शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-अठारहवां
निराग्रही, अन्वेषक चित्त की खोज
आचार्य जी, मैनी स्काॅलर्स ऑफ ईस्ट एण्ड वेस्ट हैव गिवन मैनी-मैनी एक्सप्लेनेशंस ड्राविंग दि थिन लाइन बिटवीन अंडरस्टैंडिंग एण्ड एग्जे.जरेशन। इवन खलील जिब्रान वेंट टु द एक्सटेंट स्टेटिंग दैट एग्जे.जरेशन इ.ज दि डेड बॉडी ऑफ अंडरस्टैंडिंग। क्रुएल्टी इ.ज द आउटकम ऑफ द एंटी-थिसिस ऑफ लव, एस्केप ऑफ दि कोवरडाइज। इफ आई से सो सर, दैट इट इ.ज दि नॉन-कविजन...ऑर नॉन-अंडरस्टैंडिंग व्हिच बिंरग्स ऑल दि ब्रुटेल्टीज एण्ड केऑस इन दि सोसाइटी। वुड यू प्लीज थ्रो लाइट ऑन दिस आस्पेक्ट ऑफ लाइफ?
इस संबंध में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। यह ठीक है कि जीवन की सारी अराजकता, सारा दुख, सारी क्रूरता नासमझी का ही फल है; अज्ञान का ही फल है। और अज्ञान गहरा है। अज्ञान के गहरे होने में या ज्ञान के होने में जो सबसे बड़ा कारण है, वह चित्त का सम्यक्त्व का अभाव है--एक ऐसी जगह खड़े होना, जिसे हम कहें दो अतियों के बीच में। एग्जे.जरेशन एक अति है, एक एक्सट्रीम है। और अति पर कहीं भी सत्य नहीं है। जैसे घड़ी का पेंडुलम एक कोने से दूसरे कोने पर घूम जाता है, बीच में नहीं रुकता है; ऐसे ही हमारा मन भी एक अति से दूसरी अति पर घूमता रहता है। कभी भी वहां नहीं रुकता जहां अति न हो, जहां बीच हो, जहां मध्य हो। मध्य में रुक गए चित्त को ही ज्ञान उपलब्ध होता है। अतियों पर डोलते चित्त को कभी ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है।
पहली तो बात यह है कि जो अति पर डोल रहा है, जो एक अति से दूसरी अति पर जा रहा है, वह कभी भी थिर नहीं हो पाता। क्योंकि अति पर ठहरना असंभव है। अति को छुआ जा सकता है, छूते ही वापसी, लौटना शुरू हो जाएगा। अति पर कोई ठहर नहीं सकता। और जो चित्त ठहर नहीं सकता, वह सत्य को नहीं जान सकता है। निरंतर गति में डोलता हुआ चित्त ऐसा है, जैसे सागर में तूफान हो। शांत चित्त दर्पण बन सकता है सत्य को जानने का। इसलिए सारी समझ उस चित्त में पैदा होती है जो शांत है। और शांत वही चित्त हो सकता है जो दोनों अतियों से बच जाए और मध्य में खड़ा हो जाए।
कनफ्यूशियस ने जिसे गोल्डन मीन कहा है, या बुद्ध ने जिसे सम्यक-ज्ञान कहा है, या महावीर ने जिसे सम्यकत्व कहा है--इन सबका जो अर्थ है; वह एक ही है। एक ऐसा बिंदु है, जहां हम अति पर नहीं होते हैं। न हम पक्ष में होते हैं, न हम विपक्ष में होते हैं। क्योंकि जो पक्ष में है और पक्ष के आग्रह से भरा है, वह भी प्रिज्युडिस्ड है; जो विपक्ष में है और विपक्ष के आग्रह से भरा है, वह भी प्रिज्युडिस्ड है। और प्रिज्युडिस्ड माइंड, पक्ष से या विपक्ष से भरा हुआ चित्त सत्य को जानने में समर्थ नहीं हो सकता। ऐसा चित्त चाहिए जो निष्पक्ष हो। और निष्पक्ष चित्त तभी होगा जब वह किसी अति पर न हो। अति अंधा करती है। एक्सट्रीम पर होना अंधा होना है और अंधा आदमी कैसे जान सकता है। इसलिए दो-तीन बातें समझनी जरूरी हैं।
पहली तो बात यह है कि हमारा मन साधारणतः अतियों में ही होता है। या तो हम प्रेम करते हैं, या घृणा करते हैं। या तो हम किसी के पीछे पागल होकर मित्र हो जाते हैं या पागल होकर शत्रु हो जाते हैं। जो पागल होकर प्रेम में पड़ गया है, राग में, आसक्ति में--वह भी नहीं समझ पाएगा। जो पागल होकर शत्रु हो गया है, विरोध में खड़ा हो गया है; घृणा से भर गया है--वह भी नहीं समझ पाएगा।
समझने के लिए एक चित्त चाहिए जिसमें कोई आग्रह नहीं हो--न राग का, न विराग का। तब हम समझ पाएंगे क्योंकि तब समझ साफ, निष्पक्ष और निर्मल होगी। तो या तो हम किसी के मित्र होते हैं, या शत्रु होते हैं। मध्य में हम कभी भी नहीं होते। इसलिए न हम मित्रों को समझ पाते हैं, न शत्रुओं को समझ पाते हैं। मित्रों को वैसा समझ लेते हैं, जैसा हम चाहते हैं वे हों। और शत्रुओं को वैसा समझ लेते हैं, जैसा हम मान लेते हैं कि वे हैं।
लेकिन कोई व्यक्ति कैसा है, इसे हम नहीं जान पाते हैं। इसे जानने के लिए तो मित्र और शत्रु के बीच में ठहरना होगा। और यही बात सारी चीजों के संबंध में लागू है। जीवन के सारे सत्यों के संबंध में यह बात लागू है कि हम यदि कोई आग्रह लिए हुए हैं और आग्रह हमेशा अति पर होता है। तो जितना तीव्र आग्रह होगा उतना हम अति पर चले जाते हैं। इसलिए सत्य को समझने के लिए अनाग्रह वृत्ति--एक ऐसी वृत्ति, जिसका कोई आग्रह नहीं है, जो सिर्फ समझना चाहता है। ऐसी समझने की स्थिति में चित्त को मध्य में खड़ा होना पड़ेगा। मित्रता छोड़नी पड़े, शत्रुता छोड़नी पड़े; राग छोड़ना पड़े, द्वेष छोड़ना पड़े और ऐसी जगह खड़ा होना पड़े जहां हमारा मन किसी भी चीज से प्रभावित नहीं है।
और जब चित्त प्रभावित नहीं होता तो अकंप हो जाता है। प्रभाव चित्त को कंपित करते हैं। वह जितने चित्त में कंपन उठते हैं, वे सब प्रभाव से उठते हैं। जब कोई चित्त बिलकुल अप्रभावित है तो निष्कंप होता है। निष्कंप यानी जहां न इस तरफ डोलता है, न बाएं, न दाएं, न लेफ्टिस्ट होता है, न राइटिस्ट होता है, न वामपंथी, न दक्षिणपंथी; वह सिर्फ होता है और उसका कोई पंथ नहीं होता है। उस ठहरे हुए क्षण में अंडरस्टैंडिंग का, ज्ञान का जन्म होता है।
कनफ्यूशियस एक गांव में गया। उस गांव के लोगों ने कहा कि हमारे गांव में एक बहुत बुद्धिमान आदमी है, उससे मिलें। कनफ्यूशियस ने कहाः तुम उसको बहुत बुद्धिमान क्यों कहते हो? तुमने क्या पाया जिससे तुम उसको बुद्धिमान कहते हो? तो उस गांव के लोगों ने कहाः वह इतना बुद्धिमान है कि वह कुछ भी करने के पहले कम से कम तीन बार सोचता है। एक कदम भी उठाए तो तीन बार सोच कर कदम उठाता है।
तो कनफ्यूशियस ने कहा कि फिर मैं उससे नहीं मिलूंगा, क्योंकि कुछ भी करने के पहले जो सिर्फ एक बार सोचता है, वह एक अति पर है और कुछ भी करने के पहले जो तीन बार सोचता है वह दूसरी अति पर है। दो बार सोचना पर्याप्त है। वह मध्य है। तो कनफ्यूशियस ने कहाः बुद्धिमान मैं उसको कहता हूं जो मध्य में है। जो वहां खड़ा है, जहां चीजें सम होती हैं, जो बीच में है। इस बीच की स्थिति में ही ज्ञान का जन्म होता है।
राग का मतलब होता हैः रंग, कलर। जब भी चित्त किसी रंग में रंग जाता है; चाहे मित्रता के, चाहे शत्रुता के, तब फिर वह वही नहीं देख पाता जो है। वह देखने के लिए--जो है, चित्त के ऊपर कोई रंग नहीं चाहिए। सब अतिशय, एग्जे.जरेशन है, एक तरह का रंग है। एक आदमी हिंदू है, यह एक अतिशय है; एक आदमी मुसलमान है, यह एक अतिशय है; एक आदमी पूंजीवादी है, यह एक अतिशय है; एक आदमी साम्यवादी है, यह एक अति है। इनमें से कोई भी नहीं समझ पाएगा जीवन की ठीक-ठीक स्थिति को।
और भी बड़े मजे की बात है कि जैसा मैंने कहा कि मन कभी ठहरता नहीं और एक अति पर पहुंचते ही अपने उलटे में बदलना शुरू हो जाता है। क्योंकि अति इतना एक्सट्रीम बिंदु है कि वहां ठहरा नहीं जा सकता। वहां सिर्फ स्पर्श किया, वापसी शुरू हो जाती है। सिर्फ मध्य में ही कोई ठहर सकता है। अगर घड़ी के पेंडुलम को ठहरना हो तो मध्य में होना पड़ेगा। न ठहरना हो तो वह अतियों पर घूम सकता है।
और यह मजे की बात है कि बाएं ही तरफ अति पर जाकर घड़ी का पेंडुलम जब आखिरी छोर पर पहुंचता है तो इस बाएं तरफ जाने से जो शक्ति अर्जित होती है, वही उसे फिर दाएं तरफ ले जाती है। वही शक्ति, जो उसे दाएं तरफ अति तक ले जाती है, वह फिर उसे बाएं तक ले जाती है! और इसलिए एक बहुत अदभुत नियम है और वह यह है कि अति पर जाने वाला व्यक्ति सदा अपने विपरीत में बदल जाता है।
अगर कोई आदमी किसी व्यक्ति को पागल होकर प्रेम करेगा तो इस बात की बहुत संभावना है कि बहुत जल्दी वह पागल होकर शत्रु हो जाएगा। क्योंकि इस अति पर ठहरना मुश्किल है, वापस पेंडुलम लौटने लगेगा।
भोजन जीवनदायी है। अगर कोई आदमी भोजन करता ही चला जाए तो जीवनदायी भोजन बहुत जल्दी जीवन लेने वाले जहर में परिणित हो जाएगा। अति भोजन मार डालेगा। भोजन जीवन देता है, अति भोजन मार डालेगा। और जो आदमी अति भोजन करेगा उसको ऐसा लगेगा कि यह, यह भोजन ने मुझे मार डाला। ऐसा नहीं लगेगा कि अति ने मार डाला, उसे लगेगा कि भोजन ने मुझे मार डाला। तो अति भोजन करने वाला बहुत जल्दी उपवास शुरू कर देता है। उपवास दूसरी अति है, उपवास भी मार डालेगा। चाहिए सम्यक भोजन, बीच में, जहां न उपवास है, न अति भोजन है। ज्यादा खाने वाला आदमी बहुत जल्दी उपवास करने पर उतर आएगा। उपवास करने वाला आदमी बहुत जल्दी ज्यादा खाने के लिए आतुर हो जाएगा।
और हमारे जीवन के सब पहलुओं में यह अति चलेगी। और जितना चित्त अति में होगा, उतना उलटे में परिवर्तित होता रहेगा और इसलिए कभी उसे नहीं देख पाएगा, जो है। जो है, उसे देखना ही अंडरस्टैंडिंग है। सब स्थितियों में, व्यक्तियों के संबंध में, स्थितियों के संबंध में, सभी समस्याओं के संबंध में, जो है उसको वैसा ही देखना। लेकिन जो है उसको वैसा ही देखना तभी संभव है, जब मैं बिलकुल शांत, थिर हूं, ठहरा हुआ हूं। मेरे मन के ऊपर कोई कंपन नहीं है, कोई राग नहीं, कोई रंग नहीं, कोई अतिशय भार नहीं। जब मैं बिलकुल मौन ठहरा हुआ हूं, तब मैं समझ पाऊंगा।
और ऐसा नहीं हो पाता। या तो एक आदमी भोगी होता है, तब वह भोग की अति पर होता है, या फिर यही आदमी कल त्यागी हो जाता है और त्याग की अति पकड़ लेता है। लेकिन कभी भी बीच में खड़ा नहीं होता जहां कि भोग और त्याग दोनों न हों, जहां चीजें थिर और शांत हो जाएं। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि गरीब समाज भौतिकवादी हो जाता है। गरीब समाज मैटीरियलिस्ट हो जाएगा। अमीर समाज बहुत जल्दी स्प्रिचुअलिस्ट और अध्यात्मवादी होने लगेगा। और ये अतियां डोलती रही हैं।
जैसे यह देश कभी अमीर था तो अध्यात्मवादी था। पूरा देश नहीं सही, तो जो भी अमीर थे, वे अध्यात्मवादी थे। फिर अब देश गरीब है तो भौतिकवादी होगा। अमेरिका में अब धन इतना बढ़ गया, उस अति पर पहुंच गया कि अब त्याग का विचार करना जरूरी हो गया। अब वे त्याग का विचार कर रहे हैं। अब धर्म की बड़ी प्रभावना है, धर्म पर बड़ा चिंतन है। यह भी पूरब-पश्चिम अतियां डोलती रहती हैं।
और साधारणतया व्यक्ति भी कभी मध्य में नहीं ठहरता। और जो व्यक्ति मध्य में नहीं ठहरता, उसको कभी भी समझ पैदा नहीं होगी। और जिसको समझ पैदा नहीं होगी, वह व्यक्ति सब तरह की अराजकताओं, दुखों, कठोरताओं, क्रूरताओं को जन्म देने वाला होगा। क्योंकि उसकी नासमझी और कुछ कर ही नहीं सकती। और नासमझी में जो भी किया जाएगा, चाहे वह किसी के हित के खयाल से ही क्यों न किया जाए, वह भी अहित ही करने वाला होगा। मैं हित में करता हूं या अहित में, यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। मैं समझ में करता हूं, या नासमझी में, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नासमझी में किया गया हित भी अहित लाता है। और समझपूर्वक तो अहित किया नहीं जा सकता। इसलिए जो भी किया जाता है, वह हितपूर्ण हो जाता है।
यह भी ठीक है कि मनुष्य के जीवन में जितनी क्रूरताएं, जितनी कठोरताएं, जितनी हिंसा दिखाई पड़ती है, वह उसकी समझ के अभाव का ही परिणाम है। और इसीलिए हम किसी आदमी की कठोरता को नहीं बदल सकते हैं। अगर उसको हम समझ ला सकें तो उसकी कठोरता विदा हो जाएगी। इसलिए किसी कठोर आदमी को अहिंसा का उपदेश देने से वह आदमी अहिंसक नहीं हो सकता। हां, हो सकता है कि वह कठोर आदमी अहिंसक हो जाए, दिखाई पड़ने लगे; लेकिन अब सिर्फ इतना ही फर्क पड़ेगा कि जो हिंसा वह दूसरों के साथ कर रहा था, वह हिंसा वह अपने साथ शुरू कर देगा। वह एक अति दूसरे को दुख देने से दूसरी अति पर आ जाएगा, अपने को दुख देना शुरू कर देगा। कल वह दूसरे के शरीरों को काट रहा था, अब वह अपने शरीर को काटेगा और मारेगा। लेकिन अहिंसक वह नहीं हो पाएगा। इसीलिए मेरा कहना है कि हिंसक को अहिंसा के उपदेश की जरूरत नहीं है। हिंसक को ऐसे चित्त की जरूरत है कि वह मध्य में खड़े होकर देख सके; तब वह अपने आप अहिंसक हो जाएगा।
जितने विरोध हैं जगत में, जितने संप्रदाय हैं, जितने पंथ हैं--ये सब अतियों से पैदा हुए हैं। अगर मनुष्य में समझ गहरी हो, साफ हो तो दुनिया में कोई पंथ नहीं होगा, क्योंकि कोई अति नहीं होगी।
डु यू फील आचार्य जी, इट इ.ज ऑल लीडर्स, मे बी पाॅलिटिकल ऑर रिलिजियस। ऑर दे आलसो मुविंग इन दि सेम डायलेमा?
