कि कोई कुंजी दे जाओ--सूत्र, और आप बता रहे हैं कि बिल्ली मत पालना। सठिया गए हो?
उसने कहा कि नहीं; यही मेरे गुरु ने कहा था और मैं न मान पाया मैं तुम्हें अपनी कहानी कहे देता हूं। तुम याद रखना।
गुरु ने करते वक्त--यही मैंने उनसे कहा था, कि क्या करूं? कोई संदेश, सारसूत्र? उन्होंने कहा कि बिल्ली मत पालना। मैंने भी समझा कि सठिया गए। दिमाग खराब हो गया मरते वक्त। उम्र भी ज्यादा हो गई थी। कोई नब्बे वर्ष थी उम्र। अब दिमाग ठीक काम नहीं कर रहा है। बिल्ली पालने से क्या संबंध? लेकिन वहीं भूल हो गई। मैंने समझा कि दिमाग खराब है, वहीं चूक गया।
फिर बरसों बीत गए। मैं सब छोड़ कर जंगल में रहने लगा। साधना करता था। शास्त्र पढ़ता था। मनन, ध्यान में लगा था। कुछ पास न था, बस दो लंगोटियां थीं। लेकिन चूहे झोपड़ी में थे और लंगोटी काट जाते। तो मैंने गांव के लोगों से कहा--जो आते थे कभी-कभी भोजन लेकर, फल लेकर--कि क्या करूं? उन्होंने कहा कि एक बिल्ली पाल लो।
और मुझे याद भी न आई कि मरते वक्त गुरु कह गया कि बिल्ली मत पालना। बात कुछ कठिनाई की भी न लगी। सीधी-साफ थी, निर्दोष थी। बिल्ली पालने में झंझट भी क्या? बिल्ली कोई गृहस्थी है? कोई ज्ञानी नहीं कह गया कि बिल्ली में गृहस्थी है। ज्ञानियों ने कहा कि पत्नी मत पालना, पत्नी मत पालना। बिल्ली मत पालना, किसी ने कहा है? और बिल्ली से अपना क्या लेना-देना? चूहों और बिल्ली का निपटारा हो जाएगा।
बात जंच गई। बिल्ली पाल ली। लेकिन बड़ी कठिनाई। बिल्ली को कभी चूहे मिलते, कभी नहीं भी मिलते। बिल्ली भूखी रहती, तो उस को भी पीड़ा होती। उसने गांव के लोगों से कहा कि क्या करूं? उन्होंने का कि ऐसा करो, एक गाय ठीक रहेगी। आपके भी काम आ जाएगा दूध। और बिल्ली के भी काम आ जाएगा। स्वभावतः गाय पाल ली गई।
अब गाय के लिए घास चाहिए थी। कभी गांव के लोग लाते, कभी न भी लाते। तो उसने कहा कि अब यह बड़ी मुसीबत हो गई। अब गाय की चिंता करनी पड़ती है घास चाहिए, भोजन चाहिए, पानी चाहिए। उन ने कहा कि आप ऐसा करो कि बैठे-बैठे कुछ काम भी तो नहीं है। थोड़ा घास के बीज बो दो, थोड़े गेहूं भी डाल दो। आपके भी काम आएंगे, बिल्ली के भी काम पड़ेंगे। गाय के भी काम पड़ेंगे।
रास्ता खुल गया बिल्ली से। गाय आई। खेत लग गया। लेकिन कभी संन्यासी को, तबियत ठीक न होती तो भी मजबूरी से खेत पर का करना पड़ता। पानी देना है, या बीज बोने का वक्त आ गया। धीरे-धीरे खेती महत्वपूर्ण हो गई। ध्यान धारणा कोने में पड़ गए। समय ही न मिलता। कभी वर्षा न होती तो पानी खींचना पड़ता। लोगों से पूछा कि अब क्या करना? मैं बूढ़ा भी हुआ जाता हूं। लोगों ने कहा कि ऐसा करें, गांव में एक लड़की है, उम्र भी ज्यादा होगी। विवाह होता नहीं। उसको आपकी सेवा में छोड़ देते हैं।
कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ा। लड़की सेवा में आ गई। लड़की खेत भी सम्हालने लगी। बिल्ली की भी देखभाल करती। गाय की भी देखभाल करती। सेवा वही करती। थक जाता तो पैर भी दबाती, दवा भी देती। धीरे-धीरे मोह जगा। प्रेम बना। बिल्ली सब ले आई। पूरा संसार ले आई।
आखिर एक दिन गांववाले खुद ही आ गए कि अब यह ठीक नहीं है। क्योंकि आप राग बन गया और यह जरा अनैतिक है। तो आप शादी ही कर लो, जब राग ही बन गया है।
संन्यासी ने कहा कि बात भी ठीक है। शादी हो गई। बच्चे हो गए। मरते वक्त उसे याद आया कि गुरु ने कहा था, बिल्ली मत पालना।
उसने कहा कि मैं तुमसे भी कहता हूं कि बिल्ली मत पालना और ध्यान रखना कि मैंने भी यही भूल की थी। समझा था कि गुरु सठिया गया। डर है कि तुम भी यही सोचोगे और बिल्ली पाल लोगे।
असल में गुरु ने जरा गलत बात बताई। अगर मैं होता, तो उससे कहता कि लंगोटी मत रखना। क्योंकि बिल्ली तो जरा दूर का मामला है। लंगोटी हो तो चूहे आएंगे। चूहे हों तो बिल्ली आएगी। वह लंगोटी से असल में झंझट शुरू हुई। तुम अगर किसी को समझाओ, तो लंगोटी का बताना। बिल्ली का मत बताना। वह सूत्र काम नहीं पड़ा।
असल में कोई भी एक चीज सब ले जाएगी। क्योंकि संसार का सवाल नहीं, मन का सवाल है। तुम कहां भाग कर जाओगे? तुम जहां भी जाओगे, कम से कम तुम तो रहोगे। तुम्हीं लंगोटी हो। और अगर तुम हो तो सब है। तुम हो तो लंगोटी आ जाएगी। लंगोटी चूहे ले जाएगी, चूहे बिल्लियां, बिल्लियां, गाएं; और संसार बढ़ता जाता है।
तुम्हें पता भी नहीं चलता, एक-एक कदम बढ़ता है। इतना आहिस्ते-आहिस्ते बढ़ता है कि तुम्हें पता भी नहीं चलता कि कोई बढ़ती हो रही है। कभी एकदम से तो संसार तुम्हारे ऊपर झपटता नहीं। अगर लंगोटी से सीधी पत्नी आई होती तो दिखाई पड़ जाता। क्योंकि बीच में एक छलांग होती। सीढ़ियां थीं।
संसार सीढ़ियों में आता है और परमात्मा छलांग से। संसार के आने का ढंग क्रम है। और परमात्मा के आने का ढंग अक्रम है। संसार धीरे-धीरे आता है क्योंकि अगर छलांग से आएगा तो सोए हुए लोग भी जग जाएंगे। परमात्मा छलांग से आता है क्योंकि सोयों को जगाना ही है। सोयों को सुलाए नहीं रखना है।
इसलिए जीवन की जो परम धन्यता है, वह एक छलांग में हो जाती है। और जीवन का जो रोग है, नर्क है, वह इंच-इंच आता है। धीरे-धीरे आता है। वह इतने चुपचाप आता है कि उसकी पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। कहां से आता है, यह भी समझ में नहीं आता।
लंगोटी मत पालना। लेकिन अगर तुम हो तो लंगोटी पालनी पड़ेगी। इसलिए अगर ठीक से समझो तो तुम ही लंगोटी हो। जब तक तुम न मिट जाओगे तब तक संसार नहीं मिट सकता। तुम यानी तुम्हारा मन। तुम यानी तुम्हारा अहंकार। तुम यानी तुम्हारा यह भाव कि मैं हूं। जहां मैं है, वहां संसार है। जहां मैं नहीं वहां संसार नहीं।
इसलिए ध्यान रखो, जिन-जिन चीजों से तुम्हारा मैं बढ़ता हो, जिन-जिन चीजों से तुम्हारे मैं को शक्ति मिलती हो, अहंकार पुष्ट होता हो, उनसे सावधान भर सकता है। सावधान होना।
तुम्हारे पास लाखों रुपए हैं, वह तुम्हारी अकड़ है। तुम छोड़ दो लाखों रुपए, तुम्हारी नई अकड़ पैदा हो जाएगी कि मैंने लाखों छोड़ दिए। और दूसरी अकड़ पहले से ज्यादा होगी। क्योंकि लाखों तो कई के पास हैं, लेकिन लाखों छोड़नेवाले कई नहीं हैं। वे तो बहुतों के पास हैं, उस अकड़ में कोई जान नहीं है। लेकिन लाखों छोड़नेवाले तो विरले हैं। तब अकड़ और बढ़ जाएगी।
ध्यान रखना, अगर तुमने अहंकार के प्रति जागरण न सम्हाला, तो तुम जो करोगे वह अहंकार से ही होगा। भोग भी, त्याग भी, संसार भी, वैराग्य भी। और तुम्हारा अहंकार तो पुष्ट होता चला जाएगा। शरीर को हो सकता है तुम मार डालो बिलकुल, लेकिन मन तुम्हारा बढ़ता जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बहुत मोटी थी। डाक्टरों से सलाह ली। तो डाक्टर ने कहा कि घुड़सवारी ठीक होगी। तो रोज सुबह घुड़सवारी पर जाए। महीने भर बाद नसरुद्दीन को डाक्टर ने पूछा, राह पर मिला; क्या हाल है? क्या खबर? कुछ हुआ?
