13 जनवरी 1978,
श्री रजनीश आश्रम, पुना।
सूत्र :
द्वेषप्रतिक्षभाद्रसशब्दाच्च राग:।।6।।
नक्रियाकृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत्।।7।।
अत एवफलानन्त्यम् ।।8।।
तद्वत:प्रपत्तिशब्दाच्च नज्ञानमितरप्रपत्तिवत्।।9।।
सा मुख्येतरापेक्षितत्वात्।।10।।
मनुष्य है एक द्वंद्व। प्रकाश और अंधकार का; प्रेम और घृणा का। यह द्वंद्व अनेक सतहों पर प्रकट होता है। यह द्वंद्व मनुष्य के कण—कण्रामें छिपा है। राम और रावण प्रतिपल संघर्ष में रत है। प्रत्येक व्यक्ति कूरुक्षेत्र में ही खड़ा है। महाभारत कभी हुआ और समाप्त हो गया, ऐसा नही, जारी है। हर नए बच्चे के साथ फिर पेदा होता है।
इसलिए कूरुक्षेत्र को गीता में धर्मक्षेत्र कहा है, क्यों कि वहां निर्णय होता है। धर्म और अधर्म का। प्रत्येक के व्यक्ति के भीतर निर्णय होना है धर्म अधर्म का। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर निर्णायक घटना घटने को है। इसलिए आदमी को कहीं राहत नहीं। कुछ भी करे, राहतनहीं। क्योंकि भीतर कुछ उबल रहा है। भीतर सेनाएं बंटी खड़ी है। क्या होगा परिणाम, क्या होगी निष्पत्ति इससे चिंता होती है।
और चिंता के बड़े कारण हैं। क्योंकि घृणा के पक्ष में बड़ी फौजें हैं। घृणा के पक्ष मैं बडी शक्तियाँ हैं। महाभारत मैं भी कृष्ण की सारी फौजें कौरवों के साथ थी, केवल कृष्ण, निहत्थे कृष्ण पांडवों के साथ थे। वह बात बड़ी सूचक है। ऐसी ही हालत है। संसार की सारी शक्तियाँ अँधेरे के पक्ष में है। संसार की शक्तियाँ यानी परमात्मा की फौजें। परमात्मा भर तुम्हारे पक्ष में है, निहत्था। भरोसा नहीं आता कि जीत अपनी हो सकेगी। विश्वास नहीं बैठता कि निहत्थे परमात्मा के साथ विजय हो सकेगी।
कृष्ण ही अर्जुन के सारथी थे, ऐसा नहीं, तुम्हारे रथ पर भी जो सारथी बनकर बैठा है वह कृष्ण ही है। प्रत्येक के भीतर परमात्मा ही रस को सँभाल रहा है। लेकिन सामने विरोध में दिखायी पड़तीहै बड़ी सेनाएँ, बड़ा विराट आयोजन। अर्जुन घबडा गया था। हाथ-पैर थरथरा गये थे। गांडीव छूट गया था। पसीना-पसीना हो गया था। अगर तुम भी जीवन के युद्ध में पसीना-पसीना हो जाते हो, तो आश्चर्य नहीं। हार निश्चित मालूम पड़ती है, जीत असंभव आशा।
इस द्वंद्व में ठीक-ठीक पहचान लेना जरूरी है--कौन तुम्हारा मिल है और कौन तुम्हारा शत्रु है। यही महाभारत की प्रथम घड़ी में अर्जुन ने कृष्ण से कहा था.- मेरे रथ को युद्ध के बीच में ले चलो, ताकि मैं देख लूँ कौन मेरे साथ लड़ने आया है, कौन मेरे विपरीत लड़ने को खड़ा है? किससे मुझे लड़ना है? साफ-साफ 'समझ लूँ कि कौन साथी-संगी है, कौन शत्रु है?
और युद्ध के मैदान पर जितनी आसान बात थी यह जान लेना, जीवन के मैदान पर इतनी आसान नहीं। वहाँ शत्रु-मित्र सम्मिलित खड़े हैं। वहाँ जहाँ प्रेम है, वहीं घृणा भी दबी हुई पड़ी है। जहाँ करुणा है, उसी के साथ क्रोध भी खड़ा है। सब मिश्रित है। कुरुक्षेत्र के उस युद्ध में तो चीजें साफ थीं, सेनाएँ बँट गयी थीं, बीच में रेखा थी--एक तरफ अपने लोग थे, दूसरी तरफ विरोधी लोग थे, बात साफ थी किसको मारना है, किसको बचाना है। लेकिन जीवन के युद्ध में बात इतनी साफ नहीं है, ज्यादाउलझन कीहै। तुम जिसको प्रेम करते हो, उसी को घृणा भी करते हो। जिसको चाहते हो और सोचते हो कि जरूरत पड़े तो जान दे दूँ, किसी दिन उसी की जान लेने का मन भी होने लगता है। जिस पर करुणा बरसाते हो, कभी उसी पर क्रोध भी उबल पड़ता है। सब उलझा है। धागे एक-दूसरे: में गुँथ गये हैं। जन्मों-जन्मों की गुत्थियाँ हैं। इस बात को ठीक से समझकर आज के सूत्र समझे जा सकेंगे।
तुम्हारे भीतर अंधकार को अलग छाँटना होगा, प्रकाश को अलग। वह जो उपनिषद के ऋषि ने परमात्मा से प्रार्थना की है : हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल--'तमसो मा ज्योत्तिर्गमय—उसी से शुरुआत होती है साधना की। कि मैं ठीक-ठीक जान लूँ, कौन अपना, कौन अपना नहीं। किसकी जड़ों में पानी देना है और किसकी जड़ें उखाड़कर फेंक देनी हैं।
बहुत बार भूल हो जाती है। तुम शत्रु को पोषण देते रहते हो। मित की जहर दे देते हो। कई बार मित्र शत्रु जैसा मालूम पड़ता है--क्योंकि कई बार मित्र सच और कठोर बातें कह देता है; और कई बार शत्रु चालबाजी कर जाता है, मीठी खुशामद करता है और मित्र जैसा लगता है।
ठीक स्पष्ट विभाजन हो जाए, तो यात्रा का बहुत काम सुगम हो जाता है। इस तरह विभाजन करो-
प्रेम परमात्मा है, यही भक्ति का सार है। तो अगर परमात्मा को खोजना 'है, तो जो-जो तुम्हारे भीतर प्रेमपूर्ण है, उससे मैत्री करो। और जो-जो तुम्हारे भीतर द्वेष- पूर्ण, उससे अमैली करो।
ख्याल रखना, मैं कह रहा हूँ--अ-मैत्री। जानकर, सोचकर। अ-मैत्री का अर्थ
शत्रुता मत समझ लेना। इसलिए अ-मैत्री कह रहा हूँ, नहीं तो शत्रुता ही कहता। क्योंकि जिससे तुमने शत्रुता बनायी, उससे भी एक तरह की मैत्री बन जाती है, संबंध बन जाता है। शत्रुता संबंध है। उससे नाता-रिश्ता हो जाता है। उसके और तुम्हारे बीच धागे जुड़ जाते हैं। इसलिए जानकर अ-मैत्री शब्द का उपयोग कर रहा हूँ। अमैत्री को अर्थ इतना ही है--उसकी उपेक्षा करो। उस पर ध्यान मत दो। पड़ा रहने दो एक कोने में, रहे तो, उसमें रस न लो।
रस लो प्रेम में! उँडेलो अपनी सारी जीवनऊर्जा प्रेम के पौधे पर। प्रेम का बिरवा ही तुम्हारी तुलसी हो। उसी पर चढ़ाओ दीप। उसीपर समर्पित करो अपना जीवन। उसी की जड़ों को पुष्ट करो। इतना-सा भी ध्यान मत दो घृणा पर, द्वेष पर, क्रोध पर --देखो भी मत, क्योंकि देखने में भी ऊर्जा प्रवाहित होती है।
तुमने ख्याल किया, ध्यान ऊर्जा है। तुम जिस पर ध्यान देते हो, उसी को ऊर्जा मिलने लगती है। इसीलिए तो छोटे बच्चे तुम्हारे ध्यान के लिए इतनी आकांक्षा करते हैं। तुमने कह रखा है बच्चों को कि घर में मेहमान आ रहे हैं, शोरगुल मत करना, शांत बैठना, एक कोने में बैठकर खेलते रहना। मेहमान नहीं आए थे. तो बच्चे एक कोने में खेल ही रहे थे, तुमने क्या कह दिया कि मेहमान आ गये है, अब बच्चे कोने में नहीं खेल सकते। बीच-बीच में खड़े हो जाते हैं आकर, बताने, कि माँ, यह देखो, कि पिता, यह देखो। क्या कारण होगा? शोरगुल मचाने लगते हैं। ध्यान चाहते हैं।
तुम्हारा सारा ध्यान मेहमान पर जा रहा है। स्वभावत:। बच्चों को इसमें ईर्ष्या होती है। ध्यान भोजन है।
