प्रश्न सार:
1— न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे
चली रे चली रे मेरी नाव चली रे
कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली
मैंने कहा पिया के गांव चली रे
2—जैन दर्शन कहता है कि इस आरे में मोक्ष संभव नहीं है। तो फिर मोक्ष यहीं और अभी है, इस धारणा को पकड़ लेना क्या आत्म वंचना नहीं है?
पहला प्रश्न:
मैं जब प्रथम-प्रथम आपको मिली थी तब कुछ भी तो पता नहीं था। न मालूम आपने कहां से कहां चला दिया! एकांत अब प्रीतिकर लगता है। अब तो न कहीं जाना है, न आना। न कुछ होना है और न कुछ जानना है। बहुत कुछ पाया, जिसके योग्य न थी। बस, अब तो अलविदा और प्रणाम।
न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे
चली रे चली रे मेरी नाव चली रे
कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली
साधारणतः किसी को भी पता नहीं है कि कहां जा रहे हैं। जा रहे हैं जरूर। गति से जा रहे हैं, शक्ति से जा रहे हैं, लेकिन स्पष्ट नहीं है कि कहां जा रहे हैं। कहां से आ रहे हैं, इसका भी कुछ पता नहीं है।
कहां से आना, कहां से जाना तो दूर की बातें हैं, यह भी ठीक पता नहीं है कि कौन हैं। कौन है यह जो तुम्हारे भीतर चल रहा, जी रहा, सुख भोग रहा, दुख भोग रहा, चिंतित होता है, ध्यान करता है--कौन छिपा है तुम्हारे भीतर?
मनुष्य की स्थिति बड़ी विक्षिप्त है। पशु-पक्षियों की स्थिति भी बेहतर है। उन्हें भी पता नहीं कि कौन हैं, कहां जा रहे हैं। मनुष्य की विडंबना यह है कि उसे इतना पता है कि पता नहीं कौन है! इतना पता है कि पता नहीं कहां जा रहे हैं।
पशु-पक्षी ऐसे चल रहे हैं, जैसे बेहोश। आदमी होश में नहीं है, बेहोशी और होश के बीच में लटका है। आदमी त्रिशंकु की स्थिति में है। और आदमी की स्थिति में से पार होने के दो ही उपाय हैं--या तो गिर जाओ वापस बेहोशी में, जो कि असंभव है। हो जाओ पशु-पक्षी पुनः, जो कि असंभव है। क्योंकि विकास की किसी भी स्थिति से वापस नहीं लौटा जा सकता है। जो जान लिया, जान लिया। उसे फिर अनजाना नहीं किया जा सकता। जहां तक आ गए हैं, यह तो हो सकता है आगे न जाएं, लेकिन पीछे नहीं जा सकते। अटके रह जा सकते हैं। और वही अटकाव बेचैनी और अशांति बनता है।
और दो ही उपाय हैं: या तो पूरी बेहोशी हो, कि यह भी न पता चले कि मैं कौन हूं? कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। पता का भी पता न चले। बेहोशी की भी याद न आए। थोड़ी-सी भी होश की किरण न हो।
ऐसी आदमी चेष्टा करता है। शराब पीकर कभी चेष्टा करता है कि भूल जाएं सब। वह चेष्टा फिर से पशु हो जाने की चेष्टा है। कभी धन की दौड़ में, कभी पद की दौड़ में--वे भी शराबें हैं; उनमें कभी आदमी अपने को भुला लेना चाहता है, लेकिन भूल नहीं पाता। शराब कितनी देर साथ देगी? सुबह फिर स्मरण वापस लौट आता है--और भी प्रगाढ़ होकर, और भी चुभता हुआ, और भी धार लेकर।
पद की दौड़, धन की दौड़, यश की दौड़ एक न एक दिन टूटती है। वह नशा भी एक दिन उखड़ता है। एक दिन पद पर पहुंचकर पता चलता है, कहां पहुंचे? चले बहुत, पहुंचे कहीं भी नहीं। धन जोड़कर एक दिन पता चलता है कि जो जोड़ लिया, वह बाहर का बाहर पड़ा रह जाएगा। और हम भीतर तो खाली के खाली रह गए। यह जोड़ कुछ जोड़ न हुआ। यह धन अपना न हो सका तो "धन' कैसे हो सकेगा? मौत छीन लेगी, जो छिन जाएगा उसे धन क्या कहना? जो छिन जाएगा वह विपत्ति हो सकती है, संपत्ति नहीं।
एक विकल्प है कि आदमी लौट जाए, जो कि हो नहीं सकता। झूठा विकल्प है। भ्रामक विकल्प है। रास्ता वहां से जाता नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है क्योंकि हम वहां से होकर आए हैं।
तुम्हें पता है जो बीत गया कल, उसका। जो बीत गया परसों, उसका। यद्यपि लौट नहीं सकते वहां। जिसका पता है वहां लौट नहीं सकते। जाना तो पड़ेगा उस कल में, जिसका अभी पता नहीं है। जाना पड़ेगा भविष्य में, अनजान में। जो जाना-माना है अतीत, वहां लौटा नहीं जा सकता। समय को पीछे की तरफ लौटाया नहीं जा सकता। घड़ी के कांटे पीछे की तरफ चलाए नहीं जा सकते। घड़ी के चला लो, जीवन के नहीं चलाए जा सकते। मगर परिचय उससे है, जो बीत गया। परिचय उससे है, जो अब कभी न होगा। और उससे कोई परिचय नहीं है, जो होने जा रहा है।
पशुता मनुष्यता का अतीत है, परिचित है। इसलिए तो आदमी शराब पी लेता है। इसलिए तो पद, धन की दौड़ में लग जाता है। भुलाने के हजार उपाय खोज लेता। फिर शराब हो, कि संभोग हो, कि संगीत हो, कहीं भी भुलाने का उपाय आदमी जब खोजता है कि अपने होश की छोटी-सी किरण को डुबा दूं; यह छोटा-सा दीया भी बुझ जाए, गहन अंधकार हो जाए, तो कम से कम द्वंद्व तो मिटे! अंधेरा ही बचे। अंधेरे का ही अद्वैत सही, लेकिन अद्वैत तो हो जाए। एक तो बचे! दो की दुविधा तो न रहे। पर यह हो नहीं पाता। लाख बुझाओ इस किरण को, यह बुझेगी नहीं।
तो दूसरा उपाय है--और दूसरा ही केवल उपाय है--कि पूरे जागरूक हो जाओ। जैसे पूरी बेहोशी में एक सुख है क्योंकि अखंड रूप से अद्वैत है, अंधेरे का है। वैसे ही पूरे होश में महाआनंद है, महासुख है; वह भी अखंड एकता का है। कोई अंधेरा न बचा। भीतर सारा अंधकार समाप्त हो गया।
तो जब तुम मेरे पास आते हो तो तुम्हें भी साफ नहीं होता किसलिए आए हो। तुम्हें भी साफ नहीं होता, क्या घटेगा? तुम्हें भी साफ नहीं होता कि तुम्हें मैं कहां ले चलूंगा? हो भी नहीं सकता साफ। क्योंकि पता तो हमें उसी का होता है, जो हो चुका। जो नहीं हुआ है उसका तुम्हें पता नहीं होता।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि जो तुम्हारा भविष्य है वह उसका अतीत है। जो तुम्हें अभी होना है, उसके लिए हो चुका।
इसे समझ लेना। सदगुरु का बस इतना ही अर्थ है कि जो तुम्हारा भविष्य है, वह उसका अतीत है। वह स्वयं तो अपने अतीत में नहीं जा सकता, लेकिन तुम्हें तुम्हारे भविष्य की झलक दे सकता है। वह उस रास्ते से गुजर चुका, जिससे तुम्हें अभी गुजरना है। वह हो चुका फूल, तुम अभी बीज हो। बीज को पता भी कैसे हो सकता है?
ठीक पूछा है कि "मैं जब प्रथम-प्रथम आपको मिली थी तब कुछ भी तो पता नहीं था।'
अगर कुछ पता होता तो पहली तो बात, मुझसे मिलना मुश्किल हो जाता। क्योंकि जिनको पता है, वे यहां आते नहीं। जिनको पता है, उनका दंभ उन्हें यहां न आने देगा। उनका ज्ञान ही बाधा है। पता ही होता, तब तो ठीक था। पता भी नहीं है, सिर्फ भ्रांति है कि पता है। गीता पढ़ ली है, कुरान पढ़ लिया है, धम्मपद पढ़ लिया है, महावीर के वचन कंठस्थ कर लिए हैं। पता बिलकुल नहीं है। महावीर को पता रहा होगा, महावीर के वचन याद कर लेने से तुम्हें पता नहीं हो जाएगा। कृष्ण को मालूम रहा होगा, लेकिन गीता कंठस्थ होने से तुम्हें मालूम नहीं हो जाएगा।
तुम्हारा जीवंत अनुभव होगा तो ही मालूम होगा।
इसलिए शास्त्र ज्ञान दे सकता है। और ज्ञान बाधा बन सकता है। बोध तो केवल शास्ता से मिलता है, शास्त्र से नहीं। शास्ता का अर्थ है, जीवित शास्त्र। जिसको हुआ है ऐसे किसी आदमी को खोज लेना। उसके माध्यम से ही शास्त्रों का अर्थ और अभिप्राय तुम्हारे लिए खुलेगा।
और ऐसा आदमी खोजना हो तो पहली शर्त है कि अपने ज्ञान की भ्रांति छोड़ देना। गुरु से मिलना हो ही नहीं सकता, अगर शिष्य को थोड़ा भी खयाल हो कि मुझे मालूम है। जितना मालूम है उतनी ही दीवाल रहेगी। उतनी ही ओट रहेगी। शिष्य का अर्थ ही है इस बात की घोषणा, कि मुझे मालूम नहीं। इस बात की घोषणा, कि मैं अज्ञानी हूं।
जब तुम अज्ञानी किसी के समक्ष अपने को स्वीकार कर लेते हो तो क्रांति के लिए तत्पर हो गए, तैयार हो गए। अहंकार तुमने हटाकर रख दिया।
प्रश्न पूछा है तरु ने। खतरा था; क्योंकि पंडितों का सत्संग उसने किया है मुझसे पहले। साधु-संन्यासियों के पास गई है। स्वामियों के प्रवचन सुने हैं। खतरा था। ज्ञान उसके पास था। लेकिन उसने हिम्मत की और अज्ञानी होने के लिए राजी हुई। उसी हिम्मत से घटना घटी।
डर था कि वह अपने ज्ञान को पकड़ लेती। जो सुना-समझा था उसे पकड़ लेती तो मुझसे मिलना न हो पाता।
मेरे पास भी रहकर बहुत हैं, जो मुझसे वंचित रह जाएंगे। अगर ज्ञान की जरा भी दीवाल रही तो मैं यहां चिल्लाता रहूंगा, आवाज तुम तक पहुंचेगी नहीं। मैं रोज-रोज तुम्हें समझाता रहूंगा, तुम रोज-रोज चूकते रहोगे। मैं रोज-रोज दोहराता रहूंगा और तुम बहरे...और बहरे होते जाओगे। ज्ञान कान में भरा हो तो कान सुनने में असमर्थ हो जाते हैं। ज्ञान आंख में भरा हो तो आंख देखने में असमर्थ हो जाती है।
अज्ञान को स्वीकार करने में एक निर्दोषता है।
कठिन था। तरु को पता था। बहुत-सी बातें पता थीं। और बहुत मुश्किल होता है कि जो तुम्हें पता है, उसे हटाकर रख देना। उसे ही मैं त्याग कहता हूं। धन, पद, प्रतिष्ठा, इनका त्याग कुछ भी नहीं है, ज्ञान का त्याग ही वास्तविक त्याग है। क्योंकि ज्ञान से जितना अहंकार भरता है, उतना किसी चीज से नहीं भरता। ज्ञान जैसी अकड़ देता है, रीढ़ को जैसा सख्त, पथरीला कर देता है, वैसी कोई चीज नहीं करती।
छोड़ सकी तो पाने का रास्ता बना। झुक सकी तो भरने का उपाय हुआ।
पूछा है: "न मालूम आपने कहां से कहां चला दिया।' क्योंकि जो वह सोचकर आयी होगी, उस तरफ तो मैं नहीं ले गया। क्योंकि तुम जो सोचकर आते हो, वह तो गलत ही है। "तुम' सोचकर आते हो, तुम्हारा सोचना तुम्हारे अतीत का ही प्रतिफलन होता है। अन्यथा हो भी नहीं सकता। तुम जो सोचकर आते हो, वह तुम्हारी अतीत की ही कुछ पुनरावृत्ति होता है। जो तुमने जाना है, उसी को तो मांगोगे। जो तुमने पहले जाना है, थोड़ा सुधारकर मांग लोगे। जो सुख तुम्हें पहले मिले हैं, थोड़ी तरमीम, संशोधन करके मांग लोगे।
अभिनव को कैसे मांगोगे? जो तुमने जाना ही नहीं, जीया ही नहीं, उसे कैसे मांगोगे?
