रविवार, 17 जून 2018

केनोउपनिषद--प्रवचन--14

एक के द्वारा सर्व को जानना—चौदहवां प्रवचन

दिनांक 15 जुलाई 1973; प्रात:,
माउंट आबू राजस्थान।
चतुर्थ खंड

  सा ब्रह्मेति होवाच। ब्रह्मणा वा एतद्विजये महीयध्वमिति,
  ततो हैव विदाडचकार ब्रह्मेति।। 1।।

      तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान् देवान् यद्ग्निर्वायुरिन्द्रस्ते
      हेनन्नेदिष्ठ पस्पृशस्ते ह्येनत् प्रथमो विदाज्वकार ब्रह्मेति।। 2।।

      तस्माद् वा इंद्रोऽतितरामिवान्यान् देवान् स ह्येनन्नेदिष्ठं
      पस्पर्श, स हेनत् प्रथमो विदाडचकार ब्रह्मेति।। 3।।

तसौष आदेशो यदेतद् विद्युतो व्यद्युतदा इतोत्यमीमिषदा इत्यधिदैवतम्।। 4।।

अथाध्यात्मं यदेतद् गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्य भीक्ष्णं संकल्प:।। 5।।


                        केनोपनिषद
                    चतुर्थ अध्याय

                              1
      ''वह यक्ष ब्रह्म था '' उमा ने कहा? ''ब्रह्म की विजय के कारण ही
            वस्तुत:, तुम यह गौरव प्राप्त कर सके हो।
      ''उमा के इन शब्दों से ही इंद्र समझ सका कि वह यक्ष ब्रह्म था। 

                              2
            इसलिए वास्तव में ये देवता—अग्नि वायु?
             और इंद्र—दूसरे सब देवताओं से श्रेष्ठ हैं,
              क्योकि वे यक्ष के निकटतम पहुंचे।
          वे पहले थे जिन्होंने उसे ब्रह्म की भांति जाना।


                              3
            और इसीलिए इंद्र दूसरे सभी देवताओं से श्रेष्ठ?
            है क्योकि वह यक्ष के निकटतम पहुंचा
            उसने सर्वप्रथम उसे ब्रह्म की भांति जाना।

                              4
      उस ब्रह्म के बारे में यह उपदेश है। वेंह बिजली की चमक की भांति है
            वह पलक के झपकने की भांति है। यह अधिदैवतम्—
              उसकी वैश्विक अभिव्यक्ति— के संदर्भ में है।


                              5
      अब अध्यात्म—उसकी मानुषिक अभि?व्यक्ति—के संदर्भ में उसका वर्णन :
                  ब्रह्म की ओर मानो पूरी गति से जाता है।
                        मनुष्य के मन द्वारा भी,
                  इस ब्रह्म को ऐसे स्मरण किया जाता है
      और उसकी ऐसी कल्पना की जाती है जैसे कि वह सदा निकट ही है।



