सोमवार, 11 जून 2018

अष्‍टावक्र: महागीता--प्रवचन--49

सहज ज्ञान का फल है तृप्‍ति—प्रवचन—चौथा

दिनांक 29 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र: उवाज:

तेन ज्ञानफलं प्राप्त योगाभ्यासफलं तथा।
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।। 157।।
न कदाचिज्जगत्यस्मिंस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति।
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्मांडमंडलम्।। 158।।
न जातु विषय!: केउपि स्वारामं हर्षयज्यमी।
सल्लकीपल्लवप्रीतिमिवेमं निम्बयल्लवा:।। 159।।
यस्‍तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्याधिवासित।
अभुक्तेषु निराकांक्षी ताइशो भवदुर्लभ:।।160।।
बुभुमुरिह संसारे मुमुमुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकांक्षरई विरलो हि महाशय:।। 161।।

धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।
कस्यामुदारचित्तस्थ हेयोयादेयता न हि।। 162।।
वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम्।। 163।।


तेन ज्ञानफलं प्राप्त योगाभ्यासफल तथा।
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।

 'जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है।
एक—एक शब्द को ध्यानपूर्वक समझना।
पहली बात. साधारणत: लोग सोचते हैं, एकाकी रमेंगे तो ज्ञान उपलब्ध होगा। यह सूत्र उलटा है। यह कहता है. जो एकाकी रमने में सफल हो गया उसे ज्ञान का फल मिल गया। एकाकी रमने से कोई ज्ञान को नहीं पाता, शान को पाने से एकाकी होने की क्षमता आती है। अकेले भाग जाने से तुम ज्ञान को उपलब्ध न हो जाओगे, हिमालय की कंदराओं में बैठ कर ज्ञान को उपलब्ध न हो जाओगे। तुम तो तुम ही रहोगे, जो बाजार में था वही हिमालय की गुफा में बैठ जायेगा। बाहर की स्थिति को बदलने से भीतर कोई क्रांति न हो जायेगी। घर में हो कि मंदिर में हो, क्या फर्क पड़ेगा? और भीड़ में हो कि अकेले, क्या फर्क पड़ेगा रूम तुम तो तुम ही रहोगे। यह तुम्हारा होना इतनी आसानी से नहीं बदलता। तो कोई संसार को छोड़ कर चला गया है, सोचता है, संसार को छोड़ने से बदलाहट हो जायेगी। बदलाहट हो जाये तो संसार छूट जाता है, लेकिन संसार को छोड़ने से बदलाहट नहीं होती।
यह सूत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मेरी पूरी देशना यही है। लोगों ने अक्सर कारण को कार्य समझ लिया है, कार्य को कारण समझ लिया है। लोग सोचते हैं : भोग छूट जाये तो त्याग फलित हो जायेगा। नहीं, ऐसा नहीं है। त्याग फलित हो जाये तो भोग छूट जाता है। त्याग का रस आ जाये तो भोग विरस हो जाता है। जिसके हाथों में हीरे—जवाहरात आ गये, वह कंकड़—पत्थर नहीं बीनता। लेकिन तुम सोचते हो कि कंकड़—पत्थर बीनना बंद कर देने से हीरे—जवाहरात हाथ में आ जायेंगे, तो तुम बड़ी गलती में पड़े हो। कंकड़—पत्थर न बीनने से केवल कंकड़—पत्थर न हाथ में रहेंगे, हीरे—जवाहरातों के आने का क्या संबंध है?
तुमसे कोई कहता है. धन छोड़ दो तो ज्ञान उपलब्ध हो जायेगा। जैसे कि धन ज्ञान को रोक सकता है! धन की सामर्थ्य क्या? कोई कहता है. परिवार, बच्चे, पत्नी—पति को छोड़ दो तो परमात्मा उपलब्ध हो जायेगा। जैसे पति, परिवार, घर, ये परमात्मा और तुम्हारे बीच आडू बन सकते हैं! परमात्मा को ऐसी क्षुद्र चीजें रुकांवट डाल सकती हैं? ऐसी व्यर्थ की बातों में मत पड़ना। ही, परमात्मा मिल जाये तो तुम्हारा रस इन चीजों से छूट जाता है। छूट जाता है, छोड़ना नहीं पड़ता। फल का अर्थ होता है अपने से हो जाता है, करना नहीं पड़ता।
वृक्ष पर फल लगते हैं, कोई लगाता है? लगते हैं, अपने से लगते हैं। तुम्हारी किसी चेष्टा का परिणाम नहीं हैं। तुम खींच—खींच कर फल नहीं लाते हो। और बाजार से ला कर तुम फल वृक्षों पर लटका दो तो तुम किसको धोखा दे रहे हो? वे फल सत्य नहीं हैं। तो कोई आदमी संसार से चला जाये, बैठ जाये गुफा में, ऊपर से दिखे बड़ा शांत है—फल बाजार से खरीद लाया है—भीतर तो बाजार का कोलाहल होगा।
बायजीद के पास एक युवक आया और उसने कहा कि मुझे अपने चरणों में ले लें, मैं स्ब छोड़ कर आ गया हूं। बायजीद ने कहा : 'चुप, बकवास बंद! भीड़ तू पूरी साथ ले आया है। वह युवक चौंका। उसने अपने चारों तरफ देखा, पीछे देखा—कोई भी नहीं है, भीड़ कहां है? यह बायजीद पागल तो नहीं है! उसने कहा. 'कैसी भीड़? किस भीड़ की बात कर रहे हैं? मैं सब छोड़ आया, भीड़ भी छोड आया। वे लोग मुझे पहुंचाने आये थे गांव के बाहर तक, मेरे परिवार के लोग रोते भी थे, पत्नी छाती पीटती थी; पर कड़ा जी करके सबको छोड़ आया हूं। बायजीद ने कहा. 'इधर—उधर मत देख; आंख बंद कर, भीतर देख! वे सब वहीं के वहीं खड़े हैं।
उस युवक ने आंख बंद की, भीड मौजूद थी। पत्नी अभी भी रो रही थी भीतर। अभी भी वह अपने को समझा रहा था; कड़ा कर रहा था जी; बच्चों की याद आ रही थी, मित्रों के चेहरे, जिनको पीछे छोड़ आया है, वे खींच रहे थे। तब उसकी समझ में आया। यहां—वहा भीड़ नहीं थी, आगे —पीछे भीड़ नहीं थी— भीड़ भीतर है।
तुम भाग जाओ जंगल में। भीड़ अगर बाहर ही होती तो तुम अकेले हो जाते, लेकिन भीड़ भीतर है। भीड़ तुम्हारे चित्त में है। तुम्हारा चित्त ही भीड़ है। तो कभी ऐसा भी होता है कि कोई भीड़ में भी अकेला होता है और कभी ऐसा भी कि कोई अकेला बैठा भी भीड़ में होता है। इसलिए ऊपर—ऊपर की बातों में बहुत आग्रह मत करना; बात भीतर की है; बात गहरे की, गहराई की है।
'जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान का और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है!'
यह फल है—कान्सिक्येन्स। कारण नहीं, कार्य है। सहज फल जाता है। तो जीवन की अंतर्दृष्टि बदलनी चाहिए।
तेन ज्ञानफलं प्राप्त.......
उसे मिल गया ज्ञान का फल, उसे मिल गया योग का फल! किसे? तो परिभाषा की है. तृप्त:! जो तृप्त है! सब भांति तृप्त है! जिसके जीवन में अतृप्ति का कोई स्वर न रहा! जिसके मन में किसी चीज की कोई आकांक्षा न रही! ऐसा कब घटेगा?
तुमने कहावत सुनी है. 'संतोषी सदा सुखी। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात है. 'सुखी सदा संतोषी।’ 'संतोषी सदा सुखी' से ऐसा लगता है कि किसी तरह संतोष कर लो तो सुखी हो जाओगे।
किसी तरह किया गया संतोष पहले तो संतोष ही नहीं। किसी तरह किया गया संतोष, संतोष का धोखा है। समझा लिया, बुझा लिया मन को, कह दिया कि क्या रखा है संसार में! जब तुम समझाते हो मन को कि क्या रखा है संसार में, तो एक बात पक्की है कि तुम्हारा मन अभी कहता है कि कुछ रखा है संसार में, अन्यथा समझाते किसे? समझाते किसलिए? समझाना सूचक है कि मन अभी कहता है रखा है बहुत कुछ संसार में।
तुम अपने को समझाते हो. 'क्या रखा कामिनी—काचन में? कुछ भी नहीं है, सब मिट्टी है!' मगर यह क्यों दोहराते हो? यह तुम्हारा बोध है? ऐसा तुमने देख लिया? ऐसी तुम्हारी दृष्टि का अनुभव हो गया? ऐसी तुम्हारी प्रतीति हो गई? तो अब क्या दोहराना कामिनी—कांचन! बात खत्म हो गई।
सुबह जाग कर तुम ऐसा थोड़े ही बार—बार दोहराते हो कि जो सपना देखा है, झूठ है, जो सपना देखा है, झूठ है। और ऐसा तुम दोहराओ तो स्वभावत: शक होगा कि तुम्हें सपने पर बहुत भरोसा आ गया। अभी तक, अभी तक तुम कहे चले जा रहे हो कि सपना झूठ है! अभी तक सच होने की लकीर तुम्हारे भीतर मौजूद है। अभी तक तुम्हारे भीतर सपने पर भरोसा है। उस भरोसे को काटने के लिए तुम कह रहे हो सपना झूठ है।
हम उन्हीं बातों को समझाते हैं जिनके विपरीत हमारी दशा होती है। तुम समझाते हो कि स्त्री के शरीर में क्या रखा है, सब मल—मूत्र है! मगर यह क्यों समझाते हो? यह किसको कह रहे हो ग्र किसलिए कह रहे हो? थोड़ा इसमें झांक कर देखो, तुम्हें जरूर स्त्री के शरीर में रूप दिखाई पड़ रहा है, सौंदर्य दिखाई पड़ रहा है। वह सौंदर्य तुम्हें बुला रहा है। वह रूप तुम्हें निमंत्रण दे रहा है। उस निमंत्रण से तुम घबड़ा गये हो, डर गये हो। उस निमंत्रण को काटने के लिए तुम समझा रहे हो कि सब. जरा गौर से देखो मल—मूत्र भरा है!
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे जो ऋषि—मुनि शास्त्रों में लिख गये कि स्त्री के शरीर में मल—मूत्र भरा है, इनमें से कोई भी यह नहीं लिखता कि मेरे शरीर में भी मल—मूत्र भरा है! जैसे कि इनके पास कुछ सोने का शरीर है! और बड़े मजे की बात है कि इनमें से कोई भी नहीं लिखता कि स्त्री के शरीर से ही ये पैदा हुए हैं। तो मल —मूत्र से ही पैदा हुए हैं —और गये —बीते मल—मूत्र होंगे। क्योंकि मल—मूत्र से कोई सोना नहीं आ जाता। इनमें से कोई भी नहीं लिखता कि मेरे शरीर में मल—मूत्र भरा है! स्त्री के शरीर में मल—मूत्र भरा है!
स्त्री के शरीर में आकर्षण है, उस आकर्षण को काटने के लिए ये उपाय कर रहे हैं। ये उपाय सब झूठे हैं। इस तरह आकर्षण कटता नहीं। ऐसे तुम समझा—बुझाकर संतोष कर लो, यह संतोष बस माना हुआ है। इस संतोष से क्रांति न होगी, दीया न जलेगा; तुम रूपांतरित न हो जाओगे, तुम्हारे जीवन में प्रकाश न छा जाएगा; और न ही अमृत की वर्षा होगी।
तृप्त:!
देखो जीवन को गौर से! यहां अतृप्त होने का कारण ही नहीं है। इस क्षण देखो, अभी देखो! यही अष्टावक्र का जोर है कि जो देखना है, अभी देखो, इस क्षण देखो।
अभी तुम मेरे सामने बैठे हो। इस क्षण जरा गौर से अपने भीतर झांको. 'कहीं कोई अतृप्ति है? कहीं कोई आकांक्षा है? कहीं कोई और होने का मन है? कुछ और होने का मन है?' अगर शांत हो कर भीतर देखोगे तो पाओगे कि तृप्ति ही तृप्ति लहरें ले रही है। जिसने भी भीतर झांका, उसने पाया कि तृप्ति का सागर है! गहन परितोष! सब भरा—पूरा है! जो चाहिए, मिला हुआ है! जैसा होना चाहिए वैसा है। इससे अन्यथा की मांग में उपद्रव शुरू होता है। तुम जितनी चीज से तृप्त हो सकते थे उतनी परमात्मा ने दी है, उससे ज्यादा दी है। जितने से तुम आनंदित हो सकते थे उतना सारा आयोजन तुम्हारे लिए है। अब तुम देखो ही न और तुम कहीं दौड़े चले जाओ, भागे चले जाओ, तुम्हारी आंखें कोल्हू के बैल की तरह एक दिशा में देखती रहें, और तुम चारों तरफ न देखो, और यह जो महोत्सव चल रहा है इससे तुम्हारा कोई संबंध ही न बने—तो तुम अभागे हो, और कारण तुम्हीं हो!
तृप्त:!
तृप्ति सहज ज्ञान का फल है, जागरण का फल है। जाग कर जिसने देखा, उसने अपने को तृप्त पाया। सोये—सोये जिसने अपने को टटोला, उसने अपने को अतृप्त पाया।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं. 'हम तृप्त कैसे हो जायें? संतुष्ट कैसे हो जायें?' मैं कहता हूं : यह गलत सवाल न पूछो। संतुष्ट और तृप्त होने की तुम चेष्टा कर ही रहे हो, करते ही रहे हो, वह नहीं हो पाया। मैं तुमसे कहता हूं यह बात छोड़ो। तुम इतना तो देखो कि तुम कौन हो? क्या हो? बस! पहली बात पहले, प्रथम प्रथम। फिर दूसरे को हम दूसरा सोच लेंगे। तुम एक बात से परिचित हो जाओ कि तुम कौन हो।
रमण महर्षि के पास पाल बटन जब गया तो वह बहुत—से प्रश्न लेकर गया था। लेकिन रमण ने कहा. 'बस एक ही प्रश्न सार्थक है। यही पूछना सार्थक है कि मैं कौन हूं। बाकी सब प्रश्न अपने से हल हो जायेंगे। तू एक ही प्रश्न पूछ ले। तो उसने कहा. ' अच्छी बात, यही पूछता हूं कि मैं कौन हूं!' रमण ने कहा, 'यह भी तू मुझसे पूछता है! आंख बंद कर और अपने से पूछ ले कि मैं कौन हूं। पूछता जा, खोजता जा। तू है, इतना तो पक्का है। तू है और चेतन है, इतना भी पक्का है। नहीं तो मुझसे पूछने कैसे आता! जीवित है, चैतन्य है, अब और क्या चाहिए? दो महाघटनाओं का मिलन तेरे भीतर हो रहा है।
