प्रवचन—चौथाा (प्रश्न एवं उत्तर)
बंबई, दिनांक 18 फरवरी 1972, रात्रि
पहला प्रश्न:
भगवान, कल रात्रि आपने कहा था कि वासनाएं मृत-अतीत से कल्पित भविष्य के बीच लगती हैं। कृपया समझाएं, क्यों और कैसे यह मृत-अतीत इतना शक्तिशाली व प्राणवान साबित होता है कि यह एक व्यक्ति को अंतहीन वासनाओं की प्रक्रिया में बहने के लिए मजबूर कर देता है? कैसे कोई इस प्राणवान अतीत--अचेतन व समष्टि अचेतन से मुक्त हो?
अतीत प्राणवान जरा भी नहीं है, वह पूरी तरह मृत है। परन्तु फिर भी उसमें वजन है--एक मृत-वजन। वह मृत-वजन ही काम करता है। वह शक्तिशाली बिलकुल भी नहीं। क्यों यह मृत-वजन काम करता है, इसे समझ लेना चाहिए।
अतीत इतना वजनी है, क्योंकि वह ज्ञात है, अनुभव किया हुआ है मन सदैव ही अज्ञात से भय खाता है, जो भी अनुभव नहीं किया गया है, उससे डरता है। और आप अज्ञात की आकांक्षा करेंगे भी कैसे? आप अज्ञात की आकांक्षा नहीं कर सकते। आकांक्षा केवल ज्ञात की ही की जा सकती है। इसलिए इच्छाएं हमेशा पुनरुक्त होती हैं। हर बार वे एक वर्तुल में पुनरुक्त होती हैं। आप सदैव एक ढांचे में, एक स£कल में घूमते हैं। मन मात्र इन पुनरुक्तियों का एक ढांचा, एक ग्रूव बन जाता है, और जितना ही आप एक विशेष बात को दोहराते हैं, उतनी ही वह वजनी बनती जाती है क्योंकि ग्रूव--ढांचा गहरा होता जाता है।
अतः अतीत इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि वह शक्तियुक्त है, या वह आपको जबरदस्ती कुछ करने के लिए मजबूर करता है या कि वह शक्तिशाली है, जीवंत है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि वह एक मृत-ढांचा है और वह इतनी बार पुनरुक्त किया गया है कि उसे फिर से दोहराया जाना बहुत आसान और स्वचालित है। जितना आप किसी भी बात को दोहराते हैं, उतनी ही आसान व सुविधापूर्ण हो जाती है। उसमें मूल सुविधा यह है कि यदि आप एक ही बात को पुनरुक्त कर रहे हैं, तो उसमें आपको सजग होने की आवश्यकता नहीं।
सजगता सर्वाधिक असुविधापूर्ण है। यदि आप उसी बात को पुनः दोहरा रहे हैं, तो आपको सजग होने की आवश्यकता नहीं आप बस गहरी निद्रा में सोते रहें और वह बात अपने आप यंत्रवत पुनरुक्त हो जाएगी। इसलिए अतीत की पुनरुक्ति सुविधापूर्ण है क्योंकि आपको सजग रहने की जरूरत नहीं। आप सोते रह सकते हैं और मन उसे अपने आप दोहराता जाएगा। इसीलिए जो लोग कहते हैं कि निर्वासना की स्थिति आनंद की स्थिति है, वे यह भी कहते हैं कि निर्वासना और सजगता पर्यायवाची हैं।
आप वासना-रहित नहीं हो सकते, जब तक कि आप पूरी तरह सजग नहीं होते। अथवा यदि आप सजग हैं, तो आप पाएंगे कि आप वासना-रहित हैं क्योंकि वासनाएं आपके मन पर पुनरुक्ति की शक्ति तभी आरोपित कर सकती हैं, जब कि आप सजग नहीं हैं। अतः जिता ही मन सोया हुआ है, उतना ही यंत्रवत व पुनरुक्ति करने वाला वह होगा। इसीलिए विचारों की इतनी पकड़ है क्योंकि वे सिर्फ पुनरुक्तियां हैं और क्योंकि वे ज्ञात की हैं। आप अज्ञात की चाह कैसे कर सकते हैं?
अज्ञात के लिए कोई चाह नहीं की जा सकती। अज्ञात समझा-विचारा नहीं जा सकता। इसलिए जब हम परमात्मा की भी इच्छा करते हैं, तब भी हम अज्ञात की इच्छा नहीं कर रहे होते हैं। परमात्मा से भी हमारा मतलब किसी ज्ञात चीज से ही होता है। इसलिए और गहरे जाएं और पता लगाएं कि परमात्मा से आपका क्या मतलब है--विशेषतः अपने परमात्मा से क्या अर्थ है आपका? आप परमात्मा के वेश में भी किसी ज्ञात चीज को ही पाएंगे, किसी अज्ञात अनुभव को ही पाएंगे। अतः वह शाश्वत सुख भी हो सकता है।
इसलिए तथाकथित धार्मिक लोग पूछते रहते हैं कि क्यों आप अपना जीवन वासनाओं में गंवाते हैं जो कि क्षणिक है? वे आपको अपने पास आने के लिए कहते हैं, क्योंकि यहां पूर्ण तृप्ति है और यहां संभावना है स्थायी सुख पाने की। भाषा समझ में आ सकती है। आप क्षणिक सुख को जानते हैं आप स्थायी सुखी की इच्छा कर सकते हैं। इसलिए परमात्मा के वेश में भी आपका सुख ही है।
हो सकता है आप परमात्मा को इसलिए खोज रहे हों क्योंकि आप मृत्यु से भयभीत हैं। तब परमात्मा के वेश में आप अमरत्व को चाह रहे हैं, आप मृत्यु नहीं, एक शाश्वत जीवन की मांग कर रहे हैं। आप इस जीवन को जानते हैं, वह आपका अनुभव है। अब आप इसी को शाश्वत बनाना चाहते हैं। इसलिए जब कभी हम परमात्मा की बात करते हैं, ईश्वर की, मुक्ति की, मोक्ष की बात करते हैं, तब शब्दों से धोखा न पाएं, क्योंकि शब्द अपने में बिलकुल ही भिन्न बात छिपाए हो सकते हैं। वे कुछ छिपाए हुए हैं, क्योंकि आप उस अज्ञात की आकांक्षा कैसे कर सकते हैं? आप उसके बार में सोच भी कैसे सकते हैं? आप कैसे उसे मांग सकते हैं, जिसे आपने कभी जाना भी नहीं?
वस्तुतः जब आप किसी अच्छा से भरे हुए नहीं होते तो घटना बिलकुल भिन्न ही होती है। अज्ञात बाप तक आता है, आप उसकी आकांक्षा नहीं कर सकते। जब आप इच्छा रहित होते हैं, अज्ञात आपके पास आता है। आप उसकी आकांक्षा नहीं कर सकते। निर्वासना की स्थिति ही द्वार है अज्ञात के आने के लिए। आप उसकी चाह नहीं कर सकते, क्योंकि उसकी चाह करना ही बाधा बन जाती है। इसलिए मन दोहराता रहता है। वह एक यांत्रिक चिन्ह है। इसलिए मन प्राणवान नहीं है। मन तो मात्र एक मृत यांत्रिक वस्तु है।
गति आपकी चेतना में है और जब आपकी चेतना मन के साथ तादात्म्य जोड़ती है, तभी मृत मन संचालित होता है। गति मानता आपकी उर्जा से जुड़ी है वह आपके मन का कोई हिस्सा नहीं। उसके पीछे उसे प्रक्रिया करने वाले आप ही होते हैं। यदि आप मन से तादात्म्य बनाते हैं, यदि आप सोचते हैं कि आप मन हैं, तभी मन गतिमान होता है। यदि आप मन से जुड़े हुए नहीं हैं, तो फिर मन मृत है, मात्र एक मृत बोझ--मात्र एक यांत्रिक संकलन।
वह एक लंबा संकलन है--जोड़ है--लाखों-करोड़ों सालों के विकास का। कई-कई जिंदगियां वहां इकट्ठी हैं। ऐसा नहीं है कि आपका मन इसी जिंदगी का है, वह जीवन की समस्त धारा से संबंधित है। वह विकसित हुआ है, इसलिए उसमें गहरे ग्रूव्स--गड्ढे हैं। ऐसा नहीं है कि आप ही प्यार में पड़ते हैं। आपके माता-पिता भी आपके पहले प्यार में पड़े थे। उनके माता-पिता भी उनके पहले प्यार में पड़े थे। मन के पास एक गहरा ढांचा है प्यार में पड़ने के लिए। इसलिए जब आप प्यार में पड़ें तो धोखे में न आएं कि आप प्यार में पड़े हैं। सारी मनुष्य जाति आपके पीछे खड़ी है। सारी मनुष्य जाति ने वह ढांचा बनाया है। वह आपकी हड्डियों में है वह आपके कोषों में है वह आपके हर एक कण में है। हर एक कोष में एक अंग यौन का भी होता है और प्रत्येक कोष में ग्रूव--ढांचा होता है, और हर एक कोष में मन होता है--लंबी स्मृतियां होती हैं, जिनके आरंभ का कोई पता नहीं, ऐसी स्मृतियां होती हैं।
