शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-सोलहवां
आचार्य जी, टुडे आई शैल प्रिपेयर टु इनवाइट योर व्यूज ऑन दि इश्यु ऑफ वेनिटी एण्ड फियर। टु मी सर, दिस इस्यू आलसो अपियर्स टु बी वैल्युएबल टु बी अनालाइज्ड। ए.ज आई हैव बीन गिवन अंडरस्टेंडिंग, सर, इम्मैच्योरिटी बिंरग्स वेनिटी, वेनिटी बिंरग्स प्राइड, प्राइड बिंरग्स...
...एण्ड गिव डिफरेंट फ्राॅम देयर टाइम, स्पेस एण्ड कांशस एण्ड प्रोवाइडिंग डेफिनिशंस अकार्डिंग टु देयर फील्ड ऑफ एक्टिविटीज। सर ए.ज आई अंडरस्टैंड, देयर हैव बीन सब्जेक्टिव ए.ज वैल ए.ज ऑब्जेक्टिव एप्रोचस। सर, इंस्पाइट ऑफ दैट देयर हैव बीन टू स्कूल्.ज ऑफ थॉटस्। दि वन व्हिच मेंटेन, देयर इ.ज ए क्रिएटिविटी एण्ड इनर एथीक्स, मिन्स ए साइड ऑफ रिनंसिएशन फ्री फॉम दि पेयर ऑफ अपोजिट्स एण्ड ए.ज ए स्टेट ऑफ स्पांटेनियस ट्रांसफार्मेशन एण्ड लव ब्यूटी एण्ड ट्रूथ। दि अदर व्यूव वा.ज इन फेवर ऑफ चेरिटेबल एटिट्यूड्स ए.ज वैल ए.ज लिमिटेड पजेशंस। बट ए.ज आइ अंडरस्टेंड सर, ड्यूरेशन ऑफ टाइम फेक्टर हैज ब्राट इनवर्ड पॉवर्टी एण्ड परवर्टनेस ए.ज वैल ए.ज आउटवर्ड कल्ट एण्ड कंट्रोवर्सी.ज। वुड आइ बी फेवर्ड विद योअर व्यूज ऑन दिस आस्पेक्ट ऑफ लाइफ?
सरलता को समझना सरल नहीं है, कठिन है। सरलता तो बहुत सरल बात है, लेकिन समझना कठिन है। और कठिन इसलिए है कि हम कोई भी सरल नहीं हैं। हम बहुत कठिन हो गए हैं। हम सब इतने कठिन हो गए हैं कि सरलता को पाना सबसे ज्यादा कठिन बात मालूम होने लगी है। आदमी इतना जटिल और उलझा हुआ है कि उसे और जटिल, और उलझा होना तो सरल मालूम पड़ता है। उलझाव छोड़ देना और सरल हो जाना कठिन मालूम पड़ता है। लेकिन, सरल होने के आनंद की एक प्यास भी प्रत्येक के भीतर है। सरल हुए बिना कोई आनंदित भी नहीं हो सकता और सरल हुए बिना कोई सुंदर भी नहीं हो सकता। सरल हुए बिना स्वस्थ होना भी असंभव है।
जितनी चित्त पर जटिलता है, उतनी बीमारी है, उतना अस्वास्थ्य है। जितनी जटिलता है उतनी कुरूपता है, अग्लिनेस है और जितना चित्त जटिल हो जाता है, उतना ही सत्य को जानने में असमर्थ हो जाता है। जटिल चित्त प्रेम भी नहीं कर पाता है, क्योंकि जटिल चित्त अपने में इतना उलझा होता है कि दूसरे को देख भी नहीं पाता, प्रेम करना बहुत दूर की बात है। प्रेम करने के लिए इतना सरल चित्त चाहिए, इतना सरल कि मैं मिट ही जाऊं, मैं होऊं ही नहीं। मेरा होना भी एक जटिलता है। और जब चित्त इतना सरल होता है कि मैं भी नहीं रहता मौजूद, तो जैसे एक झील बिना लहर की शांत हो गई हो, ऐसी शांत झील में ही प्रेम के अंकुरण होते हैं। क्योंकि तब मैं दूसरे को देख पाता हूं, जान पाता हूं, पहचान पाता हूं, दूसरे में प्रवेश कर पाता हूं, दूसरे के साथ एक हो पाता हूं।
तो जो व्यक्ति सरल नहीं है, वह न तो प्रेम को उपलब्ध होगा, न सत्य को उपलब्ध होगा, न सौंदर्य को, न स्वास्थ्य को। और अगर इतनी चीजें नहीं मिल पाएं तो जीवन मृत्यु हो गया। फिर जीवन में कोई अर्थ नहीं है। और हम जितने जटिल होते गए हैं, जीवन उतना ही अर्थहीन मालूम होने लगा है। अर्थ खो गया है, मीनिंग खो गया है। क्योंकि अर्थ हो सकता था इन्हीं सारी दिशाओं में।
प्रेम के बिना कोई आदमी कैसे सार्थक जीवन अनुभव कर सकता है। जैसे किसी फूल में सुवास है, ऐसे जीवन में प्रेम है। और फूल अगर बिना सुवास के रह जाए तो फूल ही नहीं बन पाया। जैसे किसी दीये का जलना है, ऐसा जीवन में प्रेम है। और कोई दीया अनजला रह गया तो वह दीया ही नहीं है। ऐसे ही अगर प्रेम की ज्योति प्रकट न हो तो कोई व्यक्ति जीवन के अर्थ को अनुभव नहीं कर पाता है। वह जीवित ही नहीं है। प्रेम जीवन देता है।
जटिल होने के कारण सब खो गया है, सिर्फ जटिलता हाथ में रह गई है। और जटिलता जब बढ़ती चली जाती है तो अंततः विक्षिप्तता और मैडनेस में परिणत होती है। असल में पागल और हमारे सामान्य आदमी के बीच बहुत बड़ा फर्क नहीं है, जटिलता की डिग्री का फर्क है। पागल और भी जटिल हो गया है। सामान्य जिसे हम आदमी कहते हैं, नार्मल जिसे हम कहते हैं, उसकी जटिलता भी काफी है। लेकिन अभी इतनी नहीं है कि हम उसे पागल कह सकें। अभी जटिलता उसके भीतर है, वह दबाए हुए है। और बाहर सरल होने की चेष्टा में लगा हुआ है। या जटिलता इतनी है, जितने से कि समाज का काम चल जाता है, कोई बाधा नहीं पड़ती। लेकिन एक-एक आदमी भीतर एक-एक पागल को लिए बैठा है। और कोई भी आदमी किसी भी क्षण पागल हो सकता है। जटिलता का अंतिम फल विक्षिप्तता है और सरलता का अंतिम फल विमुक्ति है। और दो ही गतियां हैं--या तो आदमी विक्षिप्त होगा या विमुक्त होगा। या तो इतना जटिल हो जाएगा कि पागल हो जाएगा या इतना सरल हो जाएगा कि परमात्मा के साथ एक हो जाएगा, परिपूर्ण स्वस्थ हो जाएगा। परिपूर्ण स्वस्थ होना विमुक्ति है और परिपूर्ण अस्वस्थ हो जाना विक्षिप्तता है। और ये दो विकल्प हैं और इनकी जो यात्रा है, सरलता और जटिलता के मार्गों से पूरी होती है।
इसलिए गहरे में हमारे भीतर प्यास तो है सरल होने की। लेकिन कैसे सरल हों, यह सवाल निरंतर से आदमी के सामने रहा है कि कैसे सरल हों? और जटिल लोगों को जो सबसे सीधी बात दिखाई पड़ी है, वह यह कि आदमी बाहर से सरलता का आवरण ओढ़ ले, वस्त्र कम रखे, मकान छोटा हो, या बिना मकान के हो जाए; पत्नी बच्चे छोड़ दे, धन न रखे पास में, अपरिग्रही हो जाए; रिनन्सिएशन कर दे, जितनी चीजें हैं, उनको छोड़ दे--तो सरल हो जाएगा।
यह जो बात जिन लोगों के मन में भी उठी, वे प्रश्न को समझ नहीं पाए। आदमी चीजों के कारण जटिल नहीं है। जटिल होने के कारण उसने चीजें इकट्ठी कर ली हैं। चीजें मूल बात नहीं हैं, वे काॅ.ज नहीं हैं, वे कारण नहीं हैं, वे इफैक्ट ही हैं, परिणाम हैं। आदमी भीतर जटिल है, वह चारों तरफ जटिलता के जाल फैला देगा।
लेकिन हम बाहर के जटिलता के जाल तोड़ भी दें तो हम भीतर से सरल नहीं हो जाते। आदमी वही का वही रहेगा। और यह हो सकता है कि एक बड़े महल में वह जितना जटिल था, उतना ही जटिल एक छोटी झोपड़ी के साथ हो जाए। यह भी हो सकता है कि बड़ी तिजोरी के लिए वह जितना चिंतित और परेशान हो, उतना ही अपनी आखिरी लंगोटी के लिए भी चिंतित और परेशान हो जाए। यह सवाल ही नहीं है कि पास में लंगोटी है कि महल है; सवाल यह है कि कैसा मन है। अगर जटिल मन है तो लंगोटी के साथ भी जटिल होगा। और अगर सरल मन है तो महल के साथ भी सरल हो सकता है।
जिन लोगों ने यह कहा कि बाहर की चीजें छोड़ देने से आदमी सरल हो जाएगा, वे भौतिकवादी लोग रहे होंगे, मैटीरियलिस्ट रहे होंगे। मैं उनको आध्यात्मिक नहीं मानता हूं, चाहे दुनिया का इतिहास और दुनिया की कहानियां उनको कितना ही आध्यात्मिक कहती हों। जो आदमी यह सोचता है कि वस्तुएं कम होने से चित्त सरल हो जाएगा, वह वस्तुवादी है, वह मैटीरियलिस्ट है। उसका जोर वस्तु पर है, उसका जोर आत्मा पर नहीं है। तो वह कह रहा है, मकान छोड़ दो, घर छोड़ दो, पत्नी-बच्चे छोड़ दो, सब छोड़ दो। यह सारा हमसे बाहर जो भी जगत है, छोड़ दो। इस आदमी का विश्वास बाहर के जगत पर है। इस आदमी का विश्वास धन पर है। कल यह आदमी कह रहा था, धन पकड़ो। आज यह कहता है, धन छोड़ो। लेकिन धन पर ही इसका जोर है, धन ही इसका केंद्र है। भीतर के व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है।
तो जटिल लोगों ने, पदार्थवादी लोगों ने दो तरह के उपद्रव पैदा किए हैं--एक परिग्रह का, अटेचमेंट का, चीजें इकट्ठी करते चले जाओ और ढेर लगाते चले जाओ। यह भी भौतिकवादियों ने ही किया है और जटिल चित्त का ही एक रूप है। और इसके विपरीत जब इससे कोई घबरा गया तो सब छोड़ दो, सब चीजों से भाग जाओ। यह भी जटिल चित्त का ही एक रूप है। और यह भी भौतिकवाद की ही एक प्रक्रिया है। यह दोनों भौतिकवादी हैं। एक का भौतिकवाद के साथ राग है और एक का भौतिकवाद के साथ विराग हो गया है। लेकिन दोनों भौतिकवादी हैं--बेसिकली मैटीरियलिस्ट हैं।
और मजे की बात यह है कि वस्तुओं के कम या ज्यादा होने से चित्त की जटिलता, गैर-जटिलता का कोई भी संबंध नहीं है। सवाल गहरे में यह है कि मेरा चित्त सरल हो, और यह बात जरूर है कि अगर चित्त सरल हो तो बाहर भी एक तरह की चैस्टिटी, एक तरह की सरलता, एक तरह की स्वच्छता, एक तरह का अपरिग्रह आता है। लेकिन वह लाना नहीं पड़ता, वह अपने से आता है। और वह उसी मात्रा में आता है, जिस मात्रा में बाहर की चीजें व्यर्थ हो जाती हैं।
विक्षिप्त आदमी व्यर्थ की चीजें इकट्ठी करता चला जाता है, सिर्फ विक्षिप्तता के कारण। विक्षिप्त मनुष्य, जटिल चित्त का आदमी चीजें इकट्ठी इसलिए नहीं कर रहा है कि चीजों में कोई अर्थ है। बल्कि वह अपने भीतर के भय, अपनी भीतर की परेशानियों के कारण चीजों को इकट्ठा करने में अपने को व्यस्त कर रहा है।
