दिनांक 23 जनवरी, 1977;
श्री ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क, पूना।
अष्टावक्र उवाच।
अकुर्वन्नपि संक्षोभात् व्यग्र: सर्वत्र मूढ़धी।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलों हि निराकुल:।।234।।
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेऽपि शांतधी:।।235।।
स्वभावाद्यस्य नैवार्तिलोकवदव्यवहारिण:।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेश: सुशोभते।।236।।
निवृत्तिरपि मूढ़स्य प्रवृत्तिरुपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी।।237।।
परिग्रहेषु वैराग्य प्रायो मूढ़स्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्य राग: क्य विरागता।।238।।
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढ़स्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थयादृष्टिरूपिणी।।239।।
अकुर्वन्नपिसंक्षोभात्व्यग्र सर्वत्रमूढ़धी:।
कुर्वन्नपितुकृत्यानि कुशलोहिनिराकुल:।।
शास्त्रों का सार इतना ही है कि प्रश्न करने का नहीं, जानने का है। समस्त ज्ञानियों को एक छोटे सूत्र में निचोड़ा जा सकता है कि करने से कुछ न होगा, जानने से होगा। अगर जानने की घटना न घटी तो तुम जो भी करोगे, तुम्हारे अज्ञान में ही उसकी जड़ें होंगी। अज्ञान से किया गया शुभ कर्म भी अशुभ हो जाता। ज्ञान से अशुभ जैसा जो दिखाई पड़ता, वह भी शुभ है। इसलिए मौलिक रूपांतरण प्रज्ञा का है, ज्ञान का है, ध्यान का है, आचरण का नहीं।
पहला सूत्र अष्टावक्र का?
'अज्ञानी
कर्मोंको नहीं करता हुआ भी सर्वत्र संकल्प—विकल्प के कारण व्याकुल होता
है—नहीं करता हुआ भी व्याकुल होता है और ज्ञानी सब कर्मों को करता हुआ भी
शांत चित्त वाल्रा ही होता है।’
इसलिए प्रश्न कर्म को छोड़ कर भाग जाने का नहीं है, कर्म—संन्यास का नहीं है। प्रश्न है, अज्ञान से मुक्त हो जाने का। और अज्ञान से तुम यह मत समझना : सूचनाओं की, जानकारी की कमी। नहीं, अज्ञान से अर्थ है आत्मबोध का अभाव। तुम कितनी ही सूचनाएं इकट्ठी कर लो, कितना ही ज्ञान इकट्ठा कर लो, उससे ज्ञानी न होओगे जब तक कि भीतर का दीया न जले, जब तक कि प्रभा भीतर की प्रकट न हो। तब तक तुम बाहर से कितना ही इकट्ठा करो, उस कचरे से कुछ भी न होगा। पंडित बनोगे, प्रज्ञावान न बनोगे। विद्वान हो जाओगे, लेकिन
विद्वान हो जाना धोखा है। विद्वान हो जाना ज्ञानी होने का धोखा है।
बुद्धिमानी नहीं है विद्वान हो जाना। दूसरों को तो धोखा दिया ही दिया, अपने को भी धोखा दे लिया।
बुद्ध से कम हुए बिना न चलेगा। जागे मन, हो प्रबुद्ध, तो
ही कुछ गति है। न करते हुए भी अज्ञानी उलझा रहता है। विचार में ही करता
रहता है। बैठ जाए गुफा में तो भी सोचेगा बाजार की। ध्यान के लिए बैठे तो भी
न मालूम कहां—कहां मन विचरेगा। संकल्प—विकल्प उठेंगे—ऐसा कर लूं ऐसा न
करूं। कल्पना में करने लगेगा। कल्पना में ही हत्या कर देगा, हिंसा कर देगा, चोरी कर लेगा, बेईमानी कर लेगा। हाथ भी नहीं हिला, पलक भी नहीं हिली और भीतर सब हो जाएगा। क्योंकि संसार अज्ञान में फैलता है।
संसार के होने के लिए और कोई चीज जरूरी नहीं है, सिर्फ अज्ञान जरूरी है। जैसे स्वप्न के होने के लिए और कुछ जरूरी नहीं है, केवल
निद्रा जरूरी है। सो गए कि सपना शुरू। और कोई साधन—सामग्री नहीं चाहिए
सिर्फ नींद काफी है। नींद एकमात्र जरूरत है। फिर तुम यह नहीं कहते कि कहां
है मंच? कहां हैं परदे? कहां है निर्देशक? कहां है अभिनेता? कैसे हो यह खेल सपने का? नहीं, एक चीज के पूरे होने से सब पूरा हो गया—नींद आ गई तो तुम ही बन गए अभिनेता, तुम ही बन गए निर्देशक, तुम्हीं ने लिख ली कथा, तुम्हीं ने लिख लिए गीत, तुम्हीं बन गए मंच, तुम्हीं फैल गए सब चीजों में। तुम्हीं बन गए दर्शक भी। और सारा खेल रच डाला।
एक चीज जरूरी थी—नींद।
ऐसे ही संसार के लिए भी एक चीज जरूरी है—मूर्च्छा, बेहोशी। बस, फिर रो सार फैला। फिर किसी की भी आवश्यकता नहीं है।
तो
तुम यह मत सोचना कि बाजार को छोड़ कर अगर हिमालय चले गए तो मं सार छूट
जाएगा। क्योंकि संसार के होने के लिए एक ही चीज जरूरी है मूर्च्छा। गाव में
बैठे—बैठे मूर्च्छा की झपकी आ गई, झोंका आ गया, संसार फैल गया। वहीं राम विवाह रचा लोगे, वहीं बच्चे पैदा हो जाएंगे।
पुरानी कथा है। एक युवा संन्यासी ने अपने गुरु को पूछा, यह संसार है क्या? गुरु ने कहा, तू ऐसा कर, तू आज गांव में जा, फला—फलां द्वार पर भिक्षा मांग लेना। लौट कर जब आएगा तब संसार क्या है, बता दूंगा। युवक तो भागा। ऐसी शुभ घड़ी ठग गई कि गुरु ने कहा कि संसार क्या है, बता दूंगा। तू भिक्षा मांग ला।
उसने
जाकर द्वार पर दस्तक दी। एक सुंदर युवती ने द्वार खोला। अति सुंदर यूवती
थी। युवक ने ऐसी सुंदर स्त्री कभी देखी न थी। उसका मन मोह गया। वह यह तो
भूल ही गया कि गुरु के लिए भिक्षा मांगने आया था, गुरु
भूखे बैठे होंगे। उसने तो युवती से विवाह का आग्रह कर लिया। उन दिनों
ब्राह्मण किसी से विवाह का आग्रह करे तो कोई मना कर नहीं सकता था। युवती ने
कहा, मेरे पिता आते होंगे। वे खेत पर काम करने गए हैं। हो सकेगा। घर में आओ, विश्राम करो।
वह घर में आ गया। वह विश्राम करने लगा। पिता आ गए, विवाह हो गया। वि गुरु की तो बात ही भूल गया। वह भिक्षा मांगने आया था, यह तो बात ही भूल गया। उसके बच्चे हो गए, तीन बच्चे हो गए। फिर गाव में बाढ़ आई, नदी पूर चढ़ी।’ सारा
गांव डूबने लगा। वह भी अपने तीन बच्चों को और अपनी पत्नी को लेकर भागने की
कोशिश कर रहा है। और नदी विकराल है। और नदी किसी को छोड़ेगी नहीं। सब डूब
गए हैं, वह किसी तरह बचने की कोशिश कर रहा है। एक बच्चे को बचाने की कोशिश में दो बच्चे बह गए। इधर हाथ छूटा, दो बह गए। पत्नी को बचाने। बच्चा भी बह गया। फिर अपने को बचाने की ही पड़ी तो पत्नी भी बह गई। किसी तरह खुद बच गया, किसी तरह लग गया किनारे, लेकिन इस बुरी तरह थक गया कि गिर पड़ा। बेहोश हो गया।
जब आंख खुली तो गुरु सामने खड़े थे। गुरु ने कहा, देखा संसार क्या होता है? ओर तब उसे याद आया कि वर्षों हो गए, तब मैं भिक्षा मांगने निकला था। गुरु ने कहा, कुछ
भी नहीं हुआ है सिर्फ तेरी झपकी लग गई थी। जरा आंख खोल कर देख। वह भिक्षा
मांगने भी नहीं गया था। सिर्फ झपकी लग गई थी। वह गुरु के सामने ही बैठा था।
कुछ घटना घटी ही न थी। वह जो सुंदर युवती थी, सपना थी। वे जो बच्चे हुए, सपने थे। वह जो बाढ़ आई, सपना थी। वे जो वर्ष पर वर्ष बीते, सब सपना था। वह अभी गुरु के सामने ही बैठा था। झपकी खा गया था। दोपहर रही होगी, झपकी आ गई होगी।
तुम यहां बैठे—बैठे कभी झपकी खा जाते हो। तुम जरा सोचो, तब एक क्षण की झपकी में यह पूरा सपना घट सकता है। क्यों? क्योंकि जागते का समय और सोने का समय एक ही नहीं है। एक क्षण में बडे से बड़ा सपना घट सकता है। कोई बाधा नहीं है।
तुमने कभी अनुभव भी किया होगा, अपनी टेबल पर बैठे झपकी खा गए। झपकी खाने के पहले ही घड़ी देखी थी दीवाल पर, बारह बजे थे। लंबा सपना देख लिया। सपने में वर्षों बीत गए। कैलेंडर के पन्ने फटते गए, उड़ते गए। आंख खुली, एक
मिनट सरका है कांटा घड़ी पर और तुमने वर्षों का सपना देख लिया। अगर तुम
अपना पूरा सपना कहना भी चाहो तो घंटों लग जाएं। मगर देख लिया।
स्वप्न का समय जागते के समय से अलग है। समय सापेक्ष है। अलबर्ट आइंस्टीन ने तो इस सदी में सिद्ध किया कि समय सापेक्ष है, पूरब में हम सदा से जानते रहे हैं, समय
सापेक्ष है। जब तुम सुख में होते हो तो समय जल्दी जाता मालूम पड़ता है। जब
तुम दुख में होते हो तो समय धीमे— धीमे जाता मालूम पड़ता है। जब तुम परम
आनंद में होते हो तो समय ऐसा निकल जाता है कि जैसे वर्षों क्षण में बीत गए।
जब तुम महादुख में होते हो तो वर्षों की तो बात दूर, क्षण भी ऐसा लगता है कि वर्षों लग रहे हैं और बीत नहीं रहा, अटका है। फांसी लगी है।
समय सापेक्ष है। दिन में एक, रात दूसरा। जागते में एक, सोते में दूसरा। और महाज्ञानी कहते हैं कि जब तुम्हारा परम जागरण घटेगा तो समय होता ही नहीं। कालातीत! समय के तुम बाहर हो जाते हो।
सपना देखने के लिए नींद जरूरी है, संसार देखने के लिए अज्ञान जरूरी है। तो अज्ञान एक तरह की निद्रा है, एक तरह की मूर्च्छा है, जिसमें तुम्हें यह पता नहीं चलता कि तुम कौन हो। नींद का और क्या अर्थ होता है? नींद में तुम यही तो भूल जाते हो न कि तुम कौन हो? हिंदू कि मुसलमान, स्त्री कि पुरुष, बाप कि बेटे, गरीब कि अमीर, सुंदर कि कुरूप, पढ़े—लिखे कि गैर—पढ़े लिखे—यही तो भूल जाते हो न नींद में कि तुम कौन हो।
मूर्च्छा में भी और गहरे तल से हम भूल गए हैं कि हम कौन हैं।
कल एक युवती मुझसे पूछती थी कि मैं यहां क्या कर रही हूं? संन्यासिनी
है। मैं यहां क्या कर रही हूं यह मेरी समझ में नहीं आता। यह प्रश्न
बार—बार उठता है कि मैं यहां कर क्या रही हूं। तो मैंने उससे कहा कि मेरे
सिवाय यहां किसी को भी पता नहीं है कि कौन क्या कर रहा है। और यह प्रश्न
यहीं उठता है ऐसा नहीं, तू कहीं भी होगी संसार में, वहीं उठेगा। यह उठता ही रहेगा। क्योंकि अभी तो तुझे यह भी पता नहीं कि तू कौन है। तो तू क्या कर रही है यह कैसे पता चलेगा? अभी तो मौलिक प्रश्न का ही उत्तर नहीं मिला, अभी तो आधार ही नहीं रखे गए उत्तर के, तू भवन उठा रही है!