हां, असल बात यह है कि मध्य में खड़े होकर और नेता होना बहुत मुश्किल है। अति पर खड़े होकर ही नेतृत्व आसानी से मिलता है, लीडरशिप आसानी से मिलती है। क्योंकि अधिकतम लोगों का चित्त अतियों में होता है। और इसलिए कोई भी अति पर नेतृत्व मिल सकता है। और मध्य की बात इतनी विनम्र, इतनी उदार होती है कि मध्य में नेतृत्व ग्रहण करना बहुत मुश्किल है।
तो जो व्यक्ति मध्य में होगा, नेता होना उसे मुश्किल है--न धर्म का, न राजनीति का। अति पर होने पर ही नेतृत्व आसान है। सब पूंजीवादी शैतान हैं, पूंजीवाद जहर है--इतनी अति पर कोई खड़ा हो तो मजदूर का नेता हो पाएगा। इस अति पर खड़े हुए बिना मजदूर का नेता होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि यही अति मजदूर के मन को अपील करेगी। वह भी इसी अति पर खड़ा हुआ है। मध्य में तो लोग ही नहीं हैं, इसलिए मध्य में खड़े हुए व्यक्ति को साथी मित्र खोजना भी मुश्किल है। क्योंकि वह, वह संख्या ही नहीं है लोगों की, जो मध्य में हों खड़े। हां दूसरी अति पर फिर लोग मिल जाएंगे।
सब मुसलमान राक्षस हैं तो हिंदू का नेतृत्व किया जा सकता है। सब हिंदू काफिर हैं तो मुसलमान का नेतृत्व किया जा सकता है। हालांकि ये सब झूठी बातें हैं। क्योंकि एक हिंदू दूसरे हिंदू जैसा नहीं है; एक मुसलमान दूसरे मुसलमान जैसा नहीं है। लेकिन इतनी अतियों पर ही लोगों के मन प्रभावित होते हैं क्योंकि लोग अतियों पर हैं। इसलिए सब नेता नुकसान पहुंचाते हैं।
असल में दुनिया को नेताओं की जरूरत नहीं है। और अच्छी दुनिया में नेता होंगे ही नहीं। नेता बीमारों के ही नेता हैं। जितनी दुनिया शांत और अच्छी होती चली जाएगी, वहां नेता नहीं होंगे। वहां ऐसे व्यक्ति जरूर होंगे जो प्रेरणा के स्रोत बनें। प्रेरणा के स्रोत बनें, लेकिन उन्हें पता भी नहीं होगा कि वे प्रेरणा के स्रोत हैं। ऐसे शांत लोग जरूर होंगे। दुनिया में ऐसे लोग भी हुए हैं जो वहां खड़े थे, जहां मध्य है। लेकिन जब तक वे मध्य में खड़े थे, तब तक दुनिया ने उनकी तरफ देखा भी नहीं! जब उनके आस-पास ऐसे लोग इकट्ठे हो गए जिन्होंने उनकी मध्यस्थता को तो एक तरफ फेंका और उनकी बातों को अति पर खींच कर खड़ा कर दिया, तब फिर उनको नेतृत्व उपलब्ध हो गया।
महावीर को या बुद्ध को या जीसस को या सुकरात को अपने जीवन में नेतृत्व नहीं मिला। नेतृत्व मिला मरने के बाद! और उन लोगों की वजह से मिला, जिन्होंने खींच कर चीजें अतियों पर खड़ी कर दीं। इतनी अति पर जब तक न खड़ी हो जाए बात, जब तक कि अति से बीमार लोग उसको पकड़ पाएं, तब तक कोई नेतृत्व को उपलब्ध नहीं होता। इसलिए दुनिया में नेता नुकसानदायक सिद्ध हुआ है। नेता की जरूरत भी नहीं है। दुनिया में समझदार लोगों की जरूरत है। ऐसे समझदार लोग प्रेरणा के स्रोत बन जाएंगे। उनको पता भी नहीं होगा, लेकिन उनके आस-पास शांति की लहरें फैलनी शुरू होंगी, प्रकाश फैलना शुरू होगा। बहुत से लोगों को उनका जीवन प्रेरणादायी मालूम पड़ेगा और लगेगा कि किस बिंदु पर खड़े होकर इतनी शांति को वे उपलब्ध हुए हैं। हम भी कैसे उस बिंदु को उपलब्ध हो जाएं!
अत्यंत शांत और मध्य में खड़ा हुआ व्यक्ति इतना शांत होगा कि उसके प्रभाव को पकड़ने के लिए भी बड़ी शांति चाहिए। हमारे खयाल में नहीं आएगा वह, क्योंकि उसमें कोई फीवर और कोई ज्वर नहीं होगा, और ज्वर के बिना नेतृत्व बड़ा मुश्किल है। जितने जोर से फीवरिश हम लोगों को कर सकें, जितना पागल कर सकें, और जितना मैनिया पैदा कर सकें, खतरा पैदा कर सकें और लोगों को जितना घबड़ा सकें, उतना ही नेतृत्व सरल होता है।
हिटलर या स्टैलिन या माओ जैसे लोग नेता हो सकते हैं, और बड़े नेता हो सकते हैं। क्योंकि बड़ी अति पर वे बात करते हैं। गांधी जैसे लोग भी नेता हो सकते हैं, क्योंकि वह भी बड़ी अति पर बात करते हैं। अगर वे हिंसा की अति पर बात करते हैं तो गांधी जैसे लोग अहिंसा की अति पर बात करते हैं। अति प्रलोभक है। अति काफी रस देती है। लेकिन ठीक मध्यस्थ व्यक्ति हमारी समझ के बाहर हो जाता है। क्योंकि वह जो बात करेगा वह इतनी शांत होगी, वह इतनी सत्य होगी, वह इतने बीच में होगी कि उस बात को पकड़ पाना ही हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा।
अगर बुद्ध से जाकर कोई पूछे, ईश्वर है? तो बुद्ध कहेंगे, हो भी सकता है। और कोई पूछे, ईश्वर नहीं है? तो बुद्ध कहेंगे, नहीं भी हो सकता है। अब ऐसा आदमी नेतृत्व कैसे ग्रहण करे? अब बुद्ध इतने मध्यस्थ हैं। वह वैसी ही हालत है, जैसे कि एक कमरे में एक गिलास आधा पानी से भरा हुआ रखा हो और एक आदमी बाहर आकर कहे कि गिलास आधा खाली है, और एक आदमी बाहर आकर कहे कि गिलास आधा भरा है। तो इन दोनों में विवाद हो सकता है। ये दो पार्टियां बन सकती हैं। एक तीसरा आदमी है जो बिलकुल मध्यस्थ है, जो पूरी बात देख कर लौटा है कि गिलास आधा खाली भी है और आधा भरा भी है। वह कहेगा, तुम भी ठीक हो और तुम भी ठीक हो। और तुम भी गलत हो और तुम भी गलत हो। आधा गिलास भी है, नहीं भी है। आधा खाली भी है और नहीं भी है।
अब ऐसा आदमी इतनी विनम्र प्रस्तावना कर रहा है कि उसके लिए नेतृत्व उपलब्ध करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि यह किसी तरह का ज्वर पैदा नहीं करता। लोग इससे हट ही जाएंगे। वे कहेंगे, यह आदमी क्या है, यह सभी बातों में हां भरता है। यह इसको भी ठीक कहता है, उसको भी ठीक कहता है! जब तक इसको गलत न कहे कोई तीव्रता से, और अति पर, और जब तक किसी दूसरी चीज को अति पर ठीक न कहे और एब्सोल्यूट ट्रूथ का दावा न करे कि यह परम सत्य है, तब तक नेतृत्व नहीं मिलता। इसलिए सब नेतृत्व लोगों में नासमझी का शोषण है और, और एक चक्कर पैदा करता है। नासमझी का शोषण और नासमझी बढ़ाता है।
इसलिए दुनिया में नेताओं ने कोई हित नहीं किया। न अनुयायियों ने कोई हित किया। अब एक ऐसी दुनिया चाहिए जहां नेता-अनुयायी हो ही नहीं। वहां हम ऐसे लोग चाहते हैं जो शांति के प्रेरणास्वरूप हों, जो वहां मध्य में खड़े हों, जहां जीवन की सब अतियां विलीन हो जाती हैं और जहां वह दिखाई पड़ता है, जो है। और इस मध्य की अत्यंत डेलिकेट, और अत्यंत सूक्ष्म अनुभूति में, फिर वे दोनों अतियों को या तो गलत कहेंगे या दोनों को एक साथ सही कह देंगे। क्योंकि उस मध्य के बिंदु पर यही दो बातें संभावना की हैं। या तो वे कहें, दोनों ठीक हैं या वे कहें, दोनों गलत हैं। क्योंकि जो है, वह दोनों से भिन्न है।
यह दुनिया की जितनी पीड़ा, कलह और संघर्ष है, यह नेताओं के कारण है, अनुयायियों के कारण है। और ऐसी समझ बढ़ाने की जरूरत है कि कोई किसी का अनुयायी न बने। और नेता बनना और नेता बनने की आकांक्षा और चेष्टा भी गर्हित पाप है, अपराध है, यह भी ध्यान में रखना जरूरी है। क्योंकि जिस तरह के लोगों का नेता हमें बनना हो उसी तरह की बातें कहनी जरूरी हो जाती हैं। अगर पागल हों, तो पागलों के बीच में उनसे बड़ा पागल ही नेता पागल हो सकता है। क्योंकि वह उतना बड़ा पागलपन प्रकट करे कि पागल उसके अनुयायी हो जाएं। और दुनिया अज्ञान में और नासमझी में है। इसलिए जितनी नासमझी की बातें करने वाला नेता हो, उतनी शीघ्रता से नेतृत्व पा सकता है।
असल में दुनिया में नेतृत्व, मिस्चीवियस और उपद्रवी किस्म के लोग, नेतृत्व ग्रहण कर लेते हैं। क्योंकि उन लोगों के दिमाग में इतना उपद्रव है कि जब उनसे बड़ा उपद्रवी उन्हें दिखाई पड़ता है तो वे उसके पीछे चल पड़ते हैं। अब दुनिया को प्रेरणा-स्रोतों की जरूरत है--ऐसे प्रेरक लोगों की जो एक शांत झील की तरह हैं। जिनके पास जाकर हमारे मन को भी लगे कि इतना शांत होने का आनंद हम भी लें। जो शांत प्रकाश की तरह हैं, जिनके पास जाकर हमको लगे, इतना शांत हमारे भीतर भी होने की संभावना है।
डोंट यू फील आचार्य जी, व्हेन वी लिव इन दि सोसायटी, वी रिक्वायर सम टाइप ऑफ टेक्नीकल नो-हाउ! ए.ज ए सब्जेक्ट ऑफ साइंस, वी लर्न एट कालेज ऑर युनिवर्सिटी, दि सब्जेक्ट ऑफ इकाॅनामिक्स ऑर पाॅलिटिक्स। देअर इ.ज आलसो वन काइंड ऑफ एक्सट्रीमिटी। जस्ट आई गिव द एक्जांपल, वा.ज नॉट आइंस्टीन आलसो एक्सट्रिमिस्ट ऑर दि कार्ल माक्र्स? एण्ड हाउ वी कैन अवाइड दिस टाइप ऑफ एक्सट्रीमिटी?