चैतन्य और जीवन मिला, अब और क्या चाहिए तृप्ति के लिए! तुम्हें जीवन के वरदान का कोई स्मरण नहीं है। तुम भूल ही गये हो कि तुम्हारे पास क्या है। जीवन है!
सिकंदर जब भारत से वापस लौटता था, एक फकीर को मिलने गया। और फकीर से उसने कहा कि 'जानते हैं, मैं कौन हूं? सिकंदर महान! सारी दुनिया का विजेता!' वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा. 'कभी ऐसे ही सपने मैंने भी देखे थे, मगर मैं समय के पहले जाग गया। तू अभी जागा कि नहीं?' कौन सपने नहीं देखता सिकंदर होने के! उस फकीर ने कहा. 'यह कोई नई बात है! हर आदमी यही सपना ले कर पैदा होता है। सिकंदर ने कहा 'मैं समझा नहीं। उस फकीर ने कहा. 'ऐसा सोच, रेगिस्तान में तू खो जाये और प्यास लगे जोर से और कोई आदमी कहे कि एक गिलास जल मैं तुझे दे सकता हूं कितना साम्राज्य तू देने को राजी होगा एक गिलास जल के लिए?' उसने कहा. 'आधा दे दूंगा उस क्षण में तो। फकीर ने कहा. ' और वह जिद्दी हो और कहे कि मैं तो पूरा लूंगा, तो तू पूरा साम्राज्य देने को राजी होगा एक गिलास के लिए?' सिकंदर ने थोड़ा सोचा और उसने कहा कि ऐसी घड़ी होगी, मरुस्थल में भटका होऊंगा तो पूरा साम्राज्य भी दे दूंगा। वह फकीर खूब खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा 'तो तुमने कमाया क्या, एक गिलास पानी! मौका पड़ जाये तो एक गिलास पानी खरीद लेना। यह साम्राज्य, इसका कुल मूल्य कितना है? गला जरा अतृप्त होगा तो उसको भी तृप्त न कर पायेगा, तो आत्मा को तो तृप्त कैसे करेगा? गले की प्यास भी न बुझ पायेगी इससे, तो हृदय की प्यास तो कैसे बुझेगी! देह की क्षुधा भी न मिटेगी तो आत्मा की क्षुधा तो कैसे मिटेगी!
उस फकीर ने कहा. 'बहुत हो गया पागलपन! अब उतर नीचे सपने से! जाग!'
एक ही प्रश्न महत्वपूर्ण है—और वह पूछना है कि मैं कौन हूं। और ऐसा मत सोचना कि तुम पूछते रहोगे मैं कौन हूं मैं कौन हूं, तो उत्तर आ जायेगा; जैसे कि परीक्षा की कापियों में उत्तर आते हैं! नहीं, जब तुम पूछते ही रहोगे, पूछते ही रहोगे, उत्तर तो नहीं आयेगा, एक दिन प्रश्न भी रुक जायेगा। अनुभूति आयेगी, उत्तर नहीं। अनुभव आयेगा! जीवन और चैतन्य, तुम्हारे भीतर जो मिल रहे हैं, जो महामिलन हो रहा, जीवन और चैतन्य हाथ में हाथ डाल कर जो नाच कर रहे हैं, जो नृत्य चल रहा है —उसकी प्रतीति आयेगी, उसका साक्षात्कार होगा। उसी साक्षात्कार में तृप्ति है।
तेन ज्ञानफलं प्राप्ते योगाभ्यासफलं तथा।
जानना कि उन्होंने ही पा लिया शान का फल और जानना कि उन्होंने ही पा लिया योग का फल..।
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो।
जो तृप्त हो गये और जिनकी इंद्रियां स्वच्छ हो गईं।
यह भी समझने जैसा है। स्वच्छेन्द्रिय! फर्क को खयाल में लेना। अक्सर तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें समझाते हैं. 'इंद्रियों की दुश्मनी। तोड़ो, फोड़ो, इंद्रियों को दबाओ, मिटाओ! किसी भांति इंद्रियों से मुक्त हो जाओ!' अष्टावक्र का वचन सुनते हो स्वेच्छन्द्रिय:! इंद्रियां स्वच्छ हो जायें, और भी संवेदनशील हो जायेंगी।
ज्ञान का फल! यह वचन अदभुत है। नहीं, अष्टावक्र का कोई मुकाबला मनुष्य—जाति के इतिहास में नहीं है। अगर तुम इन सूत्रों को समझ लो तो फिर कुछ समझने को शेष नहीं रह जाता है। इन एक—एक सूत्र में एक—एक वेद समाया है। वेद खो जायें, कुछ न खोयेगा, अष्टावक्र की गीता खो जाये तो बहुत कुछ खो जायेगा।
स्वच्छेन्द्रिय! ज्ञान का फल है : जिसकी इंद्रियां स्वच्छ हो गईं, जिसकी आंखें साफ हैं!
तुमने सुना, सूरदास की कथा है! मैं मानता नहीं कि सच होगी। मानता इसलिए नहीं कि सूरदास से मेरा थोड़ा लगाव है। कि एक स्त्री को देखकर उन्होंने आंखें फोड़ लीं—इस भय से कि आंखें गलत रास्ते पर ले जाती हैं। अगर सूरदास ने ऐसा किया हो तो दो कौड़ी के हो गये। ही, जिन्होंने कहानी गढ़ी है, उनकी बुद्धि ऐसी ही रही होगी। आंखें फोड़ लोगे, इससे स्त्री के रूप से छुटकारा हो जायेगा? रात सपने में तो आंख बंद होती है तो क्या स्त्री के रूप से छुटकारा हो जाता है? स्त्री तो और रूपवान हो कर प्रगट होती है। सपने में जैसी सुंदर होती हैं स्त्रियां वैसी कहीं जाग कर तुमने पाईं? यही तो जिंदगी की तकलीफ है कि सपने में मिल जाती हैं और जिंदगी में नहीं मिलती। और जिंदगी में जो भी मिलती है वह सपने की स्त्री से छोटी पड़ती है, इसलिए तृप्त नहीं कर पाती। या पुरुष जीवन में जो मिलता है, वह सपने के पुरुष से छोटा पड़ता है। सपने हमारे बड़े और यथार्थ बड़ा छोटा है। यथार्थ बड़ा फीका है, सपने हमारे बड़े रंगीन हैं, बड़े रुपहले! इंद्रधनुषी हैं सपने, और जिंदगी बस काली—सफेद, इसमें कुछ बहुत रंग नहीं है!
आंख बंद कर लेने से कोई रूप मिटेगा? आंख फोड़ लेने से कुछ रूप की कल्पना खो जायेगी? काश, इतना सस्ता होता तो आंख फोड़ लेते, कान फोड़ लेते, हाथ काट देते! और ऐसा लोगों ने किया है। रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो जननेंद्रिया काट लेता था। अब यह भी कोई बात हुई! स्त्रियां स्तन काट लेती थीं। यह भी कोई बात हुई! जननेंद्रिया काट लेने से कामवासना चली जायेगी? काम की क्षमता चली जायेगी, लेकिन क्षमता जाने से कहीं वासना गई है? तो तुम को से पूछ लो, जिनकी क्षमता चली गई है—वासना चली गई है? सच तो यह है कि बुढ़ापे में वासना जैसा सताती है वैसा जवानी में भी नहीं सताती। क्योंकि जवानी में तो तुम कुछ कर सकते हो वासना के लिए; बुढ़ापे में कुछ कर भी नहीं सकते, सिर्फ तडूफते हो। बूढ़े मन में जिस बुरी तरह वासना पीड़ा बुन कर आ जाती है, कांटे की तरह चुभती है, वैसे जवान मन में नहीं चुभती। शरीर तो का हो जाता है, वासना थोड़े ही की होती है कभी! वासना तो जवान ही रहती है। उसका स्वभाव जवानी है। शरीर थक जाता है, वासना थोड़े ही रुकती है, वह तो दौड़ती ही रहती है। तुम जब थक कर भी गिर जाते हो राह पर, तब भी तुम्हारी वासना अनंत— अनंत यात्राओं पर निकलती रहती है। अगर ऐसा न होता तो दुबारा जन्म ही क्यों होता! अगर बूढ़े की वासना भी की हो गई, शरीर भी क्षीण हो गया, वासना भी क्षीण हो गई, तो मुक्त हो जायेगा, दुबारा जन्म नहीं होगा।
दुबारा जन्म क्यों होता है? वह जो वासना जवान है, वह नये शरीर की मांग करती है। वह कहती है. 'खोजो नई देह! यह देह तो गई, खराब हुई। अब कुछ नया माडल खोजो। यह पुराना माडल अब काम का न रहा। लेकिन अभी मैं नहीं मरी हूं। नई देह पकड़ो! नई देह के सहारे चलो। लेकिन चलो! फिर से खोजो! इस जीवन में तो नहीं पा पाये, अगले जीवन में शायद मिलन हो जाये, शायद तृप्ति मिले, सुख मिले। फिर खोजो।
इधर का मरा नहीं कि उधर जन्मा नहीं। मरने और जन्मने में जरा—सी देर नहीं लगती। अक्सर तो ऐसा होता है कि तुम जब के आदमी की लाश ले कर मरघट जा रहे हो तब तक वह किसी गर्भ में प्रवेश कर चुका; तुम जिसकी अब अर्थी सजा रहे हो, वह पैदा हो चुका। इतनी फुरसत कहा है! वासना इतनी प्रगाढ़ है कि तुम्हारी राह थोड़े ही देखेंगे कि अब तुम अर्थी सजाओ, फूल—पत्ती बांटों, मोहल्ले—पड़ोस के लोगों को इकट्ठा करो, बैंड—बाजा बजाओ, मरघट ले जाओ—तुम्हें तो कुछ वक्त तो लगेगा! रोने — धोने में, उपद्रव करने में, तुम्हें कुछ तो समय लगेगा! पहुंचते —पहुंचते लेकिन बूढ़े को इतनी फुरसत कहां है कि तुम्हारी राह देखे! तुम सडी—सडाई लाश को ही जला रहे हो। वहां अब कोई नहीं है। वह तो किसी नये गर्भ में प्रविष्ट हो चुका। वासना क्षण भर की देर नहीं मांगती।
तुमने देखा, जब वासना तुम्हें पकड़ती है, तुम क्षण भर रुक सकते हो? जब क्रोध तुम्हें पकड़ता है, तब तुम यह कहते हो कि चलो कल कर लेंगे? जब क्रोध तुम्हें पकड़ता है, तुम उसी क्षण आगबबूला हो जाते हो। और जब वासना तुम्हें पकड़ती है तो तुम सोचते हो कि चलो, कल, परसों, अगले जन्म में, जल्दी क्या है? जब वासना तुम्हें पकड़ती है तो तुम उतावले हो जाते हो। उसी क्षण होना चाहिए! क्षण में होना चाहिए! एक क्षण की भी देरी सालती है, खटकती है। इधर का मरा, उधर
उसकी वासना उसे नई यात्रा पर ले गई।
तो साधु —संत तुम्हें समझाते रहे हैं. 'इंद्रियों को काटो, जलाओ, खराब करो। नहीं, ज्ञानी ऐसा नहीं कहते।स्वच्छेन्द्रिय:!' तुम्हारी इंद्रियां और सेंसिटिव और संवेदनशील हो जायेंगी। तुमसे लोगों ने कहा है : स्वाद को मार डालो।
महात्मा गांधी के आश्रम मैं व्रतों में एक व्रत था. अस्वाद! स्वाद को मार डालो! अष्टावक्र के वचन का क्या अर्थ होगा? स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ अस्वाद हो सकता है? स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ होगा. परम स्वाद। ऐसा स्वाद कि भोजन में भी ब्रह्म का अनुभव होने लगे—स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ होता है। स्वाद मार डालो! तो जीभ से, रसना से, जो परमात्मा की अनुभूति हो सकती थी वह मर जायेगी।
पश्चिम का बड़ा विचारक लुई फिशर गांधी जी को मिलने आया। वह उनके ऊपर किताब लिख रहा था। अपने साथ ही उसे उन्होंने भोजन पर बिठाया। वे नीम की चटनी खाते थे, उसकी थाली में भी नीम की चटनी रख दीं—स्वाद खराब करने को! अस्वाद का व्रत चल रहा है तो नीम की चटनी, ताकि थोड़ा—बहुत स्वाद अगर भोजन में से आ जाये तो नीम की चटनी उसको खराब कर दे। फिशर ने सौजन्यतावश जरा—सा चख कर देखा कि यह चीज क्या है! कडुवा जहर! उसने सोचा कि अब कुछ कहना ठीक नहीं। उसको किसी ने चेताया भी था कि सावधान रहना, वे नीम की चटनी देंगे! तो यही है नीम की चटनी! उसने यह सोचा कि बजाय पूरा भोजन खराब करने के इसको एक ही दफा, इस अटे को गटक जाओ, तो फिर कम से कम पूरा भोजन तो ठीक से हो जायेगा, यह झंझट मिटेगी। तो वह पूरी चटनी एक साथ गटक गया। गांधी जी ने कहा कि और लाओ, फिशर को चटनी बहुत पसंद आई!
तुम स्वाद को मार ले सकते हो। कभी—कभी स्वाद अपने से भी मर जाता है, लेकिन तुमने उसमें कुछ महिमा देखी? बुखार के बाद तुम्हारी रसना क्षीण हो जाती है, क्योंकि रसना के जो स्वाद को देने वाले छोटे—छोटे अंकुर हैं वे रोग में शिथिल हो जाते हैं। तो तुम मिठाई भी खाओ तो मीठी नहीं मालूम पड़ती, भोजन में कोई स्वाद नहीं आता, सब तिक्त—तिक्त मालूम होता है, उदास—उदास! लेकिन उससे कुछ महिमा आती है? उससे कुछ आत्मा का अनुभव होता है? और अगर इतना सस्ता हो तो जीभ पर ऐसिड डलवा कर खराब ही कर लो एक बार, बार—बार नीम की चटनी क्या खानी! एक दफा साफ करवा लो, चले जाओ डाक्टर से, वह छील कर अलग कर देगा! बहुत थोड़े —से स्वाद के अनुभव को लेने वाले बिंदु हैं जीभ पर, वह अलग कर देगा। आपरेशन करवा लो। मगर इससे क्या तुम किसी आत्म— अनुभव को उपलब्ध हो जाओगे?
नहीं, न तो आंख के फूटने से रूप में रस जाता, न स्वाद के मिटने से स्वाद में रस जाता। स्वाद ऐसा गहन हो जाये कि भोजन तो मिट जाये और परमात्मा का स्वाद आने लगे।अन्न ब्रह्म'—उपनिषद कहते हैं कि अन्न ब्रह्म है। तो स्वाद को बढ़ाओ, स्वच्छ करो। स्वाद को विराट करो। स्त्री को देखा, आंख मत फोड़ो; और जरा गौर से देखो कि स्त्री में ब्रह्म दिखाई पड़ने लगे—तो आंख स्वच्छ हो गई। ब्रह्म के अतिरिक्त जब तक तुम्हें कुछ और दिखाई पड़ रहा है, उसका अर्थ इतना ही है कि आंख अभी पूरी स्वच्छ नहीं हुई। जब आंख पूरी स्वच्छ हो जायेगी तो ब्रह्म ही दिखाई पड़ेगा, एक ही दिखाई पड़ेगा। जब सारी इंद्रियां स्वच्छ होती हैं तो सभी तरफ से उसी एक का अनुभव होता है। छुओ तो वही हाथ में आता है। चखो तो वही जीभ पर आता है। देखो तो उसी के दर्शन होते हैं। सुनो तो उसी की पगध्वनि सुनाई पड़ती है। कुछ भी करो.. श्वास लो, तो वही तुम्हारी श्वास में भीतर जाता। सूरज उगता तो वही उगता। रात आकाश तारों से भर जाता तो उसी से आकाश भर जाता है। फूल खिलते हैं तो वही खिलता है। पक्षी चहचहाते हैं तो उसी की चहचहाट है।