मन अमूर्त है। वह स्पर्श नहीं कर सकता, वह देख. नहीं करता वह सुन नहीं सकता। वह सिर्फ सोच सकता है। सोचना अमूर्त है। विचार रिक्तता में चलते है। विचारों में ठोस कुछ भी नहीं होता। उन्‍हें स्‍पर्शनही किया जा सकता। सुना नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है। इसलिए मनुष्‍य के भीतर मन बड़ी ही अमूर्त चीज है। और जब वह अमूर्त क्षमता सत्‍य तक पहुंचने का प्रत्‍यन करती है, तो वह सिर्फ सत्‍य के बारे में विचार कर सकती हे। यह उसे देख नहीं सकती। यह उसे अनुभव नहीं कर सकती। यह सिर्फ उसके बारे में चिंतन—मनन कर सकती है।
इसका ढंग परोक्ष ही हो सकता है। इंद्रियां प्रत्यक्ष. हैं, मन परोक्ष है।
इंद्र मन का प्रतिनिधित्व करता है, अग्नि आंखों का प्रतिनिधित्व करता है, वायु कानों का प्रतिनिधित्य करता है। इसे समरन स्मरण रखना। कान वह हिस्सा है जो वायु के समष्टिगत अस्तित्व से संबंधित है। आंखें मनुष्‍य का वह हिस्सा है जो कि सूर्य के, अग्नि के समष्टिगत अस्तित्व से संबंधित है।
वायु के पास पहुंचा, अग्नि ब्रह्म के पास पहुंचा : वे देख सके, वे सुन सके। वे उस परम सत्ता से अधिक यथार्थ रूप से सबधित हो सके, लेकिन वे पहचान नहीं सके। ब्रह्म उपस्थित था, लेकिन इंद्रियां उसे पहचान सकीं कि वह कौन था। पहचान के लिए प्रत्यभिज्ञा के लिए मन की आवश्यकता होती उस ही पहचान सकता. है। लेकिन तब एक समस्या खड़ी होती है : मन सीधा नहीं जान सकता। मन परोक्ष रूप से जानता है। मन सत्य को सीधा नहीं देख सकता, क्योंकि मन एक अमूर्त इंद्रिय है। यह सिर्फ सोच—विचार कर सकता है। सोच—विचार के द्वारा यह पहचान सकता है, लेकिन तब सत्य अदृश्य हो जाता है। भीतर सिर्फ विचार होता है। इंद्र पहचान सका, लेकिन सीधा—सीधा नहीं, क्योंकि जब इंद्र पहुंचा तो ब्रह्मा अदृश्य हो गया।
इसलिए पहली बात जो कि हमें ठीक से समझ लेनी है वह यह कि मन एक परोक्ष ढंग है। इंद्रियां प्रत्‍यक्ष मैं तुम्हें अपने मन से छू नहीं सकता। मैं तुम्हें अपने हाथ से छू सकता हूं मैं तुम्हें अपनी आंखों से सकता हूं लेकिन मैं तुम्हें अपने मन से नहीं देख सकता। मन मेरे भीतर बंद है, और मेरे मन से सीधा सेतु नहीं है तुम तक पहुंचने का। यदि मन तुम तक पहुंचना चाहे तो किसी माध्यम की आवश्‍यकता पड़ेगी। यदि मन तुम्हें देखना चाहता हो तो वह आंखों के द्वारा देखेगा, यदि वह तुम्हें स्पर्श करना चाहता है तो वह हाथ के माध्यम से स्पर्श करेगा। एक माध्यम, एक बीच की एजेंसी, एक बिचौलिया चाहिए। मन को कोई माध्यम चाहिए।
इसलिए मन जो भी जानकारी देता है, वह एकदम सपईगई नहीं हो सकती। यह पूर्वी मनीषा की एक बड़ी से बड़ी खोज है, कि मन तुम्हें किसी भी चीज के बारे में कोई सीधा ज्ञान नहीं दे सकता। कोई मध्यस्थ वहा होगा ही। और तुम्हारे तक खबर उस माध्यम के द्वारा ही आयेगी। सत्य में सीधे मन से कोई प्रवेश नहीं हो सकता। इंद्रियां प्रत्यक्ष हैं, लेकिन वे पहचान नहीं सकतीं। मन पहचान सकता है, लेकिन वह प्रत्यक्ष नहीं है। इसलिए जब तक मन और इंद्रियां दोनों एक गहरी लयबद्धता में न हों, तब तक तुम सत्य को नहीं जान सकते।
अग्नि अकेला गया, वायु अकेला गया, इंद्र अकेला गया। वे सब असफल हो गये। ब्रह्म अग्नि के सामने भी उपस्थित था, लेकिन अग्नि के पास कोई मन नहीं था सोचने को, पहचानने को, स्मरण करने को; वह किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सका कि वह यक्ष कौन था। इंद्र पहचान सका, लेकिन उसके पास यह जानने की कोई प्रत्यक्ष संभावना नहीं थी कि वह कौन था। ब्रह्म मन के सामने अदृश्य हो गया।
तो पहली बात : यदि मन के द्वारा ही सत्य को जानना हो तो सत्य अदृश्य हो जायेगा। इसीलिए विज्ञान के लिए कोई ब्रह्म नहीं है। विज्ञान है इंद्र—काम में लगा हुआ मन। इसीलिए विज्ञान इनकार किये जाता है। विज्ञान कहे जाता है कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा नहीं है, और जगत में कोई ब्रह्म नहीं है, कोई ईश्वर नहीं है। यह एक मानसिक ढंग है, अमूर्त। किंतु इस कहानी में एक गहरी घटना घटती है। ब्रह्म अदृश्य हो जाता. है और एक स्त्री, एक सुंदरतम स्त्री, उमा प्रकट होती है।
जब भी मन जीवन के रहस्य को जानने का प्रयत्न करता है तो ब्रह्म अदृश्य हो जाता है, और काम प्रकट हो जाता है। मन के लिए ब्रह्म के सर्वाधिक निकट काम है, वही निकटतम संभावना है जीवन—ऊर्जा को जानने के लिए। क्यों? काम कई कारणों से मन के निकटतम है। पहला, ब्रह्म समष्टि की जीवन—ऊर्जा है, और काम तुम्हारी व्यक्तिगत जीवन—ऊर्जा है। ब्रह्म तुमसे बाहर है, काम तुम्हारे भीतर है। ब्रह्म को जानने के लिए तुम्हें इंद्रियों की जरूरत पड़ेगी। काम को समझने के लिए तुम अपनी आंखों को बंद कर सकते हो और समझ सकते हो। यह सत्य तुम्हारे भीतर ही मौजूद है। या तुम कह सकते हो कि ब्रह्म तुम्हारे भीतर काम के रूप में प्रवेश कर गया है। वह तुम्हारे भीतर काम—ऊर्जा बन गया है। यह व्यक्तिगत प्रतिरूप है उस महान समष्टिगत जीवन—ऊर्जा का।
तुम मन से ब्रह्म को केवल काम की भांति समझ सकते हो। इसलिए जब कभी अमूर्त चिंतन अपने शिखर पर पहुंचता है तो ब्रह्म अदृश्य हो जाता है और काम ही एकमात्र सत्य हो जाता है। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है, और यह अभी भी समकालीन जगत में हो रहा है। ऐसा भारत में हुआ, और उसके कारण ही तंत्र का जन्म हुआ। तंत्र का अर्थ है : ब्रह्म को पूरी तरह भूल जाओ—केवल काम—ऊर्जा के भीतर गहरे प्रवेश करो, और तुम ब्रह्म तक पहुंच जाओगे।