इसलिए जब आप मन से जुड़े होते हैं, तो वह शक्तिशाली हो जात है, एक गतिमान शक्ति हो जाता है, आप जिसे उर्जा प्रदान करते हैं और वह मृत मशीन काम करने लग जाती है। आप ही उसे चलाते हैं। इसलिए याद रखें, शक्ति आपकी है, गतिमानता आपकी हैं। मन तो एक यांत्रिक वस्तु है, जो लाखों-लाखों वर्षों में विकास के द्वारा बनाया गया है। परन्तु इसके पास गहरे ग्रूव हैं, ढांचे हैं और यदि आपने इससे तादात्म्य जोड़ा, तो आपको इन ढांचों में गिरना ही पड़ेगा। फिर कोई रक्षा नहीं है। इसलिए पहली बात यह है कि कैसे अपने को मन से अलग करें, कैसे निरंतर यह स्मरण रखें कि मन कुछ और है और आप कुछ और हैं। यह कठिन है यह बहुत ही कठिन है। परन्तु यह संभव है संभव नहीं। यदि आपके पास एक क्षण भी बिना तादात्म्य के अस्तित्व का हो, तो आप फिर से वही नहीं हो सकते। एक बार आपको पता चल जाए कि मन की कोई
शक्ति नहीं है और मैं ही शक्ति हूं, शक्ति मुझसे ही आती है--यदि एक क्षण के लिए भी आपको अपनी मालकियत की एक झलक भी मिल जाए--तो मन फिर मालिक नहीं बन सकेगा, और केवल तब आप अज्ञात में प्रवेश कर सकते हैं।
मन कभी अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकता। वह ज्ञात के द्वारा नि£मत है। वह ज्ञात की उपज है, इसलिए वह अज्ञात में गति नहीं कर सकता: इसीलिए मन कभी नहीं जान सकता किस सत्य क्या है, परमात्मा क्या है? मन कभी नहीं जान सकता कि स्वतंत्रता क्या है मन कभी नहीं जान सकता कि जीवन क्या है, क्योंकि आत्यंतिक रूप से मन मृत है। यह केवल मृत धूल है जो कि सदियों-सदियों में इकट्ठी की गई है—मात्र मृत-स्मृति की धूल।
ऐसा लगता है कि मन जबरदस्ती करता है। वह जबरदस्ती नहीं करता, वस्तुतः वह केवल आपको सर्वाधिक आसान ग्रूव--ढांचा दे देता है। वह सिर्फ आपको रोजाना का दुहराया गया सरल मार्ग दे देता है और आप सुविधा के शिकार बन जाते हैं क्योंकि एक नए मार्ग को नि£मत करना और नए ढांचे में चलना बहुत मुश्किल और असुविधापूर्ण है। यही मतलब है तप का। यदि आप एक नए ग्रूव की ओर चले, जो कि मन के द्वारा नि£मत नहीं किया गया: परन्तु जो कि चेतना के द्वारा निर्मित किया गया हो तो आप तपश्चर्या में हैं--आस्टेरिटी में हैं। वह बहुत कठिन हैं।
गुरजिएफ के पास बहुत से प्रयोग थे। एक प्रयोग कभी-कभी हमारी इस यंत्रवत्ता से इनकार करने का भी था। आपको भूख लगी है आप मना कर दें और अपने शरीर को कष्ट पाने दें। आप बिलकुल चुपचाप और शांति हो जाएं और याद रखें कि शरीर को भूख लगी। है। उसे दबाएं नहीं। उसे दबाएं नहीं कि वह भूखा नहीं है। वह भूखा है, आप जानते हैं। परन्तु साथ-साथ आप उससे कहते हैं कि मैं यह भूख आज मिटाने वाला नहीं हूं। भूख रही, कष्ट भोगो। परन्तु मैं आज इस मृत ढांचे में नहीं चलता। मैं अलग ही रहूंगा।
और आप ऐसा कर सकें तो अचानक आपको एक अंतराल मिलेगा। शरीर भूखा है, परन्तु आप में और उसमें कहीं दूरी है। परन्तु यदि आप अपने मन को कहीं और व्यस्त कर लेते हैं, तो आप फिर चूक गए। यदि आप मंदिर चले जाते हैं और कीर्तन करने में लग जाते हैं अपनी भूख को भूलने के लिए, तो फिर आप चूकते हैं। शरीर को भूखा रहने दें। अपने मन को व्यस्त न करें भूख से बचने के लिए। भूख रहें परन्तु अपने शरीर से कह दें कि आज मैं जाल में पड़ने वाला नहीं हूं। तुम रहो, तुम कष्ट भोगो।
ऐसे लोग हैं जो कि उपवास कर रहे हैं, परन्तु निरर्थक है क्योंकि जब कभी वे उपवास करते हैं तो मन को व्यस्त करने की कोशिश करते हैं ताकि भूख का पता न लगे और वह महसूस न हो। यदि भूख का अनुभव न हो तो समझिए आप सारी बात ही चूक गए। तब आप चालाकी कर रहे हैं। तब भूख अपनी समग्रता में नहीं है, अपनी गहनता में नहीं है। उसे होने दें। उससे बचें नहीं। उसके तथ्य को मौजूद रहने दें और आप अलग हट जाएं और शरीर से कह दें कि आज मैं कुछ भी तुम्हें देने नहीं जा रहा। कोई द्वंद्व, दबाव नहीं है और न ही कोई बचाव है। और यदि आप ऐसा कर सकें तो अचानक आप उस अंतराल के प्रति सजग होंगे। आपका मन कुछ मांगता है।
उदाहरण के लिए, कोई क्रोध में आ गया। वह आपसे क्रोधित है और मन प्रतिक्रिया करने लगता है क्रोधित होने के लिए। अपने मन से कहें कि आप इस बार जाल में गिरने वाले नहीं। सजग रहें। मन में क्रोध को रहने दें, परन्तु आप अलग हट जाएं। सहयोग न करें। उसके साथ तादात्म्य न जोड़ें। और आप महसूस करेंगे कि क्रोध कहीं और है। वह आपके चारों ओर है, परन्तु वह आप में नहीं है। वह आपसे संबंधित नहीं। वह एक धुएं की तरह आपके चारों ओर है। वह चलता चला जाता है आपकी प्रतीक्षा में कि आप आए और सहयोग करें।
हर तरफ से खिंचाव होगा: वही मतलब हैं खिंचाव का, प्रलोभन का। कोई शैतान नहीं है जो आपको प्रलोभन दे सके। आपका अपना मन ही खिंचता है, क्योंकि वही सब से ज्यादा आसान रास्ता है होने का और व्यवहार करने का। सुविधा ही प्रलोभन है सुविधा ही शैतान है। मन कहेगा, क्रोध करो। स्थिति मौजूद है और यांत्रिकता चालू हो गई है। सदैव जब कभी ऐसी स्थिति बनी है, आप क्रोधित हुए हैं इसलिए मन फिर आपको वही रास्ता पकड़ा देता है। जहां तक यह चलता है ठीक है, क्योंकि मन आपको वही प्रतिक्रिया जो कि आप करते रहे हैं फिर से उपलब्ध कर देता है। परन्तु कभी-कभी रास्ते से अलग हट कर खड़े हो जाएं और मन से कहें, ठीक है, क्रोध आ रहा है। बाहर मुझसे कोई क्रोधित है। तुम मुझे वही पुरानी प्रतिक्रिया दे रहे हो, परन्तु इस बार में सहयोग करने के लिए राजी नहीं हूं। मैं यहां खड़ा रहूंगा और देखूंगा कि क्या होता है। अचानक सारी स्थिति ही बदल जाती है। यदि आप सहयोग न दें, तो मन मृत हो कर गिर जाएगा: क्योंकि यह आपका सहयोग ही है जो कि उसे गति, उर्जा प्रदान करता है। वह आपकी उर्जा ही है परन्तु आपको उसका पता तब चलता है जब कि मन उसका उपयोग कर चुकता है। उसे कोई सहयोग न दें तो मन एक दम गिर जाएगा जैसे कि बिना रीढ़ की हड्डी के हो--मात्र एक मृत सर्प की तरह, बिना जीवन के। यह वहां होगा, और पहली बार आपको अपने भीतर अपनी एक खास शक्ति का पता चलेगा जो कि आपकी है और आपके मन की नहीं है।
