शनिवार, 16 जून 2018

कठोउपनिषद उपनिषद--प्रवचन-07

धर्म का आधार—सूत्र : विवेक—सांतवां प्रवचन


यस्‍तु विज्ञानवान् भविति युक्‍तेन मनसा सदा।
तस्‍येन्‍द्रियाणि वश्‍यनि सदश्‍वा इव सारथे:।।6।।

यस्त्‍वविज्ञानवान् भवत्यमनस्क: सदाशुचि:।
न स तत्यदमाप्नोति सन्सारं चाधिगच्छति।।7।।

वस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा शुचि:।
स तु तत्यदमाप्तोति यस्माद् भयो न जायते।। 8।।

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान् नर:।
सोऽध्वनः पारमाप्योति तद्विष्णो: परमं पदम—।। 9।।

इन्द्रियेभ्य परा हर्था अथेंथ्यस्व परं मन:।
मनसस्तपरा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान— पर:।। हे भे।।10।।

महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर:।
पुरुषान्न परं किचित्सा काष्ठा सा परा गति:।। 11।।



जो सदा विवेकयुक्त बुद्धि वाला (और) वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है उसकी इंद्रियां सावधान सारथि के अच्छे घोडों की भांति वश में रहती हैं।। 6।।

जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धि वाला असंयतचित्त (और) अपवित्र रहता है वह उस परमपद को नहीं पा सकता, अपितु बार—बार जन्म—मृत्युरूप संसार—चक्र में ही भटकता रहता है।। 7।।


परंतु जो सदा विवेकशील बुद्धि से युक्त संयतचित्त (और) पवित्र रहता है वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहां से ( लौटकर) पुन: जन्म नहीं लेता।। 8।।

जो (कोई) मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से संपन्न और मनरूप लगाम को वश में रखने वाला है वह संसार मार्ग के पार पहुंचकर सर्वव्यापी परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान के उस सुप्रसिद्ध परमपद को प्राप्त हो जाता है।। 9।।

क्योकि इंद्रियों से शब्दादि विषय बलवान हैं और शब्दादि विषयों से मन ( प्रबल) है और मन से भी बुद्धि बलवती है (तथा) बुद्धि से भी महान आत्मा ( उन सबका स्वामी होने के कारण) अत्यंत श्रेष्ठ और बलवान है।। 10।।


उस जीवात्मा से भी बलवती है भगवान की अव्यक्त मायाशक्ति। अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष स्वयं परमेश्वर। परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है वही सबकी परम अवधि (और) वही सबकी परम गति है।।11।।