तंत्र का जन्म हुआ क्योंकि भारत बौद्धिक रूप से शिखर पर पहुंच गया था, उसी शिखर पर जहां आज पश्चिमी देश पहुंच गये हैं। भारत ने वह शिखर जाना है—अमूर्त चिंतन का शिखर, वैज्ञानिक विचारों की ऊंचाई, दर्शनशास्त्र व तत्वज्ञान का शिखर। भारत मन की उस अति परिष्कृत स्थिति को पहुंच गया था जहां कि ब्रह्म अदृश्य हो गया, और जीवन—ऊर्जा काम—ऊर्जा हो गई, काम—ऊर्जा की भांति प्रकट हुई। तो तंत्र की देशना है कि वास्तव में परमात्मा जैसा कुछ भी नहीं है जिसके पास हमें सीधे पहुंचना है। जब तक तुम काम के रहस्य में प्रवेश नहीं करते, जब तक तुम उसमें गहरे नहीं उतरते, तुम ब्रह्म को नहीं जान सकते।
और यह भी सांकेतिक है, कि काम इंद्र के समक्ष उमा के वेश में प्रकट होता है। उमा शिव की अर्द्धांगिनी है, और शिव सबसे बड़े तांत्रिक हैं। उमा आधा अंग है। जीवन—ऊर्जा के उस गहरे अनुभव में शिव पुरुष हैं, और उमा स्त्री है। शिव के लिए उमा जीवन—ऊर्जा की स्रोत है, समष्टि की सत्ता का द्वार है। उमा के लिए शिव उस समष्टि की परम सत्ता का द्वार हैं। और जब उमा और शिव गहनतम संभोग में मिलते हैं, तो वे अपने को खो देते हैं, और केवल समष्टि की ऊर्जा आदोलित होने लगती है।
तुमने शिवलिंग देखा है—वह अकेला नहीं है, वह उमा की योनि के साथ है। शिवलिंग को उमा की योनि में रखा गया है। शिवलिंग जननेंद्रिय है, और उसके नीचे योनि है। शिवलिंग महासंभोग और मिलन का प्रतीक है। इस मिलन में व्यक्ति खो जाते हैं, और विराट प्रकट होता है।
इंद्र के समक्ष उमा प्रकट होती है, मन के समक्ष काम प्रकट होता है। इस भांति मैं इसका अर्थ करता हूं। और इंद्र ने उमा से पूछा, ''यह यक्ष कौन था, यह दिव्यात्मा कौन थी?'' जब मन अपने परम शिखर पर पहुंचता है, तो वह सिर्फ काम—ऊर्जा से पूछ सकता है, ''यह जीवन—ऊर्जा कौन है?''
मनुष्य के भीतर मस्तिष्क, मन एक ध्रुव है और काम दूसरा ध्रुव है। तुम इन दो ध्रुवों के बीच जीते हो। तुम्हारे मस्तिष्क में सोचने की शक्ति है, तर्क है, विचार है। और दूसरे छोर पर काम है। तुम्हारी रीढ़ की हड्डी के ये दो छोर हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि तुम्हारा मस्तिष्क तुम्हारी रीढ़ की हड्डी का ही फैलाव है। एक छोर पर काम—ऊर्जा है, और दूसरे छोर पर विचार शक्ति है। ये तुम्हारी रीढ़ के दो छोर हैं, दो ध्रुव हैं और तुम्हारी रीढ़ ही तुम्हारा मस्तित्व है। तुम अपनी रीढ़ के कारण ही जीवित हो। जब तर्क अपने शिखर पर पहुंच जाता है तो तुम एकध्रुवी हो जाते हो। तुम एक अति पर चले गये, और वह पूरी तरह अमूर्त है। और काम पूर्णतया मूर्त है, वह जरा भी अमूर्त नहीं है।
आंखों से तुम देख सकते हो, हाथों से तुम छू सकते हो, कानों से तुम सुन सकते हो, किंतु काम—केंद्र के द्वारा तुम गहरे प्रवेश कर सकते हो। कोई भी आंखें इतनी गहरी नहीं जा सकतीं, कोई हाथ इतनी दूर तक स्पर्श नहीं कर सकते, कोई कान इतना नहीं सुन सकते। काम के द्वारा तुम दूसरे के रहस्य में बहुत दूर तक प्रवेश कर सकते हो। काम एक बहुत ही गहरे प्रवेश करने वाली शक्ति है। मन कभी किसी चीज में सीधा प्रवेश नहीं करता; काम सीधा ही प्रवेश करता है। काम के पास कोई अमूर्तता नहीं है, मन के पास कोई ठोस अस्तित्व नहीं है। इसलिए काम तुम्हारे भीतर पृथ्वी है, और मन आकाश है। काम जड़ है तप्तारे भीतर, मन फूल है।
इसलिए जब भी मन जानना चाहता है कि क्या है जीवन—ऊर्जा, कि क्या है ब्रह्म तो उसके पास एक्, ही उपाय है कि वह जड़ों पर लौट आये, क्योंकि वे जड़ें उस विराट में फैली हैं, वे जड़ें उस जीवन —ऊर्जा में गहरे गई हैं। काम के द्वारा, मन पुन: वापस पीछे उद्गम पर लौट सकता है। यदि तुम सोचते ही रही तो तुम गोल—गोल घूमते रहोगे और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। तुम बड़े—बड़े दार्शनिक सिद्धात निर्मित कर सकते हो, बड़ी—बड़ी पद्धतियां बना सकते हो, लेकिन वे सिर्फ धारणाएं, कल्पनाएं, कोरे शब्‍द मात्र ही रहेंगे, वे कभी सत्य नहीं हो सकते। मन केवल तभी जान सकता है जब वह पुन: जड़ों पर उतर आये, उद्गम तक, स्रोत तक पहुंच जाये। और उस स्रोत से ब्रह्म को जाना जा सकता है।
अब फिर पश्चिमी खोजों के द्वारा संसार उस जगह आ गया है जहां कि मन सर्वोपरि हो गया है। इसी कारण काम के बारे में इतनी खोज, इतनी दिलचस्पी, इतना चिंतन पश्चिम में चलता है। ईश्वर को हटा दिया गया है। अभी पश्चिम में ईश्वर आधारभूत समस्या नहीं है. आधारभूत समस्या है काम। और यदि इस रहस्य में प्रवेश किया जा सके, केवल तभी ईश्वर एक प्रकार से पुन: एक जीवंत समस्या हो सकेगा। तो पश्चिमी विचारक लगातार काम के रहस्य के बारे में सोच रहे हैं कि यह क्या है?
उमा इंद्र के समक्ष प्रकट हुई और इंद्र ने उमा से पूछा, ''यह शक्ति कौन थी? यह दिव्यात्मा कौन थी? यह उपस्थिति किसकी थी जो मेरे सामने विलीन हो गई? '' यही सवाल मन भी काम—ऊर्जा से पूछता है. ''जीवन क्या है? ईश्वर क्या है? ब्रह्म क्या है? '' काम—केंद्र से पूछना, यही तंत्र है। तंत्र का अर्थ है, काम का योग। यह बात भविष्यवाणी की तरह कही जा सकती है कि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल तंत्र ही सहायक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि तंत्र ही उस रहस्य को जानता है कि उमा से कैसे पूछा जाये, कि काम—केंद्र से, काम—ऊर्जा से कैसे पूछा जाये कि ऊर्जा का परम स्रोत क्या है।
और उमा ने उत्तर दिया।
''वह यक्ष ब्रह्म था '' उमा ने कहा
उमा ने उत्तर दिया कि वह उपस्थिति ब्रह्म ही थी। काम दो चीजों का उत्तर दे सकता है—पुरुष के लिए स्त्री उत्तर है, स्त्री के लिए पुरुष उत्तर है। यदि तुम सही तरीके से पूछ सको तो काम गहरे से गहरा उत्तर हो सकता है। लेकिन खतरे भी हैं।