एक आदमी धन इकट्ठा करता चला जा रहा है। उसके पास इतना धन हो चुका है कि अब आगे धन का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि धन से जो खरीदा जा सकता था, वह खरीद सकता है। और अब आगे धन इकट्ठा करना सिर्फ मिट्टी-पत्थर इकट्ठा करना है। क्योंकि इससे खरीदने का कोई प्रयोजन नहीं है। उसके आगे धन का कोई मूल्य नहीं है, उपयोग नहीं है। बड़े से बड़ा मकान उसके पास है, बड़ी से बड़ी कार उसके पास है। उसके पास सारी सुविधाएं हैं। जगत जो दे सकता है, उसके पास है। लेकिन अब भी वह धन की दौड़ में पागल होकर लगा हुआ है! बल्कि धन की दौड़ के कारण ही सारी सुविधाओं का उपभोग भी नहीं कर पा रहा है। उसने कीमती टेलीविजन खरीदा है, लेकिन देख नहीं पा रहा है। क्योंकि धन कमाने में लगा हुआ है। उसने बड़ी कार खरीदी है, लेकिन उसमें बैठ नहीं पा रहा है। कभी पिकनिक के लिए बाहर नहीं जा पा रहा है, क्योंकि धन कमाने में लगा है। सुंदर से सुंदर स्त्री घर में ले आया है, लेकिन उससे बात करने का समय कहां है, क्योंकि वह धन कमाने में लगा है! तो धन से जो उसने इकट्ठा भी कर लिया है, वह उसको भी नहीं भोग रहा है। अब आगे धन का कोई मूल्य भी नहीं है। तो यह धन का कमाना किसी भीतरी पागलपन से पैदा हो रहा है। कहीं भीतर कोई पागलपन है, जो भीतर आकुपाइड रहना चाहता है। जो इतना ज्यादा व्यस्त रहना चाहता है कि अपने पागलपन का पता न चल जाए। उलझा रहना चाहता है, भूल जाना चाहता है अपने को।
आदमी जितना जटिल होता है, उतना खुद को भूलने की कोशिश में लगा रहता है। भूलने की कोशिश कई तरह की हो सकती है। कोई धन कमाने में भूले, कोई समाज-सेवा में भूल सकता है, और कोई शराब पीकर भूले; और कोई संगीत सुन कर भूल सकता है; और कोई प्रार्थना, भजन-कीर्तन करके भी भूल सकता है।
भीतर जब आदमी परेशान होता है तो भूलना चाहता है। भूलने का उपाय ही यह है कि कहीं भी आक्युपाइड हो जाओ, व्यस्त हो जाओ। और व्यस्तता इतनी हो कि तुम्हारी सारी शक्ति क्षीण हो जाए व्यस्तता में। तुम्हारे पास खुद के संबंध में सोचने को न समय बचे, न शक्ति बचे, न उपाय बचे। तुम भूले रहो और दौड़ते रहो।
तो जितना विक्षिप्त आदमी है, वह दौड़ में लगा हुआ है, ताकि भूला रहे। वह धन में भी दौड़ लगा सकता है और यह भी हो सकता है, कल वह धन छोड़ दे तो परमात्मा की दौड़ में इतना ही व्यस्त हो जाए। तब सिर्फ व्यस्तता का ऑब्जेक्ट बदला, आदमी वही है। कल वह रुपये इकट्ठे करने में लगा था, आज वह रुपये छोड़ने में भी लग सकता है। कल वह रुपया इकट्ठे करने में जितना रस ले रहा था, गिनती कर रहा था कि कितने लाख हो गये, आज भी वह गिनती कर रहा है कि कितने लाख मैंने छोड़ दिए। फर्क नहीं पड़ा।
आदमी भीतर वही है। आदमी भीतर वही है, और यह भीतर के आदमी में जब तक सरलता न आए, तब तक बाहर की सरलता और भी जटिलता पैदा करेगी। क्योंकि बाहर से वह सरल दिखाई पड़ने लगेगा और भीतर वही होगा जो था। क्योंकि बाहर का कोई परिवर्तन भीतर परिवर्तन नहीं लाता है। भीतर का परिवर्तन जरूर बाहर परिवर्तन लाता है। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि बाहर का कोई भी परिवर्तन, कभी भी भीतर कोई परिवर्तन नहीं लाता है। क्योंकि भीतर ज्यादा गहरी चीज है, बाहर तो उथली चीजें हैं। कोई लहर सागर के भीतर कोई परिवर्तन नहीं ला सकती, क्योंकि लहर सतह पर है। वह नाचे, कूदे, उछले, फांदे--कुछ भी करे, सागर की गहराइयों को उससे कुछ संबंध, उसके उछलने-कूदने से नहीं होता है। लेकिन सागर की भीतर की गहराई बदले तो लहर को बदलना पड़ेगा, क्योंकि लहर सागर का हिस्सा है। सागर लहर का हिस्सा नहीं है।
तो हमारे जीवन की बाहर की परिधि पर जो हो रहा है, वह हमारा हिस्सा है; हम उसके हिस्से नहीं हैं। वह हमारे कारण हो रहा है, हम उसके कारण नहीं हैं। यह स्पष्ट हो जाए तो फिर सब परिवर्तन भीतर से आते हैं और बाहर की तरफ फैलते हैं। परिवर्तन का केंद्र भीतर होता है, फैलाव बाहर होता है। केंद्र बाहर कभी नहीं हो सकता, फैलाव भीतर की तरफ कभी नहीं हो सकता।
एक आदमी भीतर सरल हो जाए तो निश्चित ही उसके जीवन में एक तरह का त्याग, एक तरह की तपश्चर्या प्रकट होगी। लेकिन न तो उस तपश्चर्या का बोध होगा उस आदमी को, न उस त्याग का पता होगा; और न उस त्याग के कारण वह समझेगा कि मैंने कुछ किया है। यह उसे पता ही नहीं होगा। यह ऐसे ही होगा कि जैसे सुबह हम अपने घर को झाड़ते हैं और कचरे को बाहर फेंक आते हैं; फिर हम जाकर मोहल्लों में खबर नहीं करते कि हमने आज कचरे का फिर त्याग कर दिया। कचरा है, उसे हम फेंक आए हैं, बात खत्म हो गई। उसके पीछे उसको त्याग कर दिया है, यह सवाल भी नहीं उठता। अगर कोई आदमी आकर कहे कि मैंने आज घर के कचरे का त्याग कर दिया तो हम उस आदमी को पागल समझेंगे कि आदमी को कचरे से भी इतना मोह था क्या, कि कचरे का भी त्याग करना पड़ा इसे? और जो कहने आया है कि मैंने कचरे को त्याग कर दिया, यह आदमी अभी भी कचरे से बंधा हुआ है। अब यह कचरे के त्याग में भी गौरव ले रहा है, और मेरा मानना है कि घर में कचरा होना उतना बुरा नहीं था, जितना कचरे के त्याग कर देने में रस खतरनाक है। क्योंकि यह आदमी बिमार है।
जिस दिन व्यक्ति को भीतर से कुछ घटनाएं घटनी शुरू होती हैं तो बाहर परिवर्तन होते हैं, निश्चित ही परिवर्तन होते हैं। उसका रहना बदलेगा, उठना बदलेगा, उसके संबंध बदलेंगे, क्योंकि बाहर वे सब घटनाएं धीरे-धीरे प्रभावित होंगी, जो उसके भीतर उठी थीं। उनका परिणाम बाहर होगा। लेकिन तब न तो वह त्यागी बन जाएगा, न तो उसके मन में त्याग का कोई बोध होगा; न त्याग के कारण अहंकार की कोई तृप्ति होगी, और न त्याग उसका आकुपेशन होगा; न त्याग उसकी व्यस्तता बन जाएगी। वह संन्यासी नहीं होगा, संन्यास का उसे पता नहीं होगा; संन्यास आ चुका होगा। लेकिन सरल संन्यास का पता नहीं चल सकता कभी भी। सिर्फ जटिल संन्यास कांशस होता है। वह जो जटिलता है, वह कहती है, अब मैं संन्यासी हो गया। और अब यह ‘मैं’ संन्यासी हो गया, इसमें भी उतने रस लेने लगती है, जितना कि कल ‘मैं’ कुछ और था, उसमें रस था।
पहली बात तो यह है कि बाहर से भीतर की तरफ कोई ट्रांसफर्मेशन, कोई परिवर्तन होता ही नहीं। इसलिए जिन लोगों ने भी यह कहा कि खाना कम करो, खाना कम खाओ, ऐसा खाना खाओ, ऐसे कपड़े पहनो, कपड़े मत पहनो, नग्न हो जाओ, इस घर में मत रहो, झोपड़े में रहो या वृक्ष के नीचे रहो, या खुले आकाश के नीचे रहो--इन सारे लोगों ने बाहर से भीतर परिवर्तन करने की आकांक्षा की है। यह आकांक्षा गलत है। बाहर परिवर्तन हो जाएगा और भीतर का आदमी वही का वही बना रहेगा। उसमें कोई भी फर्क होने वाला नहीं।
एक घटना मुझे याद आती है। एक रात एक ट्रेन में मैं सफर किया तो मेरे कंपार्टमेंट में मैं हूं और एक स्टेशन से एक संन्यासी भी उसमें बैठे। काफी लोग उन्हें छोड़ने आए हैं, बहुत लोग उनका आदर करते होंगे। मैं भी उत्सुक हो गया हूं। उत्सुक इसलिए हो गया हूं कि उन्होंने सिर्फ टाट के, फट्टी के कपड़े पहन रखे हैं। एक फट्टी, टाट कमर से लपेटा हुआ, एक टाट का टुकड़ा ऊपर ओढ़ा हुआ है। एक छोटी टोकरी साथ है, उसमें भी टाट के दो चार टुकड़े हैं। लोग इनको विदा करके चले गए हैं। मैं आंख बंद किए हुएलेटा हूं। वे संन्यासी समझ रहे हैं कि शायद मैं सोया हूं। जैसे ही उन्होंने अपनी टोकरी रखी है और मेरी तरफ देखा, उन्हें खयाल में है कि मैं सो रहा हूं। मैं सोया नहीं, जागा हूं। बीच-बीच में मैं देख रहा हूं, वे क्या कर रहे हैं? टोकरी रख कर जल्दी से उन्होंने टाट के टुकड़े जो दो-चार थे, उनके नीचे झांक कर देखा। उसमें कुछ रुपये हैं, जो उनको भेंट किए होंगे, वे रखे हैं। रुपये निकाल कर जल्दी से आड़ में करके रुपये गिने। यह सब मैं देखता रहा हूं। रुपये गिन कर टाट में लपेट कर सिर के नीचे रख लिए हैं।
फिर मैं उठा हूं किसी काम से तो उन्होंने पूछा है कि भोपाल कब आएगा, तो मैंने कहाः सुबह छह बजे आएगा। आप बिलकुल आराम से सो जाइए, चिंता मत करिए। और यह डब्बा भोपाल ही कटेगा, इसलिए भोपाल से आगे जाने का उपाय ही नहीं है। इसलिए मजे से सोइए। मुझे भी भोपाल ही उतरना है। लेकिन मैं क्या देखता हूं कि घंटे भर बाद, रात के ग्यारह बजे होंगे, किसी स्टेशन पर फिर खिड़की खोल कर लोगों से पूछ रहे हैं कि भोपाल कब आएगा? तब मुझे हैरानी हुई और मैंने उनसे कहा, आप परेशान मत हों, भोपाल सुबह छह बजे के पहले नहीं आने वाला है। लेकिन मैं देखता क्या हूं, चार बजे रात फिर किसी स्टेशन पर वे खिड़की खोल कर पूछ रहे हैं। निश्चिंतता जैसी कोई चीज उनमें दिखाई नहीं पड़ती, और इतनी क्षुद्र-सी चीज के लिए वे चिंतित हो रहे हैं जो कि बिलकुल बेमानी है कि भोपाल कब आएगा। जब मैंने उनको कह दिया, दो स्टेशन पर पूछ चुके हो--उन्होंने कह दिया है कि सुबह छह बजे आएगा, फिर भी भरोसा नहीं है किसी का? कहीं ऐसा न हो कि भोपाल निकल जाए!
