मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--11)

मुक्ति सोपान की सीढियां—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

पांचवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

शक्तिपात और प्रसाद:

प्रश्न: ओशो आपने नारगोल शिविर में कहा कि शक्तिपात का अर्थ है— परमात्मा की शक्ति आप में उतर गई। बाद की चर्चा में आपने कहा कि शक्तिपात और ग्रेस में फर्क है। इन दोनों बातों में विरोधाभास सा लगता है। कृपया इसे समझाएं।

 दोनों में थोड़ा फर्क है, और दोनों में थोड़ी समानता भी है। असल में, दोनों के क्षेत्र एक—दूसरे पर प्रवेश कर जाते हैं। शक्तिपात परमात्मा की ही शक्ति है। असल बात तो यह है कि उसके अलावा और किसी की शक्ति ही नहीं है। लेकिन शक्तिपात में कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है। अंततः तो वह भी परमात्मा है। लेकिन प्रारंभिक रूप से कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है।
जैसे आकाश में बिजली कौंधी; घर में भी बिजली जल रही है; वे दोनों एक ही चीज हैं। लेकिन घर में जो बिजली जल रही है, वह एक माध्यम से प्रवेश की है घर में—नियोजित है। आदमी का हाथ उसमें साफ और सीधा है। वह भी परमात्मा की है। वर्षा में जो बिजली कौंध रही है वह भी परमात्मा की है। लेकिन इसमें बीच में आदमी भी है, उसमें बीच में आदमी नहीं है। अगर दुनिया से आदमी मिट जाए तो आकाश की बिजली तो कौंधती रहेगी, लेकिन घर की बिजली बुझ जाएगी।

शक्तिपात घर की बिजली जैसा है, जिसमें आदमी माध्यम है; और प्रसाद, ग्रेस आकाश की बिजली जैसा है, जिसमें आदमी माध्यम नहीं है।

 व्यक्ति : परमात्म शक्ति का माध्यम:

तो जिस व्यक्ति को ऐसी शक्ति उपलब्ध हुई है, जो परमात्मा से किसी अर्थों में संयुक्त हुआ है, वह तुम्हारे लिए माध्यम बन सकता है; क्योंकि वह ज्यादा अच्छा वीहिकल है, तुमसे ज्यादा अच्छा वाहन है। उस शक्ति के लिए वह आदमी परिचित है, उसके रास्ते परिचित हैं, वह शक्ति उस आदमी से बहुत शीघ्रता से प्रवेश कर सकती है। तुम बिलकुल अपरिचित हो, अनगढ़ हो।
वह आदमी गढ़ा हुआ है। और उसके माध्यम से तुम में प्रवेश करे, तो एक तो वह गढ़ा हुआ वाहन है, इसलिए बड़ी सरलता है, और दूसरा वह तुम्हारे लिए बहुत संकीर्ण द्वार है जहां से तुम्हारी पात्रता के योग्य शक्ति तुम्हें मिल जाएगी। तो घर की बिजली में बैठकर तुम पढ़ सकते हो, आकाश की बिजली के नीचे बैठकर पढ़ नहीं सकते। घर की बिजली एक नियंत्रण में है, आकाश की बिजली किसी नियंत्रण में नहीं है।
तो कभी अगर किसी व्यक्ति के ऊपर आकस्मिक प्रसाद की स्थिति बन जाए, अनायास ऐसे संयोग इकट्ठे हो जाएं कि उसके ऊपर शक्तिपात हो जाए, तो बहुत संभावना है वह व्यक्ति पागल हो जाए, विक्षिप्त हो जाए, उन्मादग्रस्त हो जाए। क्योंकि वह शक्ति इतनी बड़ी हो और उसकी पात्रता सब अस्तव्यस्त हो जाए।
फिर अनजान, अपरिचित सुखद अनुभव भी दुखद हो जाते हैं। जो आदमी वर्षों तक अंधेरे में रहा हो, उसके सामने अचानक सूरज आ जाए, तो उसे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ेगा। और भी ज्यादा अंधेरा दिखाई पड़ेगा—जितना अंधेरे में भी दिखाई नहीं पड़ता था। अंधेरे में तो वह थोड़ा देखने का आदी हो गया था; रोशनी में तो उसकी आंख ही बंद हो जाएगी।
तो कभी ऐसा हो जाता है कि ऐसी स्थितियां बन सकती हैं भीतर कि अनायास तुम पर विराट शक्ति का आगमन हो जाए। लेकिन उससे तुम्हें सांघातिक नुकसान पहुंच सकते हैं, क्योंकि तुम तो तैयार नहीं हो; तुम तो चौंककर पकड़ लिए गए हो। तो दुर्घटना हो जाए। ग्रेस भी दुर्घटना बन सकती है।

 शक्ति का नियंत्रित संचार:

दूसरी जो शक्तिपात की स्थिति है, उसमें दुर्घटना की संभावना बहुत कम है—नहीं के बराबर है; क्योंकि कोई व्यक्ति माध्यम है। और संकीर्ण माध्यम से एक तो शक्ति का मार्ग बहुत संकरा हो जाता है, फिर वह व्यक्ति नियंत्रण भी कर सकता है, वह तुम तक उतना ही पहुंचने दे सकता है, जितना तुम झेल सको। लेकिन ध्यान रहे कि फिर भी वह व्यक्ति स्वयं शक्ति का मालिक नहीं है, सिर्फ वाहक है। इसलिए कोई कहता हो मैंने शक्तिपात किया, तो वह गलत कहता है।
वह ऐसे ही होगा, जैसे बल्व कहने लगे कि मैं प्रकाश दे रहा हूं। तो वह गलत कहता है। हालांकि बल्व को यह भांति हो सकती है। इतने दिन से रोज—रोज प्रकाश देता है, यह भ्रांति हो सकती है कि प्रकाश मैं दे रहा हूं। बल्व से प्रकाश प्रकट तो हो रहा है, लेकिन बल्व से प्रकाश पैदा नहीं हो रहा; वह उदगम का स्रोत नहीं है, अभिव्यक्ति का माध्यम है। तो जो कोई दावा करता हो कि मैं शक्तिपात करता हूं वह भ्रांति में पड़ गया है, वह बल्व की भ्रांति में पड़ गया है।
शक्तिपात तो सदा परमात्मा का ही है। लेकिन कोई व्यक्ति माध्यम बने तो उसको शक्तिपात कहेंगे, कोई व्यक्ति माध्यम न हो, तो यह आकस्मिक हो सकता है कभी, तो नुकसान पहुंच सकता है। लेकिन किसी व्यक्ति ने बड़ी अनंत प्रतीक्षा की हो, और किसी व्यक्ति ने अनंत धैर्य से ध्यान किया हो, तो भी प्रसाद के रूप में शक्तिपात हो जाएगा। तब कोई माध्यम भी नहीं होगा, लेकिन तब दुर्घटना नहीं होगी। क्योंकि उसकी अनंत प्रतीक्षा, उसका अनंत धैर्य, उसकी अनंत लगन, उसका अनंत संकल्प, उसमें अनंतता को झेलने की सामर्थ्य पैदा करता है। तो दुर्घटना नहीं होगी।
इसलिए दोनों तरह से घटना घटती है। लेकिन तब उसे शक्तिपात मालूम नहीं पड़ेगा, उसको प्रसाद ही मालूम पड़ेगा; क्योंकि कोई माध्यम तो नहीं है; कोई बीच में दूसरा व्यक्ति नहीं है।

 अहंशून्य व्यक्ति ही माध्यम:

तो दोनों बातों में समानता है, दोनों बातों में भेद है। मैं इसी पक्ष में हूं कि जहां तक हो सके प्रसाद उपलब्ध हो, जहां तक हो सके ग्रेस उपलब्ध हो, जहां तक हो सके कोई व्यक्ति बीच में माध्यम न बने। लेकिन कई स्थितियों में यह असंभव है; कई लोगों के लिए असंभव है। तो बजाय इसके कि वे अनंत काल तक भटकते रहें, किसी व्यक्ति को माध्यम भी बनाया जा सकता है। लेकिन वही व्यक्ति माध्यम बन सकता है जो व्यक्ति न रह गया हो। तब खतरा बहुत कम हो जाता है। वही व्यक्ति माध्यम बन सकता है जिसमें अब कोई अस्मिता, कोई ईगो शेष न रह गई हो। तब खतरा न के बराबर हो जाता है। खतरा इसलिए न के बराबर हो जाता है कि ऐसा व्यक्ति माध्यम भी बन जाएगा और फिर भी गुरु नहीं बनेगा; क्योंकि गुरु बननेवाला तो अब कोई नहीं रहा।

 सदगुरु वही, जो गुरु नहीं बनता:

इस फर्क को ठीक से समझ लेना। जब कोई व्यक्ति गुरु बनता है तो तुम्हारे संबंध में बनता है, और जब माध्यम बनता है तब परमात्मा के संबंध में बनता है; तुमसे कुछ लेना—देना फिर नहीं रह जाता। समझ रहे हो न मेरा फर्क? और परमात्मा के संबंध में कोई भी स्थिति बने, वहां अहंकार नहीं टिक सकता। लेकिन तुम्हारे संबंध में कोई भी स्थिति बने, तो अहंकार टिक जाएगा। तो जिसको ठीक गुरु कहें वह वही है जो गुरु नहीं बनता है। सदगुरु की परिभाषा अगर करनी हो तो यही है सदगुरु की परिभाषा कि जो गुरु नहीं बनता है। इसका मतलब हुआ कि समस्त गुरु बननेवाले लोग गुरु नहीं होने की योग्यता रखते हैं। गुरु बनने के दावे से बड़ी अयोग्यता और कोई नहीं है। यानी वही डिसकालिफिकेशन है; क्योंकि तुम्हारे संबंध में वह एक अहंकार की स्थिति ले रहा है। और खतरनाक हो जाएगा।
अगर अनायास कोई व्यक्ति शून्य हो गया है, अहंकार विलीन हो गया है, और वाहन बन सकता है—बन सकता है, कहना भी शायद गलत है; कहना चाहिए, वाहन बन गया है—तो उसके निकट भी शक्तिपात की घटना घट सकती है। लेकिन तब उसमें दुर्घटना की कोई संभावना नहीं रहती। न तो तुम्हारे व्यक्तित्व को दुर्घटना की संभावना है, और न जिस वाहन से शक्ति तुम तक आई है उसके व्यक्तित्व को दुर्घटना की संभावना है।
फिर भी मौलिक रूप से मैं ग्रेस के पक्ष में हूं। और जब इतनी शर्तें पूरी हो जाएं कि व्यक्ति न हो, अहंकार न हो, तो फिर शक्तिपात ग्रेस के करीब पहुंच गया, बहुत करीब पहुंच गया। और अगर उस व्यक्ति को कोई पता ही नहीं हो, तब फिर वह बहुत ही करीब पहुंच गया। तब उसके पास होने से घटना घट जाए। तो अब यह जो व्यक्ति है, तुम्हें व्यक्ति की तरह दिखाई पड़ रहा है, लेकिन अब यह परमात्मा के साथ एकाकार ही हो गया। कहना चाहिए, परमात्मा का फैला हुआ हाथ हो गया जो तुम्हारे करीब है। अब यह बिलकुल इंस्टूमेंटल है, साधन मात्र है। और ऐसी स्थिति में अगर यह व्यक्ति मैं की भाषा भी बोले, तो भूल हमें हो जाती है बहुत बार; क्योंकि ऐसी अवस्था में जब यह व्यक्ति मैं बोलता है, तो उसका मतलब होता है परमात्मा। लेकिन हमें बड़ी कठिनाई.. .क्योंकि हम तो......
इसलिए कृष्ण कह सकते हैं अर्जुन से—मामेक शरणं ब्रज। मेरी शरण में आ जा तू। और हजारों साल तक हम सोचेंगे कि यह आदमी कैसा रहा होगा, जो कहता है मेरी शरण में आ जा। तब तो अहंकार पक्का है।
लेकिन यह आदमी कह ही इसलिए पाया है कि यह बिलकुल नहीं है। अब यह तो किसी का फैला हुआ हाथ है, और वही बोल रहा है मेरी शरण आ जा—मुझ एक की शरण आ जा। यह शब्द बड़ा कीमती है, मामेकं! मुझ एक की शरण आ जा। 'मैं' तो एक कभी नहीं होता, ' मैं' तो अनेक है। यह किसी ऐसी जगह से बोल रहा है जहां ' मैं ' एक ही होता है। लेकिन अब यह कोई अहंकार की भाषा नहीं है।
लेकिन हम तो अहंकार की भाषा ही समझते हैं। इसलिए हम समझेंगे कि कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं मेरी शरण में आ जा। तब भूल हो जाएगी। इसलिए हमारे प्रत्येक शब्द को देखने के दो मार्ग हैं : एक हमारी तरफ से, जहां से भ्रांति सदा होगी; और एक परमात्मा की तरफ से, जहां कोई भ्रांति का सवाल नहीं है। तो कृष्ण जैसे व्यक्ति से घटना घट सकती है; और उसमें कृष्ण के व्यक्तित्व का कोई लेना—देना नहीं है।
 इतने करीब आ जाना चाहिए शक्तिपात प्रसाद के कि तुम जो कहते हो कि आपकी दोनों बातों में विरोध दिखाई पड़ता है...... .दोनों घटनाएं अपनी अति पर बहुत विरुद्ध हैं, लेकिन दोनों घटनाएं अपने केंद्र पर अति निकट हैं। और मैं उसी पक्ष में हूं जहां कि प्रसाद में और शक्तिपात में किंचित फर्क करना मुश्किल हो जाए। वहीं सार्थक है बात, वहीं कीमती है।
चीन में एक संन्यासी बड़ा समारोह मना रहा है। वह अपने गुरु का जन्मदिन मना रहा है। और उस तरह का त्योहार गुरु के जन्मदिन पर ही मनाया जाता है। लेकिन लोग उससे पूछते हैं कि तुम तो कहते थे कि मेरा कोई गुरु नहीं है, तो तुम जन्मदिन किसका मना रहे हो? और तुम तो सदा कहते थे कि गुरु की कोई जरूरत ही नहीं है, तो तुम आज यह उत्सव किसका मना रहे हो? तो वह आदमी कहता है कि मुझे मुश्किल में मत डालो; अच्छा हो कि मैं चुप रहूं। लेकिन जितना वह चुप रहता है उतना लोग और पूछते हैं कि बात क्या है, तुम यह मना क्या रहे हो? क्योंकि यह दिन तो गुरु पर्व है; इस दिन तो गुरु का उत्सव ही मनाया जाता है। तो तुम्हारा कोई गुरु है क्या? तो वह आदमी कहता है, तुम नहीं मानोगे तो मुझे कहना पड़ेगा। मैं आज उस आदमी का स्मरण कर रहा हूं जिसने मेरा गुरु बनने से इनकार कर दिया था; क्योंकि अगर वह मेरा गुरु बन जाता तो मैं सदा के लिए भटक जाता। उस दिन तो मैं बहुत नाराज हुआ था, आज लेकिन उसे धन्यवाद देने का मन होता है.. .कि वह चाहता तो गुरु तत्काल बन सकता था, मैं तो खुद गया था उसको मनाने, लेकिन वह गुरु बनने को राजी नहीं हुआ था।
तो वे लोग पूछते हैं कि फिर धन्यवाद क्या दे रहे हो, जब वह गुरु बनने को राजी नहीं हुआ?
तो वह संन्यासी कहता है, तुम मुझे ज्यादा मुश्किल में मत डालो; अब इतना मैंने कह दिया, यह काफी है। क्योंकि वह आदमी गुरु तो नहीं बना था, लेकिन जो कोई गुरु नहीं कर सकता है, वह आदमी कर गया है। इसलिए ऋण दोहरा हो गया। एक तो वह आदमी गुरु भी बन जाता तो भी लेन—देन हो जाता न दोनों तरफ से! कुछ उसने भी हमें दिया था, हमने भी कुछ उसे दिया था— आदर दिया था, श्रद्धा दी थी, पैर छू लिए थे—निपटारा हो गया था, कुछ हमने भी कर लिया था। लेकिन वह आदमी गुरु भी नहीं बना, उसने आदर भी नहीं मांगा, श्रद्धा भी नहीं मांगी, तो ऋण दोहरा हो गया— बिलकुल इकतरफा हो गया, वह दे गया और हम कुछ धन्यवाद भी नहीं दे पाए; क्योंकि धन्यवाद देने का भी उसने स्थान नहीं छोड़ा था।

