सोमवार, 9 अप्रैल 2018

एक ओंकार सतनाम (गुरू नानक) प्रवचन--12


आखि
 आखि रहे लिवलाइ—(प्रवचन—बारहवां)

पउड़ी: 26

अमुल गुण अमुल वापार  
अमुल वापारीए अमुल भंडार।।
अमुल आवहि अमुल लै जाहि  
अमुल भाव अमुला समाहि।।
अमुलु धरमु अमुलु दीवाणु  
अमुलु तुलु अमुलु परवाणु।।
अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु अमुलु करमु अमुलु फरमाणु।।
अमुलो अमुलु आखिया  जाइ आखि आखि रहे लिवलाइ।।
आखहि वेद पाठ पुराण। आखहि पड़े करहि वखियाण।।
आखहि बरमे आखहि इंद आखहि गोपी तै गोविंद।।
आखहि ईसर आखहि सिध आखहि केते कीते बुध।।
आखहि दानव आखहि देव। आखहि सुरि नर मुनि जन सेव।।
केते आखहि आखणि पाहि केते कहि कहि उठि उठि जाहि।।
एते कीते होरि करेहि। ता आखि  सकहि केई केइ।।
जेवडु भावै तेवड होइ। 'नानक' जाणै साचा सोइ।।
जे को आखै बोल बिगाडु। ता लिखीए सिरि गावारा गावारु।।



नानक उस परमात्मा की स्तुति में ऐसे बोलते हैं, जैसे एक मदहोश आदमी बोले। वे किसी पंडित के वचन नहीं हैं; वरन उसके वचन हैं, जो प्रभु की शराब में पूरी तरह डूब गया है। इसीलिए वे दोहराते चले जाते हैं। मस्ती में बोले गए वचन हैं। जैसे शराबी बोल रहा हो रास्ते के किनारे खड़े हो कर--बोले चला जाता है। एक ही बात को बहुत बार कहे चला जाता है। ऐसी ही किसी गहरी शराब में डूब कर वे बोल रहे हैं।
बाबर नानक के समय भारत आया। उसके सिपाहियों ने नानक को भी संदिग्ध समझ कर कैद कर लिया। लेकिन धीरे-धीरे बाबर तक खबर पहुंचने लगी कि यह कैदी कुछ अनूठा है। और इस कैदी के आस-पास एक हवा है, जो साधारण मनुष्यों की नहीं। और एक मस्ती है कि यह कैदी कारागृह में भी गाता रहता है। और यह खबर बाबर को लगी कि यह कुछ ऐसा आदमी है कि इसे कैद किया नहीं जा सकता। इसकी स्वतंत्रता भीतरी है।
तो कहते हैं, उसने संदेश भेजा नानक को कि तुम मुझसे मिलने आओ। नानक ने कहा कि मिलने तो तुम्हें ही आना पड़े। क्योंकि नानक वहां है, जहां से अब मिलने जाने का कोई सवाल नहीं।
बाबर खुद मिलने कारागृह में आया। नानक से बहुत प्रभावित हुआ। नानक को साथ ले गया अपने महल में। और उसने बहुमूल्य से बहुमूल्य शराब नानक को पीने के लिए निमंत्रित किया। नानक हंसे; और उन्होंने एक गीत गाया। जिस गीत का अर्थ है कि मैं परमात्मा की शराब पी चुका। अब इस शराब से मुझे नशा न चढ़ेगा। आखिरी नशा चढ़ गया है। अच्छा हो बाबर कि तुम ही मेरी शराब पीयो, बजाय अपनी शराब पिलाने के।
ये गीत शराबी के गीत हैं। इसलिए नानक कहे चले जाते हैं। या तो एक छोटे बच्चे की तरह, या एक शराबी की तरह। वे गुनगान करते हैं। उसमें बहुत हिसाब नहीं है। और न ही इन वचनों को, साजा-संवारा गया है। ये अनगढ़ पत्थरों की तरह हैं।
एक कवि लिखता है, तो सुधारता है। हेर-फेर करता है। जमाता है। व्याकरण की चिंता करता है। लय की, पद की, छंद की फिक्र करता है। मात्राओं का हिसाब रखता है। बहुत बदलाहट करता है। रवींद्रनाथ की हैसियत का महाकवि भी! अगर रवींद्रनाथ की डायरियां देखें, तो कटी-पिटी हैं। एक-एक लाइन को काट-काट कर फिर से लिखा है, बदला है, फिर जमाया है।
ये वचन न तो बदले गए हैं और न जमाए गए हैं। ये तो वैसे ही हैं, जैसे नानक ने कहे थे। ये तो बोले गए हैं। इनमें कुछ हिसाब नहीं है; न भाषा का, न मात्रा का, न पद का, न छंद का। अगर इनमें कोई छंद है, तो भीतरी आत्मा का है। और अगर इनमें कोई व्याकरण है, तो वह मनुष्य की नहीं, परमात्मा की है। और इनमें अगर कोई लय मालूम पड़ती है, तो वह लय भीतर के नशे की है। वह काव्य की नहीं है। इसलिए तो नानक कहे जाते हैं। जब भी उनसे कोई पूछता, तो वे गा कर ही जवाब देते थे। उनसे कोई सवाल पूछता और वे कहते, सुनिए। और मर्दाना अपना साज छेड़ देता और वे गीत गाना शुरू कर देते।
इस बात को याद रखना। अगर इस बात को याद न रखा तो ऐसा लगेगा, क्या नानक पुनरुक्ति किए चले जाते हैं? कि उसके गुण अपार, कि उसका मूल्य अपार। फिर वे कहे ही चले जाते हैं।
ना! ये मस्ती में गुनगुनाए गए शब्द हैं। ये किसी दूसरे से कहे गए नहीं हैं। ये अपनी ही मस्ती में, अपने ही भीतर गुनगुनाए गए हैं। दूसरे ने सुन लिया है, यह दूसरी बात है। यह खयाल में रहेगा तो बहुत अर्थ प्रकट होने शुरू होंगे।
कहते हैं नानक, 'उसके गुण अमूल्य हैं। और उसके व्यापार भी अमूल्य हैं। उसके व्यापारी भी अमूल्य हैं। और उसके भंडार भी अमूल्य हैं। जो लेने आता है वह अमूल्य है। जो ले जाता है वह अमूल्य है। उसका भाव अमूल्य है। उसकी समाधि अमूल्य है। उसका धर्म अमूल्य है। उसका दरबार अमूल्य है।'
अमुल गुण अमुल वापार अमुल वापारीए अमुल भंडार।।
अमुल आवहि अमुल लै जाहि अमुल भाव अमुला समाहि।।
अमुलु धरमु अमुलु दीवाणु अमुलु तुलु अमुलु परवाणु।।
अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु अमुलु करमु अमुलु फरमाणु।।
अमुलो अमुलु आखिया  जाइ आखि आखि रहे लिवलाइ।।
पहली बात कि वह अमूल्य है। उसका सभी कुछ अमूल्य है। मूल्य आंकने का कोई उपाय भी नहीं है। क्योंकि न तो कोई बांट है, जिससे हम उसे तौल सकें; न कोई मापदंड है, जिससे हम उसे माप सकें। कोई उपाय ही नहीं है, जिससे हम अंदाज लगा सकें कि वह कितना है? क्या है? कहां तक फैला हुआ है?