धर्म का आधार—सूत्र : विवेक

नुष्‍य की अशांति, मनुष्‍य के मन के भीतर निरंतर का द्वंद्व, तनाव, मनुष्‍य की बेचैनी और विक्षिप्‍तता, एक ही बात से जन्‍म पाती है। और वह है मनुष्‍यों के व्‍यक्‍तित्‍वों में बहुत सी पर्तो का होना।
 मनुष्‍य एक नहीं है, बहुत सी पर्त है।
शरीर है; शरीर की एक पर्त है। और शरीर की पर्त की अपनी वासनाएं है, अपनी इच्‍छाएं है। शरीर का अपना आकर्षण है। अपनेमोह, अपने लोभ, अपनी कामनाएं है।
फिर शरीर के भीतर मन की पर्तें हैं। मन की अपनी वासनाएं हैं। अपनी आकांक्षा ए हैं। और मन के भी भीतर बुद्धि हैविवेक है। उस विवेक की कामना बिलकुल भिन्न है। और इन तीनों पर्तों की वासनाओं में आपस में बड़ा विरोध है।
शरीर कहता है कुछ करो। मन कहता है कुछ और करो। विवेक सुझाता है कुछ और। और तब मनुष्य के भीतर एक भीड़ हो जाती हैसंघर्ष कीएक उपद्रवएक अराजकता हो जाती है।
अगर मनुष्य केवल शरीर होता तो कोई अशांति न होती। अगर मनुष्य अकेला मन होता तो भी कोई अशांति न होती। अगर मनुष्य केवल आत्मा होता तो भी कोई अशांति न होती। इसलिए पशु मनुष्य से कम अशांत हैं। क्योंकि पशुओं के पास शरीर ही है। मन की शोड़ी—सी झलक हैऔर जितनी झलक है उतनी अशांति वहा भी है। पौधे और भी शांत हैं। वृक्ष और भी शांत हैं। कोई चिंता नहींकोई तनाव नहीं। मन की वहा हलकी—सी झलक भी नहीं।
मनुष्यों में भी जितना विचारशील व्यक्ति होगाउतना अशांत हो जाएगा। जितना बुद्धिहीन व्यक्ति होगाउतना कम अशांत होगा।
इसलिए जैसे —जैसे शिक्षा बढ़ती हैविचार की क्षमता बढ़ती हैबुद्धि तीव्र होती हैवैसे—वैसे अशांति बढ़ती है। अमरिका में पागलों की संख्या सर्वाधिक है। उससे आप प्रसन्न मत होनाउससे आप यह मत सोचना कि हम बड़े सौभाग्यशाली हैं। उसका कुल अर्थ इतना है कि अमेरिका आज बुद्धि के जगत में सर्वाधिक विकसित है। संपन्न घरों में तनाव और चिंता ज्यादा होगी। होना उलटा चाहिए। विपन्नदीन—हीनदरिद्र घरों में उतनी अशांति नहीं है। संपन्न घरों में अशांति हैक्योंकि संपन्नता के साथ बुद्धि भी बढ़ती है। बुद्धि के बढ़ने के साथ संपन्नता बढ़ती है। जितना विपन्न आदमी हैउतना बुद्धि का भी विकास नहीं है। अन्यथा वह भी संपन्न हो गया होता। विपन्न आदमी दुखीदीन हैअशांत नहीं है।
अर्थ यह हुआ कि हमारे भीतर जितनी पर्तें होंगी ज्यादाउतना संघर्ष होगा।
अकेला शरीर में कोई जी सकेतो विक्षिप्त होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन अकेले शरीर में आप जी नहीं सकतेमन पीछे खड़ा है। शरीर कुछ कहता हैमन कुछ कहता है। आप भोजन कर रहे हैं। शरीर कहता हैपेट भर गया। मन कहता हैस्वादिष्ट हैथोड़ा और लिया जा सकता है। बुद्धि कहती हैनासमझी कर रहे होक्योंकि यह रुग्णता का कारण होगाबीमारी बढ़ेगी। तीन पर्तें हो गईंकलह भीतर शुरू हो गई।
शरीर कोई नीति-नियम नहीं मानता। शरीर तो ठीक पशु जैसा है। लेकिन मन बड़े द्वंद्व में होता है। मन के पास भी पशुओं जैसी वासना हैलेकिन मन के पास मनुष्य के संस्कार भी हैं। समाज का दिया हुआ ज्ञान भी हैअंतःकरण भी है। भूख लगी है। शरीर तो कहेगाचोरी कर लोकोई हर्ज नहीं है। क्योंकि शरीर के तल पर कोई हर्ज होता भी नहीं। लेकिन मन बेचैनी अनुभव करेगा।
      अहंकार कहेगा कि अगर चोरी करते पकड़ लिए गए बदनामी होगी। मन यह कहेगा कि अगर चोरी ही करनी हैतो इस ढंग से करो कि पकड़े न जाओ। लेकिन भीतर बुद्धि है-और भी गहरे में -वह कहेगीइससे कोई संबंध नहीं कि तुम पकड़े गए या नहीं पकड़े गए। चोरी कीकि गलत हुआ। और बुद्धि को काटा सालता रहेगा। न भी पकड़े गए तो भी बुद्धि पीड़ा पाएगी कि बुरा हुआ।
      मनुष्य की अशाति है उसके बहुत पर्तों में बंटे होने के कारण। इस बात को ठीक से समझ लें तो दूसरी बात समझने में आसान हो जाएगी। वह दूसरी बात यह है कि जिस तल पर उपद्रव होता हैउसी तल पर आप उसी तल की शक्ति से उस उपद्रव को शात नहीं कर सकते। उससे ऊंचे तल परउससे बड़ी शक्ति के द्वारा उपद्रव शात हो सकता है।
      अगर शरीर के तल पर कठिनाई हैतो शरीर ही उसे हल करने में समर्थ नहीं हैउसे मन हल कर सकता है। और अगर मन के तल पर कठिनाई हैतो मन ही उसे हल करने में समर्थ नहीं हैउसे बुद्धि हल कर सकती है। और अगर बुद्धि के तल पर कोई कठिनाई हैतो बुद्धि उसे हल करने में समर्थ नहीं हैउसके लिए तो आत्मा के निकट ही पहुंचना पड़े। और अगर आत्मा के तल पर कोई कठिनाई हैतो सिवाय परमात्मा के तल पर पहुंचे उसका कोई हल नहीं है।
      इसका मतलब यह हुआ कि जहां कठिनाई हैउससे ऊंचे तल पर उसका हल खोजना होगा।
हम अक्सर उसी तल पर हल खोजते हैंइससे कठिनाई बढ़ती हैघटती नहीं। समझें। शरीर में वासना उठती हैआखें रूप की तलाश करती हैं। ऐसे कुछ संतों की कथाएं हैंकि उन्होंने आखें निकालकर फेंक दींक्योंकि आख रूप को खोजती है। शरीर रूप की खोज कर रहा है। लेकिन आख को निकालकर फेंक देना उसी तल पर हैतल के ऊपर उठना नहीं है।
      शरीर ही आकर्षित हो रहा हैशरीर को ही आप चोट पहुंचा रहे हैं। शरीर की आखें निकाल फेंक देने से कोई भी हल न होगा। अंधा भीआखें मिट जाने पर भी वासना से ग्रस्त ही रहेगा। शायद आखें होतीं तो इतना ग्रस्त न होता। आखें खो जाने से और भी कठिनाई बढ़ जाएगी।
      अनेक परंपराओं ने कहा है कि जो अंग कष्ट दें उन्हें काट देना। आप जानकर हैरान होंगेरूस में ईसाइयों का एक बहुत बड़ा संप्रदाय हैजो जननेंद्रिया काट देता था। उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के बाद जब कानूनन रोक लगाई गईतब बामुश्किल उस संप्रदाय को जननेंद्रिय काटने से रोका जा सका। कोई दस लाख लोग रूस में थेजिन्होंने अपनी जननेंद्रिया काटकर फेंक दी थींसिर्फ इस खयाल से कि जननेंद्रिय के काटने से कामवासना से छुटकारा हो जाएगा।
      जननेंद्रिय के काटने से कामवासना का कोई छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि कामवासना अगर जननेंद्रिय में ही होती पूरीतो भी कोई बात थी। कामवासना तो मस्तिष्क में हैगहरे में है। जननेंद्रिय तो मस्तिष्क का ही एक हिस्सा है। और जो सुख मिलता है संभोग कावह जननेंद्रिय के तल पर नहीं मिलता, वह मिलता तो मस्तिष्क के तल पर है।
आपको ज्यादा भोजन में रस हैतो लोग उपवास कर लेते हैं—लेकिन उसी तल पर। जहा जबर्दस्ती भर रहे थे शरीर मेंअब जबर्दस्ती रोक लेते हैं। लेकिन तल नहीं बदलता। और जब तक तल न बदलेतब तक जीवन में कोई क्राति नहीं हो सकती। सिर्फ ऊंचा तल नीचे तल का मालिक हो सकता है। दूसरी बात। तीसरी बात स्मरण रखें कि अगर आप उसी तल पर व्यवस्था जुटाने की कोशिश करेंगेतो आपके जीवन में दमनरिप्रेशन हो जाएगा। और सारी जिंदगी विषाक्त हो जाएगी। लेकिन अगर दूसरे तल को आप सजग करते हैंतो दमन की कोई भी जरूरत नहीं है। दूसरे तल की शक्ति के मौजूद होते ही पहला तल विनत हो जाता हैझुक जाता है।
मन है और मन की ही सारी कठिनाई है। लोग मेरे पास आते हैंवे कहते हैंइस मन से कैसे छुटकारा होलेकिन मन से छुटकारे का वे जो भी उपाय करते हैंवह भी सब मन का ही काम है। मन से छुटकारे के लिए मंदिर चले जाते हैं। वह मंदिर भी मन का बनाया हुआ खेल है। मन से छुटकारे के लिए शास्त्र पढ़ने लगते हैं। वे शास्त्र भी मन से निर्मित हुए हैं। मन से छूटने के लिए मंत्रोच्चार करने लगते हैं। वे मंत्रोच्चार मन की ही परिधि में हैं। माला जपने लगते हैं। व्रत—नियम ले लेते हैं। कसमें खा लेते हैं। वे कसमें भी मन ही खा रहा है।
एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया। लेकिन व्रत लेने से कहीं ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है! अगर इतना आसान होतातो व्रत लेने की क्या कठिनाई थीउन्होंने मुझे आकर कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। यह व्रत ले लिया हैलेकिन यह सध तो नहीं रहा है। और मन तो बेचैन है। और इतना बेचैन कभी भी नहीं थाजितना अब है। और इतनी वासना भी कभी मन में नहीं थीजितनी अब है। जब से यह व्रत लिया हैतब से ऐसा हो गया है कि मन में सिवाय वासना के और कुछ भी नहीं है। पहले तो कुछ और बातें भी सोच लेता था। अब तो बस एक ही धुन लगी है!
