शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-अट्ठाईसवां
कम्यून जीवन
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
यह सवाल हिंदू-मुस्लिम का नहीं है। असल में बड़ा सवाल सदा यही है कि जो ऊपर से लक्षण दिखाई पड़ता है उसे हम बीमारी समझे हुए हैं। लक्षण को बदलने में बड़ी मेहनत उठानी पड़ती है। जब तक लक्षण को बदल पाते हैं तब तक बीमारी नया लक्षण दे जाती है। सवाल हिंदू-मुसलमान का नहीं है और न सवाल गुजराती और मराठी का है, और न सवाल उत्तर और दक्षिण का है। सवाल यह है कि आदमी बिना लड़े नहीं रह सकता है। इसलिए जब तक हम, जो-जो लड़ाइयां वह लड़ता है उनको हल करने में लगे रहेंगे, तब तक जारी रहेगा। सवाल बदलेंगे, नाम बदलेंगे, खूंटी बदलेगी, लेकिन जो हमें टांगना है वह हम टांगे चले जाएंगे।
आदमी बिना लड़े नहीं रह सकता है। इसको अगर हम बीमारी समझें तो कोई हल हो सकता है। यह है बीमारी। मगर हमेशा भूल हो जाती है। बुखार चढ़ आया है किसी को, तो हम समझते हैं शरीर का गर्म हो जाना बीमारी है। तो ठंडे पानी को डाल कर शरीर को हम ठंडा करते हैं। शरीर पर बुखार का आना सिर्फ खबर है किसी गहरी बीमारी की, कि शरीर के भीतर कोई संघर्ष हो रहा है
इसलिए उसे गरम हो जाना पड़ा है। गरम हो जाना बीमारी नहीं है। इधर ठंडा करते हैं, वह कहीं और गरम हो जाता है, उधर ठंडा करते हैं तो कहीं और गरम हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा जो राहत मिलती है, वह वैसी है जैसी अरथी को ले जाते हैं लोग मरघट पर और कंधा बदलते हैं। एक कंधा थक जाता है, दूसरे कंधे पर रख लेते हैं । बीच का जो छोटा सा गैप है उसको चाहे आप राहत समझ लें, चाहे हल समझ लें, बल्कि बीमारी दूसरे कंधे पर खड़ी हो जाती है।
हम सदा इसी भाषा में सोचते रहे हैं--कभी दूसरे नाम हैं! कभी दूसरे नाम हैं हिंदू-मुसलमान नहीं होगा तो कम्युनिस्ट, गैर-कम्युनिस्ट होगा, मजदूर-पूंजीपति होगा। मजदूर पूंजीपति नहीं होगा, तो मैनेजर्स होंगे और मैनेज्ड होंगे। झगड़ा जारी रहेगा। और तब तक जारी रहेगा जब तक हम इस सीधे सत्य को स्वीकार न कर लें कि आदमी लड़ने को बहुत आतुर है। और इस आतुरता को हम बीमारी समझें तो कोई हल हो सकता है। तब देखना पड़े कि आदमी आखिर लड़ने को इतना आतुर क्यों है? जीने से भी ज्यादा लड़ने को आतुर है। असल में जीने में भी उसे रस तभी आता है जब वह लड़ता है। वैसे लड़ने के रूप बहुत तरह के हो सकते हैं। शरीर से लड़ सकता है, बौद्धिक रूप से लड़ सकता है, और बहुत तरह की लड़ाइयां लड़ सकता है। लेकिन रस उसे तभी आता है जब वह लड़ता है। जीने को भी दांव पर लगा सकता है, लड़ने के लिए। यह जो मन का रस है लड़ने में, द्वंद्व में, जीतने में, हारने में, हराने में, इस रस को बीमारी समझे, तो कुछ काम हो सके।
लेकिन हम बीमारी को पकड़ते हैं सदा लक्षणों से। हिंदू-मुसलमान को अगर बीमारी समझते हैं तब तो हल नहीं होगा--कभी नहीं होगा। आदमी की लड़ने की वृत्ति है। इस वृत्ति को अगर बीमारी समझते हैं तो कुछ सोचा जा सकता है। मेरी समझ यह है कि आदमी लड़ने में रस लेता है, उसका एक ही कारण है कि कहीं न कहीं समाज, संस्कृति, सभ्यता आदमी को जीने के रस से वंचित कर देती है, किसी तल पर--उसे जीने के रस से वंचित ही कर देती है। तो जीने का रस जब वंचित हो जाता है, तो क्रुद्ध होकर लड़ने का रस बनता है। वह उसका लड़ने का रस हो जाता है। यानी तब वह अपने जीने के उतनी फिकर में नहीं है जितनी आपको न जीने देने की फिकर में है। और एक अर्थ में वह सिर्फ उत्तर लौटा रहा है। आप सबने मिल कर उसके साथ यह किया है, वह उत्तर लौटा रहा है। उसे भी शायद बहुत साफ नहीं है।
मनुष्य के सारे धर्म जीवन-विरोधी हैं--लाइफ निगेटिव हैं। वे सब जीवन रस की निंदा कर रहे हैं। वे सब निंदा करके जीवन रस को जगह-जगह से तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। कहीं बहुत गहरे में जीवित होने का जो मजा है वह कंडेम्ड है। और इसके गहरे कारण हैं, वह हम देखें तो खयाल में आ जाए।
पहला कारण तो यह है कि बच्चे को मजबूरी में अनिवार्यतः बूढ़े के हाथों में पलना पड़ता है--बूढ़ा जो कि जीवन से जा चुका, जिसके हाथ से सब शक्ति बह चुकी। बूढ़ा जो कि जा चुका, बूढ़ा जो कि रिक्त हो चुका, खाली हो चुका, और अब जो भी भरा दिखेगा, बहुत गहरे में वह उसके विरोध में हैं। और बच्चे को बूढ़े के हाथ में पलना पड़ता है, इसलिए बूढ़ा बच्चे की जीवन रस की जो क्षमता है, उसको सब तरफ से काटता और तोड़ता है। बूढ़े के पंजे में बच्चा जब तक है; वह दबाएगा, रोकेगा। बूढ़े के पंजे में जवान हो तो वह दबाएगा, और रोकेगा। जिसे वह नहीं भोग सकता उस भोगने को वह पाप ही कहेगा। अगर कोई और भोगता है, तो वह पापी है और नरक का रास्ता ले रहा है।
यह जो जटिलता है, यह जटिलता बड़ी अनिवार्य जैसी है कि निश्चित ही आने वाली पीढ़ी, जाने वाली पीढ़ी के हाथों में पलेगी और जाने वाली पीढ़ी क्रुद्ध हो चुकी है। सब उससे छीना जा रहा है, वह तिक्त हो चुकी है। तो अभी आपने कहा, सब उसे खारा हो चुका है। अब उसमें कुछ मीठा बचा नहीं। और खारा इसलिए हो चुका है कि मीठे लेने की जो क्षमता है वह गई, जाएगी, वह खारा हो चुका है। यह पीढ़ी आने वाले, अंकुरित होने वाले पौधे को बड़े क्रोध से देख रही है, बड़े विरोध से, बड़ी शत्रुता से। वह उसे सब तरफ से मार रही है। बूढ़ों का वश चले, तो बच्चों को तत्काल बूढ़ा बना दें। जितना वश चलता है, उतना वह बनाता है। अपनी गंभीरता थोप रहा है, अपने अनुभव थोप रहा है और अपना बुढ़ापा थोप रहा है और वह जो मरण से अब आक्रांत है। वह मरण का जो आक्रांत भाव है वह भी थोप रहा है उस पर, जिसको अभी जीवन की सुबह होनी है।
एक पौधा है, वह मरे हुए पौधों के हाथ में पड़ जाए, जो सूख गए हैं और सिर्फ ठूंठ रह गए हैं--तो जो व्यवहार वह उसके साथ करे, वही पूरी मनुष्यता ने अपने बच्चों के साथ किया है। आपका सब प्रेम, आपका सब सदभाव, आपकी सब शुभाकांक्षा--इतने मूल्य की नहीं है, जितना आपका रिक्त हो जाना है। और वह रिक्तता सब तरह से घेर कर मार डालती है। इसलिए लाइफ अफरमेटिव धर्म पैदा नहीं हो सका, जीवन को परिपूर्ण रूप से स्वीकार करने वाला, समग्र रूप से स्वीकार करने वाला, जीवन जैसा है वैसा स्वीकार करने वाला धर्म पैदा नहीं हो सका। न संस्कृति पैदा हो सकी जो उसे सब रूपों में स्वीकार लेती, अंगीकार कर लेती आह्लाद से, अनुग्रह से। और नहीं हो सकी इसलिए कि सब संस्कृति बूढ़े बनाएंगे। यह सब संस्कृति जा चुका बनाएगा और उनके लिए छोड़ जाएगा, जो आ रहे हैं। यह जिद्द है। इस जिद्द की वजह से प्रत्येक बच्चा जो हो सकता था वह नहीं हो पा रहा है। जो होने की संभावना थी उसमें जीवन को भोगने की, जीवन में नाचने की वह नहीं हो पाता है। वह जीवन के प्रति क्रुद्ध होकर ही बढ़ता है, फ्रस्ट्रेशन से ही बढ़ता है और बड़ा होता है।
और तब मेरी अपनी समझ यह है कि वह जो हमारे भीतर जीवेषणा है, वह जो जीवन की आकांक्षा है, अगर कहीं भी अतृप्त हो जाए, तो वह मृत्यु की आकांक्षा में बदल जाती है। उसके दो रूप हो सकते हैं और दोनों ही रूप प्रचलित हैं। वह दूसरे को भी मारने में आतुर हो जाएगा और बहुत गहरे में अपने को भी मारने में आतुर हो जाएगा। इसलिए युद्ध भी लाएगा, आत्मघात भी लाएगा--वह दोनों ही काम लाने वाला है। अब ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अब किस व्यक्ति में यह कौन सा सिक्का वजनी हो जाएगा, यह दूसरी बात है। यह उसकी सारी परिस्थितियों और सारे संस्कारों और सारी व्यवस्था पर निर्भर होगा कि वह दूसरे को मिटाने में उत्सुक हो जाएगा या अपने को मिटाने में। अगर वह ऐसी हवा में पला है जो आक्रामक थी, तो वह दूसरे को मिटाने में उत्सुक हो जाएगा और अगर वह किसी हवा में पला है जो आक्रामक नहीं थी, स्त्रैण थी तो वह अपने को मिटाने में उत्सुक हो जाएगा; अपने को मारने में उत्सुक हो जाएगा। सवाल इसलिए ऊपर नहीं है, सवाल बहुत गहरे में है और इसलिए आज नहीं कल, मनुष्यता को यह निर्णय लेना पड़ेगा कि हम अपने बच्चों को अपने बूढ़ों से कैसे बचाएं? उपाय हो सकते हैं--एक दफा खयाल में आ जाए तो उपाय हो सकता है।
जैसे अभी इजरायल में किबुत्ज है। मेरे एक मित्र इजरायल गए तो उन्हें मैंने कहा, किबुत्ज जरूर देख आना। क्योंकि मेरी समझ जो है, इस वक्त पृथ्वी पर जो बड़े से बड़ा कीमती प्रयोग हो रहा है वह किबुत्ज में--वे इस बात की पूरी फिकर कर रहे हैं कि पलने वाली पीढ़ी और पालने वाली पीढ़ी के बीच यह गैप कितना कम हो, जितना कम हो सके! जैसे अगर बच्चे खाना खा रहे हैं, उनको बूढ़ी औरतें खाना न खिलाएं। उनसे साल, दो साल बड़े बच्चे और बच्चियां उनको खाना खिलाएं। क्योंकि बूढ़ी औरतों का खाने का सब स्वाद जा चुका। खाना उनके लिए अब एक काम रह गया है, एक आनंद नहीं। और खाने के साथ बहुत तरह के दुख जुड़ गए हैं उनके मन में। खाना उनके लिए अब हर तरह से रोग हो गया है। न खाना उनके लिए ज्यादा अपीलिंग है--ज्यादा उनको ठीक रखता है। एक ही बार खा लें, कम खा लें--यह न खाएं, वह न खाएं--वह ज्यादा ठीक है। लेकिन वह उनकी कठोर आंखें छोटे-छोटे बच्चों को कस रही हैं, जो अभी जीवन में सब खाएंगे और नाचेंगे, कूदेंगे। न वह खाने में नाचने देंगे क्योंकि उन्हें नाच महत्वपूर्ण नहीं है। थाली न गिर जाए, सामान खराब न फिंक जाए, वह बहुत महत्वपूर्ण है।