नसरुद्दीन ने कहा, बेचारी सूख कर कांटा हो गई। डाक्टर ने कहा, मैंने पहले ही का था--प्रसन्न होकर कहा। नसरुद्दीन ने कहा, आप समझे नहीं। पत्नी नहीं, घोड़ी! पत्नी तो और मुटा रही है।
 घोड़ी को मत सुखा डालना। शरीर घोड़ी है। उसको कितना ही उपवास करवाओ, कुछ हल न होगा। पत्नी तो मुटाती चली जाएगी। वह अहंकार है तुम्हारे भीतर।
तो जिनको तुम त्यागी कहते हो, वे शरीर को मार डालते हैं। कम खाते हैं कम सोते हैं, भूख ताप सहते हैं, लेकिन भीतर का अहंकार बढ़ता जाता है। जितना वजन शरीर में कम होता है उतना वजन अहंकार में बढ़ता जाता है। इसलिए त्यागीत्तपस्वियों से ज्यादा अहंकारी आदमी तुम्हें कहीं भी न मिलेंगे। वे तो अहंकार के शुद्ध शिखर हैं। अगर शुद्ध अहंकार देखना हो, तो त्यागी में।
भोगी में अशुद्ध होता है। वह चमक नहीं होती। क्योंकि भोगी को खुद ही लगता है, गलत कर रहा हूं। इसलिए भोगी थोड़ा सा डरा होता है। भोगी को लगता है, ठीक ही नहीं हो रहा है। इसलिए अहंकार की प्रगाढ़ता से प्रकट नहीं होता। थोड़ा झुका-झुका रहता है। भोगी थोड़ा विनम्र रहता है। क्योंकि अपराध का भाव रहता है।
त्यागी का सब अपराध भाट मिट जाता है। त्यागी अकड़ कर चलता है। त्यागी की पताका उड़ती रहती है। त्यागी भयंकर अहंकार से भर जाता है।
भोगी का भी संसार है, त्यागी का भी संसार है। क्योंकि अहंकार है वहां संसार है।
जिस दिन मैं भाव गिरता है, उसी दिन सब सपने गिर जाते हैं। यह बड़ा संसार सपना है। खुली आंखों का सपना। दो तरह के सपने हैं। एक, जो तुम बंद आंख से देखते हो। वे इतने खतरनाक नहीं क्योंकि रोज सुबह टूट जाते हैं। एक सपना है, खुली आंख का सपना--यह जो विराट तुम्हें चारों तरफ समझ में आता है, यह बड़ा खतरनाक है। क्योंकि जन्मों-जन्मों तुम जन्मते हो, मरते हो और नहीं टूटता। जिसने इसे तोड़ लिया वह परम धन्यभागी है।
यह कैसे टूटेगा? कबीर के ये सूत्र उसके तोड़ने की तरफ इशारे हैं।
अंधे हरि बिन को तेरा।
कबीर कहते हैं, अगर अपना ही मानना हो तो हरि को छोड़कर और किसी को मत मानो।
एक दिन तो हरि भी छूट जाएगा। क्योंकि वह भी खयाल, कि हरि मेरा है, आखिरी सपने का हिस्सा है। लेकिन जो सपने में है जिसको सपने का कांटा लगा है, उसे दूसरे कांटे से निकालने की जरूरत है। दूसरा कांटा उतना ही कांटा है, जितना पहला।
राह तुम चलते हो, कांटा लग गया। तत्क्षण तुम दूसरा बबूल का कांटा उठा लेते हो, पहले कांटे को निकालते हो दूसरे कांटे से। फिर दोनों को फेंक देते हो।
संसार कांटा है; धर्म भी कांटा है। अभी पत्नी मेरी, पति मेरा, बेटा मेरा, मकान मेरा, धन मेरा, इज्जत मेरी, पद मेरा--यह कांटा है। हरि मेरा--यह दूसरा कांटा है, जिससे बाकी सब कांटे निकल जाएंगे। फिर इस दूसरे कांटे को सम्हाल कर घाव में मत रख लेना। नहीं तो तुम मूर्ख साबित हुए, मूढ़ साबित हुए। सब मेहनत व्यर्थ गई। तुमने सब गुड़गोबर कर दिया। दूसरा भी कांटा है। उसकी उपयोगिता थी।
इसलिए पतंजलि ने योग सूत्रों में ईश्वर को भी एक विधि माना है; कि वह भी संसार से मुक्त होने की विधि है। बड़ी हैरानी की बात है। और मनुष्य जाति के इतिहास में इतना स्पष्ट रूप से ईश्वर को विधि कहनेवाला दूसरा व्यक्ति नहीं पैदा हुआ। पतंजलि ने साफ कहा कि यह भी एक विधि है। इस विधि से रोग मिट जाएगा। जब रोग मिट जाए तो औषधि को फेंक देना। औषधि को ढोते मत रहना।
बुद्ध ने कहा है कि तुम नाव से नदी पार करते हो। नाव नदी पार करने के लिए है। फिर जब तुम नदी पार हो जाते हो, नाव को भूल जाते हो। नदी में ही छोड़ जाते हो। उसको फिर सर पर लेकर मत चलना। फिर यह मत कहना गांव में जाकर नगरों में, कि कैसे छोड़े इस नाव को! इसने नदी पार करवाई।
तब तुम मूढ़ हो। तब तो बेहतर था कि तुम नदी ही पार नहीं करते। अब यह और उपद्रव हो गया। उसी किनारे रहते, वह बेहतर था। कम से कम सिर पर नाव का बोझ तो न था। अब तुम यह सिर पर नाव लेकर चल रहे हो।
बहुत लोग शास्त्रों को पकड़ लेते हैं, सिद्धांतों को पकड़ लेते हैं। बहुत से लोग परमात्मा को भी पकड़ लेते हैं। तब परमात्मा ही लंगोटी बन जाता है। फिर उसी लंगोटी से सारा संसार वापस निकट जाएगा।
अंधे हरि बिन को तेरा।
यह तो कांटा समझा रहे हैं कबीर; कि अभी तू एक बात समझ कि हरि के बिना तेरा कोई भी नहीं। न पत्नी तेरी है, अब अजनबी हैं। राह पर मिलन गए। राह पर थोड़े से भ्रम पैदा कर लिए।
कभी तुम सोचते हो, कि जिनको तुम अपना कहते हो, कैसे उन्हें मिल गए? तुम्हारे पिता एक ज्योतिषी के पास चले गए तुम्हारी जन्म-कुंडली लेकर। किसी स्त्री की जन्म-कुंडली लेकर एक दूसरे सज्जन ज्योतिषी के पास चले गए। उन्होंने जन्म-कुंडली मिला ली, गणित बैठ गया। लक्षण पूरे हो गए। बैंड-बाजे बज गए। तुम्हें सात चक्कर लगवा दिए। यह पत्नी अपनी हो गयी।
कल तक यह अपनी न थी। संयोग है। नदी-नाव संयोग! यह किसी और की भी हो सकती थी। कोई अड़चन नहीं थी। किसी और की भी हो सकती थी। और तब भी इसी भ्रम में होती कि यह मेरा पति है। तुम्हारी पत्नी कोई और भी हो सकती थी। तब भी तुम इसी भ्रम में होते कि यह मेरी पत्नी है। दूसरी पत्नी से दूसरे बच्चे पैदा होते। तब वे तुम्हारे होते। अभी वे तुम्हारे नहीं हैं। अभी वे किसी और के घर में खेल रहे हैं।