व्रत लेते ही नासमझ हैं। समझदार व्रत नहीं लेता। समझदार विवेक को जगाता हैव्रत नहीं लेता। क्योंकि व्रत का मतलब हैउसी तल पर उपद्रव करना। जैसे एक छोटी—सी कक्षा है और उसमें बच्चे लड़ रहे हैं और शोरगुल मचा रहे हैं। और शिक्षक कमरे में प्रवेश कर जाएएकदम सन्नाटा हो जाता है। बच्चे अपनी जगह बैठ गए हैंकिताबें उन्होंने खोल ली हैंजैसे कि कहीं कुछ भी नहीं हो रहा था। एक दूसरे तल की शक्ति कमरे के भीतर आ गई। उसकी मौजूदगी रूपांतरण है।
जैसे ही आप ऊंचे तल की शक्ति को जगा लेते हैंनीचे तल का संघर्षउपद्रव एकदम शांत हो जाता है। यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि जहां भी आपके जीवन में अड़चन होसीधे उससे लड़ने मत लग जाना। उसके पीछे की शक्ति को जगाने की कोशिश करना।
तो जो मुझसे पूछते हैंमन को कैसे शांत करेंउनको मैं कहता हूं : मन की फिकर ही मत करो। मन को कुछ मत करो। तुम विवेक को जगाओतुम होश से भर जाओ। मन के साथ संघर्ष मत करोक्योंकि संघर्ष करने वाला मन ही होगा। यह जो शांत होने के लिए कह रहा हैयह भी मन है।
तो मन मन से लड़ेदो टुकड़ों में बंटकरतो लड़ाई ऐसी होगी जैसे मेरा दायां हाथ बाएं हाथ से मैं लड़ाने लग। कोई जीतेगा नहींकोई हारेगा नहीं। और मेरी मौज हैजब चाहूं तो बाएं को ऊपर कर लूं और जब चाहूं तो दाएं को ऊपर कर लूं। दोनों मेरे हाथ हैं और दोनों में मेरी ही शक्ति प्रवाहित है। जीत—हार का कोई उपाय नहीं है। कभी मैं चाहूं तो बाएं हाथ के साथ अपना तादात्म्य कर लूं र कि मैं बायां हाथ हूं। और कभी चाहूं तो दाएं के साथ तादाक्य कर लूं कि मैं दाया हाथ हूं।
तो कभी आप मन के उस हिस्से से राजी हो जाते हैंजो वासना से भरा है। और कभी मन के उस हिस्से से राजी हो जाते हैंजो व्रतसंकल्पसाधना की बातें सोचता है। यह बदलता रहता हैघड़ी के पेंडुलम की तरह। एक क्षण यहदूसरे क्षण वह। क्योंकि दोनों हाथ आपके हैं।
संघर्ष के तल के ऊपरपीछेगहरे में कोई तत्व खोजना जरूरी हैजो जाग सके। विवेक बुद्धि का सार है। विवेक का अर्थ हैएक प्रकार की सजगताएक तरह का होश। कार्य मेंविचार मेंएक तरह की सावधानीएक तरह का सतत स्मरणअवेयरनेस।
आप रास्ते पर चल रहे हैं। चलना यांत्रिक है। चलना आपको पता है कैसे चला जाता हैशरीर चलता चला जाता है। आपको कोई होश रखने की जरूरत नहीं हैकि आप चल रहे हैंकि पैर उठाया जा रहा है। श्वास ले रहे हैं। श्वास चलती चली जाती हैयांत्रिक है। श्वास के लिए आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है। होश बिलकुल आवश्यक नहीं है।
लेकिन आप होशपूर्वक भी श्वास ले सकते हैं। बुद्ध ने अपनी पूरी साधना श्वास और होश के ऊपर आधारित की थी। बुद्ध कहते थे अपने भिक्षुओं को कि तुम अगर होशपूर्वक श्वास लेने लगोतो सब ठीक हो गया।
इतनी सरल बातऔर सब ठीक हो जाए! यह सरल ऊपर से दिखती हैभीतर बहुत जटिल है। और ऊपर सरल दिखती है वैसेजैसे बिजली का बटन दबाएं और हजारों बल्व जल जाएं। कोई पूछे कि जरा—सा यह बटन और इसको दबाने से हजारों बल्व कैसे जल सकते हैंबटन तो दिखाई पड़ता हैभीतर तारों का बड़ा जाल हैवह दिखाई नहीं पड़तावह छिपा है।
होश सरल—सी बात हैलेकिन अति कठिन है। बुद्धू कहते हैंतुम सिर्फ अपनी श्वास को होशपूर्वक लेने —छोड़ने लगोबस। क्या हो जाएगा इतने सेइतने से सब कुछ हो जाता है। क्योंकि भीतर का तत्व: जो विवेक हैवह जगने लगता है। वह किसी भी प्रक्रिया के द्वारा जगाया जा सकता है।
कोई भी प्रक्रिया आप होशपूर्वक करने लगेंआपकी बुद्धि सजग होने लगेगी। और जैसे ही बुद्धि सजग होती हैमन शांत होने लगता हैक्योंकि मालिक मौजूद हो गया। नौकर चुपचाप बैठ जाता हैआशा की प्रतीक्षा करने लगता है।
विवेक समस्त धर्मों का सार हैऔर मूर्च्छा समस्त अधर्म का आधार है। हम जो भी कर रहे हैंअगर वह मूर्च्छित हैतो वह पाप हैऔर अगर वह होशपूर्वक हैतो पुण्य है। कोई कृत्य न तो पुण्य होता है और न पाप। इस बात पर निर्भर होता है कि करते समय चेतना की अवस्था क्या थी न: चेतना अगर सजग थी..। ऐसा हुआ कि बुद्ध एक गांव से गुजर रहे थे। तब वे बुद्ध नहीं हुए थे। तब वे खोज में लगे थे और साधक थेसिद्ध नहीं हुए थे। एक मित्र से बात कर रहे थे। तभी एक मक्खी उनके सिर पर आकर बैठ गईतो बात उन्होंने जारी रखीरास्ते पर चलते रहेमक्खी को उड़ा दिया—जैसा आप उड़ा देते हैं। फिर तत्‍क्षण रुक गएफिर हाथ को उठाया और उस जगह ले गए जहा मक्खी अब नहीं थी। उड़ाया—उस मक्खी को जो अब नहीं थी—हाथ को वापस लाए।
उस मित्र ने कहाआपका मस्तिष्क तो ठीक है नक्या उड़ा रहे हैं अबबुद्ध ने कहामैं ऐसे उड़ा रहा हूं जैसे मुझे उड़ाना चाहिए था—होशपूर्वक। तुमसे बात में लगा रहामूर्च्छा से मक्खी को उड़ा दिया। वह हाथ मेरा यंत्रवत उठ गया। मेरी सावधानी उसमें न थीअब मैं हाथ को सावधानीपूर्वक ले गया हूं। इस हाथ की गति में मेरा पूरा बोध है। इस हाथ के साथ मैं भी गया हूं। मक्खी मैंने उड़ाई हैउड़ाते वक्त मेरा मन कहीं और नहीं हैउड़ाने की क्रिया में ही मौजूद है। स्मृतिपूर्वक। यह बुद्ध का शब्द है। होशपूर्वक मैंने मक्खी उड़ाई। पहली दफा मैंने भूल की। पाप हो गया।
मक्खी को कोई चोट भी नहीं लगी थी। पाप का कोई कारण भी नहीं था। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि पहली दफा पाप हो गयाक्योंकि मैं मूर्च्छित था। और अगर मैं मक्खी मूर्च्छा से उड़ा सकता हूं तो मैं कुछ भी कर सकता हूं मूर्च्छा में। मैं हत्या भी कर सकता हूं। क्योंकि मूर्च्छित आदमी का क्या भरोसाजो बिना होश के कुछ भी कर सकता हैउससे कुछ भी हम आशा नहीं रख सकते। उससे कुछ भी पाप हो सकता है। मैंने मक्खी ऐसे उड़ाई जैसी मुझे उड़ानी चाहिए थी।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे—उठोबैठोचलोलेकिन बस भीतर एक स्मृति का दीया जला रहे। जो कदम तुम भूल से उठा लो मूर्च्छा मेंउसे वापस लौटा लो। फिर से कदम को उठाओ होशपूर्वक। जैसे—जैसे कोई व्यक्ति अपनी क्रियाओं में जागरूकता साध लेता है—भोजन करता हैआंख झपकाता हैश्वास लेता है...। थोड़ा प्रयोग करके देखेंआप चकित हो जाएंगे कि आप कितने शांत हो जाते हैं—एकदम। मन को कुछ करना नहीं पड़ता। कोई इलाज मन का नहीं करना पड़ता। सिर्फ क्रियाओं में जागरूकता और आप पाते हैं कि मन शांत हो गया।
मन अशांत है मूर्च्छा के कारण। एक नशा है जो छाया हुआ है। इस नशे को तोड़ना जरूरी है। ये सूत्र इस नशे को तोड़ने की तरफ इशारे हैं।
जो सदा विवेकयुक्त बुद्धि वाला और वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है उसकी इंद्रियां सावधान सारथि के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहती हैं।
समझ लें। आमतौर से हम शुरू करते हैं—घोड़ों को वश में करना। हम इंद्रियों के साथ लड़ना शुरू कर देते हैं। और हम सोचते हैंएक—एक इंद्रिय पर कब्जा करके जीत लेंगे। कभी कोई जीतता नहींसिर्फ विनष्ट होता है। और चीजें इतनी विकृत और परवटेंड हो जा सकती हैं कि जीवन में कोई अर्थ ही न रह जाएऔर जीवन आत्महत्या जैसा मालूम होने लगे। लेकिन अनेक हैंतथाकथित बुद्धिमान लोगवे इंद्रियों से ही लड़ते रहते हैं। कोई भोजन से लड़ रहा हैकोई कामवासना से लड़ रहा हैकोई किसी और चीज से लड़ रहा हैलेकिन लड़ाई जारी हैइंद्रियों से।
इंद्रियों से लड़ना ऐसा ही हैजैसे कोई अपने नौकरों से लड़ने लगे। नौकरों को आज्ञा देने की जरूरत होती हैलड़ने की कोई जरूरत ही नहीं होती। लड़ने का मतलब यह है कि तुमने नौकर को समान मान लिया। भूल हो गई। और जिसने नौकर को समान मान लियावह नौकर से जीत न सकेगानौकर उससे जीतेगा। एक दफा नौकर को पता चल जाए कि मालिक समान मानता हैऔर ताल ठोंककर लड़ने को तैयार है क्योंकि लड़ने का मतलब ही होता हैवह सिर्फ समान से हो सकता है। और अगर लड़ाई हो सकती हैतो फिर नौकर जीत भी सकता है। वह भी पूरी कोशिश करेगा।