वह आदमी रात भर सोया नहीं। सुबह पांच बजे के करीब वे फिर तैयार हो रहे हैं और उनकी तैयारी भी मुझे देखने जैसी लगी। उनको अंदाज है कि मैं सोया हूं। सुबह उठने से ही पहला काम उन्होंने फिर वही किया है कि अपने फट्टी में से निकाल कर नोट गिने। अब यह मैं बड़ा हैरान हूं कि ये नोट बार-बार क्यों गिने जा रहे हैं? एक तरफ यह आदमी फट्टी बांधे हुए है, दूसरी तरफ इसके नोट के गिनने में रस वही है। नोट के चोरी चले जाने का भी डर वही है, जो किसी भी आदमी को हो सकता है। लेकिन नोट फट्टी में छिपाए हुए है। फट्टी तो ऊपर है, भीतर नोट हैं। फिर यह आदमी को मैं देख रहा हूं कि जो उसने फट्टी बांधी है, अब वह आईने के सामने खड़े होकर फट्टी बांध रहा है। बार-बार फट्टी बांध कर आईने में देखता है, फिर उसे जंचती नहीं है। फिर उसको दूसरे ढंग से बांधता है। तो मैं हैरान हूं कि यह तो वही का वही हो रहा है, जो कि आदमी सुंदर से सुंदर कपड़े बांधता है! तब भी वह आईने में देखता और विचार करता है कि जंच रहा हूं कि नहीं जंच रहा हूं। यह आदमी फट्टी में भी वही कर रहा है। चार दफा फट्टी खोलकर बांधी है, फिर गले पर ढंग से डाली है, फिर आईने में झांक कर निश्चिंत हो गए हैं! फिर वह तैयार है भोपाल स्टेशन आने के लिए। यह तैयारी वैसी की वैसी है, जैसे किसी महिला ने अपने प्रसाधन के सौंदर्य के साधनों से की होती! या किसी कपड़ों के प्रेमी ने कपड़े पहन कर बार-बार देखा होता कि ठीक जमा कि नहीं जमा!
अब यह आदमी फट्टी बांधे हुए है। लेकिन फट्टी के साथ इसका मन तो वही है, जो कि सुंदर वस्त्रों के साथ हुआ होता। और सुंदर वस्त्रों से भी आदमी चाहता क्या है? चाहता है कि दूसरे मुझसे प्रभावित हों। फट्टी के साथ भी आदमी वही चाह रहा है कि दूसरे मुझसे प्रभावित हों! और यह भी हो सकता है कि फट्टी इसने इसीलिए बांधी हो और यह होगा ही कि फट्टी से भी प्रभावित होने वाले लोग हैं, जो कि कीमती से कीमती मखमल से प्रभावित नहीं होते, वे फट्टी से भी प्रभावित होने वाले हैं।
भोपाल में फिर मैं देख रहा हूं, फूलमालाएं पड़ रही हैं, वह आदमी अकड़ कर खड़ा हुआ है! बाहर से छोड़ने वाला आदमी भीतर से बदलता नहीं--बदल सकता नहीं। क्योंकि बाहर का भीतर से कोई ऐसा संबंध नहीं। बदलना होगा तो भीतर से बदलना होगा। इसलिए मैं पहली बात को इनकार करता हूं कि उससे सरलता कभी भी आ सकती है। सिर्फ सरलता का धोखा पैदा हो सकता है। सिर्फ डिसेप्शन, प्रवंचना हो सकती है। और धोखा हम दूसरे को दे सकते हैं, अपने को कैसे धोखा देंगे!
सरलता का मार्ग तो दूसरा है। वह क्या है?
पहला मार्ग तो यह है कि सरलता की चेष्टा करो, एफर्ट करो, साधो। साधी हुई सरलता सदा झूठी होती है। क्योंकि साधने का मतलब ही होता है, अपने चित्त के खिलाफ साधना, नहीं तो साधना किसके खिलाफ है? अगर मुझे नंगा होना आनंदपूर्ण है तो इसको मैं साधना नहीं कहूंगा। अगर मुझे कपड़ा पहना आनंदपूर्ण है और फिर नंगे होने का अभ्यास करूं तो नंगा होना साधना होगी? और अगर नंगा होना मुझे सिर्फ आनंदपूर्ण है, यानी कपड़ा पहने मुझे वह आनंद कभी आया ही नहीं, जो नंगा होने में आता है, तो इसको कोई साधना नहीं कहेगा। यह मेरा आनंद है। साधते हम उसी को हैं, जो हमारे विपरीत है। यानी साधते हम वही हैं, जिसमें दमन करना पड़ता है। साधना अनिवार्य रूप से दमन है। और जिसमें हमें प्रयास करना पड़ता है, उसमें हम किसके खिलाफ प्रयास करेंगे--अपने खिलाफ? और अपने खिलाफ कोई भी प्रयास कभी भी नहीं जीत सकता। क्योंकि जीतेगा कैसे? कौन जीतेगा? मैं ही कैसे जीत जाऊंगा अपने खिलाफ! और जिसके खिलाफ मैं लड़ रहा हूं, वह मेरे ज्यादा गहरे में है; नहीं तो लड़ने की कोई जरूरत न थी। और जो लड़ रहा है, मेरा चित्त का हिस्सा, वह बिलकुल बाहर है, नहीं तो बात तत्काल खत्म हो जाती, लड़ने की कोई जरूरत न पड़ती।
तो एक तो रास्ता है, सरलता साधो। साधी हुई सरलता हमेशा झूठी होगी। जटिलता का यह दूसरा नाम है। लेकिन साफ जटिलता भी अच्छी है, कम से कम स्पष्ट तो है। ऊपर सरलता और भीतर जटिलता बहुत बड़ा धोखा है, जिसमें आदमी जीवन गंवा सकता है; कई जीवन भी गंवा सकता है। हमारे तथाकथित साधु-संन्यासी, मुनि, त्यागी, व्रती इसी तरह जीवन गंवाते हैं और उन्हें भ्रम पैदा हो जाता है कि वे बिलकुल सरल हो गए; क्योंकि नंगे खड़े हो गए। सरलता नाम मात्र को भी नहीं है, क्योंकि नंगा वही आदमी खड़ा है, उस आदमी में कोई फर्क ही नहीं हुआ। और कपड़े से उस आदमी में फर्क हो कैसे सकता है? कपड़े से आत्मा कैसे बदल सकती है!
दूसरा मार्ग है, हमें अपनी जटिलता को समझना पड़ेगा कि हम जटिल क्यों हैं, कहां हैं? हमें अपनी पूरी जटिलता के प्रति जागरूक होना पड़े, एक अमूच्र्छित चित्त चाहिए सारी जटिलता को समझ लेने के लिए। सुबह उठते से सांझ तक मैं किस-किस भांति जटिल हूं, कहां-कहां उलझा हुआ हूं, कहां-कहां सरलता खोता हूं, कैसे खोता हूं, इसको पूरा मुझे देख लेना होगा, पहचान लेना होगा। अगर मैं इसे पूरा जान लूं, पहचान लूं, परिचित हो जाऊं तो मुझे यह समझ में आने में कठिनाई नहीं होगी कि यह सारी जटिलता मुझे निरंतर दुख में उतार रही है।
सच तो यह है कि जब भी हमें आनंद की कोई भी किरण मिली हो जीवन में, तब हम सरल रहे होंगे। जब भी कभी जीवन में आनंद की जरा-सी भी झलक मिली होगी तो पीछे सरलता की भूमिका रही होगी। जटिलता में कभी कोई आनंद कभी नहीं हुआ है। बच्चे ज्यादा आनंदित मालूम होते हैं, क्योंकि सरल हैं। और बूढ़े दुखी हो जाते हैं, क्योंकि जटिल हो गए हैं। जिंदगी सिर्फ जटिल कर देती है। जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनके साथ हम सरल होते हैं; इसलिए उनके साथ हमें आनंद मिलता है। जिन्हें हम प्रेम नहीं करते, उनके साथ हम जटिल होते हैं। इसलिए जिन्हें हम प्रेम नहीं करते, उनके साथ हमें आनंद नहीं मिलता है। जहां भी हम सरल होते हैं, वहीं हमें आनंद की शुरुआत हो जाती है।
तो जो व्यक्ति अपनी जटिलता के प्रति जागेगा और चित्त की सारी क्रियाओं को देखेगा कि किस तरह जटिल होता है, किस तरह दुख लाता है--तो जब हमें यह स्वयं दिखाई पड़ जाए कि जटिलता दुख है, जटिलता नर्क है, जटिलता अंधकार है, जटिलता अपने हाथों से स्वयं को कांटों में डालना है--जब यह हमें दिखाई पड़ने लगे तो असंभव है फिर जटिल होना। यानी फिर जटिलता हमें छोड़नी नहीं पड़ेगी, वह छूटनी शुरू हो जाएगी। हम पाएंगे कि वह जाने लगी, क्योंकि मनुष्य का चित्त आनंद की तरफ ही जाना चाहता है। वह उसका नैसर्गिक प्रवाह है। वह उसकी सहज गति है, आनंद की तरफ जाना। हां, अगर वह कभी दुख की तरफ भी जाता है तो इसी भूल में चला जाता है कि वह सोचता है कि वहां आनंद होगा।
दुख की तरफ कोई चित्त कभी नहीं बहता। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। जब तक कि हम पाइप लगा कर ऊपर फेंकने का इंतजाम न करें, मशीन लगा कर, पंप लगा कर, तब तक पानी नीचे की तरफ बहता है। पानी स्वभाव से नीचे की तरफ बहता है। ऐसे ही चित्त स्वभाव से आनंद की तरफ बहता है, जब तक कि हम कुछ नासमझियां करके और पंप लगा करके उसको दुख की तरफ फेंकना ना शुरू करें। लेकिन दुख की तरफ भी फेंकना हो तो दुख की टंकी पर लिखना पड़ता है--‘आनंद’! तभी वह वहां जाता है, नहीं तो वह वहां नहीं जाता।
तो हमने सब दुखों के ऊपर आनंद लिख दिया है। तो चित्त वहां भी जाने लगा है। अगर हम जाग कर इस स्थिति को समझेंगे तो हमें दिखाई पड़ने लगेगा कि आनंद कहां है और आनंद कहां नहीं है! बस इतना दिखाई पड़ जाए आदमी को कि वह सरल होना शुरू हो जाता है। फिर सरल होने के लिए उसे जरा भी उपाय नहीं करना पड़ता, प्रयास नहीं करना पड़ता। वह पाता है कि अब सरल होने के अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं है और जटिल होना असंभव होने लगता है। धीरे-धीरे जटिल होना असंभावना हो जाती है। तब वह आदमी यह नहीं कहेगा कि मैंने जटिलता छोड़ दी और मैं सरल हो गया। वह आदमी यही कहेगा कि मैं कैसा पागल था कि मैं जटिल भी होता था। छोड़ने का तो सवाल ही कहां है? वह छूट गया। दिखाई पड़ गया और बात छूट गई।
जैसे हमें दिखाई पड़ जाए कि यह दरवाजा है तो हम दरवाजे से निकलते हैं, फिर हम दीवार से नहीं निकलते। दरवाजे से निकल कर हम यह भी नहीं कहते बाहर जाकर कि मैंने दीवाल से निकलना छोड़ दिया है। मैं दरवाजे से ही निकलता हूं। अगर हम ऐसा कहेंगे तो लोग कहेंगे, क्या तुम पागल थे, जो दीवार से निकलते थे? हां, तो हम बाहर जाकर इतना जरूर कहेंगे कि ऐसा भी वक्त था जो मुझे दीवारें दरवाजे दिखाई पड़ती थीं और तब मैं अपना सिर फोड़ लेता था; निकल तो नहीं पाता था सिर, सिर टूट जाता था। अब मुझे दरवाजा क्या है, दीवार क्या है, दिखाई पड़ने लगा है।
इसलिए अवेयरनेस, कांशसनेस, चेतना बढ़नी चाहिए। और जो लोग बाहर की वस्तुएं बदलने इत्यादि में लग जाते हैं, उनकी चेतना बढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि वे चेतना बढ़ाने की दिशा में कोई गति ही नहीं कर रहे हैं, वे वस्तुओं से ही उलझे हुए हैं अभी भी।
तो मेरी दृष्टि में, व्यक्ति जितना सजग हो, उतना सरल हो जाता है। सरलता सजगता का सहज परिणाम है। और जब सरल हो जाता है तो जीवन में, प्रेम के, आनंद के, सत्य के फूल अपने आप खिलने लगते हैं। यह सरलता की भूमि में खिले हुए सहज फूल हैं। इनको खिलाने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता।
सरल आदमी प्रेमपूर्ण ही होगा और उसका प्रेम बेशर्त होगा, अनकंडीशनल होगा, क्योंकि वह जानता है कि प्रेम में कंडीशंस् सिर्फ जटिल आदमी लगाता है। और जब प्रेम में शर्त लगती है तो प्रेम दुख लाता है, प्रेम आनंद नहीं लाता। अगर मैंने प्रेम में शर्त लगाई कि तुम ऐसे हो तो मैं प्रेम करूंगा; तुम यह करो तो मैं प्रेम करूंगा; मेरे प्रेम के बदले में तुम्हें यह-यह करना पड़ेगा--तो मैं जानता हूं कि मैं अपने दुख को बुला रहा हूं। जहां मैंने शर्त लगाई, प्रेम तो गया। सिर्फ बंधन रह गया और बंधन दुख लाएंगे। इसलिए सरल व्यक्ति का प्रेम बेशर्त होता है।
सरल व्यक्ति प्रेम देता है, लेने की बात ही नहीं करता है। बहुत मिलता है, प्रभूत मिलता है, लेकिन वह लेने की बात नहीं करता है। जितना देता है, उससे हजार गुना मिलता है। लेकिन वह लेने की बात ही नहीं करता। आता है तो धन्यवाद करेगा, अनुगृहीत होगा। नहीं आता है तो बात खत्म हो गई। देने का काम था, वह पूरा हो गया। उसने देने में ही इतना आनंद उपलब्ध कर लिया है कि अब और मांगने की कोई जरूरत नहीं।
शर्त वाला प्रेम कहता है कि तुम मुझे प्रेम दोगे तो मैं आनंदित होऊंगा। बेशर्त प्रेम कहता है कि तुमने ले लिया, तो भी मुझे काफी आनंद हो गया, बात खत्म हो गई। तुमने लिया, तो भी मैं आनंदित हो गया। इसी भांति उसे प्रत्यक्ष चीजों में दिखाई पड़ने लगेगा।
सरल आदमी को दिखाई पड़ेगा कि बाहर की जिंदगी में एक चैस्टिटी, एक सौंदर्य, एक तपश्चर्या आनी शुरू हो गई है। लेकिन, इसका कारण यह नहीं है कि वह किन्हीं चीजों को छोड़ रहा है। इसका कारण यह है कि कुछ चीजें व्यर्थ हो गई हैं और गिर रही हैं। जैसे सूखे पत्ते गिर जाते हैं। वृक्ष छोड़ता नहीं है उन्हें।
आचार्य जी,
हैव आई करेक्टली लन्र्ट दैट दि सिंपलिसिटी इ.ज दि स्टेट ऑफ एफर्टलेसनेस। एण्ड व्हेअर देअर इ.ज स्टेट ऑफ एफर्टस् देअर इ.ज नो सिंपलिसिटी?