इसलिए जो जानता है, थोड़ा-सा भी जानता है, थोड़ा-सा भी समझता है, वह अड़चन में पड़ जाता है। उसकी प्रार्थना कलुषित हो जाती है। उसकी पूजा में उसके ज्ञान की छाया पड़ जाती है। उसकी पूजा की शुभ्रता उसके ज्ञान की कालिमा से दब जाती है।
तो जब तुम मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो तो कुछ मांगना मत। क्योंकि तुम जो मांगोगे, वह गलत होगा। तुम जो मांगोगे वह गलत ही हो सकता है। काश! तुम्हें ठीक का ही पता होता तो मंदिर जाने की जरूरत ही न होती।
तुम्हें ठीक का पता नहीं है। इसलिए तुम्हारी मांग में ही भूल होगी। तुम वही मांगोगे, जो तुम पहले मांगते रहे हो। तुम फिर-फिर दोहराकर उसी रास्ते से घूमते रहोगे, जिस पर तुम पहले घूमते रहे हो। तुम कोल्हू के बैल की तरह चलते रहोगे।
इसलिए अगर थोड़ी समझ हो तो मांगना मत। झोली फैलाकर खड़े हो जाना, मांगना मत। हृदय खोलकर खड़े हो जाना, मांगना मत। यह मत कहना कि यह दे, वह दे। इतना ही कहना: झोली खुली है। तू देगा तो हम स्वीकार करेंगे आनंद से, अहोभाव से। तू नहीं देगा तो हम समझेंगे, यही तेरा देना है। तू झोली खाली रखेगा तो हम समझेंगे, यही हमारी झोली का भरा होना है। खालीपन से ही तूने हमारी झोली भरी है। तू चाहता है, हम खालीपन में जीएं। तो हम नाचेंगे, गुनगुनाएंगे, आनंदित होंगे; मांगेंगे नहीं।
ध्यान रखना, जिसने प्रार्थना में मांगा, उसकी प्रार्थना तो खराब ही हो गई। उस मांगने के कारण प्रार्थना तो प्रार्थना ही न रही। प्रार्थना में आदमी अपने को देता है, मांगता नहीं।
तो जो मेरे पास आए हैं और जिनको खयाल है कि कुछ मिल जाए; और जिनकी जितनी स्पष्ट धारणा है कुछ पाने की, उतनी ही अड़चन है। तो बार-बार उनके मन में यही अपेक्षा गूंजती रहती है--अभी तक मिला नहीं, अभी तक मिला नहीं। और जो मिल रहा है, वह उन्हें दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उनकी आंख में उनकी मांग भरी है। वे अपनी ही मांग को दोहराए चले जा रहे हैं। मांग अंधा कर देती है।
तरु ने कुछ मांगा नहीं। जो उसे मैंने कहा, उसने किया है। कहा, गीता पढ़ तो गीता पढ़ी। कहा, उपनिषद पढ़ तो उपनिषद पढ़ा। कहा, चल जिन-सूत्र पढ़ तो जिन-सूत्र पढ़े। कहा, धम्मपद पढ़ तो धम्मपद पढ़ा। कहा, भजन गा भजन गाए। जो उसे कहा, उसने किया है। मांगा उसने कुछ नहीं। जो करने को कहा है, उसे इंकार नहीं किया। उसने सरलता से मेरे हाथों में अपने को छोड़ा। उसके परिणाम होने स्वाभाविक हैं। उसके महत परिणाम होते हैं।
तो यह संभव हो सका कि जिसका उसे खयाल भी नहीं रहा होगा, जो वह कभी सपने में भी मांग नहीं सकती थी, उस तरफ यात्रा शुरू हुई।
जब तुम अपने अतीत से कुछ भी दोहराना नहीं चाहते, तो अभिनव का पदार्पण होता है। परमात्मा सदा नया है। सत्य सदा नया है। सत्य इतना नया है कि उसकी कोई धारणा भी नहीं की जा सकती। और एक बार तुम्हें सत्य के इस नयेपन का अनुभव हो जाए तो तुम सब मांग छोड़ देते हो। तब एक नई प्रतीति होनी शुरू होती है कि इतना मिल रहा है और हम याचक बने हैं! हमने मांगा यहीं भूल हो गई।
फिर तुम जो मांगते हो, अगर मिल जाए तो भी धन्यवाद पैदा नहीं होता। क्योंकि जो तुमने मांगा है, तुम सोचते हो, तुमने अर्जित किया। लोग मांगने में भी अगर कई दिन तक मांगते रहें तो धीरे-धीरे अधिकारी हो जाते हैं। वे सोचने लगते हैं, हमने इतनी प्रार्थना की इसलिए मिला। प्रार्थना की इसलिए!
भिखमंगा भी जब सड़क पर आधा घंटे मांगता रहता है और तुम देते हो तो धन्यवाद थोड़े ही देता है! वह जानता है कि आधा घंटे चीखे-चिल्लाए, श्रम किया। और अगर तुम रोज-रोज देने लगो तो धन्यवाद देना तो दूर, अगर तुम किसी दिन न दोगे तो वह नाराज होगा।
रथचाइल्ड के संबंध में मैंने सुना है--यहूदी धनपति--एक भिखमंगे को वह रोज हर महीने पहली तारीख को सौ डालर देता था। वह भिखमंगा उसे जंच गया। एक दिन बगीचे में उसी बेंच पर आकर बैठ गया था। दया आ गई। कोई रथचाइल्ड के पास कमी न थी। उसने कहा कि तू सौ डालर हर महीने एक तारीख को आकर ले जाया कर। वह भिखमंगा इस तरह से उसके दफ्तर में आने लगा, जैसे लोग अपनी तनख्वाह लेने जाते हैं। अगर दस-पांच मिनट भी उसको रुकना पड़ता तो वह नाराज हो जाता, चीख-पुकार मचाने लगता।
कोई दस साल तक ऐसा चला। एक दिन आया लेने तो जो क्लर्क उसे देता था--और भी भिखमंगों को रथचाइल्ड बांटता था। बहुत धन उसने बांटा--उसने कहा कि इस तारीख से अब तुम्हें पचास डालर ही मिल सकेंगे। उसने पूछा, क्यों? सदा मुझे सौ मिलते रहे। सालों से मिलते रहे। यह फर्क कैसा! उस क्लर्क ने कहा कि ऐसा करें, मालिक का धंधा बहुत लाभ में नहीं चल रहा है। और उनकी लड़की की शादी हो रही है। और उस लड़की की शादी में बहुत खर्च है। तो उन्होंने सभी दान आधा कर दिया है।
वह तो एकदम टेबल पीटने लगा। उसने कहा बुलाओ रथचाइल्ड को, कहां है! मेरे पैसे पर अपनी लड़की की शादी? एक गरीब आदमी का पैसा काटकर लड़की की शादी में मजा, गुलछर्रे उड़ाएगा? बुलाओ, कहां है!
रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं गया और मुझे बड़ी हंसी आयी। लेकिन मुझे एक बात समझ में आयी कि यही तो मैं परमात्मा के साथ करता रहा हूं।
यही तो हम सबने परमात्मा के साथ किया है। जो मिला है उसका हम धन्यवाद नहीं देते। उस दस साल में उसने कभी एक दिन धन्यवाद न दिया। लेकिन पचास डालर कम हुए तो वह नाराज था, शिकायत थी। और आगबबूला हो गया। उसके पचास डालर काटे जा रहे हैं?
अगर तुमने मांगा तो पहली तो बात, मिलेगा नहीं। और शुभ है कि नहीं मिलता क्योंकि तुम जो भी मांगते हो, गलत मांगते हो। तुम सही मांग ही नहीं सकते। तुम गलत हो। गलत से गलत मांग ही उठ सकती है। नीम में केवल नीम की निबोरियां ही लग सकती हैं, आम के सुस्वादु फलों के लगने की कोई संभावना नहीं है। जो तुम्हारी जड़ में नहीं है, वह तुम्हारे फल में न हो सकेगा। तुम गलत हो तो तुम जो मांगोगे वह गलत होगा।
तो पहली तो बात--मिलेगा नहीं। और शुभ है कि नहीं मिलता। परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है कि तुम जो मांगते हो, वह नहीं मिलता। इसे कभी सोचना बैठकर कि तुमने जो-जो मांगा था अगर मिल जाता तो कैसी मुसीबत में पड़ते!
लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि मिल जाता है। तो जो मिल जाए तो भी धन्यवाद पैदा नहीं होता, कृतज्ञता पैदा नहीं होती, और जिस प्रार्थना का परिणाम कृतज्ञता न हो, वह प्रार्थना प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना का पहला स्वाद भी कृतज्ञता है और अंतिम स्वाद भी कृतज्ञता है। एक गहरा अनुग्रह का भाव!