इंद्रियां लड़ने योग्य नहीं हैं। लड़कर ही भूल हो जाती है। और अगर आप इंद्रियों से लड़कर हार गए—जों कि निश्चित हैक्योंकि जिसे अपनी मालकियत का अनुभव नहीं हैवह हार ही जाएगालड़ने जा रहा हैवहीं भूल हो गई—अगर आप इंद्रियों से हार गएतो आप सदा के लिए हताश हो जाएंगे। मैं कलकत्ते में एक घर में मेहमान था। और एक बहुत समृद्ध और बहुत समझ के बूढ़े व्यक्ति ने मुझसे कहा कि मैं अपने जीवन में चार बार ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुका हूं। मेरे साथ एक मित्र थेवे बड़े प्रभावित हुए। मैंने उनसे कहा कि इतने प्रभावित मत होंपहले इसका मतलब तो समझो। चार बार कोई ब्रह्मचर्य का व्रत किसलिए लेगाएक ही बार काफी है! और फिर मैंने कहा कि जिसे चार बार लेना पड़ा हैतुम यह भी तो पूछो कि पांचवीं बार क्यों नहीं लियावे के सच में ईमानदार आदमी थेउन्होंने कहा कि आपने ठीक सवाल उठाया। पांचवीं बार इसीलिए नहीं लिया कि चार बार इतना असफल हो गयाकि यह आशा ही छोड़ दी कि विजय हो सकती है।
अगर आप इंद्रियों से लड़ेंगेतो एक उपद्रव हो जाने वाला हैऔर वह यह कि अगर आप हारे—और आप हारेंगे—हार तो वहीं शुरू हो गईजहां आपने लड़ने का निर्णय लिया। आपको मालकियत का पता ही नहींजिसको लड़ने की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ होश काफी है और इंद्रिया अपने रास्ते पर खड़ी हो जाएंगी। और हार गए अगरतो हताश हो जाएंगे। और तब सोचेंगेइंद्रियां बहुत प्रबल हैंइनसे छुटकारा नहीं हो सकता। और एक बार यह हताशा मन में बैठ जाए तो जीवन सदा के लिए अंधकार में रह जाता है।
हम सब हताश हैं। हम सबने भरोसा खो दिया है। और हमारी इस हताशा का कारण हमारे तथाकथित साधु—संन्यासी हैंजो हमें लड़ना सिखाते हैंजागना नहीं सिखाते। उन्होंने आपको कठिनाई में डाल दिया है। मेरे पास मित्र आते हैंवे कहते हैं कि मैं बीस साल हो गएसिगरेट से लड़ रहा हूं!
तुम्हें लड़ना ही था तो कुछ बड़ी चीज चुनते! सिगरेट से लड़ रहे होतुम अपनी आत्मा की कोई कीमत भी नहीं मानते! और बीस साल से लड़ रहे हो और सिगरेट से भी नहीं जीत पाए! तो कैसे तुम्हें भरोसा आएगा कि तुम्हारे भीतर परमात्मा हैतुम हताश हो ही जाओगे। किसने तुम्हें कहाकिस नासमझ ने तुम्हे यह कहा कि सिगरेट से लड़ो। सिगरेट पीनी थी तो पीतेमालिक तो बने रहते! छोड़नी थी तो छोड़तेमालिक बने रहते! लड़कर क्यों उपद्रव कर लियाऔर बीस साल! और सिगरेट जीत रही है और तुम हार रहे हो! क्षुद्र से भूलकर भी मत लड़ना। क्षुद्र से लड़ने का मतलब यह है कि विराट का संग खो गया। विराट को खोजनाक्षुद्र से लड़ना मत। विराट की मौजूदगी पर क्षुद्र अपने आप हार जाता है। बड़े को लानाछोटे को मिटाने की कोशिश ही मत करना।
सुनी होगी वह कहानी अकबर कीजिसमें उसने एक लकीर खींच दी है दीवार परऔर अपने दरबारियों को कहा है कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। मुश्किल हो गई। वे सब दरबारी आपके तथाकथित साधु—संन्यासियों जैसे रहे होंगे। बिना लकीर को काटे—पीटे छोटी होगी कैसे?
बीरबल उठाउसने एक बड़ी लकीर उसके पास खींच दी। बड़ी लकीर खिंचते ही वह छोटी हो गईउसे छूने की जरूरत न रही। उसे काटा भी नहींउसे मिटाया भी नहीं।
जीवन की कला यही है कि छोटे के सामने बड़े को खड़ा कर दो। छोटे से लड़ने मत जाओवह तुम्हें छोटा कर देगा।
ध्यान रहेमित्र तो कोई भी चल जाएगाशत्रु बहुत सोच—समझकर चुनना। जिसने छोटा शत्रु चुन लियावह छोटा हो जाएगा। मित्रों से लोग इतना नहीं सीखतेजितना शत्रुओं से सीखते हैं। क्योंकि शत्रुओं के साथ चौबीस घंटे का संघर्ष होता है। और धीरे— धीरे दोनों शत्रु बराबर एक—से हो जाते हैं।
अगर सौ साल तक दो शत्रु लड़ते रहेंतो करीब—करीब मरते समय वे जुडवां भाइयों जैसे हो जाएंगे। एक—से हो जाएंगे। यह सौ साल का सतत संघर्ष सत्संग है। और एक—दूसरे से लड़कर वे एक—दूसरे की कला सीख रहे हैं। लड़ना हो तो कला सीखनी ही होती है कि दूसरा क्या कर रहा हैउसका हिसाब रखना पड़ता है। धीरे—धीरे वे समान होते चले जाते हैं। शत्रु आमतौर से समान हो जाते हैं। मित्रों में तो भेद बने रहते हैं।
शत्रुओं के भेद मिट जाते हैं।
भीतर इस बात को ठीक से खयाल में रख लेना कि छोटी किसी चीज से शत्रुता मत लेना।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं—बड़ी कीमत की बात कहते हैंइस संदर्भ में भी जरूरी हैसमझने जैसी है—मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कोई भी पिता अपने बेटे से ऐसी बात कभी न कहेजिसे वह पूरा न करवा सके। एक दफा हार गया कि फिर बेटे के मन में कभी प्रतिष्ठा बाप की नहीं रहेगी।
जैसे समझ लेंआपका छोटा बच्चा आपके सामने बैठा रो रहा हैऔर आप कहते हैं—रोना बंद कर! आपकी ताकत है रोना बंद करवाना 7 और वह रोए चला जा रहा हैऔर आप कह रहे हैं—रोना बंद कर! आप ज्यादा से ज्यादा मार सकते हैं। मारने से वह और रोएगा। रोना बंद करवाना बहुत मुश्किल है। और एक दफा बच्चे को पता चल गया कि अरे! तुम कहे चले जा रहे हो कि रोना बंद करोमैं रो रहा हूं और तुम कुछ भी नहीं कर पा रहे होतुम्हारी सारी शक्ति खो गई। इस बच्चे के मन में तुम्हारी स्थिति ठीक हो गईकि तुम कोई बड़े शक्तिशाली नहीं हो।
फ्राँयड ने कहा है कि बेटे इस कारण बुरी तरह बिगड़ते हैं कि बाप उनसे ऐसी बात करवाना चाहते हैं जो करवा नहीं सकते। फ्राँयड ने कहाऐसी बात कहना ही मत। तुम वही कहना जो तुम करवा सको। तुम कहो कि निकल जा कमरे के बाहर! तुम निकाल तो सकते हो कम से कम कमरे के बाहर। उसको इतना भरोसा तो रहेगा कि बाप जो कहता हैउसे पूरा कर सकता है।
इस संदर्भ में भी यह याद रखने जैसा है कि अपनी इंद्रियों से वही आप कहनाजो आप पूरा करवा सकें। अन्यथा कहना ही मत। रुकना अभीठहरना। क्योंकि एक बार इंद्रियों को यह पता चल जाए कि तुम कहते रहते होतुम्हारी बातो का कोई मूल्य नहींसब बकवास हैकि तुम निर्णय लेते रहते होसब व्यर्थ है। तुम संकल्प बांधते होव्रत करते होकोई मूल्य का नहीं। इंद्रियों को एक दफा पता चल जाए कि तुम अपने मालिक नहीं होतुम्हारी हर चीज तोड़ी जा सकती हैफिर ये घोड़े तुम्हारे वश में आने वाले नहीं हैं। लेकिन हर आदमी ने यही कर लिया है। और बड़े समझदार लोग समझा रहे हैं लोगों कोकि ऐसा करो। व्रत वही लेनाजो पूरा हो सके। लेकिन जो पूरा हो सकेउसका आदमी व्रत लेता ही नहीं है।
इसे समझ लें। जो पूरा हो सकता हैउसको आप पूरा कर लेते हैं। व्रत की क्या जरूरत हैव्रत तो आप तभी लेते हैंजिसे आप जानते हैं यह पूरा न हो सकेगाइसलिए व्रत का सहारा लेते हैं। तो कसम खाते हैं कि इसको करके दिखाऊंगा। लेकिन करके किसको दिखाइका! और अगर न दिखा पाएतो आप अपनी ही आंखों में गिर जाएंगे। और उस आदमी से ज्यादा दीन कोई भी नहीं हैजो अपनी आंखों में गिर जाता है।
तो मैं कहता हूं र शराब पीना हो पीनासिगरेट पीना हो पीनाजो तुम्हें करना हो करनालेकिन मालिक रहकर। लडाई मत खड़ी कर देना कि मालकियत टूट जाए।
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि तुम शराब पीते ही रहनासिगरेट पीते ही रहना। मैं यह कह रहा हूं कि भीतर एक और तत्व हैजो संघर्ष से पैदा नहीं होताजो सजगता से पैदा होता हैवह विवेक है। तुम उसे जगानातुम उसकी साधना में लग जाना। इन क्षुद्र चीजों से मत लड़ना। यह लड़ाई बेमानी है। समय और शक्ति का अपव्यय है। और तुमने किसी तरह अगर सिगरेट भी छोड़ दीतो तुम नास नाक में डालने लगोगे। या तुम कुछ पान खाने लगोगेया तंबाकू! क्योंकि वह जो उपद्रव थावह नया रास्ता खोज लेगा। लेकिन इंद्रियां अपनी मालकियत इतनी आसानी से नहीं छोड़ती।
यह सूत्र उलटी यात्रा बता रहा है। यह कह रहा है कि जो सदा विवेकयुक्त बुद्धि वाला और वश में किए हुए मन से संपन्न रहता हैउसकी इंद्रियां सावधान सारथि के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहती हैं। असली बात है : विवेकयुक्त बुद्धि वाला। वह होतो मन संयत हो जाता है। मन संयत होतो इंद्रियां वश में आ जाती हैं। इसलिए असली खोज विवेक की है।
जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धि वाला असंयत चित्त और अपवित्र रहता है वह उस परमपद को नहीं पा सकता अपितु बार— बार जन्म— मृत्युरूप संसार— चक्र में ही भटकता रहता है।
हमारा भटकाव हमारी मूर्च्छा हैअविवेक है। हम ऐसे चल रहे हैं जैसे जन्म से ही शराब पिए हों। एक आदमी अगर साठ साल जीए तो बीस साल तो सोता है। एक तिहाई। यह तो पक्का ही है कि बीस साल सोता है। बीस साल छोटा वक्त नहीं है। जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा है। बाकी जो चालीस साल बचते हैंउन चालीस साल में भी ऐसे कुछ ही क्षण हैं जब आदमी सपने नहीं देखतानहीं तो सपने देखता रहता है।
बैठे हैं घर में कुर्सी परसपना चल रहा है। सोच रहे हैं कि राष्ट्रपति हो गए हैंकि अचानक घर में धन की वर्षा हो गई। और ऐसा नहीं कि इतने पर रुक जाते हैं। उस धन का क्या उपयोग करेंकैसे उस धन का महल बनाएंक्या करेंक्या न करें? वह सब शुरू हो जाता है।
शेखचिल्ली की कहानियां बच्चों की किताबों में नहीं हैंहर आदमी के मन में हैं। और हर आदमी बनाए चला जाता है। और एक दफा बनाता हैऐसा नहीं हैरोज बनाता है। और फिर जरा—सा होश आता है तब हंसता हैकि यह मैं क्या बात कर रहा हूं छोड़ो सब। लेकिन फिर घड़ी दो घड़ी बाद सिलसिला शुरू हो जाता है स्वप्न का।
बीस साल तो गहन निद्रा मेंचालीस साल सपनों में। उसमें कभी—कभी कोई क्षण होते हैंअगर सब जोडे जाएंतो गुरजिएफ कहा करता था कि पांच मिनट से ज्यादा नहीं हैं पूरे साठ साल की जिंदगी मेंजब आदमी कभी—कभी क्षणभर को होश में आता है। वह होश की झलकें आती हैं और खो जाती हैं। इतने—से होश से कोई परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। इतने—से होश से तो कहीं पहुंचने का कोई उपाय नहीं। और यह होश भी कब आता हैजब जीवन में कोई अड़चन होती हैकोई भय होता हैकोई दुर्घटना होती है।
आप अपनी कार चला रहे हैंया साइकिल चला रहे हैं। चले जाते हैं—अपना सपना देखते हुए। हाथ रोबोट की तरह गाड़ी का स्टीयरिग सम्हालते हैं। मन सपने देख रहा हैभीतर बातचीत चल रही है। जहां आपको पहुंचना हैभीतर आप पहुंच ही गए। जहा से आप आ गए हैंअभी वहां से आए ही नहीं। गाड़ी चली जा रही है। अचानक एक्सिडेंट की हालत हो जाती है—सामने एक ट्रक आ गया। एक सेकेंड को होश आता हैमन रुक जाता हैविचार टूट जाते हैंसपने छिन्न—भिन्न हो जाते हैं। एक सेकेंड को।
आपने कभी खयाल किया हैअगर एक्सिडेंट का कभी आपको क्षण आया होएकदम से चोट नाभि पर लगती है। नाभि जीवन का मूल है। चोट लगते ही नाभि से एक झलक रोशनी की पूरे चित्त पर फैल जाती है। एक सेकेंड के लिए आप होश से भर जाते हैं। उतनी देर को भर आप होश से स्टीयरिंग सम्हालते हैं। ट्रक चला गया। धड़कन थोड़ी देर धड़कती रहेगीशांत हो जाएगी। श्वास बढ़ गई थीधीमी हो जाएगी। सपना वापस लौट आया। फिर अपनी दुनिया में खो गए।
दुर्घटना के क्षणों में कभी—कभी थोड़ा—सा होश आता है। पत्नी मर गईपति मर गयाबेटा मर गया। एक क्षण को सदमा लगता है। नाभि पर चोट पड़ती है। एक रोशनी भीतर झलक जाती है। एक क्षण को होश आता है कि मौत हैकि जीवन सदा रहने वाला नहींकि जिनको हमने चाहा है वे विदा हो जाएंगे। तो ये प्रेम के सारे घर ताश के घर हैं। कि हमने रेत पर महल बनाया है। तो एक सेकेंड को! और वह सेकेंड इतना छोटा होता है कि हमें कभी—कभी तो उसका पता ही नहीं चलता कि वह कब आया और चला गया। फिर हम छाती पीटकर रोने लगेदुखी होने लगेअतीत— भविष्य की सोचने लगेवह क्षण खो गया।
ऐसा गुरजिएफ कहता थाअगर आदमी की पूरी साठ साल की जिंदगी में जोड़ा जाए तो मुश्किल से ज्यादा से ज्यादा पांच मिनटऔर यह भी इकट्ठा नहीं। यह भी इकट्ठा नहींयह भी टुकड़ों—टुकड़ों में मिलता है। कभी सूरज उग रहा है और उसके सौंदर्य ने आपको झकझोर दिया। कभी एक बगुलों की कतार आकाश से गुजर गईकाले बादलों की पृष्ठभूमि में एक क्षण को कौंध गई बिजली और आप रुक गए। कभी किसी पक्षी ने गीत गाया और उसकी आवाज भीतर की ध्वनि को चोट कर गई और मन रुक गया। ऐसे मुश्किल से थोड़े—से क्षण। राही हमारे आनंद के क्षण भी हैं।
जागृति का क्षण ही आनंद का क्षण है। सोए हुए क्षण सब दुख के क्षण हैं। यह जागृति अगर कोई सावधानीपूर्वक उठाना शुरू करे अपने भीतरतो उठ सकती है।
आप एक छोटा—सा प्रयोग करें अपने घर। सुबह उठ आएं। यह पूजा—प्रार्थना से ज्यादा कीमती होगा। अपनी घड़ी को सामने रख लेंउसके सेकेंड के काटे पर नजर रखेंऔर एक ही बात का खयाल रखें कि मैं सेकेंड के काटे को एक मिनट तकजब तक यह पूरा चक्कर लेगाहोशपूर्वक देखता रहूंगा। होश नहीं चूकूंगादेखता ही रहूंगाकि काटा घूम रहा हैघूम रहा हैघूम रहा है।
लेकिन आप चकित होंगे कि दों—चार सेकेंड बाद मन कहीं और चला गयाकाटा भूल गया। दों—चार सेकेंड बाद! साठ सेकेंड भी पूरा आप मन को काटे पर नहीं रख सकते। पच्चीस बातें आ जाएंगी। यही खयाल आ जाएगा कि घड़ी कहं। की बनी हैस्विस मेड हैकितने ज्वेल्स लगे हैंवह छोटा—सा घूमता काटा पच्चीस चीजें खयाल दिला देगा।
कोशिश करें! अगर आप कोशिश करें तो तीन महीने लगेंगेजब आप पूरे एक मिनट काटे पर ध्यान रख सकेंगे। यह बड़ी उपलब्धि हैछोटी उपलब्धि नहीं है। एक सेकेंड का काटा पूरा चक्कर लेउस पूरे वर्तुल पर ध्यान। तीन महीने लग जाएगा आपको विवेक जगाने में। इतना कठिन है विवेक।
लेकिन अगर आप एक मिनट को भी विवेक को जगा लेंआप दूसरे आदमी हो जाएंगे। वह पुराना आदमी आपको लगेगा ही नहीं कि आपसे संबंधित था। वह कहानी किसी और की मालूम पड़ेगी। वह मर गयावह जो पीछे थाअब कुछ नए जीवन का अवतरण हुआ।
क्योंकि इस व्यक्ति के जीवन की व्यवस्था बिलकुल अनूठी और नई होगी। मन इसका मालिक नहीं होगा। जो एक मिनट भी जाग सकता हैमन उसका गुलाम हो जाता है। जो एक मिनट जाग सकता हैकोई वासना उसे खींच नहीं सकती। क्योंकि वह जागकर रह सकता है।
यह बड़े मजे की बात है कि वासना खींच लेती है आपकोक्योंकि आप बेहोश होते हैंसोए होते हैं। क्रोध आपको पकड़ नहीं सकता। जब भी कोई चीज आपको पकड़ेआप जाग सकते हैंइतनी कला आपको आ गई। जो एक मिनट जाग सकता हैवह किसी भी घड़ी मेंकामवासना मन को पकडेवह जाग सकता है। वह रीढ़ को सीधी कर लेगा और एक क्षण को जाग जाएगा। और अचानक एक अनूठा अनुभव होता हैआपके जागते ही वासना एकदम तिरोहित हो जाती हैजैसे थी ही नहीं।
बुद्ध ने कहा है कि जिस घर में दीया जलता हैउस घर में चोर नहीं झांकते। दीया बुझा हैचोर प्रवेश कर जाते हैं। बुद्ध ने कहा हैजिस घर के द्वार पर बैठा हुआ पहरेदार हैउस घर की तरफ चोर देखते भी नहीं। जिस द्वार पर पहरेदार सोया हुआ हैचोरों के लिए निमंत्रण हो जाता है।
वासनाएं चोरों की भांति हैं। आपका पहरेदार जागा होकि आपके भीतर का दीया जलता होतो वासनाएं झांककर भी नहीं देखेंगी। और आप सोए हैं और खर्राटे की आवाज आ रही हैतो वासनाएं आपको घेर लेंगी। मूर्च्छा मेंअंधकार मेंसोए हुए होने में वासनाओं का बल है।
जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धि वाला असंयतचित्त और अपवित्र रहता है वह उस परमपद को नहीं पा सकता अपितु बार—बार जन्म— मृत्युरूप संसार— चक्र में भटकता रहता है।
मूर्च्छा ही भटकाती है बार—बार। यह कई बार ऐसा लगता है कि बार—बार जन्म—मृत्यु का यह चक्रसमझ में नहीं आताक्योंकि हमें अनुभव में नहींखयाल में नहीं है। हमें उसका कोई स्मरण नहीं है। इसको छोड़ दें। एक और तरह से इस बात को समझें तो खयाल में आ जाए।
आप कितनी दफे जिंदगी में क्रोध कर चुके हैंऔर कितनी दफे पश्चात्ताप कर चुके हैंऔर कितनी दफे तय कर चुके हैं कि अब क्रोध नहीं करूंगालेकिन फिर करते हैं। कितनी बार वासना ने आपको पकड़ाआप बेहोश हुएपागल हुएऔर कितनी बार पीछे से पछताएऔर मन ने विषाद अनुभव कियाऔर मन दुखी और पीडित हुआऔर मन ने सोचा कि अब नहींबस बहुत हो गया। लेकिन यह कितनी बार हो चुका है!