बिलकुल ही ठीक है। जहां एफर्ट है, वहीं जटिलता है। असल में प्रयत्न ही जटिलता का दूसरा नाम है। और जहां एफर्टलेसनेस है, वहीं सरलता है। जहां हम कुछ कर नहीं रहे, कुछ हो रहा है! जहां हम कुछ कर रहे हैं, हो नहीं रहा; वहीं जटिलता शुरू हो जाएगी। अगर मैं किसी को प्रेम कर रहा हूं तो यह प्रेम बहुत जटिल होगा। और अभिनय से ज्यादा नहीं हो सकता, एक्टिंग ही हो सकता है। एक्टिंग करनी पड़ती है, होती नहीं। और प्रेम अगर किया तो वह भी अभिनय होगा। प्रेम होना चाहिए, सहज बहना चाहिए।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह सब होता है, करना नहीं पड़ता। और जीवन में जो भी व्यर्थ है, वह सब करना पड़ता है, वह कुछ भी होता नहीं। और हम सबने ऐसी जिंदगी बनाई, और हमारे नैतिक शिक्षकों ने, धार्मिक शिक्षकों ने हम सबको प्रयास ही सिखाया है, दमन ही सिखाया है, लड़ाई ही सिखाई है और इस तरह हमारे सारे जीवन को कुरूप कर दिया है। हमारे पास जीवन जैसी चीज ही नहीं है, क्योंकि सरल और सहज जैसा हमारा कोई अनुभव ही नहीं है। हम जो भी कर रहे हैं, वह सब हो नहीं रहा है, कर रहे हैं। और करने के कारण उसकी जो निर्दोषता, जो इनोसेंस, जो कुआंरापन है, वह सब खत्म हुआ चला जा रहा है।
ऐसी संभावना है कि व्यक्ति जीए, जीने की कोशिश न करे। प्रेम करे, प्रेम करने की कोशिश न करे। शांत हो, शांत होने की कोशिश न करे। और एक ऐसी शांति भी है जो शांत होने की कोशिश से आ जाती है, लेकिन वह सदा मुर्दा होती है, वह डेड साइलेंस है, जो मरे हुए आदमी की है।
तथाकथित साधक अक्सर ऐसी मरी हुई शांति को उपलब्ध हो जाते हैं। उसका कुल मतलब इतना है, उन्होंने अशांति को दबा लिया है, शांति नहीं आई है, अशांति दब गई है। अशांति दबी है तो पता नहीं चलता है। जैसे एक आदमी के हाथ पर घाव है, और पट्टी बांध कर घाव को दबा लिया है, और वह कहता है, घाव है ही नहीं। इस आदमी का घाव मिट नहीं गया है, सिर्फ उसने कपड़ों में दबा लिया है। ऐसी ही मरी हुई शांति के पीछे अशांति दबी हुई है। एक आदमी निरंतर कोशिश करे तो अपनी अशांति को दबा कर उसकी छाती पर चढ़ कर बैठ सकता है और ऐसा दिखने लगेगा कि वह शांत हो गया। लेकिन भीतर अशांति उबल रही है और वह प्रतीक्षा कर रही है। दबाई गई अशांति के लिए निरंतर दबाना पड़ेगा। हर-रोज, रोज दबाना पड़ेगा, जागते-सोते दबाना पड़ेगा। एक क्षण फिर आदमी फुरसत नहीं ले सकता।
इसलिए हमारे साधु-संत को हालिडे जैसी कोई चीज नहीं होती। उसको चैबीस घंटे ही लगा रहना पड़ता है गोरख धंधे में। क्योंकि वह अगर एक क्षण को भी छुट्टी ले ले तो वह सब जो दबाया है, वह फौरन प्रकट हो जाएगा। वह सब उभर कर बाहर आ जाएगा। तो छुट्टी है ही नहीं उसको। उसको सुबह से सांझ और सांझ से सुबह लड़ना ही है, लड़ना ही है। इसीलिए हमारे साधु-संत सोने तक में डरने लगते हैं। नींद से भयभीत होते हैं। क्योंकि नींद में फिर छुट्टी मिल जाती है। जिस मन को दिन भर दबाया है, नींद में वह फिर खुल कर खेलने लगता है और जिस-जिस चीज पर दबाया है, वही-वही करने लगता है। तो नींद तक से भय पैदा हो जाता है और कोशिश यह चलती है कि नींद न ही लें तो अच्छा है, नींद न ही आए तो अच्छा है।
असल में नींद सरल आदमी ही ले सकता है। जटिल आदमी अगर जटिलता में बढ़ता चला जा रहा है तो नींद खत्म हो जाएगी, क्योंकि इतनी व्यस्तता बढ़ जाएगी, चित्त पर तनाव इतने हो जाएंगे कि नींद खत्म हो जाएगी। और जटिल आदमी अगर सब जटिलताओं को छोड़ कर भागने लगे तो नींद से भयभीत हो जाएगा। क्योंकि जिसको वह छोड़ कर भागा है, वह नींद में फिर वापस लौट आता हुआ मालूम पड़ेगा, क्योंकि नींद में चित्त फिर एफर्टलेसनेस में चला गया।
तो जिसे हमने एफर्ट से दबाया, वह फिर प्रकट होगा। अगर सेक्स दबाया, सेक्स प्रकट होगा; भोजन दबाया था, भोजन प्रकट होगा। अगर हम जबरदस्ती नंगे होकर घूमने लगे तो नींद में हम बादशाहों के कपड़े पहन कर सिंहासन पर बैठ जाएंगे--यह होगा।
सिर्फ वही आदमी सच्चे अर्थों में सरल हो सकता है, जिसने सरलता के लिए प्रयास नहीं किया। लेकिन, इसका क्या मतलब है? क्या इसका यह मतलब है कि सरलता के लिए कुछ भी न करें? नहीं, इसका यह मतलब नहीं है। प्रयास न करें, यह मैं कह रहा हूं, लेकिन जागरूक होना पड़ेगा। और जागरूक होना प्रयास नहीं है, क्योंकि जागरूक होने में हम किसी चीज को दबा नहीं रहे हैं। जागरूक होने में हम किसी चीज का दमन नहीं कर रहे हैं। जागरूक होने में हमारी जो चेतना है, जगह-जगह अंधेरे में पड़ी है, उसे हम उठा रहे हैं, उसे जगा रहे हैं।
एक आदमी सोया है, हम उसे जगाते हैं। हम उस आदमी के भीतर कुछ दमन नहीं करवा रहे हैं, सिर्फ उसकी नींद तोड़ रहे हैं। हमारी चेतना भीतर सोई हुई है, बहुत-बहुत रूपों में सोई हुई है। उसे हम जगा रहे हैं। यह जगाना भी एक तरह का प्रयास मालूम होगा, लेकिन यह उस अर्थों में प्रयास नहीं है। इसलिए इसे झेन फकीर तो कहते हैं, एफर्टलेस एफर्ट। यह प्रयास रहित प्रयास या एक्शनलेस एक्शन, कर्मरहित कर्म। एक्शन इनेक्शन कहें या एक्शनलेस एक्शन। यह कर्मरहित कर्म है।
सिर्फ एक ही ऐसी चीज है, जो प्रयास रहित प्रयास है--और वह है जागरण, अवेयरनेस की चेष्टा। जितने हम जागते हैं जीवन की सामान्य चीजों के प्रति--सुबह आप उठे और उठते से ही जटिलताएं शुरू हो जाती हैं। आपका जूता ठीक जगह पर रखा हुआ नहीं है और आप क्रोधित हो गए और आपकी चाय थोड़ी ठंडी है और आप में आग लग गई और आप पत्नी से ऐसे अभद्र शब्द बोले जो कि आप सोच भी नहीं सकते थे--और शुरू हो गई जटिलताएं। और मालिक के सामने आप पूंछ हिला कर खड़े हो गए हैं और नौकर के सामने अकड़ बताने लगे और सब तरफ जटिलताएं शुरू हो गई। इस सबके प्रति जागने की जरूरत है।
यह हमारा छोटे से छोटा जो कर्म है, गेस्चर भी, छोटे से छोटा इशारा भी, उसके प्रति भी जागने की जरूरत है कि यह मैं क्या कर रहा हूं। क्या यह जटिल कृत्य है? या एक सरल भाव? अगर सरल भाव हो तो हम मालिक के सामने भी उसी सरलता से खड़े होंगे, जैसे हम नौकर के सामने खड़े होते हैं। लेकिन जटिल आदमी ऐसा नहीं कर सकता। मालिक के सामने और ढंग से खड़ा होता है। झूठ ही मुस्कुराए चला जाता है, चाहे भीतर आग जल रही हो। और नौकर के सामने कभी नहीं मुस्कुराता है, चाहे भीतर मुस्कुराहट फूट रही हो। तो सब तरह से वह जटिल होता चला जाता है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे यही झूठे एक्शन जो उसने अपने ऊपर थोपे हैं, यही उसकी असलियत हो जाती है। वह भूल ही जाता है कि मैं कौन हूं, क्योंकि सरलता में वह जान सकता था कि मैं कौन हूं, क्या हूं! जटिलता में तो वह, वह रूप दिखलाता है, जो वह है ही नहीं। और निरंतर अभ्यास से, कंडीशनिंग से यह हो सकता है कि उसे पता ही न रह जाए कि मैं कौन हूं। बस यही खयाल रह जाए कि नौकर के सामने मैं एक हूं, मालिक के सामने दो हूं, पत्नी के सामने तीन हूं, किसी और के सामने चार हूं, दिन भर मेरी अलग-अलग शक्लें हैं, अलग-अलग ढंग हैं, अलग-अलग अभिनय हैं। मैं कौन हूं लेकिन!
डू यू फील आचार्य जी,
दैट ए एकिंटग ऑफ सिंपलिसिटी इ.ज मियरली ए सोमनमबुलि.ज्म डिसी.ज?
