प्रश्न सार :
*आध्यात्मिक साधना में गुरु की क्या भूमिका है?
*सक्रिय ध्यान में घटने वाले आतंरिक स्त्री—पुरुष के मिलन को समझाने की कृपा करें?
*भोगों में लिप्त हुए बिना शरीर का समग्र स्वीकार कैसे हो?
पहला प्रश्न:
आपने कहा कि जब गुरु की उपस्थिति उसकी अनुपस्थिति जैसी होती है और जब शिष्य भी अनुपस्थिति की अवस्था में आ जाता है। तभी परमात्मा का काम शुरू होता हे। यदि दोनों ही अनुपस्थिति की अवस्था में होते है, तो कृपया समझाएं की आध्यात्मिक साधना में गुरु की भूमिका होती है?
वास्तव में ऐसी कोई भूमिका नहीं होती। गुरु की तो भूमिका तभी हो सकती है जबकि गुरु व्यक्ति की भांति जीता है। यदि वह किसी व्यक्ति की भांति जीता हो तो ही कोई भूमिका हो सकती है। ये सारे शब्द—करना, भूमिका, प्रयास, सहायता—ये सब के सब अहंकार—केंद्रित हैं। उनका अर्थ है कि गुरु कुछ कर रहा है। नहीं, गुरु कुछ भी नहीं कर सकता है, वह है ही नहीं। लेकिन फिर भी उसके इर्द—गिर्द चीजें घटती हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शिष्य रूपातरित नहीं होता है;
वह रूपांतरित होगा। और वह ऐसे ही गुरु के द्वारा रूपातरित हो सकता है जो कि कुछ भी नहीं कर रहा है। यदि गुरु कुछ कर रहा है तो शिष्य रूपातरित नहीं हो सकता। गुरु की तरफ से किया हुआ प्रयास यही बतलाता है कि गुरु अभी गुरु नहीं है। प्रयास का तो प्रश्न ही नहीं है।
गुरु तो होता है एक अनुपस्थिति की भांति, एक 'ना—कुछ' की हालत में। और यह तथ्य ही एक विराट शक्ति का कारण हो जाता है। यह तथ्य ही, यह शून्य की सत्ता ही उसके चारों ओर रहस्यात्मक घटनाओं का कारण हो जाती है। परंतु गुरु उन्हें कर नहीं रहा है। याद रहे, सरिता तो सागर की ओर बह रही है, किंतु सरिता नहीं बह रही है, बहने के लिए कुछ कर नहीं रही है। बहाव तो प्राकृतिक है। यह सरिता के लिए प्राकृतिक है कि बहे। इसमें सरिता कुछ प्रयास नहीं कर रही है। वृक्ष बढ़ रहा है, वृक्ष उसके लिए कुछ कर नहीं रहा है। कोई प्रयास नहीं है, कोई केंद्र भी नहीं है, कोई अहंकार भी नहीं है करने के लिए। यह बस हो रहा है।
जीवन एक घटना है, एक घटना का होना है। और एक व्यक्ति तभी गुरु होता है जब कि वह इस बोध पर आ गया हो। समग्र ही कर रहा है, और हम व्यर्थ ही परेशान हो रहे हैं, और हम व्यर्थ ही हस्तक्षेप कर रहे हैं, और हम व्यर्थ ही अपने भ्रांत केंद्रों को बीच में लाते रहते हैं। भ्रात, क्योंकि किसी भी व्यक्ति के पास केंद्र नहीं हो सकता।
महान ईसाई संत मिस्टर इकहार्ट ने कहा है कि सिर्फ परमात्मा ही 'मैं' कह सकता है। कोई व्यक्ति वस्तुत: नहीं कह सकता है 'मैं'। क्योंकि 'मैं' का संबंध समग्र से है। मेरा हाथ नहीं कह सकता है 'मैं' क्योंकि हाथ तो मेरा है। मेरा पांव नहीं कह सकता 'मैं' क्योंकि पांव तो मेरा है। मेरा पांव, मेरा हाथ, मेरी आंखें, वे नहीं कह सकते 'मैं' क्योंकि वे सब हिस्से हैं, एक वृहत इकाई के अंग हैं। तुम भी अपने आप में एक इकाई नहीं हो। तुम एक विराट समग्रता के हिस्से हो। तुम सिर्फ एक अंश हो, एक आणविक कोष हो समग्र के। तुम नहीं कह सकते 'मैं'।
इसीलिए सारे धर्म कहते हैं कि 'मैं' ही एकमात्र बाधा है, क्योंकि 'मैं' एक सर्वाधिक असत्य चीज है संभवतया। वह तुम्हारा नहीं है। तुम्हें तो यह भी पता नहीं कि तुम क्यों पैदा हुए, तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें जीवन में कौन ले आया है। किसी ने तुमसे नहीं पूछा, किसी ने तुम्हारी राय नहीं ली। तुमने अचानक पाया कि तुम जिंदा हो। फिर कौन है जो तुम्हारे भीतर श्वास लेता चला जाता है? तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।
और फिर अचानक एक दिन तुम नहीं हो जाओगे। कोई तुमसे पूछेगा भी नहीं। यह तुम्हारा निर्णय नहीं है कि तुम पैदा हो अथवा तुम मरो। लेकिन कुछ होता है, और होता चला जाता है। कुछ घटना घटित होती है और तुम पैदा हो जाते हो, और कोई घटना घटती है और तुम 'न' हो जाते हो; तुम पुन: खो जाते हो। कैसे कह सकते हो तुम 'मैं'? तुम्हारा कोई भी तो निर्णय नहीं होता। कोई निर्णय तुम्हारा नहीं होता। 'मैं' तो सिर्फ परमात्मा का ही हो सकता है।
फिर एक और भी समस्या है, और वह समस्या यह है कि यदि गुरु मदद नहीं कर सकता, यदि गुरु कुछ नहीं कर सकता, तो फिर गुरु यह वादा कैसे कर सकता है। अभी मुझे किसी ने एक भित्ति—चित्र दिखाया जिसमें कहा गया है. ''मैं कुछ सिखाने नहीं आया हूं बल्कि जगाने आया हूं। समर्पण करो और मैं तुम्हें रूपांतरित कर दूंगा। यह मेरा वादा है। ''फिर मैं कैसे तुम्हें वादा कर सकता हूं? फिर कैसे मैं यह कह सकता हूं कि मैं तुम्हें रूपांतरित कर दूंगा? वास्तव में यह एक तरकीब है। मैं तुम्हें रूपांतरित करने वाला नहीं हूं—मैं तो हूं ही नहीं—लेकिन यदि तुम समर्पण करो तो तुम रूपांतरित हो जाओगे। यदि तुम समर्पण करो तो तुम्हारा रूपांतरण हो जाएगा _ नहीं कि मैं तुम्हें रूपांतरित करूंगा। तुम्हारा समर्पण ही तुम्हें उस बिंदु पर ले आता है जहां कि रूपांतरण घटित होता है। और जब वह हो जाएगा तब तुम्हें पता चलेगा, और तुम हंसोगे कि यह भी खूब मजाक रही...!
