शनिवार, 16 जून 2018

ईशावास्‍य उपनिषाद--प्रवचन--04

वह अतिक्रमण है—चौथा प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्‍थान।

सूत्र :


          अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।
         तद्धावतोsन्‍यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।। 4।।



       वह आत्मतत्व अपने स्वरूप से विचलित न होने वाला तथा मन
      से भी तीव्र गति वाला है। इसे इंद्रियां प्राप्त नहीं कर सकीं, क्योंकि
      यह उन सबसे आगे गया हुआ है। वह स्थिर होते हुए भी अन्य सभी
      गतिशीलों को अतिक्रमण कर जाता है। उसके रहते हुए ही वायु
      समस्त प्राणियों के प्रवृत्तिरूप कर्मों का विभाग करता है।। 4।।



त्मतत्व स्थिर होते हुए भी गतिमान से भी ज्यादा गतिमान है। आत्मतत्व इंद्रियों और मन की दौड़ के परे है, क्योंकि इंद्रियों और मन दोनों के पूर्व है, दोनों के पहले है, दोनों के पार है। इस सूत्र को साधक के लिए समझना बहुत जरूरी और उपयोगी है।

पहली बात तो कि आत्मतत्व जिससे हम अपरिचित हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं, जो हम हैं और फिर भी जिसकी हमें कोई पहचान नहीं है। हमारी चेतना की जो अंतिम गहराई है, जो अल्टीमेट डेप्थ है, जो आखिरी गहराई है, जहां से हमारा होना जन्मता है और विकसित होता है...।
अगर हम एक वृक्ष की तरह सोचें, तो वृक्ष में पत्ते भी हैं ऊपर आकाश में फैले हुए, पत्तों के पीछे छिपी हुई शाखाएं भी हैं, शाखाओं के पीछे वृक्ष की पीड़ भी है। और उन सबके नीचे वृक्ष की, अंधेरे में पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई, जड़ें भी हैं। कोई वृक्ष अगर अपने को पत्ता ही मान ले... और ऐसा मानने में बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि जड़ें प्रगट नहीं हैं, दूर अंतर—गर्भ में छिपी हैं। तो हो सकता है, वृक्ष समझ ले कि मैं पत्तों का समूह हूं। और भूल जाए यह कि जड़ें भी हैं। उसके मूलने से अंतर नहीं पड़ता। पत्ते क्षणभर भी जी न सकेंगे जड़ों के बिना। जड़ें फिर भी अंधेरे में काम करती रहेंगी। और यह मजे की बात है कि पत्ते तो जड़ों के बिना नहीं हो सकते, लेकिन जड़ें पत्तों के बिना हो सकती हैं। अगर हम पूरे वृक्ष को भी काट डाले तो भी जड़ें सक्रिय रहेंगी और नये वृक्ष को अंकुरित कर जाएंगी। लेकिन हम पूरी जड़ो को काट डाले तो पत्ते सिर्फ कुम्‍हलाएंगे, सूखेंगे, मरेंगे; नए पत्तों को जन्म न दे पाएगे। वह जो अंधेरे में गहरे में छिपी हुई है जड़े, वही प्राण है।
अगर मनुष्य को भी हम एक वृक्ष मान लें तो जिन्‍हें हम विचार' कहते हैं, वे हमारे पत्तों से ज्यादा नहीं हैं। और विचारों के जोड़ को ही हम अपने को समझ लेते हैं कि यह मैं हूं, पत्तों के जोड़ को। जडें तो गहरे में आत्‍म तत्‍व है। लेकिन जैसे जमींन के गहरे में और अंधेरे में वृक्ष की जडें छिपी है, वैसे ही हमारे हमारे आत्‍मतत्‍व की जड़ परमात्‍मा में, गहरे में, बहुत गहरे में छिपी हैं। वहां से ही हम रस पाते है। वहां से ही जीवन मिलताहै। वहां से ही प्राण की धाराएं बहती हैं। और हमारे पत्तों तक आती है।
हमारे पत्ते न हो सकेंगे, अगर वे जड़े अपने को सिकोड़ लेती है परमात्मा में, उसी दिन हमारे पते कुम्‍हला जाते है। शाखाएं सुख जाती हैं — कहते हैं, आदमी मर गया। जब तक वे जड़ें रस को पिए चली जाती है, जब तक वह आत्मतत्व हमारे पत्तों को फैलाए चला जाता है, तब तक लगता है हम जीवित है।
हमारे विचार हमारे पत्तों की भांति हें, हमारी वासनाएं हमारी शाखाओं की भांति हैं। और इन पत्तों और शाखाओं के जोड़ से ही हमारा अहंकार निर्मित होता है। यह बहुत गौण हिस्सा है हमारे अस्तित्व का। हमारे अस्तित्व का मूल, सब्‍स्‍टैनशिएल हिस्सा तो नीचे छिपा है। उसको ही उपनिषद आत्मतत्व कहता है। वह जिसके बिना हम न हो सकेंगे, यद्यपि जिसे हम भूल सकते हैं। वह, जिसके बिना हम कुछ भी नहीं हो सकेगा, लेकिन फिर भी वह इतने भूगर्भ में है, अस्तित्व की इतनी गहराई में है कि हम उसे विस्‍मरण कर सकते हैं। आत्मतत्व विस्मरण कर दिया जाता है।
और मजे की बात है, जो बहुत गहरा नही नहीं है, जिसके बिना भी हम हो सकते हैं, वह ऊपर होता है परिधि पर। वह दिखाई पड़ता है। वह पकड़ में आता है। हम अपने को जब पकड़ने जाते हैं, तो अपने विचारों के जोड़ को ही समझ लेते है कि यह मैं हूं। मन को ही समझ लेते हैं कि मैं हूं। मनसतत्व हमारे पत्तों का जोड़ है, आत्‍मतत्‍व हमारी जड़ों का। और ध्यान रहे, जो जड़ों तक नहीं पहुंचेगा वह उस भूमि को तो कभी पहचान ही नहीं पाएगा, जिससे जड़ें रस पाती हैं। जड़ है आत्मतत्व। जड़ तक जो पहुंचगा वह पाएगा, बहुत शीघ्र पाएगा कि जड़ नहीं है, जड़ भी रस पाती है पृथ्वी से। और भी एक अंतरधारा है जीवन की। आत्मतत्व को जो पहचानेगा वह परमात्मतत्व  को भी पहचान लेगा।
लेकिन हम तो जीते हैं पत्तों में और इन पत्तों के जोड़ को ही समझ लेते हैं कि यह मैं हूं। इसलिए एक जरा सा पत्ताकुम्हला जाता है, गिरता हैं, तो हम सोचते है — मरे, गए, नष्ट हुए। सब पत्ते कुम्हला जाते हैं, तो सोचते हैं, 'जीवन गाया। जीवन का हमें पता ही नहीं है। जीवन की बहुत ऊपरी आवरण, बहुत ऊपरी आच्‍छादन, वही हम अपने को मान कर जीते है।
उपनिषद कहता है, इस आवरण में, आच्छादन में जीने वाला ही आत्महंता है। इस आवरण के नीचे, गहरे में, वहां तक जाने वाला, जहां जड़ें मिल जाएं  रूट्स आफ एक्सिस्टेंस — जहां से अस्तित्व अपने मूल उदगम को पा ले, गंगोत्री मिल जाए जहां प्राणों की, तब हमने जाना आत्मतत्व। उसे जान लेने वाला ही आत्मज्ञानी  है। उसे जान लेने वाला ही प्रकाश को उपलब्ध होता है, जीवन को उपलब्ध होता है।
इस आत्मतत्व के लिए तीन बातें कही हैं। एक तो यह कहा है कि यह आत्मतत्व सदा स्थिर है। और इस स्थिर आत्मतत्व के चारों ओर बड़े परिवर्तन का जाल चलता है। यह भी बड़े रहस्य की बात है। जहां—जहां परिवर्तन होता है, वहां—वहां केंद्र में स्थिरता अनिवार्य है। गाड़ी का एक चाक चलता है तो कील ठहरी रहती है। अगर कील भी चल जाए तो चाक का चलना मुश्किल है। कील ठहरती है, इसलिए चाक चलता है। चाक के चलने का राज ठहरी हुई कील में होता है। अगर कील भी चली तो चाक नहीं चलेगा फिर। फिर तो गाड़ी गिरेगी और नष्ट होगी। चाक चलेगा उतनी ही व्यवस्था से जितनी व्यवस्था से कील थिर रहेगी। चाक सैकड़ों मीलों की यात्रा कर लेता है, और कील कितनी यात्रा करती है? कील अपनी ही जगह खड़ी रहती है। और बड़े मजे की बात तो यह है कि खड़ी हुई कील की जरूरत पड़ती है चलने वाले चाक को। वह जो परिवर्तन का चक्र है, वह चलता ही है उस पर, जो अपरिवर्तित है।
तो पहली बात तो हमारे जीवन में सब परिवर्तन है। जहां तक परिवर्तन है वहां तक जानना पत्ते हैं। आएंगे अभी इस बसंत में और झड़ेंगे कल पतझड में। क्षण को भी कुछ ठहरा नहीं होगा, आच्छादन बदलता ही रहेगा। लेकिन गहरे में, भीतर कहीं न कहीं कोई तत्व है, जो ठहरा हुआ है, जो सारे परिवर्तन को सम्हाले हुए है।