यह उर्जा ही शुद्ध उर्जा है और इसके साथ ही कोई अज्ञात में प्रवेश कर सकता है। वस्तुतः यह उर्जा ही अज्ञात में गतिमान होता है, यदि यह मन से संबंधित न होती हो। यदि यह मन से संबंधित हो, तो यह ज्ञात में चलती है। यदि यह ज्ञात में चलती है तो पहले यह इच्छा बन जाती है। यदि यह अज्ञात में गतिमान होती है तो यह निर्वासना की शक्ल ले लेती है। तब केवल गति होती है--ऊर्जा का एक खेल, मात्र उर्जा का नृत्य, सदैव अज्ञात में बहती हुई उर्जा, क्योंकि मन सदैव ज्ञात ही को प्रदान कर सकता है। और यदि आप स्वयं को मन से तोड़ सकें, तो उर्जा को गति करना होता है यह स्थिर नहीं रह सकती। यही मतलब होता है उर्जा का। उसे गति करना ही पड़ेगा। गति ही उसका जीवन है। वह कोई उर्जा का गुण नहीं। ऐसा नहीं है
कि उर्जा बिना गति के रह सके। नहीं, यही उसका जीवन है। वह आत्यंतिक है। उर्जा का अर्थ ही होता है गति मानता। इसीलिए वह चलती है।
यदि मन उसे मार्ग देता है, तो वह उन मार्गों पर अग्रसर हो जाती है। और यदि कोई ग्रूव, कोई मार्ग न दिया जाएं और यदि आप सिर्फ मन को छोड़ दें, तब भी वह गति करती है, पर अब यह गति दिशाहीन होती है। यह गति ही खेल है, लीला है। यह गति दी जाती है। यह गति आध्यात्मिक और इच्छा रहित है। ऐसा नहीं है कि कोई इच्छाएं हैं और आप चलते हैं। यह ऐसा है कि कुछ और नहीं कर सकते आप सिवाय गति करने के। अब आप उर्जा व गति हैं। अतः इस भेद को जानें।
जब मन काम करता है, वह एक मृत बोझ की, एक मैकेनिकल बोझ की तरह काम करता है अतीत के द्वारा। वह आपको भविष्य की ओर धक्का देता है, क्योंकि अतीत भविष्य की ओर धक्के दे रहा है। अतीत फिर अपनी वासनाओं को प्रक्षेपित कर रहा है। अतः पहले वासनाओं की पुनरुक्ति की बात को समझ लें। बहुत सारी वासनाएं हैं--वस्तुतः वे बहुत थोड़ी सी हैं। आप उन्हें दोहराते हैं। जरा गिनती करें कि आपकी कितनी इच्छाएं हैं? वे बहुत नहीं हैं बहुत थोड़ी है। आप इतनी भी नहीं पाएंगे कि उन्हें उंगलियों पर गिन सकें और यदि वस्तुतः आप गहरे देखें तो कदाचित आप एक ही इच्छा को पाएंगे। उसके बदले हुए रूप हैं, परन्तु वास्तव में, वासना तो एक ही है। और वही वासना बार-बार दोहराई जाती है जीवन के बाद जीवन में। आप वही-वही दोहराते जाते हैं। तब ऐसा लगता है, ऐसा दिखलाई पड़ता है कि आप लाचार हैं और चक्र चल रहा है और आप कुछ नहीं कर सकते। किंतु ऐसा है नहीं।
आप निःसहाय हैं क्योंकि आप भूल ही गए हैं पूरी तरह से कि जो उर्जा चक्र को चला रही है, वह आपके द्वारा ही प्रदान की जाती है। अतीत के कारण, भविष्य मात्र एक पुनरुक्ति हो जाता है। अतीत के कारण, भविष्य मात्र एक पुनरुक्ति हो जाता है। वह एक प्रक्षेपित किया गया अतीत है। आप फिर वही कामना करते हैं और वही-वही करते चले जाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि अतीत और भविष्य दोनों ही मन के हिस्से हैं, न कि समय के हिस्से। समय तो अभी और यहीं है, वर्तमान है। यदि मन नहीं चल रहा है, तो उर्जा अभी और यही, इसी क्षण में होगी। वह गतिमान होगी, क्योंकि वह उर्जा, है। परन्तु अब गति अज्ञात में होगी। ज्ञात अब बिलकुल भी नहीं है।
किसी ने हुई-हाई से पूछा--आपको कैसे उपलब्ध हुआ? आप कैसे पहुंचे? हुई-हाई ने कहा--जब मैं अ-मन हो गया, तो मैंने पा लिया, मैं पहुंच गया।
हम मन हैं, उसका मतलब है कि हम अतीत से बंधे हैं। यदि हम अ-मन हो जाएं, तो उसका मतलब होता है कि हम अतीत से बंधे न होंगे। तब वह क्षण मुक्त व जाता होगा और उर्जा अग्रसर होगी--कुछ पाने को नहीं बल्कि इसलिए कि वह उर्जा है। इस भेद को ठीक से समझ लें। यह किसी कारण कुछ पाने को नहीं चलती, अपितु वह केवल गति करती है क्योंकि गति उर्जा का स्वभाव है।
एक नदी बह रही है, और साधारणतः हम सोचते हैं कि वह सागर के लिए चल रही है। वह कैसे जान सकती है? वह सागर के लिए नहीं चलती। वह चल रही है, क्योंकि वह एक उर्जा है। अंततः सागर आ जाता है यह दूसरी बात है। जब आप अज्ञात में चलते हैं, तो अंततः आप परमात्मा को पहुंच जाते हैं। वह वहां होता है। यदि आपकी गति शुद्ध है, तो आप पहुंच जाते हैं।
नदी चलती जाती है बिना जाने, किसी नक्शे के। अतीत उसे कोई नक्शा प्रदान नहीं कर सकता: क्योंकि नदी अतीत के द्वारा दिए गए मार्गों पर बहने वाली नहीं है। उसका हर एक कदम आता में है और वह कहां जा रही है, इसे जानने का उसके पास कोई उपाय नहीं है। वह किसी इच्छा वश नहीं चल रही है। वह कुछ पाने को नहीं बढ़ रही। भविष्य अनजाना है, मात्र अज्ञात व अंधकारपूर्ण। वह चलती है। क्योंकि चलती है वह? वह चलती है, क्योंकि वह एक उर्जा है।
एक बीज उग रहा है। एक पेड़ बढ़ रहा है। तारे चल रहे हैं। वे सब क्यों चल रहे हैं? क्या उन्हें कहीं पहुंचना है? नहीं, बल्कि इसलिए कि वे एक उर्जा हैं। शुद्ध उर्जा चलती है। क्योंकि शुद्ध उर्जा कुछ और नहीं कर सकती, वह गति करती है। इसलिए जब आप शुद्ध उर्जा होते हैं, मन नहीं, वरन अ-मन उर्जा, तो आप गति करते हैं। तब हर कदम अज्ञात में होता है और जीवन एक आनंद हो जाता है। वह आनंदपूर्ण हो जाता है, क्योंकि पुराना फिर से नहीं दोहराया जाता। फिर से वह सुबह नहीं आएगी--फिर से यह क्षण नहीं आएगा। अब यह एक रोमांच है, एक थ्रिल--एक कंपन है प्रतिपल। यह आनंद की तरंग, ही मीरा के नृत्य को पैदा करती है। यह तरंग ही चैतन्य के गीत को उत्पन्न करती है। इस आनंद की मौज में प्रत्येक क्षण कुछ नया फूट रहा होता है, विस्फोट हो रहा होता है।
एक बुद्ध कभी उबते नहीं हैं। वे सदैव ताजे दिखलाई पड़ते हैं। सारिपुत्र बुद्ध के पास आता है। सारिपुत्र एक बड़ा ही जिज्ञासु नवयुवक था, एक बड़ा विद्धान था, उसे वह सब कुछ ज्ञात था जो कि शास्त्रों से जाना जा सकता था। एक महापंडित था। जब वह बुद्ध के पास आया तो उसने बहुत प्रश्न पूछे। दूसरे दिन फिर उसने बहुत से प्रश्न पूछे। तीसरे दिन फिर कई सवाल किए।
आनंद, जो कि बुद्ध का एक दूसरा शिष्य था, बुरी तरह ऊब गया। उसने बुद्ध से पूछा कि आप ऊबे नहीं? यह वही-वही प्रश्न फिर से पूछे चला जा रहा है। बुद्ध ने आनंद से पूछा--क्या उसने वही प्रश्न दोहराए हैं? क्या उसने एक भी सवाल पुनरुक्त किया है?