यदि तुम सही ढंग से नहीं पूछ सके तो काम तुम्हारे लिए दुख का कारण बन जायेगा। तब काम तुम्हारे लिए बड़े से बड़ा पतन का कारण हो जायेगा। यदि तुम सही तरीके से पूछ सको, तो काम तुम्हारे लिए गहनतम रहस्य होगा जो कि जाना जा सकता है। लेकिन यदि तुम गलत ढंग से पूछो तो काम तुम्हारे लिए सबसे बड़ी खाई साबित हो सकता है। ऐसा होगा ही क्योंकि काम एक ऊंचाई है। यदि तुम उस ऊंचाई की ओर गलत ढंग से चले तो तुम गिरोगे।
ईसाइयत काम को सिर्फ पतन समझती है। और तंत्र काम को सही उत्तर समझता है। ईसाइयत और तंत्र दोनों एक—दूसरे के विपरीत हैं। केवल ईसाइयत ही नहीं, जैन धर्म, और भी दूसरे धर्म काम के बहुत विरोधी हैं। उनके विरोध का एक कारण है। कारण यह है कि पचास प्रतिशत तो गिरने की ही संभावना है। यह खतरनाक है। इसलिए किसी और रास्ते से चलो जहां यह पचास प्रतिशत गिरने की संभावना नहीं हो। और यह पचास प्रतिशत गणित के हिसाब से है। वास्तव में तो निन्यानबे प्रतिशत है, क्योंकि काम का इतना आकर्षण है और काम इतनी अचेतन शक्ति है कि इसके साथ प्रयोग के दौरान जागे हुए रहना, ध्यानपूर्ण रहना कठिन है। तुम मूर्च्छित हो जाओगे। और यदि तुम संभोग के उस चरम क्षण में मूर्च्छित हो जाते हो तो तुम कहीं नहीं पहुंचते।
निन्यानबे प्रतिशत तो संभावना है कि तुम काम वे द्वारा नीचे गिरोगे। केवल एक प्रतिशत संभावना है कि तुम ऊपर उठ सको। लेकिन तंत्र कहता है कि इस गिरने के प्रतिशत को सही विधियों के द्वारा कम किया जा सकता है। और किसी स्त्री या किसी पुरुष को प्रशिक्षित किया जा सकता है। तब संभोग एक कला हो जाता है—महानतम कला। और यदि तुम्हें वह कला— आती है तो तुम बहुत सजगता से, बड़ी संवेदनशीलता से उसमें उतरते हो। और तब यह केवल एक क्षणिक सुख, एक राहत नहीं होती। तब वह एक पवित्र पूजा हो जाती है।
अत: तंत्र पहले लोगों को काम—रहित होने का प्रशिक्षण देता है। तंत्र पहले उस बिंदु तक पहुंचना सिखाता है जहां काम तुम्हारे लिए एक विक्षिप्तता न रह जाये। तंत्र पहले तुम्हें पूर्णत: अनासक्त, निर्वासना होना सिखाता है। एक नग्न सुंदर स्त्री तांत्रिक, तंत्र—साधक के सामने बैठी होगी, और उसे उस स्त्री पर, उसकी सुंदरता पर ध्यान करना होगा, लेकिन ऐसे जैसे कि वह कोई दिव्य —शक्ति हो। और उस भीतर दखते रहना होगा कि कोई वासना तो नहीं उठ रही है। यदि वासना उठती है तो बात चूक गई।
यह सर्वाधिक कठिन बात है। महीनों तक साधक को वासना के ऊपर उठने का अभ्यास करना पड़ता है। और जब एक सुंदर स्त्री, एक सुंदर फूल की भांति प्रतीत होने लगे, और उसके मन में कोई वासना नहीं हो, केवल तब ही गुरु उस साधक को अनुमति देगा कि वह बिना किसी कामवासना के उस स्‍त्री के पास जाये, बिना किसी कामवासना के उस स्त्री में प्रवेश करे। तब यह एक ध्यान हो जाता है। तो फिर वह संभोग का मिलन जागतिक हो जाता है। तब वहा व्यक्ति नहीं बचते, क्योंकि व्यक्ति होते है वासना, कामना, लोलुपता के कारण। तब प्रेम घटित होता है, और यह प्रेम ही प्रार्थना है। और एक—दूसरे के माध्‍यम से वे उस विराट में प्रवेश कर जाते हैं जो हम सबको घेरे हुए है।
काम तुम्हें उत्तर दे सकता है, और यदि तुम अतिबुद्धिवादी हो गये हो, तो केवल काम ही तूम्‍हें उत्तर दे सकता है। किसी भी बुद्धिवादी युग को काम से पूछना पड़ेगा। यदि तुम अपने मस्तिष्क में बहुत ज्‍यादा केंद्रित हो गये हो तो तुम्हें पीछे दूसरे सिरे पर लौटना होगा। केवल तभी तुम्हारे भीतर दो विपरीप ध्रुव मिलते हैं, और तुम एक इकाई बनते हो।
उमा ने कहा '' वह यक्ष ब्रह्म था! ''
काम के गहरे अनुभव के बाद, ध्यानयुक्त संभोग के बाद ही तुम जानोगे कि यह काम—ऊर्जा और कुछ नहीं; बल्कि दिव्य—ऊर्जा है। तब संभोग ही समाधि हो जाता है।
उमा ने कहा ''ब्रह्म की विजय के कारण ही वस्तुत:, तुम यह गौरव प्राप्त कर सके हो '' उमा के इन शब्दों से ही इंद्र समझ सका कि वह यक्ष ब्रह्म था
मन सीधा नहीं समझ सकता। काम मध्यस्थ हो जाता है, उमा माध्यम हो जाती है। और उस माध्‍यम के द्वारा इंद्र समझ सका कि वह दिव्यात्मा कौन थी, वह दिव्य—उपस्थिति कौन थी। मन को माध्‍यम चाहिए, क्योंकि मन अमूर्त है, और सत्य अमूर्त नहीं है। मन किसी माध्यम के द्वारा ही, किसी रूपांतरणकर्ता के माध्यम से ही सत्य के संपर्क में आ सकता है।
यूनानी दर्शन इसी कारण रास्ता भटक गया, क्योंकि वे पूर्णत: मन पर ही निर्भर हो गये, तर्क पर ही ठहर गये, और उन्होंने सोचा कि किसी और चीज की जरूरत नहीं है—बस चिंतन—मनन किये जाओ और चिंतन से ही सत्य की उपलब्धि हो जायेगी। यह उपलब्धि अभी तक नहीं हुई। यूनानी दर्शन फैलता जाता है। उसने अपनी भूमि बदल ली है। उसने अपना घर बदल लिया है, उसने पश्चिमी विचार के पूरे इतिहास की यात्रा कर ली है।
एथेंस में जो सरिता पैदा हुई थी, वह बर्लिन से, पेरिस से, लंदन से, न्यूयार्क से होकर बही। वह बहती ही रही है, लेकिन सिर्फ और—और शब्द ही देती है। उसने हीगल और काट दिये, उसने बर्कले तथा ह्मुम दिये, उसने रसल तथा विटगिस्टीन दिये—लेकिन शब्द और शब्द और शब्द। वह एक भी बुद्ध पैदा नहीं कर सकती, वह एक भी जीसस पैदा नहीं कर सकती—वह अनुभव नहीं पैदा कर सकती। और अब पश्‍चिम तंत्र में रस लेने लगा है। यह एक नया मोड़ हो सकता है। मस्तिष्क फिर वापस जड़ों की ओर लौट रहा है।
उमा के द्वारा इंद्र ने जाना कि वह यक्ष ब्रह्म ही था, कि यह जो उपस्थिति थी जो विलीन हो गई — और उसके स्थान पर उमा, एक सुंदर स्त्री दिखलाई पड़ने लगी, एक काम का प्रतीक दिखलाई पड़ ने लगा—वह उपस्थिति ब्रह्म था। काम तुम्हें उत्तर दे सकता है कि जीवन की वास्तविकता क्या है, क्योंकि काम ही तुम्हारे भीतर सर्वाधिक जीवंत चीज है। मन तुम्हारे भीतर सबसे मृत चीज है, और काम तुम्हारे भीतर सबसे जीवंत शक्ति है। इसीलिए मन सदा काम के विरुद्ध होता है, और मन सदैव काम को दबाता है, उसका दमन करता है। वे शत्रु हैं। मन एक मृत चीज है, और काम जीवन—ऊर्जा है; वे दोनों एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। और जब भी तुम काम में उतरते हो, मन विषाद से भर जाता है, और मन कहता है, ''यह गलत है। इसमें फिर कभी नहीं जाना है।''