कभी ग्रीष्म के बवंडर देखे हैं चलते हुए हवा के? गोल बवंडर धूल के बादल को आकाश की तरफ उठाए लिए चला जाता है। जब बवंडर जा चुका हो, तब कभी उस बवंडर के नीचे छूट गए जो चरण—चिह्न हैं जमीन की धूल पर, उन्हें जाकर देखना तो बड़ी हैरानी होगी। बवंडर घूमता है कितनी तेजी से! कभी—कभी तो बवंडर लोगों को उठाकर उड़ा ले जाता है। लेकिन बवंडर के निशान अगर देखेंगे तो बहुत चकित होंगे। बीच बवंडर के, गाड़ी के चाक की तरह एक कील का स्थान भी होता है, जो बिलकुल अछूता रह जाता है। इतने जोर से बवंडर घूमता है, लेकिन बीच में एक जगह रहती है, जो खाली और शून्य रह जाती है। हवा की कील बन जाती है वहां। उसी ठहरी हुई कील पर पूरा बवंडर घूमता है।
असल में कोई भी चीज घूम नहीं सकती है, अगर बीच में कोई चीज ठहरी हुई न हो। जीवन बड़े जोर से घूमता है। विचार बड़े जोर से घूमते हैं। वासनाएं बड़े जोर से घूमती हैं। वृत्तियां बड़े जोर से घूमती हैं। जीवन एक चक्र है, तेजी से घूमता हे। उपनिषद कहते हैं, उसके बीच में एक थिर तत्व है। उसे खोजना पडेगा। उसके बिना सहारे के यह इतना बवंडर चल नहीं सकता। यह बवंडर जीवन का उस घर तत्व पर चलता है।
वह थिर तत्व आत्मतत्व है। वह सदा थिर है, ठहरा ही हुआ है। वह कहीं भी कभी गया नहीं है। वह कभी बदला नहीं है। जब तक उस अपरिवर्तित और न बदलने वाले का स्मरण न आ जाए, पहचान न आ जाए, तब तक जानना कि जीवन को हमने नहीं जाना। अभी हम बाहर की परिधि पर परिवर्तन को ही जानते थे, अभी कील से हमारी पहचान नहीं हुई। अभी हम चाक के आरों से ही परिचित रहे, अभी मूल को नहीं देखा, जिस पर सब ठहरा हुआ है। इसे उपनिषद कहते हैं, वह थिर है। वह ठहरा हुआ है।
ठहरे हुए का क्या अर्थ है? जो भी अर्थ हम समझेंगे, उसमें गलती होने की संभावना है। और इसलिए जिन लोगों ने भी उपनिषद पर व्याख्याएं की हैं, उनमें अधिक लोगों ने भूल की है।
ठहरे हुए का मतलब स्टैग्नेंट नहीं है, ठहरे हुए का मतलब ऐसा नहीं है जैसा कि एक तालाब है, चलता नहीं, रुका हुआ। सड़ जाएगा। आत्मतत्व ठहरा हुआ है, इसका ऐसा अर्थ नहीं है। आत्मतत्व ठहरा हुआ है, इसका अर्थ स्टैग्नेंसी नहीं है।
आत्मतत्व थिर है, इसका अर्थ है कि आत्मतत्व इतना पूर्ण है कि परिवर्तन का उपाय नहीं है। आत्मतत्व इतना परिपूर्ण है, इतना एकोल्युट है, इतना निरपेक्ष है। जो भी है, इतना पूरा है कि उसमें और कुछ उपाय नहीं है होने का।
परिवर्तन वहीं होता है, जहां अपूर्णता होती है। बदलाहट वहीं होती है, जहा कुछ और होने की गुंजाइश, जहां कुछ और होने की सुविधा, अवकाश, स्पेस होता है। बच्चा जवान हो जाता है, जवान का हो जाता है। कुछ जगह बची है, बदलती चली जाती है। पत्ते आते हैं, फूल आते हैं। गिरते हैं, नए पत्ते आते हैं। आत्मतत्व थिर है, इसका अर्थ, आत्मतत्व पूर्ण है। पूर्ण को बदलेंगे कैसे? पूर्ण बदलेगा किस में? जगह भी नहीं है बदलने को आगे। आगे बदलने को उपाय भी नहीं है। आत्मतत्व थिर है, इसका अर्थ है, आत्मतत्व पूरा खिला हुआ है, टोटल फ्लावरिंग। अब और खिलने को आगे जगह नहीं है। ध्यान रहे, ठहरे हुए तालाब की तरह नहीं, स्टैग्नेंट तालाब की तरह नहीं है, पूरे खिले हुए कमल की तरह है। इतना खिल गया है कि अब कलियों को खिलने के लिए और कोई उपाय नहीं है।
तो यहां थिरता से अर्थ है परफेक्यान, स्टैग्नेंसी नहीं। थिरता का अर्थ है पूर्णता। इतना पूर्ण है, इतना पूर्णतर है, इतना पूर्णतम है कि उसके आगे अब कलियां, पखुडिया और खिलना भी चाहें तो कहां खिलें! यहां थिरता का अर्थ है, पोटेंशियलिटी पूरी की पूरी एक्युअलिटी हो गई। यहां जो भी छिपा था बीज में, वह पूरा का पूरा ही प्रगट है, अप्रगट कुछ बचा नहीं है। इसलिए यहां ठहराव का अर्थ अगति नहीं है, यहां ठहराव का अर्थ पूर्णता है। लेकिन हम जब भी सोचते हैं, ठहरा हुआ है, तो हमारे मन में खयाल ऐसा आता है जैसे कोई आदमी चलता न हो, खड़ा हुआ हो। यहां डेड स्टैग्नेंसी नहीं है, मृत ठहराव नहीं है। यहां जीवंत पूर्णता है। तो खिले हुए फूल का स्मरण करना, ठहरे हुए तालाब का नहीं, तब खयाल में बात आ सकेगी।
दूसरी बात ईशावास्य का यह सूत्र कहता है — इंद्रियां इसे पा न सकेगी, क्योंकि यह इंद्रियों के पहले है स्वभावत:, मैं आंख से आपको देख सकता हूं मेरी आंख से आपको देख सकता हूं आप मेरी आंख के आगे हैं। लेकिन मैं मेरी आंख से अपने को नहीं देख सकता, क्योंकि मैं आंख के पीछे हूं। तो आपको देख लेता हूं क्योंकि आप मेरी आंख के आगे हैं। अपने को नहीं देख पाता अपनी ही आंख से, क्योंकि मैं आंख के पीछे हूं। अगर मेरी आंख चली जाए, मैं अंधा हो जाऊं, तो फिर मैं आपको बिलकुल न देख पाऊंगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं अपने को नहीं देख पाऊंगा। अगर आंख से मैं अंधा हो जाऊं तो उन्हीं चीजों को नहीं देख पाऊंगा, जिनको आंख से देखता था। लेकिन अपने को तो कभी आंख से देखा ही नहीं था। इसलिए अंधा होकर भी मैं अपने को तो देखता ही रहूंगा।
इसमें दो बातें खयाल में लेने की हैं। इंद्रियां उन चीजों को देखने का, जानने का माध्यम बनती हैं, जो इंद्रियों के सामने हैं। इंद्रियां उन चीजों को देखने का माध्यम नहीं बनतीं, जो इंद्रियों के पीछे हैं। पीछे के भी दोहरे अर्थ हैं। पीछे का अर्थ सिर्फ पीछे नहीं, पूर्व भी।
एक बच्चे का गर्भ निर्मित होता है, तो जीवन पहले आ जाता है, फिर इंद्रियां आती हैं। ठीक भी है। क्योंकि अगर जीवन पहले न आ गया हो, तो इंद्रियों का निर्माण कोन करेगा? जीवन तो पहले आ जाता है। आत्मा तो पहले प्रवेश कर जाती है गर्भ के अणु में। पूरी आत्मा प्रवेश कर जाती है। फिर एक—एक इंद्रिय विकसित होनी शुरू होती है। फिर शरीर निर्मित होना शुरू होता है। मां के पेट में सात महीने में इंद्रियां धीरे— धीरे खिलती हैं। नौ महीने में इंद्रियां अपना पूरा रूप ले लेती हैं। लेकिन कुछ चीजें तब भी पूरी नहीं होतीं। जैसे सेक्स इंद्रिय तो पूरी नहीं होती। उसको तो पूरा होने में मां के पेट से निकलने के बाद भी चौदह वर्ष लग जाते हैं। मस्तिष्क के बहुत से हिस्से हैं, धीरे— धीरे विकसित होते हैं, पूरे जीवन विकसित होते रहते हैं। मरता हुआ आदमी भी, मरता हुआ आदमी भी बहुत कुछ अभी विकसित कर रहा होता है।
लेकिन जीवन आ गया होता है पहले, इंद्रियां आती हैं पीछे, उपकरण आते हैं बाद में। मालिक आ जाता है पहले, नौकर बुलाए जाते हैं बाद में। स्वभावत:, नौकरों को बुलाएगा कोन? इकट्ठा कोन करेगा? तो वह मालिक नौकरों को तो जान सकता है, लेकिन ये नौकर लौटकर उस मालिक को नहीं जान सकते हैं। वह आत्मा इन इंद्रियों को तो जान सकती है, लेकिन ये इंद्रियां लौटकर उस आत्मा को नहीं जान सकती हैं। क्योंकि उसका होना इन इंद्रियों के पहले है और इतना गहरे में है, जहां इंद्रियों की कोई पहुंच नहीं है।