तो दो साल के फासले की लड़की या दो साल के फासले के लड़के उन्हें खिला रहे हैं। इनके बीच फासला इतना कम है कि वह मेरे मित्र जब किबुत्ज में गए और खाने की टेबल पर देखा तो वह दंग रह गए। छोटे-छोटे बच्चे ला रहे हैं, परोस रहे हैं, छोटे बच्चे खा रहे हैं। कोई बच्चा टेबल पर चढ़ कर नाच रहा है, कोई गीत गा रहा है, तीन घंटे तक खाना चल रहा है। उस खाने में सब कुछ चल रहा है, जो कहीं भी नहीं चलता है। उसमें जूठा-मीठा चल रहा है, उसमें थालियां बदली जा रही हैं, उसमें झगड़ा भी चल रहा है, धक्के भी मारे जा रहे हैं, गीत भी गाया जा रहा है, नाचा भी जा रहा है। वह खाना एक आनंद है।
लेकिन बच्चे ही वैसा खा सकते हैं और अगर एक भी बूढ़ा वहां खड़ा हो जाए, तो तत्काल पुलिसवाला बन जाएगा, और सब रोक देगा। यह एक उदाहरण के लिए मैं कह रहा हूं, उसमें भी एज ग्रुप का फासला बहुत कम किया जा सकता है। बहुत कम किया जा सकता है, एज का फासला बहुत कम किया जा सकता है। वह संभावना अब हमारे पास है, और कम किया जा सकता है, एज का फासला भी और यह बोध स्पष्ट किया जा सकता है कि तुम्हारी उम्र किसी भी तल पर बोझ नहीं बननी चाहिए। पुरानी उम्र बहुत बोझ है।
असल में पुराने आदमी के पास सिवाय उम्र के कुछ भी नहीं है। वह उम्र को एक संपत्ति बना देता है और वह आपसे कहता है कि जो मैं कहता हूं, वह ठीक है। उसके ठीक होने से कोई संबंध नहीं है। मैं कहता हूं, मैं सत्तर साल का हूं। जैसे कि सत्तर साल का जो आदमी कहता है वह ठीक होने की कोई अनिवार्यता है। बहुत डर तो उसके गलत होने का है। बहुत डर इसलिए गलत होने का है कि वह मौत के करीब पहुंच रहा है। सत्तर साल के आदमी के गलत होने के बहुत कारण संभावी हैं।
पहला तो गलत होने का यह डर है कि वह मौत के करीब पहुंच रहा है। यह इतना बड़ा खतरा है उसके गलत होने का। जीवन के संबंध में उसका कोई भी आदेश खतरे से खाली नहीं है। दूसरा खतरा यह है कि वह अनुभवी है। उसके पास सत्तर साल का अनुभव है। और जितने ज्यादा अनुभव की पर्त होती है उतना ही तथ्य को देखना असंभव हो जाता है। तथ्य को देखने के लिए कुंवारी आंख चाहिए, अनुभवी आंख नहीं। अनुभवी आंख तथ्य को देख ही नहीं पाती। असल में उसके पास इतना अनुभव होता है कि देखने के पहले वह निष्कर्ष लेता है। वह इतना जान चुका होता है कि अब और कुछ जानने को शेष नहीं रह जाते हैं। उसके सब नतीजे अतीत के होते हैं और जिंदगी कभी अतीत की नहीं होती है, वह सदा वर्तमान की होती है। इसलिए जीवन के संबंध में बच्चे क्या कहते हैं, जिस दिन हम इसे सूत्र बनाएंगे, जीवन के संबंध में जवान क्या कहते हैं; जिस दिन यह हमारी संस्कृति के आधार पर खड़ा होगा, उस दिन मारना और मरना कम हो जाएगा। यह मौत के प्रभाव में आए हुए लोगों ने जो व्यवस्था दी है, इसमें मरना और मारना अनिवार्य है--यह मौत के प्रभाव में आए हुए लोगों की, जिन पर मौत की छाया पड़ चुकी है।
बूढ़ा आदमी अब तक बूढ़े होने की वजह से मूल्यवान था। मेरी समझ में बूढ़े होने की वजह से ही वह मूल्यहीन हो गया है। असल में बूढ़ा ही वह तब होता है जब वह मूल्यहीन हो गया है जीवन की व्यवस्था में। उसके विदा का क्षण आ गया है लेकिन जाता हुआ सूरज, डूबता हुआ सूरज उगने वाले सूरज के लिए व्यवस्था कर जाए। तो आपका यह सूरज भी इतना ताजा न उगेगा दूसरे दिन। इसमें भी यह रोशनी न होगी, इसमें भी यह आनंद न होगा।
बूढ़े होने से आपका आशय क्या है?
बूढ़ा मैं कहता ही उसको हूं जो अनुभवी हो गया है। और जो अब जीवन को नहीं देखता, अनुभव को और स्मृति को देख रहा है। उम्र का वास्ता नहीं है बड़ा, जिसकी संपदा बन गया अनुभव, उम्र जिसकी संपत्ति बन गई है, उम्र जिसका ज्ञान बन गया है। यह बहुत ही खतरनाक है आदमी। अभी हिप्पियों ने एक छोटा सा नारा दिया वह बड़ा कीमती है और बड़ा सूचक है। वह नारा यह है कि तीस साल के बाद के आदमी का कभी भरोसा मत रखना। अजीब सा है! लेकिन उसमें सचाइयां हैं। उसमें सचाइयां हैं क्योंकि तीस साल के बाद के आदमी की बहुत कम संभावना है कि वह सरल रह जाए, वह जटिल हो जाएगा। बहुत कम संभावना है कि वह चालाक न हो जाए, कनिंग न हो जाए। मेरी, जो आप सवाल किए उस बाबत मेरी जो धारणा है, वह यही है कि इस प्रश्न को जब तक हम ऐसे न पकड़ेंगे कि मनुष्य में मारने और मरने की इतनी तीव्र आकांक्षा का उदय कहीं न कहीं उसके जीवन की इच्छा के फ्रस्ट्रेशन का फल है। इसी तल पर उसे सब तरफ से रोक दिया गया है और इसलिए बूढ़े ने सबसे ज्यादा हमला सेक्स पर किया है। सेक्स पर बूढ़े का हमला सर्वाधिक है। क्योंकि जीवन को भोगने की, जीवन में जीने की, नाचने की, गीत गाने की, जीवन में रंग फैलाने की जो सारी क्षमता है, वह कहीं न कहीं गहरे में सेक्स से संबंधित है। असल में जीवन का जो सारा उभार है, जो सारी अभिव्यक्ति है, खुशी की, आनंद की, वह कहीं न कहीं सेक्स से संबंधित है।
यह समझ तो बहुत साफ आ गई, बहुत पहले कि आदमी में--आदमी में ही नहीं, पशु में, पक्षी में, पौधे में, जीवन के सब तरफ, और जिसको हम वसंत कहें वह कहीं गहरे में सेक्स है, काम है। वह काम का ही रूपांतरण है, वह हमारा वसंत जो है। और बूढ़ा अब वहां जाकर रिक्त हो गया है। वह वसंत से निरंतर दूर होता चला गया। तो वह सेक्स की निंदा करेगा। इतनी निंदा उसने की है कि उसने जिंदगी में सेक्स जैसी चीज है, इसे उसने बाहर कर दिया है।
अगर कोई मंगल ग्रह से कोई यात्री उतर आए और हमारी बातें सुने और हमारे मंदिरों में जाए और सड़कों पर चलते लोगों को देखे तो मैं नहीं समझता कि उसे खयाल आ सके कि सेक्स जैसी कोई चीज है आदमी के पास। उसे हमने हटा-हटा कर अंधेरे कोनों में दबा दिया है, जहां वह चोर की तरह जी रही है वृत्ति, जो कि जीवन की मूल वृत्ति थी और जो जीवन के सारे फूल खिलने की जिसमें संभावना थी, वह अब अंधेरे में चोर की तरह जी रही है। और हम सब उसके प्रति कंडेमनेशन से भर गए हैं। तो अगर हम उसमें कभी जाते भी हैं तो पापी और गिल्टी और अपराधी की तरह।
जहां जीवित होना अपराध हो जाए, वहां आपको जीवित देखना असंभव हो जाएगा। तो जीवित होना एक गिल्ट है और यह बूढ़े का आरोपण है। यह बूढ़े का आरोपण है सारे जीवन पर, यह उसका अंतिम वक्तव्य है जो वह सौंप जाता है। वह सौंप ही नहीं जाता है, वह पूरा इंतजाम कर जाता है। बूढ़ा चित्त जब तक मनुष्य के ऊपर से नहीं हटाया जा सकता, तब तक हम जीवन के आनंद से न भर सकेंगे। वह अभी जो आप कविता कह रहे थे, बढ़िया है, लेकिन बूढ़ा चित्त रेखाएं खींचेगा। सबसे पहली रेखा वह क्या शुभ है और क्या अशुभ है, वहां से खींचना शुरू करता है। क्या ठीक है और क्या गलत है? जिंदगी ठीक है और मौत गलत है, ऐसा नहीं, क्योंकि यह तो कोई सवाल ही नहीं है। जिंदगी में कौन सी जिंदगी ठीक है और कौन सी जिंदगी गलत है, जीना कौन सा ठीक है और जीना कौन सा गलत है, यहां से वह सीमाएं खींचना शुरू करता है, मर्यादाएं बनाना शुरू करता है, और मजा यह है कि जीना अपने आप में शुभ है। जीने में गलत जीने जैसी कोई ही चीज नहीं है, अशुभ जैसी कोई चीज ही नहीं है। अगर कोई पूरी तरह जी सके तो वह शुभ ही होगा, सुंदर ही होगा। और अगर अशुभ आया है तो वह सीमा बांधने से आया है। तो पशु के जीवन में कुछ अशुभ नहीं मालूम होता है।
अभी मैं एक मित्र के घर था, वे बड़े शिकारी हैं। बहुत डरते-डरते उन्होंने मुझसे कहा कि कुछ मैंने शिकार की फिल्में बनाई हैं, वह आपको दिखाऊं? लेकिन मैं डरता हूं, आप शायद पसंद न करेंगे, क्योंकि उनमें हिंसा होगी। मैंने कहाः आदमी को छोड़ कर और कहीं हिंसा हो नहीं सकती। मैंने कहा, तुम्हारा अगर गोली मारने का कोई चित्र हो शेर को तो कुरूप होगा, लेकिन शेर ने किसी पशु को या पक्षी को मारा हो, तो सुंदर होगा। जब मैंने देखा--मैंने तो कभी देखा नहीं था, जब मैंने देखा उनकी फिल्म को तो मैं सच में हैरान हुआ। जब शेर एक पशु पर हमला करता है तो कहीं भी हमलावर नहीं मालूम होता--जस्ट प्ले, जैसे खेल रहा है। किसी को मारने नहीं जा रहा, अपने को जिला रहा है। जो गहरे में है--वह अपने जीने के लिए रास्ता खोज रहा है। किसी को मारने नहीं जा रहा है, और उसके जीने में कोई मर रहा है। वह बिलकुल और बात है, मारने नहीं जा रहा है किसी को, तो उसके ढंग में न तो अग्रेशन है, न हमलावर की वृत्ति है और बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे वह खेल खेल रहा है। और वह खेल वैसे ही है जैसे फूल खिलता है, वैसे शेर हमला भी करता है।