नहीं, एक विषय को अध्ययन करना स्पेशलाइजेशन है, एक्सट्रीमिटी नहीं। एक विषय के ऊपर जीवन को लगा देना अत्यंत जरूरी है, क्योंकि जीवन बहुत बड़ा है। जीवन तो अखंड है, उसे तोड़ना मुश्किल है। जीवन की गहराई में गणित और संगीत जुड़े हुए हैं। लेकिन मनुष्य इतना छोटा है, इतना सीमित है कि अगर वह जीवन की अखंडता को पकड़ने चले तो कुछ भी नहीं जान पाएगा, कुछ भी नहीं खोज पाएगा।
तो हम जीवन को टुकड़ों में तोड़ते हैं--मनुष्य की सीमित बुद्धि के कारण, और एक-एक टुकड़े को अध्ययन करने जाते हैं। और जीवन इतना विराट, इतना अनंत है और मनुष्य इतना छोटा है कि हम उस विराट वृक्ष की एक छोटी सी शाखा पर, एक छोटे से पत्ते को जान ले तो भी काफी है।
तो आइंस्टीन जैसे व्यक्ति अति पर नहीं हैं। आइंस्टीन जैसे व्यक्ति बड़े सम्यकत्व पर हैं। क्योंकि वे जो अध्ययन कर रहे हैं, एक छोटी सीमा, लेकिन उसमें वे बड़ा समभाव रख रहे हैं, नहीं तो वे सत्य के करीब ही नहीं पहुंच सकेंगे। एक वैज्ञानिक मनुष्य तो बहुत ही समभावी होता है, नहीं तो सत्य की खोज ही नहीं कर सकता है।
यानी मेरी दृष्टि में धार्मिक लोग इतने समभावी नहीं होते, जितना एक साइंटिफिक माइंड, वैज्ञानिक चित्त समभावी होता है। क्योंकि उसे तो समभावी होना जरूरी है, नहीं तो वह सत्य को खोज ही नहीं पाएगा, एक इंच नहीं खोज पाएगा। माना कि उसने एक छोटा सा क्षेत्र चुना है, लेकिन वह छोटा सा क्षेत्र भी बहुत बड़ा है।
तो आइंस्टीन जैसे व्यक्ति अत्यंत समभावी हैं। और मैं यह भी मानता हूं कि उनके समभाव की यह जो विज्ञान के क्षेत्र में प्रयोग है, यह उनके चित्त को वही लाभ पहुंचाता है जो किसी ध्यानस्थ व्यक्ति को पहुंचता हो। ये एक दूसरी दिशा से वहीं पहुंच जाते हैं। आइंस्टीन जब अपनी गणित की पहेली को हल करने में लगा हो तो वह दुनिया के किसी भी ध्यानस्थ व्यक्ति से कम शांत नहीं होता है। अगर अशांत होगा तो हल नहीं कर पाएगा। वह इतने दूर तक, इतने गहरे गणित के उलझावों को हल कर पाता है, उसका कारण यह है कि इतने दूर तक वह शांत है। और इतने दूर तक वह निष्पक्ष है। उसका कोई पक्ष नहीं है।
असल में विज्ञान की मौलिक मान्यता यह है कि खोज वही कर पाएगा जो कोई पक्ष लेकर प्रवेश न करे; जो निष्पक्ष जाए, अनप्रिज्युडिस्ड जाए; जो तय करके न जाए कि यह ठीक है और यह गलत है--जो यह मान कर जाए कि मुझे पता नहीं है। विज्ञान की पहली मान्यता यह है कि मुझे पता नहीं है, यह खोजी मान कर जाए; और फिर खोज हो सकती है।
तो इन व्यक्तियों को एक्सट्रीम पर मैं नहीं कहता हूं। ये अति पर नहीं हैं। ये भी समता का प्रयोग कर रहे हैं, एक छोटी दिशा में। और उस दिशा को छोटा करना जरूरी है। आज से पांच या दस हजार साल पहले एक आदमी सारे ज्ञान का अध्ययन कर सकता था क्योंकि ज्ञान बहुत कम था। एक आदमी साथ में वैद्य भी था, साथ में कवि भी था, साथ में धर्मगुरु भी था, सब कुछ था। क्योंकि ज्ञान ही इतना कम था कि एक आदमी उसको अध्ययन कर सकता था। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ा वैसे-वैसे कठिनाई होती चली गई। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ा तो एक-एक छोटी चीज इतनी बड़ी सिद्ध हुई कि उस छोटी चीज में ही एक विज्ञान खड़ा होता चला गया।
एक जमाना था कि फिलासफी, यानी सब ज्ञान था। और इसलिए अब भी हम दूसरे विषयों में लोगों को पी.एचड़ी. मिलती है, लेकिन कहते पी.एचड़ी. हैं उसको; कहते हैं डाक्टर ऑफ फिलाॅसफी--वह पुरानी आदत की वजह से। केमिस्ट्री में एक आदमी अन्वेषण करेगा और डिग्री हम देंगे उसको डाक्टर ऑफ फिलाॅसफी की। वह सिर्फ पुरानी आदत है, क्योंकि पहले एक ही विषय था कुल जमा--फिलासफी। आज भी ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में फिजिक्स डिपार्टमेंट के बाहर जो तख्ती लगी हुई है, वह लगी हुई है नेचुरल फिलाॅसफी। वह तख्ती पुरानी है। वह नेचुरल फिलाॅसफी थी एक दिन।
एक दिन फिलासफी अकेला विषय था, दर्शन अकेला विषय था, उसमें सब आ जाता था। जिसने दर्शन जान लिया उसने सब जान लिया। फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जितनी हमारी गहराई बढ़ी, वैसा हमें पता चला कि इतनी अनंत शाखाएं हैं कि हमें विज्ञान को अलग कर देना पड़ा। फिर तो हमें पता चला कि विज्ञान भी एक होकर नहीं चल सकता। विज्ञान को भी हमें पचास खंडों में तोड़ देना पड़ा। तो केमिस्ट्री और फिजिक्स अलग हो गई। फिर हमें पता चला कि केमिस्ट्री को भी तोड़ देना पड़ेगा, तो ऑर्गनिक और इन-ऑर्गनिक केमिस्ट्री अलग हो गई। यानी हम पूरे शरीर को अध्ययन कर लेते थे, अब हमें पता चला कि पूरा शरीर बहुत बड़ी घटना है।
तो अब एक डाक्टर है, जो सिर्फ आंख का अध्ययन करता है।
मैंने एक मजाक सुना है कि आज से कोई पांच सौ साल बाद एक महानगरी में एक औरत एक डाक्टर के पास गई है। आंख के डाक्टर के पास जाकर कहा कि मेरी आंख में बड़ी तकलीफ है। उसे भीतर ले गया डाक्टर। अंदर ले जाकर उसने पूछा, लेकिन किस आंख में? उस स्त्री ने कहा बाईं आंख में। तो उसने कहा, माफ करो, मैं सिर्फ दाईं आंख का डाक्टर हूं। बाईं आंख के लिए तुम्हें किसी और के पास जाना पड़ेगा।
आंख इतनी बड़ी घटना है कि यह तो मजाक है, लेकिन यह संभावना है ही कि आज नहीं कल हमें बाईं आंख अलग आदमी को...। आज तो अकेली आंख के ऊपर ही इतनी किताबें हैं कि एक आदमी जिंदगी भर मेहनत करे तो वह उनको भी नहीं जान सकता है। तो यह जो विज्ञान का स्पेशलाइजेशन है, यह एक्सट्रीमिज्म नहीं है। यह तो ज्ञान विस्तीर्ण है और उसको हमें बांटना पड़ेगा। फिर बांट कर एक-एक टुकड़े में हमें भीतर जाना पड़ेगा।
लेकिन जो आदमी छोटे से टुकड़े में भी भीतर जाएगा, उसकी भी शर्त वही रहेगी कि वह अति पर न हो। अति पर होगा तो वह खोज नहीं कर पाएगा। वह सम्यक हो, वह मध्य में खड़ा होकर खोज करे। वह सारे विकल्पों को स्वीकार करे--यह भी हो सकता है। यह भी हो सकता है और; और इन दोनों के प्रति उसके मन में कोई ऐसा भाव न हो कि यह होना ही नहीं चाहिए, वह कुछ भी हो सकता है!