मैं कुछ भी नहीं कर सकता। करने की सारी धारणा ही असंगत है। मैं तो यहां हूं ही नहीं। लेकिन तुम्हें वह भाषा समझ में नहीं आएगी। तुम्हें मैं की भाषा ही समझ में आएगी। इसीलिए मैंने कहा है... और यह बात सही भी है कि तुम रूपांतरित हो जाओगे। यह बात बिलकुल सत्य है कि एक बार तुम समर्पित हो जाओ तो फिर तुम्हारे रूपांतरण में कोई बाधा नहीं है; तुम फिर से जन्म जाओगे। और मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं और मैं कुछ कर भी नहीं सकता हूं। तुम्हें रूपांतरित करने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए। तुम स्वयं काफी हो।
लेकिन तुम्हारा आत्मविश्वास खो गया है, और यह तरकीब सिर्फ तुम्हें तुम्हारा आत्मविश्वास वापस लौटाने के लिए है। तुम अपनी संभावना भूल गए हो। तुम भूल गए हो कि तुम्हारे भीतर कौन जीवंत है, कौन—सी महान शक्ति तुम्हारे भीतर छिपी पड़ी है। तुम भूल गए हो, और किसी की आवश्यकता है कि वह तुम्हें इस बात की याद दिला दे। तुम्हारे पास खजाना है और तुम उसे भूल गए हो। मैं तुम्हें खजाना नहीं दे सकता, तुम स्वयं ही वह खजाना हो। मैं सिर्फ तुम्हें दिखा सकता हूं सिर्फ तुम्हें एक संकेत कर सकता हूं।
जब जीसस कहते हैं, ''मैं तुम्हारा उद्धार करूंगा, ''जब जीसस कहते हैं, ''मैं तुम्हें मुक्त करूंगा, ''या बुद्ध कहते हैं, ''मैं हूं तुम्हारा मार्ग, तुम्हारा द्वार, ''और जब कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ''तुम मुझे समर्पण करो, और मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करूंगा, ''तो ये सारी तरकीबें हैं उनके लिए जो कि स्वयं को भूल गए हैं। परंतु वादा सही है क्योंकि घटना घटती है। नहीं कि कोई तुम्हारी सहायता करता है, तुम्हारी स्वयं की ऊर्जा ही स्वरूप में आ जाती है, तुम्हारी ऊर्जा ही जीवंत हो जाती है, तुम्हारे अपने स्रोत ही जुड़ जाते हैं और तुम्हारा अपना स्वरूप ही सक्रिय हो जाता है।
लेकिन तुम 'मैं—विहीन' भाषा नहीं समझ सकते हो, इसलिए मैंने 'मैं' की भाषा बोली है कि मैं कोई शिक्षा देने नहीं आया हूं बस जगाने आया हूं। कोई भी नहीं आया है, कोई आ भी नहीं सकता। हम सदा से यहां हैं—तुम और मैं। न मैं आ सकता हूं न मैं जा सकता हूं। कोई जगह भी नहीं है जाने के लिए, और न कोई जगह है आने के लिए। हम सदा से अस्तित्व में मौजूद हैं। हम सदा—सदा से अस्तित्व में हैं। और मैं कौन होता हूं तुम्हें शिक्षा देने वाला, अथवा जगाने वाला? लेकिन तुम स्वयं ही अपनी संभावना को भूल गए हो, अपनी प्रसुप्त संभावना को भूल गए हो, और किसी तरकीब की जरूरत है जो कि तुम्हें पुन: तुम्हारे पर लौटा लाए।
और यह भी स्मरण रहे कि यह कोई इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मुझे तुम्हारे प्रति बहुत करुणा है। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। मुझे तुम्हारे प्रति कोई करुणा नहीं है। तुम्हें किसी करुणा की जरूरत भी नहीं है। तुम कोई गुलाम नहीं हो, तुम कोई दरिद्र नहीं हो, तुम कोई भिखारी नहीं हो। तुम स्वयं दिव्य हो। तुम उतने ही दिव्य हो जितने कि कोई कृष्ण अथवा कोई बुद्ध हो सकते हैं। किसी भी चीज की कमी नहीं है।
सभी कुछ मौजूद है, और तुम गहरी नींद में सोए हो। और जब मैं बोलता हूं अथवा प्रवचन आदि देता हूं अथवा कुछ करता हुआ दिखाई पड़ता हूं तो ऐसा नहीं है कि मुझे तुम्हारे प्रति कोई करुणा है—नहीं! ऐसा मेरे भीतर घट रहा है, और ऐसा मैं खेल करता रहता हूं।
यह भी एक खेल है। मुझे इसे करने में आनंद आता है। इसके लिए तुम्हें मेरे प्रति अनुगृहीत होने की आवश्यकता नहीं! मैं इसका आनंद लेता हूं। तुम्हें मेरे प्रति जरा भी ऋणी होने की जरूरत नहीं है। यह मेरा आनंद है, मेरा प्रेम है। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई फूल खिला हो और तुम उसके पास से निकलो और वह तुम्हें अपनी सुगंध भेंटस्वरूप दे दे। उसी तरह... मेरे भीतर भी कुछ खिल गया है, और तुम मेरे पास से गुजरते हो और मैं तुम्हें यह उपहार स्वरूप दे देता हूं। यदि तुम उसे ले लेते हो तो मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूं और यदि तुम नहीं लेते हो तो तुम अपने मालिक हो।
वस्तुत: यदि यह बात तुम्हारे भीतर गहरी चली जाए तब फिर न कोई गुरु है, और न कोई शिष्य है। तब संबंध खो जाता है। और खो ही जाना चाहिए। केवल तभी जब कि गुरु भी नहीं है, और शिष्य भी नहीं है, और सारा संबंध खो गया है तभी परमात्मा काम करना प्रारंभ करता है।
जब मैं गुरु हूं और तुम शिष्य हो तब द्वैत बना रहता है। और ऐसे बहुत से गुरु हैं जो कि यह बात तुम्हारे ऊपर थोपते रहते हैं कि तुम शिष्य हो और वे गुरु हैं, कि वस्तुत: वे ऊंचे हैं और तुम नीचे हो। और इस तरह वे एक पदानुक्रम पैदा कर देते हैं। वस्तुत: वे अपने चारों ओर एक प्रकार की राजनीति पैदा कर देते हैं। इस तरह के गुरु अधिक मददगार नहीं होते। वे नुकसान करने वाले हो सकते हैं, क्योंकि वे तुमको वह नहीं दे रहे जो कि तुम्हारे पास पहले से ही मौजूद है। वे फिर एक प्रकार का भ्रम पैदा कर रहे हैं।
मैं जो भी यहां कर रहा हूं वह वस्तुत: कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहा हूं बल्कि इसके विपरीत सारे संबंधों को नष्ट कर रहा हूं। यदि हम यहां पर बिना सोचे हो सकें कि कोई गुरु है और कोई शिष्य है, यदि सिर्फ हम यहां हो सकें—उपस्थित, जाग्रत, जीवत—तो घटनायें अपने से घटने लगती हैं।
