सूत्र :
मातायित्रोर्मलोद्भूतं मलमासमयं वपु:।
त्यक्त्वा चण्डालवद्दूरं ब्रह्मभूयं कृती भव।।6।।
घटाकाशं महाकाशं इवात्मानम् परात्मीन।
विलाप्याखंडभावेनं तयणीं भव सदा मुने।।7।।
स्वप्रकाशमधिष्ठानं स्वयंभूव सदात्मना।
ब्रह्मांडमपि पिंडाडं त्यज्यतां मलभांडवत्।।8।।
चिदात्मनि सदानन्दे देहरूढामहंधियम्।
निवेश्य लिंगमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा।।9।।
यत्रैष जगदाभासो दर्पशन्त: पुरं यथा।
तदब्रह्माहमिति ज्ञात्वा कृतकृत्यो भवानघ।।10।।
यह शरीर माता—पिता के मैल में से उत्पन्न हुआ है और मल तथा मास से ही भरा है, इसलिए इसे चंडाल की तरह त्याग कर ब्रह्मरूप होकर तू कृतार्थ हो।
हे मुनि! महाकाश में घटाकाश की तरह परमात्मा में आत्मा को एकरूप करके अखंड भाव से सदा शांत रही।
स्वयं ही अपने आप, स्वयं प्रकाश और अधिष्ठान—ब्रह्मरूप होकर पिंडाड तथा ब्रह्मांड का भी विष्ठा—पात्र के समान त्याग कर दे।
देह के ऊपर आरूढ़ हुई अहंकार बुद्धि को सदैव आनंदरूप चिदात्मा में स्थापित करके लिंग शरीर को त्याग और सर्वदा केवल आत्मारूप हो।
हे निर्दोष! दर्पण में जैसे शहर दिखाई दे, वैसे ही जिसमें इस जगत का भास दिखाई पड़ता है, वही ब्रह्म मैं हूं इस प्रकार जान कर तू कृतार्थ हो।
शरीर को भी हम बाहर से ही जानते हैं। जैसे कोई किसी महल के बाहर घूम ले, दीवालों का बाहरी रूप देख ले और समझे कि यही महल है, ऐसा ही हम अपने शरीर को भी बाहर से देखते हैं।
बाहर से दिखाई जो पडता है, शरीर वही नहीं है। शरीर को भीतर से देख कर तत्सण शरीर से छूटकारा हो जाता है। बाहर से तो शरीर का जो रूप दिखाई पड़ता है, वह ढंका हुआ, आवृत रूप है। भीतर से की वस्तुस्थिति दिखाई पड़ती है; जैसा शरीर है।
बुद्ध साधकों को भेजते थे मरघट—लाशों को देखने के लिए, हड्डियों को देखने के लिए, खोपड़ियों देखने के लिए। शरीर भीतर से वैसा है। सब ढंका है चमडी के आवरण में। अन्यथा शरीर से इतनी, इतना मोह, इतना ममत्व पैदा न हो।
कभी शरीर को भीतर से देखने का प्रयास करें, तो यह सूत्र समझ में आ सकेगा। कभी अस्पताल में चले जाएं, कभी आपरेशन की टेबल पर खडे हो जाएं, देखें सर्जन को शरीर का आपरेशन करते हुए, तो भीतर जो दिखाई पड़े, शरीर की वस्तुस्थिति वही है।
यह सूत्र ध्यान के लिए बड़ा सहयोगी है। शरीर की कोई निंदा नहीं है इस सूत्र में, इसे ठीक से समझ लें। धर्म किसी की भी निंदा में उत्सुक नहीं है, न ही किसी की प्रशंसा में उत्सुक है, धर्म तो जैसा है उसे जानने में उत्सुक है।
तो जब यह कहते हैं कि शरीर हड्डी, मांस, मज्जा, मल —मूत्र, इन सबका जोड़ है; तो ध्यान रखना, कहीं भी निंदा का कोई भाव नहीं है। यह कोई शरीर को नीचा दिखाने की चेष्टा नहीं है; शरीर ऐसा है। शरीर का जो होना है, उसको ही खोल कर रख देने की बात है।
यह सूत्र कहता है 'यह शरीर माता—पिता के मैल से उत्पन्न हुआ, मल तथा मांस से भरा है। इसका, जैसे अपने ही पास, अपने ही निकट चंडाल खडा हो, शूद्र खड़ा हो, और उसका कोई त्याग करके दूर हट जाए, ऐसा ही इस शरीर का त्याग करके तू ब्रह्मरूप होकर कृतार्थ हो।'
चंडाल, शूद्र, बड़े मूल्यवान शब्द हैं। प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान कहता है कि जो व्यक्ति भी अपने को शरीर मानता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ है जिसने अपने को शरीर मान रखा है। ब्राह्मण का अर्थ है जिसने अपने को ब्रह्म जान लिया।
ब्राह्मण कोई ब्राह्मण के घर में पैदा होने से नहीं होता, न ही कोई शूद्र किसी शूद्र के घर में पैदा होने से शूद्र होता है। शद्रता का और ब्राह्मणत्व का कोई भी संबंध घरों से नहीं है, परिवारों से नहीं है। शूद्र एक मनोदशा है, ब्राह्मण भी एक मनोदशा है। सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं, कुछ ही लोग ब्राह्मण की तरह होकर मर पाते हैं। सारा जगत शूद्र है। शूद्र अर्थात जगत में सभी लोग अपने को शरीर मान कर जीते हैं। ब्राह्मण को खोजना बहुत मुश्किल है। ब्राह्मण के घर में पैदा होना कोई कठिन बात नहीं, ब्राह्मण होना बहुत मुश्किल है।
उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहा है कि श्वेतकेतु, तू जा ऋषि के आश्रम में और ब्राह्मण होकर लौट। श्वेतकेतु ने पूछा, लेकिन ब्राह्मण मैं हू ही, ब्राह्मणों का पुत्र हू! तो उद्दालक ने बड़े मीठे वचन कहे हैं, और बड़े तीखे। उद्दालक ने कहा, हमारे घर में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई सिर्फ हमारे घर में पैदा होने से ब्राह्मण हुआ हो, हम वस्तुत: ही ब्राह्मण होते रहे हैं। तो तू जा गुरु के आश्रम में और ब्राह्मण होकर वापस लौट। बाप से कहीं ब्राह्मणत्व मिला है? गुरु से मिलता है। और हमारे घर में नाम—मात्र का ब्राह्मण कभी भी नहीं हुआ, हम सदा ही ब्राह्मण होते रहे हैं। तू जा और जब ब्राह्मण हो जाए तो वापस लौट आना। यह सूत्र कहता है शूद्र की भांति, चंडाल की भांति, इस शरीर से दूर हट जाओ।