मैंने सुना है कि आइंस्टीन के साथ एक युवक कुछ प्रयोग कर रहा था। और सैकड़ों बार प्रयोग किया और असफल हो गया वे सब प्रयोग खराब हो गए। युवक थक गया है और परेशान हो गया है। लेकिन आइंस्टीन है कि अपने उत्साह में लगा हुआ है। एक दिन आकर उसने कहा कि हम इतनी बार असफल हो चुके हैं और आप अभी भी उसी उत्साह से लगे हुए हैं। तो आइंस्टीन ने कहाः असफल! असफल का सवाल ही नहीं है। इतने विकल्पों में हमने खोज कर ली, ये विकल्प हमारे लिए रास्ता नहीं बने, तो हम सफल हो रहे हैं रोज।
ज्ञान की विशेष खोज को अतिवाद से नहीं जोड़ना चाहिए। क्योंकि उस छोटे से छोटे क्षेत्र में भी ज्ञान की खोज के लिए वही शर्त लागू रहेगी--सम होने की, मध्य में होने की, निष्पक्ष होने की, अनप्रिज्युडिस्ड होने की। और मेरा मानना है कि विज्ञान ने जितना बड़ा द्वार खोला है मनुष्य को अति से बचाने को, उतना किसी ने कभी भी नहीं खोला। धार्मिक लोगों ने जिस बात की चर्चा की थी, वह चर्चा भी अतिवाद में खो गई। विज्ञान ने उसे प्रायोगिक तल पर सिद्ध कर दिया है कि अतिवादी के लिए जगह नहीं है। असल में विज्ञान तो यह कहता है, जो पहले से ही मान कर आ गया है कुछ, कि यह सत्य है उसके लिए विज्ञान में कोई जगह नहीं है। विज्ञान के लिए पहली शर्त यह है कि आदमी यह मान कर चला आया हो कि मुझे पता नहीं कि सत्य क्या है। रंच मात्र के लिए भी मेरा कोई झुकाव नहीं है कि यह सत्य होना चाहिए।
एक डाक्टर बनर्जी हैं, वे पुनर्जन्म पर खोज-बीन करते हैं। वे मुझे बंबई में मिले। एक बहुत मजेदार घटना घटी। कुछ पच्चीस-तीस मित्रों ने मेरे और उनके मिलने की व्यवस्था की थी। एक घंटे तक बात होगी। मैं पहुंचा, बातचीत शुरू हुई। उन्होंने शुरू में ही यह कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। तो मैंने उनसे कहा कि वैज्ञानिक होने की पहली शर्त तो यह है कि आप अपनी तरफ से कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहते हैं। आप यह कहिए कि मैं वैज्ञानिक रूप से यह खोज करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है या नहीं है। अगर आप यह कहते हैं कि मैं सिद्ध ही करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है तो फिर खोज वैज्ञानिक होने वाली नहीं है। आप वैज्ञानिक आदमी नहीं हैं। डिग्री इत्यादि से कोई वैज्ञानिक नहीं होता। साइंटिफिक माइंड का क्या मतलब है? मैंने कहा, आप यह शब्द वापस ले लें फौरन कि मैं सिद्ध करना चाहता हूं। क्योंकि वैज्ञानिक कुछ सिद्ध करने जाता ही नहीं। वही तो अवैज्ञानिक का रास्ता है कि वह मान यह लेता है पहले से कि यह सच है, अब इसको सिद्ध करना है।
एक आदमी ने अमरीका में एक किताब लिखी है। तो उसने यह मान लिया है कि तेरह का अंक अपशगुन है, यह मान लिया है। इसके बाद वह अदालतों में गया है, पुलिसघरों में गया, पागल खानों में गया, अस्पतालों में गया और उसने सब हिसाब निकाला कि तेरह तारीख को कितने लोग मरते हैं। तेरह तारीख को जो मरीज भरती होते हैं उनमें से कितने मरते हैं। तेरह तारीख को कितने लोग पागल होते हैं। तेरह नंबर की मंजिल पर रहने वाले लोग कितने एक्सीडेंट में फंसते हैं। उसने सारा का सारा, तेरह से संबंधित सब उपद्रव निकाल डाले। तेरह तारीख को जो हवाई जहाज उड़ता है, वह कितना गिरता है; जो गाड़ी चलती है, वह रुकती है--सब निकाल डाला और सिद्ध कर दिया कि तेरह तारीख अपशगुन से परिपूर्ण है। मैंने कहाः इसे वैज्ञानिक कहेंगे? यह अगर आदमी बारह तारीख का तय करके चले तो बारह तारीख को भी लोग मरते हैं और पागल होते हैं और एक्सीडेंट होते हैं और ग्यारह तारीख को भी यही होता है, इससे कोई मामला नहीं है। लेकिन जिस तारीख को यह मान कर चले उसकी खोज-बीन कर लेगा। इसने मान लिया पहले और फिर उसी ढांचे में खोज-बीन कर ली।
जिंदगी इतनी बड़ी है कि सबका समर्थन कर देती है। जिंदगी इतनी बड़ी है कि यहां ऐसी कोई बात नहीं है कि जिसके लिए समर्थन न मिल जाए। पर यह वैज्ञानिक नहीं हुआ क्योंकि पक्ष पहले से निर्धारित है। वह सज्जन इतने मुश्किल में पड़ गए कि उन्होंने सोचा कि अब यह आगे बातचीत चलानी ठीक नहीं है। और बहुत ही अदभुत घटना घटी। वे तो एकदम से उठे और उन्होंने कहा, मुझे कुछ जरूरी काम से जाना है, वह मुझे खयाल आ गया, तो मैं फिर कभी...तो वे पच्चीस-तीस मित्र जो बैठे थे, वे तो हैरान हो गए। घंटे भर के लिए उनको लाया गया था, घंटे भर के लिए वे स्वीकार करके आए थे, वे एकदम उठ कर ही चले गए।
हमारा जो चित्त है, उसके आग्रह हैं! और आग्रह हैं तो किसी भी दिशा में वह चित्त अति पर होगा। अनाग्रह से भरा हुआ चित्त ही अति पर नहीं होगा। और वैज्ञानिक के लिए पहली शर्त वह है। इसलिए मैं मानता हूं कि साइंटिफिक माइंड, वैज्ञानिक चित्त समस्त शक्ति की खोज के लिए जरूरी चीज है। धर्म के सत्य की खोज के लिए भी चित्त वैज्ञानिक ही चाहिए। महावीर यह मान कर नहीं चले गए हैं कि आत्मा है। और न बुद्ध यह मान कर चले गए हैं कि निर्वाण है। गए हैं खोजने कि है या नहीं? हम जो मान कर जाएं वह सिद्ध हम कर ले सकते हैं। बहुत कठिन नहीं है मामला। गए हैं खोजने, है या नहीं। और जो खोजने गया है उसे कुछ भी तय करके नहीं जाना चाहिए, कोई अति पर तय नहीं होना चाहिए। और जब हम कुछ भी तय करके नहीं जाते हैं तब हम अनिवार्य रूप से मध्य में होते हैं। क्योंकि किसी तरफ जाने का कोई सवाल ही नहीं है। तो वैज्ञानिक नहीं, अति पर है।
कैन वी गिव द एजुकेशन ऑफ अंडरस्टैंडिंग। ऑर इट इ.ज दि स्पांटेनियस एक्टिविटी ऑर द इंक्वायरिंग माइंड व्हिच कैन हैव द अंडरस्टैंडिंग।
खोज करने वाला चित्त ही समझ को उपलब्ध होता है, इंक्वायरिंग माइंड ही। लेकिन हम ऐसी शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं जो इंक्वायरिंग माइंड को पैदा करती हो। इसे सीधा पैदा नहीं किया जा सकता। इसे पैदा करने के लिए पूरा, परोक्ष वातावरण तैयार करने की जरूरत है। एक कक्षा है, और शिक्षक बच्चों से कहता है, मैं जो कहता हूं उसे मानो। तो यह शिक्षक कभी भी खोज करने वाले चित्त को पैदा नहीं होने देगा। नहीं, एक शिक्षक कहता है कि यह एक सत्य के संबंध में मैं चर्चा करता हूं, इसे कुछ लोग मानते हैं, यह मुझे भी ठीक मालूम पड़ता है, और तुम भी आओ इस यात्रा पर खोजने, कि यह ठीक है या नहीं। यह ठीक हो भी सकता है, यह गलत हो भी सकता है। हम इस पर खोजने चलें, तो शिक्षक कोई बिलीफ, कोई आस्था बच्चों पर नहीं थोप रहा है। वह खोज के लिए निमंत्रण दे रहा है।
स्कूल खोज का एक निमंत्रण होना चाहिए। समस्त विद्यालय खोज पर, और बड़ी खोज पर पुकार होनी चाहिए और जो बच्चे वहां गए हैं, उन पर कुछ भी थोपा नहीं जाना चाहिए। निमंत्रण खोज के लिए, संदेह के लिए--क्या हो सकता है, इसकी चिंतना के लिए, मनन के लिए, विचार के लिए!
प्रत्येक स्कूल अभी तक, लेकिन आस्था सिखा रहा है। और आस्था जब सिखाई जाती है, श्रद्धा जब सिखाई जाती है, और जो कहा जा रहा है वह परम सत्य है--ऐसा जो सिखाया जाता है तो इंक्वायरिंग माइंड पैदा नहीं हो सकता है। अंततः तो खोज करने वाला चित्त ही ज्ञान को उपलब्ध होता है। और खोज करने वाला चित्त कैसे पैदा हो--इसकी समाज में, शिक्षा में, संस्कृति में हम व्यवस्था कर सकते हैं।
जैसे एक, अंततः तो एक बीज ही अंकुर बनता है, पत्थर नहीं अंकुर बन जाता। लेकिन यह भी हो सकता है कि बीज भी अंकुर न बन पाए, अगर हम ऐसी जगह डाल दें जहां कि उसे कोई वातावरण न मिलता हो। बीज अंकुर बन सकता है, लेकिन जमीन चाहिए, पानी चाहिए, सूरज की रोशनी चाहिए, एक प्यार करने वाले माली की हिफाजत चाहिए। कंकड़ को डाल देने से अच्छी जमीन में, अच्छे माली के साथ भी कुछ होने वाला नहीं है। बीज ही अंकुर बन सकता है। लेकिन यह हो सकता है। कंकड़ तो अंकुर नहीं बन सकता, कितनी ही व्यवस्था करें। लेकिन इससे उलटा हो सकता है कि बीज कंकड़ रह जाए और अंकुर न बन पाए। अगर व्यवस्था उलटी है कि सख्त जमीन पर उसे डाल दिया जाए, या पत्थर पर उसे रख दिया जाए और कभी पानी न दिया जाए तो बीज भी कंकड़ ही सिद्ध हो सकता है।
अभी जो शिक्षा है हमारी वह मस्तिष्क को रोकने वाली है, क्लोज करने वाली है, खोलने वाली नहीं है। इसलिए अधिकतम लोग, उनके भीतर जो संभावना है वह पत्थर होकर रह जाती है। इसलिए दुनिया में अन्वेषक अपवाद है। कभी पैदा होता है। वह हमसे बच जाता है, हमारी शिक्षा से, किसी तरकीब से। यानी यह बिलकुल ही एक्सीडेंटल है कि विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते कोई व्यक्ति के भीतर अन्वेषण की सहज स्थिति बनी रह जाए। वे बिगड़ ही जाने वाले हैं। क्योंकि सारा इंतजाम उलटा है। हम सब तरह से थोपते हैं।
असल में, थोपना बहुत आसान पड़ता है। और श्रद्धालु चित्त को पैदा कर लेना शिक्षक के लिए बड़ी सुविधा की बात है। क्योंकि इंक्वायरिंग माइंड को पैदा करना एक झंझट, उपद्रव पैदा करना है। क्योंकि हम नहीं जानते कि एक दफा उसे हम पैदा करेंगे तो वह इंक्वायरिंग माइंड कुछ ऐसा नहीं है कि वह एक ही चीज में इंक्वायर करेगा। इंक्वायरिंग माइंड तो जीवन के सब पहलुओं पर इंक्वायर करने लगेगा।
तो समाज भी डरता है इस बात से कि सब चीजें पूछी जाएं। क्योंकि बहुत चीजें ऐसी हैं जो सरासर झूठ हैं। और समाज ने उनको थोप रखा है अपनी व्यवस्था के लिए। अगर पूछने वाले बच्चे पैदा हुए तो वे सब झूठ उखड़ जाएंगे। इसलिए पूछने वाला बच्चा स्वीकार्य नहीं है।
राज्य नहीं चाहता कि सब बातें पूछी जाएं, क्योंकि राज्य ने बहुत कुछ ऐसा थोप रखा है जो बिलकुल ही गलत है। कोई नहीं चाहता--कानून नहीं चाहता, अदालत नहीं चाहती, बाप नहीं चाहता, मां नहीं चाहती कि बच्चे सब बातें पूछें। क्योंकि बहुत कुछ जो उन्होंने छिपा रखा है जो कि पूछने से मुश्किल में पड़ जाएंगे।
तो ऐसा व्यक्ति चाहिए नहीं, जो पूछता हो। इसलिए पूछने वाला स्वागत नहीं पाता। या उतना दूर तक स्वागत पाता है जितना दूर तक हमारे बंधे-बंधाए उत्तर काम देते हैं। और जैसे ही वह उन जगहों को छूने लगता है जहां उत्तर नहीं हैं और जहां हमें अपने अज्ञान को स्वीकार करने का डर खड़ा हो जाता है, वहीं हम इंक्वायरी को रोक देना चाहते हैं। कोई आदमी इतना हिम्मतवर नहीं है कि वह यह कह सके कि बहुत कुछ है जो मैं नहीं जानता हूं। कोई बाप इतना हिम्मतवर नहीं है कि बेटे से कह सके कि परमात्मा का मुझे कुछ भी पता नहीं है कि वह कौन है। मुझे पता नहीं है कि गीता ठीक कहती है, कि कुरान ठीक कहता है। कोई बाप इतना विनम्र नहीं है। अहंकार इतनी पीड़ा देता है कि वह छोटे बच्चे के सामने दावा करता है कि सब मुझे पता है। कोई शिक्षक इतना हिम्मतवर नहीं है कि वह कह सके कि यह मुझे पता नहीं है। और मैं भी इसलिए इसी तरह खोज रहा हूं जिस तरह तुम खोज रहे हो। मैं थोड़ी देर पहले से खोज रहा हूं, तुम थोड़ी देर बाद, और कोई फर्क नहीं है। पर पता मुझे भी नहीं है।
जब तक हम एक ऐसा शिक्षक, एक ऐसा पिता और एक ऐसे समाज की हवा पैदा न करें जो अज्ञान को स्वीकार करने की विनम्रता रखती हो तब तक हम इंक्वायरिंग माइंड पैदा नहीं कर सकते। क्योंकि इंक्वायरिंग माइंड बहुत जल्दी हरेक को अज्ञान के करीब पहुंचा देता है। यानी एक दो प्रश्न और तीसरे प्रश्न में हमको पता चलेगा कि मामला अटक गया है, इसके आगे बात जाती नहीं है। तो हम उस तक जाने ही नहीं देना चाहते बात को। हम पहले ही प्रश्न पर रोक लेना चाहते हैं कि जो कहा जा रहा है उसे चुपचाप मान लो।
अब तक का सारा शिक्षा-शास्त्र मनुष्य की प्रतिभा को खोजपूर्ण बनाने में सहयोगी नहीं हुआ है। शिक्षा ने सारी की सारी व्यवस्था ऐसी की है कि मन खोज ही न सके, बंद हो जाए। इसलिए हम बच्चों को मार रहे हैं। जिसको हम शिक्षालय कह रहे हैं वे बहुत गहरे में अदभुत किस्म के कारागृह हैं। और वहां हम मन के लिए एक ऐसी स्लेवरी पैदा कर रहे हैं कि वह बच्चे कभी पूछेंगे ही नहीं। और अगर हम पूछें तो बड़ा भारी अराजक, उपद्रव का डर है हमें। वह डर इस कारण है कि हमने बहुत कुछ झूठ पर आधार रखे हुए हैं। सारे आधार झूठ पर रखे हुए हैं। और वह झूठ सब संदिग्ध हो सकते हैं।
खोजपूर्ण चित्त, पूछने वाला चित्त, इंक्वायरिंग माइंड पैदा करना पड़े। संभावना सबके भीतर है। बल्कि सच यह है कि पैदा होते से बच्चा इंक्वायरिंग होता है। मरता हुआ बूढ़ा इंक्वायरिंग नहीं रह जाता है। पैदा हुआ बच्चा हमेशा अन्वेषक होता है, पूछता है। छोटी-छोटी चीज को पूछता है और जानना चाहता है। और उसके जानने से हम डरते हैं, उसके पूछने से हम डरते हैं। सचाई यह है कि छोटा सा बच्चा जो पूछता है, बूढ़े से बूढ़ा ज्ञानी भी उसके सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता। तब दो उपाय हैं--या तो वृद्ध-जन अपने अज्ञान को स्वीकार करें, जो उनका अहंकार उन्हें नहीं करने देगा; और या फिर बच्चों को पूछने से ही रोकें, ताकि उनके अहंकार की भी सुरक्षा हो जाए और ये उपद्रवपूर्ण प्रश्न भी न पूछे जाएं।
मैंने सुना है कि एक बाप अपने बेटे को कह रहा है, समझा रहा है कि भगवान ने हम सबको इसलिए बनाया है कि हम दूसरों की सेवा करें। अपने बेटे को कह रहा है कि भगवान ने तुम्हें भी इसलिए बनाया है कि तुम दूसरों की सेवा करो। वह बेटा पूछता है कि यह मैं समझ गया कि भगवान ने मुझे इसलिए बनाया है कि मैं दूसरों की सेवा करूं। पर मैं यह पूछना चाहता हूं कि भगवान ने दूसरों को किसलिए बनाया है? मैं उनकी सेवा करूं, इसलिए दूसरों को बनाया है? या इसलिए कि वे मेरी सेवा करें? ठीक, बुद्धिमानी से भरा हुआ प्रश्न है कि अगर मुझे इसलिए बनाया है कि मैं दूसरों की सेवा करूं तो दूसरों को किसलिए बनाया हुआ है? इसलिए कि मैं उनकी सेवा करता या वे मेरी सेवा करें? अब वह बाप मुश्किल में पड़ गया है। क्योंकि जो वह समझा रहा था वह अत्यंत अधूरा था। और वह बेटा यह पूछ रहा है कि अगर ऐसा ही है कि वह दूसरों को इसलिए बनाया है कि वे मेरी सेवा करें और मुझे इसलिए बनाया है कि उनकी सेवा करूं तो आपका भगवान बड़ा अजीब सा है। हम अपनी-अपनी सेवा कर लेते, यह ज्यादा उचित है, झंझट क्यों खड़ी करनी? तो मैं दूसरे की करूं और दूसरे मेरी!