इंद्रियां ऊपर हैं। वे भी जीवन का आवरण हैं। इसलिए इंद्रियों से आत्मा को कोई जान नहीं सकता, कितनी ही तीव्र हो उनकी दौड़। मन भी इंद्रिय है। मन कितना तेजी से दौड़ता है! इसलिए एक पैराडाक्स इस वक्तव्य में है और वह यह है कि इतना तेज दौड़ने वाला मन भी उस आत्मा को नहीं पा पाता, जो कि ठहरी ही हुई है। इतना तेज दौड़ने वाला मन भी उसे नहीं उपलब्ध कर पाता, जो कि चलती ही नहीं है। इतना तेजी से चलने वाला मन उसे चूक जाता है। बड़ी अजीब दौड़ है! प्रतियोगिता बहुत हैरानी की है! आत्मा, जो कि ठहरी हुई है, थिर है, इस मन को उसे पा लेना चाहिए।
लेकिन अक्सर ऐसा होता है। जीवन में भी ठहरी हुई चीजों को ठहरकर पाया जा सकता है, दौड़कर नहीं पाया जा सकता। आप रास्ते से चलते हैं। किनारे पर फूल खिले हुए हैं, वे ठहरे हुए हैं। आप जितने धीमे चलते हैं, उतने ही ज्यादा उनको देख पाते हैं। खड़े हो जाते हैं तो पूरा देख पाते हैं। और जब कार से आप नब्बे मील की गति से उनके पास से निकलते हैं, तो कुछ भी पकड़ में नहीं आता। और हवाई जहाज से निकल जाते हैं, तब तो पता ही नहीं चलता है। और कल और बड़े तीव्र गति के साधन हो जाएंगे, तो फूल था भी, इसका भी पता नहीं चलेगा। दस हजार मील प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाला यान रास्ते के किनारे खड़े हुए फूल को चूक जाएगा। गति के कारण ही उसको चूक जाएगा, जो कि खड़ा हुआ था।
मन बड़ी तेजी से दौड़ता है। अभी हमारे पास कोई यान नहीं है जो उतनी तेजी से दौड़ता हो। और भगवान न करे कि किसी दिन ऐसा यान हो जाए, जो हमारे मन की तेजी से दौड़े। नहीं तो मन हमारा पीछे रह जाएगा, हम आगे निकल जाएंगे। बहुत दिक्कत होगी। बहुत कठिनाई हो जाएगी। आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। नहीं, ऐसा कभी होगा भी नहीं कि कोई यान हमारे मन से तेजी से दौड़ सके। यान चांद पर पहुंचेगा, तब तक मन मंगल की यात्रा कर रहा होगा। यान जब मंगल पर पहुंचेगा, मन तब तक और दूसरे सौ जगतों में प्रवेश कर जाएगा। मन सदा आगे दौड़ता रहता है सब यानों के। कितनी ही तेज उनकी गति हो। इतना तेजी से दौड़ने वाला मन उस ठहरी हुई आत्मा को नहीं पा सकेगा, उपनिषद कहते हैं। ठीक कहते हैं। क्योंकि जो बिलकुल ही ठहरा हुआ हो, उसे दौड़कर नहीं पाया जा सकता, उसे तो ठहरकर ही पाना पड़ेगा। अगर मन बिलकुल ठहर जाए तो ही उसको जान सकेगा, जो ठहरा हुआ है।
यह भी जान लें आप, जब मन बिलकुल ठहर जाता है तो होता ही नहीं। मन जब तक दौड़ता है तभी तक होता है। सच तो यह है कि दौड़ का नाम मन है। मन दौड़ता है, यह भाषा की गलती है। जब हम कहते हैं, मन दौड़ता है, तो भाषा की गलती हो रही है। यह गलती वैसे ही हो रही है जैसे हम कहते हैं कि बिजली चमकती है। असल में जो चमकती है उसका नाम बिजली है। बिजली चमकती है, ऐसा दो बातें कहने की कोई जरूरत नहीं है। आपने कभी न चमकने वाली बिजली देखी है? तो फिर बेकार है। असल में जो चमकता दूर उसका नाम बिजली है। मगर भाषा में दिक्कत्‍त होती है। भाषा में हम बिजली को अलग वस्र लेते हें और चमकने को अलग कर लेते हैं। फिर हम कहते हैं, देखो, बिजली चमक रही है। कहना चाहिए कि देखो जो चमक रहा है, इसको हम भाषा में बिजली कहते हैं। चमकना और बिजली एक ही चीज के दो नाम हैं।
ठीक वैसे ही भूल होती है। हम कहते हैं, मन दौड़ता है। असल में, जो दौड़ता है, उसका नाम मन है। दौड़ का नाम मन है। तो ठहरे हुए मन का कोई अर्थ नहीं होता। जैसे कि न चमकने वाली बिजली का कोई मतलब नहीं होता। कोई कहे कि बिजली इस वक्त नहीं चमक रही है, तो आप कहेंगे, है ही नहीं। क्योंकि बिजली नहीं चमक रही है, इसका कोई अर्थ नहीं होता। चमकती है तभी होती है।
मन अगर ठहर जाए, तो नहीं हो जाता है — नो माइंड। ठहरा हुआ मन अ—मन हो जाता है। कबीर ने जिसे अ—मनी अवस्था कहा है। वह ठहर जाता है तो फिर नहीं रह जाता। मन तभी तक है, जब तक दौड़ है। इसलिए आप मन को कभी भी ठहरा न पाएंगे। ठहर जाएंगे तो पाएंगे मन नहीं है। मन कभी आत्मा को न जान सकेगा। क्यौंकि, मैंने कहा, दौड़ से कभी आत्मा जानी न जा सकेगी, और मन दौड़ का ही नाम है। जिस दिन मन नहीं होता, उस दिन आत्मा जानी जाती है। मन से हम सारे जगत को जान लेंगे, सिर्फ एक आत्मतत्व अनजाना रह जाएगा। मन जब नहीं होगा तब हम आत्मतत्व को जान लेंगे।
और मन की दौड़ की अपनी तकनीक, अपनी पूरी टेक्वालाजी है। क्योंकि अकारण तो नहीं दौड़ा जा सकता, इसलिए मन कारण निर्मित करता है। उन कारणों का नाम वासनाएं, डिजायर्स हैं। मन कहता है, वह चीज पानी है। नहीं तो दौड़ेगा कैसे! अगर आगे भविष्य में कुछ पाने को न हो, कोई मंजिल न हो, तो दौड़ेगा कैसे? इसलिए रोज भविष्य में मन मंजिल तय करता है कि वह रही मंजिल, वहा तक पहुंचना है। तब दौड़ शुरू हो जाती है। इसलिए जिस मंजिल पर मन पहुंच जाता है, वह बेकार हो जाती है। क्योंकि वह तो सिर्फ बहाना था दौड़ का। इसलिए जिस मंजिल को मन पा लेता है, वह मंजिल बेकार हो जाती है, क्योंकि वह तो सिर्फ बहाना था। तब दूसरा बहाना निर्मित करता है कि ठीक है, यह तो पा लिया, अब इसमें कुछ सार नहीं। अब रही मंजिल वह — और आगे।
इसलिए मन सदा भविष्य में जीता हैं, वह कभी वर्तमान में नहीं हो सकता। जिसे दौड़ना है उसे भविष्य में ही जीना होगा। वह सदा आगे ही होगा। वह वहां नहीं होगा, जहां आप हैं। अगर वहीं होगा तो दौड़ बंद हो जाएगी। और आत्मा वहां है, जहां आप हैं। और मन वहां है, जहां आप कभी नहीं होते — सदा आगे, आलवेज इन दि फ्यूचर। और जहां पहुंच जाता है, वहीं से कह देता है, बेकार है। ठीक है, आगे चलो।
तो मन मील के उस पत्थर की तरह है जिस पर तीर हमेशा आगे बताता रहता है। लेकिन मील के पत्थर पर तो कहीं—कहीं शून्य का पत्थर भी आ जाता है। शून्य के पत्थर पर तीर नहीं होता।
इधर भी कल मैं गुजर रहा था तो एक पत्थर मुझे आबू में मिला, शून्य का पत्थर। वहां कोई तीर नहीं — न इस तरफ, न उस तरफ। हो नहीं सकता, क्योंकि शून्य का मतलब ही होता है मंजिल, उसके आर—पार कुछ नहीं होता। कहीं जाने को नहीं। जहां आप जाना चाहते थे वहां आ गए।
लेकिन मन हमेशा एरोड, तीर बताता रहता है आगे। मन की यात्रा में कभी वह पत्थर नहीं आता है जिस पर शून्य बना हो। और अगर किसी दिन वह पत्थर आ जाए तो उस जगह का नाम ध्यान है। जहां शून्य बना हो, कोई तीर न हो। और अगर कभी वैसा पत्थर आ जाए मन की यात्रा में तो वहीं आत्मा की अनुभूति है। वह शून्य की जगह जहां है। इसलिए जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है, मन से तो न जान सकोगे, लेकिन शून्य से जान सकते हो। ध्यान रहे, जब भी इस तरह के जानने वाले लोग शून्य कहते हैं, तो उनका मतलब होता है अ—मन, नो—माइंड।
मैंने कहा कि मन बहाने निर्मित करता है — कुछ पाना है। और मन की जो आखिरी तर हीब है, जब संसार की सब चीजें चुक जाती हैं और मन ऊबने लगता है; कहता है, धन भी पाया बहुत, लेकिन कुछ मिला नहीं; मकान बनाए बहुत, कुछ मिला नहीं; शरीर खरीदे बहुत, कुछ मिला नहीं; जब मन सब थक जाता है, तो वह तब भी थकता नहीं, तब भी वह तीर बनाए चला जाता है। तब भी वह यह नहीं कहता कि अब शून्य बना लो, अब मत बनाओ तीर। तब वह परलोक, स्वर्ग, मोक्ष, परमात्मा, इनके तीर बनाने शुरू कर देता है। वह कहता है, इनको पा लो। अब धन तो नहीं पाया, छोड़ो, अब धर्म पा लें। लेकिन पाएं जरूर! कुछ पाते जरूर रहें! बिकमिंग जारी रहे। कुछ पाने की यात्रा जारी रहे तो मन फिर जारी रहेगा।