 शुद्धतम शक्तिपात प्रसाद के निकट:

तो यहां शक्तिपात—ऐसी स्थिति में— और प्रसाद में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। और जितना फर्क हो उतना ही शक्तिपात से बचना, और जितना फर्क कम हो उतना ही ठीक है। इसलिए मैं जोर देता हूं प्रसाद पर, ग्रेस पर। और जिस दिन शक्तिपात भी प्रसाद के करीब आ जाए— इतने करीब आ जाए कि तुम डिस्टिग्विश न कर सको, फर्क न कर सको कि दोनों में क्या फर्क है—उस दिन समझ लेना कि बात ठीक हो गई।
तुम्हारे घर की बिजली जिस दिन आकाश की बिजली की तरह स्वच्छंद, सहज और विराट शक्ति का हिस्सा हो जाए, और जिस दिन तुम्हारे घर का बल्व दावा करना छोड़ दे कि मैं हूं शक्ति का स्रोत, उस दिन तुम समझना कि अब शक्तिपात भी हो तो वह प्रसाद ही है। मेरी बात खयाल किए!

 विस्फोट : दो शक्तियों का मिलन:

प्रश्न: ओशो आपने समझाया कि आप से शक्ति उठे और परमात्मा से मिल जाए या परमात्मा की शक्ति आए और आप में मिल जाए। प्रथम तो कुंडलिनी का उठना है और दूसरी बात ईश्वर की ग्रेस मिलने की है आगे आपने कहा है कि आपके भीतर सोई हुई ऊर्जा जब विराट की ऊर्जा से मिलती है तब एक्सप्लोजन विस्फोट होता है। तो एक्सप्लोजन या समाधि के लिए कुंडलिनी जागरण और ग्रेस का मिलन आवश्यक है या कुंडलिनी का सहस्रार तक विकास और ग्रेस की उपलब्धि एक बात है?

सल में, विस्फोट एक शक्ति से कभी नहीं होता, विस्फोट सदा दो शक्तियों का मिलन है। एक्सप्लोजन जो है, वह एक शक्ति से कभी नहीं होता। अगर एक शक्ति से होता होता तो कभी का हो जाता।
तुम्हारी माचिस भी रखी है, तुम्हारी माचिस की काड़ी भी रखी है, वह रखी रहे अनंत जन्मों तक— एक इंच के फासले पर, आधा इंच के फासले पर वह रखी है, रखी रहे, तो आग पैदा नहीं होगी। उस विस्फोट के लिए उन दोनों की रगड़ जरूरी है, तो आग पैदा होगी। वह छिपी है दोनों में, लेकिन किसी एक में भी अकेले पैदा होने का उपाय नहीं है। जो विस्फोट है, वह दो शक्तियों के मिलने पर पैदा हुई संभावना है।
तो व्यक्ति के भीतर जो सोई हुई है शक्ति, वह उठे और उस बिंदु तक आ जाए। सहस्रार वह बिंदु है जिसके पहले मिलन बहुत असंभव है। जैसे कि तुम्हारे दरवाजे बंद हैं और सूरज बाहर खड़ा है। रोशनी तुम्हारे दरवाजे पर आकर रुक गई है। तुम अपने घर से चलो, चलो; भीतर से बाहर की तरफ आओ, आओ, दरवाजे तक आकर भी खड़े हो जाओ, तो भी तुम्हारा सूरज की रोशनी से मिलन न हो। दरवाजा खुले और मिलन हो जाए।

 सहस्रार पर प्रतीक्षारत परमात्मा:

तो जो हमारा अंतिम चरम बिंदु है कुंडलिनी का, सहस्रार, वह हमारा द्वार है, जहां ग्रेस सदा ही खड़ी हुई है, जिस द्वार पर परमात्मा निरंतर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन तुम ही अपने द्वार पर नहीं हो, तुम ही अपने द्वार से बहुत भीतर कहीं और हो। तो तुम्हें अपने द्वार तक आना है, वहां मिलन हो जाएगा। और वह मिलन विस्फोट होगा।
विस्फोट इसलिए कह रहे हैं उसे कि उस मिलन में तुम तत्काल विलीन हो जाओगे, एक्सप्लोजन इसलिए है कि उस मिलन के बाद तुम बचोगे नहीं। वह जो काड़ी है वह बचेगी नहीं माचिस की उस विस्फोट के बाद। माचिस तो बचेगी, काड़ी नहीं बचेगी। काड़ी तो जलकर राख हो जाएगी, काड़ी तो निराकार में विलीन हो जाएगी। तो उस घटना में तुम चूंकि मिट जाओगे, टूट जाओगे, बिखर जाओगे, खो जाओगे, तुम बचोगे नहीं, तुम जैसे थे द्वार तक आने के पहले, वैसे तुम नहीं बचोगे। तुम्हारा सब खो जाएगा, तुम मिट जाओगे। जो द्वार पर खड़ा था वही बचेगा, तुम उसी के हिस्से हो जाओगे।
यह घटना तुमसे अकेले नहीं हो सकती। इस विस्फोट के लिए उस विराट शक्ति के पास तुम्हारा जाना जरूरी है। उस शक्ति के पास जाने के लिए, तुम्हारी शक्ति जहां सोई है वहां से उसे उठकर वहां तक जाना पड़ेगा जहां वह शक्ति तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तो कुंडलिनी की जो यात्रा है, वह तुम्हारे सोए हुए केंद्र से उस स्थान तक है, उस सीमांत तक, जहां तुम समाप्त होते हो, तुम्हारी जो सीमा है।

 मनुष्य की दो सीमाएं:

तो एक सीमा तो हमारे शरीर की है जो हमने मान रखी है। यह बड़ी सीमा नहीं है; क्योंकि मेरा हाथ कट जाए, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता; मेरे पैर कट जाएं, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता; फिर भी मैं रहता हूं। यानी इन सीमाओं के घटने—बढ़ने से मैं मिटता नहीं। मेरी आंखें चली जाएं, मेरे कान चले जाएं, तो भी मैं हूं। तुम्हारी असली सीमा तुम्हारे शरीर की सीमा नहीं है, तुम्हारी असली सीमा सहस्रार का बिंदु है, जिसके बाद तुम नहीं बच सकते। उस सीमा पर एनक्रोचमेंट हुआ कि तुम गए, फिर तुम नहीं बच सकते।
तुम्हारी कुंडलिनी तुम्हारी सोई हुई शक्ति है। तो वह तुम्हारे यौन के केंद्र के निकट और तुम्हारे मस्तिष्क के केंद्र के निकट तुम्हारी सीमा है। इसीलिए हमें निरंतर यह खयाल होता है कि हम अपने पूरे शरीर से चाहे अपनी आइडेंटिटी छोड़ दें, लेकिन अपने सिर से, अपने चेहरे से आइडेंटिटी नहीं छोड़ पाते। यानी मुझे यह मानने में बहुत कठिनाई नहीं लगती कि हो सकता है यह हाथ मैं न होऊं, लेकिन अगर दर्पण में अपना चेहरा देखकर यह सोचूं कि यह चेहरा मैं नहीं हूं तो बहुत मुश्किल हो जाती है; वह सीमांत है। इसलिए आदमी सब खोने को तैयार हो सकता है, बुद्धि खोने को तैयार नहीं होता।
सुकरात से किसी ने पूछा है कि तुम एक असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करोगे कि एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे? क्योंकि सुकरात संतोष की बात कर रहा था, वह कह रहा था संतोष परम धन है। तो कोई उससे पूछ रहा है कि तुम एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे कि एक असंतुष्ट सुकरात होना? तो वह सुकरात कहता है कि संतुष्ट सुअर होने से तो मैं एक असंतुष्ट सुकरात होना ही पसंद करूंगा, क्योंकि संतुष्ट सुअर को संतोष का पता भी तो नहीं हो सकता, असंतुष्ट सुकरात को कम से कम असंतोष का पता तो होगा।
अब यह जो कह रहा है असंतुष्ट सुकरात, वह हम यह कह रहे हैं कि हम सब खोने को तैयार हैं लेकिन बुद्धि को न खोके, चाहे बुद्धि असंतुष्ट ही क्यों न हो। बुद्धि भी हमारे उस केंद्र के बहुत निकट है।
अगर हम ठीक से समझें तो हमारे सीमांत दो हैं। एक यौन हमारी सीमा रेखा है, जिसके पार प्रकृति शुरू होती है; जिसके नीचे, बिलो दैट प्रकृति की दुनिया शुरू होती है। तो जहां हम सेक्स के बिंदु पर होते हैं, वहां हम में, पशु में, पौधे में कोई फर्क नहीं होता; क्योंकि पशु की, पौधे की वह अंतिम सीमा है जो हमारी प्रथम सीमा है; वहां उनकी सीमा खतम होती है। इसलिए सेक्स के बिंदु पर पशु में और हम में कोई फर्क नहीं होता। वह पशु की अंतिम सीमा है और हमारी पहली सीमा है। उस बिंदु पर जब हम खड़े होते हैं तो हम पशु ही होते हैं।
हमारी दूसरी सीमा है बुद्धि; वह हमारे दूसरे सीमांत के निकट है, जिसके पार परमात्मा है। उस बिंदु पर होकर भी फिर हम नहीं होते, फिर हम परमात्मा ही होते हैं। और ये हमारी दो सीमा रेखाएं हैं, और इनके बीच हमारी शक्ति का आंदोलन है। अभी हमारी सारी शक्ति जिस कुंड पर सोई है, वह यौन के पास है। इसलिए आदमी का निन्यानबे प्रतिशत चिंतन, निन्यानबे प्रतिशत स्वप्न, निन्यानबे प्रतिशत क्रिया—कलाप, निन्यानबे प्रतिशत जीवन उसी कुंड के आसपास व्यतीत होता है। सभ्यता कितना ही झुठलाए, समाज कितना ही और कुछ कहे, आदमी जीता वहीं है, वह काम के पास ही जीता है। वह धन कमाता है तो इसलिए, मकान बनाता है तो इसलिए, यश कमाता है तो इसलिए—वह जो भी कर रहा है, उसके बहुत मूल में खोजने पर उसका काम मिल जाएगा।

 दो लश, दो साधन:

इसलिए जिनको समझ थी, उन्होंने दो ही लक्ष्य बताए काम और मोक्ष। ये दो लक्ष्य हैं। और अर्थ और धर्म, दो साधन हैं। अर्थ यानी धन, वह काम का साधन है। इसलिए जितना कामुक युग होगा, उतना धनपिपासु होगा; जितना मोक्ष की आकांक्षा करनेवाला युग होगा, उतना धर्मपिपासु होगा। धर्म साधन है, जैसे धन साधन है। अगर मोक्ष पाना है तो धर्म साधन बन जाता है, और अगर काम—तृप्ति पानी है तो धन साधन बन जाता है।
तो दो हैं लक्ष्य और दो हैं साधन, क्योंकि दो हमारी सीमाएं हैं। और उन सीमाओं पर हम...... और यह बड़े मजे की बात है कि उन दो सीमाओं के बीच में तुम कहीं भी नहीं टिक सकते; उनके बीच में तुम कहीं नहीं ठहर सकते, क्योंकि उनके बीच में तुम ऐसे मालूम पड़ोगे कि जैसा गधा घर का न घाट का हो जाता है। कुछ लोग उस हालत में पड़कर बड़ी मुसीबत में पड जाते हैं। बहुत लोग पड़ जाते हैं उस मुसीबत में तो बहुत मुश्किल में पड जाते हैं। उनको मोक्ष की अभीप्सा नहीं होती और काम का विरोध अगर किसी वजह से पैदा हो गया, तो वे कठिनाई में पड़ जाएंगे; वे काम के बिंदु से दूर हटने लगेंगे और मोक्ष के बिंदु के पास नहीं जाएंगे। तब वे एक ऐसी दुविधा में पड़ जाएंगे जो बहुत ही कठिन है, बहुत दुखद है, बहुत नारकीय है। और उनका जीवन सारा का सारा अंतर्द्वंद्व से भर जाएगा।
बीच के बिंदु पर टिकना न उचित है, न स्वाभाविक है, न अर्थपूर्ण है। इसे हम ऐसा समझ लें कि जैसे कोई सीढ़ी पर चढ़े और बीच में रुक जाए। तो हम उससे कहेंगे कुछ भी करो, या तो वापस लौट आओ या ऊपर चले जाओ! क्योंकि सीढ़ी कोई मकान नहीं है, सीढ़ी कोई निवास नहीं है; उसमें बीच में रुक जाना किसी भी अर्थ का नहीं है। यानी एक आदमी अगर सीडी पर रुक जाए तो समझो उससे ज्यादा व्यर्थ आदमी खोजना बहुत मुश्किल होगा; क्योंकि उसे कुछ भी करना है तो उसे सीडी के या तो नीचे के बिंदु पर आना पड़े या ऊपर के बिंदु पर जाना पड़े।
तो हमारी जो रीढ़ है, समझ लो कि सीडी है। है भी सीढ़ी। और रीढ़ का एक—एक गुरिया समझो कि एक—एक स्टेप है। और वह जो हमारी कुंडलिनी है, वह नीचे के केंद्र से यात्रा शुरू करती है और ऊपर के अंतिम केंद्र तक जाती है। ऊपर के केंद्र पर वह पहुंच जाए तो विस्फोट निश्चित है; वहां फिर विस्फोट नहीं बच सकता। और नीचे के केंद्र पर पहुंच जाए तो स्खलन निश्चित है, वहां स्खलन नहीं बच सकता।
इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना।