दूर हटना भी नहीं पड़ता, समझ में आ जाए कि दुर्गंध है, समझ में आ जाए मल—मूत्र है, समझ में आ जाए मास—मज्जा है, दिखाई पड़ जाए, दूर हटना शुरू हो जाता है। हम खिंचते हैं वहां, आकर्षित होते हैं वहां, जहा सोचते हैं सुगंध है, सुवास है। हटने लगते हैं वहां से, विकर्षित होते हैं वहां से, जहां लगता है दुर्गंध है।
शरीर के पास रहने का जो मन है हमारा, वह शरीर के संबंध में हमारे अज्ञान के कारण ही है। हमें पता ही नहीं कि शरीर हमारा क्या है।
तो शरीर को भीतर से देखें। अपने ही सर्जन बन जाएं, अपने को ही उघाड़े। चमड़ी बहुत मोटी नहीं है, बहुत पतली है। और चमड़ी के भीतर जो छिपा है, उससे हम कितना राग बना लेते हैं! और इस भांति जीने लगते हैं, जैसे वही हमारा सब कुछ होना है! तो जुड़ जाते हैं, बंध जाते हैं।
शरीर की ठीक—ठीक स्थिति खयाल में आने लगे, तो आप पाएंगे, दूर हटना शुरू हो गया, हटना भी नहीं पड़ता है, हटना शुरू हो जाता है। फिर तो पास आना हो तो चेष्टा करनी पड़े। लेकिन हम शरीर के पास हैं, उसका एक ही अर्थ है कि हमने कभी शरीर को भीतर से देखा नहीं।
हम भी अपने शरीर को दर्पण में देख कर जानते हैं। दर्पण में जो दिखाई पड़ता है, वह हमारे शरीर का बाह्य आवरण है। बड़ा अच्छा हो कि विज्ञान ऐसे यंत्र ईजाद कर सके, जैसे एक्सरे की मशीन है। आज नहीं कल, विज्ञान ऐसे यंत्र बना ले कि उनके सामने आदमी खड़ा हो जाए तो जैसा वह भीतर से है पूरा का पूरा—हड्डी, मांस, मज्जा, मल—मूत्र—सब दिखाई पड़ जाए, तो वैसे यंत्र बड़े काम के हो सकते हैं।
आपको अपने शरीर की पूरी स्थिति पता चल जाए, आप तत्क्षण पाएंगे, आपमें और शरीर के बीच फासला हो गया। वे जो सेतु थे, टूट गए; जो जुड़ाव था, वह मिट गया, और दूरी बढ़ने लगी।
उपनिषद के ऋषियों ने वह आख पैदा करने की कोशिश की है जिससे आप भीतर झांक सकें, चमडी के भीतर झांक सकें—अपनी ही चमड़ी के भीतर झांक सकें।
सत्य मुक्तिदायी है। स्वयं के शरीर का सत्य पता चल जाए तो भी मन मुक्त होना शुरू हो जाता है। असत्य बंधन है। नहीं हम जिसे जानते, उससे हम बंध जाते हैं।
'हे मुनि! महाकाश में घटाकाश की तरह परमात्मा में आत्मा को एकरूप करके अखंड भाव से शांत हो जा।'
जब शरीर की व्यर्थता दिखाई पड़े, शरीर का असार होना दिखाई पड़े, और शरीर केवल एक गंदगी का ढेर मालूम होने लगे, और जब शरीर से दूरी बढ़ने लगे—तभी परमात्मा से निकटता होनी शुरू होती है। शरीर के जितने निकट, परमात्मा से उतने दूर। शरीर से जितने दूर, परमात्मा के उतने निकट। शरीर से जितने जोर से हम बंधे हैं, उतने ही उस अशरीरी चैतन्य से हमारा फासला है। जब शरीर की तरफ पीठ हो जाती है, और जब शरीर से दूरी बढ़ने लगती है, तो शरीर से दूरी बढ़ने का एक ही मतलब होता है कि आत्मा से निकटता बढ़ने लगती है।
आत्मा है एक छोर, शरीर है दूसरा छोर, बीच में हम हैं। शरीर के बहुत पास होते हैं, आत्मा से बहुत दूर हो जाते हैं, शरीर से दूर हटने लगते हैं, आत्मा के बहुत पास हो जाते हैं। इसलिए शरीर से दूर हटने को ध्यान की एक प्रक्रिया की तरह लिया गया है। इसके कई दुष्परिणाम भी हुए, क्योंकि जब पश्चिम में भारतीय शास्त्रों का पहली दफा अनुवाद हुआ, तो उन्हें लगा कि ये तो शरीर के दुश्मन मालूम पड़ते हैं। ऐसा है नहीं। यह सिर्फ उपाय है। शरीर की वस्तुस्थिति जानने से तत्काल चेतना भीतर की यात्रा पर निकल जाती है। शरीर का ठीक—ठीक बोध होते ही शरीर पर पकड़ ढीली हो जाती है। वह पकड़ ढीली हो सके, इसलिए इस बोध को तीव्र जरूरी है।
मृत्यु पर चिंतन, शरीर की पर मनन, उघाड़ कर शरीर का जो रूप है उसे आख के सामने कर लेना—विधियां हैं ध्यान की। आदमी भीतर की तरफ सरकना शुरू हो जाता है। और वह सरकना सहज हो जाता है, उसके चेष्टा नहीं करनी पड़ती। अगर आप शरीर को बिना समझे भीतर की तरफ जाना चाहते हैं तो अति होगी, क्योंकि मन तो शरीर में लगा ही रहेगा, जुड़ा ही रहेगा। बुद्ध का एक भिक्षु एक गांव से निकलता है। सुंदर है बहुत; ध्यान ने उसके सौंदर्य को और भी गरिमा दे दी है। मौन भीतर सघन हुआ है, तो उस मौन की किरणें उसकी आखों और उसके चेहरे से और भी प्रकट होने लगी हैं। वह आभामंडित हो गया है। एक वेश्या उस पर मोहित हो जाती है।
रवींद्रनाथ ने एक बहुत मधुर गीत इस घटना पर लिखा है।
वह वेश्या उतर कर अपने महल से नीचे आती है और उस भिक्षु को निवेदन करती है कि उसके महल में एक रात विश्राम कर ले। वह भिक्षु कहता है, निमंत्रण अस्वीकार करना हमारा नियम नहीं। आऊंगा! लेकिन अभी समय नहीं आया। जब तुम्हारे शरीर की वास्तविक स्थिति प्रकट हो जाएगी, तब मैं आऊंगा। अभी तुम भूल में हो। जिस दिन तुम जगोगी, मैं आऊंगा।
वेश्या को कुछ समझ में नहीं आता। वेश्या का मतलब ही यह है कि शरीर की भाषा के अतिरिक्त जिसे और कोई भाषा समझ में नहीं आती। इसलिए यह मत सोचना कि कोई पत्नी है, तो वेश्या नहीं है। शरीर की ही भाषा समझ में आती हो तो वेश्या ही है। जब तक आत्मा की भाषा समझ में न आए तब तक
कोई वेश्या होने से ऊपर उठ नहीं सकता। और वेश्या का मतलब स्त्री मत समझना; वेश्य भी। शरीर की भाषा समझ में आए, और शरीर से ही मोल—तोल चलता हो, इतना ही मतलब है वेश्या का। शरीर पर ही सब टिका हो मन, वही हो व्यवसाय।