ध्यान रहे, धार्मिक आदमी वह नहीं है जो परमात्मा को पाना चाहता है। क्योंकि जब तक कोई कुछ भी पाना चाहता है, तब तक मन जारी रहेगा। धार्मिक आदमी वह है, जो इस सत्य को पहचान गया है कि पाने की दौड़ ही मन है, इसलिए अब हम नहीं पाते। अब हम न पाने को खड़े हो जाते हैं। अब परमात्मा भी हमसे कहे कि दो कदम चलकर आ जाओ, मैं यहां हूं तो अब हम जाते नहीं। अब हम शून्य के पत्थर पर खड़े हो गए। अब हमारी कोई यात्रा नहीं।
और बड़े मजे की बात है कि जो खड़ा हो जाता है उसको परमात्मा मिल जाता है। क्योंकि वह खड़ा हुआ है। जो परमात्मा को पाने के लिए भी दौड़ता है, उसको भी परमात्मा नहीं मिलता है। क्योंकि दौड़ मन की है, मन से कोई आत्मतत्व उपलब्ध नहीं होने वाला है।
मन दौड़ता है वासनाएं निर्मित करके। धार्मिक वासनाएं भी निर्मित हो जाती हैं। मोक्ष की भी वासना बन जाती है। इसलिए बुद्ध जैसे समझदार व्यक्ति को कहना पड़ता है, कोई मोक्ष नहीं है। इसलिए नहीं कि मोक्ष नहीं है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को कहना पड़ता है, कोई परमात्मा नहीं है। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है। बल्कि इसलिए कि तुम्हारे मन के लिए अब और बहाने आगे न मिलें। संसार से तो तुम ऊब जाओगे, फिर तुम ये नए बहाने बना लोगे कि छोड़ दूं कोई नहीं है। बुद्ध तो इतना दूर तक जाते हैं, वे कहते हैं, कोई आत्मा भी नहीं है। नहीं तो तुम आत्मा को ही पाने में लग जाओगे। मन इतना कुशल है कि वह कहेगा, चलो, कुछ नहीं तो आत्मा तो है, तो आत्मा को ही पा लें। लेकिन पाएं जरूर, दौड़े जरूर। नहीं दौड़े घर की तरफ तो मंदिर की तरफ दौड़े, लेकिन दौड़े जरूर। नहीं पदार्थ की तरफ तो प्रभु की तरफ, लेकिन दौड़े जरूर।
लेकिन पहुंचते हैं वे जो खड़े हो जाते हैं, इस सूत्र में यही कहा है।
इंद्रियों के पीछे है वह, मन के पार है वह। इंद्रियों और मन से उसे नहीं पा सकेंगे। तो क्या करेंगे? अगर इंद्रियों के पार है तो इंद्रियों का भरोसा छोड़ दें उसे पाने में। अगर मन के पार है तो मन की दौड़ के आधार तोड़ दें उसे पाने के। मन की दौड़ के आधार तोड़ दें, इंद्रियों का भरोसा छोड़ दें।
वही मैं आपसे कह रहा हूं। अगर आपसे कहता हूं आंख बंद कर लें, तो असल में एक भरोसा तोड़ने को कह रहा हूं। कह रहा हूं कि आंख से बहुत देखा, वह दिखाई नहीं पड़ा। जन्म—जन्म देखा, वह दिखाई नहीं पड़ा। अब आंख बंद करके देखें। कानों से बहुत सुनना चाही उसकी आवाज, वह सुनाई नहीं पड़ी। बहुत सुनना चाहा उसका संगीत, नहीं, कान उसे नहीं पकड़ पाया। अब कान बंद कर लें। सोचा—विचारा बहुत, उसका कोई सूत्र हाथ न लगा। बहुत मन को थका डाला, बहुत चितना की, बहुत विचारणा की; बहुत दर्शन, बहुत धर्म, बहुत शास्त्र खोजे; बहुत शब्द, बहुत सिद्धात निर्मित किए; नहीं, उसकी कोई खोज—खबर न मिली। अब छोड़ दें। अब सोचना छोड़ दें। अब जरा अन—सोचे में चले जाएं, नो—थिकिंग में चले जाएं। वहां शायद वह मिल जाए।
शायद कहता हूं आपके लिए। मिल ही जाता है वहां। मिल ही जाता है वहा। लेकिन आपके लिए शायद कहता हूं। क्योंकि जब तक नहीं मिला है, तब तक भरोसा कर लेना पक्का कि मिल ही जाएगा भी खतरनाक है। क्योंकि कई बार ऐसे भरोसे रुकावट का कारण बन जाते हैं। वे कहते हैं, बस ठीक है, मिल ही जाएगा, मिल ही जाता है। जाने की भी, उस दिशा में आंख उठाने की भी, दूसरी दिशा से मुड़ने की भी स्मृति नहीं रह जाती। सिद्धांत ही सिद्धि बन जाते हैं। इसलिए कहता हूं — शायद। प्रयोग कर सकें, इसलिए कहता हूं — परहेप्स। प्रयोगात्मक हो सकें, इसलिए कहता हूं — शायद। मिल ही जाता है, लेकिन प्रयोग के बाद।
इंद्रियों को, इंद्रियों के सहारे को छोड़ देना पड़ता है। मन को, मन की दौड़ को, गति को छोड़ देना पड़ता है। ऐसा जो आत्मतत्व है, जो सदा उपलब्ध हमारे पास, लेकिन जिसे हम ही बड़ी व्यवस्था से चूकते चले जाते हैं। जिसे हमने कभी नहीं खोया, सिर्फ विस्मरण करते हैं। लेकिन उसके विस्मरण में सारा जीवन अंधकार हो जाता है। और उसके विस्मरण में सारा जीवन नरक हो जाता है। और उसके विस्मरण में जीवन में सिवाय कांटों के कोई फूल नहीं खिलता। और उसके विस्मरण में जीवन एक रेगिस्तान हो जाता है, जहां कोई सरिता नहीं बहती, कोई रस की धारा नहीं बहती। सब सूख जाता है।
ऐसा ही हमारा जीवन है, रेगिस्तान की तरह। कितना ही खोदते हैं, रेत ही हाथ आती है, कहीं कोई जलस्रोत नहीं दिखाई पड़ते। कितना ही चलते हैं, कहीं कोई छाया नहीं मिलती, कहीं कोई विश्राम दिखाई नहीं पड़ता, कहीं कोई विराम नहीं मालूम पड़ता।
उस आत्मतत्व की छाया को पाए बिना कोई विश्राम नहीं है। और उस आत्मतत्व को पाए बिना जीवन में कोई ओएसिस, कोई मरूद्यान नहीं है। और उस आत्मतत्व को पाए बिना जीवन में कभी कोई रस की धारा नहीं बही, न बहेगी। वही है सब। लेकिन पत्तों से जो अटक गए, वे जड़ों तक नहीं पहुंच पाते। माना कि पत्ते जड़ों से ही आते हैं, फिर भी पत्तों से जो अटक गए, वे जड़ों तक नहीं पहुंच पाते। पत्तों को छोड़े, नीचे गहरे उतरें — भीतर जाएं, पार, ट्रांसेन्देंटल, भावातीत, इंद्रियातीत, विचारातीत — पीछे और पीछे सरकते जाएं। उस जगह पहुंच जाना है जहां शून्य का पत्थर आ जाता है। वह सबके भीतर है। उस शून्य को हम सब लेकर घूम रहे हैं। नहीं तो घूम न पाते। जैसा मैंने कहा, अगर वह शून्य भीतर न हो, वह थिर पूर्ण भीतर न हो, तो यह सारी परिवर्तन की धारा, यह इतना बड़ा चक्रजाल चल नहीं सकता। यह जो हम अंधड़ की तरह, आधी की तरह दौड़ रहे हैं, यह जो बवंडर की तरह घूम रहे हैं, यह सब उस शून्य के ऊपर।
आखिरी बात इस संबंध में और कह दूं। शून्य और पूर्ण एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। उपनिषद पूर्ण की भाषा पसंद करते हैं। उपनिषद जब पैदा हुए, जब ये उपनिषद के सूत्र कहे गए, तब आदमी पूर्ण की भाषा समझने में समर्थ था। पूर्ण की भाषा का अर्थ है, पाजिटिव लैग्वेज। शून्‍य की भाषा का अर्थ है, निगेटिव लैग्वेज। पूर्ण की भाषा समझने के लिए बच्चों जैसा हृदय चाहिए। पूर्ण की भाषा के नहीं समझ पाते। और आदमी रोज बचपन के बाहर होता चला गया है, प्रौढ़ होता गया है। जिन दिनों इस सूत्र का जन्म हुआ होगा, उस दिन आदमी बच्चों की तरह थे, पूर्ण की भाषा समझते थे।
कभी आपने बच्चों को अध्ययन किया हो, छोटे बच्चों को, तो आपको खयाल होगा। एक बच्चा रास्ते में चलते बड़ी जिज्ञासाएं उठाता है। सभी बच्चे उठाते हैं। बड़े कठिन सवाल उठाते हैं। लेकिन आप सरल सा जवाब दे देते हैं और वे प्रसन्न होकर शांत हो जाते हैं। सवाल बड़े कठिन उठाते हैं, जिनके जवाब बूढ़ों के पास भी नहीं हैं। छोटा सा बच्चा पूछता है, नया बच्चा घर में आ गया है, वह पूछता है, कहां से आ गया है? कठिन सवाल है। अभी बूढ़ों के पास भी ठीक—ठीक जवाब नहीं है। जो ये कहते हैं, जन्मशास्त्री जो हैं, उनके पास भी ठीक—ठीक जवाब नहीं है। वे भी कहते हैं, अभी हम टटोलते हैं। कहां से आता है, अभी ठीक पक्का पता नहीं है। जहां तक हम पहुंचते हैं वहां तक हम कहते हैं, लेकिन वहां से भी पार से आता है जीवन, अभी कुछ पक्का नहीं है।
