बुधवार, 9 मई 2018

मा आनंद सीता के गीत-(भाव मंजुषा)

भुुुुमिका-
मा सीता—
मा सीता का जन्म करांची (सिंध) पकिस्तान में 01-नवम्बर सन् 1913 को एक खुशहाल पटनानी परिवार में हुआ। ओशो जी की मां का जन्म भी 1913 में ही हुआ था परंतु उनकी तारिख का किसी को ज्ञात नही है। उस समय बाल विवाह की प्रथा थी। इस लिए उनका विवाह 14 साल कि छोटी उम्र में ही हो गया था। पति का नाम सुंदर दास प्रधाननी था। मा सीता के तीन पुत्र रतन पैदा हुए, बडी लडकी जिसका नाम कृष्णा था। जो 1931 में पैदा हुई, उसके बाद देव प्रधाननी जो 1933 में ओर सबसे छोटे बेटे नवीन प्रधाननी 1936 में पैदा हुए। वैसे तो सभी बच्चे ओशो से जुडे परंतु नवीन जो मा सीता के कहने से अमरिका चले गये थे वह एक मात्र सपुत्र थे जो ओशो मे पूर्णता से डूब गये। विभान से 1936 में प्रधाननी परिवार करांची छोड कर बम्बई आ गऐ थे।
बात उन दिनों की है जब ओशो जी बम्बई के क्रास मैदान पर गीता पर बोल रहे थे। तब मा सीता ने एक बार ओशो को प्रवचन करते हुए सूना ओर देख लिया । ये बात 1973 की है। तब तो मानों उनके अचेतन के पिछले जन्मों के सभी द्वार खुल गये। वह गा उठी क्या तुम हो वहीं...क्या तुम वहीं हो?------.जिस मैं ढूढ रही थी। मानों मीरा को कृष्ण मिल गये।
पैरों में दर्द के बावजुद भी वह दो मंजिल उतर कर किसी भी दर्द की परवाह न करते हुए ओशो जी प्रवचन सुनने आने लगी। रोज रोज वह गहरे से गहरे में डूब रही थी। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था की वह एक नास्तिक सी दिखने वाली महिला को क्या हो गया। परिवार के लोग भी अचरज में थे कि व न तो मंदिर जाती थी ओर न कभी पूजा पाठ करती थी, ओर कितना सहासी महिला थी ओर इस साठ साल की उम्र मे उन्हें क्या हो गया है।
लेकिन प्यास है की जितना पिओ ओर बढ रही थी, तभी पता चला की ओशो माउंटआबु में शिविर ले रहे है ओर उन्होंने नीवन जी को अमरिका से बुलाया की मुझे शिविर में जाना है। पति विरोध तो नहीं करते थे परंतु उत्साह भी नहीं लेते थे। तब औरते दूर का सफर अकेले नहीं करती थी। नवीन जी मा के साथ माऊंटआबु के शिविर में थे। ओर अचानक मा सीता ने घोषणा कर दी की मैं सन्यास आज ही लुंगी। जबकी उनके पति ने कहा था की भगवा संन्यास मत लेना लेना है तो सफेद संन्यसा ही लेना। परंतु ओशो जी ने कहा की आप भगवा संन्यास ही लो। एक साल के अंदर आपके पति भी सन्यास ले लेगे ओर ऐसा ही हुआ सुंदर दाय ने भी एक साल बाद सन्यास ले लिया।