होना पहले है, कर्म तो पीछे है। बिना हुए कर्म तो न कर सकोगे। हा, बिना कर्म किए हो सकते हो; इसलिए होना मौलिक है, आधारभूत
है। तो पहले यह जानो कि मे कौन हूं तो ही समझ पाओगे कि क्या कर रहे हो।
मैं कौन हूं ऐसा जिसने जान लिया न सका संसार मिट जाता है। क्योंकि उस परम
जागरण में तंद्रा रह नहीं जाती, निद्रा रह नहीं जाती, मूर्च्छा रह नहीं जाती तो संसार को फैलाने का उपाय नहीं रह जाता। इसलिए तो ज्ञानियों ने कहा है, संसार और सपना एक।
तुम समझो अर्थ। सपना और संसार एक का यही अर्थ है कि दोनों के फैलने की प्रक्रिया एक है। दोनों के होने का ढंग, ढांचा एक है। दोनों के लिए मूर्च्छा जरूरी है—सपने के लिए भी, संसार के लिए भी। और एक बात और तुमसे कह दूं सपने के लिए गहरी मूर्च्छा जरूरी नहीं है, संसार के लिए गहरी मूर्च्छा जरूरी है। सपना तो जरा सी झपकी आ जाती है, उसमें भी दिख जाता है। यह संसार की जो झपकी है, यह बड़ी प्राचीन है। जन्मों—जन्मों की है। यह बड़ी गहरी है।
इसीलिए सपना व्यक्तिगत होता है और संसार सामूहिक। तुम सपना देखते हो, तुम मुझे अपने सपने में निमंत्रित नहीं कर सकते। तुम अपने मित्र को नहीं कह सकते कि कल मेरे सपने में आना। इसका कोई उपाय नहीं है।
सपना वैयक्तिक है। इसका अर्थ हुआ कि सपना व्यक्तिगत मूर्च्छा से उठा है।
यह संसार सामूहिक है। ये जो वृक्ष तुम्हें दिखाई पड़ रहे हैं, मुझे भी दिखाई पड़ रहे हैं। सभी को दिखाई पड़ रहे हैं। इसमें हम साझीदार हैं। सपने में मैं जो वृक्ष देखता हूं, मुझे दिखाई पड़ता है, तुम्हे दिखाई नहीं पड़ता। तुम जो देखते हो, तुम्हें दिखाई पड़ता है, मुझे दिखाई नहीं पड़ता। यह वृक्ष मुझे भी दिखाई पड़ता है, तुम्हें भी दिखाई पड़ता है, सबको दिखाई पड़ता है।
इसका
केवल इतना ही अर्थ हुआ कि यह मूर्च्छा कुछ इतनी गहरी होगी कि सर्वभौम है।
यह सबके भीतर फैली होगी। यह हमारा सामूहिक सपना है : कलेक्टिव ड्रीम आधुनिक
मनोविज्ञान कलेक्टिव अनकाशस की खोज पर पहुंच गया है : समुहिक अचेतन।
पहले
फ्रायड ने जब पहली दफा यह कहा कि चेतन मन के नीचे छिपा हुआ अचेतन मन होता
है तो लोग चौंके। क्योंकि पश्चिम में यह कोई धारणा न थी। बस, चेतन
मन सब था। फ्रायड अचेतन मन को लाया। लोग बहुत चौंके। वर्षों मेहनत करके वह
समझा पाया कि अचेतन मन है। बड़ी कठिनाई थी इसको सिद्ध करने में। क्यों? मन का तो अर्थ ही लोग समझते हैं, चेतन। तो अचेतन मन, यह तो विरोधाभास मालूम पड़ता है। जिसका हमें पता ही नहीं है वह हमारा मन कैसे हो सकता है? अचेतन का अर्थ, जिसका हमें पता नहीं है। लेकिन फ्रायड ने समझाया। तुम भी समझोगे। कोशिश करोगे तो खयाल में आ जाएगा।
किसी
का नाम तुम्हें याद नहीं आ रहा है और तुम कहते हो जबान पर रखा है। और फिर
भी तुम कहते हो याद नहीं आ रहा है। अब तुम क्या कह रहे हो? तुम कहते हो, जबान पर रखा है; और तुम कहते हो, याद भी नहीं आ रहा है। और तुम जानते हो कि तुम्हें मालूम है। तो यह कहां सरक गया? यह तुम्हारे अचेतन में सरक गया। तो अचेतन में खड़खड़ भी कर रहा है, लेकिन
जब तक चेतन में न आ जाए तब तक तुम पकड़ न पाओगे। फिर तुम जितनी चेष्टा करते
हो उतना ही मुश्किल। तुम जितनी चेष्टा करते हो पकड़ लें, उतना ही छिटकता है।
फिर तुम थक कर हार जाते हो। तुम कहते हो, भाड़ में जाने दो। तुम अपनी सिगरेट पीने लगे, कि अखबार पढ़ने लगे, कि रेडयो खोल लिया। अचानक यह आ रहा—एकदम से आ गया। था, तुम्हें एहसास भी होता था कि है, लेकिन तुमने जब बहुत चेष्टा की, तो तुम संकीर्ण हो गए। चेष्टा में आदमी का चित्त संकीर्ण हो जाता है। दरवाजा छोटा हो जाता है, सिकुड़
जाता है। जब तुम बहुत आतुर होकर खोजने लगे तो तुम्हारी आतुरता ने तनाव
पैदा कर दिया। तनाव के कारण जो आ सकता था बह कर वह नहीं आ सका। तुम बाधा बन
गए।
फिर तुम सिगरेट पीने लगे। तुमने कहा, छोड़ो भी, जाने भी दो। अब नहीं आता तो क्या कर सकते हो? क्योंकि ऐसी घड़ियों में तुम अगर ज्यादा कोशिश करोगे तो लगेगा, पागल हो जाओगे। जबान पर रखा है और आता नहीं। बहुत घबड़ाने लगोगे, पसीना—पसीना होने लगोगे। कहते हो, छोड़ो। शिथिल हुए, विश्राम
आया। जो चीज तनाव में न घटी वह विश्राम में तैर कर आ गई। नाम याद आ गया।
यह अचेतन में था। याद थी इसकी। यह भी याद थी कि याद है, और
फिर भी पकड़ में न आती थी। फ्रायड को हजारों उपायों से सिद्ध करना पड़ा कि
अचेतन है। बात वहीं नहीं रुकी। फ्रायड के शिष्य लै ने और एक गहरी खोज की।
उसने कहा, यह
अचेतन तो व्यक्तिगत है। एक—एक व्यक्ति का अलग—अलग है। इसके और गहराई में
छिपा हुआ सामूहिक अचेतन है—कलेक्टिव अनकांशस। वह हम सबका समान है।
यह और भी मुश्किल है सिद्ध करना, क्योंकि यह और गहरी बात हो गई। लेकिन ऐसा भी है। कभी—कभी तुम्हें इसका भी अनुभव होता है। तुम बैठे हो, अचानक
तुम्हें अपने मित्र की याद आ गई कि कहीं आता न हो। और तुमने आंख खोली और
वह दरवाजे पर खड़ा है। एक क्षण तुम्हें विश्वास ही नहीं आता कि यह कैसे हुआ!
तुम कहते हो, संयोग होगा। संयोग के नाम पर तुम न मालूम कितने सत्यों को झूठला देते हो। तुम कहते हो, संयोग होगा।
मेरे एक मित्र हैं। कवि हैं, कवि सम्मेलन में भाग लेने गए थे। बस में बैठे—बैठे बीच रास्ते में उन्हें ऐसा लगने लगा कि लौट जाऊं। घर लौट जाऊं। कोई चीज खींचने लगी, घर लौट जाऊं। मगर कोई कारण नहीं घर लौटने का। घर सब ठीक है। पत्नी ठीक है, पिता ठीक हैं, बच्चे ठीक हैं। घर लौटने का कोई कारण नहीं है, अकारण। कुछ समझ में नहीं आया। वे लौटे भी नहीं, क्योंकि ऐसे लौटने लगे तो मुश्किल हो जाएगी चले गए।
रात एक होटल में ठहरे। कोई दो बजे, रात किसी ने आवाज दी, दरवाजे पर दस्तक दी, 'मुन्नू'। वे बहुत घबडाए, क्योंकि मुन्नू सिर्फ उनके पिता ही कहते उनको—बचपन का नाम— और तो कोई मुन्नू कहता नहीं। बड़े कवि हैं, प्रसिद्ध हैं सारे देश में। और कौन उनको मुन्नू कहेगा? बहुत घबड़ा गए। सोचा, मन का ही खेल है और चादर ओढ़ कर सो रहे।
लेकिन फिर द्वार पर दस्तक, कि 'मुन्नू!' अब की बार तो बहुत बात साफ थी। उठे, घबड़ाहट बढ़ गई। दरवाजा खोला, कोई भी नहीं है। हवा सन्नाती है। दो बजे रात। कोई भी नहीं है, सारा
होटल सो गया है। कहीं कोई पक्षी भी पर नहीं मारता। फिर दरवाजा बंद करके सो
रहे कि मन का ही खेल होगा। लेकिन बिस्तर पर गये नहीं कि फिर आवाज आई, 'मुन्नू!' अब
तो आवाज बहुत जोर से थी। तो गए उठ। कर नीचे जाकर उन्होंने फोन लगाने की
कोशिश की। वे तो फोन लगा रहे थे तभी फोन आ गया। उनका तो फोन लगा ही नहीं था, लग ही नहीं पाया था कि घर से फोन आ गया कि पिता दस मिनट हुए, चल बसे।
यह
सामूहिक अचेतन है। इसका व्यक्तिगत अचेतन से कोई संबंध नहीं है। यह कुछ ऐसी
जगह की बात है कि जहां पिता से बेटा जुड़ा है। जहां पिता और बेटे के बीच
कोई सेतु है। यह हजारों मील पर जुड़ा होता है। जहां मां बेटे से जुड़ी है, जहां प्रेमी प्रेमी से जुड़ा है, जहां मित्र मित्र से जुडे हैं। और अगर तुम गहरे उतरते जाओ तो जो मित्र नहीं है वे भी जुड़े हैं, जो अपने नहीं हैं वे भी जुड़े हैं। और गहरे उतर जाओ तो आदमी जानवर——से जुड़ा है, और गहरे उतर जाओ तो आदमी वृक्षों से जुड़ा है। और गहरे उतर न जाओ तो आदमी पत्थरों—पहाड़ों से जुड़ा है। हम जो भी रहे हैं अपने अतीत में, उन सबसे ’जुड़े हैं। जितने गहरे जाओगे उतना ही पाओगे, हम सामूहिक के करीब आने लगे। यह सामूहिक अचेतन है। मनुष्य ऐसा ऊपर—ऊपर दिखाई पड़ता है वहीं नहीं समाप्त हो गया है।
जब पूरब में यह बात कही गई कि संसार भी सपना है, और सपना तो सपना है ही, तो
इतना ही अर्थ था कि सपना तो व्यक्तिगत अचेतन में उठता है और संसार सामूहिक
अचेतन में उठता है। इसलिए संसार और संसार की वस्तुओं के लिए हममें झगड़ा
नहीं होता। क्योंकि हम सब राजी हो सकते हैं। एक टेबल रखी है, दस आदमी देख सकते हैं, इसलिए कोई झगड़ा नहीं है। हम सब कहते हैं कि टेबल है। क्योंकि सबको दिखाई पड़ रही है, अब और क्या प्रमाण चाहिए?
इसीलिए
तो हम गवाही को इतना मूल्य देते हैं अदालत में। दस आदमी कह दें तो बात खतम
हो गई। गवाह मिल गए तो मुकदमा जीत गए। गवाह का मतलब यह है कि देखने वाले
चश्मदीद लोग हैं। फिर बात खतम हो गई। अब और क्या करना है? और क्या प्रमाण चाहिए?