भिक्षु ने कहा, आऊंगा जरूर, लेकिन जब तुम्हारा शरीर अपनी वस्तुस्थिति में आ जाएगा। उस वेश्या ने कहा, पागल हो गए हो! यही है समय, अभी मैं हूं युवा, अभी सौंदर्य है अपने शिखर पर। शरीर इससे बेहतर हालत में फिर कभी न होगा। उस भिक्षु ने कहा, बेहतर की चिंता नहीं है, वास्तविक की चिंता है; जब वास्तविक होगा, आ जाऊंगा। उस वेश्या ने कहा, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं, थोड़ा स्पष्ट करके कह दें। उस भिक्षु ने कहा कि जब कोई भी तुम्हारे पास न आएगा तब मैं आ जाऊंगा, क्योंकि तब शरीर वास्तविक स्थिति में होगा। तब शरीर बाहर भी वैसा ही दिखाई पड़ने लगेगा, जैसा भीतर है। अभी भीतर जैसा है, वैसा बाहर नहीं दिखाई पड़ता। जब कोई भी तुम्हारे पास न आएगा, तब मैं आ जाऊंगा।
फिर बहुत वर्ष बीत गए; वेश्या वृद्ध हो गई, सारे शरीर पर कोढू फैल गया; अंग—अंग उसके गलने लगे। गांव ने उसे उठा कर बाहर फेंक दिया। यह वही गांव था, जो उसके द्वार के आस—पास मंडराता था! ये वही लोग थे, जिनको उसके मकान में प्रवेश नहीं मिलता था; जो उसकी दूर से झलक ले लेते थे तो भी अपने को तृप्त, अहोभागी समझते थे। उन्होंने उसे गांव के बाहर फेंक दिया।
अंधेरी अमावस की रात है, वह प्यासी गांव के बाहर तडप रही है, कोई उसे पानी पिलाने को भी नहीं है। उस रात वह भिक्षु आया है, और उस भिक्षु ने उसके सिर पर हाथ रख कर कहा कि मैं आ गया। अब शरीर अपनी वास्तविक स्थिति में है। अब कोई तुम्हारे पास आता नहीं। अब शरीर बाहर भी वैसा ही हो गया है, जैसा भीतर है। अब बाहर—भीतर का फासला टूट गया। बीच की चमड़ी ने जो अवरोध डाले थे, वे मिट गए। अब भीतर की जो मांस—मज्जा है, वह बाहर भी झलकने लगी। भीतर की जो गंदगी है, वह बाहर भी आ गई। अब तुम बाहर— भीतर एक हो गई हो। अब मैं आ गया हूं। इसी दिन के लिए मैंने वादा किया था जब कोई भी नहीं आएगा, तब मैं आ जाऊंगा।
रही मेरी बात, उस भिक्षु ने कहा, मुझे तो उस दिन भी यह दिखाई पड़ता था जो आज बाहर आ गया। तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता था। मैं तो उस दिन भी तुम्हारे घर मेहमान हो सकता था; मुझे कोई अडचन न थी। तुम्हें भांति और बढ़ जाती कि अब तो भिक्षु भी मेरे घर मेहमान होने लगे हैं! मेरी कोई अड़चन न थी, उस दिन भी आ जाता, क्योंकि उस दिन भी मैं यही देख रहा था जो आज तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। जो आज पूरे गांव ने देख लिया है, वह मैंने उस दिन भी देख लिया था।
लेकिन वह वेश्या वहां बाहर पड़ी भी अपने शरीर को नहीं देख रही, आख बंद करके वह उन्हीं दिनों का स्मरण कर रही है, जब शरीर सुंदर था; जब गांव में गरिमा थी, गौरव था!
बुढ़ापे में भी लोग जवानी का चिंतन करते हैं! शरीर भी अपनी सचाई को प्रकट कर देता है तो मन से ढांकते रहते हैं। चमड़ी भी साथ नहीं देती अब, तो आखें बंद कर लेते हैं, और भीतर, वह जो बीत गया, उसका रस लेते रहते हैं।
बूढ़ा भी जब जवानी का रस लेता है तो समझना कि वह शूद्र ही मरेगा, और जब जवान भी बुढ़ापे को आने के पहले ही शरीर में देख लेता है तो समझना कि ब्राह्मण होकर मरेगा। मरता हुआ आदमी भी जब जीभन की ही वासना लिए रहता है तो समझना कि शूद्र है। और भरी जवानी में भी आदमी जब मृत्यु को देखने लगता है तो समझना कि ब्राह्मण का जन्म शुरू हो गया। और यह जरूरी है कि शरीर की यह वास्तविकता हमें दिख जाए, तो हमारी पीठ हो जाए इसकी तरफ और मुंह हमारा उस तरफ हो जाए जहां चैतन्य है।
'हे मुनि! महाकाश में घटाकाश की तरह परमात्मा में आत्मा को एकरूप करके अखंड भाव से सदा शांत रहो। '
मोड़ लो मुंह अपना शरीर से और फिर देखो उस महा आकाश की तरफ। वह महा आकाश निकट ही है। एक घड़ा रखा हो। जमीन पर हम उसे उलटा रख दें। तो घड़ा आकाश की तरफ देखे; पर उसे दिखाई पडेगी केवल मिट्टी की देह, आकाश दिखाई नहीं पड़ेगा। घड़े को उलटा रख दिया जमीन पर, वह आकाश की तरफ देखे, उसे क्या दिखाई पड़ेगा? उसे दिखाई पड़ेगी अपनी ही मिट्टी की पर्त, अपनी देह, अपना शरीर—आकाश दिखाई नहीं पड़ेगा।
फिर घड़े को हम सीधा रख दें, और घड़ा आकाश की तरफ देखे—मुंह आकाश की तरफ है अब, तो अब घडा देख पाएगा कि देह मैं नहीं हूं। और अब घड़ा यह भी देख पाएगा कि जो छोटा सा आकाश मेरे भीतर है, वही आकाश बाहर है, और हम दोनों के बीच कहीं भी कोई अंतराल नहीं है; हम दोनों अविच्छिन्न हैं; सतत मैं ही फैलता चला गया हूं इस आकाश में; सतत यह आकाश ही मुझ तक चला आया है और बीच में कहीं कोई अवरोध, कहीं कोई सीमा, कहीं कोई दीवाल नहीं है।
ठीक ऐसी ही घटना घटती है। जब आप शरीर की तरफ देख रहे होते हैं, तो आप उलटे घड़े की तरह रखे हैं। आपको शरीर दिखाई पड़ता है। जब आप शरीर से मुंह मोड़ते हैं, आप सीधे घडे की तरह हो गए। अब आपका मुंह आकाश की तरफ खुलता है। जैसे ही कोई व्यक्ति शरीर से मुड़ता है, तत्थण आकाश की तरफ उन्यूख हो जाता है। और पहली दफे उसे दिखाई पडता है कि जो विराट फैला हुआ है उसमें और मुझ में कहीं भी कोई, कहीं भी कोई रत्ती भर का भेद नहीं है। मैं ही विराट हो गया हूं र विराट मुझ तक आ गया है।
'हे मुनि! महाकाश में घटाकाश की तरह परमात्मा में आत्मा एकरूप करके अखंड भाव से शांत रहो। ' और जैसे ही यह दिखाई पड़ता है, शांति घटित हो
