3 जून, 1975, प्रातः,
ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना
सूत्र :
आंखरिया झांई पड़ी, पंथ निहार निहार।
जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।।
इस तन का दीवा करौं, बाती मैल्यूं जीव। .
लोही सीचौं तेल ज्यूं, कब मुख देख्यौं पीव।।
सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।
नैन तो झरि लाइया, रहंट बहै निसुवार।
पपिहा ज्यों पिउ फिउ रटै, पिया मिलन की आस।।
कबीरा वैद बुलाइया, पकरि के देखो बांहि।
वैद न वेदन जानई, करक कलेजे मांहि।।
प्रभु की खोज बड़ी अनूठी है। क्योंकि जिसे हम खोजते हैं उसका कोई पता नहीं, कोई ठिकाना नहीं। वह है भी, यह भी पक्का नहीं। कोई मंजिल है, तब तो मार्ग पर चलना आसान हो जाता है। लेकिन मंजिल दिखाई भी नहीं पड़ती, होगी इसका भी संदेह बना रहता है, कोई नक्शा हाथ नहीं, कोई दिशा-संकेत कोई मार्ग पर लगे मील के पत्थर नहीं।
खोज बड़ी अनूठी है। इसलिए बहुत कम लोग तो खोज ही शुरू करते हैं। इतने अनूठे अभियान में जाने का साहस कम लोगों का होता है। और जो खोज शुरू भी करते हैं, उनमें से भी बहुत ही कम पहुंच पाते हैं।चार तरह के लोग हैं। उन्हें हम ठीक से समझ लें। पहला वर्ग है, सरल-चित्त लोगों का; जिनके जीवन में श्रद्धा स्वाभाविक है। जिन्होंने संदेह जाना ही नहीं। जिन्होंने उस घाट का पानी ही नहीं पिया। जो किसी भांति बच गए। जो छोटे बच्चे की भांति ही हैं। जो सिर्फ भरोसा करना जानते हैं। उन्हें भरोसे का भी पता नहीं। क्योंकि भरोसे का भी पता उसे ही होता है, जिसने संदेह किया हो। उनकी सरलता ऐसी स्वाभाविक है, कि उसका बोध भी नहीं हो सकता।ऐसे लोग तो परमात्मा को उपलब्ध ही हैं। आंख भर खोलने की बात है। द्वार खटखटाने की भर जरूरत है। शायद एक कदम भी उन्हें चलना नहीं, वे जहां हैं, वहीं उनका परमात्मा प्रकट हो जाए।कभी पृथ्वी ऐसे वर्ग से भरी थी। लेकिन धीरे-धीरे वह वर्ग कम होता गया है। उसके भी कारण हैं। क्योंकि तब संदेह की कोई शिक्षा-दीक्षा न थी। सारा जीवन ही एक ही पाठ पढ़ाता था, वह श्रद्धा का था। सब तरफ प्रकृति से एक ही खबर मिलती थी, वह श्रद्धा की थी। चांदत्तारे श्रद्धा से घूमते मालूम पड़ते। सुबह रोज सूरज उग आता है समय पर, कभी नानुच नहीं करता। ऋतुएं एक वर्तुलाकार परिधि में घूमतीं--एक शांत नियम से। बच्चा जवान होता है, बूढ़ा होता है--सब व्यवस्थित है। और सब किसी गहरे अनुशासन में बंधा है।उन दिनों, जब श्रद्धावाले वर्ग का प्राबल्य था, कोई शिक्षा न थी संदेह की, कहीं से उसका पाठ न मिलता था। बचपन से लेकर--जब आंख खुलती, मृत्यु के क्षण तक, जब आंख बंद होती--सारा जीवन एक ही बात सिखाता था, वह भरोसा था।अब वह वर्ग ना के बराबर है। लाओत्से का बड़ा प्रसिद्ध वचन है, कि जब धर्म मिट गया, तब लोगों ने धर्म का चिंतन शुरू किया। वह पहले तरह के लोगों का धर्म रहा होगा। धर्म था ही नहीं। इसे थोड़ा समझ लेना।धर्म की जरूरत ही नास्तिक को है। धर्म की जरूरत ही संदेहवाले को है। धर्म की आवश्यकता ही रुग्ण को है, क्योंकि धर्म औषधि है। अगर तुम बीमार ही नहीं हो, तो धर्म का क्या सवाल?लाओत्से कहता है, याद करो उन प्राचीन दिनों को, जब धर्म का किसी को पता ही न था। क्योंकि लोग सहज ही धार्मिक थे। लोग स्वस्थ थे, औषधि का कोई चिंतन न था। लोग नैतिक थे, नीति की कोई विचारणा न थी। लोक सहज ही स्वभाववश धार्मिक थे। न मंदिर था, न मस्जिद थी, न गुरुद्वारे थे; न वेद था, न कुरान थी, न बाइबिल थी। ये सब तो रोग की दुनिया के हिस्से हैं।यह तुम्हें जानकर थोड़ी हैरानी होगी, चिकित्सा का शास्त्र बीमार जगत का हिस्सा है। किसी दिन, तुम थोड़ा सोचो, अगर सारे लोग स्वस्थ हो जाए, बीमारी तिरोहित हो जाए, तो चिकित्सक विदा हो जाएगा। चिकित्सा का शास्त्र लोग धीरे-धीरे भूल जाएंगे।कानून की जरूरत है, क्योंकि लोग चोर हैं, बेईमान हैं। अगर लोग ईमानदार हों, तो कानून की कोई जरूरत न होगी। अदालत चाहिए, क्योंकि आदमी का आदमी पर भरोसा नहीं है। आदमी का आदमी पर भरोसा हो, अदालत विदा हो गई। इसलिए मैं कहता हूं,
कानून चोरों पर जीता है। न्यायाधीश के पैर के नीचे बेईमानों की जमात है। अदालतें अनीति पर खड़ी हैं, अन्यथा खो जाएंगी।खलील जिब्रान की एक बड़ी मीठी कहानी है। एक रात एक शराबघर में एक व्यक्ति अपने मित्रों को लेकर आया और उसने खूब शराब पी, पिलाई, खूब लुटाई। ऐसे भी जो अनजान लोग बैठे थे शराबघर में, उनको भी बांटी। शराबघर का मालिक तो बड़ा प्रसन्न हुआ ऐसे दानी ग्राहक को पाकर।आधी रात तक शोरगुल मचता रहा, शराब बहती रही। और लोग जब विदा हुए तो उसने अपनी पत्नी से कहा, कि ऐसे ग्राहक रोज आएं तो हमारा धन्यभाग! उस आदमी ने विदा होते वक्त, जब वह बिल चुका रहा था, यह बात सुनी, तो उसने कहा, कि तुम प्रार्थना करो कि हमारा धंधा ठीक से चलता रहे। तो रोज क्या, हम तो यहीं बने रहें, आने का सवाल ही नहीं।उस आदमी ने पूछो, तुम्हारा धंधा क्या है?उसने कहा, यह मत पूछा! मैं मरघट पर लकड़ी बेचने का काम करता हूं। मुर्दे रोज आते रहें, लकड़ी बिकती रहे, हम यहीं जमे रहेंगे। कभी मुर्दे आते हैं, कभी नहीं आते। भगवान से प्रार्थना करो हमारा धंधा ठीक चले, हम रोज आते रहेंगे।अब जो आदमी मरघट पर लकड़ी बेचता है, उसकी सारी प्रार्थनाएं यही हैं कि कोई मरे। जल्दी करो, मरो! कोई तो मरो!तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, चिकित्सक की प्रार्थना यही है कि कोई तो बीमार हो जाओ। न्यायाधीश की प्रार्थना यही है, कोई तो चोरी करो, कोई तो हत्या करो।एक नया-नया आदमी न्यायाधीश हुआ था। दिन भर कोई मुकदमा न आया, तो उसने अपने क्लार्क से बड़ी उदासी हालत में कहा--क्योंकि वह बिलकुल तैयार आया था--नया न्यायाधीश! जैसा नया मुल्ला मसजिद जाता है, वैसा नया न्यायाधीश नियुक्त हुआ था। सब कानून वगैरह याद करके व्यवस्था से आया था, कि इस ढंग से शुरुआत करनी है। लेकिन कोई मुकदमा ही न आया! उसने क्लार्क से कहा, कि बड़ी निराशा होती है, कोई मुकदमा ही न आया।
उसने कहा, आप घबड़ाएं मत, मुझे आदमी के चरित्र पर पूरा विश्वास है। शाम तक रुकें। जरूर कुछ न कुछ होगा ही। मुझे आदमी के चरित्र पर पूरा विश्वास है। कोई न कोई चोरी होगी, कोई हत्या होगी, कहीं छुरा चलेगा, कहीं आग लगेगी; आप घबड़ाएं मत। आप चिंतित मत हों। मेरी जिंदगी इस अदालत में बीत गई। ऐसा कभी होता ही नहीं कि दिन खाली चला जाए। आदमी के चरित्र पर मुझे पूरा विश्वास है! कोई आता ही होगा, रास्ते पर ही होंगे।कैसा चरित्र है यह आदमी का, जिस पर अदालत जीती है!और अगर लोग धार्मिक हों, तो पुरोहित न बचेगा। पुरोहित भी जीता है अधार्मिक आदमी के आधार पर। और अगर लोग साधु-चरित्र हों, तो तुम्हारे साधुओं का क्या होगा? वे खो जाएंगे। वे असाधुओं के आधार पर जीते हैं। साधु का मूल्य है, क्योंकि लोग असाधु हैं। अगर लोग साधुता से भरे हों, साधु का क्या मूल्य?इसलिए लाओत्से कहता है, धन्य थे वे दिन, याद करो वे पुराने दिन, प्राचीन पुरुषों का समय, जब धर्म की कोई बात ही न करता था, क्योंकि लोग सहज ही धार्मिक थे। तब नीति के कोई नियम न थे, क्योंकि नियम किसी ने कभी तोड़े ही न थे।तोड़नेवाले से नियम बनते हैं। बिगाड़नेवाला व्यवस्था को सख्त करता है। हिंसक अहिंसा के शास्त्र को जन्म देता है। हिंसकों के समाज में "अहिंसा परमो धर्मः" यह सूत्र हो जाता है।वह पहले तरह का व्यक्ति तो कम होता गया। उस तरह के व्यक्ति से कभी धर्म का जन्म नहीं होता, वैसा व्यक्ति धार्मिक होता है। और वैसे व्यक्ति की तुम्हें कभी कोई खबर भी न मिलेगी। अगर वह होगा भी, तो उसकी तुम्हें कोई खबर नहीं मिलेगी। क्योंकि उसके जीवन में कोई उपद्रव ही न होगा। उसके जीवन में कोई क्रांति ही न होगी। शांति तो सघन होगी, क्रांति न होगी। और जब तक क्रांति न हो, तब तक तुम्हें खबर नहीं मिल सकती। वह ऐसे होगा, जैसे है ही नहीं।ऐसे धार्मिक व्यक्तियों का उल्लेख किसी शास्त्र में नहीं है; हो नहीं सकता। तुम जानकर हैरान होओगे कि बुद्ध, महावीर, कबीर या मैं पहले वर्ग के लोग नहीं हैं। पहले वर्ग के आदमी का तो पता ही नहीं चल सकता। तुम मेरे पास आते कैसे? पहले वर्ग को तो