असल में न तो बाप को पता है कि भगवान ने बनाया कि नहीं बनाया है और न बाप को यह पता है कि किसलिए बनाया है? लेकिन यह वह स्वीकार नहीं करना चाहता है। इससे उचित हुआ होता कि वह यह कहता कि दूसरों की सेवा करने में आनंद उपलब्ध होता है। जो सेवा करते हैं वे आनंदित होते हैं। इतनी बात पर्याप्त थी। इसमें भगवान को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बाप नाराज हो गया। अब वह लड़के को कह रहा है कि तू अभी कुछ भी नहीं जानता है, हम जो कहते हैं वह मान।
असल में चाहिए यह था कि वह स्वीकार करता कि भूल हो गई मुझसे। इसमें भगवान को लाने की कोई जरूरत नहीं थी। क्योंकि भगवान को मैं जानता ही नहीं और न इसलिए भगवान के मोटिवस को लाने की जरूरत है, क्योंकि वह भी मुझे पता नहीं है। इतना ही मैं जानता हूं जीवन के अनुभव से कि जब भी मैंने किसी की सेवा की तो मुझे आनंद मिला। तो मैं तुझे कहना चाहता हूं कि तू भी सेवा करके देख ले, शायद तुझे आनंद मिले। और जब भी मैंने किसी को कष्ट दिया तो मैंने भी बहुत गहरे में कष्ट पाया। जब मैंने किसी को सुख दिया तो मैंने सुख पाया।
लेकिन यह भी उसने नहीं किया है जिंदगी में। अगर यह उसने किया होता और सच में दूसरों की सेवा करके आनंद पाया होता तो भगवान को बीच में लाने की निहायत जरूरत, बिलकुल भी जरूरत नहीं थी। फिजूल की बात थी यह और एक ऐसी झंझट की बात थी कि जिससे प्रश्न हल नहीं होगा, और उलझ जाएगा। पर यह उसने किया नहीं। यह उसने खुद भी नहीं किया, उसके बाप ने भी उसको यही समझाया होगा कि भगवान की इच्छा है कि हम सेवा करें। यही उसके बाप ने भी, और उसके बाप को भी समझाया होगा।
और किसी ने किसी की सेवा कभी नहीं की है। अगर की होती तो भगवान को बीच में लाने की जरूरत ही नहीं। तब तो सेवा अपने में ही आनंद है। इसमें किसी भगवान की इच्छा का कोई सवाल नहीं है। अगर हम जीवन को सोचेंगे तो हमारी सारी की सारी चीजें प्रश्नवाचक बन जाएंगी। और उनसे हमें डर है क्योंकि हमारा बहुत सा ज्ञान एकदम गिर जाएगा।
जैसे हम कहते हैं कि गुरु को आदर देना चाहिए, लेकिन मैं यह समझ पाता हूं कि यह बात ही गलत है। असल बात उलटी है। असल बात यह है कि जो हमारे आदर को आकर्षित कर ले वह गुरु है। गुरु को आदर देने का सवाल ही नहीं है। पिता को आदर देना चाहिए, यह बात ही फिजूल है। इतनी ही बात काफी है कि पिता ऐसा होना चाहिए कि वह आदर पाए। इस पिता के होने में यह बात निर्भर होनी चाहिए कि वह आदर पाए। लेकिन पिता ने एक बच्चे को पैदा कर लिया है और समझ लिया है कि मामला खत्म हो गया। वह पिता हो गया है। और अब वह आदर मांग रहा है। और पिता होना बहुत बड़ी घटना है। बच्चे को पैदा करने से सिर्फ शुरुआत होती है 50: 37(शब्द अस्पष्ट है)उसकी, इससे पूरी नहीं हो जाती घटना। और अब वह पिता आदर मांग रहा है। अब वह आदर के लिए भयभीत कर रहा है, श्रद्धा खड़ी कर रहा है, आस्था खड़ी कर रहा है और मन को तोड़ रहा है, मुश्किल पैदा कर रहा है। बच्चे पूछ सकते हैं; बहुत ऐसी बातें पूछ सकते हैं।
एक युवक को मैं जानता हूं। उसने अपने बाप को पूछा कि आप निरंतर कहते हैं कि, कि आपका आदर करूं, आपने मुझे बड़ा किया, पैदा किया। मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आपने मुझे ही पैदा करने के लिए कोई विशेष श्रम किया था, या मैं आपके भोग और आनंद के बीच आकस्मिक घटना हूं? पिता तो नाराज हो गया। उसके पिता ने मुझे आकर कहा कि यह लड़का आपके पास आता है और इस तरह की बातें पूछता है। यह हमसे यह पूछता है कि आकस्मिक घटना तो नहीं हैं? यह सिर्फ कोइन्सिडेंस तो नहीं कि मैं आ गया? यानी मेरे लिए, आने के लिए आपने कोई विशेष प्रयास किया?
तो मैंने कहा, लड़का पूछता तो ठीक था। और अगर आप थोड़े भी बुद्धिमान हों तो आपको ठीक-ठीक जो सही है उत्तर देना चाहिए। बात तो आकस्मिक थी। इस लड़के को तो आपने कभी नहीं चाहा होगा, उसको आप जानते भी नहीं, उससे कोई प्रयोजन भी नहीं। शायद पैदा हुआ होगा तो बोझ ही अनुभव किया होगा। और बोझ निश्चित अनुभव किया है इसलिए बार-बार आप उससे कह रहे हैं कि मैंने तुझे बड़ा किया है, इतने कष्ट उठाए। क्योंकि अगर यह आपका आनंद का कृत्य होता तो इसकी स्मृति की भी जरूरत न थी कि मैंने कष्ट उठाया। बात खत्म हो गई थी। अब इसका बदला चाहिए। तो आप कोई सौदा किया। कोई शर्तबंदी है, कोई कंडीशनिंग हुई है इससे पहले। इस, इस लड़के से कभी लिखा-पढ़ी आपकी हुई नहीं कि हम तेरे लिए इतना कष्ट उठाएंगे, इतना कष्ट तुम हमारे लिए उठाना। अब इसको दोहरा क्यों रहे हैं? यह आपका आनंद था कि आपने उठाया। यह इसका आनंद होगा कि आपके लिए कष्ट उठाए--नहीं होगा, नहीं उठाएगा। और मैं आपसे यह पूछता हूं, आपने अपने बाप के लिए कितना आपने कष्ट उठाया? तो यह भी अपने बेटों के लिए कष्ट उठाएगा। 52ः32 इसमें, यानी इसमें, इसमें सवाल यह है न कि हम...लेकिन हम पूछने से तो वह बहुत घबड़ा गए हैं और उन्होंने कहा है कि मैं अपने लड़के को यहां नहीं आने दूंगा आपके पास। इस तरह की बातें तो बहुत, सब गड़बड़ कर देंगी।
हमारा जो भय है पूरे समाज का--समाज बहुत से झूठों पर खड़ा है जो सच नहीं है और इसलिए इंक्वायरिंग माइंड को पैदा कैसे करें? शिक्षा बहुत से झूठ सिखा रही है जो सिखाने वाले शिक्षक को भी अंदाज है कि झूठ है तो इंक्वायरिंग माइंड कैसे पैदा करो? सारी नीति, सारा धर्म झूठों पर खड़ा है, तो इंक्वायरिंग माइंड कैसे पैदा करो? इंक्वायरिंग माइंड पैदा करने से अराजकता के फैल जाने का डर मालूम पड़ता है, क्योंकि जो व्यवस्था हमने की है, वह मूढ़तापूर्ण है। तो मेरा तो मानना यह है कि उस व्यवस्था को बदलो और उसे सच के करीब लाओ, उसे सच के करीब लाओ। उसे झूठ पर खड़ा मत करो क्योंकि झूठ किसी भी कीमत पर हितकर नहीं हो सकता।
तो हम ऐसी शिक्षा-व्यवस्था कर सकते हैं, जहां धीरे-धीरे प्रश्न जीवंत हो जाएं। हजारों प्रश्न होंगे, जिनके उत्तर हमारे पास नहीं होंगे। और उत्तर नहीं हैं तो अच्छा है। बच्चे उनको खोजेंगे। झूठे उत्तर देने से उनकी खोज बंद हो जाती है। और अपने बेटों को वे भी झूठे उत्तर सिखा जाएंगे। तो मैं मानता हूं कि बहुत कम प्रश्न हैं, जिनके उत्तर अभी मनुष्य के पास हों। अभी उसका विकास ही नहीं हुआ है कुछ। असल में हजार प्रश्न में एक प्रश्न होगा, जिसका उत्तर है, नौ सौ निन्यानवे प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। और हम हजार के ही उत्तर दे रहे हैं।
आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि आप एक धार्मिक अंधविश्वासी आदमी में और एक वैज्ञानिक आदमी में क्या फर्क करते हैं? आइंस्टीन ने कहाः मैं इतना ही फर्क करता हूं कि अगर अंधविश्वासी आदमी से सौ प्रश्न पूछो तो वह एक सौ एक उत्तर देने को तैयार रहेगा, और किसी प्रश्न पर कभी नहीं कहेगा कि मैं नहीं जानता। अंधविश्वासी सर्वज्ञ होगा; सब जानता है। और वैज्ञानिक आदमी मैं उसको कहता हूं, जिससे सौ प्रश्न पूछो तो निन्यानवे के संबंध में वह सीधा कह देगा कि बिलकुल कुछ पता नहीं है। सौवें के संबंध में वह कहेगा कि जो पता है, वह यह है। लेकिन यह भी अंतिम नहीं है। यह भी कल बदल सकता है। खोज जारी है, और खोज अनंत है। इसलिए कभी भी ऐसी जगह हम नहीं पहुंचेंगे जहां हम कह सकें कि अंतिम उत्तर मिल गया।
तो यह हमें हवा खड़ी करनी चाहिए। और इस हवा पर पूरी की पूरी व्यवस्था को धीरे-धीरे लाना चाहिए। तो मुझे तो लगता है कि इतना बड़ा विस्फोट हो जगत में प्रतिभा का, इतना जीनियस पैदा हो सकता है, इतने फूल खिल सकते हैं। क्योंकि करोड़ों बीज तो मर ही जाते हैं, कभी फूल होते ही नहीं--वह तो ऐसा लगता है कि कभी भूल-चूक से हमारे समाज के उपद्रव से कोई आदमी छिटक जाता है--कोई बुद्ध, कोई आइंस्टीन, कोई कभी खिसक जाता है बाहर। और हमें पता नहीं रहता है और कहीं से वह अंकुर पकड़ लेता है जमीन में और फूल आ जाते हैं। यानी होना इससे उलटा चाहिए कि कभी ऐसा हो कि एकाध बीज ऐसा हो जिसमें फूल न आ पाए। अभी ऐसा होता है, कभी ऐसा होता है कि एकाध बीज में फूल...।
इसलिए तो यह इतने लंबे इतिहास में, अगर हमको आदमियों के नाम गिनाने पड़ें तो बीस आदमियों में नाम खत्म हो जाते हैं। पूरे पांच हजार साल के ज्ञात इतिहास में बीस नाम गिना तो बात खत्म हो गई। तो बाकी मनुष्यता क्या कर रही थी? बाकी मनुष्यता के होने का क्या अर्थ हुआ? अगर अरबों-खरबों लोगों में बीस आदमी के नाम गिनाए जा सकते हों जो आदमी जैसे लगे, तो बाकी आदमी क्या कर रहे थे? वह बीज बीज ही रह गए। इतनी बड़ी प्रतिभा का विस्फोट हो सकता है सारे जगत में--एक बार इंक्वायरिंग माइंड के लिए हम तैयार हो जाएं और कहीं भी किसी व्यक्ति को रोकें नहीं पूछने से--चाहे पूछना हमें कितनी ही उलझन में और तकलीफ में डालता हो।