 संयोग को सत्य मत मान लेना। राह पर मिल जाते हैं दो लोग। साथ हो लेते हैं। गपशप करते हैं। फिर राह अलग-अलग हो जाती है। विदा हो जाते हैं। लेकिन हम बड़ी भ्रांति पैदा करवाते हैं।
इसलिए तो विवाह का इतना आयोजन करना पड़ता है। उस आयोजन के पीछे बड़ा मनोविज्ञान है। मेरे लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्या जरूरत कि घोड़े पर सवारी निकले दूल्हे की? कि इतने बैंड-बजें, फूल झड़ी छूटें, बरात में खर्च हो? इतने लोग आएं, जाएं? इस सब की क्या जरूरत है? क्या सीधा-साधा विवाह नहीं हो सकता?
हो सकता है। लेकिन भ्रम पैदा होना मुश्बित होगा। सीधा साधा बिलकुल हो सकता है। कोई जरूरत नहीं है। तुम एक स्त्री को मिल गए। लेकिन तुमको भी शक रहेगा कि ऐसे में यह अपनी हो कैसे गई? उतना उपद्रव चाहिए भरोसा दिलाने के लिए, कि भारी कुछ हो रहा है। कुछ ऐसा महत्वपूर्ण हो रहा है, जो दोबारा नहीं होगा।
अब घोड़े पर तुम जो रोज तो बैठते नहीं। एक दफा बैठेगा। इसलिए दूल्हा राजा। दूल्हा को हम कहते हैं दूल्हा राजा। उसे राजा बना देते हैं। एक दिन के राजा हैं वे। और कैसी फजीहत पीछे होनेवाली है, कुछ पता नहीं। मगर बैठे हैं अकड़ कर। कटारी वगैरह लटका रखी है। मुकुट वगैरह पहन रखा है। उधार कपड़े हों, कोई हर्जा नहीं। लेकिन आज डट कर साज--सामान किया है। और बराती चल रहे हैं। फौज-फाटा है। बड़े-बड़ों को नीचे चला दिया है। सब नीचे चल रहे हैं। और दूल्हा राजा हो गया एक दिन के लिए।
यह उसके मन पर एक छाप बिठानी है। एक कंडीशनिंग है, एक संस्कार है। बड़े कुशल लोग थे पुराने लोग। उन्होंने पूरा हिसाब रखा है कि उसको यह भ्रांति पक्की हो जाए कि कोई गाढ़ संबंध पैदा हो रहा है। और ऐसा अनूठा हो रहा है, फिर यही घटना दोबारा नहीं घटनेवाली
इसलिए पूरब के लोग तलाक के विपक्ष में हैं। क्योंकि पूरब के लोग ज्यादा चालाक हैं, पश्चिम अभी बचकाना है। उसे अभी अनुभव नहीं है आदमी के मन का। पूरब को हजारों साल का अनुभव है। क्योंकि अगर तलाक संभव है, तो विवाह कभी पूरा हो ही न पाएगा।
अगर इस बात की संभावना है कि हम अलग हो सकते हैं, तो मिलता कभी भी पक्का नहीं हो पाएगा। जिससे अलग हो सकते हैं उससे मिलना ऊपर-ऊपर ही रहेगा। संसार बसेगा नहीं।
भीतर बना ही रहेगा...कि भीतर बना ही रहेगा, कि कल चाहें तो अलग हो सकते हैं। यह कोई अपनी पत्नी है, ऐसा कोई जरूरी नहीं। यह किसी और की भी हो सकती है। कोई और पत्नी हमारी भी हो सकती है। किसी और से हमारे बच्चे पैदा हो सकते हैं। हमारे बच्चे का कोई मामला नहीं है बड़ा।
पश्चिम में उपद्रव पैदा हो गया है। संसार डगमगा गया है। मैंने सुना है, एक अभिनेता हालीवुड में अपनी पत्नी के साथ बैठा है और उनके बच्चे खेल रहे हैं। पत्नी ने कहा कि देखो, मैं हजार बार कह चुकी कि कुछ करना होगा। तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे, हमारे बच्चों को मार रहे हैं।
पश्चिम से संभव हो गया है। पति के बच्चे हैं किसी और पत्नी से। पत्नी के बच्चे हैं किसी और पति से। फिर दोनों के बच्चे हैं। तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे मिल कर हमारे बच्चों को मार रहे हैं। इसको रोकना होगा। मगर जहां तुम्हारे बच्चे, हमारे बच्चे और मेरे बच्चे--वहां हमारे का भाव अपने आप क्षीण हो जाएगा। क्या मेरा है? सब रेत का घर मालूम पड़ता है। यहां कुछ मजबूत नहीं है। यहां कुछ पक्का नहीं है।
एक अभिनेत्री से एयरपोर्ट पर पूछा गया, विवाहित या अविवाहित? उसने कहा: दोनों; कभी-कभी! कभी विवाहित, कभी अविवाहित। दोनों; कभी-कभी। जहां ऐसी रेत जैसी स्थिति हो जाए...।
पूरब के लोग चालाक हैं। उम्र चालाकी लाती है, बूढ़े बेईमान हो जाते हैं, होशियार हो जाते हैं। बच्चे निर्दोष होते हैं। उनको पता नहीं, जिंदगी का राग-रंग क्या है।
तो पूरब ने पूरी व्यवस्था की, कि संबंध ऐसे मजबूती से बनाए जाए, कि पक्की भ्रांति हो जाए कि यह पत्नी मेरी है। और पूरब में समझा जाता है कि ऐसा कोई एक ही जन्म का मामला नहीं है। पति-पत्नी तो एक दूसरे का पीछा जन्म-जन्मांतर तक करते रहते हैं। पत्नियां तो इससे बड़ी प्रसन्न होती हैं। पति जरा डरते हैं कि जन्म-जन्मांतर तक? एक तक ही काफी है। एक...मगर अगल जन्म में भी इसी देवी से मलना होगा? लेकिन पत्नियां इससे बड़ी प्रसन्न होती हैं कि भाग कर जाओगे कहां? कोई छुटकारा नहीं है।
ये प्रतीतियां बिठाई गई हैं। मानव शास्त्र की प्रतीतियां हैं। इससे तुम्हें लगता है, मेरा।
बच्चा तुमसे पैदा होता है। तुम सोचते हो मेरा। तुमसे क्या पैदा हो रहा है? तुम केवल प्रयोगशाला हो। तुम्हारा शरीर केवल बच्चे के आगमन के लिए मार्ग हैं, इससे ज्यादा नहीं हैं। और अब तो विज्ञान भी कहता है, कि टेस्ट-टयूब में बच्चा पैदा हो सकता है। कोई मां के गर्भ की जरूरत नहीं।
और विज्ञान कहता है कि अब तो आर्टिफिशियल इनसेमीनेशन की सुविधा है। तो हजारों साल तक व्यक्ति का वीर्ण-कण सुरक्षित बचाया जा सकता है बर्फ में ढांककर। तुम मर जाओगे, हजार साल बाद तुम्हारा लड़का पैदा हो सकता है। तुम्हारा वीर्ण-कण बचा लिया जाएगा। तो तुमसे संबंध रहा? दस हजार साल बाद तुम्हारा लड़का पैदा हो सकता है। और तुम मर चुके दस हजार साल पहले। तुम्हारी रग-रग मिट्टी में खो गई। फिर भी तुम्हारा बच्चा पैदा हो सकता है। तो तुमसे क्या संबंध रहा? क्या लेना-देना है?