खुद ही पता नहीं चलता कि वह धार्मिक है, दूसरे को कैसे पता चलेगा?वह सहज ही चुपचाप जी लेता है। उसके जीवन में एक सुगंध तो होती है, लेकिन वह सुगंध ऐसी होती है, जैसे निर्जन में कोई फूल खिलता है। उसके जीवन में महिमा तो होती है, लेकिन उस महिमा को देखने शायद ही कोई कभी आता है। पता ही नहीं चलता।वैसे व्यक्ति के जीवन में परमात्मा की खोज ही पैदा नहीं होती। वैसा व्यक्ति परमात्मा में ही जीता है। पैदा उसी में होता है, जीता उसी में है, सांस उसी में लेता है, उसी में डूब जाता है। वैसे व्यक्ति का अपना होना अलग नहीं होता। ऐसा व्यक्ति न तो किसी साधना की जरूरत अनुभव करता है, न किसी साध्य की। ऐसे व्यक्ति का साधन और साध्य अलग-अलग नहीं होते। ऐसा व्यक्ति चुपचाप जी लेता है। उसकी श्वास-श्वास में अहोभाव होता है, उसके रोएं-रोएं में प्रार्थना होती है, लेकिन उसे भी पता नहीं होता।क्योंकि प्रार्थना जब पता चलने लगे, तब दूसरी तरह का व्यक्ति है, पहली तरह का व्यक्ति नहीं। दूसरी तरह का व्यक्ति ठीक विपरीत है पहली तरह के व्यक्ति से। पहले तरह के व्यक्ति के लिए श्रद्धा स्वाभाविक है। उसे संदेह पैदा ही नहीं होता। उसे शक आता ही नहीं। वह उसकी लक्षणा है--श्रद्धा। वह उसके जीने का ढंग है। जैसे वह सांस लेता है, ऐसे ही वह श्रद्धा लेता है।दूसरे तरह का व्यक्ति संदेह में निष्णात है। संदेह ही उसकी एकमात्र श्रद्धा है। वह संदेह करना ही जानता है। संदेह में ही जीना है। संदेह को उसकी पराकाष्ठा पर ले जाता है। बुद्ध, महावीर, कबीर सब दूसरे वर्ग के लोग हैं। इसलिए इनसे विराट धर्म का जन्म होता है।जब दूसरे व्यक्ति का संदेह पराकाष्ठा पर पहुंचता है, तब वह अपने ही संदेह से दबकर, परेशान होकर, पीड़ित होकर संदेह को छोड़ता है और श्रद्धा को उपलब्ध होता है। वह संदेह में जलता है। जैसे कोई धूप में जलता हो भरी दुपहरी और फिर धूप में चल-चल कर थक जाए, पसीना-पसीना हो जाए, शरीर टूटने लगे, कदम उठाना मुश्किल हो जाए, तब एक वृक्ष के नीचे छाया में विश्राम करे।संदेह में चलता है ऐसा व्यक्ति, लेकिन संदेह में चल-चल कर टूटता है, थकता है।टूटेगा ही, थकेगा ही, क्योंकि संदेह जीवन नहीं है। संदेह तो विषाक्त है। जिसको भी उसकी आदत लग गई। वह उसे मिटाता है, आत्महत्या करवाता है।संदेह सिकोड़ता है, मारता है।श्रद्धा फैलाती है, बड़ा करती है।इसीलिए तो श्रद्धा अंततः परमात्मा बनाती है तुम्हें। और संदेह अंततः तुम्हें सिर्फ एक क्षुद्र अहंकार में सीमित कर देता है। अगर संदेह के मार्ग से तुम चले, तो इस जगत में जो क्षुद्रतम वस्तु है अहंकार, वही तुम्हारी संपदा रह जाएगी। "मैं" के अतिरिक्त कुछ भी न बचेगा।अगर तुम श्रद्धा से चले, तो "मैं" भर न बचेगा, और सब बचेगा। विराट बचेगा, तुम खो जाओगे। संदेह से चले तो बूंद रहेगी, सागर का कोई पता न रह जाएगा। श्रद्धा से चले तो सागर ही रहेगा, बूंद को खोजना ही मुश्किल हो जाएगा।दूसरा वर्ग संदेह से चलनेवाले लोगों का है, विचारकों का है, दार्शनिकों का, चिंतकों का, जिनको हम मनीषी कहते हैं, मनीषियों का। सोचते हैं; सोचने का मतलब ही संदेह होता है।पहला वर्ग सोचता ही नहीं। वह तुम्हें भोला-भाला लगेगा। ऐसा भी हो सकता है, कि तुम्हें थोड़ा बुद्धू मालूम पड़े। उसकी श्रद्धा तुम्हें ऐसी लगेगी कि थोड़ी सी मूढ़ता जैसी है। समझ नहीं है, हृदय ही हृदय है; बुद्धि बिलकुल नहीं है। कोई भी उसे धोखा दे सकता है। लेकिन कितना ही तुम उसे धोखा दो, तुम उसे संदेह नहीं दे सकते। तुम उसे धोखा दिए चले जाओ, इससे कोई फर्क न पड़ेगा। वह कोई रास्ता निकाल लेगा अपनी श्रद्धा को बचाने का। तुम उसकी श्रद्धा को नष्ट नहीं कर सकते। वह तुम्हें थोड़ा सा सरल भी मालूम पड़ेगा, भोला भी मालूम पड़ेगा, थोड़ा बुद्धू भी मालूम पड़ेगा।इसलिए तो जगत से वह धीरे-धीरे मिट गया। क्योंकि तुम जहां, जिस जगत में जीते हो, उस संघर्ष में खड़े होने में उसके बचने की संभावना ही नहीं है। वह इतना शुद्ध है कि वह खो जाएगा। जैसे सोने का आभूषण बनाना हो तो थोड़ी अशुद्धि मिलानी पड़ती है। अगर सोना बिलकुल शुद्ध हो, तो आभूषण नहीं बन सकता। क्योंकि थोड़ी अकड़ चाहिए।इसलिए श्रद्धा संसार से खो गई है। या कभी कोई आदमी होता भी है, तो उसका पता नहीं चलता। वह इतना शुद्ध सोना होता है कि तुम्हें उसके जीवन में कोई आभूषण न दिखाई पड़ेंगे। तुम उसे बुद्ध की महिमा से भरा हुआ न पाओगे।दूसरा वर्ग है संदेह करनेवाले लोगों का, जो हर चीज पर संदेह करते हैं। जो संदेह को उसकी अंतिम सीमा तक ले जाते हैं। जो अति पर ले जाते हैं। जो संदेह से ही घिर जाते हैं। जिनके चारों तरफ संदेह का अंधकार ही बचता है। जो संदेह की पीड़ा से गुजरते हैं, संताप को भोगते हैं, संदेह का नरक देखते हैं।अगर कोई व्यक्ति, यह दूसरे वर्ग का व्यक्ति जब तक पूर्ण संदेह से न भर जाए, तब तक इसके जीवन में क्रांति घटित नहीं होती। जब इसका संदेह इतना ज्यादा हो जाता है, कि यह संदेह पर संदेह करने लगता है--वह आखिरी घड़ी आ गई; अब संदेह मरने की घड़ी में आ गया, जब संदेह पर संदेह होता है।इस घड़ी तक बहुत कम लोग पहुंचते हैं। जो पहुंच जाते हैं, उनके जीवन में बुद्धत्व का जन्म हो जाता है। संदेह पर संदेह करते ही संदेह गिर जाता है। और तब एक श्रद्धा का आविर्भाव होता है।यह श्रद्धा तुम्हें दिखाई पड़ेगी। पहले वर्ग की श्रद्धा तुम्हें दिखाई न पड़ेगी, क्योंकि उसमें विपरीत बिलकुल नहीं है। वह सफेद दीवाल पर खींची गई सफेद लकीर है। बुद्ध काले ब्लैक-बोर्ड पर खींची गई सफेद लकीर हैं। वे तुम्हें दिखाई पड़ेंगे, सदियों तक दिखाई पड़ेंगे। वे अनंत काल तक दिखाई पड़ते रहेंगे। उनकी महिमा का गुणगान जारी रहेगा।दूसरे वर्ग का व्यक्ति अगर अपने संदेह में पूरा-पूरा चला जाए-- और वह चला ही जाता है--तो वह नास्तिक होकर आस्तिक होता है। इसलिए उसकी आस्तिकता में पहली आस्तिकता से ज्यादा महिमा दिखाई पड़ती है। क्योंकि उसके जीवन में एक क्रांति घटती है, एक रूपांतरण होता है। अचानक अंधकार प्रकाश बनता है। अचानक संदेह श्रद्धा बन जाता है। वही ऊर्जा, जो संदेह बनती थी, श्रद्धा बन जाती है। वही ऊर्जा, जो विचार बनती थी, ध्यान बन जाती है। वही ऊर्जा, जो समस्याओं में उलझी थी, समाधि बन जाती है।उसके जीवन में इतनी बड़ी क्रांति होती है कि जैसे पत्थर अचानक उठकर चलने लगे। सारी दुनिया को दिखाई पड़ेगा। उसके पीछे हजारों लोग चलेंगे, लाखों लोग चलेंगे। उसके पीछे धर्म निर्मित होंगे।
व्यक्ति अपने को सत्य में ही पाता है।इसलिए हम पहले व्यक्ति की चर्चा न भी करें, तो भी चलेगा। क्योंकि उसको कोई जरूरत भी नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं। वह तो, गणित तुम्हें पूरा समझ में आ जाए, इसलिए मैंने पहले की भी बात की, ताकि तुम दूसरे को ठीक से समझ लो। अन्यथा दूसरे को समझना मुश्किल होगा।कबीर और बुद्ध बड़े तार्किक हैं। महावीर से बड़ा तार्किक खोजना मुश्किल है। लेकिन उनका तर्क श्रद्धा के लिए समर्पित हो गया है। कभी वह तर्क श्रद्धा के विपरीत लड़ा था, खूब लड़ा था, आखिरी दम तक लड़ा था। जब तक जीतने की कोई भी आशा बची थी, तब तक लड़ा था। जब सब आशा खो गई, और जीतने के सब उपाय खो गए, तभी उसने शस्त्र डाले।यह दूसरा व्यक्ति--पहला व्यक्ति तो आस्तिक है ही; उसे पता भी नहीं, कि वह आस्तिक है। दूसरा व्यक्ति आस्तिक है और उसे पता है, कि वह आस्तिक है क्योंकि वह नास्तिकता से गुजरा है। पहला व्यक्ति ऐसा है, जो कभी बीमार ही नहीं पड़ा, सिर में दर्द ही नहीं हुआ, वह जानता ही नहीं कि बीमारी क्या है; वह जानता ही नहीं कि स्वास्थ्य क्या है, क्योंकि बीमारी के बिना स्वास्थ्य को कैसे जानोगे?दूसरा व्यक्ति बीमार रहा, अस्पतालों में रहा, हजार तरह की दवाइयों का कष्ट झेला, हजार तरह की चिकित्सकों से गुजरा, फिर स्वस्थ हुआ।पहला व्यक्ति जागा, तब सुबह ही थी। दूसरा व्यक्ति जब जागा तब आधी रात थी। रात में भटका, अंधेरे में ठोकरें खाईं, फिर सुबह हुई। पहले व्यक्ति ने जब आंख खोली, तब वह मंदिर में ही था। दूसरे ने जब आंख खोली, तब उसने अपने को बाजार में पाया और यात्रा की, और मंदिर तक पहुंचा।पहला व्यक्ति तीर्थ में ही पैदा होता है। दूसरा व्यक्ति तीर्थयात्रा करके तीर्थ पहुंचता है।स्वभावतः दूसरे व्यक्ति की घोषणा दूर-दूर तक सुनी जाती है। दूर दिगंत तक उसका नाम गूंजता है। उसके शब्दों का मूल्य होता है। उसके शब्दों पर विचार करना पड़ता है।फिर तीसरी कोटि है। तीसरी कोटि उन लोगों की है, जो सदा डांवाडोल हैं। न तो उनकी श्रद्धा पूरी है, न संदेह। न तो वे आस्तिक हैं पहले तरह के और न उन्होंने दूसरी तरह की नास्तिकता जानी है। वे अधूरे-अधूरे हैं, आधे-आधे हैं, फिफटी-फिफटी हैं।एक क्षण आस्तिक, एक क्षण नास्तिक; उनका मन बड़ा डांवाडोल है। वे दो नावों पर एक साथ सवार हैं। उनकी दुविधा तुम समझ सकते हो। उनका कष्ट भारी है। वे तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि कहां जाना है! वे चौराहे पर ही खड़े रहते हैं। कभी एक रास्ते पर दो कदम चलते हैं, फिर दूसरे रास्ते पर दो कदम चलते हैं, फिर चौराहे पर लौट आते हैं।