और जो भी उसको मापने जाता है, धीरे-धीरे पाता है, सारे मापदंड टूट जाते हैं। सब तराजुएं गिर जाती हैं। न केवल मापदंड टूटते हैं, वरन माप करने वाला मन भी टूट जाता है।
संस्कृत में शब्द है, माया। माया उसी धातु से बना है, जिससे माप। और अंग्रेजी का मेजर शब्द भी उसी से बना है, जिससे माप। फ्रेंच का मीटर शब्द भी उसी से बना है, जिससे माप। और अंग्रेजी का मैटर शब्द भी उसी से बना है, जिससे माप। जिससे माया बना है, उसी से मैटर, उसी से मेजर, उसी से माप।
बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है माया। माया का अर्थ है, जो मापा जा सके। जिसको हम तौल सकें, जिसकी नाप हो सके। और जिसे हम न तौल सकें, वही ब्रह्म है। तो जो-जो तुम तौल लो, समझ लेना कि माया है। जिस-जिस का मूल्य तुम आंक लो, समझ लेना कि माया है। जिस-जिस की परिभाषा तुम कर लो, समझ लेना कि माया है। जिसकी परिभाषा न हो सके; जिसको तुम तौलो, खुद थक जाओ और न तौला जा सके; जिसको तौलने बैठो और पाओ कि इन बटखरों से कैसे हम उसे तौलेंगे? और तौलते रहेंगे तो अनंत-अनंत काल भी बीत जाएगा तो भी कुछ चुकेगा नहीं, कोई तौल पूरी नहीं होगी; जहां तुम अमाप के करीब आ जाओ, समझ लेना कि धर्म शुरू हुआ।
इसलिए विज्ञान कभी धर्म को न जान पाएगा। क्योंकि विज्ञान की पूरी विधि ही तौलना है। तराजू विज्ञान का प्रतीक है। मापना ढंग है। तो विज्ञान कभी भी परमात्मा के पास न आ पाएगा। और इसलिए विज्ञान सदा कहता रहेगा कि परमात्मा नहीं है। क्योंकि विज्ञान मानता ही उस चीज को है, तो तौली जा सके। जिसको हम प्रयोग कर सकें। प्रयोगशाला की तराजू पर जिसकी कोई नाप-जोख हो सके। माक्र्स ने कहा है कि अगर परमात्मा प्रयोगशाला में प्रकट हो सके तो ही मैं मानूंगा। लेकिन अगर परमात्मा प्रयोगशाला में प्रकट हो जाए तो वह परमात्मा ही न होगा।
क्या तुम्हें प्रतीत नहीं होता कि कुछ अमाप हमारे चारों तरफ है? माप के भीतर भी छिपा है। 
एक फूल है; तुम जाओ, इसे प्रयोगशाला में तौल सकते हो, क्योंकि फूल में वजन है। नाप सकते हो लंबाई, चौड़ाई। फूल का विश्लेषण कर सकते हो तो पता चल जाएगा किन-किन द्रव्यों, रासायनिक तत्वों से मिल कर बना है। केमिस्ट्री पता चल जाएगी।
लेकिन एक चीज फूल में अमाप है, वह सौंदर्य है। तुम सब तौल लोगे। और जब तुम फूल का सारा एनालीसिस, सारा विश्लेषण कर चुकोगे, तो अचानक पाओगे कि फूल तो खो चुका है इस विश्लेषण में, इसमें सौंदर्य का तो कोई पता न चला। इसलिए वैज्ञानिक सौंदर्य को स्वीकार नहीं करेगा।
और बड़े आश्चर्य की बात है कि फूल को देख कर जो पहला भाव तुम्हारे मन में उठता है, वह सौंदर्य का है। और वही विज्ञान में खो जाता है। विज्ञान में जो चीज नष्ट हो जाती है, वही पहली चीज है जो तुम्हें प्रतीत होती है। फूल को देख कर जो पहला अंतर्भाव, जो पहली ऊर्मि उठती है जीवन में, जो भीतर की चेतना में पहला प्रतिबिंब पड़ता है, वह सौंदर्य का है। अनकहा! अनबोला! भीतर एक भाव जगता है। एक बादल भीतर घेर लेता है सौंदर्य का। वही विज्ञान की पकड़ में खो जाता है।
एक छोटा बच्चा नाच रहा है, खेल रहा है, हंस रहा है। उसे देख कर जो पहली प्रतीति होती है, वह जीवन की, ऊर्जा की, एनर्जी की। उस बच्चे को विज्ञान को दे दें। विज्ञान इसकी जांच-पड़ताल कर के सब पता लगा देगा। नाप-जोख पूरा कर देगा, लिस्ट बना देगा। लेकिन उसमें जीवन खो जाएगा। विज्ञान बता देगा, कितना एलम्युनियम, कितना लोहा, कितना मैगनेसियम इस बच्चे की हड्डियों में है, कितना फासफोरस, कितनी मिट्टी, कितना पानी...।
मैंने सुना है, एक वैज्ञानिक अपने मित्र के साथ रास्ते से गुजर रहा था। और एक बहुत सुंदर युवती पास से गुजरी। मित्र ठिठक गया। वैज्ञानिक ने कहा, बहुत परेशान मत हो। नब्बे परसेंट तो पानी है।
आदमी के शरीर में नब्बे परसेंट तो पानी है ही। और बाकी दस परसेंट भी चीजें ही हैं, जिनको हम बोतलों में बंद कर सकते हैं। कहते हैं कि आदमी के शरीर की सब चीजों का मूल्य पांच रुपए से ज्यादा नहीं है। लोहा निकाल लें, फासफोरस निकाल लें। और बेचने जाएं तो पांच रुपए से ज्यादा का नहीं है। इसीलिए तो लाश को जला देते हैं। क्योंकि निकालने में ज्यादा खर्च हो जाएगा, उतनी बिक्री नहीं होगी। किसी काम का नहीं है।
विज्ञान सब नाप लेगा, और आखिर में कहेगा कि कोई आत्मा नहीं पायी। आत्मा मिलेगी भी नहीं, क्योंकि आत्मा अमाप है। यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है आज कि मापने के द्वारा अगर अमाप का पता न चले, तो हम यह कहते हैं कि अमाप है ही नहीं। बुद्धिमान अगर हम हों, तो हम कहेंगे, हमारे माप के ढंग माया तक जाते हैं, ब्रह्म तक नहीं। तो हमें कोई और ढंग खोजना चाहिए जो मापने का नहीं है। ताकि हम उसे जान सकें।
विज्ञान का ढंग है--मापना, खोजना, जांचना, परिभाषा। धर्म का ढंग बिलकुल अलग है। धर्म का ढंग है--न खोजना, न मापना, न परिभाषा करना; वरन खो जाना, लीन हो जाना, डूब जाना, अपने को डुबा देना। वैज्ञानिक अलग बना रहता है अपनी खोज से। धार्मिक लीन हो जाता है, डूब जाता है, एक हो जाता है।
नानक एक बार लाहौर में ठहरे। तो लाहौर का जो सब से धनी आदमी था, वह उनके चरणों में नमस्कार करने आया। वह बहुत धनी आदमी था। लाहौर में उन दिनों ऐसा रिवाज था कि जिस आदमी के पास एक करोड़ रुपया हो, वह अपने घर पर एक झंडा लगाता था। इस आदमी के घर पर कई झंडे लगे थे। इस आदमी का नाम था, सेठ दुनीचंद। उसने नानक के चरणों में सिर रखा और कहा कि कुछ आज्ञा दें मुझे। मैं कुछ सेवा करना चाहूं। और बहुत है आपकी कृपा से। आप जो भी कहेंगे, वह मैं पूरा कर दूंगा।
नानक ने अपने कपड़ों में छिपी हुई एक छोटी सी कपड़े सीने की सुई निकाली, दुनीचंद को दी, और कहा, इसे सम्हाल कर रखना। और मरने के बाद मुझे वापस लौटा देना।
दुनीचंद अपनी अकड़ में था। उसे समझ ही न आयी। उसे कुछ खयाल ही न आया कि यह क्या नानक कह रहे हैं! उसने कहा, जैसी आपकी आज्ञा। जो आप कहें, कर दूंगा। अकड़ का समय होता है आदमी के मन का, तब आदमी अंधा होता है कि कुछ चीजें असंभव हैं। धन से तो हो ही नहीं सकतीं। घर लौटा। लेकिन घर लौटते-लौटते उसे भी खयाल आया कि मर कर लौटा देंगे! लेकिन जब मैं मर जाऊंगा, तब इस सुई को साथ कैसे ले जाऊंगा?
वापस लौटा। और कहा कि आपने थोड़ा बड़ा काम दे दिया। मैं तो सोचा, बड़ा छोटा काम दिया है। और क्या मजाक कर रहे हैं? सुई को बचाने की जरूरत भी क्या है? लेकिन संतों का रहस्य! सोचा, होगा कुछ प्रयोजन। लेकिन क्षमा करें। यह अभी वापस ले लें। क्योंकि यह उधारी फिर चुक न सकेगी। अगर मैं मर गया तो सुई को साथ कैसे ले जाऊंगा?
तो नानक ने कहा, सुई वापस कर दो। प्रयोजन पूरा हो गया है। यही मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर एक सुई न ले जा सकोगे, तो तुम्हारी जो करोड़ों-करोड़ों की संपदा है, उसमें से क्या ले जा सकोगे? अगर एक छोटी सी सुई को तुम न ले जा सकोगे पार, तो और तुम्हारे पास क्या है, जो तुम ले जा सकोगे? दुनीचंद, तुम गरीब हो। क्योंकि अमीर तो वही है जो मौत के पार कुछ ले जा सके।
लेकिन जो भी मापा जा सकता है, वह मौत के पार नहीं ले जाया सकता। जो अमाप है, इम्मेजरेबल है, जिसको हम माप नहीं सकते, वही केवल मौत के पार जाता है।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक, जो मापने की ही चिंता करते रहते हैं। खोज करते हैं उसकी, जो मापा जा सकता है, तौला जा सकता है। और एक, जो उसकी खोज करते हैं, जो तौला नहीं जा सकता। पहले वर्ग के लोग धार्मिक नहीं हैं, संसारी हैं। दूसरे वर्ग के लोग धार्मिक हैं, संन्यासी हैं।
अमाप की खोज धर्म है। और जिसने अमाप को खोज लिया, वह मृत्यु का विजेता हो गया। उसने अमृत को पा लिया। जो मापा जा सकता है, वह मिटेगा। जिसकी सीमा है, वह गलेगा। जिसकी परिभाषा हो सकती है, वह आज है, कल खो जाएगा। हिमालय जैसे पहाड़ भी खो जाएंगे। सूर्य, चांद, तारे भी बुझ जाएंगे। बड़े से बड़ा, थिर से थिर...पहाड़ को हम कहते हैं, अचल; वह भी चलायमान है। वह भी खो जाएगा। वह भी बचेगा नहीं। वह भी थिर नहीं है। जहां तक माप जाता है वहां तक सभी अस्थिर है, परिवर्तनशील है। जहां तक माप जाता है, वहां तक लहरें हैं। जहां माप छूट जाता है, सीमाएं खो जाती हैं, वहीं से ब्रह्म का प्रारंभ है।
इसलिए नानक कहते हैं, 'गुण अमूल्य हैं। उसके व्यापार भी अमूल्य हैं।'
तुम मूल्य न आंक सकोगे। इसलिए तो बड़ी कठिनाई है। नेपोलियन का तुम मूल्य आंक सकते हो। सिकंदर का मूल्य आंक सकते हो। क्योंकि उसकी संपदा और साम्राज्य ही उसका मूल्य है। लेकिन बुद्ध का तुम कैसे मूल्य आंकोगे? नानक का क्या मूल्य है? जिनके पास कुछ है, पजेशंस, उनका तुम मूल्य आंक सकते हो। क्योंकि जो उनके पास है, वही उनकी आत्मा है। अगर करोड़ है, तो करोड़; अगर दस करोड़ है, तो दस करोड़। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, केवल परमात्मा है, उनका मूल्य तुम कैसे आंकोगे?
इसलिए तो बहुत बार हम नानक को देख नहीं पाते। बहुत बार बुद्ध हमारे करीब से गुजरते हैं और हम अंधे की तरह खड़े रहते हैं। क्योंकि हमने तो नापने की ही कला सीखी है। वही हमें दिखायी पड़ता है। अगर बुद्ध के हाथ में हीरा होता, तो हीरा हमें दिखायी पड़ेगा, बुद्ध हमें दिखायी नहीं पड़ेंगे। और हीरा दो कौड़ी का है। और बुद्ध अमूल्य हैं। लेकिन दिखायी हमें हीरा पड़ेगा।
हमारी आंखें, हमारे सोचने का ढंग, हमारा मन! इसे खयाल में ले लें। बाहर जो माप का जगत है, वही भीतर मन है। इसलिए मन और माया एक है। बाहर मापना है, भीतर मापने वाला है। वह मन है। संसार और मन--यह एक जोड़ा। बाहर जो अमाप है, ब्रह्म, उससे मन का कोई नाता नहीं बनता। उससे आत्मा का नाता बनता है। क्योंकि भीतर भी एक अमाप है। तुम जैसे हो उसी से तुम्हारा संबंध हो सकेगा। मन की सीमा है, इसलिए उससे तुम सीमित को जान सकोगे। आत्मा की कोई सीमा नहीं है, इसलिए तुम असीम को जान सकोगे। मूल्य क्या है परमात्मा का? कोई भी तो मूल्य नहीं है!