संसार ऐसा सपना है जिसके लिए गवाह मिल जाते हैं। तुम्हारा सपना ऐसा संसार है जिसका कोई गवाह नहीं है। बस, इतना ही फर्क है। सपने तो दोनों हैं, तल का भेद है। एक सतह पर है, एक गहराई में है, लेकिन दोनों सपने हैं।
अब अगर संसार से मुक्त होना हो तो क्या करें! कहां जाएं? जब तक तुम्हारे अचेतन में रोशनी न पहुंच जाए तब तक तुम संसार से मुक्त न हो सकोगे। तुम भाग जाओ इस बाहर दिखाई पड़ने वाले संसार से, भीतर
तो संकल्प—विकल्प उठते रहेंगे। संक्षोभात—वहां तो संक्षोभ होता रहेगा। वह
भीतर का अचेतन तो लहरें लेता रहेगा। वहां तो तुम सपने देखते रहोगे। और
उन्हीं सपनों में तुम्हारा संसार फैलता रहेगा। तुम शांत न हो सकोगे।
अकुर्वन्नपि संक्षोभात् व्यग्र: सर्वत्र मूढ्धी:।
वह जो मूढ़ है, वह जो अज्ञान और अंधेरे में डूबा हुआ है—मूढूधी:, वह कर्मो को न भी करे तो भी संकल्प—विकल्प के कारण व्याकुल होता है।
तुमने कई दफे पाया होगा, तुम
ऐसी चीजों के लिए भी व्याकुल हो जाते हो जो हैं ही नहीं। जरा कभी बैठ कर
कल्पना करना शुरू करो। तुम ऐसी चीजों के लिए व्याकुल हो जाओगे, जो हैं ही नहीं। तब तुम हंसोगे भी कि यह भी मैंने क्या किया। यह तो है ही नहीं बात।
एक अदालत में मुकदमा था। दो आदमियों ने एक—दूसरे का सिर फोड़ दिया था। जब मजिस्ट्रेट पूछ्ने लगा कारण तो बताओ, तो वे दोनों हंसने लगे। उन्होंने कहा, क्षमा करें, दंड जो देना हो दे दें। अब कारण न पूछें। मजिस्ट्रेट ने कहा, मैं दंड बिना कारण पूछे दे कैसे सकता हूं? और तुम इतने घबड़ाते क्यों हो कारण बताने से? झगड़ा हुआ, कारण होगा।
वे दोनों एक—दूसरे की तरफ देखने लगे। वह कहने लगा, अब तू ही बता दे। वह कहने लगा, अब
तू बता दे। कारण ही ऐसा था कि बताने में संकोच लगने लगा। फिर बताना ही
पड़ा। जब मजिस्ट्रेट ने जोर—जबरदस्ती की कि अगर न बताया तो दोनों को सजा दे
दूंगा। तो बताना पड़ा। कारण ऐसा था कि बताने जैसा नहीं था।
दोनों नदी के किनारे बैठे थे। दोनों पुराने मित्र। और एक ने कहा कि मैं भैंस खरीदने की सोच रहा हूं। दूसरे ने कहा कि देख, भैंस तू खरीदना ही मत क्योंकि मैं खेत खरीदने की सोच रहा हूं एक बगीचा खरीद रहा हूं। अब कभी यह भैंस घुस गई मेरे बगीचे में, झगड़ा—झंझट हो जाएगा। पुरानी दोस्ती यह भैंस को खरीद कर दांव पर मत लगा देना। और देख, मैं तेरे को अभी कहे देता हूं कि अगर मेरे बगीचे में भैंस घुस गई तो मुझसे बुरा कोई नहीं।
उस आदमी ने कहा, अरे हद हो गई! तूने समझा क्या है? तेरे बगीचे के पीछे हम’भैंस न खरीदें? तू मत खरीद बगीचा, अगर इतनी बगीचे की रक्षा करनी है। भैंस तो खरीदी जाएगी, खरीद ली गई। और कर ले जो तुझे करना हो।
बात इतनी बढ़ गई कि उस आदमी ने वहीं रेत पर एक हाथ से लकीर खींच दी और कहा,' यह रहा मेरा बगीचा। और घुसा कर देख भैंस। और दूसरे आदमी ने अपनी अंगुली से भैंस घुसा कर बता दी। सिर खुल गए।
उन्होंने कहा, मत पूछें कारण। जो दंड देना हो दे दें। न अभी मैंने बगीचा खरीदा है, न इसने अभी भैंस खरीदी है। और हम पुराने दोस्त हैं। अब जो हो गया सो हो गया। दोनों पकड़ कर ले आए गए अदालत में।
तुमने भी कई दफे ऐसे बगीचों के पीछे झंझटें खड़ी कर लीं, जो अभी खरीदे नहीं गए। तुम जरा अपने मन की जांच—पड़ताल करना, तुम्हें
हजार उदाहरण मिल जाएंगे। बैठे- बैठे न मालूम क्या—क्या विचार उठ आते हैं!
और जब कोई विचार उठता है तो तुम क्षण भर को तो भूल ही जाते हो कि यह विचार
है। क्षण भर तो मूर्च्छा छा जाती है, और विचार सच मालूम होने लगता है।
वह जो विचार का सच मालूम होना है, वही
संसार है। एक बार विचारों से तुम मुक्त हो गए तो संसार से मुक्त हो गए।
निर्विचार होना संन्यास है। और कोई उपाय संन्यासी होने का नहीं है।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुल:।
और ज्ञानी सब कर्मों को करता हुआ भी शांत चित्तवाला होता है।’
कर्म नहीं बाधा डालते। ज्ञानी भी उठता, बैठता, चलता, बोलता, काम करता, लेकिन भीतर उसके कोई संक्षोभ नहीं है। वह एक बात में कुशल हो गया है, उसकी।, कुशलता आंतरिक है। भीतर विचार नहीं उठते। भीतर वह बिलकुल मौन में है, शून्यवत है। चलता है तो शून्य चलता है। बैठता है तो शून्य बैठता है। करता है, तो शून्य करता है।
और
जो व्यक्ति अपने भीतर शून्य हो गया है वही ज्ञान को उपलब्ध हुआ है। उसी को
ज्ञानी कहते हैं। जिसने शून्य के साथ अपनी भांवर डाल ली वही ज्ञानी है।
क्योंकि जो शून्य हो गया उसी से पूर्ण प्रकट होने लगता है। जो अपने भीतर
अहंकार से खाली हो गया, उसके भीतर से परमात्मा बहने लगता है।
'ज्ञानी व्यवहार में भी सुखपूर्वक बैठता है, सुखपूर्वक आता है और जाता है, सुखपूर्वक बोलता है और सुखपूर्वक भोजन करता है।’
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुख वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेऽपि शांतधी:।।
बुद्ध के जीवन पर जो कथा—सूत्र लिखे गए हैं, हर सूत्र के पहले जो बात आती है, वह पढ़नेवालों को कभी बड़ी हैरान करने लगती है।
एक
बौद्ध भिक्षु कुछ दिन मेरे पास रुके। वे मुझसे कहने लगे कि आपका बुद्ध से
गहरा लगाव है। और मैं तो बौद्ध भिक्षु हूं लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं
आती, हर सूत्र के पहले यही आता है. ' भगवान आए, उनकी चाल बड़ी शांत थी, उनकी श्वासें बड़ी शांत थीं। वे सुखपूर्वक आसन में बैठे। उन्होंने आंख बंद कर ली, क्षण भर को सन्नाटा छा गया। फिर उन्होंने आंख खोली, फिर वे सुखपूर्वक बोले।’ तब सूत्र शुरू होता? है।
तो उस बौद्ध भिक्षु ने मुझसे पूछा कि हर सूत्र के पहले यह बात दोहराने की क्या जरूरत है?
मैंने उससे कहा, जो
सूत्र में कहा है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है। सूत्र नंबर दो है—दोयम यह
नंबर प्रथम है। क्योंकि जिससे सूत्र निकला है उसके संबंध में पहले बात
होनी चाहिए तो ही सूत्र मूल्यवान है। ये सूत्र तो तुम भी बोल सकते हो।
इसमें कुछ बड़ी अड़चन नहीं है। तुम्हें भी पता है। लेकिन बुद्ध की भांति तुम
उठ न सकोगे, बैठ
न सकोगे। बुद्ध की भांति तुम श्वास न ले सकोगे। ये सूत्र तो तुम भी बोल
सकते हो। एक जापानी बौद्ध भिक्षु की पुस्तक मैं कल रात पढ़ रहा था। वह
मनोवैज्ञानिक है और उसने झेन ध्यान के ऊपर एक किताब लिखी है। कैसे झेन
ध्यान से चिकित्सा हो सकती है पागलों की, विक्षिप्तों की। और सारी चिकित्सा का मूल जो आधार है वह है श्वास की गति। श्वास जितनी शांत हो उतना ही चित्त शांत हो जाता है।
साधारणत:
हम एक मिनट में कोई सोलह से लेकर बीस श्वास लेते हैं। धीरे— धीरे— धीरे—
धीरे झेन फकीर अपनी श्वास को शांत करता जाता है। श्वास इतनी शांत और धीमी
हो जाती है कि एक मिनट में पांच.. .चार—पांच श्वास लेता। बस, उसी जगह ध्यान शुरू हो जाता।
तुम अगर ध्यान सीधा न कर सको तो इतना ही अगर तुम करो तो तुम चकित हो जाओगे। श्वास ही अगर एक मिनट में चार—पांच चलने लगे, बिलकुल धीमी हो जाए तो यहां श्वास धीमी हुई, वहां
विचार धीमे हो जाते हैं। वे एक साथ जुड़े हैं। इसलिए तो जब तुम्हारे भीतर
विचारों का बहुत आंदोलन चलता है तो श्वास ऊबड़— खाबड़ हो जाती है। जब तुम
पागल होने लगते हो तो श्वास भी पागल होने लगती है। जब तुम वासना से भरते हो
तो श्वास भी आंदोलित हो जाती है। जब तुम क्रोध से भरते हो तो श्वास भी
उद्विग्न हो जाती है, उच्छृंखल हो जाती है। उसका सुर टूट जाता है।, संगीत छिन्न—भिन्न हो जाता है, छंद नष्ट हो जाता है। उसकी लय खो जाती है।
झेन फकीर श्वास पर बड़ा ध्यान देते हैं। यह जो मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था, यह
एक झेन फकीर के मस्तिष्क में यंत्र लगा कर जांच कर रहा था कि कब ध्यान ही
अवस्था आती है। कब अल्फा तरंगें उठती हैं। बीच में अचानक अल्फा तरंगें
रब्रो गईं एक सेकेंड को। और उसने गौर से देखा तो फकीर की श्वास गड़बड़ा गई
थी। फिर फकीर सम्हल कर बैठ गया, फिर उसने श्वास व्यवस्थित कर ली। फिर तरंगें ठीक हो गईं। फिर अल्फा तरंगें आनी शुरू हो गईं।
झेन फकीर कहते हैं, श्वास
इतनी धीमी होनी चाहिए कि अगर तुम अपनी नाक के पास किसी पक्षी का पंख रखो
तो वह कंपे नहीं। इतनी शांत होनी चाहिए श्वास कि दर्पण रखो तो छाप न पड़े।
ऐसी घड़ी आती ध्यान में, जब श्वास बिलकुल रुक गई जैसी हो जाती है। कभी—कभी साधक घबड़ा जाता है कि कहीं मर तो न जाऊंगा! यह हो क्या रहा है?
