अहिंसा-दर्शन--प्रवचन-ग्याहरवां
प्रिय चिदात्मन्,
मैं आपकी
आंखों में झांकता हूं। एक पीड़ा, एक घना दुख, एक गहरा संताप, एंग्विश
वहां मुझे दिखाई देते हैं। जीवन के प्रकाश और उत्फुल्लता को नहीं, वहां मैं जीवन-विरोधी अंधेरे और निराशा को घिरता हुआ
अनुभव करता हूं। व्यक्तित्व के संगीत का नहीं, स्वरों की एक
विषाद भरी अराजकता का वहां दर्शन होता है। सब सौंदर्य, सब
लययुक्तता, सब अनुपात खंडित हो गए हैं। हम अपने को व्यक्ति,
इंडिविजुअल कहें, शायद यह भी ठीक नहीं है।
व्यक्ति होने के लिए एक केंद्र चाहिए, एक सुनिश्चित संगठन,
क्रिस्टलाइजेशन चाहिए, वह नहीं है। उस
व्यक्तित्व संगठन और केंद्रितता, इंडिविजुएशन के अभाव में हम
केवल अराजकता, एनार्की में हैं।
मनुष्य
टूट गया है। उसके भीतर कुछ बहुमूल्य, एसेंशियल खो गया और खंडित हो गया है। हम किसी एकता, यूनिटी
के जैसे खंडहर और अवशेष हैं। वह एकता महावीर में, बुद्ध में,
क्राइस्ट में परिलक्षित होती है। वे व्यक्ति हैं, क्योंकि वे स्वरों की अराजक भीड़ नहीं, संगीत हैं,
क्योंकि वे स्व-विरोध से भरी अंधी दौड़ नहीं,
एक सुनिश्चित गति और दिशा हैं।
जीवन
अपने केंद्र और दिशा को पाकर आनंद में परिणत हो जाता है। व्यक्तित्व को और उसमें
अंतर्निहित समस्वरता, हार्मनी को उपलब्ध कर
लेना वास्तविक जीवन के द्वार खोलना है। उसके पूर्व जीवन एक वास्तविकता, एक्चुअलिटी नहीं, केवल एक संभावना है, एक भविष्य, पोटेंशियलिटी है।
मनुष्य
के व्यक्तित्व विघटन की यह दुर्घटना सारे जगत में घटी है। हम अपने ही से विच्छिन्न
और पृथक हो गए हैं। हम एक ऐसे वृत्त हैं, जिसका केंद्र खो गया है और केवल परिधि ही शेष रह गई है। जीवन की परिधि पर
दौड़ रहे हैं, दौड़ते रहेंगे और फिर गिर जाएंगे और एक क्षण को
भी उसे नहीं जानेंगे जिसे विश्रांति कहते हैं। तेलघानी में कोल्हू के बैलों जैसी
हमारी गति हो गई है।
जीवन
परिधि ही नहीं है, केंद्र भी है,
यह जाने बिना सब प्रयास, सब गति अंततः व्यर्थ
और निस्सार हो जाती है। इसके ज्ञान के अभाव में श्रम की सब धाराएं दुख के सागर में
ले जाती हैं। जीवन की परिधि पर तो केवल क्रियाएं, बिकमिंग
हैं; सत्ता, बीइंग तो वहां नहीं है।
मैं, मेरा अस्तित्व, मेरा होना,
एक्झिस्टेंस तो वहां नहीं है। मैं अपनी प्रामाणिक सत्ता, आथेंटिकनेस में तो उस तल पर अनुपस्थित हूं। क्रिया, बिकमिंग
के तल पर मुझे नहीं पाया जा सकता है। उससे कहीं और गहरे और गहराइयों, डेप्थ्स में उसे पाया जा सकता है जो मैं हूं।
इस गहराई
को जाने बिना, इस आत्यंतिक रूप से
आंतरिक से संबंधित हुए बिना जीवन एक भटकाव है, एक बोझिल
यात्रा है। इस स्व से, इस सत्ता से संबंधित हुए बिना जीवन एक
आनंद यात्रा में परिणत नहीं होता है।
मैं एक
उखड़े हुए वृक्ष का स्मरण करता हूं। जब भी मनुष्य के संबंध में सोचता हूं, यह अनायास ही स्मृति में उभर आता है। न जाने क्यों
मैं मनुष्य को वृक्ष से भिन्न नहीं समझ पाता हूं। शायद जड़ों, रूट्स के कारण ही यह समता चित्त में धर गई है। व्यक्ति अपने सत्ता केंद्र
से टूट जाए तो उखड़े वृक्ष की भांति हो जाता है। स्वरूप से जो वियुक्त है, वह सत्ता से जड़ें खो रहा है। कैसा आश्चर्य है कि हम स्वयं से ही अपरिचित
होते जा रहे हैं! जैसे वह दिशा जानने की ही नहीं है! जैसे वह कोई दिशा, डायरेक्शन ही नहीं है! यदि भूल-चूक से कोई अपने से मिल जाए, यदि अनायास कहीं स्वयं से साक्षात, एनकाउंटर हो जाए,
तो जिससे मिलन हुआ है, उसे देख अवाक हो रह
जाना पड़ेगा, पहचानना तो किसी भी तरह संभव नहीं है।
स्व से, स्वभाव से हमारी जड़ें उखड़ गई हैं। हम हैं, पर स्वयं में नहीं। सबसे परिचित हैं, पर स्वयं से
अनजान और अजनबी, स्ट्रेंजर हो गए हैं। बाहर ज्ञान बढ़ा है,
भीतर अज्ञान घना हो गया है। दीए के तले अंधेरा होने की बात बहुत सच
हो गई है। शक्ति आई है, शांति विलीन हो गई है। विस्तार हुआ
है, गहराई नहीं आई है। असंतुलन और पक्षाघात से घिर गए हैं,
जैसे कोई वृक्ष बाहर विस्तृत हो, पर भीतर उसकी
जड़ें सड़ने लगी हों, ऐसा ही मनुष्य के साथ हुआ है। इससे दुख,
विषाद और संताप पैदा हुआ है, निराशा और आसन्न
मृत्यु की कालिमा बनी हुई है, जैसी किसी भी वृक्ष की भूमि से
जड़ें ढीली होने पर होती है।
मनुष्य
की भी जड़ें हैं और उसकी भी भूमि है। इस सत्य को पुर्नउदघोषित करने की आवश्यकता है।
यह अत्यंत आधारित सत्य विस्मृत हो गया है। इस विस्मृति के कारण हम क्रमश: अपनी जड़ें अपने हाथों खो रहे हैं। एक सतत आत्मघात,
स्युसाइड में हम लगे हैं। यह जड़ों को खोना, अपरूटेडनेस
हमें निरंतर गहरे से गहरे दुख, विषाद और मृत्यु में ले जा
रहा है।
व्यक्ति-व्यक्ति को मैं दुख से घिरा देखता हूं। और यह स्मरणीय
है कि जब एक व्यक्ति दुखी होता है, तो वह अनेकों के दुख का
कारण बन जाता है। मैं यदि दुखी हूं, तो अनिवार्यतः दूसरों के
दुख का कारण बन जाऊंगा। जो मैं हूं, वही मेरे संबंधों में
व्याप्त हो जाता है।
यह
स्वाभाविक ही है। क्योंकि अपने संबंधों में मैं स्वयं को ही तो डालता और उंडेलता
हूं, अन्यथा संभव नहीं है।
मेरे संबंध मेरे ही प्रतिरूप और मेरे ही स्वर हैं। उनमें मैं ही प्रतिबिंबित और