तो जिस प्रार्थना के पीछे अनुग्रह का स्वाद छूट जाए, समझ लेना कि प्रार्थना ठीक थी; पहुंच गई परमात्मा के हृदय तक। पूरी हुई या नहीं, यह सवाल नहीं है। अगर अनुग्रह का भाव पैदा कर गई तो पूरी हो गई।
तो जो मेरे पास आए हैं, अगर उनकी कुछ मांग है, तो एक तो मांग बाधा बनेगी। मुझसे मिलन न हो पाएगा। अगर मिल भी गए, उनकी मांग पूरी भी हो गई तो कृतज्ञता पैदा न होगी। असंभव है। और अगर कृतज्ञता पैदा न हुई तो आस्तिकता पैदा नहीं होती।
परमात्मा को चाहे भूल जाओ, कृतज्ञता को मत भूलना। क्योंकि कृतज्ञता का संचित जोड़ ही परमात्मा है। जितने तुम अनुग्रह के भाव से भरते जाते हो, उतना ही तुम्हारे परमात्मा का मंदिर निर्मित होता चला जाता है।
"...न मालूम आपने कहां से कहां चला दिया। एकांत अब प्रीतिकर लगता है।' एकांत प्रीतिकर लगे तो प्रार्थना शुरू हुई।
हमें एकांत प्रीतिकर क्यों नहीं लगता? एकांत को हम कहते हैं, अकेलापन, लोनलीनेस। एकांत को हम एकांत थोड़े ही कहत हैं! अलोननेस थोड़े ही कहते हैं! एकांत को हम कहते हैं, अकेलापन। अकेलेपन में लगता है, दूसरे की कमी है। दूसरा होना चाहिए था, और है नहीं। अकेलेपन का अर्थ है शिकायत। अकेलेपन का अर्थ है कि अभाव अनुभव हो रहा है दूसरे की मौजूदगी का। जब तुम कहते हो अकेलापन लग रहा है, तो क्या अर्थ हुआ इसका? इसका अर्थ हुआ कि दूसरा अनुपस्थित है, उसकी अनुपस्थिति खल रही है।
अकेलापन नकारात्मक है; एकांत विधायक है।
एकांत का अर्थ है, अपने होने में आनंद आ रहा है। अकेलेपन का अर्थ है, दूसरे के न होने में दुख मालूम हो रहा है। दूसरे की अनुपस्थिति चुभ रही है। एकांत का अर्थ है, अपने होने में रस बह रहा है।
जब अकेला आदमी कमरे में बैठा हो तो उदासी से घिरा होता है। और जब एकांत में बैठा हो तो उसके चारों तरफ आनंद की आभा होती है।
भाषाकोश में तो दोनों शब्दों का एक ही अर्थ लिखा है, लेकिन जीवन के कोश में बड़ा भेद है। इसलिए भाषाकोश पर बहुत मत जाना। भाषा को बहुत जाननेवाले लोग अक्सर जीवन से वंचित रह जाते हैं। अगर तुम भाषाकोश में देखोगे, डिक्शनरी में देखोगे तो एकांत, एकाकी, अकेला, सबका एक ही अर्थ है। भाषाकोश की तो अंधेर नगरी है। वहां तो सभी चीज एक भाव बिक रही है। "अंधेर नगरी बेबूझ राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।' सभी एक भाव बिक रहा है।
जीवन का कोश बड़ा अलग है। फासले बड़े सूक्ष्म हैं। महावीर एकांत में होते हैं; तुम जब होते हो, अकेले होते हो। तुम जब होते हो तब तुम सोचते होते हो कि दूसरे को कहां खोज लूं! पत्नी को, पति को, मित्र को, बेटे को, पिता को, भाई को, समाज को--दूसरे को कैसे खोज लूं? सच तो यह है कि जब तक दूसरा मौजूद होता है, तब तक तुम्हें दूसरे की याद ही नहीं आती। दूसरे की याद ही तब आती है, जब तुम अकेले होते हो।
तुम्हारे अकेले में बड़ी भीड़ खड़ी होती है। भाषाकोश बनानेवाले को वह भीड़ दिखाई नहीं पड़ती क्योंकि वह भीड़ तो सूक्ष्म है और मन की है। तुम जाकर पहाड़ पर बैठ जाओ। तुम अकेले न जाओगे। अकेले दिखाई पड़ोगे, तुम्हारे भीतर एक भीड़ चल रही है।
जब बायजीद अपने गुरु के पास पहली दफा गया और उसने जाकर चरणों में सिर झुकाया और कहा कि मैं आ गया हूं सब छोड़कर अकेला तुम्हारे चरणों में। गुरु ने कहा, बकवास बंद। भीड़ को बाहर छोड़कर आ। उसने लौटकर पीछे दिखा कि कोई आ तो नहीं गया पीछे? कोई भी न था। उस मस्जिद में गुरु अकेला बैठा था। उसने चारों तरफ देखा। गुरु ने कहा, यहां-वहां मत देख। आंख बंद कर; वहां देख।
घबड़ाकर उसने आंख बंद की, निश्चित ही वहां भीड़ खड़ी थी। जिस पत्नी को रोते छोड़ आया था, वह अभी भी रो रही थी। जिन बच्चों को विदा कर आया था, माफी मांग आया था कि मुझे जाने दो, वे अब भी बिसूरते खड़े थे। जिन मित्रों से कह आया था गांव के बाहर आकर कि अब मेरे पीछे मत आओ, अब मुझे अकेला छोड़ दो, वे साथ ही चले आए थे। बाहर से तो नहीं, भीतर आ गए थे। भीतर भीड़ थी। बायजीद को दिखा कि गुरु ने ठीक कहा। भीड़ तो मैं साथ ले आया हूं और कहता हूं, मैं अकेला आया हूं!
अकेला होना तो बड़ी उपलब्धि है। मगर उस अकेलेपन का अर्थ होता है एकांत। जब तुम्हें अकेले में आनंद आने लगे तो एकांत बरसा। अकेले में आनंद कब आता है? अकेले में आनंद तभी आता है, जब परमात्मा की थोड़ी झलक मिलने लगे; नहीं तो नहीं आता। अकेले में आनंद तभी आता है, जब वस्तुतः तुम अकेले नहीं होते हो, परमात्मा तुम्हें घेरे होता है।
प्रसिद्ध ईसाई फकीर स्त्री हुई--थेरेसा। एक दिन उसने गांव में घोषणा की कि मैं एक बड़ा चर्च बनाने जा रही हूं। लोग हंसने लगे। वह भिखमंगी थी। उसके पास कुछ भी न था। लोगों ने पूछा, तेरे पास है क्या? चर्च बनाएगी कैसे? चर्च ऐसे कोई आकाश से नहीं बनता। और तू, सुना है कि सोचती है, दुनिया का सबसे सुंदर चर्च बन जाए! कोई खजाना मिल गया है तुझे?
उसने खीसे से दो पैसे निकाले और उसने कहा कि ये मेरे पास हैं। लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा कि हमें शक तो सदा से था कि तू पागल है। दो पैसे में चर्च? उसने कहा, ये दो पैसे, मैं और + ईश्वर। उसको क्यों भूले जाते हो? वह जो मुझे चारों तरफ से घेरा है, उसे भी जोड़ में रखो। अकेले दो पैसे और थेरेसा से तो चर्च नहीं बन सकता, यह सच है। लेकिन थेरेसा, दो पैसे और + ईश्वर; चर्च बनेगा या नहीं, यह कहो। पागल मैं हूं, या पागल तुम हो?
लेकिन उन लोगों की बात भी ठीक थी। उनका गणित साफ-सुथरा था। उन्हें तो दो पैसे, और गरीब औरत थेरेसा दिखाई पड़ रही थी। वह जो परमात्मा उसे घेरे था, वह तो केवल उसे ही दिखाई पड़ रहा था। चर्च बना। और कहते हैं, दुनिया का सुंदरतम चर्च बना। उस जगह, जहां थेरेसा ने वे दो पैसे लोगों को दिखाए थे, वह चर्च प्रमाण की तरह खड़ा है कि अगर परमात्मा का साथ हो तो तुम अकेले नहीं हो।
अकेले होकर अकेले नहीं हो, अगर परमात्मा का साथ हो। अगर परमात्मा का साथ न हो तो तुम भीड़ में भी अकेले हो। मित्र हैं, प्रियजन हैं, संबंधी हैं, सगे हैं। कभी खयाल किया, लेकिन कहीं अकेलापन मिटता है? कंधे से कंधे लगे हैं। भीड़ में, जमात में खड़े हो, लेकिन अकेले हो। आदमी भीड़ में भी हो तो अकेला है। भक्त अकेला भी हो तो अकेला नहीं है।
तो अगर एकांत में आनंद आने लगा, एकांत में सुगंध आने लगी, एकांत में धूप जलने लगी, एकांत में रस बहने लगा तो शुभ लक्षण है। उसका अर्थ है, अब अकेले में भी अकेलापन नहीं है। अब अकेले में भी कुछ भरापन है। अब अकेला भी खालीपन नहीं है, अनुपस्थिति नहीं है। बल्कि किसी की अप्रगट, अदृश्य उपस्थिति का अनुभव होने लगा है।
"एकांत अब प्रीतिकर लगता है...।'
ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, तभी शुरू होती है जब एकांत प्रीतिकर लगने लगता है।
"...अब न कहीं जाना है न आना; न कुछ होना है, न कुछ जानना!' अब कोई जरूरत भी नहीं। जाना-आना, जाननाऱ्होना, सब दौड़ है। सब बाहर ले जाती है। जब कोई अपने भीतर डूबने लगे तो न कुछ जानने को बचता, न कुछ होने को बचता। सब दौड़ गई। आदमी घर लौट आया। विश्राम का क्षण आया। विराम आया।
इस विराम की हमें कोई अनुभूति नहीं है, इसलिए खतरा भी है। खतरा यह है कि मन सोचने लगे, क्या कर रहे हो बैठे-बैठे? कुछ तो करो। मन की पुरानी आदतें प्रबल हैं। संस्कार गहन हैं। वह फिर उधेड़-बुन पैदा कर सकता है। इसलिए सावधान रहना।
विराम तो स्वीकार कर लेना, विश्राम तो करना, लेकिन विश्रांति को असावधानी मत बनने देना। अगर विश्रांति में असावधानी आ जाए तो मन के खेल बड़े प्राचीन हैं। मन फिर कुछ खेल निकाल ले सकता है। क्योंकि मन सदा व्यस्त रहना चाहता है। मन चाहता है, कुछ करते रहो, कुछ होते रहो, कुछ पाते रहो। मन तो भिखारी का पात्र है, जो कभी भरता नहीं। कुछ न कुछ डालते रहो...डालते रहो, पात्र खाली का खाली रहता है। मन तो याचक है।
और जब कहीं नहीं जाना, कुछ भी नहीं होना, शांत बैठे हैं तो मन बड़ा बेचैन होगा। सावधानी रखना। नहीं तो मन बने हुए एकांत को खंडित कर सकता है। जरा-सी हवा की लहर शांत झील को फिर लहरों से भर देती है। जरा-सा झोंका दीये की ज्योति को फिर कंपा जाता है। मन का जरा-सा झोंका अब यह खतरनाक हो सकता है।
इसलिए महावीर ने कहा है, कि जब ध्यान भी सध जाए, यहां तक कि शुक्ल ध्यान की भी जरूरत न रह जाए तो भी बारह भावनाओं को करते रहना। महावीर कह रहे हैं, जब समाधि भी उपलब्ध हो जाए तो भी जल्दी मत करना क्योंकि मन के धोखे बड़े पुराने हैं। कहां छिपा बैठा हो। कहां अचेतन की किसी गर्त में, गुहा में बैठा हो। कहां भीतर कोई जगह बना ली हो और वहां से धीरे-धीरे फिर उपद्रव की शुरुआत कर दे। फिर वहां से अंकुरित हो जाए।
तुमने देखा? घास-पात हम उखाड़कर फेंक देते हैं, मैदान साफ हो जाता है। लगता है, सब ठीक हो गया। इतनी जल्दी मत सोच लेना। बीज पड़े होंगे पिछले वर्ष के। वर्षा आएगी, फिर घास-पात पैदा हो जाएगा। माली कहते हैं कि एक साल घास-पात पैदा हो जाए तो बारह साल उखाड़ने में लगते हैं। बीज गिरकर मिल जाते हैं भूमि में, उनका पता भी नहीं चलता।
और यह आश्चर्य की बात है, यहां अगर फूल बोने हों तो खाद दो, पानी दो, सम्हालो, तब भी पक्का नहीं कि पैदा होंगे। और घास-पात उखाड़ो, हटाओ, जलाओ; फिर वर्षा होती है, न खाद की जरूरत, न माली की जरूरत, न सूरज की जरूरत; घास-पात फिर पैदा हो जाता है।
उतार पर चीजें अपने आप हो जाती हैं, चढ़ाव पर कठिनाई है। उतार पर आदमी दौड़ता चला जाता है। चढ़ाव पर दौड़ना मुश्किल हो जाता है। चढ़ाव में श्रम है।
तो जो भी ऊर्ध्वगामी यात्राएं हैं, उनमें श्रम है। अधोगामी यात्राओं में कोई श्रम नहीं है। ध्यान को सम्हालो, सम्हाल-सम्हाल छूट-छूट जाता है। काम को दबाओ, हटाओ, मिटाओ, मिटाते-मिटाते भी उभर आता है। घास-पात की तरह है। क्रोध को मिटाओ, मिटते-मिटते भी कब उभर पड़ेगा कुछ पक्का पता नहीं। करुणा को साधो, साधते-साधते भी कब हाथ से छूट जाएगी कुछ पता नहीं।
इससे यह नतीजा लेना कि जो चीज बिना सम्हाले सम्हल जाती हो, उससे जरा सावधान रहना। वह घास-पात होने का डर है। जो सम्हाल-सम्हालकर छूट-छूट जाती हो, उसके लिए पूरी चेष्टा करना क्योंकि वहीं खजाना छिपा है। वहीं स्वर्ण-भंडार है। वहीं जीवन की ऊर्ध्वयात्रा है, उर्ध्वगमन है, तीर्थयात्रा है।
"न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे
चली रे चली रे नाव चली रे
कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली
मैंने कहा पिया के गांव चली रे'
दूसरों को तो दिखाई भी नहीं पड़ता। इसलिए कोई कहता है, यहां चली, कोई कहता है, वहां चली। कोई कहता है पागल हो गई है तरु। कोई कहता है दिमाग फिर गया, दीवानी हो गई। कोई कहता है पहले बड़ी बुद्धिमान थी; बुद्धि गंवाई। पहले बड़ी समझदार थी, सब समझ-बूझ खोई। लोकलाज गंवाई।
तो कोई तो कुछ कहेगा, कोई कुछ कहेगा। उस समय भीतर यह याद रखना ही--"मैंने कहा पिया के गांव चली रे।' क्योंकि उस पिया को अगर जरा भी विस्मरण किया तो लोगों की बातें सार्थक मालूम पड़ सकती हैं। क्योंकि लोग जो कह रहे हैं, वह वही कह रहे हैं, जो तुमने भी अतीत में सोचा होता। तो लोग जो कह रहे हैं उससे मिलते-जुलते भाव कहीं गहन में तुम्हारे भी पड़े हैं। जब कोई कहता है किसी को, कि क्या पागल हो गए? तो उसके कहने का थोड़े ही परिणाम होता है! अगर वह आदमी चिंतित हो जाता है तो परिणाम इसलिए होता है कि वह भी सोचता है कि पता नहीं, पागल हो ही न गया होऊं!