घबड़ाना मत, कभी ऐसी घड़ी आए— आएगी ही—जो भी ध्यान के मार्ग पर नल रहे हैं, जब श्वास, ऐसा लगेगा चल ही नहीं रही। जब श्वास नहीं चलती तभी।।न भी नहीं चलता। वे दोनों साथ—साथ जुड़े हैं।
ऐसा
ही पूरा शरीर जुड़ा है। जब तुम शांत होते हो तो तुम्हारा शरीर भी एक अपूर्व
शांति में डूबा होता है। तुम्हारे रोएं—रोएं में शांति की झलक होती है।
तुम्हारे चलने में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है। तुम्हारे बैठने में भी
तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है। तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने में।
ध्यान
कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि एक घड़ी बैठ गए और कर लिया। ध्यान तो कुछ ऐसी
बात है कि जो तुम्हारे चौबीस घंटे के जीवन पर फैल जाता है। जीवन तो एक अखंड
धारा है। घड़ी भर ध्यान और तेईस घड़ी ध्यान नहीं, तो
ध्यान होगा ही नहीं। ध्यान जब फैल जाएगा तुम्हारे चौबीस घंटे की जीवन
धारा पर...। ध्यानी को तुम सोते भी देखोगे तो फर्क पाओगे। उसकी निद्रा में
भी एक परम शांति है।
यही है यह सूत्र
सुखमास्ते सुखं शेते सुखामायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेऽपि शांतधी:।।
वह जो ज्ञानी है, शांतधी:, जिसकी प्रज्ञा शांत हो गई है, वह व्यवहार में भी सुखपूर्वक बैठता है।
तुम
तो ध्यान में भी बैठो तो सुखपूर्वक नहीं बैठ पाते। तुम तो प्रार्थना भी
करते हो तो व्यग्र और बेचैन होते हो। ज्ञानी व्यवहार में भी सुखपूर्वक
बैठता है। उसका सुखासन खोता ही नहीं। यह सुखासन कोई योग का आसन नहीं है, यह उसकी अंतर्दशा है। सुखमास्ते—वह सुख में ही बैठा हुआ है। सुखासन। सुखमास्ते। सुख में ही बैठा हुआ है।
सुखं शेते सुखमायाति याति च।
उसके सारे जीवन का स्वाद सुख है। तुम कहीं से उसे चखो, तुम सुख ही सुख चखोगे।
बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपके जीवन का स्वाद क्या? तो बुद्ध ने कहा, जैसे सागर को तुम कहीं से भी चखो तो खारा, ऐसे तुम बुद्धों को कहीं से भी चखो तो आनंद, शांति, प्रकाश। तुम मुझे कहीं से भी चखो।
'सुखपूर्वक बेठता है।’
तुम ही तो बैठोगे न! तुम अगर बेचैन हो तो तुम्हारे बैठने में भी बेचैनी होगी। तुम देखते आदमियों को? बैठे हैं कुर्सी पर तो भी पैर हिला रहे हैं। अब बैठे हो—चल रहे होते, पैर हिलते तो ठीक थे। अब बैठ कर कम से कम बैठे हो तो बैठ ही जाओ। सुखमास्ते। मगर उसमें भी पैर हिला रहे हैं।
बुद्ध बड़ा ध्यान रखते थे। एक बार एक आदमी उन्हीं के सामने बैठा सुन रहा था उनका प्रवचन, और अंगूठा हिलाने लगा अपने पैर का। उन्होंने प्रवचन रोक दिया और कहा कि सुन, यह अंगूठा क्यों हिल रहा है? जब उन्होंने कहा तो उस आदमी को खयाल आया, नहीं तो उसको तो खयाल ही कहां था? जैसे ही बुद्ध ने कहा यह अंगूठा क्यों हिल रहा है, अंगूठा रुक गया। तो बुद्ध ने कहा, अब यह भी बता कि अंगूठा रुक क्यों गया? तो उसने कहा, मैं इसमें क्या कहूं? मुझे कुछ पता ही नहीं। तो बुद्ध ने कहा, तेरा अंगूठा और तुझे पता नहीं तो क्या मुझे पता? तेरा अंगूठा हिल रहा है और तुझे पता नहीं है, तो तू होश में बैठा है कि बेहोश बैठा है? यह अंगूठा तेरा है या किसी और का है? तुझे कहना ही पड़ेगा कि क्यों हिल रहा था। वह कहने लगा, मुझे आप क्षमा करें! मगर मैं कोई उत्तर देने में असमर्थ हूं। मुझे पता ही नहीं।
जब तुम भीतर से बेचैन हो तो उसका कंपन तुम्हारे जीवन पर प्रकट होता रहता है। उंगूठा ऐसे ही नहीं हिल रहा है। भीतर जो ज्वर भरा है, बेहोशी
भरी है। भीतर तुम उबल रहे हो। वह उबलन कहीं न कहीं से निकल रही है। भीतर
भाप ही भाप इकट्ठी हो न गई है तो केतली का बर्तन ऊपर—नीचे हो रहा है। भाप
भरी है तो कहीं न कहीं से तो निकालोगे। कहीं पीठ खुजाओगे, कहीं सिर खुजाओगे, कहीं हाथ हिलाओगे, कहीं जम्हाई लोगे, कहीं अंगूठा हिलाओगे, करवट बदलोगे। कुछ न कुछ करोगे। क्योंकि इस करने में थोड़ी सी ऊर्जा बाहर जाएगी और थोड़ा हलकापन लगेगा। तुम उर्जा से भरते जा रहे हो।
छोटे बच्चों को देखते? बैठ ही नहीं सकते। ऊर्जा भरी है। बैठेंगे तो भी तुम पओगे.. .एक मां अपने बच्चे से कह रही थी कि अब तू बैठ जा। देख, छ:
दफा मैं तुमसे कह चुकी हूं। अब अगर नहीं बैठा तो यह सातवीं वक्त है। भला
नहीं फिर अब तेरा। तब बच्चा समझ गया। बच्चे समझ जाते हैं कि कब आ गया आखिरी
मामला। कि अब मां आखिरी घड़ी में है, अब झंझट खड़ी होगी। जब तक वह देखता है कि अभी चलेगा तब तक चला रहा था। तो उसने कहा, अच्छी बात है, बैठा जाता हूं। लेकिन याद रखना, भीतर से नहीं बैला। बाहर से ही बैठ सकता हूं। तो बैठा जाता हूं। वह बैठ गया कुर्सी पर हाथ—पैर बिलकुल स्थिर करके। लेकिन उसने कहा, एक 'बात बता दूं कि भीतर से नहीं बैठा हूं। भीतर से तो कोई ऐसे कैसे बैठ सकता है?
तुम भीतर से बैठ जाओ तो तुम्हारे जीवन में सुख की एक आभा तैरने लगती है। ऐसा नहीं कि तुम्हीं को सुख मालूम होगा, तुम्हारी छाया में भी जो आ जाएंगे उनको भी सुख मालूम होगा। तुम्हारे पास जो आ जाएंगे वे भी तुम्हारी शीतलता से आंदोलित हो जाएंगे।
तुम्हें भी कई बार लगता होगा, किसी
व्यक्ति के पास जाने से तुम उद्विग्न हो जाते हो। और किसी व्यक्ति के पास
जाने से तुम शांत हो जाते। किसी व्यक्ति के पास जाने। का मन बार—बार करता
है। और कोई व्यक्ति रास्ते पर मिल जाए तो तुम बच कर निकल जाना चाहते हो।
शायद साफ—साफ तुमने कभी सोचा भी न हो कि ऐसा क्या है? कभी तो ऐसा होता है कि व्यक्ति से तुम पहले कभी मिले नहीं थे और पहले ही मिलन में दूर हटना चाहते हो, भागना चाहते हो। और ऐसा भी होता है कि कभी पहले मिलन में किसी पर आंख पड़ती है और उसके हो गए। सदा के लिए उसके हो गए।
क्या हो जाता है? भीतर
की तरंगें हैं जो गहरे में छूती हैं। कोई व्यक्ति तुम्हें धक्के मार कर
हटाता है। कोई व्यक्ति तुम्हें किसी प्रबल आकर्षण में अपने पास खींच लेता
है। किसी के पास सुख का स्वाद मिलता है। किसी के पास होने ही से लगता है कि
तुम हलके हो गए; जैसे बोझ उतर गया। और किसी के पास जाने से ऐसा लगता है, सिर भारी हो आया; न आते तो अच्छा था। उदास कर दिया उसकी मौजूदगी ने। उसने अपने दुख, अपनी पीड़ाएं, अपनी चिंताएं कुछ तुम पर भी फेंक दीं।
स्वाभाविक है, क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति तरंगित हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्तता को
ब्रॉडकास्ट कर रहा है। उससे तुम बच नहीं सकते। उसके भीतर का गीत चारों वक्त
चारों दिशाओं में आंदोलित हो रहा है। तुम उसके पास गए कि तुम पकड़ोगे उसके
गीत को। अगर गीत बेसुरा है तो बेसुरेपन को पकड़ोगे। अगर गीत शास्त्रीय संगीत
में बंधा है तो डोलोगे, मस्त हो जाओगे।
हर व्यक्ति का स्वाद है। सत्संग का इसीलिए इतना मूल्य है। किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठ जाना, जो शात हो गया है। तो उससे कभी तुम्हें झलक मिलेगी अपने भविष्य की कि ऐसा कभी मेरे जीवन में भी हो सकता है। जो एक के जीवन में हुआ, दूसरे के जीवन में क्यों नहीं हो सकता? और स्वाद लेते—लेते ही तो आकांक्षा उठती है, अभीप्सा उठती है।
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेऽपि शांतधी।।
ज्ञानी व्यवहार में भी, साधारण व्यवहार में भी तुम उसे पाओगे सदा सुख से आंदोलित, आनंदमग्न, मस्ती
से भरा। वह बैठा भी होगा तो तुम पाओगे कि उसके पास कोई अलौकिक ऊर्जा नाच
रही है। उसके पास किसी ओंकार का नाद है। उसके आस—पास कोई अलौकिक संगीतज्ञ, कोई गंधर्व गीत गा रहे हैं।
और अज्ञानी तो जब तुम्हें सुख में भी बैठा हुआ मालूम पड़े तब भी तुम पाओगे, नये दुखों की तैयारियां कर रहा है। अज्ञानी अपने सुख के समय को भी दुखों के बीज बोने में ही तो व्यतीत करता है। और तो क्या करेगा? जब सुख होता है तो वह दुख के बीज बोता है। वह कहता है, अब बो लो, मौका आया है, फसल बो लो। थोड़ा समय मिला है, कर लो इसका उपयोग। लेकिन उपयोग अज्ञानी अज्ञानी की तरह ही तो करेगा न! ज्ञानी दुख में भी सुख के बीज बोता।
हंसकर दिन काटे सुख के
हंस—खेल काट फिर दुख के दिन भी
मधु का स्वाद लिया है तो
विष का भी स्वाद बताना होगा
खेला है फूलों से वह
शूलों को भी अपनाना होगा
कलियों के रेशमी कपोलों को
तूने चूमा है तो फिर
अंगारों को भी अधरों पर
धर कर रे मुसकाना होगा
जीवन का पथ ही कुछ ऐसा
जिस पर धूप—छांव संग रहती
सुख के मधुर क्षणों के संग ही
बढ़ता है चिर दुख का क्षण भी
हंस कर दिन काटे सुख के
हंस—खेल काट फिर दुख के दिन भी
वह जो ज्ञानी है, वह दुख में भी सुख की ही याद करता। वह कहता है, सुख के दिन सुख से काटे, अब दुख के दिन भी सुख से काट। सुख के दिन नाच कर काटे, अब दुख के दिन भी नाच कर ही काट। सुख के दिन प्रार्थना में काटे, अब दुख के दिन भी प्रार्थना में ही रूपांतरित होने दे।
हंस कर दिन काटे सुख के
हंस—खेल काट फिर दुख के दिन भी
अज्ञानी दुख का अभ्यस्त हो जाता है। जब सुख होता है तब सुख से भी नये दुख पैदा करता है।
मैंने
सुना है कि एक बार ऐसा हुआ कि एक गरीब दर्जी को लॉटरी मिल गई। हमेशा भरता
रहता था लाटरी। हर महीने एक रुपया तो लॉटरी में लगाता ही था वह। ऐसा वर्षों
से कर रहा था। वह उसकी आदत हो गई थी। उसमें कुछ चिंता की बात भी न थी। हर
एक तारीख को एक रुपये की टिकट खरीद लेता था। ऐसा वर्षों से किया था। एक बार
संयोग लग गया और मिल गई लाटरी—कोई दस लाख रुपये। जब लाटरी की खबर मिली और
आदमी दस लाख रुपये लेकर आया तो उसने कहा, बस अब ठीक। उसने उसी वक्त दुकान में ताला लगाया, चाबी कुएं में फेंक दी। दस लाख रुपये लेकर वह तो कूद पड़ा संसार में। अब कौन दर्जी का काम करे! साल भर में दस लाख तो गए ही, स्वास्थ्य भी गया। पुरानी गरीब की जिंदगी की व्यवस्था, वह भी सब अस्तव्यस्त हो गई। पत्नी से भी संबंध छूट गया, बच्चे
भी नाराज हो गए। और उसने तो वेश्यालयों में और शराबघरों में और जुआघरों
में.. .सोचा कि सुख ले रहा है। जब साल भर बाद आखिरी रुपया भी हाथ से चला
गया तब उसे पता चला कि इस साल मैं जितना दुखी रहा, इतना
तो पहले कभी भी न था। यह भी खूब रहा। ये दस लाख तो जैसे जन्मों—जन्मों के
दुख उभार कर दे गए। ये दस लाख तो ऐसे अब दुखस्वप्न हो गया।
किसी तरह जाकर फिर चाबी वगैरह बनवाई। अपनी दुकान खोल कर बैठा। लेकिन पुरानी आदत, तो एक रुपया महीने की लॉटरी फिर लगाता रहा। संयोग की बात! एक साल बाद फिर वह लॉटरी वाला आदमी खड़ा हो गया। उस दर्जी ने कहा, अरे नहीं, अब नहीं। अब क्षमा करो। क्या फिर मिल गई? उस आदमी ने कहा, चमत्कार तो हम को भी है, हम भी हैरान हैं कि फिर मिल गई। उसने कहा, मारे गए! अब रुक भी नहीं सकता वह, दस लाख फिर मिल गए। लेकिन कहा कि मारे गए। घबड़ा गया कि फिर मिल गई, अब फिर उसी दुख से गुजरना पड़ेगा। अब फिर वेश्यालय, फिर शराबघर, फिर जुआघर, फिर वही परेशानी। अब दिन सुख के कटने लगे थे, फिर से अपनी दुकान चलाने लगा था। अब यह फिर मुसीबत आ गई।
आदमी
अगर अज्ञानी हो तो जो भी आए वही मुसीबत है। तुम अक्सर पाओगे कि तुम्हें जब
सुख के क्षण आते हैं तो तुम उन सुख के क्षणों को भी दुख में रूपांतरित कर
लेने में कुशल हो गए हो। तुम तत्क्षण उनको पकड़ लेते हो और कुछ इस ढंग से
उनके साथ व्यवहार करते हो कि सब दुख हो जाता है।
धन में कोई दुख नहीं है। और जिन्होंने तुमसे कहा है, धन में दुख है; वे
नासमझ रहे होंगे। दुख तुममें है। दुख तुम्हारी मूढ़ता में है। तुमको धन मिल
जाता है तो अवसर मिला। धन न हो तो दुख को भी तो खरीदने के लिए सुविधा
चाहिए न! दुखी होने के लिए भी तो अवसर मिलना चाहिए।
मैं तुमसे कहता हूं कि धन में दुख नहीं है, दुख तुम्हारी आदत है। हां, बिना धन के शायद तुम उतने दुखी नहीं हो पाते, क्योंकि धन चाहिए न खरीदने को! दुख भी खरीदने के लिए धन तो चाहिए, अवसर
तो चाहिए। तुम वेश्यालय नहीं गए क्योंकि सुविधा नहीं थी। तुम सज्जन थे
क्योंकि दुर्जन होने के लिए भी मौका चाहिए। तुमने जुआ नहीं खेला क्योंकि
खेलने के लिए भी तो पैसे चाहिए। तुम लड़े—झगड़े नहीं क्योंकि कौन झंझट में
पड़े— अदालत, मुकदमा, वकील!