अशांति क्या है? क्या है हमारी बेचैनी? हमारी बेचैनी यह है कि हम बहुत बड़े हैं और बहुत छोटे में कैद हैं। हमारी बेचैनी यह है कि जैसे एक बड़े आदमी को एक बच्चे के कपड़े पहना दिए हों! वह हिल—डुल भी न सकता हो; और जगह—जगह बंध गया हो, और कपड़े भी कपड़े के न हों, लोहे के हों; तो जो अड़चन मालूम होगी, वही हम सब की अड़चन है।
हम हैं बड़े —बड़े नहीं, विराट—और बहुत छोटी देह में कैद हैं। घर बहुत छोटा है, निवासी बहुत बड़ा है। सब जगह अड़चन मालूम पड़ती है; सब जगह सीमा और सब जगह उपद्रव मालूम पड़ता है। कहौ से निकलें, निकलने की कोई जगह नहीं मालूम पड़ती। और कठिनाई बढ़ गई है; क्योंकि जो हमारा कारागृह है, उसे हमने अपना घर समझ लिया है। तो हम उसको सजाने में लगे हैं। हम उसका श्रृंगार कर रहे हैं। हम जगह—जगह से उसकी सजावट कर रहे हैं। हम कारागृह के भीतर सोने —चांदी का इंतजाम कर रहे हैं। हम कारागृह की दीवालों को सुंदर कर रहे हैं, आभूषण दे रहे हैं।
और उसी कारागृह में हम बंद हैं। और हमारा मुंह दीवालों की तरफ है, द्वार की तरफ नहीं।
रहेगा! मुंह उस तरफ रहता है जिस तरफ आकर्षण हो। जहा आकर्षण, वहा मुंह। जहा विकर्षण, वहां पीठ। जब तक शरीर में आकर्षण है, मुंह दीवाल की तरफ रहेगा। और जैसे ही शरीर में विकर्षण पैदा हुआ, मुंह शरीर की तरफ नहीं रह जाता, पीठ हो जाती है।
आपके शरीर में भी द्वार है एक। लेकिन वह द्वार आपको तभी दिखाई पड़ेगा, जब शरीर से आकर्षण खो जाए। शरीर में द्वार है। उस द्वार को ही हृदय कहा है। जिसको आप हृदय कहते हैं, उसको हृदय नहीं कहा है। आप तो हृदय उसको कहते हैं जहा फेफड़ा धड़क रहा है। वहां कोई द्वार नहीं है। वहा तो केवल पंपिंग, श्वास का इंतजाम है। वहां तो खून और वायु का मिलन होता रहता है। उससे हृदय धडक रहा है। वह हृदय नहीं है।
हृदय, योग की भाषा में आपके भीतर उस द्वार का नाम है कि जब आप शरीर की तरफ से पीठ कर लेते हैं, जब आप शरीर को देखने के लिए भी उत्सुक नहीं रह जाते, जब कि शरीर में कोई भी रस नहीं रह जाता और विराग का जन्म होता है, तब अचानक आप उस जगह खड़े हो जाते हैं जहा हृदय है, जहा से द्वार है, जहा से घड़ा आकाश की तरफ खुलता है।
आपके शरीर में बहुत तरह के द्वार हैं। लेकिन द्वारों का पता तभी चलता है, जब आप द्वारों पर पहुंचें। जब तक आप न पहुंचें तब तक पता नहीं चलता। छोटा बच्चा है। उस छोटे बच्चे को कोई भी पता नहीं कि उसके भीतर शरीर में एक काम—द्वार है, एक यौन—द्वार है, उसे कोई पता नहीं। अभी वह बडा होगा, जवान होगा, और एक दिन अचानक उसे काम—द्वार का पता चलेगा। उस काम—द्वार के द्वारा वह संसार में प्रवेश कर सकता है। वह भी शरीर के बाहर जाने का एक मार्ग है। और ध्यान रहे, इसीलिए कामवासना की इतनी आतुरता है। उससे क्षण भर को हम शरीर के बाहर बह पाते हैं। लेकिन क्षण भर को ही। क्षण भर को शरीर भूल जाता है और हम प्रकृति में डूब जाते हैं।
एक द्वार है मनुष्य का प्रकृति की तरफ, नीचे की तरफ। और एक द्वार है मनुष्य का परमात्मा की तरफ, ऊपर की तरफ। जब कामवासना से चित्त भरता है तो हम शरीर के निकटतम होते हैं। और जब हम शरीर के निकटतम होते हैं तो वह द्वार खुलता है जिससे हम और शरीरों के जगत में प्रवेश कर जाते हैं। जब हम शरीर के प्रति विरस हो जाते हैं और शरीर से दूर होतें हैं, तब वह द्वार खुलता है जहा से हम आत्माओं के जगत में प्रविष्ट हो जाते हैं। शरीर में दोनों द्वार हैं। शरीर में वह द्वार है जो पदार्थ की तरफ जाता है और वह द्वार भी जो परमात्मा की तरफ।
लेकिन शरीर के प्रति विरस हो जाएं, ऐसा सोच—सोच कर नहीं होगा। ऐसा आप मन में सोचते रहें कि शरीर हड्डी, मांस, मज्जा है—कुछ भी नहीं। सोचने से नहीं होगा। सोचना तो बताता है कि आपको पता नहीं है, इसलिए सोच रहे हैं।
अनेक लोग, जिंदगी हो गई, यही भाव करते रहते हैं बैठ कर कि शरीर में क्या रखा है! लेकिन उनको मालूम है कि रखा है। तभी यह भाव करते हैं। यह बार—बार कहने की जरूरत क्या है कि शरीर में क्या रखा है? यह वे अपने को ही समझा रहे हैं, अपने ही मन को समझा रहे हैं कि मन, मत पड़ शरीर की बातों में! शरीर में कुछ रखा नहीं है। लेकिन यह मन कौन है जो शरीर में लग रहा है? यह वे ही हैं; वे खुद। और मन का रस अभी कायम है, इसीलिए तो समझाना पड़ता है।
नहीं, यह सूत्र समझाने का नहीं है। इसको आप दोहराना मत। इसको बैठ कर आख बंद करके आप दोहराना मत। यह सूत्र उदघाटन का है। इस सूत्र को समझ कर आख बंद करके शरीर के भीतर खोजना कि क्या यह सूत्र सच कहता है कि मांस—मज्जा है? इसको मान मत लेना। इसको मान कर खतरा हो जाएगा, आप दोहराने लगेंगे। इसकी खोज करना, तलाश करना। हो सकता है ऋषि मजाक कर रहा हो; हो सकता है झूठ बोल रहा हो।
ऋषियों ने जो भी कहा है, वह विश्वास करने के लिए नहीं है, खोजने के लिए है। अपने भीतर खोजना। टटोलना अपनी हड्डियों को। अपने मांस में अपने पंजों को गपाना और खोजना। अपनी खोपड़ी को छूना और देखना वहां क्या है। और सब तरफ से अपने शरीर से परिचित होना। जिस दिन यह परिचय हो जाएगा। और इसमें देर क्या है? यह तो आज हो सकता है। यह शरीर तो आपको मिला ही हुआ है। लेकिन आपने कभी इसकी खोज नहीं की, इसको आपने कभी जांचा—परखा नहीं।