अभी-अभी मैं एक गांव गया और एक लड़के ने मुझसे पूछा कि मैंने एक स्वामी की किताब पढ़ी है और उसमें लिखा है, हस्तमैथुन, मस्टर्बेशन जो है, उससे बड़ा कोई पाप नहीं है। और जिसने यह किया उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और वह नरक का भागी होता है। आप क्या कहते हैं? मैंने उससे कहाः यह सरासर झूठ है। यह बिलकुल ही झूठ है, एक वृद्ध जन बैठे थे। उन्होंने मुझसे कहाः यह क्या कह रहे हैं? ऐसे में तो यह लड़का समझेगा कि मस्टर्बेशन करने में कोई हर्ज नहीं है। तो भला वह झूठ हो, मगर आपको कहना यही चाहिए कि मर जाओगे, नष्ट हो जाओगे, बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी, पागल हो जाओगे अगर यह काम किया तो। तो मैंने कहाः क्या आप सोचते हैं कि झूठ को खड़ा करके कभी भी कोई हित हो सकता है किसी का। सिर्फ इतना ही होगा--मस्टर्बेशन नहीं रुकने वाला है, वह तो चलेगा--साथ में इस झूठ की वजह से जो भय और पैदा हो गया, वह भी साथ चलेगा। और मस्टर्बेशन तो इतना नुकसान नहीं पहुंचा सकता था कि इसको पागल कर दे, लेकिन यह जो भय पीछे बैठ गया है और यह जो खयाल पीछे बैठ गया है यह इसको पागल कर सकता है।
मगर हमने बहुत झूठ इकट्ठे किए हुए हैं। बहुत तरह के झूठ इकट्ठे किए हुए हैं। इन सारे झूठों की पर्त को तोड़ना जरूरी है। हमारी नीति, हमारा धर्म, इसी तरह की बेवकूफियों पर खड़ा हुआ है जिनके सत्य का कोई अंश नहीं है। और जो बड़ी सत्य की बातें समझाते हैं लोगों को वे भी अपनी किताबों में यह बातें लिखेंगे। शायद उनको भी अंदाज नहीं है कि वे झूठ लिख रहे हैं। शायद झूठ इतने पुराने हो गए हैं कि हम उनको भूल ही गए हैं कि वे झूठ हैं। यह सरासर झूठ है और अहितकर है क्योंकि झूठ हितकर हो ही नहीं सकता है। कैसे हित पहुंचा सकता है? सत्य ही हितकर हो सकता है। और जिस सीमा तक सत्य है, उसी सीमा तक हितकर हो सकता है।
तो जीवन के सारे प्रश्नों पर हमें सत्य को अंगीकार करके, और जहां ज्ञान अभी नहीं है वहां अज्ञान को स्वीकार करना होगा तो शिक्षा का जगत इंक्वायरिंग माइंड पैदा कर देगा। खोज करने वाला चित्त पैदा हो तो सत्य बहुत दूर नहीं है। असल में मेरी तो अपनी यह समझ है कि सत्य का सवाल ही नहीं है, खोज करने वाला चित्त स्वयं सत्य बन जाता है। वह जो खोज पर निकल गया चित्त है, वह निखरता जाता है, निखरता जाता है, हजार-हजार प्रश्नों में निखरता है, समस्याओं में निखरता है और सत्य होता चला जाता है। अंततः एक दिन आता है कि वह खोज करने वाला चित्त उस अनुभव को उपलब्ध होता है जिसको हम सत्य कहें, शांति कहें, मोक्ष कहें; लेकिन सिर्फ खोज करने वाले लोग उस तरफ जाते हैं। हम अधिक लोग बैठे रह जाते हैं। जहां बिठा दिए गए हैं--समाज ने, शिक्षा ने जहां बिठा दिया, वहीं बैठ गए हैं। एक बहुत बड़ी यात्रा है चित्त की, यह चांद-तारों से भी दूर ले जाने वाली यात्रा है। उस यात्रा का हमें कोई पता ही नहीं चलता है। वह तो सिर्फ उन्हीं को पता चलता है जिनके जीवन में डाउट, संदेह खड़ा हो गया है। प्रश्न खड़े हो गए हैं और ऐसे प्रश्न खड़े हो जाते हैं कि उनका मंथन अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि उनका कोई उत्तर नहीं है। उस मंथन में, उस खोज में, उस चिंतना में, उस निरंतर पूछने में, पूछने में निखार आना शुरू होता है और चित्त निर्मल हो जाता है।
डु यू फील सर, दैट दि चाइल्ड शुड बी गिवन फ्रीडम दैट ही विल इंक्वायर अबाउट कांसिक्वेंसिस ऑफ हि.ज बर्थ एण्ड सेक्स लाइफ?
बिलकुल ही। असल में स्वतंत्रता सदा बेशर्त है। और अगर हमने कहीं भी शर्त रखी तो स्वतंत्रता नहीं है। अगर हमने यह कहा कि इस संबंध में स्वतंत्रता देंगे, इसमें नहीं। तो हम स्वतंत्रता दे ही नहीं रहे। यह ऐसे ही हुआ कि हम एक कैदी को कहते हैं कि तुम्हें जेल के भीतर घूमने की पूरी स्वतंत्रता है, जेल के बाहर जाने की नहीं है। तुम्हें जेल की खिड़की से आकाश देखने की पूरी स्वतंत्रता है, लेकिन जेल के बाहर जाने की...। जब चांद खिड़की में आए तब तुम देखना।
स्वतंत्रता की सीमा नहीं है। और जहां सीमा है वहां परतंत्रता हो जाती है। और सीमित स्वतंत्रता परतंत्रता से भी खतरनाक है क्योंकि परतंत्र आदमी तो परतंत्रता से मुक्त होने की चेष्टा करेगा, यह सीमित स्वतंत्र को यह भ्रम पैदा होता है कि हम स्वतंत्र हैं, कोई हर्जा नहीं। क्या करना है स्वतंत्रता के लिए?
तो मैं यह मानता ही नहीं कि एक भी ऐसा सवाल है जो उठाना गलत है। वह है; जिंदगी उठा रही है तो हम क्या करेंगे? और जब जिंदगी ही पूछने को कह रही है तो बच्चा पूछेगा, सेक्स की बाबत पूछेगा। बच्चे कहां से पैदा होते हैं, इसके बाबत पूछेगा। उसके पूछने में गलती नहीं है। लेकिन जो उसे उत्तर दे रहे हैं, अगर वे झूठ हैं तो उनके झूठ उत्तरों में गलती है। और उनके झूठ उत्तर इसलिए हैं कि उन्होंने एक धारणा बना रखी है सेक्स के बाबत, जो मूर्खतापूर्ण है। उस धारणा को उन्हें छोड़ देना चाहिए। चीजें बहुत सरल हैं। और मेरा अपना मानना है कि बच्चे को अगर सीधी साफ बात बता दी जाए तो बच्चा शायद दुबारा पूछेगा भी नहीं। बात खत्म हो जाती है। लेकिन उन्हें हम झूठ बताते हैं और बच्चे को धीरे-धीरे पता लगने लगता है कि बात कुछ झूठ मालूम होती है, तो बच्चा और-और पूछने लगता है।
और जितना हम बड़ा झूठ करते जाते हैं, बच्चे के प्रश्न उतने ही खड़े होते चले जाते हैं। और ये प्रश्न उसे बड़ी बेचैनी में डाल देते हैं। और इन प्रश्नों की खोज वह फिर गलत रास्ते से करेगा। तो गंदी किताबें बिक रही हैं बाजार में, छिपे बाजार में, गलत किताबें बिक रही हैं, उनको पढ़ेगा और गलत लोगों से मिलेगा। जो काम मां-बाप ही पूरे कर दिए होते, वह अब किसी और से पूरा करेगा। और वह पूरा होना हमेशा गलत होगा। और सबसे बड़ा नुकसान जो होगा वह यह होगा कि कल बच्चा, आज नहीं कल खोज कर ही लेगा कि सत्य क्या है! तब उसको मां-बाप सरासर झूठ मालूम पड़ेंगे और इन मां बाप के प्रति उसकी सारी श्रद्धा असंभव हो जाएगी। श्रद्धा ही असंभव हो जाएगी। क्योंकि जिन मां-बाप ने उसे सरासर झूठी बातें कहीं हैं, इन मां-बाप का क्या अर्थ रहेगा?
आज नहीं कल, बच्चा खोज ही लेगा। तो जिंदगी के सत्य वह समझेगा कैसे? मेरा मानना है कि वह जब पूछता है तो उसका मतलब है कि प्रश्न खड़ा हो गया। उत्तर चाहिए। और झूठे उत्तरों के लिए मैं राजी नहीं हूं। जब बच्चा पूछने लगे किसी भी संबंध में तो जो सत्य है, जितना हम जानते हैं, जैसा हम जानते हैं, उसे वैसा ही कह देना चाहिए--बिना किसी झिझक के, बिना किसी परेशानी के, बिना किसी हैरानी के। क्योंकि झिझक, हैरानी और परेशानी में दिए गए उत्तर भी उस बच्चे को मुश्किल में डालेंगे कि बात क्या है, इतनी झिझक क्या है? बच्चों को कोई हम परेशान हैं अपनी दिक्कतों में, और वही हम बच्चों पर आरोपित कर लेते हैं। जब एक बच्चा पूछता है कि यह नया बच्चा कहां से पैदा हुआ? तो हम चूंकि परेशान हैं इन सब चीजों को छिपाने में, हम समझते हैं, बच्चा शरारत की बातें कर रहा है। बच्चा बेचारा बिलकुल निर्दोष है, एक इनोसेंट क्वेश्चन है, जिसमें कोई दोष का सवाल नहीं है। उसमें अभी कल्पना भी नहीं है।
एक तो ऐसा कोई भी प्रश्न नहीं है जो पूछा जा सकता हो और जिसका उत्तर देने के लिए हम मना ही करें। मनाही किसी डर से पैदा होती है और प्रश्न जिंदगी से पैदा होता है। तो जिंदगी बहुत कीमती है और डर कोई भी कीमत का नहीं है। और जब जिंदगी ही पूछ रही है तो हम कौन हैं रोकने वाले? और जब जिंदगी पूछ रही है तो जिंदगी पता लगाएगी, चाहे हम रोकें, चाहे हम बाधा डालें और जब बड़े और बुजुर्ग जो कि ज्यादा जानते हैं नहीं बताएंगे तो बच्चा अपने ही रास्तों से, अपने ही सोर्सस से जानने की कोशिश करेगा। और वे कोशिशें उसे बहुत नुकसान में ले जा सकती है क्योंकि उसे बहुत कुछ पता नहीं है जो उसके बड़े बुजुर्गों को पता है।
तो मेरा मानना है कि बच्चों को सेक्स के संबंध में न बताने से जितना अहित हुआ है, भयंकर अहित हुआ है। क्योंकि सब बच्चों के मन को हम सेक्सुअल किए दे रहे हैं। यानी धीरे-धीरे उसकी सारी जिज्ञासा ही सेक्स से बंध जाने वाली है क्योंकि वही उत्तर उसे नहीं मिल रहे हैं। और तो सब उत्तर हम दे रहे हैं उसको। जिसका हम उत्तर दे देते हैं उससे वह मुक्त हो जाता है। जिसका हम उत्तर नहीं देते, उसका प्रश्न उसमें इंसिस्टेंटली घूमता रहता है। वह पूछता ही रहता है, पूछता ही रहता है। वह कहां जाए, कहां से जाने? और जिसको हम छिपाते हैं वह उतना आकर्षक हो जाता है। जिसको हम निषेध करते हैं, उस दरवाजे को उतने ही तीव्रता से वह खोल लेना चाहता है। फिर बच्चा बच्चा है, वह गलत ढंग से खोल लेगा, गलत ढंग से जानेगा जो कि उसके पूरे जीवन को नुकसान पहुंचाने वाली बात हो सकती है।
सेक्स के संबंध में उतना ही सरल होना चाहिए, जितना किसी और चीज के संबंध में, जैसे कि बच्चा पूछता है कि यह किताब कहां से आई, तो हम उसको कहते हैं, प्रेस से आई। बच्चा पूछता है, यह फूल कहां से आया, तो हम कहते हैं, वृक्ष में लगा है। जितनी सरलता से हम इनके उत्तर दे रहे हैं, उतना ही हमें सेक्स के बाबत भी उत्तर देने चाहिए। और हमारे उत्तर उसे तृप्त कर देंगे और उसकी जिज्ञासा खत्म हो जाएगी। और हमारे बाबत उसकी एक इज्जत सदा के लिए बन जाएगी कि हम सीधे सरल शब्दों में या जो हम नहीं जानते हैं तो हमें कह देना चाहिए कि यहां तक हमें पता है, इसके आगे हमें पता नहीं है। इसके आगे तुम बड़े होओ तो तुम खोजो। इसके आगे हमें कुछ भी पता नहीं, इतना ही हम जानते हैं।
अगर हम सेक्स के संबंध में सारी बात बता सकें तो ही मनुष्य का मन सेक्स में मुक्त होगा; नहीं तो मुक्त नहीं होने वाला है।
डु यू फील सर, दैट द इग्नोरेंट पैरेंट्स आर रिस्पांसिबल फाॅर दि चिल्डरन व्हिच दे गो इन दि रांग वे?