जीसस के संबंध में कहानी है कि जुदास ने उन्हें केवल तीस चांदी के सिक्कों में बेच दिया दुश्मनों के हाथ में। हमें हैरानी लगती है कि जीसस जैसा मनुष्य, जैसा कभी-कभी घटता है इस संसार में, उसे जुदास तीस रुपए में बेच सका? भरोसा नहीं आता।
लेकिन तुम भी बेचते। तीस में न बेचते, तीस हजार में बेचते, फर्क क्या पड़ता है? तीस और तीस हजार में कोई भी फर्क नहीं है। क्योंकि माप यानी माप। लेकिन एक बात समझ लेने जैसी है कि जुदास को जीसस के पास बरसों रह कर भी जीसस दिखायी नहीं पड़े। और जब किसी ने कहा कि हम तीस रुपए देते हैं, पता ठिकाना दे दो, ताकि हम इस आदमी को पकड़ लें। तो तीस रुपए ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़े।
हमें वही दिखायी पड़ता है, जिसका हम मूल्य आंक सकते हैं। हम मूल्य से फंसे हैं।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान से क्या मिलेगा? क्या फायदा? ध्यान करने से कौन सा लाभ होगा? ऐसा नहीं है कि उन्हें पता नहीं है कि ध्यान से परमात्मा मिलेगा। वह उन्हें पता है। लेकिन परमात्मा में लाभ नहीं दिखायी पड़ता। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने न सुना हो कि ध्यान से आनंद मिलेगा। लेकिन आनंद का बाजार में कोई भी तो मूल्य नहीं है। बेचने जाओगे तो कौन खरीदेगा? वे पूछते हैं, भाषा उनकी जो है, वे यह पूछ रहे हैं कि कुछ मूल्य करके बताएं कि कितने मूल्य की चीज ध्यान से मिलेगी?
ठीक भी है उनका पूछना। क्योंकि सारी इकानामिक्स, सारा अर्थशास्त्र जीवन का, मूल्य के हिसाब से चलता है। एक घंटा हम ध्यान करेंगे, उस एक घंटे में अगर हम बाजार में काम करेंगे, तो पचास रुपए, सौ रुपए कमा लेंगे। सौ रुपए घंटे भर में बाजार में कमा लेंगे और सौ रुपए के मूल्य का कुछ ध्यान में मिलता हो, ज्यादा का कुछ मिलता हो, तो हमें समझ में आता है कि कुछ करने योग्य है। और अगर सौ रुपए के मूल्य की चीज न मिलती हो ध्यान में, तो क्या सार! वे यह पूछ रहे हैं कि हमें ठीक-ठीक मूल्य कर के बता दें कि ध्यान से हमें कितने मूल्य का लाभ होगा? तो हम हिसाब लगा लें, अपनी इकानामिक्स को ठीक से जमा लें।
लेकिन ध्यान में जो मिलता है, उसका तो कोई भी मूल्य नहीं है। और जब तक तुम मूल्य की खोज कर रहे हो, तब तक तुम ध्यान में जा न सकोगे। क्योंकि मूल्य का जगत तुम्हें पकड़े रहेगा। संसार यानी मूल्य का जगत। और परमात्मा यानी जहां तुम निर्मूल्य में प्रवेश करते हो, या अमूल्य में प्रवेश करते हो।
'उसके गुण अमूल्य हैं। उसके व्यापार अमूल्य हैं। उसके व्यापारी भी अमूल्य हैं। और उसके भंडार भी अमूल्य हैं।'
कौन है उसका व्यापारी? जिनको हम संत कहते हैं, सिद्ध कहते हैं, बुद्ध कहते हैं, वे उसके व्यापारी हैं। वे तुम्हें बेचने आए हैं कुछ, जो तुम खरीदने की हिम्मत नहीं कर पाते। वे तुम्हें कुछ देना चाहते हैं, जो अमूल्य है। लेकिन तुम लेने को तैयार नहीं। तुम्हारे खयाल में ऐसा लगता है कि जो मुफ्त मिलता है, वह बिना मूल्य का होगा। परमात्मा मुफ्त मिलता है। इसलिए तुम उसकी चिंता नहीं करते। अगर उस पर भी दाम लगे हों, तो तुम उसकी चिंता करोगे। बुद्ध, नानक, कबीर, व्यापारी हैं। लेकिन व्यापार बड़ा गड़बड़ है उनका। वह हमारी समझ के बाहर है व्यापार। वह हमें व्यापारी मालूम ही नहीं पड़ते।
ऐसी कहानी है कि नानक को घर में कुछ करते न देखकर पिता ने कहा कि अब तुम इतना ही करो कम से कम, बिलकुल काहिल, व्यर्थ मत बनो। किसी के काम के भी तो थोड़े सिद्ध होओ!
पिता को भी नानक में दिखायी नहीं पड़ा कि इस आदमी में कुछ मूल्यवान है। कभी-कभी दूसरे आकर नानक के पिता को कह जाते थे कि बड़ा मूल्यवान है। लेकिन नानक के पिता को कभी भरोसा नहीं आया। कि मूल्यवान क्या खाक है? एक पैसा कमाने की अकल नहीं, सिर्फ गंवाना जानता है। मूल्यवान कैसे? इस जगत में जो कमाना है, उस जगत में वह गंवाना है। उस जगत में जो कमाना है, वह इस जगत में गंवाने जैसा मालूम पड़ता है!
तो नानक को कहा कि कुछ न बने तो तुम कम से कम जानवरों को जंगल ले कर चरा आओ। इतना तो कर ही सकते हो। यह तो आखिरी काम है, जो बुद्धू से बुद्धू कर सकता है। जब लोग नाराज होते हैं अपने बेटों पर, तो वे कहते हैं, अगर कुछ न बना, तो ढोर चराओगे। वह आखिरी है।
नानक के बाप ने कहा, तो अब तुम यही करो। यह बैठ कर गीत गाकर, यह आकाश की तरफ आंखें लगा कर कहीं दुनिया चली है! बाप संसारी आदमी हैं। और बेटे की चिंता कर रहे हैं कि बेटा कुछ काम का हो जाए, नहीं तो कैसे जीएगा!
नानक राजी हो गए। लेकिन नानक के राजी होने का कारण दूसरा था। नानक राजी हुए, क्योंकि नानक ने हमेशा पाया कि आदमियों की बजाय जानवरों की संगत में ज्यादा शांति है। क्योंकि जानवर कम से कम इकानामिक्स तो नहीं मानते। कोई अर्थशास्त्र तो नहीं है उनका। धन, पैसा, हिसाब तो नहीं लगाते। जीते हैं। तो नानक एकदम राजी हो गए। उन्हें सदा पसंद था गाय-भैंसों के पास बैठना। कम से कम पैसे की बात तो वहां नहीं चलती। चुप्पी तो होती है। लाभ-हानि का हिसाब नहीं होता। और कम से कम जानवरों ने उसकी मर्जी पर अपने को छोड़ दिया है। उनका कोई अहंकार तो नहीं है।
तो वे चले गए गाय-भैंसों को लेकर। लेकिन ऐसे आदमी के साथ सदा उपद्रव होगा। गाय-भैंसें चरने लगीं। और उन्होंने उनसे कहा, चरो मजे से, आनंद से। वे आंख बंद कर के अपनी मस्ती में लीन हो गए। पास के खेत में सब जानवर घुस गए। और उन्होंने सब खेत साफ कर दिया। तो वह आदमी पागल हुआ भागा हुआ आया, जो खेत का मालिक था। और उसने कहा, यह तुमने क्या करवाया है? इसके पैसे भरने पड़ेंगे एक-एक। मेरी पूरी फसल नष्ट हो गयी। नानक ने आंख खोली और कहा, तू घबड़ा मत। उसके ही जानवर हैं, उसने ही चरवाया है, उसका ही खेत है। तू घबड़ा मत। बड़ा वरदान तुझ पर बरसेगा।
उस आदमी ने कहा, चुप रह! बकवास मत कर। वरदान बरसेगा? मैं बरबाद हो गया।
वह भागा हुआ गया। नानक के बाप को पकड़ा। और गांव का जो मुखिया था, उसके पास नानक के बाप को पकड़ कर ले गया कि पूरी फसल चुकानी पड़ेगी। वह जो मुखिया था, वह नानक का भक्त था। वह मुसलमान था। बूलर उसका नाम था--शाह बूलर। उसने कहा, नानक को भी पूछ लेना चाहिए, क्या हुआ? नानक को बुलाया गया।
नानक ने कहा, सब उसी की मर्जी से हो रहा है। उसके हुक्म से। और सब ठीक ही होगा। और उसी ने जानवर भेजे। और उसी ने फसल उगायी। और जब उसने एक बार उगायी, तो वह हजार बार उगा सकता है। घबड़ाने की क्या बात है? मुझे नहीं लगता कि कोई भी नुकसान हुआ है।
तो उस आदमी ने कहा कि सब साथ चलें, मेरा खेत बरबाद पड़ा है। और यह आदमी कहता है, कोई नुकसान नहीं हुआ।
कहानी कहती है कि जब वे वापस पहुंचे तो पाया कि खेत लहलहा रहा है। वहां कोई नुकसान नहीं हुआ। सच तो ऐसा कि आस-पास के खेत फीके पड़े हैं। और इस खेत में जैसी फसल आयी है, ऐसी कभी देखी नहीं गयी
यह कहानी घटी हो, न घटी हो; पर बड़े मतलब की है। जो उस पर छोड़ देता है उसके खेत की फसल का क्या कहना! और नानक ने उस पर छोड़ दिया। तो नानक के जीवन में ऐसी फसल आयी जैसी कि किसी के जीवन में कभी-कभी मुश्किल से आती है। पर छोड़ने की हिम्मत...।
वह खेत का मालिक तो भरोसा ही न कर सका कि यह क्या हुआ है! इस जगत में सबसे बड़ा चमत्कार है, परमात्मा पर अपने को छोड़ देना। और तब तुम्हारे जीवन में ऐसा घटने लगेगा रोज-रोज, जिसके लिए जवाब देना बिलकुल मुश्किल है। जिसको समझाना मुश्किल है। जिसकी कोई रैशनल, कोई तर्कयुक्त व्याख्या नहीं हो सकती।
इतना ही अर्थ है कहानी का कि जो उस पर छोड़ देते हैं, उनके जीवन में प्रतिपल ऐसी घटनाएं घटने लगती हैं, जिनका कि कोई बुद्धियुक्त हल नहीं हो सकता। जो पहेलियां मालूम होती हैं।
क्यों? क्योंकि जब अमाप तुम्हारे जीवन में प्रवेश करता है, तब पहेलियां शुरू हो जाती हैं। पहेली का एक ही अर्थ है, रहस्य का एक ही अर्थ है, कि तुमने माप की दुनिया से आंखें उठा लीं अमाप की तरफ। सीमा की तरफ से तुम हटे और असीम की तरफ झुके। ज्ञात को तुमने थोड़ा छोड़ा और अज्ञात तुम्हारे जीवन में आया। जैसे ही तुम अज्ञात को थोड़ी सी जगह देते हो अपने जीवन में, वैसे ही रहस्य घटने शुरू हो जाते हैं। चमत्कार की फसल उठनी शुरू हो जाती है।
नानक व्यापारी हैं किसी और दूसरी दुनिया के। और उस दूसरी दुनिया के व्यापारियों के साथ हमने सदा दर्ुव्यवहार किया है। जीसस को हमने सूली पर लटका दिया। सुकरात को जहर पिला दिया। और हमने सूली भी न दी हो, जहर भी न पिलाया हो, तो भी हमने उस दुनिया के व्यापारियों की बात कभी नहीं सुनी। हमने पूजा भी की हो, तो भी नहीं सुनी। पूजा भी हमारी एक तरकीब है बचने की। कि हम कहते हैं, आप बहुत महान हो। हम आपको कैसे पा सकते हैं? तो आपके चरणों में हम फूल चढ़ाते हैं। लेकिन हम तो जैसे हैं, वैसे ही रहेंगे।
और हम पूजा करके वैसे ही बने रहते हैं। तुम्हारी पूजा झूठी है, अगर तुम वैसे ही बने रहते हो। एक ही कसौटी है पूजा के सच होने की कि पूजा तुम्हें बदले। अगर तुमने सच में नानक को आदर दिया, तो तुम दूसरे ही आदमी हो जाओगे। लेकिन तुम नानक को आदर भी देते हो और वही के वही आदमी बने रहते हो, तो आदर झूठा है। और आदर भी बचने की तरकीब है। तुम कहते हो, हां! हम मानते हैं कि आप जो कहते हैं बिलकुल ठीक है। लेकिन अभी हमारा समय नहीं आया। जब आएगा, तब हम भी इस मार्ग पर चलेंगे। लेकिन अभी संसार में बहुत काम करने बाकी हैं। पहले उनको निपटा लेने दें। और जल्दी भी क्या है? कल!