लेकिन
तुम्हारे पास पैसे आ जाएं तो ये सारी वृत्तियां तुममें भरी पड़ी हैं। और ये
सारी वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी। ऐसा ही समझो कि वर्षा होती है तो जिस
जमीन में फूल के बीज पड़े हैं वहां फूल निकल आते हैं और जहां कांटे के बीज
पड़े हैं वहां कांटे निकल आते हैं।
तो जिन्होंने तुमसे कहा है धन में दुख है, जरूर
कहीं उनके जीवन में दुख की आदत थी। धन तो वर्षा है। जनक जैसे आदमी के पास
धन हो तो कुछ अड़चन नहीं। कृष्ण जैसे आदमी के पास धन हो तो कुछ अड़चन नहीं।
जिसको सुख की आदत है वह तो निर्धन अवस्था में भी धनी होता है, तो धनी होकर तो खूब धनी हो जाता है।
तुम
इस बात को ठीक से समझ लेना। यह मेरे मौलिक आधारों में से एक है। इसलिए मैं
तुमसे नहीं कहता कि धन से भागो। मैं तुमसे कहता हूं धन तो तुम्हें एक
आत्म—दर्शन का मौका देता है। लोग कहते हैं, अगर शक्ति हाथ में आ जाए तो शक्ति भ्रष्ट करती है। मैं कहता हूं गलत कहते हैं। लार्ड बेकन ने कहा है, 'पॉवर करफ्स एण्ड करप्ट्स एब्सोल्यूटली।’ गलत कहा है, बिलकुल गलत कहा है। शक्ति कैसे किसी को व्यभिचारी कर देगी? नहीं, तुम व्यभिचारी हो, शक्ति मौका देती है।
इधर इस देश में हुआ। गांधी के अनुयायी थे, सत्याग्रही थे, समाजसेवक थे। जब सत्ता हाथ में आई तो सब भ्रष्ट हो गए। लोग कहते हैं सत्ता ने भ्रष्ट कर दिया। मैं कहता हूं भ्रष्ट थे, सत्ता ने मौका दिया। सत्ता कैसे भ्रष्ट करेगी? तुम बुद्ध को सिंहासन पर बिठाल दो और बुद्ध भ्रष्ट हो जाएं तो इसका मतलब यह हुआ कि बुद्ध छोटे हैं, सिंहासन ज्यादा ताकतवर। यह कोई बात हुई! बुद्ध और सिंहासन से हार गए! नहीं, यह कोई बात जंचती नहीं।
अगर सिंहासन से हार जाता है तुम्हारा बुद्धत्व तो उसका इतना ही अर्थ है, बुद्धत्व थोपा हुआ होगा, जबरदस्ती आरोपित किया हुआ होगा। जब अवसर आया तो मुश्किल हो गई।
नपुंसक
होने में ब्रह्मचारी होना नहीं है। जब तुममें ब्रह्मचर्य की वास्तविक
ऊर्जा घटेगी तो वह काम—ऊर्जा की ही प्रगाढ़ता होगी। अगर काम—ऊर्जा ही नष्ट
हो गई और फिर तुम ब्रह्मचारी हो गए तो वह कोई ब्रह्मचर्य नहीं है। वह धोखा
है। वह आत्मवचना है।
जानी तो व्यवहार में भी सुखपूर्वक है, शांत है बाजार में भी, दुकान
में भी। व्यवहार यानी बाजार और दूकान। और जो ज्ञानी नहीं है वह तो हर हालत
में.. .कभी तुम उसे मंदिर में भी बैठे देखो तो भी तुम उसे मंदिर में पाओगे
नहीं। तुम उसके भीतर झांकोगे तो वह कहीं और है। ज्ञानी दुकान पर बैठा हुआ
भी अपने भीतर बैठा है—सुखमास्ते। दुकान भी चल रही है। इन दोनों में कोई
विरोध थोड़े ही है! दुकान के चलने में क्या विरोध है?
आत्मवान को कोई विरोध नहीं है। अज्ञानी को विरोध है। अज्ञानी कहता है, दुकान चलती है तो मैं तो अपने को भूल ही जाता हूं। दुकान ही चलती है, मैं तो भूल ही जाता हूं। तो मैं अब ऐसी जगह जाऊंगा जहां दुकान नहीं है, ताकि
मैं अपने को याद कर सकूं। लेकिन यह अज्ञानी अज्ञान को तो छोड़कर न जा
सकेगा। अज्ञान तो साथ चला जाएगा। ऐसा ही समझो कि जैसे फिल्म तुम देखने जाते
हो तो पर्दे पर फिल्म दिखाई पड़ती है, लेकिन फिल्म पर्दे पर होती नहीं। फिल्म तो प्रोजेक्टर में होती है। वह पीछे छिपा है। जो आदमी संसार से भाग गया वह ऐसा आदमी है, जो पर्दे को छोड़ कर प्रोजेक्टर लेकर भाग गया। प्रोजेक्टर साथ ही रखे हैं। अब पर्दा नहीं है तो देख नहीं सकता, यह बात सच है, मगर प्रोजेक्टर साथ है 1 कभी भी परदा मिल जाएगा, तत्क्षण काम शुरू हो जाएगा।
तुम स्त्रियों से भाग जाओ तो परदे से भाग गए। कामवासना तो साथ है, वह प्रोजेक्टर है। किसी दिन स्त्री सामने आ जाएगी, बस...। और ध्यान रखना, अगर तुम भाग गए हो स्त्री से तो स्त्री इतनी मनमोहक हो जाएगी, जितनी
कभी भी न थी। क्योंकि जितने तुम तड़फोगे भीतर- भीतर उतनी ही स्त्री सुंदर
होती जाएगी। जितने तुम तड़फोगे उतनी ही साधारण स्त्री अप्सरा बनती जाएगी।
जितने तुम तड़फोगे उतना ही सौंदर्य तुम उसमें आरोपित करने लगोगे।
भूखा
आदमी रूखी-सूखी रोटी में भी बडा स्वाद लेता। भरे पेट सुस्वादु भोजन में भी
कोई स्वाद नहीं मालूम होता। इसलिए तुम्हारे साधु-संन्यासी स्त्रियों को
गाली देते रहते हैं। दो चीजों को गाली देते रहते हैं : कामिनी और कांचन। दो
चीजों से बड़े परेशान हैं : स्त्री और धन। बस उनका एक ही राग है-बचो कामिनी
से, बचो कांचन से। और उनका राग यह बता रहा है कि ये दो ही चीजें उनको सता रही हैं। धन सता रहा है और स्त्री सता रही है।
स्त्री और धन क्या सताएंगे! उनके भीतर वासना पड़ी है, वासना के बीज पड़े हैं। परिस्थिति तो छोड़ कर भाग गए, मनस्थिति को कहां छोड़ोगे? मन तो साथ ही चला जाता है।
'जो ज्ञानी स्वभाव से व्यवहार में भी सामान्य जन की तरह नहीं व्यवहार करता और महासरोवर की तरह क्लेशरहित है, वही शोभता है।'
अज्ञानी तो लड़ता ही रहता, उलझता ही रहता। कोई बाहर न हो उलझने को तो भीतर उलझन बना लेता, लेकिन बिना उलझे नहीं रह सकता।
क्या-क्या हुआ है हमसे जुनू में न पूछिए
उलझे कभी जमीं से कभी आसमा से हम
उलझता ही रहता, झगड़ता
ही रहता। झगड़ा उसकी जीवन-शैली है। कोई बाहर न मिले तो वह भीतर निर्मित कर
लेता है। कोई दूसरा न मिले लड़ने को तो अपने से लड़ने लगता है। लेकिन झगड़ा
उसकी प्रकृति है। और अज्ञानी कहीं भी जाए, कुछ भी करे, कुछ भेद नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर से गिर पड़ा। सारा गांव चकित हुआ, क्योंकि गधा उसको लेकर अस्पताल पहुंच गया। तो मुल्ला के घर लोग पहुंचे और लोगों ने कहा कि बड़े मियां, अल्लाह का शुक्र, लाख-लाख
शुक्र कि आपको ज्यादा चोट नहीं लगी। और एक सज्जन ने कहा कि सच कहें तो
विश्वास नहीं होता कि गधा इतना समझदार होता है। क्योंकि कहावत तो यही है कि
गधा यानी गधा। मगर हद हो कि! आपका गधा कुछ विशिष्ट गधा है। कितना समझदार
जानवर कि आपको लेकर।। रमताल पहुंच गया! भरोसा नहीं आता इसकी समझदारी पर।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्या खाक समझदार है, गधों के अस्पताल ले गया था!
गधा ले जाएगा तो गधों के अस्पताल ले जाएगा। वेटनरी अस्पताल ले गया होगा। गधा समझदारी भी करेगा तो कितनी करेगा? एक सीमा है। अज्ञानी समझदारी भी करेगा तो कितनी करेगा? एक सीमा है। उस सीमा के पार अज्ञान नहीं ले जा सकता।
इससे असली सवाल, असली क्रांति, असली रूपांतरण स्थितियों का नहीं है, बोध का है। अज्ञान से मुक्त होना है, संसार से नहीं। अज्ञान से जो मुक्त हुआ, संसार से मुक्त हुआ। मूर्च्छा टूटी, सब टूटा। सब सपने गए-व्यक्तिगत, सामूहिक, सब सपने गए। अज्ञान बचा, तुम कहीं भी जाओ, कहीं भी जाओ-मक्का कि मदीना, काबा कि कैलाश, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
स्वभावात् यस्य नैवार्तिलोकवदव्यवहारिण।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेश: सुशोभते।।
'ज्ञानी स्वभाव से व्यवहार में भी...।'
ध्यान रखना स्वभाव से; योजना से नहीं, आचरण से नहीं, स्वभाव से। चेष्टा मे नहीं, प्रयास से नहीं, साधना से नहीं, स्वभाव से-स्वभावात्। जहां समझ आ गई यहां स्वभाव से क्रियाएं शुरू होती हैं। एक आदमी शांत होता है चेष्टा से। गौर से देखोगे, भीतर उबलती अशांति, बाहर-बाहर थोपकर, लीप-पोत कर उसने अपने को सम्हाल लिया। ऊपर का थोपा हुआ ज्यादा काम नहीं आता।
मुल्ला नसरुद्दीन पकड़ा गया। किसी की मुर्गी चुरा ली। वकील ने उसको सब समझा दिया कि क्या-क्या कहना। रटवा दिया कि देख, इससे एक शब्द इधर-उधर मत जाना। वह सब रट लिया, कंठस्थ कर लिया। वकील को कई दफे सुना भी दिया। वकील ने कहा, अब बिलकुल ठीक। अपनी पत्नी को भी सुना दिया। रात गुनगुनाता रहा, सुबह अदालत में भी गया और मुकदमा जीत भी गया, क्योंकि वकील ने ठीक-ठीक पढ़ाया था। उसने वही-वही कहा जो वकील ने पढ़ाया था। मजिस्ट्रेट ने कई तरह से पूछा, विपरीत वकील ने कई तरह से खोज-बीन की, लेकिन
वह टस से मस न हुआ। सबको पता है कि मुर्गी उसने चुराई है। मजिस्ट्रेट को
भी. पता-छोटा गांव। और वह कई औरों की भी मुर्गियां चुरा चुका है तो सभी को, गांव को पता है कि है तो मुर्गी-चोर। लेकिन डटा रहा।
आखिर मजिस्ट्रेट ने कहा कि अब हार मान गए। ठीक है तो तुम्हें मुक्त किया जाता है नसरुद्दीन। तो भी वह खड़ा रहा। मजिस्ट्रेट ने कहा, अब खड़े क्यों हो? तुम्हें मुक्त किया जाता है। तो उसने कहा, इसका क्या मतलब? मुर्गी मैं रख सकता हूँ?