और ऐसा अजीब है आदमी कि आपको तो माफ भी किया जा सकता है; मैं ऐसे डाक्टर्स को जानता हूं, जिनका सारा अध्ययन, जिनकी सारी शिक्षा हड्डी, मांस, मज्जा की है। वे भी इतने ही मोहित हैं शरीर में। एक डाक्टर का भी शरीर में मोहित होना चमत्कार है। इसका मतलब है, अंधापन गजब का है, अंधेपन का कोई हिसाब नहीं। यह सर्जन की तरह यह डाक्टर टेबल पर शरीरों को काटता रहता है और फिर भी मजनुओं की तरह लैलाओं के गीत गाता रहता है! तो चमत्कार इसको कहना चाहिए। ये ताबीज वगैरह निकाल देते हैं साईंबाबा, यह कोई चमत्कार नहीं है। चमत्कार यह है कि यह आदमी रोज काटता है मांस—मज्जा को, और जब शरीर को खोलता है तो दुर्गंध की वजह से नाक बंद कर लेता है। एक—एक हड्डी से, एक—एक नस से परिचित है। भीतर सुंदर जैसा कुछ भी नहीं है।
लेकिन बड़े मजे की घटनाएं घटती हैं। मैं एक डाक्टर को यह कह रहा था, मित्र हैं। वे कहने लगे, आप कहते हैं तो मुझे खयाल आया। मैं एक स्त्री का आपरेशन कर रहा था। और जब मैंने उसका पेट खोला, तो नासिया, बहुत मन विकार, वह सब जो दिखाई पडा, उससे मन बहुत विकृत हो गया और बड़ी घबड़ाहट भीतर मालूम होने लगी! यह एक तरफ चल रहा है और उस डाक्टर ने मुझे कहा—ईमानदार आदमी है—कि यह एक तरफ चल रहा है और पास में मेरे नर्स खड़ी है, उसमें मेरा रस भी चल रहा है! इधर पेट खोल कर रखा हुआ हूं र इसको जल्दी किसी तरह निपटाऊं, क्योंकि उस नर्स के साथ मुझे सिनेमा देखने जाना है! यह है आदमी का मन! हम अपने को धोखा देने में इतने कुशल हैं। यह भी वही करेगा, यह जाकर अभी नर्स का हाथ हाथ में ले लेगा और बिलकुल भूल जाएगा कि हाथ क्या है!
तो आम आदमी को तो माफ किया जा सकता है। लेकिन डाक्टर की तुलना में कह रहा हूं; माफ किया नहीं जा सकता, क्योंकि शरीर हमारे पास है और हम उससे भी परिचित नहीं हो पाए! और लोग आत्मा की खोज में निकल— जाते हैं! और शरीर तक से परिचित नहीं हो पाए और आत्मा की खोज में निकल जाते हैं!
लोग पूछते हैं, आत्मा को कैसे पाएं? कृपा करके पहले शरीर को तो ठीक से जान लें, जो बहुत निकट और करीब है, इससे तो परिचित हो जाएं। और इससे परिचित होना ही आत्मा की तरफ उठने की सीढ़ी बन जाती है। क्योंकि जो इससे परिचित हुआ, वह फिर इसकी तरफ विमुख हो जाता है। और जो
शरीर से होता है विमुख, वह आत्मा की तरफ उगख हो जाता है। तब उसका मुंह आत्मा की तरफ हो जाता है। और जब आकाश मिलता है भीतर के इस छोटे से घटाकाश से, तो जो घटना घटती है, उसका नाम शांति है।
अशांति है इस कारागृह में बंद होना, शांति है इस कारागृह के बाहर विराट के साथ एक होने का अनुभव। ईश्वर से मिले बिना कोई भी शांत कभी हुआ नहीं है। इसलिए जब जितने भी आप उपाय करते हैं शांत होने के, वे व्यर्थ जाएंगे। कमोबेश अशांति हो सकती है, कभी अशांति ज्यादा, कभी कम—बस। जिसको आप शांति कहते हैं, वह कम अशांति का ही नाम है, इससे ज्यादा नहीं। नार्मल अशांति, साधारण अशांति हो तो आदमी कहता है सब शांत है, सब ठीक चल रहा है। अशांति थोड़ी बढ़ जाती है तो थोड़ी दिक्कत मालूम होती है।
मनसविद कहते हैं कि हमारा धंधा कुल इतना है कि हम तुम्हें सामान्य रूप से पागल, सामान्य रूप से पागल रख सकें। दो तरह के पागल हैं दुनिया में। बस दो ही तरह के आदमी ही हैं ' असाधारण रूप से पागल, उनको हमें पागलखाने में रखना पडता है; साधारण रूप से पागल, दुकानों में, दफ्तरों में, सब जगह बैठे हुए हैं। इनके बीच जो फर्क है वह डिग्री का, मात्रा का है। इनमें से कोई भी उचक कर दुकान से एकदम पागलखाने में जा सकता है, कोई अडचन नहीं है! जरा मात्रा बढाने की जरूरत है।
और आप रोज कई दफा पागलखाने के करीब हो जाते हैं। जब आप क्रोध से भर जाते हैं, तो आप क्षण भर के लिए पागल हो गए। आपमें और पागल में कोई फर्क नहीं है। आप वह काम करेंगे जो पागल करता है। बस, फर्क इतना ही है कि आप कभी—कभी ऐसा होते हैं; यह पागलपन जो है आपका, कभी —कभी आता है। किसी का स्थिर हो गया है; जाता ही नहीं, ठहर गया है। आप थोड़े तरल पागल हैं, लिक्विड, बहते रहे हैं। कोई ठोस हो गया, बर्फ की तरह जम गया।
मनसविद कहते हैं कि हमारा कुल काम इतना है कि जो जरा ज्यादा आगे चले गए पागलपन में, उनको जरा पीछे ले आना और सामान्य भीड़ के साथ खड़ा कर देना। इससे ज्यादा हम कुछ कर नहीं सकते, एडजेस्टमेंट कर सकते हैं, कि वापस। साल, दो साल समझा—बुझा कर, दवा—दारू से वापस बिठा देना वहीं, जहं। वह पहले अपनी दुकान में बैठे थे। इतना पागलपन जिससे कि काम में बाधा न पड़े, काम चलता जाए।
अशांति हमारा स्वभाव बन गई है। और स्वाभाविक है ऐसा होना, क्योंकि शांत होने का एक ही अर्थ है, जब गंगा सागर में गिरती है, उन दोनों के बीच जो घटना घटती है, उसका नाम है शांति। जब आपकी सरिता भी सागर में गिरती है, तब जो घटना घटती है उस मिलन के क्षण में उसका नाम है शांति।
परमात्मा से मिले बिना कोई शांति नहीं है।
'स्वयं ही अपने आप, स्वयं प्रकाश और अधिष्ठान—ब्रह्मरूप होकर पिंडाड तथा ब्रह्मांड का भी विष्ठा—पात्र के समान त्याग कर दे।'