अब तो मनोवैज्ञानिक इस सत्य 'को स्वीकार करते हैं कि माँ अगर बच्चे को दूध दे दे और ध्यान न दै--सिर्फ दुध दे दे उपेक्षा से--सुला दे, उठा दे, निपटा दे काम, जैसे नर्स निपटा देती है, तो बच्चे की आत्मा पंगु रह जाती है। सिकुड़ जाती है। ध्यान चाहिए। इसलिए जब तुम्हें कोई ध्यान देता है, तुम पर ध्यान देता है, तुम प्रफुल्लित होते हो, आनंदित होते हो। डसीलिए तो तुम लोगों के मंतव्यों का इतना विचार करते हो कि लोग मेरे संबंध में क्या सोचते हैं। और क्या कारण होगा? क्या पड़ी है तुम्हें कि लोग क्या सोचते हैं! सोचते रहें! लेकिन डर है कि कहीं ऐसा न हो कि ध्यान देना बंद कर दें। मैं राह से निकलूँ और कोई जयरामजी भी न करे! तो मर जाऊँगा। तो भूखा रह जाऊँगा। कहीं किसी तल पर कोई कमी रह जाएगी। राह से निकलूँ तो कम-से-कम लोग जयरामजी करें; लोग पहचानें कि मैं कौन हूँ। कितनी पीड़ा होती है तुम्हें जब तुम्हें कोई भी नहीं पहचानता कि तुम कौन हो! तब कितना तुम बता देना चाहते हो, बैंड़बाजा बजाकर कि मुझे पहचानो कि मैं कौन हूँ--कि मैं भी यहाँ हूँ।
उपेक्षा बड़ा कष्ट देती है। तुम चकित होओगे--यद्यपि चकित होना नहीं चाहिए--अगर जीवन का निरीक्षण करोगे तो तुम उस आदमी को माफ कर सकते हो जिसने- तुम्हें घृणा की, लेकिन उस आदमी को माफ नहीं कर सकते जिसने तुम्हारी उपेक्षा की। दुश्मन माफ किया जा सकता है, क्योंकि दुश्मन ने चाहे घृणा भले की हो लेकिन ध्यान तो दिया ही, तुम्हारा चिंतन तो किया ही, तुम्हारे बाबत विचार की तरंगें तो उठीं ही, लेकिन उपेक्षा! तुम गुजरे और किसी ने इस तरह देखा जैसे कोई गुजरा ही नहीं, तुम कभी माफ न कर पाओगे।
ध्यान भोजन है। ध्यान से चीजें परिपुष्ट होती हैं। इसलिए मैं कह रहा हूँ--शत्रुता नहीं, अ-मैत्री। सिर्फ मित्रता तोड़ लो, बस इतना काफी है। मित्रता तोड़कर शत्रुता न बना लेना, नहीं तो यह फिी नये ढंग से मित्रता हो गयी--शीर्षासन करती हुई मित्रता--मगर यह मिलता ही है।
और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम शत्रु के संबंध में ज्यादा सोचते हों--मित्र के संबंध में कौन सोचता है। मित्र तो मित है ही, सोचना क्या है। शत्रु के सबंध में सोचते हो।
प्रेम से मैत्री, द्वेष से अ-मैत्री। सारी ऊर्जा को प्रेम के बिरवे पर डाल दो। बढ़ने दो उसे, खिलने. दो उसे, फूल आने दो। वही बिरवा भक्ति का प्रारंभ है। उसमें ही तुमने पूरी जीवनऊर्जा डाली, तो एक दिन भक्ति बनेगी। और जहाँ भक्ति है, वहाँ भगवान है।
सत्य की खोज में निकले व्यक्ति को अक्सर द्वेष पकड़ लेता है। तुमने अक्सर लोग देखे होंगे--तुम देख सकते हो मंदिरों में, गुफाओं में, आश्रमों में बैठे हुए--उनके जीवन का मूल आधार परमात्मा का प्रेम नहीं है, ससार की घृणा है। परमात्मा को पाने के लिए ऐसी आतुरता नहीं है, जितनी आतुरता ससार छोड़ने की है। गलती हो गयी। शुरू से ही गलत कदम उठ गया, गलत दिशा में उठ गया। प्रभु को पाने से संसार छूट जाता है। संसार छोड़ना भी नहीं पड़ता, बीच बजार में खड़े-खड़े छूट जाता है। आदमी कमलवत हो जाता है। जल में होता है और जल छूता नहीं। वह और बात।
लेकिन एक आदमी इसी चिंता में पड़ा रहता है कि धन से कैसे छुटकारा हो, पद से कैसे छुटकारा हो, पत्नी-बच्चों से कैसे छुटकारा हो, माया-मोह से कैसे छूटूँ, इस आदमी ने अनजाने द्वेष का ही पोषण किया। यह संसार का द्वेष है। हालाँकि यह कहेगा कि मैं परमात्मा का खोजी हूँ, लेकिन इसकी जीवनगति की आधार-शिला द्वेष पर रखी है। यह ससार का द्वेषी है। हूंसार के द्वेष को ही यह परमात्मा का प्रेम कह रहा है, यह बात गलत है, यह बात सच नहीं है।
ऐसा समझो कि तुम कमरे में बैठे हो, उस कमरे से तुम्हें द्वेष है, तुम उस कमरे से मुक्त होना चाहते हो, तुम ऊब गये हो, तुम परेशान हो गये हो; तुमने बड़ा विषाद झेला उस कमरे में, बड़े उदास क्षण देखे, बड़े नर्क अनुभव किये, उस कमरे ने तुम्हें सिवाय दुःस्वप्नों के कुछ भी नहीं दिया है, वहाँ की एक-एक चीज रत्ती-रत्ती तुम्हारे अतीत की दुर्घटनाओं की स्मृति से भरी है, जिस तरफ आँख उठाते हो, वहीं पीड़ा छूती है; जो चीज छूते हो, उसीके साथ कुछ पुरानी ग्रंथियाँ बँधी हैं, वहाँ का सब विषाक्त हो गया है, तुम उस कमरे के प्रति घृणा से भरे हो, तुम कहते हो मुझे बाहर जाना है, लेकिन तुम्हें बाहर जो धूप है उससे कोई प्रेम नहीं है, और बाहर जो फूल. खिले हैं सतरंगे, उनमें तुम्हें कुछ रस नहीं है; और बाहर वृक्षों पर जो पक्षियों ने गीत गाए, उनसे तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं है, न तुम्हारे जीवन में धूप के इस काव्य का कोई अर्थ है, और न फूलों का, और न पक्षियों का, तुम इस घर से मुक्त होना चाहते हो, क्या इसको तुम धूप का प्रेम कहोगे? खुले आकाश का प्रेम कहोगे? हरे वृक्षों का लगाव कहोगे? इसको सौंदर्य की कोई अनुभूति कहोगे? यह आदमी अगर किसी क्षण, किसी तरह-जो कि बहुत असंभव है--इस कमरे से छूट जाए--असंभव इसलिए कहता हूँ कि जिसका इतना घृणा का संबंध जुड़ा है इस कमरे से, वह छूट न पाएगा। जो कमरे से इतना डरा है, वह छूट कैसे पाएगा! भयभीत कभी नहीं छूट पाता।
और समझ लो, संयोगवशात्, छूट जाए, निकल भागे, तो भी यह कमरा इसका पीछा करेगा। यह जहाँ बैठेगा, आँख बद करेगा, कमरे की ही याद आएगी। क्योंकि उस कमरे दमे साथ इतना न्यस्त-भाव जुड़ गया है। यह तो कमरे से निकल जा सकता है लेकिन कमरा इससे नहीं निकलेगा। जहाँ बैठेगा, किसी और कमरे में बैठेगा, उसकी दीवाल भी इसी कमरे की याद दिलाएगी। न तो इसे धूप दिखायी पड़ेगी, न धूप में उड़ते हुए बादल दिखायी पड़ेंगे। यह उनके लिए आया ही नहीं है। इसकी आने की प्रेरणा ही गलत है।
फिर एक दूसरा आदमी है, जिसको इस कमरे से न कुछ विरोध है, न कोई लगाव है, उपेक्षा है। लगाव हो, तब तो छोड़ ही नहीं सकता इस कमरे को। द्वेष हो, तब भी नहीं छोड़ सकता, क्योंकि द्वेष भी लगाव ही है--विकृत हो गया लगाव, फट गया लगाव। जैसे दूध फट जाता है। है तो दूध ही, लेकिन स्वाद खट्टा हो गया, पीने योग्य न रहा। है तो दूध ही, फट गया। लगाव फट जाता है तो उसे हम द्वेष कहते हैं।
जिस आदमी का न तो लगाव है इस कमरे से, न द्वेष है इस कमरे से, अ-लगाव है, अ-मैत्री है--रहे तो कोई हर्जा नहीं है, इसी कमरे में सोया रहे तो कोई हर्जा नहीं, इस कमरे का विचार नहीं उठता, चला जाए तो कोई खास.. इस कमरे से चले जाने में ही कोई मोक्ष नहीं मिल जानेवाला है।