हिंसा मनुष्य की ईजाद है। हिंसा मनुष्य को छोड़ कर कहीं भी नहीं है, क्योंकि मनुष्य ही अकेला ऐसा है जो कि जीवन के लिए नहीं मारे किसी को, मारने के लिए जीने लगे। मार सके, तो ही जी सके। मारना कोई साधन न रह जाए, साध्य बन जाए। मेरी अपनी दृष्टि यह है कि फ्रस्ट्रेटेड लाइफ इंस्टिंक्ट है तो वह विक्षिप्त हो जाएगी--विक्षिप्त हो जाएगी तो उपद्रव करेगी।
तो बूढ़ा चित्त पहली सीमा खींचता है जीवन में कि कैसा जीवन ठीक और कैसा जीवन गलत। वह जीवनमात्र को ठीक कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह कैसे जुटाए? बहुत सा जीवन उसके लिए असंभव हो गया है। जो उसके लिए असंभव हो गया है, वह सबके लिए गलत हो गया है। और उसके हाथ में शक्ति थी। बूढ़ा आदमी सदा शक्तिशाली था। इधर इन बीस-पच्चीस वर्षों में उसकी शक्ति का शिखर टूटना शुरू हुआ। जो कि बड़ा शुभ लक्षण है, जिससे कि मनुष्य की बड़ी संभावनाएं खुली थीं। वह सदा शक्तिशाली था और उसकी शक्ति बिलकुल ही चुनौती के बाहर थी--चुनौती भी नहीं दी जा सकती। कोई उपाय भी नहीं था चुनौती का। तो उसने जो व्यवस्था दी है, उस व्यवस्था ने हमारी जीवन की धारा को सब तरफ से पंगु किया है। पंगु जीवन क्रोध से भर जाए, यह बिलकुल स्वाभाविक है; हिंसा से भर जाए, यह बिलकुल स्वाभाविक है।
इधर मेरी अपनी समझ है--इसलिए जिन मुल्कों में, जिन सदियों, जिन क्षणों में और जिन कालों में जीवन को भोगने की कामना प्रकट हुई वह देश दूसरे देशों से फौरन हार गया--चाहे वह यूनान हो, चाहे भारत हो, चाहे कहीं भी। जब भी किसी देश में जीवन को भोगने की जरा सी क्षमता प्रकट हुई, वह दूसरे देशों से फौरन हार गया। क्योंकि उसमें लड़ने की वृत्ति एकदम क्षीण हो गई। लड़ने की वृत्ति पैदा करनी हो तो सेक्स फ्रस्ट्रेशन जरूरी है। इसलिए अगर कुश्ती लड़ने वाला या घूंसेबाजी करने वाला महीने भर ब्रह्मचर्य साधता हो तो अर्थपूर्ण है। अर्थपूर्ण इसीलिए है कि वह जितना जीवन की धारा को रोकता है, जीवन की धारा उतनी तीव्रता से आक्रामक होना शुरू हो जाती है। इसलिए सैनिक को अविवाहित रखना, स्त्रियों से दूर रखना पड़ता है। वियतनाम में अमरीकी सैनिक के पास ताकत बहुत है, लेकिन वह जीत नहीं सकता है। उसका कुल कारण यह है कि वह वियतनामी सैनिक के मुकाबले सेक्स फुलफिल्ड है, और कोई कारण नहीं है। हिंदुस्तान में जो हमलावर लोग आए वे हमसे हर हालत में कमजोर थे, असंस्कृत थे, शक्ति संपन्न भी नहीं थे, समृद्ध भी नहीं थे, बिलकुल जीने-मरने की हालत में थे, लेकिन वे हमसे जीत सके। और उसका कुल कारण इतना था कि हम एक तरह से तृप्त थे और वे एक तरह से बहुत अतृप्त थे और अतृप्ति उनको बड़ी दिक्कत दे गई।
तो अतृप्त चित्त करना जरूरी है लड़ाने के लिए। इसलिए दुनिया में जब भी कोई कौम समृद्ध हो जाती है तो लड़ने में कमजोर हो जाती है। यह बड़े मजे की बात है, समृद्ध कौम लड़ने में कमजोर हो जाती है, गरीब कौम लड़ने में शक्तिशाली हो जाती है। असल में अमीर को आप लड़ा नहीं सकते, सिर्फ गरीब को ही लड़ा सकते हैं। इसलिए दुनिया की सारी राजनीतिक पार्टियां गरीब पर विश्वास, भरोसा रखती हैं। अमीर को आप लड़ा नहीं सकते। वह ऐसा तृप्त है जो कहां लड़ने जाए? कैसी बात करते हैं? एयर कंडीशंड में बैठा हुआ है, आराम से जी रहा है।
अमीर की आप बात कर रहे हैं, किस चीज से वह तृप्त है? क्या वह हर चीज से तृप्त है?
नहीं-नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं--किसी भी तरह की तृप्ति, किसी भी तल की तृप्ति और किसी भी मात्रा में लड़ने की वृत्ति को कम करती है, इतना ही कह रहा हूं। तो अगर लड़ाना हो तो अतृप्त करना बहुत जरूरी है। मेरी अपनी समझ यह है कि सारी दुनिया में जो विद्यार्थियों का अनरेस्ट है, वह सेक्स स्टार्वेशन है। दुनिया में युवकों का अनरेस्ट कभी भी नहीं था। था ही नहीं दुनिया में--वह बिलकुल ही गैर-ऐतिहासिक घटना है, जो अभी घटनी शुरू हुई है। उसका कोई इतिहास ही नहीं है कि दुनिया में कभी युवकों ने और किसी तरह की भी बेचैनी जाहिर की हो।
बड़ा इंपार्टेंट है!
बहुत इंपार्टेंट है क्योंकि जिंदगी के सेंटर पर वह है।
इसलिए म्युजिक डायरेक्टर्स सक्सेसफुल हैं!
होंगे सक्सेसफुल। वह सब सेक्स एक्सप्लायटेशन है किसी गहरे तल पर। वह गहरे तल पर एक्सप्लायटेशन है युवकों को जिन-जिन मुल्कों में बाल-विवाह था, वहां युवकों का प्राब्लम कभी भी नहीं था। क्योंकि इसके पहले कि वे युवा हों और उनके पास कोई शक्ति संचित हो जो लड़ सके, हम उनका विवाह कर दिए हैं। वे कभी भी नहीं लड़ेंगे, लड़ने का कोई कारण नहीं है। अभी तो किंसे ने अमरीका में रिपोर्ट दी है और यह सुझाव दिया है दस साल की मेहनत के बाद कि अमरीका को अगर युवकों के उपद्रव से बाहर होना है, तो बाल-विवाह का विचार करना चाहिए, नहीं तो युवक सब नष्ट कर देंगे।
क्योंकि मामला यह है कि चैदह-पंद्रह साल से पच्चीस साल का वक्त सबसे ज्यादा सेक्सुअली पोटेंशियल है--सबसे ज्यादा है। उसके बाद तो सब क्षीण होने लगती हैं ताकतें। सबसे ज्यादा पोटेंशियल वक्त --सबसे ज्यादा स्टाव्र्ड हो तो आप खतरे पर खड़े हैं। आप ज्वालामुखी के मुंह पर खड़े हो--बिलकुल ज्वालामुखी के मुंह पर खड़े हो। सेक्सुअल एनर्जी भी आदमियों के पास इतनी नहीं थी पहले, जितनी आज है। अमरीका में आज से बीस साल पहले चैदह साल की लड़की मेच्योर हो रही थी। फिर वह बारह साल में मेच्योर होने लगी। अब ग्यारह साल की लड़की भी मैच्योर हो रही है। और डर है इस बात का कि इस सदी के पूरे होते-होते सात साल और नौ साल के बीच में लड़की सेक्सुअली मेच्योर हो जाएगी, क्योंकि इतना भोजन कभी उपलब्ध न था शरीर को।
तो जो मैं कह रहा हूं, यह कह रहा हूं कि अगर मनुष्य की कभी युद्ध की प्रवृत्ति--वह जो आप कह रहे हैं, वह यहां-वहां नहीं लड़ता, तो वह घर में लड़ता होगा। पति पत्नी से लड़ता होगा, पत्नी पति से लड़ती होगी, क्योंकि वह भी बहुत गहरे में फ्रस्ट्रेशन है। क्योंकि आदमी का चित्त जो है वह एक से भरने का उसका स्वभाव नहीं है।
तो प्राॅब्लम कैसे साल्व होगा?
प्राॅब्लम साल्व तो पीछे हो, पहले प्राॅब्लम समझ लिया जाए। साल्व करना सदा आसान है। समझना ही सदा कठिन है।
भारत में इस परिवेश में कि पच्चीस साल तक ब्रह्मचर्य रखना...तो क्या इसका उस एजुकेशन में कुछ होता नहीं था?
स्टुडेंट्स ही नहीं थे, सिर्फ ब्राह्मणों के थोड़े से लड़के थे।
...तो उसमें एक्टिव नहीं होता था?
उसमें बहुत होता था। गुरुओं की पत्नी ले भागते थे, सब होता था। उसके कारण बहुत हैं। एक तो पूरी सोसाइटी को शिक्षित करने का सवाल नहीं था। शूद्रों को तो हमने बंद कर रखा था, एक तिहाई हिस्सा तो शिक्षित नहीं होता था। वैसे भी शिक्षित होने की चिंता में नहीं था। क्षत्रिय और तरह से शिक्षित होता था। स्त्रियों को हमने शिक्षा से काट डाला था। ब्राह्मणों का एक छोटा सा हिस्सा शिक्षित होता था। वह भी बहुत छोटा था। और उसको हम जरूर ब्रह्मचर्य से रखवाते थे गुरुकुल में। इसलिए ब्राह्मण से ज्यादा अहंकारी और लड़ाकू प्रवृत्ति का आदमी खोजना सदा मुश्किल रहा है--एग्रेसिव, ब्राह्मण से ज्यादा दंभी, अभिमानी, लड़ने में तीव्र।
फिजिकली नहीं?
फिजिकली नहीं, क्योंकि उसकी तो ट्रेनिंग सारी की सारी बौद्धिक थी। वह बौद्धिक रूप से लड़ेगा। हिंदुस्तान का पूरा इतिहास फिजिकल लड़ने का इतिहास नहीं है, इंटलेक्चुअल लड़ने का इतिहास है। फिजिकली तो हम किससे लड़ें? क्योंकि हमने जिसे शिक्षित किया था, उसे हम सिर्फ तर्क में, न्याय में और इस सबमें शिक्षित करते थे तो वाद-विवाद करता था--करता रहता था वाद-विवाद। इसलिए जितना हिंदुस्तान ने वाद-विवाद किया, दुनिया में कहीं भी नहीं हुआ। और ये जो युवक वहां थे पच्चीस वर्ष तक, अगर इनकी डाइट तुम देखो तो तुम्हें समझ में आएगा कि इनको पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य से रखा जा सकता था। डाइट जो थी पूरी नहीं थी, नींद जो थी वह पूरी नहीं थी। अगर नींद और डाइट को व्यवस्थित किया जा सके, अगर युवकों को पांच घंटे सुलाया जा सके, खाना एकदम कम और न्यून दिया जा सके, तो एक बड़े मजे की बात घटती है।
अभी एक अमरीका में एक युनिवर्सिटी ने एक प्रयोग किया। तीस युवकों को तीन सप्ताह तक भूखा रखा। तो जो युवक बिलकुल सामान्यतया, जिसको मनो-वैज्ञानिक नार्मल कहता है ऐसे युवकों को, जो कि सब चीजों में रस लेते हैं--नग्न स्त्री में जिनकी उत्सुकता है, नंगी फिल्म भी देखते हैं, गीत भी गाते हैं, नाचते भी हैं; यानी सामान्य अमरीकी युवा हैं, उनको भूखा रखा इक्कीस दिन तक। नौवें दिन के बाद उनमें सेक्स का खयाल विदा होना शुरू हो गया। पंद्रहवें दिन उनके सामने आप बिलकुल ही नग्न मेगजीन लाकर रख दो, वह रखी ही रहेगी वहीं। वह उसको नहीं उलटा कर देखेंगे। और इक्कीसवें दिन जब उनसे सेक्स के बाबत बात की गई तो उनमें से किसी को कोई प्रयोजन नहीं था, उन्होंने कहा कि फिजूल की बकवास है। इसलिए सारे धर्मों ने जिन-जिन की सेक्स से लड़ाई है, उपवास को नियम मान लिया। जैसे जैनों में--सेक्स से भारी लड़ाई है, वहां उपवास धर्म बन गया। सेक्स से लड़ना हो तो उपवास धर्म माना गया।
यह जो कहावत है--अभी यह ‘भूखा बटेरा’ ज्यादा लड़ता है...!