 निम्न बिंदु पर स्खलन और उच्चतम पर विस्फोट:

कुंडलिनी नीचे के बिंदु पर है तो स्खलन निश्चित है, ऊपर के बिंदु पर पहुंच जाए तो विस्फोट निश्चित है। दोनों ही विस्फोट हैं, और दोनों के लिए ही दूसरे की जरूरत है। वह जो यौन का स्खलन है, उसमें भी दूसरा अपेक्षित है—चाहे कल्पना में ही सही, लेकिन दूसरा अपेक्षित है। तो उस जगह से भी तुम्हारी ऊर्जा विकीर्ण होगी।
पर उस जगह से तुम्हारी पूरी ऊर्जा विकीर्ण नहीं हो सकती। नहीं हो सकती इसलिए कि वह बिंदु तुम्हारा प्राथमिक बिंदु है; तुम उससे बहुत ज्यादा हो; उस बिंदु से तुम आगे जा चुके हो। पशु तो वहां पूरा तृप्त हो जाता है। इसलिए पशु मोक्ष नहीं खोजता। अगर पशु कोई शास्त्र लिखे तो वहां दो ही पुरुषार्थ होंगे—काम और धन, अर्थ और काम।
धन भी पशु की दुनिया का धन होगा। अब जिस पशु के पास ज्यादा मांस है, ज्यादा शक्ति है, उसके पास ज्यादा धन है, वह दूसरे पशुओं से काम की प्रतियोगिता में जीत जाएगा; वह अपने आसपास दस मादाएं इकट्ठी कर लेगा। वह भी एक तरह का धन इकट्ठा किया है। उसके पास चर्बी ज्यादा है, वह धन है। एक के पास तिजोरी ज्यादा है, वह भी चर्बी है, जो कभी भी चर्बी में कनवर्ट हो सकती है।
तो एक राजा है, वह हजार रानियां इकट्ठी कर लेगा। एक जमाना था कि आदमी के पास कितनी संपदा है, वह उसकी स्त्रियों से नापा जाता था कि उसके पास कितनी स्त्रियां हैं। गरीब आदमी है तो वह कैसे चार स्त्री रख सकता है! तो जैसे आज हम शिक्षा से नापते हैं कि कौन आदमी कितना शिक्षित है, या कौन आदमी के पास कितना बैंक बैलेंस है। ये सब बहुत बाद के मेजरमेंट हैं, पहला मेजरमेंट तो एक ही था कि उसके पास कितनी स्त्रियां हैं।
इसलिए बहुत बार हमें अपने महापुरुषों को बड़ा बताने के लिए बहुत स्त्रियां गिनानी पड़ी, जो झूठी हैं। जैसे कृष्ण की सोलह हजार! अब यह कृष्ण को बड़ा बताने का उस वक्त और कोई उपाय नहीं था—कि अगर कृष्ण बड़े आदमी हैं तो औरतें कितनी हैं? वह एकमात्र मेजरमेंट होने की वजह से हमको फिर गिनती करानी पड़ी कि भई बहुत हैं। और सोलह हजार अब बहुत कम मालूम पड़ती हैं, क्योंकि अब हमारे पास बहुत बडी संख्याएं हैं। उन दिनों संख्याएं बहुत बड़ी नहीं थीं।
अगर अफ्रीका में जाएं तो अब भी ऐसी कौमें हैं कि जिनकी कुल संख्या तीन पर खतम हो जाती है। तो अगर किसी के पास चार औरतें हैं तो वह यह कहेगा, बहुत! क्योंकि तीन के बाद संख्या खतम हो जाती है। तो वह कहेगा, मेरे पास बहुत, असंख्य औरतें हैं। असंख्य! क्योंकि तीन के बाद तो संख्या खतम हो जाती है उसकी, तो तीन के बाद जितनी हैं उनको वह गिन तो सकता नहीं, तो वह कहता है, असंख्य औरतें हैं।

दोनों के लिए दूसरा अपेक्षित:

 उस तल पर भी दूसरा अपेक्षित है। अगर दूसरा वस्तुत: मौजूद न हो, तो भी कल्पना में अपेक्षित है। बाकी दूसरा अपेक्षित है। दूसरे के बिना स्खलन भी नहीं हो सकता ऊर्जा का। लेकिन कल्पना में भी दूसरा उपस्थित हो तो स्‍खलन हो सकता है। इसी वजह से यह खयाल पैदा हुआ कि अगर कल्पना में भी परमात्मा उपस्थित हो तो विस्फोट हो सकता है। इसलिए भक्ति की लंबी धारा चली जिसने कि कल्पना को ही विस्फोट का आधार बनाने की कोशिश की। क्योंकि जब कल्पना में वीर्य—स्‍खलन हो सकता है, तो सहस्रार से ऊर्जा का विस्फोट क्यों नहीं हो सकता? इस खयाल ने काल्पनिक ईश्वर को भी जोर से मन में बिठा लेने की संभावनाओं को प्रगाढ़ कर दिया। उसका कारण यही था।
लेकिन यह नहीं हो सकता। स्खलन इसलिए हो सकता है कल्पना में, क्योंकि वस्तुत: स्‍खलन हुआ है, इसलिए उसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन परमात्मा से तो कभी मिलन नहीं हुआ, इसलिए कोई कल्पना नहीं की जा सकती उसकी। कल्पना हम उसकी ही कर सकते हैं जो हुआ है। तो फिर उसकी कल्पना से भी काम लिया जा सकता है। यानी एक आदमी ने कोई एक तरह का सुख लिया है तो फिर वह आंख बंद करके उसका सपना भी देख सकता है, लेकिन अगर लिया ही नहीं है तो फिर सपना नहीं देख सकता।
जैसे बहरा आदमी लाख कोशिश करे, सपने में भी शब्द नहीं सुन सकता, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। अंधा आदमी हजार उपाय करे तो भी सपने में भी प्रकाश नहीं देख सकता। ही, यह हो सकता है कि एक आदमी की आंखें चली गईं, अब वह सपने में बराबर प्रकाश देख सकता है। बल्कि अब सपने में ही देख सकता है! क्योंकि अब तो आंख तो नहीं है, इसलिए असलियत में तो नहीं देख सकता।
तो जो हमारा अनुभव हुआ है, उसकी हम कल्पना भी कर सकते हैं; लेकिन जो अनुभव नहीं हुआ है, उसकी तो कल्पना का भी उपाय नहीं। और विस्फोट हमारा अनुभव नहीं है, इसलिए वहां कल्पना काम नहीं कर सकती है। वहां वस्तुत: जाना होगा और वस्तुत: ही घटना घट सकती है।

 मनुष्य : पशु और परमात्मा के बीच का सेतु:

तो जो सहस्र चक्र है, वह तुम्हारी अंतिम सीमा है, जहां से तुम समाप्त होते हो। जैसा मैंने कहा कि सीढ़ी। और आदमी एक सीढ़ी ही है। इसलिए नीत्शे के वचन बहुत कीमती हैं। वह कहता है कि आदमी सिर्फ एक सेतु है—मैन इज ए ब्रिज बिट्वीन टू इटरनिटीज— दो अनंतताओं के बीच में एक सेतु।
एक अनंतता है प्रकृति की, उसकी भी कोई सीमा नहीं है, और एक अनंतता है परमात्मा की, उसकी भी कोई सीमा नहीं है। और आदमी दोनों के बीच में झूलता हुआ एक सेतु है। इसलिए आदमी पडाव नहीं है। या तो पीछे जाओ या आगे जाओ, इस सेतु पर मकान बनाने की जगह नहीं है। और जो भी इस पर मकान बनाएगा वह पछताएगा; क्योंकि सेतु कोई मकान बनाने की जगह नहीं है, सिर्फ पार होने के लिए है।
फतेहपुर सीकरी में अकबर ने जो एक सर्व धर्म मंदिर बनाने की कल्पना की थी, उसमें जो एक दीन—ए—इलाही का खयाल था कि सब धर्मों का सारभूत हो, तो उसने उस दरवाजे पर जो वचन खुदवाया है वह जीसस का वचन है। जीसस का वचन उसने खुदवाया है उस दरवाजे पर, वह वचन यह है कि यह जगत मुकाम नहीं, सिर्फ पड़ाव है। यहां थोड़ी देर ठहर सकते हो, लेकिन रुक ही मत जाना; यह कोई यात्रा का अंत नहीं है, यह सिर्फ थकान मिटाने के लिए एक पड़ाव है, एक सराय है—जहां हम रात भर रुकते हैं और सुबह फिर चल पड़ते हैं। और रुकते सिर्फ इसीलिए हैं कि सुबह चल सकें, और रुकने का कोई प्रयोजन नहीं है; रुकने के लिए नहीं रुकते।

पशु—वृत्तियों का सुख हमेशा क्षणिक:

तो आदमी एक सीढ़ी है जिस पर यात्रा है। इसलिए आदमी सदा तनावग्रस्त है। अगर हम ठीक से कहें तो तनावग्रस्त है आदमी, यह कहना शायद ठीक नहीं; यही कहना ठीक है कि मनुष्य एक तनाव है। क्योंकि ब्रिज जो है तनाव ही है, तना हुआ है; तना हुआ होकर ही ब्रिज हो सकता है। वह दो छोरों पर— और बीच में बेसहारा— तना हुआ है। इसलिए मनुष्य एक अनिवार्य तनाव है। इसलिए मनुष्य कभी शांत नहीं हो सकता। या तो वह पशु होता है तो थोड़ी सी शांति मिलती है, और या फिर वह परमात्मा होता है तो फिर पूरी शांति मिलती है। पशु होकर भी तनाव उतर जाता है, क्योंकि वह वापस लौट आया सीढ़ी से, नीचे जमीन पर खड़ा हो गया— परिचित जमीन पर, पहचानी हुई जमीन पर, जिसमें वह अनंत—अनंत जन्मों रहा है, वहां वापस आ गया; झंझट के बाहर हो गया। अभी कोई तनाव नहीं है। इसलिए या तो आदमी सेक्स में खोजता है तनाव की मुक्ति, या सेक्स से संबंधित और अनुभवों में खोजता है— शराब में, नशे में—जहां भी मूर्च्छा है, वहां वह खोज लेता है।
लेकिन वहां तुम थोड़ी देर ही रुक सकते हो; क्योंकि तुम अब कुछ भी चाहो तो स्थायी रूप से पशु नहीं हो सकते। बुरे से बुरा आदमी भी क्षण काल को ही पशु हो सकता है। वह जो आदमी किसी की हत्या कर देता है, वह भी क्षण भर में ही कर पाता है। अगर क्षण भर और रुक गया होता तो शायद नहीं कर पाता। यानी हमारा पशु होना करीब—करीब ऐसा है जैसे एक आदमी जमीन पर छलांग लगाता है, तो एक सेकेंड को हवा में रह पाता है, फिर वापस जमीन पर लौट आता है। तो बुरे से बुरा आदमी भी स्थायी बुरा नहीं होता, न हो सकता है। बुरे से बुरा आदमी भी किन्हीं क्षणों में बुरा होता है। और उन क्षणों के बाहर वह ऐसा ही आदमी होता है जैसे सारे आदमी हैं। पर उस एक क्षण को उसे राहत मिल सकती है, क्योंकि वह परिचित भूमि पर पहुंच गया, जहां कोई तनाव नहीं था।
इसलिए पशु के मन में तुम्हें कोई तनाव नहीं दिखेगा, उसकी आंख में झाकोगे तो कोई तनाव नहीं दिखेगा। पशु पागल नहीं होता, आत्महत्या नहीं करता, उसे हृदय का दौरा नहीं पड़ता। उसे ये सब बातें नहीं होतीं। हां, आदमी के चक्कर में पड़ जाए तो हो सकती हैं; आदमी की बैलगाड़ी में जुट जाए तो हृदय का दौरा हो सकता है, आदमी का घोड़ा बन जाए तो मुश्किल में पड़ सकता है, आदमी का कुत्ता हो तो पागल भी हो सकता है। वह दूसरी बात है। वह भी इसीलिए है कि वह आदमी अपने ब्रिज पर उसको खींच लेता है, इसलिए वह झंझट में डाल देता है उसे।
अब जैसे एक कुत्ता इस कमरे में आए तो अपनी मौज से घूमेगा। लेकिन अगर किसी आदमी का पाला हुआ कुत्ता हो तो वह उससे कहेगा—बैठ जाओ उस कोने में! तो वह कुत्ता उस कोने में बैठेगा। वह आदमी की दुनिया में प्रवेश कर गया। वह पशु की दुनिया के बाहर हो गया। अब वह झंझट में पड़नेवाला है कुत्ता। वह बैठा है। है तो वह कुत्ता, लेकिन बैठा है आदमी की तरह। अब तुमने उसको तनाव में डाल दिया है। अब वह बड़ी झंझट में है कि कब आशा हटे और वह यहां से बाहर हो जाए।
आदमी कुछ देर के लिए, क्षण, दो क्षण के लिए वहां पहुंच सकता है। इसीलिए जो हम निरंतर कहते हैं कि हमारे सब सुख क्षणिक हैं, उसका और कोई कारण नहीं है। सुख शाश्वत हो सकता है। लेकिन जहां हम सुख खोजते हैं वह स्थिति क्षणिक है, सुख क्षणिक नहीं है। हम खोजते हैं पशु होने में, तो वह क्षणिक ही हो सकता है, क्योंकि हम पशु क्षण भर को मुश्किल से हो पाते हैं। वह ऐसा ही है कि जैसे हम...... किसी स्थिति में वापस लौटना सदा मुश्किल है। अगर तुम कल में वापस लौटना चाहो, बीते कल में, तो तुम आंख बंद करके एकाध क्षण को ऐसी कल्पना में हो सकते हो कि लौट गए। लेकिन कितनी देर? आंख खोलोगे और पाओगे कि नहीं, वापस खड़े हो—जहां थे वहीं आ गए हो।
पीछे लौटा नहीं जा सकता; क्षण भर की कोई जबरदस्ती की जा सकती है। फिर पछतावा होगा। इसलिए जितने भी क्षणिक सुख हैं, सबके पीछे पछतावा है, सबके पीछे रिपेंटेंस है, सबके पीछे एक दुख—बोध है—कि बेकार मेहनत की, वह सब व्यर्थ गया। लेकिन फिर चार दिन बाद तुम भूल जाओगे और फिर छलांग लगा लोगे।