कल ही मुझे एक पत्र मिला। एक दंपति संन्यास लेकर गए। भोले लोग हैं, पहाड़ से आए थे। पहाड़ का भोलापन है। दोनों बड़ी मस्ती में गए। लेकिन जब इतनी मस्ती में गए तो गांव के लोगों ने सोचा कि दिमाग खराब हो गया। और दोनों का साथ-साथ हो गया। रिश्तेदारों ने जबर्दस्ती इलाज करवाना शुरू कर दिया। कल मुझे पत्र मिला कि हम अस्पताल में पड़े हैं। हम हंसते हैं तो लोग कहते हैं, शांत रहो, हंसो मत। हंसने की बात क्या है? इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं, ट्रेन्क्विलाइजर दिए जा रहे हैं। हम कहते हैं, हमें तो वैसी ही नींद मस्ती की आ रही है। हम तो प्रसन्न हैं, हम नाच-गा रहे हैं, हम कुछ पागल नहीं हैं। लेकिन गांव में कोई मानने को तैयार नहीं है। जितना हम समझाते हैं कि हम पागल नहीं हैं तो वे कहते हैं, ऐसा तो सभी पागल कहते हैं। कोई पागल कभी मानता है? तुम चुप रहो। हम जानते हैं।
तो उन्होंने पूछा है, कि अब तो हमें भी शक होने लगा, कहीं यही लोग ठीक न हों। तो अब करना क्या है?
हमारा भी अतीत इन्हीं तर्कों में जीया है। हमारे भी देखने के ढंग जन्मों-जन्मों तक ऐसे ही रहे हैं। तो जब कोई कहने लगा यहां चली, कोई कहने लगा वहां चली, तो भीतर याद रखना बहुत मुश्किल हो जाता है कि पिया के गांव चली है। क्योंकि इस पिया से तो मुलाकात बड़ी नई है। और ये जो लोग कह रहे हैं यहां चली, वहां चली, इनसे बड़े पुराने संबंध हैं। इनकी भाषा तो जानी-मानी है, इस पिया की भाषा तो जानी-मानी नहीं है।
यह पिया का गांव है भी या नहीं? जिसको दिखाई पड़ने लगता है, उसको भी शक आता है। जिनको नहीं दिखाई पड़ता उनका शक तो बिलकुल स्वाभाविक है। जिसको पिया का गांव साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है, उसके मंदिर के कलश धूप में चमकते दिखाई पड़ने लगते हैं, उसको भी शक होता है कि कहीं मैं कल्पना तो नहीं कर रहा? क्योंकि वे कलश दूसरों को दिखाए नहीं जा सकते। यह कठिनाई है।
पति को दिखाई पड़े तो अपनी पत्नी को भी नहीं दिखला सकता। पत्नी कहती है, अगर वे कलश हैं और पिया का गांव है तो हमें भी तो दिखाई पड़े। पांच पंचों को दिखाई पड़े तो सत्य है। तुमको दिखाई पड़ने से क्या होता है? तुम कोई कल्पना के जाल में पड़ गए हो। तुम्हें कुछ बुद्धि-भ्रम हुआ है। तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा विवेक, तुम्हारे तर्कना की क्षमता क्षीण हुई। तुम किस सम्मोहन में पड़ गए हो? जो किसी को नहीं दिखाई पड़ता वह तुम्हें दिखाई पड़ रहा है?
तो जिस व्यक्ति को पिया का गांव दिखाई भी पड़ता है, वह भी इस जगत में बड़ा अकेला हो जाता है। और यह जगत तो बड़ा लोकतांत्रिक है। यहां तो सत्य का निर्णय भीड़ से होता है। यहां तो कितने लोग मानते हैं इससे तय होता है कि सत्य है या नहीं!
तुम अकेले पड़ जाओगे, जिस दिन तुम्हें पिया का गांव दिखाई पड़ना शुरू होगा। उस दिन तुम इतने अकेले हो जाओगे कि तुम्हें खुद ही संदेह पैदा होना शुरू होगा कि पता नहीं, कहीं कोई भ्रांति तो नहीं हो रही है? मैं किसी भ्रम का शिकार तो नहीं हूं? उस वक्त याद रखना, बड़ा श्रम मांगता है, बड़ी श्रद्धा मांगता है।
इसे स्मरण रखना। इसे मन में निरंतर दोहराते रहना। इसकी बहुत फिकर मत करना कि लोग क्या कहते हैं। एक ही कसौटी है--अगर तुम्हें आनंद मिल रहा हो तो तुम फिकर ही मत करना कि भ्रम है कि सत्य! क्योंकि आनंद लक्ष्य है। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अगर भ्रम से भी आनंद मिल रहा हो तो तुम सत्य को फेंक देना कूड़ाघर में, कचरे में। क्योंकि आनंद मिल ही नहीं सकता भ्रम से।
इसलिए तो हमने ब्रह्म की परिभाषा में अंतिम बात कही है--सच्चिदानंद। आनंद आखिरी बात है। सत, चित, आनंद--आखिरी बात है। जहां से तुम्हें आनंद मिल रहा हो, फिर दुनिया कुछ भी कहे, तुम फिक्र मत करना। तुम अपने आनंद को ही कसौटी मानना, तो ही पहुंच पाओगे पिया के गांव तक। नहीं तो बीच में हजार बाधाएं हैं। सारी दुनिया तुम्हें इस तरफ खींचेगी।
और सारी दुनिया का इस तरफ खींचना भी अकारण नहीं है। जब किसी एक व्यक्ति को पिया का गांव दिखाई पड़ता है तो वह बाकी सारे लागों के लिए चिंता का कारण हो जाता है। अगर वह सही है तो हम सब गलत हैं। जो कहता है, मुझे परमात्मा के दर्शन हुए, अगर वह सही है तो बाकी इन चार अरब लोगों का क्या? अगर बुद्ध सही हैं तो इन चार अरब बुद्धुओं का क्या? ये गलत होंगे ही। बुद्धुओं को यह बात जंचती नहीं। यह पसंद नहीं पड़ती। कौन अपने को बुद्धू मानना चाहता है? ये चार अरब भीड़ की तरह इकट्ठे हो जाते हैं। ये कहते हैं बुद्ध को कुछ भ्रम हुआ होगा।
इसलिए तो जीसस को सूली लग जाती है। सुकरात को जहर पिला देते हैं। बुद्ध और महावीर को पत्थर मारे जाते हैं। यह अकारण नहीं है, इसके पीछे बड़ा गहरा कारण है। कारण यह है कि अगर तुम सही हो, तो हम गलत हैं। और यह बात मानना कि हम गलत हैं...और हम ज्यादा हैं, तुम अकेले हो। तुम कभी-कभी होते हो। तुम अपवाद-रूप हो, हम नियम हैं।
इसलिए मनोवैज्ञानिक तो पागलों को, बुद्धों को, एक ही गणना में गिनते हैं। दोनों को एबनार्मल कहते हैं। दोनों सामान्य नहीं हैं, कुछ गड़बड़ हैं। पागल को भी एबनार्मल कहते हैं, बुद्ध को भी, महावीर को भी, कृष्ण को भी। सामान्य नहीं हैं। कुछ चूके, इधर-उधर हैं। नियम नहीं हैं, अपवाद हैं।
अगर मनोवैज्ञानिकों का बस चले तो वे बुद्धों को भी चिकित्सा करके ठीक कर देना चाहेंगे। ऐसा हो रहा है। पश्चिम के पागलखानों में ऐसे कुछ लोग आज बंद हैं, जो अतीत के दिनों में बुद्ध हो गए होते। जिनको बड़ा सम्मान मिलता; कबीर और दादू और नानक हो गए होते, वे आज पागलखानों में बंद हैं। वह तो बुद्ध-महावीर ने बड़ा अच्छा किया, जल्दी निकल गए। आज बड़ी कठिनाई में पड़ते। सुगमता से निकल गए।
पश्चिम में तो अभी भी किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें सिद्ध किया जाता है कि जीसस का दिमाग खराब था--न्यूरोटिक। और अगर तुम मनोवैज्ञानिक की बात पढ़ो तो बात समझ में तुम्हें भी आएगी। क्योंकि यह आदमी आकाश की तरफ देखता है और कहता है, हे पिता!--कौन पिता? इससे पूछो कि कौन पिता? कहां है? तो यह आकाश की तरफ हाथ बताता है। किसी को नहीं दिखाई पड़ते। तुम सब सिर उठाओ, किसी को कोई पिता नहीं दिखाई पड़ते।
तो इस एक आदमी की आंख पर भरोसा करें? हम सबकी आंखों पर संदेह करें? और अगर हम यह मान लें कि यह ठीक है तो हम गलत हैं। तो फिर हम ठीक होने के लिए क्या करें? क्या उपाय करें? उससे बड़ी बेचैनी पैदा होगी। उससे बड़ी घबड़ाहट पैदा होगी।
अगर बुद्ध मापदंड हैं, महावीर मापदंड हैं तो हम एबनार्मल हैं। तो हम ठीक-ठीक मापदंड पर, कसौटी पर नहीं उतर रहे हैं। तो हमारे जीवन में वैसे ही तो चिंता बहुत है, और चिंता बढ़ जाएगी। और इतने लोगों को कैसे स्वस्थ करियेगा?