न केवल इस शरीर को त्याग कर देना है, बल्कि यह जो विराट शरीर दिखाई पड़ रहा है ब्रह्मांड, यह जो बड़ा जगत दिखाई पड़ रहा है…..।
छोटे रूप में आदमी तस्वीर है बड़े जगत की। आपके बाहर फैला हुआ एक शरीर है, वह आपकी देह। भीतर छिपी हुई चिदात्मन् ज्योति है आत्मा की। ठीक ऐसे ही इस पूरे विराट का शरीर है जगत, और उसके भीतर छिपा हुआ है ब्रह्म। इस शरीर का तो त्याग कर ही देना है, यह जो बाहर विराट शरीर फैला हुआ है, यह भी इसी के साथ व्यर्थ हो जाता है, इसका भी त्याग कर देना है।
जब कोई व्यक्ति अपने शरीर से विमुख होता है तो उसे आत्मा का अनुभव होता है। इस शब्द को ठीक से समझ लें। जब कोई व्यक्ति अपने शरीर से विमुख होता है तो उसकी आखों में पहली दफे जो झलक अति है, वह अपनी ज्योति की है, आत्मा की है, घटाकाश की है। और जब कोई व्यक्ति सारे जगत के ब्रह्माड शरीर से भी विमुक्त हो जाता है, तब उसे जो अनुभव होता है, वह ब्रह्म—ज्योति का है।
आत्मा और परमात्मा में इतना ही फर्क है। आत्मा का मतलब है, आपको छोटी सी ज्योति का अनुभव हुआ। परमात्मा का अर्थ है, अब आप महासूर्य के समक्ष खडे हो गए। अपने शरीर से छूट कर आत्मा का अनुभव होता है और ब्रह्मांड से छूट कर परमात्मा का अनुभव होता है। पर दोनों में मात्रा का ही फर्क है। इसलिए जो आत्मा तक पहुंच गया, उसे कोई अड़चन नहीं है, उसे कोई बाधा नहीं है, वह दूसरी छलाग भी आसानी से ले सकता है।
'देह के ऊपर आरूढ हुई अहंकार बुद्धि को सदैव आनंदरूप चिदात्मा में स्थापित करके लिंग शरीर को त्याग और सर्वदा केवल आत्मारूप हो।'
सतत यह मुख आकाश की तरफ बना रहे, यही संन्यास का अर्थ है। गृहस्थ चेष्टा करके कभी—कभी एक झलक पा लेता है, फिर लौट आता है अपने घर में।
गृहस्थ का मतलब आप समझ लेना, गृहस्थ का मतलब शरीर में जो लौट—लौट आता है। गृह से मतलब उस घर का नहीं है जिसमें आप रहते हैं, गृह से अर्थ इस घर का है जिसमें आप पैदा हुए हैं। इसमें जो ठहर गया है, उसका नाम है गृहस्थ। कभी—कभी झलक भी मिल जाती है, फिर लौट—लौट आता है। कभी—कभी घडा सीधा भी हो जाता है, फिर उलटा हो जाता है, फिर ठहर जाता है। उलटा होना आदत हो गई है। आदत की वजह से उलटा होना सीधा मालूम पडता है, आदत की वजह से! इतने दिन तक उलटे रहे हैं कि आदत की वजह से वही ठीक मालूम पड़ता है।
अगर एक आदमी को जन्म के साथ शीर्षासन करवा दिया जाए, और वे शीर्षासन किए ही बड़े किए जाएं, तो किसी दिन अगर उनको सीधा खड़े होने को कहा जाए तो वह कहेगा, क्या उलटा खड़ा करवा रहे हैं! स्वभावत:, क्योंकि उनकी आदत तो एक पड़ गई है कि सिर के बल खडा होना।
एक छोटी सी जाति है दक्षिण अमरीका में, एक छोटे पहाड़ पर तीन सौ लोगों का कबीला है। एक मक्खी है वहां, जिसके काटने से सभी लोग अंधे हो जाते हैं। तो वे तीन सौ लोग ही अंधे हैं। छोटी सी आदिवासियों की जाति है। सब बच्चे आख वाले पैदा होते हैं, लेकिन तीन महीने के भीतर अंधे हो जाते हैं, क्योंकि तीन महीने के भीतर वह मक्खी काट ही लेती है। इसलिए उस कबीले को पता ही नहीं ' कि आखें होती हैं। और तीन महीने के बच्चे को तो क्या पता चलेगा कि आख है, बाकी तो सब अंधे हैं। तीन महीने के भीतर हर बच्चा अंधा हो ही जाएगा।
अगर उस कबीले में कभी कोई आख वाला पैदा हो जाए, तो निश्चित ही उस कबीले के डाक्टर उसकी आखों का आपरेशन कर देंगे, क्योंकि बिलकुल अस्वाभाविक मालूम पड़ेगा : आख कहीं होती है! किसको होती है? किसी को नहीं होती। तो कुछ भूल हो गई प्रकृति की। आपरेशन कर देना जरूरी हो जाए। अंधा होना स्वाभाविक है। आदत बन गई।
हम जैसे हैं वह स्वाभाविक लगता है, जरूरी नहीं कि स्वाभाविक हो। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। मुगदत स्वभाव मालूम पड़ सकती है, लेकिन आदत स्वभाव नहीं है। आदत और स्वभाव में फर्क क्या है? आदत का मतलब है, जिसे हम करते रहे हैं इसलिए करते चले जा रहे हैं। स्वभाव का अर्थ है कि हम अपना सब करना भी छोड़ दें तो वह होता रहेगा; उसे करना नहीं पड़ता।
आदत है हमारी शरीर के साथ बंधे होने की जन्मों—जन्मों की, अनंत जन्मों की। यह स्वभाव नहीं है। इसलिए एक दफा आपको ठीक अनुभव हो जाए स्वभाव का, तो यह आदत टूट जाएगी। लेकिन झलकें सकती हैं। और झलक मिलती है तो उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। झलक, जैसे बिजली कौंध जाए, फिर अंधेरा घना हो जाता है। पुरानी आदत में फिर हम वापस सेटल हो जाते हैं, फिर स्थापित हो जाते हैं। संन्यासी का अर्थ है जिसने यह निर्णय लिया कि अब मैं सतत घर की ओर पीठ ही रखूंगा, और सतत खुले आकाश को स्मरण रखूंगा, और निरंतर मेरी चेष्टा जारी रहेगी, उठते —बैठते, जागते —सोते भी —जहा तक मेरा बस चलेगा, वहा तक मैं खयाल रखूंगा कि मेरा मन शरीर से न जुड़े, मेरी आत्मा उस विराट सागर में प्रवाहित होती रहे, बहती रहे। और जब मैं कहता हूं, बहती रहे, तो सिर्फ शब्द नहीं कह रहा हृ। जब आप इसका प्रयोग करेंगे तो आपको लगेगा ही कि आप सतत बह रहे हैं। जैसे ही आपका मुंह आत्मा की तरफ होगा, आपको लगेगा, आप सतत उंडेले जा रहे हैं, आप गंगा की तरह सागर में गिर रहे हैं, गिर रहे हैं। यह स्मरण बना रहे, यह सतत स्मरण बना रहे।