यह जो कहावत हम कहते हैं, यह भी किसी दूसरे अर्थ में सही है, वह मैं आपसे बात करूंगा। अभी जो मैं कह रहा हूं, वह मैं यह कह रहा हूं कि उपवास उन बटकों का जिनकी आप बात कर रहे हैं, पुराने गुरुकुल की, जो कि बहुत छोटी संख्या में होते हैं, उपवास; एक बार भोजन--भोजन भी ऐसा जो कहीं भी उनको भरता नहीं और श्रम बहुत तो जो भोजन भी होता है, वह भी पच जाए। सेक्स जो है वह ओवरफ्लोइंग एनर्जी है। जब आपकी शरीर की सब जरूरतें पूरी होती हैं तब वह ओवरफ्लो होना शुरू होता है। तो अगर आपको ओवरफ्लो न होने दिया जाए--आपकी शक्तियों को, तो आपके सेक्स को बहुत देर तक अटकाया जा सकता है, कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन उस अटकाव से भी आप में दंभ, आक्रमण की वृत्ति, हमलावर पैदा होगा--वह हुआ पैदा। ब्राह्मण को अगर गौर से देखें तो वैसा दंभी वर्ग सारी दुनिया में कहीं पैदा नहीं हुआ। क्योंकि कहीं दुनिया में किसी एक वर्ग पर इतनी व्यवस्था से सैकड़ों सदियों तक प्रयोग नहीं हुए। कोई ऐसा नहीं कि ब्राह्मण को दंभी होना पड़ता है, दंभी होना उसका खून हो जाता है--उसकी आंख में, उसकी नाक में, उसके चेहरे में वह भर जाता है।
तो मेरी दृष्टि में अगर पति-पत्नी भी लड़ते हैं तो वह भी जीवन की हममें पूरी स्वीकृति नहीं है, क्योंकि सच बात यह है कि पति-पत्नी होना हमारा, जीवन की जो विविधता का रस है व्यक्तित्व का, जो सहज स्वाभाविक है, उसको रोका है। इसलिए पति-पत्नी दुश्मन की तरह जीते हैं, जीएंगे ही। मैं नहीं मानता कि पति-पत्नी कभी भी मित्र की तरह जी सकते हैं। असंभव है यह जीना, यह बहुत कठिन है जीना। उनके बीच एक शत्रुता अनिवार्य हो गई है क्योंकि दोनों का स्वभाव सब तरफ से रोक कर बांधने की कोशिश की गई है। यह बिलकुल ऐसा ही है। हम सारी चीजों को लेकिन इस ढंग से लेते हैं कि बड़ी मुश्किल हो जाती है। आज आपको एक खाना खिलाया, कल भी वही खाना खिलाया, परसों भी वही खाना खिलाया, तो सात दिन बाद आप कहेंगे, क्षमा करिए, आप मुझे मार डालना चाहते हैं। पहले दिन अच्छा लगा था, दूसरे दिन कम अच्छा लगा, तीसरे दिन और कम अच्छा लगा। यह सहज स्वभाव है। यह स्वभाव प्राॅब्लम्स खड़े करेगा लेकिन इस स्वभाव को समझ कर ही उनको हल किया जाना चाहिए।
हमने क्या किया है कि हमने इतने रेडीमेड रास्ते खोजे हैं कि स्वभाव की चिंता ही नहीं की। उसकी कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है। असल में पति-पत्नी की जो हमारी व्यवस्था है, एकदम अवैज्ञानिक है। इसलिए पति-पत्नी भारी कलह में जीएंगे। और जब पति-पत्नी कलह में जीएंगे तो पूरा का पूरा संसार करीब-करीब कलह में जीएगा। और कलह हमारा जीवन हो जाएगा। और फिर हम कलह के लिए राजी हो जाएंगे तो मोनोटोनी होगी और बोर्डम होगी और सब होगा! तो फिर इसके लिए हमें दूसरे रास्ते खोजने पड़ेंगे। सारा व्यभिचार पति-पत्नी की अवैज्ञानिकता से पैदा हुआ है--सारा व्यभिचार। फिर वेश्या बनानी पड़ेगी और यह सब इंतजाम करना पड़ेगा। जो-जो जिस चित्त को आपने जबरदस्ती रोका है, वह इधर-उधर से इंतजाम खोजेगा। तो साॅल्यूशन क्या है, मैरिज बंद कर दें या मैरिज में...।
असल में अगर हम मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह समझें और नीति और सिद्धांत मनुष्य के स्वभाव से बड़े न समझे जाएं--क्योंकि मेरे खयाल से वे बड़े हो भी नहीं सकते। जब तक बड़े रहेंगे तब तक उपद्रव रहेगा। मनुष्य के स्वभाव को समझें तो बहुत तरह की व्यवस्था हो सकती है। बहुत तरह की व्यवस्था हो सकती है। यह एक तरह की व्यवस्था है जो हम प्रयोग करके असफल हो गए हैं। यह एक आॅल्टरनेटिव था जो आज से कोई तीन हजार, या चार हजार, या पांच हजार साल पहले जो आदमी ने चुना। यह आॅल्टरनेटिव असफल हो गया। हजार आॅल्टरनेटिव हो सकते हैं। यह असफल हो गया, यह हमें साफ हो जाए, तो उन पर प्रयोग किया जा सकता है। उनको गति दी जा सकती है।
और अब बहुत संभव हो गया है क्योंकि अब उन प्रयोगों को करने की वैज्ञानिक सुविधा उपलब्ध हो गई है जो कि कल तक नहीं थी। कल तक उनको करना भी मुश्किल था। अगर एक आदमी डिजाइन भी बना लेता हवाई जहाज की, तो भी तीन सौ साल पहले हवाई जहाज उड़ाना मुश्किल था। क्योंकि पेट्रोल नहीं था, फलां नहीं था, और सारी व्यवस्था नहीं थी। तो हवाई जहाज की योजना तो बहुत दिन से है आदमी के दिमाग में, लेकिन और जो सहयोगी व्यवस्था चाहिए वह नहीं थी। आदमी के पास अब सहयोगी व्यवस्था है कि वह जिसको हमने अब तक पति-पत्नी का एक सख्त बंधन बनाया था, उसको बदला जा सकता है। और मेरा मानना है कि वह बहुत सुखद होगा। पति-पत्नी के लिए बहुत सुखद होगा।
दो-तीन बातें खयाल में लेने जैसी हैं--जैसे पहली बात, सारी परिवार की व्यवस्था हमने बच्चे के, बच्चे को ध्यान में रख कर की है--सारी व्यवस्था। सारी व्यवस्था हमने इस तरह की है कि बच्चे का क्या होगा? अगर मैरिज न हो, तो सवाल सिर्फ बच्चा है। और तो कोई सवाल नहीं है, सवाल बच्चा है। बच्चे की तो बहुत व्यवस्था की जा सकती है जो इससे बहुत सुखद और बहुत कीमती हो सकती है और बहुत वैज्ञानिक हो सकती है। असल में हम यह मान कर ही क्यों चलें कि बच्चे व्यक्तिगत हैं। ऐसे भी जितने हम पीछे लौटें, बच्चे व्यक्तिगत नहीं थे।
जितनी पुरानी दुनिया थी, बहुत, चार हजार साल पहले, तो इधर मैं देख रहा था तो फादर शब्द जो है वह अंकल शब्द से नया है। अंकल पुराना है, काका। क्योंकि फादर का पता लगाना मुश्किल था। वह बहुत बाद में जब कि परिवार सुनिश्चित हो गया तभी आ सका है। पिता जो है वह बहुत बाद की ईजाद है, काका बिलकुल सहज है। जितने पुरुष थे वे सभी काका थे। हां, मां निश्चित थी। इसलिए मां शब्द बहुत पुराना है, पिता शब्द बहुत नया है। पिता तो तभी आया जब कि हम दो व्यक्तियों को सुनिश्चित कर सके कि बच्चा इन्हीं का है। बच्चा ऐसे भी समाज का है। तो जब तक हम कम्युनल, कम्यून-बच्चे का इंतजाम न कर सकें तब तक हम मैरिज को शिथिल करने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं। वह सारी कठिनाई वहां अटकी हुई है। कम्यून को व्यवस्था करनी चाहिए। इसका यह मतलब नहीं है कि मां-बाप का प्रेम उसको नहीं मिलेगा। मैं मानता हूं, ज्यादा मिलेगा। क्योंकि जिस बच्चे के लिए मां-बाप के लिए बंधना पड़ता है वह उसको प्रेम कर सकते नहीं। कह सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं लेकिन बहुत अचेतन में और गहरे में वही उनके लिए अटकाव है। वह पूरी मनुष्य-जाति के अचेतन मन में, कलेक्टिव माइंड में वह बात है कि बच्चा अटकाव है।
इसलिए जहां अटकाव से बचने का खयाल आता है वहां बच्चे से बचने का खयाल फौरन आना शुरू हो जाता है। आज अगर फ्रांस में, या बेल्जियम में या स्वीडन में बच्चे से बचने की जो बहुत गहरी आकांक्षा है, वह यही आकांक्षा है कि कल अगर हम अपने पार्टनर को बदलना चाहें, तो कोई बड़ी बाधा खड़ी नहीं होगी। क्योंकि कोई ऐसा सेतु नहीं बनता जिसको बांटा नहीं जा सकता। मकान बांटा जा सकता है, धन बांटा जा सकता है, बैंक-बैलेंस बांटा जा सकता है। वह बेटे को बांटना मुश्किल है, वह डिविजिबल नहीं है। उसके दो टुकड़े नहीं किए जा सकते, इसलिए वह एक झंझट की बात है। तो इसके लिए कम्यून व्यवस्था--जो मैंने किबुत्ज की बात कही है, वह कम्यून व्यवस्था है। कम्यून व्यवस्था हो सकती है और कई अर्थों में इतनी बहुमूल्य होगी कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। मैं थोड़ी बात करना चाहूं।
जैसे--जो इस संबंध में बहुत गहरी खोज में जाते हैं उन्हें कई बातें अदभुत खयाल में आई हैं जो हमें खयाल में आएं तो अच्छा है। एक बात तो यह खयाल में आई है कि मां-बाप के पास बच्चे का पलना उन्हें एक तरह की फिक्सडनेस देना शुरू कर देता है। क्योंकि उनको दो व्यक्ति ही इंटीमेट की तरह मिलते हैं निकटतम, बाकी सब दूर होते चले जाते हैं। तो ये जो दो आदमी हैं, यह उनके लिए ब्लू-पिं्रट सिद्ध होते हैं। लड़के के लिए बाप सिद्ध हो जाता है ब्लू-पिं्रट, लड़की के लिए मां सिद्ध हो जाती है ब्लू-पिं्रट। इसलिए मनुष्य में जितने अद्वितीय प्रकाशन की संभावना है वह क्षीण होती है। यह उन बच्चों को अनिवार्य रूप से नक्शा बन जाता है कि उनको क्या बनना, कैसा बनना--और करीब-करीब बेटे बाप को रिपीट करते हैं, लड़कियां मां को रिपीट करती है, सब बातों में। उनकी कलह में, उनके चुनाव में भी, उनके झगड़ों में भी वे सब रिपीट करते चले जाते हैं।
तो मनुष्य के भीतर जितनी विविधता की संभावना है वह क्षीण होती है। और एक बहुत मजे की बात जो है, वह यह है कि एक लड़का है, वह अपनी मां के पास बड़ा होता है तो उसके मन में जो स्त्री की इमेज है, वह उसकी मां की ही निकटतम बनती है। लड़की के मन में पिता की जो इमेज बनती है वह पुरुष की इमेज है। और जिंदगी भर लड़की को जब तक बाप जैसा पति न मिल जाए, तब तक फ्रस्ट्रेशन है। और जब तक बेटे को मां जैसी पत्नी न मिल जाए तब तक उसको तृप्ति असंभव है। मां को पत्नी बनाया नहीं जा सकता और मां जैसी दूसरी औरत खोजी नहीं जा सकती। सब पुरुष अपनी मां खोज रहे हैं अपनी पत्नी में। सब पत्नियां अपने पति में अपना बाप खोज रही हैं। वह मिलता नहीं, वह है नहीं वहां। बस, फ्रस्ट्रेशन शुरू हुआ। तो यह जो इमेज है बच्चे के ऊपर, यह बहुत ही करप्ट करने वाला इमेज है। इससे बचाने की जरूरत है।