प्रतिध्वनित हूं। मैं ही उनमें उपस्थित हूं। इससे यदि मैं दुखी हूं, दुख हूं, तो दुख ही मुझ से प्रवाहित और प्रसारित
होगा। सरोवर में जैसे लहर-वृत्त एक छोटे से केंद्र पर उठ कर
दूर-दूर व्यापी हो जाते हैं, ऐसे ही
मेरे व्यक्ति केंद्र पर जो संवृत्त जाग जाते हैं, वे मुझ तक
ही सीमित नहीं रहते हैं, उनकी प्रतिध्वनियां दूर दिगंत तक
सुनी जाती हैं। व्यक्ति में जो घटित होता है, वह बहुत शीघ्र
अनंत में परिव्याप्त हो जाता है। व्यक्ति और विराट के बीच वस्तुतः सीमाएं नहीं
हैं। वे अनंत मार्गों से संबंधित और अंतः-संवादित हैं।
मैं दुखी
हूं, तो मैं दुख देने वाला
हूं। न चाहूं, तब भी प्रतिक्षण मुझसे वह प्रवाहित हो रहा है।
वह विवशता है। क्योंकि जो मेरे पास है, वही तो मैं दे सकता
हूं; जो मेरे स्वयं के ही पास नहीं है, उसे चाह कर भी तो नहीं दिया जा सकता है। संबंधों में हम आकांक्षाओं को
नहीं, अपने को ही देते हैं। शुभ आकांक्षाएं ही नहीं, मेरा शुभ होना आवश्यक है। मंगल कामनाएं ही नहीं, मेरा
मंगल होना आवश्यक है। स्वप्न नहीं, सत्ता ली-दी जाती है।
इससे
कितने ही लोग चाह कर भी न किसी को आनंद, न शांति, न प्रेम ही दे पाते हैं। उनकी
शुभाकांक्षाएं असंदिग्ध हैं, पर उतना ही पर्याप्त नहीं है।
उनके स्वप्न सच ही सुंदर हैं, पर सत्ता के जगत में उनका
प्रभाव पानी पर खींची गई रेखाओं से ज्यादा नहीं है। उनसे काव्य तो बन सकता है,
पर जीवन अस्पर्शित रह जाता है। हम देना चाहते हैं आनंद..और कौन नहीं देना चाहता है..पर दे पाते हैं दुख और
विषाद। देना चाहते हैं प्रेम और जो दे पाते हैं, उसमें कहीं
दूर भी प्रेम की ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती है।
और तब
कैसी एक रिक्तता, एम्पटीनेस, कैसी एक असफलता, फ्रूटलेसनेस, कैसी
एक व्यर्थता अनुभव होती है! कैसा सब हारा हुआ और पराजित लगता
है! पराजय के इन क्षणों में सब दिशा-सूत्र
खो जाते हैं, सब प्रयोजनवत्ता खो जाती है, सब अर्थ खो जाता है। शेष रह जाता है एक अवसाद और अकेलापन, लोनलीनेस, जैसे हम जगत में अकेले ही छूट गए हों। इन
क्षणों में अपनी असमर्थता, इम्पोटेंस और असहायावस्था दिखती
है।
शुभाकांक्षाओं
के, स्वप्नों के अनुकूल परिणाम नहीं
आते हैं, क्योंकि सत्ता उनके प्रतिकूल होती है। इससे जीवन-सरिता सार्थकता और कृतार्थता के सागर तक पहुंचती ही नहीं, व्यर्थता और अतृप्ति, फ्रस्ट्रेशन के मरुस्थल में
विलीन और अपशोषित होती मालूम होती है। अर्थहीनता-बोध की इस
मनःस्थिति में यदि थोड़ी सी भी अमूच्र्छा, अवेयरनेस हो,
तो एक अत्यंत बद्धमूल भ्रम भंग हो सकता है। और उस भ्रम-भंगता के आलोक, डिसइल्यूजनमेंट में व्यक्ति जीवन के
एक आधारभूत सत्य के प्रति जाग सकता है। उस विद्युत आलोक में दिख सकता है कि जीवन
की अंतस-सत्ता से अर्थहीनता पैदा नहीं होती है। अर्थहीनता
पैदा होती है इस भ्रांत धारणा से कि जो स्वयं के पास ही नहीं है, उसे भी किसी को दिया जा सकता है; इस अज्ञान से कि जो
सुगंध मुझ में ही नहीं है, वह भी संप्रेषित की जा सकती है।
यह अज्ञान बहुत मूलव्यापी है। प्रेमशून्य प्रेम देना चाहते हैं; आनंदरिक्त आनंद वितरित करना चाहते हैं; दरिद्र समृद्धि
दान करने के स्वप्नों से पीड़ित और आंदोलित होते हैं।
मैं
देखता हूं कि जो स्वयं के पास नहीं है, उसे दिया भी नहीं जा सकता है। इसे सिद्ध करने को किसी तर्क और प्रमाण की
आवश्यकता नहीं है। यह तो सूरज की भांति साफ और स्पष्ट है। शायद सूरज से भी ज्यादा
स्पष्ट है, क्योंकि आंखें न हों तब भी तो इसे देखा जा सकता
है। किंतु यह सिक्के का एक ही पहलू है। एक दूसरा पहलू भी है। वह तो और भी आंखों से
ओझल हो गया है।
कभी-कभी कितना आश्चर्य होता है कि जो इतना निकट और इतना
सहज जानने योग्य है, वह भी हमें विस्मृत हो जाता है। शायद जो
बहुत स्पष्ट और बहुत निकट होता है, वह निकटता की अति के कारण
ही दिखना बंद हो जाता है।
वह दूसरा
पहलू यह है कि जो स्वयं के पास नहीं है, उसे किसी से लिया भी नहीं जा सकता है। जो स्वयं में नहीं है, उसे देना तो संभव है ही नहीं, लेना भी संभव नहीं है।
जो भी अन्य से पाया जा सकता है, वह पाने के पूर्व स्वयं में
उपस्थित होना चाहिए, तो ही उसके प्रति संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी और ग्रहणशीलता, रिसेप्टिविटी होती है।
मैं जो हूं उसे ही स्वीकार कर पाता हूं, उसके ही मुझ में
द्वार, ओपनिंग और उसे आकर्षित करने की क्षमता होती है।
हम देखते
हैं कि एक ही भूमि से कैसे भिन्न-भिन्न पौधे भिन्न-भिन्न रूप, रंग
और गंध आकर्षित कर लेते हैं। उनमें जो है, वही उनमें चला भी
आता है। वे जो हैं, वही वे पा भी लेते हैं। यही नियम है,
यही शाश्वत व्यवस्था है।
प्रेम
पाने को प्रेम से भरे होना आवश्यक है। जो घृणा से भरा है, वह घृणा को ही आमंत्रित करता है। विष से जिसने अपने
को भर रखा है, सारे जगत का विष उसकी ओर प्रवाहमान हो जाता
है। समान समान को, सजातीय सजातीय को पुकारता और उसका प्यासा
होता है। अमृत को जो चाहता हो उसे अमृत से भर जाना होता है। प्रभु को जो चाहता है,
उसे अपने प्रभु को जगा लेना होता है। जो चाहते हो, वही हो जाओ। जिससे मिलना चाहते हो, वही बन जाओ। आनंद
को पकड़ने के लिए आनंद में होना आवश्यक है, आनंद ही होना