यह आदमी धूप के प्रेम से भरा है। यह फूलों की गंध इसे पुकार रही है, इसे खुला आकाश निमंत्रण दे रहा है। इसकी प्रीति है खुले से, स्वतंत्र से, मुक्त से, जहाँ बाधा नहीं दीवालों की, जहाँ असीम है। यह विराट में उत्सुक है।
ये दोनों आदमी इस कमरे से बाहर निकलेंगे, और अगर तुम इन दोनों को निकलते देखो तो तुम्हें कुछ भेद दिखायी न पड़ेगा। लेकिन बड़ा भेद है, महा भेद है। पहला, कमरे से निकल रहा है, लेकिन कमरा उसके भीतर रहेगा। दूसरा, कमरे में कभी था ही नहीं-अ-मैत्री थी। शत्रुता भी नहीं थी, मित्रता भी नहीं थी। मित्रता, शत्रुता, दोनों का अभाव था। विरक्ति थी, वैराग्य था। यह आदमी निकल रहा है, ये दोनों आकर धूप में खड़े हो जाएँगे, पहला आदमी जो कमरे से द्वेष के कारण निकल आया है, अब भी कमरे की ही याद से भरा होगा, उसकी आँखों पर एक पर्दा पड़ा होगा, धूप उसे दिखायी न पड़ेगी। उसकी आँखों में अभी भी अँधेरा होगा। कमरा उसे घेरे है। कमरा एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है। यह जो आदमी कमरे के प्रति कोई लगाव नहीं रखता, विरोध भी नहीं रखता, इसकी आँखें खुली हैं, कोई पर्दा नहीं है, इसे सूरज मोह लेगा, यह नाचेगा धूप में। यह आनंदमग्न होगा। इसके जीवन में -रसधार बहेगी।
तो पहली बात, साफ-साफ समझ लेना जरूरी है कि जो भी तुम्हारे भीतर प्रेम का तत्व है, वही परमात्मा की पहली किरण है। तुम्हारे भीतर जो भी द्वेष का तत्व है, वही बाधा है। द्वेष से अ-मैत्री साधो, प्रेम से मैत्री साधो।
द्वेष का अर्थ होता है-घृणा, क्रोध, नकारात्मक वृत्तियाँ। विरोध, निषेध, नकार, विध्वंस, विनाश। द्वेष मिटाना चाहता है। और मिटाने वाली किसी भी प्रवृत्ति से बहुत ज्यादा आंदोलित हो जाना खतरनाक है। क्योंकि जब तुम मिटाते हो, तो तुम भी मिटते हो। बिना मिटे मिटा नहीं सकते हो। जो हत्या करता है, वह आत्महत्या भी कर रहा है। जो दूसरे को दुख पहुँचाता है, वह अपने दुख के बीज बो रहा है। जो दूसरों को नरक में ढकेल रहा है, वह स्वयं भी नरक की सीढ़ियाँ उतर रहा है। उसे पता हो, पता न हो, यह और बात। लेकिन दुनिया में विध्वंस करके कोई सृजन को उपलब्ध नहीं होता। मिटानेवाला खुद मिट जाता है। जो दूसरों के लिए गड्ढे खोदता है, एक दिन अचानक पाता है उन्हीं गड्ढों में खुद गिर गया है।
सृजन सृजनात्मक है। दोहरे अर्थो में। जब तुम एक गीत रचते हो, तो एक तरफ तो गीत रचा जाता है, दूसरी तरफ गीतकार रचा जाता है। गीत के रचने में ही तो गीतकार का जन्म है। जब एक माँ से एक बच्चा पैदा होता है, तो तुम यह सोचते ही--बच्चा पैदा हुआ, बस इतना ही सोचते हो? माँ पैदा हुई, ऐसा नहीं सोचते? तो तुम भूल गये। तुमने बात पूरी नहीं देखी। यह बच्चा पैदा होना एक पहलू है, दूसरी तरफ यह स्त्री कल तक माँ नहीं थी, आज से माँ है, यह दूसरा पहलू है। और ध्यान रखना, एक स्त्री में और एक माँ में बड़ा फर्क है। स्त्री स्त्री है, सिर्फ संभावना है। बीज और वृक्ष में फर्क करोगे या नहीं करोगे? ऐसे ही स्त्री और माँ का फर्क है।
माँ है--स्त्री में फूल आ गये, फल आ गये। स्त्री फलवती हुई। जब तक स्त्री माँ नहीं है, तब तक कुछ खाली-खाली होता है। तब तक कुछ भराव हुआ नहीं। तब तक पात्र रिक्त है। उसका गर्भ रिक्त है, तो पात्र रिक्त है। जब स्त्री गर्भवती होती है तो उसमें एक अनूठा सौंदर्य और प्रसाद झलकने लगता है। गर्भवती स्त्री को चलते देखा? गर्भवती स्त्री के चेहरे पर गरिमा देखी? गर्भवती स्त्री के चेहरे से झलकती आभा देखी? वही आभा, जो वृक्ष फलवान होकर प्रगट करता है। ऐसे ही कोई जब गीत लिखता है, एक तरफ गीत रचा जाता है, दूसरी तरफ गीतकार रचा जाता है। जब कोई मूर्ति रचता है, इधर मूर्ति बनती है, उधर मूर्तिकार बनता है। जब कोई वीणा पर संगीत को जन्म देता है, इधर संगीत का जन्म होता है, उधर वीणावादक का जन्म होता है।
सृजन दोहरा है, जैसा विध्वंस दोहरा है। प्रेम सृजनात्मक ऊर्जा है। द्वेष विध्वंसक ऊर्जा है। द्वेष की प्रतीक-प्रतिमाएँ, जैसे एडोल्फ हिटलर। प्रेम की प्रतीक-प्रतिमाएँ, जैसे कृष्ण, जैसे बुद्ध, जिनके जीवन में करुणा और प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं; वे अपने परम फल को उपलब्ध हो गये हैं। उन्होंने परम संपदा पा ली।
हिटलर का जीवन रिक्त है। हिटलर एक खंडहर है। मिटाने में कोई और हो भी नहीं सकता, खंडहर ही होगा। कुछ और हो भी नहीं सकता।
तो ख्याल रखो, द्वेष सूत्र है तुम्हारे भीतर नकारात्मकता का। नर्क का द्वार है द्वेष। फिर तुम किससे द्वेष करते हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम संसार से द्वेष करो तो भी वह द्वेष है। और जो संसार से द्वेष करता है, वह परमात्मा को कभी पा न सकेगा, क्योंकि परमात्मा परम विधायकता का नाम है। नकार से तुम कैसे विधायक पर पहुँचोगे? नहीं कहकर तुम कैसे हाँ को पाओगे? यह असंभव है। 'नहीं' की ईंटों को रखते-रखते तुम 'हाँ' का मंदिर न बना पाओगे। 'न' की ईंटों को रख-रख कर तुम नर्क ही निर्मित करोगे।
इसलिए द्वेष से आंदोलित मत होना। आंदोलित प्रेम से होना। और फिर मैं तुमसे कह दूँ-संसार के प्रेम में पड़ा हुआ आदमी भी बेहतर है उस आदमी से जो संसार के द्वेष में पड़ गया है। माना कि संसार का प्रेम क्षुद्र का प्रेम है, क्षणभंगुर का प्रेम है, बहुत दुख लाएगा, लेकिन कम-से-कम प्रेम तो है। क्षणभंगुर ही सही, लेकिन विधायक तो है। और जो आदमी संसार के द्वेष में पड़ गया है, यह आदमी और भी उपद्रव में पड़ गया है। द्वेष इसे घेर लेगा। धीरे-धीरे द्वेष का अंधकार इसे पकड़ लेगा। यह कितनी ही प्रार्थनाएँ करे और पूजाएँ करे, इसकी सब प्रार्थनाएँ व्यर्थ हैं, और इसकी सब पूजाएँ व्यर्थ हैं। द्वेष से प्रार्थना उठती ही नहीं। द्वेष में प्रार्थना का अंकुर आता ही नहीं।
भक्त कहता है--संसार से द्वेष नहीं, परमात्मा से राग। यह भक्ति की आधार- शिला है। तथाकथित ज्ञानी और तपस्वी कहता है-संसार से द्वेष। फर्क दोनो की भाषा का है। ज्ञानी और तपस्वी कहता है--विराग, संसार से विराग, भक्त कहता है--प्रभु से राग। भक्त विधायक है।