पशु के तल पर जाकर क्षण भर को सुख पाया जा सकता है, प्रभु के तल पर जाकर शाश्वत सुख में डूबा जा सकता है। लेकिन यह यात्रा तुम्हारे भीतर पहले पूरी होगी; तुम्हें अपने सेतु के एक कोने से दूसरे कोने पर पहुंचना होगा, तब दूसरी घटना घटेगी।

 संभोग और समाधि में समानता:

इसलिए मैं संभोग और समाधि को बड़ी समतुल बातें मानता हूं। समतुल मानने का कारण है। असल में, वे ही दो समतुल घटनाएं हैं, और कोई घटना समतुल नहीं है। संभोग की स्थिति में हम ब्रिज के इस छोर पर होते हैं, सीढ़ी के नीचेवाले हिस्से पर होते हैं, जहां से हम प्रकृति से मिलते हैं। और समाधि में हम सीढ़ी के दूसरे छोर पर होते हैं, जहां हम परमात्मा से मिलते हैं। दोनों मिलन हैं, दोनों विस्फोट हैं एक अर्थों में, दोनों में किसी खास अर्थ में तुम खोते हो। ही, किसी में क्षण भर के लिए, सेक्स में और संभोग में क्षण भर के लिए और समाधि में सदा के लिए। वह दूसरी बात है। लेकिन दोनों स्थितियों में तुम मिटते हो। यह बड़ा क्षणिक विस्फोट है जो वापस लौट आता है; तुम रिक्रिस्टलाइज हो जाते हो; क्योंकि तुम जहां गए थे वह तुमसे पीछे की अवस्था थी, उसमें तुम लौट नहीं सकते। लेकिन परमात्मा में जाकर तुम रिक्रिस्टलाइज नहीं हो सकते, वापस तुम सुसंगठित नहीं हो सकते। क्योंकि जिसमें तुम गए हो, उसमें जाते ही, फिर तुम्हारा वापस लौटना उतना ही असंभव है जैसे कि पहले तुम पीछे वापस लौटने में असंभव थे। अब तो और भी असंभव है। अब तो इतना असंभव है, ऐसे ही जैसे कि एक आदमी बड़ा हो गया और उसके बचपन के पाजामे में उसे वापस लौट आना पड़े। पर वह भी संभव है; यह संभव नहीं है। क्योंकि तुम विराट के साथ एक हो गए, अब तुम व्यक्ति में नहीं लौट सकते। अब वह व्यक्ति इतनी क्षुद्र, संकीर्ण जगह है कि जहां तुम्हारे प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। अब तुम सोच ही नहीं सकते कि इसमें जाना कैसे हो सकता है! तुम यह भी नहीं सोच सकते कि मैं इसमें कभी था तो कैसे था, इतने छोटे होने में कैसे हो सकता हूं। वह बात खत्म हो जाती है।
उस विस्फोट के लिए दोनों बातें जरूरी हैं; तुम्हारे भीतर की यात्रा तुम्हारे अंतिम बिंदु सहस्रार तक आनी चाहिए।

 सहस—दल कमल का खिलना:

और क्यों उसे हम सहस्र कहते हैं, वह भी थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है। ये सारे शब्द आकस्मिक नहीं हैं।
हमारी भाषा आमतौर से आकस्मिक है, उपयोग से पैदा हुई है। जैसे किसी चीज को हम दरवाजा कहते हैं। दरवाजा न कहें, कुछ और कहें, तो कुछ हर्ज नहीं होता। दुनिया में हजार भाषाएं हैं तो हजार शब्द होंगे दरवाजे के लिए, और सभी शब्द काम कर जाते हैं। लेकिन फिर भी कोई एक बात जो सांयोगिक नहीं है, वह शायद सभी में मेल खाएगी। तो दरवाजा या डोर या द्वार का जो भाव है जिसके द्वारा हम बाहर— भीतर जाते हैं, वह सभी भाषाओं में मेल खाएगा; क्योंकि वह अनुभव का हिस्सा है, वह सांयोगिक नहीं है। जिससे हम बाहर— भीतर आते—जाते हैं; जिससे जगह मिलती है बाहर— भीतर आने—जाने की; स्पेस का एक खयाल जो उसमें है, वह सबमें होगा।
तो सहस्र शब्द बड़ा अनुभव का है, सांयोगिक नहीं है। जैसे ही तुम उस अनुभूति को उपलब्ध होते हो, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे भीतर जैसे हजार—हजार फूल एकदम से खिल गए—सब बंद हजार फूल एकदम से खिल गए। हजार भी इसी अर्थ में कि संख्या के बाहर जैसी घटना घटती है। और फूल इस अर्थ में कि फ्लावरिग होती है, कोई चीज जो बंद थी कली की तरह वह खुलती है। फूल का मतलब है खिलना। फूल का मतलब वही होता है जो प्रफुल्ल होने का होता है—खुल जाना। फ्लावरिग का भी वही मतलब होता है—खुल जाना। कोई चीज जो बंद थी वह खुल गई है। तो कली की तरह कोई चीज थी वह फूल की तरह हो गई है। और फिर एकाध चीज नहीं खुल गई, अनंत चीजें जैसे पूरे तरफ से खुल गई हैं।
तो इसलिए इसको सहस्र कमल, हजार कमल खिल गए हैं, यह खयाल आना बिलकुल स्वाभाविक था। अगर तुमने कभी सुबह कमल को खिलते देखा है—नहीं देखा तो गौर से देखना चाहिए, बहुत निकटता से, बहुत चुपचाप बैठकर उसके पूरे, धीरे— धीरे पूरे खिलने को देखना चाहिए—तो तुम्हें खयाल आ सकेगा कि अगर हजार मस्तिष्क के कमल एकदम से खिल जाएंगे तो कैसी प्रतीति, उसकी तुम थोड़ी सी रूप—रेखा कल्पना में ले सकोगे।
और भी एक अदभुत अनुभव हुआ है। जिन लोगों को संभोग का बहुत गहरा अनुभव होगा, उन्हें भी खिलने का एक अनुभव होता है क्षण भर को; उनके भीतर भी कोई चीज खिलती है— बस क्षण भर को, फिर बंद हो जाती है। लेकिन उस खिलने में और इस खिलने में एक और अनुभव होगा कि जैसे कि फूल नीचे की तरफ लटका हुआ खिले और फूल ऊपर की तरफ खिले। पर वह तुलना तभी हो सकती है जब दूसरा अनुभव तुम्हारे खयाल में आ जाए; तब तुम्हें पता चलेगा कि नीचे की तरफ फूल खिल रहे थे और अब ऊपर की तरफ फूल खिल रहे हैं। नीचे की तरफ जो फूल खिलते थे, स्वभावत: वे नीचे के जगत से जोड़ देते थे, ऊपर की तरफ जो फूल खिलते हैं, स्वभावत: वे ऊपर के जगत से जोड़ देते हैं। असल में, उनका खिलना और उनकी ओपनिंग तुम्हें वलनरेबल बना देती है, तुम्हें खोल देती है; दूसरी दुनिया के लिए दरवाजा बन जाते हो, वहां से कुछ तुममें प्रवेश करता है। और उस प्रवेश से तुम्हारे भीतर विस्फोट घटित होता है।
इसलिए दोनों बातें जरूरी हैं तुम जाओगे वहां तक और वहां कोई प्रतीक्षा ही कर रहा है। आना कहना ठीक नहीं है कि वहां से कोई आएगा; तुम जाओगे वहां तक, कोई वहां प्रतीक्षा कर रहा है, घटना घट जाएगी।

 शक्तिपात दोहरी घटना:

प्रश्न: ओशो क्या केवल शक्तिपात के माध्यम से कुंडलिनी सहकार तक विकसित हो सकती है? उसके सहस्रार पर छंचने पर क्या समाधि का एक्सप्लोजन हो जाता है? यदि शक्तिपात के माध्यम से कुंडलिनी सहस्रार तक विकसित हो सकती है? तो इसका अर्थ यह हो जाएगा कि दूसरे से समाधि उपलब्ध हो सकती है।