आवश्यक है। आनंद ही आनंद का स्वागत और स्वीकार कर पाता है।
क्या
देखते नहीं हैं कि दुखी चित्त ऐसी जगह भी दुख खोज लेता है जहां दुख है ही नहीं? पीड़ित पीड़ा खोज लेता है, उदास
उदासी खोज लेता है। वस्तुतः वे जिसके प्रति संवेदनशील हैं, उसका
ही चयन कर लेते हैं। जो भीतर है, उसका चयन भी होता है,
और उसी का प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन, आरोपण भी होता है। हम जो हैं, उसी को खोज भी लेते
हैं। जगत, जगत की स्थितियां दर्पण हैं, जिसमें हम अनेक कोणों से, अनेक रूपों में अपने ही
दर्शन कर लेते हैं।
मैं जो
देता हूं, वह भी मैं ही हूं।
मैं जो लेता हूं, वह भी मैं ही हूं। मैं के अतिरिक्त मेरी
कोई सत्ता, कोई अनुभूति नहीं है। उसके बाहर जाना संभव नहीं
है। वही संसार है, वही मोक्ष है। वही दुख है, वही आनंद है। वही हिंसा है, वही अहिंसा है। वही विष
है, वही अमृत है।
एक मंदिर
के द्वार पर हुए विवाद का स्मरण आता है। सुबह की हवाओं में मंदिर की पताका लहरा
रही थी। सूरज के स्वर्ण-प्रकाश में आंदोलित उस
पताका को देख कर दो भिक्षुओं में विवाद हो गया था कि आंदोलन, मूवमेंट पताका में हो रहा था कि हवाओं में हो रहा था? किसी निकट से निकलते हुए तीसरे भिक्षु ने कहा था: मित्र,
आंदोलन मन, माइंड में हो रहा है।
सच ही, सब आंदोलन मन में हो रहा है और मन का हो रहा है।
मैं यदि
भूलता नहीं हूं, तो महावीर ने कहा है:
यह आत्मा ही शत्रु है, यह आत्मा ही मित्र है।
आत्मा की
शुद्ध परिणति अहिंसा है, आत्मा की अशुद्ध
परिणति हिंसा है। वह व्यवहार की ही नहीं, मूलतः सत्व की
सूचना है।
व्यवहार-शुद्धि का बहुत विचार चलता है। मैं जैसा देखता हूं,
वह पकड़ और पहुंच उलटी है। व्यवहार नहीं, सत्व-शुद्धि करनी होती है। व्यवहार तो अपने से बदल जाता है। वह तो सत्व का
अनुगामी है। ज्ञान परिवर्तित हो तो आचार परिवर्तित हो जाता है। ज्ञान ही आधार और
केंद्रीय है। व्यवहार उसी का प्रकाशन है। वह प्राण है, आचार
उसका स्पंदन है।
साक्रेटीज
का वचन है: ज्ञान ही चरित्र है..नालेज इ.ज वच्र्यू।
ज्ञान से
अर्थ जानकारी, इनफर्मेशन और
पांडित्य का नहीं है। ज्ञान से अर्थ है प्रज्ञा का, सत्व,
सत्ता के साक्षात से उत्पन्न बोध, कांशसनेस
का। यह बोध, यह जागरूकता, यह प्रज्ञा
ही क्रांति, ट्रांसफार्मेशन है। तथाकथित विचार-संग्रह से उत्पन्न ज्ञान इस क्रांति को लाने में असमर्थ होता है, क्योंकि वस्तुतः वह ज्ञान ही नहीं है। वह नगद और स्वयं का नहीं है। वह है
उधार, वह है अन्य की अनुभूति से निष्पन्न और इस कारण मृत और
निष्प्राण है।
आत्मानुभूति
हस्तांतरित होने में मृत हो जाती है। उसे जीवित और सप्राण हस्तांतरित करने का कोई
उपाय नहीं है। सत्य नहीं, केवल शब्द ही पहुंच पाते हैं। इन शब्दों पर ही आधारित जो ज्ञान है,
वह बोझ तो बढ़ा सकता है, मुक्ति उससे नहीं आती
है।
मैं जिस
ज्ञान को क्रांति कह रहा हूं, वह पर से संगृहीत नहीं, स्व से जाग्रत होता है। उसे
लाना नहीं, जगाना है। उसका स्वयं में आविष्कार करना है। उसके
जागरण पर आचार साधना नहीं होता है, वह आता है, जैसे हमारे पीछे हमारी छाया आती है। आगम इसी ज्ञान को ध्यान में रख कर
कहते हैं: पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान है, तब अहिंसा है, तब आचरण है।
यह
केंद्र के परिवर्तन से परिधि को परिवर्तित करने की विधि है। यही सम्यक विधि है।
इसके विपरीत जो चलता है, वह बहुत मौलिक भूल
में है। वह निष्प्राण से प्राण को परिवर्तित करने चला है, वह
क्षुद्र से महत को परिवर्तित करने चला है, वह शाखाओं से मूल
को परिवर्तित करने चला है। वैसे व्यक्ति ने अपनी असफलता के बीज प्रारंभ से ही बो
लिए हैं।
यह
स्वर्ण-सूत्र स्मरण रहे कि
आचार से सत्ता परिवर्तित नहीं होती है, सत्ता से ही आचार
परिवर्तित होता है। सम्यक ज्ञान सम्यक आचार का मूलाधार है। इससे ही हरिभद्र यह कह
सके हैं: आत्मा अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा, क्योंकि आत्मा की अप्रमत्तता से ही अहिंसा फलित होती है और प्रमत्तता से
हिंसा।
आया चेव अहिंसा, आया हिंसति निच्छओ अेस।
जो होई अप्पमत्तो अहिंसओ, हिंसओ इयरो।।
मैं यदि
आत्म-जाग्रत, अप्रमत्त, अमूच्र्छित हूं, तो
मेरा जो व्यवहार है, वह अहिंसा है।
मैं यदि
स्वस्थित हूं, स्थितप्रज्ञ हूं,
ब्रह्मनिमज्जित हूं, तो जीवन-परिधि पर मेरा जो परिणमन है, वह अहिंसा है।
अहिंसा
प्रबुद्ध चेतना की जगत तल पर अभिव्यंजना है। अहिंसा आनंद में प्रतिष्ठित चैतन्य का
आनंद प्रकाशन है। दीए से जैसे प्रकाश झरता है, ऐसे ही आनंद को उपलब्ध चेतना से अहिंसा प्रकीर्णित होती है। वह प्रकाशन
किसी के निमित्त नहीं है, किसी के लिए नहीं है। वह सहज है और
स्वयं है। वह आनंद का स्वभाव है।
एक साधु
के जीवन में मैंने पढ़ा है। किसी ने उससे कहा था, शैतान को घृणा करनी चाहिए। तो उसने कहा था, यह तो
बहुत कठिन है, क्योंकि घृणा तो अब मेरे भीतर है ही नहीं। अब
तो केवल प्रेम है, चाहे शैतान हो और चाहे ईश्वर, उसके सिवाय देने को अब मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं तो उन दोनों में शायद
अंतर भी नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि प्रेम की आंख कब अंतर कर
पाई है?