वह चोरी भीतर है तो कहां जाएगी? वह सब पढ़ाया—लिखाया व्यर्थ हो गया। आदमी कितना ही ऊपर से आरोपण कर ले, कोई न कोई बात भीतर से फूट ही पड़ती है, खबर दे जाती है।
तुम कितने ही शांत बनो ऊपर से, तुम कितने ही सज्जन बनो, तुम कितने ही सुशील बनो, तुम कितना ही अभिनय करो, कोई
न कोई बात कहीं न कहीं से बह कर निकल आएगी। क्योंकि तुम जो हो उसको ज्यादा
देर झुठलाया नहीं जा सकता। गुरजिएफ कहता था कि मेरे पास कोई आदमी तीन घंटे
रह जाए तो मैं जान लेता हूं क्या है उसकी असलियत। क्योंकि तीन घंटे तक भी
अपने झूठ को खींचना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए तो धोखा होता है।
जिनसे तुम रास्ते पर मिलते हो, जिनसे सिर्फ संबंध 'जयरामजी' का है, उनको तुम समझते हो, बड़े सज्जन हैं। रास्ते पर मिले, 'जयरामजी' कर लिया, अपने—अपने घर चल गए। उतनी देर के लिए आदमी सम्हाल लेता है। मुस्कुरा दिया, तुम्हें देख कर प्रसन्न हो गया, बाग—बाग हो गया। और तुमने कहा, कैसा भला आदमी है! जरा पास आओगे तब भलाई—बुराई पता चलनी शुरू होगी। निकट आओगे तब कठिन होने लगेगा।
यही तो रोज सारी दुनिया में होता है। किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए, कोई स्त्री तुम्हारे प्रेम में पड़ गई, तब दोनों कितने सुंदर! और दोनों का प्रेम कैसा अदभुत! ऐसा कभी पृथ्वी पर हुआ नहीं और कभी होगा भी नहीं।
फिर विवाह कर लो, फिर धीरे— धीरे जमीन पर उतरोगे। असलियत प्रकट होना शुरू होगी। वह जो ऊपर—ऊपर का आवरण था, वह जो लीपा—पोता आवरण था, वह टूटेगा। क्योंकि कितनी देर उसे खींचोगे? असलियत निकल कर रहेगी। आरोपण थोड़ी—बहुत देर चल सकता है, असलियत प्रकट होकर रहेगी।
तो जो दो व्यक्ति करीब—करीब रहेंगे तो असलियत प्रकट होनी शुरू होती है। दूर—दूर से सभी ढोल सुहावने मालूम होते हैं।
ज्ञानी की यही खूबी है कि वह स्वभावात, स्वभाव से.. .स्वभाव का अर्थ होता है, जाग्रत होकर जिसने स्वयं को जाना, पहचाना, जिसकी अंतर्प्रज्ञा प्रबुद्ध हुई, जिसके भीतर का दीया जला, जो अब अपने स्वभाव को पहचान लिया। अब इससे अन्यथा होने का उपाय न रहा। अब तुम उसे कैसी भी स्थिति में देखोगे, तुम उसे हमेशा अपने स्वभाव में थिर पाओगे।
'जो जानी स्वभाव से व्यवहार में भी सामान्य जन की तरह नहीं व्यवहार करता और महासरोवर की तरह क्लेशरहित है वही शोभता है।’
संस्कृत में जो शब्द है वह है, लोकवत। वह 'सामान्य जन' से ज्यादा बेहतर है। लोकवत का अर्थ होता है भीड़ की भांति। जो भीड़ की तरह व्यवहार नहीं करता।
भीड़ का व्यवहार क्या है? भीड़ का व्यवहार धोखा है। हैं कुछ, दिखाते कुछ। हैं कुछ, बताते कुछ। कहते कुछ, करते कुछ। दूर—दूर से एक मालूम होते हैं, पास आओ, कुछ और मालूम होते हैं। दूर से तो चमकते सोने की तरह, पास आओ तो पीतल भी संदिग्ध हो जाता है कि पीतल भी हैं या नहीं। हो सकता है, पीतल का भी पालिश ही हो। भीड़ का व्यवहार धोखे का व्यवहार है, प्रवंचना का व्यवहार है। तानी सहज होता, नग्न होता। जैसा है वैसा ही होता है। रुचे तो ठीक, न
रुचे तो ठीक। तुम्हारे कारण ज्ञानी अपने को किन्हीं ढांचों में नहीं
डालता। तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुकूल व्यवहार नहीं करता। जैसा है वैसा ही
व्यवहार करता है। रुचे ठीक, न रुचे ठीक। ज्ञानी तुम्हें देख कर व्यवहार नहीं करता, अपने
स्वभाव से व्यवहार करता है। शायद बहुतों को न भी रुचे। क्योंकि जो झूठ में
बहुत पारंगत हो गए हैं उनको यह सचाई न रुचेगी। जो झूठ में बहुत कुशल हो गए
हैं उनको इस सच में खतरा मालूम पड़ेगा। उनको उनके झूठ के टूट जाने का भय
मालूम पड़ेगा।
इसलिए ज्ञानियों पर भीड़ सदा नाराज रहती है। हां, जब ज्ञानी मर जाते हैं, तब
उनकी पूजा करती है। क्योंकि मरे ज्ञानियों में कोई खतरा नहीं है। जीवित
ज्ञानी के सदा भीड़ विरोध में रहती है—रहेगी ही। क्योंकि जीवित ज्ञानी की
मौजूदगी ही बताती है कि भीड़ झूठ है। और जीवित ज्ञानी के पास आकर तुम्हें
अपनी असली तस्वीर दिखाई पड़ने लगती है। जीवित ज्ञानी कसौटी है, उसके पास आते ही पता चल जाता है कि तुम सोना हो कि पीतल।
और कोई मानने को तैयार नहीं होता कि पीतल है। जानते हो, फिर
भी मानने को तैयार नहीं होते कि पीतल हो। जानते हो कि पीतल हो लेकिन फिर
भी घोषणा करते रहते हो स्वर्ण होने की। जितना पता चलता है पीतल हो, उतने
ही जोर से चिल्लाते हो कि स्वर्ण हूं। अपने को बचाना तो होता। अहंकार अपनी
सुरक्षा तो करता। इसलिए ज्ञानी से लोग नाराज होते हैं।
महावीर नग्न खड़े हो गए। यह समस्त ज्ञानियों का व्यवहार है—चाहे उन्होंने कपड़े उतारे हों, या न उतारे हों, लेकिन समस्त ज्ञानी नग्न खड़े हो जाते हैं। जैसे हैं वैसे खड़े हो जाते हैं—बालवत, स्वाभाविक।
'जो जानी स्वभाव से व्यवहार में भी लोकवत व्यवहार नहीं करता...।’
जो साधारण स्थितियों में भी भीड़ का आचरण, अंधानुकरण नहीं करता, जिसके होने में एक निजता है, जिसके होने में अपने स्वभाव की एक धारा है, स्वच्छंदता है, जिसका स्वयं का गीत है, जो तुम्हारे अनुसार अपने को नहीं डालता।
अब तुम जरा देखो, तुम्हारे मुनि हैं, तुम्हारे महात्मा हैं, वे तुम्हारे अनुसार अपने को डाले बैठे हैं। इसलिए तुम उनकी पूजा कर रहे हो। तुमने महावीर की पूजा नहीं की, महावीर
को पत्थर मारे और जैन मुनि की पूजा कर रहे हो। क्योंकि महावीर ने तुम्हारे
अनुसार अपने व्यवहार को नहीं डाला। महावीर ने तो अपनी उदघोषणा की। जैसे थे
वैसी उदघोषणा की। वे तुम्हें न रुचे लेकिन तुम्हारा जैन मुनि तुम्हें
रुचता है। क्योंकि वह तुम्हारा अनुयायी है। तुम जैसा कहते हो वैसा व्यवहार
करता है। तुम कहते हो मुंह पर पट्टी बांधो तो मुंह पर पट्टी बांध कर बैठ
जाता है; चाहे सर्कसी मालूम पड़े लेकिन मुंह पर पट्टी बांध कर बैठ जाता है। तुम जैसा कहते हो वैसा उठता, वैसा बैठता, वैसा चलता। वह बिलकुल आज्ञाकारी है। इतने आज्ञाकारी व्यक्तियों को तुम पूजा न दो तो किसको पूजा दो?
उनका व्यवहार लोकवत है, स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक होने का तो अर्थ हुआ क्रांतिकारी। स्वभाव तो सदा विद्रोही है। स्वभाव का तो अर्थ हुआ कि जैसी मौज होगी, जैसा भीतर का भाव होगा, जैसी लहर होगी। स्वाभाविक आदमी तो लहरी होता है। उसके ऊपर कोई आचरण के बंधन और मर्यादाएं नहीं होतीं।
इसीलिए तो राम को तुम याद करते हो, कृष्ण को हटा कर रखा है। कृष्ण का व्यवहार स्वाभाविक है, राम
का व्यवहार मर्यादा का है। राम हैं मर्यादा—पुरुषोत्तम। कृष्ण का व्यवहार
बड़ा भिन्न है। कृष्ण का व्यवहार अनूठा है। कोई मर्यादा नहीं है, अमर्याद है। कृष्ण स्वच्छंद हैं। तो राम ज्यादा से ज्यादा सज्जन। संतत्व तो कृष्य में प्रकट हुआ है। राम ज्यादा से ज्यादा लोकमान्य, क्योंकि लोकवत। कृष्ण लोकमान्य कभी नहीं हो सकते।
जो
लोग उन्हें लोकमान्य बनाने की कोशिश करते हैं वे भी उनमें कांट—छांट कर
लेते हैं। उतना ही बचा लेते हैं जितना ठीक। जैसे सूरदास हमेशा उनके बचपन के
गीत गाते हैं, उनकी जवानी के नहीं। क्योंकि बचपन में ठीक है कि तुमने मटकी फोड़ दी, बचपन में ठीक है कि तुमने शैतानी की। लेकिन सूरदास को भी अड़चन मालूम होती है, जवान कृष्ण ने जो मटकियां फोडी उन पर जरा अड़चन मालूम होती है। कि स्त्रियों के वस्त्र लेकर झाडू पर बैठ गए, इसमें जरा अड़चन मालूम होती है।
महात्मा
गांधी गीता के कृष्ण की बात करते हैं लेकिन भागवत के कृष्ण की बात नहीं
करते। क्योंकि भागवत का कृष्ण तो खतरनाक है। गीता के कृष्ण में तो कृष्य
कुछ है ही नहीं, सिर्फ बातचीत है। कृष्ण के आचरण के संबंध में तो कुछ भी नहीं है। कृष्ण का वक्तव्य है गीता, कृष्ण
का जीवन नहीं है। कृष्ण का जीवन तो भागवत है। गीता में तो बड़ी आसानी है।
लेकिन वहां भी लीपा—पोती करनी पड़ती है। वहां भी गांधी को कहना पड़ता है, युद्ध सच्चा नहीं है, काल्पनिक है। यह जो युद्ध हो रहा है, कौरव—पांडव के बीच नहीं है, बुराई और भलाई के बीच हो रहा है। इतनी उनको कहनी ही पड़ती बात, क्योंकि वे अहिंसक। युद्ध हो रहा है और अगर युद्ध असली है, और कृष्ण अगर असली युद्ध करवा रहे हैं तो पाप हो रहा है।
कृष्ण कोई मर्यादा नहीं मानते। अहिंसा की मर्यादा नहीं, समाज की मर्यादा नहीं, कोई मर्यादा नहीं मानते। जीवन की परम स्वतंत्रता और जीवन जैसा हो वैसा ही होने देने का अपूर्व साहस...।
नहीं, कृष्ण छोटे—मोटे ढांचे में नहीं डाले जा सकते। अड़चन है। इसलिए राम भाते हैं।
गांधी कहते थे कि गीता मेरी माता है, लेकिन मरते वक्त जो नाम निकला, मुंह से निकला, 'हे राम!' कृष्ण कहीं गहरे गए नहीं। मरते वक्त वही निकला जो भीतर गहरे था। राम की याद आई।
इसे खयाल रखना।
'जो ज्ञानी व्यवहार में भी स्वाभाविक है और लोकवत व्यवहार नहीं करता और महासरोवर की तरह क्लेशरहित है वही शोभता है।’
अब यह महासरोवर की तरह क्लेशरहित, इसका मतलब समझो। महासरोवर को कभी तुमने लहरों से शात देखा? महासरोवर का मतबल होता है सागर। सागर को तुमने कभी शांत देखा? वहां तो लहरें उठती हैं, उमा लहरें उठती हैं। लहरें ही लहरें उठती हैं। सागर कोई झील थोड़े ही है, कोई स्विमिंग पूल थोड़े ही है। सागर तो सागर है, महासागर है। जितना बड़ा सागर है उतनी बड़ी उतुंग लहरें हैं। आकाश छूनेवाली लहरें उठती हैं। अब यह वाक्य बड़ा अदभुत है.