तो जो जिंदगीभर लगाए हैं इसी खोज में कि बच्चा कहां से आता है, उनको भी पता नहीं है। जो बच्चे पैदा करते हैं, उनको तो बिलकुल ही पता नहीं है, क्योंकि पैदा करने के लिए पता होने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भ्रम पैदा हो जाता है कि बाप, सात बच्चों का बाप है, तो उसको तो मालूम होना ही चाहिए कि बच्चा कहां से आता है। उस भ्रम में वह भी जीता है। तो जवाब तो वह देगा। लेकिन कभी छोटे बच्चे की वृत्ति को देखें। वह इतना कठिन सवाल पूछता है कि बच्चे कहां से आते हैं? जिसका अभी विज्ञान के पास उत्तर नहीं है। और मेरे देखे कभी भी नहीं हो सकेगा। लेकिन आप कह देते हैं कि कोवा देखा है? वह ले आता है। ले आता होगा। बच्चा खेलने जा चुका। बात खतम हो गयी। भरोसा कर लिया उसने।
अभी पाजिटिव माइंड है, अभी विधायक मन है। अभी अस्वीकार की बात नहीं उठती। अभी संदेह नहीं जागता। अभी वह यह नहीं कहता कि कोवा कैसे ला सकता है! कहां से लाएगा? अभी वह यह नहीं पूछता। कल पूछेगा। एक वक्त आएगा, तब यह कोवे वाला उत्तर काम नहीं करेगा। तब वह सवाल उठाने शुरू करेगा। तब निगेटिव माइंड पैदा होगा।
एक युग था कि सारी दुनिया, सारी पृथ्वी, सारी मनुष्य जाति बच्चों की तरह थी — इनोसेट, सरल, जो बात कही जाती थी वह मान ली जाती थी। इसलिए जितने पुराने ग्रंथ में जाएंगे, उतनी ही हैरानी होगी। हैरानी होगी कि न कोई तर्क है, न कोई युक्ति है, सीधा वक्तव्य है, प्योर स्टेटमेंट।
ऋषि के पास कोई जाता है, वह पूछता है कि मन अशांत है, मैं क्या करूं? वह कहता है कि तू राम का नाम ले। वह आदमी कहता है, ठीक है। वह चला जाता है। वह यह भी नहीं पूछता कि कैसे होगा? राम के नाम से क्या होगा? कुछ नहीं पूछता।
ध्यान रहे, राम के नाम से कुछ नहीं होता। उसके इस चित्त की अवस्था में अगर उस ऋषि ने कहा होता कि तू पत्थर—पत्थर कह, तो उससे भी हो जाता। पत्थर से नहीं हो जाता, न राम के नाम से हो जाता, यह चित्त की जो पाजिटिव स्थिति है, यह जो स्वीकार का सरल 'गांव है, यह जो इनकार उठता ही नहीं है, यह जो संदेह जन्मता ही नहीं है, इससे हो जाता ओर। इसलिए वह कह देता है कि जा तू राम का नाम ले लेना, सब ठीक हो जाएगा। वह घर जाकर राम का नाम ले लेता है और सब ठीक हो जाता है।
ध्यान रखना लेकिन, मैं आपसे कह रहा हूं कि राम के नाम से नहीं हो जाता है। वह सो जाता है उस चित्त की पाजिटिव स्टेट, वह विधायक मनोदशा! इस ऋषि ने कह दिया होता कि यह ताबीज ले जा। राख उठाकर दे दी होती और कह दिया होता कि जा इसको पी जाना। वह पी जाता और उससे भी हो जाता। किसी भी चीज से हो जाता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। सवाल है, पीछे विधायक मनोदशा है? तो हो जाएगा।
लेकिन नहीं रही है विधायक मनोदशा। महावीर और बुद्ध के समय आते—आते विधायक दशा समाप्त हो गई थी। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों को निषेध की भाषा का उपयोग करना पड़ा। महावीर ने थोड़ी सी निषेध का उपयोग किया, कहा कि कोई परमात्मा नहीं है। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं था। इसलिए कि अब वह आदमी नहीं था कि जिससे कह दो परमात्मा है, और जो नाचने लगे। जो यह न पूछे कि कहां? जिससे कह दो कि परमात्मा है, और जो नाचने लगे उसकी धुन में और कहे कि है। फिर हो जाएगा, फिर खुल जाएगा दरवाजा। इतने सरल मन के लिए कोई दरवाजा नहीं रुक सकता '
लेकिन अब वह आदमी नहीं था महावीर के सामने जिससे कहो कि परमात्मा है और वह नाचने लगे। किसी से कहो, परमात्मा है, तो वह दस सवाल लेकर आने लगा था। तो महावीर ने कहा, परमात्मा नहीं है। जो परमात्मा सवाल उठाने लगे — परमात्मा तो उत्तर है, सवाल उठाने लगे — तो बेकार हो गया। वह तो आन्सर था। अगर उससे सवाल उठने लगें तो उसका कोई मतलब नहीं रहा। वह तो उत्तर था पुराने ऋषि का। कोई आता था कि क्या है? वह कहता था, परमात्मा है। वह चला जाता था। वह उत्तर था। महावीर के वक्त लोग पूछने लगे, कैसा ईश्वर? कहां है, कितने उसके सिर हैं, कितने उसके हाथ हैं? कैसे पैदा हुआ, कहां से आया, कहां मिलेगा? क्या पक्का है, क्या भरोसा है? तो महावीर ने कहा, वह है ही नहीं। वह उत्तर बेकार हो गया।
जिस उत्तर से प्रश्न उठने लगें वह उत्तर बेकार है। उत्तर का तो मतलब है, जिसमें प्रश्न समाहित हो जाएं। जिस पर जाकर प्रश्न गिर जाएं। परमात्मा परम उत्तर था। तो महावीर को छोड़ देना पड़ा।
बुद्ध को एक कदम और आगे बढ़ना पड़ा। महावीर ने आत्मा से काम चला लिया। लेकिन कितनी तीव्रता से अंतर हुआ! महावीर और बुद्ध की उम्र में ज्यादा फासला नहीं था, केवल तीस साल का फासला था। लेकिन बुद्ध को कहना पड़ा, आत्मा भी नहीं है। महावीर ने कहा, कोई परमात्मा नहीं है, आत्मा है। बुद्ध को कहना पड़ा, आत्मा भी नहीं है। क्योंकि बुद्ध के वक्त लोग पूछने लगे, आत्मा यानी क्या? वह भी उत्तर न रहा। बुद्ध ने कहा, शून्य है।
ध्यान रहे, शून्य के संबंध में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। क्योंकि शून्य का मतलब ही होता है, जो नहीं है। अब उसके बाबत प्रश्न क्या उठाइएगा! शून्य के संबंध में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता, अन—केश्चनेबल है। अगर उठाते हैं आप प्रश्न, तो आप समझे नहीं। शून्य का मतलब ही है, जो नहीं है। अब आप और क्या सवाल उठा रहे हैं? हम खुद ही कह रहे हैं कि नहीं है। बुद्ध ने कहा, शून्य। तुम इस शून्य में ही लीन हो जाओ। भाषा बदल गयी। लेकिन मैं आपसे कहता हूं शून्य और पूर्ण एक ही चीज है। पूर्ण विधायक चित्त का उत्तर है, शून्य निषेध चित्त का उत्तर है।
और यह भी बड़े मजे की बात है कि इस हमारे जगत में शून्य के अतिरिक्त और हमें किसी पूर्ण का अनुभव नहीं है। इसलिए शून्य का जो प्रतीक हमने बनाया है, सर्किल, वर्तुल, वह मनुष्य के द्वारा खींची गई पूर्णतम आकृति है। वर्तुल जो है, सर्किल जो है, वह मनुष्य के द्वारा खींची गई पूर्णतम आकृति है। और कोई आकृति पूर्ण नहीं है। और यह भी मजे की बात है कि शून्य की आकृति सबसे पहले भारत में खींची गयी। गणित के कारण नहीं, वेदांत के कारण। गणित के कारण नहीं। शून्य की पहली आकृति भारत में खींची गई। नौ तक की संख्या भारत में निर्मित हुई।
लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि एक, दो, तीन या नौ सभी अपूर्ण हैं। उनमें से कुछ जोड़ा जा सकता है। एक में और एक जोड़ा जा सकता है। जिसमें कुछ जोड़ा जा सकता है, वह पूर्ण नहीं है। क्योंकि जोड़ने से वह ज्यादा हो जाता है। उनमें से कुछ घटाया जा सकता है। क्योंकि जिसमें से कुछ घटाया जा सकता है और पीछे घट जाता है, वह पूर्ण नहीं है। शून्य में आप न कुछ जोड़ सकते, न कुछ घटा सकते, वह पूर्ण है। शून्य में से आप कुछ घटा नहीं सकते। कैसे घटाइएगा? वहां कुछ है ही नहीं जिसमें से आप घटा लें। शून्य में आप कुछ जोड़ नहीं सकते। कैसे जोडिएगा?