मन बड़ा नैतिकतावादी हो जाता है, मन बड़ा प्यूरिटन हो जाता है, मन बड़ा पंडित हो जाता है। मन सदैव निंदा करता रहता है। जो भी जीवंत है मन उसकी निंदा करता है और जो कुछ भी मर चुका है, मन उसकी पूजा करता है। और काम तुम्हारे भीतर सर्वाधिक जीवंत शक्ति है, जीवन उसी से आता है। तुम उसी से जन्मे हो, तुम उसी के द्वारा जन्म देते भी हो। जहा कहीं भी जीवन है, जीवंतता है, वहा काम ही उसका स्रोत है। मनुष्य में ही नहीं, ये वृक्ष भी कामुकता लिए हुए हैं। फूल क्या हैं, कुछ भी नहीं सिर्फ बीजों को पका रहे हैं। वे भी काम से भरे हैं। पशु भी काम—ऊर्जा से भरे हैं।
और अब तो वैशानिकों को लगने लगा है कि काम शायद पदार्थ में भी मौजूद है, क्योंकि वहां भी पुरुष और स्त्रैण का ध्रुवीकरण है। एक छोटे से छोटे परमाणु में भी एक धनात्मक शक्ति होती है, और एक ऋणात्मक शक्ति होती है। और वे ही दो शक्तियां सब कुछ निर्मित करती हैं। इन दोनों शक्तियों में जो सतत संघर्ष चलता है और जो सतत मिलन चलता है—संघर्ष और मिलन, आकर्षण और विकर्षण—यही ऊर्जा पैदा करता है।
सारा अस्तित्व दो विपरीत शक्तियों का सृजन है।
इसलिए जब भी तुम जीवन के निकटतम होते हो, तो तुम काम के निकटतम होते हो। या इससे उल्टा : जब भी तुम काम के निकटतम होते हो तो तुम जीवन के निकटतम होते हो। तुम जवान हो, जब काम—ऊर्जा जवान है; तुम के हो जब काम—ऊर्जा बूढ़ी है।
अभी वैज्ञानिक कहते हैं, जीवविज्ञानी कहते हैं कि यदि हम काम—ग्रंथियों को बदल सकें तो ही बुढ़ापा रोका जा सकता है—क्योंकि यदि काम—ग्रंथियां युवा हैं तो सारा शरीर युवा रहेगा। यदि काम—ग्रंथियां की हो गई हैं, तो फिर तुम शरीर को युवा रखने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते।
इसके लिए हमेशा प्रयत्न किये गये हैं। सारे जगत में सारी मेडिकल खोज मनुष्य को ज्यादा समय तक जीवित, ज्यादा जवान रखने की कोशिश करती रही है, लेकिन अभी सही बिंदु पकड़ में आया है। काम—ग्रंथियां पहले बूढ़ी हो जाती हैं, और उसके पीछे सारा शरीर चलता है। तुम्हारी काम—ग्रंथिया ही पहले युवा होती हैं, उसके बाद उसके पीछे शरीर चलता है। अत: यह सारे शरीर का प्रश्न नहीं है, यह सिर्फ काम—केंद्र का ही प्रश्न है। यदि काम—केंद्र युवा है तो तुम जीवन के अधिक निकट हो, यदि काम —केंद्र का हो गया है, तो तुम मृत्यु के ज्यादा निकट हो।
किसी दिन—अब यह संभावना है—हम काम—ग्रंथियों को बदलने में सक्षम हो जायेंगे। एक बार हम काम—ग्रंथियों को बदल सकें तो फिर आदमी सदा युवा रह सकता है; शरीर उसके पीछे अनुसरण करेगा। शरीर तो सिर्फ अभिव्यक्ति है। तुमने यह शायद सोचा न होगा, लेकिन काम—केंद्र ही तुम्हारे सारे शरीर का केंद्र है। सारा शरीर सिर्फ उसके चारों ओर एक वर्तुल है। जीवविज्ञानी कहते हैं कि पूरा शरीर काम—केंद्र को जीवित रखने के लिए ही है। शरीर तो सिर्फ स्थिति है जिसमें सेक्स के हारमोन्स रह सकते है और सुरक्षित रहते हैं। काम—ग्रंथियां शरीर के लिए नहीं हैं, शरीर काम—ग्रंथियों के लिए है।
जैसे ही काम—ऊर्जा यात्रा आगे बढ़ गई और उसने जन्म दे दिया, उसके बाद शरीर बूढ़ा होता जाता है। एक बार काम—ऊर्जा समाप्त हो गई, तो उसके बाद शरीर व्यर्थ है। अब यह घर रहने लायक नहीं रहा। अब ऊर्जा नया घर ढूंढेगी अपने रहने के लिए। अब यह ऊर्जा रहने के लिए नया घर ढूंढेगी जो कि ज्‍यादा जीवंत होगा, ज्यादा युवा होगा, ताकि जीवन—ऊर्जा आगे, और आगे बढ़ सके।
तुम एक फल देखते हो; फल के गहरे में छिपे उसके बीज हैं। फल होता ही बीजों को बचाने के लिए है, उन्हें जीवन देने के लिए, उन्हें भोजन देने के लिए। बीज फल के लिए नहीं हैं। फल है बीजों की सुरक्षा के लिए, और जैसे ही बीज तैयार हो गया, फल बेकार हो जाता है। फल पकेगा, गिर जायेगा, क्योंकि सिर्फ बीजों के लिए ही उसकी आवश्यकता थी। जब बीज एक नये जीवन के लिए तैयार हो गये तो फल पक जायेगे और वृक्ष से गिर जायेगा। फल क्यों वृक्ष से नीचे गिर जाता है? क्योंकि बीज अब नीचे जमीन में पहुंचना चाहता है। अब वे तैयार हैं, अब वे नीचे जमीन में प्रवेश करना चाहते हैं, गर्भ में जाना चाहते तैं।
जब तुम काम से भरते हो तो तुम सोचते हो कि तुम विचार से उसे दबा सकते हो। लेकिन तुम उसे नहीं दबा सकते, क्योंकि अब बीज तैयार हो गये हैं किसी स्त्री के भीतर प्रवेश करने के लिए, और वे बीज संधर्ष कर रहे हैं गति करने के लिए। इसलिए तुम चाहे कुछ भी करो, सिर्फ मन से तुम कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि गहरे में तो मन बीजों के लिए ही है, न कि बीज मन के लिए हैं। वे संघर्ष करेंगे और वे तुम्‍हें हरा देंगे। वे तुम्हारे शरीर से बाहर निकल जायेंगे, क्योंकि तुम्हारा शरीर सिर्फ एक घर था उनके लिए—एक फल था। अब बीज तैयार हो गये हैं। वे तुम्हारे शरीर से बाहर आना चाहते हैं। वे किसी भी भांति यात्रा करेंगे। यदि तुम किसी स्त्री के साथ प्रेम नहीं करोगे तो वे सपने में निकल जायेंगे। लेकिन अब वे बाहर आना चाहते हैं, वे अब तैयार हैं—दूसरे शरीर में रहने के लिए, जीवन को एक कदम और आगे के लिए तैयार।
जब तक तुम इस काम—केंद्र को नहीं समझ लेते हो, और जब तक तुम भीतर गहरे में कुछ नहीं करते हो, तक तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं हो सकते। तथाकथित ब्रह्मचारी सिर्फ तथाकथित ही हैं। वे भले ही किसी स्त्री से प्रेम नहीं कर रहे हों—वह इतना मुश्किल नहीं है—लेकिन वीर्य के बीज बाहर जा रहे है; उन्हें नहीं रोका जा सकता। वे ईमानदार नहीं हैं, इसलिए वे कहेंगे नहीं, लेकिन एक ईमानदार आदमी कह देगा।