जब सारी इंद्रियां स्वच्छ होती हैं तो सभी तरफ से उस एक का अनुभव होने लगता है। जितनी इंद्रियां अस्वच्छ होती हैं उतना ही अनुभव नहीं हो पाता।
यह सूत्र खयाल रखना:
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु यः
और जिस व्यक्ति की इंद्रियां स्वच्छ हो ,गईं और जिसे उस एक का सब तरफ अनुभव होने लगा, वही एकाकी रमण कर सकता है, क्योंकि अब दूसरा बचा ही नहीं।
इस एकाकी रमण का अर्थ भी समझो। एकाकी का अर्थ अकेलापन नहीं होता। एकाकी का अर्थ होता है एक—पन; अकेलापन नहीं। अकेलेपन का अर्थ होता है. लोनलीनेस। एकाकी का अर्थ होता है. अलोननेस। अकेलेपन का अर्थ होता है : दूसरे की याद आ रही है; दूसरा होता तो अच्छा होता। अकेलेपन का अर्थ होता है. दूसरे की मौजूदगी नहीं है, खल रही है, खाली—खाली लग रही है कोई जगह, बेचैनी हो रही है। बैठे हैं अकेले, लेकिन दूसरे की पुकार उठ रही है। तुम जंगल भाग जाओगे, किसी से बात करने को न मिलेगा तो भगवान से ही बात करोगे; मगर वह तुमने दूसरा पैदा कर लिया। तुम अकेले न रहे। अकेलेपन में आदमी भगवान से ही बात करने लगेगा। उसी को तो तुम प्रार्थना कहते हो। वह बातचीत है। तुमने फिर एक कोई पैदा कर लिया, जिससे बातचीत होने लगी। एक तरह का पागलपन है यह बातचीत।
तुमने पागलखाने में जा कर देखा! तुम देखोगे कि कोई पागल बैठा है अकेला और बात कर रहा है। तुम हंसते हो; लेकिन जब कोई प्रार्थना करता है तब तो तुम नहीं हंसते! यह किससे बात कर रहा है? पागल पर तुम हंसते हो क्योंकि तुम्हें कोई दिखाई नहीं पड़ता और यह किसी से बात कर रहा है। और तुम जब मंदिर में हाथ जोड़ कर कहते हो कि 'हे पतितपावन, मुझ पर कृपा करो'—तुम किससे बात कर रहे हो? जब तक तुम जानते हो कि परमात्मा दूसरा है, द्या है जिससे बात हो सकती है, वार्ता हो सकती है—तब तक तो तुम्हें परमात्मा का पता ही नहीं। परमात्मा द्या नहीं है—तुम्हारा होना है। तुम हो! अहं ब्रह्मास्मि!
तो जब ऐसा अनुभव होता है कि एक ही है, मैं और तू का विभाजन गिर गया—तब जो घटना घटती है, वह जो फूल खिलता है, वह है एकाकी, अलोननेस! तब वहा दूसरे की गैर—मौजूदगी नहीं खलती; वहां अपनी मौजूदगी में रस आता है। अपनी मौजूदगी में उत्सव होता है। तुम कुछ बोलते ही नहीं—बोलने को कौन बचा? किससे बोलना है? कौन बोले? सब बोल खो जाता है। अबोल हो जाते हो।
तुमने ऐसे वचन सुने होंगे जिनमें कहा गया है कि प्रभु की कृपा हो जाये तो जो बोलते नहीं वे बोलने लगते हैं और जो लंगड़े हैं वे दौड़ने लगते हैं। हालत बिलकुल उलटी है। अष्टावक्र से पूछो, अष्टावक्र कुछ और कहते हैं। अष्टावक्र का सूत्र तुम्हें याद है? कुछ ही दिन पहले हम पढ़ रहे थे। सूत्र है कि जो पहुंच जाता है तो बोलने वाला भी चुप हो जाता है और चलने वाला भी गिर पड़ता है। जो बड़ा उद्यमी था, महाआलसी हो जाता है। आलस्य शिरोमणि! सब दौड़— धाप गई! दौड़ना कहां! जाना कहां! हैं वहीं! वहीं हैं। तो कोई चंचलता न रही। बोलना किससे है! कहना किससे है!
प्रार्थना तभी है—जब कहने को कुछ भी न बचा, कहने वाला न बचा, जिससे कहना था वह भी न बचा। उस मौन के क्षण का नाम है प्रार्थना। बोलकर प्रार्थना को खराब मत कर लेना। कुछ कह कर बात बिगाड़ मत लेना। कुछ कहा कि चूके, क्योंकि कहने में तुमने मान ही लिया कि दो हैं, कि तू है पतितपावन और हम हैं पापी। तुम्हारे भीतर वही बैठा है जिसको तुम पापी कह रहे हो; वही, जिसको तुम पतितपावन कह रहे हो! यह विभाजन तुमने जो खड़ा कर लिया है कि तू ऊपर और हम नीचे; और तू महान और हम क्षुद्र—तुम किसको क्षुद्र कह रहे हो? वही तुम्हारे भीतर, वही तुम्हारे बाहर। एक का ही वास है। एक का ही विस्तार है। इस एक के विस्तार की जब गहन प्रतीति होती है तो एकाकी रमण!
इसका यह मतलब मत समझना कि तुमको हिमालय की गुफा ही में बैठे रहना पड़ेगा। अब तुम जहां भी रहो, तुम एक की गुफा में बैठ गये, अब तुम जहां भी रहो, तुम एकाकी हो! तुम भीड़ में जाओ तो, बाजार में जाओ तो, स्वात में जाओ तो—वही है! एक ही सागर की लहरें हैं, तुम भी उसमें एक लहर हो।
'जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है......।
अब खयाल रखना—सदा एकाकी रमण! तुम अगर गुफा में बैठे हो तो सदा तो एकाकी हो ही नहीं सकते। गांव से कोई भोजन तो लायेगा तुम्हारे लिए? तब उतनी देर को तुम एकाकी न रह जाओगे। और कोई कौआ आ कर बैठ गया है गुफा पर और कांव—कांव करने लगा है तो तुम एकाकी नहीं रह गये। अब कौओं का क्या करो! कौए कोई बहुत आध्यात्मिक तो हैं नहीं। संत—पुरुषों का समादर करते हों, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। संत— असंत में भेद करते हों, ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता है। कौए परमज्ञानी हैं; भेद करते ही नहीं, परमहंस की अवस्था में हैं। वे यह थोड़े ही देखेंगे कि आप बड़ा ध्यान कर रहे हैं, माला जप रहे हैं। इसकी जरा भी चिंता न करेंगे। कोई कुत्ता आकर और गुफा में विश्राम करने लगा तो क्या करोगे? अकेले न रहे। अकेले सदा तो कैसे रहोगे? सदा तो अकेले तभी रह सकते हो जब अकेलापन उस परम एकाकी से जुड़ जाये। फिर तुम कहीं भी रहो, कैसे भी रहो—कौआ आये तो भी तुम्हारा ही स्वभाव है और कुत्ता आये तो भी तुम्हारा ही स्वभाव है; कोई न आये तो भी वह मौजूद है, कोई आये तो भी वह मौजूद है, कोई न हो तो अरूप की तरह मौजूद है, कोई हो तो रूप की तरह मौजूद है—मगर हर हालत में एक ही मौजूद है। बाहर— भीतर, ऊपर—नीचे, सब आयामों में, दसों दिशाओं में, एक की ही गज चल रही है!
'... और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान का और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है। ज्ञान फल है; कासिक्वेंस; परिणाम। तो तुम शास्त्र को कितना ही पढ़ लो, इकट्ठा कर लो—ज्ञान न हो जायेगा। खुद के पन्ने उलटो! जरा भीतर चलो। खुद की किताब खोलो। इसको तो कब से बांध कर रखा है, खोला ही नहीं तुमने। जन्म—जन्म हो गये, यह किताब तुम लिए चलते हो, लेकिन कभी खोला नहीं तुमने। तुम दूसरों से पूछते फिर रहे हो कि मैं कौन हूं! तुम हो और तुम्हें पता नहीं, तो दूसरे को क्या खाक पता होगा! तुम्हीं को पता नहीं चल रहा है कि तुम कौन हो, तो दूसरा क्या उत्तर देगा! तुम तो निकटतम हो अपने अस्तित्व के, तुम्हीं चूके जा रहे हो, तो किसी और को तो कैसे पता होगा! दूसरा तो तुम्हें बाहर से देखेगा। भीतर से तो बस अकेले तुम्हीं समर्थ हो तुमको देखने में, कोई दूसरा नहीं। दूसरा तो तुम्हें दृश्य की तरह देखेगा; द्रष्टा की तरह देखने में तो तुम अकेले ही समर्थ हो। और द्रष्टा ही तुम्हारा स्वभाव है।
तो पूछो : 'मैं कौन हूं?' यह एक ही बात ध्यान बन जाती है अगर तुम पूछते रहो : 'मैं कौन हूं?' और ऐसा भी नहीं है कि तुम इसको शब्द में ही पूछो कि मैं कौन हूं। आंख बंद करके यह भाव रहे कि मैं कौन हूं। इस अन्वेषण पर निकल जाओ। उतरो गहरे —गहरे और देखते चलो; जो —जो चीज तुम्हें दिखाई पड़े और लगे कि यह मैं नहीं हो सकता, उसको भूल जाओ—और गहरे उतरी।
सबसे पहले शरीर मिलेगा, लेकिन शरीर तुम नहीं हो सकते। हाथ कट जाता है तो भी तुम नहीं कटते, तुम्हारा होने का भाव पूरा का पूरा रहता है। तुम बच्चे थे, जवान हो, के हो गये, लेकिन तुम्हारे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे होने का भाव ठीक वैसा का वैसा है। शरीर में झुर्रियां पड़ गईं, का हो गया, थक गया, डावाडोल होने लगा, अब गिरेगा तब गिरेगा; लेकिन भीतर, आंख बंद करते ही तुम्हारे चैतन्य में कोई झुर्रियां पड़ी? वह तो उतना ही ताजा है जैसा बचपन में था, वैसा का वैसा है। वहां तो कोई समय की रेखा नहीं पड़ी। समय ने वहा कोई चिह्न ही नहीं छोड़े। समय की छाया ही नहीं पड़ी। समयातीत, कालातीत! तुम वैसे के वैसे हो जैसे तुम आये थे। उसमें जरा भी भेद नहीं पड़ा। तुम शाश्वत हो।
शरीर तुम नहीं हो सकते। शरीर तो क्षणभंगुर है—बदल रहा, बदलता जा रहा, प्रतिपल बदल रहा है! शरीर तो नदी की धार है; घूमता हुआ चाक है। तुम तो ठहरी हुई कील हो।
और एक बात निश्चित है. जो भी हम दृश्य की भांति देख लेते हैं, हम उससे अलग हो गये। शरीर को तो तुम दृश्य की भांति देख लेते हो, तुम उससे अलग हो गये। तुम दर्पण के सामने खड़े होते हो, दर्पण में तुम्हारा दृश्य बनता है, तुम्हारा चित्र बनता है—क्या तुम यह कह सकते हो बस यही तुम हो, इससे ज्यादा नहीं? यह शरीर का चित्र बन रहा है, तुम्हारी चेतना का तो जरा भी नहीं बन रहा। ऐसा कोई दर्पण ही नहीं जिसमें चेतना का चित्र बन जाये। हो भी नहीं सकता ऐसा कोई दर्पण। शरीर सामने खड़ा है, शरीर का प्रतिबिंब दर्पण में खड़ा है; दोनों को देखने वाला दोनों से पार है। तुम शरीर को भी देख रहे हो झुक कर, तुम दर्पण में अपना प्रतिबिंब भी देख रहे हों—तुम कौन हो जो दोनों को देख रहा है? तुम भिन्न हो! तुम इससे अलग हो।
और थोड़े भीतर सरको, फिर विचारों की तरंगें हैं। उनको भी गौर से देखो। पूछो : 'यह हूं मैं?' विचार आया गया, एक आया, दूसरा आया, तीसरा आया, सतत श्रृंखला लगी है, धारा बही है—इनमें से कोई भी तुम नहीं हो सकते, क्योंकि तुम तो बने ही रहते हो। विचार आता है, जाता है—कभी सुंदर कभी असुंदर; कभी शुभ कभी अशुभ; कभी उठता है कि सारी दुनिया को प्रेम कर लूं और कभी उठता है कि सारी दुनिया को नष्ट कर दूं; कभी होता है मन करुणा का और कभी होता है मन क्रोध का; क्रोध का धुआं भी उठता है, करुणा की सुगंध भी उठती है—लेकिन तुम तो इन दोनों के पार खड़े देखते ही रहते हो। तुम तो साक्षी हो! नहीं, मन भी तुम नहीं।
और भीतर चलो! ऐसे चलते, चलते, चलते, एक घड़ी आती है जहां जो तुम नहीं हो वह छूट गया; अब वही बच रहता है जो तुम हो, जिसमें से अब कुछ भी इनकार नहीं किया जा सकता। नेति—नेति कहते—कहते —नहीं यह, नहीं यह—आ गये तुम अपने घर में भीतर! अब वही बचा जो अब तक कह रहा था : 'नेति—नेति; नहीं यह, नहीं यह!' यही तुम हो। कोई उत्तर नहीं मिल जायेगा लिखा हुआ। कहीं कोई भीतर नेमप्लेट रखी नहीं है, एक शिलापट्ट नहीं है कोई जिस पर लिखा है कि यह तुम हो। लेकिन अब तुम्हें अनुभव होगा। हो जायेगी वर्षा अनुभव की। अस्तित्व तुम्हें घेर लेगा। जीवन और चैतन्य दोनों की गहन प्रगाढ़ प्रतीति होगी, साक्षात्कार होगा।
और यही ज्ञान का फल है। इसके होते ही तुम्हारी इंद्रियां स्वच्छ हो जायेंगी। इसके होते ही जीवन तृप्त हो जायेगा। इसके होते ही तुम अकेले हो गये, मगर अकेलापन नहीं—एकाकी। एकाकी का पन, एकाकीपन। अब परमात्मा ही बचा!
तैर रहीं लहरें
डूब गया सागर
जाग उठे तारे
निंदियाया अंबर
पड़ी रही माटी
चली गई गागर
मुस्का दी बिजुरी
अंसुआया बादर।
मुंदे नयन—सपने
खुली दीठ दर्पण
फलित हुआ चिंतन
अंखुआया दर्शन।
मुंदे नयन—सपने,
खुली दीठ—दर्पण!
तुम अभी आंख बंद किए—किए जी रहे हो। तुम्हें बड़ी हैरानी होगी। तुम तो कहते हो, हम आंख खोल क्रुर जी रहे हैं। तुम्हारी बाहर आंख खुली है तो भीतर आंख बंद है। जिस दिन तुम बाहर से आंख बंद करोगे, भीतर आंख खुलेगी। इस उलटे गणित को खयाल में ले लेना। अगर बाहर ही आंख खुली रही तो भीतर आंख बंद है; भीतर तुम अंधे हो। थोड़ी बाहर आंख बंद करो तो दृष्टि भीतर मुड़े। वही दृष्टि जो बाहर संलग्न है, भीतर मुक्त हो जाती है। अभी तो भीतर सपने ही सपने हैं। अभी भीतर सच कुछ भी नहीं है।
मुंदे नयन—सपने!
यह जो बाहर खुली आंख है, भीतर तो आंख मुंदी है।
मुंदे नयन—सपने!
खुली दीठ—दर्पण।