बुद्ध जैसी चेतना के लिए हर क्षण इतना नया है कि आप वहां फिर से पुराना प्रश्न नहीं दोहरा सकते क्योंकि प्रश्नकर्ता वही कभी नहीं रहता। तुम फिर वही प्रश्न कैसे पूछ सकते हो, जो कि तुमने कल पूछा था? आप से फिर वही प्रश्न कैसे पूछे जा सकते हैं जब कि आप फिर से वही नहीं होगे। और बुद्ध ने कहा--यदि वह पुनः वही प्रश्न भी पूछ रहा था, तो भी वह उसी आदमी से नहीं पूछ रहा था। इसलिए मैं कैसे कह सकता हूं कि वह दोहरा रहा है! उसने कल किसी और से पूछा होगा। मैं कहां था? वह उर्जा तो गई।
कोई बुद्ध से क्रोधित था और उसने उनका अपमान किया। फिर उसने पश्चात्ताप किया और दूसरे दिन बुद्ध के पास क्षमा मांगने आया। बुद्ध को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा--आप बड़ी ही विचित्र आदमी हैं। आप अपमान किसी व्यक्ति का करते हैं और क्षमा किसी और व्यक्ति से मांगते हैं! उस व्यक्ति ने कहा—आप कहते क्या हैं? मैं विचित्र हूं या आप? मैं कल आया था और आपको अपमान कर गया था। मुझे बड़ा दुःख हुआ और मैं सो न सका।
बुद्ध ने कहा--इसीलिए तुम फिर से पुनरुक्ति कर रहे हो, परन्तु मैं सो सका और अब मैं दूसरा ही आदमी हूं। नदी आगे बढ़ गई। अब वह वही नहीं है और मैं वही कभी भी नहीं होउंगा। इसलिए तुम अब बड़ी मुश्किल में रहोगे, क्योंकि अब तुम उस आदमी से कभी क्षमा कैसे मांगोगे, जिससे तुम कभी नहीं मिल सकोगे! यदि मैं कभी उस आदमी से मिला, तो जो कुछ तुमने कहा है, उससे कह दूंगा।
यह उर्जा अज्ञात में गति करती है। यह सदैव ताजी और युवा है। इसलिए एक बुद्ध कभी भी वृद्ध नहीं हो सकते। शरीर, सचमुच बूढ़ा होता है, परन्तु एक बुद्ध कभी भी बूढ़े नहीं होते। वे सदैव युवा रहेंगे। इसीलिए हमने कभी राम, कृष्ण या बुद्ध की बुढ़ापे की तस्वीरे नहीं बनाई। वे बूढ़े हुए, परन्तु हमारे पास उनकी बूढ़े होने की कोई तस्वीरे नहीं है कृष्ण की, राम की अथवा बुद्ध की अथवा महावीर की वृद्धावस्था की कोई तसवीर नहीं है। हमारे पास ऐसी कोई आकृति नहीं है। ऐसा नहीं है कि वे कभी बूढ़े नहीं हुए, शरीर तो सब का समान ही चलेगा। उनकी वृद्धावस्था की कोई आकृति नहीं बना कर हमने और भी अधिक कहना चाहता है। वस्तुतः वे कभी बूढ़े नहीं हुएः वे इतने गतिशील थे, इतने युवा थे। ऐसे लोगों के लिए मृत्यु अंत नहीं है। यह, और आगे गति है। यह कोई मृत्यु नहीं है।
मन डायनैमिक, गतिशील नहीं है। मन मैकेनिकल, यांत्रिक है। वह गतिमान हो सकता है, यदि आप उसके साथ सहयोग करें। आप उसके साथ सहयोग न करें, अपनी एकांतता स्मरण रखें, एक दूरी बनाएँ रखें तथा सजग रहें और तब मन तो होगा, किंतु आप उससे बाहर कहीं और होंगे।
अंग्रेजी शब्द एक्स्टसी बहुत ही सुंदर और अर्थपूर्ण है। आपने कभी नहीं सोचा होगा कि इस एक्स्टसी शब्द का क्या मतलब होता है। इसका अर्थ होता है--बाहर खड़े हो जाना--टु स्टैंड आउटसाइड। यदि आप अपने से बाहर खड़े हो सकें, यदि आप अपने से बाहर हो सकें, तो आप एक्सटेसि में हैं। किसी ने सुझाव दिया है कि समाधि का अर्थ एक्सटेसि करना ठीक नहीं है क्योंकि समाधि का अर्थ बाहर खड़े होना नहीं। वस्तुतः समाधि का अर्थ होता है अपने भीतर खड़े होना। इसलिए किसी ने दूसरा ही शब्द सुझाया है। उसने नए ही शब्द को नि£मत किया है। बजाय एक्सटेसि के अच्छा है कि समाधि का अनुवाद इंसटेसि किया जाए—भीतर खड़े होना।
वास्तव में, इन दो शब्दों के दो भिन्न मतलब होते हैं, परन्तु बहुत ही सूक्ष्म रूप से उनके एक ही अर्थ हैं। यदि आप अपने मन के बाहर खड़े हो जो हैं, तो आप अपने भीतर खड़े हो सकते हैं। यदि आप अपने से बाहर खड़े हो सकते हैं--तथाकथित स्वयं के बाहर--तो आप पहली दफा अपने भीतर खड़े हो पाते हैं। इसलिए एक्सटेंसिस हो इन्सनटेंसिव है। तब आप अपने केंद्र पर होंगे।
यदि आप अपने मन के बाहर होंगे तो आप अपने भीतर केंद्रित होंगे। इसलिए मन से बाहर जाना, चेतना के भीतर प्रवेश करना है। इसीलिए मन को एक मैकेनिज्म, एक यांत्रिकता, एक संग्रह, एक अतीत की तरह समझना पड़ेगा। और एक बार आप ऐसा अनुभव करें, तो फिर आप उसके बाहर होंगे। परन्तु हम चलते चले जाते हैं। हम उससे तादात्म्य करते चले जाते हैं।
जब कभी आप कहते हैं कि यह मेरा अतीत है, तो आप उससे तादात्म्य बनाए हुए हैं। भाषा को बदल दें और कभी-कभी इससे बहुत सहायता मिलती है। भाषा की पकड़ बहुत गहरी है। कहें कि यह मेरे अतीत के मन से जुड़ा है और उसका अंतर अनुभव करें। जब आप कहते हैं, यह मेरा अतीत है, तो आप उससे एक हो जाते हैं। कहें कि यह मेरे मन का हिस्सा है, मेरे अतीत के मन का और अनुभव करें कि सिर्फ भाषा की ही बदलाहट कितनी दूरी निर्मित कर देती है।
उदाहरण के लिए, हम कहते हैं कि मेरा मन तनावग्रस्त है। तब आप तादात्म्य जोड़े हैं। यहां तक कि हम कहते हैं--मैं तनावग्रस्त हूं! तब और भी ज्यादा तादात्म्य होता है। जब हम कहते हैं, मैं तनावग्रस्त हूं, तब कोई दूरी नहीं होती। यदि हम कह सके कि मैं जान रहा हूं कि मन तनावग्रस्त है, तो ज्यादा बड़ा अंतराल होता है। और अंतराल जितना अधिक होगा, उतना ही तनाव कम होगा।
इसलिए मनोविज्ञान कहता है कि कभी नहीं कहें कि मैं तनावग्रस्त हूं, क्योंकि सूक्ष्म रूप से वह दूसरे को जिम्मेवार ठहराता है। इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बजाय ऐसा कहने के मैं तनावग्रस्त हूं, कहें कि मैं तनाव से भर रहा हूं। तब दायित्व आपका है। इसलिए मन की, भाषा की, विचारों की पुरानी आदतों को छोड़ दें और तब आपकी उर्जा गतिमान होगी। और एक बार भी यदि मन न हो, तो आप पहली बार मुक्त होंगे।
दूसरा प्रश्न—
भगवान, रामकृष्ण परमहंस के जीवन में एक उल्लेख है और उसे आपसे हमने कई बार सुना है कि भोजन के प्रति वे बड़े आसक्त थे। इससे यह संकेत मिलता है कि वासना जीवन से बहुत आत्यंतिक रूप से जुड़ी हुई है?
वासना जीवन से जुड़ी है, परन्तु जीवन वासना रहित हो सकता है। परन्तु तब शारीरिक जीवन असंभव हो जाएगा। वस्तुतः वासना ही वह कड़ी है जो जीवन को शरीर से जोड़ती है। यदि सारी इच्छाएं, वासनाएं गिर जाएं, तो शरीर फिर नहीं चल सकता। क्योंकि शरीर सिर्फ एक साधन है इच्छाओं की पूर्ति का। अभी जीवशास्त्री कहते हैं हमने इंद्रियां निर्मित की इच्छाओं के कारण। और यदि आप लगातार इच्छा करते चले जाएं, तो आपका शरीर नई इंद्रियां विकसित कर लेगा।
यह केवल हमारी इच्छा के कारण ही है कि हमारे पास आंखें हैं। साधारणतः हम सोचते हैं कि चूंकि हमारे पास आंखें हैं, इसलिए हम देखते हैं। नहीं! जीवन शास्त्री कहते हैं कि चूंकि देखने की आकांक्षा है, इसलिए आंखें विकसित हो जाती हैं। यदि देखने की आकांक्षा न रहे, तो आंखें गिर जाएंगी। सारा शरीर अस्तित्व में आता है, क्योंकि आकांक्षा है।
बुद्ध ज्ञानोपलब्धि के बाद चालीस साल जिंदा रहे। एक प्रश्न था कि यदि वासनाएं समग्र रूपेण गिर गई हों, तो बुद्ध को मर जाना चाहिए था। वे जिंदा क्यों और कैसे रहे?