 से थोड़ा समझना पड़े। असल बात यह है, इस जगत में, इस जीवन में कोई भी घटना इतनी सरल नहीं है जिसको तुम एक ही तरफ से देखो और समझ लो, उसे बहुत तरफ से देखना पड़े। अब जैसे मैं इस दरवाजे पर आऊं और जोर से एक हथौड़ा मारूं और दरवाजा खुल जाए, तो मैं यह कह सकता हूं कि मेरे हथौड़े से दरवाजा खुला। और यह कहना एक अर्थ में सच भी है, क्योंकि मैं अगर हथौड़ा नहीं मारता तो दरवाजा अभी खुलता नहीं था। लेकिन इसी हथौड़े को मैं दूसरे दरवाजे पर मारूं और दरवाजा न खुले, हथौड़ा ही टूट जाए—तब? तब तुम्हें दूसरा पहलू भी खयाल में आएगा कि जब एक दरवाजे पर मैंने हथौड़ा मारा और दरवाजा खुला, तो सिर्फ हथौड़े के मारने से नहीं खुला, दरवाजा भी खुलने के लिए पूरी तरह तैयार था; क्योंकि दूसरा दरवाजा नहीं खुला। किसी भी कारण से तैयार था—कमजोर था, जराजीर्ण था, पर उसकी तैयारी थी। यानी खुलने में सिर्फ हथौड़ा ही नहीं खोल दिया है उसे, दरवाजा भी खुला; क्योंकि और दूसरे दरवाजों पर हथौड़े की चोट करके देखी है तो हथौड़ा ही टूट गया है कहीं; कहीं हथौड़ा नहीं टूटा, न दरवाजा खुला; कहीं हम थक गए चोट कर—कर के, वह नहीं खुला।
तो इस घटना में जहां शक्तिपात से कुछ घटना घटती है, वहां शक्तिपात से ही घटती है, इस भ्रांति में नहीं पड़ने की जरूरत है। वहां वह दूसरा व्यक्ति भी किसी बहुत आतरिक तैयारी के एक छोर पर पहुंच गया है, जहां जरा सी चोट सहयोगी हो जाती है। नहीं यह चोट लगती तो शायद थोड़ी देर लग सकती थी। तो इस शक्तिपात से जो हो रहा है वह कुंडलिनी सहस्रार तक नहीं पहुंच रही, इस शक्तिपात से इतना ही हो रहा है कि टाइम एलिमेंट जो है, समय का जो थोड़ा व्यवधान था, वह कम हो रहा है; और कुछ भी नहीं हो रहा। यह आदमी पहुंच तो जाता ही।
समझ लो कि मैं इस हथौड़े से चोट नहीं मारता इस दरवाजे पर, और यह जराजीर्ण दरवाजा, यह बिलकुल गिरने को हो रहा है; कल हवा के थपेड़े से गिर जाता। हवा का थपेड़ा भी न आता, क्योंकि दरवाजे का भाग्य— न आए, हवा का थपेड़ा ही न आए उस तरफ—तो क्या तुम सोचते हो, यह दरवाजा खड़ा ही रहता? यह दरवाजा जो एक ही चोट से गिर गया, जो हवा के थपेड़े से डरता था कि गिर जाएगा, यह बिना हवा के थपेड़े के भी एक दिन गिर जाएगा। जब तुम्हें कारण भी बताना मुश्किल हो जाएगा कि किसने गिराया, तब यह अपने से भी गिर जाएगा, यह गिरने की तैयारी इकट्ठी करता जा रहा है।
तो ज्यादा से ज्यादा जो फर्क लाया जा सकता है, वह सिर्फ समय की परिधि का, टाइम गैप का। जो घटना रामकृष्ण के पास अगर विवेकानंद को घटी, उसमें अगर अकेले रामकृष्ण ही जिम्मेवार हैं, तो फिर और किसी को भी घट जाती, बहुत लोग उनके करीब गए। सैकड़ों उनके शिष्य हैं। तो और किसी को नहीं घट गई है। और अगर विवेकानंद ही जिम्मेवार थे अकेले, तो वे रामकृष्ण के पहले और बहुत लोगों के पास गए थे, उनके पास वह नहीं घटी थी।
समझ रहे हो न? तो विवेकानंद की अपनी एक तैयारी थी, रामकृष्ण की अपनी एक सामर्थ्य थी, यह तैयारी और यह सामर्थ्य किसी बिंदु पर अगर मिल जाएं, तो टाइम गैप कम हो सकता है। विवेकानंद, हो सकता है अगले जन्म में यह घटना घटती—वर्ष भर बाद घटती, दो वर्ष बाद घटती, दस जन्मों बाद घटती—यह सवाल नहीं है; इस व्यक्ति की अपनी भीतरी तैयारी अगर हो रही थी तो घटना घटती।
टाइम गैप कम हो सकता है। और समझने की बात यह है कि टाइम बड़ी ही फिक्टीशस, बड़ी मायिक घटना है, इसलिए उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। असल में, समय इतनी ज्यादा स्वप्निल घटना है कि उसका कोई बड़ा मूल्य नहीं है। अभी तुम एक झपकी लो और हो सकता है कि घड़ी में एक ही मिनट गुजरे और तुम जागकर कहो कि मैंने इतना लंबा स्वप्न देखा कि मैं बच्चा था, जवान था, का हुआ, मेरे लड़के थे, शादी हुई, धन कमाया, सट्टे में हार गया—यह सब हो गया! और यहां बाहर हम कहें कि यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, इतना लंबा सपना देखने के लिए भी वक्त लगेगा। क्योंकि अभी तुम एक सेकेंड तुम्हारी आंख बंद हुई है सिर्फ, तुमने झपकी भर ली है।
असल में ड्रीम टाइम जो है, स्वप्न का जो समय है, उसकी यात्रा बहुत अलग है। वह बहुत छोटे से समय में बहुत घटनाएं घटाने की उसकी संभावना है, इसलिए हमें बड़ी भांति होती है।
अब ये कुछ कीड़े हैं जो कि पैदा होते हैं सुबह और सांझ मर जाते हैं। हम कहते हैं, बेचारे! लेकिन हमें यह पता नहीं कि उनका टाइम का जो अनुभव है, वह उतना ही है जितना हमें सत्तर साल में होता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। वे इस बारह घंटे में वह सब काम कर लेते हैं—घर बना लेते हैं, पत्नी खोज लेते हैं, शादी—विवाह रचा लेते हैं, लड़ाई—झगडा कर लेते हैं—जो भी करना है, सब कर—करा के सांझ मर जाते हैं। इसमें कुछ कमी नहीं छोड़ते; इसमें सब हो जाता है। इसमें शादी—विवाह, तलाक, लड़ाई— झगड़ा, सब घटना घट—घटा कर वे संन्यास वगैरह भी सब कर डालते हैं—सुबह से सांझ तक! पर वह जो समय का उनका जो बोध है, उसमें फर्क है। इसलिए हमें लगता है, बेचारे! और वे अगर सोचते होंगे तो हमारे बाबत सोचते होंगे कि जो हम बारह घंटे में कर लेते हैं, तुमको सत्तर साल लग जाते हैं—बेचारे! इतना काम तो हम बहुत जल्दी निपटा लेते हैं, इन लोगों को क्या हो गया! कैसी मंद बुद्धि के हैं, सत्तर साल लगा देते हैं!
समय जो है, वह बिलकुल ही मनोनिर्भर, मेंटल एनटाइटी है। इसलिए हम भी हमारे मन के अनुसार समय का अनुपात छोटा—बड़ा होता रहता है। जब तुम सुख में होते हो, समय एकदम छोटा हो जाता है; जब तुम दुख में होते हो, समय एकदम लंबा हो जाता है। घर में कोई मर रहा है और तुम उसकी खाट के पास बैठे हो, तब रात बहुत लंबी हो जाती है, कटती ही नहीं। ऐसा लगता है कि अब यह रात कभी खत्म होगी कि नहीं होगी! सूरज उगेगा कि नहीं उगेगा! रात इतनी लंबी होती जाती है कि लगता है कि अब नहीं, यह आखिरी रात है! अब यह कभी होगा नहीं, सूरज उगेगा नहीं! दुख समय को बहुत लंबा कर देता है; क्योंकि दुख में तुम जल्दी से समय को बिताना चाहते हो; तुम्हारी अपेक्षा जल्दी की हो जाती है। तुम्हारा एक्सपेक्टेशन है—जल्दी बीत जाए। जितनी तुम्हारी अपेक्षा तीव्र हो जाती है, समय उतना मंदा मालूम पड़ने लगता है, क्योंकि उसका अनुभव रिलेटिव है। जब तुम्हारी अपेक्षा बहुत तीव्र होती है, वह तो अपनी गति से चला जा रहा है, पर तुम्हें ऐसा लगता है कि बहुत धीमे जा रहा है। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने बैठा है और वह चली आ रही है। वह तो चाहता है कि बिलकुल दौड़ती हुई जेट की रफ्तार से आओ, लेकिन वह आदमी की रफ्तार से आ रही है। तो उसे लगता है, कैसी मंद गति चल रही है!
तो दुख में तुम्हारा समय का बोध एकदम लंबा हो जाता है। सुख आता है, तुम्हारा मित्र मिलता है, प्रियजन मिलता है, रात भर जागकर तुम गपशप करते रहते हो, सुबह विदा होने का वक्त आता है; तुम कहते हो, रात कैसे बीत गई क्षण भर में! यह तो आई न आई बराबर हो गई! ऐसा लगता ही नहीं कि आई भी।
सुख में तुम्हारे समय का बोध एकदम भिन्न हो जाता है, दुख में भिन्न हो जाता है।
तो तुम्हारी मनोनिर्भर इकाई है समय। इसलिए इसमें तो फर्क पैदा ही किए जा सकते हैं, क्योंकि तुम्हारे मन तक तो चोट की जा सकती है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अगर मैं तुम्हारे सिर पर लट्ठ मार दूं तो तुम्हारा सिर खुल जाता है। तो अब तुम क्या कहोगे कि तुम्हारा सिर एक आदमी ने खोल दिया, उस पर निर्भर हो गए तुम! हो ही गए निर्भर। तुम्हारे शरीर को चोट की जा सकती है; तुम्हारे मन को भी चोट की जा सकती है। हां, तुमको चोट नहीं की जा सकती; क्योंकि तुम न शरीर हो, न तुम मन हो। लेकिन अभी तुम मन पर ठहरे हुए अपने को मन मान रहे हो, या अपने को शरीर मान रहे हो, तो इन सबको तो चोट की जा सकती है। और इनकी चोट से तुम्हारे समय के अंतर को बहुत कम किया जा सकता है—कल्पों को क्षणों में बदला जा सकता है; क्षणों को कल्पों में बदला जा सकता है।

 मुक्ति समयातीत है:

लेकिन जिस दिन तुम जागोगे, यह बहुत मजे की बात है कि बुद्ध जिस दिन जागे, उनको तो पच्चीस सौ साल हो गए, जीसस को दो हजार साल हो गए, कृष्ण को शायद पांच हजार साल हो गए, जरथुस्त्र को बहुत समय हुआ, मूसा को बहुत समय हुआ—लेकिन जिस दिन तुम जागोगे, तुम अचानक पाओगे कि अरे, वे भी अभी ही जागे हैं! क्योंकि वह जो टाइम गैप है, एकदम खतम हो जाएगा। ये पच्चीस सौ साल, और दो हजार, और पांच हजार साल एकदम सपने के मालूम पड़ेंगे।
इसलिए जब कोई जागता है, तो एक ही क्षण में सब जागते हैं, कोई क्षण में फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह बड़ा कठिन है खयाल में लेना। यह बड़ा कठिन है कि जिस दिन तुम जाओगे, उस दिन तुम एकदम कंटेमेरी हो जाओगे—बुद्ध के, महावीर के, कृष्ण के। वे सब तुम्हें चारों तरफ खड़े हुए मालूम पड़ेंगे; सब अभी—अभी जागे— अभी! तुम्हारे साथ ही! एक क्षण का भी फासला वहां नहीं है। वहां नहीं हो सकता।
असल में, ऐसा समझो कि हम एक बड़ा वृत्त खींचें, एक बड़ा सर्किल बनाएं; और सर्किल के सेंटर पर हम वृत्त से बहुत सी रेखाएं खींचें, हजार रेखाएं परिधि से खींचें और केंद्र पर जोड़ दें। परिधि पर तो बहुत फासला होगा दो रेखाओं के बीच में। फिर तुम केंद्र की तरफ बढ़ने लगे, फासला कम होने लगा। फिर तुम जब केंद्र पर पहुंचोगे, तुम पाओगे—फासला खतम हो गया, दोनों रेखाएं एक हो गईं।
तो जिस दिन अनुभुति की उस प्रगाढ़ता के केंद्र पर कोई पहुंचता है, तो वे जो परिधि पर फासले थे, ढाई हजार साल का, दो हजार साल का, वे सब खत्म हो जाते हैं। इसलिए बहुत दिक्कत होती है, बड़ी कठिनाई होती है, क्योंकि उस जगह से बोलने से कई बार भूल हो जाती है। क्योंकि जिनसे हम बोल रहे हैं, वे परिधि की भाषा समझते हैं। इसलिए बहुत भूल की संभावना है वहां।
एक आदमी मेरे पास आया। भक्त है, जीसस का भक्त। तो उसने मुझसे पूछा कि आपका जीसस के बाबत क्या खयाल है? तो मैंने उससे कहा कि अपने ही बाबत खयाल बनाना अच्छा नहीं होता। मुझे थोड़ा उसने चौंककर देखा, उसने कहा कि नहीं, शायद आप सुने नहीं; मैं पूछ रहा हूं : जीसस के बाबत आपका क्या खयाल है? तो मैंने उससे कहा कि मैं भी समझता हूं कि तुमने शायद सुना नहीं! मैं कहता हूं कि अपने ही बाबत खयाल बनाना ठीक नहीं होता। उसने कुछ परेशानी से मुझे देखा। मैंने उससे कहा कि जीसस के बाबत खयाल तभी तक बनाया जा सकता है जब तक जीसस को नहीं जानते। जिस दिन जानोगे उस दिन तुममें और जीसस में क्या फर्क है? कैसे खयाल बनाओगे?
ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास कभी कोई चित्रकार आया और उनका एक चित्र बनाकर लाया। और वह रामकृष्ण को लाकर उसने बताया कि देखिए, आपका चित्र बनाया है, कैसा बना है? रामकृष्ण उस चित्र के पैरों में सिर लगाकर नमस्कार करने लगे। तो वहां जितने लोग बैठे थे उन सबने सोचा कि कुछ भूल हो गई, क्योंकि अपने ही चित्र के पैर पड़ रहे हैं! क्या, गड़बड़ क्या है? शायद समझे नहीं, चित्र उन्हीं का है।
तो उस चित्रकार ने कहा, माफ करिए, यह चित्र आपका ही है और आप ही इसके......
तो उन्होंने कहा कि अरे, मैं भूल गया। असल में, उन्होंने कहा कि यह चित्र इतना समाधिस्थ है कि मेरा कैसे हो सकता है! रामकृष्ण ने कहा, यह चित्र इतना समाधि का है कि मेरा कैसे हो सकता है! क्योंकि समाधि में कहां मैं और कहां तू। तो मैं तो समाधि के पैर पड़ने लगा; तुमने ठीक याद दिला दी, और वक्त पर याद दिला दी, नहीं तो लोग बहुत हंसते।...... .पर लोग तो हंस ही चुके थे।
परिधि की और केंद्र की भाषाएं अलग हैं। इसलिए अगर कृष्ण कहते हैं कि मैं ही था राम, और अगर जीसस कहते हैं कि मैं ही पहले भी आया था और तुम्हें कह गया था, और अगर बुद्ध कहते हैं कि मैं फिर आऊंगा, तो इस सब में वे सब केंद्र की भाषा बोल रहे हैं जिससे हमको बड़ी कठिनाई होती है। अब बौद्ध भिक्षु प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे कब आएंगे!
वे बहुत बार आ चुके। वे रोज खड़े होंगे तो भी नहीं पहचान में आएंगे, क्योंकि अब उसी शक्ल में तो आने का कोई उपाय नहीं है, वह शक्ल तो सपने की शक्ल थी, वह खो गई।
तो वहां कोई समय का अंतराल नहीं है। और इसीलिए तुम्हारे समय की स्थिति में तो तीव्रता और कमी की जा सकती है, बहुत कमी की जा सकती है। उतना शक्तिपात से हो सकता है।

 कोई दूसरा नहीं है:

और दूसरी बात जो तुम उसमें पूछते हो कि इसमें तो दूसरा......
वह दूसरा भी तभी तक दिखाई पड़ रहा है न! वह दूसरे का जो दूसरा होना है, वह भी हमारी अपनी सीमा को जोर से पकड़े होने की वजह से मालूम पड़ रहा है। तो विवेकानंद को लगेगा कि रामकृष्ण की वजह से मुझे हो गया। रामकृष्ण को लगे तो बड़ी नासमझी हो जाएगी। रामकृष्ण के लिए तो ऐसे ही घटना घटी है, जैसे कि मेरे हाथ पर कोई चोट लगी हो और मैंने मलहम लगा दी। तो मेरा यह हाथ, बायां हाथ समझेगा कि कोई और मेरी सेवा कर रहा है। दाएं हाथ से मैं लगाऊंगा न! तो कोई और कर रहा है। हो सकता है धन्यवाद भी दे, हो सकता है इनकार भी कर दे कि भई, रहने दो, मैं स्वावलंबी हूं मैं दूसरे की सहायता नहीं लेता। लेकिन उसे पता नहीं कि जो उसमें प्रवेश किया हुआ है, बाएं में, वही दाएं में भी प्रवेश किया हुआ है; वह एक ही है।
तो जब कभी कोई किसी दूसरे के लिए दूसरे की तरफ से सहायता पहुंचती है, तो सच में कोई दूसरा नहीं है; तुम्हारी तैयारी ही उस सहायता को तुम्हारे ही दूसरे हिस्से से बुलाती और पुकारती है।
इजिप्त में एक बहुत पुरानी किताब है जो यह कहती है कि तुम गुरु को कभी मत खोजना, क्योंकि जिस दिन तुम तैयार हो, गुरु तुम्हारे दरवाजे पर हाजिर हो जाएगा। तुम खोजने जाना ही मत। और वह यह भी कहती है कि अगर तुम खोजने भी जाओगे तो खोज कैसे सकोगे? तुम पहचानोगे कैसे? क्योंकि अगर तुम इस योग्य ही हो गए कि गुरु को भी पहचान लो, तब फिर और क्या कमी रह गई! इसलिए सदा ही गुरु शिष्य को पहचानता है, शिष्य कभी गुरु को नहीं पहचान सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। मेरा मतलब समझे न? उसका उपाय कहां है? अभी तुम अपने को नहीं पहचानोगे तो तुम गुरु को कैसे पहचानोगे कि यह आदमी है! तुम नहीं पहचान सकते। हां, लेकिन जिस दिन तुम तैयार हो, उस दिन तुम्हारा ही कोई हाथ तुम्हारी सहायता के लिए मौजूद हो जाता है। वह दूसरे का हाथ तभी तक है जब तक तुम्हें पता नहीं चला है। जिस दिन तुम्हें पता चलेगा उस दिन तुम धन्यवाद देने को भी नहीं रुकोगे।
जापान में झेन मॉनेस्ट्री का एक हिसाब है कि जब कोई मॉनेस्ट्री में, आश्रम में आता है ध्यान सीखने, तो अपनी चटाई आकर बिछाता है। चटाई दबाकर लाता है, बिछा देता है, बैठ जाता है, समझ लेता है, ध्यान करके चला जाता है, चटाई वहीं छोड़ जाता है। फिर वह रोज आता रहता है और अपनी चटाई पर बैठता है, चला जाता है। जिस दिन हो जाता है उस दिन अपनी चटाई गोल करके चला जाता है, गुरु समझ जाता है, हो गया। इसमें धन्यवाद देने की भी क्या जरूरत है? वह जिस दिन चटाई गोल करता है, उस दिन गुरु कहता है कि अच्छा, जा रहे हो! क्योंकि किसको धन्यवाद देना है। वह यह भी नहीं कहता कि हो गया, वह अपनी चटाई लपेटने लगता है, तो गुरु समझता है कि चलो ठीक है, बस चटाई लपेटने का वक्त आ गया, अच्छी बात है। इतनी औपचारिकता की भी कहां जरूरत है कि धन्यवाद दो। और किसको धन्यवाद दो! और अगर कोई धन्यवाद देने जाएगा तो गुरु डंडा भी मार सकता है उसको—कि खोल चटाई वापस, अभी तेरा नहीं हुआ! किसको धन्यवाद दोगे?
तो वह जो दूसरे का खयाल है वह हमारे अज्ञान की ही धारणा है, अन्यथा कौन है दूसरा! हम ही हैं बहुत रूपों में, हम ही हैं बहुत यात्राओं पर, हम ही हैं बहुत दर्पणों में। निश्चित ही, सभी दर्पणों में लेकिन दिखाई तो कोई और ही पड़ रहा है।
एक सूफी कहानी है कि एक कुत्ता एक राजमहल में घुस गया। और उस राजमहल में सारी दीवालें दर्पण की बनाई गई थीं। वह कुत्ता बहुत मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि उसे चारों तरफ कुत्ते ही कुत्ते दिखाई पड़ने लगे। वह बहुत घबड़ाया। इतने कुत्ते चारों तरफ! अकेला घिर गया इतने कुत्तों में! निकलने का भी रास्ता नहीं रहा। द्वार—दरवाजों पर भी आईने थे। सब तरफ आईने ही आईने थे। फिर वह भौंका। लेकिन उसके भौंकने के साथ सारे कुत्ते भौंके और उसकी आवाज सारी दीवालों से टकराकर वापस लौटी, तब तो बिलकुल पक्का हो गया कि खतरे में जान है और बहुत दूसरे कुत्ते मौजूद हैं। और वह चिल्लाता रहा! और जितना चिल्लाया, उतने जोर से बाकी कुत्ते भी चिल्लाए; और जितना वह लड़ा और भौंका और दौड़ा, उतने ही सारे कुत्ते भी दौड़े और भौंके। और उस कमरे में वह अकेला कुत्ता था। रात भर वह भौंकता रहा, भौंकता रहा। सुबह जब पहरेदार आया तो वह कुत्ता मरा हुआ पाया गया, क्योंकि वह दीवालों से लड़कर और भौंककर थक गया और मर गया। हालांकि वहां कोई भी नहीं था। जब वह मर गया तो वे दीवालें भी शांत हो गईं, वे दर्पण चुप हो गए।
बहुत दर्पण हैं, और हम सब एक—दूसरे को जो देख रहे हैं, वे बहुत तरह के मिरर्स, बहुत तरह के दर्पणों में अपनी ही तस्वीरें हैं। इसलिए दूसरा कोई है, यह भ्रांति है, इसलिए दूसरे की हम सहायता कर रहे हैं, यह भी भ्रांति है, और दूसरे से हमें सहायता मिल रही है, यह भी भ्रांति है। असल में, दूसरा ही भ्रांति है। और तब जीवन में एक सरलता आती है, जहां तुम दूसरे को दूसरा मानकर कुछ नहीं करते हो— कुछ भी नहीं करते हो, न दूसरे को दूसरा मानकर अपने लिए कुछ करवाते हो; तब तुम ही रह जाते हो। और अगर रास्ते पर किसी गिरते आदमी को तुमने सहारा दिया है तो वह तुमने अपने को ही दिया है; और अगर रास्ते पर किसी और ने तुम्हें सहारा दिया है तो वह भी उसने अपने को ही दिया है। मगर यह परम अनुभव के बाद खयाल में आना शुरू होगा, उसके पहले तो निश्चित ही दूसरा है।

अनुभूति और अभिव्यक्ति:

प्रश्न : ओशो विवेकानंद को शक्तिपात से नुकसान हुआ शु ऐसा आपने एक बार कहा है।

 सल में, विवेकानंद को शक्तिपात से तो नुकसान नहीं हुआ, लेकिन शक्तिपात के पीछे जो हुआ उससे नुकसान हुआ; जो और चीजें चलीं। पर नुकसान और हानि की बात भी सपने के भीतर की बात है, बाहर की नहीं। तो जिस भांति रामकृष्‍ण की सहायता से उनको एक झलक मिली—जो झलक शायद उनको अपने ही पैरों पर कभी मिलती, वक्त लग जाता—लेकिन उस झलक के बाद, चूंकि वह झलक दूसरे से मिली थी, दूसरे के द्वारा मिली थी...। जैसे मैंने हथौड़ा मारा दरवाजे पर, दरवाजा टूट गया। लेकिन मैं दरवाजे को फिर खड़ा कर गया, उसी हथौड़े से खीलें ठोंक गया और वापस ठीक कर गया। जो हथौड़ा दरवाजा गिरा सकता है, वह कीलें भी ठोंक सकता है। हालांकि दोनों हालत में एक ही बात हो रही है, पहले भी समय ही थोड़ा कम हुआ था, अब समय ही फिर थोड़ा हो जाएगा।
रामकृष्ण की कुछ कठिनाइयां थीं जिनके लिए उन्हें विवेकानंद का उपयोग करना पड़ा। रामकृष्ण निपट देहाती, अपढ़, अशिक्षित आदमी थे, अनुभव उनको गहरा हुआ था, लेकिन अभिव्यक्ति उनके पास नहीं थी। और जरूरी था कि वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी आदमी को साधन बनाएं, वाहन बनाएं। नहीं तो रामकृष्ण का आपको पता ही न चलता। और रामकृष्ण को जो मिला था, यह उनकी करुणा का हिस्सा ही है कि वह किसी आदमी के द्वारा आप तक पहुंचा दें।
मेरे घर में खजाना मिल जाए मुझे, और मेरे पैर टूटे हों, और मैं किसी आदमी के कंधे पर खजाना रखकर आपके घर तक पहुंचा दूं। तो उस आदमी के कंधे का तो मैंने उपयोग किया, उसे थोड़ी तकलीफ भी दी; क्योंकि इतनी दूर वजन तो उसे ढोना ही पड़ेगा। लेकिन उस आदमी को तकलीफ देने का इरादा नहीं है, इरादा वह जो खजाना मुझे मिला है, आप तक पहुंचाने का है। क्योंकि मैं हूं लंगड़ा, और यह खजाना यहीं पड़ा रह जाएगा, और मैं घर के बाहर खबर भी नहीं ले जा सकूंगा।
तो रामकृष्ण को एक कठिनाई थी। बुद्ध को ऐसी कठिनाई नहीं थी। बुद्ध के व्यक्तित्व में रामकृष्ण और विवेकानंद एक साथ मौजूद थे। तो बुद्ध जो जानते थे, वह कह भी सकते थे; रामकृष्ण जो जानते थे, वह कह नहीं सकते थे। कहने के लिए उन्हें एक आदमी चाहिए था जो उनका मुंह बन जाए। तो विवेकानंद को उन्होंने झलक तो दिखा दी, लेकिन तत्काल विवेकानंद से कहा कि अब चाबी मैं रखे लेता हूं अपने हाथ, अब मरने के तीन दिन पहले लौटा दूंगा। अब विवेकानंद बहुत चिल्लाने लगे कि आप यह क्या कर रहे हैं! अब जो मुझे मिला है, छीनिए मत! रामकृष्ण ने कहा, लेकिन अभी तुझे और दूसरा काम करना है; अगर यह तू इसमें डूबा, तो गया। तो अभी मैं तेरी चाबी रखे लेता हूं इतनी तू कृपा कर। और मरने के तीन दिन पहले तुझे लौटा दूंगा। और अब मरने के तीन दिन पहले तक तुझे समाधि उपलब्ध न हो, क्योंकि तुझे कुछ और काम करना है जो समाधि के पहले ही तू कर पाएगा।
और इसका भी कारण यही था कि रामकृष्ण को पता नहीं था कि समाधि के बाद भी लोगों ने यह काम किया है। लेकिन रामकृष्ण को पता हो भी नहीं सकता था, क्योंकि वे समाधि के बाद कुछ भी नहीं कर पाए थे। स्वभावत: हम अपनी ही अनुभूति से चलते हैं। रामकृष्ण की अनुभूति के बाद रामकृष्ण कुछ भी नहीं कह पाते थे, बोल नहीं पाते थे। बोलना तो बहुत मुश्किल था, वे तो इतने.. .कोई कह देता राम— और वे बेहोश हो जाते। यह तो दूसरा कह दे! कोई चला आया है और उसने कहा कि जय राम जी— और वे बेहोश होकर गिर गए! उनके लिए तो राम शब्द भी सुनाई पड़ जाए तो मुश्किल मामला था—उनको याद आ गई उसी जगत की। किसी ने कह दिया अल्लाह, तो वे गए। मस्जिद दिखाई पड़ गई, तो वे वहीं खड़े होकर बेहोश हो गए। कहीं भजन—कीर्तन हो रहा है, वे चले जा रहे हैं अपने रास्ते से—वे गए, वहीं सड़क पर गिर गए। उनकी कठिनाई यह हो गई थी : कहीं से भी जरा सी स्मृति आ जाए उनको उस रस की, कि वे गए। तो अब उनको तो बहुत कठिनाई थी। और उनका अनुभव उनके लिहाज से ठीक ही था कि विवेकानंद को अगर यह अनुभूति हो गई तो फिर क्या होगा! तो उन्होंने विवेकानंद से कहा कि तुझे तो मैं कुछ, एक बड़ा काम है, वह तू कर ले, उसके बाद...
इसलिए विवेकानंद की पूरी जिंदगी समाधि—रहित बीती, और इसलिए बहुत तकलीफ में बीती। तकलीफ लेकिन सपने की! इस बात को खयाल में रखना कि तकलीफ सपने की है; एक आदमी सोया है और बड़ी तकलीफ का सपना देख रहा है। मरने के तीन दिन पहले चाबी वापस मिल गई, लेकिन मरने तक बहुत पीड़ा थी। मरने के पांच—सात दिन पहले तक भी जो पत्र उन्होंने लिखे, वे बहुत दुख के है—कि मेरा क्या होगा, मैं तड़प रहा हूं। और तड़प और भी बढ़ गई, क्योंकि जो देख लिया है एक दफा, उसकी दुबारा झलक नहीं मिली।
अभी उतनी तड़प नहीं है आपको, क्योंकि कुछ पता ही नहीं है कि क्या हो सकता है। उसकी एक झलक मिल जाए....... आप खड़े थे अंधेरे में, कोई तकलीफ न थी, हाथ में कंकड़—पत्थर थे, तो भी बड़ा आनंद था, क्योंकि संपत्ति थी। फिर चमक गई बिजली और दिखाई पड़ा कि हाथ में कंकड़—पत्थर हैं— और सामने दिखाई पड़ा कि रास्ता भी है, और सामने दिखाई पड़ा कि हीरों की खदान भी है। लेकिन बिजली खो गई। और बिजली कह गई कि अभी दूसरा काम तुम्हें करना है वे जो और पत्थर बीन रहे हैं उनसे कहना है कि यहां आगे खदान है। इसलिए अभी तुम्हारे लिए वापस बिजली नहीं चमकेगी। अब तुम ये जो बाकी पत्थर इकट्ठे कर रहे हैं इनको समझाओ।
तो विवेकानंद से एक काम लिया गया है जो रामकृष्ण के लिए सप्लीमेंट्री था, जरूरी था, जो उनके व्यक्तित्व में नहीं था वह दूसरे व्यक्ति से लेना पड़ा। ऐसा बहुत बार हो गया है, बहुत बार हो जाता है, कुछ बात जो नहीं संभव हो पाए एक व्यक्ति से, उसके लिए दो—चार व्यक्ति भी खोजने पड़ते हैं। कई बार तो एक ही काम के लिए दस—पांच व्यक्ति भी खोजने पडते हैं। उन सबके सहारे से वह बात पहुंचाई जा सकती है। उसमें है तो करुणा, लेकिन विवेकानंद के साथ तो...
इसलिए मेरा कहना यह है कि जहां तक बने शक्तिपात से बचना, जहां तक बने वहां तक प्रसाद की फिक्र करना। और शक्तिपात भी वही उपयोगी है जो प्रसाद जैसा हो। जिसकी कोई कंडीशनिंग न हो, जिसके साथ कोई शर्त न हो, जो यह न कहे कि अब हम चाबी रखे लेते हैं। मेरा मतलब समझे न? जो यह न कहे कि अब कोई शर्त है इसके साथ, जो बेशर्त, अनकडीशनल हो; जो आपको हो जाए और वह आदमी कभी आपसे पूछने भी न आए कि क्या हुआ; जो गया तो आपको अगर धन्यवाद भी देना हो तो उसको खोजना मुश्किल हो जाए कि उसे कहां जाकर धन्यवाद दें। उतना ही आपके लिए आसान पड़ेगा। लेकिन कभी रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को जरूरत पड़ती है। तो उसके सिवाय कोई रास्ता नहीं था। नहीं तो रामकृष्ण का जानना खो जाता; वे कह नहीं पाते। उनके लिए जबान चाहिए थी जो उनके पास नहीं थी। वह जबान उन्हें विवेकानंद से मिल गई।
इसलिए विवेकानंद निरंतर कहते थे कि जो भी मैं कह रहा हूं वह मेरा नहीं है। और अमेरिका में जब उन्हें बहुत सम्मान मिला, तो उन्होंने कहा कि मुझे बड़ा दुख हो रहा है और मुझे बड़ी मुश्किल पड़ती है, क्योंकि जो सम्मान मुझे दिया जा रहा है वह उस एक और दूसरे ही आदमी को मिलना चाहिए था जिसका आपको पता ही नहीं। और जब उन्हें कोई महापुरुष कहता, तो वे कहते कि जिस महापुरुष के पास मैं बैठकर आया हूं मैं उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं।
लेकिन रामकृष्ण अगर अमेरिका में जाते, तो वे किसी पागलखाने में भर्ती किए जाते, और उनकी चिकित्सा की जाती। उनकी कोई नहीं सुनता; वे बिलकुल पागल सिद्ध होते। वे पागल थे। अभी तक हम यह नहीं साफ कर पाए कि एक सेक्युलर पागलपन होता है और एक नॉन—सेक्युलर पागलपन भी होता है। अभी हम फर्क नहीं कर पाए कि एक पागलपन सांसारिक पागलपन, और एक और पागलपन भी है—डिवाइन भी है। वह हमें फर्क तो नहीं हो पाया।
तो अमेरिका में कभी दोनों पागल एक साथ एक से पागलखाने में बंद कर दिए जाते हैं; दोनों की एक चिकित्सा हो जाती है। रामकृष्ण की चिकित्सा हो जाती, विवेकानंद को सम्मान मिला। क्योंकि विवेकानंद जो कह रहे हैं, वह कहने की बात है, वे खुद कोई दीवाने नहीं हैं; वे एक संदेशवाहक हैं, एक डाकिया। चिट्ठी ले गए हैं किसी की, वह जाकर पढ़कर सुना दी है। लेकिन वे अच्छी तरह पढ़कर सुना सकते हैं।
नसरुद्दीन के जीवन में एक बहुत अदभुत घटना है। नसरुद्दीन अपने गांव में अकेला पढ़ा—लिखा आदमी है। और जिस गांव में एक ही अकेला पढा—लिखा हो, वह भी बहुत पढ़ा—लिखा तो होता नहीं! तो चिट्ठी किसी को लिखवानी हो, तो उसी से लिखवानी पड़ती है। तो एक आदमी उससे चिट्ठी लिखवाने आया है। और वह नसरुद्दीन उससे कहता है कि मैं न लिखूंगा, मेरे पैर में बड़ी तकलीफ है।
उस आदमी ने कहा, भई पैर से चिट्ठी लिखने को कहता कौन है! आप हाथ से चिट्ठी लिखिए।
नसरुद्दीन ने कहा कि तुम समझे नहीं, असल में हम चिट्ठी लिखते हैं तो हम ही पढ़ते हैं; हमें दूसरे गांव में जाकर पढ़नी भी पड़ती है। पैर में बहुत तकलीफ है, अभी हमें चिट्ठी लिखने की झंझट में नहीं पड़ना। लिख तो देंगे, पड़ेगा कौन? वह दूसरे गांव में हमीं को जाना पड़ता है न! तो अभी जब तक पैर में तकलीफ है, हम चिट्ठी लिखना बंद ही रखेंगे।
तो रामकृष्‍ण जैसे जो लोग हैं, ये जो चिट्ठी भी लिखेंगे, ये खुद ही पढ़ सकते हैं। ये आपकी भाषा भूल ही गए; आपकी भाषा का इनको कोई पता ही नहीं है। और ये एक और ही तरह की भाषा बोल रहे हैं जो आपके लिए बिलकुल मीनिंगलेस, अर्थहीन हो गई है। हम इनको पागल कहेंगे कि यह आदमी पागल है। तो हमारे बीच में से इन्हें कोई डाकिया पकड़ना पड़े जो हमारी भाषा में लिख सके। निश्चित ही, वह डाकिया ही होगा। इसलिए विवेकानंद से जरा सावधान रहना। उनका कोई अपना अनुभव बहुत गहरा नहीं है। जो वे कह रहे हैं, वह किसी और का है। हां, कहने में वे कुशल हैं, होशियार हैं। जिसका था, वह इतनी कुशलता से नहीं कह सकता था। लेकिन फिर भी वह विवेकानंद का अपना नहीं है।