पति और पत्नी—यह एक संबंध है। पिता और पुत्र—यह एक संबंध है। गुरु और शिष्य—यह कोई संबंध नहीं है, सिर्फ यह दिखाई पड़ता है, लेकिन यह कोई संबंध नहीं है, क्योंकि सारा प्रयास द्वैत को मिटाने का है, और संबंध सिर्फ द्वैत में हो सकता है।
अत: एक गुरु वास्तव में प्रयास कर रहा है कि गुरु न हो, और गुरु यह भी प्रयत्न कर रहा है कि तुम शिष्य न हो। सारा प्रयास तुम्हें उस बिंदु पर लाने के लिए है जहां कि संबंध विलीन हो जाते हैं, जहां कि दो नहीं बचते बल्कि सिर्फ एक की उपस्थिति ही होती है। और जब कोई संबंध नहीं बचता, लेकिन तुम भी सजग होते हो, और मैं भी सजग होता हूं स्मरण रहे यदि तुम सजग हो और मैं भी सजग हूं तब मैं भी नहीं हूं और तुम भी नहीं हो, इस सजगता में ही 'मैं' विलीन हो जाता है और दो दीये की लौ एक हो जाती हैं। केवल उसी अखंडता में परमात्मा काम करना शुरू करता है।
परमात्मा केवल अद्वैत में ही काम करता है, यही उसका काम करने का ढंग है। जितने अधिक तुम बंटे हुए हो उतना ही कम वह काम कर सकता है। जितने अधिक तुम बंटे हुए हो, उतने ही तुम परमात्मा से दूर चले जाते हो। यही मेरा मतलब है।
इसलिए इस प्रश्न के बारे में दो बातें : पहली, कि गुरु कुछ भी नहीं कर रहा है, कोई रोल अदा नहीं कर रहा है। वह कोई प्रयास भी नहीं कर रहा है। यह उसकी ओर से कोई प्रयत्न या प्रयास नहीं है। वह सजग हो गया है, जाग गया है, इसलिए कुछ उसके भीतर से बह रहा है। यह वैसे ही है जैसे नदी का बहना। जहां कहीं भी उसकी सरिता बहेगी, वह लोगों को और अधिक जागरूक करेगी। ऐसा नहीं है? इसके लिए उसे कुछ प्रयास करने की जरूरत है, नहीं, यह तो उसका स्वभाव है। इसलिए गुरु स्वभाव से ही गुरु है, बिना किसी प्रयास के। वह जहां भी जाएगा, वहीं वह गुरु है।
मुझे एक इजिप्तियन फकीर झुन—नुन के बारे में एक कहानी याद आती है :
झुन—नुन सदा भिखारी के वेश में घूमता रहता था, और राजे—महाराजे भी उसके शिष्य थे। एक बहुत अमीर शिष्य ने उससे पूछा, ''आप यह भिखारी की तरह क्यों घूमते रहते हो? आप क्यों जनसाधारण से मिलते—जुलते हो? यह बात कुछ ठीक नहीं है, क्योंकि आप एक महान गुरु हैं। ''कहते हैं कि झुन—नुन ने कहा, ''एक गुरु अपने स्वभाव से ही गुरु होता है, इसलिए वह जहां भी जाता है, वह वहीं पर गुरु है, जहां कहीं भी हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। यदि वह भीड़ में भी खड़ा है तो भी वह गुरु है और वहां? वह काम करता होता है। और भीड़ सिर्फ उसकी उपस्थिति से ही रूपांतरित होती रहती है—मात्र उसकी उपस्थिति से ही। ''
ऐसा कहते हैं कि कुरान में मुहम्मद ने कहा है कि किसी भी गुरु को किसी भी अमीर आदमी के घर नहीं जाना चाहिए। यदि कोई अमीर आदमी उससे मिलना चाहता है तो उसे गुरु के पास आना चाहिए। एक सूफी फकीर बायजीद से पूछा गया, जो कि अक्सर अमीर लोगों के घर जाया करता था और बादशाह के महल में भी जाता था, उससे पूछा गया, ''तुम पैगंबर के उपदेश के विरुद्ध क्यों जाते हो? मुहम्मद ने कहा है कि किसी भी गुरु को अमीर आदमी के घर नहीं जाना चाहिए, उसकी कोई जरूरत नहीं है। यदि अमीर आदमी की जरूरत हो तो उसे ही गुरु के चरणों में आना चाहिए। लेकिन आप तो महल में भी चले जाते हैं, अत: क्या बात है? क्या आप पैगंबर के खिलाफ हैं, या कि आपका इस बात में विश्वास नहीं है?''
बायजीद ने कहा, ''तुम्हें सही बात का पता नहीं है। मुहम्मद सही हैं और मैं उनका उपदेश मानता हूं, और उसी के अनुसार कर रहा हूं। लेकिन चाहे गुरु बादशाह के महल में जाए, और चाहे बादशाह गुरु के घर आए, सदा गुरु ही दूसरे को बदलता है। इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। '' बुनियादी रूप से तो तुम ही गुरु के पास आते हो। चाहे गुरु महल में जाए और चाहे बादशाह गुरु के झोपड़े में आए, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। सदा बादशाह ही गुरु के पास आता है क्योंकि वही रूपांतरित होता है। वही रूपांतरित होगा।
बायजीद कहता है कि यह गुरु की प्रकृति है कि वह दूसरों को बदलता है, इसमें कोई प्रयास नहीं है। गुरु के द्वारा कुछ भी नहीं किया जाता है, केवल उसकी उपस्थिति... और यदि वह कुछ करता भी नजर आता है तो वह भी एक तरकीब है, क्योंकि तुम अभी न—करने की भाषा नहीं समझते। तुम केवल प्रयास की भाषा ही समझ सकते हो। इसलिए वह तुम्हारे लिए एक भाषा ढूंढता है। यदि तुम उसकी भाषा नहीं समझते तो क्या हुआ, वह तो तुम्हारी भाषा भलीभांति समझ सकता है। यदि तुम उसे नहीं भी समझ सको तो क्या हुआ, वह तो तुम्हें अच्छी तरह समझ सकता है।
इसीलिए गुरु तुम्हें वही देता है जो तुम समझ सकते हो। और धीरे— धीरे तुम्हारी समझ बढती जाती है और एक दिन जब तुम उस बिंदु पर आ जाओगे जबकि उसकी भाषा समझ सकोगे तो तुम हंसोगे, क्योंकि उसने कुछ भी नहीं किया है। लेकिन उस क्षण तुम उसके प्रति कृतज्ञता के भाव से भरे होगे, क्योंकि बिना कुछ किये भी उसने तुम्हें रूपांतरित कर दिया।
वास्तव में, यदि कुछ भी किया जाए तो वह एक प्रकार की हिंसा होगी। यदि तुम्हें रूपांतरित करने के लिए, बदलने के लिए मैं कुछ भी करूं तो वह आक्रामक होगा, वह एक प्रकार से हिंसा होगी। कोई भी प्रयास हिंसा है। लेकिन मात्र मेरी उपस्थिति, मात्र मेरे निकट... और तुम्हारे भीतर कुछ होने लगता है, और मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं केवल तभी वह प्रेम है, केवल तभी वह हिंसा नहीं है।
और एक बहुत अजीब घटना घटती है—यदि कोई तुम्हें बदलने की कोशिश करता है तो तुम उसका प्रतिरोध करते हो, क्योंकि सहज प्रवृत्ति से ही तुम यह जान जाते हो कि यह हिंसा है, और उसी प्रवृत्ति से तुम अपनी रक्षा शुरू कर देते हो।
