पूना एक तीर्थयात्रा—
पूना में गुजारे 21 दिन बहुत ही अभुत पूर्व थे, या ये समझ ली जिए कि प्यास अधिक थी या जल की मात्रा प्रचुर हो गई थी, आज ओशो आश्रम में ओशो उर्जा की बाढ सी महसूस हुई, सच जब में स्वीमिंगपूल में अकेला तेर रहा होता तो आस पास कोई नहीं होता, कितना गहरा ध्यान होने लग जाता था। कभी कभी तो ऐसा लगता बीच तरनताल में कि ह्रदय के आर पास किसी ने बिंध दिया है। एक क्षण के लिए तो भय लगता फिर उस दर्द में एक माधुर्य भर जाता। ओर कान सुनना बंद कर करते, चारों ओर की ध्वनिया शांत हो जाती ओर में एकल ही निश्चल सा तैरता होता, एक तो मन भी तरल है ओर जल का स्वभाव भी तरल है इस लिए जल में या जल के आस पास ध्यान अधिक गहरा जाता है।
ओर श्याद इस समय ओशो उर्जा की बाढ को झेलने के लिए साधक कम है, वहां तो इस समय काम करने वाले अधिक है जो ओशो के प्रति न तो संवेदन शील है ओर न उन्हें उस उर्जा से कुछ लेना देना है। इस लिए ओशो उर्जा का आनंद लेने का ये बहुत ही सुंदर समय है।
यही हाल ओशो समाधि पर हे, इस बार जितना समाधि पर समय गुजारा उतना इससे पहले कभी नहीं गुजारा था। सुबह पहले डायेनमिक ध्यान के बाद, 7-30 से 8-30 ओर फिर में तीन से चार घंटे तरनताल में गुजारता अदविता या तो विपसना करती या फिर घर जाकर खाना बनाती ओर 1-15 तक मेरे लिए कटा पपिता लेकर आ जाती ओर फिर इस मधुर थकावट पर में पपीता ही खाकर हम दोनो ओशो समाधि पर चले जाते जो 1-45 से लेकर 3-45 तक उसी में रहते क्योंकि आज कल कम साधक होने की वजह से दिन का ध्यान जो ओशो आडोटोरियम पर होता था नादब्रह्मा वह भी ओशो समाधि पर ही होता।
बहुत मधुर ओर गहराई महसुस होती ....
सच कुछ दिन तो गुजारो ओशो आश्रम में बहुत सुंदर होगे....बहुत कूछ है लिखने को परंतु शब्द नहीं मिल रहे ओर क्या कहूं....मानों अनुभव के आगे शब्द अटक गये है....आप यहां आकर उसे महसूस कर सकते है।
आश्रम के पक्षी भी कितने र्निभय ओर आनंदित है, कहीं कोयल का मधुर गान, कहीं कोवों की झपटे, कहीं मेडक की टिर-टिर, कहीं कहीं नहाती फाकटा कितनी मधुर लगती थी। ओशो आश्रम में जब धडी अपना समय बताती तो उसमें एक मुर्गे की आज आती, इसी के साथ दूर वृक्ष पर बैठा मोर जरूर उज अवाज का जवाब देता। ये हर घंटे की बात थी, मुर्ग्र की आवाज कितनी दिगभ्रमित है की मोर हर बार उसे असली समझ लेता है ओर उसका जवाब देता है।
पास के एक पेड की जड के पास मैं हमेशा पक्षियों के खाने की लिए कुछ न कुछ डाल देता था, तब वहां कभी कौवों का झूंड का झूड आकर, कभी गिलहरी, कभी फाकता, कभी कोको मिलझूल कर खुशियां मना कर भोजन करती कितनी अच्छी लगती ये सब नजारें में तरनताल से तेरते हुए निहारता रहता।
वहां पर पक्षी कितने निर्भय होकर धुमते है, मोर तो आपके हाथ से लेकर खाता है, कहीं भी आप उसका नृत्य देख सकते है। खाना खाते लागों के बीच, या बीच रास्ते में खडा होकर नाचता रहता है, उसके पास से आते जाते लोग रहते है वह जरा भी नहीं डरता, सालों पहले जब हम जाते थे तो वहां एक सफेद मोर रहता था, जब संध्या सतसंग पर सन्यासी सफेद चोगा पर कर जाते तो उनके बीच चलता सफेद मोर भी एक संन्यासी सा महसूस होता मानो कुदरत ने उसे सन्यासी बना कर ही भेजा है।
ओशो उर्जा विष्मयकार रूप से अब ओशो आश्रम महसूस की जा सकती है।
सारे तीर्थ एक बार, पूना जाओ बार-बार।
स्वामी आनंद प्रसाद मनसा . मा अदवीता नियती
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