यह दुनिया में सबसे बड़ा वर्ग है। पहला वर्ग तो वर्ग कहना कठिन है। इक्के दुक्के लोग होते हैं। उस तरह के लोगों का कभी किसी को पता नहीं चलता। इतिहास में उनकी कोई स्मृति नहीं छूटती। उन्हें हम छोड़ सकते हैं। उनका विचार करना अर्थपूर्ण नहीं है। उनके कोई पदचिन्ह नहीं छूटते। क्योंकि वे कोई यात्रा ही नहीं करते तो पदचिन्ह कैसे छूटेगा? वे मंदिर में ही अपने को पाते हैं। उन्हें हम छोड़ दें। वे हमारे किसी काम के भी नहीं हैं।क्योंकि तुमने अपने को मंदिर में पाया होता तो तुम यहां होते ही नहीं। तुमने नहीं पाया अपने को मंदिर में, तुमको दूसरा आदमी कुछ काम का हो सकता है। अगर तुम्हारे भीतर संदेह प्रगाढ़ हो--लेकिन उतना संदेह को प्रगाढ़ करने के लिए भी बड़ा साहस चाहिए। बड़ा डर लगता है संदेह करने में, कि कहीं परमात्मा हो ही न! फिर क्या होगा? भय लगता है, घबड़ाहट होती है। तो तुम आधी श्रद्धा और आधा संदेह . . . और यह सबसे बड़ी दुर्गति है। क्योंकि यह मेल होता ही नहीं। पानी और दूध तो मिल जाते हैं, लेकिन श्रद्धा और संदेह नहीं मिलते, वे पानी और तेल जैसे हैं। उनका मिलना होता ही नहीं। पानी भी खराब हो जाता है, तेल भी खराब हो जाता है।पर यह बड़े से बड़ा वर्ग है दुनिया में। और इस वर्ग की तकलीफ यह है कि वह सदा कुनकुना रहता है, उबलता नहीं। या तो संदेह ही पूरा कल लो, या श्रद्धा ही पूरी कर लो। यह तो मैं जानता हूं, कि श्रद्धा तुम पूरी न कर सकोगे, क्योंकि वह तो पहले वर्ग के व्यक्ति की लक्षणा है।दूसरा व्यक्ति तुम बन सकते हो तीसरी कोटि से। तुम संदेह ही पूरा कर लो। तुम खूब विचार में लग जाओ। तुम सोच ही लो। जल्दी भी नहीं है कुछ निर्णय लेने की। संदेह को पूरा कर लो, ताकि संदेह का सांप अपना फन झुका ले। तुम गुजर जाओं उस यात्रा से--इनकार की यात्रा से, नकार की यात्रा से, "नहीं" की यात्रा से--गुजर जाओ! क्योंकि जरा सा भी "नहीं" अगर भीतर बचा रहा, तो "हां" कहने में असुविधा आएगी। और जब तक तुम परिपर्ण हृदय से "हां" न कह सकोगे, तब तक तुम्हें परमात्मा की कोई झलक न मिल सकेगी।गुजरो! दुविधा में मत रहो। संदेह को चुनो, ताकि तुम कम से कम दूसरी कोटि के व्यक्ति हो जाओ। दूसरी कोटि से मार्ग पहली कोटि का खुलता है। और तीसरी कोटि से पहली कोटि में जाने का कोई सीधा उपाय नहीं है। संदेह करते तुम कैसे पूरी श्रद्धा कर सकते हो? इसे थोड़ा समझ लो।जरा सा भी संदेह भीतर रहेगा, श्रद्धा अधूरी रहेगी। और अधूरी श्रद्धा अश्रद्धा से बदतर है। उसका कोई मूल्य ही नहीं है। वह जब होती है पूरी, तभी होती है। वह जब होती है पूरी, तभी उसकी गरिमा है। वह जब होती है पूरी, तभी तुम्हें रूपांतरित करती है और बदलती है।जैसे सौ डिग्री गर्मी पर पानी भाप बनता है, वैसे ही सौ डिग्री संदेह पर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा श्रद्धा बनती है; उससे कम में नहीं बनती। तो तुम दूसरी कोटि में जाओ, ताकि पहली कोटि का द्वार खुल जाए।फिर एक चौथा वर्ग है, वह सबसे बड़ा वर्ग है। उसको न तो श्रद्धा है, न संदेह है। उसके जीवन में सवाल ही नहीं उठा। उसे प्रश्न ही नहीं उठे। उसके लिए कबीर कहते हैं, "सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।""वह चौथा वर्ग है। वे खाते हैं, सोते हैं, और बड़े सुखी हैं। क्योंकि यात्रा हो तो थोड़ा कष्ट भी होता है--चलना पड़े, कहीं जाना पड़े। खाना है, सोना है, मर जाना है, वहीं सड़ जाना है। जहां आए थे, वहीं से मिट जाना है। उनके जीवन में कोई उपक्रम नहीं है, कोई अभियान नहीं है, कोई खोज नहीं है, कोई यात्रा नहीं है। यह सबसे बड़ा वर्ग है। एक तरह की उपेक्षा है, इनडिफरेंस है।इस वर्ग को हैरानी होती है, कि क्या कर रहे हो मंदिर में? किसलिए जाते हो? क्या पढ़ रहे हो उपनिषद में? क्यों समय खराब करते हो? इतनी देर खाओ, पियो, सोओ।ऐसा वर्ग अत्यंत सतह पर जीता है। न तो संदेह है उसे, न श्रद्धा है। ऐसा वर्ग सबसे ज्यादा कठिन है। ऐसा वर्ग धर्म की यात्रा पर कैसे जाए? अगर बुद्ध भी निकल जाएं, कबीर भी चिल्लाते निकल जाएं तो ऐसे वर्ग के कान में आवाज नहीं पड़ती। वह समझता है, कोई पागल होगा। किसी का दिमाग खराब हो गया है। अन्यथा चुपचाप खाओ और सोओ। संसार में आए हो, भोग लो। जो है, उससे पार देखने की उसकी सामर्थ्य नहीं है। वह अंधे से अंधा वर्ग है।इस चौथे वर्ग से ही धनपति पैदा होते हैं, धन की दौड़ वाले लोग पैदा होते हैं, राजनीतिक पैदा होते हैं, पद की दौड़ वाले लोग पैदा होते हैं। इस चौथे वर्ग से ही मनुष्य समाज का बहुजन हिस्सा बना है। पत्थर जैसा पड़ा है।इसे तो कबीर के वचन समझ में भी न आएंगे। लेकिन ऐसा आदमी समझने भी नहीं आता। इस चौथे वर्ग में से एक भी आदमी यहां नहीं है। वह इतनी दूर भी नहीं आएगा। वह हो सकता है, यहां पड़ोस में ही रहता हो। उसको सिर्फ हैरानी होती है कि इतने लोग सुबह-सुबह यहां क्यों आते हैं? इतने समय का कुछ उपयोग कर लो। क्यों असार जीवन गंवा रहे हो?जिस जीवन को वह जीता है, वही उसके लिए सार है। उसको कल्पना भी नहीं है, कि इससे पार जीवन हो सकता है। संवेदना भी नहीं है उसमें, कि इससे भिन्न भी कुछ हो सकता है, इससे श्रेष्ठ भी हो सकता है, इससे सुंदर भी हो सकता है। वह सोचता है, जो है, बस, यहीं सब समाप्त है। दृश्य पर सब समाप्त है, उसके पीछे कुछ भी छिपा नहीं है।ऐसे आदमी के जीवन में रहस्य का कोई अनुबोध नहीं होता। रहस्य की कोई पुकार नहीं उठती। ऐसा आदमी जीता कम है, मरता ज्यादा है। ऐसे आदमी के दिन नींद से भरे दिन हैं। वह मूर्च्छित है।मोहम्मद ने ऐसे व्यक्तियों के लिए कहा है, कि अगर पहाड़ मोहम्मद के पास न आएगा तो मोहम्मद पहाड़ के पास जाएगा। पहाड़ आता ही नहीं मोहम्मद के पास। यह चौथे वर्ग के लिए मोहम्मद ने कहा है, कि अगर तुम न आ सकोगे तो मैं तुम्हारे पास आऊंगा। लेकिन इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मोहम्मद भी जाए, तो ऐसा आदमी दरवाजा बंद कर लेता है और कहता है, आगे; कहीं और जाओ, यहां नींद खराब मत करो। हम शांति से सो रहे हैं। और सपना बहुत अच्छा चल रहा था। मोहम्मद के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। पहाड़ पहाड़ ही है। इसके भीतर कोई चेतना ही नहीं जगी है।इस चौथे तरह के व्यक्ति में तो जीवन की कोई घटना ही ऐसी घट जाए, जो उसे तिलमिला दे। कोई ऐसी घटना घट जाए, जो उसको चोट दे दे, और सपने को थोड़ा झकझोर दे। कोई ऐसी घटना घट जाए, जो उसे सोचने को विवश कर दे। किसी स्त्री को वह प्रेम करता हो और वह स्त्री मर जाए, तो शायद एक क्षण को उसे खयाल उठे, कि यह जीवन सार है? जिस बच्चे को उसने बहुत साज-सम्हाल से पाला हो, बड़ा किया हो, बड़ी महत्त्वाकांक्षाएं संजोई हों, जिसके आसपास बड़े इंद्रधनुष बांधे हों, वह अचानक समाप्त हो जाए, या धोखा दे दे, या घर छोड़ कर चला जाए, तो उसे धक्का लगता है। या दिवालिया हो जाए, पद खो जाए, प्रतिष्ठा चली जाए, तो शायद!ऐसे व्यक्ति के लिए जब तक जीवन में कोई ऐसी दुःखांत घटना न घट जाए, जो सारी अतीत की व्यवस्था को तिलमिला दे, तब तक उसके जीवन में धर्म की कोई किरण नहीं आती, विचार ही नहीं आता। ऐसे व्यक्ति के लिए दुःख की घटना ही एकमात्र उपाय है।इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, दुःख को सदा दुःख मत मानना, कभी वह आशीष भी है। चौथे वर्ग के लिए निश्चित वही एकमात्र आशीष है, वही एकमात्र वरदान है, क्योंकि उसीसे उसकी यात्रा शुरू हो सकती है। अन्यथा वह दबा ही रहेगा अपने अंधकार में।यह चौथा वर्ग ही बाजारों में बैठा है, दुकानों पर बैठा है। सब तरफ फैला हुआ है। यह चौथा वर्ग ही दुनिया को व्यवस्था दे रहा है, क्योंकि उसकी बड़ी संख्या है। मत उसका है। वह चाहे अपने को हिंदू कहे, चाहे मुसलमान कहे, चाहे ईसाई कहे, ये सब बातें निष्प्रयोजन हैं। उसे इनमें कोई सार नहीं है। वह सिर्फ कहने को कह रहा है। यह लोकोपचार है, व्यवस्था का अंग है। तो कहता है, हिंदू हूं, ईसाई हूं, मुसलमान हूं। फर्क उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, कि इनमें कोई फर्क है। कोई फर्क नहीं है। रस उसका किसी में भी नहीं है। वह बाइबिल घर में रखे रहता है, सिर्फ धूल जमती है।मैंने सुना है कि एक व्यक्ति ने एक द्वार पर दस्तक दी। महिला ने द्वार खोला। उस व्यक्ति ने कहा, कि मैं शब्दकोष बेचता हूं, डिक्शनरी बेचता हूं। और एक नया शब्दकोष आया है; आप लेना पसंद करेंगी?