यदि कोई तुम्हें बदलने की चेष्टा करता है और तुम्हें अच्छा, नैतिक, धार्मिक बनाने की कोशिश करता है तो तुम उसका प्रतिरोध करोगे। तुम्हारे अहंकार को चोट लगेगी, और तुम उसके विरुद्ध जाने लगोगे। तुम ऐसी बातें भी करने लगोगे जो कि तुमने कभी नहीं करनी चाहीं—सिर्फ निषेध के लिए।
अच्छे पिता बुरी संतति को जन्म देने का कारण बन जाते हैं। तथाकथित साधु और संत सामाजिक पतन तथा अनैतिकता जो कि चारों ओर संसार में फैली है, उसके कारण हैं—क्योंकि वे जबरदस्ती थोपते चले जाते हैं।
और जब भी कोई जबरदस्ती कुछ आरोपित करता है, चाहे वह स्वर्ग के लिए ही जबरदस्ती करता हो लेकिन फिर भी तुम मना कर दोगे। और अच्छा है मना कर देना क्योंकि वह तुम्हें मारे डाल रहा है, तुम्हारी आत्मा की हत्या कर रहा है। यदि तुम्हें स्वर्ग में भी जबरदस्ती पहुंचा दिया जाए तो तुम वहां भी मरे हुए रहोगे। इससे तो अपनी मर्जी से नर्क में चले जाना अच्छा है, कम से कम तुम स्वतंत्र तो रहोगे। कम से कम तुम आत्मा तो होगे।
एक सच्चा गुरु तुम पर कुछ भी थोपता नहीं है—जरा भी नहीं, परोक्ष तरीके से भी नहीं। क्योंकि यदि गुरु भी मन कैसे काम करता है इस बात को नहीं जानता है तो फिर कौन जानेगा? यदि वह इस मानव मन तथा चेतना के काम करने के ढंग को नहीं जानता है—कि यदि इस पर कुछ भी थोपा या जबरदस्ती की तो यह विद्रोही हो जाएगा, अवरोध पैदा करेगा—तो फिर कौन जानेगा? गुरु इस बात को अच्छी तरह जानता है, इसीलिए वह कुछ भी नहीं करता है। वह सिर्फ तुम्हें अपने निकट रहने देता है। वह तरकीबें ईजाद कर सकता है जिससे कि तुम निकट रह सको। उदाहरण के लिए, मैं तुमसे कहता हूं कि ध्यान करो। तुम ध्यान करते हो, लेकिन असली बात यह है कि तुम मेरे निकट हो। और जब तुम ध्यान करते हो, मेरे बिना कुछ किए, तुम्हें कुछ घटता है।
मैं जो तुमसे बात कर रहा हूं यह भी एक तरकीब है। बात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यदि तुम समझ सको तो तुम सिर्फ मेरे निकट यहां बैठ सकते हो। कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन तब तुम ऊब जाओगे। तुम कहोगे, ''मैं यहां बैठा—बैठा क्या कर रहा हूं? ''
तुम्हारे मन को जरूरत है कुछ खिलौनों की जिनसे कि वह बैठा खेलता रहे, इसलिए मैं तुम्हें कुछ खिलौने दे देता हूं और तुम्हारा मन उन खिलौनों से खेलता रहता है। और सारे वक्त इस दौरान कुछ तुम्हें होता रहता है जो कि आधारभूत बात है।
तुम्हें उसका पता नहीं है, लेकिन एक दिन तुम्हें उसका पता लगेगा। तब तुम जानोगे कि क्या तरकीब थी, क्या विधि थी। विधि यही है कि तुम्हारे मन को कहीं उलझाए रखना है ताकि तुम मुझे उपलब्ध हो सकी और मेरी उपस्थिति को उपलब्ध हो सकी ' तब मैं तुमसे मिल सकता हूं बिना तुम्हारे मन के बीच में बाधा डाले।
दूसरा प्रश्न :
आज सबेरे आपने आंतरिक संभोग तथा उसके आरगाज्य यानी महा—संभोग की बात की जो कि बाह्य पुरुष—शरीर तथा आंतरिक स्त्रैण—अचेतन के बीच घटता है तथा इसका उल्टा भी होता है। कृपया बतायें कि जो सक्रिय ध्यान हम यहां पर कर रहे हैं उनमें यह कैसे घटित होता है?
जो सक्रिय ध्यान तुम यहां पर कर रहे हो उनमें ऐसा घटता है, क्योंकि जो भी भीतर छिपा पड़ा है और दबा दिया गया है वह उनसे बाहर निकल आता है। यह एक रेचन है, एक अभिव्यक्ति है। यह दमन की उल्टी प्रक्रिया है। अत: तुम्हें दमन की प्रक्रिया को समझना पड़ेगा।
कोई मर गया है, यह बड़े दुख की बात है, लेकिन तुम अपने मन में सोचते हो कि यह तो पुरुष के लिए ठीक नहीं है कि वह रोए और चिल्लाए। यह तो एक कमजोरी की निशानी है और तुम तो सदा अपनी एक बहुत मजबूत होने की प्रतिमा लिए चल रहे हो। हर कोई जानता है कि तुम एक बड़े दृढ़—संकल्प वाले आदमी हो, अत: तुम कैसे रो सकते हो? यह तो स्त्रियों की बात है, अत: तुम आंसूओ को दबा लेते हो। वे आना चाहते हैं, बह जाना चाहते हैं और मुक्त हो जाना चाहते हैं, लेकिन तुम उन्हें दबा लेते हो।
वे आंसू जहर बन जायेंगे, क्योंकि शरीर का विधान चाहता था कि उन्हें बाहर निकाल दे, और तुमने उन्हें दबा दिया। तुम मुस्कुराये चले जाते हो। तुम्हारा हृदय तो रो रहा है और चीख रहा है, लेकिन तुम मुस्कुराये चले जाते हो।
तुम एक प्रतिमा को संभालने की कोशिश कर रहे हो। तुम स्वभावगत नहीं हो सकते। तुम अपने दिल, दिमाग, शरीर को प्राकृतिक ढंग से काम नहीं करने दे सकते। तुम उन्हें कुछ का कुछ रूप दिए जा रहे हो। तुम चुनाव करते हो कि कुछ है जो कि दबा लेना है, और कुछ है जिसे कि अभिव्यक्त कर देना है। वह जो दमित हिस्सा है वही अचेतन बन जाता है।
वस्तुत: तो अचेतन जैसा कुछ भी नहीं होता। तुम कुछ दबाते हो और तुम उसको इस बुरी तरह से दबाते हो कि तुम स्वयं भी उसको जानना नहीं चाहते। तुम स्वयं भी उसके प्रति सचेतन नहीं होना चाहते। क्योंकि वह तुम्हारे मन पर भारी बोझ की तरह हो जाएगा, इसलिए तुम उसको भूलना चाहते हो। तुम इस बात को लगातार भूलते रहना चाहते हो कि वह वहा है भी। तुम उसके अस्तित्व को भी भूल जाना चाहते हो, और इस भांति तुम स्वयं ही भीतर एक अचेतनता निर्मित कर देते हो।
यही मार्ग है जिससे तुम विभाजित हो जाते हो; तुम दो में बंट जाते हो। जो हिस्सा मना कर दिया जाता है वह अचेतन हो जाता है और जो हिस्सा स्वीकृत हो जाता है वह चेतन हो जाता है। यदि तुम पुरुष हो तो तुम स्त्री को मना कर देते हो क्योंकि अभी तक कोई संस्कृति इस पृथ्वी पर ऐसी पैदा नहीं हुई जो कि बाईसेक्यूआलिटी, दोनों लिंगों को स्वीकार कर सके। जितनी भी संस्कृतियां अभी तक पैदा हुई हैं, इस बात से अवगत नहीं हो सकीं कि पुरुष होना अथवा स्त्री होना पूर्ण होना नहीं है। यह सिर्फ सापेक्ष है, यह सिर्फ मात्रा का अंतर है।