माहात्मा गाधी ने कहा है—और वे बहुत ईमानदार व्यक्तियों में से एक थे—कि सत्तर वर्ष की उम्र में भी उन्‍हें स्वप्नदोष होता था। उन्होंने कहा है, ''जहां तक चेतन मन का सवाल है मैंने काम पर नियंत्रण कर लिया है, लेकिन जिस क्षण मैं सो जाता हूं तब मैं कुछ भी नहीं कर सकता। सपने में काम की कल्‍पना जग जाती है, और वीर्य बाहर निकल जाता है। '' वे एक ईमानदार व्यक्ति थे।
काम— ऊर्जा को केवल तभी रूपांतरित किया जा सकता है जब काम विराट के लिए द्वार बन जाये। और एक बार तुम इस रहस्य को जान लो कि काम विराट में प्रवेश का द्वार बन सकता है, तो फिर कुंजी तुम्‍हारे हाथ में है—और केवल वह कुंजी ही तुम्हें ब्रह्मचारी बना सकती है। क्यों? क्योंकि अब तुम उच्‍चतर जीवन को जन्म दे सकते हो। अब यही काम—ऊर्जा एक उच्चतर जीवन को जन्म दे सकती है, लेकिन से जन्म देना ही होगा। यदि कोई ऊर्ध्व गति न हो, तो यह नीचे के जगत की ओर बहेगी। लेकिन यह कहीं जाएगी ऊर्जा को गति।
तंत्र ने कुछ रहस्य खोजे हैं जिनसे काम द्वारा एक उच्चतर जीवन निर्मित किया जा सकता है—शरीर नहीं, बल्कि एक उच्चतर ऊर्जा। और एक बार तुम जान लेते हो कि उस ऊर्जा को कैसे निर्मित करते हैं तो काम, काम की तरह खो जाता है। वह एक ऊंचे आयाम की ओर गति करने लगता है।
तंत्र कहता है—और तंत्र के पास ऐसी विधियां हैं जो कि उन सब के लिए सही सिद्ध हुई हैं जिन्होंने उन पर प्रयोग किया है—कि जब एक स्त्री और एक पुरुष गहन संभोग के शिखर पर होते हैं... साधारणत: यह स्थलन में परिणत हो जाता है; आदमी स्खलित हो जाता है और अनुभूति समाप्त हो जाती है, लेकिन तात्रिक संभोग—शिखर बिना स्थलन के होते हैं। सिर्फ दो ऊर्जाएं मिलती हैं—शारीरिक तल पर नहीं, वे ऊर्जाएं अभौतिक तल पर मिलती हैं। और जब वे और गहरे तल पर मिलती हैं तो वे आध्यात्मिक तल पर मिलती हैं, और वह मिलन ही द्वार बन जाता है और ऊर्जा बहने लगती है। वह सृजनात्मक हो जाती है। वह तुम्हें एक नये तल पर जन्म देती है। काज—ऊर्जा जैसे—जैसे उच्चतर तलों पर गति करती है वैसे—वैसे तुम उच्चतर तलों पर जन्मने लगते हो, और तुम अतिमानव होने लगते हो।
काम उत्तर बन सकता है यही इस कहानी का संदेश है।
उमा ने कहा कि वह यक्ष स्वयं ब्रह्म ही था।
''बल की विजय के कारण ही वस्तुत:, तुम गौरव प्राप्त कर सके हो। ''
इसलिए मनुष्य जो भी प्राप्त करता है, वह इस जीवन —ऊर्जा के कारण ही प्राप्त करता है। निम्नतम तल पर वही जीवन—ऊर्जा काम—ऊर्जा कहलाती है और उच्चतम शिखर पर वह ब्रह्म के नाम से जानी जाती है। और मन सदा निम्नतम पर ही पहुंच सकता है। इसीलिए उमा प्रकट हुई। और मन उस निम्नतम से ही धीरे— धीरे शिखर तक पहुंच सकता है। वह निम्नतम माध्यम बन जायेगा।
उमा के इन शब्दों से ही इंद्र समझ सका कि वह यक्ष ब्रह्म था।
इसलिए वास्तव में ये देवता—अग्नि, वायु और इंद्र— दूसरे सब देवताओं से श्रेष्ठ हैं क्योकि वे यक्ष के निकटतम पहुंचे वे पहले थे जिन्होंने उसे ब्रह्म की भांति जाना।
तीन देवता—अग्नि, वायु, इंद्र। तुम्हारे शरीर में तुम्हारी आंखें अग्नि का प्रतिनिधित्व करती हैं, तुम्हारे कान वायु का प्रतिनिधित्व करते हैं, और तुम्हारा मन इंद्र का प्रतिनिधित्व करता है। तुम्हारा शरीर एक लघु ब्रह्मांड है। जो ब्रह्मांड में है वह तुम्हारे शरीर में भी है। तुम इस सारे ब्रह्मांडीय अस्तित्व के, इस सारे घटनाक्रम के एक छोटे—से प्रतिनिधि हो।
तो अब हम इन प्रतीकों को समझें। अग्नि, वायु तथा इंद्र सब देवताओं में श्रेष्ठ हैं। जो भी तुम ब्रह्म के विषय में जानते हो वह या तो कानों से या आंखों से या मन से जाना जाता है। तुमने उसके विषय में सुना है. यह कानों के द्वारा जानना हुआ—वायु। सारे शास्त्र कानों के लिए हैं—वायुदेव। सारी श्रुतियां, स्मृतियां, वह जो भी जाना गया है और लिखा गया है—वह सब तुम्हारे कानों के लिए है।
कान तुम्हें एक झलक दे सकते हैं, पहली झलक। किंतु यदि सारे शास्त्रों को नष्ट कर दिया जाये और कोई भी तुम्हें परमात्मा के बारे में कुछ नहीं कहे, तो भी तुम्हारी आंखें महसूस करेंगी। तुम्हारी आंखें उस अज्ञात की झलक पायेंगी जो कि सब जगह छिपा हुआ है। इसीलिए हम अपने ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं, क्योंकि आंखों से ही उन्होंने उसकी पहली झलक देखी थी।
इसीलिए इस कहानी में अग्नि सबसे पहले ब्रह्म के निकट जाता है। अग्नि सर्वप्रथम ब्रह्म के पास जाता है, इसका मतलब है—आंखें तुम्हें पहली झलक देती हैं। तुम उसे नहीं पहचान सकते यह सही है, लेकिन फिर भी आंखें उसे छू लेती हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि कुछ वहां पर जरूर है, अनजाना। जब तुम्हारी आंखों ने जाना हो, महसूस किया हो, वे संपर्क में आयी हों, केवल तभी जो कुछ भी सुना गया है वह अर्थपूर्ण होता है। इसलिए शास्त्र किसी काम के सिद्ध नहीं होंगे जब तक कि तुम्हारी आंखों ने तुम्हारे चारों तरफ जो सत्य फैला है उसे स्पर्श नहीं किया है। जब तुम कुछ देख सकते हो तभी शास्त्र भी सत्य होते हैं। केवल तुम्हारे देखने से ही शास्त्र सत्य हो पाते हैं।
इसीलिये उसके बाद वायु ब्रह्म के पास गया। लेकिन केवल आंखों से या कानों से तुम उसे पहचन नहीं सकते। तब तुम्हारा मन सहायक हो सकता है। लेकिन जब मन पहुंचता है तो वह पहुंच अमूर्त होती है, और ब्रह्म अदृश्य हो जाता है।