जो मैंने किबुत्ज की बात आपसे कही, वे एक प्रयोग करते हैं कि तीन महीने से ज्यादा एक बच्चे को एक नर्स के पास न रहने देंगे। नर्स हर तीन महीने में बदलती रहेगी। मां आती रहेगी, मिलती रहेगी। बच्चा घर भी जाएगा, छुट्टी भी मनाएगा, लौट आएगा, लेकिन एक नर्स के पास बच्चे को बड़ा न होने देंगे। हर तीन महीने में बच्चे को बदल देंगे, नर्स बदलती जाएगी। बच्चे को बड़ा होते-होते सैकड़ों स्त्रियों के चित्र उसके मस्तिष्क में इमेज बनेंगे। उसके पास कोई फिक्सड इमेज नहीं होगा। उसके पास सिर्फ एक वेग कल्पना भर होगी स्त्री की जिसमें सौ स्त्रियों ने कंट्रिब्यूट किया है। उसकी एडजस्टबिलिटी सौ गुनी बढ़ जाएगी। वह अपनी पत्नी के साथ सौ गुना ज्यादा एडजस्ट हो सकता है। इसलिए किबुत्ज में जो बच्चे बड़े हुए हैं उनके पति-पत्नियों के संबंध बहुत सुखद सिद्ध हो रहे हैं, क्योंकि उसके पास फिक्सड इमेज नहीं है। वह कोई खास औरत नहीं खोज रहा है, औरत खोज रहा है।
और खास औरत खोजना बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह खास औरत मिल नहीं सकती है, वह खास औरत आपकी मां है। तो तीन-तीन महीने में वे बदल देंगे नर्स को। तो उसके पास अनेक स्त्रियां आएंगी, जिन्होंने उसे प्रेम किया, जिन्होंने उसे सम्हाला, जिन्होंने उसकी फिकर की। और स्त्री जैसा कोई इमेज उसके मन में नहीं बनेगा, सिर्फ एक धुंधली छाया बहुत स्त्रियों से कंट्रिब्यूट की गई उसके भीतर होगी। और इन सौ स्त्रियों के निकट बढ़ने से वह न मालूम कितनी तरह की स्त्रियों का पति बनने में समर्थ हो सकता है। और उसके साथ उसकी एडजस्ट होने की संभावना बढ़ जाएगी। और बच्चे जैसे ही कम्यून पालने लगे, पति-पत्नी का संबंध पहली दफा निर्भार हो सकता है, निर्बोझ हो सकता है। और स्त्री पहली दफे स्वतंत्र हो सकती है, नहीं तो स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती। उसकी स्वतंत्रता की कोई संभावना नहीं है। वह बंधी ही रहेगी किसी न किसी से।
क्या स्वतंत्र होना जरूरी है?
स्वतंत्र होना सबका जरूरी है। क्योंकि जो स्वतंत्र नहीं है, वह आपको परतंत्र करेगा। गुलाम की प्रवृत्ति दूसरे को गुलाम बनाने की होती है। तो अगर पति सोचता हो कि उसने पत्नी को गुलाम बना लिया है, तो इस भ्रम में न रहे, पत्नी हजार रास्तों से उसको गुलाम बनाएगी--बनाएगी ही। अगर पति को स्वतंत्र होना है तो उसे पत्नी को स्वतंत्रता पूरी दे देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अगर उसने इंच भर भी गुलामी बचाई है तो पत्नी उससे बदला लेगी। वह गुलामी थोप देगी। और इसलिए बड़े मजे की बात है कि बड़े हिम्मतवर लोग, नेपोलियन जैसा आदमी भी घर में आकर एकदम दब्बू हो जाता है। घर में सौ में से निन्यानबे प्रतिशत आदमी एकदम दब्बू हो जाते हैं। उसमें भी बिलकुल स्वाभाविक है यह। बाहर जो था गुलाम बना लिया। अब वह बदला कहां लेगी पति से? वह बदला लेगी--यहीं, इसी जगह बदला लेगी। वह भी उसकी गुलाम बनाने के हजार रास्ते खोज लेगी।
स्त्री का स्वतंत्र होना जरूरी है क्योंकि स्वतंत्र लोग ही दूसरे को स्वतंत्र कर सकते हैं। नहीं तो कोई उपाय नहीं है। उस स्वतंत्रता में ही सुख के फूल खिल सकते हैं, नहीं तो, नहीं खिल सकते हैं। और फिर यह फैलता चला जाता है। वह जो आप कहते हैं कि हम राष्ट्रों की सीमाएं खींचते हैं और समाजों की सीमाएं खींचते हैं और जातियों की सीमाएं खींचते हैं वह सब परतंत्र बनाने और परतंत्र न बनने का भय है। वे सारी सीमाएं--जो आप कहते हैं, आदमी-आदमी से इतना भय क्यों? आदमी-आदमी से भय है क्योंकि आदमी-आदमी एक-दूसरे को तत्काल या तो परतंत्र बनाएगा और या फिर उसे बन जाना पड़ेगा। दूसरा तब तक उसे बना लेगा, अगर वह चूक गया मौका तो दूसरा उसे बना लेगा। क्योंकि स्वतंत्रता सुख है, इसे हम स्वीकार ही नहीं कर पाए।
कम्यून के अतिरिक्त बच्चों को पालने की कोई...और एक और मजे की बात इधर खयाल में आई है कि अगर मां के पास बच्चा बड़ा होता है, तो वह मां के दो रूप एक साथ उस पर इंपेक्ट पड़ते हैं--मां उसको प्रेम भी करती है, मां उसको मारती भी है। मां उसको प्रेम भी करती है, धक्का भी देती है। मां उसे कभी बुला कर गले भी लगाती है और कभी दुश्मन की तरह उसके साथ व्यवहार भी करती है। कभी वह क्रोध करती है, कभी प्रेम करती है। कभी ऐसा लगता है बच्चे को कि वह दुश्मन है, कभी लगता है मित्र है। एक ही व्यक्ति के संबंध में प्रेम और घृणा का इंपेक्ट बड़ा ही खतरनाक है। क्योंकि जिंदगी में अब जिसको भी यह प्रेम करेगा उसकी घृणा से भयभीत रहेगा। यह इसका एसोसिएशन हुआ गहरे में। यह अब किसी व्यक्ति को बिना घृणा किए प्रेम नहीं कर सकता। यह कर ही नहीं सकता बिना घृणा किए प्रेम। इसलिए जिसको मैं प्रेम करूंगा, उसको मैं घृणा भी करूंगा। और यह सिर्फ, सिर्फ मोड्स बदलते रहेंगे--सुबह घृणा करूंगा, सांझ प्रेम करूंगा, फिर क्षमा मांग लूंगा, फिर घृणा करूंगा, फिर प्रेम करूंगा। यह खेल चलेगा क्योंकि मेरे मन में प्रेम और घृणा जो है वह बहुत गहरे में एसोसिएट हो गए हैं।
इसलिए मां से तो बच्चे को मुक्त करना ही पड़ेगा। नहीं तो मां से बच्चे को मुक्त किए बिना नई मनुष्यता पैदा नहीं होगी। वह रिपीट होती चली जाएगी, जो हो रही है। अगर बच्चा कम्यून में पलता है, नर्सरी में पलता है, मां जाएगी उससे मिलने सप्ताह में, लेकिन तब उसका एक ही रूप उसको पता चलता है। वह उसे प्रेम करेगी। और बच्चे के मन में प्रेम को घृणा से संयुक्त होने से बचाना बड़ी से बड़ी क्रांति है जो संभव हो सकती है। क्योंकि तब वह किसी व्यक्ति को टोटली प्रेम कर सकेगा। और नहीं तो वह कभी नहीं कर सकेगा, वह कांफ्लिक्ट हमेशा खड़ी है।
प्रतिदिन हजारों बच्चे पैदा होते हैं, क्या यह पाॅसिबल है?
पाॅसिबल तो सब है क्योंकि जो पाॅसिबल हो गया है यह इतना इंपाॅसिबल था, जो नहीं होना चाहिए था। यह इतनी बेवकूफी पाॅसिबल हो गई है, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। तो सब पाॅसिबल है, यह भी पाॅसिबल हुआ है, यह भी पाॅसिबल हो गया है। एक बार खयाल में आना शुरू हो जाए तो सब पाॅसिबल हो सकता है। और इस वक्त माइंड जो है पूरी मनुष्यता का, बहुत रिसेप्टिव हालत में है। क्योंकि पुराना सब गलत दिखाई पड़ने लगा है, और नया क्या हो इसकी कोई साफ कल्पना नहीं बनती। इस वक्त प्लास्टिसिटी बहुत ज्यादा है माइंड में, इतनी दुनिया में कभी भी नहीं थी। क्योंकि कभी भी फर्क ऐसा नहीं हुआ था कि चुकता पुराना एकदम गलत हो गया हो। कभी हजार चीज में एक चीज गलत होती थी तो उसको हम रिप्लेस कर देते थे। लेकिन पुराना एज सच ठीक रहता था। उनमें कोई फर्क नहीं पड़ता था। अब ऐसा हुआ है कि पुराना एज सच गलत हो गया है और पहली दफे वैक्यूम पैदा हुआ है। क्रांति का क्षण जो है वह वैक्यूम का क्षण है। तो उस वैक्यूम में से बहुत कुछ संभावना है। नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात लिखी है कि सितारों का जन्म अराजकता से होता है, किआस आउट आफ किआस। अब उसके भीतर बहुत कुछ जन्म की संभावना है। लेकिन हमारी सबकी आंखें, जो मिट रहा है उस पर लगी हैं। जो बन सकता है उस पर नहीं लगी हैं। और जब बन सकने की हम कोई बात करते हैं तो पहला सवाल उठता है, वह यह है कि क्या यह पासिबल है? यह सवाल पाॅसिबिलिटी का नहीं है। यह सवाल आपके माइंड की प्लास्टिसिटी का है। असल में आप भी पाले गए हैं, हम भी पाले गए हैं उसमें जो था। और उसके अतिरिक्त कोई पाॅसिबल हो कैसे सकता है।
लेकिन मनुष्य की अनंत संभावना है। और मनुष्य की अनंत संभावनाएं ही अनंत सभ्यताओं को जन्म दे सकती हैं। और अभी तक हम करीब-करीब एक ही सभ्यता को जन्म दिए हैं। मैं नहीं मानता कि बहुत सभ्यताएं हैं। यह एक ही सभ्यता के विभिन्न रूप हैं। चाहे पूरब में, चाहे पश्चिम में और चाहे आदिवासी का हो और चाहे न्यूयार्क के सभ्य का हो, यह एक ही स्वर के विभिन्न प्रयोग हैं। अलग-अलग नहीं है यह बात। तो मूल में एक ही पकड़ है। उसको तोड़ने की जरूरत आ पड़ी है।
अब कितना कठिन है--मां से बच्चे को मुक्त करना कितना कठिन है? चूंकि वहां तो हमने सब थोप दिया है कि सारा प्रेम वहां है, सारा आनंद वहां है, सारा सुख वहां है। मां से ज्यादा पवित्रता का हमने कोई संबंध नहीं सोचा, और मेरी अपनी समझ है कि इसे भी आप खयाल में ले लें कि जहां-जहां उलटी चीजें हैं वहां हम ठीक उससे उलटे का आरोपण करते हैं। जैसे बहन और भाई में सेक्स के संबंध बढ़ जाने की पूरी संभावना है। सबसे पहली संभावना वहीं है। क्योंकि निकटतम लड़की भाई को वही उपलब्ध है। इसलिए हम पवित्रता का भारी शोरगुल मचाते हैं कि बहन और भाई की पवित्रता भारी है। यह जो शोरगुल हम इतना जोर से मचाते हैं, उसका कारण है। उसका कारण, मनुष्य के स्वभाव का हमें पता है कि लड़की निकटतम जो उपलब्ध हो, उससे संबंध हो सकता है। तो मां के संबंध को हमने भारी पवित्रता का शोरगुल मचाया, क्योंकि वह जो पिछली संस्कृति बनी थी, उसके सेंटर पर मां के प्रेम को हमने रखा था और उसके आस-पास हमने परिवार बनाया था। वह परिवार असफल साबित हुआ। उस परिवार से बनी हुई सभ्यता असफल साबित हुई और असफलता के इतने प्रमाण हैं, इतने युद्ध हैं, इतनी विकृति, इतनी हिंसा, इतनी हत्या है कि आश्चर्य यही होता है कि जो लोग नहीं हत्या कर रहे हैं, वे क्यों नहीं कर रहे हैं? जो नहीं आत्महत्या कर रहे हैं, वे क्यों नहीं कर रहे हैं? यानी वियतनाम और कंबोडिया में युद्ध हो, यह आश्चर्य की बात नहीं है। बाकी जगह क्यों नहीं हो रहा है? जैेसी विस्फोटक स्थिति है, वह सब जगह होना चाहिए।
क्या यह संभव हो सकता है?