यदि तुम पुरुष हो तो इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सौ प्रतिशत ही पुरुष हो। कोई भी नहीं हो सकता। सौ प्रतिशत पुरुष होने के लिए तुम्हें सिर्फ अपने पिता से ही पैदा होना पड़ेगा जिसमें कि मां का कोई भी योगदान नहीं हो। यह बात असंभव है। अपने सौ प्रतिशत स्त्री होने के लिए पिता का उसमें कोई लेना—देना नहीं होना चाहिए। केवल मां अकेली का ही योगदान होना चाहिए। क्योंकि यदि पिता कुछ भी योगदान देता है तो पुरुष तत्व भीतर प्रवेश कर गया; यदि मां कुछ भी योगदान देती है तो स्त्री तत्व प्रवेश कर गया। यह एक नयी खोज है जो गहन मनोविज्ञान के द्वारा खोजी गयी है। यह एक नयी खोज है पश्चिम के लिए, किंतु पूर्व में तंत्र इस बात को सदा से जानता रहा है।
पुरुष सिर्फ सापेक्ष रूप से ही पुरुष है। वह साठ प्रतिशत पुरुष हो सकता है और चालीस प्रतिशत स्त्री हो सकता है। अथवा एक स्त्री साठ प्रतिशत स्त्री हो सकती है और चालीस प्रतिशत पुरुष हो सकती है। इसीलिए बहुत—सी असाधारण बातें हो जाती हैं। कभी—कभी मात्राएं इतनी निकट होती हैं कि कोई व्यक्ति इक्यावन प्रतिशत पुरुष हो और उनचास प्रतिशत स्त्री हो; तब तुम यह पता नहीं लगा सकते कि वह पुरुष है या स्त्री है। वह बात करेगा, चलेगा—फिरेगा स्त्री की तरह से, यह उनचास प्रतिशत का मामला है। और यह अंतर सिर्फ हारमोन्स का ही है। नए हारमोन्स दिए जा सकते हैं। यह बिलकुल सीमा पर का ही मामला है कि उनचास प्रतिशत स्त्री और इक्यावन प्रतिशत पुरुष। तुम थोड़े—से स्त्री के हारमोन्स और दे दो और संतुलन बदल जाएगा और वह पुरुष स्त्री में बदल जाएगा।
ऐसी बहुत सी घटनाएं होती हैं कि अचानक कोई लड़का लड़की हो गया या कोई लड़की लड़का हो गई। तब जाकर वैज्ञानिकों को इस घटना की जानकारी हुई। तब उन्हें पता चला कि ये सीमा पर खड़े लोगों के मामले हैं। अब हारमोन्स उपलब्ध हैं, और मैं सोचता हूं कि वह वक्त दूर नहीं है, और यह जल्दी ही होगा, इस सदी के पूरे होते—होते प्रत्येक को ये विकल्प उपलब्ध होंगे कि तुम अपने सेक्स को, यौन को बदल सकोगे।
यह विचार अच्छा है क्योंकि यदि कोई आदमी तीस वर्ष तक पुरुष की तरह रहा तो यह एक परिवर्तन रहेगा। वास्तव में, एक स्त्री होना एक दूसरे ही जगत में प्रवेश करना है और यह जो परिवर्तन होगा वह चांद पर जाने से भी ज्यादा बड़ा परिवर्तन होगा। चांद पर कुछ भी तो नहीं है, वह पृथ्वी की तरह ही है। किंतु एक पुरुष का स्त्री होना अथवा एक स्त्री का पुरुष होना पूरी तरह एक विपरीत ध्रुव पर चले जाना है।
सचमुच जब यह विकल्प संभव हो जाए तो सिर्फ जो मूर्ख होंगे, वे ही इसका लाभ नहीं लेंगे। जो बुद्धिमान हैं, वे इसका लाभ लेंगे, क्योंकि तब तुम जान सकते हो और दो बिलकुल ही भिन्न जगतों में जी सकते हो। इससे आदमी के मन को एक नया प्रकाश मिलेगा क्योंकि पुरुष कभी नहीं समझ सका कि वास्तव में स्त्री होती क्या है, और न स्त्री ही समझ सकी है कि पुरुष क्या होता है। उनके मनोविज्ञान एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि वे एक दूसरे के ठीक विपरीत ध्रुवों पर हैं।
फ्रायड ने कहा है, ''मैं मनुष्य के मनोविज्ञान पर चालीस साल से काम कर रहा हूं लेकिन अब भी मैं यह नहीं बता सकता कि स्त्री चाहती क्या है, कि उसकी इच्छा क्या है, कि उसका मन किस भांति काम करता है। ''
यह कठिन है क्योंकि एक पुरुष एक स्त्री को नहीं समझ सकता। जो भी वह समझ सकता है वह सिर्फ एक दृष्टिकोण ही होगा, क्योंकि वह दूसरे ही ध्रुव पर खड़ा है। वह स्त्री की तरफ पुरुष की भांति देखेगा, और वहीं सारी बात बदल जाती है। एक स्त्री, पुरुष को कभी नहीं जान सकती क्योंकि वह स्त्री के बिंदु से उसे देखेगी। और वे दोनों अपनी जगह भी तो नहीं बदल सकते। यदि जैविक—विज्ञान हमारी मदद करे तो पुरुष और स्त्री के बीच का पुराना विवाद मिट सकता है।
मैं कह रहा हूं कि तुम स्त्री या पुरुष हो केवल सापेक्ष रूप से। और यदि तुम पुरुष हो तो तुम्हारा जो दूसरा हिस्सा है जो कि स्त्री है, जो कि तुम्हारी मां का योगदान है, उसे तुम दबाते हो। क्यों? क्या जरूरत है उसके दमन की? हम इसलिए उसे दबाते हैं क्योंकि हम तर्क के आधार पर जीते हैं। यह एक बड़ी से बड़ी गलती है जो कि आदमी ने की है। तुम तर्क के आधार पर जीते रहे हो और जीवन बिलकुल अतार्किक है।
जीवन दोनों है, पुरुष और स्त्री साथ—साथ। और तर्क हमेशा या तो पुरुष का है या फिर स्त्री का है। तुम्हारा तर्क कहता है कि तुम पुरुष हो इसलिए तुम्हें उन सब गुणों को काट डालना चाहिए जो कि स्त्री के हैं। और वही दमित किया हुआ हिस्सा अचेतन बन जाता है। तुम एक स्त्री हो, तो सब लोग कहते हैं कि तुम्हें दयालु, प्रेमपूर्ण होना चाहिए, सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। तुम्हें निर्दयी नहीं होना चाहिए, तुम्हें घृणा नहीं करनी चाहिए, तुम्हें आक्रामक नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कोई ढंग नहीं है स्त्री होने का।
यह मूढ़ता की बात है। वास्तव में, यदि कोई स्त्री आक्रामक हो जाए तो उसकी तुलना नहीं की जा सकती। कोई भी पुरुष उससे प्रतियोगिता नहीं कर सकता।
हर पुरुष की आक्रामकता थक जाती है क्योंकि उसने उसका बहुत उपयोग किया है। परंतु स्त्री ने अपने पुरुष का उपयोग नहीं किया है, इसलिए उसका पुरुष अभी ताजा है और युवा है। यदि वह आक्रामक हो जाए तो फिर कोई पुरुष ऐसा नहीं है जो उससे प्रतियोगिता कर सके। यदि वह क्रोध में आ जाए और हिंसक हो जाए तो पुरुष उसके समक्ष फीका पड़ जाएगा।