भक्ति ने मनुष्य के मनोविज्ञान को बहुत गहराई से पकड़ा है। द्वेष करनेवाले बहुत मिल जाएँगे, क्योंकि द्वेष सस्ता है। भगोडे बहुत मिल जाएँगे, ससार को घृणा करनेवाले बहुत मिल जाएँगे, क्योंकि घृणा ही करना लोग जानते हैं। लेकिन संसार की घृणा से परमात्मा के प्रेम की सुगंध नहीं उठी कभी, नहीं उठेगी कभी। संसार के प्रति तुम्हारा जो प्रेम है, उस प्रेम को परमात्मा की तरफ मोड़ो, मगर संसार के प्रति घृणा का संबंध मत बना लेना, नहीं तो चूक गये-चले भी और चले भी नहीं। एक पैर उठाया और दूसरे पैर में जंजीर बाँध ली।
दूसरा शब्द राग समझ लेना चाहिए, फिर सूत्र में उतरना आसान हो जाएगा। राग का अर्थ होता है--प्रीति। शुद्ध प्रीति। प्रेम। रागशब्द बड़ा अनूठा है। चाहत, अभीप्सा। राग का अर्थ होता है-जिसके बिना रहने में कोई अर्थ नहीं। जिसके साथ मरना भी हो जाए, तो भी सार्थकता है। और जिसके बिना जीना पड़े, तो जीना भी व्यर्थ है। जिसके बिना तुम अपने जीवन को व्यर्थ पाते हो, अर्थहीन पाते हो, उससे तुम्हारा राग है।
किसी का धन से राग है, वह सोचता है--धन के बिना सब व्यर्थ है। हालाँकि उसका राग गलत विषय से लगा है। क्योंकि जिस दिन धन कमा लेगा, उस दिन पाएगा कि कुछ कमाया नहीं, गँवाया। धन तो हाथ आ गया, निर्धनता नहीं मिटी। धन के तो ढेर लग गये और भीतर निर्धनता के गड्ढे और बड़े हो गये।
किसी का पद से राग है। तो सोचता है जब तक प्रधानमंत्री न हो जाऊँ, कि राष्ट्रपति न हो जाऊँ, तब तक, तब तक जीवन असार है; प्रधानमंत्री होकर ही मरना है। प्रधानमंत्री होकर पता चलेगा कि जीवन व्यर्थ गया। बड़ी कुर्सी पर बैठकर तुम बड़े न हो जाओगे। सच तो यह है कि जितनी बड़ी कुर्सी हो, उतने ही तुम्हारे छोटेपन को प्रगट करेगी। बड़ी कुर्सी पृष्ठभूमि बन जाएगी। बड़ी लकीर बन जाएगी। उसके सामने तुम छोटी लकीर हो जाओगे।
इसलिए पद पर पहूंचकर लोग जितने छोटे सिद्ध होते हैं, उतने और किसी तरह से सिद्ध नहीं होते। जहाँ शक्ति होती है वहाँ पता चलता है। शक्ति निश्चित रूप से लोगों के भीतर जो भी भ्रष्ट था उसे प्रगट करने का कारण बन जाती है। क्योंकि मौका मिल गया। इच्छाएँ तो सदा से थीं, लेकिन पूरा करने की सुविधा नहीं थी। सुविधा नहीं थी, तो दुनिया को हम यही दिखाते थे कि इच्छाएँ ही नहीं हैं। क्योंकि सुविधा नहीं है, यह कहने में तो पीड़ा होती है। इच्छाएँ ही नहीं हैं। जब सुविधा मिलती है, तब असलियत प्रगट होती है, सब इच्छाएँ दबी पड़ी थीं, प्रगट होने लगती हैं। जैसे वर्षा आ गयी, सब बीज जो जमीन में पड़े थे, अंकुरित हो गये। सब तरफ घास-पात उनने लगा। ऐसे ही जब शक्ति की वर्षा होती है, तो तुम्हारे भीतर सारी इच्छाएं, दमित इच्छाओं का अनुकरण शुरू हो जाता है। तब आदमी बडा क्षुद्र मालूम होता है। और बड़े-से-बड़े पद पर पहूंचकर भी यह पक्का पता चरन जाता है--पक्का पता तभी चलता है--कि हाथ तो कुछ लगा नहीं। और जिंदगी पूरी गँवा बैठे। जिंदगी हाथ से निकल गयी और यह कचरा कमाया। इसका कोई मूल्य नहीं है।
लेकिन, राग का अर्थ' है--जिससे जीवन में अर्थ आएगा, उस संबंध का नाम राग है। गलत राग होते हैं, सही राग होते हैं। द्वेष सदा गलत होता है, राग सही भी होते हैं, गलत भी होते हैं। धन से राग है तो गलत है। ध्यान से जुड़ जाए तो सही है। पद से राग है तो गलत है, प्रभु से जुड़ जाए तो. सही है। मैं इसे फिर दोहरा दूँ --द्वेष सदा गलत होते हैं, क्योंकि द्वेष ही गलत है, राग सदा सही नहीं होते, और न सदा गलत होते हैं। इसलिए मैने तुमसे कहा कि राग के बहुत रूप हैं। स्नेह-- अपने से छोटे के प्रति हो; समान के प्रति हो तो प्रेम, अपने से बड़े के प्रति हो तो श्रद्धा, और सब सीमाओं सै मुक्त हो जाए, किसी विशेष के प्रति न हो, इस समस्त अस्तित्व के प्रति हो, तो भक्ति।
राग प्यारा शब्द है, इसके बहुत अर्थ होते हैं। एक अर्थ रंग भी होता है। जहाँ राग है, वहाँ रग भी है। इसीलिए तो राग-रंग शब्द है। रंग, यानी उत्सव। जहाँ राग है, वहाँ फूल भी खिलेंगे। जहाँ राग है, वहाँ इंद्रधनुष भी उठेंगे। जहाँ राग है, वहाँ गीत भी होगा, गान भी होगा, नृत्य भी होगा। जहाँ राग है, वहाँ मरुस्थल नहीं होंगे, मरुद्यान होंगे। जहाँ राग है, वहाँ हरियाली होगी।
इसलिए भक्त के जीवन में हरियाली होती है, ज्ञानी के जीवन में रूखा-सूखापन होता है। ज्ञानी का जीवन मरुस्थल जैसा होता है। कहीं कोई हरियाली नहीं, कोई फूल नहीं, कोई सरिता नहीं, कोई झील नहीं। भटक जाओ तो जल के कण को तड़फ जाओ। सब सखा-सूखा। ज्ञानी के जीवन में काव्य नहीं होता। रंग ही नहीं उठते। ज्ञान बेरौनक है। बे-रंग। भक्ति में बड़े रंग उठते है, बड़ी तरंगें उठती है। इसीलिए तो मीरा के शब्दों में जो रस है, वह कुंदकुंद के शब्दो में नहीं हो सकता। और कुदकुद भी पहुँच गये। लेकिन पहुँचे हैं मरुस्थल से। उन्हें फूलों का पता ही नहीं--फूल उनके मार्ग में आए ही नहीं।
भक्त की वाणी मैं तो कभी-कभी इतना रस होता है कि लोग समझने की मूल कर देते हैं। उमर खैयाम के साथ ऐसा हुआ। उमर खैयाम भक्त है; सूफी-भक्त, पहुँचा हुआ फकीर। लेकिन बड़ी भूल हो गयी उसके संबंध में, सारी दुनिया की भूल हो गयी। क्योंकि वह स्त्रियों के गीत गाता है, और मधुशाला के, और मधुबाला के। लोगों ने समझा कि यह तो शराब का ही गुणगान कर रहा है। वह समाधि की बात कर रहा है--समाधि को उसने नाम दिया शराब। क्योंकि समाधि में शराब है। ऐसी शराब कि एक दफा पी तो पी, फिर कभी नशा उतरता नहीं, टूटता नहीं, चढ़ा तो चढ़ा, उतरना नहीं जानता। और जब वह प्रेयसी की आँखों की बात कर रहा है, तो भूल मत करना। सूफी फकीर परमात्मा को प्रेयसी की तरह देखते हैं। वह परमात्मा की चर्चा है। वे आंखें किसी स्त्री की नहीं हैं, वे परम परमात्मा की हैं। लेकिन सूफियों की धारणा परमात्मा के संबंध में स्त्री की है। जैसे हिंदुओं की धारणा परमात्मा के संबंध में पुरुष की है। तो हिंदू कहते हैं--परमात्मा पुरुष, और हम सब तो उसकी गोपियाँ हैं।
मीरा गयी वृंदावन। कृष्ण के मंदिर में जाना चाहती थी, दरवाजे पर रोकने का आयोजन था., क्योंकि उस मंदिर में कोई स्त्री को प्रवेश नहीं दिया जाता था। अब यह भी हद्द हो गयी! दुनिया में बड़ी मूढताएँ होती हैं! कृष्ण का मंदिर और स्त्री को प्रवेश. नहीं! महावीर के मंदिर में न हो तो बात में कुछ तर्क भी हो सकता है, लेकिन कृष्ण के मंदिर में स्त्री को प्रवेश न हो! मगर कारण यह था कि जो पुजारी था, उसने व्रत ले रखा था ब्रह्मचर्य का, वह स्त्रियों को देखता नहीं था। कृष्ण के कारण नहीं था बधन, बंधन पुजारी के कारण था। पुजारियों के कारण कृष्ण तक मुसीबत में पड़ जाते हैं!