यह संभव हो सका, अन्यथा संभव हो सकता है लेकिन उसे हमें बहुत फाउंडेशन से सोचना पड़े। इसलिए मैं किसी सवाल को ऊपर से लेने की पसंद में नहीं हूं। ऊपर कोई सवाल नहीं है। ऊपर तो पत्तियां हैं? उनको हम काटते रहते हैं। एक पत्ती काटो, दो पैदा हो जाती हैं, वह कलम साबित होती है। इसलिए दुनिया के--जिनको हम क्रांतिकारी कहते हैं, सुधारक कहते हैं, ये सब कलम करवा जाते हैं और झंझट में डाल जाते हैं। एक पत्ती काट देते हैं और दस पत्तियां पैदा करवा जाते हैं। तो रूट्स से कुछ फिकर करनी पड़ेगी, रूट्स कहां हैं हमारी इस पूरी संस्कृति की? तो मुझे दो-तीन रूट्स दिखाई पड़ती हैं, एक हमारा परिवार है, जैसा हमने बनाया। वह गलत है और मनुष्य को विक्षिप्त करने वाला, पागल करने वाला है। बूढ़ों के हाथ में बच्चे का पालना, इससे बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता है।
सेक्स जो कि बहुत बुनियादी जीवन की ऊर्जा है, उसकी निंदा पर खड़ी है हमारी सारी व्यवस्था। बहुत बुनियादी है, इससे बुनियादी कोई सवाल नहीं है। न परमात्मा का सवाल उतना बुनियादी है, न आत्मा का सवाल उतना बुनियादी है, न रोटी का सवाल उतना बुनियादी है।
क्या सेक्स को फ्री करने से कम होगा?
कम करने का डर आपको बूढ़े दे जाते हैं, वही तो तकलीफ है। वही तो तकलीफ है, हमें पहली फिकर यह है कि कम होगा! वही तो मैं कह रहा हूं, वही कम होगा। कम हो क्यों? यानी पूरे वक्त हमारा चिंतन तो वही है, कम होगा? यानी मुझसे वह मित्र पूछते हैं कि फ्री करने से कम होगा? यानी वह कम होता तो वह फ्री करने तक को राजी हैं। लेकिन हां, ध्यान इस पर है कि वह कम हो जाए। लेकिन कम हो क्यों? स्वस्थ हो, यह समझ में आता है, शुभ हो, यह समझ में आता है, सुंदर हो, यह समझ में आता है, सुसंस्कृत हो, यह समझ में आता है। वह बूढ़े आदमी की प्रतिक्रिया है जवान के खिलाफ। और चूंकि बूढ़े आदमी ने सब शास्त्र बनाए हैं, सब धर्म बनाए, सब संस्कृति बनाईं, इसलिए सब संस्कृति, सब धर्म सेक्स विरोधी हैं। जवान आदमी ने कोई संस्कृति नहीं बनाई, कोई धर्म नहीं बनाया। बच्चे तो बना कैसे सकते हैं? इसलिए सारी तकलीफ है। बूढ़ा जो है, जो वह नहीं कर सकता वह किसी को भी नहीं करने देने के पक्ष में है। न वह नाच सकता है, न वह गा सकता है।
शंकराचार्य तो जवान थे न?
उम्र से जवानी का सवाल नहीं है बड़ा। शंकराचार्य बिलकुल बूढ़े आदमी हैं। उम्र से सवाल नहीं है। लाओत्सु के बाबत कहानी है कि लाओत्सु बूढ़ा ही पैदा हुआ। जब लाओत्सु से किसी ने पूछा कि हमने सुना है कि लोग कहते हैं कि तुम बूढ़े ही पैदा हुए हो, तो उसने कहा कि मैं बूढ़ा ही पैदा हुआ क्योंकि जब मैं पैदा हुआ तब भी मैं न हंस सकता था, न रो सकता था। मैं बूढ़ा ही पैदा हुआ हूं। बोल तो मैं सकता ही नहीं। तो मैं बूढ़ा ही पैदा हुआ हूं। बूढ़े से कोई संबंध उम्र का नहीं है। शंकराचार्य जैसे व्यक्ति जो हैं, ये हिंदुस्तान के सारे अतीत के बुढ़ापे के प्रतिनिधि हैं। और बुढ़ापे का जवान प्रतिनिधि बहुत खतरनाक होता है क्योंकि उसके पास ताकत होती है और वह बुढ़ापे को ताकत देती है। बुढ़ापे का जवान प्रतिनिधि बहुत खतरनाक होता है। बुढ़ापे का तो वह होता है रिप्रेजेंटेटिव, और होता है जवान। तो जितनी उसकी ताकत होती है वह लगा देता है बुढ़ापे के समर्थन में।
जितना हम गहरे, गहरे, गहरेे देखें उतना ऐसा लगता है कि हम दुखी हैं कि हम क्यों पैदा हुए और मर जाना बड़ा सुख है, इसलिए आवागमन से मुक्ति चाहिए, मोक्ष चाहिए। भगवान के प्रति हमारी एक ही शिकायत है सारी पुरानी संस्कृति की कि तुमने पैदा क्यों किया? कामू ने एक किताब में एक छोटा सा वाक्य शुरू किया है और वह यह है कि एक ही मैटाफिजिकल समस्या है और वह सुसाइड है। एक ही दार्शनिक समस्या है, वह आत्महत्या है कि हम आत्महत्या क्यों न कर लें! लेकिन कभी भी स्वस्थ चित्त आत्महत्या नहीं करना चाहता, जीना चाहता है और जीने की अनंत कामना से भरा है। रुग्ण अस्वस्थ होकर मरना चाहता है। फिर मरने के लिए हम ग्रेजुअल रास्ते भी खोज सकते हैं जैसा संन्यासी खोजता है। सडन रास्ते भी खोज सकते हैं जैसा कि कोई कुएं में गिरता है और समुद्र में मरता है। कोई आदमी धीरे-धीरे मरता है। कम हिम्मत वाला एक, एक, एक हिस्से में मरता जाता है।
मृत्यु की पूजा है और जीवन का अनादर है। तो जिस दिन हम जीवन की पूजा करेंगे और मृत्यु को अनादर करेंगे उस दिन तो कुछ हो सकता है। उसके पहले नहीं हो सकता है। न हिंदू का सवाल है, न मुसलमान का सवाल है। ये सब सवाल से बचने की तरकीबें हैं, असली सवाल से बचने की तरकीबें हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मां प्यार न दे। मैं यह कह रहा हूं कि आपकी व्यवस्था में मां भी प्यार नहीं दे पाती और बेटे को भी प्यार नहीं मिल पाता है। अगर उसे प्यार ही दिलाना है तो भी मां से बेटे को दूरी पर रखना जरूरी है। यह भी मेरा खयाल है कि प्रेम के लिए दूरी बड़ी सहयोगी है और निकटता बहुत खतरनाक है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
तो रवींद्रनाथ कोई बुरे आदमी नहीं हो गए। मेरी बात नहीं समझ रहे हो तुम। और मां ने पाला होता तो तुम पक्का खयाल मत लो कि रवींद्रनाथ पैदा भी होते। यह भी कोई पक्का नहीं था। यह मैं नहीं कह रहा हूं--मैं यह कह रहा हूं कि मां के प्रेम के साथ अनिवार्य रूप से घृणा संयुक्त हो जाती है। इस घृणा को काटने की जरूरत है। और इस घृणा को हम तभी काट सकते हैं जब बेटा दूर हो और मां को चैबीस घंटे प्रेम न देना पड़े, कभी प्रेम देना पड़े। असल में जिनको भी हमें चैबीस घंटे प्रेम देना पड़े उन पर हमें क्रोध आना शुरू हो जाता है, क्योंकि प्रेम कोई काम नहीं होता। न तुम पत्नी को दे सकते हो चैबीस घंटे प्रेम, न पत्नी तुम्हें दे सकती है, इसलिए क्रोध आना शुरू हो जाता है।
प्रेम बड़ा फूल है जो क्षण-दो क्षण को चैबीस घंटे में खिलता है। कोई ऐसा नहीं है, चैबीस घंटे आप प्रेम कर रहे हैं। और यह इतना कठिन मामला है कि जिसको हम प्रेम करते हैं उसकी अपेक्षा हो जाती है कि चैबीस घंटे प्रेम चाहिए। वह यह मान ही नहीं सकता कि जब आपने कल प्रेम किया था तो अभी क्यों नहीं कर रहे हैं। प्रेम पीक है, उस पर हम कभी-कभी पहुंचते हैं। सदा नहीं होते हैं। कभी होते हैं , कभी नहीं होते। जब होते हैं तभी ठीक है। जब नहीं होते हैं तब फासला ठीक है। जब उस पीक पर होते हैं तो निकटता ठीक है। इसलिए जब आप के मन में पीक आए, जब मां को लगे कि प्रेम से भरी है तो जाए बेटे के पास, मिल आए। जब बेटे को लगे कि वह प्रेम की पुकार से भरा है, मिल आए मां को, लेकिन चैबीस घंटे नहीं। पति-पत्नी के बीच भी बड़े फासले चाहिए, नहीं तो हम कभी अच्छी दुनिया नहीं बना सकते। जैसी दुनिया है वह रहेगी।
आपने कहा, जब सेटिस्फेक्शन होता है तब आदमी में सेक्स ज्यादा होता है। फिर आपने दूसरी ओर बताया कि जब पच्चीस साल तक ब्रह्मचर्य रखते हैं और उधर कम खाना देते हैं तो नेचरली सेटिस्फेक्शन कम हुआ। तो उनका डिजायर ज्यादा बच जाना चाहिए, वह कम क्यों होता है?