सरलता का अभिनय करना जटिल होने से भी ज्यादा जटिल होना है। क्योंकि जो आदमी जटिल है--और जटिल है, ऐसा जानता है और ऐसा ही दिखलाता भी है, वह आदमी भी एक अर्थ में सरल है। मुझे अगर क्रोध आए और मैं क्रोध प्रकट करूं और मेरी आंखों से आग झलकने लगे और मेरे हाथों से अंगारे फिंकने लगें और मेरे भीतर जैसा है, वैसा मैं प्रकट कर दूं, तो भी मैं एक अर्थों में सरल हूं। लेकिन मुझे भीतर क्रोध आए और बाहर मैं प्रेम की बातें करता चला जाऊं तो मेरी जटिलता बहुत गहरी है।
यानी वह आदमी जो सहज क्रोध कर लेता है, उसका क्रोध थोड़ी देर में चला जाएगा, क्योंकि क्रोध कोई टिकने वाली चीज नहीं है। लेकिन जो आदमी क्रोध नहीं करता और अक्रोध का प्रदर्शन कर देता है, उसका क्रोध टिकेगा और सरकेगा और भीतर-भीतर घाव बनाएगा। पहले वाला आदमी सरल है और पहले वाला आदमी कभी न कभी जाग कर क्रोध से मुक्त हो सकता है। दूसरे वाला आदमी कभी मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसको जागने के लिए दो स्टेप उठाने पड़ेंगे। पहले तो वह इस बात के प्रति जागे कि वह क्रोधी नहीं है, इसका अभिनय कर रहा है। और फिर इसके प्रति जागे कि क्रोध है। तो उसकी जटिलता, जिसको कहें डबल टायर, दोहरे टायर में उसकी जटिलता है। और अगर हम आदमी की जिंदगी को गौर करें तो पच्चीसों टायर हैं, एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक, जिनके भीतर हम खोज करेंगे, तब हम सरल हो पाएंगे।
कई बार जंगली आदमी ज्यादा सरल होता है। क्रोध होता है तो क्रोध करता है, प्रेम होता है तो प्रेम करता है। गाली देनी हो तो गाली देता है, सिर खोलना हो तो सिर खोल देता है। सभ्य आदमी से ज्यादा सरल होता है। क्योंकि सभ्य आदमी को पहचानना ही मुश्किल है कि वह जब मुस्कुरा रहा है, तब गाली दे रहा है कि नहीं दे रहा है। कि जब वह प्रेम से हाथ मिला रहा है तो वह गर्दन काटना चाह रहा है कि नहीं काटना चाह रहा है।
जटिलता को भीतर छिपा कर सरलता का अभिनय, असाधुता को भीतर छिपा कर साधुता का बाहर अभिनय--यह तो दोहरे अर्थों में जटिलता हो गई। इससे मुक्त होना और कठिन हो जाएगा। और धीरे-धीरे यह आदमी न केवल दूसरों को धोखा दे सकता है, लंबे अर्सों में यह खुद भी धोखे में आ सकता है। और तब और मुश्किल हो जाएगी। यानी अगर मैं आपको धोखा दे रहा हूं, मेरे भीतर क्रोध है, मुझे पता है, और आपको मैं क्षमा दिखला रहा हूं--यह धोखा आपको है। लेकिन निरंतर ऐसा करने से यह भी हो सकता है कि मैं भी यह मान लूं कि मेरे भीतर क्रोध नहीं है, मैं तो क्षमा ही कर रहा हूं। तब जटिलता तिहरे तलों पर हो गई। और इस तरह एक के बाद एक तल अगर बढ़ते चले जाएं तो आदमी खो जाएगा। इस जंगल में उसका पता चलना मुश्किल हो जाएगा। लौटना कठिन होता चला जाएगा। क्योंकि इतनी ही सीढ़ियां उसे लौटनी पड़ेंगी।
तो मैं मानता हूं कि अभिनय तो हमेशा खतरनाक है। हम जैसे हैं, वैसा ही हमें होना चाहिए। और मजे की बात यह है कि वैसा होने में भी एक तरह की सरलता है। और फिर जैसे हम हैं, उसके प्रति हमें जागना चाहिए। तो जैसे ही हम जागना शुरू करेंगे, वैसे-वैसे जो-जो दुख लाता है, वह गिरता चला जाएगा। और जो-जो आनंद लाता है, वह बढ़ता चला जाएगा। एक ऐसी स्थिति आएगी कि आनंद ही हमारी एक मात्र गति होगी। दुख की तरफ जाना बंद हो जाएगा।
मेरी दृष्टि में, ऐसे व्यक्ति को मैं धार्मिक कहता हूं जिसने यह खोज कर ली कि आनंद कहां है। और जिसका चित्त वहां बहने लगा। और उस व्यक्ति को मैं अधार्मिक कहता हूं, जो दुख को आनंद समझ कर दुख की तरफ ही बहा चला जा रहा है। और यह समझ कोई दूसरा नहीं दे सकता है। यानी मैं अगर कहूं कि प्रेम में बड़ा आनंद है, तो कुछ फर्क नहीं होने वाला है। मैं अगर कहूं कि घृणा में बड़ा दुख है, तो कोई फर्क नहीं होने वाला है। आप मान भी ले सकते हैं कि हां, घृणा में बड़ा दुख है। लेकिन इससे कुछ पता नहीं चलने वाला है। आपको घृणा की स्थिति में जागना ही पड़ेगा, तभी आप घृणा के पूरे दंश, पूरी सफरिंग को देख पाएंगे। जब क्रोध आपको पकड़े, तब जागना पड़ेगा और देखना पड़ेगा, क्रोध क्या कर रहा है। मैं कैसी आग में जल रहा हूं और जब उसका दुख आपके चित्त पर पूरी तरह प्रकट हो जाएगा तो दुबारा क्रोध की तरफ जाना चित्त के लिए असंभव होगा। रुकना नहीं पड़ेगा कोशिश करके कि अब मैं क्रोध न करूं।
जो आदमी जागता है उसे ऐसा व्रत नहीं लेना पड़ता किसी मंदिर में जाकर कि अब मैं क्रोध का त्याग करता हूं, अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। हालत उलटी हो जाती है। उससे आप क्रोध करवाना चाहें तो मुश्किल मामला होगा। अगर उसे क्रोध करना हो तो जैसे पहले वह क्षमा का अभिनय करता था, ऐसा अब ज्यादा से ज्यादा क्रोध का अभिनय ही कर सकता है। और क्रोध का अभिनय कोई किसलिए करना चाहेगा? घृणा का अभिनय कोई किसलिए करना चाहेगा? शत्रुता का अभिनय कोई किसलिए करना चाहेगा?
जागरण, हमारी चित्त की सारी स्थितियों का, और हमारी सारी रिलेशनशिप का क्योंकि जिंदगी संबंधों में है। वह जो सरलता को थोपने वाला आदमी था, वह जंगल में भागता था। क्योंकि अकेले में सरलता को थोपना आसान है, क्योंकि तब हमें जटिलता का पता ही नहीं चलता, एस्केप है, हमको पता नहीं चलता। जटिलता का पता संबंधों में चलता है। जब तुम सड़क से जा रहे हो, तब तुम्हें पता चलता है कि तुम अकड़ कर चल रहे हो कि नहीं चल रहे हो। जब तुम जंगल में जा रहे हो, तब तुम्हें पता नहीं रहा, क्योंकि जंगल में तुम अकड़ कर चलते ही नहीं; क्योंकि जंगल में कोई देखने वाला ही नहीं है। वह तो जहां देखने वाले लोग हैं, वहां पता चलता है कि तुम्हारे भीतर चलने में अकड़ है कि नहीं। तुम सरल चल रहे हो या चलने में भी तुम कोई अहंकार का भाव पोषित कर रहे हो; चलने में भी तुम कोई रोग पाल रहे हो कि सिर्फ चल रहे हो--यह तो पता चलेगा वह सड़क पर जहां लोग हैं और उस सड़क पर और भी ज्यादा पता चलेगा, जहां लोग तुम्हें जानते हैं और उस सड़क पर और भी ज्यादा पता चलेगा, जहां लोग तुमसे संबंधित हैं। जितना लोगों के संबंध तुम्हारे निकट होते चले जाएंगे, उतना तुम्हारा तुम्हें पता चलेगा।
यानी मेरी दृष्टि में हर दूसरा आदमी हमारे लिए दर्पण है, मिरर है। हर दूसरे आदमी में हम अपना चेहरा झांकते हैं। अब यह हो सकता है, एक आदमी कुरूप है, और वह सब दर्पणों का त्याग कर दे और मान ले कि मैं सुंदर हो गया, तो वह सुंदर नहीं हो जाएगा। सिर्फ इतना ही फर्क पड़ता चलेगा कि उसे अब चूंकि दर्पण नहीं है, इसलिए उसे दिखाई नहीं पड़ता है कि वह कुरूप है। कुरूप तो कुरूप ही रहेगा।
मैंने तो यहां तक सुना है कि एक स्त्री कुरूप थी, लेकिन मानने को तैयार न थी। अगर कोई दर्पण उसके सामने ले आया तो वह दर्पण तोड़ देती थी और तोड़ने का कारण यह बताती थी कि दर्पण खराब है। इस दर्पण में मुझे मेरी शक्ल जितनी सुंदर है, उतनी दिखाई नहीं पड़ती। यह दर्पण जो है, मुझे कुरूप कर देता है। यह दर्पण ठीक नहीं बना है। दर्पण तो वही ठीक होगा, जो मेरी सुंदर शक्ल दिखलाता हो। मैं सुंदर हूं, यह तो मानी हुई बात है। इसमें तो कोई शक-सुबा है ही नहीं।
दर्पण हम तोड़ भी सकते हैं, तो भी हम जो हैं, वहीं रहेंगे। यह औरत तो हमें पागल मालूम पड़ेगी। लेकिन, जो आदमी जीवन को छोड़ कर भाग रहा है, वह भी इतना ही पागल है। असल में वहां पहचान जरा कठिन है, क्योंकि जिन दर्पणों को वह छोड़ कर भाग रहा है, वह दर्पण बहुत सूक्ष्म हैं।
आचार्य जी, हिअर आई हैव वन डाउट दैट हाउ ह्यूमेन ...व्हिच है.ज बीन कंडीशंड सिंस सेंन्चुरीस कैन फरी फ्राम दिस पास्ट इवेंट्स आफ लाइफ एण्ड वाट टाइप आफ मेज.र्ज यू सजेस्ट, सो दैट दि न्यू एजूकेशन शुड बी क्रिएटड...शुड गिव अंडरस्टेंडिंग सो दैट पिपल शुड अंडरस्टेंड एट लार्ज दि परप.ज आह लाइफ?
यह संभावना है, लेकिन जैसा आदमी है हमारे पास, उसमें संभावना नहीं दिखाई पड़ती, और मेरा यह भी मानना है कि जब कोई किसी को प्रेम से.....
आचार्य जी,
ए.ज आई फील व्हेअर लव है.ज बीन मच कनफ्यू.िंजग, ए.ज आई फील पर्सनली सर, सोसायटी है.ज कनफ्यू.ज्ड दि टर्म लव विद अटेचमेंट्स। टु मी व्हेअर एटेचमेंट इ.ज दि आउटकम ऑर बाइ-प्रोडक्ट ऑफ ह्यूमेन नीड। वुड आई एक्सपेक्ट फ्र ाम यू, वाॅट लव एक्च्वेल्ली इ.ज?