सीता जी शुरू से ही नास्तिक विचारों की कही जा सकती है। वह कभी मंदिर आदि नहीं जाती थी, लोगे कहते थे की अब तो उम्र हो गई है अब तो कुछ धर्म का कार्य कर लो। तब वह केवल हंस भर देती ओर इतना ही कहती मुझे मेरे परमात्मा तब बुलायेगे तो में चली जाऊगी। ओर सच ही शायद साधक आपने अचेतन के तल के बहार नहीं आ सकता। बीज का अंकुरण कोई आसान तो नहीं है, एक माहोल प्रकृति का संग-साथ ओर गुरू के प्रेम की वर्षा के बिना बीज ओर पत्थर एक समान ही सुप्त पडे रहते है। ओर जब ओशो के प्रेम की वर्षा हुई तो सन्यास के अंकुरण ने एक उतुंग छालांग ली। यहीं से गुरू ओर शिष्य का समरर्पण उसके अचेतन में निकाल कर बहार ले आता है।
तब सब साफ दिखाई देने लगता है, मानों आंखें तो थी परंतु उनमें प्रकाश नहीं था। ओर मा सीता के जन्मों की दबी पर्ते खुलने लगी। भगवान बुद्ध के समय की एक घटना है जिसे ओशो ने भी माना है कि यह सत्य है। हम सब भी इस यात्रा में न जानें कितने जन्मों से संग-साथ चल रहे है। श्रावस्ती के एक गरीब परिवार में मा सीता का जन्म हुआ था, वह किसी नगर सेठ के यहां साफ सफाई का कार्य करती थी। नगर में भवान बुद्ध का आगमन हुआ। उन दिनों संध्या के समय जब भगवान बुद्ध प्रवचन देते थे तो हजारों लागों का ताता लग जाता था। ओर श्याम ढलने के बाद अंधकार हो जाता तब श्रृष्ठी लोग वहां घी का दीप जलाते थे। ताकि बोलते हुए भगवान को लोग दूर बैठे भी देख सकते। 
मा सीता के मन में भी जिज्ञाषा उठी की मैं भी वहां दीप जलाऊंगी, परंतु इतनी मुद्राये कहां से लाती तब शायद उनकी उम्र- कोई 12 से 14 वर्ष रही होगी। उस जन्म में भी मा सीता के बाल बहुत लंबे ओर सुंदर थे, लम्बे बाल उस समय सौंदर्य का प्रति माने जाते थे। तब मा सीता ने सोचा की वह अपने सूंदर बाल बेच देगी ओर भगवान बुद्ध के चबुतरे पर दीप अवश्य ही जालायेगी। ओर सच ही उन्होंने 30 चांदी सिक्को मे अपने बाल एक धनिक की पत्नी के हाथों बेच दिये ओर खुशी-खुशी चल पड़ी भगवान के चबुतरे पर दीप जलाने के लिए। तब भगवान ने बडे प्यार से उसे अपने पास बुलाया ओर पूछा बालिके तुम कौन हो....तब से वह इस प्रशन की खोज में डूब गई। ओर भगवान की साधवी बन गई। साधना का जगत बहुत मधुर ओर बीहड होता है। बहुत कठिन है डगर पनघट की । किसी ने युं ही नहीं कहा। परंतु इसमें एक दर्द है ओर दर्द में एक माधुर्य।
ओर वहीं खोज मा सीता को ओशो के पास ले आई। इतनी अधिक उम्र में समर्पण बहुत कठिन है क्योंकि हमारा अहंकार भी बहुत ठोस हो जाता है। ओर अपने बेटे की उम्र के किसी को अपना गुरू मानना अति कठिन है।
जब भी मृत्यु की बात होती तो मा सीता बाल सुलभ हंस देती की मैं तो कब से उसका इंतजार कर रही हूं, शायद वह ही मुझे भुल गई है।
ओशो ने एक प्रवचन में कहा था ‘’वो मरना भूल गई है, ओर अब कोई उनसे उनकी मृत्यु के संबंध में पूछे तो वह खिलखिला देती है। ओर कहती है, वह जब मुझे लेने आयेगी तो में नाचुगी ओर गाऊंगी....