हम पोस्टपोन करते हैं। हमारा आदर भी बड़ा होशियारी से भरा है। ध्यान रखना, आदर ज्यादा चालाक तरकीब है। जहर पिलाना सीधी-सादी बात है। कि हम इस आदमी से छुटकारा पाना चाहते हैं। इसलिए यूनान में उन्होंने सुकरात को जहर पिला दिया। यहूदियों ने जीसस को सूली पर लटका दिया। हिंदुस्तान ज्यादा चालाक है। क्योंकि पुरानी जाति! ज्यादा होशियार है। हमने बुद्ध को, नानक को, महावीर को, कृष्ण को, सूली पर नहीं चढ़ाया और न ही जहर पिलाया। हमने उनकी पूजा की।
और ध्यान रखना, यहूदी जीसस को सूली पर चढ़ा कर अभी तक छुटकारा नहीं पा सके। यहूदी के पीछे जीसस घूम रहा है। क्योंकि जिसको तुम सूली दोगे, उसके लिए तुम्हारे भीतर एक अपराध का भाव पैदा हो जाएगा। अभी तक जीसस से छुटकारा नहीं हुआ है यहूदियों का। और कभी नहीं होगा। क्योंकि एक अपराध का भाव भीतर बैठ गया है। और बार-बार उन्हें जीसस की याद आती है।
लेकिन हमने पहले ही छुटकारा कर लिया है। हमें किसी की याद नहीं आती। हम बहुत होशियार लोग हैं। हमने दिन बांध दिए हैं याददाश्त के कि तुम्हारा जन्म-दिन आएगा तो हम तुम्हारी याद कर लेंगे। बाकी समय तुम हम पर कृपा करो! हमें अपना व्यापार करने दो। अभी हमारी उत्सुकता उस दुनिया के व्यापार में नहीं है। भारत बहुत चालाक है। इसलिए हमने किसी को फांसी नहीं दी। क्योंकि हम छुटकारे की सरल तरकीबें जानते हैं। इतना उपद्रव क्यों खड़ा करें? और सूली देने का मतलब यह है कि हमने तुम्हें बहुत गंभीरता से लिया।
हम तुम्हारी पूजा करेंगे। यह बड़ी सरल और अहिंसात्मक प्रक्रिया है छूटने की। हम तुम्हें भगवान कहेंगे। गुरु कहेंगे। संत कहेंगे। सिद्ध पुरुष कहेंगे। लेकिन तुम हमें 'हम' रहने दो। तुम वहां मंदिर की वेदी पर रहो, हम यहां संसार में। और जब कभी हमें संसार में किसी चीज की जरूरत होगी, तो हम तुमसे मांग लेंगे। हम तुम्हारा उपयोग करेंगे, लेकिन हम तुम्हारे कारण बदलेंगे नहीं।
यह ज्यादा चालाक, ज्यादा होशियार कौम है। पुरानी कौम है। बूढ़े आदमी हमेशा चालाक हो जाते हैं। क्योंकि जिंदगी भर का अनुभव उन्हें बता देता है कि बचने की तरकीबें कुशलता से निकाली जा सकती हैं। इतना जाल--जहर खरीदना और जहर पिलाना और सूली लगाना--इतना उपद्रव क्या करना! मंदिर की वेदी पर बिठा दो, छुटकारा हो जाता है। हमने अपने उन सब व्यापारियों को, जो दूसरे जगत की खबर लाए, पूज्य बना लिया। और पूज्य बनाकर हमारा निपटारा हो गया। नाता-रिश्ता तय हो गया। कि हम भक्त हैं, तुम भगवान हो। हम पुजारी हैं, तुम आराध्य हो। बात निपट गयी!
असली सवाल है, नानक हो जाना। असली सवाल नानक की पूजा नहीं है। असली सवाल गुरुग्रंथ पर फूल चढ़ाना नहीं है, असली सवाल गुरुग्रंथ हो जाना है कि तुम्हारे शब्द का उच्चार उस एक ओंकार की ध्वनि लाने लगे। लेकिन तब तुम्हें बदलाहट से गुजरना पड़े।
'उसके व्यापारी भी अमूल्य हैं।'
और इसीलिए तो हम पहचान नहीं पाते। इसीलिए तो हमें लगता है कि वे जो कुछ कह रहे हैं, वह हमारे तर्क में नहीं बैठता। वे जो कुछ बता रहे हैं, वह हमारी समझ के साथ संगत नहीं होता। तो हम अपने बीच और उनके बीच एक दीवाल खड़ी कर लेते हैं। और हमने अपने भीतर कंपार्टमेंट बना लिए हैं।
जब तुम गुरुद्वारा जाते हो तब तुम और तरह के आदमी होते हो। जब तुम दूकान पर बैठते हो तब तुम और तरह के आदमी होते हो। जब तुम मंदिर जाते हो तब देखो तुम्हारा भाव! आंखों से आंसू बह रहे हैं, तुम ऐसे गदगद मालूम होते हो! मस्जिद में तुम्हें नमाज पढ़ते देखना, और फिर बाजार में तुम्हें दूकान पर देखना, भरोसा ही नहीं आता कि तुम एक आदमी हो। ऐसा लगता है, तुम दो आदमी हो। यह भी बचने की बड़ी कुशल तरकीब है।
तो हम एक कोना अलग ही बना दिए हैं धर्म का। वह हमारा संडे-कार्नर है। वहां हम सुबह चर्च जाते हैं। और चर्च से हम बाहर निकले कि हम उस कोने को वहीं छोड़ आते हैं। फिर सात दिन हम उसे आंख उठा कर भी नहीं देखते। जैसे धर्म का संबंध हमारे चर्च में होने से है! और बाकी जिंदगी? बाकी जिंदगी हम अपने हिसाब से चलते हैं। चर्च में, गुरुद्वारे में, मंदिर में, हम इन व्यापारियों की बात सुनते हैं। वह भी सुनने की है। वह भी हम कहां ठीक से सुनते हैं! वह भी एक सामाजिक उपचार है।
नानक कहते हैं, 'उसके व्यापारी भी अमूल्य हैं।'
और अगर तुम उसकी तरफ जाना चाहते हो तो उसके व्यापारियों को समझने की कोशिश करना। और उसके व्यापारी भी तुम्हें अकूत मालूम पड़ेंगे। उनको भी तुम तौल न सकोगे। तुम्हारी बुद्धि उनके साथ भी थक जाएगी। तुम्हारे मापदंड वहां भी गिर जाएंगे। तुम पाओगे कि तुम उन्हें जिस तरह से भी तौलो, तुम उन्हें पाते हो, वे तुम्हारी तौल से बड़े हैं।
'जो लेने आता है वह अमूल्य है, जो ले जाता वह अमूल्य है।'
वहां अमूल्य का ही सारा कारोबार है--अकूत का, अमाप का। वहां ग्राहक भी जो आता है वह भी अमूल्य है। वहां जो सामान ले जाता है वह भी अमूल्य है। वहां बिक्री ही उस एक की हो रही है--एक ओंकार सतनाम।
'उसका भाव अमूल्य है, उसकी समाधि अमूल्य है।'
तुम्हारे भीतर उसका भाव भी पैदा हो जाए, तो तुम दूसरे जगत में प्रवेश कर गए। तुम फिर यहां नहीं हो। उसका भाव पैदा हो जाए तो तुम कहीं और चले गए।
रामकृष्ण के सामने कोई परमात्मा का नाम ले देता, वहीं वे खड़े हो जाते। आंख बंद हो जाती और आंसुओं की धार लग जाती। शरीर जड़ हो जाता। वे कहीं और चले गए। वे अब यहां नहीं हैं। स्मरण मात्र! और एक नया आयाम भीतर खुल गया। तत्क्षण कोई और दुनिया खुल गयी। यह दुनिया बंद हो गयी। इस दुनिया के दरवाजे बंद हो गए। और एक नए लोक का द्वार खुल गया।
नानक कहते हैं, उसका भाव, स्मरण मात्र, उसकी सुरति, जरा सी उसकी स्मृति, एक रेखा--और तुम कहीं और चले गए। उसका भाव ही जब परिपूर्ण हो जाता है तो उसका नाम समाधि है।
भाव और समाधि के भेद को समझ लें। भाव का अर्थ है, एक झलक। भाव का अर्थ है, एक तरंग। भाव का अर्थ है, एक क्षण को तुम उसमें डूबे, लेकिन तुम बने रहे। डुबकी तो लगायी, मिटे नहीं। जैसे पानी में कोई डुबकी लगाए। कितनी देर डुबकी लगाएगा? एक क्षण बाद बाहर आ जाएगा। और डुबकी जब लगाए हुए है, तब भी मौजूद तो है ही!