 ज्ञानियों की झिझक और अज्ञानियों का अति आत्मविश्वास:

इसलिए विवेकानंद की बातचीत में ओवरकाफिडेंस मालूम पड़ेगा। जरूरत से ज्यादा वे बल दे रहे हैं। वह बल कमी की पूर्ति के लिए है। उन्हें खुद भी पता है कि वे जो कह रहे हैं, वह उनका अपना अनुभव नहीं है। इसलिए ज्ञानी तो थोड़ा—बहुत हेज़िटेट करता है; वह थोड़ा—बहुत डरता है। उसके मन में पचास बातें होती हैं कि यह कहूं ऐसा कहूं वैसा कहूं गलत न हो जाए। जिसको कुछ पता नहीं है वह बेधड़क जो उसे कहना है, कह देता है; क्योंकि उसे कोई कठिनाई नहीं होती, हेज़िटेशन कभी नहीं होता; वह कह देता है कि ठीक है।
बुद्ध जैसे ज्ञानी को तो बड़ी कठिनाई थी। तो वे तो बहुत सी बातों का जवाब ही नहीं देते थे। वे कहते थे कि मैं जवाब ही नहीं दूंगा, क्योंकि कहने में बड़ी कठिनाई है। कुछ लोग तो कहते, इससे तो हमारे गांव में अच्छे आदमी हैं, वे जवाब तो देते हैं, वे ज्यादा ज्ञानी हैं आपसे! कोई भी चीज पूछो, जवाब दे देते हैं। भगवान है कि नहीं? तो वे कहते तो हैं कि है या नहीं। उनको पता तो है। आपको पता नहीं है क्या? आप क्यों नहीं कहते कि है या नहीं?
अब बुद्ध की बड़ी मुश्किल है। है कहें तो मुश्किल है, नहीं कहें तो मुश्किल है। तो वे हेज़िटेट करेंगे, वे कहेंगे कि नहीं भई, इस संबंध में बात ही मत करो, कुछ और बातें करते हैं। स्वभावत: हम कहेंगे कि फिर पता नहीं है आपको, यही कह दो। यह भी बुद्ध नहीं कह सकते, क्योंकि पता तो है। और हमारी कोई भाषा काम नहीं करती।
इसलिए बहुत बार ऐसा हुआ है कि रामकृष्ण जैसे बहुत लोग पृथ्वी पर अपनी बात को बिना कहे खो गए हैं। वे नहीं कह पाते, क्योंकि यह बहुत रेअर कांबिनेशन है कि एक आदमी जाने भी और कह भी सके। और जब यह घटना घटती है तो ऐसे ही व्यक्ति को हम तीर्थंकर, अवतार, पैगंबर, इस तरह के शब्दों का उपयोग करने लगते हैं। उसका कारण यह नहीं है कि इस तरह के और लोग नहीं होते, इस तरह के और भी लोग हुए हैं, लेकिन कह नहीं सके।
बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपके पास ये दस हजार भिक्षु हैं, चालीस साल से आप लोगों को समझा रहे हैं, इनमें से कितने लोग आपकी स्थिति को उपलब्ध हुए? बुद्ध ने कहा, बहुत लोग हैं इनमें। तो उस आदमी ने कहा, आप जैसा कोई पता तो नहीं चलता हमें। बुद्ध ने कहा, फर्क इतना ही है कि मैं कह सकता हूं वे कह नहीं सकते, और कोई फर्क नहीं है। मैं भी न कहूं तो तुम मुझको भी नहीं पहचान सकोगे, बुद्ध ने कहा, क्योंकि तुम बोलना पहचानते हो, तुम जानना थोड़े ही पहचानते हो। यह संयोग की बात है कि मैं बोल भी सकता हूं जानता भी हूं; यह बिलकुल संयोग की बात है।
तो इसलिए वह थोड़ी सी कठिनाई विवेकानंद के लिए हुई जो उनको अगले जन्मों में पूरी करनी पड़े, लेकिन वह कठिनाई जरूरी थी। इसलिए रामकृष्‍ण को लेनी मजबूरी थी। लेनी पड़ी। और नुकसान लेकिन सपने का है। फिर भी मैं कहता हूं सपने में भी क्यों नुकसान उठाना? सपना ही देखना है तो अच्छा क्यों नहीं देखना, क्यों बुरा देखना?
मैंने सुना है कि— ईसप की एक फेबल है—कि एक बिल्ली एक वृक्ष के नीचे बैठी है और सपना देख रही है। एक कुत्ता भी उधर आकर विश्राम कर रहा है। और बिल्ली बड़ा आनंद ले रही है, बहुत ही आनंद ले रही है सपने में। उसकी प्रसन्नता देखकर कुत्ता भी बहुत हैरान है कि क्या देख रही है! क्या कर रही है! जब उसकी आंख खुली तो उसने पूछा कि जाने से पहले जरा बता दे कि क्या मामला था कि इतनी प्रसन्न हो रही थी? उसने कहा कि बड़ा ही आनंद आ रहा था, एकदम चूहे बरस रहे थे आकाश से। तो उस कुत्ते ने कहा, नासमझ! चूहे कभी बरसते ही नहीं। हम भी सपने देखते हैं, हमेशा हड्डियां बरसती हैं। और हमारे शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि चूहे कभी नहीं बरसते, जब बरसती हैं, हड्डियां बरसती हैं। मूरख बिल्ली, अगर सपना ही देखना था तो हड्डी बरसने का देखना था।
कुत्ते के लिए हड्डी अर्थपूर्ण है। कुत्ते काहे के लिए चूहे बरसाए। लेकिन बिल्ली के लिए हड्डी बिलकुल बेकार है। तो वह कुत्ता उससे कहता है, सपना ही देखना था तो कम से कम हड्डी का देखती। यानी एक तो सपना देख रही है, यही बेकार की बात है, फिर वह भी चूहे का देख रही है, और भी बेकार बात है।
तो मैं आपसे कहता हूं सपना ही देखना हो तो दुख का क्यों देखना? और जागना ही है, तो जहां तक बने—जहां तक बने— अपनी सामर्थ्य, अपनी शक्ति, अपने संकल्प का पूरे से पूरा जितना प्रयोग आप कर सकें, वह करें, और रत्ती भर दूसरे की प्रतीक्षा न करें कि वह सहायता पहुंचाएगा। सहायता मिलेगी, वह दूसरी बात है; आप प्रतीक्षा न करें कि सहायता मिलेगी। क्योंकि जितनी आप प्रतीक्षा करेंगे उतना ही आपका संकल्प क्षीण हो जाएगा। आप तो फिकर ही छोड़ दें कि कोई सहायता करनेवाला है, आप तो अपनी पूरी ताकत अकेला समझकर लगाएं कि मैं अकेला हूं। हां, सहायता बहुत तरह से मिल जाएगी, लेकिन वह बिलकुल दूसरी बात है।

 साधना में स्वावलंबी बनना सदा उपादेय:

इसलिए मेरा जोर जो है वह निरंतर आपकी पूरी संकल्प शक्ति पर है, ताकि कोई और जरा सी भी बाधा आपके लिए न हो। और जब दूसरे से मिले तो वह आपकी मांगी हुई न हो, और न आपकी अपेक्षा हो, वह ऐसे ही आ जाए जैसे हवा आती है और चली जाए।
इस वजह से मैंने कहा कि नुकसान पहुंचा। और जितने दिन वे जिंदा रहे, उतने दिन बहुत तकलीफ में रहे; क्योंकि जो वे कह रहे थे, उस कही हुई बात की दूसरे की आंखों में तो झलक मालूम पड़ती थी, क्योंकि वह चौंक गया है, खुश हुआ है, लेकिन खुद उन्हें पता था कि यह मुझे नहीं हो रहा है। अब यह बड़ी कठिनाई की बात है न कि मैं आपको मिठाई की खबर लेकर आऊं और मुझे स्वाद भी न हो! बस एक दफे सपने में थोड़ा सा दिखाई पड़ा हो, फिर सपना टूट गया हो, और उसने कहा कि अब सपना ही नहीं आएगा दुबारा तुम्हें। बस अब तुम लोगों तक खबर ले जाओ।
तो विवेकानंद का अपना कष्ट है। लेकिन वे सबल व्यक्ति थे, इस कष्ट को उन्होंने झेला। यह भी करुणा का हिस्सा है। लेकिन इसलिए आपको झेलना चाहिए, यह प्रयोजन नहीं है।

 विवेकानंद को समाधि की मानसिक झलक:

प्रश्न : ओशो विवेकानंद को जो समाधि का अनुभव हुआ था रामकृष्ण के संपर्क मे वह प्रामाणिक अनुभव था समाधि का?

 प्राथमिक कहो। प्रामाणिक तो उतना बड़ा सवाल नहीं है—प्राथमिक, अत्यंत प्राथमिक, जिसमें एक झलक उपलब्ध हो जाती है। और वह झलक, निश्चित ही, बहुत गहरी नहीं हो सकती और आत्मिक भी नहीं हो सकती; बहुत गहरी नहीं हो सकती। बिलकुल ही जहां हमारा मन समाप्त होता है और आत्मा शुरू होती है, उस परिधि पर घटेगी वह घटना। साइकिक ही होगी गहरे में, और इसलिए खो गई। और उसको उससे गहरा होने नहीं दिया गया। उससे गहरा हो जाए तो रामकृष्ण डरे हुए थे। उससे गहरा हो जाए तो यह आदमी काम का न रह जाए। और उनको इतनी चिंता थी काम की कि उन्हें यह खयाल ही नहीं था कि यह कोई जरूरी नहीं है कि यह आदमी काम का न रह जाए! बुद्ध चालीस साल तक बोलते रहे हैं, जीसस बोलते रहे हैं, महावीर बोलते रहे हैं, कोई इससे कठिनाई नहीं आ जाती। मगर रामकृष्‍ण का भय स्वाभाविक था, उनको कठिनाई थी। तो जिसको जो कठिनाई होती है, वही उनके खयाल में थी। इसलिए बहुत ही छोटी सी झलक उनको मिली। प्रामाणिक तो है; जितने दूर तक जाती है उतने दूर तक प्रामाणिक है। लेकिन प्राथमिक है, बहुत गहरी नहीं है। नहीं तो लौटना मुश्किल हो जाए।

 प्रश्न: ओशो समाधि का आंशिक अनुभव भी हो सकता है?