यह जब
मैं सुनता हूं कि दूसरों पर दया करना अहिंसा है, तो सच ही मुझे बहुत हैरानी होती है। अहंकार कैसे-कैसे
मार्ग अपनी तृप्ति के निकाल लेता है! उसकी आविष्कार क्षमता
अदभुत है। अहिंसा का वस्तुतः किसी से कोई संबंध नहीं है, वह
आत्म-उदभूत प्रकाश है। जिन पर वह पड़ता है उन्हें जरूर प्रेम
और करुणा का अनुभव हो सकता है, लेकिन उस दृष्टि से वह
चेष्टित नहीं है। यह भी सुनता हूं कि अहिंसा करनी चाहिए, जैसे
वह भी कोई क्रिया है, जो कि की और न की जाती है। कभी-कभी सुंदर दिखने वाले उपदेश कितने व्यर्थ और अज्ञानपूर्ण हो सकते हैं,
ऐसी बातें सुन कर उनका पता चलता है। प्रेम क्रिया, एक्टिविटी नहीं है, वह सत्ता की एक स्थिति, स्टेट अॅाफ बीइंग है। प्रेम किया नहीं जाता है, प्रेम
में हुआ जाता है। वह संबंध नहीं, सदभाव है।
यह बोध
भी हो कि मैं प्रेम कर रहा हूं, तो वह प्रेम नहीं है। प्रेम या आनंद जब स्वभाव होते हैं, तो उनकी उपस्थिति का अनुभव कि मैं प्रेम कर रहा हूं, क्रिया और सत्ता में भेद का सूचक है। वह भेद यदि उपस्थित है, तो प्रेम चेष्टित है, सत्ता निष्पन्न नहीं है। और
वैसा प्रेम प्रेम नहीं है। प्रेम जब संपूर्ण सत्ता से, संपूर्ण
व्यक्तित्व, टोटल पर्सनैलिटी से आविर्भूत होता है, तो उसके पीछे उसे जानने वाला कोई नहीं रह जाता है। कोई प्रेम करने वाला
नहीं होता है, केवल प्रेम ही होता है।
मैं
अहिंसा से प्रेम का अर्थ लेता हूं। वह प्रेम की शुद्ध और पूर्ण अनुभूति है। प्रेम
में जो किसी से संबंधित होने का भाव है, उस भाव के दूर करने के हेतु ही अहिंसा के नकारात्मक शब्द का प्रयोग होता
रहा है। उस नकारात्मकता में प्रेम का निषेध नहीं है, निषेध
है केवल प्रेम के एक संबंध, रिलेशनशिप होने का। प्रेम संबंध
नहीं, स्थिति, स्टेट अॅाफ कांशसनेस है,
इस सत्य पर जोर देने के लिए अहिंसा शब्द का प्रयोग हुआ है। पर जो
उसे प्रेम का ही अभाव समझ लेते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर देते
हैं। वह प्रेम का अभाव नहीं है, केवल उनका अभाव है, जो प्रेम को परिपूर्ण और परिशुद्ध नहीं होने देते हैं। वह उन तत्वों का
अभाव अवश्य है, जो उसे संबंध की स्थिति से सत्ता की स्थिति
तक नहीं उठने देते हैं। वह राग, विराग, आसक्ति, विरक्ति का अभाव है। इन बंधनों से ऊपर उठ कर
प्रेम वीतराग हो जाता है।
मैं
वीतराग प्रेम को ही अहिंसा कहता हूं। अहिंसा प्रेम है, और इसलिए वह नकारात्मक नहीं है। अहिंसा शब्द नकारात्मक
है, पर अहिंसा नकारात्मक नहीं है। वह भावस्थिति अत्यंत
विधायक, पाजिटिव है। उससे अधिक विधायक और कुछ भी नहीं हो
सकता है। प्रेम से अधिक जीवंत और विधायक और हो भी क्या सकता है?
प्रेम-अभाव हिंसा ही नकारात्मक, निगेटिव
है, क्योंकि वह स्वभाव-विरोध है। मैं
अपने प्रति अप्रेम, हिंसा नहीं चाहता हूं, और कोई भी नहीं चाहता है। प्रत्येक प्रेम का प्यासा क्यों है? अप्रेम की प्यास क्यों किसी को नहीं है?
मैं
अनुभव करता हूं कि हम केवल स्वरूप को ही चाहते और चाह सकते हैं। और यदि हम अपनी
चाह को समझ लें, तो उस चाह में ही हम
स्वरूप की ओर छिपे इंगित पा सकते हैं।
मैं
प्रेम चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप
प्रेम है।
मैं आनंद
चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप
आनंद है।
मैं
अमृतत्व चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप
अमृत है।
मैं
प्रभुत्व चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप
प्रभु है।
और स्मरण
रखना है कि जो मैं चाहता हूं, वही प्रत्येक चाहता है। हमारी चाहें कितनी समान हैं! और तब क्या हमारी समान चाहें हमारे समान स्वरूप की उदघोषणा नहीं हैं?