बिलकुल ही। बिलकुल ही। बच्चे जो भी हैं, वह उनके मां-बाप के सबूत हैं। और बच्चे जो भी कर रहे हैं वह समाज उनसे करवा रहा है। बच्चे गलत जाते हैं तो समाज ने उन्हें जो व्यवस्था दी है, वह गलत ले जाने वाली है। यानी मेरी दृष्टि में तो जब बच्चा गड़बड़ हो तो तब उसके मां-बाप पकड़े जाने चाहिए तत्काल। और जब कोई पूरी पीढ़ी गड़बड़ हो तो पुरानी पीढ़ी को जिम्मेवार ठहराया जाना चाहिए। क्योंकि उससे येे सब बच्चे पले, बड़े हुए। उससे सोचा और समझा और सीखा। और जो उसने दिया उसे लेकर ये चल पड़े। बच्चे सदा ही निर्दोष हैं, इसलिए उन पर कोई जिम्मेवारी सीधी नहीं डाली जा सकती। सब जिम्मेदारी उनकी पुरानी पीढ़ियों पर डाली जानी चाहिए। जो भी गलत हो रहा है आज--अगर बच्चे उद्दंड हैं, अगर बच्चे कामुक हैं, अगर बच्चे मूर्खतापूर्ण कृत्य कर रहे हैं, विनाश कर रहे हैं; तो जो कुछ हमने उन्हें सिखाया है, वह उसके लिए जिम्मेवार हैं। जिस भांति हमने सिखाया है, वह उसके लिए जिम्मेवार है।
अगर एक अकेली लड़की का सड़क से निकलना मुश्किल है और लड़के उसे धक्के मारेंगे, गालियां बकेंगे, पत्थर फेंकेंगे तो ये लड़के जिम्मेवार नहीं हैं। यह वे मां-बाप जिम्मेवार हैं जिन्होंने सेक्स के संबंध में एक भय, डर, झूठ, बेईमानी, असत्य का पर्दा डाला और लड़के और लड़कियों को इतनी दूरी और फासले पर बड़ा किया--इतने फासले पर बड़ा किया, इतने दूर रखा कि स्वाभाविक हो गया कि लड़के पत्थर मारें। यह पत्थर मारना पास आने की एक तरकीब है। और चूंकि सीधा हाथ से लड़की को छूना संभव नहीं रहा है। इसलिए पत्थर मार कर सिंबॉलिक छूना है यह। पत्थर फेंक कर लड़की को स्पर्श कर रहे हैं।
और मेरा मानना है कि एक लड़की को हाथ से छूना एक बहुत प्रीतिकर बात हो सकती है और पत्थर मार कर छूना अत्यंत घृणित, अत्यंत क्रूर कृत्य हो गया। लेकिन हम इसके लिए जिम्मेवार हैं। अगर लड़के और लड़कियां साथ बड़े हों, साथ खेलें, दौड़ें, गिरें, तैरें, पहाड़ों पर चढ़ें, वृक्षों पर चढ़ें; साथ बड़े हों, एक दूसरे को जानें, एक दूसरे के शरीर को पहचानें, तो मैं मानता हूं कि कभी यह संभव नहीं है कि कोई लड़का किसी लड़की को पत्थर मारे; क्योंकि तब छूने की सिंबॉलिक स्थिति की कोई जरूरत नहीं होगी। क्योंकि लड़कियां परिचित हैं, छुई हुई हैं। इसमें कोई, कोई ऐसा अनहोना और कोई अज्ञात मामला नहीं है कि जिसको जानना जरूरी है। अगर लड़के और लड़कियों को बहुत निकट बड़ा किया जाए और उनके प्रेम को स्वीकार किया जाए तो मैं नहीं मानता हूं कि लड़के गंदी गालियां दें, गंदी गालियां दीवालों पर लिखें। इसका कोई मतलब नहीं है। ये सब तरकीबें हैं कि जो हमने उन्हें रोका है, वह उसको गलत ढंग से पूरा कर रहे हैं।
हमारा समाज का अज्ञान और मां-बाप की परंपरागत नासमझी बच्चों को बिगाड़ने का कारण है। दिखता नहीं है हमें ऊपर से क्योंकि जब बच्चे यह गड़बड़ करते हैं तो हम अपने पुराने नियमों को और सख्त करना चाहते हैं कि देखो, यह सब गड़बड़ हुआ जा रहा है। तो अपने पुराने नियम और सख्त करो। और हमें पता नहीं है कि उन्हीं नियमों की वजह से यह गड़बड़ हो रहा है। वे और सख्त होंगे तो यह गड़बड़ी और बढ़ जाने वाली है।
स्वतंत्रता तो मैं पूरे समग्र जीवन को बेशर्त देना चाहता हूं। किसी को हक नहीं है, किसी को रोकने का। लेकिन स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है। और यह भी बड़े मजे की बात है कि स्वतंत्र व्यक्ति कभी स्वच्छंद होता ही नहीं। सिर्फ परतंत्र व्यक्ति स्वच्छंद होता है। असल में परतंत्रता इतना घबड़ा देती है कि परतंत्रता एक एक्सट्रीम है, अति है। और जब परतंत्र आदमी को मौका मिलता है तो वह दूसरी एक्सट्रीम उसकी स्वच्छंदता है। बीच में वह रुकता ही नहीं, जहां स्वतंत्रता है।
अगर एक आदमी को हम पंद्रह दिन उपवास में रखें और दरवाजा बंद कर दें और ताले लगा दें और पंद्रह दिन भूखा रखें, फिर पंद्रह दिन बाद छोड़ दें तो यह आदमी पागल की तरह चैके में टूट पड़ेगा और यह इतना खा जाएगा कि बीमार पड़ेगा; मर भी सकता है और तब हम कहेंगे, हमने बड़ी गलती की कि हमने ताला खोला, उसको बंद ही रखना था। तो बिलकुल ठीक रहता, मरता तो नहीं। और हमें पता नहीं कि पंद्रह दिन जो हमने बंद रखा था भूखा उसको, उसका ही रिएक्शन है कि यह जाकर ज्यादा खा गया। अगर हमने उसे चुपचाप अच्छी तरह से खाने दिया होता, और खाने का रस लेने दिया होता तो वह ज्यादा खाने वाला कभी भी नहीं था। तब एक स्वतंत्रता होती।
परतंत्रता स्वच्छंदता में ले जाती है। मनुष्य की जाति अब तक परतंत्र रखी गई है, उसका ही परिणाम स्वच्छंद होना फलित हो रहा है। जिस दिन हम बच्चों को स्वतंत्र रखेंगे, उस दिन स्वच्छंदता असंभव है। वह हो ही नहीं सकती। यानी यह बड़ा उलटा मालूम पड़ता है। जितना हम बच्चों को डिसिप्लिन में बांधेंगे, उतनी इनडिसिप्लिन पैदा होने की संभावना है। जितना अनुशासन होगा, उतनी अनुशासनहीनता पैदा हो सकती है।
इसलिए मेरा मानना है कि इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि उस स्वतंत्रता से ही एक भीतरी अनुशासन पैदा हो, जो ऊपर से नहीं थोपा गया। तो बच्चे उसे कभी भी फेंकेंगे नहीं, तोड़ेंगे नहीं। वह उनकी प्रतिभा और गरिमा का हिस्सा होगा, उतना अनुशासनबद्ध होगा। अभी हालत यह हो गई है कि जो अनुशासनबद्ध है, वह गौरवपूर्ण नहीं है। अनुशासन तोड़ना आज गौरवपूर्ण है। लड़कों के बीच भी वह लड़का आदृत है जो अनुशासन तोड़ता है। क्योंकि वह स्वतंत्र मालूम पड़ता है, हालांकि वह स्वच्छंद हो रहा है।
सारी जिम्मेवारी हमारे अज्ञान की है।
आर यू इन फेवर ऑफ हीरो-वर्शिप आचार्य जी? ड.ज हीरो-वर्शिप बिं्रग द अंडरस्टैंडिंग ऑर एग्जे.जरेशन?