महाहृद इवाक्षोभ्य: गतक्लेश: सुशोभते।
और जैसा महासागर क्षोभरहित है ऐसा ही ज्ञानी है।
क्या मतलब हुआ इसका? महासागर
तो सदा ही लहरों से भरा है। अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि लहरों से खाली
होकर जो क्षोभरहित हो जाना है वह भी कोई क्षोभरहितता है? लहरें उठ रही हैं और फिर भी शाति अखंडित है। संसार में खड़े हैं और संन्यास अखंडित है। जल में कमलवत। सागर लहरों से भरा है, लेकिन क्षुब्ध थोड़े ही है! जरा भी क्षुब्ध नहीं है, परम अपूर्व शांति में है। तुम्हें शायद लगता हो किनारे पर खड़े होकर कि क्षुब्ध है। वह तुम्हारी गलती है। वह सागर का वक्तव्य नहीं है, वह
तुम्हारी व्याख्या है। सागर तो परम शांत है। ये लहरें उसकी शांति की ही
लहरें हैं। इन लहरों में भी शांत है। इन लहरों के पीछे भी अपूर्व अखंड
गहराई है। ये लहरें उसकी शांति के विपरीत नहीं हैं। इन लहरों का शांति में
समन्वय है।
जीवन
वहीं गहरा होता है जहां विरोधी को भी आत्मसात कर लेता है। इसे खूब खयाल
में रखना। जहां विरोध छूट जाता है वहा जीवन अपंग हो जाता है। जहां विरोध कट
जाता है वहा जीवन दुर्बल हो जाता है। जहां विरोध को तुम बिलकुल अलग काट कर
फेंक देते हो वहीं तुम दरिद्र और दीन हो जाते हो। जीवन की महत्ता, जीवन का सौरभ, जीवन की समृद्धि विरोध में है। जहां विरोधों की मौजूदगी में संगीत पैदा होता है, बस वहीं।
विपरीत से भागना मत, विपरीत का अतिक्रमण करना। भगोड़े मत बनना। सागर अगर लहरों से भाग जाए तो क्या होगा? जा सकता है भाग कर हिमालय। जम जाए बर्फ की तरह, फिर लहरें नहीं उठतीं। बर्फ की तरह जमा हुआ तुम्हारा संन्यास अब तक रहा है। बर्फ की तरह जमा हुआ, मुर्दा। कोई गति नहीं, कोई तरंग नहीं, कोई संगीत नहीं। ठंडा। कोई ऊष्मा नहीं, कोई प्रेम नहीं। निर्जीव!
होना
चाहिए महासागर की तरह तुम्हारा संन्यास। नाचता हुआ! आकाश को छूने की
अभीप्सा से भरा। उत्तुंग लहरोंवाला और फिर भी शांत। इसलिए यह अदभुत वचन है।
'मूढ़ पुरुष का वैराग्य विशेष कर परिग्रह में देखा जाता है। लेकिन देह में गलित हो गई है आशा जिसकी, ऐसे जानी को कहां राग है, कहां वैराग्य!'
यह सूत्र भी बड़ा अनूठा है।
परिग्रहेषु वैराग्य प्रायो मूढ्स्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्य राग: क्य विरागता।।
अनूठा है सूत्र।
परिग्रहेषु वैराग्य प्रायो मूढ्स्य दृश्यते।
'मूढ़ का जो वैराग्य है वह परिग्रहकेंद्रित होता है।’
समझो। मूड का जो वैराग्य है वह परिग्रह से ही निकलता है, परिग्रह के विपरीत निकलता है। वह कहता है, धन छोड़ो। पहले धन पकड़ता था, अब कहता है धन छोड़ो। मगर धन पर नजर अटकी है। पहले दीवाना था, कांचन.. .कांचन.. .कांचन। सोना.. .सोना.. .सोना.. .सोना। सोने में सोया था। अब कहता है, जाग गया हूं लेकिन अब भी सोने की ही बातें करता है। कहता है सोना छोड़ो, कांचन
छोड़ो। यह छोड़ने में भी पकड़ जारी है। अभी छूटी नहीं है बात। यह कहता है
सोना मिट्टी। लेकिन अगर मिट्टी ही है तो मिट्टी को क्यों मिट्टी नहीं कहते? सोने को क्यों? बात खतम हो गई।
मैंने सुना है, महाराष्ट्र की बड़ी प्राचीन कथा है सका—बांका की। सका ठीक वैसा ही रहा होगा, जिसका संन्यास परिग्रह के विपरीत निकला। तो वह लकड़ियां काटता, बेचता, उससे जो मिल जाता उससे भोजन कर लेता। सांझ जो बचता वह बांट देता, रात
घर में न रखता। परम त्यागी। लेकिन एक बार बेमौसम वर्षा हो गई। तीन चार दिन
वर्षा होती रही। जंगल न जा सका। भूखे रहना पड़ा। उसकी पत्नी बांका, वे दोनों भूखे रहे। चौथे दिन गए जंगल, लकड़ियां काट कर आता था सका आगे—आगे लकड़ियां लिए, पीछे पत्नी भी लकड़ियां ढो रही है। देखा, राह के किनारे एक अशर्फियों से भरी थैली पड़ी है। जल्दी से लकड़ियां नीचे पटकीं, थैली को गड्डे में डाला, ऊपर से मिट्टी डाल दी।
जब वह मिट्टी डाल ही रहा था, डालने को चुक ही रहा था काम पूरा करके कि उसकी पत्नी आ गई। उसने पूछा क्या करते हो? तो कसम तो खाई थी सच बोलने की। झूठ बोल नहीं सकता था। तो उसने कहा, बड़ी
मुश्किल हो गई। यह आचरण ऊपर से आरोपित होता तो ऐसी मुश्किल आती। कसम खाई
थी सत्य बोलने की तो असत्य तो बोल नहीं सकता। तो कहा कि अब सुन। मैं चलता
था तो देखा अशर्फियां पड़ी हैं। किसी राहगीर की गिर गई होंगी। उनको गड्डे
में डाल कर मिट्टी डाल रहा था कि कहीं तू है—तू ठहरी स्त्री! कहीं तेरा मन
लुभायमान न हो जाए। फिर तीन दिन के भूखे हैं हम। कहीं मन में भाव न आ जाए
कि उठा लें। तुझे बचाने के लिए इनको डाल दिया गड्डे में, मिट्टी ऊपर से फेंक दी।
कहते हैं, बांका हंसने लगी। उसी दिन से उसका नाम बांका हुआ। बांकी औरत रही होगी। हंसने लगी, खूब हंसने लगी। राका बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, बात क्या है? हंसती क्यों हो?
उसने कहा, मैं इसलिए हंसती हूं कि तुम मिट्टी पर मिट्टी डालते हो। मिट्टी पर मिट्टी डालते तुम्हें शर्म नहीं आती?
अब
ये दो दृष्टिकोण हैं। एक है त्यागी। उसका त्याग भी परिग्रहकेंद्रित है।
अभी सोना दिखाई पड़ता है। लाख कहे कि सोना मिट्टी है मगर अभी सोना दिखाई
पड़ता है। मिट्टी कहता ही इसलिए है ताकि जो दिखाई पड़ता है उसको झुठला दे।
अभी सोना पुकारता है। अभी सोना बुलाता है। अभी सोने में निमंत्रण है।
मिट्टी कह—कह कर समझाता है अपने को कि मिट्टी है, कहां चले? मत जाओ, बिलकुल मत जाओ, मिट्टी है। मगर सोना अभी सोना है।
यह जो बाका ने कहा, यह परम त्याग है। यह ठीक संन्यास है। मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती? यह बात ही बेहूदी है।
सोना जैसा है वैसा है। इसके पीछे पागल होना तो पागलपन है ही, इसको छोड़ कर अपना भी पागलपन है। जागना है। जान लेना है।
'मूढ़ पुरुष का वैराग्य विशेषकर परिग्रह में ही केंद्रित होता है।’
जिन चीजों से मूढ़ पुरुष भागता है उन्हीं से घिरा रहता है।
'लेकिन देह में गलित हो गई है आशा जिसकी, ऐसे ज्ञानी को कहां राग है कहां वैराग्य?'
ऐसा
ज्ञानी वीतराग है। वह विरागी नहीं है। विरागी कोई अच्छा शब्द नहीं है वह
रागी के विपरीत शब्द है। और जो रागी के विपरीत है वह राग से अभी बंधा है।
विपरीत सदा बंधा रहता है।
तुमने खयाल किया? मित्र चाहे भूल भी जाएं, दुश्मन नहीं भूलता। दुश्मन से एक बंधन बना रहता है। दुश्मन से भी एक लगाव है, एक कड़ी जुड़ी है। जिससे तुम्हारा विरोध हो उससे तुम्हारी कड़ी जुड़ी है।
अष्टावक्र कहते हैं, जानी को कहां राग कहां वैराग्य! मजा यह है कि संसार से जो भाग जाते हैं उनका संसार समाप्त नहीं होता, नये—नये रूपों में प्रकट होता है। वैराग्य के नाम से प्रकट होता है।
कुम्हलाया देवता तक पहुंच कर भी फूल
रहा अम्लान धूल में गिर कर आ शूल
कभी देखा तुमने? फूल देवता के चरणों में भी चढ़ा दो तो भी कुम्हला जाता है। और शल, कांटा धूल में भी गिर जाए तो भी नहीं कुम्हलाता।
इस
जीवन में हमारी समझदारी फूल जैसी कोमल है। वह देवता के चरणों में भी चढ़ती
है तो भी कुम्हला जाती है। और हमारी नासमझी शल की तरह है। वह धूल में भी
गिर जाती है तो भी नहीं कुम्हलाती; तो भी ताजी बनी रहती है। कांटा वृक्ष से टूट कर कुछ कम कांटा नहीं हो जाता, ज्यादा ही कांटा हो जाता है। फूल वृक्ष से टूट कर कुम्हला जाता है, नष्ट हो जाता है।
हमारी समझदारी बड़ी कोमल, बड़ी
क्षीण। और हमारी नासमझी बड़ी प्रगाढ़। संसार से भी भाग जाते हैं तो भी
नासमझी नहीं छूटती। जारी रहती नये—नये रूपों में नये—नये ढंग में। नये—नये
वेश पहन कर आ जाती है। अंतर नहीं पड़ता।
उसी की नासमझी मिटती है— 'हो गई है देह में गलित आशा जिसकी'। जिसने यह जान लिया कि मैं देह नहीं हूं। जिसने जान लिया कि मैं कौन हूं।
देहे विगलिताशस्य क्य राग: क्य विरागता।
जिसने पहचान लिया कि मैं शरीर नहीं हूं। सब राग, सब विराग शरीर के हैं। राग भी शरीर से होता है, विराग भी शरीर से होता है। तुम स्त्रियों के पीछे पागल थे एक दिन थक गए और तुमने कहा अब तो विराग हो गया।
एक मेरे मित्र हैं, एक दिन आए और कहने लगे, अब तो संन्यास ले लेना है। मैंने कहा हुआ क्या? उन्होंने कहा, दिवाला निकल गया। दिवाला निकल गया इसलिए संन्यास। यह कोई संन्यास होगा जो दिवाला निकलने से आता है? यह एक स्वाद था अब तक जो बेस्वाद हो गया। अब उसके विपरीत चले। अब दिवाला निकल गया, धन तो बचा नहीं, अब कम से कम विरागी होने का मजा ले लें। अब वैराग्य सही। मगर अंतर नहीं पड़ रहा है।
वीतरागता का अर्थ है, न कोई राग है न कोई वैराग्य है। संतुलित हुए। स्वयं में थिर हुए। ये दोनों दृष्टियां व्यर्थ हैं। अब न संसार में कुछ पकड़ है, न छोड़ने का कोई आग्रह है। रहे संसार, प्रभु—मर्जी। जाए संसार, प्रभु—मर्जी। यह संसार जैसा है वैसा ही रहा आए, ठीक। यह इसी क्षण खो जाए तो भी ठीक।
ज्ञानी अगर अचानक पाए कि सारा संसार खो गया है और वह अकेला ही खड़ा है तो भी चिंता पैदा न होगी कि कहां गया, क्या हुआ? उसके लिए तो वह कभी का जा चुका था। यह संसार और बड़ा हो जाए, हजार गुना हो जाए तो भी उसे कोई अंतर न पड़ेगा। जिसका संबंध टूट चुका देह से, हो गई गलित जिसकी आशा देह में, अब उसके लिए कोई अंतर नहीं पड़ता।
'मूढ़
पुरुष की दृष्टि सदा भावना और अभावना में लगी है लेकिन स्वस्थ पुरुष की
दृष्टि भाव्य और अभावना से युक्त होकर भी दृश्य के दर्शन से रहित रूपवाली
होती है।’
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढ्स्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थयादृष्टिरूपिणी।।
यह सूत्र भी महत्वपूर्ण है।
मूढ़ पुरुष की दृष्टि सदा ऐसा कर लूं वैसा कर लूं ऐसा हो, वैसा हो, यह प्रीतिकर है, यह अप्रीतिकर है, इसमें मेरा राग है, इसमें विराग है, ऐसे चुनाव में पड़ी है। इसके मैं पक्ष में हूं इसके विपक्ष में हूं ऐसे द्वंद्व में उलझी है। भावना और अभावना में लगी है।