इससे ज्यादा सुगम और सीधी बात मालूम यह पड़ती है कि यह एक आदमी कुछ विकृत हो गया है। यह कुछ असामान्य है। अगर लोग भले होते हैं तो इसे स्वीकार कर लेते हैं कि ठीक है, तुम भी रहो, कोई हर्जा नहीं। अगर लोग और भी भले हुए तो कहते हैं, तुम अवतार हो, तीर्थंकर हो; हम तुम्हारी पूजा करेंगे, मगर गड़बड़ मत करो। हम माने लेते हैं कि तुम भगवान हो। सदा-सदा तुम्हारी याद रखेंगे, लेकिन दखलंदाजी नहीं। तुम बैठो मंदिर की इस वेदी पर। हम पूजा कर जाएंगे, पाठ कर जाएंगे, लेकिन बाजार में मत आओ। हमारे जीवन को नाहक अस्त-व्यस्त मत करो। हम साधारणजन हैं, तुम अवतारी पुरुष हो। कहां तुम, कहां हम! हम तो हमीं जैसे होंगे। तुम्हारे जैसा कभी कोई हुआ है? तुम तो एक ईश्वर का अवतरण हो इस पृथ्वी पर। हम साधारण मनुष्यों को साधारणता से जीने दो।
अगर लोग भले होते हैं तो ऐसा करते हैं। अगर लोग जरा और तेजत्तर्रार होते हैं तो वे कहते हैं, बंद करो बकवास! तुम्हारा दिमाग खराब है। सूली पर लटका देंगे, जहर पिला देंगे। तुम पागल हो।
लेकिन बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति की मौजूदगी से बेचैनी पैदा होती है। और वह बेचैनी यह है कि दो में से एक ही ठीक हो सकता है। या तो हमारी दृष्टि ठीक है या इनका दर्शन ठीक है। और यह स्वाभाविक मालूम पड़ता है कि हमारी दृष्टि ठीक हो, क्योंकि हमारी भीड़ है। हम सदियों में भरे पड़े हैं। बुद्ध-महावीर कभी-कभी पुच्छल तारे की तरह निकल जाते हैं--आए, गए! लेकिन रात के जो स्थायी तारे हैं उनका भरोसा करो। ये बुद्ध-महावीर तो ऐसे हैं कि बिजली चमक गई। अब बिजली चमकने में बैठकर किताब पढ़ सकते हो? कि दुकान का हिसाब लगा सकते हो? कि खाता-बही लिख सकते हो? किस काम के हैं? काम तो दीये से ही चलाना पड़ता है। बिजली चमकती होगी, होगी बहुत बड़ी; और बड़ी महिमाशाली होगी, लेकिन इसका उपयोग क्या है?
तो जब तुम्हारे जीवन में कभी पहली झलकें आनी शुरू होंगी तो बड़ा खतरा पैदा होता है। खतरा यह कि तुम्हारा अतीत भी कहता है भूल मत जाना, कल्पना में मत पड़ जाना। और भी लोग कहते हैं--"कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली।' तुम्हारा अतीत भी कहेगा कहां जा रहे हो? क्या कर रहे हो? सम्हलो! सम्हालो!
"मैंने कहा पिया के गांव चली रे'
इसे सतत स्मरण रखना। इसे महामंत्र बना लेना। कसौटी क्या है पिया के गांव की? कसौटी सिर्फ एक है कि तुम्हारा आनंद भाव बढ़ता जाए, तुम्हारी मगनता बढ़ती जाए, तुम्हारी एकता बढ़ती जाए, तुम्हारा मन और तुम्हारा हृदय दो न रह जाएं एक हो जाएं; तुम्हारा विचार और तुम्हारा भाव इकट्ठा हो जाए, तुम्हारे भीतर निर्द्वंद्वता बढ़ती जाए।
है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं
वह दिन गए कि अपना दिल जिगर से जुदा था
प्रेम का एक तीर, जिसमें हृदय और मन दोनों जुड़ गए हैं। एक ही तीर दोनों को छेद गया है।
है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं
वह दिन गए कि अपना दिल जिगर से जुदा था
अगर तुम्हें ऐसा अनुभव होता हो कि यह पिया के गांव के करीब आने से तुम्हारे भीतर के खंड एक दूसरे में गिरकर अखंड बन रहे हैं, टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ व्यक्तित्व अखंड बन रहा है, तो तुम फिक्र मत करना। सारी दुनिया एक तरफ हो तो भी चिंता मत करना।
और इस अखंडता से ही आनंद का रस बहता है। जितने तुम खंडित, उतने दुखी। जितने तुम अखंड, उतनी ही रसधार बहती है। उस आनंद का भरोसा करना। और आनंद बढ़ता जाए, तो सारी दुनिया कहे तुम पागल हो तो स्वीकार कर लेना कि हम पागल हैं। लेकिन हम आनंदित हैं। तुम दुनिया का दुख, चिंता, और परेशानी मत चुनना क्योंकि दुनिया कहती है कि वास्तविकता कुछ और है। तुम आनंद को ही वास्तविकता समझना।
सच्चिदानंद की परिभाषा भूले नहीं। वेदांत ने खूब शास्त्र लिखे सच्चिदानंद पर, मगर किसी ने भी यह फिक्र नहीं की, कि सच्चिदानंद का मौलिक अर्थ क्या होगा! ये केवल भगवान के गुण नहीं हैं, यह साधक की कसौटी भी है। जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर सत बढ़े--सत का अर्थ होता है अखंड बनो। तुम्हारी बीइंग तुम्हारी आत्मा बने। जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर चित बढ़े, तुम्हारा चैतन्य बढ़े, बेहोशी घटे, और जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर आनंद बढ़े...।
ये परमात्मा के ही गुण नहीं हैं, ये साधक के रास्ते के लिए मापदंड हैं, कसौटी हैं। जैसे सुनार सोने को कसने के लिए एक पत्थर रखता है, उस पर कसता रहता है। कसकर देख लेता है, सोना है या नहीं। तुम सच्चिदानंद के पत्थर पर कसकर देखते रहना। कोई भी अनुभव हो! आनंद देता हो, चैतन्य बढ़ता हो, सत्य बढ़ता हो, तुम्हारे जीवन का अस्तित्व मजबूत होता हो, बल आता हो, आत्मा सघन होती हो, तुम ज्यादा केंद्रित होते हो, फिर फिक्र छोड़ देना।
उपनिषद के ऋषियों की बड़ी प्रसिद्ध प्रार्थना है:
"असतो मा सदगमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माअमृतं गमय।'
असत से सत का ओर। वह जो भ्रामक है, प्रतीति मात्र है, आभास मात्र है, उससे उसकी ओर--जो भ्रामक नहीं, प्रतीति नहीं, आभास मात्र नहीं। अंधकार से ज्योति की ओर। और मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो, हे प्रभु!
तो तुम्हारे भीतर जिससे भी ज्योति बढ़ती हो, अंधेरा कम होता हो; और जिससे भी मृत्यु का भय कम होता हो और अमृत की श्रद्धा बढ़ती हो, और जिससे भी तुम्हें लगता हो, जीवन का असत हट रहा है और सत बढ़ रहा है, फिर तुम चिंता मत करना। फिर तुम बिलकुल अकेले हो तो भी सही हो।
और खयाल रहे, दुनिया में सत्य भीड़ के पास नहीं होता, कभी-कभी अकेले व्यक्तियों के पास होता है--कभी-कभी! दुर्भाग्य है लेकिन ऐसा ही है। कभी-कभी कोई एकाध विलक्षण व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होता है। भीड़ तो भेड़-चाल चलती है। भीड़ तो लकीर की फकीर होती है। भीड़ तो दूसरे जहां जा रहे हैं वहीं चलती है।
मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद में नमाज पढ़ने गया था। जब वह नमाज पढ़ने बैठा तो उसका कुर्ता, पीछे से एक कोना उठा हुआ था, धोती में उलझा होगा--तो पीछे के आदमी ने कुर्ता खींचकर ठीक कर दिया। मुल्ला ने सोचा कि शायद कुर्ता खींचना इस मस्जिद का रिवाज है। तो उसने अपने सामनेवाले आदमी का कुर्ता खींचा। उस आदमी ने पूछा, क्यों जी! किसलिए कुर्ता खींचते हो? उसने कहा, मेरे पीछेवाले से पूछो। मुझे कुछ पता नहीं। मैं तो समझा कि यहां का रिवाज है।
तुम न मालूम कितने लोगों के कुर्ते खींच रहे हो! क्योंकि तुम्हारा कुर्ता खींच दिया गया है। तुम सोचते हो, यहां का रिवाज है। तुम सौ में से निन्यानबे काम ऐसे कर रहे हो जो कि तुम देखते हो दूसरे कर रहे हैं। किसी ने कहा, फलां फिल्म अच्छी चल रही है--चले! खींच दिया किसी ने कुर्ता। खड़े हैं क्यू में, खींच रहे हैं दूसरों का कुर्ता।
तुम अपनी बुद्धि से कभी जीयोगे? फैशन ऐसे बदलते रहते हैं। जीवन के ढंग ऐसे बदलते रहते हैं। बस चल पड़ती है एक बात। कोई चला दे! उसका सतत प्रचार करता रहे, चल पड़ती है। पकड़ा दे। इसीलिए तो विज्ञापन का इतना प्रभाव हो गया दुनिया में। पश्चिम के विकसित मुल्कों में जो चीज बाजार में दस साल बाद आएगी, दस साल पहले विज्ञापन शुरू हो जाता है। अभी वह चीज आयी भी नहीं बाजार में। आएगी भी कभी, यह भी पक्का नहीं। दस साल बाद का क्या पक्का है? लेकिन दस साल पहले बाजार में काम शुरू हो जाता है, विज्ञापन शुरू हो जाता है। क्योंकि पहले बाजार पैदा करना पड़ता है।
बाजार तुम कैसे पैदा करते हो? पुराने अर्थशास्त्री कहते थे कि जहां-जहां मांग होती है वहां-वहां पूर्ति होती है। जब लोगों की जरूरत होती है तो कोई न कोई पूर्ति करनेवाला पैदा हो जाता है। अब हालत बदल गई। अब तो पहले मांग पैदा करो। मांग हो या न हो इसकी फिक्र ही छोड़ो। अब तो ऐसा है, पूर्ति है तो मांग पैदा की जा सकती है।
अमरीका में आज से दस साल पहले तक वे कहते थे, जिस आदमी के पास कार नहीं, वह भी कोई आदमी है? अब सब आदमियों के पास कार हो गई। अब क्या करना? क्योंकि कार की फैक्ट्रियां चल रही हैं, उनको चलना ही है। तो अब हर आदमी के पास कम से कम दो कार होनी चाहिए। ऐसा तीन साल पहले तक वे कहते थे कि जिस आदमी के घर में दो कार को रखने का गैरेज नहीं है वह भी कोई आदमी है! वह भी बात बदल गई क्योंकि फैक्ट्रियों को तो चलना ही है। अब लोगों के पास दो-दो कारें भी हो गईं। अब वे कहते हैं चार कार का गैरेज होना चाहिए। नए साल के विज्ञापन कह रहे हैं कि चार कार का गैरेज होना चाहिए। चार कार नहीं हैं? तुम भी कोई आदमी हो? तीन हों तो बेचैनी मालूम होगी; चार होनी चाहिए।
हर आदमी के पास कम से कम दो मकान होने चाहिए--एक शहर में, एक जंगल में, या पहाड़ पर, या समुद्र के किनारे।
विज्ञापन जोर से करते रहो, लोगों के मन पकड़ लिए जाते हैं। लोगों के मन चलने लगते हैं। बस उनके दिमाग में दोहराते रहो कि ऐसा होना चाहिए। जितना दोहराओ, उतने ही असत्य सत्य मालूम होने लगते हैं। जिनको तुम सत्य मानते हो वे केवल दोहराए गए असत्य हैं।
जब उपनिषद के ऋषि कहते हैं, "असतो मा सदगमय', तो वे यह कह रहे हैं कि ये सत्य तो जो बाहर से सुनाई पड़ रहे हैं, बहुत सुन लिए। इनसे तो कुछ सत्य मिलता नहीं; अब तो हमें वास्तविक सत्य की तरफ ले चलो। ये तो दोहराए हुए झूठ हैं। काफी दिनों से दोहराए जा रहे हैं, लोगों को भरोसा आ गया है।
तुम जरा अपने जीवन की व्यवस्था और शैली का विश्लेषण करना। क्यों ऐसे कपड़े पहने हुए हो? क्यों एक खास मार्के की सिगरेट पीते हो? क्यों एक खास ढंग से चलते-उठते-बैठते हो? विश्लेषण करोगे तो तुम पाओगे, तुम सिर्फ अनुकरण कर रहे हो। और जो अनुकरण कर रहा है, वह परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता। वह भीड़ में धक्के-मुक्के खूब खाता है।
इसी धक्कम-धुक्की को भारतीयों ने कहा है आवागमन। जन्मता खूब, मरता खूब, पहुंचता कहीं नहीं। धक्कम-धुक्के ही खाता रहता है। धीरे-धीरे धक्का-धुक्के की ऐसी आदत हो जाती है कि वह चैन से बैठ ही नहीं सकता अकेला, जब तक भीड़ में न पड़ जाए। जब भीड़ उसे पीसने लगती है सब तरफ से, तभी उसको लगता है जीवित है।
सत्य का मार्ग अकेले का मार्ग है। वह एकांत का मार्ग है। भीतर जाना है। जो भी चीज बाहर ले जाती है, वह तुम्हें अपने से दूर ले जाएगी। जो भी तुम्हारे मन में किसी वासना और तृष्णा को पैदा करती है, वह तुम्हें अपने घर से दूर ले जाएगी।
तो शुभ है कि ऐसा भाव जगे, कि न अब कुछ पाना है, न कुछ होना है, न कुछ जानना है। इसी गहन भाव में डूबो। डूबकर अपने ही भीतर जो सब पाने का पाना है, वह पा लिया जाता है। जो सब जानने का जानना है, वह जान लिया जाता है। जो सब होने का होना है वह हो लिया जाता है।
आ जाओ कि अब खल्वते-गम खल्वते-गम है
अब तो दिल के धड़कने की भी आवाज नहीं है
इन पंक्तियों का अर्थ है कि अब तो केवल दुख का एकाकीपन है, अकेलापन है। अब तो दिल भी नहीं धड़कता। अब आ जाओ!