तुम केवल मार्ग थे। अपना यहां कोई भी नहीं। यहां तुम अजनबी हो। यहां अपने का भरोसा करके राहत मिलती है, यह सच है। क्योंकि अगर तुम्हें यह पक्का पता चल जाए कि तुम बिलकुल अकेले हो, तो तुम घबड़ा जाओगे। बेचैन हो जाओगे। हाथ पैर काटने लगेंगे।
रात अंधेरी है। रास्ता बीहड़ सुनसान है। कुछ आगे का पता नहीं, कुछ पीछे का पता नहीं, कुछ अपना पता नहीं। किसी का हाथ, हाथ में लेकर थोड़ा भरोसा आता है कि कोई साथ है। माना कि वह भी अंधा है, हम भी अंधे।
मैंने सुना है कि एक शिकारी भटक गया जंगल में। चार दिन का भूखा-प्यासा अफ्रीका के घने भयंकर बीहड़ जंगल में। आशा छोड़ दी जीवन की। कोई लक्षण ही न दिखाई पड़े आदमी का कहीं कि पूछ ले, कि पता लगा ले, कि किसी के पीछे हो जाए। बिलकुल अकेला हो गया। चौथे दिन आशा छोड़ ही रहा था, सांझ सूरज ढल ही रहा था, कि उसके एक वृक्ष के नीचे एक दूसरे शिकारी को बंदूक लिए बैठे देखा। दौड़ा आनंद से। उसके आनंद की तुम कल्पना कर सकते हो। मौत से बस गया। जीवन का वरदान मिला। खुशी में नाचने लगा। उस आदमी को जाकर छाती से लगा लिया।
पर उस आदमी ने कहा कि भाई थोड़ा ठहर। मैं आठ दिन से भटका हुआ हूं। तू इतनी खुशी मत मना। हमको मिलने से कुछ हल नहीं होता।
लेकिन राहत मिलती है। अंधे के पीछे भी तुम चलते हो तो राहत मिलती है कि कोई आगे है। इसलिए तो अंधों के पीछे अंधे कतारबंद चलते रहते हैं। बिना इसकी फिकर किए कि आगे कोई अंधा है। तुम जैसा ही अंधा है। अंधे अंधों को सलाह देते रहते हैं। साथ देते रहते हैं। मित्रता बनाए रखते हैं।
अगर कभी अंधेरी गली में कोई साथ भी न मिले तो तुम खुद ही जोर-जोर से गीत गाने लगते हो। अगर अधार्मिक ढंग के आदमी हुए, तो फिल्मी गाना गाते हो। और धार्मिक ढंग के हुए, तो हनुमान चालीसा पढ़ते हो। लेकिन फर्क कोई नहीं है। अपनी ही आवाज सुनकर ऐसा लगता है कि कोई अकेले नहीं। अपनी ही आवाज से भरोसा लेते हैं। थोड़ी हिम्मत आ जाती है।
तुमने देखा, नदियों में तीर्थयात्रा सर्दियों के दिन में स्नान करने जाते हैं। तो बड़े जोर-जोर से हरे राम, हरे कृष्ण--पानी में डुबा मारते जाते हैं और राम का नाम लेते जाते हैं। वे कोई राम का नाम नहीं लेते। वह सिर्फ राम की चिल्लाहट में ठंड ज्यादा नहीं लगती। पता नहीं चलता, मन यहां लगा है। हरे राम, हरे राम--जल्दी पानी लिया।
क्योंकि मैंने अपने गांव में देखा, कि पुरुषोत्तम का महीना आता है--तो मेरा घर नदी के किनारे ही है, पास ही है--तो स्त्रियां स्नान करने आती हैं। जल्दी सुबह आती हैं पांच बजे ब्रह्म मुहूर्त में। उन स्त्रियों को मैं भलीभांति जानता हूं। जिनके मुंह से कभी हरे राम नहीं सुना गया वे भी पानी में आकर एकदम हरे राम, हरे राम करने लगते हैं। तो मुझे लगा, कि यह पानी बड़ा रहस्यपूर्ण मालूम पड़ता है। उन स्त्रियों को मैं भलीभांति जानता हूं। इनमें से कोई हरे राम वाली नहीं है।
यह अचानक क्या हो जाता है इनको, पानी में उतरते ही से? तब मैंने पानी में उतरकर देखा पांच बजे। तब समझ में आया। नास्तिक भी कहेगा। ठंडा पानी! घबड़ाहट छूटती है। उस घबड़ाहट में कुछ भी बको, रात मिलती है। अंधेरे में कुछ भी गुनगुनाने लगो, भरोसा आता है।
अंधे अंधों का हाथ पकड़ लेते हैं; लेता है, कोई है; अकेला नहीं हूं।
इसलिए तो तुम समूह में जीते हो। इसलिए तो तुम समूह बना कर जीते हो। अकेले में डर लगने लगता है। समूह में निश्चित हो जाते हो। इतने लोग हैं। ठीक ही होगा। जहां भीड़ जाती है, वहां जाते हो। अकेला खड़ा होने की किसी की हिम्मत नहीं है। क्योंकि अकेले में पता चलता है, यहां कोई भी मेरा नहीं है। भयाक्रांत हो जाओगे। आत्मा कंपेगी। उस कंपन में जी न सकोगे।
इसलिए जिसने भी अकेलेपन को जान लिया, वह परमात्मा की खोज में लग जाता है। जो समाज में समझता है, कि सब पा लिया, वह परमात्मा से वंचित रह जाता है। जो अकेला हो गया, वह खोजेगा ही। क्योंकि अकेला कोई भी नहीं रह सकता। परमात्मा की खोज करनी ही पड़ेगी। कोई साथी चाहिए। असली संगी चाहिए।