कभी कहता है धन में मेरा भाव है, कभी कहता है, धन से मेरा भाव चुक गया। कभी कहता है धन में आकर्षण है, कभी
कहता है धन में मेरा विकर्षण पैदा हो गया है। लेकिन विकर्षण आकर्षण ही है
शीर्षासन करता हुआ। कुछ फर्क नहीं हुआ— भावना या अभावना।
'लेकिन स्वस्थ पुरुष की दृष्टि भाव्य और अभावना से युक्त होकर भी दृश्य के दर्शन से रहित रूपवाली होती है।’
वह जो स्वस्थ पुरुष है— और स्वस्थ का अर्थ है, जो स्वयं में स्थित है। जो स्वस्थ पुरुष है, जो अपने घर आ गया, अपने केंद्र पर आ गया, जो अपने स्वयं के सिंहासन पर विराजमान हो गया, स्वभावात् हो गया, स्वभावात्—जो आ गया स्वभाव में, ऐसा पुरुष भाव्य और अभावन से युक्त होकर भी...।
इसका यह मतलब नहीं 'है कि ऐसे पुरुष के सामने तुम थाली में पत्थर रख दोगे तो वह पत्थर खाने लगेगा, क्योंकि
अब उसे कुछ अंतर नहीं रहा। ऐसा पागलपन मत समझ लेना। कुछ लोगों को यह भी
भ्रांति चढ़ी हुई है कि परमहंस का यही अर्थ होता है कि उनको कुछ भेद ही न
रहा।
इस सूत्र को समझो। कि वह गंदगी भी रख दो उनकी थाली में तो उन्हें कोई अंतर नहीं है। कि उसी थाली में वे भोजन कर रहे हैं, उसी में कुत्ता भी आकर भोजन करने लगे, तो
उन्हें कुछ भेद नहीं है। ऐसा लोगों को परमहंस के संबंध में खयाल है। और इस
खयाल के कारण कई नासमझ इस तरह के परमहंस भी हो जाते हैं।
जिस चीज को आदर मिलता है, आदमी
वही हो जाता है। इसका भी अभ्यास कर लो तो यह भी हो जाता है। इसमें भी कोई
अड़चन नहीं है। कोई अड़चन नहीं है। गंदगी की भी आदत डाल लो तो कोई अड़चन नहीं
है।
मैंने सुना है, एक
गांव में एक पगले रईस को सनक सवार हुई। उसके पास एक मकान में बहुत सी
भेड़ें और बकरियां थीं। वहां इतनी बदबू आती थी भेड़ और बकरियों की कि उसने
ऐसे ही मजाक—मजाक में एक दिन अपने मित्रों से गोष्ठी में कह दिया कि जो
व्यक्ति रात भर इस कमरे में रुक जाए उसको मैं एक हजार रुपया दूंगा। कई ने
कोशिश की। एक हजार रुपया कौन छोड़ना चाहे? रात भर की बात है। लेकिन घंटे भर से ज्यादा कोई नहीं टिक सका। बास ही ऐसी थी। भेड़ें और बकरियां! और सालों से वहां रह रही थीं, उनकी
बास बुरी तरह भर गई थी। और अभी भी भेड़ें और बकरियां वहां अंदर थीं। उनके
बीच में आसन लगा कर बैठना.. .कोई परमहंस ही कर सकता है। इतनी बदबू बढ़ जाए
कि सिर भन्नाने लगे और आदमी भाग कर बाहर आ जाए। वह कहे कि भाड़ में जाएं
तुम्हारे हजार रुपये। आखिरी आदमी जो कोशिश कर सका वह एक घंटे तक कर सका।
फिर आया मुल्ला नसरुद्दीन। उसने कहा, एक
मौका मुझे भी दिया जाए। वह जैसे ही अंदर जाकर बैठा कि मालिक भी हैरान हुआ
कि भेड़ें—बकरियां बाहर निकलने लगीं। घंटे भर में तो पूरा कमरा खाली हो गया।
उसने खिड़की से जाकर भी देखा कि यह भगा तो नहीं रहा उनको? बाहर तो नहीं निकाल रहा? लेकिन वह तो अपना पद्यासन जमाए बीच में बैठा था। उसने कुछ गड़बड़ की नहीं थी। उसने हाथ भी नहीं लगाया था। वह बड़ा हैरान हुआ।
कहते हैं, उसने भेड़ों—बकरियों से पूछा कि सुनो भी! कहां भागी जा रही हो? उन्होंने कहा, वह आदमी इतनी भयंकर बदबू फेंक रहा है। कभी जन्मों से नहीं नहाया होगा यह आदमी। अंदर रहना मुश्किल है।
कुछ लोग इसको परमहंस होना समझते हैं। परमहंस होने का यह अर्थ नहीं होता कि पता नहीं चलता कि क्या सही और क्या गलत, क्या सुंदर क्या असुंदर! परमहंस होने का अर्थ अष्टावक्र के इस सूत्र में है।
'लेकिन स्वस्थ पुरुष की दृष्टि भाव्य और अभावन से युक्त होकर भी...।’
वह जानता है—क्या ठीक, क्या गलत; क्या सुंदर, क्या नहीं सुंदर; क्या करने योग्य, क्या नहीं करने योग्य, सब जानता है। लेकिन फिर भी अपने को इनसे भिन्न जानता है। द्रष्टा पर उसका ध्यान होता है, दृश्य पर उसका ध्यान नहीं होता। जानता है क्या भोजन करने योग्य है और क्या भोजन नहीं करने योग्य है, लेकिन
इनमें बंधा नहीं होता। इनके पार अपने स्वयं के होने को जानता है कि मैं
इनसे भिन्न हूं दृश्य से सदा भिन्न हूं ऐसे द्रष्टा में थिर होता है।
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढूस्य सर्वदा।
मूढ़ पुरुष की दृष्टि तो बस इसी में समाप्त हो जाती। मूढ़ पुरुष तो इसी में समाप्त हो जाता है कि यह अच्छा, यह बुरा। इससे अतिरिक्त उसका अपना कोई होना नहीं है। बस, क्या करूं क्या न करूं, क्या पाऊं क्या गवाऊं, इसी
में सब समाप्त हो जाता है। इन दोनों के पार अतिक्रमण करने वाली कोई चैतन्य
की दशा उसके पास नहीं है—कि मैं करने के पार हूं न करने के पार हूं। सुख
के पार हूं दुख के पार हूं। सुंदर के पार हूं असुंदर के पार हूं। ऐसी उसके
पास कोई दृष्टि नहीं है। पार की दृष्टि नहीं है। पारगामी कोई दृष्टि नहीं
है।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थयादृष्टिरूपिणी।
और ज्ञानी जो है, स्वस्थ जो है, उसे भी दिखाई पड़ता है, क्या करने योग्य है, क्या नहीं करने योग्य; क्या चुनने योग्य, क्या
नहीं चुनने योग्य। लेकिन साथ ही साथ इससे गहरे तल पर उसे यह भी दिखाई पड़ता
रहता है कि मैं द्वंद्व के पार हूं। मैं इन दोनों के पार हूं। मेरा होना
बड़ी दूर है। मैं इनसे अछूता हूं अस्पर्शित हूं। मैं द्रष्टा हूं दृश्य
नहीं। दिखाई तो उसे सब पड़ता है लेकिन उसे द्रष्टा भी दिखाई पड़ता है।
तुम्हें सिर्फ दिखाई पड़ती हैं चीजें, तुम स्वयं नहीं दिखाई पड़ते। तुम सब देख लेते हो, अपने से चूक जाते हो। द्रष्टा को सब दिखाई पड़ता और एक नई चीज और दिखाई पड़ती है : स्वयं का होना दिखाई पड़ता है।
तो
ऐसा नहीं है कि परमहंस जो है वह दीवाल में से निकलने की कोशिश करेगा।
क्योंकि उसको क्या भेद दीवाल में और क्या दरवाजे में! ऐसा आदमी मूढ़ है, परमहंस नहीं। और ऐसा अक्सर हुआ है कि पूरब में न मालूम कितने मूढ़ पुरुष पूजे जाते रहे हैं इस आशा में कि वे परमहंस हैं।
मैं जानता हूं मेरे गांव में एक सज्जन थे, उनकी
बड़ी दूर तक ख्याति थी। बड़े दूर—दूर से लोग उनका दर्शन करने आते थे। और मैं
उन्हें बचपन से जानता था। फिर उन जैसा मूढ़ आदमी मैंने दुबारा देखा ही
नहीं। वे बिलकुल छू थे। जिसको जड़बुद्धि कहते हैं वैसे थे। लेकिन लोग उनको
परमहंस मानते थे। दूर—दूर से लोग उनका दर्शन करने आते थे। और लोग बड़े
प्रसन्न होते थे उनका दर्शन करके। वे कुछ ठीक से बोल भी नहीं सकते थे। मूढ़
थे—ईडियट जिसको कहते हैं। अनर्गल कुछ न कुछ उनके मुंह से निकलता था, लोग
उसी में से मतलब निकालते थे कि गुरुदेव ने क्या कहा। मैं उनके पास कई दफे
बैठ कर सुनता रहा। मैं बड़ा हैरान होता कि उन्होंने कुछ कहा ही नहीं। मतलब
निकालने वाले अपना मतलब निकाल लेते। उनको देख कर, उनके सिर हिलाने को देख कर या कुछ उनका हिसाब लगा कर कोई जाकर लाटरी का टिकट खरीद लेता, कोई दाव लगा देता, कोई कुछ कर लेता। और इसमें से कुछ जीत भी जाते, कुछ हार भी जाते। जो हार जाते, वै समझते हमने गलत मतलब लगाया। जो जीत जाते वे कहते, कहो गुरुदेव ने रास्ता बता दिया।
उनकी
लार टपकती रहती। मगर लोग कहते वे परमहंस हैं। अरे उन्हें क्या! वे तो
बालवत हो गए हैं। उसी लार टपकते में लोग उनको चाय पिलाते रहते, वे चाय पीते रहते। लार टपक जाती, वे दूसरे को वह चाय पकड़ा देते, वह पी लेता। वह अमृत का दान। उनसे ठीक से न बोलते बनता, न कुछ। अगर वे पश्चिम में होते तो पागलखाने में होते। पूरब में थे तो परमहंस थे।
इससे
उलटी हालत पश्चिम में हो रही है। पश्चिम में कुछ परमहंस पागलखानों में पड़े
हैं। क्योंकि वहां कोई परमहंस को नहीं मान सकता। वहां परमहंस पागल मालूम
होता है, यहां पागल परमहंस बन जाते हैं।
आज इसके बाबत पश्चिम में चिंता पैदा हो रही है। आर. डी. लैंग नाम के बड़े प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ने बड़ी क्रांतिकारी धारा पैदा की है, कि बहुत पागलखानों में बंद हैं जो पागल नहीं हैं। ही, जो सामान्य नहीं हैं, जिनकी
दृष्टि सामान्य के जरा ऊपर चली गई है वे पागलखानों में डाल दिए गए हैं।
क्योंकि उनकी दृष्टि कुछ ऐसी असामान्य है कि भीड़ उनको मानने को 'राजी नहीं है। वे विक्षिप्त नहीं हैं, वे पूजा के योग्य हैं। वे पागलखानों में पड़े हैं।
आर. डी. लैंग मुझे अपनी किताबें भेजते हैं, तो मैं सोचता हूं कभी न कभी वे यहां आएंगे। आएंगे तो उनको कहूंगा, इससे उलटी बात हम यहां कर चुके हैं। यहां हमने पागलों को परमहंस बना दिया है। दोनों खतरनाक बातें हैं। न तो पागल परमहंस हैं, न परमहंस पागल हैं। पागल पागल हैं, परमहंस परमहंस हैं। ये बड़ी अलग बातें हैं।
परमहंस का अर्थ होता है, जिसे
दिखाई तो सब पड़ता है लेकिन एक और चीज दिखाई पड़ती है जो तुम्हें नहीं दिखाई
पड़ती। उसे दिखाई जिसको पड़ रहा है वह भी दिखाई पड़ता है। उसे द्रष्टा भी
दिखाई पड़ता है। वह जीता है द्रष्टा से। दृश्य में उसकी अब कोई राग—विराग की
दशा नहीं रही।
इसे
स्मरण रखना। एक—एक सूत्र अमूल्य है। अष्टावक्र का एक—एक सूत्र इतना अमूल्य
है कि अगर तुम एक सूत्र को भी जीवन में उतार लो तो परमात्मा तुम्हारे जीवन
में उतर जाएगा। एक सूत्र तुम्हारे जीवन का द्वार खोल सकता है। और तुम्हें
कभी ऊपर—ऊपर से लगेगा कि ये सब सूत्र पुनरुक्ति करते मालूम होते हैं। यह
पुनरुक्ति नहीं है, यह सत्य को सभी तरफ से कह देने की चेष्टा है—सब आयामों से, सब दिशाओं से, ताकि
कहीं भूल—चूक न रह जाए। तुम सब भांति परिचित हो जाओ। सत्य की ठीक—ठीक
धारणा तुम्हारे मन में स्पष्ट हो जाए तो तुम यात्रा पर निकल सकते हो।
जिसे हम खोजने लगते हैं वही मिलता है।
जिसे हम खोजने लगते हैं वही मिल सकता है।
आज इतना ही।
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