शरीर की एक गति होती है, एक मोमेंटस होता है। यदि आप दौड़ रहे हैं और अचानक रुकना चाहें तो नहीं रुक सकते। आपका चित्त ठहर गया है, आपने ठहराने का निश्चय कर लिया है परन्तु आपको थोड़ा और भी दौड़ना पड़ेगा पुरानी त्वरा के कारण। आप एक साइकिल को पेड़ल लगा रहे थे, अभी आपने पेड़ल लगाना बंद कर दिया है, परन्तु पहियों ने गति पकड़ ली है। वे और चलेंगे और थोड़ा समय और लेंगे कि पूरी तरह रुकने में। इसीलिए मैं सदैव कहता हूं कि यदि साइकिल पहाड़ी के उपर की तरफ जा रही है, तो वह जल्दी ही ठहर जाएगी। यदि आपने पेड़ल बंद कर दिए हैं और साइकिल उपर की ओर जा रही है, तो वह जल्दी ही ठहर जाएगी। वह उसी क्षण भी ठहर सकती है, जिस क्षण कि आपने पेड़ल लगाने बंद किए। परन्तु यदि वह पहाड़ी के नीचे की तरफ जा रही है, तो वह और ज्यादा दूर तक जा सकती है।
अतः ऐसे होता है कि यदि ज्ञान की घटना पैंतीस वर्ष के होने के पहले घट गई हो, तो शरीर जल्दी ही मर जाएगा। यदि वह पैंतीस के बाद हुआ है, तो वह पहाड़ी के नीचे की ओर जाना है। वह और अधिक चल सकता है। इसलिए शंकराचार्य जल्दी मर जाते हैं। वे सिर्फ तैंतीस साल के थे। उन्हें ज्ञान बीस साल की अवस्था में हो गया था। वह बहुत कम होता है और उन्हें जल्दी ही करना पड़ा। वे पैंतीस भी पूरे नहीं कर सकें--जो कि मध्य है। वे मध्य तक भी नहीं पहुंच सके। यदि पैंतीस वर्ष के बाद ज्ञान होता है, तो आप पहाड़ी के नीचे की तरफ हैं, तब शरीर ज्यादा चलता है।
वासनाओं के समग्र रूपेण वहा जाने पर, वस्तुतः आप पूरी तरह शरीर से ठहर जाते हैं। अब पुरानी त्वरा काम करेगी और वह बहुत सी बातों पर निर्भर करेगी।
बुद्ध भोजन में विष होने से मर गए और उनका इलाज न हो सका, इसलिए नहीं कि भोजन का विषाक्त हो जाना इतना खतरनाक हो सकता है--वह बहुत साधारण है। परन्तु उनका शरीर से कोई संबंध नहीं था। उनकी मदद नहीं की जा सकती थी। अतः जब चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है कि यदि आपकी जीवेषणा तीव्र है, तो औषधियां भी अधिक काम करती हैं। यदि आपकी जीने की कोई आकांक्षा नहीं है, तो हो सकता है दवाइयां भी कोई काम न करें।
इसलिए आजकल बहुत से प्रयोग होते हैं। दो आदमी रुग्ण हैं, वे मरण-शय्या पर पड़े हैं। उनमें से एक की दशा अधिक गंभीर है और उसके लिए कोई उम्मीद नहीं है, परन्तु स्वयं उसे उम्मीद है और वह लंबा जीना चाहता है। चिकित्सा विज्ञान को कोई आशा नहीं है, डाक्टरों को भी कोई उम्मीद नहीं है, परन्तु वह स्वयं बहुत आशापूर्ण है। दूसरा आदमी इतनी गंभीर स्थिति में नहीं है। हर एक को आशा है कि वह बच जाएगा। कोई समस्या नहीं है, परन्तु खुद उसे कोई आशा नहीं है। वह जिंदा रहना ही नहीं चाहता। अचानक भीतर शरीर से कुछ गिर जाता है। अब दवा भी काम नहीं कर सकती। वह मर जाएगा और वह आदमी जो गंभीर हालत में है, बच जाएगा। दवा उसकी मदद कर सकती है।
शरीर और चेतना वासनाओं के द्वारा संबंधित हैं, जुड़े हैं। इसीलिए यदि कोई व्यक्ति बिना वासनाओं के मर जाएं, तो वह फिर से जन्म नहीं लेगा, क्योंकि जब कोई जरूरत नहीं है, कोई कारण नहीं है, जिससे कि शरीर की रचना हो।
मैंने ऐसे एक आदमी को देखा है जो कि जो नहीं सकता, क्योंकि वह मृत्यु से बहुत डरा हुआ है। मृत्यु नींद में भी हो सकती है! और तब वह क्या करेगा? इसलिए वह डरा हुआ है। वह सो नहीं सकता। और मैं सोचता हूं कि उसका डर ठीक है। उसका डर महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसकी जीने की कोई इच्छा नहीं। वह वासनारहित नहीं है। उसकी जीने की कोई इच्छा नहीं है, परन्तु मरने की इच्छा है। और यदि मरने की आकांक्षा है, तो वह नींद में भी डर सकता है।
आप सबेरे उठ जाते हैं इसलिए नहीं कि सवेरा हो गया है, परन्तु इसलिए कि कुछ ऐसा है जो कि आपको उठने के लिए मजबूर करता है। इस व्यक्ति के लिए कुछ भी ऐसा नहीं है। कुछ भी उसे उठने के लिए बाध्य नहीं करता। इसलिए वह सो नहीं सकता, क्योंकि भय है कि सबेरे कोई कारण न हो, जिससे कि वह उठने को बाध्य हो। कुछ भी ऐसा नहीं है। फिर भी मैं कहता हूं कि वह वासना रहित नहीं है। वह सिर्फ निराशापूर्ण है। उसकी सारी इच्छाएं निराशापूर्ण हो गई हैं। जब सारी इच्छाएं निराशा शून्य हो जाती हैं, तो आप एक नई इच्छा पैदा करते हैं--मरने की इच्छा।
फ्रायड अपनी वृद्धावस्था में एक नई खोज पर पहुंचा, जिसकी कि उसने स्वप्न में भी कल्पना ही की थी। अपनी सारी जिंदगी वह लिबिडो जीने की इच्छा पर काम करता रहा। और उसने अपने चेतन का सारा ढांचा इस शक्ति पर, इस लिबिडो, इस सेक्स, इस जीने की चाह पर खड़ा किया। परन्तु अंत में, वह एक विशेष इच्छा पर पहुंचा। पहली जो वासना है, उसे वह इरोजन कहता है, और दूसरी जो चाह है, उसे वह थानाटोज कहता है। थानाटोज का अर्थ होता है--मृत्यु कामना, मरने की चाह। फ्रायड को ऐसा महसूस होने लगा कि यदि मरने की कोई चाह नहीं हो, तो आदमी कैसे मर सकता है? कहीं भीतर, मरने की कामना होनी चाहिए। अन्यथा जीवन शास्त्री कहते हैं कि शरीर अपने से हमेशा के लिए चल सकता है।
इसका कोई अनिवार्य कारण नहीं है कि शरीर इतनी जल्दी मर जाए: क्योंकि शरीर के पास अपने आप पुनर्निर्माण की प्रक्रिया का इंतजाम है। वह पुनर्निमाण कर सकता है। परन्तु बहुत सी बातें हैं, जिन पर गौर करना पड़ता है। शरीर जन्मता है, क्योंकि हमने कहा है कि जीने की कामना है। वहां फ्रायड ठीक है। एक दूसरी कामना की भी आवश्यकता है वर्तुल को पूरा करने के लिए। कोई छिपी हुई कामना करने की भी होनी चाहिए। वह मृत्यु-कामना आपको मरने में मदद करती है और जीने की कामना आपको फिर से जन्म लेने में सहायक होती है। वह मृत्यु की कामना सभी लोगों को कितनी ही बार होती है। कई बार आप अचानक उसके प्रति सजग हो जाते हैं। जब कभी कुछ भी निराशाजन्य हो जाता है--जैसे कोई अपने प्रियतम या प्रेयसी को खो दे, तो अचानक मृत्यु की कामना उठती है और आप मरना चाहते हैं--इसलिए नहीं कि आप कामनारहित हो गए, बल्कि इसलिए कि आपकी सर्वाधिक इच्छित कामना अब असंभव हो गई। इसलिए आप मृत्यु की कामना करने लगे।
यह भेद ध्यान देने योग्य है, क्योंकि बहुत से धार्मिक आदमी धार्मिक होते ही नहीं हैं। वे केवल मृत्यु चाह रहे होते हैं। वे आत्मघाती होते हैं। जीवन को मृत्यु चाह रहे होते हैं। वे आत्मघाती होते हैं। जीवन को मृत्यु चाह रहे होते हैं। वे आत्मघाती होते हैं। जीवन को मृत्यु से बदल लेना आसान बात है। यह बहुत आसान है, क्योंकि जीवन और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। वे एक ही घटना के दो पहलू हैं। आप उन्हें परस्पर बदल सकते हैं।
इसलिए, वस्तुतः ऐसा होता है कि जो लोग जीवन से बहुत गहरे जुड़े होते हैं, वे आत्मघात कर लेते हैं। चूंकि वे जीवन से इतने ज्यादा जुड़े होते हैं कि जब भी वे निराशा को उपलब्ध होते हैं वे कुछ और नहीं कर सकते सिवाय आत्मघात के। एक व्यक्ति, जो कि जीवन में बहुत ज्यादा आसक्त नहीं, आत्मघात नहीं कर सकता। आत्मघात को दो तरह से लिया जा सकता है। वह लंबे समय का हो सकता है अथवा वह छोटे अर्से का हो सकता है। आप अभी तुरंत विष ले सकते हैं अथवा आप धीरे-धीरे घुल-घुलकर करते रह सकते हैं कितने ही सालों तक। यह इस पर निर्भर करता है कि आप में कितना साहस है!