उसने वर्षों से स्त्री नहीं देखी थी। खबर आयी कि मीरा आती है और कृष्ण के मंदिर में जरूर आएगी। तो वह डर गया होगा। द्वारपाल खड़े कर रखे थे। लेकिन जब मीरा आयी मस्ती में नाचती, तो उसकी मस्ती ऐसी थी कि द्वारपाल भूल गये। वह तो नाचती भीतर प्रवेश कर गयी। उसकी मस्ती ऐसी थी कि रोकने की हिम्मत न पड़ी। उस मस्ती को रोकता भी तो कोई कैसे रोकता। द्वारपाल किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़े रह गये। मीरा तो आयी हवा की तरह और चली भी गयी भीतर। जब चली गयी तब उन्हें होश आया कि यह तो मामला गड़बड़ हो गया।
लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, मीरा तो जाकर मंदिर में पहुँच गयी थी। पुजारी का थाल हाथ से गिर पड़ा। कृष्ण की पूजा कर रहा था.. सच तो यह है मीरा उसे दिखायी नहीं पड़नी चाहिए। जब पूजा में कोई जुड़ा हो तब कौन किसको देखता है। मगर वह पूजा सब उसकी थी जिनको संसार से द्वेष है। धूप से प्रेम नहीं, घर के भीतर रहने में क्रोध है।... हाथ से थाल छूट गया, वह तो बहुत क्रुद्ध -से गया। द्वारपाल भी जिसकी मस्ती से छा गये थे, उसकी मस्ती से वह पुजारी अछूता ही रह गया। बिलकुल सूख गया होगा।
एक सीमा होती है। वृक्ष की जड़ें जिंदा हों, पत्ते गिर गये हों और शाखाएँ सूख गयी हों और वर्षा आ जाए तो फिर अंकुर हो जाते हैं। लेकिन अगर जड़ें ही सूख गयी हों, तो फिर वर्षा के आने पर भी कुछ नहीं होता, ठूँठ ठूँठ की तरह रh जाता हे। वह पुजारी ठूँठ रहा होगा। वह तो बड़ा क्रुद्ध हो गया। उसने कहा कि यह कैसे तुमने प्रवेश किया? मैं स्त्रियों को देखता ही नहीं।
मीरा हँसी, और मीरा ने बड़ी बाड़ी बात कही। मीरा ने कहा--मैंने तो सोचा था कि इतने दिन तुम्हें कृष्ण की भक्ति करते हो गये, अब तक एक बात समझ में आ गयी जाएगी कि पुरुष तो एक ही है, कृष्ण, और तो सब स्त्रियाँ हैं। तुम भी स्त्री हो, मैं भी स्त्री हूँ, अगर कृष्ण को समझे हो तो। मुझे तो कोई दूसरा पुरुष दिखायी गईं पड़ता। तुम्हें दूसरा पुरुष भी दिखायी पड़ता है?
परमात्मा को या तो पुरुष की तरह सोचो, या स्त्री की तरह सोचो। इससे भेद गंज्रीं पड़ता। लेकिन दोनों हालत में प्रेम का सेतु बने।
उमर खैयाम स्त्री की तरह सोचता है। इसलिए उमर खैयाम की वाणी में और भी लालित्य है, और भी मदिरा है, और भी नशा है। मीरा से भी ज्यादा। मीरा में तो रस है, लेकिन मीरा का भगवान तो पुरुष है। तो पुरुष तो पुरुष होगा ही। कृष्ण भी हों और कितना ही मोर-मुकुट बाँधकर खड़े हों, तो भी होंगे तो कृष्ण ही! कब धनुष-बाण ले लेंगे हाथ में, क्या पता! वचन भी दे दिया था युद्ध में कि शस्त्र हाथ नहीं लेंगे, लेकिन ले लिया, भूल गये। पुरुष आखिर पुरुष है। आक्रमण उसकी 'भीतर छिपी हुई वृत्ति है।
तो जो लालित्य उमर खैयाम में है, क्योंकि उसका परमात्मा स्त्री है, जो कामनीयता उमर खैयाम में है, वह मीरा में नहीं है। खूब रस है, मगर थोड़ा सोचो, परमात्मा अगर स्त्री हो, फिर तुम जितना कमनीय चाहो, जितना सुंदर चाहो, फिर कोई सीमा नहीं है।
उमर खैयाम बहुत गलत समझा गया। गलत समझा गया है इसलिए कि उसने ज्ञान की भाषा नहीं बोली राग की भाषा बोली। उसने द्वेष की भाषा नहीं बोली, उसने प्रेम की भाषा बोली। प्रेम इस जगत में मुश्किल से समझ-। जाता है। क्योंकि लोग इतने अप्रेम से भरे हैं। अप्रेम तो समझ लेते हैं। तुम्हारे लिए भी समझ में आ जाता है कि ससार व्यर्थ है, छोड़ो; तुम्हारे भीतर भी संसार के प्रति घृणा पैदा करना आसान है--घृणा से तो तुम सुबक रहे हो., उबल रहे हो--लेकिन तुम्हारे भीतर प्रेम की एक किरण पैदा करनी बहुत कठिन है। क्योंकि प्रेम से तो तुम्हारा परिचय ही नहीं हुआ।
राग का एक अर्थ है--रंग। रंग यानी इंद्रधनुष। रंग यानी फूल। रंग यानी तितलियाँ। रंग यानी रूप। रंग यानी सौंदर्य। भक्त का मार्ग सौंदर्य का, रूप का, रस का मार्ग है।
राग का एक अर्थ--गीत, गान, लय, लयबद्धता भी है। वह भी बड़ा प्यारा अर्श है। क्योंकि जहाँ भक्ति है, जहाँ प्रेम है, वहाँ गान है, गीत है, वहाँ वीणा बजेगी, वहाँ कोई पैर में घुंघँरू बाँधकर नाचेगा--पद घुँघरू बाँध मीरा नाची रें--वहाँ कोई तार छेड़ेगा। वहाँ सन्नाटा नहीं होगा, वहाँ संगीत होगा। वहाँ चुप्पी नहीं होगी, वहाँ चुप्पी में भी राग होगा, अनाहत. होगा, ओंकार होगा। इसलिए तो शांडिल्य ने इन सूत्रों का प्रारभ किया--ओम ..अथातो भक्ति जिज्ञासा.. नाद से शुरू किया।
राग, यानी नाद। जहाँ राग है, वहाँ उत्सव है। जहाँ राग है, वहाँ स्वीकार है। जहाँ राग है, वहाँ धन्यवाद का भाव है, अनुग्रह का भाव है। जहाँ राग है, वहाँ रस है--रसो वै स, वह परमात्मा रसरूप है। रस का अर्थ होता--जैसे वृक्षों में हरा जीवनरस बहता। वही तो खिलता फूलों में। रस का अर्थ है--जैसे तुम्हारे भीतर श्वाँस में प्राण बहता। वही तो जिलाता तुम्हें, जगाता तुम्हें। रस का अर्थ होता है--जिसके बिना जीवन नहीं, जिसके बिना खिलावट नहीं; जो जीवन का पोषक है। परमात्मा इस जीवन का रस है।
जो संसार से विरस हो गया, जरूरी नहीं कि परमात्मा के रस को पा ले। लेकिन जो परमात्मा के रस में डूब गया, संसार के लिए बचता ही नहीं। उसे यहाँ फिर संसार दिखायी ही नहीं पड़ता, परमात्मा ही दिखायी पड़ता है--उसके ही रस की विभिन्न भावभगिमाएँ, उसके ही रस के अलग-अलग रूप, उसके ही रस के अलग- अलग ढंग। वही स्त्री में, वही पुरुष में, वही पशु में, पक्षी में, वही चाँद-तारों में। पहला सूत्र--
'द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च राग:।
द्वेष का प्रतिकूल और रस शब्द का प्रतिपादक होने के कारण ही भक्ति का नाम अनुराग है। '
'द्वेष का प्रतिकूल '। जरा-सी भी द्वेष की गुंजाइश नहीं है भक्ति में। किसी तरह के द्वेष की गुंजाइश नहीं है। द्वंषप्रतिपक्षभावात्। शांडिल्य के सूत्र बड़े अद्भुत हैं, छोटे-छोटे सूत्र, मगर सब कह दिया जो कहने योग्य है, या जो कहा जा सकता है। या जिसे कहने की जरूरत है। ' द्वेष का प्रतिकूल'। हो गयी परिभाषा भक्ति की! और रस शब्द का जो अनुकूल है। द्वेष के प्रतिकूल और रस के अनुकूल, वही भक्ति।
रसस्वी बनो। रसिक बनो। रसाल बनो। रस में डूबों और रस में डुबाओ। इसी रस को उमर खैयाम ने मदिरा कहा है, शराब कहा है। और भक्त एक मद्यप है। भक्त एक पियक्कड़ है। खुद भी ढालता, औरों को भी ढालता। वहाँ रूखा- सूखापन, नहीं है, वहाँ गणित और तर्क. नहीं है। वहाँ जीवन को पकड़ने के लिए बुद्धि के ढांचों से काम नहीं लिया जाता, वहाँ हृदय खोला गया है। वहाँ हृदय की उन्मत्तता है।
द्वेष का जो प्रतिकूल है और रस शब्द का जो प्रतिपादक है, उसका नाम ही भक्ति है, इसीलिए भक्ति को अनुराग कहा है।
' नक्रियाकृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत्।
वह ज्ञान की भाँति अनुष्ठानकर्ता के आधीन नहीं है। '
यह सूत्र आधारभूत सूत्रों में एक है। खूब गहराई से समझना--