ऐसे दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने सिर्फ आंखों पर ही विश्वास किया, जैसे चार्वाक। वे कहते हैं। कि प्रत्यक्ष—जो आंखों के सामने हो—वही केवल सत्य है। वे केवल आंखों पर विश्वास करते हैं, इर्सालाए  '' वे कहते हैं कि जो भी दिखाई पड़ता है केवल वही सत्य है, और चूंकि परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता सलिए वह सत्य नहीं है।
और ऐसे भी दार्शनिक हुए हैं जैसे कि मीमांसक, जो कहते हैं कि जो भी उसके बारे में सुना गया हे केवल वही सत्य है—वेद सही हैं—और उस ईश्वर को अन्यथा नहीं जाना जा सकता। वेद अंतिम प्रमाण है। वे वायु देवता में विश्वास करते हैं। और फिर तर्कवादी हैं जो कि कहते हैं कि केवल मन से, मस्तिष्क से ही तुम जान सकते हो, दूसरा कोई मार्ग जानने का नहीं है। तर्कवादी सारे जगत में हैं। वे कहते हैं कि केवल, तर्क से ही तुम सत्य को जान सकते हो।
ये तीन द्वार हैं; आंखों के द्वारा, कानों के द्वारा, मन के द्वारा। और फिर चौथा द्वार है तंत्र, जो कि कहता है कि मन को काम के द्वारा पहुंचना होगा—केवल तभी तुम सत्य को जान सकोगे।
यह सूत्र कहता है :
इसत्निए वास्तव में ये देवता—अग्नि वायु और इंद्र— दूसरे सब देवताओं से श्रेष्ठ हैं क्योकि वे यक्ष के निकटतम पहुंचे। वे पहले थे जिन्होंने उसे ब्रह्म की भांति जाना ??
और इसीलिए इंद्र दूसरे सब देवताओं से श्रेष्ठ' है क्योकि वह यक्ष के निकटतम पहुंचा; उसने  सर्वप्रथम उसे ब्रह्म की भांति जाना।
इसलिए मन निकटतम है, लेकिन किसी माध्यम के द्वारा ही। अकेला वह वर्तुल में घूमता रहता है और कहीं नहीं पहुंचता।
उस ब्रह्म के बारे में यह उपदेश है वह बिजली की चमक की भांति है वह पलक के झपकने की भांति है, यह अधिदैवतम्—उसकी वैश्विक अभिव्यक्ति— के संदर्भ में है।
अब अध्यात्म—उसकी मानुषिक अभिव्यक्ति— के संदर्भ में उसका वर्णन : मन ब्रह्म की ओर मानो पूरी गति से जाता है। मनुष्य के मन द्वारा भी इस ब्रह्म को ऐसे स्मरण किया जाता है और उसकी ऐसी कल्‍पना की जाती है जैसे कि वह सदा निकट ही है।
तो पूरी कहानी एक विशेष निष्कर्ष पर पहुंचती है। तुम परम सत्य तक इंद्रियों के द्वारा भी पहुंचने का प्रयास कर सकते हो; तुम उसे स्पर्श भी कर लोगे, लेकिन तुम उसे पहचान नहीं सकोगे। तुम उस परम सत्‍य तक मन के द्वारा भी पहुंच सकते हो, और अब तुम उसे पहचान भी सकते हो, लेकिन वह तुम्हारे समाने से विलीन हो जायेगा।
तुम्हारे भीतर जो जीवन—ऊर्जा है उसके साथ तुम्हारा तर्क जुड़ जाना चाहिए। तुम्हारा तर्क, तुम्हारा विचार, तुम्हारी जीवन—ऊर्जा के साथ समग्र हो जाये, वह अलग से कार्य नहीं करे। तुम्हारा मस्तिष्क इस तरह कार्य न करे जैसे तुम्हारी जीवन—ऊर्जा से पृथक हो, वह उसी में जड़ें जमाये हो। और तुम अपने सुस्पष्ट मन से विराट में गति करो और उसके साथ तुम्हारी जीवन—ऊर्जा भी जुड़ी हों—दोनों साथ हों। तुम्हारी जीवन—ऊर्जा माध्यम हो जायेगी। तुम्हारा मन इस तरफ होगा, तुम्हारे मन और ब्रह्म के बीच में तुम्हारी जीवन—ऊर्जा होगी, और केवल उस जीवन—ऊर्जा, उमा के द्वारा, तुम उसे जान सकोगे और पहचान सकोगे।
उस परम का अनुभव तुम्हारी अखंडता में होता है। तुम उसके पास हिस्सों में नहीं पहुंच सकते। सारे हिस्से असफल हो जायेंगे। तुम्हारे सारे हिस्से एक अखंड हो जाने चाहिए जब तुम उस परम के पास जाओ, केवल तभी तुम उसे जान सकोगे। यही कुंजी है, यही इस पूरी कहानी का तात्पर्य है। तुम उस परम के पास एक समग्र, अखंड की भांति जाओ, अपनी सारी इंद्रियों के साथ, अपने सारे तर्क के साथ, अपनी जीवन—ऊर्जा के साथ, काम के साथ—कुछ भी छोड़ नहीं देना है। तुम टुकड़ों में मत जाओ—तुम उस परम के पास एक ईकाई की भांति जाओ—अखंड, संपूर्ण।
तब दो घटनाएं घटेंगी : एक तो बिजली की भांति विराट तुम्हारे सामने प्रकट होगा। जैसे कि अचानक अंधेरा हट गया और बिजली चमक गई और उस चमक में सभी कुछ दिखलाई पड़ गया। जब भी तुम समग्र होते हो, अचानक बिजली चमकती है। तुम्हारे अस्तित्व की समग्रता से ही ऐसी स्थिति बन जाती है कि यह सारा अस्तित्व प्रकाशित हो जाता है। सारा अंधेरा विलीन हो जाता है। एक क्षण में सब उदघटित हो जाता है।
स्मरण रहे कि वह परम हिस्सों में प्रकट नहीं होता, इसीलिए बिजली चमकने का उपयोग किया गया है। यदि तुम किसी जंगल में एक लालटेन लेकर जाओ तो वह जंगल हिस्सों में प्रकट होगा। कभी तुम कुछ वृक्ष देखोगे, और फिर तुम आगे चलोगे, और तब तुम्हें और दूसरे वृक्ष दिखलाई पड़ेंगे। लेकिन जो वृक्ष पहले देखे थे वे विलीन हो जायेंगे। वे अंधेरे में चले जायेंगे। यदि तुम एक लालटेन लेकर किसी जंगल में जाओ तो अलग— अलग हिस्सों में जंगल प्रकट होगा। ब्रह्म कभी हिस्सों में प्रकट नहीं होता। लेकिन तुम एक घने जंगल में खड़े हो और तभी बादलों में बिजली चमक जाती है, और सारा जंगल उस एक कौंध में प्रकट हो जाता है।
इसलिए तुम यह नहीं कह सकते, ''मैंने ब्रह्म को पांच प्रतिशत, दस प्रतिशत, पंद्रह प्रतिशत जाना है। '' जब भी तुम उसे जानते हो, सौ प्रतिशत ही जानते हो। या तो तुम सौ प्रतिशत ही जानते हो या फिर तुम नहीं जानते हो। तुम उस परम को हिस्सों में नहीं जान सकते। वह अविभाज्य है। जैसे बिजली चमकती है, जब तुम तैयार होते हो तो परम सत्य तुम्हारे समक्ष प्रकट हो जाता है। और वह इतने कम समय में प्रकट होता है कि उसे समय का हिस्सा भी नहीं कह सकते।
अत: दो बातें : स्थान की भांति ब्रह्म समग्ररूप से प्रकट होता है, और समय की भाति इसमें एक क्षण भी नहीं लगता। यह पलक के झपकने की तरह है—जैसे कि तुमने पलक झपकाई हों—इतना ही समय लगता है। वास्तव में तो इतना समय भी नहीं लगता है—एक कौंध, बिजली का कौंध जाना! सारा विस्तार, ब्रह्म की सारी घटना जान ली जाती है—और बिना एक क्षण भी बीते। वह विभाजित नहीं है, न तो स्थान में और न समय में।