नहीं-नहीं, डिजायर कम नहीं होता है, डिजायर तो ज्यादा ही बढ़ जाएगा। लेकिन आदमी के व्यक्तित्व में बहुत चीजें हैं। इच्छा ज्यादा हो लेकिन शक्ति ज्यादा न हो तो तुम सिर्फ आंतरिक पीड़ा में रहोगे। इच्छा ज्यादा हो और शक्ति भी ज्यादा हो तभी तुम उसे पूरा करने निकलोगे। शक्ति ज्यादा हो और इच्छा दबाई जाए, तब आक्रामक हो जाएगी। तो अगर भोजन कम दिया जाए, नींद कम लेने दी जाए और सब तरह की ऐसी व्यवस्था की जाए कि तुम्हारे भीतर काम की ऊर्जा पैदा न हो पाए तो असल में तुम्हें तुम्हारी इम्मैच्योरिटी को प्रोलांग किया जा रहा है। अभी इस पर भी वैज्ञानिक विचार करता है, खास कर रूस में। क्योंकि यह बड़ा सवाल है कि क्या हम केमिकली लड़कों को या लड़कियों को पच्चीस साल तक मैच्योरिटी रोक सकते हैं उनकी। अगर रोक सकते हैं तो उपद्रव कम होता है। केमिकली, वह भी केमिकल है, वह ढंग भी। खाना कम दो, तो वह भी केमिकल मामला है। नींद कम दो, तो वह भी केमिकल मामला है। आक्सीजन ज्यादा दो, तो वह भी केमिकल मामला है।
अब प्राणायाम करवाया जाए एक व्यक्ति को, वह केमिकल मामला है। क्योंकि आक्सीजन ज्यादा हो जाएगी और कार्बन कम हो जाएगी। तो कार्बन कम होने से जो-जो परिणाम होने हैं वे उसके भीतर हो जाएंगे। भोजन कम दिया जाए तो केमिकल मामला है। उपवास बिलकुल केमिकल मामला है। उसमें जो फर्क होंगे वे सब फर्क केमिकल हैं। लेकिन अब वैज्ञानिक सोचते हैं कि जब इस तरह से प्रोलांग किया जा सकता है, मैच्योरिटी रोकी जा सकती है, क्रिपल की जाती है तो फिर हम केमिकल इंतजाम कर लें कि हर युनिवर्सिटी के लड़के लड़की को हम पच्चीस साल तक मैच्योर न होने दें। उसके दूसरे इंप्लिकेशन खतरनाक हैं, क्योंकि सेक्स मैच्योरिटी के साथ ही क्रिएटिविटी भी आती है। कांप्लिकेटेड है न जिंदगी। असल में जो क्रिएटिविटी का एक्सप्लोजन होता है, वह सेक्स मैच्योरिटी के साथ ही होता है। असल में सब क्रिएटिविटी गहरे में सेक्सुअलिटी है--सब क्रिएटिविटी। सब सृजनात्मकता, चाहे वह पेंटिंग में हो और चाहे काव्य में हो, चाहे धर्म में हो, चाहे मूर्ति बने, वह बहुत गहरे में सेक्स है जिसने बच्चे पैदा करने के क्रम को डायवर्ट किया है। वह बच्चा पैदा नहीं कर रहा।
इसलिए आप ध्यान रखें, स्त्रियां कुछ क्रिएट नहीं कर पाईं दुनिया में। न उन्होंने मूर्ति बनाई, न कविता बनाई, न धर्म को जन्म दिया क्योंकि उनकी सारी क्रिएटिविटी बच्चे पैदा करने में पूरी हो जाती है। स्त्री इसीलिए कुछ क्रिएट नहीं कर पाई। वह नहीं कर पाई, इसलिए कि वह बच्चे पैदा करने में उसकी क्रिएटिविटी चुक जाती है। अच्छा, पुरुष का मामला ऐसा है कि उसके लिए बच्चा पैदा करना क्षण की बात है। स्त्री के लिए वर्ष, दो वर्ष, दस वर्ष की बात है। एक बच्चा स्त्री पैदा कर लेती है, पांच साल के लिए वह चुक जाती है। पांच साल वह उसी को बड़ा करने में लग जाती है। इसलिए स्त्री को और तरह का क्रिएटिविटी की मार्ग नहीं बचता।
पुरुष के लिए बच्चा पैदा करना कोई हिस्सा नहीं है बड़ा। वह बिलकुल बाहर है बच्चे पैदा करने के लिए, बहुत ही नाॅन-एसेंशियल हिस्सा है। और इसलिए उसने सारी चीजें क्रिएट की हैं--विज्ञान खोजा, कला खोजी, साहित्य खोजा। असल में अभी इधर इस पर बहुत काम चलता है कि वे कहते हैं कि वह स्त्री से कंपीट कर रहा है, यह सब चीजें खोज कर। वह यह कह रहा है कि तू ही क्रिएटर नहीं है, क्रिएटर मैं भी हूं। तो उसने सारा का सारा इतना बड़ा जाल--क्योंकि स्त्री एक मामले में उससे बहुत बड़ी है, वह यह कि वह मां बन सकती है, वह क्रिएट कर सकती है बच्चे को। पुरुष वहां इम्पोटेंट है उस मामले में। अचानक उसे पता चलता है कि इस मामले में वह स्त्री से बिलकुल पिछड़ गया है। वह एक जिंदा बच्चे को जन्म दे पाती है। यह वह नहीं कर पाता है। इसका बदला वह ले रहा है और इसका सब्स्टीट््यूट खोज रहा है। तो सारी साइंस, सारा लिटरेचर, सारा साहित्य, सारा धर्म, सारा योग वह एक बात के लिए तय कर रहा है कि मैं भी क्रिएटर हूं, तू ही क्रिएटर नहीं है। हां, इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स है पुरुष में। स्त्री से वह कई मामलों में इनफीरिअर है भी। तो वह कांप्लेक्स उसको दिक्कत देता है।
आज पूरी बात में कहानी नहीं आई?
कहानी मैं लाता थोड़े ही हूं, आ जाए तो आ जाए। यह मामला ही ऐसा था कि यह पूरी ही बात कहानी थी इसलिए कोई अलग से कहानी की जरूरत न थी।
वैसे आज जो भी बात यहां हुई है, बड़ी अच्छी हुई है लेकिन जनरली बुढ़ापे की लाइफ में उतने लोग इंट्रेस्टेड हैं जो कि हम जवानी में इंट्रेस्टेड हैं। बुढ़ापा ज्यादा डिसकस हो रहा है जवानी से...!
जो भी आदमी जवानी में उत्सुक है उसे बुढ़ापे को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए, नहीं तो पता भी नहीं चलता कि कब वह जवान नहीं रह गया--पता भी नहीं चलता है!
...और जवानी पर फिल्म बनाई जाए!
बहुत कारगर हो सकती है। अगर लाइफ अफरमेटिव भाव को लेकर बनाएं तो बहुत अदभुत--जिसमें जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर ले, जीवन को उसके सब रूपों में स्वीकार कर ले। निंदा का भाव ही न हो। जहां निंदा नहीं होगी वहां नीति से हट जाना पड़ेगा क्योंकि नीति निंदा का सूत्र है। जहां निंदा हो ही नहीं। जीवन जैसा है, वैसा स्वीकार है।
एपीकुरस ने जो गार्डन बनाया था यूनान में उसका जो बगीचा था, वह ऐसे ही थोड़े से लोगों की काॅलोनी थी जो जीवन को उसके सब रूपों में स्वीकार है। यूनान का सम्राट उससे मिलने गया है एपीकुरस से कि वहां कर क्या रहे हैं वे लोग! तो वे दिन भर बड़ी मेहनत में सारे लोग लगे थे। कोई लकड़ी चीर रहा था, कोई गड्ढे खोद रहा था। उसने कहाः मैंने तो सुना था, यहां भोगी रहते हैं। यह तुम क्या कर रहे हो! तो एपीकुरस ने कहा कि श्रम भी बड़ा भोग है। हम श्रम भोग रहे हैं अब। जब कोई लकड़ी चीरता है और कुदाली उठाता है और उसके माथे पर पसीना बहता है तो उसका अपना रस और आनंद है। उस क्षण में भी हम जीवन की गहराइयों से संबंधित हैं। फिर वह सांझ तक रुका। सांझ को जब रोटियां बनीं और सब लोग रोटियां खाने लगे और नाच के खाने लगे, और रूखी रोटियां थीं, जिन पर मक्खन भी नहीं था। तो उसने कहाः मैंने तो सुना था कि तुम सब भोगी हो, मक्खन भी नहीं है। तो एपीकुरस ने कहा कि जिन्होंने दिन में श्रम भोगा है वे कैसी भी रोटी पर, बिना मक्खन की रोटी पर भी मक्खन को भोग पाते हैं क्योंकि भूख लगी है।
जब सम्राट विदा होने लगा तो उसने कहा कि मैं कुछ भेंट करना चाहूंगा। तो एपीकुरस ने कहा कि किसी दिन थोड़ा मक्खन भेज देना। सम्राट ने कहाः नहीं, कुछ और मांग लो। उसने कहाः नहीं, और तो सब है--रोटी है, श्रम है, भूख है। मक्खन की आपने याद दिला दी, वैसे हमें याद न थी। आपने मक्खन की बात याद दिला दी तो मक्खन भेज दीजिए। तो सम्राट खुद मक्खन लेकर गया और जब मक्खन बांटा गया, तो पहले तो सब नाचे। परमात्मा को धन्यवाद देने लगे कि मक्खन भेज दिया। तो वह हैरान हो गया कि इतनी सी साधारण सी चीज के लिए तुम इस तरह नाचते हो। तो एपीकुरस ने कहा कि जो साधारण के लिए नहीं नाच सकता है, वह असाधारण के लिए कभी भी नहीं नाच सकता है। जब नाचना ही है तो साधारण के लिए ही नाचना होता है। क्योंकि असाधारण है कहां? घटता कब है? सब साधारण घटता है, जब घटता है।
बिदा होते वक्त एपीकुरस ने उसको कहा, सम्राट को कि साधारण के लिए नाच सको आप तो वह असाधारण हो जाता है। और असाधारण के लिए भी बैठे देखते रह जाओ तो वह भी साधारण हो जाता है। आखिर साधारण असाधारण का फर्क क्या है? तो कभी इस तरह के कुछ एपीकुरस की पूरी जिंदगी पर फिल्म बने और इतनी अदभुत जिसका कोई हिसाब नहीं! लेकिन चूंकि एपीकुरस की कोई फिकर करने वाला नहीं--जीसस पर फिल्म बन जाती है, राम पर बन जाती है, कृष्ण पर बन जाती है। एपीकुरस को कौन जाने? एपीकुरस की पूरी जिंदगी ऐसी है जैसे कि अनूठी है क्योंकि वैसा दूसरा आदमी नहीं हुआ।
हिंदुस्तान में चार्वाक हुए, लेकिन हमने उनका कुछ बचने नहीं दिया तो कुछ पता ही नहीं चलता कि क्या उनकी जिंदगी थी। वे अदभुत लोग रहे होंगे। कभी-कभी कुछ लोगों ने अश्रेष्ठ किया लेकिन वह भी जीवन की धारा नहीं बन पाई। अब कितना ही हिम्मत का आदमी हो चार्वाक, उन्होंने कहा कि अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े, तो पीओ, क्योंकि ऋण तो चुक सकता है, पीना चूक जाएगा और ऋण न भी चुका तो क्या फर्क पड़ता है? बड़े हिम्मत के लोग रहे होंगे। साधारण हिम्मत के लोग नहीं रहे होंगे। हमने तो कंडेमनेटरी मान लिया फौरन कि अरे! हद्द हो गई, ऋण लेकर! लेकिन जिसने कहा है उसका भाव, उसकी पूरी दृष्टि का, बहुत अदभुत है। एपीकुरस की जिंदगी की पूरी कहानी बहुत अर्थ की है। इस वक्त बहुत संभावना बढ़ गई है कि हम उस तरह की कहानी को सोचें, तो बहुत अदभुत है। उसमें सारा संगीत और ढंग का हो सकता है जो जीवन को जगाता हो, सुलाता न हो। और बिलकुल ही इम्माॅरल होनी चाहिए। उसमें कोई नीति भर, जरा प्रवेश न करे क्योंकि जहां नीति प्रवेश हुई कि उसके पीछे फिर बूढ़ा आया।
आपने जो बातें बताईं वे सब ठीक हैं। मगर वह नहीं बताते कि यह कैसे पता हो कि यह बात रोंग है, यह रोंग है? मगर वह नहीं बताते कि क्या फर्क है?