शेख फरीद हुआ एक सिद्ध पुरुष। नानक के ही करीब-करीब समय में। एक दिन नदी जा रहा था स्नान करने और एक भक्त ने पूछा कि भगवान कैसे पाया जाए? उसने कहा, तू मेरे साथ आ। नदी के किनारे भक्त से कहा, चल पहले स्नान कर लें। फिर तुझे बता दूंगा। और मौका लगा तो स्नान करने में ही बता दूंगा।
भक्त थोड़ा डरा। भगवान की बात पूछी! और यह आदमी कह रहा है कि स्नान करने में ही बता दूंगा, अगर मौका लगा। थोड़ा भय भी आया। लेकिन अब पूछ बैठा था, फंस गए! न भी न कर सका। और जिज्ञासा भी जगी कि पता नहीं! शायद, नदी में कुछ बताए। तो उतर गया स्नान करने।
जैसे ही उसने डुबकी लगायी, शेख फरीद उसके ऊपर सवार हो गया और उसे नीचे दबाने लगा। वह भक्त तड़फड़ाने लगा। हाथ-पैर फेंकने लगा। सारी ताकत दांव पर लगा दी। भक्त ऐसे कमजोर दुबला था। शेख फरीद तगड़ा आदमी था। बा-मुश्किल, लेकिन सारी ताकत लगा दी, तो फरीद को भी उसने फेंक दिया। बाहर निकल कर बोला कि तुम मैं समझा कि संत हो, लेकिन हत्यारे मालूम पड़ते हो। यह कोई ढंग हुआ! यह कोई बात है? तुम पागल हो या होश में हो? अगर नहीं मालूम, तो पहले ही कह देना था।
फरीद ने कहा कि पीछे कर लेंगे यह हिसाब-किताब कि होश में हूं कि पागल हूं। कि कौन होश में है, कौन पागल है! पहले मैं यह पूछता हूं--क्योंकि वक्त निकल गया तो तू भूल जाएगा, तेरी स्मृति कमजोर है--मैं तुझ से यह पूछता हूं कि जब मैं तुझे पानी में दबाए ही जा रहा था, तब तेरे मन में कितने विचार थे?
उसने कहा, विचार! पागल हुए हो? एक ही भाव था कि किसी तरह बाहर निकल आऊं और एक श्वास हवा मिल जाए। विचार कहां? बस एक भाव था कि किसी तरह बाहर आ जाऊं! और एक श्वास...!
फरीद ने कहा, बस तू समझ गया। जिस दिन ऐसा ही कोई विचार न होगा और एक भाव होगा परमात्मा का, उस दिन तू जान लेगा। और जब तक जीवन दांव पर न लगाएगा, तब तक परमात्मा को जानना मुश्किल है।
भाव का अर्थ है, जहां कोई विचार न रहा। केवल उसकी सुरति रह गयी। मगर तुम भी हो, थोड़ी देर में तुम पानी के बाहर आ जाओगे। समाधि, भाव की परिपूर्ण दशा है। तुम गए तो गए! प्वाइंट आफ नो रिटर्न। वहां से फिर तुम वापस नहीं आते। फिर वह भाव सदा रहता है। फिर तुम भाव के साथ एक हो गए। वह डुबकी नहीं है, वह लीनता है। तुम पानी ही हो गए। अब कौन बाहर आएगा? कौन भीतर जाएगा? जैसे तुम नमक के पुतले थे और पिघल गए पानी में और खो गए। जैसे तुम शक्कर की डली थे और पानी में खो गए और एक हो गए। अब कोई पानी को चखेगा तो तुम्हारा स्वाद पाएगा। लेकिन अब तुम एक हो गए! अब तुम अलग नहीं हो। भाव में तुम अलग होते हो। क्षण भर की झलक मिलती है। समाधि में तुम एक हो गए होते हो। झलक शाश्वत हो जाती है।
नानक कहते हैं, उसका भाव भी अमूल्य है। समाधि का तो कहना क्या!
अमुल भाव अमुला समाहि
'उसका धर्म अमूल्य है, उसका दरबार अमूल्य है। तुला अमूल्य है। प्रमाण अमूल्य है। उसका वरदान अमूल्य है। उसका प्रतीक अमूल्य है।'
इसे थोड़ा समझें। उसका प्रतीक भी अमूल्य है। प्रतीक के साथ बड़ी जटिलता है। हिंदू हैं; उन्होंने हजारों प्रतीक खोजे हैं। मूर्तियां बनायीं, तीर्थ बनाए, ये सब प्रतीक हैं। मुसलमान को समझ में भी नहीं आता कि मूर्ति में क्या रखा हुआ है? वह मूर्ति को तोड़ देता है। और तोड़ कर उसे ऐसा भी लगता है कि जब मूर्ति अपनी ही रक्षा नहीं कर सकती, तो भक्तों की क्या खाक रक्षा करेगी?
दयानंद को भी ऐसा ही हुआ अनुभव। वह पूजा करते थे। रात सो गए, और देखा कि एक चूहा मूर्ति पर चढ़ा है, और मूर्ति चूहे को भी नहीं भगा सकती! पर मुसलमान भी चूकते हैं और दयानंद भी चूके। क्योंकि प्रतीक, प्रतीक है। प्रतीक परमात्मा नहीं है।
प्रतीक का अर्थ होता है कि उसके सहारे तुम किसी यात्रा पर जा रहे हो। वह खुद मंजिल नहीं है। समझो, तुम्हारी प्रेयसी ने तुम्हें एक रूमाल भेंट कर दिया; वह चार आने का है। अगर बाजार में तुम उसे बेचने जाओगे तो दो आना भी नहीं मिलेगा। पहले तो कोई खरीदने को तैयार ही नहीं होगा कि पुराने रूमाल का क्या करेंगे? पर गुदड़ी बाजार में शायद कोई दो आने में खरीद ले। लेकिन तुम्हें तुम्हारी प्रेयसी ने दिया है वह रूमाल। उसका मूल्य लगाना कठिन है। हिसाब ही लगाना कठिन है। तुम उसे साज-संवार कर रखते हो। वह कहीं खो न जाए!