'हे निर्दोष! दर्पण में जैसे शहर दिखाई दे, वैसे ही जिसमें इस जगत का भास दिखाई पड़ता है, वही ब्रह्म मैं हूं, इस प्रकार जान कर तू कृतार्थ हो।'
जैसे दर्पण में प्रतिबिंब दिखाई पडता है! लेकिन दर्पण में जो प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है वह वास्तविक नहीं है, वास्तविक तो दर्पण है जिसमें प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। लेकिन आपको खयाल हो या न हो, जब आप दर्पण देखते हैं तो दर्पण नहीं दिखाई पड़ता, प्रतिबिंब दिखाई पडता है। जब आप दर्पण के सामने रवड़े होते हैं, तो आपने कभी खयाल किया कि आप दर्पण देख रहे हैं? आप चेहरा देख रहे होते हैं, दर्पण नहीं देख रहे होते। और जो चेहरा दिखाई पड़ता है वह बिलकुल नहीं है, वह वहां बिलकुल नहीं है, और जो है वह बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता।
अगर ऐसा दर्पण बनाया जा सके, जिसमें आपको चेहरा न दिखाई पड़े तो दर्पण आपको दिखाई ही नहीं पड़ेगा। वह तो चेहरा दिखाई पड़ता है, इससे आप अनुमान करते हैं कि दर्पण है। दर्पण आप अनुमान करते हैं कि है, क्योंकि चेहरा दिखाई पड़ रहा है। लेकिन दिखाई चेहरा पड़ता है, दर्पण दिखाई नहीं पड़ता। हा, दर्पण में कुछ अशुद्धि हो तो बात अलग। जितना शुद्ध दर्पण हो, उतना कम दिखाई पड़ेगा। अगर हम बिलकुल निर्दोष दर्पण बना सकें तो वह हमें दिखाई ही नहीं पड़ेगा।
महाभारत की सारी कथा ऐसे ही निर्दोष दर्पण के बनने से हुई। किया था मजाक, मजाक मंहगा पड़ा। दुर्योधन और उसके सारे भाई अंधे बाप के बेटे थे। तो मजाक किया था। मजाक अच्छा भी नहीं था, क्योंकि जिस मजाक से दूसरे को चोट पहुंचे, वह मजाक कम हिंसा ज्यादा हो जाती है।
तो पाडवो ने बनाया था एक मकान, निमंत्रित किया था अपने चचेरे भाइयों को। मकान में ऐसे दर्पण त्स्साए थे जो बड़े निर्दोष थे। दर्पण इतने निर्दोष थे कि दिखाई ही नहीं पड़ते थे कि दर्पण हैं। तो अगर दर्पण दरवाजे के सामने लगा था तो दरवाजा दिखाई पड़ता था, दर्पण दिखाई नहीं पड़ता था।
दुर्योधन बेचारा, उन दरवाजों से निकलने की कोशिश में सिर टकरा गया उसका, गिर पड़ा। द्रौपदी हंसी, उस हंसी से सारा महाभारत पैदा हुआ। उस हंसी का बदला। ऐसी कोई बडी बात न थी, लेकिन छोटी सी हंसी भी बडी हिंसा हो सकती है।
इसलिए द्रौपदी को फिर भरी सभा में नग्न करने की कोशिश का जिम्मेवार अकेला दुर्योधन नहीं है, द्रौपदी की हंसी भी उसमें सम्मिलित है। मूल कारण वही है। अंधे का बेटा है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता है। होगा ही ऐसा, क्योंकि अंधे का बेटा है। इसलिए हंसी कि गिसेगे ही; जहा दरवाजा नहीं, वहां दरवाजा देख रहे हो! पर बात कुल इतनी थी कि बहुत निर्दोष दर्पण का उपयोग किया गया था। तो दर्पण तो दिखाई नहीं पड़ता, जो प्रतिबिंब पडता है वही दिखाई पड़ता है।
ऋषि कहता है, हे निर्दोष! दर्पण में जैसे प्रतिबिंब दिखाई दे, वैसे ही जिसमें इस जगत का भास दिखाई पड़ता है।
भीतर जो हमारी आत्मा है वह निर्दोष दर्पण है; यह सारा जगत उसमें दिखाई पड़ता है। तो हम इस जगत को पकड़ने दौड़ पड़ते हैं; लेकिन वह दर्पण हम नहीं देखते जिसमें यह दिखाई पड़ता है, जिसमें यह झलकता है।
एक हीरा दिखाई पड़ रहा है, कोहिनूर रखा है, वह दिखाई पड रहा है। तो आप कोहिनूर की तरफ दौड़ते हैं। आपको यह खयाल में भी नहीं आता कि जिसको यह दिखाई पड रहा है, जिसमें यह कोहिनूर की छवि बन रही है, वह कौन है? वह दर्पण क्या है मेरे भीतर जो कोहिनूर को मेरे भीतर तक प्रतिबिंबित कर देता है? चांद दिखाई पड़ता है आकाश में, भीतर वह कौन है जिसमें यह चांद प्रतिबिंबित हो जाता है?
मेरे भीतर एक घूमता हुआ दर्पण है, जो सारे जगत को देखता रहता है। जब तक आप जगत को पकडने जा रहे हैं, तब तक आप प्रतिबिंबों को पकड़ रहे हैं। जिस दिन आप दर्पण को पकड़ने लगेंगे, आपका प्रवेश हो गया उस जगत में जो सत्य का है। और दर्पण को जो पकड लेगा, फिर वह प्रतिबिंबों के मोह में नहीं पड़ता। ऐसा नहीं कि फिर प्रतिबिंब बनने बंद हो जाएंगे, प्रतिबिंब बनते रहेंगे। लेकिन तब पकड़ने का आग्रह छूट जाता है। और दर्पण प्रतिबिंबों से कभी विकारग्रस्त नहीं होता। तो चाहे आप कितने ही कितने संसारों में भटकते रहे हों, आपका दर्पण निर्दोष बना रहता है।
इसे थोडा समझ लें। इसीलिए कहा है, हे निर्दोष! यह आपसे कहा है, हे निर्दोष! आपको भी शक होगा कि ऋषि से कोई भूल तो नहीं हो गई! हमसे, और कहा, हे निर्दोष!
नहीं, पर कारण से कहा है। चाहे कितने ही दोष हो जाएं, वह दर्पण निर्दोष ही रहता है। एक दर्पण के सामने आप कुछ भी खड़ा कर दें, गंदगी रख दें, मल—मूत्र रख दें, दर्पण उसका प्रतिबिंब बना देगा। लेकिन क्या आप सोचते हैं कि दर्पण उस गंदगी से दोषी हो गया? गंदगी हटा लें, दर्पण वैसा का ही वैसा है, कहीं कोई रेखा भी न छूट जाएगी उस गंदगी की। तो आपके दर्पण के सामने बहुत कुछ घटता रहा है, लेकिन सामने ही घटता रहा है, दर्पण में कुछ भीतर जाता नहीं; जा सकता नहीं। इसलिए कहा, हे निर्दोष!