' वह ज्ञान की भाँति अनुष्ठानकर्ता के आधीन नहीं है '। ज्ञान तो तुम्हारे हाथ ग्रे है, जितना चाहो अर्जित कर लो। जाओ विश्वविद्यालय, रहो काशी में, पंडितों के पास बैठो, शास्त्रों का अध्ययन-मनन करो, तोता बन जाओ, खूब ज्ञान इकट्ठा हो जाएगा--ज्ञान इकट्ठा करना तुम्हारे हाथ में है। इसलिए शान तुमसे बड़ा तो हो ती नहीं सकता। ज्ञान तुमसे सदा छोटा होगा। और जरूरत है कुछ तुमसे बड़े की। ज्ञान के ऊपर तुम्हारा हस्ताक्षर होगा। तो ज्ञान कूड़ा-करकट होगा। जिसको तुम इकट्ठा कर लिए, जिसको तुम इकट्ठा कर पाए, उसमें विराट की गंध नहीं हो सकती।
इसलिए शांडिल्य कहते हे--नक्रियाकृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत्। भक्ति तुम्हारे हाथ 'ए बाहर है। भक्ति परमात्मा का प्रसाद है, मनुष्य का प्रयास नहीं।
इन दो शब्दों में सारा भेद है--प्रयास और प्रसाद। तुम भक्ति इकट्ठी नहीं कर सकते--कहाँ इकट्ठी करोगे? भक्ति सीख भी नहीं सकते--कहाँ सीखोगे? सीखी गयी भक्ति झूठी होगी। ऐसे किसी को डोलते देखकर तुम डोलने लगोगे तो मीरा नहीं हो जाओगे। और किसी को नाचते देखकर तुम नाचने लगोगे तो चैतन्य नहीं हो जाओगे। और किसी को लड़खड़ाते चलते देखकर तुम लड़खड़ाकर चलने लगोगे तो उमर खैयाम नहीं हो जाओगे। भीतर तो तुम जानोगे कि मैं बनकर चल' रहा हूँ। रस तो बहेगा ही नहीं। डाँवाडोल चलोगे तो भी सँभले रहोगे। और सामने से कार आ जाएगी तो सब भूल जाओगे। उचक कर किनारे पर खड़े हो जाओगे। सत्र रसविमुग्ध्रता चली जाएगी। या रुपयों की एक थैली पास में पड़ी दिखायी पड़ जाएगी, नाच रुक जाएगा। तुम्हारा नाच उधार होगा, बासा होगा। अनुकरण होगा, कार्बन काँपी होगी।
ज्ञान तो आदमी इकट्ठा कर सकता है, क्योंकि ज्ञान है ही उधार। लेकिन भक्ति कोई इकट्ठी नहीं कर सकता, संग्रहीत नहीं कर सकता। भक्ति आती है। तुम बुला सकते हो भक्ति को, निमंत्रण भेज सकते हो, पाती लिख सकते हो, द्वार खोलकर खड़े हो सकते हो, अपनी झोली फैला सकते हो, मगर जब आएगी तब आएगी, तुम्हारे वश में नहीं है। जैसे सूरज निकलता है, तुम अपना द्वार खोलकर रखो, जब सूरज निकलेगा तो उसकी रोशनी तुम्हारे घर कों भर देगी। बस द्वार बंद न रहे, इतना हुी कर सकते हो। तुम सूरज को गठरियों में बाँधकर घर के भीतर नहीं ला सकते। तुम्हारे हाथ के बाहर है सूरज। तुम सूरज को आज्ञा नहीं दे सकते कि मुझे अभी रोशनी की जरूरत है, निकलो, अब सुबह होनी चाहिए। सूरज जब निकलेगा, तब निकलेगा। हाँ, तुम जब सूरज निकला हो तब अपना द्वार बद रख कर सूरज को रोक सकते हो।
इस फर्क को समझ लेना
भक्ति को कोई चाहे तो रोक सकता है, लेकिन ला नहीं सकता। नकारात्मक दृष्टि से तुम क्षमताशाली हो। सूरज निकला रहे, तुम आँख बद किये रहो तो क्या करेगा सूरज? तुम अँधेरे में रहे आओगे। लेकिन स्रज न निकला हो, तो तुम कितनी ही आँखें फाड़-फाड़कर देखो, तो भी कुछ न होगा। भक्ति आती है, भक्ति भगवान से आती है। तुम सिर्फ पात्र बनो। तुम ग्राहक बनो। तुम स्त्रैण बनो। कर्तृत्व का भाव भक्ति में काम नहीं देगा, बाधा बन जाएगा। भक्ति संकल्प नहीं है, समर्पण है। तुम झुको, प्रतीक्षा करो; पुकारो, रोओ, और राह देखो, जब होगा तब होगा। होता निश्चित है। जब भी तुम्हारा रुदन पूरा हो जाता है, और तुम्हारे आँसू हार्दिक हो जाते हैं, और जब तुम्हारी पुकार वास्तविक हो उठती है, जब तुम्हारा रोआं-रोआं आंदोलित हो उठता; जब तुम्हारे प्राण के कोने-कोने में प्रतीक्षा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता, जब तुम सब द्वार खोल देते, सब खिड़कियाँ खोल देते, सब कपाट खोल देते, और तुम कहते--आओ, पुकारते हो, प्रार्थना करते हो, और प्रतीक्षा करते हो--अनंत धैर्य चाहिए भक्त को, क्योंकि कौन जाने कब परमात्मा द्वार पर आए! आधी रात आए, तो भक्त को जागा होना चाहिए। कब द्वार पर दस्तक दे दे, तो भक्त को प्रतीक्षारत होना चाहिए।
जैसे प्रेमी की तुम राह देखते--तुम्हारा प्रेमी आ रहा, या तुम्हारी प्रेयसी आ रही, या मित्र आ रहा, तो तुम सो नहीं पाते। राह पर पत्ता भी खड़क जाता है तुम उठकर बिस्तर पर बैठ जाते हो, बिजली जला लेते, दरवाजा खोलते, शायद जिसकी प्रतीक्षा थी आ गया। जब तुम प्रतीक्षा में रत होते हो तो कोई दूसरा गुजरता है तो तुम बाहर दौड़कर पहुँच जाते हो कि शायद...!
जीसस ने बार-बार अपने शिष्यों से कहा है-चौबीस घंटे राह देखना, क्योंकि कब प्रभु आएगा, वह कौन-सी घड़ी चुनेगा, कुछ हमें पता नहीं। वह किस क्षण पर तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ा हो जाएगा, किस रूप में, कुछ हमें पता नहीं। आता है जरूर, आता ही रहा है। जब तुम प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो, तब भी आता है। और जब तुम गहरी नींद में सोते हो और घुर्राते हो, तब भी द्वार पर दस्तक देता है। जब तुम सपनों में दबे पड़े रहते हो, तब भी तुम्हारे पास आकर खड़ा होता है। जब. तुम आंख बंद किये रहते, तब भी उसकी रोशनी तुम्हारी बंद पलकों पर गिरती रहती। जब तुम्हारी आँखों में कोई आँसू और कोई प्रार्थना नहीं है, तब भी वह निकट खड़ा है। उसके बिना तुम जिओगे कैसे? एक क्षण न जी सकोगे। तुम उसे याद करो या न करो, वह तुम्हारी याद कर ही रहा है। एक क्षण को भी उसकी याद तुम्हारे संबंध में टूट जाए, कि तुम्हारी श्वांस टूट जाएगी। तुम्हारी श्वाँस उसकी याद की खबर है कि उसने अभी तुम्हें भुला नहीं दिया है।
तुम थोड़े ही श्वाँस ले रहे हो, वह तुम्हारे भीतर श्वाँस ले रहा है। तुम्हारे हाथ में थोड़े ही है श्वाँस लेना। जिस दिन श्वाँस बंद हो जाएगी, उस दिन तुम ले सकोगे? जिस दिन वह नहीं लेगा, उस दिन तुम न ले सकोगे। वही तुम्हारे भीतर श्वाँस पुँक् रहा है, वही तुम्हारे हृदय की धुक-धुक है। वही तुम्हारे शरीर में खून का दौड़ना है। वही तुम्हारा होश है, तुम्हारा चैतन्य है। आया ही हुआ है, मगर तुम बेहोश पड़े हो।
शांडिल्य कहते हैं--नक्रियाकृज्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत्। ज्ञान की भाँति नहीं है भक्ति, कि किया से पा ली, अनुष्ठान से पा ली, कुछ कृत्य कर लिया और पा लिया--सीख लिया, अभ्यास कर लिया। नहीं, आदमी के हाथ के बाहर है। यही तो भक्ति का अपूर्व रूप है। भक्ति पर आदमी के हाथ की कालिख नहीं है। भक्ति पर आदमी का हस्ताक्षर नहीं होता'। भक्ति आदमी का कृत्य नहीं है। भक्ति उतरती पार से। टालोक से आती लोक में। समयातीत से, स्थित से उतरती समय में। जैसे दूर से सूरज की किरण आती, ऐसी भक्ति आती है, भक्ति परमात्मा की किरण है। भगवान का आशीष है। तुम्हारा कृत्य नहीं, तुम्हारे कृत्य का फल नहीं। सिर्फ तुम्हारी ग्राहकता चाहिए। तुम तैयार होओ उसे अंगीकार करने को।