अंधे हरि बिना को तेरा, कबन्सु कहत मेरी मेरा।
और तू किन-किन से कह रहा है, कि तुम मेरे हो, तुम मेरी हो। किस-किस से तू कहता फिरा। और जिनसे तू कह रहा है, वे भी तेरे पास इसलिए आ गए हैं कि अकेले होने में डर लगता है। एकांत में घबड़ाहट होती है।
तो बीमारी को सहारा दे रहे हैं। अंधे, अंधों को मार्ग दे रहे हैं। नासमझ, नासमझों को समझदारी दे रहे हैं।
कबन्सु कहत मेरी मेरा।
तजि कुलाक्रम अभिमाना, झूठे भरमि कहा भुलाना।
छोड़ ये कुल, वंश, परिवार, समाज समूह की बातें। तति कुलाक्रम--छोड़ यह अभिमान। क्योंकि जब भी तुम किसी चीज को कहते हो मेरा, तो उससे तुम्हारा मैं निर्मित होता है।
थोड़ा सोचो; अगर तुम्हारा कुछ भी न हो मेरा जैसा कुछ भी न हो, क्या तुम अपने मैं को सम्हाल पाओगे? मैं गिर पड़ेगा तत्क्षण। उसको बैसाखियां चाहिए। मेरे की इसलिए जितना तुम्हारा मेरे का विस्तार होता है, उतना ही सुदृढ़ तुम्हारा मैं होता है। अगर तुम्हारे पास बड़ा राज्य हो, तो तुम्हारे पास मैं मजबूत होता है। छोटी सी खोपड़ी हो, तो उतना ही बड़ा मैं होता है। बड़ा महल हो, तो उतना ही बड़ा मैं होता है। दो-चार दस रुपयों की पूंजी, तो उतना ही मैं होता है। करोड़ों की पूंजी, तो उतना मैं होता है।
इसीलिए तो लोग विस्तार की तरफ दौड़ते हैं। कोई भी चीज हो, विस्तार होता चला जाए। फिर विस्तार किसी भी ढंग का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर विस्तार के पीछे मैं की भूख है। क्योंकि मैं बिना विस्तार के नहीं रह सकता।
यह हो सकता है कि तुम धन इकट्ठा न करो, ज्ञान इकट्ठा करो। तुम्हारे पास बड़ी जानकारियां हों, ऐसी कि किसी के पास नहीं; उससे भी काम चल जाएगा। यह भी हो सकता है, कि तुम जानकारी भी इकट्ठी न करो, तुम त्याग करो। तुमने इतने उपवास किए, जितने किसी ने कभी नहीं कर किए, उससे भी काम चल जाएगा। यह भी हो सकता है कि उपवास भी मत करो, शिष्य इकट्ठे कर लो। तो जितने तुम्हारे शिष्य हैं, उतने किसी के भी नहीं। तो भी काम चल जाएगा। नेता बन जाओ, मत इकट्ठे कर लो कि कितने वोट तुम्हें मिले। उससे भी काम चल जाएगा।
एक बात ध्यान रखना। मैं विस्तारवादी है। अहंकार साम्राज्यवादी है, वह इम्पिरियलिस्ट है। वह विस्तार में जीता है। अगर तुमने विस्तार न किया, तो वह सिकुड़ने लगता है। और अगर तुम सारा मैं का भाव छोड़ देना चाहते हो तो मेरा का भाव छोड़ दो। वह भोजन है। वह नहीं मिलता तो मैं अपने आप गिर जाता है।
न पत्नी तुम्हारी, न बेटा तुम्हारा, न मकान तुम्हारा, न जमीन तुम्हारी, कैसे खड़े रहोगे? मैं को कहां सम्हालोगे? बैसाखी चाहिए। मैं तो बिलकुल लंगड़ा है। अपने से तो चल ही नहीं सकता। मेरे की बैसाखियां सम्हाले रखती हैं। हटा लो सब बैसाखियां, और तुम पाओगे, पूरा भव गिर गया।
तजि कुलाक्रम अभिमाना...।
छोड़ यह अहंकार मेरे का।
...झूठे भरमि कहा भुलाना।
झूठी बातें हैं मेरे की। कौन यहां किसका है? यहां तुम अपने ही हो जाओ, तो काफी है। यहां कौन किसका है?
झूठे तक की कहां बड़ाई, जे निमिख माहि जर जाई।
और इस शरीर की क्या तू प्रशंसा करता रहता है? और इस शरीर की क्या तू स्तुति गाता रहता है? इस शरीर को क्या लेकर फूला-फूला फिरता है? इस शरीर को लेकर क्या तू अकड़ा-अकड़ा फिरता है? क्षण भर में जल जाएगा। राख हो जाएगा।
और इसी शरीर के आधार पर तो तेरे, मेरेत्तेरे के संबंध हैं। तू कहता है कि यह मेरी मां, क्योंकि इससे तेरा शरीर पैदा हुआ। तेरे शरीर की क्या कीमत है! तू कहता है, ये मेरे पिता क्योंकि इनसे मेरा शरीर पैदा हुआ। तू कहता है, यह मेरा बेटा, क्योंकि यह मेरे शरीर से पैदा हुआ।
...जे निमिख माहि जर जाई।
क्षण भर न लगेगा। लपटें उठाएगी चिता की और सब राख हो जाएगा। सारे संबंध इस क्षण भर में जल जाने वाले शरीर के संबंध हैं।
झूठे तन की कहा बड़ाई।
तू क्यों इस स्तुति में फूला फिरता है?