नहीं, बिलकुल पक्ष में नहीं हूं। किसी तरह की व्यक्ति-पूजा, किसी तरह की हीरो-वर्शिप के पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जब भी हम किसी व्यक्ति को, किसी दूसरे व्यक्ति को पूजा करना सिखाते हैं तो हम इस व्यक्ति को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसके भीतर हम इनफिरिआरिटी, हीनता का भाव पैदा करते हैं। बिना हीनता के पूजा असंभव है। जब भी कोई व्यक्ति किसी की पूजा करता है तब वह बहुत गहरे में उसे महान और अपने को हीन मान लेता है। नहीं तो पूजा असंभव है।
तो पूजा का जो सबसे गहरा दंश है, अपराध है, वह यह है कि हम किन्हीं व्यक्तियों में हीनता का भाव पैदा कर रहे हैं। क्या हम हीन हैं? मंदिरों में खड़े हुए लोग कह रहे हैं कि हम तो पतित हैं। हे भगवान, हम तो हीन हैं, हम तो दुर्बल हैं, हम तो कुछ भी नहीं हैं। हम तो तेरे चरण में हैं, हम तो तेरे शरण में हैं। मंदिरों में खड़े लोग कह रहे हैं कि हे जिनेंद्र पुरुष, हे महावीर, हमें बचा। हम तो कुछ भी नहीं हैं, हम तो पापी हैं।
असल में तब तक हम पूजा पैदा करवा ही नहीं सकते जब तक हम किसी को हीनता का भाव पैदा न करवा दें। यानी पूजा जो है, वह हीनता का ही आउटकम है। इसलिए मैं किसी तरह की व्यक्ति-पूजा के पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि व्यक्ति-पूजा अनिवार्य रूप से पूजक के मन को हीन कर जाएगी। जिसकी पूजा होगी उसको तो कोई फायदा नहीं होने वाला है। महावीर की कितनी ही पूजा हो, महावीर को क्या फायदा होता है? कोई सवाल नहीं है फायदे का। लेकिन जो पूजा करते हैं उनकी हानि होती है; वह हीन होता है।
दूसरा नुकसान जो पहुंचता है वह यह कि जिसकी हम पूजा करते हैं, जाने-अनजाने हम उस जैसा बनने की कोशिश में संलग्न हो जाते हैं। और पूजा करने वाले उसको बहुत बड़ा कारण मानते हैं कि पूजा करने का यह फायदा है। इससे बड़ी हानि नहीं हो सकती। वे कहते यह हैं कि अगर कोई महावीर की पूजा करेगा तो वह उनके गुणों को धीरे-धीरे अपने में ग्रहण करेगा। कोई राम की पूजा करेगा तो राम जैसा बनने की कोशिश करेगा। और मेरा मानना है कि यह और भी खतरनाक नुकसान है। क्योंकि कोई व्यक्ति किसी दूसरे जैसा व्यक्ति बन ही नहीं सकता है और बनने की चेष्टा में सिर्फ क्रिपिल्ड और पंगु हो जाता है।
कोई लाख कोशिश करे, महावीर नहीं बन सकता। कोई कितना ही उपाय करे, कृष्ण नहीं बन सकता, ना क्राइस्ट बन सकता है। असल में एक जैसे आदमी पैदा ही नहीं होते। एक-एक आदमी यूनीक है, बेजोड़ है। इसलिए किसी आदमी में किसी और आदमी जैसे बनने की कोशिश का अंतिम परिणाम सिर्फ कार्बन कापी व्यक्तित्व पैदा होता है। एक झूठा व्यक्तित्व पैदा होता है, जो कि नकली है। महावीर नग्न खड़े हैं तो हजारों लोग उनकी भांति नग्न खड़े हो जाते हैं। महावीर की नग्नता किसी बहुत गहरी इनोसेंस का परिणाम है, किसी बहुत गहरे निर्दोष भाव का। वह कुछ ऐसी जगह पहुंच गए हैं जहां कि नग्न होना और नहीं होना बराबर हो गया। लेकिन उनके पीछे जो आदमी नंगा खड़ा होता है उसका नंगा खड़ा होना बहुत कैल्कुलेटेड है, बड़ा गणित का हिसाब है। वह मानता है कि नंगे हुए बिना मोक्ष नहीं घटता है। तो नंगा होना जरूरी है। तो वह नंगे होने का अभ्यास कर रहा है। वह धीरे-धीरे छोड़ता है, एक-एक कपड़े छोड़ता चला जाता है। धीरे-धीरे सीढ़ियां बढ़ता है, फिर लंगोटी रह जाती है, फिर लंगोटी छूटती है। ऐसा अभ्यास करके अंततः वह नंगे होने का अभ्यासी हो जाता है।
यह नग्नता बिलकुल ही सर्कस की है। इसका कोई मूल्य नहीं है। महावीर को पता भी नहीं चला होगा, वे कब नंगे हो गए! किसी दिन वस्त्र गिर गया और फिर उसका खयाल नहीं रहा। वह किसी अभ्यास का परिणाम नहीं था। तो कोई महावीर जैसा हो नहीं सकता। होने की कोशिश में मरेगा सिर्फ और नकली हो जाएगा। उसे तो प्रत्येक को वही होना है जो वह हो सकता है।
सबकी अपनी पोटेंशियलिटी है, अपना बीज है। वही होना है। और कोई फायदा भी नहीं है। अगर पिकासो महावीर हो जाए तो दुनिया को नुकसान पहुंचेगा। पिकासो को पिकासो होना चाहिए। या महावीर पिकासो हो जाएं तो भी भारी नुकसान पहुंचेगा। महावीर को महावीर होना चाहिए। आइंस्टीन को आइंस्टीन होना चाहिए, रमण को रमण होना चाहिए। इन सबके होने की वजह से दुनिया समृद्ध है। नकली आदमियों की वजह से दुनिया समृद्ध नहीं है।
तो कितने ही आदमी महावीर के पीछे नंगे होकर खड़े हो जाएं और कितने ही आदमी बुद्ध के पीछे पीले वस्त्र पहन कर खड़े हो जाएं। इन नकली आदमियों से दुनिया की कोई समृद्धि नहीं बढ़ती।
तो दूसरी बात यह है कि मैं इसलिए विरोध में हूं कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे जैसा बनने के खयाल में ही न पड़े और पूजा उस खयाल में डालती है।
और तीसरा, मैं इसलिए विरोध में हूं कि पूजा के भाव में कहीं न कहीं यह बात छिपी हुई है कि दूसरा कुछ मेरे लिए कर देगा। उसकी पूजा से कुछ मेरे लिए हो जाएगा। कि अगर मैं राम को पूज रहा हूं तो राम कुछ मेरे लिए कर देंगे। कि क्राइस्ट की चिल्लाहट लगा रहा हूं तो क्राइस्ट मेरे लिए कुछ कर देंगे।
दुनिया में कोई आदमी किसी के लिए कुछ नहीं कर सकता है। और जिन लोगों को यह खयाल पैदा हो जाता है कि कोई और मेरे लिए कुछ कर देगा, वे खुद जो कर सकते थे उससे वंचित रह जाते हैं। तो गहरे आलस्य में प्रमाद में पड़ जाते हैं। सब भक्त, सब पूजक अंततः इनर्शिया में पड़ जाते हैं, वह खुद कुछ भी नहीं करते हैं। वे कहते हैं, भगवान है, गुरु है, तीर्थंकर है, अवतार है, कुछ करेगा; तो होगा। तो जाने-अनजाने वे जो कर सकते थे, वह असंभव हो जाता है; क्योंकि उनका मन एक सहारा पकड़ लेता है, कोई करेगा, कोई कर देगा।
फिर चैथी अंतिम बात कहना चाहता हूं, वह यह कि इस जगत में कोई व्यक्ति न ऊंचा है, न कोई नीचा है। यह भाव ही गलत है। और ध्यान रहे कि अगर मैं किसी व्यक्ति को ऊंचा मानता हूं तो मैं किन्हीं व्यक्तियों को नीचा भी मानूंगा। यह असंभव है, यह उसी की कोरोलरी है।
एक संन्यासी के पास मैं गया। संन्यासी एक बड़े तख्त पर बैठे हुए थे। उनके नीचे बगल में एक छोटा तख्त लगा हुआ है। उस पर भी एक संन्यासी बैठे हुए हैं और फिर दो-तीन संन्यासी नीचे बैठे हैं। और सारी जनता नीचे बैठी हुई है। जब मैं उससे मिला तो उन्होंने मुझसे कहा कि आपको शायद पता नहीं होगा कि मेरे बगल में तख्त पर जो बैठे हैं, वे कौन हैं! मैंने कहाः मुझे पता नहीं है। और कोई जरूरत भी नहीं है पता करने की। तो उन्होंने कहाः नहीं, मैं आपको बताना चाहूंगा कि वे हाईकोर्ट के जस्टिस हैं, साधारण आदमी नहीं हैं। जस्टिस थे, उन्होंने सब छोड़ दिया है, और इतने विनम्र आदमी हैं कि कभी मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठे, तो मुझसे छोटे तख्त पर बैठते हैं। तो मैंने कहाः मैं बिलकुल समझ रहा हूं कि छोटे से तख्त पर बैठे हुए हैं लेकिन बैठे तख्त पर ही हैं। और उनसे भी नीचे कुछ लोग बैठे हुए हैं, उनके साथ भी वे नहीं बैठते हैं। मैंने कहाः यह तो मैं समझ गया आपकी बात कि आपके साथ आपके तख्त पर नहीं बैठते, लेकिन उस तख्त के नीचे भी दो-तीन संन्यासी बैठे हुए हैं। उनके साथ भी बैठते हैं कि नहीं? तो वे जरा मुश्किल में पड़े। मैंने कहाः उनके साथ भी वे नहीं बैठे और आपके मरने की प्रतीक्षा देख रहे हैं कि कब इस तख्त पर बैठें और जब वे इस पर बैठेंगे तो नीचे वाले उस तख्त पर आएंगे। हाइरेरकी है एक, वे उस पर आएंगे। और वे भी उनकी तारीफ करेंगे कि यह आदमी बड़ा विनम्र है, कभी मेरे साथ नहीं बैठा।
मैंने कहाः यह भी मैं समझ गया कि वह आदमी विनम्र है, आपके साथ नहीं बैठता। लेकिन आप विनम्र हैं कि नहीं? क्योंकि आपको यह खयाल क्यों आता है कि वह मेरे साथ बैठ जाए तो विनम्र नहीं होगा? आप अहंकारी आदमी हैं। आपको यह मजा क्यों आ रहा है कि यह आदमी विनम्र है? और इसको भी मजा आ रहा होगा कि नीचे के लोग विनम्र हैं, मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठते। मैंने कहा, यह बड़ा लंबा जाल है और बड़ी शृंखला है।
जो आदमी किसी को महान मानता है वह दूसरों को नीचा मानता है। जो आदमी किसी की पूजा करता है, बहुत गहरे में पूजा मांगेगा और एक को महान मानेगा तो दूसरे को नीचा मानेगा। फिर यह वृत्ति बड़ी खतरनाक है। तो मैं कहता हूं, न तो पूजा करना, और न पूजा मांगना। ये दोनों ही मनुष्य को नुकसान पहुंचाने वाली बातें हैं। न किसी की पूजा करना, न किसी से पूजा मांगना। न किसी को महान कहने की घोषणा करना, न किसी को हीन कहना। असल में सब अपने जैसे हैं। सच तो यह है कि घास में जो फूल खिलता है वह भी अस्तित्व है, वह अपने जैसा है। गुलाब का फूल भी अदभुत है, वह अपने जैसा है।
एक फकीर था जापान में। उसके पास किसी ने जाकर पूछा कि कुछ लोग महान क्यों हो जाते हैं, कुछ लोग छोटे क्यों हो जाते हैं? उस फकीर ने कहाः तू बिलकुल पागल है। हमने तो अब तक कोई महान नहीं देखा, कोई छोटा नहीं देखा। जो जैसा है, वैसा देखा। तो उसने कहाः मेरी समझ में नहीं आता। तो उसको फकीर बाहर ले गया। बाहर जाकर उसने दिखाया कि देख, वे दरख्त दिखाई पड़ते हैं, वहां आकाश को छूते लंबे दरख्त खड़े हैं? कहाः हां, दिखाई पड़ते हैं। कहाः ये छोटे पौधे दिखाई पड़ते हैं? कहाः हां, दिखाई पड़ते हैं। उसने कहाः इसमें कौन छोटा-बड़ा है? छोटे पौधे छोटे पौधे हैं, बड़े पौधे बड़े पौधे हैं। बड़े बड़े हैं, छोटे छोटे हैं। लेकिन इससे छोटा-बड़ा कौन कैसे हो गया? एक दरख्त पचास फीट ऊंचा है, एक दरख्त एक ही फीट ऊंचा है। इसमें झंझट क्या है? उसका पचास फीट होना उसका स्वभाव है, एक फीट होना इसका।
इन दोनों की तौल भी क्या है? तौल से संबंध क्या है? तौल की जरूरत क्या है? ये दोनों अलग चीजें हैं बिलकुल। और पचास फीट होने से कोई ऊंचा हो गया? क्योंकि इस एक फीट में जो फूल खिलते हैं, उस पचास फीट वाले में कभी नहीं खिलेंगे। हालांकि पचास फीट वाला जितना आकाश को छूता हुआ मालूम पड़ता है, एक फीट वाला कभी नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन यह यह है, वह वह है। चीजें ऐसी हैं। इसमें सोचना क्या है, इसमें तुलना क्या करनी है?
और अगर आदमी को हम हटा दें तो कौन वृक्ष ऊंचा होगा, कौन नीचा होगा? अगर आदमी न हो पृथ्वी पर तो घास का तिनका भी उसी मौज में है जिस मौज में आकाश को छूने वाला वृक्ष है। छोटी सी पहाड़ी भी उसी मजे में है जिसमें बड़े से बड़ा हिमालय का पर्वत होगा। आदमी ने कंपेरिजन पैदा किया हुआ है। वह कहता है, यह बड़ा है और यह छोटा है। और इस बड़े और छोटे के कंपेरिजन में वह अपने को कहीं न कहीं रखेगा। या तो खुद को छोटा मानेगा या खुद को बड़ा मानेगा।
तो मैं मानता हूं कि इस तरह की तुलना ही घातक है। तुलना करने की कोई जरूरत नहीं है। कोई आवश्यकता ही नहीं है। हीरो-वर्शिप पैदा करने की कोई जरूरत नहीं है। समझ पैदा करने की जरूरत है। महावीर को समझो। खूब समझो, जितना समझ सकते हो। बुद्ध को समझो। खूब समझो, जितना समझ सकते हो। दुनिया में अदभुत-अदभुत लोग हैं, सबको समझो। एक महात्मा को भी समझो उतने ही प्रेम से, एक पापी को भी समझो उतने ही प्रेम से। क्योंकि कोई नहीं कह सकता है कि एक पापी में ऐसी संभावनाएं हैं जो एक महात्मा में न हो। यह हो सकता है, महात्मा बिलकुल बोथला हो और पापी बहुत गहरा हो। कुछ नहीं कहा जा सकता है।
इसलिए काम है इतना कि मैं समझूं जीवन को सब रूपों में, और इतने रूपों में जो प्रकट हो रहा है उसको देखूं और पहचानूं। और इस देखने और पहचानने का सिर्फ एक ही मतलब हो कि मैं जो हो सकता हूं वह होने की कोशिश करूं। मैं किसी की नकल में न पड़ जाऊं। मैं जो हो सकता हूं, जो मेरी अपनी संभावना है उसे मैं प्रकट करने की, विकसित करने की पूरी चेष्टा करूं। और जब मैं पूरा विकसित हो जाऊं तब भी मैं किसी का पूज्य न बन जाऊं। वह बनने की चेष्टा ही गलत है क्योंकि दूसरों को नुकसान पहुंचा सकता हूं।
न कोई किसी का गुरु है; न कोई किसी का शिष्य है। न कोई पूज्य है, न कोई पूजा करने वाला है। इस जगत में हम सब अपने-अपने व्यक्तित्व, अपनी-अपनी आत्मा को खोज रहे हैं। हमारे चारों तरफ और लोग भी खोज रहे हैं।
हम उनको भी देखें और समझें, इस खयाल से कि हम अपनी कैसे खोज सकें, इस खयाल से नहीं कि हम उन जैसे कैसे हो जाएं। इसलिए दुनिया से सारी हीरो-वर्शिप जानी चाहिए।
‘शिक्षाः साध्य और साधन, विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-5
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