शून्य पूर्ण की प्रतिकृति है। ज्यामेट्रिकल, वह ज्यामिति में पूर्ण का प्रतिरूप है। यह जो शून्य पूर्ण का प्रतिरूप है, इसे हम अपने भीतर लिए चलते हैं। अगर आपको पूर्ण से समझ में आता हो, तो ठीक। अगर पूर्ण से समझ में न आता हो, तो शून्य से समझ लें। अंतिम परिणाम में कोई अंतर न पड़ेगा। आपकी मनोदशा के लिए दो यात्राएं हो जाती हैं। अगर आपको लगता है कि पूर्ण से मेरी समझ में आएगा, अगर आपकी चित्तदशा विधायक है, तो नाचे, गाएं, आनंद में मग्न हो जाएं। अगर आपको लगता है कि मेरी विधायक दशा नहीं है चित्त की, सवाल उठते हैं, तो शांत हों, शून्य हों, मौन हों, शून्य में खो जाएं। अगर आपको लगता है, निषेध का मन है, निगेट का मन है, तो शून्य में खो जाएं। अंतिम फलश्रुति एक ही हो जाएगी। शून्य से भी नृत्य आ जाएगा। लेकिन वह शून्य होने से आएगा। नृत्य से भी शून्य आ जाएगा, लेकिन वह नृत्य से आएगा।
पूर्ण की जिसकी भावदशा है, वह नाचेगा पहले, गाएगा पहले, कीर्तन करेगा, शून्य हो जाएगा। नाचते—नाचते उसके नृत्य की ध्वनि के बीच में जब नृत्य तीव्र होगा, गतिमान होगा, नृत्य ही बचेगा, जब नृत्य एक बवंडर बन जाएगा, तभी उसे भीतर के शून्य का अनुभव होने लगेगा। पीछे कोई खड़ा हुआ मालूम होने लगेगा। शरीर नाचता रहेगा, भीतर शून्य आत्मा खडी हुई रहेगी। कील दिखाई पड़ने लगेगी घूमते हुए चक्र के साथ। और ध्यान रहे, चाक अगर खड़ा हो तो कील को पहचानना मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि दोनों ही खड़े होंगे। चाक अगर खड़ा हो तो कोन कील है, कोन चाक है, पहचानना मुश्किल होगा। चाक चल पड़े तो कील को पहचानना आसान पड़ जाएगा, क्योंकि वह नहीं चलेगी और चाक चलेगा।
पूर्ण के भाव में आनंदमग्न होकर कोई —चैतन्य, कोई मीरा नाचती है। नाचते—नाचते चाक पूरा घूमने लगता है, भीतर की कील खड़ी अलग मालूम पड़ने लगती है। शून्य हो गया।
कोई शून्य हो जाए, शून्य से शुरू करे, तो फिर भीतर शून्य होता चला जाए। जब भीतर सब शून्य हो जाता है तब बाहर का चाक दिखाई पड़ने लगता है जो चल रहा है — विचार चल रहे हैं, संसार चल रहा है।
कहीं से भी यात्रा हो सकती है। दो ही यात्रा के छोर हैं। इस आत्मतत्व को या तो पूर्ण होकर या शून्य होकर जाना जा सकता है। न तो इंद्रियां पूर्ण तक ले जा सकती हैं, न शून्य तक ले जा सकती हैं। न मन पूर्ण तक ले जा सकता है, न मन शून्य तक ले जा सकता है। एक सूत्र और ले लें।

तदेजति तनैजति तद्दूरे तद्वतिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।। 5।।

वह आत्मतत्व चलता है और नहीं भी चलता। वह दूर है और समीप
भी है। वह सब के अंतर्गत है और वही इस सब के बाहर भी है।। 5।।

नहीं चलता वह आत्मतत्व, फिर भी वही चलता है। निकट है वह आत्मतत्व, निकट से भी निकटतम, फिर भी दूर है। भीतर है वह आत्मतत्व, अंतरात्मा है वह, फिर भी वही बाहर विस्तीर्ण है।
यह सूत्र, मनुष्य के इतिहास में जो भी महावचन कहे गए हैं, उनमें से एक है। बहुत सरल और बहुत गहन। जीवन के जितने भी सरल सत्य हैं, उनसे ज्यादा गहन कोई सत्य नहीं होता। और जो बहुत साफ—साफ मालूम पड़ता है, वही रहस्य है। और उस रहस्य को प्रगट करने के लिए सदा ही पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। अब अगर कोई तर्कशास्त्री इसको पढ़े तो कहेगा कि एकदम गलत।
आर्थर कोएसलर ने, जो कि पश्चिम के आज के एक बड़े विचारक हैं, उन्होंने पूरब की इस तरह की दृष्टियों की बड़ी मखौल उडाई है, बड़ी मजाक उड़ाई है। एब्सर्ड हैं। इससे ज्यादा और अर्थहीन वक्तव्य क्या होगा कि वह आत्मतत्व पास से भी पास और दूर से भी दूर है! दिमाग ठीक है आपका? क्योंकि जो पास है वह पास ही हो सकता है, वह दूर कैसे होगा? वह आत्मतत्व ठहरा हुआ और चलता हुआ भी! तो ऐसी बातें मत कहिए, क्योंकि ऐसी बातें अर्थहीन हैं, इनमें कुछ भी तो अर्थ नहीं है। वही भीतर, वही बाहर भी फैला हुआ है! तो फिर बाहर और भीतर में फर्क क्या है? अगर वह भीतर है तो बाहर कैसे हो सकेगा?