...जे निमिख माहि जर जाई।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट भेजते थे कि जा कर वहां रहो, देखो, क्या घटता है तन को। रोज लाशें चली आती हैं।
और तब तो बिजली से जलाने के साधन न थे। तब भी निमिख माहि जर जाई! तब तो घड़ी दो घड़ी लगती थी। लेकिन अब तो कबीर का वचन बिलकुल ही सच हो गया। अब तो बिजली से जलते हैं। निमिख मात्र में ही जलते हैं। बिलकुल शब्द सही है।
भिक्षुओं को बुद्ध कहते थे, बैठो चिताओं के पास। ध्यान करो। उस ध्यान से बहुत कुछ मिलेगा। रोज भिक्षु देखता रहता; चिंताएं जलतीं। लोग चढ़ा दिए जाते। क्षण भर में सब राख हो जाता। लोग वापस लौट जाते। मित्र, प्रयोजन, अपने--जिन्हें सदा अपना माना, जिनके लिए सादा यह आदमी जीया; उनमें से कोई इसके साथ नहीं जाता। उनमें से कोई इसके साथ घड़ी भर रहने को राजी नहीं।
लाश आ जाती है घर में, आदमी मर गया, तो घर के लोग उतावले होते हैं कि जितनी जल्दी ले जाओ। क्योंकि जितनी देर लाश रह जाएगी उतनी देर घाव मालूम पड़ेगा। उतनी देर आंसू कैसे सूखेंगे? पत्नी भी पति मर जाए तो उसकी लाश के साथ रात में घर में रहने को राजी नहीं होती।
अभी यहां कुछ दिन पहले पूना में एक स्त्री की हत्या कर दी गई। तो पति ने, जब पति आया, घर नहीं ठहर सका, जिस कमरे में हत्या की गई है। होटल में जा कर ठहरा। डर लगता है। घबड़ाहट होती है उस कमरे में जाने में। जहां उसने बहुत राग-रंग पत्नी के साथ देखे होंगे, सोचे होंगे बहुत सुख के क्षण, सपने संजोए होंगे, वहां घबड़ाहट होती है। मरते ही कोई व्यक्ति तुम्हें डराने लगता है।
एक मित्र मेरे पास आए। और उन्होंने कहा कि मेरी पत्नी मर गई है। तो वह ठीक स्थान पर स्वर्ग इत्यादि पहुंच गई है, या नहीं? मैंने पूछा, तुम्हें फिकर पड़ी है? पहुंच ही गई होगी। क्योंकि सभी लोग मरते हैं तो स्वर्गीय हो जाते हैं, नर्क तो कोई जाता दिखाई पड़ता नहीं क्योंकि जो भी मरा, उसी को हम कहते हैं स्वर्गीय हो गया। राजनीतिज्ञ नेता तक मर कर स्वर्गीय हो जाते हैं तो बाकी का तो कहना ही क्या? नर्क तो कोई जाता मालूम नहीं पड़ता। तुम घबड़ाओ मत, पहुंच ही गई होगी।
उसने कहा नहीं, जरा मुझे...अब आपसे क्या छिपाना! रात में मैं सोता हूं तो मुझे लगता है, कि वह कुछ खटरपटर जैसे करती--जैसी उसकी पहले भी आदत थी। देर तक उसका नींद नहीं आती थी तो कहीं कपड़ा निकाले, कहीं रखे, कहीं सामान बदले, कहीं फर्नीचर को फिर से जमाए। मुझे रात में ऐसा लगता है कुछ खटर-पटर घर में होती क्योंकि यह डर लगता है कि कहीं प्रेत तो नहीं हो गई? तो मैं, आज तीन महीने से उस कमरे सो नहीं रहा हूं।
तुम्हारी पत्नी थी, प्रेम-विवाह किया था। अब मर गई तो इतना क्या घबड़ाते हो? इतना क्या डर? और तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि प्रेत हो गई तो फिर मौजूद है कमरे में। कहने लगे क्षमा करो। ऐसा शब्द मत कहो। मैं घर छोड़ दूंगा। वैसे ही नहीं जा रहा हूं। ताला चाबी मार रखी है। लेकिन कभी भी जाता हूं, तो मुझे शक होता है कि कमरे में कुछ हो रहा है।
जिनको तुमने अपना माना, अगर तुम आत्मा हो कर उनके पास जाओगे तो वे घर छोड़ देंगे। शरीर से ही सारा संबंध था। आत्मा का कोई संबंध ही नहीं है। और शरीर का ही सारा संसार है।
झूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमिख माहि हर जाई।
जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा।
और तब तक मन में विकार है अहंकार का, मन में विकार है वासना का, मन में विकार है, तब तक संसार है। मन का विकार ही संसार है। और मन की विकृत दशा तुम्हारे संसार का मूल आधार है। संसार का छोड़ कर मत भागना। विकार को त्याग देना।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।
और जब मन निर्मल हो जाता है, कोई स्वप्न नहीं रह जाता मन में। स्वप्न ही मन है। कोई विचार नहीं रह जाते; विचार ही विकार है। तब मन ही नहीं रह जाता। तब तो निर्मल आत्मा रह जाती है।
मन का संबंध संसार से है, आत्मा का संबंध परमात्मा है। मन रहेगा। तो संसार तुम्हारे चारों तरफ। आत्मा तुम हुए, मन न रहा, परमात्मा चारों तरफ। तुम जैसे हो, वैसे ही संबंध हो सकेगा। क्योंकि समान का मिलन होता है।
जब निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।
ब्रह्म अगनि, ब्रह्म सोई...।
तब तुम्हारे भीतर की छोटी सी अग्नि, छोटा सा दीया की महाअग्नि में खो गया।
...अब हरि बिन और न कोई।
अब हरि के बिना कोई भी न बचा। तुम भी न बचे। अब सिर्फ परमात्मा का होना रह गया। जब पाप पुण्य भ्रम जारि, जब भयो प्रकाश मुरारी।
यह वचन बड़ा क्रांतिकारी है। कबीर कहते हैं, जब पाप और पुण्य भ्रम मिट जाते हैं। दोनों जल जाते हैं। पाप भी, पुण्य भी। तब भयो प्रकाश मुरारी। तभी मुरारी के दर्शन होते हैं। तभी परमात्मा की झलक आती है।
पाप और पुण्य दोनों के भीतर छिपा हुआ रोग है। वह रोग है, कर्ता का भाव। अहंकार। पापी कहता है, मैंने पाप किए। पुण्यात्मा कहता है, मैंने पुण्य किए। लेकिन दोनों में एक बात समान है--मैं।
और पापी तो थोड़ा डरता है घोषणा करने में कि मैंने पाप किये। छिपाता है; पता न चल जाए। लेकिन पुण्यात्मा घोषणा करता है। बैंड-बजवाता है। डुंडी पिटवाता है, कि मैंने इतने पुण्य किए। पुण्यों का लेखा-जोखा रखता है। पापी तो भूल भी जाए, पुण्यात्मा नहीं भूलता। इसलिए पुण्यात्मा का बड़ा सूक्ष्म अहंकार होता है।
इस बात को खयाल में रख लो। नीति समझाती है पाप छोड़ो पुण्य करो। धर्म समझाता है, दोनों छोड़ो। क्योंकि जब तक कर्ता है, तब तक कुछ भी न छूटेगा। नीति कहती है, पाप त्याज्य है, पुण्य करणीय है। इसलिए नीति का धर्म से बहुत गहरा संबंध नहीं है। नास्तिक भी नैतिक हो सकता है। सोवियत रूस भी नैतिक है, और शायद तुम आस्तिकों से ज्यादा नैतिक है।
क्योंकि नीति का कोई संबंध परमात्मा से नहीं है। न नीति का कोई संबंध धर्म से है। नीति तो समाज व्यवस्था का अंग है। नीति का संबंध तो सामाजिक चेतना से है। तुम अच्छा करो, बुरा मत करो। क्योंकि तुम बुरा जिनके साथ करते हो, वे भी बुरा करेंगे। तुम अच्छा करोगे, वे भी अच्छा करेंगे। अच्छा करने से अच्छे करने संभावना बढ़ेगी। बुरा करने से बुरे करने की संभावना बढ़ेगी। धीरे-धीरे अगर सभी लोग बुरा करने लगें, तो तम भी बुरा न कर पाओगे।
तुम मुश्किल में पड़ जाओगे।
इसलिए नीति का सूत्र है, कि तुम वही करो दूसरों के साथ जो तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। इसका परमात्मा, मोक्ष, ध्यान से कोई संबंध नहीं। यह सीधी समाज व्यवस्था है।
धर्म नीति से बहुत ऊपर है। उतने ही ऊपर है, जितना अनीति से ऊपर है। अगर तुम एक त्रिकोण बनाओ, तो नीचे के दो कोण नीति और अनीति के हैं और ऊपर का शिखर कोण धर्म का है। वह दोनों से बराबर फासले पर है। इसलिए धर्म महाक्रांति है। नीति तो छोटी सी क्रांति है, कि तुम पाप छोड़ो। धर्म महाक्रांति है, कि तुम पुण्य भी छोड़ो। पाप तो छोड़ना ही है, पुण्य भी छोड़ना है। क्योंकि जब तक पकड़ है, तब तक तुम रहोगे। पकड़ छोड़ो। कर्ता का भाव चला जाए।
जब पाप पुण्य भ्रम जारि...