और वही बात पुरुष के साथ है। वे कहते हैं कि पुरुष को आक्रामक, हिंसक, शक्तिशाली होना चाहिए। उसके पास संकल्पशक्ति होनी चाहिए। उसे कमजोर नहीं होना चाहिए। उसे प्यार अथवा सहानुभूतिपूर्ण नहीं होना चाहिए; ये सब बातें स्त्रैण हैं। अगर एक पुरुष प्रेम करता है तो कोई स्त्री उससे प्रतियोगिता नहीं कर सकती। कोई स्त्री नहीं कर सकती क्योंकि उसकी स्त्री सदा कुंवारी, सदा ताजा, युवा तथा अछूती रहती है।
मैं जो कह रहा हूं वह यह कि तुम्हारा दूसरा हिस्सा अतर्क्य है, इसलिए तुम उसे इंकार कर देते हो ताकि तुम्हारी प्रतिमा स्पष्ट हो, तर्कसंगत हो।
मैंने सुना है :
एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत बड़े झेन रहस्यवादी गुरु की मृत्यु हो गयी। उसका एक शिष्य लिंची अपने गुरु से भी ज्यादा प्रसिद्ध हो चुका था—वास्तव में उसका गुरु उसके कारण ही सारे जापान में प्रसिद्ध हुआ था, क्योंकि लिंची एक महान व्यक्ति था। जब गुरु की मृत्यु हो गयी तो हजारों शिष्य अपनी श्रद्धांजलि देने इकट्ठे हुए।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि लिंची रो रहा था और चिल्ला रहा था। आंसू उसके गालों पर लगातार बह रहे थे। बहुत से मित्रों ने उससे कहा कि यह तुम क्या कर रहे हो? लोग जो यहां इकट्ठे हुए हैं वे बातें कर रहे हैं, और कह रहे हैं, ''हम तो सोच भी नहीं सकते कि लिंची रो रहा होगा। हम तो सोचते थे कि वह एक ऐसा व्यक्ति है जो कि पूरी तरह अनासक्त है, जिसने सभी कुछ त्याग दिया है, और अब यह रो रहा है। और यही आदमी, लिंची हमको उपदेश देता रहा है कि आत्मा अमर होती है, कि सिर्फ शरीर ही मरता है, और शरीर कुछ ज्यादा नहीं है, धूल का फिर धूल में मिल जाना है। तो फिर वह क्यों रो रहा है? ''
उन्होंने इस बात का उत्तर मामा। वे बिलकुल तर्कसंगत थे। जो आदमी यह कहता हो कि आत्मा अमर है, उसके लिए मृत्यु का कोई अर्थ नहीं होना चाहिए। ''फिर तुम क्यों रो रहे हो? '' उन्होंने कहा।
''तुम ही तो कहते हो कि अनासक्ति ही कुंजी है, फिर तुम क्यों तुम्हारे गुरु के प्रति आसक्त हो? केवल शरीर ही मरा है। और तुम सदा से उपदेश देते रहे हो कि शरीर तो एक मृत चीज है। फिर तुम क्यों उसके लिए चिंतित हो? सिर्फ एक मृत चीज ही मृत हो गयी है। ''
चूंकि वे तर्कसंगत थे, उन्होंने उससे उत्तर की अपेक्षा की, लेकिन लिंची ने क्या कहा? लिंची ने कहा, ''तुम्हारा प्रश्न तर्कसंगत है, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? आंसू बह रहे हैं और मैं अपने को रोते हुए पाता हूं। तुम्हीं आश्चर्यचकित नहीं हो, मैं भी आश्चर्यचकित हूं। किंतु मैं क्या कर सकता हूं? इसी तरह जीवन मुझसे प्रवाहित हो रहा है, और जीवन अतर्कपूर्ण है। '' लिंची ने कहा, '' अच्छा हुआ कि मेरे गुरु मर गये हैं, और उन्होंने मुझे समग्र जीवन के प्रति जगा दिया है—क्योंकि मैं भी सोचता था कि मैं अनासक्त हूं। यदि मेरे गुरु नहीं मरते तो मैं इस तथ्य को कभी नहीं जान पाता कि मेरे पास हृदय भी है, कि मेरे पास आंसू भी हैं और मैं रो भी सकता हूं। ''
''इसलिए तुम अकेले ही नहीं हो जो कि आश्चर्यचकित हो, लिंची भी आश्चर्यचकित है। लेकिन मैं जीवन को दबाऊंगा नहीं। मैं जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता रहा हूं और अभी भी मैं कहता हूं कि आत्मा अमर है और सिर्फ शरीर की ही मृत्यु हुई है—लेकिन वह शरीर भी कितना सुंदर था। मैं शरीर के लिए रो रहा हूं। धूल—धूल में मिल जाती है। सचमुच मैं अभी भी कहता हूं कि धूल—धूल में मिल गयी है, परंतु उस धूल ने भी इतनी सुंदर आकृति ली थी कि मैं उसी के लिए रो रहा हूं। ''
झेन ग्रंथों में लिखा गया है कि लिंची जीवन के प्रति सच्चा सिद्ध हुआ, न कि तर्क के प्रति।
जीवन के प्रति सच्चे रहो, न कि तर्क के प्रति। और जो भी तुमने दबा रखा है वह बाहर निकल आएगा, फूट पड़ेगा। यही सक्रिय ध्यान कर रहा है, दबाये गये को अभिव्यक्त कर रहा है। तुम्हारे आंसूओ को फिर जीवन में ला रहा है। तुम्हारे क्रोध, तुम्हारी हंसी, तुम्हारी उदासी को 'फिर से जीवन में प्रगट कर रहा है। तुम्हारे भीतर जो भी भरा है उसको बाहर फेंक रहा है ताकि तुम्हारा सिस्टम, तुम्हारी संरचना साफ हो सके, ताकि संरचना पुन: निर्दोष हो सके। उसी निर्दोष संरचना से तुम दिव्य के साथ संबंध स्थापित कर सकते हो। एक विषाक्त संरचना का दिव्य के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता।
सक्रिय ध्यान एक रेचन क्रिया है। यह तुम्हें शुद्ध करने के लिए है। और जब तुम शुद्ध हो जाते हो, और तुम्हारा अचेतन प्रगट कर दिया जाता है तो अचेतन और चेतन के बीच जो बाधा है वह गिर जाती है क्योंकि वह बाधा दमन के कारण निर्मित हुई है। जब तुम दमन नहीं करते तो बाधा विलीन हो जाती है और फिर अचेतन तथा चेतन के बीच कोई सीमा नहीं होती।
तब तुम दोनों हो : तुम द्विलिंगी हो—पुरुष और स्त्री दोनों। और जब तुम दोनों हो तो तुम्हारे भीतर एक नया भाव पैदा होगा, भीतर एक नयी प्रकार की अखंडता होगी। तुम टूटे—टूटे, विभाजित अनुभव नहीं करोगे। तुम एक जैविक इकाई हो जाओगे। यह अखंडता ही तुम्हें उस आत्यंतिक एकात्म की ओर ले जाएगी। यह अखंडता पहला कदम है।
तीसरा और अंतिम प्रश्न :
आपने कहा कि समग्ररूप से ही कहने वाले हो जाओ समग्ररूप से शरीर के साथ एक हो जाओ समर्पण से रूपांतरण लेकिन यह हमारा अनुभव है कि तब इसकी पूरी संभावना है कि इंद्रियां भोग में लग जायेगी और हो जायेगी। कृपया इस कथन के पीछे जो ज्ञान छिपा है उसे स्पष्ट करें!