कभी-कभी ऐसा होता है कि आप मैं जीने का साहस नहीं होता है, परन्तु साथ ही मरने का भी साहस नहीं होता है। तब आपको धीरे-धीरे मरना पड़ता है, एक लंबा आत्मघात चुनना पड़ता है। तब कोई धीरे-धीरे गिरता जात है--मरता हुआ, मरता हुआ, और मरता हुआ। तब मृत्यु एक लंबी विलंबित प्रक्रिया बन जाती है--मात्राओं में। यह मृत्यु कामना भी होती है और बहुत सी बातें, बहुत सी चीजें उससे जुड़ी होती हैं। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में शहरी जिंदगी को छोड़ दिया और एक छोटे से गांव में रहने चला गया। किसी ने उनसे पूछा--आपने यह गांव क्यों चुना? उसने जवाब दिया, मैं जरा कब्रगाह के पास से गुजर रहा था और मैं एक ऐसी शिला के पास आया जिस पर लिखा था--यह आदमी एक सौ दस वर्ष की उम्र में मरा और इसकी मृत्यु असामयिक हुई! इसलिए यह गांव रहने योग्य है। यदि यहां के लोग सोचते
हैं कि यदि एक सौ दस की उम्र में मरना भी असामयिक है, तो यहां रहना अच्छा है। और वास्तव में, वे बहुत लंबे जिए।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह एक फिक्सेशन है, एक प्रकार से किसी बात का निश्चित हो जाना है। यदि सारा देश सोच ले कि सत्तर साल अधिकतम है, तो यह मन का निश्चित रुख हो गया। यदि देश सोच ले कि सौ अधिकतम हो जाएगा। यदि सारा देश इकट्टे यह सोचने लगे कि इतनी जल्दी मरने की कोई आवश्यकता नहीं है, तो कोई भी आदमी तीन सौ वर्ष जी सकता है। यदि सारा देश निश्चित कर ले तीन वर्ष अधिकतम है तो शरीर तीन सौ वर्ष जी सकता है।
यह एक समूहगत सम्मोहन है, क्योंकि हम जानते हैं कि एक आदमी एक विशेष उम्र पर बूढ़ा होने वाला है। प्रत्येक जानता है। बच्चा जानने लगता है कि कब कोई बूढ़ा हो जाता है। युवा पुरुष जानता है कि कब जवानी चली जाने वाली है। प्रत्येक जानता है, और वह इतनी जानी-पहचानी बात है, इतनी अधिक समझाई गई है कि प्रत्येक जानता है कि सत्तर या असली अधिक से अधिक सीमा है। हम अस्सी पर मर जाते हैं, क्योंकि हम सोचते हैं कि अस्सी साल सीमा है।
यदि आप सीमा बदल दें, तो कोई जरूरत नहीं है इतनी जल्दी मर जाने की। मूलतः शरीर के लिए इतनी जल्दी मर जाने की कोई जरूरत नहीं है। शरीर के भीतर स्वयं के पुनर्निर्माण की क्षमता है। वह पुनर निर्माण करता चला जाता है वह फिर-फिर अपने को पैदा करता चला जाता है। वह चल सकता है। यह समूह गत सम्मोहन और मृत्यु की आकांक्षा दोनों जुड़ जाते हैं। वे दोनों एक हो जाते हैं। फलतः मृत्यु होती है। परन्तु यदि जीवन को वासनाओं की जरूरत है, तो मृत्यु को भी वासनाओं की आवश्यकता है। इसीलिए हम कभी नहीं कहते कि कृष्ण की मृत्यु हुई--कभी नहीं। वे समाधि में गए। हम कभी नहीं कहते कि बुद्ध मर
गए। वे निर्वाण को उपलब्ध हुए। हम कभी नहीं कहते कि ये लोग मर गए: क्योंकि उनके लिए मौत कैसे संभव होगी, जिनके लिए जीवन भी संभव हो गया है? इस बात की गहराई को समझ लें। यदि बुद्ध का जीवन एक असंभावना हो गया है, तो मृत्यु कैसे संभावित हो सकती है? एक व्यक्ति जो कि जीवन की कामना भी नहीं करता, वह मृत्यु की इच्छा कैसे कर सकता है? यदि वह इतना वासना रहित हो गया है कि जीवन भी असंभव हो गया है, तो फिर मृत्यु भी असंभव हो जाएगी।
इसलिए हम कभी नहीं कहते कि बुद्ध मरे। हम इतना ही कहते हैं कि एक बृहद जीवन को उपलब्ध हुए। हम कभी नहीं कहते कि मृत हुए। वे कैसे मर सकते हैं? हम करते हैं, क्योंकि हम जीते हैं, क्योंकि हम जीवन से जुड़े हुए हैं। हमें जीवन से छुटना पड़ेगा, टूटना पड़ेगा। पर जब बुद्ध जीता है, तो वह पुरानी त्वरा की तरह जीता है। वे एक कार में बैठे हैं और कार पहाड़ी की तरफ यात्रा कर रही है। जहां कहीं भी वह रुक जाती है, उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी। वे उतर जाएंगे, उसी क्षण। एक क्षण के लिए भी वे यह न सोचेंगे कि कोई गलती हो गई। वे किसी गलती के बारे में सोचेंगे ही नहीं। वैसा ही हुआ, जैसा होना था। वे ऐसे जी सकते हैं, जैसे नहीं जी रहे हैं। वे ऐसे मर सकते हैं, जैसे नहीं कर रहे हैं। परन्तु यदि आपको लगातार जीवन चालू रखना हो, तो फिर कोई न कोई वासना रहना अनिवार्य है।
रामकृष्ण कुछ समय के लिए जीना चाहते थे केवल ठीक आदमी को संदेश दे देने भर के लिए। और उन्होंने अनुभव किया कि यदि कोई इच्छा बाकी न रही, और कोई त्वरा भी नहीं, तो शरीर एकदम गिर जाएगा। इसलिए उन्होंने एक इच्छा को पैदा किया, नि£मत किया होने के लिए। उन्होंने लगातार प्रयत्न किया कि कम से कम एक इच्छा तो बाकी रहे, जब तक कि वे अपना संदेश ठीक व्यक्ति को नहीं दे देते। वह बुद्ध के लिए घटित नहीं हुआ: यह महावीर के लिए भी नहीं हुआ। फिर यह रामकृष्ण को ही क्यों हुआ। वास्तव में, यह प्रश्न नहीं है कि यह रामकृष्ण के साथ ही क्यों घटा। यह रामकृष्ण का ही प्रश्न नहीं है, परन्तु यह प्रश्न हमारे युग के साथ जुड़ा है। बुद्ध के समय में व्यक्तियों का खोजना कोई मुश्किल नहीं था। इतने लोग उपलब्ध थे कि किसी भी क्षण किसी को भी संदेश दिया जा सकता था, परन्तु रामकृष्ण के लिए
बहुत ही असंभव बात थी कि व्यक्ति को खोजा जा सके।
इसलिए रामकृष्ण अकेले आदमी हैं मनुष्य जाति के पूरे इतिहास में, जिन्होंने कि जबरन जीने की कोशिश की, ताकि ठीक व्यक्ति को पा सकें। और जब विवेकानंद उनके पास पहली दफा आए, तो उन्होंने कहा--कहां थे तुम? मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा हूं। मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। और जब विवेकानंद को समाधि की पहली झलक मिली, तो रामकृष्ण ने उन्हें रोक दिया। रामकृष्ण ने कहा कि अब और नहीं, क्योंकि फिर तुम्हें भी वही मुसीबत होगी, जो मुझे हुई। इसलिए यहीं तक रहो। इससे आगे मत जाओ। बस यहीं रहो, जब तक कि तुम्हें वह संदेश नहीं दे दिया जाए। अब मैं तुम्हारी कुंजियां अपने साथ ले जाता हूं, ताकि तुम्हें वही दुख न उठाना पड़े, जो कि मुझे उठाना पड़ा। पहले मैंने कुछ उपलब्ध किया, और फिर मुझे शरीर में रुकने का प्रयत्न करना पड़ा और यह बहुत कठिन काम था, बहुत ही कठिन। इसलिए अब मैं तुम्हारी चाबियां ले जाउंगा अपने साथ और ये चाबियां तुम्हारी मृत्यु के तीन दिन पहले तुम्हें लौटा दी जाएगी, तीन दिन पहले। और विवेकानंद बिना किसी झलक के रहे। फिर वे प्राप्त न कर सके। वे उस बाधा को पार नहीं कर सके। वे केवल अपनी मृत्यु के पहले ही पार कर सके--कुछ दिन पहले ही मृत्यु के पार पहुंच सके।
जीवन एक वासना है। जिस जीवन को हम जानते हैं, वह वासना है परन्तु एक दूसरा भी जीवन है जो कि वासना रहित है--ऐसा जीवन जिसे कि हम नहीं जानते। यह जीवन शरीर के द्वारा है। वह जीवन शुद्ध चेतना के द्वारा है--सीधा व तत्क्षण। यह जीवन शरीर के द्वारा, मन के द्वारा, साधनों के द्वारा है। इसलिए इतना धुंधला व फीका है। यह इतना स्पष्ट नहीं है।
जब कोई चीज बहुत सारे माध्यमों के द्वारा आप तक पहुंचती है, तो वह विकृत हो जाती है। आपने कभी भी प्रकाश नहीं देखा। आपकी आंखें जिस प्रकाश को देखती हैं वे प्रकाश रासायनिक तत्वों में व विद्युत-तरंगों में रूपांतरित हो चुका होता है। आपने उन विद्युत-तरंगों को कभी नहीं देखा है। आपने उन रसायनों को कभी नहीं देखा है। तब वे रसायन संदेश को ले जाते हैं। फिर वे आपके मन में खोले जाते हैं। वे मात्र कोडस जाते हैं, संकेत होते हैं। तब उन संकेतों को पढ़ा जाता है और आपका मन आपको संदेश देता है कि आपने प्रकाश को देखा। तब आप कहना प्रारंभ करते हैं कि आपने प्रकाश को देखा है--कि सूरज उग गया है। आपने उगते हुए सूरज को कभी नहीं देखा है। यह सिर्फ एक रासायनिक प्रक्रिया है जो कि आप तक पहुंचती है--न कि सूरज का उगना। केवल वह तस्वीर फिर से डिकोड की जाती है--पढ़ी जाती है।
हमारा सारा अनुभव ही ऐसा है--इंडायारेक्ट--परोक्ष--सीधा नहीं। मैं अपने प्रेयसी का प्रेमी का, दोस्त का हाथ छूता हूं। पहले मैंने कभी नहीं छुआ। मैं कभी छू भी नहीं सकता, क्योंकि स्पर्श मेरी उंगलियों के पोरों पर ही रह जाता है और केवल मेरे नाड़ी संस्थान के द्वारा एक विद्युत-तरंग ही मेरे दिमाग तक पहुंचती है। उस तरंग को पढ़ा जाता है और मैं कहता हूं, कितना सुंदर!
यह स्पर्श पैदा किया जा सकता है, यदि मेरी आंखें बंद हैं तो। यदि स्पर्श नि£मत किया जा सकता है यांत्रिक साधनों द्वारा, यदि वही तरंग की धारा पैदा की जा सकते जैसी कि प्रिय के स्पर्श से बनी थी, तो मैं कहूंगा--कितना सुंदर।
यह स्पर्श पैदा किया जा सकता है, यदि मेरी आंखें बंद हैं तो। यदि यह स्पर्श नि£मत किया जा सकता है, यांत्रिक साधनों द्वारा, यदि वही तरंग की धारा पैदा की जा सके जैसी कि प्रिय के स्पर्श से बनी थी, तो मैं कहूंगा--कितना सुंदर!