जब पाप और पुण्य दोनों के भ्रम जल गए, तब भयो प्रकाश मुरारी। तभी कोई परमात्मा को उपलब्ध होता है।
कहै कबीर हरि ऐसा, जहां जैसा तहां तैसा।
यह बड़ा अनूठा वचन है। इसे तुम्हारे हृदय में गूंज जाने दो। क्योंकि इससे महत्वपूर्ण परिभाषा परमात्मा की कभी नहीं की गई। हजारों लोगों ने परिभाषा की है, परमात्मा कैसा। लेकिन कबीर की परिभाषा बड़ी-बड़ी ठीक है, एकदम है। परिभाषा अगर कोई परमात्मा के करीब पहुंचाती है, तो कबीर की पहुंचाती है।
कहै कबीर हरि ऐसा, जहां जैसा तहां तैसा।
क्या मतलब हुआ इसका? यह तो बड़ी बेबूझ मालूम पड़ती है--जहां जैसा, तहां तैसा।
जब मन मिट जाता है, तो तुम पाओगे कि फूल में परमात्मा फूल। पत्थर में पत्थर, वृक्ष में वृक्ष, सरितामें सरिता, सागर में सागर।
कहै कबीर हरि ऐसा, जहां जैसा तहां तैसा।
तो कोई परमात्मा ऐसा खड़ा नहीं हो जाएगा, हाथ में मुरली लिए, मोर मुकुट बांधे! ऐसा कोई सजा-सजाया परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा नहीं हो जाएगा। खड़ा हो जाए तो सावधान रहना कोई धोखा दे रहा है। पुलिस को खबर करना कि कोई चालबाज मुरारी बन कर खड़ा है। कोई परमात्मा धनुष-बाण लेकर खड़ा न हो जाएगा तुम्हारे सामने।
और अब धनुष-बाण का फायदा भी क्या? अब एटमबम की दुनिया में धनुष-बाण लिए खड़े हैं रामचंद्रजी जंचेंगे भी नहीं। और एटमबम हाथ में लिए खड़े हों, तो और भी बेहूदा लगेगा।
आदमी की कल्पनाएं हैं। इनसे परमात्मा का कुछ लेना देना नहीं है। जब मन गिरता है, तो मन के राम, मन के कृष्ण भी खो जाते हैं। वह मन में बने रूप भी खो जाते हैं। परमात्मा तो है ही। सब रूपों में छिपा अरूप। गुलाब के फूल में हुआ है गुलाब का फूल। पत्थर में है, पत्थर। कहीं कुछ बदलने की जरूरत नहीं। जहां पाओगे, वही मौजूद है। वही सिर झुका लेना। और तुम्हारे भीतर भी वही है। सिर न झुकाया तो भी चलेगा। क्योंकि कौन किसके लिए झुकेगा
जिसको कृष्णमूर्ति कहते हैं...कृष्णमूर्ति से लोग पूछते हैं, व्हाट इज ट्रुथ। सत्य क्या है? तो कृष्णमूर्ति कहते है--देट व्हिच इज जो है। कबीर को दुहरा रहे हैं। उसको पता भी न हो। क्योंकि कृष्णमूर्ति को रस नहीं है कबीर को या उपनिषदों को, या वेदों को पढ़ने में। कोई जरूरत भी नहीं है। अपना-अपना ढंग है। लेकिन अगर कृष्णमूर्ति कबीर को पढ़े होते हो वे पाते कि कबीर कह रहे हैं--देट व्हिच इज, जहां जैसा तहां तैसा।
कुछ और नया न हो जाएगा। यही जो चारों तरफ मौजूद है, एक नये रूप में प्रकट होगा। इसकी व्याख्या बदल जाएगी, अभी तुम्हें लगता है, यह प्रकृति है, तब तुम्हें लगेगा, परमात्मा है। अभी तुम्हें लगता है, ये लोग बैठे हैं चारों तरफ। तब तुम्हें लगेगा, कि कृष्ण बैठे हैं चारों तरफ।
तुमने चित्र देखा होगा: पुराने घरों में टंगा रहता था। अब तो धीरे-धीरे खो गया। कृष्ण का एक चित्र, जिसमें सोलह हजार गोपियां नाच रही हैं। और सभी गोपियों को लग रहा है, कि कृष्ण उनके साथ नाच रहे हैं।कृष्ण सोलह हजार हो गए हैं।
जहां तुम पाओगे, पाओगे, कृष्ण तुमसे लिपट कर नाच रहे हैं। हवा के झोंकों में उनकी ही भाव-भंगिमा है। फूल की गंध में उन्हीं का आना हुआ है। पक्षी के कंठ से उन्होंने पुकार दी है नदी के कलकत्ता नाद में उन्हीं की पग ध्वनि सुनी है। हर गोपी पाएगी, कि सब तरफ से कृष्ण उसको घेर कर नाच रहे हैं। वह चित्र बड़ा प्यारा है।
एक और चित्र है, जिसमें कृष्ण वृक्ष के नीचे बांसुरी बजा रहे हैं। लेकिन गाय खड़ी है, तो गाय में भी हैं। वृक्ष के पत्ते-पत्ते में हैं, फूल फूल में हैं। सब तरफ वही मौजूद हैं।
जो है, वह परमात्मा है। जिस दिन तुम्हारा होना मिट जाएगा, उस दिन वह प्रकट हो जाएगा। 
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा अस्तित्व है। परमात्मा का कोई नाम-धाम, ठिकाना नहीं है। क्योंकि परमात्मा सभी कुछ है। सभी कुछ का होना, सभी कुछ के भीतर छिपा हुआ जो सार-गुण है होने का, वही परमात्मा है--है पन।
इसे समझो। गुलाब का फूल लाल है, सुर्ख है। गेंदे का फूल पीला है, स्वर्ण जैसा। गुलाब का फूल किसी सुंदर स्त्री के ओंठ जैसा। बड़े अलग हैं। वृक्ष अलग अलग हैं। सब की हरियाली अलग है। सब का गीत, सबका नृत्य अलग है। ये पास में खड़े गुलमोहर के फूल लाल हैं। लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल। और वहां दूर खड़े अमतलाश के वृक्ष में फूल स्वर्ण जैसे हैं, पीत हैं। कोई तालमेल नहीं। अमलताश के पत्ते अलग, गुलमोहर के पत्ते अलग। लेकिन दोनों में एक चीज समान है। अमलताश है, गुलमोहर है, गुलाब है, मैं हूं। तुम हो, पत्थर हैं चट्टान है आकाश है। है-पन समान है। और सब चीजें अलग हैं।
यह जो है पन, इजनेस--वही परमात्मा है।
इसलिए कबीर कहते हैं कहै कबीर हरि ऐसा, जहां जैसा तहां तैसा।
मत जाना मंदिर। जहां हरि को जैसे पाओ, वहां हरि को कैसे ही मना लेना। फूल में दिखे तो उसी से बात कर लेना। उसी के पास थोड़ी देर बैठ जाना। एक गीत गुनगुना लेना। आकाश में दिखाई पड़े, उसी में झांक लेना। चांदत्तारों में दिखाई पड़े, उन्हीं से थोड़ी गुफ्तगू कर लेना। नदी की कलकल में सुनाई पडे तो नदी में कूद जाना, जरा तैर लेना परमात्मा में।
जब तक तुम मंदिरों मस्जिदों में देखोगे, तब तक तुम आदमी के बनाए गए परमात्मा से उलझ रहोगे। वह मन का ही खेल है। तुम्हारे मंदिर-मस्जिद सब संसार में हैं, परमात्मा में नहीं। क्योंकि वे मन का विस्तार हैं।