बार—बारएक गाड़ी के चाक की तरह आप घूम रहे हैं। चाक का वही आरा अभी नीचे जाता मालूम पड़ता हैघड़ीभर बाद फिर ऊपर आ जाता है। क्रोध का आरा अभी ऊपरनीचे जाता मालूम पड़ता है। जब वह नीचे जाता हैतब आप पश्चात्ताप कर लेते हैं। फिर वह ऊपर आ जाता है। फिर नीचे जाता हैफिर पश्चात्ताप कर लेते हैं। गाड़ी के चाक के आरों की भांति आपका जीवन एक वर्तुल में घूम रहा है। और इसलिए इस बात को समझने में बहुत कठिनाई नहीं है कि यही वर्तुल इस जन्म से शुरू नहीं हो रहा हैइस मृत्यु पर समाप्त नहीं हो रहा है।
अभी मनोवैशानिक कहते हैं कि बच्चे के गर्भ में रहते हुए भी उसका व्यक्तित्व होता है—भिन्न। पैदा होने के बाद तो होने ही वाला है भिन्नगर्भ में भी भिन्न होता है। कुछ बच्चे गर्भ में ही एग्रेसिव होते हैं और मा के पेट में लातें मारते हैं। आक्रामक और हिंसक होते हैं। कुछ बच्चे इतने उदासचित्त होते हैं कि उनके कारण मां उदास हो जाती हैजब बच्चे गर्भ में होते हैं। कुछ बच्चे इतने प्रसन्न और आनंदित होते हैं कि उनके कारण मां प्रफुल्लित और आनंदित हो जाती है। क्योंकि मां उनकी तरंगों से आदोलित होती है। वे दोनों जुड़े हुए हैं।
इसलिए अक्सर स्त्रियों का व्यक्तित्व गर्भावस्था में बदल जाता है। क्योंकि एक नया व्यक्ति और एक नई आत्मा संयुक्त हो जाती है। उसके भी प्रभाव काम करने लगते हैं। इसलिए गर्भावस्था में स्त्री का व्यक्तित्व भिन्न हो जाता है। शांत स्त्री अशांत हो सकती हैअशांत शांत हो सकती है। बच्चे के जन्म के बाद वह वापस लौट आएगी अपने ढर्रे में। लेकिन नौ महीने में एक नई धारा उसके भीतर प्रवाहित होती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पहले ही क्षण से बच्चे का अपना व्यक्तित्व है।
यह व्यक्तित्व कहा से वह लेकर आता होगा! इसके पीछे लंबी कथा होनी चाहिए। कोई बच्चा आज पैदा नहीं हो रहा है। अनंत—अनंत जन्मों की यात्रा हैवह उनको लेकर पैदा हो रहा है।
जब बच्चा मां के पेट में होता हैतो हर बच्चे के साथ अलग स्वप्न मां को— आते हैं। इसलिए जैनों ने और बौद्धों ने तो पूरा स्वप्न—विज्ञान निर्मित किया था। कि जब तीर्थंकर पैदा होता है तो मां को कैसे स्वप्न आएंगे। उन स्वप्नों से पता चल जाएगा कि होने वाला बेटा तीर्थंकर हैया बुद्धपुरुष है। अनेक तीर्थंकर और अनेक बुद्धपुरुषों की मां को जो अनुभव हुए थे और जो स्वप्न आए थेउनको संगृहीत किया गया और उनको छाटकर एक पूरा विज्ञान बना लिया गया कि जब भी किसी स्त्री को गर्भ की अवस्था में ये स्वप्न आ जाएंतो समझना कि इस तरह की आत्मा भीतर प्रवेश कर गई। उसके प्रभाव से ऐसे स्वप्न आने शुरू होते हैं। यह जो व्यक्तित्व हैयह कोई समाजसंस्कारव्यवस्था से पैदा नहीं होता। यह व्यक्ति अपने साथ लेकर आता है। आपका मन बड़ा प्राचीन है। अनंत—अनंत अनुभव उसके पास संगृहीत हैंबीज की तरहअति सूक्ष्म। उन सूक्ष्म अनुभवों का यह जो जोड़ हैयह कोई आज ही एक चाक की तरह नहीं घूम रहा हैयह घूमता ही रहा है। इसलिए हमने संसार को एक चक्र कहा हैएक व्हील।
यह सूत्र कहता है कि जो संयतचित्त नहींविवेक जिसका जागरूक नहींजो निर्दोष और पवित्र नहींवह बार—बार लौटकर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है।
परंतु जो सदा विवेकशील बुद्धि से युक्त संयतचित्त और पवित्र है वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहां से लौटकर पुन: जन्म नहीं होता।
यह परमपद की धारणा भारत के मन को बड़े प्राचीन समय से पकड़े हुए है। कैसे इस चक्र के बाहर होना हो। मुक्तिबड़ी अनूठी धारणा है और भारत की अपनी है। मोक्ष भारत की अपनी धारणा है। और करोड़ों—करोड़ों बुद्धपुरुषों के अनुभवों का सार हैकि कैसे इस चक्र के बाहर छलांग लगाई जाए। कैसे कोई इस चक्र के बाहर हो जाए।
और जब तक इस चक्र से कोई बंधा हैतब तक कोई दुख से छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि जो छूट गया वह फिर आ जाएगा। जो लगता है गया हुआवह फिर लौट आएगा। और हम बिलकुल बंधे हैंऔर हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। इस बंधन के बीच एक ही धागा है जो स्वतंत्रता की तरफ ले जा सकता हैवह धागा विवेक का है।
एक आदमी कारागृह में बंद है और सोया हुआ है। क्या सोया हुआ आदमी कारागृह से किसी भी तरह बाहर निकल सकता हैसोए हुए आदमी को पहले तो पता ही नहीं चलता कि वह कारागृह में है। और सोए हुए आदमी को अगर स्वप्न में पता भी चल जाए कि वह कारागृह में हैतो भी वह निकलने के लिए क्या करेगाउसकी आंखे बंद हैं और वह सोया हुआ पड़ा हैवह बेहोश है। और अगर वह स्वप्न में कुछ चेष्टा भी करे तो वह चेष्टा व्यर्थ होगीक्योंकि वह स्वप्न में होगीसत्य से उसका कोई संबंध न होगा। कारागृह से निकलने के लिए पहली शर्त है कि सोया हुआ कैदी जाग जाए। जाग जाए तो फिर कुछ हो सकता है।
गुरजिएफजिसने पश्चिम में इस सदी में जागरूकता पर बड़े गहन प्रयोग किए हैं—ठीक महावीर और बुद्ध जैसे गहन प्रयोग इस सदी में करने वालाव्यक्ति गुरजिएफ था—गुरजिएफ कहता था कि आदमी इतना सोया हुआ है कि अकेले आदमी पर भरोसा ही नहीं किया जा सकता कि वह जाग सकता है। इसलिए गुरजिएफ कहता था कि स्कूल वर्क इज नीडेड। अकेले आदमी से नहीं होगा यहइसलिए एक समूह की जरूरत है।
जैसे समझें कि एक रात अंधेरी हैचोरों का डर हैजंगली जानवरों का भय हैऔर आप दस आदमी एक जंगल में रुके हैं। आप यह भरोसा नहीं कर सकते कि एक आदमी को हम पहरे पर बिठाल दें तो वह जागा रहेगा। तो आप ऐसा इंतजाम करते हैंकि एक आदमी दो घंटे जागेफिर वह दूसरे को जगाए वह दो घंटे जागेफिर वह तीसरे को जगाएवह दो घंटे जागे। एक आदमी जागता रहे और दूसरा उसको देखता रहे कि वह जाग रहा है कि नहींसो तो नहीं रहा है। वह झपकी खाए तो दूसरा उसको जगाए। कि दूसरे के पीछे तीसरा लगा रहे। और ध्यान रखे कि वह झपकी तो नहीं खा रहा हैकि उसकी नजर तो नहीं चूक गईइसको गुरजिएफ कहता थास्कूल वर्क। इसको वह कहता था—एक समूह।
इसलिए गुरजिएफ ने पश्चिम मे छोटे—छोटे स्कूल निर्मित किए थेजिनमें वह थोड़े—से लोगों को साथ लेकर कोशिश करता था कि वे एक—दूसरे को जगाने की कोशिश करते रहें। कोई सो न जाए। बड़े सालों की मेहनत के बाद यह हालत पैदा हो पाती है कि लोग जागना सीखते हैं। कारागृह में सोया हुआ आदमी तो सोच हीनही सकता कि कारागृह से कैसे निकलनाजागरण पहली बात है।
और सोए हुए आदमी को जागने के दो ही उपाय हैं। या तो कोई जागा हुआ उसे जगाएयही गुरु का अर्थ है। सोया हुआ आदमी सोया हैउसे यह भीपता नहीं कि मैं सोया हूं। क्योंकि यह भी उसे हीपताहो सकता है जो जागा होसोने का पता भी तो जागने में चलता है। आप जब सुबह जागते हैंतब आपको पता चलता है कि रात सोएबड़े मजे से सोए। यह तो नींद में पता नहीं चलता। यह तो जागने का अनुभव है कि रात सोएमजे से सोएठीक से सोएनींद अच्छी आई। यह नींद का अनुभव नहीं है। सोए हुए आदमी को पता ही नहीं कि वह सो रहा है। अगर आप आज रात सोए और बीस साल तक न जायेतो आपको यह पता भी नहीं चलेगा कि सुबह कभी की हो चुकी।
मैं एक स्त्री को देखने गया थावह नौ महीने से सोई हुई है। नींद में ही मूर्च्छित हो गई। कोमा हो गया। अब वह कभी उठेगी नहींडाँक्टर कहते हैं। तीन साल तक पड़ी रह सकती है इसी नींद में। उस स्त्री को पता भी नहीं होगा कि सुबह हो चुकी बहुत दिन पहलेनौ महीने पहले। वह अभी भी सो रही है। उसे पता होगापता ही नहीं होगा। उसे यह पता होगा कि सो रही है। अभी वह अगर जागेतो अगर वह शुक्रवार की रात सोई होगी तो जागते से ही वह पूछेगीक्या शनिवार हो गयासुबह का उसे खयाल आएगा और वह कहेगीरात बडी गहरी नींद आई। उसे यह खयाल भी नहीं आ सकता कि नौ महीने.. वह तो जागे हुए लोगों का खयाल है।
गुरु का अर्थ इतना ही है कि सोए हुए आदमी को कोई जगा सकता है जो जागा हुआ हो। लेकिन बडा खतरा है। गुरु का काम थोड़ा खतरनाक है। क्योंकि किसी सोए आदमी को जगानानाराज करना है उसको। तुम उसकी नींद तोड रहे हो! वह मजे से सपना ले रहा है। वह विश्राम कर रहा हैतुम नाहक उसको परेशान कर रहे हो।