किसी स्पर्श की भी आवश्यकता नहीं है यदि मन में संदेश ले जाने वाली जो व्यवस्था है, उसे उत्तेजित किया जा सके। फिर से मैं ऐसे ही अनुभव करूंगा, कितना सुंदर! केवल एक इलेक्टोड आपकी खोपड़ी में लगा दिया जाए और यदि हम यह जानते हैं कि आपके अनुभव की क्या गति है जब कि आप प्रेम का अनुभव करते हैं तो आप प्रेम का अनुभव कर सकेंगे। हम एक बटन को दबाते हैं, वह तरंग पैदा हो जाती है मन इलेक्टोड के द्वारा और आप प्रेम का अनुभव करते हैं। आप किस तरंग पर क्रोध में आते हैं। इलेक्टोड़ वही कंपन निर्मित कर सकता है और आप क्रोध का अनुभव कर सकते हैं।
क्या है वह जीवन जो कि आप जी रहे हैं? क्या आपने जाना है? आपने कुछ भी तो नहीं जाना, क्योंकि प्रत्येक बात इतने सारे माध्यमों के द्वारा होती है कि केवल एक अप्रत्यक्ष संदेश ही आप तक पहुंचता है। एक दूसरा भी जीवन है बिना शरीर का, बिना मन का, और वह अनुभव ही अति समीप का है बिना किसी माध्यम का। वह प्रत्यक्ष है। कुछ भी बीच में नहीं है। यदि प्रकाश है तो कुछ भी बीच में नहीं है। तब पहली बार आप प्रकाश से भरते हैं, न कि एक सांकेतिक संदेश से। वह अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है। मैं इसे इस भांति कह सकता हूं--यदि आप अस्तित्व का अनुभव किन्हीं माध्यमों से कर रहे हैं, तो वह संसार है। यदि आप अस्तित्व का अनुभव बिना किसी माध्यम के कर रहे हैं, तो वह परमात्मा है। जो अनुभव किया जाता है वह तो वही होता है, केवल अनुभव करने वाला ही भिन्न तरह से अनुभव करता है। एक तरीका तो किसी दूसरे से अनुभव का है। मैं आपको एक संदेश देता हूं, फिर आप उसे किसी और को देते हैं और फिर वह किसी और को देता है। और तब वह संदेश उसे पहुंचता है जिसे कि दिया जाना है,
और वह बदल जाता है।
हर बार जब भी वह दूसरे का दिया गया, वह थोड़ा बदल गया। अपनी आंखों से हम एक ही भांति नहीं देखते। हम एक ही तरह नहीं देखते, क्योंकि प्रत्येक यंत्र भिन्न है एक सूक्ष्म तरीके से। इसलिए जब मैं प्रकाश देखता हूं, तो मैं उसे एक अलग ही ढंग से महसूस करता हूं। जब आप प्रकाश को देखते हैं, तो एक दूसरे ही ढंग से अनुभव करते हैं। जब एक वानगॉग सूरज को देखता है, तो जरूरी किसी दूसरे ही ढंग से देखता है, क्योंकि वह पागल हो जाएगा और नाचने लगेगा, चिल्लाने-कूदने लगेगा। यह करीब-करीब पागल हो जाएगा, जब वह सूरज को देखेगा। उसने एक वर्ष तक केवल सूरज की तस्वीरें बनाई। वह सोया नहीं। वह बहुत पागल हो गया, क्योंकि सूरज बहुत गर्म है। पूरे एक साल तक सूरज उसके दिमाग पर चोट करता रहा और वह मैदान में पूरे समय सूर्य का चित्रण करता रहा--पूरे एक वर्ष लगातार। वह पागल हो गया। एक साल तक उसे पागलखाने में रखना पड़ा और उसका कारण कुल इतना ही था कि वह इतने तेज सूरज को बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
कोई भी इस तरह पागल नहीं हो जाता। उसने आत्महत्या कर ली, परन्तु इसके पहले उसने एक पत्र लिखा और उस पत्र में उसने लिखा कि चूंकि उसने अब सूरज के सारे चेहरे बना दिए थे, इसलिए उनके और जीने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसने सूरज को सारे रूपों में जान लिया। अब उसके जीने की कोई जरूरत न रही। अब वह मर सकता है। अवश्य ही उसने सूर्य को एक भिन्न ही ढंग से देखा होगा। कोई भी सूर्य के पीछे इस तरह पागल नहीं हो जाता। यह पागलपन क्यों है?
उसके संदेश की शरीर-रचना अलग ही होगी और अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अवश्य ही उसके भीतर कोई अलग ही रसायन होने चाहिए। संभव है कि जल्दी ही हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि कवियों के भीतर कुछ विशेष रसायन की खास मात्रा होनी चाहिए और उसी कारण से वे फूलों के पीछे, बादलों के पीछे पागल हो जाते हैं। दूसरों के लिए वह सब मूर्खतापूर्ण है। यह ठीक है कि एक फूल है, पर यह मूर्खता की बात है कि उसे चित्रित करते चले जाएं, कविताएं करते चले जाएं, और उसी के लिए जिए चले जाए।
अवश्य कोई एक एस डी जैसी चीज उस होने वाले केमिकल में मौजूद है। एक नर्तक का भिन्न ही रसायन होता है। ऐसा लगता है जैविक-उर्जा भिन्न ही प्रकार से काम करती है।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि जीवन इच्छाओं से बंधा है, उनके वशीभूत है, तो मेरा मतलब है यह जीवन, वह जीवन नहीं। यह जीवन वासनाओं के वशीभूत है। इसलिए जितनी अधिक इच्छाएं होंगी, उतनी ही इस जीवन की वासना होगी। इसलिए जो लोग इच्छाओं के पीछे लगे हैं, दौड़ रहे हैं, और दौड़ते जा रहे हैं, वे हमें बहुत सक्रिय व जीवंत दिखलाई पड़ते हैं।
हम कहते हैं कि वे बड़े जीवंत हैं। क्या कर रहे हैं?
प्रत्येक दौड़ रहा है, और हर एक इतना जीवंत है।
क्या आप मुर्दा हो गए? परन्तु एक दूसरा जीवन भी है--बृहत्तर, अधिक गहरा, अधिक जीवंत अति पास व प्रत्यक्ष। हमारे पास उसके लिए एक शब्द है--अपरोक्षानभूति--तुरंत व प्रत्यक्ष अनुभूति। परमात्मा को देखना है, पर आंख के द्वारा नहीं।
उसे सुनना अवश्य है, पर कान के द्वारा नहीं। उसे आ¯लगन अवश्य करना है, पर हाथों से नहीं, शरीर द्वारा नहीं। कैसे होता है फिर यह?
हम दो ही बातें जानते हैं--एक वासनाओं-इच्छाओं का जीवन व वासनाओं की मृत्यु। हम एक दूसरे आयाम को नहीं जानते--वह है, एक निर्वासना का जीवन और वासना-रहित मुक्ति। परन्तु यदि हम वासना की वास्तविक यांत्रिकता के प्रति सजग हो जाएं, तो हम एक अंतराल पैदा कर सकते हैं। और जिस क्षण अंतराल पैदा होता है, यह जीवन उस दूसरे जीवन में गति करने लगता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, निर्वासना भाव के बढ़ने के साथ-साथ, कभी-कभी, मनुष्य बाह्य रूप से निष्क्रिय सा हो जाता है। क्या यह आलस्यमय व शिथिल हो जाना है? ऐसा क्यों होता है?