और अगर बाहर है तो भीतर कैसे हो सकेगा? दूर है तो कृपा करके कहिए कि दूर है, फिर पास मत कहिए। और अगर पास कहते हैं तो कृपा करके दूर कहना छोड दीजिए।
कोएसलर कहेगा और आपका मन भी राजी होगा कोएसलर से, अगर ईमानदार हैं तो बराबर राजी होगा। कोएसलर ईमानदार आदमियों में से एक है। और मैं मानता हूं कि ईमानदार होना बेहतर है, उससे रास्ते खुल सकते हैं। कोएसलर कहता है कि मेरे लिए इस तरह के वक्तव्य इल्लाजिकल, पागलखानों में निकले हुए वक्तव्य हैं। कोई पागल इस तरह की बात कहे तो माफ किया जा सकता है। ऊपर से तो हमें भी लगेगा।
लेकिन कोएसलर को पता नहीं है कि इधर दस वर्षों नें विज्ञान भी इसी हालत में पहुंच गया है। और इसी तरह के वक्तव्य देने लगा है। आइंस्टीन भी इस तरह के वक्तव्य देता है। छोड़े, ऋषि पागल हो सकते हैं। ऋषियों का दावा भी नहीं है कि वे पागल नहीं हैं। क्योंकि इस जगत में, पागल नहीं हैं, ऐसे दावे सिवाय पागलों के और कोई नहीं करता है। ऋषि इतने बुद्धिमान हैं कि पागल होने के लिए भी राजी हो सकते हैं। जो परम बुद्धि को उपलब्ध होते हैं वे परम अज्ञानी होने के लिए तैयारी दिखा पाते हैं।
कल मैं किसी से कह रहा था कि टु क्लेम विजडम इज दि ओनली स्टुपिडिटी — बुद्धिमत्ता का दावा करना एकमात्र मूढ़ता है। मूढ़ों के अतिरिक्त बुद्धिमान होने का दावा किसी ने किया नहीं। बुद्धिमान तो, जितने बुद्धिमान हुए हैं, उन्होंने कहा, हम महामूढ़ हैं। हमें कुछ भी पता नहीं। इतना ही पता है कि कुछ भी पता नहीं है। जितना जाना, उतना ही पता चला कि अज्ञान गहन है। जितना जाना, उतना ही जानने के सब द्वार—दीवार गिर गए।
लेकिन आइंस्टीन को तो कोएसलर भी नहीं कह सकता कि पागल है। लेकिन अभी पिछले दस वर्षों में ऐसी कठिनाई आ गयी जैसी कठिनाई उपनिषद को आ गई थी। जब भी कोई विचार, कोई खोज परम रहस्य को छुएगी, तभी यह उपद्रव आ जाएगा। जब उपनिषद का ऋषि इस परम रहस्य पर पहुंच गया, आखिरी आत्मतत्व पर, तब उसको पैराडाक्सिकल लैंग्वेज, विरोधी भाषा का उपयोग करना पड़ा। एक ही साथ कहा कि दूर है और पास भी। और बड़ी जल्दी से कहा कि कहीं ऐसा न हो कि आप समझ जाएं कि दूर है। कहा कि पास है और तत्काल शीघ्रता से कहा कि दूर भी, कहीं ऐसा न हो कि आप समझ जाएं कि पास है। जो कहा उसको दूसरे वक्तव्य में फौरन खंडित किया। अभी विज्ञान भी परम तत्व के बहुत निकट घूमने लगा है। पदार्थ के मामले में वह भी परम के पास पहुंच गया है। और कठिनाई आ गई।
जब पहली दफा इलेक्ट्रान का आविष्कार हुआ तो वैज्ञानिक कठिनाई में पड़ गए। कोई शब्द न मिला, किससे उसे कहें। आदमी के पास सब शब्द हैं, पर इलेक्ट्रान को क्या कहें? एक बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई कि उसको कण कहें कि तरंग? कण और तरंग निश्चित ही अलग—अलग और विपरीत चीजें हैं। कण तरंग नहीं हो सकता है। कण का मतलब ही हुआ, जो ठहरा हुआ है। और तरंग का मतलब है, जो गतिमान है, वेब। अगर तरंग ठहर जाए तो तरंग नहीं है। तरंग का मतलब ही है जो तर रही है, तैर रही है, बही जा रही है, हुई जा रही है, बनी जा रही है, मिटी जा रही है — प्रोसेस। तरंग है एक प्रोसेस, एक प्रक्रिया। और कण? कण है एक स्थिति। प्रोसेस नहीं, स्टेट।
इलेक्ट्रान को क्या कहा जाए, यह मुश्किल खड़ी हो गई कि वह कण है कि तरंग। क्योंकि वह दोनों तरह का व्यवहार करता है एक साथ। दो वैज्ञानिक उसका अध्ययन कर रहे हैं। और एक वैज्ञानिक कहता है कि मुझे तरंग मालूम पड़ती है, एक वैज्ञानिक कहता है, मुझे कण मालूम होता है। एक साथ। एक साथ एक वैज्ञानिक कहता है, क्षणभर को कण मालूम होता है, क्षणभर को तरंग मालूम होता है। दोनों हैं, एक साथ। तो बहुत कठिनाई हो गई। ऐसा कोई शब्द दुनिया की किसी भाषा में न था कि उसे क्या कहें। कण भी, तरंग भी। तो एक नया शब्द क्वांटा उनको खोजना पड़ा। क्वांटा का मतलब होता है, बोथ, दोनों; तरंग भी, कण भी।
पागल हैं — कोएसलर को कहना चाहिए — ये सब आइंस्टीन और पलांक, ये सब पागल हैं। आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि आप क्या कह रहे हैं! यह कैसे हो सकता है कि कण और तरंग दोनों? आइंस्टीन ने कहा, हो सकता है कि नहीं हो सकता है, यह निर्णय मैं कैसे करूं? ऐसा है। हो सकता है कि नहीं हो सकता है, यह मैं कोन कहने वाला? इतना ही मैं खबर देता हूं कि ऐसा है। उस पूछने वाले आदमी ने कहा, यह तो हमारे सारे तर्क के नियमों को तोड़ देता है। यह तो अरस्तू का जो सारा तर्क है, वह सब खंडित होता है। तो आइंस्टीन ने कहा, मैं क्या करूं? अगर तथ्य के सामने तर्क टूटता हो तो तर्क को ही टूटना पड़ेगा। तथ्य टूटने को राजी नहीं है। आप अपने तर्क को बदल लें। तथ्य तो यही है। अरस्तू गलत हों, इलेक्ट्रान अरस्तू को सही करने के लिए कण होने को राजी नहीं है। अरस्तू को सही करने के लिए इलेक्ट्रान सिर्फ तरंग होने को राजी नहीं है, वह दोनों है। वह अरस्तू की उसे फिक्र ही नहीं है।
अरस्तू का तर्क कहता है कि विपरीत चीजें एक साथ नहीं हो सकती हैं। ठीक कहता है। एक आदमी जिंदा और मरा हुआ एक साथ कैसे हो सकता है? लेकिन जो गहरे रहस्य को जानते हैं, वे कहते हैं, जिंदगी और मौत एक ही आदमी के दो पैर हैं, बाएं और दाएं। एक ही साथ आदमी जिंदा है और मर रहा है। आप जब जिंदा हैं तब मर भी रहे हैं। नहीं तो एक दिन मर नहीं पाएंगे। मरना कोई आकस्मिक घटना नहीं है कि सत्तर साल में एक क्षण आया और आप मर गए। जिस दिन आप जन्मे उसी दिन से मर रहे हैं। इधर जिंदगी चल रही है, इधर मौत भी चल रही है। सत्तर साल में मुकाम आ जाता है।
यह बड़े मजे की बात है, मरा हुआ आदमी मर सकता है? नहीं मर सकता। जिंदा आदमी चाहिए मरने के लिए। मेरा मतलब समझे आप। यानी मरने के लिए जिंदा होना बिलकुल जरूरी है, अनिवार्य है। यह शर्त ढीली नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं हो सकता कि एक आदमी को हम कहें कि कोई हर्जा नहीं, तुम अगर जिंदा नहीं हो तो भी मर सकते हो। नहीं मर सकते।
अब यह तो बड़ी उलटी बात हो गयी। मरने के लिए जिंदा होना अनिवार्य शर्त है। तो फिर जिंदा होने के लिए मरना अनिवार्य शर्त है। जो आदमी इसी वक्त मर नहीं रहा है, वह जिंदा भी नहीं है। मरना और जिंदगी एक ही प्रक्रिया के नाम हैं। एक साथ हम मर भी रहे हैं और हो भी रहे हैं। हम मिट भी रहे हैं और बन भी रहे हैं।
अरस्‍तू कहता है, अँधेरा-अँधेरा है, प्रकाश—प्रकाश है। अँधेरा और प्रकाश कभी एक नहीं हो सकते। साधारणत: ठीक दिखाई पड़ता है। लेकिन कोई प्रकाश नहीं है। और कोई प्रकाश ऐसा नहीं है, जहां अंधेरा नहीं है। और विज्ञान तो कहता है कि अंधेरा कम प्रकाश का नाम है। और प्रकाश कम अंधेरे का नाम है। इससे ज्यादा फर्क हम नहीं कर सकते। डिग्रीज का अंतर है। अंधेरा और प्रकाश दो चीजें नहीं हैं। एक ही चीज के डिग्रीज के फासले हैं। जैसे कि गर्मी और सर्दी दो चीजें नहीं हैं।