तुम्हारे लिए वह रूमाल सिर्फ रूमाल नहीं है, प्रतीक है। उस रूमाल के साथ प्रेयसी से तुम्हारा नाता जुड़ा है। इस बात को कोई दूसरा न जान सकेगा। दूसरे के लिए वह सिर्फ रूमाल होगा। तुम्हारे लिए वह सिर्फ रूमाल नहीं है। किसी गहरे अर्थ में तुम्हारी प्रेयसी उस रूमाल के साथ संयुक्त है। वह रूमाल तुम्हारी प्रेयसी की हवा को छुआ है। उस रूमाल ने तुम्हारी प्रेयसी के हाथों में स्पर्श पाया है। प्रेयसी ने उस रूमाल का चुंबन लिया है और तुम्हें भेंट किया है। प्रेयसी ने अपने हाथों से थोड़ी सी कसीदाकारी की है। वह प्रेयसी बड़े गहरे अर्थों में उस रूमाल में समा गयी है। किसी और के लिए वह प्रतीक साधारण रूमाल है, तुम्हारे लिए वह साधारण रूमाल नहीं है।
क्या फर्क है? तुम्हारे लिए प्रतीक है। दूसरों के लिए रूमाल है।
हिंदू की मूर्ति, हिंदू के लिए प्रतीक है, अगर उसने भाव को संजोया है। मुसलमान के लिए साधारण पत्थर है। जैन की मूर्ति, जैन के लिए प्रतीक है, हिंदू के लिए पत्थर है। बुद्ध की मूर्ति, बौद्ध के लिए प्रतीक है, जैन के लिए किसी मूल्य की नहीं। प्रतीक का मूल्य भाव पर निर्भर होता है। प्रतीक का कोई सार्वजनिक मूल्य नहीं होता। प्रतीक प्राइवेट है। वह एक निजी बात है। जो जानता है, वह जानता है। जिसका उससे लगाव है, उसका लगाव है।
इसलिए भूल कर भी कभी किसी के प्रतीक के खिलाफ कुछ मत कहना। क्योंकि वह तुम्हारे लिए साधारण है, और तुम भी सच हो। और जिसके लिए वह असाधारण है, वह भी सच है।
तुम भी सच हो कि यह रूमाल रूमाल है, क्या छाती से चिपकाए फिरते हो? और खो जाए तो डर क्या है? हजार खरीद कर ला देंगे। बाजार में मिलता है। लेकिन जिसके लिए वह प्रतीक है, वह भी सच है। क्योंकि यह रूमाल फिर नहीं मिल सकता। ऐसा रूमाल दुबारा नहीं मिल सकता। यह रूमाल अनूठा है। पर यह जो अनूठापन है, यह निजी घटना है।
नानक कहते हैं, 'उसके प्रतीक भी अमूल्य हैं।'
वह तो अमूल्य है ही, लेकिन अगर तुमने किसी प्रतीक के माध्यम से उसकी झलक पायी है, वह भी अमूल्य है। और प्रत्येक प्रतीक का सम्मान करना है। क्योंकि कौन जाने किस के लिए उससे रास्ता मिलता हो! और किसी के प्रतीक को कभी गलत मत कहना। क्योंकि प्रतीक गलत और सही होते ही नहीं। किसी के लिए प्रतीक होते हैं, किसी के लिए नहीं होते। प्रतीक के गलत और सही होने का कोई सवाल ही नहीं उठता।
अब बड़ी हैरानी की बात है। मुसलमान को दिखायी पड़ता है कि सारी मूर्तियां व्यर्थ हैं। लेकिन काबा का पत्थर? उसको वे चूमते हैं। उस पत्थर पर जितने चुंबन पड़े हैं, दुनिया के किसी पत्थर पर नहीं पड़े। वह पत्थर चुंबनों से भर गया है। उस पत्थर के एक-एक इंच पर अरबों-अरबों चुंबन पड़ चुके हैं। पिछले चौहद सौ वर्षों में करोड़ों-करोड़ों लोगों ने उस पत्थर को चूमा है। ऐसा कोई पत्थर खोजना मुश्किल है। मुसलमान को वह पत्थर तो चूमने जैसा लगता है, हिंदू की मूर्ति तोड़ने जैसी लगती है। क्योंकि वह पत्थर उसके लिए प्रतीक है। और यह प्रतीक नहीं है।
लेकिन धार्मिक व्यक्ति को इतनी समझ होनी ही चाहिए कि जो मेरे लिए प्रतीक नहीं है, वह दूसरे के लिए प्रतीक हो सकता है। और प्रतीक निजी घटना है। और उसको सार्वजनिक रूप से सिद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि वह भाव की बात है। वह अंतर्भाव है। वह बड़ी गहन और भीतरी घटना है। उसको बाहर लाने का उपाय नहीं। बाहर लाते-लाते ही वह खो जाती है।
किसी आदमी के लिए पीपल का वृक्ष प्रतीक है। तुम उससे मत कहना कि क्या वृक्ष को पूज रहे हो? पागल हो गए हो? सवाल किस को पूज रहे हो यह है ही नहीं, सवाल पूजा का है, किस बहाने पूजा हो जाए! सभी बहाने ठीक हैं। और सभी बहाने गलत हैं। अगर तुम वैज्ञानिक ढंग से सोचो, तो पीपल का वृक्ष, पीपल का वृक्ष है। पत्थर, पत्थर है; रूमाल, रूमाल है। लेकिन विज्ञान का क्या लेना-देना है यहां! धर्म प्रेम का राज्य है, तर्क और बुद्धि का नहीं।
पर बड़े मजे की बात है, हर आदमी अपने प्रतीक को तो मान कर चलता है, दूसरे के प्रतीक के साथ झंझट खड़ी हो जाती है। तुम अपनी प्रेयसी के रूमाल को तो सम्हाल कर रखे हो, दूसरों को भी सम्हाल कर रखने दो। वह उनकी प्रेयसियों के रूमाल हैं।
नानक कहते हैं, प्रतीक भी! जिससे इशारा भी मिल जाए।
अब समझो कि किसी आदमी को अगर पीपल के वृक्ष के देवता में ही रस है, और वह यदि पीपल के वृक्ष के पास समाधिस्थ हो जाता है, और आनंदमग्न हो कर नाचने लगता है, तो असली सवाल वृक्ष थोड़े ही है! असली सवाल तो यह आनंदमग्न नृत्य है। यह नृत्य जहां भी घटित हो जाए, जिस बहाने भी उसकी याद आ जाए, वही अमूल्य है।
'उसका वरदान अमूल्य है। उसका प्रतीक अमूल्य है। उसकी कृपा अमूल्य है। और उसकी आज्ञा अमूल्य है। वह अमूल्य से भी कितना अमूल्य है, इसका बखान नहीं हो सकता। उसका बखान ही करते-करते कितने ध्यानस्थ होते रहते हैं।'
उसके बखान का प्रयोजन ही इतना है। इसे थोड़ा समझें। नानक बार-बार कहते हैं, उसका बखान नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं बखान करने का। और फिर भी बखान करते चले जाते हैं। कर क्या रहे हैं नानक? यदि उसका बखान नहीं हो सकता, तो ये सारे शब्द कर क्या रहे हैं? यह सब उसका बखान है। तब एक बड़ी तार्किक पहेली खड़ी हो जाती है।
अनेक लोग मुझसे आ कर पूछते हैं कि बुद्ध कहते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर बुद्ध बोलते क्यों हैं? मुझसे कहते हैं, कि आप कहते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता। और आप रोज बोले चले जाते हैं! संगति नहीं मालूम पड़ती। कन्सिस्टेन्सी नहीं मालूम पड़ती।
इसे थोड़ा समझें। नानक कहते हैं, उसका बखान नहीं हो सकता; और बखान किए चले जा रहे हैं। क्योंकि बखान करते-करते ही समाधि लग जाती है। बखान तो नहीं हो पाता। लेकिन उसकी चर्चा करनी ही इतनी मधुर है! चर्चा हो नहीं पाती। कह कर भी कुछ कहा नहीं जाता। अनकहा, अनकहा रह जाता है। लेकिन उसकी चर्चा करना ही इतना आनंदपूर्ण है कि उसकी चर्चा करते-करते ही ध्यान लग जाता है। बोल-बोल कर कुछ कहा तो नहीं जा सकता, लेकिन बोलते-बोलते-बोलते बोलने वाला खो जाता है।
'उसका बखान ही करते-करते कितने ध्यानस्थ हो जाते हैं। वेद उसका वर्णन करते हैं। पुराण उसका पाठ करते हैं। विद्वान उसका वर्णन करते हैं और बखान करते हैं। इंद्र और ब्रह्मा उसका वर्णन करते हैं। गोपी और गोविंद उसका वर्णन करते हैं। विष्णु और सिद्ध उसका वर्णन करते हैं। अनेक-अनेक बुद्ध उसका वर्णन करते हैं। दानव और देव भी उसका वर्णन करते हैं। सुर, नर और मुनिजन और सेवकजन उसका वर्णन करते हैं।'
उसका वर्णन, वर्णन के लिए नहीं है। उसका वर्णन भी ध्यान की एक विधि है। उसकी चर्चा उसमें खो जाने का एक उपाय है। उसकी बात करना उसकी तरफ उन्मुख होने का मार्ग है। जहां उसकी बात चलती हो वहां बैठ कर उसकी बात सुन लेना भी--तुम्हारे भीतर भी शायद एक-आध बूंद की वर्षा हो जाए! शायद तुम्हारे प्यासे कंठ पर भी कोई चीज पड़ जाए। शायद अनायास कुछ सुनायी पड़ जाए। शायद तुम्हारी वधिरता को तोड़कर कोई शब्द भीतर प्रवेश कर जाए। शायद तुम्हारी अंधी आंखें भी थोड़ी सी रोशनी से भर जाएं। और तुम्हारी बुद्धि के विचार भी थोड़ी देर को उसकी चर्चा के राग में, उसकी चर्चा के रंग में, उसकी चर्चा के संगीत में डूब जाएं। थोड़ी देर को तुम चुप हो जाओ। तुम्हारी भीतरी, जो चल रही वार्तालाप की विधि है, वह विच्छिन्न हो जाए। तुम्हारा इंटरनल डायलाग टूट जाए!
इसलिए नानक उसके गीत गाते हैं। उसके गीत गाते हैं, क्योंकि गाते-गाते गायक उसमें खो सकता है। गाते-गाते सुनने वाला भी उसमें खो सकता है। और इसलिए नानक ने कहा नहीं, गाया। क्योंकि गाने से ज्यादा आसान होगा। और संगीत का भी उपयोग किया। क्योंकि तुम्हारा सुर भीतर का सध जाएगा। थोड़ी देर को संगीत की थाप में तुम शायद उस गहन शांति को एक क्षण को भी छू लो, जिसका स्वाद फिर भूले नहीं भूलेगा।
इसलिए नानक साधु-संगत का बड़ा मूल्य मानते हैं, कि जहां उसकी चर्चा चल रही हो वहां बैठना, सुनना। सुनते-सुनते, धीरे-धीरे तुम पर भी रंग चढ़ जाएगा। अगर तुम बगीचे से गुजरोगे, तो अनजाने भी तुम्हारे वस्त्रों में फूलों की गंध थोड़ी सी साथ आ जाएगी। और तुम अगर सुबह के सूरज के पास खड़े होओगे, तो उसकी उत्तप्त और ताजी किरणें तुम्हारे खून को भी आंदोलित करेंगी। और रात अगर तुम चांद के पास बैठोगे, लेट जाओगे भूमि पर और देखोगे आकाश में चांद को, तो उसकी शीतलता थोड़ी सी तुम्हारे भीतर भी मार्ग बनाएगी। साधु-संगत का अर्थ है, जहां उसका गुणगान हो रहा हो।
हिंदुओं ने कहा है, जहां उसकी निंदा हो रही हो, वहां अपने कान बंद कर लेना। जहां उसकी चर्चा हो रही हो, वहां तुम अपने समस्त व्यक्तित्व को कान ही बना देना, सिर्फ सुनने वाले हो जाना। 
इसलिए तो नानक कहते हैं बार-बार, सुनिए। वे उसकी चर्चा कर रहे हैं। उसका बखान कर रहे हैं। लेकिन एक बात बार-बार स्मरण दिलाते हैं कि बखान करने से भी उसका बखान होता नहीं। क्योंकि कहीं तुम इस भूल में मत पड़ जाना कि जो कहा है, उससे उसका माप हो गया। जो कहा है, उससे इशारा हुआ। उससे माप नहीं हुआ। जो कहा है, उससे वह चुक नहीं गया। पूरा का पूरा चुक नहीं गया। शुरुआत हुई, अंत नहीं हुआ। इसलिए बखान भी करते हैं, और कहते हैं कि उसका बखान हो भी नहीं सकता।
'वेद उसका वर्णन करते हैं। शास्त्र उसका वर्णन करते हैं।'
और बड़ी अदभुत बात कही कि--
'गोपी और गोविंद भी उसका वर्णन करते हैं।'
गोपी और गोविंद तो बोलते ही नहीं; वे तो नाचते हैं। लेकिन उस नाच में भी उसका ही वर्णन है। उस नृत्य में भी उसकी ही खबर है। गोपी और गोविंद तो चर्चा ही कहां करते हैं! वे तो नाचते हैं। रासलीला होती है चांद तले। गोविंद नाचते हैं गोपियों के साथ। लेकिन नानक कहते हैं, वह भी उसी का वर्णन है।
ढंग अलग हैं। कोई नाच कर कहता है, कोई गा कर कहता है, कोई चुप हो कर कहता है, कोई बोल कर कहता है। लेकिन सभी उसका वर्णन है। और जिसने उसे जान लिया, वह कुछ भी करे, उसके हर कृत्य में, उसके हर इशारे में, गेस्चर में उसी का वर्णन है। बुद्ध का हाथ भी उठे, तो उस हाथ में भी उसी की तरफ इशारा है। बुद्ध की आंख भी खुले, तो वह आंख भी उसी की तरफ इशारा है। बुद्ध चुप हों, तो भी उसी की बात कर रहे हैं। बुद्ध बोलें, तो भी उसी की बात कर रहे हैं।
फिर हर व्यक्ति के अलग ढंग हैं। बुद्ध नाच नहीं सकते। वह उनके व्यक्तित्व में नहीं है। वह उन्हें जमेगा भी नहीं। नाचते हुए बड़े असंगत मालूम पड़ेंगे। नाच से उनका तालमेल न होगा। वे प्यारे लगते हैं बोधिवृक्ष के नीचे। जैसे बैठे हैं, वैसे ही। वही उनका नृत्य है। वे कंपते भी नहीं, कंपन भी नहीं है। हिलते भी नहीं, डुलते भी नहीं। ठीक पत्थर की तरह!