महिला ने उसे टालने के लिए कहा, कि शब्दकोष तो हमारे पास है। टेबिल पर रखी हुई किताब बता दी दूर से। उस आदमी ने कहा कि वह शब्दकोष नहीं हो सकता, वह बाइबिल है।वह महिला बड़ी हैरान हुई, वह बाइबिल थी! वह तो सिफ बहाना थ कि शब्दकोश है--टालने के लिए बात की थी। उसने कहा कि हैरानी की बात है। तुमने कैसे जाना, कि वह बाइबिल है?उसने कहा, जमी धूल बता रही है। शब्दकोष तो कोई कभी-कभी देखता भी है, उस पर इतनी धूल नहीं जम सकती। सिर्फ बाइबिल पर, वेद पर ऐसी धूल की पर्ते गमती हैं। कोई कभी उठा कर भी देखता है?अब हिंदू कहे चले जाते हैं, कि वेद भगवान है; उनमें से एक उठाकर नहीं देखता, कि वह भगवान कैसा है!और तुम देखोगे तो बहुत हैरान होओगे। वेद के सौ वचनों में एकाध वचन ही वेद जैसा है। बाकी तो बिलकुल साधारण हैं। तुम खुद ही हैरान होओगे। मगर तुमने देखा ही नहीं है, इसलिए भगवान है। वेद भगवान चलता चला जाता है। अगर तुम अपने शास्त्र देखोगे तो नब्बे प्रतिशत पर तो तुमको भी हैरानी होगी यह इसमें क्यों है?अब वेद में कोई किसान भगवान से प्रार्थना कर रहा है, कि मेरे खेत पर ज्यादा पानी बरसा देना और मेरे शत्रु के खेत पर कम! अब वेद भगवान है, इसमें इसके होने की क्या जरूरत? और यह भी कोई बात हुई! यह धार्मिक आदमी का लक्षण हुआ! कि मेरे शत्रुओं की गायों का दूध खो जाए! यह भी संयुक्त वेद में इकट्ठा है। पर उसे तुमने कभी देखा ही नहीं है। अच्छा ही है, नहीं तो तुम्हें शक पैदा होते।यह जो चौथे तरह का व्यक्ति है, मंदिर भी चला जाता है, मगर वह सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है, वह इसकी प्यास नहीं है। इसके कंठ में कोई प्यास नहीं है। यह पानी पर प्रवचन सुन लेता है, लेकिन पानी पीने की इसकी कोई उत्कंठा नहीं है। जब यह मंदिर जाता है तो सरोवर की तलाश में नहीं जाता। भीड़ जा रही है, इसे भी जाना उचित है, क्योंकि भीड़ के साथ रहना सुविधापूर्ण है। भीड़ के विपरीत चलना असुविधापूर्ण है। भीड़ पसंद नहीं करती कि कोई भीड़ से अलग चले। क्योंकि उस से भीड़ के अहंकार को चोट पहुंचती है।तो सब निभा लेता है--पर निभा रहा है। इसके अंतः प्राणों में कहीं कोई वीणा नहीं बजती। मंदिर के घंटे बजते रहते हैं, इसके भीतर कोई ध्वनि प्रवेश नहीं करती। पूजा होती रहती है मंदिर में, अर्चना के दीप जलते रहते हैं, इसके भीतर कोई किरण नहीं पहुंचती। धूप जलती है, सुगंध उठती है, पर इसके भीतर सब निर्जन है। वहां कोई सुगंध का प्रवेश नहीं होता। वहां इसकी अपनी जीवन की जो दुर्गंध है, वही आवास किए रहती है।ये चार तरह के लोग हैं। पहले तरह के लोगों में इतनी सरलता होगी कि उनकी सरलता के कारण ही उनकी कोई रेखा जीवन पर नहीं छूटेगी। उनका पता ही नहीं चलेगा। हवा के झोंके की तरह वे आएंगे और चले जाएंगे। उनमें से बड़े प्यारे लोग होंगे। वे अपनी पत्नी को प्रेम करेंगे, अपने बच्चों को प्रेम करेंगे। उनके निकट जो आएगा, उसे प्रेम देंगे, श्रद्धा देंगे। लेकिन वे मनुष्यता को प्रेम करने की बात नहीं करेंगे। न ही वे कहेंगे, कि राष्ट्र के लिए कुरबान हो जाओ। न ही वे कहेंगे, कि धर्म खतरे में है। वे जी लेंगे धर्म को। धर्म उनका जीवन होगा, श्वास-श्वास होगा, उनका वक्तव्य नहीं होगा। इसलिए उनका तुम्हें कोई पता नहीं चलेगा।लाओत्से का एक बड़ा पुराना वचन है कि परम संतों का पता ही नहीं चलता। कैसे चले पता? हो सकता है, तुम्हारे पड़ोस में ही कोई रहता हो। और यह भी हो सकता है कि तुम्हारे घर में हीत कोई रहता हो। हो सकता है तुम्हारा पति, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा बेटा उस परम अवस्था में हो, लेकिन पता नहीं चलेगा। वह बात इतनी शांत है, वह बात इतनी मौन है, वह घटना इतनी अदृश्य है . . .दूसरा वर्ग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है, क्योंकि वह नास्तिकता से गुजरता है, पीड़ा से गुजरता है, नरक से गुजरता है और फिर होती है सुबह। अंधकार के बाद उगता है सूरज। बड़े संताप के बाद स्वर्ग की प्रतीति होती है, वह नाच उठता है। यह दूसरा वर्ग संदेह कर-कर के एक दिन उस अवस्था में पहुंचता है, जहां कंठ में प्यास जगती है; जहां वह पुकारता है; जहां परमात्मा और इसके बीच अनंत दूरी मालूम पड़ती है और परमात्मा के साथ एक हो जाने का भाव और अभीप्सा पैदा होती है।ये कबीर के वचन उस दूसरे व्यक्ति के ही वचन हैं। दूसरी कोटि के वचन हैं। दूसरी कोटि से ही बड़े दार्शनिक पैदा होते हैं, अगर वे संदेह में ही रह जाएं। बड़े विचारक--प्लेटो, अरस्तू, कांट, हीगेल, रसेल। अगर वे संदेह में ही रह जाएं तो बड़े दार्शनिक पैदा होते हैं। अगर वे संदेह का अतिक्रमण कर जाएं तो बड़े रहस्यवादी संत पैदा होते हैं--लाओत्से, कृष्ण, बुद्ध, कबीर।इसी दूसरे वर्ग से महान कवि पैदा होते हैं। अगर वे संदेह में ही रह जाएं तो उनकी कविताएं संसार से संबंधित होती हैं, काम-वासना से प्रेरित होती हैं। तो उनकी कविताएं तृष्णा को ही रूप देती हैं, वासना की ही मूर्तियां निर्मित करती हैं।और अगर वे संदेह के पार हो जाएं तो उपनिषद के ऋषि पैदा होते हैं, कवि पैदा होते हैं, व्यास पैदा होते हैं, रवींद्रनाथ पैदा होते हैं, खलील जिब्रान पैदा होते हैं। तबत्तब उनकी कविताओं में उनकी श्रद्धा का आविर्भाव होता है। तब उनकी कविता से उनकी श्रद्धा बहती है।यह दूसरा वर्ग सबसे ज्यादा पोटेंशियल, सबसे ज्यादा संभावनाओं से भरा हुआ वर्ग है। और अगर तुम अपने को दूसरे वर्ग में पाते हो, तो जितनी जल्दी हो सके, संदेह की यात्रा पूरी कर लो। और अधूरा मत छोड़ना संदेह को, अन्यथा वह सदा तुम्हारा पीछा करेगा।ध्यान रखना इस सूत्र को, कि जिस अनुभव को भी तुमने आधा छोड़ दिया, वह सदा तुम्हारे सिर के आसपास मंडराएगा, वह तुम्हारा आभा-मंडल बन जाएगा। वह तुम्हारा पीछा न छोड़ेगा। वह तुम्हारे सपनों में छाया डालेगा, वह तुम्हारी वासनाओं में उतरेगा, वह तुम्हारी कामनाओं में चित्र निर्मित करेगा। वह तुम्हें डगमगाएगा, वह तुम्हें पीछे खींचेगा, वह तुम्हें आगे न जाने देगा। वह तुम्हारे पैर में जंजीर होगा।पूरा कर लेना। बिना पूरा किए कोई भी चीज आगे नहीं जा सकती। पक जाने देना संदेह को। पका हुआ संदेह का फल जैसे ही जमीन पर गिरता है, वैसे ही वृक्ष श्रद्धा को उपलब्ध हो जाता है। अगर तुम पाओ कि तुम दूसरे वर्ग में नहीं हो, तीसरे वर्ग में हो, जिसकी संभावना बहुत है--कि तुम डांवाडोल हो, कि न तुम श्रद्धा कर सकते, न तुम संदेह कर सकते, तो दो संभावनाएं हैं।अगर तुम पंडितों और पुजारियों की सुनोगे तो वे कहेंगे, छोड़ो संदेह और श्रद्धा को पकड़ लो। मैं तुमसे वह न कहूंगा, क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा तब बिलकुल झूठी होगी। और तुम्हारी श्रद्धा के भीतर संदेह की आग जलती रहेगी। तुम ऊपर-ऊपर से श्रद्धा को ओढ़ लोगे वस्त्रों जैसा, लेकिन तुम्हारी आत्मा संदेह की रहोगी। और अंतिम रूप से निर्णायक तुम्हारे भीतर जो है, वही है। तुम्हारा बाहर निर्णायक नहीं है। वस्त्रों से कहीं कोई निर्णय होता है? तुम सुंदर वस्त्र पहन कर सुंदर नहीं हो जाते, सुंदर हृदय चाहिए। न ही तुम सुंदर आभूषण पहन कर सुंदर हो जाते हो, सुंदर आत्मा चाहिए।नहीं, ऊपर से ओढ़ी श्रद्धा कुछ काम न आएगी। राम चदरिया तुम मत ओढ़ना। उससे कुछ हल होने वाला नहीं है। राम जब तक हृदय में ही न उतर जाए, तब तक कुछ सार नहीं है।तो अगर तुम तीसरी कोटि में अपने को पाते हो, तो तुम संदेह को बढ़ाओ, ताकि तुम शीघ्र ही दूसरी कोटि में प्रवेश कर जाओ। फिर तुम संदेह को पूरी तरह जी लो, ताकि तुम पहली कोटि में प्रवेश कर जाओ।और मैं नहीं सोचता कि चौथी कोटि का कोई व्यक्ति यहां होगा। वह इतना भी श्रम नहीं करता। लेकिन अगर वह तुम्हें कहीं मिल जाए, तो उसके साथ तुम व्यर्थ सिर मत तोड़ना। वह पहाड़ है। उसके साथ तुम शक्ति मत गंवाना। उसके लिए तुम सिर्फ प्रार्थना कर सकते हो कि परमात्मा उसे कोई जीवन की ऐसी घड़ी दे, जहां उसकी नींद टूट जाए।बुद्ध ने कहा है कि जब भी तुम प्रार्थना करो, तब उस विराट बहुजन समाज के लिए प्रार्थना करना, जो सोया है। हर प्रार्थना के बाद तुम उसका स्मरण करना कि उसकी नींद टूट जाए। तुम्हारी प्रार्थना ही उसके लिए सहयोगी हो सकती है, तुम्हारा विवाद नहीं, तुम्हारा प्रवचन नहीं, तुम्हारे वचन नहीं।