‘मैं’ और ‘न मैं’ में जो बैठा है, वह भिन्न नहीं है। इस अभिन्न चेतना
की आकांक्षा अप्रेम, हिंसा के लिए नहीं है। इसलिए मैंने कहा
कि हिंसा नकारात्मक है, क्योंकि वह स्वभाव-विरोध है। और जो नकारात्मक, निगेटिव होता है,
वह विध्वंसात्मक, डिस्ट्रक्टिव होता है।
अप्रेम विध्वंस शक्ति है। वह मृत्यु की सेविका है। उस दिशा से चलने वाला निरंतर
गहरे से गहरे विध्वंस और मृत्यु और अंधेरे में उतरता जाता है। वह मृत्यु है,
क्योंकि वह स्वरूप-विपरीत आयाम, डायमेंशन है।
अहिंसा
जीवन की घोषणा है। प्रेम ही जीवन है।
अहिंसा
शब्द में हिंसा की निषेधात्मकता का निषेध, निगेशन अॅाफ निगेशन है। और मैंने सुना है कि निषेध के निषेध से विधायकता,
पाजिटिविटी फलित होती है। शायद अहिंसा शब्द में उसी विधायकता की ओर
संकेत है। फिर, शब्द की खोल तो निस्सार है। शब्द की राख के
पीछे जो जीवित आग छिपी है, उसे ही जानना है। वह आग प्रेम की
है। और प्रेम सृजन है। अप्रेम को मैंने विध्वंस कहा है, प्रेम
को सृजन कहता हूं। जीवन में प्रेम ही सृजन का स्रोत है। विधायकता और सृजनात्मकता
के चरम स्रोत और अभिव्यक्ति के कारण ही क्राइस्ट प्रेम को परमात्मा या परमात्मा को
प्रेम कह सके हैं। सच ही सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी के लिए
प्रेम से अधिक श्रेष्ठ और ज्यादा अभिव्यंजक अभिव्यक्ति खोजनी कठिन है।
मैं
देखता हूं कि यदि अहिंसा की यह विधायकता और स्वसत्ता दृष्टि में न हो, तो वह केवल हिंसा का निषेध होकर रह जाती है। हिंसा न
करना ही अहिंसा नहीं है, अहिंसा उससे बहुत ज्यादा है।
शत्रुता का न होना ही प्रेम नहीं है, प्रेम उससे बहुत ज्यादा
है। यह भेद स्मरण न रहे तो अहिंसा-उपलब्धि केवल हिंसा-निषेध और हिंसा-त्याग में परिणत हो जाती है।
इसके
परिणाम घातक होते हैं। नकार और निषेध की दृष्टि जीवन को विस्तार नहीं, संकोच देती है। उससे विकास और मुक्ति नहीं, कुंठा और बंधन फलित होते हैं। व्यक्ति फैलता नहीं, सिकुड़ने
लगता है। वह विराट जीवन ब्रह्म में विस्तृत नहीं, क्षुद्र
में और अहं में सीमित होने लगता है। वह सरिता बन कर सागर तक पहुंच जाता, लेकिन सरोवर बन सूखने लगता है। अहिंसा को जगाना सरिता बनना है, केवल हिंसा-त्याग में उलझ जाना सरोवर बन जाना है।
नकार की साधना श्री और सौंदर्य और पूर्णता में नहीं, कुरूपता
और विकृति में ले जाती है। वह मार्ग छोड़ने का है, पाने का और
मर जाने का नहीं। जैसे कोई स्वास्थ्य का साधक मात्र बीमारियों से बचने को ही
स्वास्थ्य-साधना समझ ले, ऐसी ही भूल वह
भी है।
स्वास्थ्य
बीमारी का अभाव ही नहीं, प्राणशक्ति, वाइटल फोर्स का जागरण है। वह प्राण की प्रसुप्त और बीज-शक्ति का जागना और वास्तविक बनना है। बीमारी से बचाव तो मुर्दों का भी हो
सकता है, लेकिन उन्हें स्वास्थ्य नहीं दिया जा सकता है।
बीमारियों से बच-बच कर कोई अपने को जिलाए रख सकता है,
लेकिन स्वास्थ्य और जीवन को पाना बहुत दूसरी बात है।
धर्म-साधना में भी स्वास्थ्य-साधना के
इस विज्ञान को याद रखना अत्यधिक उपादेय है।
एक साधु
आश्रम में अतिथि था। उसके स्वागत में एक समारोह आयोजित था। उस आश्रम के कुलपति ने
अपने आश्रम और आश्रम के अंतेवासियों के परिचय में कहा था, हम हिंसा नहीं करते हैं, हम
मादक द्रव्यों का उपयोग नहीं करते हैं, हम परिग्रह नहीं करते
हैं। इसी स्वर में उसने और बहुत सी बातें बताई थीं, जो कि
साधु नहीं करते थे। वह अतिथि देर तक यह सब सुनता रहा था और अंत में उसने पूछा था,
मैं यह तो समझ गया कि आप क्या नहीं करते हैं, अब
कृपया यह और बताएं कि आप करते क्या हैं!
निश्चय
ही, यही मैं भी पूछना चाहता हूं,
‘न करने’ और ‘करने’
के इस बहुमूल्य भेद की मैं भी याद दिलाना चाहता हूं।
अहिंसा
को, या उस दृष्टि से धर्म को ही
जिसने ‘न करने’ की भाषा में समझा और
पकड़ा है, वह बहुत आधारभूत भूल में पड़ गया है। शवीत्जर ने
जिसे जीवन-निषेध, लाइफ निगेशन कहा है,
वही उसकी चर्या हो जाती है। जीवन-विधेय,
विधायकता, लाइफ एफर्मेशन के लक्ष्य से उसके
संबंध-सूत्र विच्छिन्न हो जाते हैं। वह उपलब्धि के आरोहण को
खो देता है, और केवल खोने और न होने में लग जाता है।
और सबसे
बड़ा आश्चर्य तो यह है कि खोने की इस सतत चेष्टा और आग्रह के बावजूद भी जिन्हें वह
खोना चाहता है, उन्हें नहीं खो पाता
है। संघर्ष से जिन्हें वह दूर करता है, वे किसी रहस्यमय ढंग
से उसके निकट ही बने रहते हैं। वह विश्राम भी नहीं कर पाता है कि पाता है कि
जिन्हें वह दूर छोड़ आया था, वे सब पुनः वापस लौट आए हैं।
जिन्हें वह दमन करता है, वे वेग न मालूम क्यों और वेग पकड़ते
प्रतीत होते हैं। जिन वासनाओं से वह युद्धरत है, जिनके सिरों
को वह धड़ों से अलग कर फेंक देता है, वह अवाक रह जाता है कि
वे सब पुनः-पुनः हजार-हजार सिर रख कर
फिर उसे घेर कर कैसे खड़ी हो जाती हैं?
हिंसा, क्रोध या काम, सेक्स कोई भी
केवल दमन से विलीन नहीं होता है। नकार और विरोध मात्र से ये वेग समाप्त नहीं होते
हैं। उस भांति वे और सूक्ष्म होकर चित्त की और भी गहरी पर्तों पर सक्रिय हो जाते
हैं। फ्रायड ने जिसे अचेतन मन, अनकांशस कहा है, वही दमन से उनका कार्य क्षेत्र बन जाता है। इस दमन, सप्रेशन
और विरोध की दिशा से चल कर व्यक्ति विमुक्त तो नहीं, विक्षिप्त
अवश्य हो सकता है।
वस्तुतः, जीवनानुभूतियों के जगत में निषेध के मार्ग से न कभी
कुछ पाया गया, न कभी कुछ पाया जा सकता है; न कभी कुछ छोड़ा गया है, न कभी छोड़ा जा सकता है। वह
दिशा ही पाने और छोड़ने की नहीं है। असल में, सब छोड़ने के
पूर्व पाना होता है। श्रेष्ठ का मिलना ही अश्रेष्ठ का छूटना बनता है। हीरों के
मिलने पर कंकड़ों पर मुट्ठी खोलनी नहीं पड़ती है, वह खुल जाती
है।
मैं
समस्त त्याग को इसी रूप में देख पाता हूं। वह श्रेष्ठ की उपलब्धि पर उसके लिए
स्थान बनाने से ज्यादा नहीं है। वह ज्ञान का अग्रगामी नहीं, अनुगामी है। जैसे गाड़ी के पीछे उसके चाकों के निशान
बिना बनाए बनते जाते हैं, ऐसा ही आगमन उसका भी होता है। वह
ज्ञान की सहज छाया है।
मैं हिंसा
को, अधर्म को, अज्ञान
को नकारात्मक कहता हूं, वैसे ही जैसे अंधेरा नकारात्मक है।
अंधेरे की अपनी कोई सत्ता नहीं है, उसका कोई स्व अस्तित्व,
सेल्फ एक्झिस्टेंस नहीं है। वह सत्ता नहीं, अभाव
है। वह स्वयं का होना नहीं, प्रकाश का न होना है। वह प्रकाश
की अनुपस्थिति है। यदि इस कक्ष में अंधेरा व्याप्त हो और हम उसे दूर करना चाहते
हों, तो क्या करना होगा? क्या उसे
संघर्ष से, धक्के देकर बाहर किया जा सकता है?क्या अंधेरे से किए गए सीधे युद्ध के परिणाम में उसकी मृत्यु हो सकती है?