बहुत सी बातें संभव हैं और वे बहुत सी बातों पर निर्भर हैं। निश्चित ही बहुत सी इच्छाएं गिर जाएंगी। और बहुत से कर्म भी। वे कर्म, जो कि उन इच्छाओं से उत्प्रेरित किए गए थे, गिर जाएंगे। यदि मैं किसी इच्छाओं के कारण दौड़ रहा था, तो अब कैसे दौड़ सकता हूं, जबकि वह इच्छा ही गिर गई है! मेरा दौड़ना रुक जाएगा। कम से कम उस मार्ग पर तो मेरी दौड़ बंद हो ही जाएगी। अतः जब कोई व्यक्ति निर्वासना को प्राप्त होता है, तो कम से कम बीच में कुछ समय के लिए ;और यह भी व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि कितने समय के लिए शुद्ध वह निष्क्रिय हो जाएगा। सारी इच्छाएं गिर गई हैं और इसलिए सारे कर्म जो कि वह कर रहा था, वे सब उन इच्छाओं से संबंधित थे। तो फिर वह उन्हें कैसे चालू रख सकता है? इच्छाएं गिर जाएंगी।
परन्तु इच्छाओं व कृत्यों के गिर जाने से उर्जा इकट्ठी होगी और अब उर्जा गति करने लगेगा। यह व्यक्ति-व्यक्ति में अलग-अलग होगा कि कब और कैसे वह गति करती है। परन्तु जब वह गतिमान होगी। एक अंतराल होगा--बीच का अंतरिम काल, मध्यांतर। इसे मैं प्रसव-काल कहता हूं। बीज लग गया है, परन्तु अभी उसके उगने का काल है कम से कम नौ महीने का। और यह विचित्र बात लगेगी, परन्तु यह नौ महीने का समय बड़ा महत्वपूर्ण है। करीब आठ, नौ, दस महीने अंतरिम काल के रहेंगे और आप बिलकुल निष्क्रिय हो जाएंगे। यह निष्क्रियता भी भिन्न-भिन्न होगी। कोई इतना निष्क्रिय हो सकता है कि लोग सोचें कि वह कोमा की स्थिति में चला गया। सब कुछ रुक जाता है--हिलना डुलना तक।
मेहर बाबा के साथ एक घटना हुई। एक साल के लिए वे एक कोमा की स्थिति में रहे। वे हिल भी नहीं सकते थे। वे खड़े भी नहीं हो सकते थे, क्योंकि खड़े होने तक की इच्छा चली गई थी। वे खा भी नहीं सकते थे। उन्हें जबरन खिलाना पड़ता था। वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। एक वर्ष के लिए वे बस बिलकुल असहाय हो गए--एक असहाय बालक। यही प्रसव-काल है और तब अचानक ही एक नए आदमी का जन्म होता है। वह आदमी जो कि निर्जीव हो गया था, अब नहीं है। वह उर्जा जो कि जन्मों-जन्मों में नष्ट हो गई थी, इस अंतराल को उत्पन्न करती है।
सामान्यतः आपके पास काफी उर्जा नहीं है। जब कामना नहीं है उकसाने को, उत्प्रेरित करने को, आवाहन को, तो आप गिर पड़ते हैं। आपकी उर्जा वास्तव में उर्जा नहीं है, परन्तु बस एक, खींचना, धक्का मारना है। खैर, फिर भी आप दौड़ते चले जाते हैं, क्योंकि लगता है कि मंजिल पास ही है। कुछ क्षण और, और आप पहुंच गए। आप अपने को खींचते हैं। किसी तरह भी आप अपने को खींचे चले जाते हैं।
परन्तु जब लक्ष्य ही गिर गया, इच्छा ही गिर गई, तो आप भी गिर जाएंगे। यहीं एक निष्क्रियता होगी। यदि आप इस निष्क्रिय काल में धैर्य रख सके, तो आप दोबारा जन्म पाएंगे। तब उर्जा गतिमान होगी बिना इच्छाओं के। परन्तु जैसा कि मैंने कहा कि यह निर्भर करता है बहुत सी बातों पर।
जैसा कि मेहर बाबा के मामले में हुआ, एक अकस्मात घटना थी। वह बंबई में हुई। वह एक वृद्ध महिला, बाबाजन के द्वारा चूमनें से हुआ। मेहर अपने रास्ते जा रहा था स्कूल से लौटते वक्त बाबाजन एक वृद्ध सूफी रहस्यवादी औरत थी जो कि सालों-सालों से एक पेड़ के नीचे बैठी
रहती थी। मेहर बाबा आ रहा था और बाबाजन ने उसे बुलाया। वह इस बूढ़ी औरत को जानता था। वह सालों से इसी रास्ते पर पेड़ के नीचे बैठी रहती थी, जबकि वह रोजाना अपने स्कूल के लिए जाता-आता था। उसने उसे बुलाया और वह नजदीक गया। उसने उसे चूमा और वह वहीं गिर गया जैसे कि मृत हो गया हो और उसे वहां से उठा कर ले जाना पड़ा।
लगातार एक वर्ष तक चूमने का प्रभाव उस पर रहा और वह कोमा (निष्क्रियता) की स्थिति में रहा। ऐसा हो सकता है अचानक। यह एक बहुत बड़ा स्थानांतरण था और बाबाजन उसके बाद मर गई, क्योंकि वह प्रतीक्षा कर रही थी इसी क्षण के लिए कि सारी उर्जा किसी को दे सके। यह उसका आखिरी जन्म था। और इतना भी समय शेष नहीं था कि किसी को बतला सके कि वह क्या दे रही थी। और वह ऐसी भी नहीं थी कि किसी को समझाती। वह एक मौन रहस्यवादी संत थी। उसने वर्षों किसी को नहीं छुआ था। वह केवल इसी क्षण की प्रतीक्षा में थी। इसलिए जब वह किसी को चूमे तो सारी उर्जा एक ही बार में स्थानांतरित हो जाएगी। उसने वर्षों तक किसी को छुआ भी नहीं था। इसलिए कि यह स्पर्श समग्र होने वाला था।
और यह बच्चा केवल सजग नहीं था, उसे पता भी नहीं था कि क्या होने वाला है। आंतरिक रूप से वह तैयार था, वरना वह हस्तांतरण संभव नहीं था। परन्तु इसे पता नहीं था। उसने अपने पिछले जीवनों में जो काम किया था, वह उपर आ रहा था। वह बाद में जान जाएगा, परन्तु इस क्षण तो वह बिलकुल अनभिज्ञ था। यह इतना अकस्मात हुआ कि उसे दोबारा दूसरे प्रसव-काल में जाना पड़ा।
एक वर्ष के लिए वह ऐसा हो गया जैसे वह नहीं हो। बहुत सी दवाइयां दी गई। बहुत से चिकित्सकों ने काफी प्रयत्न किए, परन्तु कुछ भी न कर सके। और वह औरत जो कि कुछ कर सकती थी, वह गायब हो गई, वह मर गई। एक वर्ष बाद वह दूसरा ही आदमी हो गया--पूर्णतः भिन्न व्यक्ति। यदि यह इतना अकस्मात हो, तो यह एक गहरे कोमा की स्थिति होगी।
यदि यह कुछ योग-साधनों आदि के द्वारा हो, तो यह कभी भी गहरी निष्क्रियता की स्थिति नहीं होगी। यदि आप कोई सजगता बढ़ाने की क्रियाएं जैसे ध्यान आदि कर रहे हैं, तो यह अकस्मात कभी न होगी। यह इतने धीरे-धीरे आएगी कि आप कभी जान भी न पाएंगे कि यह कब घटित हो गया। धीरे-धीरे निष्क्रियता होगी। क्रियाशीलता होगी और भीतर का सब
कुछ धीरे-धीरे बदल जाएगा और इच्छा गिर जाएगी, क्रिया गिर जाएगी, परन्तु कोई भी ऐसा महसूस न कर पाएगा कि आप आलस्य युक्त अथवा निष्क्रिय हो गए हो। यह धीरे-धीरे होने वाली प्रक्रिया है।
इसलिए जो लोग योगाभ्यास करते हैं या ऐसी कोई भी क्रिया करते हैं, वे अचानक कुछ भी अनुभव नहीं करेंगे। ऐसी भी विधियां हैं जहां अकस्मात घटनाएं संभव हैं। परन्तु उनके लिए व्यक्ति को तैयार करना पड़ता है। बाबाजन ने इस बच्चे को कभी तैयार नहीं किया था। उसने उसकी इजाजत भी नहीं ली। यह एकतरफा मामला था। उसने बस उर्जा का हस्तांतरित कर दिया।
झेन फकीर भी उर्जा का हस्तांतरण करते हैं, पर उसके पहले वे भूमि तैयार कर लेते हैं। एक व्यक्ति को तैयार कर लिया जाता है शक्ति को ग्रहण करने के लिए। वह कुछ दिनों के लिए आलस्य अनुभव कर सकता है--कुछ महीने के लिए, परन्तु बाहर से कोई नहीं जान पाएगा, कि भीतर सब निष्क्रिय पड़ गया है।
परन्तु उसके लिए तैयारी चाहिए और वह केवल स्कूलों में घटित हो सकता है।
और जब मैं स्कूल कहता हूं तो मेरा मतलब है एक ग्रुप का काम करना। बाबाजन अकेली थी। उसने किसी को भी अपना शिष्य नहीं बनाया था। उसका कोई स्कूल भी नहीं था। पीछे आ रही कोई धारा नहीं थी, जिसमें कि वह किसी को तैयार कर सके। वह उस टाइप की भी नहीं थी। वह वृद्धा शिक्षक टाइप की नहीं थी। वह किसी को प्रशिक्षित नहीं कर सकती थी। इसलिए जब उस किसी को कुछ देना था, जो भी उस समय आ जाए जब वह ऐसा महसूस करे कि बस यही समय है और यह व्यक्ति इसको संभाल सकेगा और ले जा सकेगा, वह उसे दे देगी। इसी अंतःप्रेरणा पर यह निर्भर करता है।
निष्क्रियता थोड़ी या अधिक तो होगी ही। वह अनिवार्य है। एक निष्क्रियता का काल होगा और तभी तुम्हारा दोबारा जन्म हो सकेगा, क्योंकि तुम्हारा सारा मैकेनिज्म, ढांचा पूरा का पूरा बदला जाने वाला है। मन गिर जाता है पुरानी जड़ें गिर जाती है, पुरानी आदतें गिर जाती हैं, चेतना व आदतों की पुरानी पहचान व दोस्ती टूट जाती है। चेतना व मन भी गिर जाते हैं। पुराना सब कुछ टूट जाता है, और हर एक चीज के नया होना होता है।
केवल प्रतीक्षा की आवश्यकता है, धैर्य की आवश्यकता है, और यदि कोई धैर्यवान है, तो उसे कुछ नहीं करना है। वह केवल प्रतीक्षा करे, इतना काफी है। उर्जा स्वतः गतिमान होती है। आप सिर्फ बीज बो दें और प्रतीक्षा करें। जल्दी न करें। रोजाना जाएं नहीं और न बीज को उखाड़ें और न देखें कि क्या हो रहा है। बस, उसे भीतर रख दें और प्रतीक्षा करें। उर्जा अपने आप रास्ता ढूंढ लेगी, बीज मर जाएगा, और तब उर्जा गति करने लगेगी। परन्तु अधीर न हों। धैर्य जरूरी है।
और जितना ही बीज शक्तिशाली होता है--जितनी विराट संभावनाएं उगने वाले वृक्ष में होती हैं, उतनी ही अधिक प्रतीक्षा जरूरी है। परन्तु यह घटता है। जितनी गहरी प्रतीक्षा, उतनी ही जल्दी यह घटता है।
आज इतना ही
ओशो
बंबई, दिनांक 18 फरवरी 1972, रात्रि
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