तो उन्हें भोग में लग जाने दो और लिप्त हो जाने दो। उसमें डर क्या है? उसमें गलत क्या है? यह भय हमारे दमन की लंबी परंपरा से आता है। तुम अपनी इंद्रियों के भोग में लग जाने से इतने डरे हुए क्यों हो? उन्हें भोग में लग क्यों नहीं जाने देते? कौन होते हो तुम उन्हें मना करने वाले? क्या हो गया है तुम्हें क्या तुम समझते हो कि तुमने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया है? ठीक इसके विपरीत मामला है —तुम्हारी इंद्रियों ने तुम्हें वश में कर रखा है, और तुम मुक्त नहीं हो सकते जब तक कि तुम्हारी इंद्रियां मुक्त नहीं होंगी। यह आदमी के मन की एक गहरी समस्या है। इसे तुम्हें ठीक से समझना पड़ेगा।
पहले तुम कहते हो कि कुछ गलत है, फिर तुम उससे डरने लगते हो। फिर तुम उसे न करने का, दबाने का प्रयत्न करते हो। और जितना तुम उसे दबाते हो उतना ही तुम्हारा मन उससे आच्छादित हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि तुमने काम को दबाया तो तुम्हारा मन कामुक हो जायेगा। वास्तव में कोई भी पशु कामुक नहीं है सिवाय मनुष्य के। यौन पशुओं के लिए भी है, लेकिन वे कामुक नहीं हैं। पशुओं लिए भी यौन है, लेकिन वे यौन से ग्रसित नहीं हैं क्योंकि वे उसका चिंतन नहीं करते। वे उसके बारे सोचते नहीं चले जाते, वे नंगी फिल्में नहीं बनाते, वे नंगी पत्रिकाएं प्रकाशित नहीं करते। वे यौन के संबंध में कुछ भी नहीं करते। जब कभी वृत्ति उठती है, वे उसमें चले जाते हैं, और जब वृत्ति नहीं उठती तो उन्हें बाध्य नहीं कर सकते। वे सिर्फ अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं।
लेकिन आदमी, वह एक कामुक मन पैदा कर लेता है यौन को दबाकर। और जितना अधिक वह उसे दबाता है, उतना वह कामुक हो जाता है। क्योंकि जो भी तुम दबाते हो वह तुम्हारे खून में, तुम्हारी हड्डीयों में प्रवेश कर जाता है। वह तुम्हारे अस्तित्व का एक हिस्सा हो जाता है। जब मैं तुम्हें कहता हूं कि हां कहने वाले हो जाओ तो तुम्हें डर लगता है। क्यों? ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह खतरनाक है, बल्कि ऐसा इसलिए होता है कि जैसे ही तुम ही कहने की बात सोचते हो, तो तुरंत जो भी विष तुमने भीतर दबा रखे हैं और यदि तुम उन्हें ही कह दो, तो वे सब के सब छूट जायेंगे।
तुम सोचते हो कि यदि तुम यौन को ही कह दोगे तो तुम उसके पीछे पागल हो जाओगे—कि तुम पर—पुरुष, पर—स्त्री गमन करने लगोगे, कि तुम यौन—विक्षिप्त हो जाओगे। स्थिति कुछ ऐसी है—जैसे की कोई आदमी तीस दिन उपवास करे, तब भोजन का जरा—सा भी संकेत उसे पागल कर देगा। नहीं कि भोजन का जरा सा भी संकेत किसी को पागल कर सकता है। भोजन कारण नहीं है। कारण उसका ही दमन है। वह अपनी भूख दबाता रहा है, वह अपनी खाने की इच्छा का दमन करता रहा है। जरा—सा भी संकेत चाहे परोक्ष रूप से ही, और वह पागल हो जाएगा। वह कहेगा, ''ऐसी चीजों के बारे में बात मत करो।''
एक शब्द भी बहुत है उसके सारे दमन को तोड़ने के लिए और उसके सारे स्वरूप को विस्फोटित करने के लिए। वह डरने लगेगा, वह भोजन की तरफ देखेगा भी नहीं। वह बाजार से गुजर जाएगा और वह होटलों के साइनबोर्ड की तरफ झांकेगा भी नहीं। वह बस सीधे नीचे देखता हुआ ही चलेगा। लेकिन वह चाहे जो भी करे, चाहे वह सड़क पर नीचे की ओर देखता हुआ ही चले, वह भोजन ही देखेगा।
अंततः हर चीज बस भोजन के लिए ही निमंत्रण हो जाएगी। यदि वह चांद की ओर भी देखे तो भी उसे रोटी का ही खयाल आएगा—सफेद रोटी आकाश में तैरती हुई। तब वह अपनी प्रेयसी का चेहरा उस चांद में नहीं देख सकता—असंभव है बात। उसे रोटी ही दिखाई पड़ेगी।
जिस चीज के भी तुम भूखे हो वही तुम प्रक्षेपित करोगे। वस्तुत: यदि तुम्हारी प्रेयसी तुम्हारे साथ नहीं हो, तभी तुम उसका चेहरा चांद में देख सकते हो। यदि तुम्हारी प्रेयसी साथ हो तो फिर तुम कैसे देख सकते हो? तब तुम सिर्फ चांद ही देखोगे। और जब तुम चांद को सिर्फ चांद ही देखते हो तभी तुम स्वस्थ हो। जब तुम अपनी प्रेयसी का चेहरा उसमें देखते हो तो तुम रुग्ण हो। अथवा, जब तुम उसमें लटकती हुई रोटी देखते हो तो तुम अस्वस्थ हो, तुम कुंठित हो।
चांद सिर्फ चांद है, उसमें और कुछ भी दिखाई नहीं देना चाहिए, और जो भी तुम उसमें देखते हो वह एक प्रक्षेपण है। जो कुछ तुमने दबा रखा है वह निकल आता है और एक भ्रम पैदा हो जाता है। वह एक भ्रमजाल है। जो भी तुम दमित करते हो वही भ्रमजाल हो जाता है। तब फिर तुम उसमें रहने लगते हो, और सचमुच तुम उसमें अधिकाधिक भय खाने लगते हो और डरे रहते हो। और जितना अधिक भय खाते हो उतना ही तुम उसे दबाते हो।
तुम एक आत्मघाती प्रयास में लगे हो, इसीलिए ऐसे प्रश्न खड़े होते हैं। ''यदि मैं किसी चीज के लिए ही कहता हूं तो सबसे पहली चीज जो मेरे दिमाग में आती है वह यह होती है जिसे मैंने नहीं किया है, वही चीज तुरंत अपने आप जोर मारेगी। '' यदि तुमने अपने शरीर को उपवास पर रखा है, डायटिंग यानी सीमित भोजन पर रखा है तो पहली बात तुम्हारे मन में मेरे ही करने पर यह आएगी कि चलो, चलकर भोजन करो। और तब तुम डरने लग जाते हो कि तुम तो इतने दिनों से डायटिंग पर थे और सारी बात ही व्यर्थ हुई जा रही है, यदि तुम ही कहते हो।
यदि एक आदमी जो कि सदा यौन को दबाता आ रहा था, ही कहने की सोचता है कि जो भी जीवन में है उसे ही कहो तो वह यौन से डर जाएगा। जिस—जिस चीज को भी तुमने दबाया है, जिस—जिस चीज को तुमने ना कहा है वह अपनी मांग करेगा। वह पहली बात होगी जो कि तुम्हारे मन में आएगी जबकि तुम ही कहोगे। और इससे भय के कंपन पैदा हो जायेंगे। परंतु ये कंपन तुम्हारे ही कहने से नहीं पैदा हो रहे हैं। ये इसलिए पैदा हो रहे हैं क्योंकि तुमने ना कहा है। यह बात समझने की है। ये कंपन इसलिए पैदा हो रहे हैं क्योंकि तुमने ना कहा है। प्रश्न पैदा होता है कि ''क्या होगा जब कि समाज ही कहने वाला हो जाएगा? क्या होगा यदि सभी लोग भोग में पड़ जायेंगे? '' ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समाज दमन करता रहा है। ऐसा इसलिये है क्योंकि हर एक ने जीवन की ऊर्जाओं को ना कहा है।
हां कहने का प्रयास करो। प्रारंभ में ऐसा हो सकता है कि तुम भोग में पड़ जाओ। प्रारंभ में हो सकता है कि तुम भोग में लिप्त हो जाओ, क्योंकि जब भी किसी दमित शक्ति को छोड़ा जाता है तो वह दूसरे छोर पर बलपूर्वक चली जाती है। लेकिन रुको, प्रतीक्षा करो और साक्षी रहो। किसी भी समय वह जो दमित शक्ति है, उसका बल खो जाएगा, और पहली बार जीवन में तुम स्वस्थ अनुभव करोगे। और उसके बाद पेंडुलम आएगा और बीच में ठहर जाएगा।