जरा बाहर से आंख बंद करो ताकि भीतर आंख खुले। इस ऊर्जा को भीतर बहने दो। यह जो बाहर देखने का चाव है इसी चाव को जरा भीतर की तरफ मोड़ो; समझाओ —बुझाओ, फुसलाओ, राजी करो, कहो कि चल जरा भीतर भी देखें। बाहर बहुत देखा, आंखें थक गईं, पथरा गईं—कुछ मिलता तो नहीं। थोड़ा भीतर भी देखें, थोड़ा अपने भीतर भी देखें!
जिसे हम खोज रहे हैं, कौन जाने भीतर ही पड़ा हो! इसके पहले कि तुम सारी दुनिया में खोजने निकल जाओ, अपने घर में खोज लेना। क्योंकि दुनिया बहुत बड़ी है, खोजते —खोजते —खोजते कहीं न पहुंचोगे; कहीं ऐसा न हो कि अंत में पता चले, जिसे हम खोजने चले थे वह घर में ही पड़ा था। और ऐसा ही है। जिन्होंने भीतर खोजा उन्होंने पा लिया और जिन्होंने बाहर खोजा उन्होंने कभी नहीं पाया। निरपवाद रूप से जिन्होंने अब तक खोजा है, पाया है, वे भीतर के खोजी हैं। निरपवाद रूप से जिन्होंने खोजा बहुत और पाया कभी नहीं, वे बाहर के खोजी हैं।
पहली आषाढ़ की संध्या में
नीलाजन बादल बरस गये
फट गया गगन में नील मेघ
पथ की गगरी ज्यों फूट गई
बौछार ज्योति की बरस गई
झर गई बेल से किरण जुही
मधुमयी चांदनी फैल गई
किरणों के सागर बिखर गये।
जरा भीतर चलो—होती है अपूर्व वर्षा।
पहली आषाढ़ की संध्या में
नीलाजन बादल बरस गये
फट गया गगन में नील मेघ
पथ की गगरी ज्यों फूट गई
बौछार ज्योति की बरस गई
झर गई बेल से किरण जुही
मधुमयी चांदनी फैल गई
किरणों के सागर बिखर गये।
तुम्हारे भीतर, तुम्हारे ही भीतर तुम महासूर्यों को छिपाये चल रहे हो। जरा खोलो भीतर की गांठ, जरा भीतर की गठरी खोलो, जरा भीतर की गगरी फोड़ो—किरणे ही किरणें बरस जायेंगी! उन किरणों की वर्षा में ही स्वच्छ हो जाती हैं इंद्रियां। उन किरणों की वर्षा में ही तृप्त हो जाते हैं प्राण। मिल गया फल!
'हत, तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्मांड—मंडल पूर्ण है।
दत्तात्रेय के जीवन में उल्लेख है। भीख मांगने एक द्वार पर दस्तक दी। घर में कोई न था; एक क्‍वांरी लड़की थी। माता—पिता खेत पर काम करने गये थे। उस कन्या ने कहा ' आप आए हैं, माता—पिता यहां नहीं, आप दो क्षण रुक जायें तो मैं चावल कूट कर आपको दे दूं और तो घर में कुछ है नहीं। चावल कूट दूं? साफ—सुथरे कर दूं? और आपकी झोली भर दूं। तो दत्तात्रेय रुके। उस कन्या ने चावल कूटने शुरू किए तो उसके हाथ में बहुत चूड़ियां थीं, वे बजने लगीं। उसे बड़ा संकोच हुआ। यह शोरगुल, यह छन—छन की आवाज, साधु द्वार पर खडा—तो उसने एक—एक करके चूड़ियां उतार दीं। धीरे — धीरे आवाज कम होने लगी। दत्तात्रेय बड़े चौंके। आवाज धीरे— धीरे बिलकुल कम हो गई, क्योंकि एक ही चूड़ी हाथ पर रही। फिर जब वह उन्हें देने आई चावल तो उन्होंने पूछा कि एक बात पूछनी है : 'पहले तूने चावल कूटने शुरू किए तो बड़ी आवाज थी, फिर धीरे— धीरे आवाज कम होती गई, हुआ क्या? फिर आवाज खो भी गई!' तो उस लड़की ने कहा कि सोच कर कि आप द्वार पर खड़े हैं, आपकी शांति में कोई बाधा न पड़े, मुझे बड़ा संकोच हुआ, चूड़ियां हाथ में बहुत थीं तो आवाज होती थी, फिर एक—एक करके मैं निकालती गई। आवाज तो कम हुई, लेकिन रही। फिर जब एक ही चूड़ी बची तो सब आवाज खो गई।
तो दत्तात्रेय ने यह वचन कहा.
वासो बहूनां कलहो भवेद्वार्त्ता द्वयोरपि।
एकाकी विचरेद्विद्वान कुमार्या इव कंकण:।।
कहा कि जैसे कुंवारी लड़की के हाथ पर चूड़ियों का बहुत होना शोरगुल पैदा करता है, ऐसे ही जिसके चित्त में भीड़ है, बड़ी आवाज होती है। जैसे कुंवारी लड़की के हाथ पर एक ही चूड़ी रह गई और शोरगुल शांत हो गया, ऐसे ही जो अपने भीतर एक को उपलब्ध हो जाता है, भीड़ के पार, भीड़ जिसकी विसर्जित हो जाती है—वह भी ऐसी ही शांति को उपलब्ध हो जाता है।
कहा. 'बेटी तूने अच्छा किया! मुझे बड़ा बोध हुआ।
जिसे बोध की तलाश है, उसे कहीं से भी मिल जाता है। जिसे बोध की तलाश नहीं है, वह बुद्ध—वचनों को भी सुनता रहे, ठीक बुद्ध के सामने बैठा रहे, तो भी कुछ नहीं है। बांसुरी बजती रहती है, भैंस पगुराती रहती है; उसे कुछ मतलब नहीं है।
न कदाचिज्जगत्यस्मिस्तत्वज्ञो हत खिद्यति।
यत एकेन तेनेद पूर्ण ब्रह्मांडमंडलम्।।
(हत, शिष्य! तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्माड—मंडल पूर्ण है।
यह वचन सीधा—सादा है, लेकिन बड़ा गहरा!
शायद तुमने ज्या पाल सार्त्र का प्रसिद्ध वचन सुना हो जिसमें सार्त्र कहता है।दि अदर इज हेल। दूसरा नरक है। दूसरे के कारण नरक है। जहं। दूसरा है वहा कलह है। दूसरे की मौजूदगी ही कलह है। तो एक तो उपाय है, सस्ता उपाय, कि तुम दूसरे को छोड्कर भाग जाओ, लेकिन यह बड़ा सस्ता उपाय है, कहीं ज्यादा भाग न सकोगे!
मैंने सुना है एक आदमी भाग गया। वह जा कर बैठा एक झाडू के नीचे बड़ा निश्चित कि अब यहां पत्नी भी नहीं, बेटे भी नहीं, अब कोई सताने वाला नहीं, अब परम ध्यान करूंगा! एक कौए ने
आ कर बीट कर दी। वह खड़ा हो गया नाराजगी में। उसने कहा : 'हद हो गई! घर—द्वार छोड़ कर आये, यह कौआ आ गया।
दूसरा तो कहीं भी मौजूद हो जायेगा। जब तक कि दूसरे का भाव ही न मिट जाये, जब तक कि दूसरे में दूसरा दिखाई पड़ना ही बंद न हो जाये—तब तक नरक जारी रहेगा।
तुमने कभी खयाल किया, तुम अकेले बैठे हो अपने कमरे में —निश्चित भाव से, विश्राम की एक दशा में—अचानक किसी ने द्वार पर दस्तक दी, दस्तक होते ही तनाव पैदा हो जाता है। वह विश्राम गया। कोई मेहमान आ गये। अब तुम कहते जरूर हो कि देखकर आपको बड़े दर्शन हुए, बड़ा आनंद हुआ, गदगद हो गये! मगर तुम्हारे चेहरे से गदगदपन बिलकुल पता नहीं चलता, न तुम्हारी आंखों में कुछ स्वागत दिखाई पड़ता है। कहते हो लोकाचार के लिए। बिठा भी लेते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर ऐसे ही एक दिन एक मेहमान आ गये। बकवासी हैं। वे घंटों बकवास करते हैं। मुल्ला ऊबने लगा। कई तरह से बहाने किए कई दफा घड़ी देखी; मगर वे कुछ .'..! कई दफा जम्हाई ली। मगर जो दूसरों को उबाने में कुशल हो जाते हैं वे इन बातों की चिंता ही नहीं करते। वे तो प्राणपण से अपने कार्य में लगे रहते हैं। वह तो लगा ही रहा, लगा ही रहा। आखिर मुल्ला ने कहा कि अब रात हुई जा रही है, आपको घर पहुंचने में देर होगी। तो बड़ी मजबूरी में वह उठा। उसने कहा कि हौ, बात तो ठीक है, पत्नी भी राह देखती होगी, अब मैं चलूं। मुल्ला बड़े प्रसन्न हुए। वह उठा, दो कदम लिए, टेबल के पास पहुंच कर एक किताब उठाकर देखने लगा। मुल्ला ने कहा, फिर एक झंझट! किताब उलट—पुलट कर उसने वहां रखी किताब, फिर पैंतरा बदला और वापिस लौट आया और उसने कहा कि याद आता है कुछ कहना चाहता था! मुल्ला ने कहा. 'शायद नमस्ते तो नहीं कहना चाहते?'
लोग हैं, जिन्हें इसकी जरा भी चिंता नहीं, जिन्हें इसका बोध ही नहीं कि कोई अकेला हो तो उसका अकेलापन मत छेड़ो, मत खराब करो। पूरब में तो यह धारणा ही नहीं है। पश्चिम में थोड़ा बोध पैदा हुआ है कि कोई अकेला हो तो उसका अकेलापन मत छेड़ो। यह अत्याचार है, अतिक्रमण है। यहां तो कोई इस बात का खयाल ही नहीं है।
क्यों किसी के अकेलेपन को खंडित करना अनाचार है, अनीति है? इसलिए कि अकेलेपन में ही थोड़ा विश्राम है। जैसे ही दूसरा आया कि विश्राम गया। जैसे ही दूसरा मौजूद हुआ कि दूसरे की मौजूदगी तनाव की तरंगें पैदा करने लगती है। तुम स्वस्थ नहीं रह जाते। तुम सरल नहीं रह जाते। कभी—कभी तुम्हारे बाथरूम में तुम थोड़े सरल होते हो—अकेले! लेकिन अगर तुम्हें पता चल जाये कि कोई कुंजी के छेद से झांक रहा है तो तत्‍क्षण सब सरलता खो जाती है। हो सकता है क्षण भर पहले तुम आईने में मुंह बिचका रहे थे और मजा ले रहे थे या कोई बचपन की धुन गुनगुना रहे थे; मगर पता चल जाये कि कोई, तुम्हारा बेटा ही, छोटा बेटा ही झांक रहा है कुंजी के छेद से, तो भी तुम रुक गये, तुम सरल न रहे, स्वाभाविक न रहे।
हमारे जीवन का अधिकतम तनाव यही है कि दूसरे की आंख हमें बेचैन कर देती है और दूसरे की आंख हमें मुखौटा ओढ़ने के लिए मजबूर कर देती है। तो जो हम नहीं हैं वह दिखलाना पड़ता है। जैसे हम नहीं हैं वैसा बतलाना पड़ता है। मुस्कुराहट नहीं आ रही है तो खींच—खींच कर लानी पड़ती
है। जो नहीं कहना है, कहना पड़ता है। जो भीतर की सरलता और सहजता है, उसे रोकना पड़ता है। और हम भीड़ में ही जीते हैं चौबीस घंटे, तो धीरे — धीरे हमें अपना वास्तविक चेहरा ही भूल जाता है; यही मुखौटे याद रह जाते हैं। दफ्तर जाओ तो मालिक के सामने एक मुखौटा ओढो।
तुमने खयाल किया कि जब तुम दफ्तर जाते हो और चपरासी को पार करते हो, तब तुम एक मुखौटा ओढ़े होते हो चपरासी के पास से गुजरते वक्त! और जब मालिक के कमरे में प्रवेश करते हो, तल्लण मुखौटा बदला! अब तो प्रक्रिया इतनी यंत्रवत हो गई है कि तुम्हें पता ही नहीं चलता; जैसे आदमी, होशियार ड्राइवर, गेयर बदलता है, कुछ पता नहीं चलता, बैठने वाले यात्री को भी पता नहीं चलता। तुम गेयर बदलते रहते हो। चेहरा बदल लिया। चपरासी के पास से ऐसे अकड़ कर निकले थे जैसे वह कोई तुच्छ कीड़ा—मकोडा है। तब एक चेहरा था। मालिक के सामने खुद ही कीड़े—मकोड़े हो गये, पूंछ हिलाने लगे। एकदम चेहरा बदल लिया।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक आदमी मिलने आया। नसरुद्दीन को पता नहीं, कौन हैं। तो उसने यह भी नहीं कहा कि बैठिए। हर किसी से तो कोई नहीं कह देता कि बैठिए। लोग तो हिसाब से चलते हैं। उस आदमी ने कहा, शायद आपको पता नहीं कि मैं कांग्रेस का नेता हूं एम. पी हूं। मुल्ला ने कहा : 'अरे बैठिए, कुर्सी पर बैठिए। उठ कर खड़ा हो गया। आइये, बड़ी खुशी हुई!' वह आदमी बोला कि आपको यह भी पता नहीं कि शीघ्र ही मैं कैबिनेट में लिया जाने वाला हूं। तो मुल्ला ने कहा. 'अरे दो कुर्सी पर बैठिए! एक से कैसे काम चलेगा!'
आदमी को देख कर चौबीस घंटे हम चेहरे बदलते हैं। घर आये तो पत्नी को देख कर एक चेहरा, बेटै को देखकर एक चेहरा। इन सब चेहरों की भीड़ में हमें भूल ही जाता है कि असली चेहरा क्या है।
झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं. सबसे पहले अपना असली चेहरा खोजो, ओरिजिनल फेस! तब काम शुरू होगा। ये झूठे चेहरों से काम नहीं चलेगा, क्योंकि झूठे चेहरों से तुम परमात्मा तब नहीं पहुंच सकते हो। असली चेहरा खोजो। असली चेहरा—जो जन्म के पहले तुम्हारे पास था और मौत के बाद फिर तुम्हारे पास होगा! यह बीच की भीड़ हटाओ।
असली चेहरा! असली चेहरा तो सिर्फ ख्यात में ही खुलता है। लेकिन हम स्वात को बिलकुल भूल गये हैं और परम एकांत तो तभी उपलब्ध होता है जब हमें यह पता चल जाये कि एक ही है। फिर कोई चेहरा नहीं बदलना पड़ता। इसलिए संत पुरुष बालवत हो जाता है, छोटे बच्चे जैसा हो जाता है। यहां कोई दूसरा है ही नहीं, छिपाना किससे है! बचाना किससे है! धोखा किसको देना, कपट किससे करना! कूटनीति कैसी! राजनीति कैसी! यहां एक ही है।
यह तो ऐसे हुआ कि अपने बायें हाथ से दायें हाथ को कोई धोखा दे। ऐसे लोग भी हैं कि बायें हाथ से दायें हाथ को धोखा दे लें।
तुमने कभी किसी को ट्रेन में देखा। मैं अक्सर यात्रा करता था तो मुझे कई दफे ऐसा मौका आ जाता कि सज्जन अकेले ही ताश खेल रहे हैं, दोनों तरफ से चाल चल रहे हैं और इसमें भी सोच रहे हैं कि जीत—हार होगी। अब हद हो गई। अब तुम्हीं खेल रहे हो दोनों तरफ से, तुम्हें दोनों चालें पता हैं—तुम किसको धोखा दे रहे हो त्र: और बायां हाथ जीता कि दायां हाथ जीता, क्या फर्क पड़ेगा! कौन जीता, कौन हारा! लेकिन व्यस्त हैं।
जीवन हमारा एक प्रवंचना है। और प्रवंचना का मूल कारण यह है—अरे की मौजूदगी। अब दूसरे की मौजूदगी हटाने के दो उपाय हैं। सस्ता उपाय है कि तुम जंगल भाग जाओ, वह काम नहीं आता है। अष्टावक्र कहते हैं : एक गहरा उपाय है और वह है कि तुम अपने को पहचान लो और अपनी पहचान से तुम्हें पता चल जाये कि तुम्हीं सबके भीतर व्याप्त हो। एक ही है। यह मैं और तू में जो प्रगट हो रहा है, बायें—दायें हाथ की तरह है। ये एक ही अस्तित्व के दो पंख हैं। फिर कोई धोखा नहीं है। फिर तुम निर्दोष हो जाओगे।
'हत, तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्मांड—मंडल पूर्ण है।
फिर खेद कैसा! खेद है दूसरे से। दुख है दूसरे की मौजूदगी में; क्योंकि दूसरे की मौजूद्रगी हमें सीमित करती है, और दूसरे की मौजूदगी हमें झूठे व्यवहार के लिए मजबूर करती है, और दूसरे की मौजूदगी हमारी छाती पर पत्थर की तरह पड़ जाती है।
दूसरा है तो दुख है। अब दूसरे को कैसे मिटा दें! हम उपाय करते हैं जिंदगी में कई तरह से दूसरे को मिटाने के। तुम चाहे जान कर करते हो, चाहे अनजाने। तुमने देखा, पति चेष्टा करता है पत्नी को बिलकुल मिटा दे; उसका कोई अस्तित्व न रह जाये; दासी बना दे। पतियों ने समझाया है सदियों से कि हम परमेश्वर हैं, तुम दासी! पलिया भी कहती हैं कि ठीक। चिट्ठी वगैरह लिखती हैं तो उसमें लिखती हैं आपकी दासी। मगर उसका जो बदला लेती हैं, चौबीस घंटे पति को दिखलाती रहती हैं कि समझ लो कौन है दास! कि आप तो परमेश्वर हो, कहती यही हैं और खींचती रहती हैं टांग।
एक दिन मुल्ला और उसकी पत्नी में झगड़ा हो गया। भागी पत्नी मुल्ला के पीछे; जैसी उसकी आदत है मार दे, चीजें फेंक दे। तो वह घबड़ा कर जल्दी से बिस्तर के नीचे घुस गया। तो पत्नी ने कहा : 'निकल बाहर, कायर कहीं का!' मुल्ला ने कहा : 'छोड़, कौन मुझे निकाल सकता है! इस घर का मालिक मैं हूं, जहां मर्जी होगी वहा बैठेंगे। देखें कौन मुझे निकालता है!' पत्नी है जरा मोटी—तगड़ी, वह बिस्तर के नीचे घुस नहीं सकती।
पत्नी की पूरी चेष्टा है पति को मिटा दे। क्यों त्र' यह चेष्टा क्यों है? इसके पीछे बड़ा गहरा कारण है। दूसरे की मौजूदगी खतरनाक है और दूसरा है तो डर है कि कहीं वह मालिक न हो जाये; इसके पहले कि वह मालिक हो जाये, उसे गुलाम बना दो, उसकी गर्दन दबा दो!
बच्चा तुम्हारे घर में पैदा होता है, कहते हो तुम बच्चे को तुम प्रेम करते हो; लेकिन मां —बाप दोनों मिल कर बच्चे को मिटाने में लग जाते हैं। जल्दी लीप—पोत कर इसको खत्म कर दो—इसके पहले कि यह उदघोषणा करे अपने स्वातंप्य की, अपनी स्वच्छंदता की! तुम कहते हो, हम प्रेम करते हैं; लेकिन तुम्हारे प्रेम में कुछ बहुत सचाई नहीं है। तुम प्रेम के नाम पर ही जहर पिलाते हो। पत्नी भी पति से कहती है कि हमें तुमसे प्रेम है। अगर प्रेम है तो मुक्त करो! प्रेम सदा मुक्त करता है। पति भी कहता है कि मुझे तुमसे प्रेम है। यह प्रेम तो लगता है कि ओट है, इस ओट में ही जहर का सारा खेल चलता है। यह तो ऐसा लगता है कि प्रेम की शक्कर में भीतर जहर छिपाया हुआ है। गटक जाओ प्रेम के नाम से और मरो! बच्चे को हम मार डालते हैं। बाप कोशिश करता है, मां कोशिश करती है, परिवार कोशिश करता है, कि बस बच्चे में कोई स्वतंत्रता न हो। इसलिए हम आज्ञाकारिता को बडा मूल्य देते हैं। आज्ञाकारिता का अर्थ. 'तुम अपने जैसे मत होना; हम जैसे कहें वैसे होना!' तुम्हारे बाप तुम्हें मार गये, तुम इनको मार डालना। ये अपने बेटों को मारेंगे। ऐसे सदियां—सदियां, पीढ़ियां एक—दूसरे को मारती चली जाती हैं और आदमी बिलकुल मुर्दा है। पीछा ही नहीं छूटता।
अगर तुम्हें बच्चे से प्रेम है, सच में प्रेम है, तो तुम बच्चे को स्वीकार करोगे कि तेरी स्वतंत्रता स्वीकार है, अंगीकार है। और यह अन्याय तुम न करोगे क्योंकि तुम जरा ताकतवर हो तो इसकी गर्दन घोट दो।
खलील जिब्रान ने कहा है. प्रेम देना, मगर अपने सिद्धात मत देना। प्रेम देना, मगर अपना शास्त्र मत देना। प्रेम करना, लेकिन स्वतंत्रता मत छीन लेना। क्योंकि स्वतंत्रता छीन ली तो प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम का सबूत ही एक है स्वतंत्रता। प्रेम दूसरे को स्वीकार करता है अपने ही जैसा। प्रेम दूसरे में अपने को ही देखता है।
अपने को तो तुम सदा स्वतंत्र देखना चाहते हो या नहीं? अपने को तो तुम चाहते हो परम स्वातंन्य मिले। तो जिससे तुम्हारा प्रेम है उसको भी तुम परम स्वतंत्रता देना चाहोगे। मगर हम हजार तरह से मिटाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हम डरे हुए हैं। इसके पहले कि हमने अगर न मिटाया, कहीं दूसरा हमें न मिटाने लगे! कहीं दूसरा हमारी छाती पर सवार न हो जाये!
हम कैप रहे हैं। हमारे कंपन का कारण क्या है? क्योंकि दूसरा है। और दूसरे को मिटाने का एक उपाय तो यह है कि दूसरे की गर्दन दबा दो। एक तो उपाय हिटलर का है कि मार डालो दूसरे को, मिटा दो बिलकुल, हत्या कर दो, न रहेगा दूसरा, न दूसरे की कोई अड़चन रहेगी। एक उपाय बुद्ध का है कि दूसरे में झांक कर देख लो और अपने को ही पा लो। न तो मिटाना पड़ता है, न हिंसा करनी पड़ती है, न विध्वंस करना पड़ता है। दूसरे में अपनी ही झलक मिल जाती है। फिर दूसरा नहीं रह गया। और जिसके जीवन में दूसरा नहीं रहा—अष्टावक्र कहते हैं—उसके जीवन में खेद नहीं रहा, उसके जीवन में कोई दुख न रहा।
अगर तुम इस एक की हवा को थोड़ा चलने दो, तुम्हारे जीवन में वसंत आ जाये, तुम्हारे जीवन में बड़ी सुरभि आ जाये!