 आंशिक नहीं है, प्राथमिक है। इन दोनों में फर्क है। आंशिक अनुभव नहीं है यह। और समाधि का अनुभव आंशिक हो ही नहीं सकता। लेकिन समाधि की मानसिक झलक हो सकती है। अनुभव तो आध्यात्मिक होगा, झलक मानसिक हो सकती है। जैसे, मैं एक पहाड पर चढ़कर सागर को देख लूं। निश्चित ही मैंने सागर देखा, लेकिन सागर बहुत फासले पर है। मैं सागर के तट पर नहीं पहुंचा; मैंने सागर को छुआ भी नहीं, मैंने सागर का जल चखा भी नहीं; मैं सागर में उतरा भी नहीं; मैं नहाया भी नहीं, डूबा भी नहीं, मैंने एक पहाड़ की चोटी पर से सागर देखा और वापस चोटी से खींच लिया गया।
तो मेरे अनुभव को सागर का आंशिक अनुभव कहोगे?
नहीं, आंशिक भी नहीं कह सकते, क्योंकि मैंने छुआ भी नहीं—जरा भी नहीं छुआ, एक इंच भी नहीं छुआ, एक बूंद भी नहीं छुई, एक बूंद चखी भी नहीं।
लेकिन फिर भी क्या मेरे अनुभव को अप्रामाणिक कहोगे?
नहीं, देखा तो है! मेरे देखने में तो कोई कमी नहीं है, सागर मैंने देखा। सागर होकर नहीं देखा, डूबकर नहीं देखा, दूर किसी पीक से, किसी दूर शिखर से दिखाई पड़ गया!
तो तुम अपनी आत्मा को कभी अपने शरीर की ऊंचाई पर खड़े होकर भी देख लेते हो। शरीर की भी ऊंचाइयां हैं, शरीर के भी पीक एक्सपीरिएंसेस हैं। शरीर की भी कोई अनुभुति अगर बहुत गहरी हो तो तुम्हें आत्मा की झलक मिलती है। जैसे अगर बहुत वेल—बीइंग का अनुभव हो शरीर में, तुम परिपूर्ण स्वस्थ हो, और तुम्हारा शरीर स्वास्थ्य से लबालब भरा है, तो तुम शरीर की एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचते हो जहां से तुम्हें आत्मा की झलक दिखाई पड़ेगी। और तब तुम अनुभव कर पाओगे कि नहीं, मैं शरीर नहीं हूं मैं कुछ और भी हूं। लेकिन तुम आत्मा को जान नहीं लिए। लेकिन शरीर की एक ऊंचाई पर चढ़ गए।
मन की भी ऊंचाइयां हैं। जैसे कि कोई बहुत गहरे प्रेम में—सेक्स में नहीं, सेक्स शरीर की ही संभावना है। और सेक्स भी अगर बहुत गहरा और पीक पर हो, तो वहां से भी तुम्हें आत्मा की एक झलक मिल सकेगी। लेकिन बहुत दूर की झलक, बिलकुल दूसरे छोर से।
लेकिन प्रेम की अगर बहुत गहराई का अनुभव हो तुम्हें, और किसी को जिसे तुम प्रेम करते हो उसके पास तुम क्षण भर को चुप बैठे हो, सब सन्नाटा है, सिर्फ प्रेम रह गया है तुम्हारे दोनों के बीच डोलता हुआ, और कुछ शब्द नहीं, कोई भाषा नहीं, कुछ लेन—देन नहीं, कुछ आकांक्षा नहीं, सिर्फ प्रेम की तरंगें यहां से वहां पार होने लगी हैं, तो उस प्रेम के क्षण में भी तुम एक ऐसे शिखर पर चढ़ जाओगे जहां से तुम्हें आत्मा की झलक मिल जाए। प्रेमियों को भी आत्मा की झलक मिली है।
एक चित्रकार एक चित्र बना रहा है, और इतना डूब जाए उस चित्र को बनाने में कि एक क्षण में परमात्मा हो जाए, स्रष्टा हो जाए। जब एक चित्रकार चित्र को बनाता है तो वह उसी अनुभूति को पहुंच जाता है कि अगर भगवान ने कभी दुनिया बनाई होगी तो पहुंचा होगा, उस क्षण में। तो उस पीक पर...... .लेकिन वह मन की है ऊंचाई। उस जगह से वह एक क्षण को स्रष्टा है, क्रिएटर है; एक झलक मिलती है उसको आत्मा की। इसलिए कई बार वह उसे समझ लेता है कि पर्याप्त हो गई। वह भूल हो जाती है।
संगीत में मिल सकती है कभी, काव्य में मिल सकती है कभी, प्रकृति के सौंदर्य में मिल सकती है कभी, और बहुत जगह से मिल सकती है, लेकिन हैं सब दूर की चोटियां। समाधि में डूबकर मिलती है। बाहर से तो बहुत शिखर हैं जिन पर चढ़कर तुम झांक ले सकते हो।
तो यह जो अनुभुति है विवेकानंद की, यह भी मन के ही तल की है; क्योंकि मैंने तुमसे कहा कि दूसरा तुम्हारे मन तक आंदोलन कर सकता है। तो एक पीक पर चढ़ा दिया है!

 समाधि की मानसिक झलक भी बहुत महत्वपूर्ण:

यानी ऐसा समझो कि एक छोटा बच्चा है, मैंने उसे कंधे पर बिठा लिया, और उसने देखा, और मैंने उसे कंधे से नीचे उतार दिया। क्योंकि मेरा शरीर उसका शरीर नहीं हो सकता। उसके पैर तो जितने बड़े हैं उतने ही बड़े हैं। अपने पैर से तो जब वह खुद बड़ा होगा, तब देखेगा। लेकिन मैंने कंधे पर बिठाकर उसको कुछ दिखा दिया। वह कह सकता है जाकर कि मैंने देखा। फिर भी शायद लोग उसका भरोसा भी न करें। वे कहें, तूने देखा कैसे होगा? क्योंकि तेरी तो ऊंचाई नहीं है इतनी कि तू देख सके! लेकिन किसी के कंधे पर क्षण भर बैठकर देखा जा सकता है।
पर वह है संभावना सब मन की, इसलिए वह आध्यात्मिक नहीं है। इसलिए अप्रामाणिक नहीं कहता हूं लेकिन प्राथमिक कहता हूं। और प्राथमिक अनुभूति शरीर पर भी हो सकती है, मन पर भी हो सकती है। आंशिक नहीं है वह, है तो पूरी, पर मन की पूरी अनुभुति है वह। आत्मा की पूरी अनुभूति नहीं है। आत्मा की पूरी होगी तो वहां से लौटना नहीं है, वहां से कोई चाबी नहीं रख सकता तुम्हारी। और वहां से कोई यह नहीं कह सकता कि जब हम चाबी लौटाएंगे तब होगा। वहां से फिर कोई वश नहीं है। इसलिए वहां अगर किसी को काम लेना हो तो उसके पहले ही उसे रोक लेना पड़ता है। उसे उस तक नहीं जाने देना पड़ता है, नहीं तो फिर कठिनाई हो जाएगी।
है तो प्रामाणिक, लेकिन प्रामाणिकता जो है वह साइकिक है, स्प्रिचुअल नहीं है। वह भी छोटी घटना नहीं है, क्योंकि सभी को वह नहीं हो सकती, उसके लिए भी मन का बड़ा प्रबल होना जरूरी है। वह भी सबको नहीं हो सकती।

 प्रश्न: ओशो विवेकानंद का शोषण किया उन्होंने ऐसा कहा जा सकता है?

कहने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन शब्द जो है वह बहुत ज्यादा, जिसको कहें सिर्फ शब्द सूचक नहीं है वह, उसमें निंदा भी है। इसलिए नहीं कहना चाहिए। शोषण शब्द में निंदा है, गहरे में उसमें कडेमनेशन है। शोषण नहीं किया; क्योंकि रामकृष्‍ण को कुछ भी नहीं लेना—देना है विवेकानंद से। लेकिन विवेकानंद के द्वारा किसी को कुछ मिल सकेगा, यह खयाल है। इस अर्थ में शोषण किया कि उपयोग तो किया, उपयोग तो किया ही। लेकिन उपयोग और शोषण में बहुत फर्क है। और शोषण शब्द, जहां मैं अहंकेंद्रित, अपने अहंकार के लिए कुछ खींच रहा हूं और उपयोग कर रहा हूं वहां तो शोषण हो जाता है; लेकिन जहां मैं जगत, विश्व, सबके लिए कुछ कर रहा हूं वहां शोषण का कोई कारण नहीं है।
और फिर यह भी तो खयाल में नहीं है तुम्हें कि अगर रामकृष्ण वह झलक न दिखाते तो विवेकानंद को वह भी हो जाती, यह भी थोड़े ही पक्का है। इसी जन्म में हो जाती, यह भी थोड़े ही पक्का है। और इस बात को जो जानते हैं, वे तय कर सकते हैं। जैसे, हो सकता है— जैसी मेरी समझ है, यही है! लेकिन अब इसके लिए कोई प्रमाण नहीं जुटाए जा सकते हैं। रामकृष्ण का यह कहना कि मृत्यु के तीन दिन पहले तुझे चाबी वापस लौटा दूंगा, कुल इसका कारण इतना भी हो सकता है कि रामकृष्ण की समझ में विवेकानंद अपने ही आप प्रयास करते तो मरने के तीन दिन पहले समाधि को उपलब्ध हो सकते थे। रामकृष्ण का ऐसा खयाल है कि अगर यह आदमी अपने आप ही चलता है तो मरने के तीन दिन पहले इस जगह पहुंच जाता। तो उस दिन चाबी लौटा देंगे। वे भी चाबी कैसे लौटाएंगे, क्योंकि रामकृष्ण तो मर गए! रामकृष्‍ण तो मर गए, चाबी लौटानेवाला भी मर गया, लेकिन चाबी लौट गई तीन दिन पहले। तो इसकी बहुत संभावना है। क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व को जितना तुम नहीं जानते, उतना जो जितनी गहराइयों में गया है उतनी गहराइयों में तुम्हें जान सकता है; और यह भी जान सकता है कि तुम अगर अपने ही मार्ग से चलते रहो...।
स्वभावत:, अगर मैं एक यात्रा पर गया और एक पहाड़ चढ़ गया। पहाड़ का रास्ता मुझे मालूम है, सीढ़ियां मुझे मालूम हैं, समय कितना लगता है वह मुझे मालूम है, कठिनाइयां कितनी हैं वे मुझे मालूम हैं। मैं तुम्हें पहाड़ चढ़ते देख रहा हूं; मैं जानता हूं कि तीन महीने लग जाएंगे; समझ रहे हो न? मैं जानता हूं कि तुम जिस रफ्तार से चल रहे हो, जिस ढंग से चल रहे हो, जिस ढंग से भटक रहे हो, डोल रहे हो, उसमें इतना समय लग जाएगा। तो बहुत गहरे में तो इतना भी शोषण नहीं है। पर मैंने तुम्हें वहीं बीच में आकर, ऊपर उठाकर, पहाड़ के ऊपर जो है उसकी झलक दिखा दी है और तुम्हें उसी जगह छोड़ दिया और कहा कि तीन महीने बाद रास्ता मिल जाएगा; अभी तीन महीने तक रास्ता नहीं मिलेगा।
तो इतना, भीतर इतना सूक्ष्म है बहुत सा और इतना कांप्लेक्स है कि तुम्हें एकदम से ऊपर से नहीं दिखाई पड़ता, खयाल में नहीं आता। अब जैसे अभी कल निर्मल गई वहां वापस, तो उसको किसी ने कहा हुआ है कि त्रेपन वर्ष की उम्र में मर जाएगी; तो मैंने उसकी गारंटी ले ली कि त्रेपन वर्ष में नहीं मरेगी। अब यह गारंटी पूरी मैं नहीं करूंगा, पर यह गारंटी पूरी हो जाएगी। लेकिन अगर वह बच गई त्रेपन वर्ष के बाद, तो वह कहेगी कि मैंने गारंटी पूरी की।
विवेकानंद कहेंगे कि चाबी तीन दिन पहले लौटा दी। बाकी किसको चाबी लौटानी है!

 प्रश्न: ओशो ऐसा भी हो सकता है कि रामकृष्ण जानते रहे हों कि विवेकानंद को साधना की लंबी यात्रा बिना सफलता के करनी है जिसमें उन्हें बहुत दुख भी होगा। इसलिए उन्होंने दुख दूर करने के लिए पहले ही विवेकानंद को समाधि की एक झलक बता दी?

 'सा भी हो सकता है', ऐसा करके कभी सोचना ही मत, क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है। ' ऐसा भी हो सकता है ', ऐसा करके सोचने का कोई मतलब नहीं होता। इसलिए मतलब नहीं होता कि फिर तुम कुछ भी सोचती रहोगी, और उसका कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ऐसा कभी मत सोचना कि ऐसा भी हो सकता है, ऐसा भी हो सकता है, ऐसा भी हो सकता है। जितना हो सकता है पता हो, उतना ही सोचना। ऐज इफ करके नहीं सोचा चाहिए। जहां तक बने नहीं सोचना चाहिए। उससे कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वे बिलकुल ही अर्थहीन रास्ते हैं, जिन पर हम कुछ भी सोचते रहें, उससे कुछ होगा नहीं। और उससे एक नुकसान होगा। वह नुकसान यह होगा कि ' जैसा है', उसका पता चलने में बहुत देर लग जाएगी।
इसलिए हमेशा इसकी फिक्र करना कि कैसा है? और जैसा है, उसको जानना हो, तो ऐसा हो सकता है, ऐसा हो सकता है, ऐसा हो सकता है, यह अपने मन से काट डालना बिलकुल। इनको जगह ही मत देना। न मालूम हो तो समझना कि मुझे मालूम नहीं कि कैसा है। लेकिन यह अज्ञान की जो स्थिति है कि मुझे मालूम नहीं है, इसे इस ज्ञान से मत ढांक लेना कि ऐसा भी हो सकता है। क्योंकि हम ऐसे ढांके हुए हैं बहुत सी बातें। हम सब लोग इस तरह सोचते रहते हैं। इससे बची तो हितकर है।
अब कल बात करेंगे।

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