यह निश्चित ही किसी पार्थिव प्रेम के लिए कही गई होंगी।
आ जाओ कि अब खल्वते-गम खल्वते-गम है
कि अब तो केवल उदासी और दुख का अकेलापन ही बचा है। अब तो इतना भी कोई साथ देने को नहीं है। अपना दिल भी नहीं धड़कता। वह भी साथी न रहा। ऐसा गहन अकेलापन हो गया है। अब दिल के धड़कने की भी आवाज नहीं है।
लेकिन जो परमात्मा की तरफ जा रहा है, जो पिया के घर की तरफ जा रहा है, उसका एकाकीपन खल्वते-गम नहीं है। उसका एकाकीपन बड़ा आनंदमग्न, अहोभाव से परिपूर्ण है। नाचता हुआ, खिला हुआ है, सुगंधित है।
भक्त भगवान को यह नहीं कहता कि मैं बड़ा उदास हूं, बड़ा दुखी हूं, आ जाओ। दुख में भी क्या बुलाना! भक्त कहता है, अब देखो कैसा नाच रहा! देखो कैसा गुनगुना रहा हूं! देखो कैसे फूल खिले हैं, अब तो आ जाओ! कैसा मस्त हूं! कैसा तुम्हें पीकर मगन हो रहा हूं! दूर से ही तुम्हें देख रहा हूं और मस्ती में डूबा जा रहा हूं। अब तो आ जाओ।
भक्त का एकाकीपन बड़ा आनंदमग्न है। वहां भी दिल के धड़कने की आवाज नहीं है। आनंद में डूब जाती है दिल के धड़कने की आवाज। सब आवाजें आनंद में डूब जाती हैं। प्रेम के सागर में सब डूब जाता है।
ध्यान रखना, परमात्मा को कभी दुख में मत बुलाना। दुख में तो सभी बुलाते हैं, इसीलिए तो आता नहीं। दुख भी कोई मौका है बुलाने का? दुख में सभी याद करते हैं, रोते हैं, बिसूरते हैं कि आ जाओ, इतना दुखी हो रहा हूं। लेकिन दुख कोई आने की घड़ी ही नहीं है। वसंत में बुलाना, सुख में बुलाना। और तुम पाओगे वह चला आ रहा है। जैसे तुम नाच रहे हो, वैसा ही नाचता वह भी चला आ रहा है।
सुख में ही मिलन होता है। तुम जितने सुखी हो जाओ उतना मिलन आसान हो जाएगा। परमात्मा भी दुखियों से बचता है, खयाल रखना। दुख दूरी है। कौन किसके दुख में साथ खड़ा होता है? लेकिन लोग दुख में ही उसे बुलाते हैं। दुख की आवाज उस तक नहीं पहुंचती। पहुंचनी भी नहीं चाहिए क्योंकि दुख की आवाज बेईमान है। तुम परमात्मा को थोड़े ही बुला रहे हो! तुम सुख को बुला रहे हो। तुम कहते हो इतना दुखी हूं। आ जा, तो थोड़ा सुखी हो जाऊं। तुम्हारी प्रतीक्षा सुख की है। जब तुम सुख में परमात्मा को बुलाते हो तो तुम परमात्मा को ही बुलाते हो, क्योंकि सुख तो आ ही गया है। जब कोई सुख में प्रार्थना करता है तो उसकी कोई मांग नहीं होती। उसकी प्रार्थना मांग-मुक्त होती है। क्योंकि मांगने को क्या है? जब दुख में प्रार्थना करते हो तो क्षुद्र मांगें उठती हैं।
भक्त तो कहता है--
तू जो कहे तो दिल भी दूं, जान भी दूं, जिगर भी दूं
गो मैं गदाए-इश्क हूं मुझको न बेनवां समझ
यद्यपि मैं प्रेम का भिखारी हूं, लेकिन मुझे कंगाल मत समझना! भक्त भगवान से कहता है: माना कि तेरे द्वार पर भीख मांगने के लिए खड़ा हूं लेकिन मुझे कंगाल मत समझना।
तू जो कहे तो दिल भी दूं, जान भी दूं, जिगर भी दूं
गो मैं गदाए-इश्क हूं
--प्रेम का भिखारी हूं।
मुझको न बेनवां समझ
--लेकिन मुझे कंगाल मत समझ; देने को आया हूं।
प्रेम की बड़ी अनूठी दुनिया है। वहां भक्त देने को गया है। वहां भक्त अपने को न्योछावर करने को गया है। लेकिन तुम अपने को दे तभी सकते हो, जब तुम हो। और तुम न्योछावर तभी कर सकते हो, जब तुम्हारे पास कुछ हो। तुम्हारे पास सुख के फूल हों तो ही तुम उसके चरणों में चढ़ा सकोगे। वृक्षों के फूलों को तोड़कर कब तक अपने को धोखा दोगे? ये फूल उसके चरणों में चढ़े ही हुए हैं। उनको वृक्ष से तोड़कर तुम उसके चरणों से छीन लेते हो। चढ़ाते नहीं, मार डालते हो। जिंदा थे, मार डाले। जीवंत थे, हवाओं में नाच रहे थे, तुमने तोड़कर नाच छीन लिया। अभी और खिलते, खिलना छीन लिया। तुमने परमात्मा के चरणों से हटा लिया और गए और किसी मंदिर की मुर्दा पत्थर की मूर्ति पर जाकर चढ़ा आए। खूब धोखा दे रहे हो! किसको धोखा दे रहे हो?
अपने आनंद के फूल जब चढ़ाओगे, तो ही उसके चरणों पर चढ़ते हैं। और तब किसी मंदिर में जाने की जरूरत नहीं। तुम जहां हो, उसके चरण तुम्हें खोजते हुए वहीं आ जाते हैं। तुम्हारे हाथ बस फूलों से भरे हों, उसके चरण तुम्हें खोजते हुए निश्चित ही आ जाते हैं।
दूसरा प्रश्न:
जैन दर्शन कहता है कि इस आरे में मोक्ष संभव नहीं है। बार-बार मेरी समकीत का वमन या उपशम होने का क्या यही कारण तो नहीं है? मोक्ष यहीं और अभी है इस धारणा को पकड़ लेना क्या एक आत्मवंचना नहीं है?
जैन दर्शन क्या कहता है इसका कोई मूल्य नहीं है। जिन क्या कहते हैं इसका मूल्य है। जैन दर्शन तो पंडितों ने निर्मित किया। पंडित तो बड़ी तरकीबें खोजता है। एक तरकीब सदा से पंडित की रही। वह सदा यह कहता है कि जो अतीत में संभव था, वह अब संभव नहीं है।
मुसलमान कहते हैं--मुसलमान पंडित--कि पैगंबर अब नहीं होंगे। जो मोहम्मद के लिए संभव था, वह अब किसी और के लिए संभव नहीं है।
अगर ऐसा ही है तो परमात्मा बड़ा कृपण मालूम होता है, बड़ा कंजूस मालूम होता है। एक मोहम्मद को पैदा करके चुक गया? बहुत बांझ मालूम होता है। और अन्यायी भी मालूम होता है। क्योंकि किसी काल में पैदा किया और अब नहीं करता। यह बात व्यर्थ मालूम होती है। इसके पीछे कारण कुछ और है।
मुसलमान पंडित नहीं चाहता कि अब किसी और को मोहम्मद स्वीकार करे, किसी और को पैगंबर स्वीकार करे। क्योंकि एक ही पैगंबर काफी अस्त-व्यस्त कर गया। उसी को सम्हाल-सम्हालकर व्यवस्थित करने में इतना समय लग गया, तब तो उस पर कब्जा कर पाए। तब तो उसको बांधकर, जंजीरों में डालकर मस्जिद में कैद कर पाए। कुरान की पोथी में बंद कर पाए बामुश्किल। अब फिर कोई निकल आए, फिर सब गड़बड़ हो जाए। पंडित बड़ी मुश्किल से व्यवस्था जुटा पाता है।
ईसाई कहते हैं कि जीसस अकेले बेटे हैं परमात्मा के। कोई दूसरा बेटा नहीं--इकलौते बेटे! और बाकी ये सब लोग क्या हैं? यह सारा अस्तित्व फिर क्या है, अगर जीसस अकेले बेटे हैं? यह सारा अस्तित्व उसी से पैदा हुआ है। वह बाप सिर्फ जीसस का नहीं हो सकता, सभी का है। समानरूपेण सभी का है।
और जीसस निरंतर दोहराते रहे कि जो मेरा पिता है वह तुम्हारा भी पिता है। लेकिन ईसाई पंडित दोहरता है कि नहीं, इकलौते बेटे। क्यों? क्योंकि बामुश्किल वह इंतजाम जमा पाया दो हजार साल में। दो हजार साल में जीसस को मिटाने में वह सफल हो पाया। लीप-पोत डाला उसने सब। जो भी क्रांति की संभावना थी, सब समाप्त कर दी। दो हजार साल लग गए इस एक आदमी के अंगार को बुझाने में या राख से ढांकने में। अब फिर कोई अंगार हो जाए, फिर कोई उदघोषणा कर दे, फिर झंझट पैदा हो। यहूदियों ने इसीलिए जीसस को मारा कि इस आदमी ने उपद्रव खड़ा कर दिया।
जाग्रत पुरुष विद्रोही होगा ही। जाग्रत पुरुष ऐसी बातें कहेगा ही, जो अंधों के समाज को बेचैन करेंगी। जाग्रत पुरुष इस तरह की जीवन दिशा देगा ही, जिससे भीड़-भड़क्का में चलनेवाले लोग बड़ी दुविधा में पड़ेंगे, अब क्या करें!