            चल पड़ी चुपचाप
सन सन सन हुआ
डालियों को यों
चितानी—सी लगी
आंख की कलियां
अरी खोलो जरा
हिल स्व—पत्तियों को
जगानी—सी लगी
पत्तियों की चुटकियां
झट दीं बजा
डालियां कुछ
ढुलमुलाने—सी लगीं
किस परम आनंद
निधि के चरण पर
विश्व सांसें, गीत
गाने—सी लगीं
जग उठा
तरु—वृंद जग
सुन घोषणा
पंछियों में चहचहाहट
मच गई
वायु का झोंका
जहां आया वहां
विश्व में क्यों
सनसनाहट मच गई!
जैसे सुबह हवा आती है, फूलों को जगा देती है, पत्तियों को छेड़ देती है, हजार गीत उठा देती है, सोयेपन को गिरा देती है, सपने बिखेर देती है—एक जाग आ जाती है सारे जगत में! ठीक ऐसी ही, अगर तुम एक को देख लो तो तुम्हारे जीवन में एक अपूर्व गंध उठेगी, एक अपूर्व पवन आ जायेगा! तुम्हारी गंदगी, तुम्हारी बंधी हुई हवा, सड़ी हुई हवा से छुटकारा हो जायेगा। तुम्हारी सीमा गई। जहां तुमने एक को देखा, असीम आने लगा, असीम की लहरें आने लगीं। उन असीम की लहरों में ही सुख है, शांति है, चैन है।