बुद्ध की मूर्ति के कारण ही अरबी और अरबी से संबंधित भाषाओं में, मूर्ति के लिए जो शब्द है वह 'बुत' बन गया। बुत, बुद्ध का अपभ्रंश है। बुद्ध इतने मूर्तिवत हैं कि अगर तुम उन्हें जिंदा भी पाओगे तो लगेंगे कि संगमरमर की मूर्ति हैं। अगर बुद्ध के पीछे करोड़ों-करोड़ों मूर्तियां बनीं संगमरमर की, तो उसका कारण था। बुद्ध वैसे लगते थे। उनका होने का ढंग इतना मौन था। वहां कोई कंपन न था। नृत्य तो बहुत मुश्किल है, वे ऐसे बैठे थे जैसे कि पत्थर हों। संगमरमर का पत्थर ठीक उनकी याद दिलाता है। वैसे ही शीतल, वैसे ही थिर। लेकिन वही बुद्ध का ढंग है। उस तरह वे कहते हैं।
कृष्ण नाच रहे हैं। बड़ा उल्टा ढंग है उनका बुद्ध से। तुम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध मोर-मुकुट बांधे खड़े हैं। बड़े नाटकीय लगेंगे। जंचेगा भी नहीं। लेकिन कृष्ण को तुम अगर बुद्ध की तरह बिठा दो, तो वे भी उतने ही नाटकीय लगेंगे। वह भी नहीं जंचेगा; अभिनय मालूम पड़ेगा, झूठा लगेगा। कृष्ण पर रोपा नहीं जा सकेगा। कृष्ण का व्यक्तित्व और ढंग का है। वे मोर-मुकुट में ही शोभते हैं। वे नाच रहे हैं। चारों तरफ गोपियों का नृत्य चल रहा है।
लेकिन नानक कहते हैं, गोपी और गोविंद के नृत्य में भी उसका ही बखान है।
यह बड़ा प्यारा वक्तव्य है नानक का कि उसकी ही खबर है। हजारों तरह से बुद्धों ने उसे कहा है। जाग्रत-पुरुषों ने उसे कहा है। इशारे हजारों हैं। जिसकी तरफ इशारा है, वह एक है--एक ओंकार सतनाम।
'ब्रह्मा और इंद्र उसका वर्णन करते हैं। विष्णु और सिद्ध उसका वर्णन करते हैं। अनेक-अनेक बुद्ध उसका वर्णन करते हैं। कितने तो वर्णन कर पाते हैं। और कितने वर्णन करते-करते ही विदा हो जाते हैं। उसने जो किया है, वह उसे और भी करेगा। उसका हिसाब कोई भी नहीं लगा सकता है। वह जैसा चाहता है, वैसा ही हो जाता है।'
ये शब्द बहुत विचारने जैसे हैं।
एते कीते होरि करेहि। ता आखि  सकहि केई केइ।।
जेवडु भावै तेवड होइ। नानक जाणै साचा सोइ।।
उसका वर्णन इसलिए भी नहीं हो सकता कि परमात्मा कोई पूरी हो गयी घटना नहीं है। अगर कोई चीज पूरी हो गयी हो, तो वर्णन हो सकता है। लेकिन कोई चीज अगर अधूरी हो, तो वर्णन कैसे होगा? कोई चीज अगर होती ही जा रही हो, तो वर्णन कैसे होगा?
अगर किसी आदमी की आत्मकथा लिखनी हो, तो उसके मरने तक हमें रुकना पड़ेगा। अगर उसकी जीवन-कथा हमें लिखनी हो, तो मृत्यु के बाद ही लिखी जा सकती है। क्योंकि आदमी अभी अधूरा है। अभी और अध्याय बाकी हैं।
परमात्मा की जीवन-कथा कैसे लिखें? क्योंकि वह कभी भी मरेगा नहीं, कभी पूरा नहीं होगा। कभी आखिरी चरण नहीं आएगा, जहां हम कह दें--दि एंड। जहां इति श्री हो जाए। वह होता ही रहेगा। परमात्मा सतत होना है। इटरनल, शाश्वत अभिव्यक्ति। वह फूल खिलता ही चला जाता है। उसकी पंखुड़ियां उस जगह नहीं आतीं, जहां हम कह दें, फूल पूरा खिल गया। वह सदा से खिल रहा है। और सदा खिलता रहेगा।
यह जो परमात्मा की अनंत होने की क्षमता है, इसलिए वर्णन सब अधूरे हैं। सब कपड़े छोटे पड़ जाते हैं, वह बड़ा होता जाता है। इसलिए जितनी हमने परमात्मा की मूर्तियां बनायीं, और जितने हमने वर्णन किए, वे सब अधूरे पड़ गए। वह ऐसे, जैसे हम छोटे बच्चे को कपड़े बना देते हैं। वे फिर छोटे पड़ जाते हैं, क्योंकि बच्चा बड़ा हो रहा है। एक उम्र आ जाती है, फिर नाप ठहर जाता है। फिर कपड़े का डर नहीं होता। फिर कपड़ा हम जो बना लेते हैं, वह काम आता है। फिर नाप निश्चित हो जाता है। फिर दर्जी को बार-बार नाप देने की जरूरत भी नहीं पड़ती। वह नाप नोट कर लेता है। लेकिन बच्चों के नाप नोट नहीं किए जा सकते, क्योंकि वे बढ़ते जा रहे हैं।
और परमात्मा सदा बढ़ रहा है। इसलिए जितने कपड़े हम बनाते हैं, सब छोटे पड़ जाते हैं। इसलिए सब शास्त्र छोटे पड़ जाते हैं, और पुराने पड़ जाते हैं। इसलिए तो नए धर्म आविर्भाव होते हैं। और नए बुद्ध पुरुष फिर से उसका बखान करते हैं। और जब नए बुद्ध पुरुष उसका बखान करते हैं, थोड़ी देर तक वह बखान सही रहता है। क्योंकि कपड़े फिर छोटे हो जाते हैं। और सदा जरूरत रहेगी बुद्ध पुरुषों की कि वे उसका गीत गाते रहें। और हर नया गीत, थोड़ी देर ही लागू होता है। जितनी देर हम गाते हैं, उतनी देर भी लागू नहीं हो पाता। क्योंकि वह रोज बढ़ता जा रहा है। हमारे गाने की क्षमता छोटी, और उसके बढ़ने की क्षमता बहुत बड़ी है।
इसलिए तो अगर तुम पिछले पांच हजार साल का धर्मों का इतिहास देखो, तो तुम पाओगे परमात्मा की शक्ल बदलती गयी है। परमात्मा की शक्ल नहीं बदलती, हमारा वर्णन छोटा होता है। फिर हमें बदलाहट करनी पड़ती है। फिर हमें उसमें हेर-फेर करना पड़ता है। फिर कुछ काटना-छांटना पड़ता है। फिर नए नाक-नक्श देने पड़ते हैं। जब तक हम दे पाते हैं, तब तक वह आगे जा चुका है। जब तक हम नाक-नक्श सुधारते हैं तब तक हम पाते हैं कि वह कुछ और हो गया है। सभी अधूरा रहेगा।
हिंदू बड़े अदभुत लोग हैं। इसलिए उन्होंने परमात्मा की ऐसी भी मूर्तियां बनायीं जिनमें नाक-नक्श नहीं हैं। सिर्फ हिंदुओं ने ऐसा काम किया है। अन्यथा दुनिया में और जगह भी मूर्तियां बनती हैं तो नाक-नक्श हैं। हिंदू एक पत्थर को उठा लेते हैं, सिंदूर से रंग देते हैं, हनुमान जी हो गए! न नाक है, न नक्श है। क्योंकि हिंदू कहते हैं, क्या नाक-नक्श बनाना! जब तक हम बनाएंगे, तब तक वह आगे निकल जाएगा। तो यह पत्थर काम देगा।
हिंदुओं ने शंकर की, शिव की जो प्रतिमा बनायी है--शिव-लिंग, उसमें कोई भी नाक-नक्श नहीं है। वह अंडाकार है। और वह शाश्वत प्रतिमा है। वह सदा लागू रहेगी। परमात्मा कैसा ही हो जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन हम जो भी उसका वर्णन करेंगे, हम कर भी नहीं पाएंगे कि हम पाएंगे कि वर्णन आउट आफ डेट हो गया।
नानक कहते हैं, एते कीते होरि करेहि
और उसने इतना किया है अब तक, और भी करता रहेगा। अब तक इतना हुआ है, और भी होता रहेगा।
ता आखि  सकहि केई केइ।।
और अगर वह पूरा हो गया होता तो हम कुछ आख लेते, हिसाब लगा लेते। लेकिन वह और आगे होता ही रहेगा। और क्या होता रहेगा इसका अनुमान भी करना असंभव है। अनप्रेडिक्टिबल है। परमात्मा के संबंध में हम कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि वह कैसा हो जाएगा! या संसार क्या रूप-रंग लेगा! सब अज्ञात में छिपे हैं।
'जो उसने किया, वह उसे और भी करेगा। उसका हिसाब कोई भी नहीं लगा सकता। वह जैसा चाहता है, वैसा हो जाता है।'
उसका भाव--और वैसी घटना घट जाती है। ईसाई कहते हैं, यहूदी कहते हैं कि परमात्मा ने कहा, हो जा! और जगत हो गया।