यह ठीक है। प्रेम और आसक्ति में बहुत भूल हुई है। भूल होना स्वाभाविक है। लेकिन प्रेम और आसक्ति, न केवल भिन्न हैं, बल्कि विरोधी हैं।
जहां प्रेम है, वहां आसक्ति होगी ही नहीं। जहां प्रेम नहीं है, वहीं आसक्ति होती है। प्रेम क्या है, यह ठीक से समझ में आए तो इन दोनों का फर्क भी समझ में आ सकता है।
सबसे पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि प्रेम एक रिलेशनशिप नहीं है। प्रेम एक संबंध नहीं है। प्रेम एक स्टेट ऑफ माइंड है, मन की एक अवस्था है। साधारणतः हम ऐसा सोचते हैं कि मैं फलां व्यक्ति को प्रेम करता हूं। यह बात ही गलत है। ऐसा हो सकता है कि मैं प्रेमपूर्ण हूं। और यदि मैं प्रेमपूर्ण हूं तो मैं प्रेमपूर्ण ही रहूंगा, चाहे व्यक्ति कोई भी बदल जाए। अगर मैं इस कमरे में अकेला भी रहूंगा, तो भी प्रेमपूर्ण रहूंगा। प्रेमपूर्ण होना मेरे स्टेट ऑफ माइंड की बात है। लेकिन आमतौर से यही समझा जाता रहा है कि एक व्यक्ति किसी को प्रेम करता है, किसी को नहीं करता है।
लेकिन जिस व्यक्ति की मानसिक स्थिति प्रेम की नहीं है, वह किसी को भी प्रेम नहीं करता है। और जिसे वह प्रेम करता हुआ बताता है, वह जैसा आप कह रहे हैं, कोई आवश्यकता, जीवन की, शरीर की, व्यवस्था की--कोई आवश्यकता की पूर्ति उस व्यक्ति से उसकी हो रही है। वह पूर्ति किसी भी तल की हो सकती है--सेक्स की हो सकती है, धन की हो सकती है, सुरक्षा की हो सकती है। और जिस व्यक्ति के द्वारा उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो रही है, जो व्यक्ति उसके जीवन का साधन बन रहा है, वह व्यक्ति उसको प्रेम करता हुआ; और मैं प्रेम करता हूं, ऐसा दिखाता रहेगा। लेकिन, यह प्रेम उसी क्षण टूट जाएगा, जिस क्षण उस व्यक्ति से आवश्यकता-पूर्ति होनी बंद हो जाएगी। यह प्रेम के नाम से एक प्रकार का शोषण है।
निश्चित ही, जिन चीजों से हमारी जरूरतें पूरी होती हैं, उनसे हमारा एक तरह का अटेचमेंट, एक तरह की आसक्ति हो जाएगी। क्योंकि हम उनके बिना नहीं जी सकते हैं, क्योंकि उनके बिना जीना कष्टपूर्ण, अनकंफर्टेबल होगा। तो जिनके बिना हम नहीं जी सकते हैं, उनसे एक राग, एक अटेचमेंट, एक आसक्ति हो जाएगी। वह आसक्ति भी उसी तरह है, जैसे फर्नीचर के बिना कोई घर में न रह सके और फर्नीचर से एक आसक्ति हो जाए--रेडियो के बिना न रह सके, रेडियो से हो जाए; पत्नी के बिना न रह सके, पत्नी से हो जाए, मित्र के बिना न रह सके, मित्र से हो जाए। लेकिन, इस तरह की आसक्ति प्रेम नहीं है। यह सिर्फ इस बात की खबर है कि कुछ चीजें हैं, जिनके बिना रहना मुझे सुखद नहीं है। जिनके होने से ही मैं शांति और सुख से रह सकता हूं। तो उन चीजों के प्रति मेरा एक राग, एक लगाव; उनको बचाने की इच्छा, वह छूट न जाए इसका आग्रह, वह हट न जाए इसका डर, यह सब मेरे मन को घेरे रहेगा।
प्रेम बिलकुल दूसरी ही बात है, उलपी ही। आसक्ति में हम किसी को अपना साधन बनाते हैं और प्रेम में हम किसी के साधन बन जाते हैं। आसक्ति में कोई मेरी जरूरत पूरी करता है, प्रेम में हम किसी की जरूरतें पूरी करते हैं। प्रेम इस भाषा में सोचता ही नहीं कि मुझे दो, प्रेम इस भाषा में सोचता है कि मुझसे ले लो। प्रेम दान है और आसक्ति मांग है। आसक्ति मांगती है कि यह मुझे दो। अगर नहीं दिया तो टूट जाएगी आसक्ति। प्रेम देना चाहता है, प्रेम मांगता ही नहीं। आसक्ति में शर्त है, कंडीशन है कि तुम मुझे यह दोगे तो मैं यह दूंगा। वह एक सौदा है।
प्रेम सौदा नहीं है। उसमें कोई शर्त नहीं है। तुम मुझे दोगे या नहीं दोगे, यह सवाल ही नहीं है। मैं तुम्हें देना चाहता हूं और देकर आनंदित होता हूं और बात समाप्त हो जाती है। प्रेम दान है इस अर्थ में, और यह प्रेम की जो अवस्था है, किसी एक व्यक्ति से नहीं हो सकती है। ऐसा नहीं हो सकता है कि मैं एक को प्रेम करूं और दूसरे को प्रेम न करूं। अगर मेरा चित्त प्रेमपूर्ण है तो मैं जो भी मेरे निकट आएगा, उसे प्रेम करूंगा। और चित्त अगर प्रेमपूर्ण नहीं है, तो जो भी मेरे निकट आएगा, मैं उसे प्रेम नहीं करूंगा। चित्त जब प्रेमपूर्ण नहीं होता है, तो जो लोग मेरे निकट आते हैं, जिनसे मेरा हित है और मेरी जरूरत पूरी होती है, उन्हें मैं प्रेम करने का ढोंग बताता हूं। और जिनसे मेरी कोई जरूरत पूरी नहीं होती, उनके प्रति मैं रूखा खड़ा रह जाता हूं; या जिनसे मेरी किसी जरूरत को नुकसान पहुंचता है, उनके प्रति मैं दुश्मन हो जाता हूं। लेकिन जब कोई व्यक्ति प्रेम से भरता है, यानी जब प्रेम का फूल खिलता है किसी के जीवन में, तब यह सवाल नहीं रह जाता है कि कौन मेरे पास आता है। यह गौण बात हो गई, इससे कोई अर्थ ही नहीं है, यह असंगत है, इररिलेवेंट है कि कौन आया।
जैसे एक फूल खिला और उसमें सुगंध फैली, फिर कौन रास्ते से गुजरा, यह फूल नहीं पूछता है। जो भी रास्ते से गुजरा, फूल की सुगंध उसे मिलती है। वह काम का है, काम का नहीं है; दुश्मन है, मित्र है, शत्रु है, तटस्थ है; कौन है--यह सवाल ही असंगत है। फूल की सुगंध मिलेगी ही राह से गुजरने वाले को, क्योंकि फूल अब कोई शर्त नहीं बांध रहा है और फूल सुगंध देने में कुछ मांग भी नहीं रहा है। फूल सुगंध दे रहा है क्योंकि फूल सुगंध दे रहा है क्योंकि फूल खिल गया है और फूल का सुगंध देना स्वभाव है। जैसे दीया जल गया है, तो दीये की रोशनी पड़ेगी, कोई निकले पास से, कोई न निकले, तो शून्य में पड़ेगी। दीया किसी को रोशनी नहीं दे रहा है, दीया रोशन हो गया है, इसलिए अब जो भी पास से निकलता है, उस पर रोशनी पड़ती है।
ऐसा ही मैं प्रेम को एक अवस्था मानता हूं। जब व्यक्ति के जीवन में प्रेम का दीया जलता है या प्रेम का फूल खिलता है, तो जो भी पास आता है, उसे उसका प्रेम मिलता है। कोई ले सके, न ले सके--यह दूसरी बात है। कोई सुगंध लेने में समर्थ है, बीमार है--यह दूसरी बात है। कोई अंधा है, आंख वाला है, प्रकाश देखे, न देखे--यह दूसरी बात है। लेकिन प्रेम से भरे हुए चित्त से प्रेम गिरता ही रहता है, रोशनी की तरह, सुगंध की तरह और जो भी पास आता है, अगर वह लेने में समर्थ है तो उसे मिल ही जाता है। और अगर असमर्थ है तो वह उसकी अपनी बात है, इससे प्रेम देने वाले का कोई संबंध नहीं है। और इसलिए प्रेम एक मुक्ति है, क्योंकि वह किसी से बंधने का प्रश्न ही नहीं उठाता। जो पास आया उसे मिलता है; जो चला गया, वह चला जाता है। जैसे दर्पण के सामने कोई आता है, तस्वीर बनती है; हट जाता है, तस्वीर मिट जाती है। दर्पण फिर खाली हो गया। फिर तस्वीर किसी की बनने के लिए तैयार हो गया।
प्रेम एक अवस्था है, जिसमें सामने जाओगे, प्रेम की सुगंध मिलेगी, रोशनी मिलेगी। हट जाओगे तो भी प्रेम बरसता रहेगा। फिर किसी की प्रतीक्षा बनी रहेगी, फिर कोई बांटता रहेगा, कोई लेता रहेगा। इसलिए प्रेम किसी को रोक नहीं लेना चाहता है कि रुको, क्योंकि मैंने तुम्हें प्रेम किया है। क्योंकि प्रेम तो किसी को भी प्रेम देता रहेगा। आसक्ति रोकती है कि रुको, ठहरो। तुम कहीं चले मत जाना, नहीं तो मैं किससे प्रेम करूंगा? और आसक्ति कहती है कि ऐसा-ऐसा करना, तो ही मैं प्रेम दे सकूंगा, अन्यथा मेरा प्रेम बंद हो जाएगा।
आसक्ति प्रेम नहीं है, सिर्फ प्रेम का धोखा है। वह हिपोक्रेसी है। वह सिर्फ प्रेम का पाखंड है। और यह इसलिए हम आसक्ति को प्रेम मान लेते हैं कि प्रेम का फूल खिलना एक लंबी साधना की बात है; वह जीवन की जरूरतों के आगे की बात है; जहां जीवन की जरूरतों के सवाल नहीं रह जाते हैं। जहां व्यक्ति की चेतना इतने आनंद से भरती है कि आनंद को बांटे बिना कोई रास्ता नहीं रह जाता और आनंद का एक लक्षण है कि आनंद बंटना चाहता है, किसी को साझी बनाना चाहता है। वह यह नहीं पूछता कि तुम कौन हो! तुम आए हो पास तो वह साझी बन जाता है।
तो मेरी दृष्टि में जो आदमी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है, उस आदमी के जीवन में प्रेम नहीं होता है। जो आदमी अभी दुख में जी रहा है, उसके जीवन में होती है घृणा, क्योंकि दुख घृणा ही बांट सकता है; लेकिन जिनसे हमें काम लेना है, उन्हें घृणा करें तो काम लेना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए घृणा आसक्ति का पाखंड करती है। वह कहती है, हम तुम्हें प्रेम करते हैं। जो प्रेम कहीं भीतर ही नहीं है, वह किया कैसे जा सकता है, और जो व्यक्ति आनंद में नहीं है, वह किसी को क्या दे सकता है!
और प्रेम है दान। तो जब आनंद हो, तभी प्रेम दिया जा सकता है। यानी मेरी दृष्टि में आनंद का दीया जले तो प्रेम का प्रकाश चारों तरफ फैलना शुरू होता है। इसलिए प्रेम मेरे लिए वही अर्थ रखता है जो परमात्मा की साधना रखती है। मेरे लिए प्रेम परमात्मा ही है और इसलिए साधारणतः प्रेम मिला हुआ नहीं है, जैसा हम मान लेते हैं कि हर आदमी जो पैदा हो गया है, वह प्रेम करने में समर्थ है। मां-बाप से पैदा हो जाना प्रेम करने की सामथ्र्य नहीं है। एक और अर्थ में जन्म लेना पड़ेगा। एक और अर्थ में आनंद, और सत्य, और समाधि की दिशा में प्रवेश करना पड़ेगा और जब वहां प्रवेश होगा और चेतना बदलेगी, और रूपांतरित होगी, जरूरत के ऊपर उठेगी और इतने आनंद से भर जाएगी, एफ्लुएंस हो जाएगा आनंद, भरपूर हो जाएगा कि ऊपर से ओवरफ्लो होने लगे, तब प्रेम की घटना घटेगी। उसके पहले जब कि हमारे पात्र खुद खाली हैं, प्रेम की घटना नहीं घट सकती। और इसीलिए आसक्ति वाला प्रेम करने का दिखावा करता है।
मूलतः प्रत्येक प्रेम मांगता है। प्रत्येक एक दूसरे से प्रेम मांग रहा है कि मुझे प्रेम दो। और प्रेम कोई मांग नहीं सकता, मिल सकता है। और मांगा कि मिलना मुश्किल हो जाता है। और न ही कोई, जिसके पास प्रेम नहीं है, किसी को प्रेम दे सकता है। जो हमारे पास है, वही हम दे सकते हैं। साधारणतः हमारे पास दुख है, हम दुख ही दे सकते हैं और इसलिए बड़े मजे की बात है कि हम शत्रु को भी दुख देते हैं और मित्र को भी। शत्रु के सामने हम सीधे खड़े हो जाते हैं, जो हम हैं और मित्र के सामने हम चेहरा बदल लेते हैं, एक वस्त्र पहन लेते हैं प्रेम का और खड़े हो जाते हैं। लेकिन फिर भी वस्त्र के भीतर हम वही हैं, जो हैं।
तो प्रेम की इनमें सारी बातचीत है--आसक्तियों के, राग के इन सारे वस्त्रों के भीतर हमारी घृणा मौजूद होती है। इसलिए जिसे हम एक दिन प्रेम से गले लगाते मालूम पड़ते हैं, दूसरे दिन उसका गला हमारे शिकंजे में कस जाता है और इसलिए हमारी सारी प्रेम की बातचीत गहरे में बंधन बन जाती है। दूसरे को बांधती है, रोकती है, कारागृह में डालती है। प्रेम कैसे किसी को बांधेगा और कारागृह में डालेगा?