कभी ऐसा करें, तो यह उपनिषद का सूत्र बड़ी अच्छी तरह समझ में आ जाएगा। एक हाथ को स्टोव पर रखकर थोड़ा गरम कर लें और एक हाथ को बर्फ पर रखकर थोड़ा ठंडा कर लें। और फिर दोनों हाथ को एक बाल्टी में, पानी भरा हो, उसमें डाल दें। और फिर पूछें कि पानी ठंडा है या गरम? तो एक हाथ खबर देगा कि ठंडा है और एक हाथ खबर देगा कि गरम है। तब आपको कहना पड़ेगा, ठंडा भी है, और कहीं भूल न हो जाए, फौरन कहना पड़ेगा, गरम भी है। विपरीत वक्तव्य देने पड़ेंगे। एब्सर्ड हो जाएंगे। कोएसलर ठीक कहता है। लेकिन अब क्या किया जा सकता है! पानी ठंडा और गरम नहीं होता। आपके हाथ और पानी के बीच जो संबंध निर्मित होता है उससे डिग्री का पता चलता है और कुछ पता नहीं चलता।
यह उपनिषद कहता है, आत्मा निकट भी है और दूर भी। निकट तो इसलिए कहता है कि पत्ते कितने ही दूर हों, जड़ के सदा निकट हैं। जड़ से जुड़े हैं, नहीं तो पत्ते हो नहीं सकते। रस तो जड़ से ही आता है। अगर हम ठीक से समझें तो पत्ता जड़ का ही फैला हुआ हाथ है — अगर ठीक से समझें — एक्सटेंशन है, जड़ ही फैलकर पत्ता बन गई है। कहीं भी तो बीच में डिसकंटीन्यूटी नहीं है, कहीं भी तो बीच में कोई व्यवधान नहीं पड़ा है। कहीं तो ऐसी जगह नहीं है, जहां आप कह दें, जड़ खतम हुई और पत्ता शुरू हुआ। बीच में कोई गैप नहीं है। जुड़ा है सब। इधर जड़ है, उस कोने पर पता है, इस कोने पर जड़ है। आपके पैर की अंगुली और आपके सिर के बाल कहीं भी तो टूटे हुए नहीं हैं। जुड़े हैं, एक हैं। एक ही चीज के दो छोर हैं।
तो जड़ निकटतम है पत्ते के। उसी से तो सारा जीवन मिलता है, सारा रस मिलता है दूर हो कैसे सकते हैं? फिर भी दूर हैं। बहुत दूर हैं। और पत्ते को अगर जड़ को जानना हो तो बड़ी लंबी यात्रा करनी पड़ेगी।
दूर क्यों है? दूर इसलिए कि पत्ते को पता ही नहीं चलता कि जड़ है भी। सूरज भी पत्ते को पास मालूम पड़ता होगा। बहुत दूर है सूरज, दस करोड़ मील का फासला है। लेकिन पत्ते को सूरज भी पास मालूम पड़ता होगा। और जब सुबह सूरज निकलता है, तो पत्ता नाच उठता है। सूरज का रोज पता चलता है, जो दस करोड़ मील दूर है; और जड़ का कभी पता नहीं चलता, जो नीचे छिपी है, उसका ही हिस्सा है। सूरज पास है बहुत, जड़ बहुत दूर है। तत्काल कहना पड़ेगा, लेकिन नहीं, पास है बहुत।
आत्मतत्व पास है बहुत, क्योंकि उसके बिना हम हो नहीं सकते। और दूर भी है बहुत, क्योंकि कितने जन्मों से हम उसे खोज रहे हैं, उसका हमें कोई पता नहीं है। इसलिए, इसलिए कहते हैं, नहीं चलता, बिलकुल नहीं चलता, फिर भी सारा चलना उस पर ही खड़ा है, इसलिए चलता है। कील चलती नहीं, चाक चलता है, फिर भी यात्रा तो कील की भी हो जाती है। कील नहीं चलती, चाक चलता है। निकल पड़े आप गाड़ी पर बैठकर यात्रा करने। कील बिलकुल नहीं चलेगी, इंचभर नहीं चलेगी, चलेगा चाक। लेकिन जब दस मील बाद आप ठहरेंगे तो कील की भी यात्रा तो दस मील की हो चुकी, और चली इंचभर नहीं, और दस मील की यात्रा हो गई। पागलपन होगा। पर हुआ यही है। अब तथ्य को क्या करें?
अरस्तू गलत हो तो हो, तथ्य गलत नहीं होते। कील बिलकुल नहीं चली और फिर भी दस मील की यात्रा हो गई। आत्मा एक क्षण भी नहीं चली, हिली भी नहीं, और कितने जन्मों की यात्रा है, कितनी अनंत यात्रा है! कितने पड़ाव और कितनी मंजिलें, कितने दूर निकल आए!
इसलिए उपनिषद का ऋषि कहता है, नहीं चलती, फिर भी बहुत चलती है। कहता है, भीतर है और फिर भी बाहर है।
असल में बाहर और भीतर कामचलाऊ फासले हैं। कोन सी चीज बाहर है? श्वास भीतर जाती है, तब आप कहते हैं, भीतर जा रही है। आप कह भी नहीं पाते और वह बाहर चली जाती है। कभी आपने खयाल किया? कहते हैं, श्वास भीतर जा रही है, भीतर है। कह भी नहीं पाते, कह भी नहीं पाए, इतना भी समय व्यतीत नहीं हुआ कि बाहर जा चुकी। और जब तक कहते हैं कि बाहर है, तब तक पाते हैं कि वह भीतर प्रवेश करती चली जा रही है।
बाहर और भीतर में फासला क्या है? दिशा का, और कोई फासला नहीं है। रुख, और कोई फासला नहीं है। घर के बाहर आपके जो आकाश है और घर के भीतर जो आकाश है, उसमें रत्तीभर का फासला है? कोई फासला नहीं है। दीवार आपने उठा ली और घेर लिया आकाश का एक टुकड़ा। वह बाहर का ही है। वह वही आकाश है, जो बाहर है। लेकिन फिर भी फासला है। जब धूप तेज हो जाती है तब पता चलता है कि बाहर का आकाश और है, भीतर का आकाश और है। भीतर विश्राम मिल जाता है, बाहर बड़ी पीड़ा हो जाती है। बाहर और भीतर का आकाश एक भी है और अलग भी है। घर के छप्पर के नीचे भी वही आकाश है जो बाहर है। लेकिन जब रात उसके नीचे सोते हैं तो ज्यादा निश्चिंत होते हैं, जब बाहर होते हैं तो बड़े चिंतित हो जाते हैं। और आकाश वही है।
इसलिए उपनिषद कहते हैं, वही भीतर है, वही बाहर है। फिर भी जानना है तो भीतर से ही शुरू करना पड़ेगा। जानने के लिए भीतर से ही शुरू करना पड़ेगा। जानने के बाद यह कहा जा सकता है कि वही बाहर है। जानने के पहले यह नहीं कहा जा सकता है कि वही बाहर है। क्योंकि जिन्हें भीतर का ही पता नहीं, उन्हें बाहर का कोई पता नहीं होगा। जो अपने घर के ही छोटे से आकाश को नहीं जान पाए, वे इस बाहर के विराट आकाश को कैसे जान पाएंगे? इस छोटे—से से पहले परिचित हो लें, फिर उस बाहर के विराट से भी परिचय हो जाएगा।
जिन्हें जानने निकलना है, उन्हें भीतर से ही शुरू करना पड़ेगा। और जो जानने की अंतिम मंजिल पर पहुंच जाते हैं, वे बाहर पूरा करते हैं। प्राथमिक कदम भीतर उठता है, अंतिम कदम तो परम रूप से बाहर चला जाता है। आत्मा से यात्रा शुरू होती है, परमात्मा पर पूर्ण होती है।
यह बहुत एब्सर्ड, तर्कशून्य, असंगत दिखने वाला वक्तव्य, बहुत गहन, बहुत सत्य, बहुत तथ्यपूर्ण है। लेकिन तर्क पर ही जो रुक जाते हैं, वे तथ्य तक नहीं पहुंच पाते हैं। और तथ्य पर तो केवल वे ही पहुंच पाते हैं जो तर्क को भी छोड़ने का साहस रखते हैं। क्योंकि तथ्य आपके तर्कों को नहीं मानता। सब तर्क मनुष्य—निर्मित हैं। तथ्यों को कोई फिक्र नहीं है। आपका तर्क कुछ भी कहे, तथ्य जीए चले जाएंगे अपने ढंग से। सत्य को आपके तर्कों का कोई संबंध नहीं है। सत्य आपके तर्कशास्त्र को पढ़ने नहीं आते। और न आपके तर्कशास्त्र के साथ नियम के अनुसार काम करने को राजी हैं। वे अपने ढंग से काम करते चले जाते हैं। उन्हें आपके तर्कों की कोई फिक्र नहीं है।
इसलिए जब भी तथ्य और तर्क की टक्कर होती है तो तर्क को टूटना पड़ता है। इसलिए' पूरब के मनीषी जब तथ्य पर पहुंचे जीवन के, तो उन्होंने सब तर्क की बात छोड़ दी। उन्होंने कहा कि तर्क से कुछ होगा नहीं।
इसलिए जो तर्क में बहुत निष्णात हो जाते हैं उनका सत्य से परिचय जरा कठिन होने लगता है, मुश्किल होने लगता है। वे अपने तर्क को लिए ही बैठे रहते हैं। वे यही कहे चले जाते हैं कि पानी एक ही साथ ठंडा और गरम कैसे हो सकता है? लेकिन है। वे यही कहे चले जाते हैं कि सर्दी और गर्मी एक ही चीज कैसे हो सकती हैं? कहां सर्दी और कहां गर्मी! पर हैं। वे कहे चले जाते हैं, जन्म और मृत्यु एक कैसे हो सकते हैं? लेकिन हैं।
सत्य के खोजी को तर्क के छोड़ने का साहस करना पड़ता है, जो कि बड़े से बडा साहस है।
यह सूत्र तर्कातीत है, बियांड लाजिक है और इसीलिए परम है। इसलिए मैंने कहा कि मनुष्य जाति के इतिहास में जो परम वचन बोले गए हैं — महावाक्य — उनमें से एक है।
अब हम उस तर्कातीत परम तथ्य में प्रवेश करें। इसलिए सोचें न कि नाचने से क्या होगा! चिल्लाने से क्या होगा! रोने से क्या होगा! हंसने से क्या होगा! सोचें नहीं। छोड़े।


आज इतना ही।

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