चिति क्षिति है अद्वैत
द्वैत में केवल उनका दर्शन
रूप—अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण
अचिर भूत में
व्यक्त भूति में
चिर अवधूत निरंजन
शब्द—मुक्त पर शब्द—युक्त है
चिंत्य अचिंत्य चिरंतन 
सत्य शिवम् है
सत्य सुंदरम्
संज्ञा स्वयं विशेषण
व्यर्थ व्याकरण
नीत शांत का
क्या होगा संबोधन
अचिर भूत में,
व्यक्त भूति में,
चिर अवधूत निरंजन!
एक ही छिपा है!
रूप— अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण!
हम और तुम ऐसे बंधे हैं जैसे बिंब का दर्पण, दर्पण का बिंब। तुम खड़े हो जाते हो दर्पण के सामने, तुम अलग दिखाई पड़ते हो, दर्पण में बनता प्रतिबिंब अलग दिखाई पड़ता है, तुम हट जाओ, प्रतिबिंब हट गया! तुम और तुम्हारा प्रतिबिंब दो नहीं हैं; एक ही है।
रूप— अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण!
जैसे तुम्हारा प्रतिबिंब तुमसे बंधा है, ऐसे ही परमात्मा संसार से बंधा है; देह आत्मा से बंधी है; मैं तू से बंधा है। यहां जहां तुम्हें द्वैत दिखाई पड़ रहा है—रात दिन से बंधी है, जीवन मौत से बंधा है। यहां सब बंधा है, इकट्ठा है। थोड़े गौर से देखोगे तो तुम एक को ही पाओगे। उस एक को पा लेने वाला व्यक्ति ही खेद के बाहर हो जाता है।
'जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते नहीं हर्षित करते हैं, वैसे ही ये कोई भी विषय आत्मा में रमण करने वाले को कभी नहीं हर्षित करते हैं।
न जातु विषया: केऽपि स्वारामं हर्षयत्त्वमी।
सल्लकी पल्लव प्रीतमिवेम निम्बपल्लवा:।।
जैसे सल्लकी के मीठे पत्तों को हाथी ने चबा लिया हो तो अब तुम लाख उपाय करो, तुम नीम के कड़वे पत्ते चबाने को उसे राजी न कर सकोगे। जिसने स्वाद ले लिया ऊपर का वह नीचे से फिर राजी नहीं होता। जिसने थोड़ा राम का रस ले लिया, काम में उसे रस नहीं आता। जिसे थोड़ी समाधि की झलक मिलने लगी, संभोग व्यर्थ होने लगता है। जिसे थोड़ी ध्यान की हवा आने लगी, धन की पकड़ छूटने लगती है। लेकिन खयाल रखना, विराट पहले आता है, क्षुद्र पीछे जाता है।
'जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते नहीं हर्षित करते..।
अब हमारी हालत उलटी हो गई है। तुम्हारे तथाकथित साधु —महात्मा तुम्हें समझाते हैं : छोड़ो संसार को अगर परमात्मा को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं. परमात्मा को पाओ अगर संसार को छोड़ना है। फर्क ठीक से समझ लेना। तुमसे कहा जाता है कि व्यर्थ को छोड़ो अगर सार्थक को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं. सार्थक का थोड़ा अनुभव करो अगर व्यर्थ को छोड़ना है। व्यर्थ को छोड़ने को तुम्हें राजी किया ही नहीं जा सकता। जिसने सिर्फ नीम के पत्ते ही चखे हों और सल्लकी के स्वादिष्ट पत्तों का जिसे कुछ पता न हो, उससे तुम लाख कहो, उसे भरोसा नहीं आता। उसने तो एक ही स्वाद जाना है; दूसरा हो भी सकता है, यह बात मन में बैठती ही नहीं, श्रद्धा नहीं उपजती। तुम कितना ही कहो,
उसे ऐसा ही लगता है कि 'लगता है तुम्हारी नीम के पत्तों पर नजर है, मुझसे छीन कर तुम कब्जा कर लोगे या कुछ. क्या इरादा है तुम्हारा भगवान जाने! क्यों मेरे पीछे पड़े हो?' और अगर वह छोड़ भी दे नीम के पत्ते, तो भी नीम के पत्तों की जो उसकी आदत पड़ गई है, कड़वेपन का जो अभ्यास हो गया वह इतनी आसानी से न छूट जायेगा। नीम के पत्ते छोड़ भी देगा तो रात सपने में नीम के पत्ते ही खायेगा, विचार में नीम के पत्ते छाया डालेंगे, बच न सकेगा। ऊपर—ऊपर से भागा रहेगा तो भीतर— भीतर से जुड़ा रहेगा। नहीं, क्रांति ऐसे नहीं घटती।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं 'हम तो भोगी हैं। हम कैसे संन्यास में उतरें?' मैं उनसे कहता हूं. तुम फिक्र छोड़ो, भोग तुम जानो। तुम संन्यास में उतरो, संन्यास में अगर स्वाद लग जायेगा, अगर सल्लकी के पत्तों में रस आने लगा तो फिर तुम सोच लेना। फिर नीम के पत्ते तुम्हें छोड़ने या नहीं छोड़ने, वह भी तुम जानो; मैं क्यों तुम्हारी पंचायत में पडूं! तुम्हें नीम के पत्ते छोड़ने चाहिए यह भी मैं क्यों कहूं! अगर सल्लकी के पत्तों का स्वाद छुड़ा दे तो ठीक, अगर न छुड़ाये तो ठीकै। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। जैसे ही तुम्हें स्वादिष्ट का अनुभव हो जाता है वैसे ही कड़वे को तुम छोड़ने लगते हो। मैं तुम्हारी झोली हीरे—मोतियों से भर देना चाहता हूं। मैं यह नहीं कहता कि तुम्हारी झोली में तुम जो कंकड़—पत्थर सम्हाले हो, उनको फेंको। तुम खुद ही फेंकने लगोगे। एक बार तुम्हें दिखाई भर पड़ जायें हीरे —जवाहरात, तुम एकदम झोली खाली कर दोगे; क्योंकि वही जगह तो फिर हीरे—जवाहरात से भरनी होगी। तुम कंकड़—पत्थर पकड़े बैठे न रहोगे।
परमात्मा को पहले पुकारो—संसार अपने से चला जाता है। उसकी तुम चिंता ही न लो। संसार को छोड़ने में लगे तो बड़ी झंझट में पड़ जाओगे। सुख तो मिलेगा ही नहीं; वह जो दुख मिल रहा था, वह भी न मिलेगा। और ध्यान रखना, आदमी खाली रहने से दुखी रहना पसंद करता है। यह तुम्हें बहुत हैरानी का लगेगा, लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान की गहरी निष्पत्तियों में एक निष्पत्ति यह भी है कि आदमी खाली होने की बजाय दुखी होना पसंद करता है, कम से कम कुछ तो है। कुछ तो है, भरे तो हैं—दुख से सही!
तुमने कभी खयाल किया, अगर जीवन में कोई समस्या न हो तो तुम बड़े उदास होने लगते हो। तुम कोई समस्या पैदा कर लेते हो। समस्या पैदा हो जाती है तो तुम उलझ जाते हो; कुछ काम मालूम पड़ता है, व्यस्तता मालूम पड़ती है। लगे तो हो! खाली बैठे आदमी घबड़ाने लगता है—कुछ भी नहीं! कुछ भी नहीं हो तो ऐसा लगने लगता है. मैं भी कुछ नहीं! करने से, कृत्य से अपनी कुछ परिभाषा बनती है, अपना कुछ व्यक्तित्व निर्मित होता है। चलो यह हर्जा नहीं, अस्पताल में पड़े हैं, बीमार हैं, दुखी हैं, पागल हैं—मगर कुछ तो हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि खालीपन की बजाय आदमी पागलपन पसंद कर लेता है, क्योंकि पागलपन में आखिर कुछ तो रूपरेखा है, सब खो तो नहीं गया। लोग इतना तो कहते हैं कि यह आदमी पागल है। पागलखाने में तो हैं। डाक्टर आकर फिक्र तो करता है। मित्र आकर संवेदना तो बतलाते हैं। लोग बात तो गौर से सुनते हैं। कुछ भी नहीं, ना—कुछ, शून्यवत—स्थिति बहुत घबडाती है! प्राण बहुत तड़पते हैं।
मैं इसलिए तुमसे कहता हूं : दुख तुम छोड़ न सकोगे, जब तक तुम्हें सुख का स्वाद न लग जाये।
सुख का स्वाद न लगा तो मैं तुमसे दुख छीनना भी नहीं चाहता, क्योंकि दुख तुम्हारी संपदा है अभी। अभी उसको छाती से लगाये तुम बैठे हो। अभी कुछ तो है, तुम एकदम खाली तो नहीं। तुम एकदम शून्य में तो नहीं पड़ गये, रिक्त तो नहीं हो गये हो। चलो धन सही, मकान सही, परिवार सही—कुछ तो पकड़े बैठे हो! हाथ में कुछ तो है। राख ही सही—तुम चाहे उसको विभूति कहो—राख ही सही, विभूति कह लो उसको, अच्छे नाम रख लो उसके, मगर हाथ में कुछ तो है! नाव कागज की सही, मगर नाव तो है; नाव जैसी तो लगती है कम से कम! डूबेगी तब डूबेगी, मगर अभी तो नाव का भरोसा है। सपना सही, जब टूटेगा तब टूटेगा; मगर अभी तो सहारा है, अभी तो इसके सहारे को पकड़ कर तैरे चले जाते हैं। अभी तो मत छीनो।
जब तक तुम्हें सत्य न मिल जाये, सपना तुमसे छीना भी नहीं जाना चाहिए। और परम ज्ञानी सदा यही चेष्टा करते रहे हैं : सत्य पहले, फिर असत्य अपने से चला जायेगा।
ऐसा समझो कि कमरे में अंधेरा है। एक तो उपाय है कि अंधेरे को धक्के दे —दे कर निकालो तुम, पगला जाओगे, निकलेगा न अंधेरा। दूसरा उपाय है. दीया लाओ, जलाओ रोशनी, अंधेरा अपने से निकल जाता है।
'जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं होता है और अनभोगे भोगों के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।
दुनिया में दो चीजें आदमी को पकड़े हुए हैं—एक तो भोगे हुए भोग। जो तुमने भोग लिया उसका स्वाद लग जाता है। जो तुमने भोग लिया उसकी पुनरुक्ति करने की आकांक्षा पैदा होती है—फिर मिले सुख, फिर मिले सुख, फिर से ऐसा हो! तो एक तो भोगा हुआ सुख पकड़ता है। भोगा हुआ सुख यानी अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा पकड़े रहती है। अनभोगा सुख यानी भविष्य। जो भोग लिया उसकी पुनरुक्ति चाहता है मन और जो अभी भोगा नहीं वह भी भोगने को मिले; इसकी वासना है। इन दो के बीच आदमी पिसता है। दो पाटन के बीच—यें दो पाट हैं—साबित बचा न कोय! एक तो जो भोग लिया है, वह बार—बार पीछा करता है कि फिर भोगो। और एक जो अभी नहीं भोग पाये, उसकी प्रबल आकांक्षा है कि मरने के पहले एक बार भोग लें।
'जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं और अनभोगे भोगों के प्रति निराकाक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।
यक्ष भोगेगु भुक्तेगु न भवत्यधिवासित।
अभुक्तेगु निराकांक्षी तादृशो भव दुर्लभ:।।
ऐसा मनुष्य संसार में खोजना बहुत दुर्लभ है जो दोनों पाटों से बच गया हो। और जो बच गया, उसने ही जीवन का सत्य जाना, उसने ही ज्ञान का फल चखा।
तो अतीत से छूटी, अतीत को समझो। जो भोग लिया, उसकी पुनरुक्ति में कुछ सार नहीं। क्योंकि भोग लिया, तब क्या मिला? भोग तो चुके, फिर कुछ मिला तो नहीं; हाथ तो खाली के खाली रहे। अब फिर उसी को भोगना चाहते हो! यह तो बड़ी बेहोशी है। और भोगने से. कुछ नहीं मिला। जो आज भोगा हुआ हो गया है, वह भी कल अनभोगा हुआ था—उसको भोग कर देख लिया, कुछ नहीं पाया। अब दूसरे अनभोगे सुख के पीछे भाग रहे हो! बड़ा मकान बना लिया, अब उसमें कुछ सुख