नहीं, मैं तो दोनों ही कह रहा हूं एक साथ। असल में किसी चीज को गलत कहा ही नहीं जा सकता, जब तक हम यह न कह गए हों, कह ही जाते हैं कि ठीक क्या है। किसी चीज को गलत कहना ठीक को अनिवार्य रूप से कहना है। वह दो चीजें नहीं हैं। कोई उपाय नहीं है। लेकिन चूंकि लड़ना है पुराने से--जैसा आप कह रहे हैं न बार-बार, वह वही बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि हम सब जवान हैं और आप बुढ़ापे की बात कह रहे हैं। आप ज्यादा उसकी चर्चा कर रहे हैं। लेकिन अगर गौर से मेरी बात को सुनो तो बुढ़ापे की चर्चा कर ही इसलिए रहा हूं कि वह जवान कैसे प्रकट हो सके। वह अंतर्गर्भित है, वह इंप्लाइड है, पूरे वक्त वही है। वह कठिनाई उन्हें होती है। कठिनाई किसी को भी होती है।
आपके हिसाब से पूर्ण अहिंसा क्या है?
मेरे हिसाब से तो जगत में जीते जी हिंसा ही है। तो हिंसा करने का भाव भर न हो यह संभव है, हिंसा तो रहेगी। हिंसा करने का भाव अगर न हो, मेरा मतलब समझ रहे ना! हिंसा करने का रस भर न हो, हिंसा करने में मजा न आ रहा हो--हिंसा तो रहेगी। श्वास लूंगा तो हिंसा होती है, पैर रखूंगा तो हिंसा होती है। जीना ही हिंसा है। इसलिए पूर्ण अहिंसा तो सिर्फ मृत्यु हो सकती है। गांधी जी के लिए जो मैं कहता हूं, वह यह कहता हूं कि जिसे वे अहिंसा कह रहे हैं उसके पीछे पूरे हिंसक भाव हैं। यानी मैं यह कह रहा हूं कि हिंसा तो जीवन में है, होगी, हिंसा का भाव पीछे नहीं होना चाहिए। और गांधी जी जिसको अहिंसा कह रहे हैं उसके पीछे हिंसा का पूरा भाव है।
अहिंसा का भाव क्या है? जैसे--गांधी जी को लगता है कि यह बात ठीक है तो तुम्हारे द्वार पर अनशन करके बैठ गए हैं कि मैं मर जाऊंगा, अगर तुम मेरी बात ठीक नहीं मानते हो, सत्याग्रह कर रहे हैं। लेकिन मैं तुम्हें धमकी दूं कि मैं तुम्हें छुरी मार दूंगा अगर मेरी बात नहीं मानोगे तो यह हिंसा हो जाएगी, और मैं अपनी छाती पर छुरी लेकर बैठ जाऊं कि मैं अपने को छुरी मार लूंगा अगर मेरी बात नहीं मानी तो--यह अहिंसा कैसे हो जाएगी? यह हिंसा ही है। बहुत सूक्ष्म है और ज्यादा चालाक है। क्योंकि तुम्हारे गले पर छुरा रखूं तो पुलिस वाला भी आएगा और तुम्हें एक डिफेंस का मौका भी देता हूं, लेकिन अपने ही गले पर छुरा रख लेता हूं तो मैं तुम्हें माॅरली क्रिपल्ड भी कर देता हूं।
अंबेदकर के खिलाफ गांधी जी ने अनशन किया। अंबेदकर राजी हो गया। लेकिन अंबेदकर ने पीछे कहा कि मेरा कोई हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है। और न मुझे ऐसा लगता है कि गांधी जी जो कह रहे थे वह सही था। सिर्फ गांधीजी मर न जाएं मेरे कारण, इसलिए मैं हट गया हूं। इस मामले में मुझे अंबेदकर ज्यादा अहिंसक और गांधी ज्यादा हिंसक मालूम होते हैं। चूंकि अंबेदकर का यह हट जाना कि गांधी मर न जाए, यह अहिंसक भाव है। तो पीछे से गांधी जी का चित्त जो है बहुत वायलेंट है। गांधी जी का चित्त बहुत वायलेंट चित्त है। लेकिन उस वायलेंट चित्त को उन्होंने बड़ी अहिंसा का रूप दिया हुआ है।
इसलिए बहुत मुश्किल है पहचानना। और हिंसा दो तरह की होती है। एक तो मैसोचिस्ट हिंसा होती है जो दूसरे को सताने में रस लेती है और एक सैडिस्ट हिंसा होती है, अपने को सताने में अगर कोई रस लेने लगे। मैसोचिस्ट हो, तब तो हमें अहिंसा मालूम होने लगती है और दूसरे को सताने में रस ले, सैडिस्ट हो, तो हमें लगता है कि यह हिंसा है। लेकिन हिंसा के दो रूप हैं। असल में किसी को सताने में रस आता है वह किसी, जरूरी नहीं है कि वह दूसरा हो सकता है, वह खुद भी हो सकते हो। यह कोई जरूरी नहीं है कि मैं आपके ही बाल उखाडूं तो मुझे मजा आए, मैं अपने भी बाल उखाड़ सकता हूं। जरूरी नहीं कि आपको भूखा मारूं, मैं अपने को भी भूखा मार सकता हूं। इस वजह से मैंने कहाः मेरे कहने का तो कारण यह है। मेरा मानना है कि गांधी जी का चित्त बहुत हिंसक है। अहिंसा उनकी प्रक्रिया है अपनी हिंसा को प्रकट करने की।
होना इससे उलटा चाहिए। हिंसा तो जीवन में थोड़ी बहुत होगी ही, वह जीवन का हिस्सा है, लेकिन चित्त अहिंसक होना चाहिए। गांधी जी में उलटा है--चित्त हिंसक है, अहिंसक होने की व्यवस्था है। इसलिए जिनको हम महात्मा कहते हैं इनके पास रहो तो तुम्हें समझ में पता चलेगा कि कितने हिंसक लोग हैं। महात्मा के पास रहो तो ही पता चलता है कि इनकी हिंसा कितनी अदभुत है। नहीं, ये किसी को छुरा नहीं मारते, लेकिन ये बड़े गहरे में घाव करते हैं। असल में किसी दूसरे व्यक्ति को किसी आदर्श और सांचे में ढालने का आग्रह भी हिंसा है। क्योंकि मैं कहता हूं कि आप जैसे हो वैसे मुझे स्वीकार नहीं। यह कान आपका थोड़ा छोटा होना चाहिए और हाथ आपका थोड़ा लंबा होना चाहिए और आपको बीड़ी नहीं पीनी चाहिए और सिगरेट नहीं पीनी चाहिए, चाय नहीं पीनी चाहिए और यह नहीं करना चाहिए वह नहीं करना चाहिए और तीन बजे उठना चाहिए। यह सब मैं आपको काट रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि मैं आपको तब स्वीकार करूंगा कि मैंने जो ब्लू-पिं्रट बनाए, आप वैसे होने चाहिए।
इसको मैं घृणा और हिंसा कहता हूं। असल में प्रेम और अहिंसा का एक ही मतलब है कि आप जैसे हो वैसे मुझे स्वीकार है। आपकी बीड़ी के साथ, आपकी सिगरेट के साथ, आपकी शराब के साथ, आप जैसे हो मुझे स्वीकार है। तो, तो चित्त अहिंसक है, नहीं तो चित्त अहिंसक नहीं है।
अभी मैं एक दिन इधर से गया तो बंबई से एक मित्र मेरे साथ चले--कोई महीना-डेढ़ महीना हुआ--यहां से गया तो मेरे कंपार्टमेंट में एक मित्र थे। वह पहले थे, मैं थोड़ी देर बाद पहुंचा। उन्होंने एकदम से मुझे नमस्कार किया कि आइए, महात्मा जी! लेकिन मैंने उनसे कहा कि आप नमस्कार तो कर रहे हैं, लेकिन आइए, आपका, आपके चेहरे को देख कर मुझे ऐसा लगता है कि जाइए! मैंने कहा कि लेकिन मेरे आने से आप खुश नहीं मालूम होते हैं। मैं दूसरे कंपार्टमेंट में चला जाता हूं। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, आप ऐसी कैसी बात कर रहे हैं, सत्संग रहेगा। मैंने कहाः आप अभी भी सच कह दें। उन्होंने कहा, क्या आप भीतर का खयाल कुछ पढ़ लेते हैं? मैंने कहाः नहीं, कोई भीतर का खयाल नहीं पढ़ लेता। बाहर ही आदमी इतना प्रकट होता है, हम तो उसकी तरफ देखते नहीं, इसलिए पता नहीं चलता। देखता ही कौन किसकी तरफ है! तो मैंने कहाः आपको मुझे लगता है ऐसा कि मेरे आने से खुश नहीं हुए। मैंने कहाः आप मुझे ठीक कह दें, नहीं तो अभी कुछ बिगड़ा नहीं है।
तो उन्होंने कहाः जब आपने सच में ही बात और आपने मुझे पकड़ ही लिया, तो सच में आप आए तो मुझे अच्छा नहीं लगा। क्योंकि मैं शराब वगैरह पीता हूं, सोडा बुला कर रखा है और वेटर शराब ला रहा है। और अंडे बुलाए हुए हैं। मैंने कहाः यह महात्मा के साथ बड़ी मुश्किल हो गई। अगर लूं तो मुश्किल है और न लूं तो मुश्किल है। तो मैंने कहाः मेरे लिए तो शराब और अंडे का आपने आर्डर नहीं किया? उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, मैं आपके लिए नहीं--तो मैंने कहाः आप अपने लिए ही कर रहे हैं तो इसमें मैं कहां आता हूं? मेरा इससे वास्ता क्या है? आप मजे से लें। उन्होंने कहाः यह आप कह रहे हैं, शराब के लिए आपका कोई विरोध नहीं है? मैंने कहाः मैं पीऊं या न पीऊं यह मेरी मौज है। आप पीएं या न पीएं यह आपकी मौज है। मैं आपके लिए विरोध करने वाला कौन हूं? और किसने मुझे ठेका दिया है कि मैं आपके लिए विरोध करूं?
बंबई के ही मित्र हैं, यहां के बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट हैं। खंडवा उतरे तो वह मेरा पैर छुए। मैंने कहाः यह क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहाः मैंने जिंदगी में किसी के पैर नहीं छुए हैं, क्योंकि महात्मा मुझे कभी अच्छे आदमी मालूम ही नहीं हुए। आप पहले आदमी हैं जो महात्मा जैसे दिखाई पड़ रहे हैं और फिर भी भले आदमी हैं।
महात्मा भला आदमी हो ही नहीं सकता है, क्योंकि महात्मा होता ही वह है जो गर्दन दबा कर बड़ा होता है, नहीं तो बड़ा हो नहीं सकता। और गर्दन दबाने के ढंग अलग-अलग हैं--हिटलर के अपने हैं, गांधी के अपने हैं। मेरे लिए बहुत फर्क नहीं है। हिटलर भी ऐसे बड़ा महात्मा था। शराब न पीए, सिगरेट न पीए, रात दस बजे सो जाए, बड़ा पक्का महात्मा था। और मैं मानता हूं, अगर हिटलर सिगरेट पीता, शराब पीता, दो-चार स्त्रियों से प्रेम कर लेता तो दुनिया दूसरे महायुद्ध से बच सकती थी। इसलिए यह हिसाब में बहुत मंहगा है मामला। अगर हिटलर शराब पी सकता, एक-दो स्त्रियों को प्रेम कर सकता तो दूसरा महायुद्ध भी बच सकता था। क्योंकि तब यह आदमी इतना ज्यादा, इतना दुष्ट नहीं हो सकता था जितना हुआ।
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