इमेनुएल कांट जर्मनी का एक दार्शनिक हुआ। उसने एक नौकर रख छोड़ा था। नौकर का काम इतना था कि सुबह उसे चार बजे उठा दे। उसे ब्रह्म—मुहूर्त में उठने की झक थी। और आदमी वह ऐसा था कि जो उसे उठाए उससे वह लड़ाई—झगड़ा करता। तो नौकर इसी लिए रख छोड़ा थाक्योंकि उसके परिवार का कोई उठाने को राजी न था। क्योंकि वह गाली बकतागलौज करताकभी मारता भी—सुबह उसकी चार बजे जो भी नींद तोडता। लेकिन ब्रह्म—मुहूर्त में उठने की उसको झक भी थी। तो एक नौकर ही रख छोड़ा था। उसका काम ही यह था कि मार—पीट भी हो जाए तो कोई फिकर नहींउठाकर ही रहेगा। उसकी आज्ञा ही थी कि चाहे मैं मारूंतुझे भी मारना पड़े तो मारनालेकिन चार बजे उठाना है।
गुरु का काम उपद्रव का है। इसलिए गुरुओ पर लोग नाराज हो जातेहैं। जीसस को हम सूली पर लगा देते हैं। वह गुस्सा है सोए हुए लोगों काकि हमारी नींद खराब कर रहे हो!
ऑस्पेंस्की ने अपनी एक किताब अपने गुरु गुरजिएफ को डेडिकेट की हैसमर्पित की है। उसमें लिखा है—गुरजिएफ कोजिसने मेरी नींद तोड़ी।
मगर जब तोड़ी थीतब बड़ी पीड़ा का काम थाबड़े कष्ट का काम था।
तो गुरु शिष्य के बीच एक संघर्ष है। क्योंकि शिष्य सोना चाहता है। असल में वह आया इसीलिए है कि तुम ऐसी तरकीब बताओ कि वह अच्छी तरह सो सके। वह आया भी नहीं कि जागे। वह कहता हैशाति से सो सकूंऐसा कुछ रास्ता!
गुरु और शिष्य के प्रयोजन अलग हैं। शिष्य चाहता है कि किसी तरह शाति से सो सकेअच्छी गहरी नींद आए। वह इसी प्रयोजन से आता है। शाति की तलाश में आते हैं लोग। सत्य की तलाश में तो शायद ही कोई आता है। मुझसे कोई नहीं पूछने आता कि सत्य कैसे मिले। जो भी आता हैवह कहता हैशाति कैसे मिलेवह नींद की खोज कर रहा हैवह कोई टेंरक्येलाइजर खोज रहा है। कोई जो सम्मोहित कर दे और वह मजे से सो जाए।
गुरु का प्रयोजन दूसरा है। एक अर्थ में गुरु शिष्य का दुश्मन है। क्योंकि वह आया है नींद की तलाश करनेऔर गुरु उसको नींद की तलाश का आश्वासन देता है कि ठीक हैशांत हो जाओगेआओवह जगाएगा। लेकिन जगाने से पहले अशांति बढ़ेगी। शाति तो बहुत बाद में आएगी। जागने से पहले अशांति बढ़ेगीक्योंकि नींद में जिनका कुछ भी पता नहीं थावे सब उपद्रव पता चलने शुरू हो जाएंगे।
जैसे ही कर्षे व्यक्ति ध्यान करता हैवैसे ही उसकी अशांति बढ़नी शुरू होती है। क्योंकि जो चीजें उसे कल दिखाई नहीं पड़ती थींवे अब दिखाई पडती हैं। कोई अशांति बढ़ती नहीं। अशांति सदा थीलेकिन होश ही नहीं था। अब जहा—जहां काटे लगे हैंवे सब चुभते हैं। वे सदा से चुभ रहे थेलेकिन बेहोशी में पता नहीं चलता था। अब सारी मुसीबतें मालूम होने लगती हैं।
साधक का जीवन पहले बड़ी अशांति से गुजरता है। वही तपश्चर्या है। उससे जो गुजर जाता हैवह शाति को उपलब्ध होता है।
लेकिन गुरु की आकांक्षा  शाति के लिए नहीं है। गुरु की आकांक्षा सत्य के लिए हैपरम सत्य के लिए है। परम सत्य की छाया है शाति। जिसे परम सत्य मिलता हैवह शांत तो हो ही जाता है। लेकिन इस सारी यात्रा का मूल—सूत्र है विवेक। और जो विवेक को उपलब्ध हैवह परमपद को पा जाता है और उस जगह पहुंच जाता है जहा से कोई लौटना नहीं है।
जो कोई मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से संपन्न और मनरूप लगाम को वश में रखने वाला है वह संसार मार्ग के पार पहुंचकर सर्वव्यापी परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान के उस सुप्रसिद्ध परम पद को प्राप्त हो जाता है।
यह थोड़ा समझ लेने जैसा हैक्योंकि लोगों को इस संबंध में बड़ी भ्रांतियां हैं। आमतौर से लोग समझते रहते हैं कि भगवान कोई व्यक्ति हैजिससे हमारा मिलन होगाजिसका हम साक्षात्कार करेंगे। यह बिलकुल ही असत्य है।
भगवान कोई व्यक्ति नहीं हैजिससे आपकी मुलाकात होगी और आप कोई इंटरव्यू लेंगे। भगवान. एक अवस्था है। जैसे ही आप उस अवस्था के करीब पहुंचेंगेआप भगवान होते जाएंगे। जिस दिन आप उस अवस्था में पूरे डूब जाएंगेआप भगवान हो जाएंगे। वहा कोई बचेगा नहींजिससे आप मुलाकात लेंगे। आप ही हो जाएंगे।
भगवान के दर्शन का अर्थ भगवान हो जाना हैक्योंकि भगवान एक पद हैवह एक अवस्था है। वह चेतना की आखिरी ऊंचाई है। वह आपके भीतर ही छिपे हुए बीज का आखिरी रूप से खिल जाना है। वह जो छिपा हैउसका प्रगट हो जाना है।
तो भगवत्ता एक अवस्था है। इसलिए अच्छा हैभगवान शब्द से भी ज्यादा अच्छा शब्द है भगवत्ताक्योंकि उससे अवस्था का पता चलता हैन कि व्यक्ति का—दिव्यतागॉडलीनेस। बजाय गॉडईश्वर कहने के बजायभगवान कहने के बजायब्रह्म कहने के बजाय—भगवत्ताब्रह्मपद।
लेकिन आदमी की कठिनाई है। क्योंकि आदमी की जो भाषा हैवह सभी चीजों को प्रतीक मेंसंकेत में बदल लेती है। हम सभी चीजों को बदल लेते हैं। अभी भारत में आजादी की लड़ाई चलती थी तो घर—घर में फोटुएं टंगी थीं भारतमाता की। वह कहीं है नहीं। लेकिन फोटुएं टंगी थीं—माता के पैरों में जंजीरें पड़ी हैंहाथ में तिरंगा झंडा है। भारतमाता! और भारतमाता की जय बोलते—बोलते अनेक भूल गए होंगे। भारतमाता जैसा कोई कहीं कुछ है नहीं। प्रतीक है। प्रतीक प्यारा हैकाव्यात्मक हैलेकिन तथ्य नहीं है। भगवान भी बस प्रतीक है। वहां कोई बैठा हुआ भगवान नहीं है। आप ही हो जाएंगे। इसलिए भगवान की खोज असल में भगवान होने की खोज है। और जब तक कोई भगवान न हो जाएतब तक जीवन में यह खोज जारी रहती है। रहेगी ही। क्योंकि इसी की तलाश हैइसी की प्यास है।
जैसे बीज जमीन में पड़ा हो तो तड़पता हैकि वर्षा हो तो फूट जाएअंकुरित हो। रास्ते में कंकड़—पत्थर पड़े हों तो उनको भीकोमल—सा बीज भी उनको हटाकर या उनसे बचकर निकलने की कोशिश करता है। फूटता हैजमीन पर आता हैउठता है आकाश की तरफ। और जब तक फूल न खिल जाएंतब तक बीज की दौड़ जारी रहती है।
आदमी भी एक बीज है। कहें कि वह भगवान का बीज है। भगवत्ता का बीज है। और जब तक टूटकर भगवान का फूल न खिल जाएतब तक बेचैनी जारी रहेगी। यह बेचैनी सृजनात्मक हैक्रिएटिव है। इस बेचैनी के बिना आप तो भटक जाएंगे।
इसलिए धन्य हैं वेजो आध्यात्मिक बेचैनी से भरे हुए हैं। अभागे हैं वेजिनको कोई बेचैनी नहीं। जो कहते हैंहमें कुछ जरूरत ही नहीं है।
मेरे पास कई लोग आते हैंवे कहते हैंध्यान की क्या जरूरत है? क्या करना है खोजकर भगवान कोधर्म से क्या लेना—देना है?
इस पृथ्वी पर इनसे ज्यादा अभागा और कोई भी नहीं है। ये बीज हैं जो कह रहे हैं—क्या करना है फूटकरक्या होगा अंकुर बनकरऔर क्या फायदा है आकाश में उठने काऔर सूरज की यात्रा से क्या मिलने वाला हैतो ये बीज बीज ही रह जाएंगेकंकड़—पत्थर की तरह पड़े रहेंगे। दुखी होंगे। दुखी हैंलेकिन उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि दुख क्या है।
मेरी दृष्टि में एक ही दुख है जीवन का—आप जो होने को पैदा हुए हैंअगर न हो पाएतो आप दुखी होंगे। और एक ही आनंद है जीवन का कि आप जो होने को पैदा हुए हैंहो गए। नियति पूरी हो गई। वह जो छिपा थाअनछिपा हो गयाप्रगट हो गया। और जब तक आप वही न हो जाएं जो होने की आपकी क्षमता है—और वह क्षमता भगवान होने की है—तब तक जीवन से पीड़ासंताप का अंत नहीं है।
और यह सौभाग्य की बात है कि अंत नहीं है। क्योंकि अगर अंत हो जाएतो आप वहीं बैठकर रह जाएंगे जहां आप हैं। वह पीड़ा ही आपको धकाए चली जाती है। दुख ही आपको धकाए चला जाता है। अशांति ही आपको धक्का देती है। अशांतिपीड़ा पतवार की तरह हैवही आपकी नाव को ले जाती है उस किनारे की तरफ।
क्योकि इंद्रियों से शब्दादि विषय बलवान हैं और शब्दादि विषयों से मन प्रबल है और मन से भी बुद्धि बलवती है तथा बुद्धि से भी आत्मा उन सबका स्वामी होने के कारण अत्यंत श्रेष्ठ और बलवान है। इसलिए ध्यान रखनाजिसको वश में लाना होउसके पीछे छिपे हुए तत्व को जगाना। बलवान को पकड़नानिर्बल से मत लड़ना। यह पॉजिटिवयह विधायक खोज है।