जब पेंडुलम बीच में आ जाए और ठहर जाए तब तुम स्वस्थ हुए। लेकिन तुम उसे बायें खींचे रहे और पकड़े रहे। अब तुम डरे हुए हो कि यदि तुमने उसे छोड़ा तो वह दाएं चला जाएगा। सचमुच वह दाएं जाएगा, लेकिन वह दाएं इसलिए नहीं जा रहा है क्योंकि तुमने उसे छोड़ दिया है। वह दाएं इसलिए जा रहा है क्योंकि तुम उसको पकड़े थे और बाएं जोर से खींचे थे। छोड़ दो उसे और जितनी जल्दी छोड़ दो उतना ही अच्छा है। वह दाएं जाएगा, जाने दो और उसे बाएं मत खींचो। उसे जाने दो। धीरे—धीरे वह दाएं से बाएं जाएगा, बाएं से फिर दाएं जाएगा। जो गति तुमने उसे दबाकर दे दी है उसे छोड़ देना है, ताकि वह निकल जाए। लेकिन उसे नयी गति नहीं देनी है सिर्फ साक्षी रहना है।
धीरे—धीरे पेंडुलम बीच में स्थिर हो जाएगा। जब पेंडुलम बीच में आ जाए तुम्हारे मन के, और तुम भोग में रत होने अथवा उसके लिए ही कहने से भयभीत न हो तब तुम मुक्त हुए। अब तुम स्वस्थ और स्वाभाविक हुए।
मेरा सारा जोर स्वाभाविक होने पर है। जितने ज्यादा तुम स्वाभाविक हो उतने ही तुम परमात्मा के अधिक निकट होगे। स्वभाव, प्रकृति, परमात्मा के विरुद्ध नहीं है। प्रकृति परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है, उसी का प्रगट रूप है। परंतु तुम्हें बार—बार यह सिखाया गया है कि प्रकृति परमात्मा के विरुद्ध है। अत: प्रकृति को दबाओं ताकि तुम परमात्मा के निकट हो सकी।
इस तरह तुम कभी न पहुंच सकोगे क्योंकि प्रकृति परमात्मा के विरुद्ध नहीं है। यदि वह विरुद्ध हो तो वह कभी हो ही न सकेगी। फिर वह कैसे हो सकेगी? कोई भी चीज अस्तित्व में ही कैसे होगी परमात्मा के विरुद्ध होकर? वह तो समग्र का अंग है, खेल का हिस्सा है। उसके खिलाफ मत हो। और तुम हो भी कैसे सकते हो? तुम भी प्रकृति के ही हिस्से हो। सिर्फ तुम अपने को धोखा देते रह सकते हो। बस इतना ही तुम कर सकते हो।
उसे प्राकृतिक ढंग से बहने दो। उसे प्राकृतिक लयबद्धता प्राप्त करने दो, और धीरे— धीरे वह स्थिर हो जाएगी। और जब वह स्थिर हो जाएगी तो अचानक तुम पाओगे कि तुम परमात्मा में ही खड़े हो। जब तुम प्रकृति से संघर्षरत नहीं होगे, सिर्फ स्वीकार होगा, तो तुम प्रकृति के पार चले गए। लेकिन यह प्रकृति के पार चले जाना प्रकृति के विरुद्ध चले जाना नहीं है। यह वस्तुत: उसी में से होकर विकास को प्राप्त होना है। तुम ब्रह्मचर्य पर पहुंचोगे। एक सुंदर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होगे परंतु यौन से लड़कर नहीं। कोई भी कभी लड़कर नहीं पहुंचा। कोई कभी पहुंच भी नहीं सकता।
जब तुम यौन के द्वारा विकसित हो रहे होंगे, यौन से गुजर कर और अधिक सजग हो रहे होगे, तभी यौन का रूपांतरण होगा। यही मार्ग है। यदि तुम यौन को दबाते हो तो वह कामुकता हो जाती है और यदि तुम उसे प्रगट करते हो तो वह प्रेम हो जाता है। और कामुकता के द्वारा तुम कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। यह विकृति है किंतु प्रेम के द्वारा तुम पहुंच सकते हो, यह एक प्राकृतिक विकास है।
जितना अधिक तुम प्राकृतिक वृत्तियों को समग्रता से स्वीकार करते हो, बिना किसी निंदा के, उतनी ही ज्यादा धीरे—धीरे वे कम होती जाती हैं और उनका ज्वर खो जाता है। और जब वे बिलकुल कम हो जाती हैं तो तुम्हारे पास एक विराट ऊर्जा पीछे बचती है। वही ऊर्जा परमात्मा की ओर तीर बन जाती है। वह बन ही जाती है। एक ब्रह्मचर्य है जो कि विकास से आता है और एक ब्रह्मचर्य है जो कि निषेध से, इंकार से आता है। जो ब्रह्मचर्य निषेध से आता है वह विकृति है, तुम्हारा मन कामुकता से भरा होगा। जो ब्रह्मचर्य सुंदरता से घटता है, सजगता के द्वारा, स्वीकार के द्वारा आता है वह एक सौंदर्य हो जाता है। उसकी अपनी ही एक सुंदरता होती है। और धीरे—धीरे वह अपने आप ही स्वयं के पार चला जाता है।
तब वह प्रेम होता है। तब वह प्रार्थना होती है। और जो प्रेम विपरीत लिंग की ओर बह रहा था वही प्रेम परमात्मा की ओर बहने लगता है—वही प्रेम, वही ऊर्जा।
इसलिए इस बात का स्मरण रखो कि मैं किसी भी बात के विरोध में नहीं हूं। मैं तो अतिक्रमण के पक्ष में हूं लेकिन किसी भी चीज के खिलाफ नहीं हूं। परमात्मा संसार के विरुद्ध नहीं है; वह तो अतिक्रमण है। उसे संसार से गुजर कर ही पाना है; इसीलिए तुम्हें संसार में भेजा गया है। लेकिन तुम समझते हो, तुम सोचते रहते हो कि तुम परमात्मा से अधिक समझदार हो। उसने तुम्हें संसार में भेजा है ताकि तुम विकसित हो सको, अनुभव कर सकी, दुख पाकर पक सको। और तुम समझते हो कि तुम बहुत समझदार हो! थोड़े कम समझदार ही रह लो, इतने समझदार मत बनो। परमात्मा को थोड़ा सा मौका तो दो कि वह तुम्हारे भीतर से अपना रास्ता बना सके। जीवन का अनुभव करो, एक ही कहने वाले मन से। और जब तुम ही कहते हो तो वही जीवन परमात्मामय हो जाता है।
अब ध्यान के लिए तैयार हो जायें। इसके पहले कि तुम उसमें प्रवेश करो थोड़ी—सी बातें : पहले पंद्रह मिनट तुम्हें खड़े होकर मेरी ओर देखना है और हाथों को ऊपर आकाश की ओर उठाए रखना है जैसे कि कोई दिव्य शक्ति तुम्हारे ऊपर उतरने वाली हो और तुम्हें उसका स्वागत करना है और ग्रहण करना है। खड़े हुए तुम्हें मेरी ओर एकटक देखना है, बिना पलक झपकाए। यदि आंखों से आंसू बहने लगें तो उन्हें बहने देना है, उनकी चिंता नहीं करनी है। और तुम्हें कूदना है, कूदते जाना है; ताकि तुम्हारी ऊर्जा सक्रिय हो सके, रुके नहीं।
मैं तुम्हें अपने हाथों से कुछ परोक्ष संकेत करूंगा। मैं धीरे— धीरे अपने हाथ ऊपर की ओर उठाऊंगा, और जब मैं अपने हाथ ऊपर उठाऊं तो तुम्हें अपनी सारी ऊर्जा को जगा लेना है, कूदना है, नाचना है। जब मैं अपने हाथ ऊपर उठाऊं तो तुम्हें पूरी तरह क्रियाशील हो जाना है। जब मुझे लगेगा कि अब तुम एक तूफान की भाति हो गए हो, कि अब समग्र की चेतना ने स्थान ले लिया है और व्यक्ति मिट गया है, कि व्यक्ति सब पिघल गए हैं और उनकी जगह केवल समूह की आत्मा बची है, जब भी मुझे ऐसा लगेगा तो मैं अपने हाथों को नीचे की ओर लाऊंगा। उसका मतलब होगा कि अब परमात्मा तुम पर उतर सकता है। उस क्षण पूरी तरह पागल हो जाना है ताकि तुम पूरी तरह खुल सको और तुम्हें कुछ घट सके।
पहले पंद्रह मिनट यह पहला चरण। फिर दूसरे पंद्रह मिनट में पूर्ण शांति होगी। तुम्हें अपनी आंखें बंद कर लेनी हैं। प्रकाश बुझा दिया जाएगा और पूरी तरह अंधेरा तथा शांति होगी पंद्रह मिनट के लिए। और अंत में दस मिनट तुम उत्सव मना सकते हो; तुम नाच सकते हो और गा सकते हो और परमात्मा के प्रति कृतज्ञ हो सकते हो।
दिनांक 9 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
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