मित्र, यह कभी नहीं होगा, उस मार्ग से
चलने पर अंधेरा तो नहीं, मिटाने वाले अवश्य मिट सकते हैं।
अंधेरे को मिटाने का उपाय अंधेरे को मिटाना नहीं, प्रकाश को
जलाना है। जिसकी अपनी स्व सत्ता नहीं, उसे निषेध से मिटाना
असंभव है। अभाव को न तो लाया जा सकता, न हटाया जा सकता है।
अंधेरे को कहीं ले जाना भी संभव नहीं है। सत्ता ही लाई और सत्ता ही हटाई जा सकती
है। अभाव के साथ सीधी कोई भी क्रिया नहीं होती है। उसके साथ सब व्यवहार अप्रत्यक्ष
होता है। उसके साथ समस्त व्यवहार उसके माध्यम से होता है, जिसका
कि वह अभाव है।
अहिंसा, प्रेम, आनंद, परमात्मा भावात्मक हैं, पाजिटिव हैं। उनकी सत्ता है।
वे किसी के अभाव, अनुपस्थिति मात्र ही नहीं हैं। उनका स्वयं
में होना है। इसलिए किसी के अभाव से उनका होना नहीं होता है। यद्यपि उनके अभ्युदय
से हिंसा, दुख, अज्ञान आदि अंधेरे की
भांति तिरोहित हो जाते हैं। शायद अंधेरा विलीन हो जाता है, यह
कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह तो था ही नहीं। वस्तुतः
प्रकाशागमन पर इस सत्य का दर्शन होता है कि वह न तो था, न
है।
यह अब
कहा जा सकता है कि अहिंसा हिंसा-त्याग नहीं, आत्म-जागरण है। वह
दुख-मुक्ति नहीं, आनंद-प्रतिष्ठा है। वह त्याग नहीं, उपलब्धि है। यद्यपि
उसके आविर्भाव से हिंसा विलीन हो जाती है, दुख निरोध हो जाता
है और परम त्याग फलित होता है।
अहिंसा
को पाना है, तो आत्मा को पाना
होगा। अहिंसा उसी साक्षात का परिणाम, कांसीक्वेंस है। उसे
साधा नहीं जा सकता है। कृष्णमूर्ति ने पूछा है, क्या प्रेम
भी साधा, कल्टीवेट किया जा सकता है? और
उस प्रश्न में ही उत्तर भी दे दिया है। निश्चय ही साधा हुआ प्रेम प्रेम नहीं हो
सकता है। वह या तो होता है या नहीं होता है। कोई तीसरा विकल्प नहीं है। वह सहज
प्रवाहित हो तो ठीक, अन्यथा वह अभिनय और मिथ्या प्रदर्शन है।
साधी हुई अहिंसा अहिंसा नहीं, अभिनय है। विचार और चेष्टा से
जो आरोपित है, वह मिथ्या है।
सम्यक
अहिंसा प्रज्ञा से प्रवाहित होती है, वैसे ही जैसे अग्नि से उत्ताप बहता है। आरोपण से आचरण में दिखता है,
वह अंतस में नहीं होता है, नहीं हो सकता है।
आचरण और अंतस की विपरीतता एक सतत अंतद्र्वंद्व बन जाता है। जिसे जीता है, उसे बार-बार जीतना पड़ता है। पर जीत कभी पूरी नहीं
होती है। वह हो भी नहीं सकती है।
वस्तुतः
परिधि कभी केंद्र को नहीं जीत सकती है, आचरण कभी अंतस को नहीं जीत सकता है। परिवर्तन का प्रवाह विपरीत होता है।
वह परिधि से केंद्र की ओर नहीं, केंद्र से परिधि की ओर होता
है। अंतस क्रांति से गुजरता है और आचरण में परिवर्तन होता है।
चेष्टा
से लाया हुआ आचरण कभी भी सहज नहीं हो सकता है। वह आदत, हैबिट से ज्यादा नहीं है। मूल्य भी उसका उससे ज्यादा
नहीं है। वह स्वभाव तो कभी बन ही नहीं सकता है। आदत कभी भी स्वभाव नहीं है। स्वभाव
है ही वह, जिसे बनाने का कोई प्रश्न नहीं है। आदत सृष्ट है,
स्वभाव असृष्ट है। एक को निर्माण और एक को अनावरण करना होता है।
मित्र, स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होती, वह
तो है। केवल उसे जानना है, केवल उसे उघाड़ना है। जैसे कोई
सोता हो और उसे उठाना पड़े, ऐसा ही उसके साथ भी करना होता है।
मैं एक
कुआं खुदता देखता था, तब मुझे स्मरण आया था
कि स्वभाव को भी ऐसे ही खोदना होता है। जल-स्रोत तो मौजूद थे,
पर आवृत थे। वे बहने और फूट पड़ने को भी उत्सुक थे, पर अवरुद्ध थे। और जब अवरोध देने वाली मिट्टी की परतें दूर हो गई थीं,
तो वे कैसे स्फुरित हो उठे थे! स्वभाव के साथ
भी कुछ ऐसा ही है। बहने, विकसित और पुष्पित होने की वहां भी
चिर प्रतीक्षा है। थोड़ा सा खोदना है, और जीवन एक बिल्कुल नए
आयाम पर गतिमय हो जाता है। कल तक जो साध कर भी साध्य नहीं था, वह सहज हो जाता है। कल तक जो छोड़े-छोड़े भी नहीं
छूटता था, वह अब खोज कर भी मिलता नहीं है।
जीवन-आयाम बदलने की इस कीमिया, अल्केमी
को जानना ही धर्म है। अल्केमिस्ट इसकी ही खोज में थे। वे एक ऐसे रसायन की तलाश में
थे, जिससे लोहा स्वर्ण में बदल सके। जीवन जैसा पाया जाता है,
वह लोहा है; जीवन जैसा हो सकता है, वह स्वर्ण है। और यदि बहुत ठीक से देखें, तो लोहा
केवल आवरण है, वस्त्र है, स्वर्ण नित्य
भीतर उपस्थित है। सद-आचार, अहिंसा
स्वभाव का उदघाटन है, स्वरूप का अनावरण है।
महावीर
ने उसे इसी अर्थ में लिया है। जो स्वयं में स्थित है, वही अहिंसा को उपलब्ध है। जो आचार केवल आचरण है,
स्वभाव की सहज स्फुरणा, स्पांटेनियस
एक्सप्रेशन नहीं, वह ब्रह्म में नहीं और गहन अहं में ले जाता
है। उससे अहंकार, ईगो और परिपुष्ट होता है। वह उस दिशा से भी
भरता और बलिष्ठ होता है। तथाकथित साधु और संन्यासी में जो प्रगाढ़ दंभ परिलक्षित होता
है, वह अनायास ही नहीं है। उसके मूल में अतिचेष्टा से आरोपित
आचरण और प्रयत्न साध्य चरित्र है। यह कमाया हुआ चरित्र वैसे ही अहंकार-पूर्ति का साधन बन जाता है, जैसे कमाया हुआ धन बन
जाता है। चरित्र भी परिग्रह और संपत्ति का रूप ले लेता है।
असल में
जो भी कमाया और अर्जित किया जाता है, वह मैं को भरता है, क्योंकि अर्जन उसकी ही विजय का
रूप ले लेता है। कैसा आश्चर्य है कि अर्जित त्याग भी परिग्रह हो जाता है और अर्जित
विनय में भी अहंकार उपस्थित होता है! क्या तथाकथित विनय में
झुके सिर के पीछे अक्सर दंभ में उठे सिर के दर्शन नहीं हो जाते हैं?