प्रेम तो मुक्त करेगा, स्वतंत्र करेगा, दूसरे व्यक्ति को व्यक्ति बनने देगा। और आसक्ति दूसरे व्यक्ति को वस्तु बना लेती है और इतना पजेस करती है कि वह नहीं मानती कि दूसरे के पास कोई आत्मा है। तो मैं हां कहूं तो हां, मैं ना कहूं तो ना, दिन कहूं तो दिन, रात कहूं तो रात! आसक्ति कहती है, मैं हूं तो मैं ही हूं, तुम मिट जाओ। तो आसक्ति व्यक्ति को वस्तु बना लेती है। पतियों ने पत्नियों को वस्तुएं बना रखा है, पत्नियों ने पतियों को। सब प्रेमियों ने सब प्रेमियों को वस्तु बना रखा है और जहां वस्तु थोड़ा हलचल दिखाती है, स्वतंत्रता दिखाती है, वहीं आसक्ति दुश्मनी और कष्ट में पड़ जाती है।
प्रेम है चित्त की अवस्था, संबंध नहीं। आसक्ति है एक संबंध। और जहां संबंध है वहां जरूरत है; क्योंकि जरूरत के लिए ही हम संबंधित होते हैं। प्रेम भी संबंधित होगा, लेकिन वह संबंध नहीं है। वहां जैसा मैंने कहा, दीये की रोशनी गिर रही है, आप निकलेंगे तो आप पर रोशनी पड़ेगी, संबंधित होगी; लेकिन दीये के मन में संबंध की कोई आकांक्षा नहीं है। आप चले गए, बात विदा हो गई। संबंध का कोई आग्रह भी नहीं।
इतना ही सरल है प्रेम। और प्रेम से ज्यादा सरल इनोसेंट निर्दोष कुछ भी नहीं है। आसक्ति से ज्यादा कठिन, जटिल और कनिंग, चालाक कुछ भी नहीं है। लेकिन हमने आसक्ति को ही प्रेम समझा हुआ है। और इसलिए सारी भूल निरंतर भूल होती चली जाती है। आसक्ति सारे जीवन को जहर की तरह घेर लेती है, खुद को भी और जिससे हम बंधते हैं उसको भी। और धीरे-धीरे आदमी--आसक्ति के तल पर जीने वाला आदमी, स्वयं को जान ही नहीं पाता। संबंधों में ही जीता है, संबंध को ही जानता है। वह मैं कौन हूं जो संबंधित हो रहा है, उसका उसे कोई पता नहीं चलता!
इसलिए प्रेम की यात्रा पर जो भी निकलना चाहे, वह प्रेम की यात्रा प्रेमी की या प्रेमिका की तलाश से नहीं पूरी होने वाली है। प्रेम की यात्रा पर जो निकलना चाहे, उसे पहले तो स्वयं की खोज करनी पड़ती है, मैं कौन हूं? और मुझे जिस दिन पूरा पता चल जाए कि मैं कौन हूं, उस दिन मैं संबंधों का आकांक्षी नहीं रह जाता, क्योंकि मैं अपने में पूरा हो जाता हूं। उस दिन कोई कमी नहीं रह जाती और उस तल पर मेरी कोई दूसरे से पूरी होने वाली जरूरत नहीं रह जाती। उस तल पर मैं आप्तकाम, सेल्फ-फुलफिल्ड, अपने भीतर पूरा हो जाता हूं। उस पूर्णता से ही आनंद उपलब्ध होता है।
अपूर्णता दुख है और अपूर्णता में हमें दूसरे से बंधना पड़ता है। क्योंकि दूसरा हमें शायद पूरा कर सके, इसी आशा में हम बंधते हैं। लेकिन कोई किसी को पूरा नहीं कर सकता है, क्योंकि गहरे में हम पूरे हैं ही। इसका हमें एक दफे पता चल जाए कि मैं पूर्ण हूं तो आनंद के झरने फूटने शुरू हो जाते हैं। फिर मैं प्रेम दे सकता हूं, फिर मैं प्रेम कर सकता हूं बिना बंधे, बिना बांधे। फिर बिना किसी को गुलाम बनाए, बिना किसी को कारागृह में डाले, बिना किसी को क्षण भर रोके, मेरा प्रेम बेशर्त--अनकंडीशनल गिविंग, दान हो सकता है। और उस तल पर तो प्रेम है इसलिए प्रेम मेरे लिए परमात्मा का ही स्वरूप है। और उसका हमें कोई भी पता नहीं चलता, क्योंकि हम आसक्ति को ही प्रेम समझ लेते हैं।
आसक्ति प्रेम का धोखा है, झूठा सिक्का है। जिसे शक होता है प्रेम होने का और जिसने इस झूठे सिक्के को सच्चा समझ लिया वह कभी प्रेम की तलाश पर, यात्रा पर ही नहीं जाता है।
प्रेम की खोज उतनी ही गहरी है, जितनी प्रभु की। और प्रेम की साधना उतनी ही गहरी है, जितनी परमात्मा की। क्योंकि प्रेम को कोई पा ही नहीं सकता, जब तक स्वयं को न पा ले। प्रेम इस अर्थ में आनंद का अनुषंगी है। आनंद जहां घटित होगा, प्रेम उसकी परिधि है, प्रेम उसके चारों तरफ बंटना शुरू हो जाता है।
बट व्हेन आचार्य जी, वि लिव इन दि सोसायटी, वि हैव टु लिव इन सरटेन रिलेशन। वाॅट मेज.र्ज यू सुजेस्ट सो दैट वि लिव इन दि सोसायटी बट फुल, ए.ज यू सुजेस्ट दि कंडीशन ऑफ लव-इन दि स्टेट ऑफ लव?
निश्चित ही समाज में हमें जीना हो तो संबंधों में हमें जीना होगा। लेकिन संबंध हमारी किसी मानसिक कमी को, किसी आध्यत्मिक अभाव को पूरा न करने वाले हों। हम तो अपने भीतर पूरे हों, फिर संबंध हों। हम तो अपने भीतर पूर्ण हों और फिर संबंध हों, तो ये संबंध कभी भी हमारी आध्यात्मिक गुलामी अपने लिए या दूसरे के लिए निर्धारित नहीं करेंगे; ये एक स्वतंत्रता में खिले हुए फूल होंगे।
दो फूल पास-पास खिलते हैं, वे भी संबंधित हैं। दोनों को एक-दूसरे की सुगंध मिलती है, लेकिन कोई किसी पर निर्भर नहीं है, कोई किसी से बंधा नहीं है और किसी की कोई मांग नहीं है। आकाश में इतने तारे रात को प्रकाशित होते हैं। सब तारे प्रकाश फेंकते हैं। सबका प्रकाश एक दूसरे से मिलता और संबंधित होता है, लेकिन कोई तारा किसी के प्रकाश से बंधा हुआ नहीं है। सबका अपना प्रकाश है। उनके व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं पड़ती है इस संबंधित हो जाने से। एक कमरे में पचास दीये जलते हैं, तो उनकी रोशनी मिल जाती है सब दीयों की, एक हो जाती है। रोशनी में कोई फर्क नहीं रह जाता; लेकिन कोई दीया किसी दूसरे दीये पर निर्भर नहीं है। दीये स्वयं हैं।
तो मेरा कहना यह है कि प्रेम में हमारा होना हो, फिर हम संबंधित होंगे। लेकिन ये संबंध बिलकुल ही दूसरे डायमेंशन, दूसरे आयाम में होगा; जहां दूसरे पर हम निर्भर नहीं, और न दूसरे को हम अपने पर निर्भर करते हैं; जहां एक-एक स्वतंत्र और मुक्त है, फिर भी हम मिलते हैं। इस मिलन का
आनंद ही और है, क्योंकि इस मिलन में बांधने का, बंधने का, बंधन का, बेड़ियों का, जंजीरों का कहीं कोई अस्तित्व नहीं, कोई झनकार नहीं। यहां एक दूसरे को हम मिल कर भी हम मुक्त ही रखते हैं। यहां एक दूसरे से मिलते हैं, फिर भी स्वयं होते हैं। वह जो हमारा ऑथेंटिक बीइंग है, वह कहीं खोता नहीं। न हम किसी से अपने को एक मानते हैं, न हम किसी को अपने साथ एक करने का आग्रह रखते हैं।
तब हम तादात्म्य, आइडेंटिटी पर जोर नहीं देते। प्रत्येक प्रत्येक होता है। सब अपने में जीते हैं। फिर हम संबंधित होते हैं। तब यह संबंध बिलकुल ही बेशर्त है, तब यह सिर्फ दान का ही संबंध है और इसमें एक अनुग्रह, ग्रेटिट्यूट है। हम पास आते हैं, एक-दूसरे का आनंद एक-दूसरे पर पड़ेगा, मिलेंगे--लेकिन विदा हो जाएंगे, कल अपने-अपने रास्ते पर। पीछे कोई भी दंश, कोई भी घाव नहीं छूट जाएगा।
मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं। निश्चित ही सवाल उठता है कि समाज में तो हमें संबंधित होना है। समाज का अर्थ ही संबंधित होना है। समाज है, अर्थात संबंध है। लेकिन अभी संबंध ऐसे लोगों के बीच हैं, जो स्वयं हैं ही नहीं। जो भीतर से एब्सेंट हैं, अनुपस्थित हैं। तो अभी सारे संबंध चेहरों के हैं, भीतर तो कोई संबंधित नहीं होता, क्योंकि भीतर हम हैं ही नहीं, जो संबंधित हो सकें। इसलिए संबंध सब झूठे हैं और संबंध सब, जरूरतों से ज्यादा नहीं हैं। क्योंकि जिससे हमारी जरूरत पूरी होती है, संबंधित होते हैं; जरूरत टूटी, असंबंधित हो जाते हैं।
और इसका मतलब यह हुआ कि जब हम किसी से संबंधित हो रहे हैं, तो हम उससे संबंधित नहीं हो रहे हैं। हमारी जरूरत को पूरा करने वाले एक साधन से संबंधित हो रहे हैं। कोई बीच में एक और ही कारण है, संबंध का। इसलिए हमारे सारे संबंध, ठीक से कहें तो व्यापारिक हैं, कमर्शियल हैं--मित्रता भी, प्रेम भी, उसमें भी व्यापार खड़ा है। उसमें भी हमें उस व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य उतना ही है जितना वह मेरे लिए साधन बन जाए, मीन्.ज बन जाए, मेरे किसी काम में उपयोगी हो जाए; मेरी जिंदगी की दौड़ में हाथ बंटा ले--बस उतना ही मेरा संबंध है। और वह भी मेरे पास इसीलिए आया है कि मैं उसके लिए संबंध देकर एक साधन बन जाऊं।
हम एक दूसरे को साधन बना रहे हैं और मनुष्य के जीवन में इससे बड़ी दुख की बात नहीं कि किसी मनुष्य को साधन की तरह, मीन्स की तरह व्यवहार करना पड़े; क्योंकि जिसे हम साधन बनाते हैं, वह वस्तु हो गया। एक-एक व्यक्ति साध्य है, एंड है, मीन्स नहीं। और तब हमें यह ध्यान में लेना है कि मैं किसी व्यक्ति को साधन न बनाऊं, पर यह तभी संभव होगा, जब मेरे भीतर प्रेम का उदय होगा। तब एक-एक व्यक्ति अपना-अपना साध्य होगा। मैं उसके लिए सहायक बन सकता हूं, वह मेरे लिए सहायक बन सकता है, लेकिन साधन बनाने की आकांक्षा कहीं भी नहीं है। यह सहज घटना है, तो साथ खड़े होंगे और सहयोगी हो जाएंगे। अभी हम सहयोगी हो ही नहीं सकते, अभी हम मालिक और गुलाम ही हो सकते हैं।
सहयोग की संभावना तभी है, जब दो व्यक्तियों का जन्म हो। अभी जो समाज है, उसमें प्रेम करने वाले व्यक्ति को भी बड़े कष्ट झेलने पड़ेंगे, क्योंकि वह तो सभी को साध्य मानेगा। और सभी उसको साधन मानेंगे। उसे बड़े कष्टों से गुजरना पड़ेगा। उस आदमी को बड़ी मिस-अंडरस्टेंडिंग झेलनी पड़ेगी। उस आदमी को कोई भी नहीं समझ सकेगा। क्योंकि वह आदमी जिस भाषा में हम सोचते हैं और जीते हैं, उस भाषा का आदमी नहीं है। इसलिए इस जगत में अब तक प्रेम करने वाले व्यक्ति को बहुत कष्ट झेलने पड़े। लेकिन प्रेम का आनंद इतना ज्यादा है कि इन कष्टों का कोई मूल्य ही नहीं है। वह इन्हें झेल लेता है।
प्रेम का आनंद इतना है, उसके पास आनंद की धारा इतनी बड़ी है कि ये सारे कष्ट कहां खो जाते हैं, यह उसे पता नहीं चलता। लेकिन अगर हम बाहर की तरफ से देखें तो प्रेम करने वाले व्यक्ति को मुसीबत में पड़ जाना स्वाभाविक है, क्योंकि वह प्रत्येक को साध्य मान कर चलेगा, जब कि जो भी उसके निकट आएंगे, उसको साधन मानेंगे। वह लोगों को प्रेम देगा, क्योंकि प्रेम उसके भीतर है। वह संबंधित हुए बिना प्रेम देगा, हां।
डु यू सजेस्ट आचार्य जी, एनी एज्यूकेशन व्हिच कैन स्टाइमुलेट दि माइंड ऑफ दि पिपल दैट दे कैन गिव लव ऑर दे मेय लिव इन दि स्टेट ऑफ लव?