तुम मुझे सुन रहे हो; मैं एक वाक्य बोलूंगा, फिर समय गुजरता है। फिर मैं दूसरा वाक्य बोलूंगा और फिर समय बीतेगा। तुम मुझे समग्ररूप से एक साथ नहीं सुन सकते, ऐसी कोई संभावना नहीं है। समय वहां होगा ही। तुम मुझे हिस्सों में सुनोगे। लेकिन ब्रह्म को बिना समय के सुना जाता है, ब्रह्म को बिना समय के जाना जाता है।
इसलिए, उपनिषद उसे शाश्वत कहते हैं, समयरहित, समयातीत, कालातीत, स्थानातीत कहते है। एक क्षण के मिलन में समय और स्थान दोनों विलीन हो जाते हैं। सब प्रकट हो जाता है। इसीलिए उपनिषद कहते हैं कि उस एक को जानने से सब जान लिया जाता है। एक को जानकर सभी कुछ जान लिया जाता है! वह एक ब्रह्म है। उसमें एक समग्र इकाई की भाति प्रवेश करो।
जे. कृष्णमूर्ति अमूर्त शब्दावली में बात करते रहते हैं। सारा दृष्टिकोण बौद्धिक मालूम पड़ता है। जैस कि सिर्फ बुद्धि का ही उपयोग करना है, शरीर की उसमें संलग्न होने की कोई भी जरूरत नहीं है, भावों के प्रवेश की कोई भी आवश्यकता नहीं है; केवल शुद्ध मस्तिष्क। जैसे कि ब्रह्म कोई गणित की समस्या हो। नहीं, ऐसा नहीं है। यह एक जीवंत प्रश्न है।
कृष्‍णमूर्ति को सुनते समय तुम सिर्फ मस्तिष्क को ही सुन रहे हो—शुद्धतम मस्तिष्क। तुम्‍हें अच्‍छा लगेगा। सुनकर तुम्हें लगेगा कि जैसे तुम सब समझ रहे हो। सुनकर तुम्हें लगेगा कि जैसे तुम कहीं पहूंच रहे हो। लेकिन तुम सिर्फ नए शब्द सीख रहे हो। तुम सीख लोगे 'सजगता'—केवल शब्द, न कि वास्‍तव में सजगता। तुम सीख लोगे 'चुनावरहितता' —कोरा शब्द, न कि चुनावरहितता। और वे शब्द तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क में चले जायेंगे, और वे तुम्हारे मस्तिष्क में घूमते रहेंगे और तुम सिर्फ मस्तिष्क रह जाओगे—एक बौद्धिक केंद्र। तुम्हारे भाव अस्पर्शित ही रह गये, तुम्हारा शरीर अनछुआ ही रह गया। केवल तुम्हारे मन को छुआ गया।
इसीलिए कृष्णमूर्ति असफल रहे। वे स्वयं तो ज्ञान को उपलब्ध हैं, लेकिन वे असफल रहे। अपनी सारी जंदगी भर वे मन से ही कोशिश करते रहे, और वे जो भी कहते हैं वह सही है, लेकिन वह काम में नहीं आ सकता क्योंकि तुम केवल मन ही नहीं हो। तुम उससे बहुत ज्यादा हो। और उस बहुत ज्यादा को मन के साथ —साथ रूपांतरित करना है। तुम्हें एक समग्रता की भाति रूपांतरित होना है।
तुम ईश्वर के बारे में सिर्फ सोचते ही मत रहो, बल्कि तुम्हें उसके साथ नृत्य भी करना है। तुम कोरी धारणाएं ही न बनाते रहो, बल्कि तुम्हारे पास उसके लिए भावनाएं भी होनी चाहिए। तुम उसे चखो, वह तुम्‍हारी श्वास बने, तुम उसके साथ चलो, तुम उसके साथ नाचो। तुम्हें एक समग्रता में आना है, एक जीवंत इकाई की भांति। और जब तुम एक जीवंत इकाई की भांति, बिना विभाजित हुए आते हो, तब ही वह अविभाज्‍य प्रकट होता है। यदि तुम बंटे—बंटे, टुकड़ों में आते हो तो वह अविभाज्य प्रकट नहीं हो सकता। जब तुम अनबंटे होते हो, तो तुम उस अविभाज्य के लिए दर्पण हो जाते हो। तुम उसे र्प्रार्ताबिंबित करने लगते हो, वह तुम्हारे भीतर से झांकता है। जब तुम बंटे हुए होते हो तो तुम जो भी देखते हो वह भी बंटा हुआ दिखलाई पड़ता है।
यह ऐसे ही है जैसे एक झील हो। झील पर लहरें हैं और उधर आकाश में पूरा चाद है। लेकिन चांद प्रतिबिंबित नहीं हो सकता—झील अशांत है। इसलिए झील चांद को टुकड़ों में जानेगी। वह सारी झील पर टुकड़ों में फैल जायेगा।
फिर झील शांत हो जाती है, लहरें विलीन हो जाती हैं। कोई हलचल नहीं होती। अब झील एक दर्पण हो जाती है—अविभाजित तथा शांत। अब चांद उसमें प्रतिबिंबित होने लगता है।
केवल एक बात आवश्यक है और वह यह कि तुम्हें अविभाजित बनाया जाये, बिना लहरों के, बिना तरंगों के, बिना टुकड़ों में बंटे हुए। तुम्हें एक इकाई बनाया जाये। तुम्हारा शरीर, तुम्हारे भाव, तुम्हारे विचार—सब एक हो जाने चाहिए, अखंड। तभी तुम उस दिव्य को प्रतिबिंबित कर सकोगे, बिजली की एक कौंध में, बिना समय को खोये। वह पूर्ण तुम्हारे सामने प्रकट हो जायेगा। और उस एक को जान कर सब जान लिया जाता।

दिनांक 15 जुलाई 1973; प्रात:,
माउंट आबू राजस्थान।


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