तुम चौथे को समझा न पाओगे। उसे प्रयोजन ही नहीं है। वह ऐसा ही है, जैसे कोई छोटे से बच्चे को काम वासना के संबंध में समझाए, और वह बच्चा कोई रस न ले; क्योंकि अभी काम वासना जगीही नहीं। तो तुम चाहे वात्स्यायन का कामसूत्र समझाओ, चाहे फ्रायड का मनोविश्लेषण समझाओ, वह बच्चा कहेगा, बंद करो बकवास। यह तुम क्या कह रहे हो? अभी काम वासना उठी नहीं, थोड़ा उसे प्रौढ़ होने दो।तो चौथे वर्ग के साथ बड़ी प्रतीक्षा चाहिए। कई बार लोग उसके साथ सिर खपाते हैं--व्यर्थ! उसका कोई सार नहीं है। तुम प्रतीक्षा करो, पकने दो उसे। वह अपने से ही एक घड़ी आएगी उसके जीवन में, तब यात्रा शुरू हो सकती है।ध्यान रखना, पहले के लिए सिर्फ प्रार्थना की जा सकती है। दूसरे को सहारा दिया जा सकता है। तीसरे को बड़े दूर तक यात्रा करवायी जा सकती है। और चौथे को जरूरत ही नहीं है।ये चार वर्ग हैं। इसमें तुम कहां हो, उस पर ही निर्भर करेगा, कि कबीर के वचन तुम्हारे भीतर क्या अर्थ लेते हैं।इसलिए ज्ञानियों के हर वचन के चार अर्थ होंगे। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि चारों अर्थ करूं, लेकिन तब तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। बहुत उलझन हो जाएगी। इसलिए मैं तीसरे व्यक्ति का अर्थ करता हूं। तुम वैसे ही उलझे हो, और न उलझ जाओ। "आंखरिया झांई पड़ी, पंथ निहार निहार। जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।। इस तन का दीवा करौं, बाती मैल्यूं जीव। लोही सीचौं तेल ज्यूं, कब मुख देख्यौं पीव।। सुखिया सब संसार है, खायै अरु सौवे। दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै। नैन तो झरि लाइया, रहंट बहै निसुवार। पपिहा ज्यों पिउ पिउ रटै, पिया मिलन की आस।। कबिरा वैदा बुलाइया, पकरि के देखी बांहि। वैद न वेदन जानई, करक कलेजे मांहि।। जिसका संदेह गिर गया, उसके जीवन में प्यास का आविर्भाव होता है। जब तक संदेह है, तब तक तो प्यास हो ही नहीं सकती। जब तक तुम्हें यह भरोसा ही नहीं आ गया कि परमात्मा है, तब तक तुम कैसे पुकारोगे? तब तक कैसे "जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि!"पागल हो तुम, कि जीभ पर छाले पड़ जाएं, इतना तुम राम को पुकारोगे, जिस राम पर श्रद्धा ही नहीं! तब तुम यह करोगे कि पुजारी रख लोगे, तनखा दे दोगे कि तू "राम राम" पुकार। जीभड़िया छाला पड़े, तो तेरी जीभ पर पड़े। हम उसका पैसा दे देते हैं।तो तुम पुरोहित को बुला लेते हो यज्ञ करने। धनपति मंदिर बना देते हैं घर में, और एक पुजारी रख देते हैं। और पुजारी क्यों जीभ पर छाला डालेगा? पैसे के लिए कोई जीभ पर छाला डालता है? वह भी धीरे-धीरे राम-राम कहता है। वह भी देख लेता है। जब मालिक गुजरता है मंदिर के पास से, तो वह जोर-जोर से "राम राम" कहने लगता है। वह राम को नहीं पुकार रहा है, वह मालिक के कानों को समझा रहा है। उसका क्या लेना-देना? उसका प्रयोजन है पैसे से। तनख्वाह मिल जाती है, बात खतम हो गई। कोई राम तो तनख्वाह देते नहीं!तो पुजारी हैं, पंडित हैं, जीवन भर राम पुकारते रहते हैं। न तो जीभ पर छाले पड़ते हैं, न आंख में झांई पड़ती . . . व्यवसाय है!पंडित भी जीवन भर चिल्ला-चिल्ला कर व्यर्थ ही चिल्लाता रहता है। वह पैसे ले लेता है, निपटारा हो गया। और जिसके लिए चिल्ला रहा है, उसको क्या खाक मिलेगा कुछ!क्या तुमने कभी नौकर रखा है अपनी पत्नी के पास जाकर प्रेम प्रकट करने को? पैसा हो, तो रख लेना चाहिए एक मुनीम। वह जाए, पत्नी के सामने हाथ जोड़ कर और प्रार्थना और प्रेम प्रकट कर आए, और तुम्हारी झंझट बच जाए!किसी दिन धनपति रखेंगे। क्योंकि यह भी उपद्रव मालूम पड़ता है। और जो नौकर से निपट जाए काम, उसे खुद करने में क्या सार है? इतनी देर में तुम हजार दूसरे काम कर सकते हो।लेकिन इसमें तुम्हें हंसी आती है पत्नी के पास नौकर भेजने में, लेकिन परमात्मा के पास भेजने में? तो तुमने परमात्मा को पत्नी से भी गया-बीता समझा? प्रेम कहीं नौकर को भेज सकता है? प्रेम तो स्वयं जाएगा। प्रेम कहीं नौकर से कहेगा, कि तू पुकार, मेरा काम तू निपटा दे, मैं जरा दूसरे जरूरी काम में उलझा हूं? प्रेम सब काम छोड़ देगा और परमात्मा को पुकारेगा।यह तीसरी दशा है आदमी की, जब संदेह गिर जाता है। और कबीर यद्यपि सुशिक्षित नहीं हैं, लेकिन बड़े तर्कनिष्ठ हैं। कबीर के तर्क का क्या कहना! उन्होंने किसी विश्वविद्यालय में तर्क नहीं पढ़ा है। विश्वविद्यालय में पढ़ने से तो तर्क में एक तरह की सूक्ष्मता भी आ जाती है, कबीर का तर्क तो जैसे सिर पर कोई सीधा डंडा मार दे, वैसा तर्क है। मगर तर्क बड़ा प्रगाढ़ है।सुबह-सुबह मसजिद में कोई अजान पढ़ रहा है और कबीर कहते हैं, क्या बहरा हुआ है खुदा? क्या तेरा खुदा बहरा हो गया है, जो इतनी जोर से चिल्ला रहा है? हृदय की गूंज सुनी जाती है। इतनी जोर से चिल्लाने की क्या जरूरत? और मीनार पर चढ़कर चिल्लाने की क्या जरूरत?बहुत तर्कनिष्ठ हैं। संदेह किया होगा खूब! अब संदेह से पीड़ित हो गए हैं। ध्यान रखना, संदेह ऐसा है, जैसे हाथ में कोई अंगारा रख ले। जलाता है खुद को, घाव कर देता है। जब समझ में आता है, तब पता चलता है कि संदेह से तुम परमात्मा को तो न मिटा पाए, अपने को मिटा दिए। संदेह से तुम यह तो सिद्ध न कर पाए कि परमात्मा नहीं है, सिर्फ इतना ही सिद्ध हुआ कि तुम्हारा जीवन व्यर्थ गया।परमात्मा है क्या?तुम्हारे जीवन की मूल्यवत्ता है।परमात्मा का अर्थ क्या है?उसका इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे जीवन में अर्थ है। और तो कोई अर्थ नहीं है। परमात्मा का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा जीवन यूं ही नहीं है, संयोग नहीं है; एक संयोजन, एक संगीत है। तुम्हारा जीवन ऐसे ही हो गया और समाप्त हो जाएगा ऐसा नहीं--सकारण है, योजना है, पीछे कोई हाथ है।जैसे किसी चित्रकार ने किसी चित्र को बनाया हो, ऐसा है तुम्हारा जीवन--कोई सजीव हाथ, कोई चेतना! ऐसा नहीं है कि हवा का झोंका आया और रेत पर चिन्ह बन गए। ऐसा नहीं है तुम्हारा जीवन। एक दुर्घटना मात्र नहीं है, संयोग मात्र नहीं है। एक सुनियोजित इशारा है पीछे। ऐसा नहीं है, कि बंदर बैठ गया टाइपरायटर पर और उसने ठोक दिया और कुछ शब्द आ गए! ऐसा नहीं है।ऐसा है, जैसे किसी कवि ने गीत को गाया। अब लाख बंदर को तुम बिठाए रखो लाखों साल तक और अच्छे से अच्छा टाइपरायटर दे दो, और बंदर ठोकता रहे; क्या तुम सोचते हो कभी गीतांजलि संयोगवशात पैदा हो जाएगी ठोकते-ठोकते?जो लोग कहते हैं, ईश्वर नहीं है, वे यही कह रहे हैं कि अगर बंदर को भी समुचित समय दिया जाए, अच्छा टाइपरायटर दिया जाए और वह बैठा-बैठा ठोकता रहे--क्योंकि वह ठोकता ही रहेगा, बंदर बैठ नहीं सकता खाली! बस इतना उसको पता चल जाए, कि इसे ठोकने से कागज सरकता है, कुछ-कुछ अक्षर बनते हैं, तो वह ठोकता ही रहेगा।क्या तुम सोचते हो कभी गीतांजलि पैदा हो जाएगी? या जीसस का सरमन आन द माऊंट, या कृष्ण की गीता? असंभव! कितने ही संयोग होते रहें!एक चैतन्य चाहिए। ईश्वर को इनकार जब तुम करते हो तो तुम यह कह रहे हो, कि तुम्हारा जीवन एक व्यर्थता है। इसे तुम कितनी देर झेल पाओगे? तुम व्यर्थ अपने को मानकर कैसे जी पाओगे? तुम्हारा अर्थ खो जाएगा तो तुम्हारे रहने का कारण खो जाएगा, तुम्हारे होने का कारण खो जाएगा। तब तुम घसीटोगे। तब तुम सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करोगे, कि कब आ जाए और छुटकारा हो जाए।जिनके जीवन में परमात्मा नहीं, उनके जीवन में मौत के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। और मौत भी कोई आशा करने जैसी बात है? प्रतीक्षा करने जैसी?कबीर ने किया है संदेह। संदेह से जले हैं। गिर गया संदेह। अब एक नए जीवन का सूत्रपात हुआ है।आंखरिया झांई पड़ी . . . अब प्रतीक्षा शुरू हुई है। प्रतीक्षा तभी शुरू होती है, जब श्रद्धा शुरू हो। कोई आने को है--कोई अतिथि। और तुम आतिथेय बनने को है, तुम द्वार खोलकर बैठे हो।"आंखरिया झांई पड़ी पंथ निहार निहार"अब तुम राह देख रहे हो। अब आने वाले पर ही सब निर्भर है। अगर वह आएगा, तो ही तुम्हारे जीवन में अर्थ गूंजेगा। अगर वह आएगा तो ही तुम्हारे जीवन की वीणा बजेगी। अगर वह आएगा तो ही तुम नाचोगे। अगर वह आएगा तो ही कुछ सार है। अगर वह न आया तो सब व्यर्थ है, सब असार है। हुए, न हुए बराबर है। अगर वह न आया तो तुम मिट्टी हो, अगर वह आया तो तुम स्वर्ण हो जाओगे।उसके पदचिन्ह, उसकी पदचाप, उसकी द्वार पर दस्तक!.७५ ृ "आंखरिया झांई पड़ी पंथ निहार निहार" कोई भक्त ही राह देखता है।और फर्क यहां समझ लेना। योगी तो खोजने निकल जाता है, भक्त राह देखता है। यह फर्क है।