चली चली से सीता मैया चली रे।
चली बादलों के पार, होकर किरणों पर सवार।
वो तो देखने में लागे भली भली रे।
....ओर कौन जाने, वह रहस्य जिससे वे जुड़ी है, आपके ही द्वार पर दस्तक देने आ गई हो। क्या तैयारी है, चलने की? चलकर ही तो मार्ग बनता है, ….चरैवेति-चरैवेति यह है मंजिल भी।
एस धम्मों सननतो
मा सीता ओशो के दीवाने शिष्यों की अग्रणी कतार में आति है, वह ओशो के साथ ओरेगान भी गई थी। ओर चार साल वहां रही।
ओर बाद में एक बार ओशो ने मजाक में कहा था की वह तो मेरी आज्ञा के बिना मर भी नहीं सकती उसे मरने के लिए लिए मेरी आज्ञा की जरूतर होगी। जब तक मैं हां नहीं भरूंगा वह नहीं मर सकती।
अंतिम समय वह व्हील चेयर पर आकर ओशो के प्रवचन सूनती थी। कितने सन्यासी उनको लाने ले जाने के लिए कतार बद्ध खडे रहते थे। जब उनसे पूछा जाता तो वह मात्र हंस देते की न जाने कैसा लगता है मा सीता की व्हील चेयर चलाते मानों हम किसी ओर ही लोक मे चले जाते है। वह अंतिम समय तक ओशो के संध्या सतसंग में आती रही।
ओशो जी जहां रहते थे लाओते में वहां ओशो जी के गेट के सामने ही मा सीता की समाधि बनी है। कहते है ओशो ये सब आपने जीते जी कह गये थे। एक दिन वह निकले गेट से ओर सीधे जाकार एक जग खडे हो गये ओर कहने लगे की सीता की समाधि यहां बनाना। ओर ओशो के शिरीर छोडने के चार बाद मा सीता ने शिरीर छोड। 9 सित्मबर सन् 1994 को। ओर सच वहीं पर आजा मा सीता की समाधि है। वहां पास ही विमल क्रीति ओर आनंद मेत्रिय की समाधि भी है। वहां की उर्जा अभुतपूर्व है। जहां मानों संतो की एक महफिल सी जूड गई है। ओशो जी की समाधि पर जाने से पहले कुछ समय अगर मिल जाता था तो वहां बैठाना हम कभी नहीं भुलते थे।
अंतिम समय पर स्वामी धनश्याम जी ने जो मा सीता की देखरेख करते थे उन्होंने उनकी बहुत सेवा की। जब हमारी उनसे मुलाकात हुई तो कहने लगे की दो मंजिल से उतरना उन्हें कठिन था वहा पर लिफट भी नहीं थी ओर वह मुझे कहने लगी की मेरे पास मात्र डेढ माह है ओर मैं चाहती हूं की ओशो के संध्या सत्सग में मैं अंतिम समय तक जाऊं।
ओर सच पापुलर हाईट का मकान खरीदने के डेढ माह बाद वह चल बसी। कितना हज्जूम का हज्जूम था उस दिन बरनिंग घाट पर चेहरो पर एक दर्द एक विष्मय था ओर ह्रदय में एक उत्सव आनंद भर कर लोगों ने उन्हें बिदा किया। वह पूर्णता को प्राप्त हो कर गई है। ओशो की अभुतपूर्व शिष्या थी, ओर भग्यशाली भी की जिस सब की खोज वह जन्मों से कर रही थी वह उन्हे प्राप्त हुआ।
सालों से पूना जाते है, ओर समाधि को देखते भी थे। परंतु ऐसा कभी सोचा नहीं था की ऐसे लोग मिलगे जो मा सीता के प्ररिवार से होगे। ये भी एक रहस्य है। की घनश्याम जी से मुलाकत होना, वहां हम एक इरानी महिला से मिलने गये थे। जो हमे 2002 में मिली थी, उनके पिता आनंद अली भी बहुत प्यारे मनुष्य थे। इरानी लोग भी भारतिय कि तरह महमान नविज होते है, वहां धनश्याम से मुलाकात ओर तब उसके बाद उनके सपुत्र ओर पुत्र वधु मा सुनिता से मिलना हुआ ओर ये प्रेम भरी फूहार आप तक पहूंची है। आगे उनके पूत्र श्री नवीन व उनकी पत्नी सुनिता के विषय में लिखुंगा।
हमारा प्रेम नमन। जय ओशो
मनसा – मोहनी




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