क्योंकि जाग्रत पुरुष विकल्प देता है। और जाग्रत पुरुष एक वैकल्पिक समाज भी देता है। वह कहता है, यही एकमात्र मार्ग नहीं है, जिस पर तुम चल रहे हो। यह तो कोई मार्ग ही नहीं है। और जाग्रत पुरुष का बल, उसकी चुंबकीय शक्ति सब चीजों को अस्त-व्यस्त कर जाती है। जहां-जहां तुमने घरगूले बना रखे थे, वह सब गिरा देता है। जहां-जहां तुमने तरकीबें निकाल रखी थीं, उन सब तरकीबों के प्राण खींच लेता है। जहां-जहां तुमने धोखे बना रखे थे, उन सब धोखों को उघाड़कर नग्न कर देता है। वह तुम्हारी सारी आत्मवंचना तोड़ देता है।
तो ईसाई ठीक ही कहते हैं कि आखिरी...! बस अब बहुत हो गया। अब और दुबारा नहीं। जैन कहते हैं, महावीर चौबीसवें तीर्थंकर--बस खतम! अब आगे नहीं।
यह रोक लेने की प्रवृत्ति करीब-करीब दुनिया के सभी धर्मों में है। लेकिन समय से मोक्ष का क्या संबंध? इतना मैं मानता हूं कि कुछ समय होते हैं, तब मोक्ष थोड़ा आसान; और कुछ समय होते हैं, तब थोड़ा कठिन। लेकिन असंभव कभी भी नहीं। कुछ समय निश्चित होते हैं, जब मोक्ष थोड़ा आसान है।
हर चीज के लिए यह सही है। वर्षा में वृक्षों का बढ़ना आसान है। गर्मी में थोड़ा कठिन हो जाता है, लेकिन असंभव नहीं। अगर पानी सींचने की व्यवस्था की तो गर्मी में भी बढ़ेंगे। ऐसे ही बढ़ेंगे। कोई बाधा नहीं है।
मनुष्य की जीवनऱ्यात्रा में भी ऐसे बहुत-से पल आते हैं, जब मोक्ष आसान हो जाता है। खासकर उन क्षणों में, जब बुद्ध या महावीर जैसा व्यक्ति मोक्ष को उपलब्ध होता है, तो वह द्वार खोलकर खड़ा हो जाता है। उस वक्त जिनकी थोड़ी भी हिम्मत होती है, साहस होता है, वे मोक्ष की यात्रा पर गतिमान हो जाते हैं। अगर महावीर जैसे व्यक्ति की मौजूदगी में भी तुम्हारे भीतर साहस पैदा नहीं होता तो जब महावीर जैसा व्यक्ति तुम्हें न मिलेगा, तब तुममें साहस पैदा होगा इसकी आशा करना कठिन है। तब तुम धारे के साथ बह सकते हो। महावीर एक लहर की तरह हैं। हवा जा रही है दूसरे किनारे की तरफ, तुम नाव में पाल बांध दो और छोड़ दो; पतवार भी नहीं चलानी पड़ती।
तो अनुकूल समय होते हैं, प्रतिकूल समय होते हैं, यह बात सच है। अनुकूल देश होते हैं, प्रतिकूल देश होते हैं। अनुकूल उम्र होती है, प्रतिकूल उम्र होती है। सुअवसर होते हैं, जिनका कोई उपयोग कर ले तो जल्दी घटना घट जाए। कठिन अवसर होते हैं। लेकिन असंभव है इस आरे में किसी व्यक्ति का मोक्ष पाना, यह बात फिजूल है। क्योंकि परमात्मा के लिए सब समय समान हैं। और तुम जानकर चकित होओगे, यह धारणा सभी कालों में रही है। जीसस को यहूदियों ने कहा कि तुम पा नहीं लिए हो। महावीर को सभी ने थोड़े ही तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। बहुत थोड़े-से लोगों ने स्वीकार किया था। अधिक ने तो यही कहा कि सब बकवास है। बुद्ध को सभी ने थोड़े ही स्वीकार किया था। अधिक तो हंसे और अधिक ने कहा कि सब बातचीत है, सब कल्पना का जाल है, कविता है।
इस समय में भी घटना घट सकती है। इस समय में भी मोक्ष को उपलब्ध व्यक्ति हैं। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि मोक्ष को उपलब्ध व्यक्ति न हों। कभी कम, कभी ज्यादा, यह बात सच है। कभी हजारों की संख्या में भी एक साथ, कभी उंगलियों पर गिने जा सकें।
आज उंगलियों पर गिने जा सकें इतने ही व्यक्ति मोक्ष को उपलब्ध हैं। लेकिन मार्ग रुका नहीं। संकरा भला हो, चलने में थोड़ा दुर्गम भी हो।
लेकिन जिसने पूछा है, उसके पूछने का क्या कारण होगा? पूछा है: "जैन दर्शन कहता है इस आरे में मोक्ष संभव नहीं है।'
अगर मोक्ष भी समय पर निर्भर हो तो क्या खाक मोक्ष रहा! मोक्ष का मतलब है स्वतंत्रता। अगर स्वतंत्रता भी शर्तबंद हो कि कभी हो सकती है और कभी नहीं हो सकती तो मोक्ष भी बंधन ही हो गया। मोक्ष का तो अर्थ ही इतना है कि जब भी जो पाना चाहे, उसे मिलेगा। पाना चाहनेवाला होना चाहिए। पाने की अदम्य चाह होनी चाहिए।
"बार-बार मेरी समकीत का उपशम या वमन होने का क्या यही तो कारण नहीं है?'
जरा भी नहीं। जिसने पूछा है वह कह रहा है कि मेरा ध्यान बार-बार चूक जाता है, मेरी समाधि बार-बार छूट जाती है, इसका कारण यही तो नहीं? तो तरकीब खोज रहे हो तुम, कि आरे में तरकीब मिल जाए, समय में तरकीब मिल जाए। यह पंचम काल, कलियुग, इसमें कहीं मोक्ष हुआ है? तो तुमको राहत मिल गई। तुमने कहा, तो फिर हमारी कोई गलती नहीं है। हम तो ध्यान ठीक ही साध रहे थे। अब समय ही प्रतिकूल है तो हम क्या कर सकते हैं?
नहीं, इस तरह अपना दायित्व समय पर मत छोड़ो। क्योंकि अगर समय पर तुमने दायित्व छोड़ दिया तो जो संभव था वह फिर निश्चित ही असंभव हो जाएगा। अगर समाधि चूक-चूक जाती है तो कहीं तुम्हारी भूल है। सीधी-सी बात को इतने जाल में क्यों ले जाना? अगर समाधि बार-बार चूक जाती है तो भूल खोजो। कहीं चूक कर रहे हो, उसे खोजो। कुछ रूपांतरण करो। मार्ग खोजो, अगर बीहड़ में खो गए हो।
लेकिन जो आदमी जंगल में खो गया हो, वह कहने लगे, इस पंचम काल में कहीं मार्ग मिलता है? बैठ जाए। तो शायद मार्ग दो वृक्षों के पार ही हो, जरा-सी झाड़ी की ओट में पड़ा हो तो भी चूक जाएगा।
और इस तरह के खतरनाक तर्क स्वयंसिद्ध हो जाते हैं। जब वह बैठ जाएगा और चलेगा नहीं, मार्ग खोजेगा नहीं, कहेगा कि पंचम काल में कहीं हो सकता है? कलियुग में कोई मोक्ष को गया है? ये बातें होती थीं पहले, सतयुग में। अब कहां? यह तो अंधेरे का समय है। अब कहां? यह तो भटकने का, पाप का युग है। अब कहां?
ऐसा सोचकर बैठ गया तो फिर होगा नहीं। और जब होगा नहीं तो वह सोचेगा, निश्चित ही जो मैं सोचता था, जो मैंने सुना था कि इस आरे में मोक्ष नहीं होता, बिलकुल ठीक है। शत प्रतिशत ठीक है। जैसे-जैसे वह यह सोचता जाएगा, वैसे-वैसे मिलना असंभव होता जाएगा। यह तो दुष्टचक्र हो जाएगा।
नहीं, मैं तुमसे कहता हूं ऐसा कोई काल नहीं है, ऐसा कोई समय नहीं है, जब मोक्ष संभव न हो। हां, ऐसा हो सकता है कभी कठिन, कभी सरल। कठिन और सरल भी मोक्ष के कारण नहीं, लोगों की मनोदशाओं के कारण।
कोई युग होता है, बड़ा आत्यंतिक रूप से भौतिकवादी होता है। लोग मानते ही नहीं कि जीवन के बाद कोई जीवन है। लोग मानते ही नहीं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु है। लोग मानते ही नहीं कि परमात्मा है। तो स्वभावतः कठिन हो जाता है।
जब लोग मानते हैं और श्रद्धा का वातावरण होता है कि आत्मा है, परमात्मा है और खोजना है...। तुम्हारे घर में अगर तुम मान ही लो कि खजाना नहीं है तो खोज बंद हो जाती है। मिलने की संभावना कम हो जाती है। खजाना अपने आप ही निकल आए तो बात अलग; अन्यथा मिलेगा कैसे? कभी भूल-चूक से गिर पड़ो खजाने पर, बात अलग, अन्यथा मिलेगा कैसे? लेकिन जो मानता है कि खजाना है, वह खोजता है। मान्यता से खोज निकल आती है। खोज से संभावना सुगम हो जाती है।
मैं तुमसे कहता हूं, मोक्ष संभव है। क्योंकि मोक्ष तुम्हारी आत्यंतिक दशा है। इसका समय से कुछ लेना-देना नहीं। मोक्ष तुम्हारा ही स्वभाव है, इसे उघाड़ने की जरूरत है। मोक्ष तुम लेकर ही आए हो। थोड़े पर्दे पड़े हैं। पर्दे हटाने हैं।
तो इस तरह की झूठी बातों में मत पड़ना। हालांकि इस तरह की झूठी बातें पकड़ने का बड़ा रस है मन को। क्योंकि तब झंझट मिटी, श्रम मिटा, साधना गई। अब कोई जरूरत न रही। अब तुम जो करना है करो। इस आरे में मोक्ष होता नहीं।
तुम्हारी समाधि अगर चूक रही है तो तुम्हारी समाधि में भूल है। अगर दो और दो पांच हो रहे हैं तो फिर से गणित करो। या दो और दो तीन ही रह जाते हैं, फिर से जोड़ो। यह कहकर मत बैठ जाओ कि होगा नहीं।
तो जिनने भी तुम्हें ऐसा समझाया है कि होगा नहीं, वे धर्म के दुश्मन हैं। क्योंकि धर्म की इससे बड़ी दुश्मनी क्या होगी कि कोई समझा दे कि अब मोक्ष असंभव है? वह तो तुम्हें हताश कर देगा। वह तो तुम्हारे भीतर से आशा का सारा दीया बुझा देगा। वह तो तुमसे सारी किरण छीन लेगा, उत्साह छीन लेगा।
पूछा है: "मोक्ष यहीं और अभी, इस धारणा को पकड़ लेना क्या एक आत्मवंचना नहीं है?'
आत्मवंचना इस धारणा को पकड़ना है कि मोक्ष अभी नहीं हो सकता। अभी और यहीं हो सकता है, इससे तो कोई हानि होनेवाली नहीं है। नहीं हुआ तो नहीं हुआ। हो गया तो द्वार खुले स्वर्ग के।
अगर खजाना घर में दबा पड़ा है, मैं कहता हूं, खोजो। अगर नहीं मिला तो भी क्या खोया? खोजने में थोड़े हाथ-पैर मजबूत ही हो जाएंगे, और कुछ भी न होगा। अगर मिल गया तो मिला। लेकिन तुम अगर बैठे रहे और न खोजा तो पड़ा भी रहे खजाना, तो भी नहीं मिलेगा।
मैं तुमसे कहता हूं: जीवन को सदा विधायक दृष्टि से देखो, नकारात्मक दृष्टि से नहीं। खोजकर देखो। मुझे खोजकर मिला है, इसीलिए तुम्हें भी मिल सकता है। मैं तुम्हारा समसामयिक हूं। तुम्हारे सामने बैठा हूं। उसी समय में, उसी जगह में, जहां तुम हो।
जो पंडित तुमसे कह रहे हैं कि इस आरे में संभव नहीं है, उनसे पूछो, क्या तुमने पूरी कोशिश कर ली? क्या तुमने आखिरी कोशिश कर ली? तो तुम अकसर पाओगे उन्होंने कोशिश की ही नहीं; क्योंकि दूसरे पंडितों ने उनको समझाया है कि इस आरे में संभव ही नहीं है।
यह तो बड़ा उपद्रव का जाल है। एक आदमी किनारे बैठा है और कहता है, यह नदी अथाह है। इसमें कोई थाह ले ही नहीं सकता। उससे तुम पूछोगे, तुमने ली?