जरूर, निश्चित ही! व्यक्ति को जिस ढंग से हमने अब तक शिक्षित और संस्कृत किया है, जिस तरह की सभ्यता सिखाई है, वह सारी की सारी सभ्यता, सारी संस्कृति, सारी शिक्षा, उसे सिर्फ चालाक बनाती है, उसे कनिंग बनाती है। चालाक इस अर्थों में कि वह शिक्षित आदमी दूसरे लोगों को कैसे साधन बना सके। और वही आदमी शिक्षित है, जो अधिकतम लोगों को साधन बना ले! और वह आदमी अशिक्षित है, गंवार है, बेपढ़ा-लिखा है, जो बेचारा किसी को साधन न बना पाए। तो इस दुनिया में जो आदमी जितना अधिक लोगों को साधन बना लेता है, उतना बड़ा आदमी हो जाता है। सफल, उतना बड़ा राजनीतिक, उतने बड़े पदों पर, क्योंकि वह अधिक लोगों को अपना साधन बना लेता है; और उनके ऊपर, उनकी छाती पर, उनके सिर पर सवार हो जाता है।
अब तक की सारी शिक्षा चालाकी की शिक्षा है और अब तक की सारी शिक्षा महत्वाकांक्षा की, एंबीशन की शिक्षा है। अब यह ध्यान रहे कि महत्वाकांक्षा से भरा हुआ आदमी कभी भी प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि जो आदमी एंबीशस है, महत्वाकांक्षी है, वह दूसरे को साधन बना कर अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना चाहेगा। प्रेम करने वाला महत्वाकांक्षी हो ही नहीं सकता। क्योंकि इस जगत में वह किसी को भी साधन नहीं बना सकता। हमारा तो मजा इतना गहरा है कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति आदमियों को तो दूर, परमात्मा तक को साधन बनाती है! एक आदमी मंदिर में खड़ा है, भगवान से कह रहा है कि मेरे लड़के को नौकरी दिला देना तो मैं एक नारियल चढ़ाऊंगा। वह भगवान को भी अपनी चाकरी में, नौकरी में लगा रहा है। और साथ में प्रलोभन, और शर्त भी बांध रहा है कि तब वह एक नारियल चढ़ाएगा, जब उसके लड़के को नौकरी मिल जाएगी!
यह जो हमारी...इस भांति से सारा धर्म, सारी शिक्षा हमें अब तक सिखा ही यही रही है कि तुम प्रेम मत करो, क्योंकि प्रेम करने से असफल हो सकते हो। सफल होना है तो सावधान रहना है, और सफल होना है तो उसी सीमा तक प्रेम का व्यवहार और अभिनय करना है, जिस सीमा तक तुम एक आदमी का शोषण कर सको।
तो तथाकथित शिक्षा ने अब तक मनुष्य को प्रेमपूर्ण होने से रोका है। इस बात की बहुत संभावना है कि अशिक्षित, आदिवासी, प्राचीन खो गई जंगलों की समाजें, शायद हमसे ज्यादा प्रेमपूर्ण रही हैं। लेकिन जितनी शिक्षा, जितनी सभ्यता और जितनी संस्कृति बढ़ी है, उतनी मनुष्य की चालाकी, महत्वाकांक्षा, सफल होने की वासना तीव्र हुई है। इस सब तीव्रता ने प्रेम की संभावना को क्षीण किया है। तो निश्चित ही इससे उलटे तरह की शिक्षा हो सकती है, होनी चाहिए। उस शिक्षा में हम व्यक्ति को महत्वाकांक्षा नहीं सिखाएंगे, क्योंकि महत्वाकांक्षी व्यक्ति प्रेम कर ही नहीं सकता। महत्वाकांक्षी घृणा ही करता है और महत्वाकांक्षी अपने को केंद्र मानता है, और प्रत्येक को साधन मानता है। और कोई व्यक्ति को भी वह इतना मूल्य नहीं देता कि उसे साध्य माने। अगर तुम उसके लिए सीढ़ी बना सकते हो तो ठीक है, अन्यथा वह लात मार देगा। और सीढ़ी पर चढ़ जाने के बाद भी लात मार देगा, कि इस सीढ़ी से कोई और न चढ़ जाए।
तो महत्वाकांक्षा गहरे में हिंसा है। असल में एंबीशन ही वाइलेंस है और जो आदमी महत्वाकांक्षी है, वह कभी अहिंसक नहीं हो सकता। और प्रेम तो अहिंसा है, प्रेम तो टोटल नाॅन-वाइलेंट होने की बात है--जहां मन पूर्ण रूप से अहिंसक हो जाता, हो गया, जहां वह किसी को दुख नहीं देना चाहता।
तो हम एक ऐसी शिक्षा व्यवस्थित जरूर कर सकते हैं, जहां महत्वाकांक्षा न सिखाई जाती हो, जहां बजाय महत्वाकांक्षा के हम व्यक्ति को व्यक्तित्व देना सिखाते हों। उसे उन साधनाओं में से गुजारते हों, जहां उसके भीतर आनंद के झरने प्रकट होने लगें--ध्यान से, योग से। हम उसे उन प्रक्रियाओं में ले जाते हों, जहां से वह अपने भीतर आनंद के स्रोत खोज ले और हम धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उसे इतने गैर-महत्वाकांक्षी, नाॅन-एंबीशस माइंड को उसके भीतर पैदा करते हों कि वह दूसरे को साधन बनाने का खयाल ही छोड़ दे। और जब वह अपने भीतर आनंद की जरा सी भी किरण पा ले, तो फिर उसके जीवन में प्रेम शुरू होता है; फिर वह प्रेम करेगा, प्रेम देगा और वह प्रेम बेशर्त होगा। और ऐसे व्यक्ति पैदा न हो सके, तो दुनिया से युद्ध नहीं मिटेंगे। घृणा नहीं मिटेगी, हिंसा नहीं मिटेगी। यह जो अब तक मनुष्य के युद्धों का, घृणा का, हिंसा का इतिहास है, यह इस बात का सबूत है कि हमारी शिक्षा मनुष्य को युद्ध, घृणा और हिंसा सिखा रही है। वह उसे प्रेम नहीं सिखा रही है।
इ.ज आचार्य जी, एन एंबीशियस माइंड, माइंड ऑफ फियर एण्ड सफरिंग फ्राम इनफिरियारिटी काम्पलेक्स?
बिलकुल ही! महत्वाकांक्षी चित्त भय से भरा हुआ चित्त है। और हीनता भी उसके भीतर है। इनफिरिआरिटी भी उसके भीतर है। तो जिस शिक्षा की मैं बात कर रहा हूं, वह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर से हीनता का भाव मिटाने की कोशिश करेगी। अभी वह प्रत्येक व्यक्ति को हीनता का भाव दबाने और सुपीरिआरिटी काम्पलेक्स को पकड़ने की शिक्षा है। वह प्रत्येक व्यक्ति को सिखाती है कि तुम हीनता का भाव भूल जाओ और तुम भी कुछ हो तो पद पर पहुंचो, धन इकट्ठा करो, तुम सिद्ध कर दो कि तुम भी कुछ हो। तो एक उलटी स्थिति बनती है, इनफिरिआरिटी काम्पलेक्स भीतर बना रहता है और सुपीरिआरिटी की दौड़ शुरू हो जाती है। श्रेष्ठता के ऊपर से दौड़ने लगता है आदमी और भीतर हीन बना रहता है।
वास्तविक शिक्षा, जिसे प्रेम की शिक्षा कहें, वह व्यक्ति के भीतर श्रेष्ठता का भाव पैदा नहीं करेगी; सिर्फ हीनता का भाव कैसे विसर्जित हो, यह सिखाएगी। अभी तो हम हीनता का भाव पैदा करवाते हैं। क्योंकि अगर हम पैदा न करवाएं तो श्रेष्ठता की दौड़ शुरू नहीं होती। और श्रेष्ठता की दौड़ न शुरू हो तो महत्वाकांक्षी आदमी बनेगा कैसे? अभी तो हम कहते हैं कि अ नाम का लड़का ब नाम के लड़के से कमजोर है, बुद्धिहीन है। अ नाम के लड़के को हम कहते हैं कि तुम ब से आगे बढ़। देख, तू ब से कितना पीछे है, तू ब के सामने कुछ भी नहीं है। ब कितना सर्टिफिकेट ला रहा है, कितने गोल्ड मेडल ला रहा है; तू तो कुछ भी नहीं है। तो हम कंपेरीजन से, तुलना करके प्रत्येक बच्चे में हीनता का भाव पैदा करवाते हैं और डर पैदा करवाते हैं कि अगर तू हीन रह गया, पीछे रह गया तो तू ना-कुछ, तू नोबडी हो जाएगा, तू फिर कभी नहीं कुछ हो पाएगा। तो हम एक फीवर, एक ज्वर पैदा करते हैं; बुखार, जिसमें कि वह दौड़े, हीन होने के डर से घबड़ा जाए और महत्वाकांक्षी बने।
जिस शिक्षा की मैं बात कर रहा हूं, वह कंपेरिजन नहीं सिखाएगी। वह शिक्षा यह नहीं कहेगी कि तुम अ से पीछे हो। वह शिक्षा यह कहेगी कि तुम तुम हो, और तुम्हारे जैसा आदमी कोई भी न कभी हुआ है, न होगा। वह यह बात सिखाएगी कि प्रत्येक व्यक्ति एक बेजोड़, अद्वितीय, यूनिक व्यक्ति है--इसकी तुलना ही असंभव है। यह जैसा है बस, ऐसा कभी कोई हुआ ही नहीं, न कभी हो सकता है। इसलिए इसकी तुलना करना कि तुम आगे हो किससे, पीछे हो किससे, बेमानी है। तुलना तो तब हो सकती है, जब एक जैसे लोग हों।
प्रेम की अवस्था पैदा हो सके, इसके लिए हीनता को दबाना नहीं है--न हीनता को पैदा करना है, न श्रेष्ठता की ज्वर-ग्रस्त दौड़ पैदा करनी है। हीनता को पोंछ डालना है। हीनता अज्ञान से पैदा हो गई है, नासमझी से पैदा हो गई है। हीन कोई है ही नहीं। न कोई महान है, न कोई हीन है, क्योंकि दो जैसे एक व्यक्ति हैं ही नहीं। एक-एक व्यक्ति अकेला है। इसलिए तुलना का, कंपेरिजन का उपाय नहीं है। अब तक की सारी शिक्षा कंपेरिजन पर, तुलना पर खड़ी है। तुलना हीनता पैदा करेगी, श्रेष्ठता पैदा करेगी। तुलना डर पैदा करेगी, आगे दौड़ने, पीछे दौड़ने का भाव पैदा करेगी। तुलना से बचना होगा। तुलना से मुक्त होना पड़ेगा। तो जिस शिक्षा की मैं बात कर रहा हूं वहां तुलना के लिए कोई गुंजाइश नहीं होगी। तुलना नहीं होगी।
हम एक-एक व्यक्ति को इस भाव-दशा में, ऐसे वातावरण में, ऐसे शिक्षकों, ऐसे मित्रों में, ऐसे स्कूल में पालने की कोशिश करेंगे, जहां भूल कर भी कभी कोई तुलना न करता हो। एक-एक व्यक्ति जैसा है, वैसा स्वीकृत है। और वह जैसा है, उसको हम कैसे विकासमान करें, उसके लिए भूमि, वातावरण तैयार किया जाता है। जहां शिक्षक सहयोगी है, हम जो हैं, वही बनाने में; जहां शिक्षक इसके लिए चेष्टारत नहीं हैं कि हम जो नहीं हैं, कोई और जैसे बनें।
जहां प्रत्येक व्यक्ति को, जो वह हो सकता है, जो उसकी पोटेंशियलिटी है, जो उसके भीतर छिपा है--उसको प्रकट करने के लिए सहयोग दिया जा रहा है। और कोई तुलना का भाव नहीं पैदा किया जा रहा है। तब हीनता मिटेगी और तब श्रेष्ठता की दौड़ भी मिट जाएगी और तब महत्वाकांक्षा नहीं रहेगी। और ऐसे चित्त में जिसमें हीनता नहीं है, श्रेष्ठता नहीं है, तुलना नहीं है, प्रेम का उदभव हो सकता है।
‘शिक्षाः साध्य और साधन’ विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-3
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