दो तरह के लोग हैं। एक होते हैं नकारात्मक बुद्धि के लोग। वे हमेशा लड़ने में ही समय बिता देते हैं। दूसरे होते हैं विधायक बुद्धि के लोगवे लड़ने की फिकर नहीं करते। वे श्रेष्ठ की तलाश में लग जाते हैं। कुछ लोग हैं जो इसी में समय बिता देंगे कि जो व्यर्थ हैजो गलत हैउसको कैसे जीता जाए। और कुछ हैं जो सार्थक है उसको कैसे जन्माया जाएउसमें शक्ति को लगाएंगे। कुछ हैं जो अंधेरे से लड़ते रहेंगे और कुछ दीए को जलाने की कोशिश करेंगे।
और मजे की बात यह है कि अंधेरे से लड़ने वाला कभी भी अंधेरे से जीत नहीं पाता और दीए को जलाने वाला अंधेरे को जीत लेता है। तो आप दीए को जलाने वाले बननाअंधेरे से मत लड़ना। नकारात्मकता अगर आपकी साधना में प्रविष्ट हो जाएतो साधना बीमार हो गई। विधायक होना। कुछ पाने की कोशिश करनाकुछ छोड़ने की नहीं।
इसलिए मैं कहता हूं त्याग शब्द को भूल जाओ। कुछ छोड़ने की फिकर मत करनाकुछ उपलब्धि की फिकर करनाकुछ पाने की फिकर करना। और जैसे—जैसे तुम पाओगेवैसे—वैसे तुम पाओगेबहुत—सा छूटता चला जाता है। जैसे ही तुम सीढ़ी परऊंची सीढ़ी पर पैर रखोगेनीची सीढ़ी से पैर अपने आप हट जाएगा। तुम नीची सीढ़ी को छोडने की कोशिश मत करनातुम ऊंची सीढ़ी पर पैर रखने की कोशिश करना। तुम आगे बढ़नापीछे से तुम्हारी मुक्ति होती चली जाएगी। जैसे—जैसे व्यक्ति भगवान में प्रविष्ट होता हैया भगवान होने में लीन होता हैवैसे —वैसे संसार छूटता चला जाता है।
मेरे देखे ज्ञानियों ने कुछ भी नहीं छोड़ा हैसिर्फ अज्ञानी छोड़ते हैं। यह थोड़ा जटिल मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम कहते हैंमहावीर महात्यागी हैंबुद्ध महात्यागी हैं। मेरे लेखे नहीं। मेरे लेखे महावीर कुछ भी छोड़ते नहींकुछ पाते हैं। और इतना पा लेते हैं कि उसमें कचरा छूट ही जाता है। अब जिसको हीरे मिल जाएंवह कंकड़—पत्थर हाथ में लिए बैठा रहेगाहीरे के लिए जगह बनानी पड़ेगीकंकड़—पत्थर छोड़ देने पड़ेंगे। अशानी छोड़ते हैं और कष्ट पाते हैं। भोग के भी कष्ट पाते हैं और त्याग के भी कष्ट पाते हैं।
मैं दोनों तरह के अज्ञानियों को जानता हूं। भोगते हैंतब भी कष्ट पाते हैंभोग भी नहीं सकते हैं ठीक से। छोड़ देते हैंफिर त्याग के कष्ट पाते हैं।
एक संन्यासी ने मुझे आकर कहा कि चालीस साल हो गए छोड़े हुएअभी तक कुछ मिला नहीं। तुम पागलछोड़े किसलिएपहले पा लेते फिर छोड़तेतो यह चालीस साल की पीड़ा तो बचती! कुछ मिला नहींछोड़े चालीस साल हो गए! असल में जब तक मिले नहींतब तक छोड़ने से एक रिक्तता पैदा होगी। और वह रिक्तता बहुत दुख देगीनारकीय हो जाएगी।
इसलिए मेरी समझ में तो गृहस्थों से भी ज्यादा दुख तथाकथित साधु भोगते हैं। गृहस्थ को कम से कम कुछ तो भरोसा है कि संसार है। साधु को वह भी भरोसा नहीं। संसार भी छूट गया। परमात्मा दिखाई नहीं पड़तामोक्ष समझ में नहीं आतासंसार छूट गया। जो हाथ में थावह गया और आया कुछ भी नहीं।
खाली मुट्ठी है।
मगर वह मुट्ठी को बांधे रखता है ताकि लोगों को ऐसा न लगेकिसी को पता न चले कि कुछ भी उसके पास नहीं। इसलिए आत्मज्ञान कीब्रह्मज्ञान की बातें करता रहता है। पर वे बातें सब दूसरों के लिए हैं। वह अपने को धोखा दे रहा है। वह दूसरों से चर्चा कर—कर के अपने से बात कर रहा हैअपने को समझा रहा हैपरसुएड कर रहा है कि नहींकुछ मिल गया है।
जब तक मिले नहींतब तक छोड़ना मत। तब तक कंकड़—पत्थर भी ठीक हैंकम से कम मुट्ठी तो बंधी रहती है। और ऐसा तो रहता है कि कुछ अपने पास है। और फिर जल्दी क्या है कंकड़—पत्थर छोड़ने कीजब हीरा मिलने लगेकंकड़—पत्थर गिर जाएंगेछोड़ने भी नहीं पड़ेंगे। आपको याद भी न आएगाकब हाथ से कंकड़—पत्थर छूट गए और हीरे पर मुट्ठी बंध गई।
पॉजिटिवविधायक होने की दृष्टि सदा बनाए रखनी चाहिए। वही प्रयोजन है यम का। श्रेष्ठ और बलवान कौन है भीतरउसको जगाएं।
उस जीवात्मा से भी बलवती है भगवान की अव्यक्त मायाशक्ति। अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष स्वयं परमेश्वर। परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है वही सबकी परम अवधि और वही सबकी परम गति है।
इसलिए साधना की जो आत्यंतिक व्यवस्था हैवह है परमात्मा के प्रति समर्पण। उसका मतलब यह नहीं होता कि कोई परमात्मा है कहीं आकाश मेंजिसके चरणों में आपने सिर रख दिया। परमात्मा के प्रति समर्पण का अर्थ होता है कि आप के भीतर जो श्रेष्ठतम और आत्यंतिक शक्ति हैउसके प्रति आपने अपने को समर्पित कर दिया। और अगर यह समर्पण पूरा हो जाएतो एक क्षण में भी संयमसाधना सब पूरी हो जाती है।
पुराने शास्त्रों ने कहा हैगुरु के प्रति समर्पण। सिर्फ इस अर्थ में कि जिस परमात्मा की तुम्हें भीतर कोई खबर नहीं हैजिसे तुम अपने भीतर खोजने में असफल हो रहे होजिसकी झलक तुम अपने भीतर नहीं उपलब्ध कर पा रहेक्योंकि बड़ी पर्तें हैं अंधेरे कीबड़ी दीवारें हैंवह किसी दूसरे व्यक्ति में पारदर्शी हो गया हैट्रासपेरेंट हो गया है। उस ट्रांसपेरेंसी मेंउस पारदर्शिता में तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ रहा है।
महावीर के पास जिनको परमात्मा दिखाई पड़ाबुद्ध के पासनानक के पासजीसस के पासमुहम्मद के पासजिनको उनकी पारदर्शिता में भीतर का तत्व जगमगाता हुआ दिखाई पड़ावे समर्पित हो गए। वह समर्पण पहले तो मुहम्मद या महावीर के प्रति थालेकिन वह जो भीतर का तत्व है वह तो एक ही है। वह मुहम्मद का और आपका अलग थोड़े ही है!
समर्पित होते ही उस झलक के प्रतिअपनी झलक की शुरुआत हो जाती है। जैसे दूसरे के सहारे अपना दिया जल गया। जैसे दूसरे की मौजूदगी में दूसरा एक केटेलिटिक एजेंट हो गया। गुरु केटेलिटिक एजेंट है। और जब तक खुद का भीतर का गुरु न जग जाएतब तक बड़ा सहयोगी है।    परमात्मा के प्रति समर्पण का अर्थ है—अपनी श्रेष्ठतम संभावना के प्रति समर्पणअपने अंतिम भविष्य के प्रति समर्पणअपनी नियति की अंतिम अवस्था के प्रति समर्पण।
एक मित्र आज मेरे पास आए थे। पूछने लगे कि आत्मा तक तो ठीक हैलेकिन परमात्मा भी कोई है? जैन हैंइसलिए थोड़ी अड़चन है। क्योंकि जैन कोई परमात्मा को नहीं मानते। आत्मा तक तो ठीक हैलेकिन कोई परमात्मा भी है क्यालेकिन आत्मा का भी पता कहां हैवह भी पढ़ा हैसुना हैवह भी जिस संप्रदाय में पैदा हुए हैंउसकी खबर है। अगर आत्मा की ही खबर हो जाएतो परमात्मा से मिलन हो ही जाता है तत्कण।
महावीर ने कहा हैआत्मा ही परमात्मा है। लेकिन आत्मा की कुछ तीन हालतें हैं। महावीर का विश्लेषण बहुत साफ है। महावीर ने कहाएक आत्मा की हालत है—बहिर— आत्माबाहर की तरफ देखती हुई आत्मा। और एक आत्मा की हालत है—अंतर— आत्माभीतर की तरफ देखती आत्मा। और एक आत्मा की हालत है—परमात्मान बाहरन भीतरकहीं भी न देखती हुईअपने में ठहरी हुई।
तो परमात्मा को महावीर आत्मा की अवस्था कहते हैं। यम भी वही कह रहा है। वह भी नहीं कह रहा है कि कोई परमात्मा कहीं बाहर बैठा हुआ है। वह भी यही कह रहा है कि जीवात्मा से भी बलवती है भगवान की अव्यक्त माया शक्ति। अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष स्वयं परमेश्वर। परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है। वही सबकी परम अवधि और वही सबकी परम गति है।
वहीं सबको पहुंच जाना है। वही सागर हैजहां सभी गंगाएं गिरेंगी। वह सागर कितना ही दूर मालूम पड़ता होदूर नहीं है। और कितनी ही देरी लगती हो गंगा के पहुंचने मेंदेरी नहीं है। गंगा हर क्षण सागर के प्रति गिर रही हैगिरती जा रही है। गंगोत्री से गिरना शुरू करती हैध्यान तो सागर पर ही लगा हैगिरती चली जाती है। और वह परम गति है—सागर में जब गंगा गिर जाती हैतो सागर अलग और गंगा अलग नहीं है। गंगा सागर हो जाती है।
व्यक्ति की परमअंतिम अवस्था है परमेश्वर। वह सागर हैजहा सभी नदियां गिर जाती हैं।

अब ध्यान के लिए तैयार हों।
ध्‍यान योगशिविर,
माउंट आबू, राजस्‍थान।

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