योगी तो खोज में निकल जाता है, कि परमात्मा को खोजना है। तो हिमालय जाता है, साधता है, यह क्रिया, वह क्रिया--हजार उपाय करता है, साधन करता है।भक्त क्या करे? क्योंकि भक्त कहता है, मुझे पता ही नहीं कि तू कैसे सधेगा? तेरा ही मुझे पता नहीं। तू किस बात से राजी होगा, यह मैं कैसे जानूं? क्योंकि तेरा मुझे कुछ पता नहीं। मेहमान पता हो, तो तुम उसके लिए बिस्तर लगा रखते हो, गरम पानी कर रखते हो, भोजन बना रखते हो, क्योंकि तुम्हें पता है, कौन मेहमान है; उसकी क्या पसंद है, क्या नापसंद है!मैं एक ऐसे मेहमान को खोजने में लगा हूं, भक्त कहता है, जिससे कभी मेरा मिलना तो हुआ नहीं। मैं कैसे करूं? क्या तैयारी करूं?कबीर कहते हैं, आंख बंद करूं? नाक रूंधू? शीर्षासन करूं? पता नहीं ये तुझे राजनी पड़ेंगे, न पड़ेंगे! तो भक्त कहता है, मैं तो इतना ही कर सकता हूं कि आंख खोलकर द्वार पर बैठा तेरी प्रतीक्षा करूं।भक्त की सारी साधना प्रतीक्षा है।और प्रतीक्षा से बड़ी कोई साधना नहीं है, क्योंकि प्रतीक्षा सबसे कठिन है।साधना में कुछ तो करने को रहता है। तो तुम व्यस्त रहते हो। माला जप रहे हो, बैठे हो, पूजन कर रहे हो। बैठे हो आसन जमा कर, प्राणायाम कर रहे हो। कुछ करने को रहता है, मन उलझा रहता है, आलंबन रहता है। मन लगा रहता है।भक्त सिर्फ प्रतीक्षा करता है।प्रतीक्षा का अर्थ है, मन शून्य हो, तो ही प्रतीक्षा हो सकती है।विचार बीच में न हो; अन्यथा मेहमान आएगा और अगर विचार बीच में रहे, तो तुम देख न पाओगे। तो भक्त निर्विचार होकर प्रतीक्षा करता है। सब हटा देता है विचार। बस, उसकी राह देखता है।.७५ ृ "आंखरिया झांई पड़ी, पंथ निहार निहार" वह कहता है, आंखें थक गईं, बूढ़ी हो गईं। झांई पड़ गई आंखों में। पलक भी नहीं झप सकता, पता नहीं तू कब आ जाए! कबीर ने कहा है, आंख नहीं झप सकता क्योंकि पता नहीं, वही पल तेरे आने का पल हो; और मैं फिर चूक जाऊं। तो आंखें खोले बैठा हूं।"पंथ निहार निहार--"राह पर आंख टिकाए हूं, कि तू आता होगा। कि बस अब तू आता होगा। कि अब मेरी प्रतीक्षा का अंत करीब आता है।"जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।"और तुझे पुकारता हूं कि शायद तू मेरी आवाज सुन ले।"इस तन का दीवा करौं"--तैयार हूं, तेरी राह देख रहा हूं, तू आ भर जाए।"इस तन का दीवा करौं"--तो इस शरीर को मैं दीया बना दूंगा।"बाती मैल्यूं जीव" और अपने प्राणों की बाती लगा दूंगा।"लोही सीचैं तेल ज्यूं"--और अपने खून से दीये को भर दूंगा, जैसे तेल से भर दिया हो।बस, एक ही आशा है। यह सब करने को तैयार हूं।
कब मुख दैख्यौं पीव" बस, कब तेरा चेहरा देख लूं।
"सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।" बड़ा अदभुत वचन है!ऊपर से देखने पर कबीर पागल और दुःखिया है, क्योंकि दिन-रात रो रहा है, दिन-रात चिल्ला रहा है। उसकी वही हालत है, जो मजनू की हालत थी लैला के लिए।गांव भर हंसता था मजनू पर। गांव भर को दया भी आती थी, कि यह पागल हो गया है। कितना दुःख भोग रहा है! और ऐसा भी क्या रखा है उस लड़की में। साधारण सी लड़की थी लैला। साधारण से भी साधारण थी। मजनू ने उसे लैला बना दिया।गांव का सम्राट तक चिंतित हो गया। यह मजनू चिल्लाता फिरता है, "लैला--लैला--लैला"। यह बड़ी अनूठी कहानी है। सम्राट ने बुलाया मजनू को और कहा, बहुत हो गया। रात नहीं, दिन नहीं, चैन नहीं! न दिन देखता, न रात देखता! ये बारह लड़कियां खड़ी हैं! उसने महल की सब से सुंदर लड़कियां खड़ी कर दीं और कहा "इनमें से तू जिसको चाहे चुन ले। इनके मुकाबले लैला कुछ भी नहीं है। इनके पैर की धूल भी नहीं है। मैंने भी तेरी लैला देखी है, साधारण सी सांवली लड़की! इन लड़कियों में से कोई भी चुन ले। ये हीरे जवाहरात हैं।मजनू ने तो लड़कियों की तरफ देखा ही नहीं। उसने सम्राट से कहा, "लैला आपने देखी? नहीं, आप पहचान नहीं पाए। क्योंकि लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। मेरी आंख से देखो, अगर लैला को देखना हो। और इनको मैं देखता हूं, मुझे तो सिर्फ लैला ही दिखाई पड़ती है। कोई स्त्री मुझे दिखाई नहीं पड़ती। और वह राजमहल से लैला को पुकारता हुआ चला गया।खबर मिली मजनू को--क्योंकि लैला का बाप परेशान हो गया। यह जरा अशोभन हो गया था मामला। वह समृद्ध था और मजनू आवारा था। और यह मामला जरा जरूरत से ज्यादा आगे बढ़ गया। गांव भर में चर्चा थी। विवाह भी वह मजनू के साथ नहीं कर सकता था, क्योंकि उसकी कोटि का न था। और भरोसे योग्य भी नहीं मालूम होता था, कि यह पगला विवाह के योग्य भी है, कि यह सम्हाल भी पाएगा?यह "लैला-लैला" चिल्लाना एक बात है, घर बसाना बिलकुल दूसरी बात है। कविता करना एक बात है, गृहस्थी बनाना बिलकुल दूसरी बात है। प्रेमी होना एक बात है, पति होना बड़ी मुश्किल बात है। प्रेमी तो कोई भी हो जाता है--आवारा। क्योंकि कुछ करना नहीं है। तो बाप . . . और बाप यानी सोच-विचार करे, हिसाब लगाए, लड़की की चिंता करे। उसने गांव ही छोड़ दिया।मजनू को खबर मिली कि वह रात गांव छोड़कर जा रहा है। वह गांव के बाहर एक वटवृक्ष के नीचे छिपकर खड़ा हो गया कि आखिरी बार लैला को देख ले। वह काफिला निकल गया, उसने लैला को आखिरी बार देख लिया। लेकिन फिर उसकी गांव आने की इच्छा न रही।यह कहानी बड़ी अनूठी है। फिर वह कभी गांव वापस न आया। और कहानी यह कहती है, कि वह उसी वृक्ष के नीचे खड़ा रहा, कि कभी तो लैला वापस लौटेगी। और वह "लैला-लैला' पुकारता रहा। धीरे-धीरे ऐसा हुआ, कि उसका शरीर वृक्ष से जुड़ गया। उसी जगह टिके-टिके पीठ और वृक्ष की छाल एक हो गए। उसी जगह टिके-टिके वह वृक्ष के साथ एक हो गया।वर्षो बाद लैला लौटी उसे खोजती। तो गांव में उसने पूछा; उन्होंने कहा, कि जब से तू गई है, वह एक झाड़ के नीचे खड़ा रहा है। और अब तो उसका पता भी नहीं चलता। बस, कभी-कभी रात के सन्नाटे में उस वृक्ष से "लैला' की आवाज उठती है। क्योंकि वह मजनू वृक्ष के साथ इतना एक हो गया कि अब वह वृक्ष भी "लैला-लैला" चिल्लाने लगा।लैला उसे खोजने आई, उसने सब तरफ देखा, मजनू कहीं दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन "लैला' की आवाज गूंजती है!भक्त भगवान के लिए वैसा ही पागल हो जाता है, जैसा प्रेमी प्रेयसी के लिए पागल हो जाता है। और प्रेयसी तो कहीं होगी, आवाज भी पहुंचाई जा सकती है; परमात्मा कहां है, यह कुछ पता नहीं। फिर भी चिल्लाता है कि शायद सुन ले।।
जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।
इस तन का दीवा करौं, बाती मैल्यूं जीव।
लोही सीचौं तेल ज्यूं, कब मुख दैख्यौं पीव।। सुखिया सब संसार है--और ऐसा भक्त बड़ा दुःखी दिखाई पड़ता है। सदा उसकी आंखों में विरह और सदा उसकी आंखों में आंसू!रामकृष्ण के साथ ऐसा हो जाता था। उनको रास्ते से लेकर निकलना मुश्किल हो जाता था। क्योंकि कोई कह दे, "जय राम जी"। और वे वहीं खड़े हो गए! वहीं भटक गए बीच रास्ते पर। राम की स्मृति आ गई। आंखों में आंसू बहने लगे। हाथ-पैर अकड़ जाएं, जैसे गहरी मूर्छा में चले गए। वहीं गिर पड़े।तो भक्त बड़े डरते थे, कि कहीं उनको ले जाना हो तो बड़ा इंतजाम करना पड़ता था। क्योंकि कौन जाने, कौन क्या कह रहा है?एक बार कहीं से लेकर भक्त उनको निकलते थे, घर के अंदर किसी झोपड़े में कोई बात कर रहा था। और किसी ने भगवान का नाम ले लिया बातचीत में। रामकृष्ण वहीं गिर पड़े। छह घंटे तक बेहोश रहे।किसी विवाह में निमंत्रण दे दिया भक्तों ने, कि आप जरूर आएं। रामकृष्ण के शिष्यों ने तो कहा, कि मत उपद्रव करो, क्योंकि पता नहीं क्या हो जाए। कोई कुछ कह दे! नहीं माने, रामकृष्ण गए। वह सब उपद्रव हो गया वहां। किसी ने नाम ले लिया परमात्मा का। और इस मुल्क में तो नाम ही नाम हैं। आदमियों के नाम सभी परमात्मा के नाम हैं। एक हजार नाम हैं परमात्मा के विष्णु-सहस्रनाम में। करीब-करीब सब आदमियों के नाम में कहीं न कहीं परमात्मा है। फोटो लगे हैं, मूर्तियां रखी हैं घर-घर में। और बिना परमात्मा के तो कुछ है ही नहीं।वह बारात संकट में पड़ गई, वह विवाह दुविधा में पड़ गया, क्योंकि रामकृष्ण बेहोश हो गए। लोग दूल्हे को भूल गए, दुलहन को भूल गए। रामकृष्ण दूल्हा हो गए! वे केंद्र हो गए। तीन दिन तक होश न आया।तो भक्त तो हमें दुःखी दिखाई पड़ेगा। भक्त तो हमें परम दुःखी दिखाई पड़ेगा। उससे तो हमें लगेगा, कि संसार के लोग ही सुखी हैं, वे चौथी कोटि के लोग ही सुखी हैं। होटलों में देखो, कैसा हंस रहे हैं, मुसकुरा रहे हैं! रास्ते पर मिलते हैं लोग, एक-दूसरे से पूछते हैं, कैसे हो? वे कहते हैं, बड़े मजे में हैं। सब मजे में हैं, सब कुशल हैं। हंस रहे हैं, आनंद ले रहे हैं, मजाक कर रहे हैं, प्रफुल्लित दिखाई पड़ते हैं। सारा जगत सुखिया मालूम पड़ता है।कबीर कहते हैं, "सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।"बस, लोग खा-पी लेते हैं, सो जाते हैं। बड़े सुखी मालूम पड़ते हैं। कोई दुःख नहीं उनके जीवन में।दुःख तो वरदान है। ऐसा दुःख, जैसे दुःख से कबीर दुःखी हुए, वह तो परम आशीर्वाद है। क्योंकि उस दुःख के बाद ही परम सुख की संभावना है। उस दुःख से ही द्वार खुलता है आनंद का।तुम सोए रहोगे, उठोगे, खा लोगे, पी लोगे; तुम्हारी हंसी, तुम्हारी खुशी सब छिछली है। उसमें कोई गहराई नहीं है। वह सब बहाना है समय गुजारने का, उससे ज्यादा नहीं। ऊपर से तुम सुखिया दिखाई पड़ते हो, सुखिया तुम हो नहीं। तुम ही असली दुःखिया हो।और कबीर ऊपर से दुःखिया दिखाई पड़ते हैं, पर कबीर ही असली सुखिया हैं। उनके भीतर ही सुख का बीज अंकुरित हो रहा है।
"सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।" उनका काम है संसारियों का, कि खा लें और सो जाएं।और भक्त का काम है ः कि जागे और रोए। जागे--अपलक! पलक भी न झपे, क्योंकि पता नहीं प्रियतम कब आ जाए! कौन घड़ी आए! कोई पहले से खबर भी तो नहीं आती।परमात्मा अतिथि है। हमने सबसे पहले परमात्मा के लिए अतिथि शब्द का प्रयोग किया। फिर दूसरे मेहमानों के लिए अतिथि शब्द का प्रयोग किया। अतिथि शब्द बड़ा मूल्यवान है। इसका मतलब है, जो बिना तिथि बतलाए आ जाए। इसलिए अंग्रेजी में "गेस्ट" है, उर्दू में मेहमान है, लेकिन वह मजा नहीं। अतिथि तो बात ही अलग है। अतिथि का मतलब है, बिना तिथि बतलाए जो आ जाए।तो आजकल तुम्हारे घर में जो अतिथि आते हैं टेलीग्राम करके, वे अतिथि न रहे। भाषा के हिसाब से वे अतिथि नहीं हैं; मेहमान होंगे। जब टेलीग्राम ही कर दिया तो अतिथि कैसे रहे? बता दिया कि कल फलानी ट्रेन से आ रहा हूं। बात ही खतम हो गई।परमात्मा लेकिन अभी भी अतिथि है।
न कोई टेलीग्राम आता, न कोई संदेशवाहक आता, न कोई डाकिया आता और कहता, कि बस आ रहा है। जब भी आता है, अचानक! अनायास! तुम्हें खबर भी न थी, कि यह घड़ी वह चुनेगा। और अचानक द्वार पर खड़ा हो जाता है। सब बंद द्वार खुल जाते हैं। सब जीवन का अंधकार खो जाता है। अचानक सुबह हो जाती है।कबीर कहते हैं, जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ उग जाएं।
"दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।" जागता है, रोता है। जागता है, क्योंकि प्रतीक्षा करनी है, सो नहीं जाना है। रोता है, क्योंकि रोने के अतिरिक्त और क्या किया जा सकता है?इसे थोड़ा समझ लेना।योगी बहुत कुछ कर सकता है, भक्त सिर्फ रो सकता है। उसके आंसू ही उसका योग हैं। उसका विरह और उसकी पीड़ा ही उसकी प्रार्थना है। जार-जार उसका रोना, उसके हृदय का उसकी आंखों में भर जाना, उसकी आंखों से उसके हृदय का झर जाना ही उसकी एकमात्र साधना है। वही प्रार्थना, वही पूजा, वही अर्चना है।रामकृष्ण पूजा करते थे। पुजारी थे दक्षिणेश्वर में। उनको पुजारी रखकर बड़ी भूल हो गई। क्योंकि वे ठीक पुजारी थे, और ठीक पुजारी की मंदिरों में क्या जरूरत? मंदिर तो नौकर-चाकर चाहते हैं, पेशेवर पुजारी चाहते हैं। वे पुजारी थे। पेशेवर नहीं थे, वही अड़चन हो गई। जब उनको रख लिया था, तब तो किसी को अंदाज न था कि कितना बड़ा आविर्भाव होने वाला है इस आदमी में। रखकर बड़ी झंझट हो गई। जिसने रखा था उनको दक्षिणेश्वर के मंदिर में, वह रानी रासमणि थी। बड़ी धनाढय महिला थी। रानी का उसे पद था, लेकिन शूद्र थी। इसलिए कोई ब्राह्मण मंदिर में पुजारी बनने को राजी न था। सिर्फ रामकृष्ण राजी हो गए। भक्त को क्या शूद्र, क्या ब्राह्मण! और भगवान भी कहीं शूद्र और ब्राह्मण के अलग होते हैं! और मंदिर भी कहीं शूद्र और ब्राह्मण का होता है! मंदिर भगवान का। कोई ब्राह्मण राजी न था। क्षुद्रतम ब्राह्मण राजी न थे। ऐसे ब्राह्मण भी राजी न थे, जो मरघट में मुर्दो के कपड़े भी स्वीकार कर लेते हैं, वे भी राजी न थे। शूद्र का मंदिर! उसमें कौन पूजा करेगा? कौन भ्रष्ट होगा?इसलिए रामकृष्ण जब राजी हो गए तो रानी रासमणि ने स्वीकार कर लिया। कुछ ढंग के तो नहीं मालूम पड़ते थे। कुछ खोए-खोए लगते थे। आंखें कहीं और थीं। बात यहां करते, चित्त कहीं और था। मगर कोई मिलता नहीं था। सोचा, थोड़ा पगला है, जैसा है, काम चलेगा। मंदिर बिना पुजारी के तो हो नहीं सकता।फिर रानी रासमणि खुद पूजा नहीं कर सकती थी, शूद्र थी। तो रामकृष्ण पुजारी हो गए। कुल चौदह रुपए महीने उनकी तनख्वाह थी, लेकिन अड़चन शुरू हो गई, ट्रस्टी मुश्किल में पड़ गए। जल्दी ही ट्रस्टियों को बैठक बुलानी पड़ी, कि यह तो भूल कर ली, इससे तो खाली मंदिर बेहतर!क्योंकि कभी तो पूजा दिन भर चलती और कभी दो मिनट में पूरी हो जाती! कभी मिनट नहीं लगता, और कभी पूजा होती ही नहीं! कभी दिन बीत जाते और रामकृष्ण का कोई पता ही नहीं! और कभी-कभी दिन भर! सुबह से शुरू होती तो रात हो जाती है, घंटा बजता ही रहता, वे नाचते रहते, पूजा ही करते रहते!रामकृष्ण से कहा, यह क्या मामला है? उन्होंने कहा, पूजा भी कोई नियम थोड़े ही है! कोई व्यवस्था से पूजा होती है। पूजा प्रेम है। जब आता है, आता है। यह तो हवा का झोंका है; आया, आया। लाने का क्या उपाय है? जब आ जाता है, जितनी देर टिकता है, टिकता है। हटाने का भी क्या उपाय है? कोई घड़ी से चल सकती है पूजा कि घंटा हो गया! पुरोहित, व्यवसायी पुरोहित घंटे से चलता है, घड़ी से चलता है, हृदय से तो नहीं।रामकृष्ण कहते, जब आती है तो आती है। नहीं आती, नहीं आती।फिर तो और अड़चन आनी शुरू हुई। इस तक के लिए भी वे राजी हो गए, क्योंकि कोई दूसरा ब्राह्मण मिलता नहीं था। कम से कम कभी-कभी तो होती है! और फिर यह आदमी इकट्ठा भी कर लेता है। एक दिन इतनी कर देता है कि समझो सप्ताह भर न भी करे तो चलेगा।लेकिन फिर अड़चन हुई, क्योंकि पता चला कि यह जो भोग लगाता है, पहले खुद अपने को लगा लेता है। पहले मिठाई खुद चख लेता है, फिर प्रतिमा को रख देता है। यह तो बड़ा जघन्य पाप है। परमात्मा को जूठा भोजन चढ़ाना! पहले परमात्मा को चढ़ाओ, फिर अपने को ले सकते हो।कहा रामकृष्ण से; तो रामकृष्ण ने कहा, सम्हालो तुम्हारी नौकरी। हम से न होगी। मुझे पता है, मुझे प्रेम के शास्त्र का पता है। मेरी मां मेरे लिए जब भी कुछ देती थी तो पहले चखकर देती थी। मेरी मां तक को इतना पता है, तो क्या मुझे कुछ पता नहीं? बिना चखे मैं नहीं दे सकता। पता नहीं देने योग्य हो भी, या न हो? बिना चखे पक्का क्या है, कि ये देने योग्य था? भगवान को दे रहा हूं, चखकर ही दूंगा।दुनिया में ऐसा पुजारी न तो पहले हुआ, न फिर पीछे हुआ। यही पुजारी है लेकिन। यह जो धुन है . . .और रामकृष्ण जब पूजा करते तो रोते। रोना ही पूजा है। भक्त कुछ जानता नहीं।रामकृष्ण ने अपने शिष्यों को कहा है, क्या करोगे तुम साधना? जब छोटा बच्चा जोर से रोता है, तो मां भागी चली जाती है। बस, तुम रोना सीख लो। जब तुम रोओगे, वह भागा चला आएगा। न आए तो समझना, कि रोना अभी पूरा नहीं हुआ। अभी तुम ऐसे ऊपर-ऊपर से रो रहे हो। अभी तुम्हारे प्राण का संयोग नहीं मिला। अभी तुम रोना ही नहीं हो गए हो। रुदन तुम्हारी आत्मा नहीं बना है।छोटा बच्चा भी जानता है बिना सिखाए। कहीं योग सीखने जाता है छोटा बच्चा, कि जब मां को बुलाना है तो क्या करना? चीखता है, चिल्लाता है, रोता है, आंसू बहने लगते हैं। मां भागी चली आती है। हजार काम छोड़कर चली आती है।परमात्मा को होंगे हजार काम, रामकृष्ण कहते, तुम रोओ भर, उसको आना ही पड़ेगा।कुछ और करने की भक्त को जरूरत नहीं। भक्ति कठिन है और सरल भी। कठिन इसलिए कि रोने को तुम साध तो नहीं सकते। आएगा तो आएगा, कठिन इसलिए। सरल इसलिए कि सिर्फ रोने से सब हो जाता है। पतंजलि के योगशास्त्र की जरूरत नहीं। बस, आंसुओं का शास्त्र तुम समझ लो, सब हो जाता है।
"सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै।।
नैन तो झरि लाइया, रहंट बहै निसुवार।" जैसे कुएं पर रहट चलती रहती है दिन-रात, पानी बहता रहता है, ऐसी आंखों से झड़ी लगी है। "पपिहा ज्यों फिउ पिउ रटै, पिया मिलन की आस।" ऐसे ही मैं भी पागल रटता रहता हूं--"पिया पिया"। जैसे पपीहा रटता रहता है, और प्यारे के मिलने की आस लगी रहती है।
"कबीरा वैद बुलाइया . . ." शायद घर के लोगों ने, शायद मित्रजनों ने, शायद प्रियजनों ने वैद्य को बुला लिया ऐसा दुःखी देख कर, कि क्यों रोता है यह आदमी? क्या हो गया इसे? क्या बीमारी है? क्या तकलीफ है इसकी?