नहीं पा रहे हो, अब और बड़े मकान की सोच रहे हो!
मैंने सुना कि मुल्ला नसरुद्दीन एक सम्राट के घर नौकरी पर था। कमरा साफ कर रहा था सम्राट का। उसकी सुंदर शैया देखकर कई दफे मन लुभा जाता था उसका, कि एक दफा तो लेटकर देख लें! कैसा मजा सम्राट न लेता होगा! ऐसी गुदगुदी थी, मखमली थी, बहुमूल्य थी! सोने—चांदी से जड़ी थी! हीरे—जवाहरात लटके थे चारों तरफ। और उस दिन सम्राट दरबार में व्यस्त था तो उसने सोचा कि एक पांच मिनट लेट लें। लेट गया। लेटा तो झपकी लग गई। सम्राट आया कमरे में तो उसे बिस्तर पर लेटे देखा तो वह बहुत नाराज हुआ। उसे पचास कोड़े मारने का हुक्म दिया गया। कोड़े पड़ने लगे। हर कोड़े पर मुल्ला खूब जोर से खिलखिला कर हंसने लगा।
सम्राट बड़ा हैरान हुआ कि यह पागल है या क्या मामला है! होना चाहिए पागल। एक तो बिस्तर पर लेटा, जानते हुए कि यह अपराध है; और अब हंस रहा है! कोड़े पड़ने लगे और खून की धारें बहने लगीं, चमड़ी उखड़ने लगी और वह खिलखिला कर हंस रहा है! आखिर सम्राट ने पूछा कि 'रुको, मामला क्या है? कोड़े पड़ते हैं, तू हंसता क्यों है?'
उसने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं तो मुश्किल से पंद्रह मिनिट सोया, आपकी क्या गति होगी! पंद्रह मिनिट में पचास कोड़े! हिसाब तो लगाओ, मैं वही हिसाब लगा रहा हूं भीतर कि इस बेचारे की तो सोचो, आखिर में इसकी क्या गति होगी!
तुम जो सुख भोग लिए हो उनमें से कुछ पाया नहीं—सिवाय दुख के! जरा लौट कर देखो, तुम्हारे अतीत के चिह्नों को जरा गौर से देखो। घाव ही घाव हैं, पाया क्या? रस की आकांक्षा की थी, मिला कहां? अंगारे मिले! जल गये हो जगह—जगह, सारे प्राण जले पड़े हैं, छिदे पड़े हैं—और अब तुम उन भोगों की भी आकांक्षा कर रहे हो जो अभी नहीं भोगे। उनको तो देखो जो भोग रहे हैं! तुम उनको देखकर जरा चौंको, जागो। क्योंकि ऐसा तो कभी नहीं होगा कि कुछ अनभोगा न बचे। अगर तुम यह सोचते हो कि सब भोग लेंगे, सब, तभी जागेंगे तो तुम कभी नहीं जागोगे। क्योंकि जगत तो अनंत है। यहां तो ऐसा कभी नहीं हो सकता कि तुम कह सको : सब भोग लिए! थोड़ी तो बुद्धि का उपयोग करना होगा। थोड़ा विचार, थोड़ा ध्यान, थोड़ा देखना सीखना होगा!
'इस संसार में भोग की इच्छा रखने वाले और मोक्ष की इच्छा रखने वाले दोनों देखे जाते हैं। लेकिन भोग और मोक्ष दोनों के प्रति निराकांक्षी कोई विरला महाशय ही है!'
मेरे साथ अत्याचार!
प्यालियां अगणित रसों की सामने रख राह रोकी,
पहुंचने दी अधर तक बस आंसुओ की धार।
मेरे साथ अत्याचार!
हर आदमी यही कह रहा है कि मेरे साथ अत्याचार हो रहा है। इतने रस पड़े हैं और मुझे भोगने का मौका नहीं। इतने रस पड़े हैं और हर जगह दीवाल खड़ी है। और संतरी खड़े हैं, पहरा लगा है। हर जगह रुकांवट है।
मेरे साथ अत्याचार!
प्यालियां अगणित रसों की सामने रख राह रोकी,
पहुंचने दी अधर तक बस आंसुओ की धार।
मेरे साथ अत्याचार!
नहीं, कोई तुम्हारे साथ अत्याचार नहीं कर रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि प्यालियों को तुम तक कोई नहीं पहुंचने देता। हर रस की प्याली पहुंचते—पहुंचते आंसुओ की धार हो जाती है। कोई कर नहीं रहा है। असल में प्यालियों में आंसू ही भरे हैं। दूर से तुम्हारी वासना के कारण रसधार मालूम पड़ती है। जब पास आते हो, अनुभव में उतरते हो, तो सब आंसू हो जाते हैं। अपने जीवन को जरा देखो, तलाशो। तुम आंसुओ की धार ही धार पाओगे। और किसी ने कोई अत्याचार नहीं किया; किया है तो तुमने ही किया है।