इसलिए भक्त को स्त्रैण हो जाना होता है, आक्रामक नहीं; खोज में नहीं, प्रार्थना' में। यहूदी भक्तों ने- ठीक बात कही है कि कभी कोई आदमी भगवान को थोड़े ही खोज पाता है, जब आदमी तैयार होता है, भगवान आदमी को खोजता है। यह बात प्रीतिकर है। यह बात बड़ी अर्थपूर्ण है। भगवान आदमी को खोजता है। मगर तुम पात्रता अर्जित करो; वह तुम्हें खोजे, इस योग्य अपने को निखारों, उसका अमत तुम्हारे पात्र में गिरेगा, तुम पात्र को शुद्ध तो कर लो, तुम इसे विष से मुक्त तो कर लो। 'वह ज्ञान की भाँति अनुष्ठानकर्ता के आधीन नहीं है'। इस छोटे-से वचन मे सारा रसायन भरा है भक्ति का।
'अत एव फलानन्त्यम्।
इस कारण भक्ति का फल आनंत्य है। '
जो तुम्हारे कृत्य से पैदा होगा, उसकी सीमा होगी, उसका अंत आ जाएगा। तुमने एक पत्थर फेंका आकाश में, थोड़ी दूर जाएगा--सौ फीट, दो सौ फीट, तीन सौ फीट, फिर गिरेगा। तुमने जितनी ऊर्जा उस पत्थर में रखी थी, उतनी दूर तक चला जाएगा। फिर गिरेगा, ऊर्जा खतम हो गयी। अनत तक नहीं चलता जा सकता। तुमने एक दीया जलाया, तेल भरा, जितनी देर तक तेल है उतनी देर तक जलेगा, तेल चुक जाएगा, दीया बुझ जाएगा। आदमी जो भी करेगा, उसकी सीमा होगी। इसलिए तुम जो कुछ अपने से पैदा कर लोगे वह एक दिन मरेगा। तुम जो बनाओगे, वह मिटेगा। तुम्हारा बनाया हुआ शाश्वत नहीं हो सकता।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं--अत एव फलानन्त्यम्। इस कारण भक्ति का फल अनंत काल तक चलनेवाला है। क्योंकि तुम्हारी उस पर छाप ही नहीं है। उसमें परमात्मा का तेल है, तुम्हारा तैल नहीं। उसके पीछे अनंत का हाथ है, तो अनंत तक चलेगा। तुम्हारा स-अंत का हाथ होता, तो उसकी सीमा होती।
हमारी सीमा है। हम जो कहें, हम जो करें, उस सब की सीमा है। हम कितने ही मजबूत किले बनाएँ, वे भी धूल-धूसरित हो जाएँगे। चले जाएंगे हजारों सात्र तक, लेकिन क्या मूल्य है हजारों साल का इस अनंत में! क्षण भर भी तो नहीं। लेकिन जिस चीज के पीछे परमात्मा है, उसका फिर कोई अंत नहीं है।
शांडिल्य यह कह रहे हैं--जान की सीमा है, साक्ति की सीमा नहीं। भक्ति असीम है। सीमित को क्या खोजते हो? खोज में ..ही लगे हो तो असीम को खोजो। सीमित को क्या इकट्ठा करना ' जौ चुक जाएगा, उस दीये पर क्या भरोसा! जो न
चुके, जो कुछ ऐसा हों--बिन बाती बिन तेल---जिसकी रोशनी सदा रहे।
ख्याल लेना। कुछ ऐसा खोजो जो तुम्हरा निर्मित न हो। तुम्हारे द्वारा निमित न हो।
' तद्वत प्रपत्तिशब्दाच्च नज्ञानमितरप्रपत्तिवत्।
ज्ञानीगण भी शरणागति होते हैं, और ज्ञानहीन को भी भक्ति की प्राप्ति हो जाती है। '
शांडिल्य कहते हैं--और इस चिंता में भी मत पड़ना कि ज्ञानी को ही भक्ति की उपलब्धि होती है। तान से कुछ लेना-देना नहीं है। अज्ञानी को भी उपलब्धि हो जाती है, ज्ञानी को भी उपलब्धि हो जाती है, पुकार चाहिए। अज्ञानी भी पुकार सकता है। अज्ञानी भी रो तो सकता है न, हृदय भर के! सच तो यह है कि अज्ञानी ही, रो सकता है। ज्ञानी को तो थोड़ी अकड़ रहती है तो रो नहीं सकता। ज्ञानी को तो थोड़ा खयाल रहता है कि मैं जानता हैं_।
जितना खयाल होता है 'कि मैं जानता हूँ, उतने ही आँसू रुक जाते हैं। ज्ञानी प्रार्थना नहीं कर सकता। ज्ञान ही बाधा बन जाता है। ज्ञानी झुक नहीं सकता। मैं जानता हूँ, यह अकड़ अहकार को मजबूत करती है। शांडिल्य कहते हैं--इस फिकिर में मत पड़ना कि तुम अज्ञानी हो तो कैसे भगवान तुम्हारे पास आएगा? भगवान ने शर्त नहीं रखी है कि ज्ञानियों के पास आऊँगा, कि जिनके पास विश्वविद्यालय का प्रमाणपत्र होगा, उनके पास आऊँगा। कोई शर्त नहीं, भगवान बेशर्त आता है। तुम स्वीकार करने को राजी होओ। सच तो यह है--अज्ञानी ज्यादा सरल होता है। ज्यादा निष्कपट होता है। गाँव के ग्रामीण इसीलिए ज्यादा सरल, ज्यादा निष्कपट, ज्यादा निर्दोष हैं। शहर का पढ़ा-लिखा. आदमी ज्यादा चालबाज है, ज्यादा चालाक है। अगर वह कभी-कभी भोला-भालापन भी दिखलाता है तो वह भी उसकी चाल होती है। उसके भोले- भालेपन में भी पूरा गणित होता है। और गाँव का ग्रामीण आदमी अगर कभी भोला-भाला भी नहीं मालूम होता, तो भी उसके भोले-भालेपन के कारण। कभी बिलकुल ही कठोर मालूम हो सकता है गाँव का ग्रामीण, मगर वह भी उसके भोले- भालेपन का ही हिस्सा है। वह बच्चों की भाँति है।
शांडिल्य कहते है--इस चिंता में पड़ना ही मत, ज्ञानीगण भी शरणागत होते और ज्ञानहीन को भी भक्ति की प्राप्ति हो सकती है। भक्ति का कोई लेना-देना नहीं है ज्ञानी या अज्ञानी से।
और इतना भी ख्याल रखना कि अंतत: ज्ञानी को भी शरणागत होना पड़ता बैद। जब शरणागत होना ही है, तो यह ज्ञान का बोझ इतने दिन तक और क्यों ढोना! यह गठरी क्यों सिर पर। ज्ञानी को भी अंतत: समर्पण करना होता है, संकल्पवान को भी अंतत समर्पण करना होता है। कितनी ही दूर तक तप तुम्हें ले जाए, ज्ञान तुम्हें ले जाए, एक अंतिम घड़ी आती है जब. तुम्हें तप भी छोड़ना पड़ता है, क्योंकि तप का ही सूक्ष्म अहंकार बाधा बनने लगता है। एक घड़ी आती है, तब तुम्हें निष्कपट भाव से झुक जाना पड़ता है और तुम्हें कहना पड़ता है--मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं ही' नहीं हूँ तो जानूँगा कैसे? मैं हूँ कौन जो जान सकूँगा, तेरा रहस्य अपरंपार है। वही है ज्ञानी वस्तुत जो एक दिन ज्ञान को भी छोड़ दे। क्योंकि ज्ञान को छोड़े बिना इस जगत के रहस्य से संबंध न हो पाएगा।
जानने को कहाँ संभव है? इतना अपरंपार है रहस्य! विस्मय इतना गहन है! यह ज्ञान तो ऐसे ही है जैसे कोई चम्मच लेकर और सागरों को खाली करने में लगा है। यह हमारा ज्ञान तो ऐसे ही है जैसे कि हमने मुट्ठी में सागर की थोड़ी-सी रेत भर ली, और सोचते हैं सारी रेत हाथ में आ गयी। थोड़े-से शंख-सीप बीन लिये हैं सागर के तट पर, वही हमारे शास्त्र है--शंख-सीप। अनंत शेष है। जितना जानो उतना ही पता चलता है कि कितना कम जानते हैं! जिस दिन आदमी वस्तुत जानता है, उस दिन एकदम अज्ञानी हो जाता है।
सुकरात ने यही कहा है कि जब मैं जवान था, तो सोचता था--सब मैं जानता हूँ। जब मैं प्रौढ़ हुआ, तब मुझे यह अकल आयी कि सब मैं नहीं जानता, थोड़ा-सा जानता हूँ, बहुत जानने को शेष है। और जब मैं बूढ़ा हुआ, तो मुझे यह अकल आयी कि जानता ही क्या हूँ! महा अज्ञानी हूँ'। मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन! इतना ही जानता हूँ कि मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन! और जिस दिन सुकरात ते यह कहा कि मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन, उस दिन देल्फी के देवता ने घोषणा की कि सुकरात महाज्ञानी हो गया। जो लोग सुनने गये थे, उन्होंने लौट कर सुकरात को कहा कि देल्फी के देवता ने घोषणा की है मंदिर में कि सुकरात महाज्ञानी हो गया है। सुकरात ने कहा--यह भी हद्द हो गयी! जिंदगी भर मैं चाहता था कि देल्फी का देवता घोषणा करे कि सुकरात महाज्ञानी है, तब तो की नहीं, और अब जब मुझे. पता चल गया कि मैं कुछ भी नहीं जानता, तब यह घोषणा! तब सुकरात को लगा कि शायद इसलिए यह घोषणा की गयी है, क्योंकि अब मैं जानता हूँ कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यह ज्ञानी का लक्षण है।