"कबीरा वैद बुलाइया, पकरि के देखो बांहि।" तो वैद्य ने नाड़ी देखी।
"वैद न वेदन जानई, करक कलेजे मांहि।" यह बेचारा वैद्य क्या समझेगा, कि बीमारी हृदय की है! यह जो पीड़ा है, हृदय की है, इसका शरीर से कुछ लेना-देना नहीं। नाड़ी की जांच से यह पकड़ में न आएगी।मगर इस "वैद्य" शब्द को थोड़ा गौर से समझ लो। यह बड़ा कीमती शब्द है।हमारे पास कुछ शब्द हैं--वेद, विद्या, विद्वान, वैद्य, वेदना; ये सब एक ही धातु से बने हैं। वैद्य का मतलब है, ज्ञानी। असल में भारतीयों ने आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा है। इसलिए तो "वेद", "आयुर्वेद"; उसको जो जानने वाला है, वह वैद्य। वैद्य शब्द डाक्टर से ज्यादा कीमती है। डाक्टर का तो मतलब होता है, सिर्फ पंडित। जो डाक्ट्रिन को जानता है, वह डाक्टर। जो सिद्धांत को समझता है, वह डाक्टर।वैद्य का अर्थ है, जो न केवल सिद्धांत को समझता है, बल्कि सिद्धांत के प्रयोग को भी; जिसको हम फिजिशियन कहते हैं। न केवल जो चिकित्सा के शास्त्र को जानता है, बल्कि चिकित्सा की विधि को भी। अनुभोक्ता है जो। जो किसी कालेज में सिर्फ प्रोफेसर नहीं है, जो किसी अस्पताल में मरीजों की चिकित्सा भी करता है।असल में डाक्टर शब्द का प्रयोग सिर्फ होना चाहिए उस डाक्टर के लिए, जो कालेज में पढ़ाता हो चिकित्सा के शास्त्र को; वही डाक्टर है। सभी डाक्टर नहीं हैं, क्योंकि बाकी तो फिजिशियन हैं, बाकी तो वैद्य हैं। वैद्य शब्द बड़ा कीमती है क्योंकि यह वेद से ही बना है।तो इस वचन में इसके कई अर्थ हो सकते हैं--"कबीरा वैद बुलाइया" इसका सीधा तो अर्थ यह है, कि किसी चिकित्सक को बुलाया, बांह पकड़ी चिकित्सक ने, नाड़ी जांची। लेकिन कबीर मन ही मन हंसे होंगे और सोचा होगा, "वैद न वेदन जानई।" इसको वेदना का कुछ पता नहीं! यह शरीर का ही जानकार है।"करक कलेजे मांहि"--वह जो पीड़ा है, वह तो कलेजे में है। उसका इसे कुछ भी पता नहीं।दूसरा अर्थ, जो और भी गहरा है, वह है . . . "कबीरा वैद बुलाइया"--उसको बुलाया, जो वेद का जानकार है। लेकिन वेद का जानकार भी हृदय की पीड़ा को नहीं जानता। वह भी शास्त्र को समझता है। शास्त्र यानी शरीर; सत्य यानी आत्मा। पीड़ा तो सत्य के लिए है और आत्मा में है; सिद्धांत के लिए नहीं है और
शरीर में नहीं है। शास्त्र को समझने से पीड़ा मिटने वाली नहीं है। यह तो प्रेमी से ही मिलन हो जाए तो ही मिटेगी।तो जो वेद को जानता है, उसे बुलाया उसने भी शब्द पकड़े, सिद्धांत पकड़ा शास्त्र पकड़ा--"पकरी के देखो बांहि"--उसने भी ऊपर-ऊपर जांच की।"वैद न वेदन जानई।"यह वेद का जानकार भी वेदना को नहीं जानता।वेदना शब्द के दो अर्थ हैं। एक अर्थ तो दुःख है, और एक अर्थ ज्ञान है। क्योंकि वह भी वेद से ही बना शब्द है।संस्कृत एक अर्थ में बड़ी अनूठी भाषा है। उसमें बड़ी गुत्थियों में गुत्थियां हैं और शब्दों के बड़े खेल हैं। वेद से ही बनता है वेदना, वेद से ही बनता है विद्या; विद्, विद्वान, जानना, ज्ञान, ज्ञान का शास्त्र।क्या संबंध है दोनों में? जब तुम्हें पीड़ा होती है, तभी तुम्हें ज्ञान होता है। पीड़ा और ज्ञान संयुक्त है; जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू हों। थोड़ा सोचो, तुम्हारे सिर में दर्द है, तभी तुम्हें सिर का ज्ञान होता है। अगर सिर में दर्द ही न हो, तो सिर का पता ही न चलेगा।इसलिए स्वस्थ आदमी की परिभाषा आयुर्वेद में--सिर्फ आयुर्वेद में ही स्वस्थ आदमी की परिभाषा है। वह परिभाषा यह है कि जब शरीर का पता न चले। जब पता चले तो बीमारी है। जब ज्ञान हो शरीर का, तो बीमारी है। जब पेट में तकलीफ होती है, पेट का पता चलता है। पैर में कांटा गड़ता है, पैर का पता चलता है। सिर में दर्द होता है, सिर का पता चलता है।जहां पीड़ा होती है, जहां वेदना होती है, वहीं ज्ञान होता है, वहीं बोध होता है। जब शरीर में कोई पीड़ा नहीं होती तो शरीर का कोई पता नहीं चलता। स्वस्थ का वही अर्थ है, जो विदेह का। जब देह का कोई पता न चले, तो आदमी स्वस्थ हो गया; स्वयं-स्थित हो गया। अब देह का पता भी कैसे चलेगा?स्वस्थ शब्द भी बड़ा कीमती है। उसका मतलब है स्वयं में स्थित हो जाना, स्वयं में ठहर जाना। जब भी पीड़ा होती है, तब तुम स्वयं में नहीं ठहर सकते। तब पीड़ा तुम्हें खींचती है अपनी तरफ और ज्ञान पीड़ा की तरफ भागता है। क्योंकि पीड़ा को मिटाना है, तो जानना जरूरी है।ज्ञान और दुःख संयुक्त हैं। इसलिए जब कोई व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है, तो आनंद का ज्ञान नहीं होता। क्योंकि आनंद का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। केवल दुःख का ही ज्ञान हो सकता है। बीमारी का ज्ञान हो सकता है, स्वास्थ्य का कोई ज्ञान नहीं होता। स्वास्थ्य तुम स्वयं हो, बीमारी विजातीय है, वह अलग है, उसका ज्ञान होता है। आनंद तुम स्वयं हो। कैसे ज्ञान होगा? कौन है जानने वाला? कौन किसको जानेगा? एक ही बचा, वही आनंद है, वही जाननेवाला है, भेद न रहा। दुःख अलग है, दुःख स्वभाव नहीं है। इसलिए दुःख का ज्ञान होता है।
"वेद न वेदन जानई, करक कलेजे मांहि।" और यहां एक दूसरी ही पीड़ा चल रही है, वह है हृदय की पीड़ा। और हृदय की पीड़ा से तुम यह मत समझ लेना, जिसको डाक्टर हृदय की बीमारी कहते हैं ः हार्ट डीसिज, वह मत समझ लेना। कोई कबीर को हार्ट फेल का डर नहीं है और न कोई हार्ट अटैक हुआ है।हृदय एक तो शरीर का हिस्सा है, जिसको चिकित्सक जानते हैं। और हृदय का गहरा हिस्सा तुम्हारी आत्मा का हिस्सा है, जिसे चिकित्सक नहीं जानते। चिकित्सक तो केवल फेफड़ों को ही जानते हैं, यंत्र को जानते हैं। उनके भीतर छिपा हुआ जो हृदय है, उसे नहीं जानते। इसलिए कोई सर्जन तुमसे राजी नहीं होगा, जब तुम कहते हो, कि मुझे बड़ी प्रेम की पीड़ा होती है और हृदय पर हाथ रख लेते हो। वह थोड़ा हैरान होगा, कि हृदय पर हाथ किसलिए रख रहे हो? क्योंकि वहां से प्रेम का क्या लेना-देना? वहां तो केवल फेफड़े हैं। खून को चलाने की व्यवस्था और यंत्र है। वहां हाथ किसलिए रख रहे हो?लेकिन सारी दुनिया में, समस्त जातियों में, समस्त कालों में जब भी किसी को प्रेम की पीड़ा उठती है तो वह अपना हाथ हृदय पर रखता है, कहीं और नहीं। इस फेफड़े के पीछे छिपा हृदय है। वह सूक्ष्म है, वह अदृश्य है।
". . . करक कलेजे मांहि।"
उस कलेजे में पीड़ा है। वैद्य उसे न जान सकेगा और न वेद का ज्ञाता; चारों वेदों का जानकार उसे न जान सकेगा। शास्त्र उसे नहीं पहचान सकता। शास्त्र की पहुंच शरीर तक है, खोल तक है, आवरण तक है, अंतस तक नहीं है। और कबीर रो रहे हैं, कबीर पीड़ित हो रहे हैं, कबीर परेशान हो रहे हैं। ऐसा कबीर के जीवन में घटा या नहीं घटा; यह केवल कविता होगी--सूचक, सांकेतिक; लेकिन नानक के जीवन में यथार्थतः ऐसा घटा।नानक युवा थे और इस प्रेम के पागलपन ने उन्हें पकड़ लिया। और वे दिन-रात रोते। एक रात ऐसा हुआ; भादों की रात होगी। आकाश में बादल घिरे थे; चारों तरफ बिजली चमकती थी। और नानक गीत गाते रहे उस पी के मिलन का। नानक परमात्मा की स्तुति में डूबे रहे।आधी रात बीती, और भी रात बीतनी लगी, मां चिंतित हो गई। नानक जवान थे; होंगे कोई सोलह, सतरह-अठारह साल के। मां ने आकर, जब आधी रात बीत गई तो कहा, "नानक, अब चुप हो जा, अब बहुत हो गया। अब थोड़ा सो ले। शरीर को सोने की भी जरूरत है।नानक, क्षण भर को मां ने कहा तो रुक गए, लेकिन फिर बोले कि नहीं। तो मां ने कहा, इतने जल्दी क्यों बदल गया? नानक ने कहा, कि सुन, आधी रात--और एक पपीहा "पिऊ पिऊ" की पुकार किए जा रहा है। नानक ने कहा, जब तक यह पपीहा चुप नहीं होता, तब तक मैं कैसे चुप हो जाऊं? और इसकी प्रेयसी तो बहुत दूर न होगी, यहीं कहीं पास किसी वृक्ष में छिपी होगी। और मेरा प्रेमी तो बहुत दूर है। मुझे रोको मत।कबीर ठीक कहते हैं ः.
आंखरिया झांई पड़ी, पंथ निहार निहार। जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।
इस तन का दीवा करौं, बाती मैल्यूं जीव।
लोही सीचौं तेल ज्यूं, कब मुख देख्यौं पीव।। रात भर नानक गाते रहे। स्वभावतः अस्वस्थ हो गए। दूसरे दिन चिकित्सक बुलाया गया--यह वास्तविक घटना है। कबीर ने तो शायद प्रतीक में कही होगी-- इस लड़के को कुछ हो गया। बाप थोड़े चिंतित हुए। और नानक के पिता एक साधारण गृहस्थ आदमी थे, चौथी कोटि के; जिनको यह सब व्यर्थ की बकवास थी। कहां का परमात्मा! किस को पाना? क्या करना? यह सब दिमाग की खराबी है।चिकित्सक को बुलाया। पर यही घटना घटी। चिकित्सक करेगा भी क्या बेचारा? कलेजे को जांचने का कोई उपाय भी तो नहीं है। तो उसने भी नानक की नब्ज पकड़ी और जांच की। और नानक हंसने लगे। और उन्होंने कहा कि वहां मेरी बीमारी नहीं है। मेरी बीमारी यहां हृदय में है।लेकिन लगता है, वह वैद्य सिफ वैद्य ही न रहा होगा। थोड़े से वेद से भी उसका संबंध रहा होगा। थोड़े भीतर के ज्ञान से भी संबंध रहा होगा। उसने नानक के पिता को कहा, कि मत इसे परेशान करो। और इसकी बीमारी मेरी सीमा के बाहर है। लेकिन किसी ज्ञानी को खोजो जो इसकी बीमारी में काम आ जाए; जो इसके कलेजे को पहचान ले। इतना मैं कहता हूं, कि शरीर इसका रुग्ण नहीं है, लेकिन भीतर कोई बड़ी गहरी पीड़ा है। और यह भी तुमसे कहता हूं कि यह पीड़ा सौभाग्य है। मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं साधारण वैद्य हूं। इसे किसी असली वैद्य की जरूरत है। धन्यभाग हैं उस व्यक्ति के, जो इस दशा में आ जाए, जब वह कह सके ः.
"सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै। .
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।"
क्योंकि वहीं से एक-एक कदम चल कर वह मंदिर पास आता है।
आज इतना ही।
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