            उस दिन सपनों की झांकी में
मैं क्षण भर को मुस्काया था
मत टूटो अब तुम युग—युग
तक हे खारे आंसू की लड़ियो!
बदला ले लो सुख की घड़ियो!
मैं कंचन की जंजीर पहन
क्षण भर सपने में नाचा था
अधिकार सदा को तुम जकड़ो
मुझको लोहे की हथकडियो!
बदला ले लो सुख की घडियो!

 एक—एक छोटा—छोटा सुख कितने गहन दुख में उतार जाता है। जरा—जरा सा स्वर्ग कितने नरक दे जाता है।
उस दिन सपनों की झांकी में
मैं क्षण भर को मुस्काया था
सपनों की झांकी में!
मैं क्षण भर को मुस्काया था
मत टूटो अब तुम युग युग तक
हे खारे आंसू की लड़ियो!
बदला ले लो सुख की घड़ियो!
एक—एक सुख गहन बदला लेता मालूम पड़ता है। एक—एक सुख जब टूटता है तो गहरा विषाद

 छोड़ जाता है।

मैं कंचन की जंजीर पहन
क्षण भर सपने में नाचा था
अधिकार सदा को तुम जकड़ो
मुझको लोहे की हथकडियो!
बदला ले लो सुख की घडियो!

 तुमने जो—जो सुख सोचा, वही—वही तुमसे बदला ले रहा है। तुमने जो—जो चाहा, मिल गया। मिल गया तो दुख है, नहीं मिला तो दुख है। तुमने चाहा तो बस दुख ही चाहा। मिले तो दुख, न मिले तो दुख। तुम अमीर हो जाओ तो दुखी रहोगे। अमीरों को देख लो! तुम गरीब रह जाओ तो दुखी होओगे। तुम कुंवारे रह जाओ तो दुखी होओगे, तुम विवाहित हो जाओ तो दुखी होओगे। तुम विवाहितों को देख लो! जीवन में तुम जरा हारे हुओं को देखो, जीते हुओं को देखो—सबको दुखी पाते हो। अगर तुमने कभी किसी आदमी को सुखी पाया होगा तो वह वही आदमी है जो हार—जीत दोनों को छोड़ कर अलग खड़ा हो गया; जो द्रष्टा और साक्षी हो गया। न तो हारने वाले सुखी हैं, न जीतने वाले सुखी हैं—दोनों के पार जो अतिक्रमण कर जाता, वही सुखी है.।
बुभुक्षरिह संसारे मुमुसुरपि दृश्यते।
भोगमोक्ष निराकांक्षी विरलो हि महाशय:।
ऐसा कोई विरला ही महाशय है! यह 'महाशय' शब्द बड़ा प्यारा है। हमें इसके साथ—साथ एक और शब्द बना लेना चाहिए : क्षुद्राशय। अगर तुम्हारे मन में कोई वासना है तो तुम क्षुद्राशय हो गये; क्योंकि तुम्हारी वासना तुम्हें संकीर्ण कर देती है, तुम्हारा आशय छोटा हो गया, क्षुद्र आशय हो गये। जिसने धन चाहा, वह छोटा हो गया। उसकी चाह ही तो उसकी परिभाषा होगी। उसको तुम कैसे याद करोगे? ऐसे याद करोगे न—धनाकांक्षी! उसकी आकांक्षा धन की है, वह धन से भी छोटा हो गया। धन तो है ठीकरा, वह ठीकरे से गया—बीता हो गया। ठीकरों से गया—बीता ही तो ठीकरों को चाहेगा! किसी ने कुर्सी चाही, वह कुर्सी से छोटा हो गया। क्षुद्राशय! कुर्सी ही चाही न, तो कुर्सी से छोटा ही होगा, तो ही चाहेगा।
मनस्विद कहते हैं : पदाकांक्षी हीन—ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। सभी राजनीतिज्ञ हीन—ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। कभी अच्छी दुनिया होगी तो राजनीतिज्ञ राजधानियों में नहीं होंगे, पागलखानों में होंगे। उनका इलाज होगा। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर पागल पागलखानों से छोड़ दिए जायें और राजनीतिज्ञ पागलखानों में रख दिए जायें, दुनिया बेहतर हो। क्योंकि किन्हीं पागलों ने इतना भयंकर नुकसान कभी नहीं किया; कोई पागल इतना पागल नहीं है जितना पदाकांक्षी पागल होता है।
मनस्विद कहते हैं : जितनी ही भीतर हीनता की ग्रंथि होती है, जितना ही इनफीरियारिटी काफ्लेक्स होता है, जैसे ही लगता है कि मैं कुछ भी नहीं, उतना ही आदमी कम्पंसेट करना चाहता है, उतना ही आदमी जोर से दावा करना चाहता कि मैं यह, मैं यह! राष्ट्रपति! प्रधानमंत्री! मंत्री! कुछ न कुछ! गवर्नर! कुछ न कुछ मैं हूं! यह दावा करना चाहता है। यह दावा जब तक वह कर न ले, तब तक उसे चैन नहीं मिलता; उसकी हीन—ग्रंथि उसको कीड़े की तरह काटती रहती है। क्षुद्राशय!
महाशय कौन है? महाशय वही है जिसके जीवन में कोई ऐसी वासना नहीं है जो संकीर्ण कर दे; जो सभी आयामों में खुला है! महा— आशय : जिसका आशय महान है! और तुम चकित होओगे, अष्टावक्र कहते हैं : मोक्ष को भी चाहा तो भी क्षुद्राशय हो गये, क्योंकि मोक्ष की चाह भी तो चाह ही है। धन से बड़ी, माना; पद से बड़ी, माना—लेकिन मोक्ष की चाह भी आखिर चाह है। अचाह ही तुम्हें महाशय बनायेगी।
'कोई उदारचित्त ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु के प्रति हेय और उपादेय का भाव नहीं रखता।
कोई उदारचित्त! महाशय यानी उदारचित्त। क्षुद्राशय यानी सकीर्णचित्त। तुम उतने ही संकीर्ण हो जितनी संकीर्ण तुम्हारी वासना है। तुम्हारे हाथ में है। तुम उतना ही छोटा कारागृह बना सकते हो जितनी तुम्हारी वासना है। अगर तुम्हें मुक्त होना हो तो तुम सारी वासना को जाने दो। चाहो ही मत कुछ। तुम इसी क्षण मुक्त हो! मोक्ष की चाह नहीं होती; जब कोई चाह नहीं होती तब जो होता है वही मोक्ष है। मोक्ष वासना का बिंदु नहीं है, वासना का विषय नहीं है। वासना के तीर से तुम मोक्ष के लक्ष्य को संधान न कर सकोगे। मोक्ष कोई लक्ष्य ही नहीं है। मोक्ष तो महाशय होने की अवस्था है। विराट हो गया आशय, कुछ चाह न रही—जिस दिन चाह न रही उसी दिन तुम प्रभु हो गये। प्रभु विराजमान हो गया तुम्हारे भीतर। उस परम तृप्ति में स्वच्छ इंद्रियां हो जाती हैं। उस परम तृप्ति में तुम घर लौट आये, यात्रा समाप्त हुई।
जिसमें न धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन—मृत्यु के प्रति भी कोई हेय—उपादेय का भाव नहीं, वह कोई उदारचित्त विरला...।
धर्मार्थकाममोक्षेयु जीविते मरणे तथा।
कस्यान्दुदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि।।
'जिसमें विश्व के नाश की इच्छा नहीं है और उसकी स्थिति के प्रति द्वेष नहीं है, वह धन्य पुरुष इसीलिए यथाप्राप्त आजीविका से सुखपूर्वक जीता है।
वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।
यथाजीविकया तस्माजन्य आस्ते यथासुखम्।।
वह धन्य है व्यक्ति जिसको कोई भी आकांक्षा नहीं है—न तो संसार रहे, इसकी; न संसार न रहे, इसकी। संसार के विनाश के लिए भी उत्सुक नहीं है।
अब तम खयाल करना, जो आदमी मोक्ष की आकांक्षा कर रहा है वह संसार के विनाश में उत्सुक हो गया था है। यह चाहता है : संसार न रहे; यह सब छूटे, यह जाल मिटे; यह सपना टूटे!
'जिसमें विश्व के नाश की इच्छा नहीं और उसकी स्थिति के प्रति द्वेष भी नहीं...।
जैसा है ठीक है। जैसा है वैसा ही रहे, अन्यथा की कोई माग नहीं है। ऐसा पुरुष धन्य है। जो मिल जाता है उसमें ही धन्य है। जो प्रभु दे देता है, उसमें ही धन्य है। जो मिला है, उसको प्रसादरूप ग्रहण कर लेता है। जो मिल गया है, वह पर्याप्त है।
'......इसलिए यथाप्राप्त से सुखपूर्वक रहता है।
वह यह सोचता ही नहीं कि इससे ज्यादा मिले, और ढंग से मिले, थोड़ा भिन्न मिले। जो मिला है, उससे अन्यथा की पाने की कोई वासना नहीं है। ऐसी अवस्था है ज्ञानी की। ऐसी अवस्था है साक्षी
और इस साक्षी होने में कोई चीज साधनरूप नहीं है। इस साक्षी होने में साक्षी होना ही साधनरूप है। इस साक्षी होने के लिए तुम्हें कुछ आयोजन नहीं करना है। तुम जैसे हो, आयोजन पूरा है; बस आंख बंद करनी है। भीतर उठाना है इस गहन जिज्ञासा को. मैं कौन हूं? उस सबसे संबंध तोड़ते जाना है भीतर जो मैं नहीं हूं। अंततः वही बच रहेगा जो तुम हो और एक बार उसका स्वाद आ गया, वे
स्वादिष्ट फल चख लिए, फिर नीम के कड़वे फलों की चखने की कोई आकांक्षा पैदा नहीं होती। जीवन का परम स्वीकार है इसमें।
अष्टावक्र की वाणी में निषेध नहीं है, नकार नहीं है। जो है, यही परिपूर्ण है। जो है, यही ब्रह्मरूप है। जो है, इसमें ब्रह्म का ही विस्तार है। तुम भी इस विस्तार के अंग बन जाओ। तुम भी अपनी सीमा छोड़ो, त्यागो, लीन बनो, एक बनो। एक बनो तो एकाकी। फिर तुम जहां भी रहो, जैसे भी रहो, जो यथाप्राप्त होगा, वही तुम्हारे लिए उत्सव ले आयेगा। तुम धन्य, तुम कृतज्ञ रहोगे! तुम्हारे जीवन से अहर्निश धन्यवाद उठता रहेगा। वैसे धन्यवाद के सतत उठते रहने से ही पहचाना जाता है कि कोई आदमी धार्मिक है। जैसे फूल से सुगंध उठती रहती है, दीये से प्रकाश झरता रहता है—ऐसे ही धार्मिक व्यक्ति के जीवन में धन्यवाद बरसता रहता है।

 हरि ओंम तत्सत्!

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