मैं कलकत्ते में एक घर में मेहमान होता था। पड़ोस में एक पुर्तगीज चर्च था। बड़ा सुंदर चर्च था। पर जिस घर में मैं ठहरता वह जैन घर था। मैं सुबह उठकर चर्च के बगीचे में चला जाता। एक दिन घर के मेजबान को पता चला। वे आए और बड़े नाराज हुए और कहा कि आपको पता नहीं, यह चर्च है। अगर आपको मंदिर ही जाना है, तो मुझसे कहिए। मैं जैन मंदिर ले चलूं।
मैं उनसे कुछ बोला न। नासमझों से बहुत बार न बोलना ही समझदारी है। चला आया चुपचाप उनके घर। उन्हें बड़ा जघन्य अपराध मालूम पड़ा, कि मैं और चर्च गया। और न केवल गया, वहां शांति से बैठा था।
 फिर कुछ वर्ष बाद संयोग की बात, उनके घर फिर मेहमान हुआ। और उन्होंने कहा कि आपको एक खुश-खबरी सुनाएं। वह पुर्तगीज चर्च बिक गया और हम लोगों ने खरीद लिया पुर्तगीज लोग छोड़कर चले गए। वह चर्च बिक गया और हमने खरीद लिया। अब तो जैन मंदिर हो गया। आइए, आपको दिखाऊ। वही चर्च! अब वह जैन मंदिर है। तख्ती बदल गई।
वृक्ष वही है। परमात्मा अब भी वही है कहै कबीर हरि ऐसा। लेकिन उनका परमात्मा बदल गया। वृक्ष वही है। फूल अब भी वहां वैसे खिलते हैं। अब वे कुछ ज्यादा रंग रौनक से नहीं खिलते क्योंकि यह जैनियों का मंदिर हो गया। पहले कोई ज्यादा रंग-रौनक से नहीं खिलते थे। क्योंकि यह ईसाइयों का चर्च था।
फूलों को पता ही नहीं है, कि आदमियों की कैसी मूर्खताएं हैं। फूलों को, वृक्षों को, पता ही नहीं चला होगा कि तख्ती बदल गई। तख्ती भर बदली और कुछ न बदला। तख्तियां में परमात्मा नहीं है। वे आदमियों की हैं। तुम्हारे लेबलों में परमात्मा नहीं है; वे तुम्हारे हैं।
अब वे बड़े प्रसन्नता से मुझे ले गए। सब कुछ वही है। दीवालें वही हैं। संगमरमर वही है। पर मैंने उनसे कुछ कहा न। नासमझों से न कहना ही कुछ समझदारी है। वे बड़े प्रसन्न हैं। अब मंदिर है।
आदमी कैसा मूढ़ है! तुम परमात्मा को चाहते हो तो आदमी की मूढ़ता से बचना। और आदमी की मूढ़ता बड़ी शास्त्रों से आवेष्ठित है। बड़ी पांडित्यपूर्ण है। इसलिए तुम पहचान भी न पाओगे।
भूले भरम मरे जिन कोई, राजा राम करे सो होई।
यह सूत्र अहंकार के ऊपर अंतिम आघात है।
भूले भरम मरे जिन कोई--
और जिसने भी इस भ्रम में जीवन को जीया कि मैं कुछ कर लूंगा, वह व्यर्थ ही मर जाता है। भूले भमर मरे जिन कोई। इस भ्रम से जो जीता है कि मैं कुछ कर लूंगा, वह यूं ही मर जाता है। 
--राजा राम करे सो होई।
परमात्मा जो करता है, वही होता है। जिसको यह बात खयाल में आ गई, कि परमात्मा ही सब तरफ है, वही सब कुछ है। मेरे किए क्या होगा? मैं तो एक छोटी लहर हूं। इतनी छोटी तरंग हूं कि मैं कोई दिशा दे सकूंगी। सागर को? क्या यह संभव होगा कि मैं जिस तरफ जाऊं, सागर वहां जाए? यह तो असंभव है। सागर के साथ ही मैं हो लूं, तो ही गंतव्य मिल सकेगा।
जब सभी तरफ परमात्मा है; जहां जैसा तहां तैसा, कहै कबीर हरि ऐसा। जब वही वही है, जब वही तड़फ रहा है, वही नाच रहा है, जब वही पीड़ित है, वही आनंदित है--और मैं छोटी सी तरंग हूं। मुझमें भी वही सांस ले रहा है। मुझमें वही जी रहा है। जन्म लिया मुझमें, वही मृत्यु भी लेगा। मुझमें वही यात्रा कर रहा है। मैं तो उसी यात्री का एक कदम हूं। जिसने जैसा जाना, उसका यह भ्रम छूट जाता है, कि मेरे किए कुछ होगा।
...राजाराम करे सो होई।
वह जो करता है, वही होगा।
तब परम संतोष आ जाता है। तब परितोष बरस जाता है। तब सब तरफ से फूल बरस जाते हैं संतुष्टि के। तब तुम्हारे जीवन में कोई असंतोष नहीं रह जाता। मन असंतोष है। आत्मा परम संतोष है, तृष्टि है। जहां कोई रेखा ही हनीं बचती अभाव की।
इसलिए दो बातें खयाल मग रख लेनी जैसी हैं। कर्ता के भाव से बचना। चाहे पुण्य हो चाहे पाप मेरे के भाव से बचना। चाहे सांसारिक बातें हों, चाहे धार्मिक। मत कहना, मेरा मंदिर क्योंकि मेरी दुकान और मेरे मंदिर दोनों में कोई फर्क नहीं। वह मेरा दोनों को ही नष्ट कर रहा है। और मत कहना कि मैंने पुण्य किया, पाप नहीं। क्योंकि किया वही पाप है। कर्ताभाव पाप है और मेरा भाव संसार है। दो चीजों से गिर जाना।
कैसे गिरोगे?
धीरे-धीरे मैं के सहारे छोड़ो। और आखिरी सहारा तब छूट जाता है मैं का, जब पता चलता है कि उसके ही करने से सब होगा। तुमने जन्म लिया? तुम्हें जन्म दिया गया है। तुमने लिया नहीं। इसमें तुम्हारा कर्तृत्व क्या है? तुम जवान हुए। तुमने किया क्या है? तुम्हारा कर्तृत्व क्या है? जवानी आई। तुम श्वास लेते हो--तुम श्वास लेते हो? अगर तुम श्वास लेते हो, तब कोई मरेगा ही नहीं। क्योंकि मौत आ जाए और तुम लिए चले जाओ। मौत क्या करेगी? तुम श्वास लेते नहीं, श्वास चलती है। लेने जैसा कुछ भी नहीं है। श्वास ही तुमको ले रही है। तुम श्वास को नहीं ले रहे हो।
जीवन को थोड़ा गौर से पहचानो और तुम पाओगे, सब हो रहा है। जो तुम करते हो, वह भी हो रहा है। यह तुम्हारा खयाल, कि मैं जा रहा हूं, यह भी खयाल हो रहा है। यह खयाल कि मैं जा रहा हूं, यह भी खयाल हो रहा है। जब कोई व्यक्ति जीवन को समझाना शुरू करता है तो कर्तापन विसर्जित हो जाता है।
...रामाराम करे सो होई।
तब समष्टि चल रही है। हम उसके अंग हैं। करने का बोझ उतर जाता है। तुम मुक्त और तुम परितृष्ट। और जब हृदय में गूंज उठती है परितोष की, वीणा बजती है परितोष की, वही परमानंद है; वही सच्चिदानंद है।
आज इतना ही।



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