यह एक बहुत बुनियादी फर्क है। ईसाइयत कहती है कि अपने दोष छोड़ो। हिंदू चिंतन कहता है, जानो कि तुम निर्दोष हो ही। ईसाइयत कहती है, छोडो पाप, छोड़ो दोष, हटाओ! हिंदू चिंतन कहता है, हटाना क्या है! तुम दर्पण हो, यह भर जान लो, फिर सब हट गया; तब तुम निर्दोष हो ही।
बात एक ही है। अगर कोई हटाने में भी लग जाए, तो सामने से दर्पण के अगर सब दोष हटा दिए जाएं, तो दर्पण निर्दोष मालूम पड़ेगा। वह था ही। इस छोर से भी शुरू किया जा सकता है। जैन और हिंदू चिंतन का भी फर्क यही है।
इसलिए बहुत मजे की बात है। जैन का भी जोर है दोष को हटाने पर; हटा दो दोष को। तो जितने दोष हट जाएंगे, अगर दोष सब हट जाएंगे, तो दर्पण तो निखालिस है ही, वह निखालिस मालूम पड़ जाएगा। हिंदू चिंतन का जोर है, क्यों व्यर्थ मेहनत करते हो दोष के साथ! दर्पण हो, इस सत्य को पहचान लो, फिर पड़े भी रहें दोष सामने, तो भी तुम निर्दोष हो।
इसलिए जैनों को ऐसा लगता रहा है, ईसाइयत को भी लगता है, कि हिंदू विचार थोड़ा खतरनाक है। क्योंकि इसमें फिर नीति, पाप—पुण्य के लिए बहुत जगह नहीं रह जाती।
खतरनाक है। जितना गहरा सत्य होगा, उतना खतरनाक हो जाता है, क्योंकि जितना गहरा सत्य हो, उतना शक्तिशाली हो जाता है। और शक्ति में खतरा है। और गलत आदमी के हाथ पड़ जाए तो बहुत खतरा है। और अक्सर गलत आदमी शक्ति की तलाश में होते हैं, उनके हाथ में पड़ जाती है। पर हिंदू विचार है बहुत गहन। और बात इसकी है कि भीतर जो तुम्हारा चैतन्य है वह मात्र दर्पण है, जस्ट ए मिरर, मात्र दर्पण। उसमें तुमने जो भी देखा है वह बाहर है, भीतर कभी कुछ गया नहीं है। हालांकि भीतर दिखाई पड़ता है। दर्पण के सामने कोई चीज रखो तो जितनी बाहर होती है उतनी भीतर दिखाई पड़ती है। किरणों के अनुपात का नियम, जितनी बाहर होती है उतनी भीतर दर्पण में दिखाई पड़ती है।
तो एक बड़े मजे का सूत्र आप खयाल में ले लें जो बात आपको जितनी भीतर दिखाई पड़े, जान लेना आप से उतनी ही बाहर है। अगर कोई बात आपको बिलकुल भीतरी मालूम पड़े तो बिलकुल पक्का समझ लेना कि इससे ज्यादा बाहरी चीज खोजनी मुश्किल है। जैसा अक्सर होता है, लोग कहते हैं प्रेम बहुत भीतर है। उसका मतलब, यह सबसे बाहरी चीज है, सबसे दूर का मामला है। जब आप कहते हैं कि किसी का प्रेम मेरे बिलकुल हृदय में प्रवेश कर गया है, तब समझ लेना कि आप बहुत दूर की चीज छूने की कोशिश में लगे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कोई बहुत दूर है आपसे और इसलिए दर्पण में इतने भीतर दिखाई पड़ रहा है।
पास की चीजें पास दिखाई पड़ेगी, दूर की चीजें गहरी दिखाई पडेगी। और जरूरी नहीं है, दर्पण में कोई चीज कितने भीतर दिखाई पड़ती है, इससे भीतर होने का कोई संबंध नहीं है। छोटी सी तलैया में भी चांद दिखाई पडता है उतना ही गहरा, जितना आकाश में दूर है। उतनी गहराई भी नहीं है उस तलैया में! आपके दर्पण की कितनी गहराई होती है? दर्पण को रख दें नीचे जमीन पर, चांद दिखाई पड़ेगा—उतनी ही गहराई में जितना दूर चांद है।
बाहर के प्रतिबिंब कितने ही भीतर चले जाएं, भीतर नहीं जाते। भीतर कुछ गया ही नहीं है कभी, जा भी नहीं सकता, मालूम पड़ता है, क्योंकि भीतर एक दर्पण है। चैतन्य एक दर्पण है, शुद्धतम दर्पण है। इतना शुद्धतम है! क्योंकि काच कितना ही शुद्धतम हो, तो भी काच तो होता ही है। उतना पदार्थ तो होता ही है। लेकिन शुद्धतम चैतन्य!
अगर हम कभी वायु का दर्पण बना पाएं, तो वह भी इतना शुद्धतम नहीं होगा, जितना चैतन्य का दार्ग्ण शुद्धतम होगा। अगर हम वायु का दर्पण बना पाए और उसमें कोई चीज प्रतिबिंबित हो सके, तो हम बराबर प्रतिबिंब को खोजने निकल जाएंगे, दर्पण कोई बाधा भी नहीं देगा; वायु का दर्पण है, आप आर —पार चले जाएंगे। चैतन्य का दर्पण और भी शुद्धतम है, क्योंकि चेतना इस जगत में सबसे ज्यादा सूक्ष्म घटना है। सबसे ज्यादा सूक्ष्म! शुद्धतम शक्ति है। उसमें यह जगत फलित होता है।
ऋषि कहता है, हे निर्दोष! दर्पण में जैसे प्रतिबिंब दिखाई पडते हों, ऐसे इस जगत का भास तेरे भीतर होता है। इसे छोड़ कर, इसे जान कर, इसे पहचान कर, मैं ब्रह्म हूं —मैं दर्पण हूं; वह नहीं जो प्रतिफलित होता है, बल्कि वह हूं जिसमें प्रतिफलित होता है—तू कृतार्थ हो।
इसके बिना और कोई कृतार्थता है भी नहीं। जब तक कोई अपनी चेतना की शुद्धता को नहीं पहचानता, तब तक अकृतार्थ है। वह कुछ भी करता रहे, कुछ भी पाता रहे, सब पाया हुआ व्यर्थ होगा; सब किया अनकिया हो जाएगा; सब दौड़— धूप ऐसी ही होगी, जैसी कोई पानी पर लकीरें खींचता रहे। खींच भी नहीं पाता कि मिट जाती हैं। फिर—फिर खींचता रहे, मिटती जाती हैं।
जिंदगी के आखिर में, जिन लोगों ने प्रतिबिंबों की तलाश की है, मौत के क्षण में उन्हें पता चलता है, पानी पर लकीरें खींचते रहे हैं। सब खो जाता है। सब प्रतिष्ठा, सब पद, सब धन, सब संग्रह—सब खो जाता है। मौत के क्षण में पता लगता है कि बड़ी भूल हो गई, हमने सोचा था ग्रेनाइट पर लकीरें खींच रहे हैं, पानी पर खींच रहे थे! लेकिन तब पता चलता है जब कुछ किया नहीं जा सकता।
इसका पता अगर आज चल जाए, अभी चल जाए, तो कुछ हो सकता है। पानी पर लकीरें खींचना बंद हो सकता है। और जो आदमी हाथ खींच लेता है पानी पर लकीरें खींचने से, उस आदमी का दूसरे जगत में प्रवेश हो जाता है—उस जगत में, जहा कुछ भी कभी नहीं मिटता है।
एक है जगत मृत्यु का, एक है जगत अमृत का। मृत्यु से जो हट जाता है, वह अमृत को उपलब्ध होता है।
आज इतना ही।
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