' ज्ञानीगण भी शरणागत होते और ज्ञानहीन को भी भक्ति की प्राप्ति हो सकती है '।
' सा मुख्येतरापेक्षितत्वात्।
वह भक्ति ही मुख्य है, क्योंकि और-और साधनों में इसकी सहायता लेनी पड़ती है।' शास्त्रों में एक वचन है, कहते हैं नारद ने विष्णु से पूछा--प्रभु, आप तो सर्वव्यापक है, पर फिर भी विशेष कर के कहीं रहते होंगे। विशेष कर के कहाँ रहते हैं, किस जगह रहते हैं? विष्णु ने कहा--' नाहं तिष्ठामि वैकुंठे योगिनां हृदयेपि च, मद्भक्ता: यत्न गायति तह तिष्ठागि नारद!' मैं जैसा भक्त के हृदय में प्रीति से रहता हूँ, आनंदमग्न होकर, जैसा रसलीन होकर भक्त के हृदय में रहता हूँ, वैसा मै योगियों के हृदय में नहीं रहता, और वैकुंठ में भी नहीं। मेरा वैकुंठ भक्त का हृदय है। मद्भक्ता यत्र गायति तल तिठठामि नारद। जहाँ मेरे भक्त आनंदित हैं, आह्लाद से भरे हैं; जहाँ मेरे भक्त नाचते और गाते, जहाँ मेरे भक्त लीन होते, वहाँ रहता हूँ। वहाँ विशेषकर रहता हूँ। ऐसा मै योगी के हृदय में भी नहीं रहता। क्यों? क्योंकि योगी के हृदय में थोड़ा योगी भी रहता है। भक्त के हृदय में कोई भी नहीं, सन्नाटा है, शून्य है। वहाँ रहने की खूब जगह है।
योगी के हृदय में तो भगवान को थोड़ी-सी जगह है--योगी खुद भी तो रहेगा न! योगी की अकड़ कि मैंने इतने साधन किये, इतने अनुष्ठान किये, इतने विधि- विधान किये, इतना योग, इतना आसन, प्राणायाम, व्यायाम, न-मालूम क्या-क्या कर रहा हूँ, यह सब भी तो वहाँ रहेगा में ' यह गोरखधंधा भी तो वहाँ चलेगा न। और अकड़ ज्ञान की, और अकड़ साधना की, यह अहंकार भी तो जगह रोकेगा न! एकाध कोने में कहीं भगवान को भी जगह देता होगा योगी, लेकिन ज्यादा जगह तो खुद ही घेर लेता है। उस सिंहासन. पर भगवान को बैठने की जगह कहाँ शै।
लेकिन भक्त के हृदय में? न कोई साधन है भक्ति में, न कोई विधि है भक्ति में', न कोई ज्ञान है भक्ति में, तो अकड़ पैदा होने का उपाय नहीं शक्ति में। भक्त तो विसर्जित हो गया। भक्त तो बचा नहीं। भक्त का हृदय तो कोरा आकाश है। वहाँ भगवान रहें, पूरी तरह से रहें। असल में उस कोरेपन का नाम ही भगवत्ता है। भगवान कुछ अलग नहीं है उस कोरेपन से। वह कोरापन ही भगवत्ता है। तुम्हारे हृदय में जितनी खाली जगह है, उतना ही भगवान का वास है। खाली जगह भगवान है। जो भरी जगह है, वह तुम हो। भरी जगह ससार है, खाली जगह भगवान है। जब तुम्हारा हृदय परिपूर्ण खाली है, इतना खाली कि यह भी कहने को कोई नहीं है कि मैं हूँ, मैं का भाव गया, उसी क्षण--मद्भक्ता यत्र गायंति तत्र तिष्ठामि नारद।
वह भक्ति मुख्य है, शांडिल्य कहते हैं, क्योंकि और साधनों में इसकी सहायता लेनी पड़ती है। ज्ञानी को भी एक दिन अंतत: भक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। क्योंकि तुम्हारे प्रयास से जो मिल सकता है, वही मिल सकता है। जो नहीं मिल सकता, नहीं मिल सकता। जो प्रयास की सीमा के बाहर है, वह प्रयास से नहीं मिलेगा। लाख उपाय करो, नहीं मिलेगा। लेकिन एक दिन जब थक जाओगे उपाय कर-कर के, टूट जाओगे उपाय कर-करके, गिर पड़ोगे' उपाय कर-करके, तब तुम्हें यह बोध आएगा--कि हे प्रभु, अब तू सँभाल! मैं जो कर सकता था, कर लिया : मुझसे जो हो सकता था, हो गया। अब तू सँभाल! अब मेरे बस के बाहर है, इससे आगे मै नहीं जा सकता। अब तू मेरा हाथ गह ले।
जिस दिन ज्ञानी, योगी, तपस्वी इस घड़ी में आता है--और यह घड़ी आती ही है, क्योंकि आदमी की बिसात कितनी! थोड़ी-सी। दस-पाँच कदम चल ले सकता- है, लेकिन फिर? अनंत की यात्रा पर आदमी चुक जाएगा। जहाँ आदमी चुक जाता है, वहीं समर्पण।
तो शांडिल्य कहते हैं--जब समर्पण ही करना है, तो पहले कदम पर ही क्यों नहीं? जब अंतिम कदम पर गिर ही जाना होगा, तो भक्त कहता है हम पहले कदम पर ही गिरे जाते हैं, इतनी झंझट और क्यों लेनी! प्रयास- करें ही क्यों, अगर प्रसाद से होता है? अगर झोली. फैलाने से मिलता है भगवान, तो हम और अनुष्ठान-आयोजन करें ही क्यों? झोली फैला देंगे।
तुम कहोगे, अगर इतना सरल है तो फिर सभी लोग झोली क्यों नहीं फैलाते? झोली फैलाना बहुत कठिन है। अहंकार कहता है--झोली, और तुम? फैलाने दौ दूसरी को, मैं सिद्ध करके रहूँगा, मैं पाकर रहूँगा, मैं अपने से ही पाकर रहूँगा। अहंकार की यही तो भावदशा है। झोली नहीं फैला सकता। समर्पण नहीं कर सकता। मै और भीख माँगूँ--भगवान से ही सही, मगर में और भीख माँगू! हम भगवान को भी विजय करने चले है। अहंकार सब जगह विजय की भाषा में सोचता है।
ज्ञानी भी एक दिन ज्ञान से थक जाता है। थक- कर ज्ञान को छोड़ देता है और अज्ञानी हो जाता है। और संकल्प भी एक दिन संकल्प से थक जाता है और समर्पण हो जाता है। कर्म भी एक दिन ऊब जाता कर्म से, थक कर बैठ जाता है, और वहीं, वहीं असली क्रांति घटती है।
बुद्ध ने छ: वर्षों तक कठोर तपश्चर्या की--कठोर, जितनी आदमी कर सकता है! क्षत्रिय थे., जिद्दी थे, हठी थे, सम्राट थे, अहंकारी थे, सब दाँव पर लगा दिया छ' वर्षों में। लेकिन आदमी जहाँ तक प्रयास से जा सकता है, उससे आगे नहीं जा सके। सीमा आ गयी। एक दिन सीमा आ गयी। और चूँकि पूरी ताकत लगायी थी इसलिए छ. सात्र मे आ गयी, अगर ऐसे ही धीरे-धीरे लगायी होती तो शायद छ: जन्मों में नहीं आती। ओर भी पूरी लगायी होती तो शायद छ: महीने में आ जाती। अगर कोई समग्र-रूपेण शक्ति लगा दे तो एक क्षण में भी आ जाती है सीमा। कितनी त्वरा से तुम जाते हो, उतनी ही जल्दी सीमा आ जाती है। धीरे-धीरे जाओ तो देर लगती है आने में।
सीमा छ: वर्षों में आ गयी, बुद्ध थक कर गिर पड़े। और जिस रात थक कर गिर पड़े और सो गये बोधिवृक्ष के नीचे--साम्राज्य पहले छोड़ दिया था, उस दिन साधना भी छोड़ दी; उस दिन साधना को छोड्कर सो रहे कि अब नहीं होता, अब अपने बस के बाहर है, बात खतम हो गयी--उसी रात घट गयी। सुबह आंखें खुलीं और वह जो आदमी खोजने निकला था, था ही नहीं अब भीतर, अब तो वह आदमी था जिसको मिल चुका। सुबह का आखिरी तारा डूबता था और बुद्ध ने उस आखिरी तारे को आकाश में डूबते देखा उसीके साथ उनका भी आखिरी अहंकार डूब गया। उसी क्षण क्रांति घट गयी, उसी क्षण रूपांतरण हो गया।
यही शांडिल्य कह रहे हैं। जिस दिन थक कर गिर जाओगे, जिस दिन थक कर रुकारोगे, जिस दिन छोटे बच्चे की तरह पूकारोगे, उस दिन वह आना है।
चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
चंद कतरे-से बासी अश्कों के
चंद फाके बुझे हुए लब पर
मुट्ठी भर अपनी कब्र की मिट्टी
मुट्ठी भर आरजूओं का गारा
एक तामीर की लिये हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है
तेरा कंधा मिले तो सर टेकूँ
हूर एक ऐसे ही भटक रहा है--
तेरा कंधा मिले तो सर टेकूँ
और कंधा पास है। मगर सर तुम्हारा अकड़ा हुआ है। तुम जब चाहो टकना, तब टेक लो। परमात्मा तकिया बनने को प्रतिक्षण मौजूद है। मगर तुम' पहले अपने से थको और दरारों। हारे को हरिनाम।
आज इतना ही।
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