एक बार
एक साधु से मिलना हुआ था। उन्होंने मुझ से कहा था, मैंने लाखों की संपत्ति पर लात मार दी है। मैं निश्चय
ही सुन कर हैरान हो गया था। फिर उनसे पूछा था, यह लात आपने
कब मारी? वे बहुत गौरव से बोले थे, कोई
तीस वर्ष हुए।
उनसे मिल
कर लौटते समय मैं राह में सोचता आया था कि जो त्याग किया गया हो, वह अहंकार के बाहर नहीं ले जाता है। एक दिन वे इस
अहंकार से भरे रहे होंगे कि उनके पास लाखों हैं, आज वे इससे
भरे हैं कि उन्होंने लाखों पर लात मार दी है।
त्याग आए
तो सम्यक, किया जाए तो असम्यक
हो जाता है। और यह धर्म की समस्त साधना के संबंध में सत्य है। अहंकार के मार्ग
बहुत सूक्ष्म हैं। वह बहुत रहस्यमय है और उन जगहों पर भी वह उपस्थित हो जाता है,
जहां उसके होने की कल्पना नहीं होती है और जहां ऊपर से उसके दर्शन
बिल्कुल भी नहीं होते हैं। उसके स्थूल रूप तो दिखाई पड़ते हैं, इसलिए वे उतने घातक भी नहीं हैं। पर सूक्ष्म रूप बहुत घातक हैं, क्योंकि वे साधारणतः दिखाई नहीं पड़ते हैं, इसलिए
उनसे बहुत आत्मवंचना होती है। धार्मिक, त्यागी, ज्ञानी, अहिंसक आदि होने का अहंकार वैसा ही है।
नीति, मारेलिटी अध्यात्म, स्प्रिचुएलिटी
की स्फुरणा है। और जो तथाकथित आरोपित नैतिकता के अहंकार से परितृप्त हो जाते हैं,
वे उस अलौकिक अध्यात्म-स्फुरणाजन्य नीति से
वंचित रह जाते हैं जहां अहंकार की छाया भी प्रवेश नहीं कर पाती है। सूर्य के
प्रकाश में जैसे ओस-कण विलीन हो जाते हैं, ऐसे ही आत्मानुभूति के प्रकाश में अहंकार वाष्पीभूत हो जाता है। वह अज्ञान
और अंधकार का प्रवासी है। उसके प्राण, श्वास-प्रश्वास उसी से निर्मित हैं। अज्ञान के अभाव में उसका जीवन संभव नहीं है।
अज्ञान
अहंकार है। ज्ञान अहंकार-मुक्ति है। अज्ञान आचरण अहंचर्य है। ज्ञान आचरण ब्रह्मचर्य है। अहंचर्य
हिंसा है। ब्रह्मचर्य अहिंसा है।
मैं-भाव हिंसा में ले जाता है। वह भाव आक्रामक, एग्रेसिव है। समस्त हिंसा उसके ही केंद्र पर आवर्तित होती है। अज्ञान में
सत्ता पर मैं आरोपित हो जाता है। आत्मा में, जो पतित हो जाती
है, वह जो वस्तुतः नहीं है उसकी प्रतीति होने लगती है। यह
मैं विश्वसत्ता से पृथक और विरोध में खड़ा हो जाता है। फिर उसे प्रतिक्षण स्वरक्षा
में संलग्न होना पड़ता है। मिटने का एक सतत भय उसे घेरे रहता है। एक असुरक्षा,
इनसिक्योरिटी चैबीस घंटे उसके साथ बनी रहती है। वह कागज की नाव है
और किसी भी क्षण उसका डूबना हो सकता है। वह ताशों का घर है और हवा का कोई भी झोंका
उसे नष्ट कर सकता है।
यह भय, फियर हिंसा का जन्म है। हिंसा अपने मूल मानसिक रूप
में भय ही है। यह भय आत्मरक्षा से आक्रमण तक विकसित हो सकता है। वस्तुतः तो आक्रमण
भी आत्मरक्षण का ही रूप है। शायद मैक्यावेली ने कहा है कि आक्रमण आत्मरक्षा का
सर्वोत्तम उपाय है। भय यदि आत्मरक्षण तक ही सीमित रहे, तो
अंततः कायरता पैदा हो जाती है। वही भय आक्रामक होकर वीरता जैसा दिखाई पड़ता है। पर
कायरता हो या तथाकथित वीरता, भय दोनों में ही उपस्थित रहता
है, और वही दोनों का चालक है। जिनके हाथ में तलवार दिखाई
देती है वे, और वे भी जो पूंछ दबा कर कहीं छिप रहते हैं,
दोनों ही भय से संचालित हैं।
यह जानना
आवश्यक है कि भय क्या है, क्योंकि जो भयग्रस्त हैं, कभी अहिंसक नहीं हो सकते हैं।
और यदि भयग्रस्त व्यक्ति अहिंसक होने की चेष्टा करे, तो वह
केवल कायर हो पाता है, अहिंसक नहीं। इतिहास और अनुभव इसके
बहुत और सबल प्रमाण देता है। अहिंसा का आधार अभय, फियरलेसनेस
है। अभय के अभाव में अहिंसा संभव नहीं है। महावीर और बुद्ध ने अभय को अहिंसा की अनिवार्य
शर्त माना है।
मैं
देखता हूं कि मनुष्य की संपूर्ण चेतना ही भय से घिरी और बनी है। उसके मन के किसी
तल पर वह सदा ही मौजूद है। यह भय, चाहे उसके प्रकटन के रूप कोई भी हों, मूलतः मृत्यु
का भय है। जीवन भर मृत्यु घेरे रहती है। वह प्रतिक्षण आसन्न है। किसी भी घड़ी और
किसी भी दिशा से उसका आगमन हो सकता है। कभी भी संभावित इस मृत्यु से भय स्वाभाविक
ही है। एक तो वह एकदम अपरिचित है, और दूसरे मनुष्य उसके
सामने पूर्ण विवश है। अपरिचित और अनजान से भय मालूम होता है। जीवन असह्य हो,
तब भी कम से कम परिचित तो है। मृत्यु अज्ञात, अननोन
में ले जाती है। यह अज्ञात भय देता है। फिर उस पर हमारा कोई वश नहीं है। हम उसके
साथ कुछ कर नहीं सकते हैं।
यह
विवशता हमारे अहंकार को आमूल खंडित कर देती है। जिस अहंकार के पोषण को हमने जीवन
समझा था, वह टूटता और नष्ट
होता दिखता है। वही तो हमारा होना था! वही तो हम थे! और इससे मृत्यु जीवन का अंत मालूम होती है। हम क्या हैं? शरीर और चित्त, और उन दोनों के जोड़ से फलित अहंकार!