हमारे कृत्य में और भाव में अंतर होता है। क्योंकि हमारी शक्ति सीमित है। अगर आप चाहते हैं एक मकान बनाना, तो आज भाव उठता है, दो साल बाद मकान बन पाएगा। यह दो साल का समय लगता है, क्योंकि हमारी शक्ति सीमित है। अगर शक्ति थोड़ी ज्यादा हो, तो एक साल में बन जाएगा। शक्ति और थोड़ी ज्यादा हो, तो एक दिन में बन जाएगा। और अगर शक्ति सर्वज्ञ हो, परिपूर्ण हो, जैसी की परमात्मा की है, तो फिर भाव में और कृत्य में समय का भेद न रहेगा।
इसलिए समय हमारे लिए है, परमात्मा के लिए कोई समय नहीं है। समय मानवीय घटना है। परमात्मा के लिए समय है ही नहीं। क्योंकि समय है ही इसीलिए, क्योंकि हम कमजोर हैं। हमारी कमजोरी से समय है।
कभी तुमने खयाल न किया हो, लेकिन अब खयाल करना। जितने तुम कमजोर होओगे, उतना समय लंबा मालूम पड़ेगा। समझो कि तुम्हारी पत्नी बुखार से बीमार है। एक सौ चार डिग्री बुखार है। और तुम भागे हुए बाजार जाते हो, दवा खरीद कर पांच मिनट में वापस लौट जाते हो। लेकिन पत्नी कहती है, बहुत देर लगा दी। बुखार में समय लंबा मालूम पड़ता है।
अब तो इसके वैज्ञानिक प्रमाण भी जुट गए हैं कि जब आदमी बुखार में होता है तो समय लंबा मालूम पड़ता है। बीमार आदमी को समय ज्यादा मालूम पड़ता है। बीमार आदमी को ही नहीं, बीमार आदमी के पास तुम बैठो घड़ी भर, तो बहुत लंबी मालूम पड़ती है। अगर कोई आदमी मर रहा हो, और उसके पास बैठो रात भर, तो ऐसा लगेगा कि अंत ही नहीं आता। रात लंबी ही होती चली जाती है। जब तुम स्वस्थ होते हो, समय छोटा हो जाता है। जब तुम प्रफुल्लित होते हो, समय छोटा हो जाता है। जब तुम दुखी होते हो, लंबा हो जाता है। हमारी शक्ति पर समय निर्भर है।
परमात्मा परिपूर्ण शक्ति है, ओम्नीपोटेंट, सर्वशक्तिमान। उसके लिए कोई भी समय नहीं है। उसका भाव ही कृत्य हो जाता है। तो नानक कहते हैं--
जेवडु भावै तेवड होइ।
जो भाव करता है, वैसा ही घट जाता है। उसी क्षण घट जाता है। क्षण की भी देरी नहीं होती। युगपत, साइमलटेनियस। इधर भाव, उधर घटना हो जाती है। भाव ही कृत्य है।
नानक कहते हैं, 'इसे जो जान ले, वही सत्य है।'
इस वचन के दो अर्थ हो सकते हैं।
जेवडु भावै तेवड होइ। नानक जाणै साचा सोइ।।
इस वचन के दो अर्थ हो सकते हैं, कि इस बात को जो जान ले, वह स्वयं सत्य हो गया। वही सच है, जो इस बात को जान ले। परमात्मा की इस सर्वशक्तिमत्ता को जो जान ले, वही सत्य है।
और दूसरा अर्थ हो सकता है, कि नानक कहते हैं, वह सत्य पुरुष ही अपने को जानता है। हम उसे न जान सकेंगे। क्योंकि न उसके भविष्य का हमें कोई बोध है और न अतीत का। और वह कभी पूरा नहीं होगा। पूरा होता रहेगा। पूर्णता से और पूर्णता...और पूर्णता...। वह अपूर्ण नहीं है, जो अपूर्ण से पूर्ण हो रहा हो; वह पूर्ण से पूर्णतर हो रहा है।
तो एक अर्थ हो सकता है, कि वही केवल जानता है। हमारे सब अनुमान, अनुमान हैं। दूसरा अर्थ हो सकता है, कि जो परमात्मा की इस सर्वशक्तिमत्ता को अनुभव कर लेता है, वही सच है। वह व्यक्ति भी सत्य हो गया।
'पर यदि कोई उसका वर्णन करने का दंभ भरे, तो उसकी गिनती गंवारों में भी गंवार की होनी चाहिए।'
जे को आखै बोल बिगाडु। ता लिखीए सिरि गावारा गावारु।।
अगर गंवारों की कोई फेहरिश्त बनानी हो तो सबसे ऊपर, सिर पर उसका नाम लिखना चाहिए, जो यह दंभ करे कि उसका वर्णन किया जा सकता है।
वर्णन नानक करते हैं, क्योंकि वर्णन पड़ा रसपूर्ण है। वर्णन डुबो देता है। वर्णन ध्यान है। उसके भाव की बात करते-करते, करते-करते हृदय खिल जाता है। भीतर उमंग पैदा हो जाती है। रस बहने लगता है। लेकिन अगर कोई सोचता हो कि उसका वर्णन हो सकता है, तो वह गंवारों में गंवार है।
ज्ञानी वही है, जो जानता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। वर्णन करता है, क्योंकि उसका नाम लेने में बड़ा आनंद है। चर्चा उसकी करता है, चर्चा बड़ी प्रीतिकर है। उसी-उसी की बात करता है। कुछ दूसरी बात ही नहीं करता। क्योंकि उसकी बात करते-करते उसका द्वार खुलता है। उसकी चर्चा उसके द्वार पर दस्तक देने जैसी है।
तुमने कभी खयाल किया है, जब पहला बच्चा पैदा होता है, तब मां उसी-उसी की चर्चा करती है। पड़ोसियों से करती है, घर मेहमान आते हैं, उनसे करती है। वे ही बातें बार-बार दोहराती है।
प्रेमी जब किसी के प्रेम में पड़ जाता है, तो अपनी प्रेयसी से बार-बार कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। बार-बार कहता है, तुझ से ज्यादा सुंदर कोई भी नहीं। बार-बार कहता है, तू अनूठी है, अद्वितीय है। बार-बार कहता है, तुझ जैसा कभी कोई हुआ ही नहीं। बार-बार कहता है कि मैं धन्यभागी हूं। और न तो प्रेयसी समझती है कि पुनरुक्ति है, कि क्या बार-बार दोहरा रहे हो? और न प्रेमी को यह खयाल आता है कि ये मैं बार-बार वही बातें क्यों कह रहा हूं? क्योंकि बार-बार दोहराने से, प्रेम की बात दोहराने से प्रेम बढ़ता है। बार-बार दोहराने से, गहन होता है। बार-बार दोहराने से, जैसे भंवरा फूल के पास घूमता है, ऐसी गुनगुनाहट प्रेयसी के पास गूंजने लगती है।
जो साधारण प्रेम में होता है, वही परमात्मा के प्रेम में होता है--विराट पैमाने पर। पैमाना बदल जाता है, बात वही है।
तो नानक कहे चले जाते हैं। अगर तुम प्रेमी नहीं हो, तो तुम हैरान होओगे कि क्या यह वही-वही बात लंबी किए जा रहे हैं! यह जपुजी तीन शब्दों में पूरा हो जाता है, एक नाम ओंकार; या एक ओंकार सतनाम। क्या बार-बार कहे जा रहे हैं? लेकिन बड़ा रस ले रहे हैं। और अगर तुम्हारे भीतर भी भाव का जन्म होगा, तो तुम भी पाओगे, यह पुनरुक्ति बड़ी मधुर है।
एक मां ने सुना--उसका बेटा रात सोने जा रहा है। और उसे कहा गया है कि रोज प्रार्थना कर के सोना--तो उसने कान लगा कर सुना कि वह प्रार्थना कर रहा है कि नहीं? उसने एक शब्द कहा, और कंबल ओढ़ कर अंदर हो गया। मां अंदर गयी, उसने कहा, इतनी जल्दी प्रार्थना पूरी हो गयी? उसने कहा, रोज-रोज वही-वही क्या कहना? मैं रोज कह देता हूं, डिट्टो! जो कल कहा था, वही। और क्या परमात्मा इतना समझदार नहीं है कि समझ न पाए?
बुद्धि तो यही कहना चाहेगी, कह दो डिट्टो, क्या बार-बार दोहराना! लेकिन भाव दोहराना चाहेगा। हृदय डिट्टो को जानता ही नहीं। हृदय दोहराता है। दोहरा-दोहरा कर रसलीन होता है। जितना दोहराता है, उतना डूबता है। यह भंवरे की गुनगुन है। और यह गुनगुन बड़ी कीमती है। पर भाव हो, तो ही समझ में आ सकती है।
पर ध्यान रखना, इसलिए नानक अंत में फिर दोहराते हैं कि इस दंभ में मत पड़ जाना कि उसका वर्णन हो सकता है। वैसा दंभ आ जाए, तो गंवारों में गंवार! वर्णन कर-कर के तुम्हारा अहंकार खो जाए, तो तुम बुद्धिमानों में बुद्धिमान। और वर्णन करते-करते यह अहंकार आ जाए कि मैं वर्णन करने वाला हूं, मैंने वर्णन कर लिया, जो कोई न कह सका वह मैंने कह दिया, जो कोई न बता सका वह मैंने बता दिया, तो फिर गंवारों में गंवार!

आज इतना ही।


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