तुमने कोशिश की? कम से कम तुम डुबकी लगाए? वह कहता है, डुबकी लगाने से सार क्या है? हमसे पहले कोई बैठा था, वह कह गया यह अथाह है। उससे पूछा था कि डुबकी लगाई थी? उसके गुरु उसको बता गए थे कि डुबकी व्यर्थ है।
मैं तुमसे कहता हूं, वही आदमी हकदार है कहने का जिसने डुबकी लगाई हो। और बड़े मजे की बात यह है, जिसने भी डुबकी लगाई, उसने पा ही लिया। किनारे पर बैठनेवाले लोग पाने के श्रम से बचना चाहते हैं, लेकिन यह भी नहीं मानना चाहते कि हम काहिल हैं, सुस्त हैं, अलाल हैं, तामसी हैं। समय पर दोष टाल देते हैं। समय ही खराब है। इस समय में इस नदी की थाह नहीं मिल सकती। नदी की थाह है तो कभी भी मिल सकती है। डुबकी लगानेवाला चाहिए।
मैं तुमसे कहता हूं, मिल सकता है; क्योंकि मिला है। अगर चूक होती हो तो अपनी चूक सुधारो।
मैं तो तुमसे कहता हूं, ईश्वर अगर न भी हो तो भी फिक्र मत करो। खोजो। होना जरूरी नहीं है खोज के लिए, है ऐसी आस्था भर जरूरी है। खोजो। अगर नहीं होगा तो पता चल जाएगा, नहीं है। लेकिन उस पता चलने में भी तुम्हारे जीवन में बड़ा आविर्भाव हो जाएगा चैतन्य का।
खुदा न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए
क्या फिक्र करनी कि ईश्वर नहीं है। न सही। चलो, आदमी का सपना सही।
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
कोई सुंदर सपना तो सही! उस सुंदर सपने के सहारे तुम सुंदर हो जाओगे--चाहे सपना हो या न हो। उस सुंदर सपने को देखते-देखते तुम सुंदर हो जाओगे--चाहे कोई खुदा हो न हो।
फूलों की तलाश करनेवाला फूलों जैसा हो जाता है। क्योंकि हम जो खोजते हैं वैसे हो जाते हैं। सुगंध का खोजी सुगंध से भर जाता है। सत्य का खोजी, सत्य हो या न हो, सत्य हो जाता है। हम जो खोजते हैं वही हो जाते हैं।
तुम कभी गौर से देखो। धन खोजनेवाले आदमी को तुम गौर से देखो। उसकी शक्ल पर वैसी ही भावदशा बन जाती है जैसी रुपयों पर होती है--वैसी ही घिसी-पिटी, चली-चलाई, हजार हाथ में गुजरी, घिनौनी। कंजूस आदमी के चेहरे को देखो। वैसा ही चेहरा लगने लगता है। जैसा घिसा-पिसा रुपया। कई हाथों से चल-चलकर चिकना हो गया। तेल-सा बहता मालूम होता है चेहरे से।
कामी आदमी को देखो। तो उसकी आंखों में एक कामना का ज्वर, एक बुखार, एक उत्ताप।
परमात्मा के खोजी को देखो, परमात्मा है या नहीं छोड़ो। क्योंकि बिना खोजे पता भी कैसे चलेगा कि है या नहीं--छोड़ो। लेकिन परमात्मा के खोजी को देखो। परमात्मा न हो, परमात्मा के खोजी तो हैं; उनको देखो। परमात्मा हो या न हो, वे धीरे-धीरे परमात्म-रूप हो जाते हैं।
खुदा न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए
और कल पर मत टालो क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं। जो करना है आज कर लो। जो करना है अभी कर लो। क्योंकि अभी के तुम मालिक हो। कल के तुम मालिक नहीं। यही समय तुम्हें मिला है। बंधन चाहो तो हो सकता है। मोक्ष चाहो तो हो सकता है।
अब यह बड़े मजे की बात है। बंधन तो पहले भी होता था, बंधन अब भी होता है। मोक्ष पहले ही होता था, मोक्ष अब नहीं होता। यह तर्क जरा जंचता नहीं। बीमारी पहले भी होती थी, स्वास्थ्य पहले भी होता था, बीमारी अब भी होती है, स्वास्थ्य अब नहीं होता। जो आदमी बीमार हो सकता है, वह स्वस्थ क्यों नहीं हो सकता? और जिस आदमी के हाथ में जंजीरें पड़ सकती हैं, वह जंजीरें क्यों नहीं तोड़ सकता?
जब कारागृह के भीतर आने का उपाय है तो जिस दरवाजे से भीतर आया जाता है, उसी से तो बाहर भी जाया जाता है। जब कारागृह के भीतर आ गए तो एक बात पक्की है कि बाहर भी जाया जा सकता है। मगर वे ही लोग जा पाएंगे, जो आज का उपयोग कर लेंगे।
घूंघट में शर्मानेवाली यह निशिगंधा
संभव है कल बोले भी तो स्वीकार न हो
यह भी मुमकिन है, कल रूठने-मनाने को
यह रात न हो, यह बात न हो, यह प्यार न हो
हरेक भक्ति के साथ चल रही विरक्ति
हरेक राग का आंचल पकड़े है विराग
खिड़की पर ऐसे ही फिर न घटा अंगड़ाएगी
करना है तो तुम ब्याह सपन का अभी करो
यह समय दुबारा लौट नहीं आएगा
भरना है तो मांग मिलन की अभी भरो
जिसने गाया है, शायद सांसारिक प्रेम के लिए गाया है, लेकिन परमात्मा के प्रेम के लिए भी बात इतनी ही सही है।
करना है तो तुम ब्याह सपन का अभी करो
यह समय दुबारा लौट नहीं आएगा
भरना है तो मांग मिलन की अभी भरो
अभी के अतिरिक्त कोई और "कभी' है भी नहीं। कभी पर टाला तो सदा के लिए टाला। कहा "कल', तो फिर कभी संभव न हो सकेगा। यही समय है तुम्हारे पास। पंचम काल कहो, कलियुग कहो, भ्रष्ट, पतित, पापी--मगर यही समय है तुम्हारे पास। इससे अन्यथा तुम्हारे पास कोई काल है नहीं।
कीचड़ में ही पड़े हो माना; लेकिन कमल कीचड़ में ही पैदा होते हैं। कीचड़ को दोष मत देते रहो, कमल होने की चेष्टा करो। और ध्यान रखो, महावीर के समय में सभी महावीर न थे। सभी कीचड़ कमल नहीं हो गए थे। और आज भी सभी कीचड़ कीचड़ नहीं हैं। आज भी कीचड़ में कोई कमल खिला है। लेकिन अगर तुमने एक बार यह मान लिया कि आज हो ही नहीं सकता तो महावीर भी तुम्हारे सामने खड़े हो जाएं, तुम कहोगे किसी ने स्वांग भरा है। महावीर हो ही नहीं सकते।
मगर यह तुम्हारी दृष्टि महावीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती, तुम्हीं को नुकसान पहुंचाती है। अगर महावीर नहीं हो सकते तो फिर तुम गए। फिर तुम्हारा कोई भविष्य नहीं। फिर तुम किसलिए हो? फिर तुम्हारा कोई अभिप्राय नहीं। जिस जगत में मुक्ति संभव न हो, जिस समय में मुक्ति संभव न हो, उस समय में मरने के अतिरिक्त फिर और क्या होगा?
जीवन है तो दो ही संभावनाएं हैं: मौत या मोक्ष। अगर मोक्ष हो ही नहीं सकता तो फिर जीवन का एक ही अर्थ रह गया--मरना, मृत्यु। तो उठे रोज, खाए-पीए रोज, सोए रोज--सारी तैयारी की, बस मरने के लिए? अंततः मरे! तो सार क्या है? दो दिन पहले मरे तो हर्ज क्या? दो साल पहले मरे तो हर्ज क्या? और पैदा ही न होते तो क्या हर्ज था? या पैदा होते मर गए तो क्या रोना! अगर मौत ही होनी है, कुछ और हो ही नहीं सकता, तो फिर जीवन का कोई अर्थ नहीं है। मोक्ष हो सकता है इसीलिए अर्थ है।
मस्ती में गाते हुए मर्द
धूप में बैठे बालों में कंघी करती हुई नारियां
तितलियों के पीछे दौड़ते हुए बच्चे
फुलवारियों में फूल चुनती हुई सुकुमारियां
ये सब के सब ईश्वर हैं
क्योंकि जैसे ईसा और राम आए थे,
ये भी उसी प्रकार आए हैं
और ईश्वर की कुछ थोड़ी विभूति
अपने साथ लाए हैं
तो उपदेशको! आओ हम ईमानदार बनें
और मानवता को डराएं नहीं, बल्कि यह कहें
कि जिस सरोवर का जल पीकर तुम पछताते हो।
उस तालाब का पानी हमने भी पीया है
और जैसे तुम हंसऱ्हंसकर रोते और रो-रोकर हंसते हो
इसी तरह हंसी और रुदन से भरा जीवन हमने भी जीया है
गनीमत है कि हर पापी का भविष्य है
जैसे हर संत का अतीत होता है
आदमी घबड़ाकर व्यर्थ रोता है
मैं दानव से छोटा नहीं, न वामन से बड़ा हूं
सभी मनुष्य एक ही मनुष्य हैं
सबके साथ मैं आलिंगन में खड़ा हूं
वह जो हारकर बैठ गया उसके भीतर मेरी ही हार है
वह जो जीतकर आ रहा है
उसकी जय में मेरी ही जय-जयकार है
महावीर तुम्हारी ही जीत हैं। राम तुम्हारी ही विजयऱ्यात्रा हैं। रावण तुम्हारी ही हार है। जीसस तुम्हारी ही बजती हुई वीणा, जुदास तुम्हारा ही टूटा हुआ तार है।
दोनों तुम्हारी संभावना हैं--राम और रावण। और तुम पर निर्भर है। एक बात खयाल रखना--अत्यंत महत्वपूर्ण--कि राम बनो तो चेष्टा करनी पड़ेगी, रावण बिना चेष्टा के बन सकते हो। रावण बनने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। रावण बिना मेहनत के आदमी बन जाता है। जो कुछ भी न बनेगा वह रावण बन जाएगा। रावण के भीतर राम सोया है। राम के भीतर रावण जाग गया है। बस इतना ही भेद है।
तुम अगर सोए हो तो मैं कहता हूं, जागना भी हो सकता है। समय, युग की व्यर्थ बातें मत उठाओ। अपनी भूलें स्वीकार करो। ऐसे बहाने मत खोजो। यह आत्मवंचना है। ये बड़ी तर्कयुक्त तरकीबें हैं अहंकार को बचा लेने की, सुरक्षा की। सीधा-सीधा देखो। जहां गलती मालूम पड़ती हो उसे सुधारो। जहां नीचे का खिंचाव मालूम पड़ता है उसे तोड़ो। जहां ऊपर उठने में कठिनाई मालूम पड़ती है उसका अभ्यास करो।
धीरे-धीरे इंच-इंच चलकर मोक्ष निर्मित होता है।
बूंद-बूंद गिरकर सागर भरता है।
आज इतना ही।
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