लेकिन मृत्यु की लपटें तो उन्हें राख करती हुई मालूम होती हैं। उनके
पार और अतीत कुछ भी तो शेष बचता नहीं दिखता है। फिर मनुष्य कैसे भयभीत न हो?वह कैसे अपने को सांत्वना दे?
ऐसी
स्थिति में भय स्वाभाविक है, और इस भय से बचाव के लिए व्यक्ति कुछ भी करने को हो जाता है। इस भय से ही
हिंसा के अनेक रूपों की उत्पत्ति होती है। इसलिए मैं कहता हूं कि भय ही हिंसा है
और अभय अहिंसा है। हिंसा से मुक्त होने के लिए भय से मुक्त होना होता है। भय से
मुक्त होने के लिए मृत्यु से मुक्त होना होता है। मृत्यु से मुक्त होने के लिए
स्वयं को जानना होता है।
मैं पर
को जानता हूं, स्व को नहीं जानता
हूं। यह कैसा आश्चर्य है! क्या इससे भी ज्यादा आश्चर्य की
कोई और बात हो सकती है?
यह कैसा
रहस्यपूर्ण है कि मैं बाहर से परिचित और अंतस से अपरिचित हूं!
यह आत्म-अज्ञान ही जीवन के समस्त दुख, अनाचार
और अमुक्ति का कारण है।
ज्ञान की
शक्ति तो मुझ में है, अन्यथा मैं पर को,
बाहर को भी कैसे जानता? वह तो अविच्छिन्न मुझ
में उपस्थित है। मैं जागता हूं, तो वह है। मैं सोता हूं,
तो वह है। मैं स्वप्न में हूं, तो वह है। मैं
स्वप्नशून्य सुषुप्ति में हूं, तो वह है। मैं जागने को,
निद्रा को, स्वप्न को, सुषुप्ति
को जानता हूं। मैं उनका द्रष्टा हूं, उनका ज्ञान हूं। मैं
ज्ञान हूं, क्योंकि जो मुझ में अविच्छिन्न है, यह मेरा स्वरूप ही है। ज्ञान के अतिरिक्त मुझ में कुछ भी अविच्छिन्न,
कांटिन्यूअस नहीं है। वस्तुतः मैं ज्ञान से पृथक नहीं हूं। मैं
ज्ञान ही हूं। यह ज्ञान ही मेरी सत्ता, मेरी आत्मा है।
मैं
ज्ञान हूं, इसलिए पर को जान रहा
हूं। मैं ज्ञान हूं, इसलिए स्व को जान सकता हूं।
यह बोध
भी कि मैं अपने को नहीं जानता हूं, स्व-ज्ञान की ओर बहुत बड़ा चरण है।
मैं पर
को देख रहा हूं, इसलिए पर को जान रहा
हूं। यदि पर को न देखूं, यदि पर चैतन्य के सामने से
अनुपस्थित हो, तो जो शेष रहेगा, वही
स्व है।
स्व को
देखा तो नहीं जा सकता है। स्व को देखना पर को देखना है। स्व तो द्रष्टा है। वह तो
देखने वाला है। वह दृश्य में परिणत नहीं हो सकता है। इसलिए स्व भी नहीं दिखता है, कोई भी दृश्य नहीं है, तब जो है,
वही मैं हूं।
शुद्ध
चैतन्य का अनुभव आत्मानुभव है।
मैं पर
से घिरा हूं, इसलिए पूछूंगा कि
आत्मानुभव के लिए पर को अनुपस्थित कैसे करूं?वह तो सदा घेरे
हुए है?
पर ‘पर’ तो आंख बंद करते ही
अनुपस्थित हो जाता है, इसलिए वह कोई समस्या नहीं है। विचार
है वास्तविक समस्या। पर के जो प्रतिबिंब, जो प्रतिफलन चित्त
पर छूट जाते हैं और हमें घेरे रहते हैं, वे ही समस्या हैं।
उनको ही जानते रहने से हम उसे नहीं जान पाते हैं जो कि उनको भी जान रहा है। विचार,
थॅाट्स के कारण चेतना, कांशसनेस नहीं ज्ञात हो
पाती है। विचार-प्रवाह, थॅाट प्रोसेस
का जो साक्षी है, उसमें जागना है। साक्षी में जागना, साक्षी को जगाना है। यही ध्यान, मेडीटेशन है।
विचार के
अमूच्र्छित दर्शन, राइट माइंड से,
विचार-प्रवाह के प्रति सम्यक जागरण से क्रमश:
विचार-प्रवाह में जो अंतराल, इंटरवल्स हैं उनका अनुभव होता है। वे रिक्त स्थान क्रमश: बड़े होते जाते हैं। विचार को मात्र देखने भर से, केवल
उसका द्रष्टा बनने से, बिना किसी दमन और संघर्ष के वह
विसर्जित होता है। विचार-प्रवाह का दर्शन, अवेयरनेस विचार-शून्यता, थॅाटलेसनेस
पर, और विचार के अतीत ले जाता है।
विचार का
शून्य हो जाना ध्यान है। विचार-शून्यता में सच्चिदानंद का अनुभव समाधि है। समाधि सत्य-दर्शन है।
समाधि की
अनुभूति सत्य है। समाधि का व्यवहार अहिंसा है।
समाधि
में दिखता है कि जो है, अमृत है। मृत्यु का
भ्रम विसर्जित हो जाता है। मृत्यु के साथ भय चला जाता है और अभय उत्पन्न होता है।
अभय से अहिंसा प्रवाहित होती है।
समाधि
में स्व से पहुंचा जाता है, पर उसमें पहुंच कर आत्म और अनात्म विलीन हो जाते हैं। वह भेद विचार का था।
समाधि भेद और द्वैत के अतीत है। वह अद्वय और अद्वैत है। जैसे बाती दीए के तेल को
जला कर स्वयं भी जल जाती है, वैसे ही स्व भी पर से मुक्त
करके स्वयं से भी मुक्त कर जाता है। मैं की मुक्ति, मैं से
भी मुक्ति है।
समाधि
ब्रह्म-साक्षात है।
ब्रह्मानुभूति से ब्रह्मचर्य स्पंदित होता है। ब्रह्मचर्य का केंद्र सत्य और परिधि
अहिंसा है। समाधि में सत्य के फूल लगते और अहिंसा की सुगंध फैलती है।
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